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चरकसंहिता-भा० टी०। .
वेगोंके रोकनेका निषेध । नवेगान्धारयेद्धीमाजातान्मूत्रपुरीषयोः । नरेतसोनवातस्यन वम्याःक्षवथोर्नच ॥१॥ नोद्वारस्यनजृम्भायानवेगान्क्षुत्पिपासयोः । नवाप्पस्यननिद्राया न श्वासस्यश्रमेणच ॥ २ ॥ एतान्धारयतोजातान्वेगानोगाभवन्तिये। पृथक्पृथचिकि
सार्थं तन्मेनिगदतःशृणु ॥३॥ बुद्धिमान् मनुष्यको उचित है कि- मूत्र, मल, रेत, अधोवायु, छर्दि, छींक. डकार, जाई, भूख, प्यास, अश्रुपात, निद्रा, श्रमजन्यश्वास, इनके वेगोंको कनी न रोके । इनके वेग रोकनेसे जो जो रोग पैदा होतेहैं उनको अलग २ आगे वर्णन करतेहे सो तुम सुनो ॥ १॥ २ ॥३॥
मूत्रके वेगको रोकनेके दोष। वस्तिमेहनयो शलमत्रकच्छंशिरोरुजा ।
विरामोवङ्क्षणानाहःस्याल्लिङ्गमूत्रनिग्रहे ॥ ४ ॥ मूत्रका वेग रोकनेसे वस्ति और लिंगमें पीडा होतीहै । मूत्रकृच्छ, मस्तकमें पीडा देहेका नवना, पेट में पीडा, और अफारा यह उपद्रव होते हैं ॥ ४ ॥
मूत्र रुकनेपर उपाय । स्वेदावगाहनाभ्यङ्गान्सर्पिषश्चावपडिकम् ।
सूत्रेप्रतिहते-त्रिविधंबस्तिकर्मच ॥ ५ ॥ ( यत्न ) मूत्रक रुकनेमें--पसीना देना, जल में बैठना, मालिस करना, घृतपान काना, और निरूहण, अनुवासन, उत्तरवस्ति यह तीन प्रकारका वस्तिकर्म करना ॥५॥
मलरोकनमें दोष । पक्वाशयशिरःशूलंवातव!निरोधनम् ।
पिण्डिकोद्वेष्टनाध्मानं पुरीपेस्याद्विधारिते ॥६॥ मलका वेग रोकनेस- पकाशयम और शिरम पीडा, अधोवायु और विष्ठाका रुस्ला, पिंडलियाम पीडा, अमारा यह उपद्रव होते हैं ॥ ६ ॥