________________
सूत्रस्थान - अ० ९.
( १०१)
तस्मादवृत्तमनुष्ठेयमिदं सर्वेण सर्वदा ॥ ३५ ॥ यच्चान्यदपिक- ञ्चित्स्यादनुक्तमिहपूजितम् । वृत्तंतदपिचात्रेयः सदैवाभ्यनुमन्यते ॥ ३६ ॥
इति स्वस्थवृत्तचतुष्कः ॥ अग्निवेशकृतेतन्त्रेचरकप्रतिसंस्कृते इन्द्रियोपक्रमणीयोऽष्टमोध्यायः ॥ ८ ॥
अब अध्यायका उपसंहार करते हैं। इस इन्द्रियोपक्रमणीय अध्याय में पांच पंचक सन, हेतुचतुष्टय, संपूर्ण सद्वृत्त, स्वास्थ्यरक्षा, भले प्रकार कहे गये हैं । इनका जो मनुष्य अनुसरण करेगा वह रोगरहित, शतायु, साधुसम्मत, यशस्वी - मनुष्यलोकको अपनी शोभासे परिपूर्ण करनेवाला होगा । सब लोग उसको धर्मात्मा कहकर उससे मित्रभाव करेंगे । वह पुण्यकर्मा सव मनुष्योंसे उत्तम लोकोंको प्राप्त होता है। इसलिये यह सद्वृत्त सबको ही ग्रहण करना चाहिये। जो इस अध्याय में कहने से रहेहुए सदाचरण हों महात्मा आत्रेयजीने उनकी भी प्रशंसा की है । ३२-३६ ॥
इति श्रीमहर्षिचरकप्रणीतायुर्वेदसंहितायां पटियाला राज्यान्तर्गतटकसालनिवासिवैद्य - पश्चानन वैद्यरत्न पं० रामप्रसाद वद्योपाध्यायविरचितप्रसादन्याख्यभाषाटीकायामिंद्रियोपक्रमणीयो नामाष्टमोध्यायः ॥ ८ ॥
नवमोऽध्यायः ।
अथातःखुड्डाकचतुष्पादमध्यायं व्याख्यास्यामः । इतिहस्माहभगवानात्रेयः ॥
अव हम खुड्डाक चतुष्पाद नामके अध्यायका व्याख्यान करेंगे । रेसा भगवान् माजी कहने लगे ।
चिकित्सा के चार पाद ।
भिषगद्रव्याण्युपस्थातारोगीपादचतुष्टयम् । गुणवत्कारणंज्ञेयं विकारव्युपशांतये ॥ १ ॥
वैद्य, औषधी, परिचारक, और रोगी यह चिकित्साके चार पाद हैं यदि यह चारों यथोचित गुणोंवाले हों तो रोगोंकी शांति अवश्य होजाती है ॥ १ ॥
विकार और स्वास्थ्यका लक्षण ।
विकारोधातुवैषम्यं साम्यंप्रकृतिरुच्यते । BVCL सुखसंज्ञकमारोग्यंविकारोदुःखमेवच ॥
04047
615.536 C37C(H)