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चरकसंहिता - भा० टी० । धारणकरनेयोग्य वेग । इमांस्तुधारयेद्वेगानूहितैपप्रेित्य चेह च । साहसानामशस्तानां मनोवाक्कायकर्म्मणाम् ॥२४॥ लोभशोकभयक्रोधमान वेगान् निधारयेत् । नैर्लज्जेर्ष्यातिरागाणामभिध्यायाच्चबुद्धिमान् ॥ २५॥ परुपस्यातिमात्रस्यसूचकस्यानृतस्यच । वाक्यस्याकालयुक्तस्य - धारयेद्वेगमुत्थितम् ॥ २६ ॥ देहप्रवृत्तिर्याकाचित्वर्तते परपीडया | स्त्रीभोगस्तेयहिंसाद्यातस्या वेगान् विधारयेत् ॥ २७ ॥ इस लोक और परलोकके सुखकी इच्छावाले मनुष्यको नीचे लिखे वेगोंको रोकना चाहिये. जैसे- अयोग्य रोतिपर - साहस, मनका वेग, वाणीका वेग, शरीरका वेग, कर्मका वेग, तथा लोभ, शोक, भय, क्रोध, अभिमान इनके वेगोंको रोकना चाहिये। और बुद्धिमानको उचित है कि निर्लज्जता, ईर्ष्या, अत्यंत राग इनको भी त्याग देवे । कठोर, गढ़े, मिथ्या, वेसमय, असंगत वाक्योंके कहनेका स्वभाव या वेग भी रोकना उचित है । जिस कार्यसे किसीको दुःख हो ऐसा कार्य कभी न करें और परस्त्रीगमन, चोरी, तया हिंसा आदि अयोग्य कार्यों को भी न करें ॥ २४ ॥ २९ ॥ ॥ २६ ॥ २७ ॥
पुण्यके लाभ | पुण्यशब्दोविपापत्वान्मनोवाक्कायकर्म्मणाम् । धर्मार्थकामा
नूपुरुपः सुखो भुङ्क्तेा चनोति ॥ २८ ॥
जो मनुष्य, मन, वाणी-देह, इन कमासे निष्पाप है अर्थात् मन, वाणी, देहसे कोई पाप नहीं करता वह पवित्र धर्मात्मा पुरुष, धर्म, अर्थ, काम इनके सुखको भोगतीह और मोक्ष साधनके लिये धर्मको संचय करता है ॥ २८ ॥ व्यायामके लाभ |
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शरीर चेष्टाया चेष्टास्थैय्र्यार्थावलवर्धिनी । देहव्यायामसंख्याता मात्रयातांसमाचरेत् ॥ २९ ॥ लाघवं कर्मसामथ्यं स्थैय्यं क्लेशसहिष्णुता । दोपक्षयोऽग्निवृद्धिश्च व्यायामादुपजायते ॥ ३० ॥ जिस शारीरिक चेष्टासे- शरीरकी दृढ़ता और वल बढ़े उस चेष्टाको व्यायाम ( कसरत ) कहते हैं । वह व्यायाम जितनी शरीरकी सामर्थ्य हो उतना -