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चरकसंहिता-भा० टा. इसी प्रकार घी खांडके बिना अथवा मुंग या आमलेके यूष विना, या शहतके विना मिलाये दही न खावे और गरम करके भी दही न खाय, रात्रिम दही खानेसे लक्ष्मीका नाश होताहै इस लिये रात्रिको दही नहीं खाना चाहियेोघीयुक्त दही कफको करताहै और वायुको हरताहै और पित्तको कुपित नहीं करता, तथा भोजनको पचाताहै खांड मिलाकर दही खानेसे दाह और तृषाशांत होतेहैं।मूंगके यूषके साय दही खानेसे वायु शांत होताहै। शहत मिली दही सुस्वाद होती है और उसमें कफका दोष क्षीण होजाताहै।गर्म दही रक्तपित्तको करतीहै।आमलेके यूषसे त्रिदोषको हरतीहं । जो मनुष्प विना विधिसे दहीका सेवन करताहै उसको ज्वर, रक्तपित्त, विसर्प, कुष्ठ, पांड, भ्रम, कामला, आदि रोग उत्पन्न होतेहैं ।। ५९।६०।६।६२।६३३६४॥
अध्यायका उपसंहार ।
अत्र श्लोकाः ॥ वेगावेगसमुत्थाश्चरोगास्तेषाञ्चभेषजम् ।येषांवेगाविधार्याश्च मदर्थयाद्धताहितम् ॥उचितेचाहितेवज्यसेव्यचानुचितेक्रमः! यथाप्रकृतिचाहारोमलायनगदौषधम् ॥६५॥ भविष्यतामनुत्पत्तौरोगाणामौषधश्चयत् । वाःसेव्याश्चपुरुषाधीमतात्मसुखार्थिना ॥ ६६ ॥ विधिनादधिसेव्यञ्चयेनयस्मात्तदविजः । नवेगान्धारणेऽध्याये सर्वमेवावदन्मुनिरिति ॥ ६७ ॥
इति अग्निवेशकृतेतन्त्रेचरकप्रतिसंस्कृते न वेगान्धारणीयाध्यायः ।। अब अध्यायका उपसंहार करतेहैं । इस अध्यायम वेग रोकनेका निषेध, और वेगोंके गेकनेसे पैदाहुए रोग, एवं उनकी चिकित्सा रोकने योग्य वेग और मनुष्यके लिये हित तथा अहित,उचित अभ्यास करना और अनुचितका त्यागना और उनका क्रम, वातादि प्रकृतिके आहार, मलों के मार्ग, रोगांकी औषधी, जिससे रोग ही न प्रगट हा ऐसा क्रम, प्रगटहए रोगांकी आँध, आत्मसुखकी इच्छावाले बुद्धिमान्को सेवनाप और त्याज्य कर्म, विधिसे दहीका सेवन, इन सब वाताको भगवान् पुनसुजाने इस नवेगान् धारणीय अध्यायमें वर्णन कियाह ।। ६५ ॥ ६६ ॥ ६७ ॥ पनि बीमाचिरकप्रणीताशियसंहितायां पटियालाराज्यांतर्गतटकसालग्रामनिवासिवगजानन वगरल पं० रामप्रसादवद्योपाध्यायविरचितप्रसादन्याल्यभापाटीकायां
नवेगान्धारणीयो नाम लममाध्यायः ।। ७ ।।