________________
. (१०३ )
सूत्रस्थान - अ० ९.
१६ गुणों में वैद्यकी प्रधानता ।
कारणंषोडशगुणंसिद्धौपादचतुष्टयम् । विज्ञाताशासितायोक्ताप्रधानंभिषगत्रतु ॥ ८ ॥
. बैद्य आदि चार पादोंका जो चतुष्टय है अर्थात् सोलह गुण सम्पन्न होने से रोगों आरोग्य होता है । इन सबमें ज्ञाता, उपदेश करता, औषधि आदिके क्रमको बताकर आरोग्यकारक पथपर चलानेवाला होनेसे वैद्य प्रधान होता है ॥ ८ ॥ पक्तौहिकारणंपक्तुर्यथापात्रेन्धनानलाः। विजेतुर्विजयेभमिश्चमः प्रहरणानिच ॥ ९ ॥ आतुराद्यस्तथासिद्धौपादाः कारणसंज्ञिताः । वैद्यस्यातश्चिकित्सायां प्रधानं कारणभिषक् ॥ १० ॥ जैसे भोजन बनाने में वर्तन, लकडी, अग्नि आदि अन्य पाकके कारण होनेपर भीं वनानेवाला ही मुख्य मानाजाताहै । और विजयमें भूमि, सेना, अस्त्र शस्त्र आदि विजय के कारण होते हुए भी सेनापति ही मुख्य माना जाता है । ऐसे ही आरोग्य करनेमें रोगी, परिचारक, औषध, इनके कारण होनेपर भी वैद्यको ही प्रधान कारण समझना चाहिये ॥ ९ ॥ १० ॥
मृद्दण्डचक्रसूत्राद्याः कुम्भकारादृतेयथा । नावहन्तिगुणंवैद्या
पादत्रयं तथा ॥ ११ ॥
जैसे घट आदि मट्टीका पात्र वनाते समय मट्टी, दंड, चक्र, सूतका डोरा आदि संव होते हुए भी कुम्हारके विना घडा नहीं बना सकते । ऐसेही वैद्यके विना सेवक, औषध, रोगी, आरोग्यता प्राप्त नहीं करसकते ॥ ११ ॥ रोगों में वैद्यको कारणता ।
गन्धव पुरवन्नाशंयद्विकाराः सुदारुणाः । यान्तियच्चेतरेवृद्धिमा - शूपाय तीक्षणः ॥ १२ सतिपादत्रयेज्ञाज्ञाभिषजावत्रकारणम् । वरमात्माहुतोज्ञेनन चिकित्साप्रवर्त्तिता ॥ १३ ॥
रोगी, औषध, और परिचारक, यह चिकित्साके तीन पाद होतेहुए भी इन्द्रजाल के समान जो रोग शीघ्र निवृत्त होजाता है अथवा ठीक उपाय न होनेसे वढजाता है इसमें भी सर्वज्ञ अथवा अज्ञ वैद्यको ही कारण मानना चाहिये अर्थात् अन्य पादत्रय होनेपर भी वैद्य अच्छा होनेसे रोगका नाश और वैद्यके मूर्ख होनेसे रोगकी वृद्धि होती है । इसीसे कहते हैं कि अपने आप मरजाना अच्छा है परन्तु मूर्खसे चिकित्सा कराना अच्छा नहीं ॥ १२ ॥ १३ ॥