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चरकसंहिता - भा० टी० ।
• प्रकृतिमं स्थित हुई धातुएँ वृद्धिको प्राप्त होती हैं तथा बुढापा शीघ्र नहीं आता४७॥ स्वम्य मनुष्यकी आरोग्यताकी रक्षा के लिये यह विधि कहचुकेहैं । अव शारीरिक आगंतुक, मानसिक, रोगांके विषयमें अलग कथन करते हैं ॥ ४८ ॥
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आगन्तुरोगांका कारण । येभृतविपवाय्वग्नि संप्रहारादिसम्भवाः । नृणामागन्तवोरोगाः प्रज्ञापराध्यति ॥ ४९ ॥ ईर्ष्याशोकभयक्रोधमानद्वेपादयश्रये । मनोविकारास्तेऽप्युक्ताः सर्वे प्रज्ञापराधजाः ॥ ५० ॥ भृत. विष, वायु, अग्नि, प्रहार आदिसे उत्पन्न हुए रोगोंको आगंतुक रोग कहते हैं । यह रोग मनुष्यांकी बुद्धिके दोषसे होते हैं, अर्थात् किसी असावधानतासे होते हैं याद बुद्धिमान् विचारपूर्वक बचकर रहे तो यह रोग नहीं होते । इन रोगोंमं बुद्धिका दोष होनेसे इनको प्रज्ञापराधज कहा जाता है ॥ ४९ ॥ और ईर्ष्या, शोक, भय, क्रोध, मान, द्वेष आदि सव मनके विकार ( मानसिक रोग ) भी बुद्धि के दोष से ही होते हैं ॥ ५०॥ आगन्तुरोगों की शान्ति ।
त्यागः प्रज्ञापराधानामिन्द्रियोपशमः स्मृतिः । देशकालात्मवि-. ज्ञानंसवृत्तस्यानुवर्त्तनम्॥ ५१ ॥ आगन्तूनामनुत्पत्तावेषमार्गों निदर्शितः । प्राज्ञः प्रागेवतत्कुर्य्याद्धितं विद्यात्तदात्मनः ॥५२॥ आप्तोपदेशः प्राज्ञानांप्रतिपत्तिचकारणम् । विकाराणामनुत्पतावुत्पन्नानाञ्च शान्तये ॥ ५३ ॥
इन रोगोंम बुद्धिके कुविचारोंका त्याग, इन्द्रियोंको वशमें रखना, शास्त्रां के उपदेशांका स्मरण, देश काल और आत्माका ज्ञान, अच्छे महात्माओंके सुयोग्य आचरणका सेवन, यह आगंतुक रांगाके न होने का मार्ग दिखाया है अर्थात् इन आचरणांके सेवनसे आगंतुक रोग होते ही नहीं । इसलिये बुद्धिमानको आत्माकं हितकार्यका प्रथमसे ही सेवन करना चाहिये ॥ ५१ ॥ ५२ ॥ प्रामाणिक भद्रपुरुष के उपदेश और प्राज्ञपुरुषों के सिद्धांत पर चलना आगन्तुक विकारोंको उत्पन्न नहीं होने देता और उत्पन्न हुए विकारोंकी शांति करता है ॥ ५३ ॥
दूषित पुरुषर्क संग दोष ।
पापवृत्तवचःसत्त्वाःसूचकाः कलहप्रियाः। मम पहासिनोलुब्धाः परवृद्धिद्विपः शठाः || ५४॥ परापवादरतयः परनारीप्रवेशिनः । निर्वृणास्त्यक्तधर्माणः परिवर्ज्यानराधमाः ॥ ५५ ॥