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चरकसंहिता-भा० टी०। वृत न हो और अपने ठीक स्वभाव, रहें उस योगका अनुसरण करना चाहिये ॥ १३ ॥ १४ ॥
प्रकृति स्थिर रखनके हेतु । तद्यथासात्म्येन्द्रियार्थसंयोगेनवुद्धयातम्यगवेक्ष्यावेक्ष्यकर्मणां सम्यक्प्रतिपादनेनदेशकालात्मगुणाविपरीतोपसेवनेनचेति॥ तस्मादात्महितंचिकीर्पतासर्वणसर्वसर्वदास्मृतिमास्थायसदृत्तमनुष्टेयम्। तद्धयनुष्ठानयुगपत्सम्पादयत्यर्थद्वयमारोग्यामिन्द्रियविजयश्चेति ॥ १५॥ इन नीचे कहेहुए हेतुओंसे असात्म्य विषयोंका सेवन न करना, और आत्माके अनूकूल अर्थाका सेवन करना, इस लिये आत्महितच्छावालेको सव कार्याको विचारपूर्वक देश, काल, और आत्माके अनूकूल जानकर सेवन करना चाहिये सत्कायोंका सेवन करे । ऐसा करनेसे आरोग्यताका लाभ और इन्द्रियोंका बल टीक रहसकताहै ॥ १५ ॥
___ सेवनयोग्य सत्कार्योंका वर्णन । तत् सद्वृत्तमखिलेनोपदेक्ष्यामः । तद्यथा ॥ देवगोब्राह्मणगुरुवृद्धसिद्धाचार्यानर्चयेत् । अग्निमनुचरेत् । ओषधीःप्रशस्ताधारयेत् ॥ द्वौकालावुपस्पृशेत्॥ मलायतनेष्वभीक्ष्णंपादयोश्चवैसल्यमादध्यात् । त्रिपक्षास्यकेशश्मश्रुलोमनखान्संहारयेत् । नित्यमनुपहतवासाःसुगन्धिः स्यात् ।। १६॥
सो अव हम उसी संपूर्ण सवृत्तका कथन करतेहैं वह ऐसा है कि देवता, गौ, ब्राह्मण, गुरु, वृद्धपुरुष, सिद्ध, आचार्य, इनका पूजन करे । अग्निम हवन करे । पवित्र उत्तम औषधियोंको धारण करे । प्रातःकाल और सायंकाल जलसे आचमन
आदि करे ( संध्या करे ) मलमार्ग और हाथ पांवोंको पवित्र रखना चाहिये, एक पसम ( १५ दिनमें ) तीन वारं क्षारकर्म दाढी नख आदि ठीक कगवे मैले और फटे बचोका न पहने । मनको प्रसन्न रक्खे । उत्तम सुगंधीको धारण करें ॥ १६ ॥
साधुवेशःप्रसाधितकेशोमूर्द्धश्रोत्रपादतैलनित्योधूमपःपूर्वाभिभापीसुमुखः । दुर्गप्वभ्युपपत्ताहोतायष्टादाताचतुप्पथानांनमस्कत्तीवलीनामुपहर्ताऽतिथीनांपूजकःपितॄणांपिण्डदःकाले