________________
(१०७)
सूत्रस्थान-अ० १०. दशमोऽध्यायः ।
अथातोमहाचतुष्पादमध्यायंव्याख्यास्यामः।
इतिहस्माह भगवानात्रेयः॥ __ अब हम महाचतुष्पाद नामक अध्यायकी व्याख्या करतेहैं। ऐसा आत्रेय भगवान् कहने लगे।
औषधसे आरोग्यलाभ। चतुष्पादंषोडशकलंभेषजमितिभिषजोभाषन्ते । यदुक्तंपूर्वाध्यायेषोडशगुणमितितद्भेषजम् । युक्तियुक्तमलमारोग्यायेति
भगवान्पुनर्वसुरात्रेयः १ वैद्य जन षोडशकलासंपन्न चतुष्पादको ही औषध अर्थात् चिकित्सा मानतेहैं । सो षोडशगुणंसपन्न चिकित्सा इससे पहले अध्यायमें कह आए हैं, वह युक्तियुक्त चिकित्सा आरोग्यताप्राप्तिके लिये बहुत है ऐसा भगवान् पुनर्वमुजीने कथन किया ॥१॥
उक्तविषयमें मैत्रेयका प्रतिवाद । नेतिमैत्रेयार्किकारणंदृश्यन्तेह्यातुराः केचिदुपकरणवन्तश्चपरिचारकसम्पन्नाश्चात्मवन्तश्चकुशलैश्चभिषम्भिरनुष्ठिताःससुत्तिष्ठमानास्तथायुक्ताश्चापरेम्रियमाणास्तस्माद्भेषजमकिञ्चि
करं भवति ॥ २॥ यह सुनकर मैत्रेयजी कहनेलगे ऐसा नहीं होता क्योंकि हमने देखा है कि बहुतसे रोगी तो योग्य औषध, उत्तम सेवक, बुद्धिमान, और कुशल वैद्यकी चिकित्साद्वारा आरोग्य (तंदुरुस्त) होजातेहैं । और बहुतसे सर्वगुणयुक्त औषधादि होने पर और योग्य चिकित्सकसे चिकित्सा किये जाने पर भी मृत्युको प्राप्त होतेहैं । इसमें क्या कारण है कि उसी प्रकार चिकित्सा करनेसे बहुतसे लोग आरोग्य होजातेहैं और उसी प्रकारकी चिकित्सासे बहुतसे मृत्युक्श होतेहैं । इसलिये जानपडताहै कि मनुष्यका जीवन मरण दैवाधीन है औषध आदिसे कुछ नहीं होता ॥ २॥