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सूत्रस्थान - अ० १२.
नमुपशमनानिवास्यकानि । कथञ्चैनमसङ्घातमनवस्थितमनासाद्य प्रकोपनप्रशमनानिप्रकोपयन्तिप्रशमयन्तिवा कानि चास्यकुपिताकुपितस्यशरीराशरीरचरस्यशरीरेषु चरतः कर्माणि बहिः शरीरेभ्योवेति ॥ १ ॥
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अब हम वातकलाकलीय अध्यायका कथन करते हैं ऐसा भगवान् आत्रेयजी कहने लगे महर्षिलोग एक स्थानमें एकत्रित होकर बैठेहुए वातकलाकलीय अर्थात् वायुको सूक्ष्मविचार करनेका उद्देश्य रखकर परस्पर जानने की इच्छा करते हुए आपसमें इस प्रकार आंदोलन करने लगे कि वायुके क्या गुण हैं इसके प्रकोपका कारण क्या है, और इसकी शांति किस प्रकार होती है । और किस प्रकार इस असंहत और अनवस्थित वायुको प्रकोपकारक द्रव्य प्राप्त होकर प्रकुपित करते हैं । और कैसे शमनकारक शमन करते हैं । जब यह वायु कुपित होकर, अथवा विना शुद्ध हुएही शरीर के भीतर या बाहर विचरती है तब इसकी क्या क्रिया होती है । और शरीर के भीतर रहकर किन कर्मों को करती है तथा शरीरके बाहर रहकर किन कमको करती है ॥ १ ॥
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सांकृत्यायनकुशका मत ।
अत्रोवाच कुशः सांकृत्यायनः । रूक्षलघुशीतदारुणखरविषदाः षडिमेवात गुणाभवन्ति ॥ २ ॥
उन ऋषियोंमें कुश - सांकृत्यायन ऋषि कहनलगे कि वायुमें: रूक्ष, लघु, शीतल, दारुण, खर, विशद, यह छः गुण हैं ॥ २ ॥
भरद्वाजका मत ।
तच्छ्रुत्वा वाक्यंकुमार शिराभरद्वाजउवाच एवमेतद्यथा भगवानाहएतएववातगुणाभवन्ति । सत्वेवंगुणैरेवंद्रव्यैरेवंप्रभावैश्वकर्म्मभिरभ्यस्यमानैवायुःप्रकोपमापद्यते समानगुणाभ्यासो
हिधातूनांवृद्धिकारणमिति ॥ ३ ॥
यह सुनकर " कुमारशिरा भरद्वाज " कहनेलगे जैसे आपने कहा है ठीक वायुमें यही गुण होते हैं वह वायु वैसे ही रूक्षादि गुणयुक्त द्रव्योंसे तथा वैसे ही रूक्षादि प्रभाववाले कर्मों के अभ्याससे कुपित होती है । क्योंकि समानगुणोंवाले द्रव्यों तथा कमका अभ्यास ही धातुओंकी वृद्धिका कारण होता है जैसे 'सर्वदा सर्वभावानां' यह पहले अध्यायमें कहचुके हैं ॥ ३ ॥