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- सूत्रस्थान-अ० ११. (१९) आगन्तुर्भूतविषवाय्वग्निसम्प्रहारादिसमुत्थः । मानसःपुनरिष्टस्यालामाल्लाभाच्चानिष्टस्योपजायते ॥ १९॥" निज अर्थात् शारीरिक, आगंतुक, मानसिक, इन भेदोंसे रोग तीन प्रकारके होतेहैं । उनमें शरीरस्थ वात, पित्त, कफके कारणसे जो व्याधि उत्पन्न हो उसको निज अर्थात् शारीरिक व्याधि कहतेहैं । भूत, विष, वाहरसे आकर लगनेवाला वायु और अग्निप्रहार आदिसे होनेवाली व्याधिको आगंतुक कहतेहैं । इसी प्रकार मनको प्रिय अर्थात् इच्छितपदार्थके न मिलनेसे अप्रिय वस्तुके मिलनेसे जो मनमें, . शोकादिक होतेहैं। उनको मानसिक रोग कहतेहैं ॥ ४९॥
. हितकर्तव्य । तत्रबुद्धिमतामानसव्याधिविपरीतेनापिसताबुद्धयाहिताहि..
तमवेक्ष्यावेक्ष्यधर्मार्थकामानामहितानामनुपसेवनेहिताना: . चोपसेवनेप्रयतितव्यम् ॥१०॥ . मानसिक व्याधिमें अथवा मानसिक व्याधिके विना भी बुद्धिमान्को उचित हैं कि, अपने हित और अहितका विचार कर अहितकारक धर्म अर्थ कामका त्याग और हितकारक धर्म अर्थ कामका सेवन करनेमें यलवान होना चाहिये ॥ ५० ॥ नह्यन्तरेणलोकेत्रयमेतन्मानसंकिञ्चिन्निष्पद्यतेसुखंवादुःखंवा तस्मादेतच्चानुष्ठेयम् । तद्विद्यावृद्धानाञ्चोपसेवनेप्रयतित
व्यम् । आत्मदेशकालवलशक्तिज्ञानेयथावच्चेति ॥५१॥ । क्योंकि इस लोकमें धर्म अर्थ कामके विना कोई भी मानसिक दुःख,सुख नहीं होसकता इसलिये हितकारक धर्म अर्थ कामका सेवन करें। उस धर्मादि विविध पुरुषार्थको हितकर बनानेके लिये योग्य बुद्धिमानों और वृद्धजनोंका सेवन तथा सत्संग करना चाहिये । और आत्मा, देश, काल, वल, शक्ति, इनके यथावत् ज्ञानमें तत्पर रहे अर्थात् इनसे विरुद्ध आचरण न करे ॥ ५१॥ ' भवतिचात्र । मानसंप्रतिभैषज्यंत्रिवर्गस्यान्ववेक्षणम्। तद्वि
द्यसेवाविज्ञानमात्मादीनाञ्चसर्वशइति ॥ ५२ ॥ यहां पर श्लोक है कि-धर्म अर्थ काम इस त्रिवर्गको यथोचित जानकर सेवन करना, और इस त्रिवर्गके ज्ञाता वृद्धजनोंकी सेवा यथा आत्म आदिकके ज्ञानमें तत्पर रहना यह मानसिक व्याधिकी औषधि है ॥ १२ ॥
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