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चरकसंहिता - भा० टी० ।
airat धातुओं और वातादिदोषों में विषमता ( यथोचित न होना ) विकार अर्थात् रोग कहा जाता है। और इनका ठीक होना आरोग्यता कहाँ है । सो आरोग्यताको सुख कहते हैं । रोगको दुःख कहते हैं ॥ २ ॥
चिकित्सा ल० । चतुर्णाभिषगादीनांशस्तानां चातुवैकते ।
प्रवृत्तिर्धातुसाम्यार्थाचिकित्सेत्यभिधीयते ॥ ३ ॥
धातुदोष आदिकी विकृतिमें उनको ठीक अर्थात् साम्यावस्थामें करने के लिये वैद्य आदि चारों पादोंकी जो योग्यतासे प्रवृत्ति है वह चिकित्सा कही जाती है ॥ ३ ॥ वैद्यके चार गुण | श्रुतेपर्यवदातृत्वं बहुशो दृष्टकर्मता ।
दाक्ष्यशौचमितिज्ञेयंवैद्ये गुणचतुष्टयम् ॥ ४ ॥
शास्त्रको अच्छी तरह से जाननेवाला, दूरदर्शी, ( रोगादिमें भविष्यत्को जानने, बाला) क्रियामें कुशल, शुद्धता, यह वैद्यके चार गुण हैं ॥ ४ ॥
औषधिगुण चतुष्टय | बहुतातत्र योग्यत्वमनेकविधकल्पना । सम्पच्चेतिचतुष्कोऽयं द्रव्याणां गुणउच्यते ॥ ५ ॥
अच्छे गुणयुक्त, रोके अनुसार, अनेक प्रकारसे कल्पनापूर्वक प्रयोग, और कीडे आदिसे रहित नवीन होना, यह चार गुण औषधक कहे हैं ॥ ५ ॥
सेवक के चार गुण !
उपचारज्ञतादाक्ष्यमनुरागश्चभर्त्तरि । शौचञ्चेतिचतुष्कोऽयगुणः परिचरेजने ॥ ६ ॥
प्रेमसे सेवा करना, सब कार्यका जाननेवाला होता, चतुरता, स्वामीका भक्त होना, यह चार गुण परिचारक (सेवक ) के होने चाहिये ॥ ६ ॥
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रोगीके चार गुण । स्मृतिनिर्देशकारित्वमभीरुत्वमथापि च । . ज्ञापकत्वञ्चरोगाणामातुरस्यगुणाः स्मृताः ॥ ७ ॥
स्मरण रखना, वैद्यकी आज्ञामें चलना, निर्भय होना ( घबरानेवाला न होना ) अपने रोगोंको यथार्थ कहना यह चार गुण रोग के कहे हैं ॥ ७ ॥