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सूत्रस्थान-अ० १०,
(१११), साध्यासाध्यरोगोंके भेद । ..:. ' सुखसाध्यंमतंसाध्यंकृच्छ्रसाध्यमथापिच । -
द्विविधञ्चाप्यसाध्यस्याद्याप्ययदनुपक्रमम् ॥ १० ॥ साध्य व्याधियें दो प्रकारकी होतीहैं एक साध्य और कृच्छ्रसाध्य । ऐसे ही असाध्य भी दो प्रकारकी होती है जैसे याप्य और अचिकित्स्य ॥ १० ॥
साध्यके अन्य भेद ।। साध्यानांत्रिविधश्वाल्पमध्यमोत्कृष्टतांप्रति।
विकल्पोनत्वसाध्यानांनियतानांविकल्पना ॥११॥ . साध्य रोगोंके और भी तीन भेद कहेहैं जैसे अल्प मध्य, उत्कृष्ट, परंतु असाध्य रोगके भेद नहीं यह प्राणनाशक होताहै । और जो चिकित्सायोग्य हैं उनमें भेद अवश्य होताहै ॥ ११ ॥
सुखसाध्यके लक्षण । हेतवःपूर्वरूपाणिरूपाण्यल्पानियस्यच । नचतुल्यगुणोदृष्यो न दोष प्रकृतिर्भवेत् ॥ १२ ॥ नचकालगुणस्तुल्योनदोषो दुरुपक्रमः । गतिरेकानवत्वञ्चरोगस्योपद्रवोनच ॥ १३ ॥ दोषश्चैक समुत्पत्तौदेहःसर्वोषधक्षमः । चतुष्पादोपपत्तिश्चसुखसाध्यस्यलक्षणम् ॥ १४ ॥ (सुखसाध्यके लक्षण ) जिस व्याधिके हेतु (रोगोत्पादक कारण ) और पूर्वरूप, तथा रूप यह सब अल्पहों और दूष्य, देश, प्रकृति, काल, इनके साथ रोगकी साम्यता न होय । और रोग दुरुपक्रम न हो अर्थात् यत्न करनेयोग्य हो। और रोग एकही गतिवाला हो तथा जो रोग नवीन हो और उपद्रवरहित हो जो एक दोषसे ही उत्पन्न हुआहो। जिस रोगीकी देह सब तरहसे चिकित्साक्रम सहन करसकतीहोता तथा चिकित्साके चारों पाद संपन्न हों । यह जिस रोगमें होंय वह सुखसाध्य जानो ॥ १२ ॥ १३ ॥ १४ ॥
कृच्छ्रसाध्यके लक्षण । निमित्तपूर्वरूपाणीरूपाणामध्यमे बले । कालप्रकृतिदुष्टानां सामान्योऽन्यतमस्यच ॥१५॥ गर्भिणीवृद्धालानांनात्युपद्रवपीडितम् । शस्त्रक्षाराग्निकृत्यानामनवंकृच्छ्रदोषजम् ॥१६॥ .