________________
सूत्रस्थान -०८.....
( ९३
'हितमितमधुरार्थवादी । वश्यात्मधमात्माहेतुवीर्य्यः फलेनेर्षुः । निश्चिन्तोनिर्भीको धीमान्हीमान् महोत्साहः दक्षः क्षमावान्धार्मिकः आस्तिकः विनयबुद्धिविद्याभिजनवयोवृद्धसिद्धाचार्य्याणामुपासिता । छत्रीदण्डी मौनीसोपानत्को युगमात्रदृग्विचरेत् ॥ १७ ॥
श्रेष्ठ पुरुषों की समान वेष धारण करे । केशों को साफ और संवारकर रक्खे | मस्तक, कान, नाक, और पैरोंके तलुवोंमें नित्य तैल लगायाकरे, घूमपान करे, जब कोई भले पुरुष घर आवें उनका आदर सत्कार से सम्मान करे अथवा जिनसे मिले पहले ही मीठे वचनोंसे प्रसन्न करले, भयसे व्याकुलको धैर्य देवे, कठिन कार्योंकी प्राप्ति के लिये होम, यज्ञ, दान, इनको करे, चतुष्पथको नमस्कार करे, वलिआदिसे अग्निदेवता, भद्रपुरुष और दीन आदिकोंको प्रसन्न रक्खे । अतिथियोंका पूजन करे, पितरोंको पिंड आदि देवे, समय विचारकर हितयुक्त और मधुर अर्थवाला संभाषण करे, आत्माको वश में रखने में तत्पर रहे, धर्मात्मा होय, जिसकार्यमें सवका भला हो वह करे, कार्यको कर फलके लिये ईर्षा न करे, निश्चित रहे, भयभीत न हो,बुद्धि, लज्जा, उत्साह, चातुरी, क्षमा इनको धारण करे। धर्म करे, आस्तिकतावाला होय, और विनय, बुद्धि, विद्या, इनमें जो वृद्ध हों और सिद्ध तथा आचार्य हों उनकी उपासना, सेवा करे, छत्री, यष्टि, पगडी, उपानह इनको धारण करे, मार्ग चलते समय आंगेको चार हाथ मार्ग देखकर चले ॥ १७ ॥ मङ्गलाचारशीलःकुचैलास्थिकण्टकामेध्य केशतुषोत्करभस्मकपालखान बलिभूमीनां परिहर्त्ताप्रामाद्वयायाम वर्जी स्यात् । सर्वप्राणिषुवन्धुभूतःस्यात्क्रुद्धानामनुनता भीतानामाश्वासयितादीनानामभ्युपपत्ता । सत्यसन्धः । सामप्रधानः । परपरुषवचनसहिष्णुः अमर्षघ्नः । प्रशमगुणदर्शी ॥ १८ ॥
सदाही मंगलवस्तुओं और मंगल (शुभ) कार्यों का सेवन करे, खराव वस्त्र, अस्थि, कटि अमेध्य (विष्ठा आदि), केश, तुष, कंकड आदि, भस्म, ठीकडे वाली भूमिमें और जहां स्नान करनेका जल बहरहाहो तथा जिस भूमिमें बाले दी हो एवं श्मशान आदि भूमिमें न जावे । थकावट होनेसे पहले कसरत छोडदेवे अर्थात् अत्यंत व्यायाम न करे । सब प्राणियोंसे बंधुओंकी समान प्रेम रक्खे क्रोधयुक्तोंको नम्रतासे शांत करले ! भयभीतों को आश्वासन करे अर्थात दिलासा देवे, दीन पुरुषों पर दया करे, सत्यभा