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भी कगामी (अनारोग भोचित दिनका रोग तथा जिन रोगाभणी, वालक स्वभाव,
९ ११२) चरकसंहिता-भा० टोक। विद्यादेकपथंरोगनातिपूर्णचतुष्पदम् । द्विपथनातिकालंवालच्छ्रसाध्यंद्विदोषजम् ॥ १७ ॥ शेषत्वादायुषोयाप्यमसाध्यं
पथ्यसेवया। लब्ध्वाल्पसुखमल्पेनहेतुनाशप्रवर्तकम् ॥१८॥ : जिस व्याधि निमित्त, पूर्वरूप, रूप,यह मध्यम बलवाले हों और समय, स्वभाव,
और दूष्य (रसरक्तादि ) इनके साथ रोगकी तुल्यता होय। गर्मिी , वालंक, वृद्ध, . इनके रोग, और जिनमें बहुत बढेहुए उपद्रव नहीं तथा जिन. रोगोंमें शस्त्र, क्षार, आग्नि इनका प्रयोग करनापडे, और बहुत दिनका रोग; यह सब कष्टसाध्य होतेहैं । एक दोषज और एकमार्गी रोग भी चिकित्साके चार पादोंके बिना कष्टसाध्य होताहै। दिमार्गगामी (ऊर्ध्वगामी और : अधोगामी ) शीघ्र प्रगटहुआ तथा विदोषज रोग भी कष्टसाध्य होताहै ॥ १५॥ १६ ॥ १७॥ यदि आयुबल वाकी हो तो असाव्य रोगर्भ भी पथ्य आदि सेवनसे कुछ समय व्यतीत होजाताहै: और 'वह रोग कुछ दबासा रहताहै ऐसे रोगको याप्य कहतेहैं । इस रोगमें थोडासा कुपथ्य करनेसे भी यह रोग बढजाताहै जैसे पुराना अर्श और श्वास ॥ १८ ॥ . .....
विदोषज तथा कष्टसाध्य व्याधिके लक्षणं । ...... ... गम्भीरबहुधातुस्थमर्मसन्धिसमाश्रितम् । नित्यानुशायिनं रोगंदीर्घकालमवस्थितम् ॥ १९ ॥ विद्याद्विदोषजंतद्वत्प्रत्याख्येयंत्रिदोषजम् । क्रियापथमतिकान्तंसर्वमार्गानुसारिणम् । ॥२० औत्सुक्यारतिसंमोहकरमिन्द्रियनाशनम् । दुर्बलस्य सुसंवृद्धव्याधिसारिष्टमेवच ॥ २१ ॥ .... (असाध्य ) जो रोग गंभीर हो, वहुत- धातुमि स्थित हो, मर्मस्थान और सधियोंमे पहुंचाहुआ होय, जिसमें नित्य उपद्रव बढतहों ऐसा द्विदोषज अथवा त्रिदोषज रोग जबाव देनेयोग्य होताहै अर्थात् यत्नकरनेयोग्य नहीं । जव व्याधि चिकित्सायोग्य न रहीहो। संपूर्णमार्गगामी होगईहो । और रोगीके शरीरमें व्यग्रता (घबराहट) बीमारी अशक्ति और मोह उत्पन्न होय तथा इंद्रियोंकी शक्ति नष्ट होगईहो तथा दुर्बल मनुष्यकी वढीहुई. और मरणयामक व्याधिका यत्न करना .. उचित नहीं वह रोग असाध्य होतेहैं ॥ १९ ॥ २० ॥२१॥ .....
वैद्यको शिक्षा। 1. भिषजाप्रापरीक्ष्यवेविकाराणांसुलक्षणम् । पश्चात्कार्यस
मारम्भःकार्यःसाध्येषुधीमता ॥ २२॥ साध्यासाध्यविभाग