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सूत्रस्थान - अ० ९
( १०५)
हाथमें होनेसे दोषकारक (दुःखदायक ) होताहै । जल उत्तम पात्रमें शुद्ध और उत्तम होता है, मलिन पात्रमें निंदनीय होता है अथवा यों कहिये नीममें जानेसे कडुआ और इक्षुम मीठा होता है इसी प्रकार शास्त्र भी बुद्धिके आधार पर है । इसलिये वैद्यको निर्मल ( उत्तम ) बुद्धिकी आवश्यकता है ॥ १८ ॥
वैद्यके षड्गुण ।
'विद्यावितक विज्ञानंस्मृतिस्तत्परताक्रिया । यस्यैतेषड्गुणास्तस्यनसाध्यमतिवर्त्तते ॥ १९ ॥
जिस वैद्य - विद्या, युक्ति, विज्ञान, स्मृति, तत्परता ( दत्तचित्तता ) और क्रियाकुशल होना, यह छः गुण विद्यमान हैं उस वैद्यको कोई भी रोग असाध्य नहीं होता ॥ १९ ॥
वैद्यको निष्पत्ति | विद्यामतिः कर्मदृष्टिरभ्यासः सिद्धिराश्रयः । वैद्यशब्दाभिनिष्पत्तौ बलमे ककमप्यदः ॥ २० ॥
विद्या, बुद्धि, वैद्यकार्य में बहुत दृष्टि, अभ्यास, सिद्धि, आश्रय, इनमें से एक एक गुण पूर्ण होना भी वैद्यशब्दकी निष्पत्तिके लिये हो सकता है यदि संपूर्ण अर्थात् छः गुण हों तो फिर कहना ही क्या है अर्थात् बहुत ही अच्छा है ॥ २० ॥
सुखदाता वैद्यके लक्षण ।
-यस्य त्वेते गुणाः सर्वे सन्तिविद्यादयः शुभाः ।
सवैद्यशब्दं सद्भतमनुप्राणिसुखप्रदः ॥ २१ ॥
जिस वैद्यमें यह सब गुण हैं वही वैद्य संमानके योग्य और सबको सुख देनेवाला होता है ॥ २१ ॥
दोषोंसे वचनेका उपाय । शास्त्रंज्योतिः प्रकाशार्थदर्शनं बुद्धिरात्मनः ।
ताभ्यांभिषक्सुयुक्ताभ्यां चिकित्सन्नापराध्यति ॥ २२ ॥
शास्त्र सूर्यकी समान सब वस्तुओं और रोग द्रव्यादिकोंमें प्रकाशकारक है और इसके प्रकाशमें नेत्रोंकी समान सब वस्तुओंको देखनेवाली अपनी बुद्धि है । इसलिये जो वैद्य शास्त्र और बुद्धि के संयोगसे अर्थात् शास्त्र और बुद्धि इन दोनोंको मिलाकर काम लेता है वह चिकित्सा करने में दोषका भागी नहीं होता अर्थात् शको प्राप्त होता है || २२ ॥
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