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सूत्रस्थान - अ० ८..
अष्टमोऽध्यायः ।
(८९)
अथातइन्द्रियोपक्रमणीयमध्यायं व्याख्यास्याम इतिहस्माह
भगवानात्रेयः ।
भगवान् आत्रेय कहते हैं कि अब हम इन्द्रियोपकरणीय अध्यायकी व्याख्यात करते हैं ।
इन्द्रियों का वर्णन तथा मनकी अनेकता । इहखलुपञ्चेन्द्रियाणिपञ्चेन्द्रियद्रव्याणि । पञ्चेन्द्रियाधिष्ठानानिपञ्चेन्द्रियार्थाः । पञ्चेन्द्रियाधिकारेअतीन्द्रियं पुनः मनः सच्वसंज्ञकञ्चेत्याहुरेकेतदर्थात्मसम्पत्तदायत्तचेष्टम् ॥ चेष्टाप्रत्ययभूतमिन्द्रियाणाम् ॥१॥ स्वार्थेन्द्रियार्थसंकल्पव्यभिचरणाच्चानेकमेकस्मिन्पुरुषेसत्त्वम् । रजस्तमःसत्त्वगुणयोगाच्चन चानेकत्वंनाने कह्येककालमनेकेषुप्रवर्त्तते ॥ २ ॥ तस्माच्चाने - ककालासर्वेन्द्रियप्रवृत्तिः । यद्गुणंचाभक्ष्णिंपुरुषमनुवर्त्तते सत्त्वंतत्सत्त्वमेवोपदिशन्तिऋषयोबाहुल्यानुशयात् ॥ ३ ॥ मनःपुरःसराणीन्द्रियाण्यर्थग्रहणसमर्थानि भवन्ति ॥ ४ ॥
पांच इन्द्रियें हैं । पाँच ही इन्द्रियोंके द्रव्य हैं। पांच इन्द्रियोंके अधिष्ठान हैं । और पांच ही इन्द्रियों के विषय हैं । तथा पांच इन्द्रियोंको बुद्धि हैं । ऐसा इन्द्रि 'याधिकारमें कहा है । और मन अतीन्द्रिय है, कोई मनको सत्त्व भी कहते हैं । मनविषय हो आत्माकी संपत्ति है तथा आत्माके और मनके सन्निकर्ष से चेष्टाएँ निर्वाहित हैं । ऐसे ही सब इन्द्रियोंकी चेष्टाका कारणभूत भी मन ही है । यदि कहें कि स्वार्थ, इंद्रियार्थ, और संकल्पकी पृथक्तासे एकही पुरुषमें अनेक मन हैं और सत्त्व, रज, तम, इन प्रकृतिक गुणोंसे भी मन अनेक हैं ऐसा प्रतीत होता है । सो
ठीक नहीं। क्योंकि एक पुरुष एक ही कालमें सब गुणोंमें या स्वार्थ आदि
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सब कार्यों में प्रवृत्त नहीं होता । इसीलिये अनेक कालोंमें सब इंद्रियोंकी प्रवृत्ति