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वोर सेवा मन्दिर दिल्ली
क्रम संख्या
काल नं०
खण्ड
XXXXXXXX
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125 लेख रविता कहानी- पेज 684
hataruकालय
270
टेली
१७७
गलक
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मुल्य २0
इस किरण का )
शता धारसवा सान्दर सरसाना सहारनपुर)
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मक और प्रकाशक अयोध्याप्रसाद सावलीसा ।।
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१६.
* विषय-सूची * समन्तभद्र-स्मरण २. स्वागत-गान (कविता)-[श्री० कल्याणकुमार जैन "शशि" ३. वीर-निर्वाण (कविता)-[श्री० कल्याणकुमार जैन “शशि" ४. श्रीकुन्दकुन्द और यतिवृपभमें पूर्ववर्ती कौन ?-[सम्पादकीय ५. आत्माका बोध (कहानी)-[श्री० यशपाल बी० ए० एल० एल० बी० ६. उपरम्भा (कहानी)-[श्री० भगवतम्बम्प जैन "भगवन" ७. अनकान्तवाद-पं० मुनिश्रीचौथमल ८. दीपावलीका एक दीप (कविता)-[श्री० अज्ञय (भग्नदृत) ६. अनकान्त और स्याद्वाद-[श्री० पं० वंशीधर व्याकरणाचार्य न्यायतीर्थ १०. क्रान्ति-पथे (कविता)-[भग्नदूत ११. गोत्रकर्माश्रित ऊँच-नीचता-[श्री० बा० सूरजभान वकील १२. धर्म क्या ?-[श्री. जैनेन्द्रकुमार १३. अनित्यता (कविता)-[श्री. शोभाचन्द्र भारिल्ल १४. संवाधर्म-दिग्दर्शन-[सम्पादकीय १५. भगवती आराधनाको दृसरी प्राचीन टीका टिप्पणियाँ-[सम्पादकीय
भावना (कविता)-युगवीर १७. प्रभाचन्द्र के समयकी मामग्री-[श्री० पं. महेन्द्रकुमार १८. उत्मर्पिणी और अवमर्पिणी-[श्री. स्वामी कर्मानन्द १६. भक्तामरस्तात्र-[श्री. पं. अजितकुमार शास्त्री २०. जैनममाज क्यों मिट रहा है ?- [अयोध्याप्रसाद गोयलीय २१. शिलालेखांसे जैनधर्मकी उदारता-[बा० कामताप्रमाद साहित्यमनीपी 6 . Sis Dravyas-[K. B. Janaraja 349३. अहिंसाधर्म और निर्दयता [श्री० चन्द्रशेखर शास्त्री
पविक निवेदन, लुप्तप्राय ग्रन्थांकी खोज--[सम्पादकीय
और उसका धर्म-[मुनिश्रीन्यायविजयजी २६. संवाधर्म (कहानी)-[डा० भैयालाल पी० एच० डी० १ १ ... २७. अधिकार (कल्याणसे)-[ २८. सुभापित मणियाँ२६. भगवान महावीर और उनका मिशन-[स्वर्गीय श्रीवाड़ीलाल मोतीलाल शाह ...
पष्ट १६ की पूर्ति 'अनेकान्त' पृष्ठ १६के प्रथम कालमकं नीच निम्न फुट नोट छूट गया-छपनेसे रह गया है. पाठक जन लेखकी छठी पंक्ति में प्रयुक्त हुए 'जो दृषित हैं शब्दोंके अनन्तर यह * चिन्ह देकर उसर्व नीचे बनालवे
* परन्तु उस जीवन-पुस्तकके कुछ पृष्ट गुम हैं और उनके विषयकी जो सूचना मिलती है उमपरसे दावेवे साथ यह नहीं कहा जासकता कि उसमेंसे के
अथवा थोड़ा-बहुत काला नहीं है ।-सम्पादक
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॥
M२४.
2165
४
ROMANCY
॥
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ॐ अर्हम्
अनेकान्त
सत्य, शान्ति और लोकहित के संदेशका पत्र नीति - विज्ञान-दर्शन- इतिहास - साहित्य - कला और समाजशास्त्रके प्रौढ विचारोंसे परिपूर्ण सचित्र मासिक
सम्पादक
जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर'
अधिष्ठाता 'वीरसेवामन्दिर' ( समन्तभद्राश्रम )
सरसावा जि० सहारनपुर
द्वितीय वर्ष
[ कार्तिकसे आश्विन, वीर नि० सं० २४६५]
LAL
संचालक
तनसुखराय जैन
कनाट सर्कस, पो० बोक्स नं० ४८, न्यू देहली ।
वार्षिक मूल्य ढाई रुपये एक प्रतिका चार आने
अक्टूबर सन १९३९ ई०
आगामी वा० मूल्य तीन रुपये एक प्रतिका पाँच आना
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'अनेकान्त' के द्वितीय वर्षकी
विषय-सूची विषय और लेखक
पृष्ठ
विषय और लेखक पृष्ट अतीतके पृष्ठोसे (कहानी)-श्री. 'भगवत्' जैन ६५ कथा कहानी---[अयोध्याप्रसाद गोयलीय अतीतस्मृति (कविता)[श्रीभगवत्स्वरूप 'भगवत्' २३७ २४२,३०१,३५७,४२२,४४३,४६.१,५७३, अदृष्ट शक्तियाँ और परुषार्थ बा० सूरजभानजी ३११ कथा कहानी--बा०माईदयाल जैन बी.ए.बी.टी. ६६६ अधर्म क्या ?-[श्री जैनेन्द्रकुमारजी १३ कमनीयकामना---[ उपाध्याय कविरत्न श्रीअधिकार-[ कल्यागमे
अमरचन्दजी २१० अधिकार (कविता)-[भगवत्स्वरूप जैन भगवत' १६५
कोल्हू के बैल की दशा (कविता)--[ स्वर्गीय कविवर । अनित्यता (कविता)-[शोभाचन्द भारिल्ल,न्यायतीर्थ ४८
बनारसीदामजी ३१. अनेकान्त और स्याद्वाद-[पं. वंशीधरजी
क्या कुन्दकुन्द ही मूलाचारके कर्ता हैं ?... - [पं.
परमानन्द जैन शास्त्री] २२१, व्याकरणाचार्य
क्या सिद्धान्त ग्रन्थोंके अनुसार सब ही मनुष्य उच्च अनेकान्त पर लोकमत- १७७,२२५,२७४,३२५,
गोत्री हैं ?--- [पं० कैलाशचन्द जी, जैनशास्त्री १५६ अनेकान्तवाद- मुनि श्री चौथमल जी
क्रान्तिपथ (कविता)-[भग्नदूत
३२ अन्तरद्वीपन मनुष्य-[ मम्पादक
३२६.
गोत्रकर्म पर शास्त्री जीका उत्तर लेख-[मम्पादक २७७ अन्न नि (कविता). [श्री कर्मानन्द जैन २४६
गोत्रकर्मसम्बन्धी विचार-ब्र. शीतलप्रशाद जी २५६ अन्तर्ध्वनि (कविता)-[श्री.भगवत्स्वरूप 'भगवत्'५६१
गोत्रकर्माश्रित ऊँच-नीचता-बा० सूरजभानजी ३३ अपनी दशा ,,
- २७६ गोत्रलक्षणोंकी सदोपता-पं० ताराचन्द जैन अपराजितसूरि और विजयोदया-[पं०परमानन्दजी ४३७
दर्शन शास्त्री अमरप्यार (कविता)-[श्री.भगवतस्वरूप 'भगवत्' ४४२
महक (कविता)-[श्री. भगवत् जैन
४० अहिंसाकी समझ-श्री किशोरलाल जीमशरूवाला ५०४
चाणक्य और उसका धर्म– मुनि श्रीन्यायविजय १०५ अहिंसा धर्म और निर्दयता--[श्री चन्द्रशेखरजी
जगत्सुन्दरी प्रयोगमालाकी पर्णना- सम्पादक शास्त्री, ८६
जगत्सुन्दरी प्रयोगमाला (मम्पादकीय नोट सहित) अहिंसापरमोधर्म (कहानो)--श्री. 'भगवत्' जैन ५११
-[पं० दीपचन्द पांड्या जैन, केकड़ी ६११ श्राचार्य हेमचन्द्र--[श्री रत्नलाल संघवी,
जयवीर (कविता)-[श्री भगवत् जैन ५०५ न्यायतीर्थ विशारद २४४,२६५,३३५, जाग्रति गीत (कविता)-श्रीकल्याणकुमार जैन,.२६५ " आत्माका बोध (कहानी)---[श्री. यशपाल बी० ए०
जाग्रति-गीत(कविता)-राजेन्द्रकुमार जैन कुमरेश'४६२ एलएल.बी.
जातिमद सम्यक्त्वका बाधक है-[बा०सूरजभान जी१८७ आर्य और म्लेच्छ--[सम्पादक
जीवन के अनुभव-[ अयोध्याप्रमाद,गोयलीय इतिहास (कविता)--[ देशदूतसे ।
४२१
२७३,४७८,५१८, उत्सर्पिणी और श्रवसर्पिणी-स्वामी कर्मानन्द जैन ६५ तेन और बौद्धधर्म एक नहीं-[प्रो० जगदीशउन्मत्त संसार के काले कारनामे-[पं० नाथूरामजी
चन्द जी जैन एम० ए० ५६३ - डोगरीय जैन ३४८ जैन दृष्टिसे प्राचीन सिन्ध [ मुनिश्री विद्याविजयजी ५०७ उपरम्भा (कहानी)-[श्री. भगवत्स्वरूप 'भगवत्' १६ जैनधर्म और अनेकान्त-[पं० दरबारीलाल जी ऊँचगोत्रका व्यवहार कहाँ ? [ सम्पादक १३१
'सत्यभक्त' ३६७ एकबार (कविता)-[श्री. भगवतस्वरूप जैन
जैनसमाज किधरको? [बा०माईदयालजी बी. ए. ५६४ 'भगवत्' कि० ७ टा. प. ३,
जैनसमाज क्यों मिटरहा है ? [ अयोध्याऐतिहासिक अध्ययन--[बा० माईदयाल जैन
प्रसाद गोयलीय ७३, १६६,२११ बी० ए० श्रानर्स REE ज्ञानकिरण (कहानी)-[ श्री भगवत' न ३६२
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ॐ अहम्
पाmuuuILI
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MARATION
ITAMIK
-
नीति-विरोध-धंसी लोक-व्यवहार-वर्तकः सम्यक। नाता 17 परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥
वप २
सम्पादन-स्थान--वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम), सरसावा जि. सहारनपुर
प्रकाशन-स्थान-कनॉट सर्कस पो० ब०नं०४८ न्यू देहली कार्तिकशुक्ल, वीरनिर्वाण सं० २४६५, विक्रम सं० १६६५
किरण १
marrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr?
समन्तभद्र-स्मरण येना शेष-कुनीति-वृत्ति-सरितः प्रेक्षावतां शोषिताः, यद्वाचोऽप्यकलंकनीति-रुचिरास्तत्त्वार्थ-सार्थद्युतः । स श्रीस्वामिसमन्तभद्र-यतिभृदभूयाद्विभुर्भानुमान,
विद्याऽऽनन्द-घनप्रदोऽनघधियां स्याद्वादमार्गाग्रणीः ॥ जिन्होंने परीक्षावानोंके लिये सम्पूर्ण कुनीति और कुवृत्तिरूपी नदियोंको सुखा दिया है, जिनके वचन निर्दोषनीति-स्याद्वादन्याय-को लिये हुए होनेके कारण मनोहर हैं तथा तत्त्वार्थसमूहके द्योतक हैं वे यतियोंके नायक, स्यद्वादमार्गके नेता, विभु-सामर्थ्यवान् और भनुमान-सूर्यके समान देदीप्यमान अथवा तेजस्वी-श्री समन्तभद्रस्वामी कलुपित-आशय-रहित प्राणियोंको-सजनों अथवा सुधीजनोंकोविद्या और आनन्दघनके प्रदान करनेवाले होवे-उनके प्रसादसे (प्रसन्नतापूर्वक उन्हें चित्तमें धारण करनेसे )सबोंके हृदयमें शुद्धज्ञान और आनन्दकी वर्षा होवे ।
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अनेकान्त
[कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५
स्वागत-गान
(रचयिता-कल्याणकुमार जैन 'शशि')
मलयानिल कोकिल कलिकाएँ
करती अमर प्रेम-प्रक्षाल । नवजीवनके मुक्त-कण्ठमें
डाल डाल सुन्दर वरमाल ।।
'अनेकान्त' नूतन साकृति बन,
पाकर कण-कणमें विस्तार । अखिल जगतमें पुनःप्रवाहित
हो, बनकर पुनीत रस-धार ॥
आज चिरंतन दिव्य ज्योतिसे
सुख-सौभाग्य-कीर्ति-यशका होदीख रहा है विश्व विशाल।
प्राप्त तुम्हें नूतन-वरदान । नव किरणोंसे आच्छादित हो,
इसी हेतु आनन्दित हो करतरु-लतिकाएँ हुईं निहाल ॥
रहे तुम्हारा स्वागत-गान ।। वीर-निर्वाण
(रचयिता-कल्याणकुमार जैन 'शशि') फिर सरसता जग उठी है
लग रहा है और कुछ हीप्राणमें संचरित होकर ।
आज मुझको दिव्य जीवन । मानसरमें भर रहा है।
आज मानों लहलहाया___ कौन यह जीवन निरन्तर ?
हो शतोमुख विश्व-उपवन ॥
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mmmmmmmmmmmm
फिर नया-सा हो रहा है
रोम रोम प्रदीप्त-प्रमुदित । बज उठेगी उल्लसित हो
आज हृतंत्री कदाचित ॥
प्राणके प्रत्येक कणमें
आप्त-व्याप्त नवीनता है ।। मग्न हो, जय-केतु बन, फह
रा रही स्वाधीनता है ।
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हाँ, इसलिये आनन्द है
सर्वत्र खग-नर-देव-घर । आज पाया है महाप्रभु'वीर' ने निर्वाण गुरुतर ।
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श्रीकुन्दकुन्द और यतिवृषभमें पूर्ववर्ती कौन ?
(सम्पादकीय) जैन समाजके प्राचीन प्रधान ग्रंथकारों- आता है जिसे त्रिलोकप्रज्ञप्तिका परिमाण बतलाया
" में श्री 'कुन्दकुन्द' और 'यतिवृषभ' गया हैनामक आचार्यों के नाम खास तौरसे उल्लेखनीय हैं । कुन्दकुन्दकं रचे हुए प्रवचनसार, पंचाम्तिकाय,
चुरिणसरूवं अत्थं करणसमयसार, नियमसार, द्वादशानुप्रेक्षा और दर्शन
सरुवप्पमाण होदि कि जत्तं। प्राभूतादि प्राकृत ग्रंथ प्रसिद्ध हैं, जिनमें से अहसहस्सपमाणं कितने ही तो संसारको अपने गुणोंसे बहुत ही मुग्ध
तिलोयपएणत्तिणामाए । कर रहे हैं । यतिवृषभके ग्रंथ अभी तक बहुत ही 'करणस्वरूप' ग्रंथ अभी तक उपलब्ध नहीं कम प्रकाश में आए है, फिर भी उनमें मुख्यतया हुआ। बहुत सम्भव है कि यह ग्रंथ उन करणसूत्रोंतीन प्राकृत ग्रंथोंका पता चलता है-एक तो काही समूह हो जो गणितसूत्र कहलाते हैं और गुणधराचार्य के 'कसायपाहड' की चूर्णि है, जिनका कितना ही उल्लेख त्रिलोकप्रज्ञप्ति. गोम्मटजिसकी सूत्रसंख्या छह हजार श्लोक-परिमाण है सार, त्रिलोकसार और धवला जैसे ग्रंथों में पाया
और जिसे साथमें लेकर ही वीरसेन-जिनसेनाचार्योंने उक्त पाहड पर 'जयधवला' नामकी विशाल टीका लिखी है; दूसरा ग्रंथ 'त्रिलोक- पर्ववर्ती कौन है और उत्तरवर्ती कौन ?
__ अब प्रश्न यह है कि इन दोनों प्राचार्यों में प्रज्ञप्ति' है, जिसकी संख्या आठ हजार श्लोकपरिमाण है और जिसका प्रकाशन भी जैन
___ इन्द्रनन्दीने अपने 'श्रुतावतार' में, 'पट्खण्डासिद्धान्त-भास्कर में शुरु होगया है ; तीसरा ग्रंथ है
गम' सिद्धान्तकी उत्पत्तिका वर्णन देकर, द्वितीय 'करणस्वरूप', जिसका उल्लेख त्रिलोकप्रमिक सिद्धान्तग्रंथ 'कषायप्राभृत' की उत्पत्तिको बतलाते अन्तके निम्न वाक्यमें पाया जाता है और हुए लिखा है कि-गुणधराचार्य ने इस ग्रंथकी उसपरसं जिसका परिमाण भी दो हजार श्लोक- मूल-गाथाओं तथा विवरण-गाथाओंको रचकर उन्हें जितना जान पड़ता है। क्योंकि इस परिमाणको नागहस्ति और आर्यमंक्ष नामके मुनियोंको व्याख्या चूर्णिसूत्रके परिमाण (६ हज़ार) के साथ जोड़ करके बतला दिया था। उन दोनों मुनियोंके पाससे देनेसे ही आठ हजार श्लोकका वह परिमाण यतिवृषभने उक्त सूत्रगाथाओंका अध्ययन करके
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अनेकान्त [कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५ उनके ऊपर वृत्तिरूपसे छह हजार श्लोक-प्रमाण भी, अपने 'श्रुतावतार' प्रकरण x के निम्न वाक्योंचूर्णिसूत्रोंकी रचना की। उन चूर्णिसूत्रोंको पढ़कर द्वारा भविष्य-कथनके रूप में इसी बातको पुष्ट उच्चारणाचार्यने उच्चारणसूत्र रचे, जिनकी किया है:संख्या १२हजार श्लोकप्रमाण हैं । संक्षेपतः गाथा
"ज्ञानप्रबादपूर्वस्य नामत्रयोदशमोसूत्रों, चूर्णिसूत्रों और उच्चारण सूत्रोंमें गुणधर, यतिवृषभ एवं उच्चारणाचार्योंके द्वारा 'कपाय- वस्तुकस्तदीयतृतीयप्राभृतवेत्तागुणधरनामगप्राभृत' उपसंहृत हुआ है। इस तरह दोनां सिद्वान्त- णी मुनिभिविष्यति । सोऽपि नागहस्तिमुनेः ग्रंथ द्रव्यभावरूपसे पुस्तकारूढ़ हुए गुरु-परिपाटीसे पातम्यांमत्राणामप्रितिपादयिष्यति । तयो कोंडकुन्दनगरमें 'पद्मनन्दी' मुनिको प्राप्त हुए और उनके द्वारा भले प्रकार जाने तथा समझ
गुणधरनागहस्तिनामभट्टोरकयोरुपकंठे पठिगये। पद्मनन्दीने जो कुन्दकुन्दका ही पहला त्वा तानि सूत्राणि यतिनायकाभिधो मुनिस्तेदीक्षानाम है- पट्खण्डागमके प्रथम तीन खण्डों- पां गाथासूत्राणां वृत्तिरूपेण पट्सहस्त्रपर 'परिकर्म' नामक एक ग्रंथकी रचना की, जिसका प्रमाण-'चूर्णिशास्त्रं करिष्यति तेपां चूर्णिपरिमाण १२ हजार श्लोक-जितना है।' इस कथन
शास्त्राणां समुद्धरणानामामुनि दशसहस्त्रप्रके पिछले तीन पद्य इस प्रकार हैं:
मितां तट्टीकारचयिष्यति निजनामालंकृतांइति गाथाचूण्र्युच्चारणासूत्ररुपसंहृतं कपायाख्य
सूरिपरंपग्या द्विविकसिद्धान्तोवजन् मुनीन्द्रप्राभतमेवं गुणधरयतिवृपभोच्चारणाचायः ॥
___ कुन्दकुन्दाचार्यसमीपे सिद्धान्तं ज्ञात्वा कुन्दएवं द्विविधो द्रव्यभावपुस्तकगतः समागच्छन् । कीर्तिनामा पटवंडानां मध्ये प्रथमत्रिखंडानां गरुपरिपाटया ज्ञातः सिद्धान्तः कोण्डकुन्दपुरे॥ द्वादशसहस्रप्रमितं परिकर्म' नामशास्त्रं श्रीपद्मनन्दिमुनिना सोऽपिद्वादशसहस्रपरिमाणः। करिष्यति ।" ग्रन्थपरिकर्मकर्ता पटवण्डा-ऽऽयत्रिखण्डस्य ।।*
इन्हीं सब बातोंके आधारपर बनी तथा पुष्ट -नं० १५९, १६०, १६१
हुई मान्यताके फलस्वरूप, सुहृद्वर पं० नाथूरामजी इन्द्रनन्दीके इस कथनके आधारपर अबतक प्रेमीने, 'त्रिलोकप्रद प्ति' का परिचय देते हुए, जब यह समझा और माना जाता रहा है कि कुन्द- उसमें प्रवचनसारकी 'पस सरासरमणुसिंदवंदियं' कुन्दाचार्य यतिवृपभाचार्य के बाद हुए हैं । विबुधश्रीधरने , दूसरी कुछ बातोंमें मत भेद रखते हुए
___ ~ यह प्रकरण 'पंचाधिकार' नामक शास्त्रका चौथा * देखो, 'माणिकचंदग्रंथमाला' में प्रकाशित परिच्छेद है और उक्त माणिकचन्द्रग्रंथमालाके २१ वे 'तत्त्वानुशासनादिसंग्रह' के अन्तर्गत 'श्रुतावतार' । ग्रंथसंग्रहमें प्रकाशित हुआ है।
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वर्ष २ किरण १] श्रीकुन्दकुन्द और यतिवृषभमें पूर्ववर्ती कौन ? नामकी पहली मंगलाचरण-गाथाको देखा तो कुछ पुरातनाचार्य श्रीअपराजितसूरिने भगवती अहतियातके साथ यह लिख दिया कि “यदि त्रिलोक- आराधना' की टीकाके शुरूमें इस गाथाको प्रज्ञप्ति के कर्ता यतिवृषभ ही हैं (जो कि हैं ही) तीर्थकरों में भी सबसे पहले अन्तिम तीर्थंकर श्री. तो यह मानना पड़ेगा कि प्रवचनसारमें यह गाथा वर्द्धमानको नमस्कार करनेके उदाहरणस्वरूप इसी ग्रंथपरसे ली गई है ; क्योंकि इन्द्रनन्दी के अथवा आदिय मंगलाचरणके नमूनेके तौरपर कथनानुसार कुन्दकुन्दाचार्य यतिवृषभसे पीछे हुए दिया है । साथमें, ‘सेसे पुणतित्थयरे' वाली दूसरी हैं.–यतिवृपभके वाद ही उन्होंने सिद्धान्त ग्रंथोंको गाथा भी एक ही विद्वानकी कृतिरूपसे दी है, टीका लिम्वी है। साथ ही दवे शब्दोंमें यह लिख जिससे इस गाथाके कुन्दकुन्द-कृत होने में सन्देह कर कछ पुष्टि भी करदी कि “त्रिलोकप्रज्ञनिमें नहीं रहता । यह गाथा उधृत नहीं जान पड़ती; क्योंकि वहाँ यह तीर्थकगेंके क्रमागत स्तवन में कही गई है" * ।
_ प्रत्युत इसके, त्रिलोकप्रज्ञप्ति में यह गाथा परन्तु प्रचलित मान्यताके प्रभाववश उन्हे यह
इतनी अधिक सुसम्बद्ध और अनिवार्य मालूम नहीं खयाल नहीं पाया कि प्रवचनसारमें भी यह गाथा
होती--वहाँपर सिद्धलोकप्रज्ञप्ति' नामक कुछ उद्धृत नहीं जान पड़ती । वहाँ तो वह एक
अन्तिम महाधिकार के चरमाधिकार 'भावना' को ऐसे मौलिक ग्रंथको आदिम मंगलाचरण-गाथा है।
समाप्त करके और 'एवं भावना सम्मत्ता' तक जिसके कर्ता महान आचार्य श्रीकुन्दछन्दके
लिखकर कुन्थुजिनेन्द्र से वर्द्धमान पर्यंत आठ विषयमें यह कल्पना भी नहीं की जासकती तीर्थंकरोंकी स्तुति आठ गाथाओंमें दी है. --- उन्हीं कि उन्होंने अपने ऐसे महत्वशाली ग्रंथके लिये
में उक्त गाथा भी शामिल है। ये सब गाथाएँ मंगलाचरणकी गाथा भी कहींसे उठाकर अथवा
वहाँ पर कोई विशेष आवश्यक मालूम नहीं होतींउधार लेकर रखी होगी-उसे वे स्वयं न बना
खामकर ऐसी हालतमें जबकि एक पद्यके बाद सके होंगे। दूसरे, मंगलाचरणकी दूसरी गाथा
ही, जिसकी स्थिति भी संदिग्ध है, २४ तीर्थंकरों 'सेसे पुण तित्थयरे' के साथ वह इतनी अधिक
को अन्तमंगलके तौरपर नमस्कार किया गया है; सुसम्बद्ध है कि उसके बिना 'सेसे पुण तित्थयरे'
वहाँ प्राकृत गाथाका 'एस' पद भी कुछ खटकता वाक्यका कोई भी स्पष्ट अर्थ नहीं बैठता। जो
हुअा जान पड़ता है और ये सब गाथाएँ 'उद्धृत' महानुभाव संसेपुणतित्थयरे' जैसी चार महत्वपूर्ण
भी हो सकती हैं। त्रिलोकप्रज्ञप्ति के इसी ६ गाथाओंकी रचना अपने मंगलाचरणके लिय कर अधिकार तथा अन्यत्र भी कुन्दकुन्दके प्रवचनसकता हो उसके लिये 'एससुरासुर' नामकी
सारादि ग्रंथोंकी और भी कितनी ही गाथाएँ ज्योंगाथाकी रचना कौन बड़ी बात है ? तीसरे, बड़ा बात है ! तासर, की त्यों अथवा कुछ परिवर्तन या पाठभेदके साथ
उदधृत पाई जाती हैं, जिनके दो तीन नमूने इस * देखो, जैनहितैपी भाग१३, अंक १२, पृष्ठ ५३०-३१। प्रकार हैं:
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अनेकान्त
[कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५ णाहं होमि परेसिंण मे परे संतिणाणमहमेक्को। यह गाथा त्रिलोकप्रज्ञप्ति के उक्त वे अधिमिनोभायाविभागोमो तिभाटा कारमें नं० २७ पर दी हुई है, सिर्फ 'णाणमइश्रो
-प्रवचनसार, २-६६
सदा' के स्थानपर णाणप्पगासगा' पाठ दिया है,
जिसमें अर्थभेद प्रायः कुछ भी नहीं है। 'त्रिलोकप्रज्ञाप्त' के उक्त अन्तिम अधिकारमें यह गाथा ज्यों की त्यों नं० ३५ पर दी है। और
खधं सयलसमत्थं तस्स दुअलु भणंति देसो त्ति २५ वे नम्बर पर इसी गाथाके पहले तोन चरण । अद्धवद्धं च पदेसा परमाणू चेवअविभागी । देकर चौथा चरण 'सो मुच्चइ अट्ठकम्मेहि' बना एयरसवण्णगंधं दोफासं सद्दकारणमसद्द। दिया है । इस तरह एकही अधिकार में इस गाथा खंधंतरिटं दव्वं परमाण तं वियाणेहि ॥ की पुनरावृत्ति कीगई है।
--पंचास्तिकाय ७५, ८१, एवं णाणप्पाणं दंसणभूदं अदिदियमहत्थं ।
कुन्दकुन्दकी ये दोनों गाथाएँ त्रिलोकप्रज्ञप्ति के धुवमचलमणालंबं मण्णे हं अप्पगं सुद्ध ॥ प्रथमाधिकारमें क्रमशः नं० ६५ और ६७ पर प्रायः
-प्रवचनसार, २-१०० ज्योंकी त्यों पाई जाती हैं, दोनों का सिर्फ चौथा चरण यह गाथा, जो पूर्वोक्त गाथाके अनन्तर की वदला हुआ है-अर्थात् पहलीका चौथा चरण सुसम्बद्ध गाथा है, त्रिलोकप्रज्ञप्ति के उक्त अधिकार- 'अविभागी होदि परमारणू' और दूसरीका में पहले नं० ३४ पर दी है इसमें सिर्फ "मण्णोहं 'तंपरमाणु भणंति बुधा' दिया है, जिससे कोई अप्पगं" के स्थानपर 'भावेयं अप्पयं' पाठ बना अर्थभेद नहीं होता और जिसे साधारण पाठभेद भी दिया गया है। जो एवं जाणित्ता झादि परं अप्पगं विसुद्धप्पा। ऐसी हालतमें यह नहीं कहा जासकता कि सागारोऽणागारो खवेदि सो मोहदग्गंठिं॥ त्रिलोकप्रज्ञप्तिपर से कोई भी वाक्य कुन्दकुन्दके
-प्रवचनसार २-१०२ किसी ग्रंथमें उद्धृत किया गया है । कुन्दकुन्द
- और यतिवृषभ की रचनामें ही बहुत बड़ा अन्तर जो एवं जाणित्ता झादि परं अप्पयं विसुद्धप्पा । है-कुन्दकुन्दकी रचनामें जो प्रौढ़ता, गम्भीरता अणुवममपारदिसयं सोक्वं पावेदि सो जीवो ॥ और सूत्ररूपता आमतौरपर पाई जाती है वह यति
-त्रिलोकप्रज्ञप्ति (-३६ वृषभकी रचनाओं में प्रायः देखनेको नहीं मिलती।
. त्रिलोकप्रज्ञप्ति में तो दूसरे प्राचीन ग्रंथवाक्योंका अहमिको खलु सुद्धो दसणणाणमइओ सदारूवी कितना ही संग्रह जान पड़ता है। और इसलिये णवि अस्थि मज्झ किंचिवि अणंतपरमाणुमित्तंपि॥ त्रिलोकप्रज्ञप्ति के किसी वाक्यको कुन्दकुन्दके ग्रंथमें
-समयसार, ४३ देखकर यह अनुमान लगाना ठीक नहीं है कि
कह सकते हैं।
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वर्ष २ किरण १] श्रीकुन्दकुन्द और यतिवृषभमें पूर्ववर्ती कौन ? कुन्दकुन्द यतिवृषभके बाद हुए हैं।
की टीका कुन्दकुन्दकी कृति न होकर उनके शिष्य कुन्दकुन्दको यतिवृषभके बादका विद्वान कुन्दकीर्ति द्वारा लिखी गई है-कुन्दकीर्तिका नाम बतलानेवाला यदि कोई भी प्रमाण है तो वह कुन्दकुन्दके शिष्य रूपमें अन्यत्र कहींसे भी मुख्यतया इन्द्रनन्दि-श्रुतावतारका उक्त उल्लेख उपलब्ध नहीं होता । जान पड़ता है विबुध श्रीधरने है। विबुध श्रीधरका कथन उसको पुष्ट जरूर करता योंही इधर-उधरसे सुन-सुनाकर कुछ बातें लिखदी है परन्तु वह स्वयं अन्य प्रकारसे बहुत कुछ आपत्तिके हैं-उसे किसी अच्छे प्रामाणिक पुरुषसे ठीक योग्य है। उसमें प्रथमतो कषायप्राभृतको ज्ञानप्रवाद
परिचय प्राप्त नहीं हुआ। और इसलिये उसके पूर्वकी त्रयोदशम वस्तुके अन्तर्गत किया है.जबकि उल्लेखपर कोई विशेष जोर नहीं दिया जासकता स्वयं श्री गुणधराचार्यने “पवम्मि पंचमम्मिद और न उस प्रमाणकोटि में ही रक्खा जासकता है। 'दसमे वत्थुम्मि पाहुडे तदिये" इस सूत्रगाथा- अब देखना है, इन्द्रनन्दीके श्रुतावतारका वह वाक्यके द्वारा उसे दशमवस्तु का तृतीय प्राभत उल्लेख कहाँ तक ठीक है जो प्रचलित मान्यताका बतलाया है। दूसरे, यतिवृपभको गुणधरा- मुख्य आधार बना हुआ है। कुछ असे पहले मैं चार्यका साक्षात शिष्य बतला दिया है, जबकि समझता था कि वह ठीक ही होगा; परन्तु उसकी गुणधर-सूत्र गाथाओंकी वृहट्टीका 'जयधवला' विशेष जाँचके लिये मेरा प्रयत्न बरावर जारी रहा नागहस्ति तकको गुणधराचार्यका साक्षात शिष्य है। हालमें विशेष साहित्यके अध्ययन-द्वारा मुझे नहीं बतलाती और यतिवृषभ अपनी चर्णिमें भी यह निश्चित होगया है कि इन्द्रनन्दीने अपने पद्य कहीं अपनेको गुणधराचार्यका साक्षात शिष्य नं० १६० में द्विविधसिद्धान्त' के उल्लेख-द्वारा सूचित नहीं करते; प्रत्युत इसके सूत्रगाथाओंपर यदि कपायप्राभृतको उसकी टोकाओं-सहित कुन्दहोनेवाले पूर्ववर्ती आचार्योंके अर्थभेद अथवा कुन्दतक पहुँचाया है तो वह जरूर ही ग़लत है मतभेदको प्रकट करते हैं, जिससे वे गुणधराचार्यसे और किसी ग़लत सूचना अथवा ग़लत-झहमीका बहुत-कुछ बादके ग्रंथकार मालूम होते हैं और परिणाम है। निःसंदेह, श्रीकुन्दकन्दाचार्य यतिवृतीसरे चूर्णिके टीकाकारका नाम 'समुद्धरण' और पभसे पहले हुए हैं। नीचे इन्हीं सब बातोंको उस टीकाका नाम समुद्धरण-टीका घोषित किया
स्पष्ट किया जाता है:है, जबकि 'जयधवला' में पचासों जगह उक्त टीका- (१) इन्द्रनन्दीने यह तो लिखा है कि गुणधर परसे वाक्योंको उद्धृत करते हुए वीरसेन-जिनसेना- और धरसनाचार्योंकी गुरुपरम्परा का पूर्वाऽपरक्रम चार्योंने उसे उच्चारणाचार्यको कृति, टीकाका नाम उस मालम नहीं है; क्योंकि उनके वंश का कथन 'उच्चारणावृत्ति' और उसके वाक्योंको उच्चारणासूत्र' के नामसे उल्लेखित किया है। ऐसी मोदी करने वाले शास्त्रों तथा मुनिजनोंका उस समय मोटी भूलोंके कारण विबुध श्रीधरकी इस बात पर अभाव है। परन्तु दोनों सिद्धान्तग्रन्थों के अवतारभी सहसा विश्वास नहीं होता कि 'परिकर्म' नाम का जो कथन दिया है वह भी उन ग्रन्थों तथा
+ गुणधर-धरसेनान्वयगुर्वोः पूर्वापरक्तमोऽस्माभिर्न ज्ञायते तदन्वमकथकागम-मुनिजनाभावात् ॥१५०॥
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अनेकान्त
[कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५ उनकी टीकाओंको स्वय देखकर लिखा गया मालूम जैसा कि इन्द्रनन्दीने “पार्वे तयोयोरप्यधीत्य नहीं होता और तो क्या, पिछली 'धवला' और सूत्राणि तानि यतिवृषभः” इस वाक्यके द्वारा 'जयधवला' नामकी टीकात्रों तकका इन्द्रनन्दी के सूचित किया है, तो यतिवृपभका समय पट्खण्डा
__गमकी रचनासे पूर्वका नहीं तो समकालीन ज़रूर सामने मौजूद होना नहीं पायाजाता। इसीसे उन्हों.
मानना पड़ेगा; क्योंकि पटखण्डागमके वेदनाखण्डने अपने 'श्रुतावतार' में 'धवला' का पखण्डा- में आर्यमंक्ष और नागहस्तीके मतभेदों तकका गम' के छहों खण्डों की टीका बतला दिया है *, उल्लेख है । चूंकि यतिवृषभका अस्तित्वकाल, जबकि वह प्रथम चार खण्डोंकी ही टीका है ! जैसाकि आगे स्पष्ट किया जायगा, शक संवत् ३८० दूसरे, आर्यमंक्षु और नागहस्तो नामके आचायों को (वि० सं०५१५) के बादका पाया जाता है और
कुन्दकुन्दका समय इससे बहुत पहलेका उपलब्ध गुणधराचार्यका सादात शिष्य घोषित कर दिया।
होता है। ऐसी हालतमें कुन्दकुन्दके द्वारा पटखण्डाऔर लिखदिया है कि गुणधराचार्यन 'कसाय- गमके किसीभी खण्डपर टीकाका लिखा जाना पाहुड, की सूत्रगाथाओंको रचकर उन्हें स्वयंही उनकी नहीं बनता। 'और जब टीका ही नहीं बनतो तो व्याख्या करके आर्यमक्ष और नागहस्ती को पढ़ाया उसके रचनाक्रमके आधार पर कुन्दकुन्दको यतिथा; जबकि जयधवला में स्पष्ट लिखा है कि वृपभस बादका विद्वान क़रार देना बिल्कुल ही
निरर्थक और निर्मूल है। 'गुणधराचार्यकी उक्त सूत्रगाथाएँ आचार्यपरम्परासे चली आती हुई आर्यमंद और नागहस्तीको (२) यतिवृषभकी त्रिलोकप्रज्ञप्ति के अनेक पद्यों
में लोकविभाग' नामके ग्रंथका स्पष्ट उल्लेख प्राप्त हुई थीं.-गुणधराचार्यसे उन्हें उनका सीधा
पाया जाता है । यथा:(direct) आदान-प्रदान नहीं हुआ था । यथा:
जलसिहरे विकावंभो जलणिहिणो "पुणो ताओ मुत्तगाहाम्रो आईरिय
जोयणा दससहस्सा। परंपराए आगच्छमाणाओ अज्जमखु- एवं संगाइणिए लोयविभाए विणिणागहत्थीणं पत्तायो"।
द्दिय़ । अ० ४ ___ --आराप्रति, पत्र नं. १०
लोयविणच्छयगंथे लोयविभागम्मि
सव्वसिद्धाणं । यदि आर्यमंच और नागहस्ती को गुणधराचार्य
ओगाहणपरिमाणं भाणिदं किंचण के साक्षात् शिष्य ही मान लिया जाय और साथ ही
चरिमदेहसमो ।। अ०६ यह भी स्वीकार कर लिया जाय कि यतिवृषभाचार्य- - ने उन दोनों के पाससे उक्त गाथासूत्रोंको पढ़ा था,
S “कम्म@िदिअणियोगद्दारेहि भएणमाणो वे उवदे
सा होंति जहएणुक्कस्सटिदीणं पमाणपरूवणा *इति षण्णां खण्डानां ग्रन्थसहस्त्रर्द्वि-सप्तत्या॥१८॥ कम्मलिदिपरूवणेत्ति णागहत्थिखमासमणा भणंति, प्राकृत-संस्कृतमिश्रां टीका विलिख्य धवला-ख्याम्॥१८२॥ अज्जमखुखमासमणा पुण कम्मट्ठिदिसंचिदसंतकम्म+ एवं गाथासूत्राणि पंचदशमहाधिकाराणि । परूवणा कमटिदिपरूवणेत्ति भणति ।" प्रविरच्य व्याचख्यौ स नागहस्त्यार्यमंक्षुभ्याम्॥ १५४ ।। -धवल सिद्धान्त, आरा-प्रति, पत्र नं० ११०९
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श्री कुन्दकुन्द और यतिवृषभमें पूर्ववर्ती कौन ?
वर्ष २ किरण १]
-उस
यह 'लोकविभाग' ग्रंथ उस प्राकृत लोक विभाग ग्रंथ से भिन्न मालूम नहीं होता जिसे प्राचीन समय में सर्वनन्दी आचार्य ने लिखा था, जो कांची के राजा सिंहवर्मा के राज्यके २२ वे वर्ष - समय जबकि उत्तराषाढ़ नक्षत्र में शनिश्वर, वृषराशि में वृहस्पति, उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में चन्द्रमा था, शुल्कपक्ष था— शक संवत् ३८० में लिखकर पाणराष्ट्र के पाटलिक ग्राम में पूरा किया गया था और जिसका उल्लेख सिंहसूरि के उस संस्कृत 'लोकविभाग' के निम्न पद्यों में पाया जाता है, जो कि प्रायः सर्वनन्दी के लोकविभागको सामने रखकर ही भाषा के परिवर्तनादिद्वारा ( 'भाषायाः परिवर्तनेन' ) रचागया है:
वैश्वे स्थिते रविसुते वृषभे च जीवे, राजोत्तरेषु सितपक्षमुपेत्य चन्द्रे | ग्रामे च पाटलिकनामनि पाणराष्ट्र, शास्त्रं पुरा लिखितवान्मुनि सर्वनन्दी || ३ || संवत्सरे तु द्वाविंशेकांचीश सिह वर्मणः । शीत्यग्रेशकाब्दानां सिद्धमेतच्छतत्रये ॥४॥
त्रिलोकप्रज्ञप्ति की उक्त दोनों गाथाओं में जिन विशेषवर्णनोंका उल्लेख ‘लोकविभाग' आदि ग्रंथोंके आधारपर किया गया है वे सब संस्कृत लोकविभाग में भी पाये जाते हैं, जोकि विक्रमकी ११वीं शताब्दी के बादका बना हुआ है; क्योंकि उसमें त्रिलोकसारसे भी कुछ गाथाएँ, त्रिलोकसारका नाम साथमें देते हुए भी, 'उक्तंच' रूपसे उद्धृत की गई
*“दशैवैषसहस्त्राणि मूलेऽपि पृथुर्मतः " । प्रक० २
ह
हैं । और इसलिये यह बात और भी स्पष्ट होजाती है. कि संस्कृतका उपलब्ध लोकविभाग उक्त प्राकृत लोकविभागको सामने रखकर ही लिखा गया है ।
इस सम्बन्धमें एक बात और भी प्रकट करदेनेकी है और वह यह कि संस्कृत लोकविभागमें उक्त दोनों पद्यों के बाद एक पद्य निम्न प्रकार दिया है-
पंचादशशतान्याहुः षट्त्रिंशदधिकानि वै । शास्त्रस्य संग्रहरत्वेदं छंद सानुष्टभेन च ॥५॥
इसमें ग्रंथकी संख्या १५३६ श्लोक - परिमारण बतलाई है, जबकि उपलब्ध संस्कृत लोकविभाग में वह २०३० के करीब जान पड़ती है। मालूम होता है यह १५३६ की श्लोकसंख्या उसी पुराने प्राकृत लोकविभाग की है - यहाँ उसके संख्यासूचक पद्मका भी अनुवाद करके रख दिया है। इस संस्कृतग्रंथ में जो ५०० श्लोक जितना पाठ अधिक है वह प्रायः उन 'उक्तंच' पद्योंका परिमाण है जो इस प्रथमें दूसरे ग्रंथोंसे उद्धृत करके रक्खे गये हैं१०० से अधिक गाथाएँ तो त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी ही हैं, २०० के करीब श्लोक आदिपुराणसे उठाकर रक्खे गये हैं और शेष ऊपरके पद्य त्रिलोकसार तथा जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति आदि ग्रंथोंसे लिये गये हैं । इस तरह इस ग्रंथ में भाषाके परिवर्तन और दूसरे ग्रंथों से कुछ पयोंके 'उक्तंच' रूपसे उद्धरणके सिवाय सिंहसूरिकी प्राय: और कुछ भी कृति मालूम नहीं होती । और इसलिये इस सारी परिस्थितिपर से यह कहने में कोई संकोच नहीं होता कि त्रिलोकप्रज्ञप्ति में जिसलोकविभागका उल्लेख है वह वही सर्वनन्दीका प्राकृत लोकविभाग है, जिसका उल्लेख ही नहीं किंतु “अत्यकायप्रमाणात्तुं किंचित्संकुचितात्मकाः " || प्रक० ११
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१०
अनेकान्त
कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५
अनुवादितरूप संस्कृत लोकविभागमें पाया जाता है। शकराजा अथवा शकसंवतसे ६०५ वर्ष ५ महीने चंकि उस लोकविभागका रचनाकाल शकसं० ३८० पहले हुआ है, जिसका उल्लेख त्रिलोकप्रज्ञप्ति में भी है,अतः त्रिलोकप्रज्ञप्ति के रचियता यतिवृषभ शकसं० पाया जाता है । एकहजार वर्ष में से इस संख्या३८० के बाद हुए हैं, इसमें जराभी संदेह नहीं है। को घटानेपर ३६४ वर्ष ७ महीने अवशिष्ट रहते हैं। अब देखना यह है कि कितने बाद हुए हैं ? यही (शकसंवत ३६५) कल्किकी मृत्युका समय है।
(३) त्रिलोकप्रज्ञप्ति में अनेक कालगणनाओंके और इसलिये त्रिलोकप्रज्ञप्ति का रचनाकाल शकसं० आधारपर, चतुर्मुखनामक कल्किकी मृत्यु वीरनिर्वाण १०५ के करीबका जान पड़ता है, जबकि लोकविभाग स कहजार वर्ष बाद बतलाई है, उसका राज्य- को बनेहुए २५ वर्ष के करीब होचुके थे, और यह काल ४२ वर्ष दिया है, उसके अत्याचार तथा मारे अर्सा लोकविभागकी प्रसिद्धि तथा यतिवृषभ तक जानेकी घटनाओंका उल्लेख किया है और मृत्युपर उसके पहुँचनेके लिये पर्याप्त है। उसके पुत्र अजितंजयका दो वर्षतक धर्मराज्य होना लिखा है। साथही, बादको धर्मकी क्रमशः हानि (४) कुर्ग इन्सक्रिप्शन्स ( E. C. I. ) में बतलाकर और किसी राजाका उल्लेख नहीं किया है। मर्कराका एक ताम्रपत्र प्रकट हुआ है, जो कुन्दकुन्दके इस घटनाचक्र परसे यह साफ़ मालूम होता है वंशमें होनेवाले कुछ आचार्यों के उल्लेखको लिये हुए कि त्रिलोकप्रज्ञप्ति की रचना कल्किराजाकी मृत्युसे है और जिसमें उसके लिखेजानेका समय भी शक१०-१२ वर्षसे अधिक बादकी नहीं है। यदि अधिक संवत ३८८ दिया है। उसका प्रकृत अंश इस बादकी होती तो ग्रंथपद्धतिको देखते हुए यह संभव ,
प्रकार है:नहीं था कि उसमें किसी दूसरे प्रधान राज्य अथवा राजाका उल्लेख न किया जाता । अस्तु; वीरनिर्वाण
* "णिव्वाणे वीरजिणे छव्वाससदेसु पंचवरसेसु । *इस प्रकरणकीकुछ गाथाएँ इसप्रकार है. जोकि पालकादि राजाओंके राज्यकाल ९५८ का उल्लेख करने पणमासेसु गदेस संजादो सगणिो अहवा॥" के बाद दीगई है:
-त्रिलोकप्रशप्ति तत्तो कक्की जादो इंदसुदो तस्स चउमुहोणामो। सत्तरिवरिसा पाऊ विगुणिय-इगिवीसरजत्तो॥९९।। "पणछस्सय बस्संपणमासजुदं गमिय वीरणिवइदो। प्राचारांगधरादो पणहत्तरिजुत्तदुसयवासेपे ।
सगराजो तो ककी चदुणवतियमहियसगमासं ॥" बोलीणेसु बद्धो पट्टो कक्कीसणरवइणो । १००॥
-त्रिलोकसार कक्किसुदो अजिदंजय णामो रक्खति णमदि तच्चरणे । तं रक्खदि असुरदेो धम्मे रज्ज करेज्जंति ॥१०॥
वीरनिर्वाण और शकसंवत् की विशेष जानकारीके तत्तो दोवे वासो सम्मं धम्मो पयदि जणा।
लिये, लेखककी 'भगवान महावीर और उनका समय' कमसो दिवसे दिवसे कालमहप्पेण हाएदे ॥१०॥ नामकी पुस्तक देखनी चाहिये।
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वर्ष २ किरण १] श्रीकुन्दकुन्द और यतिवृषभमें पूर्ववर्ती कौन ?
११ ....... श्रीमान् कोंगणि-महाधिराज है। ऐसी हालत में कुन्दकुन्दका पिछला समय अविनीतनामधेयदत्तस्य देसिगणं कोण्ड- उक्त ताम्रपत्रसे २०० वर्ष पूर्वका तो सहज ही में हो
जाता है । और इसलिये कहना होगा कि कुन्दकुन्दाकुन्दान्वय-गुणचन्द्रभटार-शिष्यस्य अभ[य] चार्य यतिवृषभ से २०० वर्ष से भी अधिक पहले णंदिभटार तस्य शिष्यस्य शीलभद्रभटार- हुए हैं। शिष्यस्य जनाणंदिभटारशिष्यस्य गुणणाद- मर्कराके इस ताम्रपत्रसे यह बात भी स्पष्ट भटार-शिष्यस्य वन्दणन्दिभटारो अष्ट- होजाती है कि कुन्दकुन्दके नियमसारकी एक अशीति-उत्तरस्य त्रयो-शतस्य सम्वत्सरस्य गाथा में * जो 'लोयविभागेसु' पद पड़ा हुआ है माघमासं......"
उसका अभिप्राय सर्वनन्दीके उक्त लोकविभाग ग्रंथ
से नहीं है और न हो सकता है; बल्कि बहुवचनान्त ___ इस ताम्रपत्रसे स्पष्ट है कि शकसंवत ३८८ में
पद होनेसे वह 'लोकविभाग' नामके किसी एक जिन प्राचार्य वन्दनन्दीको जिनालयके लिये एक
ग्रंथविशेष का भी वाचक नहीं है । वह तो लोकविभागाँव दान किया गया है वे गुणनन्दीके शिष्य थे,
गविषयक कथनवाले अनेक ग्रंथों अथवा प्रकरणोंगुणनंदी जनानंदीके, जनानंदी शीलभद्रके, शीलभद्र के संकेतको लिये हुए जान पड़ता है और उसमें अभयनंदीके और अभयनंदी गुणचन्द्राचार्यके खुद कुन्दकुन्द के 'लोयपाहुड'-'संठाणपाहुड' जैस शिष्य थे । इस तरह गुणचन्द्राचार्य वन्दनंदीसे पाँच
ग्रंथ तथा दूसरे लोकानुयोग अथवा लोकालोकके
नशा पीढ़ी पहले हुए हैं और वे कोण्कुन्दके वंशज थे- विभागको लिये हुए करणानुयोग-सम्बंधी ग्रंथ उनके कोई साक्षात शिष्य नहीं थे।
भी शामिल किये जा सकते हैं। बहुवचनान्त पदअब यदि मोटे रूपसे गुणचंद्रादि छह आचार्यों के साथ होनेसे वह उल्लेख तो सर्वार्थसिद्धिके का समय १५० वर्ष ही कल्पना किया जाय, जो उस “इतरो विशेषो लोकानुयोगतो वेदितव्यः (३-२) समयकी आयुकायादिककी स्थितिको देखते हुए इस उल्लेखसे भी अधिक स्पष्ट है, जिसमें विशेष अधिक नहीं कहा जासकता, तो कुंदकुंदके वंशमें कथन के लिये 'लोकानुयोग' को देखने की प्रेरणा होनेवाले गुणचंद्रका समय शक संवत् २३८ (वि० की गई है, जोकि किसी ग्रंथ-विशेषका नाम नहीं सं० ३७३) के लगभग ठहरता है । और चूंकि गुण- किन्तु लोकविषयक ग्रंथसमूहका वाचक है । चंद्राचार्य कुंदकुंदके साक्षात शिष्य या प्रशिष्य नहीं और इसलिये 'लोयविभागेमु' इस पदका जो अर्थ थे बल्कि कुन्दकुन्द के अन्वय (वंश) में हुए हैं कई शताब्दियों पीछे केटीकाकार पद्मप्रभने “लोकऔर अन्वयके प्रतिष्ठित होने के लिये कम से कम विभागाभिधानपरमागमे" ऐसा एक वचनान्त ५० वर्षका समय मानलेना कोई बड़ी बात नहीं किया है वह ठीक नहीं है। उपलब्ध लोकविभाग* वह गाथा इस प्रकार है:
"चउदहभेदा भणिदातेरिच्छासुरगणा चउब्भेदा। एदेसि वित्थारं लोयविभागेसु णादवं" ॥१७॥
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अनेकान्त [कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५ में, जोकि सर्वनन्दी के प्राकृत 'लोकविभाग' का बारसअंगवियाणं चौदसपुव्यंगविपुल वत्थरणं । ही प्रायः अनुवादितरूप है, तिर्यचोंके उन चौदह सुयणाणिभद्दबाहू गमयगुरूभयव ओजयऊ। भेदों के विस्तार-कथनका कोई पता भी नहीं है,
___इस परसे यह कहा जासकता है कि पहली जिसका उल्लेख नियमसार की उक्त गाथा में किया
गाथा (नं० ६१) में जिन भद्रबाहु का उल्लेख है गया है। और इससे उक्त कथन अथवा स्पष्टीकरण किया
वे द्वितीय भद्रबाहु न होकर भद्रबाहु-श्रुतकेवली ही और भी ज्यादा पुष्ट हो जाता है।
हैं और कुन्दकुन्दने अपनेको उनका जो शिष्य (५) कुन्दकुन्द-कृत 'बोधपाहुड' के अन्त में एक
__ बतलाया है वह परम्परा शिष्यके रूप में उल्लेख है।
. गाथा (६१) निम्न प्रकार से पाई जाती है :- परन्तु ऐसा नहीं है। पहली गाथा में वर्णित भद्रसद्दवियारो हो भासासुत्तेसु जंजिणे कहियं । बाहु श्रुतकेवली मालूम नहीं होते; क्योंकि श्रुतसो तह कहियं णायं सीसेण य भद्दबाहुम्स ॥ केवली भद्रबाहुके समयमें जिन कथित श्रुतमें ऐसा
- कोई खास विकार उपस्थित नहीं हुआ था, जिसे ___ इसमें बतलाया है कि जिनेन्द्रने-भगवान् ।
__उक्त गाथा में “सद्दवियारो हूओ भासासुत्तेसु महावीरने-अर्थरूपसे जो कथन किया है वह
जं जिणे कहियं” इन शब्दों द्वारा सूचित किया भाषासूत्रों में शब्दविकार को प्राप्त हुआ है-अनेक
गया है-वह अविच्छिन्न चला आया था । परन्तु प्रकार के शब्दों में गंथा गया है.-भद्रबाहु के मुझ
दूसरे भद्रबाहु के समयमें वह स्थिति नहीं रही थीशिष्यने उन भाषासूत्रों परसे उसको उसी रूपमें
कितना ही श्रुतज्ञान लुप्त हो चुका था और जो अवजाना है और (जानकर इस ग्रंथ में) कथन किया है।
शिष्ट था वह अनेक भाषासूत्रों में परिवर्तित होगया __इससे बोधपाहुड के कर्ता कुन्दकुन्दाचार्य भद्र
था। इससे ६१ वीं गाथाके भद्रबाहु भद्रबाहुद्वितीय बाहु के शिष्य मालूम होते हैं । और ये भद्रबाहु
हु ही जान पड़ते हैं। ६२ वीं गाथा में उसी नाम से श्रुतकेवलीसे भिन्न द्वितीय भद्रबाहु जानपड़ते हैं,
प्रसिद्ध होने वाले प्रथम भद्रबाहुका अन्त्यमंगलके जिन्हें प्राचीन ग्रंथकारों ने 'आचारांग' नामक प्रथम राजयघोष किया गया है और उन्हें साफ तौर अंगके धारियों में ततीय विद्वान् सूचित किया है, से गमकगुरु' लिखा है । इस तरह दोनों गाथाओंऔर जिनका समय जैनकालगणनाओं * के अनु- में दो अलग अलग भद्रबाहुओं का उल्लेख होना सार वीर निर्वाण संवत् ६१२ अर्थात् विक्रम संवत् अधिक युक्तियुक्त और बुद्धिगम्य जान पड़ता १४२ से पहले भले ही हो परन्तु पीछे का मालूम है। अस्तु । नहीं होता। और इसलिये कुन्दकुन्दका समय ऊपरके इस समग्र अनुसंधान एवं स्पष्टीविक्रम की दूसरी और तीसरी शताब्दी तो हो करणसे, मैं समझता हूँ, विद्वानोंको इस विषयमें सकता है परन्तु तीसरी शताब्दीसे बादका वह कोई सन्देह नहीं रहेगा कि श्री कुन्दकुन्दाचार्य यतिकिसी तरह भी नहीं बनता।
वृषभसे पूर्ववर्ती ही नहीं, किन्तु कई शताब्दी यहाँपर इतना और भी प्रकट करदेना उचित पहलेके विद्वान हैं। जिन्हें कुछ आपत्ति हो वे मालूम होता है कि 'बोधपाहुड' की उक्त गाथाके सप्रमाण लिखनेकी कृपा करें, जिससे यह विषय अनन्तर निम्न गाथा नं० (६२) और दी है, जिसमें और भी अधिक स्पष्ट हो जाय । श्रुतकेवली भद्रबाहु का जयघोष किया गया है:- वीरसेवामन्दिर, सरसावा, ता० ३-८-१९३८
जैनकालगणनाओंका विशेष जाननेके लिये देखो, 'स्वामी समन्तभद्र' (इतिहास) का 'समय-निर्णय' प्रकरण तथा भगवान् महावीर और उनका समय' नामक पुस्तक पृष्ठ ३१ से |
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का अतीत स्मृति
MLA
WATEST
TIMI2.
प्रात्मा का बोध
(ले०-श्री यशपाल बी० ए०, एल० एल० बी. कण्डलपुरके यशस्वी राजा सिद्धार्थको मृत्युके कभी नहीं देखा।
कई वर्ष बादकी बात है। युवराज वर्द्धमान दूसरा कहता- हाय, साँप है कि अाफ़त है। गृहस्थ-आश्रम पारकर राज-पाटको छोड़ वनमें जिसकी ओर वह एकबार दृष्टि डालदेता है वह चलेगये थे और कुण्डलपुरके सिंहासनपर उनका वहीं भस्म होजाता है। क्या मज़ाल कि एक साँस ज्येष्ठ भ्राता नंदिवर्द्धन आसीन होगया था। युवराज भी तो लेले । के नगर छोड़देनेपर अभी चारोंओर अशान्ति फैली हुई थी।
तीसरा कहता-सच कहता हूं, मेरी आँखों
देखी बात है । वहाँ (उंगली से संकेत करके) वह उन्हीं दिनों कनखल तापसाश्रममें बड़ा आतंक
तपस्वी बैठता था न ? बिचारा छिनभरमें भस्म छागया । वर्षोंसे निवास करनेवाले तपस्वी आश्रम
होगया । उस भुजङ्गीके आगे किसीकी नहीं छोङ-छोड़कर अन्यत्र बसने जाने लगे। भला कौन उस आश्रमके समीप रहनेवाले विषधरकी
__ और पगडण्डीके सहारे विलाप करती हुई स्त्री मात्र एक दृष्टि से भस्म होजाना चाहता ? तपस्वी
मृत-प्राय होचली थी । उसका चार-पाँच बरसका सामान उठाकर चलते जाते थे और चर्चा करते
अबोध बालक उसकी छातीपर चढ़ा उसके रूखे जाते थे।
स्तनका पान कर रहा था और ध न पीकर कोई कहता-भैया, जंगलोंमें रहते-रहते ही अनायासही चीख मारकर रो उठता था। स्त्री मेरी उमर बीती है; लेकिन ऐसा अजगर मैंने बेसुध-सी पड़ी थी। रो रही है, बिलख रही है,
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१४
अनेकान्त
[कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५ इसका भी उसे ध्यान नहीं था। अचेतनावस्थामें लोग डरके मारे दूर हट गए । किसोको साहस ही वह देखरही थी कि कैसे वह ज़रा-सी देरमें न हुआ कि वहाँ पर ठहरकर अपने इष्ट-देवकी उस सधवा से विधवा बनगई। उसी अजगरने तो विष-धरसे रक्षा करता; लेकिन वर्द्धमान तनिक भी उसके पतिको राख कर दिया। बेचारे वे लोग भयभीत न हुए और शान्ति-पूर्वक ध्यानमें लगे आश्रम से दूर अपनी छोटी-सी कुटियामें आनन्द ही रहे। का जीवन व्यतीत कर रहे थे; लेकिन अभागेसे
कुछ देरके बाद सर्प अपने बिलसे निकला, वह सुख न देखा गया।
और अपनी बिवर पर एक आदमीको बैठा देखअसल बात यह थी कि उस तापसाश्रमके पास कर क्रोधसे लाल हो उठा । उसने कई बार अपनी एक सर्प इनदिनों आ बसा था। उसका विष इतना जीभ मुँहसे भीतर-बाहर की और विषभरी तीब्र था कि जिसकी ओर वह एकबार देख भी देता, आँखोंसे उस मूर्ति-वत् बैठे व्यक्ति की ओर देखा; वही जलकर राख होजाता । आश्रमके कई तपस्वी लेकिन उस असाधारण मानवका कुछ भी न उसके शिकार बन गए। जो बचे उन्होंने उचित बिगड़ा। समझा कि श्राश्रम छोड़दे और किसी दूसरे
सर्पने देखा उसकी वह दृष्टि जिसके आगे स्थानपर जा बसें । वे आश्रम छोड़-छोड़कर जाने
कभी कोई भस्म होनेसे नहीं बचा, उस आदमीपर लगे और उस रास्तेसे पथिकोंने भी आना-जाना
अपना प्रभाव डालनेमें असमर्थ प्रमाणित हुई है तो छोड़ दिया। थोड़े दिनोंमें ही वहाँपर भयंकरता
उसका क्रोध और बढ़गया। आँखोंसे चिनगारियाँ व्यापने लगी।
बरसने लगी और उसने कई बार अपना फन संध्या होने को थी। वर्द्धमान बनमें चक्कर धरतीमें मारा, जैसे उसके भीतर भरा गुस्सा उससे लगाते लगाते उसी मार्गपर आगए जिसपर कुछ सहा नहीं जारहा है।
आगे चलकर चंडकोसिया (सर्पका नाम था) की वह आगे बढ़ा और जोरसे उसने वर्द्धमानके बिवर थी । लोगोंने उन्हें उस सांपका विस्तृत पैर पर अपना मुँह मार दिया। क्षणभर रुका, हाल सुनाया और आग्रह किया कि वह उस मानो देखना चाहता था कि उसका शिकार अब मार्गपर आगे न बढ़े; लेकिन वर्द्धमानने एक न ,
__ भस्म हुआ, अब भस्म हुआ। लेकिन वर्द्धमान सुनी। वह उसी मार्गपर चलते गए, चलते गए।
ज्यों के त्यों ध्यानमें लगे रहे जैसे सर्पकी शक्ति उन्होंने उस सर्पको बोध देनेका विचार करलिया
और कोपका उन्हें लेशमात्र भी बोध नहीं है । था। इसीसे वह अपने विचारपर दृढ़ रहे, विचलित न हुए।
सर्प अपनी असमर्थतापर खीझ उठा । उसने
झुंझलाकर कई बार वर्द्धमानके पैर पर मुँह मारे; साँपकी बिवर आगई और वर्द्धमान उसीके लेकिन जरा-सा रुधिर निकालनेके अतिरिक्त वह ऊपर ध्यानावस्थ होंगए।
उन्हें कोई कष्ट न पहुंचा सका ।
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वर्ष २ किरण १]
श्रात्मा का बोध इतने में वर्द्धमान की समाधि टूटी। उन्होंने चंडकोसिया अब क्या करे ? क्या मर जाए ? देखा सामने एक सर्प क्रोधसे लाल अपनी उसने कहा, "भगवान् मुझे, दण्ड दीजिये। मैं विवशता पर खीजता हुआ खड़ा है।
क्षमा करने योग्य नहीं हूं।" उन्होंने उसे संकेत कर कहा.-क्रोधित क्यों और वह वर्द्धमानके चरनोंमें सिर डालकर होते हो, ओ सर्पदेव ? श्रानो, लो काट लो न ? .
ह र रोने लगा। चंडकोसिया चुप ! वह क्या कहे ? क्या
वर्द्धमानने उसे उठाया। बोले, “बन्धु, यह यह उसकी पराजय नहीं है ? उसने एक निरपराधी
दीनता कैसी ? उठो सीखो कि भविष्यमें कभी व्यक्ति को कष्ट पहुँचाने का प्रयत्न किया और वही
किसीको कष्ट न दोगे !" व्यक्ति शान्तिपूर्वक उसके साथ भाई-चारे का चंडकोसिया ज्यों का त्यों पड़ा रहा। व्यवहार कर रहा है ! जरा भी रोप उसे नहीं है। वर्द्धमानने कहा, "उठो, उठो, अपने आत्म
स्वरूपको पहचानो, मनमें दया रक्खो और मनसे वर्द्धमानने फिर कहा--ओ, नागराज ! किस
वचनस तथा कर्मसे जहाँतक होसके कभी किसी द्विविधा में हो ? लो, मैं तुम्हारे सामने हूँ। बचने
को दुख मत पहुंचाओ”। का प्रयत्न भी नहीं कर रहा हूँ। जहाँ चाहो काट चंडकोसिया को जातिस्मरण हो आया उसने सकते हो।
वर्द्धमानकी बाणीसे तृप्त होकर · कहा,
"भगवन ....." चंडकासिया धरती फट जाय तो उसमें समा
और सिर झुका-मुकाकर उसने अनेकों बार जाय । वह आज कितना क्षुद्र है? उसकी शक्ति
वर्द्धमानके सदुपदेशके प्रति कृतज्ञता प्रगट की, उस बली, वञऋषभ नाराच संहननके धारकके जैसे प्रदर्शित करना चाहता हो कि हे भगवान्, सामने कितनी सीमित है ?
तुमने मुझे आत्माका बोध कराया। मैं तो मूर्ख था,
निरा अज्ञानी ! वर्द्धमान ने कुछ ठहर कर कहा-भैया तुम
वर्द्धमानने अशीर्वाद दिया और वह अपनी क्या सोच रहे हो? मैं तैयार हूँ। तुम मुँह मार सकते विवरमें चला गया। हो । एक नहीं, जितने चाहो।
___ उसदिनसे फिर कभी किसीने चंडकोसिया ___ चंडकोसिया ने लज्जा से शिर झुका लिया। को हिंसक नहीं पाया । विवरसे निकलता था और बोला, "भगवन, मुझे क्षमा करो। मैं अपराधी मनुष्योंके साथ भाई-जैसा व्यवहार करता था। .'
थोड़े ही दिनोंमें उस उजड़े स्थानपर फिर __ वर्द्धमानने बीचमें ही रोककर कहा, "हैं-हैं,
तपस्वी श्रा बसे और तपस्या करने लगे। ऐसा न कहो, नागदेव ! तुम शक्तिमान हो ! तुमने
* इस कहानी की मूल कथावस्तु श्वेताम्बर-प्रन्याश्रित
है; परन्तु उसे भी यहाँ कुछ परिवर्तित करके अगणित व्यक्तियोंको अपने तेज-बलसे भस्म
रखा गया है। करदिया है।"
--सम्पादक
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उपरम्भा
[लेखक-श्री भगवत्स्वरूप जैन 'भगवत्']
मर्यादा पुरुषोत्तम-रामकी-प्राणेश्वरी-सीता- आश्चर्यप्रद था। जिसकी कल्पना तक उसके हृदय
- का रावणने हरण किया। इस कृत्यने संसार- में मौजूद न थी। की नजरों में उसे कितना गिराया,यह आप अच्छी उसने अनुभव किया--आज उसकी स्वामिनीकी तरह जानते हैं। लेकिन क्या आप यह भी जानते मनोवृत्ति में आमूल परिवर्तन है । स्वभावत: मुख हैं कि वह कितना महान था ? उसकी जीवन-पुस्तक
मण्डलपर विराजने वाला तेज, दर्प, विलीन हो में केवल एकही पृष्ठ है । 'जो दूषित है । वरन
चुका है। वाणी की प्रखरतामें याचक-कण्ठ की सारी पुस्तक प्यारकी वस्तु है । इसे पढ़िये कोमलता छिप गई है। उसके व्यवहारमें आज इसमें चित्रका दूसरा पहलू है । जो .. .. ... .!'
शासकता नहीं, दलित-प्रजाकी क्षीण-पुकार अव__ [१]
शिष्ट है । लेकिन यह सब है. क्यों ?-यह वह अन्तःपुरमें
न समझ सकी। ..........और कुछ देर तक तो विचित्र
उस सुसज्जित-भव्य-भवन में केवल दो-ही
तो हैं। फिर उसकी स्वामिनी हृदयस्थ-बातको माला' स्वामिनीके हृदयरहस्यसे अनिभिज्ञ ही
क्यों इतना संकोचके साथ बयान करना चाहती रही। स्पष्ट भाषा और विस्तृत-भूमिका कही जानेपर
है ? क्या वास्तवमें कोई गूह-रहस्य है ?.. 'और भी उसकी समझमें कुछ न आया।
वह रहस्य कहीं प्रेम-पथका तो नहीं ? वह चतुर थी। दासित्व का अनुभव उसका नारी-हृदयका अन्वेषण-कार्य प्रारम्भ हुआ। बहुत पुराना था। स्वामिनीका 'रुख' किधर है, वह विचारने लगी इतने बड़े प्रतापशाली महाराजयह बात वह अविलम्ब पहिचान लेती थी। किन्तु की पटरानी क्या किसीका हृदयमें आव्हान कर
आज, जैसे उसकी समग्र चतुरतापर तुषार-पात हो सकती है ? छिः पर-पुरुष। ...कोरी विडम्बना !!" गया । यह पहला मौका था, जब वह इस तरह परास्त हुई । शायद इसलिए कि उसकी स्वामिनोने पर उसी समय, उसकी एक अन्तरशक्तिने आज जो कार्य सौंपा, जो प्रस्ताव सामने रखा, वह इसकी प्रतिद्वन्दता स्वीकारकी। ...... हाँ, हृदय, सर्वथा नवीन, सर्वथा अनूठा और सर्वथा हृदय है। उसका तकाजा ठुकराया नहीं जाता।
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वर्ष २ किरण १]
वह सब कुछ कर सकता है। उसकी शक्ति सामर्थ्य सुदूर - सीमावर्तिनी है ।'
उपरम्भा
मनके संघर्ष को दबाये, वह स्वामिनीकी तरफ देखती - भर रही। इस आशासे कि वे कुछ स्पष्ट कहें। और तभी
स्वामिनीके युगल - अधरोंमें स्पन्दन हुआ । शुभ्रदन्त-पंक्तिको सीमित कारावासके बाहर क्या है ? - यह देखनेकी इजाजत मिली, अरुण, कोमल कपोलों पर लालिमाकी एक रेखा खिंची । पश्चात् — नव-परिणीता- पत्नीकी भाँति सलज्जवारणी प्रस्फुटित हुई!–
'तू मेरी प्यारी सहेली है, तुझसे मेरा क्या छिपा है | कुछ छिपाया भी तो नहीं जासकता । भेदकी गुप्त-बात तुझसे न कहूँ तो, कहूँ फिर किससे...?—-सखीको छोड़, ऐसा फिर कौन ?... मेरे दुख-सुखकी बात ।' रानी साहिबा - ने बातको अधूरा ही रहने दिया । बात कुछ बन ही न पड़ी इसलिये, या देखें सखीका क्या आइडिया है - अभिमत है, यह जाननेके लिए ।
१७
उसे पूर्णताका रूप देना- मेरा काम ! मैं उसे प्राणों की बाजी लगाकर भी पूरा करनेकी चेष्ठा करूँगी ।
सखीको महारानीसे कुछ प्रेम था, सिर्फ वेतन या दासित्व तक की ही मर्यादा न थी । समस्याका कुछ आभास मिलते ही उसने अपने हृदय उद्गारोंको बाहर निकाला- आप ठीक कह रही हैं, महारानी, कोई भी बात आपको मुझसे न छिपाना चाहिये । और मैं शक्ति-साध्य कार्य भी यदि आपके लिये सम्पन्न न कर सकी तो — मेरा जीवन धिक्कार । आप विश्वास कीजिए— मुझसे कही हुई बात आपके लिये सुखप्रद हो सकती है। दुखकर कदापि नहीं । आपकी अभिलाषाको मुझ तक आना चाहिये, बगैर संकोच, झिझकके ! इसके बाद
'लेकिन सखी! बात इतनी घृणित है, इतनी पाप -पूर्ण है, जो मुँह से निकाले नहीं निकलती । मैं जानती हूँ - ऐसा प्रस्ताव मुझे मुँहपर भी न लाना चाहिए। मगर लाचारी है, हृदय समझाये नहीं समझता । एक ऐसा नशा सवार है, जो-या तो मिलन या प्रारण-विसर्जन- पर तुला बैठा है। मैं उसे ठुकरा नहीं सकती। कलंक लग जायेगा, इसका मुझे भय नहीं । लोग क्या कहेंगे, इसकी मुझे चिन्ता नहीं । मैं...तो बस, अपने हृदय के ईश्वरको चाहती हूँ । .- महारानी के विव्हलकण्ठने प्रगट किया । शायद और भी कुछ प्र होता, कि विचित्रमालाने बीच ही में टोका'.. परन्तु वह ईश्वर है कौन ? '
1
6..
‘लंकेश्वर-महाराज-रावण !' - अधमुँदी - आँखोंमें स्वर्ग-सुखका आव्हान करती -सी, महारानी कहने लगी - ' शायद तू नहीं जानती ! मैं उस पुरुषो - तमपर, आजसे नहीं विवाहित होने के पूर्व से ही, प्रेम रखती हूँ, मोहित हूँ | तभीसे उसके गुणोंकी. रूपकी, और वीरताकी, हृदयमें पूजा करती रही हूँ । लेकिन कोई उचित, उपयुक्त अवसर न मिलनेसे चुप थी, परन्तु — श्रब ं 'आज वह शुभ दिवस सामने है, जब मैं उसतक अपनी इच्छा पहुँचा सकूं। उसके दर्शनकर, चरणों में स्थान पाकर, अपनी अन्तराग्नि शान्त कर सकं !! वह आज समीप ही पधारे हैं। हमारे देशपर विजयपताका फहराना उनका ध्येय है। काश ! उन्हें मालूम होता कि देशकी महारानीके हृदयपर वह कबसे शासन कर रहे हैं !"
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अनेकान्त _[कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५ 'तो' ?'-विचित्रमालाने स्वयं भी कुछ पर डाली, वे बोले-साक्षात् करने में कोई हानि कहना चाहा । पर महारानीने मौका ही न दिया ! नहीं ! सम्भव है, गढ़विजयकी कोई युक्ति बतवह बोलीं-'मैं वुछ सुनना नहीं चाहती-विचित्र- लाये ।' माला ! बस, मुझे तो कहनाही है, सिर्फ कहनाभर ! और शायद अन्तिम ! • 'अगर तुम मेरा
_ 'अच्छा भेजदो, पिछले खेमेमें ।' जीवन चाहती हो, तो मुझे आज उनसे मिलादो,
___ 'जो आज्ञा !'-प्रहरी चला गया। नहीं, मैं आत्मघातकर प्यारेकी आराधना-वेदीपर
लंकेश एकान्त-खेमेमें उसकी प्रतीक्षा करने बलिदान होजाऊँगी।'
लगे। विभीषण बराबरके शिविरमें विराजे रहे।
उसी समय, श्याम-वस्त्रोंसे सुसज्जित विचित्र 'इतनी कठिनता न अपनाओ-स्वामिनी, मालाने प्रवेश किया ! मुझपर विश्वास रखो, मैं अभी उनसे जाकर निवेदनकर , तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण कराऊँगी। मेरा धर्म तुम्हारी आज्ञा पालनमें है , इसे मैं खूब
... · उनका नाम है-उपरम्भा ! हैं तो नारी, जानती हूँ। धैर्य रखो-मैं इस कार्यमें जो बन परन्तु किन्नरी भी उनके सौन्दर्यका लोहा मानती पड़ेगा, सब करूंगी।'
है। वह पृथ्वीकी रम्भा हैं । चाँद-सा बदन, महारानी गद्गद होगई।
कोयल-सा स्वर, मराल-सी गति और सौन्दर्यकी दूसरे ही क्षण विचित्रमाला महारानीकी साक्षात प्रतिमूर्ति ! यौवनका विराम-सदन ! महासुदीर्घ, कोमल, बाहु-पाशमें आबद्ध थी। राज नल-कुंवर, जिनकी यशस्विता सर्वत्र व्याप्त
है, उनकी प्राण-प्यारी पटरानी हैं--वह !'दासीने अपनी सफलताकी भूमिका बाँधी ! लेकिन
दशाननने मुँहपर अरुचिका भाव लाते हुए कहा'कौन ? महाराज नलकुँवरकी पटरानी उपरम्भाकी दासी... ? ...'
'अच्छा । अब मतलबकी बात कहो।' 'हाँ, महाराज!'
दासी चुप । ... क्या ये बे मतलबकी बाते 'क्या चाहती है ?-इतनी रात बीते यहाँ हैं ? . . ' व्यर्थ हैं . . . ?'-वह फिर कहने लगीआनेका कारण ?
'मैं महारानी उपरम्भाकी अन्तरंग-सखी हूँ, मुझे 'ज्ञात नहीं ! वह आपसे एकान्तमें मिलनेकी उन्हींने आपके पास भेजा है।' इच्छा प्रगट करती है ! बतलाती है, बात अत्यन्त
'किसलिए ?'—ांभीर प्रश्न हुआ। गोपनीय है, प्रगट नहीं की जासकती।'
इसलिए कि वह आपपर मोहित हैं। आपकी ..'लंकेश्वरने एक भेद-भरी दृष्टि विभीषण कृपा-काँक्षिणी हैं । संयोग-याचना करती हैं । वह
"
गदहागइ।
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उपरम्भा
वर्ष २ किरण १] बहुत-दिनसे आपके नामकी माला जपती श्रारही उसकी प्राण-रक्षाके निमित्त मुझे सब कुछ करना हैं। अब उनका जीवन केवल आपके कृपा-दान होगा। जाओ उसे शीघ्र ही मेरे समीपले श्राओ। पर ही निर्भर है। उनका हृदयांचल सिर्फ एक वस्तु मैं उसकी प्रतीक्षामें हूँ।' चाहता है-मिलन या मृत्यु ।'-विचित्र-मालाने
___ दासीके हर्षका क्या ठिकाना ? वह वाणीसे, स-शीघ्र स्वामिनीका सन्देश सामने रख दिया।
आकृतिसे, सारे शरीरसे अभिवादन करती, उधर-कठिनता-पूर्वक महाराज रावण, खेमेसे बाहर निकली। उसके हृदय में सफल-चेष्ठामर्यादा और उज्वल चरित्रके उपासक-उपयुक्त- की खुशी लहरें ले रही थी। शब्दोंको सुन सके । जैसेही दासीका मुँह बन्द हुआ कि दोनों कानोंपर हाथ रख, खेद-भरे स्वरमें धन्य ! उस यौवन और सौन्दर्यकी मूर्तिमान बोले-'उफ् ! उफ् !! यह मैं क्या सुन रहा हूँ। यह प्रतिमा-उपरम्भा को देखकर भी रावणका हृदय जघन्य-पाप ॥ भद्रे ! अपनी स्वामिनीसे कहना किन
विचलित न हुा । वह अटल-भावसे उसकी ओर मैं पर-नारी को अंगदान देने के लिये दरिद्री हूँ।
देखता रहा। एक-दम असमर्थ हूँ। मुझसे ....... ।'
उपरम्भाकी वेश-भूषा आज नित्यकी अपेक्षा दासी अवाक् !
कहीं, बहुमूल्य, आकर्षक और नेत्रप्रिय थी । उसने .. यह मनुष्य है या देवता ? · · · गृहस्थ है या
था आज लगनके साथ शृंगार किया था। भूषणोंके वासना-विजयी-साधु ? दुर्लभ प्राप्त प्रेमीकी यह १
आधिक्यके कारण वह भारान्वित थी अवश्य । अवहेलना ?--यह निरादर ? ।
पर उसका पैर आज फूल-सा पड़ता था। मनमें __उसी समय बराबरके शिबिरका पट-हिला। खुशी जो थी, फूल जो थी। ... महाराज रावण उधर चले। सामने विभीषण।
वह आई । उसने अभिवादन किया। रावणने वह बोले-'भूलते हो-भाई ! यह राजनीति हैं। एक मधर-मुस्कानमें उसका प्रत्युत्तर दिया। संकेत केवल सत्यसे यहाँ काम नहीं चलता।इसे
प्राप्त कर, योग्य-स्थानपर वह बैठ गई। ऐसा कोरा जवाब न दो। अवश्य ही उपरम्भा वश होकर गढ़-विजयकी कोई गुप्त-युक्ति बतलाएगी।
वह मधु-निशीथ ! चतुर्दिक नीरवताका क्या तुम्हें मालूम नहीं, नल कुँवरने कैसा दुर्भेद्य, साम्राज्य। बाहर ज्योत्स्ना रजत-राशि बखर रही मायामयी प्रासाद निर्माण किया है ? जिसके समीप थी।मलय-समीर मन्थर-गतिसे बिहार कर रहाथा। जाना तक दुरूह ।
-और उसी समय, उस भव्य खेमेमें उपरावण लौटे । मुखपर प्रसन्नता थी। बोले- रम्भाने अपनी मधुर-ध्वनि-द्वारा निस्तब्धता भंग 'मैं ऐसा जघन्य-पाप हर्गिज न करता। लेकिन की।जब वह प्राणन्त तकके लिए उद्यत है, तो ... 'प्राणेश्वर ! मेरी अभिलाषा आप तक पहुँच
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२०
अनेकान्त
[कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५
दसर
दिन
चुकी है। और आपने उसका सन्मान भी किया कि उसके पतिका कितना पराभव होगा, क्या है। अब इस वियोगाग्निको अंग-दान द्वारा शान्ति होगा; गढ़-ध्वंस-कारिणी-विद्या रावणको दे ही दी। दीजिए। विलम्ब असहनीय बन रहा है-प्रभु ! ओफ़् ! नारीके विचलित-हृदय ! आओ ...।'
तभी उसने बढ़कर महाराज रावणके कण्ठमें अपनी बाहु-पाश डालनी चाही । रावणने देखाउपरम्भाके हृदय में वासना आँधी-प्रलयका सन्देश वह दुर्भेद्य-नगर महाराज-रावणके आधीन सुना देनेके लिए व्यग्र होरही है। आँखें उन्मादसे था। सारी प्रजाके मुँहपर रावणके नामका जयघोष
ओत-प्रोत होरही हैं। वाणीमें विव्हलता समाचुकी था। वह भयंकर मायापूर्ण-दुर्ग विलीन हो चुका है। और वह एक दम पागल है। उसे अपनी था। कलतक सिंहासनपर विराजने वाले महाराज मर्यादाका ध्यान नहीं।
नलकुँवर आज बन्दीके रूपमें-रावणके प्रचण्ड___ 'भद्रे ! तुम्हारी इच्छा मुझसे छिपी नहीं। तेजके आगे खड़े हुएथे। शेष सब ज्योंका त्यों
था। ... मेरी इच्छा भी तुम्हारे अनुकूल ही है । परन्तु थोड़ा अन्तर है । मैं चाहता हूँ तुम्हारा समागम स्वाधी- उपरम्भा अपने पतिके समीप खड़ी हुई थी। नतापूर्वक राज-प्रासादके भीतर ही हो । यों जंगलों- हृदयमें द्वन्द चल रहा था-पता नहीं कैसा ... ? में पशुओंकी तरह क्या आनन्द ? कहो, तुम सब दरबारी उपस्थित थे। क्या सम्मति रखती हो ? . . . ' रावणने उसके 'सुनो ।'-रावणने उपरम्भाको संकेत आलिंगन-अवसरको व्यर्थ करते हुए, जरा मिठास- करते हुए कहा-'तुम स्वयं जानती हो, पूर्वक पूछा।
पर-पुरुष-संगम कितना जघन्य-पाप है । और इसके __...' जैसी तुम्हारी इच्छा हो-प्यारे ! तुम्हारी अतिरिक्त-तुमने मुझे विद्यादान दिया है, अतः खुशीमें ही मेरा श्रानन्द है, सुख है !! . . . . '
तुम मेरी 'गुरानी' हो, पूज्य हो । मैं तुम्हारे -उपरम्भाके उत्तेजित-मनने व्यक्त किया।
आनन्द, सुख और सम्भोगके लिए महाराज नल'तो उस मायामय-गढ़-ध्वंसका उपाय . . . ?'
कुँवरको बन्धन-मुक्त कर तुम्हें देरहा हूँ। जाओ, -बातको बहुत साधारण ढंगकी बनाते हुए, रावण- उनके साथ आनन्द करो। पुरुष-पुरुषमें कोई भेद ने प्रश्न किया।
नहीं, मुझे क्षमा करो।... 'उपाय · · ?–जब तुमसे मेरी इच्छा छिपी उपरम्भाका हृदय आत्म-ग्लानिसे भर गया। न रह सकी, तो उपाय कैसे रह सकता है । सुनो उसने समझा-रावण कितना महान है ! कितना गढ़-ध्वंशका उपाय यह है कि ...... .. ...
उच्च है ! वह पुरुष नहीं, पुरुषोत्तम है ! वन्दनीय -और उस मुग्धाने बगैर इसकी चिन्ता किये है !! ......
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, तत्वचची
HA
4
३
- अनेकान्तवाद
लेखक-पं० मुनि श्रीचौथमलजी] जैन-धर्म एवं जैनदर्शनमें जिन बहुमूल्य साधारणका सिद्धान्त बन जाना चाहिए सिद्धान्तोंका प्ररूपण किया गया है उनमें 'अने- था वह सिर्फ जैन-दर्शन तक ही सीमित कान्त' मुख्य है।
रह गया औरउसेभी अनेकान्तवादकीम- इस लेखके लेखक मुनि श्रीचौथमलजी
साम्प्रदायिकताकारूप हत्ता. उपयोगिता श्वे० स्थानकवासी जैनसमाजके एक
धारण करना पड़ा। और वास्तविकताको प्रधान साक्षर साधु और प्रसिद्ध वक्ता हैं ।
दूसरे,दर्शनशास्त्रोंके देखते हुए, उसे जैन- आपका यह लेख महत्वपूर्ण है और उसपरसे
परस्पर विरोधोदृष्टि साहित्यमें जो स्थान मालूम होता है कि आपने अनेकान्त-तत्त्वका
कोण, जो जनताको प्राप्तहुआ हैवहसर्व
अच्छा मनन और परिशीलन किया है। भ्रममें डालतेहैं, एकथा उचित ही जान
तभी आप विषयको इतने सरल ढंगसे दूसरेसे पृथक ही बने पड़ता है। अनेका
समझाकर लिख सके हैं । लेख परसे पाठकों- रहे-उनका समन्वय न्तवाद वस्तुतःजैनको अनेकान्त-तत्त्व के समझने में बहुत कुछ
न होसका। दर्शनशा दर्शनका प्राण है।
आसानी होगी । आशा है सेवाधर्मके लिये। स्रोंके इस पृथक्त्वने यद्यपि इसे अन्यान्य दर्शनकारोंनेभीकहीं
दीक्षित मुनिजीके लेख इसी तरह बराबर । साम्प्रदायिकताखड़ी
अनेकान्त' के पाठकोंकी सेवा करते रहेंगे। कहीं अपनाया है पर
करके जनतामेंधार्मि
-सम्पादक अधिकांशमें उन्होंने
क असहिष्णुताको इसकी उपेक्षा ही की है। इस उपेक्षाका एक उत्पन्न किया सो तो किया ही, पर उसने फल तो यह हुआ कि जो 'अनेकान्त' मर्व अखण्ड सत्यका प्रकाशन भी न होने दिया ।
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२२
अनेकान्त
[कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५ कुछ दार्शनिक विद्वानोंने तो अनेकान्तवाद- नयवाद उनमें मुख्य हैं। नयवाद वस्तुमें विभिन्न के विरोधका भी प्रयत्न किया है; पर उन्हें अस- धोका आयोजन करता है और सप्तभंगीवाद एकफल होना ही चाहिए था और वैसा हुआ भी, एक धर्मका विश्लेषण करता है। कुछ उदाहरणों यह हम नहीं आजके जैनेतर निष्पक्ष विद्वान भी द्वारा नीचे इसी बिषयको स्पष्ट किया जाता स्वीकार करते हैं। कुछ लोगोंने अनेकान्तवादको है:संशयवाद कहकर भी अपनी अनभिज्ञता प्रदर्शित
बौद्ध दार्शनिक प्रत्येक पदार्थको क्षणभंगुर की है, पर उसके विवेचनकी यहाँ आवश्यकता नहीं है।
मानते हैं। उनके मतसे पदार्थ क्षण-क्षण नष्ट
होता जाता है और अव्यवहित दूसरे क्षणमें ज्यों हम संसारमें जो भी दृश्य पदार्थ देखते हैं का त्यों नवीन पदार्थ हो जाता है। इसके विरुद्ध अथवा आत्मा आदि जो साधारणतया अदृश्य कपिलका सांख्य दर्शन कूटस्थ नित्यवादको अंगीपदार्थ हैं, उन सबके अविकल ज्ञानकी कुंजी कार करता है । इसके मतसे सत्का कभी विनाश अनेकान्तवाद है। अनेकान्तवादका आश्रय लिए नहीं होता और असत्का उत्पाद नहीं होता। बिना हम किसी भी वस्तुके परिपूर्ण स्वरूपसे अतएव कोई भी पदार्थ न तो कभी नष्ट होता है, अवगत नहीं होसकते । अतएव अन्य शब्दोंमें यह न उत्पन्न होता है। इसी प्रकार वेदान्त दर्शनके कहा जासकता है कि 'अनेकान्त' वह सिद्ध यंत्र अनुसार इस विशाल विश्वमें वस्तुओंकी जो विविहै जिसके द्वारा अखण्ड सत्यका निर्माण होता है धता दृष्टिगोचर हो रही है सो भ्रम-मात्र है ।
और जिसके बिना हम कदापि पूर्णतासे परिचित वस्तुतः परम-ब्रह्मके अतिरिक्त कोई दूसरी सत्ता नहीं होसकते।
नहीं है। वस्तुओंकी विविधता सत्ता-रूप ब्रह्मके
ही विविध रूपान्तर हैं। इस प्रकार वेदान्त अद्वैतप्रत्येक पदार्थ अपरिमित शक्तियों-गुणों
। वादको अंगीकार करता है। इसके विरुद्ध अनेक अंशोंका एक अखण्ड पिण्ड है। पदार्थकी वे
दार्शनिक परमात्मा, जीवात्मा और जड़की पृथक शक्तियाँ ऐसी विचित्र हैं कि एक साथ मित्रभावसे
पृथक् सत्ता स्वीकार करते हैं और कोई-कोई जीव रहती हैं, फिर भी एक दूसरेसे विरोधी-सी जान
और जड़ का द्वैत मानकर शेष समस्त पदार्थोंका
। पड़ती हैं, उन विरोधी प्रतीत होने वाली शक्तियों .
इन्हींमें अन्तर्भाव करते हैं। का समन्वय करने, उन्हें यथायोग्य रूपसे वस्तुमें . स्थापित करनेकी कला 'अनेकान्तवाद' है। जैसे जब कोई भद्र जिज्ञासु दर्शन-शास्त्रोंकी इस अन्यान्य कलाओंके लिए कुछ उपादान अपेक्षित विवेचनाका अध्ययन करता है तो वह बड़े असहैं उसी प्रकार अनेकान्तकलाके लिए भी उपादानों- मंजस में पड़जाता है। वह सोचने लगता है कि । की आवश्यकता है। उन उपादानोंका जैन-दर्शनमें मैं अपनेको क्षणिक समझं या कूटस्थ नित्य विस्तृत विवेचन किया गया है । सप्तभंगीवाद और मानलं ? मैं अपने आपको परम ब्रह्मस्वरूप मान
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वर्ष २ किरण १
अनेकान्तवाद
कर कृतार्थ होऊँ या उससे भिन्न जीवात्मा समझं ? साहचर्य सिद्ध करता है। यदि सचमुच मैं क्षणिक हूँ-उत्तरकालीन क्षणमें अनेकान्तवाद बतलाता है कि वस्तु द्रव्यही यदि मेरा समूल विध्वंस होने जारहा है तो रूप भी है पर्यायरूप भी। मनुष्य, सिर्फ मनुष्यफिर धर्मशास्त्रों में उपदिष्ट अनेकानेक अनुष्ठानोंका ही नहीं है बल्कि वह जीव भी है और जीव सिर्फ क्या प्रयोजन है ? क्षणभंगुर आत्मा उत्पन्न होते जीवही नहीं वरन् मनुष्य, पशु आदि पर्याय-रूप ही नष्ट होजाता है तो चारित्र आदि का अनुष्ठान भी है। इसी प्रकार प्रत्येक वस्तु द्रव्य भी है और कौन किसके लिये करेगा ? यदि मैं क्षणभंगुर न पर्यायभी है। यद्यपि द्रव्य और पर्यायका पृथक्होकर कूटस्थ नित्य हूँ-मुझमें किसी भी प्रकार करण नहीं किया जासकता फिरभी उनकी भिन्नका परिवर्तन कदापि होना संभव नहीं है, तो अन
ताका अनुभव किया जासकता है। यदि कोई न्तकाल तक मैं वर्तमान कालीन अवस्थामें ही
कागजके एक टुकड़ेको अग्निमें जलादे और इस रहूँगा । फिर संयम और तपश्चरण के संकटों में
प्रकार उसकी अवस्था-पर्यायको परिवर्तित करदे पड़ने की क्या आवश्यकता है ?
तो ऐसा करके वह उसके जड़त्वको कदापि नहीं और यदि वेदान्त-दर्शनकी प्ररूपणाके अनुसार
बदल सकता। इससे यह स्पष्ट है कि पर्यायोंका प्रत्येक पदार्थ परमब्रह्म ही हैं तबतो हमें किसी
उलटफेर तो होता है परन्तु द्रव्य सदैव एक-सा प्रकारकी साधना अपेक्षित ही नहीं है। ब्रह्मसे उन बना रहता है। पर्यायोंके परिवर्तनकी यदि हम तर पद तो कोई दसरा है नहीं जिसकी प्राति सावधानोमे अनुभव करें तो हमें प्रतीत होगा कि लिए उद्योग किया जाय ? यदि परमात्मा मूलतः
परिवर्ततका क्रम प्रतिक्षण जारी रहता है। कोईभी जीवात्मासे भिन्न है तो जीवात्मा कभी परमात्मपद
नई वस्तु किसी खास नियत समयपर पुरानी नहीं का अधिकारी न हो सकेगा । फिर परमात्मपद
होती। बालक किसी एक नियत समय पर युवक प्राप्त करनेके लिए प्रयास करना निरर्थक है।।
नहीं बनता । बननेका क्रम प्रतिक्षणही चालू
रहता है। इस प्रकार द्रव्यकी पर्यायें प्रतिक्षण पलइस प्रकार विरोधी विचारोंके कारण किसी
टती रहती हैं। अत: पर्यायकी अपेक्षा वस्तुको भी जिज्ञासुमुमुक्षका गड़बड़में पड़ जाना स्वाभा- प्रतिक्षण विनश्वर कहा जासकता है। किन्तु द्रव्य विक है। ऐसे समय जब कोई व्यक्ति निराश अपने मल स्वरूपका कभी परित्याग नहीं करता। होजाता है तो अनेकान्तवाद उसका पथ-प्रदर्शन जो जीव है वह भले ही कभी मनुष्य हो, कभी पशुकरके उसे उत्साह प्रदान करता है। वह इन पक्षी हो, कभी कीड़ा-मकोड़ा हो, पर वह जीव तो विरोधोंका मथन करके उलझी हई समस्याओंको रहेगा ही। द्रव्यरूपसे पदार्थका व्यय कदापि नहीं सुलझा देता है। अनेकान्तवाद विरोधी प्रतीत
हो सकता। अत: द्रव्यकी अपेक्षा प्रत्येक वस्तु
त नित्य कही जासकती है। इस प्रकार अनेकान्तहोनेवाले क्षणिकवाद और नित्यवादको विभिन्न वाद नित्यत्व और अनित्यत्वका समन्वय करता दृष्टिबिन्दुओंसे अविरोधी सिद्ध करके उनका है।
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अनेकान्त
स्वामी अपने सेवक से कहता है- 'एक जानवर लाओ ।' सेवक गाय, भैंस या घोड़ा कुछ भी ले आता है और स्वामी इससे परितुष्ट होजाता है । फिर स्वामी कहता है- 'गाय लाभो ।' सेवक यदि घोड़ा लेता है तो स्वामीको सन्तोष नहीं होता । क्यों ? इसीलिये कि पहले आदेश में सामान्यका निर्देश था और उस निर्देशके अनुसार प्रत्येक
वर एक ही कोटि में था । दूसरे आदेश में विशेका निर्देश किया गया है और उसके अनुसार गाय अन्य पशुओं से भिन्न कोटिमें आगई है। इस प्रकार जान पड़ता है कि सामान्यकी अपेक्षा प्रत्येक पदार्थ एक है और विशेषकी अपेक्षा सब जुदा-जुदा हैं। जब ऐसा है तो सामान्य रूप से (सत्ताकी अपेक्षा) समस्त पदार्थोंको एक रूप कहा जा सकता है और इस प्रकार वेदान्तका अद्वैतवाद तर्कसंगत सिद्ध होजाता है। किन्तु जब हमारा लक्ष्य विशेष होता है तो प्रत्येक पदार्थ हमें एक दूसरे से भिन्न नजर आता है अतः विशेषकी अपेक्षा द्वैतवाद संगत है। इस प्रकार अनेकान्तवाद द्वैत और अद्वैतको समस्याका समाधान करता है ।
[कार्तिक, वीर निर्वाण सं० २४६५
पर्याय को मुख्यता प्रदान करता है वह पर्यायार्थिकनय कहलाता है । जैसे संगीत कलाका आधार नाद है उसी प्रकार समन्वय कला या अनेकान्तवादका आधार नय है। नयों का यहाँ विस्तृत विवेचन करना संभव नहीं है। नयवाद बड़ा विस्तृत है । कहा है- “जावइया वयणपहा तावइया चेव दुति नयवाया।” अर्थात् वचनके जितने मार्ग हैं उतने ही नयवाद हैं ।
ऊपर जिन अपेक्षाओं, दृष्टिकोणों या अभिप्रायोंका उल्लेख किया गया है वेही जैन-दर्शनसम्मत नय हैं । नय, बोधके वे अंश हैं जिनके द्वारा समूची वस्तु से किसी एक विवक्षित गुरणको ग्रहण किया जाता है और इतर गुणोंके प्रति उपेक्षा भाव धारण किया जाता है। इन नयोंके द्वारा ही विरोधी धर्मोंका ठीक-ठीक समन्वय किया जाता है। जो दृष्टिकोण द्रव्यको मुख्य मानता है उसे द्रव्यार्थिक-नय कहते हैं और जो अभिप्राय
अनेकान्त - सिद्धान्त का दूसरा आधार सप्तभंगीवाद है । सप्तभंगीवाद, जैसा कि पहले कहा गया है, प्रत्येक धर्म का विश्लेषण करता रहता है और उससे यह मालूम होता है कि कोई भी धर्म वस्तु में किस प्रकार रहता है। एक ही वस्तु के अनन्त-धर्मो में से किसी एक धर्मके विषय में विरोध-रहित सात प्रकारके वचन प्रयोगको सप्तभंगी कहते हैं । उदाहरणार्थ अस्तित्व-धर्म को लीजिए | अस्तित्व धर्मके विषयमें सात भंग इस प्रकार बनते हैं—
(१) स्यादस्ति घटः - श्रर्थात् घटमें घटविषयक श्रस्ति पाया जाता है । घटमें घट संबंधी अस्तित्व न माना जाय वह खरविषाणकी भांति श्रवस्तुनाचीज़ ठहरेगा ।
(२) स्यान्नास्ति घटः - इसका अर्थ यह है कि घटमें, घटातिरिक्त अन्य पट श्रादिमें पाया जाने वाला अस्तित्व नहीं पाया जाता। यदि पटादि विषयक अस्तित्वका निषेध न किया जाय तो घट, पट आदि भी 'जायगा। इस प्रकार एक ही वस्तुमें अन्य समस्त वस्तुओं की सत्ता होनेसे वस्तुका स्वरूप स्थिर न हो सकेगा । अतएव
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वर्ष २ किरण १]
अनेकान्तवाद प्रत्येक वस्तुमें, उसके अतिरिक्त अन्य वस्तुओं- इस प्रकार सप्तभंगीवाद यह स्पष्ट करता है की असत्ता मानना अनिवार्य है।
कि प्रत्येक धर्म वस्तुमें किस अपेक्षासे रहता है
और किस अपेक्षासे नहीं रहता। (३) स्यादस्ति नास्ति घट:- क्रमशः स्वरूप
और पररूपकी अपेक्षासे वस्तुका विधान किया जायतो पूर्वोक्त दोनों वाक्योंका जो निष्कर्ष निकलता अनेकान्तवादकी तात्विक उपयोगिता-वस्तुहै वहीं तीसरा अंग है।
स्वरूपका वास्तविक परिचय देना है। किन्तु इस(४) स्यादवक्तव्यो घटः- वस्तुमें अनन्त धर्म
की व्यावहारिक उपयोगिता भी कुछ कम नहीं है । हैं। भाषा द्वारा उन सबका एक साथ विधान यदि हम अनेकान्तवादके मर्मको समझलें और नहीं किया जा सकता । इस अपेक्षा वस्तुका
तमा जीवनमें उसका प्रयोग करें तो यह विवेकशून्य स्वरूप कहा नहीं जा सकता है अर्थात् घट
सम्प्रदायिकता, जिसकी बदौलत धर्म बदनाम हो अवक्तव्य है।
रहा है, धर्मको सर्व साधारण लोग क्षयका
कीटाणु समझने लगे हैं, आये दिन सिर फुटौव्वल इसी प्रकार स्यादम्ति अवक्तव्यो घटः, स्यान्ना- होती है, और जिसने धर्मके असली उज्ज्वल स्ति अवक्तव्योघटः, और स्यादस्ति-नास्ति-अवक्तव्यो रूपको तिरोहित कर दिया है, शीघ्र ही हट घटः, यह तीन भंग पूर्वोक्त भंगोंके संयोगसे सकती है। इसके लिए दूसरेके दृष्टिबिन्दु को बनते हैं। अत: पूर्वोक्त दिशासे इन्हें भी घटित समझने और सहन करनेकी आवश्यकता है। कर लेना चाहिए।
विश्व शान्तिके लिए जैसे 'जीओ और दूसरोंको ऊपरसे यह सिद्धान्त एक पहेली-सा जान जान दो' इस सिद्धान्त
जीने दो' इस सिद्धान्तके अनुसरणकी आवश्यपड़ता है; किन्तु गंभीरतापूर्वक मनन करनेसे इस कता है उसी प्रकार दार्शनिक जगत्की शान्ति में रहे हुए शुद्ध सत्यकी प्रतीति होने लगती है। के लिए 'मैं सही और दूसरे भी सही' का सुप्रसिद्ध विद्वान मेटोने एक जगह लिखा है- अनुसरण करना होगा। अनेकान्तकी यही
खूबी है कि वह हमें यह बतलाता है कि हम When we speak of not being तभी तक सही रास्तेपर हैं जब तक दूसरोंको we speak, I suppose, not of some. ग़लत रास्तेपर नहीं कहते। दूसरोंको जब हम thing opposed to being but only भ्रान्त या मिथ्या कहते हैं तो हम स्वयमेव मिथ्या different.
हो जाते हैं, क्योंकि ऐसा करनेमें अन्य दृष्टिकोण
...... का निषेध हो जाता है, जो किसी अपेक्षासे वस्तु अर्थात् जब हम असत्ताके विषपड़े कुछ माया जाता है। अतएव यदि हम सत्यका कहते हैं तो मैं मानता हूँ, हम समाके विरुद्ध , अन्वेषण करना चाहें तो हमारा कर्तव्य होगा कुछ नहीं कहते, सिर्फ भिन्नके अर्थम कहते हैं। कि हम दूसरेके विचारको समझे, उसकी अपेक्षा
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अनेकान्त
[कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५ को सोचें और तब अमुक नयसे उसे संगतियुक्त विषय बना हुआ है और उसपर हम अभिमान स्वीकार करले।
करते हैं; पर उसका व्यवहार हमने नहीं किया।
यही कारण है कि जिनके आँगनमें कल्पवृक्ष लेख समाप्त करनेसे पहले हमें खेदपूर्वक यह खड़ा है वेही आज संताप भोग रहे हैं और अपनी स्वीकार करना चाहिये कि जैनेतरोंकी तो बात ही शक्तियों को विभाजित करके अशक्त एवं दीन क्या, स्वयं जैनोंने भी एक प्रकारसे अनेकान्तवाद बन गये हैं। क्या यह संभव नहीं है कि अनेको भुला दिया है। जो अनेकान्त नास्तिकवाद
कान्तवादके उपासक अपने मतभेदोंका अनेकान्तजैसे जघन्य माने जाने वाले वादोंका भी समन्वय
वाद के द्वारा निपटारा करें और सत्यके अधिक करनेमें समर्थ है उसे स्वीकार करते हुएभी जैन
सन्निकट पहुँचकर एक अखंड और विशाल समाज अपने क्षुद्रतर मतभेदोंका आज समन्वय
संघका पुनर्निर्माण करें । यदि ऐसा हुआ तो नहीं कर सकता। आज अनेकान्तवाद 'पोथीका
समझना चाहिए कि अनेकान्त अबभी जीवित बैगन' बन गया है, वह विद्वानोंकी चर्चाका है और भविष्यमें भी जीवित रहेगा । अस्तु ।
दीपावलीका एक दीप
दीपक हूँ मस्तकपर मेरे
नहीं किसीके हृदय-पटल पर अग्नि-शिखा है नाच रही
खिंची कृतज्ञताकी रेखा , यही सोच समझा था शायद
नहीं किसीको आँखों में आदर मेरा करें सभी !
आँसू तक भी मैंने देखा ! (२) किन्तु जल गया प्राण-सूत्र जब
मुझे विजित लखकर भी दर्शक स्नेह सभी निःशेष हुआ
नहीं मौन हो रहते हैं, बुझी ज्योति मेरे जीवनकी
तिरस्कार विद्रूप भरे वे शवसे उठने लगा धुआँ;
वचन मुझे श्रा कहते हैं(५) 'बना रखी थी हमने दीपोंकी सुन्दर ज्योतिर्मालारे कृतघ्न, तूने बुझ कर क्यों उसको खण्डित कर डाला ?,
-भप्रदूत
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वीरशासनके मूलतत्व
अनेकान्तवाद और स्याद्वाद
( ले० श्री पं० वंशीधर - व्याकरणाचार्य, न्यायतीर्थ व साहित्यशास्त्री )
कोई भी धर्मप्रवर्तक अपने शासनको स्थायी
'और व्यापक रूप देनेके लिये मनुष्य समाज के सामने दो बातोंको पेश करता है - एकतो धर्मका उद्देश्य रूप और दूसरा उसका विधेय-रूप । दूसरे शब्दों में धर्म के उद्देश्य-रूपको साध्य, कार्य या सिद्धान्त कह सकते हैं और उसके विधेय-रूपको साधन, कारण या आचरण कह सकते हैं । वीरशासनके पारिभाषिक शब्दोंमें धर्मके इन दोनों रूपोंको क्रमसे निश्चयधर्म और व्यवहारधर्म कहा गया है । प्राणिमात्रके लिये आत्मकल्याण में यही निश्चय-धर्म उद्दिष्ट वस्तु है और व्यवहारधर्म है इस निश्चय-धर्मकी प्राप्तिके लिये उसका कर्तव्य मार्ग
1
इन दोनों बातोंको जो धर्मप्रवर्तक जितना सरल, स्पष्ट और व्यवस्थित रीतिसे रखनेका प्रयत्न करता है उसका शासन संसार में सबसे अधिक महत्वशाली समझा जा सकता है। इतना ही नहीं वह सबसे अधिक प्राणियों को हितकर हो सकता है । इसलिये प्रत्येक धर्मप्रवर्तकका लक्ष्य दार्शनिक सिद्धान्त की ओर दौड़ता है। वीरभगवान्का ध्यान भी इस ओर गया और उन्होंने दार्शनिक तत्त्वोंको व्यवस्थित रूपसे उनकी तथ्यपूर्ण स्थिति तक पहुँचाने के लिये दर्शनशास्त्र के आधारस्तम्भ
रूप अनेकान्तवाद और स्याद्वाद इन दो तत्वोंका आविर्भाव किया ।
कान्तवाद और स्याद्वाद ये दोनों दर्शनशास्त्रके लिये महान् गढ़ हैं । जैनदर्शन इन्हीं की सीमामें विचरता हुआ संसारके समस्त दर्शनोंके लिये आज तक अजेय बना हुआ है। दूसरे दर्शन जैन दर्शनको जीतनेका प्रयास करते तो हैं परंतु इन दुर्गोंके देखने मात्रसे उनको निःशक्त होकर बैठ जाना पड़ता है --किसी के भी पास इनके तोड़नेके साधन मौजूद नहीं हैं।
1
जहाँ अनेकान्तवाद और स्याद्वादका इतना महत्व बढ़ा हुआ है वहाँ यह भी निःसंकोच कहा जा सकता है कि साधारण जनकी तो बात ही क्या ? जैन विद्वानोंके साथ साथ प्राय: जैन विद्वान भी इनका विश्लेषण करनेमें असमर्थ हैं।
अनेकान्त और स्यात् ये दोनों शब्द एकार्थक हैं या भिन्नार्थक ? अनेकान्तवाद और स्याद्वादका स्वतन्त्र स्वरूप क्या है ? अनेकान्तवाद और स्याद्वाद दोनों का प्रयोगस्थल एक है या स्वतन्त्र ? आदि समस्याएँ आज हमारे सामने उपस्थित हैं ।
यद्यपि इन समस्याओंका हमारी व दर्शनशास्त्रकी उन्नति या अवनति से प्रत्यक्ष रूपमें कोई संबन्ध नहीं है परन्तु अप्रत्यक्षरूपमें ये हानिकर
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२८
अनेकान्त
अवश्य हैं। क्योंकि जिस प्रकार एक ग्रामीण कवि छंद, अलंकार, रस, रीति आदिका शास्त्रीय परिज्ञान न करके भी छंद अलंकार आदि से सुसज्जित अपनी भावपूर्ण कवितासे जगतको प्रभावित करने में समर्थ होता है उसी प्रकार सर्वसाधारण लोग अनेकान्तवाद और स्याद्वादके शास्त्रीय परि ज्ञानसे शून्य होने पर भी परस्पर विरोधी जीवनसंबन्धी समस्याओं का इन्हीं दोनों तत्त्वोंके बलपर अविरोध रूपसे समन्वय करते हुए अपने जीवन-संबन्धी व्यवहारोंको यद्यपि व्यवस्थित बना लेते हैं परंतु फिर भी भिन्न भिन्न व्यक्तियों के जीवनसंबन्धी व्यवहारोंमें परस्पर विरोधीपन होनेके कारण जो लड़ाई-झगड़े पैदा होते हैं वे सब अनेकान्तवाद और स्याद्वाद के रूपको न समझनेका ही परिणाम है । इसी तरह अजैन दार्शनिक विद्वान भी अनेकान्तवाद और स्याद्वाद को दर्शनशास्त्र के अंग न मानकरके भी अपने सिद्धान्तों में उपस्थित हुई परस्पर विरोधी समस्याओं को इन्हींके बलपर हल करते हुए यद्यपि दार्शनिक तत्त्वोंकी व्यवस्था करनेमें समर्थ होते हुए नजर आ रहे हैं तो भी भिन्न भिन्न दार्शनिकोंके सिद्धान्तोंमें परस्पर विरोधीपन होनेके कारण उनके द्वारा अपने सिद्धान्तों को सत्य और महत्वशाली तथा दूसरेके सिद्धान्त को सत्य और महत्वरहित सिद्ध करनेकी जो असफल चेष्टा की जाती है वह भी अनेकान्तवाद और स्याद्वाद स्वरूपको न समझनेका ही फल है ।
[कार्तिक, वीर निर्वाण सं० २४६५
जैनी लोग यद्यपि अनेकान्तवादी और स्याद्वादी कहे जाते हैं और वे खुद भी अपनेको ऐसा कहते हैं, फिरभी उनके मौजूदा प्रचलित धर्ममें जो साम्प्रदायिकता और उनके हृदयों में दूसरोंके प्रति जो विरोधी भावनाएँ पाई जाती हैं उसके दो कारण हैं- एकतो यह कि उनमें भी अपने धर्मको सर्वथा सत्य और महत्वशील तथा दूसरे धर्मोंको सर्वथा असत्य और महत्व रहित समझनेकी अहंकारवृति पैदा होजानेसे उन्होंने अनेकान्तवाद और स्याद्वाद - के क्षेत्रको बिलकुल संकुचित बना डाला है, और दूसरे यह कि अनेकान्तवाद और स्याद्वादकी व्यावहारिक उपयोगिताको वे भी भूले हुए हैं ।
सारांश यह कि लोकमें एक दूसरेके प्रति जो विरोधी भावनाएँ तथा धर्मोंमें जो साम्प्रदायिकता आज दिखाई दे रही है उसका कारण अनेकान्तवाद और स्याद्वादको न समझना ही कहा जा सकता है।
अनेकान्त और स्यात् का अर्थभेद
बहुतसे विद्वान इन दोनों शब्दों का एक अर्थ स्वीकार करते हैं । उनका कहना है कि अनेकान्त रूप-पदार्थ ही स्यात् शब्दका वाच्य है और इसीलिये वे अनेकान्त और स्याद्वाद में वाच्य वाचक संबन्ध स्थापित करते हैं – उनके मतसे 'अनेकान्त वाच्य है और स्याद्वाद उसका वाचक है । परन्तु " वाक्येष्वनेकान्तद्योती" इत्यादि कारिकामें पड़े हुए “द्योती” शब्द के द्वारा स्वामी समन्तभद्र स्पष्ट संकेत कर रहे हैं कि 'स्यात्' शब्द अनेकान्तका द्योतक है वाचक नहीं ।
यद्यपि कुछ शास्त्रकारों ने भी कहीं कहीं स्यात् शब्दको अनेकान्त अर्थका वोधक स्वीकार किया है, परन्तु वह अर्थ व्यवहारोपयोगी नहीं मालूम पड़ता है— केवल स्यात् शब्दका अनेकान्तरूप रूढ़ अर्थ मानकर इन दोनों शब्दों की समानार्थकता सिद्ध की गई है । यद्यपि रूढ़िसे शब्दोंके अनेक
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वर्ष २ किरण १]
अनेकान्तवाद और स्याद्वाद अर्थ हुआ करते हैं और वे असंगत भी नहीं कहे अनेकान्तवाद समझना चाहिये । यही अनेकान्तजाते हैं फिरभी यह मानना ही पड़ेगा कि स्यात् वादका अविकलस्वरूप कहा जा सकता है। शब्दका अनेकान्तरूप अर्थ प्रसिद्धार्थ नहीं है।
__ स्याद्वाद शब्दके दो शब्दांश हैं-स्यात् और जिस शब्दसे जिस अर्थका सीधे तौरपर जल्दीसे
वाद । ऊपर लिख अनुसार स्यात् और कथंचित् बोध हो सके वह उस शब्दका प्रसिद्ध अर्थ
ये दोनों शब्द एक अर्थक बोधक हैं-कथंचित् माना जाता है और वही प्राय: व्यवहारोपयोगी
शब्दका अर्थ है "किसीप्रकार" यही अर्थ स्यात् हुआ करता है; जैसे गो शब्द पशु, भूमि, वाणी
शब्दका समझना चाहिये । वाद शब्दका अर्थ है आदि अनेक अर्थों में रूढ़ है परन्तु उसका प्रसिद्ध
मान्यता । किसी प्रकारसे अर्थात् एक दृष्टिसे-एक अर्थ पशु ही है, इसलिये वही व्यवहारोपयोगी
अपेक्षासे या एक अभिप्रायसे” इस प्रकारकी माना जाता है । और तो क्या ? हिन्दीमें गौ या
मान्यताका नाम स्याद्वाद है। तात्पर्य यह कि गाय शब्द जो कि गो शब्दके अपभ्रंश हैं केवल स्त्री
विरोधी और अविरोधी नाना धर्मवाली वस्तुमें गो में ही व्यवहृत होते हैं पुरुष गो अर्थात् बैल रूप
अमुक धर्म अमुक दृष्टिसे या अमुक अपेक्षा या अर्थमें नहीं, इसका तात्पर्य यह नहीं कि वे बैल रूप
अमुक अभिप्रायसे है तथा व्यवहारमें "अमुक अर्थ के वाचक ही नहीं हैं किन्तु बैल रूप अर्थ ,
कथन, अमुक विचार, या अमुक कार्य,अमुक दृष्टि, उनका प्रसिद्ध अर्थ नहीं ऐसा ही समझना चाहिये। अमुक अपेक्षा, या अमुक अभिप्राय को लिये हुए स्यात शब्द उच्चारणके साथ साथ कथंचित् है" इस प्रकार वस्तुके किसीभी धर्म तथा व्यव. अर्थकी ओर संकेत करता है अनेकान्त-रूप अर्थकी
हारकी सामंजस्यता की सिद्धिके लिये उसके दृष्टिओर नहीं, इसलिये कथंचित् शब्दका अर्थ ही
कोण या अपेक्षाका ध्यान रखना हो स्याद्वादका स्यात् शब्दका अर्थ अथवा प्रसिद्ध अर्थ समझना स्वरूप माना जासकता है। चाहिये।
अनेकान्तवाद और स्याद्वाद के प्रयोगका अनेकान्तवाद और स्याद्वादका स्वरूप अनेकान्तवाद शब्दके तीन शब्दांश हैं-अनेक,
___ स्थल भेद अन्त और वाद । इसलिये अनेक-नाना, अन्त-वस्तु (१) इन दोनों के उल्लिखित स्वरूपपर ध्यान धर्मोकी, वाद-मान्यताका नाम अनेकान्तवाद' है। देनेसे मालूम पड़ता है कि जहाँ अनेकान्तवाद एक वस्तु में नाना धर्मों (स्वभावों) को प्रायः सभी हमारी बुद्धिको वस्तुके समस्त धर्मोकी ओर समान दर्शन स्वीकार करते हैं, जिससे अनेकान्तवादकी रूपसे खींचता है वहाँ स्याद्वाद वस्तुके एक धर्मकोई विशेषता नहीं रह जाती है और इसलिये का ही प्रधान रूपसे बोध कराने में समर्थ है । उन धर्मोका क्वचित् विरोधीपन भी अनायास (२) अनेकान्तवाद एक वस्तुमें परस्पर विरोधी सिद्ध हो जाता है, तब एक वस्तुमें परस्पर विरोधी और अविरोधी धर्मोंका विधाता है-वह वस्तु- और अविरोधी नाना धर्मोंकी मान्यताका नाम को नाना धर्मात्मक बतलाकर ही चरितार्थ हो
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अनेकान्त
[कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५ जाता है । स्याद्वाद उस वस्तुको उन नाना धर्मोके अनेकान्तवाद । लेकिन किस रोगीके लिये वह दृष्टिभेदोंको बतला कर हमारे व्यवहारमें आने उपयोगी है और किस रोगीके लिये वह अनुपयोग्य बना देता है अर्थात् वह नाना धर्मात्मक येोगी है, इस दृष्टिभेदको बतलाने वाला यदि 'वस्तु हमारे लिये किस हालतमें किस तरह स्याद्वाद न माना गया तो यह मान्यता न केवल उपयोगी होसकती है यह बात स्याद्वाद बतलाता व्यर्थ ही होगी बल्कि पित्तज्वरवाला रोगी लंघनहै। थोड़ेसे शब्दोंमें यों कहसकते हैं कि की सामान्य तौरपर उपयोगिता समझकर यदि अनेकान्तवादका फल विधानात्मक है और स्याद्वाद- लंघन करने लगेगा तो उसे उस लंघनके द्वारा हानि का फल उपयोगात्मक है।
ही उठानी पड़ेगी। इसलिये अनेकान्तवादके द्वारा (३) यहभी कहा जासकता है कि अनेकान्तवाद
रोगीके संबन्ध में लंघनकी उपयोगिता और का फल स्याद्वाद है-अनेकान्तवादकी मान्यताने अप
अनुपयोगिता रूप दो धर्मोको मान करके भी ही स्याद्वादकी मान्यताको जन्म दिया है। क्योंकि वह लंघन अमुक रोगीके लिये उपयोगी और जहाँ नानाधमों का विधान नहीं है वहाँ विभेदकी अमुक रोगीके लिये अनुपयोगी है इस दृष्टि-भेदको कल्पना होही कैसे सकती है?
___ बतलाने वाला स्याद्वाद मानना ही पड़ेगा।
एक बात और है, अनेकान्तवाद वक्तासे उल्लिखित तीन कारणों से बिल्कुल स्पष्ट हो अधिक संबन्ध रखता है; क्योंकि वक्ताकी दृष्टि ही जाता है कि अनेकान्तवाद और स्याद्वादका प्रयोग विधानात्मक रहती है। इसी प्रकार स्याद्वाद श्रोता भिन्न २ स्थलों में होना चाहिये । इस तरह यह से अधिक संबन्ध रखता है; क्योंकि उसकी दृष्टि बात भलीभांति सिद्ध हो जाती है कि अनेकान्त- हमेशा उपयोगात्मक रहा करती है । वक्ता वाद और स्याद्वाद ये दोनों एक नहीं हैं; परन्तु अनेकान्तवादके द्वारा नानाधर्मविशिष्ट वस्तुका परस्पर सापेक्ष अवश्य हैं। यदि अनेकान्तवादकी दिग्दर्शन कराता है और श्रोता स्याद्वादके जरिये मान्यताके बिना स्याद्वादकी मान्यताकी कोई से उस वस्तुके केवल अपने लिये उपयोगी अंशको आवश्यकता नहीं है तो स्याद्वादकी मान्यताके बिना ग्रहण करता है। अनेकान्तवादकी मान्यता भी निरर्थकही नहीं
___इस कथन से यह तात्पर्य नहीं लेना चाहिये बल्कि असंगत ही सिद्ध होगी। हम वस्तुको ।
' कि वछा 'स्यात्' को मान्यताको और श्रोता नानाधर्मात्मक मान करके भी जबतक उन नाना
'भनेकान्त'की मान्यताको ध्यान में नहीं रखता है। धर्मोका दृष्टिभेद नहीं समझेंगे तबतक उन धर्मोकी
यदि वक्ता 'स्यात्'की मान्यताको ध्यान में नहीं मान्यता अनुपयोगी तो होगी ही, साथही वह मावेगा तो वह एक वस्तु में परस्पर विरोधी धर्मोमान्यता युक्ति-संगत भी नहीं कही जा सकेगी।।
' का समन्वय न कर सकनेके कारण उन विरोधी ___ जैसे लंघन रोगीके लिये उपयोगी भी है और धर्मोका उस वस्तु में विधान ही कैसे करेगा? अनुपयोगी भी, यह तो हुआ लंघनके विषय में ऐसा करते समय विरोधरूपी सिपाही चोरकी
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३१.
*वर्ष २ किरण १]
अनेकान्तवाद और स्याद्वाद तरह उसका पीछा करनेको हमेशा तैयार रहेगा। अपने भानजे को अपेक्षा, वह भाई है स्यात्-किसी इसी तरह यदि श्रोता 'अनेकान्त'को मान्यताको प्रकार-अर्थात् अपने भाई की अपेक्षा। ध्यान में नहीं रक्खेगा तो वह दृष्टिभेद किस अब यदि श्रोता लोग उस मनुष्यसे इन विषय में करेगा ? क्योंकि दृष्टिभेदका विषय द्रप्रिय में से किसी भी दृष्टि से संबन्ध हैं तो वे अनेकान्त अर्थात् वस्तुके नाना धर्म ही तो हैं। अपनी अपनी दृष्टिसे अपने लिये उपयोगी धर्म
इसलिये ऊपरके कथनसे केवल इतना को ग्रहण करते जावेंगे । पुत्र उनको पिता कहेगा, तात्पर्य लेना चाहिये कि वक्ताके लिये विधान पिता उसको पुत्र कहेगा, भानजा उसको मामा प्रधान है-वह स्यात्की मान्यतापूर्वक अनेकान्तकी कहेगा और भाई उसको भाई कहेगा; लेकिन मान्यताको अपनाता है; और श्रोताके लिये अनेकान्तवादको ध्यान में रखते हुए वे एक दूसरे के उपयोग प्रधान है वह अनेकान्तकी मान्यतापूर्वक व्यवहारका असंगत नहीं ठहरावेंगे । अस्तु । स्यात्की मान्यता को अपनाता है।
इस प्रकार अनेकान्तवाद और स्याद्वादके मान लिया जाय कि एक मनुष्य है, अनेका- विश्लेषणका यह यथाशक्ति प्रयत्न है । आशा है न्तवादके जरिये हम इस नतीजेपर पहुँचे कि वह इससे पाठकजन इन दोनोंके स्वरूपको समझने मनुष्य वस्तुत्वके नाते नानाधर्मात्मक है-वह में सफल होनेके साथ साथ वीर-भगवानके शासन पिता है, पुत्र है, मामा है, भाई है आदि आदि को गम्भीरताका सहज ही में अनुभव करेंगे और बहुत कुछ है । हमने वक्ताको हैसियत से उसके इन दोनों तत्वोंके द्वारा सांप्रदायिकताके परदेको इन सम्पूर्ण धर्मोंका निरूपण किया। स्याद्वाद से हटा कर विशुद्ध धर्मको आराधना करते हुए यह बात तय हुई कि वह पिता है स्यात्-किसी अनेकान्तवाद और स्याद्वादके व्यावहारिक रूपको प्रकारसे-दृष्टिविशेषसे-अर्थात् अपने पुत्रकी अपेक्षा, अपने जीवन में उतार कर वीर-भगवानके वह पुत्र है, स्यात्-किसी प्रकार अर्थात् अपने पिताकी शासनकी अद्वितीय लोकोपकारिताको सिद्ध करने अपेक्षा, वह मामा है स्यात्-किसी प्रकार अर्थात् में समर्थ होंगे।
- 'मैं और मेरे' के जो भाव हैं, वे घमण्ड और बुदनुमाईके अतिरिक्त और कुछ नहीं है। जो मनुष्य उनका दमन कर लेता है वह देवलोकसे भी उच्चलोक को प्राप्त होता है।'
'दुनियामें दो चीजें हैं जो एक दूसरे से बिल्कुल नहीं मिलती। धन-सम्पत्ति एक चीज है और साधुता तथा पवित्रता बिल्कुल दूसरी चीज़' ।।
-तिरुवल्लुवर
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Pererarererergererrerarera
। क्रान्ति पथे
Perersarera
Mre-e-00-0-008-0-0-0-0-03
(४) तोड़ो मृदुल वल्लकी के ये धधक उठे अन्तस्तल में फिर सिसक सिसक रोते से तार,
क्रान्ति गीतिका की झंकारदूर करो संगीत कुञ्ज से विह्वल,विकल, विवश, पागल कृत्रिम फूलों का शृङ्गार ! हो नाच उठे उन्मद संसार !
(२) भूलो कोमल, स्फीत स्नेह-स्वर भूलो क्रीड़ा का व्यापार, हृदय पटल से आज मिटा दो स्मृतियों का अभिनय-आगार!
दाप्त हो उठे उरस्थली में
आशा की ज्वाला साकार, नस नस में उद्दण्ड हो उठे नव यौवन रस का सम्वार !
भैरव शंख नाद की गूंज फिर फिर वीरोचित ललकार, मुरझाए हृदयों में फिर से उठे गगन भेदी हुङ्कार !
तोड़ो वाद्य, छोड़ दो गायन, तज दो सकरुण हाहाकार; आगे है अब युद्ध-क्षेत्र-फिर, उसके आगे-कारागार !
--भग्नदूत
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गोत्र कर्माश्रित ऊंच-नीचता - (ले. श्री० बा० सूरजभानुजी, वकील ) कर्मकी आठ मूल gemsoodccordPRAD00000000000OSCORang कर्मसे जीवोंके भावोंका नियों द्वारा
इस लखक लखक श्रद्धय बाबू सूरजभानजा सकती
8 वकील समाजके उन पुराने प्रमुख सेवकों एवं लेखकों का भी एक कम है, जो
है । जैन शास्त्रों में इस में से हैं जिन्होंने शुरू शुरूमें समाज को ऊंचा उठाने, जीवके असली स्वभाव उसमें जीवन फकने और जागति उत्पन्न करनेका भारी कमके ऊँच और नीच को घात नहीं करता काम किया था। आज जैन समाजमें सभा-सोसाइटियों 8 ऐसे दो भेद बता कर इसी कारण अघातिया की स्थापना, आश्रमों-विद्यालयोंकी योजना, वेश्या- यह भी बता दिया है कहलाता है । केवलनृत्यादि जैसी कुरीतियोंका निवारण, ग्रन्थों तथा पत्रों
अस्तित्व तो नीचगोत्रका का प्रकाशनादिरूपसे जो भी जागतिका कार्य देखने ज्ञान प्राप्त कर लेने के
9 भी केवल-ज्ञान प्राप्त 8 में आता है वह सब प्रायः श्रापकी ही बीजरूप सेवाओं बाद अर्थात् तेरहवें गुण- का प्रतिफल है । असें से वृद्धावस्था आदि के कारण
6 करनेके बाद तेरहवें गुणस्थानमं भी इसका उदय आप कुछ विरक्त से हो गये थे और आपने लिखना- स्थानमें बना रहता है बना रहता है, इतना ही पढ़ना सब छोड़ दिया था, लेकिन बहुत दिनांस मेरा तथा १४वें गुणस्थानमें
आप से यह बराबर प्रेरणा और प्रार्थना रही है कि नहीं किन्तु चौदहवं
भी अन्तसमयके पूर्व तक श्राप बीर-सेवा-मन्दिरमें श्राकर सेवा कार्य में मेरा गुणस्थानमें भी अन्त
पाया जाता है। यथाहाथ बटाएँ और अपना शेष जीवन मेवामय होकरही समय के पूर्व तक इसका व्यतीत करें । बहत कुछ आशा-निराशाके बाद अन्तg
णीचुच्चाणेकदरं, बंधुदया उदय बराबर चला जाता को मेरी भावना सफल हुई और अब बाबू साहब कई है। चौदहवेंके अन्त 8 महीनेसे वीर-सेवा-मन्दिरमें विराज रहे हैं । इस हाति संभवट्ठाणे । समय में इसकी व्यमिति आश्रममें आते ही आपने अपनी निःस्वार्थ सेवाओ दो सत्ता जोगित्ति य,
से आश्रम-वासियांको चकित कर दिया ! श्राप दिनहोती है; जैसा कि श्री
8 चरिमे उच्चं हवे सत्तं ॥ रात सेवा-कार्य में लगे रहते हैं, चर्चा-वार्ता करते हुए
-गो० कर्म० ६३६ गोम्मटसार- कर्मकाण्ड नहीं थकते. प्रति दिन दो घंटे कन्या-विद्यालयम के निम्न वाक्यसे प्रय
कन्याओंको शिक्षा देते हैं, दो घंटे शास्त्र-सभामं जब नीच गोत्रका 8 व्याख्यान करते हैं और शेष सारा समय आपका ग्रन्थों 8 अस्तित्व केवल-शान पर से खोज करने तथा लेख लिखने-जैसे गम्भीर कार्य
प्राप्त होने के बाद सयोगतदियेवक मणुवगदी,पंचि में ही व्यतीत होता है । यह लेख आपके उसी परिश्रम दियसुभगतसतिगादज का पहला फल है, जिसे प्रकाशित करनेमें 'अनेकान्त केवली और अयोगकेवली जसतित्थं मणुवाऊ, उच्च
8 अपना गौरव समझता है । आशा है अब आपके लेख के भी बना रहता है
Ho बराबर 'अनेकान्त' के पाठकों की सेवा करते रहेंगे। कू और उसमे उन आप्तच अजोगिचरिमम्हि । इस लेखमें विद्वानोंके लिये विचारकी पर्याप्त सामग्री 8 पुरुपोंके सच्चिदानन्द गाथा २७३ % है । विद्वानों को उस पर विचार कर अपना अभिमत स्वरूपमें कुछ भी बाधा
प्रकट करना चाहिये, जिससे यह विषय भले प्रकार स्पष्ट इससे यह बात भी
नहीं आती तब इस बात होकर खूब रोशनी में श्रा जाय। -सम्पादक स्पष्ट होजाती है कि गोत्र- SADDEDVDB000000000000000000000000000
में कोई सन्देह नहीं रहता
9000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
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अनेकान्त
[ कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५
कि, नीच हो या उच्च, गोत्रकर्म अपने अस्तित्वमे यस्योदयात लोकपृजितेषु कुलेषु जन्म तदुच्चेर्गोत्रं । जीवोंके भावों पर कोई असर नहीं डालता है। यदुदयाद्गर्हितेषु कुलेषु जाम तन्नींचेोत्रम् ॥
गोम्मटसार के कर्मकाण्ड में ऊँच और नीच गोत्रकी जो पहचान बतलाई है वह इस प्रकार है -
अर्थात्--जिमके उदयमे लोकमान्य कुलोम जन्म
हो वह उच्च गोत्र और निंद्य अर्थात् बदनाम कुलोम संताणकमेणागयजीवायरणम्स गोदमिदि सराण।।
जन्म हो तो वह नीच गोत्र । ऐसा ही लक्षण ऊँचउच्च णीचं चरणं उच्चं चं हवे गोदं ॥१३॥
नीच गोत्रका श्रीअकलंकदेवने गजवानिकों और अर्थात् -- कुलकी परिपाटीके क्रमम चला आया विद्यानंदस्वामीन श्लोकवार्तिकम दिया है । इससे जो जीवका आचरण उसको गोत्र कहते हैं: वह इतनी बात तो बिलकुल स्पष्ट होजाती है कि सम्यक आचरण ऊँचा हो तो उसे ऊँचगोत्र' और नीचा चारित्र और मिथ्या चारित्र अर्थात् धर्माचरण अधर्माहो तो नोचगांत्र समझना चाहिये।
चरणमे यहाँ कोई मतलब नहीं है...एकमात्र लौकिक
व्यवहार में ही मतलब है । और यह बात इस कथनस इस गाथाम कल परम्परा चले आये ऊंच-नीच और भी ज्यादा पष्ट हो जाती है कि सबही देव और आचरणसे ही ऊँच-नीच गोत्रका भेद किया गया है. भांगमिया जीव... चाह व सम्यग्दृष्टि हो वा मिथ्याअर्थात् ऊँच-नीच गोत्रके पहचाननेम कुलका आचरण दृष्टि—जो अणुमात्र भी चारित्र नहीं ग्रहण कर सकते ही एकमात्र कारण बतलाया है । इससे अब केवल यह है वे तो उच्चगोत्री हैं: परन्तु संजी पंचन्द्रिय तिर्यच बात जाननेको रह गई कि इस आचरणसे सम्यक
२. अर्थात हाथी, घोड़ा, बैल, बकरी आदि देशचारित्र चारित्र और मिथ्या चारित्रसे.-.खरे खोटे धर्माचरणमे
धारण कर सकने वाले-पंचमगुणस्थान तक पहुँच -मतलब है या लौकिक आचरणसे---- अथात् लोक
कर श्रावक के व्रत तक ग्रहण करनेवाले-जीव नीच व्यवहारमं एक तो व्यवहार योग्य कुल वाला होता है, गोत्री ही हैं । दूसरे शब्दोंम यो कहिये कि जो व्रतीजिसको आजकलकी भाषामें नागरिक कहते हैं और श्रावकके योग्य धर्माचरण धारण नहीं कर सकते वे तो दूसरा ठग-डकैत आदि कुल वाला होता है. जो लोक
उच्चगोत्री और जो धारण कर सकते हैं व नीचगोत्री। व्यवहारम व्यवहारयोग्य नहीं माना जाता--निय गिना इससे ज्यादा और क्या सबत इस बातका हो सकता है जाता है, अथवा यो कहिये कि एक तो मभ्य कह जाने
कि गोत्रकर्मकी ऊँच-नीचताका धर्म विशेषसे कोई वालोंका कुल होता है और दूसरा उन लोगोंका जो
मम्बन्ध नहीं है । उसका आधार एकमात्र लोकम किसी असभ्य कहे जाते हैं । इनमें से कौनसे कुलका आचरण
कुलकी ऊँच-नीच-मान्यता है, जो प्रायः लोक व्यवहार यहाँ अभिप्रेत है?
पर अवलम्बित होती है । लोकमें देव शक्तिशाली मर्वार्थसिद्धिर्म, श्रीपूज्यपाद स्वामीने, तन्वार्थमृत्र, होने के कारण ऊँच माने जाते हैं, इस कारण वे तो अध्याय ८ सूत्र ५२ की टीका लिग्बत हुए, ऊँच-नीच उच्चगोत्री हुए; और पशु जो अपने पशुपनेके कारण गोत्र की निम्न पहचान बतलाई है।
हीन माने जाते हैं वे नीचगोत्री ठहरे ।
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वर्ष २, किरण १]
गोत्रकाश्रित ऊँच-नीचता
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'सब ही देव उच्चगात्री हैं। यह बात हृदयमं धारण देव उच्चगोत्री कहलाते हैं । सारांश यह कि धर्म-अधर्मकरके, जब हम उनके भेद-प्रभेदों तथा जातियों और रूप प्रवर्तने, पाप-पुण्यरूप क्रियाओं में रत रहने अथवा कृत्यों की तरफ ध्यान देते हैं तो यह बात और भी सम्यग्दृष्टि मिथ्यादृष्टि होने पर उच्च और नीच गोत्रका ज्यादा स्पष्ट हो ज ती है कि गोत्रकर्म क्या है और उसने कोई भेद नहीं है.--- धर्म विशेषसे उसका कोई सम्बन्ध संसारभरके सारे प्राणियोंको ऊँच-नीच रूप दो भागों ही नहीं है। उसका सम्बन्ध है एकमात्र लोकव्यवहार में किस तरह बांट रक्खा है । मोटे रूपसे देव चार से। प्रकारके हैं-भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी और कल्प
कल्पवासी देव भी सब एक समान नहीं होतेवासी अथवा वैमानिक। इनमें से भवनवासी, व्यंतर उनमें भी राजा, प्रजा, सिपाही, प्यादे, नौकर, चाकर
और ज्योतिषी देवों में सम्यग्दृष्टि जन्म ही नहीं लेता- और किल्विप आदि अनेक जातियां होती हैं। पाप कर्म इन कलों में पैदा ही नहीं होता है। इन सबक प्रायः के उदयम चांडालों के समान नीच काम करने वाले. कृष्ण, नील, कापोत ये तीन बोटी लेश्याएँ ही होती।
नगरसे बाहर रहनेवाले और अछूत माने जानेवाले है, चौथी पीत लेश्या तो किंचितमात्र ही हो सकती है।
नीच जाति के देव किल्विष' कहलाते हैं। अनेक देव यथा--
हाथी घोड़ा आदि बनकर इन्द्रादिक की सवारी का काम कृष्णा नीला च कापोता लेश्याश्च द्रव्यभावतः। देते हैं; परन्तु ये सब भी उच्च गोत्री ही हैं । तेजोलेश्या जघ या च ज्योतिपान्पु भापिताः ॥ भवनवासी भी अनेक प्रकार के हैं, जिनमें से
-हरिवंशपुराण, ६.१०८ अम्बावरीष आदि असुरकुमार जातिके देव प्रथम नरक बाकी रहीं पद्म और शुक्ल दो उत्तम लेश्याएँ, ये के ऊपर के हिस्सेके दूसरे भाग रहते हैं। पूर्व भवमें उनके होती ही नहीं है । परिणाम उनके प्रायः अशुभ अति तीव्र संक्लेश भाषांसे जो पापकर्म उपार्जन किया ही रहते हैं और इसी से वे बहुधा पाप ही उपार्जन था, उसके उदयसे निरन्तर संक्लेश-युक्त परिणाम वाले किया करते हैं । परन्तु मंशी पंचन्द्रिय तियचोंके छहो होकर ये नारकियों को दुख पहुँचाने के वास्ते नरककी लेश्याएँ होती हैं अर्थात् पीत पद्म और शुक्ल ये तीनों तीसरी पृथिवी तक जाते हैx, जहां नारकियोंको पुण्य उपजानेवाली लेश्याएँ भी उनके हुआ करती हैं। पिघला हुआ गरम लोहा पिलाया जाता है, गरम लोहे इस प्रकार धर्माचरण बहुत कुछ उच्च हो जाने पर भी के खम्भों से उनके शरीर को बांधा जाता है, कुल्हाड़ासंज्ञी पंचेन्द्रिय तियच तो नीच गात्री ही बने रहते हैं वसूला आदि से उनका शरीर छीला जाता है, पकते हुए और पापाचारी होने पर भी भवन वासी व्यंतर-जैसे गरम तेल में पकाया जाता है, कोल्ह में पेला जाता है,
* "गरतिरयाणं ओघो" (गो० जी० ५३०)। x पूर्वज मनि सम्भावितनातितीव्ररा संक्लेशटीका . 'नरतिरश्चां प्रत्येकं ओघः सामा योत्कृष्ट परिणामेन यदुपार्जितं पापकर्म तस्योदयात्सततं पट्लेश्याः स्युः'--केशववर्णी । पटनतिर्यक्ष० २६७ क्लिष्टाः संक्लिष्टा अमुराः संक्लिासुराः । इत्यादि -पंचसंग्रहे अमितगतिः ।
- सर्वार्थसिद्धि ३-५
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अनेकान्त
[कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५
इत्यादिक अनेक प्रकार की वेदनाएँ नारकियोंको दिल- तीर्थकरों के अंगों तक को दी गई है, चम्पा, चमेली, वाकर ये असुरकुमार अपना खेल किया करते हैं। गुलाब भी कुछ कम प्रतिष्ठा नहीं पा रहे हैं: फलों में परन्तु ऐसा नीचकृत्य करते रहने पर भी ये उच्चगोत्री भी अनार, संतरा, अंगूर, सेव और आम बहुत क़दर ही बने रहते हैं।
पाए हुए हैं। व्यंतरदेवोंकी भी यक्ष, राक्षस, भत, पिशाच आदि
पशुओंमें भी सफेद हाथीकी बड़ी भारी प्रतिष्ठा है; अनेक जातियां है । इनमेंसे भत, पिशाच और राक्षसों
सिंह तो मृगराज व वनका राजा माना ही जाता है, जिस के कृत्यों को वर्णन करनेकी कोई ज़रूरत मालम नहीं
के बल-पाराक्रम-साहस-दृढ़ता और निर्भीकतादिकी उपमा होती । इनकी हृदय-विदारक कहानियां तो कथा-शास्त्रों
बड़े बड़े राजा महाराजाओं तथा महान् तपस्वियों तक में अक्सर सुननेमें आती रहती हैं, भूत-पिशाचोंके
को दी जाती है और जिसके दहाड़ने की आवाज़ से कृत्यों को भी प्रायः सभी जानते हैं और यह भी मानते
अच्छे अच्छों के छक्के छूट जाते हैं. गौ माता २० करोड़ है कि इनकी अत्यन्त ही नीच पर्याय है, जो इनको
हिंदुओं की तो पूज्य देवता है ही, किन्तु संसार के अन्य इनके पाप कर्मों के कारण ही मिलती है। परन्तु ये सब
भी सब ही मनुष्य उसके अमृतोपम दूध के कारण उसको देव भी उच्चगोत्री ही है।
बहुत उत्कृष्ट मानते हैं । अमरीका, आष्टं लिया आदि हरिवंशपुराण का कथन है कि कंस को जब यह देशोंमें तो, जहां गायके सिवाय भैंस-बकरीका दूध मालूम हुआ कि उसका मारनेवाला पैदा हो गया है पीना पसन्द नहीं किया जाता है, गायों की बड़ी भारी तो उसने अपने पहले जन्म की सिद्ध की हुई देवियों को टहल की जाती है, अपनेसे भी ज्यादा उनको इतना याद किया, याद करते ही वे तुरन्त हाजिर हुई और खिलाया-पिलाया जाता है कि वहां की गायें एक बार बोली कि हम तुम्हारे वैरी को एक क्षण में मार डाल दुहनेमें एक मन भर तक दूध देने लग गई हैं और सकती हैं । कंसने उनको ऐसा ही करनेका हुक्म पांच हजारसे भी अधिक मूल्यको मिलती हैं। इतना दिया, जिस पर उन्होंने कृष्णके मारनेकी बहुत ही सब कुछ होने पर भी ये सब तिर्यंच नीचगोत्री हैं । तदबीरें की। सिद्ध की हुई ऐसी देवियोंक ऐसे ऐसे तिर्यंचों की हज़ारों-लाखों जातियों में आकाश-पाताल अनेक दुष्कृत्योंकी कथाएँ जैन ग्रन्थों में भरी पड़ी है।
का अन्तर होने और उनमें बहुत कुछ ऊंच-नीचपना फिर भी ये सब देवियां उच्च गोत्री ही हैं।
माना जाने पर भी गोत्र कर्म के बटवारे के अनसार सब
ही तिथंच नीच गोत्र की पंक्ति में बिठाये गये हैं। अब जरा तियचौकी भी जांच कर लीजिए और सबसे पहले बनस्पति को ही लीजिए, जिसमें चन्दन, जिस प्रकार देवों की अनेक जातियों में ऊँच-नीचकेसर और अगर आदि बनस्पतियां बहुत ही उच्च का साक्षात् भेद होने पर भी सब देव उच्चगात्री और जातिकी है, बड़-पीपल भी बहुत प्रतिष्ठा पातं तियचों में अनेक प्रतिष्ठित तथा पूज्य जातियां होने पर है और २० करोड़ हिंदुओंके द्वारा पूजे जाते हैं; फलों भी सब तिर्यंच नीच गोत्री हैं उसी प्रकार नरकोंमें भी में कमल तो सब से श्रेष्ठ है ही- उसकी उपमा तो यद्यपि प्रथम नरकसे दूसरे नरकके नारकी नीच हैं,
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वर्ष २, किरण १]
गोत्रकाश्रित ऊँच-नीचता
दूसरेसे तीसरेके, तीसरेसे चौथेके, चौथेसे पांचवेंके, अफरीका के हब्शियों की अन्य भी अनेक जातियां पांचवेंसे छठेके और छठेसे सातवेंके नोच हैं; परन्तु है, जिनमें एक दूसरेकी अपेक्षा बहुत कुछ नीचताये सब नारकी भी नीच गोत्रकी ही पंक्तिमें रखे गए. ऊँचता है । यहां हिंदुस्तान में भी अनेक ऐसी जातियां है । इससे स्पष्ट सिद्ध है कि नरक, तिर्यंच, देव और मनुष्य थीं और कुछ अब भी हैं जो मनुष्यहत्या और लूटमारगति रूप जो बटवारा संसारीजीवोंका हो रहा है गोत्रकर्म को ही अपनी जातिका गौरव समझते हैं । भील, गौंड के अनुसार उसमें से एक एक गति के मारे ही जीव कोल, संथाल और कोरकू आदि जो जंगलों में रहते हैं ऊँच वा नीचरूप एकही पंक्ति में रक्खे गए हैं । सब हो और खेती-बाड़ी वा मेहनत-मजदूरी करते हैं वे उन नारकी तथा सब ही तिर्यच नीचगात्री और सबही देव डकैतोंसे तो श्रेष्ठ हैं, तो भी नगर में रहने वालोंसे तो उच्चगोत्री, ऐसा ठहराव हो रहा है।
नीच ही हैं । नगरनिवासियोंमें भी कोई चांडाल हैं, कोई
विष्ठा उठाते हैं, कोई गंदगी साफ़ करते हैं, कोई मरे अब रहे मनुष्य, उनमें भी अनेक भेद हैं। अफ- हुए पशुओंका चमड़ा उतारनेका काम करते हैं, अन्य रीका आदिके हबशी तथा अन्य जंगली मनुष्य कोई भी अनेक जातियां हैं जो गंदा काम करती हैं, कोई तो ऐसे हैं जो आग जलाना तक नहीं जानते, स्त्री-पुरुष जाति धोबीका काम करती है, कोई नाईका, कोई सब ही नंगे रहते हैं, जंगल के जीवों का शिकार करके लुहारका, कोई बाढीका कोई सेवा-चाकरीका, कोई कच्चा ही खाजाते हैं, लड़ाई में जो बैरी हाथ आ जाय रोटी पकानेका, कोई पानी भरनेका,कोई खेती,कोई-कोई उसको भी मारकर खाजाते हैं; कोई ऐसे हैं जो मनुष्यों वणज, व्यापार का, कोई ज़मींदार है और कोई सरदार को खाते तो नहीं है, किंतु मनुष्यांका मारना ही अपना इत्यादि । अन्य देशों में भी कोई राजघराना है, कोई मनुष्यत्त्व समझते हैं, जिसने अधिक मनुष्य मारे हो और बड़े बड़े लार्डों और पदवी-धारियोंका कुल है, कोई जो उनकी खोपरियां अपने गलेमें पहने फिरता हो उस धर्म-उपदेश के हैं, कोई मेहनत मजदूरी करने वालोंका ही की स्त्रियां अधिक चाव से अपना पति बनाती हैं: कुल है कोई पूँजीपतियोंका, इत्यादि अनेक भेद-प्रभेद कोई ऐसे हैं जो माता पिताक बूढ़े होने पर उनकी मार हो रहे हैं । इस प्रकार मनुष्य जातिम भी देवों और डालते हैं। कोई ऐसे हैं जो अपनी कमजोर सन्तान को तियचों की तरह एक से एक ऊँचे होते होते ऊँच-नीच मार डालते हैं । यहां इस आर्यवर्तमें भी उम्रवर्ण और की अपेक्षामे हज़ार श्रेणियां हो गई हैं; परन्तु मनुष्य उच्चगोत्रका अभिमान रखने वाले क्षत्रिय गजपत अपनी जातिकी अपेक्षा वे मब एक ही हैं। जैसा कि आदि कन्याओं को पैदा होते ही मार डालते थे और इसको पुराण के निम्न वाक्य में प्रकट है .. अपने उच्चकुल का बड़ा भारी गौरव समझते थे: ब्राह्मण. क्षत्रिय, वैश्य ये तीनों ही उच्चवर्ण और उच्चगोत्रक
मनुष्यजातिरकैव जातिकर्मोदयोद्भवा ।
वृत्तिभेदा हि तद्भदाचातुर्विध्यमिहाश्नुते ।। माननीय पुरुष अपने घरकी स्त्रियांको विधवा होने पर पति के साथ जल मरने का प्रोत्साहन देते थे और उनके अर्थात् --मनुष्यजाति नामा नाम कर्म के उदय से जल मरने पर अपना भारी गौरव मानत थे। पैदा होने के कारण समस्त मनुष्यजाति एक ही है---
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अनेकान्त
पेशे के भेदसे ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार भेद किए गए हैं ।
देवों में भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिपी और वैमानिक ये जो चार भेद हैं उनके चार अलग निकाय हैं, इस कारण ज्योतिषी बदलकर वैमानिक नहीं हो सकता और न वैमानिक बदलकर ज्योतिषी ही बन सकता है। इसही प्रकार अन्य भी किसी एक निकाय का देव दूसरे निकाय में नहीं बदल सकता ।
तियेचों में भी जो वृक्ष हैं वे कीड़े-मकोड़े नहीं होसकते, कीड़े-मकोड़े पक्षी नहीं हो सकते, जो पक्षी हैं वे पशु नहीं हो सकते; वनस्पतियों में भी जो आम हैं वह अमरूद नहीं हो सकता, जो अनार है वह अंगूर नहीं हो सकता; पक्षियों में भी तोता कबूतर नहीं हो सकता, मक्खी चील या कौआ नहीं बन सकता; पशुओं में भी कुत्ता गधा नहीं बन सकता; घोड़ा गाय नहीं बन सकता इत्यादि, परन्तु मनुष्यों में ऐसा कोई भेद नहीं है इसी से श्री गुणभद्राचार्यने कहा है
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वर्णाकृत्यादिभेदनां देहेऽस्मिन्न च दर्शनात् ब्राह्मण्यादिषु शूद्राद्यैर्गर्भाधानप्रवर्तनात् ।। नास्ति जातिकृती भेदो मनुष्याणां गवाश्ववत् । आकृतिग्रहणात्तस्मादन्यथा परिकल्प्यते ॥ - उत्तरपुराण पर्व ७४ अर्थात् - मनुष्यों के शरीरोंमें ब्राह्मणादि वणों की अपेक्षा आकृति आदि का कोई खास भेद न होनेसे और शूद्र आदिकों के द्वारा ब्राह्मणी आदि में गर्भ की प्रवृत्ति होसकनेसे उनमें जातिकृत कोई ऐसा भेद नहीं है जैसा कि बैल घोड़े आदि में पाया जाता
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[ कार्तिक, वीर - निर्वाण सं० २४६५
उन कन्याओं को 'कन्यारत्न' कहा है। इन म्लेच्छ कन्याओके साथ ब्याह करनेके बाद वे ही भरत महाराज संयम धारण कर और केवलज्ञान प्राप्तकर उसही भव से मोक्ष गए हैं। भरत महाराजके साथियों ने भी म्लेच्छ कन्याएँ ब्याही है । इसही प्रकार सबही समयों में उच्चजाति के लोग म्लेच्छ कन्याएँ व्याहते आए हैं । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ये सब ही शूद्र कन्याओं को ब्याह सकते हैं। ऐसी आज्ञा तो आदि पुराण में स्पष्ट ही लिखी हैं । हिंदुओं के मान्यग्रन्थ मनुस्मृति में भी ऐसा ही लिखा है X । असे सौ दो सौ बरस पहले अरव के लोग अफरीका के हशियोंको जंगली पशुओं की तरह पकड़ लाते थे, और देश देशान्तरोंमें लेजाकर पशुओं ही के समान बेच देते थे, जो खरीदते थे वे उनको गुलाम बनाकर पशु-समान ही काम लेते थे। अनुमान सौ बरस से गुलामी की प्रथा बन्द हो जाने के कारण वे लोग अब आज़ाद हो गए हैं और विद्याध्ययन करके बड़े बड़े विद्वान् तथा
गुणवान बन गए हैं - यहां तक कि उनमें से कोई कोई तो अमरीका जैसे विशाल राज्यका सभापति चुना गया है और उसने बड़ी योग्यता के साथ वहाँ राज्य किया है।
यह भेद न होनेके कारण ही तो भरत महाराजन म्लेच्छों की कन्याओं से ब्याह किया हैं । आदिपुराण में
मनुष्यपर्याय सव पर्यायांमें उच्चतम मानी गई है, यहाँ तक कि वह देवांसे भी ऊँची है; तब ही तो उच्च जाति के देव भी इस मनुष्य पर्यायको पाने के लिए लालायित रहते हैं, मनुष्य पर्यायकी प्रशंसा सभी शास्त्रों ने मुक्तकण्ठसे गाई है। यहां हमको मनुष्यजातिको देवोंसे उच्च सिद्ध नहीं करना है, केवल इतना ही करना है कि देवों के समान मनुष्य भी सब उच्चगोत्री ही हैं। जिस प्रकार देवों
* शूद्रा शूद्रेण वोढव्या नान्था स्वां तांच नैगमः । वहेत्वां ते च राजन्यः स्वां द्विजन्मा क्वचिच्च ताः ॥ x शूद्रव भार्या शूद्रस्य सा च स्वा च विशः स्मृते । तं च स्वा चैव राज्ञश्च ताश्च स्वा चाग्रजन्मनः ॥
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वर्ष २, किरण १]
गोत्रकाश्रित ऊँच-नीचता
में नौकर, चाकर, हाथी घोड़ा आदि सवारी बनाने वाले, मनुष्य उच्चगोत्री हैं, ऐसा गोमटसार में लिखा है, यह चण्डालका काम करने वाले अछूत, भूत-प्रेत-राक्षस बात सुनकर हमारे बहुत से भाई चौंकेंगे ! 'सभी देव और व्यंतर जैसे नीच काम करनेवाले पापी देव सबही उच्चगोत्री हैं, इसका तो शायद उन्हें कुछ फिकर न उच्चगोत्री हैं, उसही प्रकार मनुष्य भी घटिया मे घटिया होगा; परन्तु ‘सभी मनुष्य उच्चगोत्री हैं', यह बात एक
और बढ़िया से बढ़िया सब ही उच्चगोत्री हैं। गोमटसार दम माननी उनके लिये मुश्किल जरूर होगी, इस कर्मकाण्ड गाथा नं०१८ में यह बात साफ़ तौर से बताई कारण इसके लिये कुछ और भी प्रबल प्रमागा देनेकी गई है कि नीच-उधगोत्र भावों के अर्थात् गतियांक श्राश्रित ज़रूरत है । श्रीतत्त्वार्थमूत्र में आर्य और म्लेच्छ ये दो हैं । जिममे यह स्पष्टतया ध्वनित है कि नरक-भव और भेद मनुष्य जाति के बताये गये हैं, अगर प्रबल शास्त्रीय तिर्यन-भव केमर जीव जिम प्रकार नीचगोत्री हैं उसी प्रमाणों में यह बात सिद्ध हो जाये कि म्लेच्छ खएडांक प्रकार देव और मनुष्य-भव वाले सब जीत्र भी उच्चगोत्री म्लेच्छ भी सब उच्चगोत्री है तो आशा हैं कि उनका हैं। यथा
यह भम दूर हो जायगा । अस्तु ।
गोम्मटसार-कर्मकाण्ड गाथा २६७ और ३०० के "भवमरिसय चिननं इदि गोदं।"
कथनानुमार नीचगोत्रका उदय पांचवं गुणस्थान तक तत्यार्थसूत्र अध्याय ८ मृत्र २५ को प्रसिद्ध टीकारा ही रहता है, इसके ऊपर नहीं* अर्थात् छट गुणस्थान मं......भवार्थसिद्धि. राजवानिक और श्लोकवाति कम--- और उसके ऊपर के गणम्थानाम नीचगोत्रका उदय नहीं देव और मनुष्य ये दो गतियां शुभ वा श्रेष्ठ और उच्च है अथवा यों कहिये कि नाचगोत्री पांचवें गुणस्थानमे बताई हैं और नरक तथा निर्यच ये दो गतियां अशुभ
ऊपर नहीं चढ़ सकता, छठा गुणस्थानी नहीं हो सकता
रतनपर माता या नीच, इसी कारण गोम्मटमार कर्मकाण्ड गाथा और न मकन संयम ही धारणा कर सकता है। बहुधा २८५ में मनुष्यगति और देवनि में उच्च गोत्रका उदय हमार जैनी भाई श्रीधवन और जयधवन आदि सिद्धान्त बताया है । यथा--
ग्रन्यांको नमसार करने वाले जनविद्री-महविद्रीकी गदिश्राणुाउ उदओ सपद भूपुराणबादरे ताा। यात्रा करत है । उनमें से श्रीजयधवल ग्रन्थमं स्पष्ट तौर उच्चदओ हरदेव थीणतिगदी गरं निारय । पर मिद्ध किय है कि म्लेच्छग्वण्डों के म्लेच्छ भी मकन्न
संयम धारण कर सकते हैं...-छठे गुणस्थानी मुनि माधु इसी प्रकार गाथा २९० और २९४ के द्वारा नार- हो सकते हैं। दिगम्बर अाम्नाय में यह शान बहुत ही कीयों तथा तिर्यचों में नीचगोत्रका उदय बताया हे, ज्यादा माननीय है । इसके भिवाय, श्रीनम्धिसारकी जिससे चारों ही गतियोंका बटवाग ऊंच और नीच दो गोत्रों में इस प्रकार हो गया है कि नरक और नियंच दम दियकमाया तिरिया उजोव गीचतिये दो भव तो नीचगोत्री और देव तथा मनुष्य ये दो रियगदी। छ8 आहाग्दुगंधागातियं उदयबाच्छिराणा
॥२६॥ भव उच्चगोत्री हैं। जिस प्रकार सभी नारकी और मभी से तदियकसाया णाचं गमन भणुससामगण। तिर्यंच नीचगोत्री हैं उसी प्रकार मभी देव और मभी पजत्तेविय इत्थी वंदा उपजत्तिपरिहीणा ॥ ३०० ।।
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अनेकान्त
[कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५
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संस्कृति टीका में भी ज्यों का त्यों ऐसा ही कथन मिलता अपेक्षा म्लेच्छ ही कहलाते हैं, संयमोपलब्धिकी सम्भाहै। ये दोनों महान् प्रमाण नीचे उद्धृत किये जाते हैं - बना होनेके कारण; क्योंकि इस प्रकार की जाति वालों
के लिये दीक्षाकी योग्यता का निषेध नहीं है।' "जइ एवं कुदो तत्थ संजमग्गहणसंभवो त्ति। णासंकणिज्जं । दिसाविजयदृचक्कवट्टिखंधावारेण इन लेखोंमें श्रीश्राचार्य महाराजने यह बात उठाई सह मज्झिमखंडमागयाणं मिलेच्छरायाणं तत्थ है कि म्लेच्छ-भूमिमें पैदा हुये जो भी म्लेच्छ हैं उनके चक्कवहिादीहिं सह जादवेवाहियसंबंधाणं संजम- सकलसंयम होनेमें कोई शंका न होनी चाहिये-सभी पडिवत्तीए विरोहाभावादो। अहवा तत्तत्कायकानां म्लेच्छ सकलसंयग धारण कर सकते हैं, मुनि हो सकते चक्रवर्त्यादिपरिणीतानां गर्भेषत्पन्ना मातृपक्षापेक्षया हैं और यथेष्ट धर्माचरणका पालन कर सकते हैं । उनके स्वयमकर्मभूमिजा इतीह विवक्षिताः ततो न वास्ते कोई खास रोक-टोक नहीं है । अपने इस सिद्धान्त किञ्चिद्विप्रतिषिद्धम् । तथाजातीयकानां दीक्षाहत्वे को पाठकों के हृदय में बिठानेके वास्ते उन्होंने दृष्टान्त प्रतिवेधाभावादिति ।"
रूपमें कहा है कि जैसे भरतादि चक्रवर्तियों की दिग्वि-जयधवला, आग-प्रति, पत्र ८२७-२८ जयके समय उनके साथ जो म्लेच्छ राजा आये थे
अर्थात् जिन म्लेच्छ राजाओंको जीत कर अपने साथ “म्लेच्छभूमिज-मनुष्याणां सकलसंयमग्रहणं
आर्यखण्ड में लाया गया था और उनकी कन्याओं का कथं भवतीति नाशंकितव्यम् । दिग्विजयकाले चक्र
विवाह भी चक्रवर्ती तथा अन्य अनेक पुरुषोंके साथ वर्तिना सह आर्यखण्डमागतानां संयमप्रतिपत्ते
हो गया था, उन म्लेच्छ राजाओंके संयम ग्रहण करने रविरोधात् । अथवा तत्क-यानां चक्रवादि परिणी में कोई ऐतराज नहीं किया जाता–अर्थात् जिस प्रकार तानां गर्भेषत्पन्नस्य मातृपक्षापेक्षया म्लेच्छव्यपदंश
यह बात मानी जाती है कि उनको सकलसंयम हो भाजः संयमसम्भवात् तथाजातीयकानां दीक्षाहत्ये
सकता है उसी प्रकार म्लेच्छखंडों में रहने वाले अन्य प्रतिषेधाभावात् ।”
सभी म्लेच्छ आर्यखण्डोद्भव अार्यों की तरह सकल--लब्धिसार-टीका (गाथा १९३ वीं) संयम के पात्र हैं।
इन दोनों लेखोंका भावार्थ इस प्रकार है कि---
दूसरा दृष्टान्त यह दिया है कि जो म्लेच्छकन्याएँ 'म्लेच्छ भूमिमें उत्पन्न हुए. मनुष्योंके सकल संयम कैसे चक्रवर्ती तथा अन्य पुरुषों से व्याही गई थीं उनके गर्भ हो सकता है, ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये; क्योंकि से उत्पन्न हुए पुरुष यद्यपि मातृपक्ष की अपेक्षा म्लेच्छ दिग्विजय के समय चक्रवर्तीके साथ आए हुए उन म्लेच्छ राजाओंके, जिनके चक्रवर्ती आदिके साथ वैवा
*म्लेच्छखण्डों में तो काल भी चतुर्थ वर्तता
है; जैसा कि त्रिलोकसार की निम्न गाथा नं०८८३ हिक सम्बन्ध उत्पन्न हो गया है, संयमप्राप्तिका विरोध
से प्रकट हैनहीं है; अथवा चक्रवर्त्यादि के साथ विवाही हुई उनकी
भरहइएवदपणपण मिलेच्छखण्डेसु खयरसेढीसु । कन्याओं के गर्भ से उत्पन्न पुरुषोंके, जो मातृपक्षकी दुस्समसुसमादीदो, अंतोत्ति य हाणिवड्ढी य ॥
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वर्ष २, किरण १].
गोत्रकर्माश्रित ऊँच-नीचता
ही थे—माताकी जाति ही सन्तानकी जाति होती है, पर रहते हैं-कोई गुफाओं में भी, कच्चे फल-फूल खाकर इस नियमके अनुसार जाति उनकी म्लेच्छ ही थी-तो ही अपना पेट भरते हैं, कोई एक जंघावाले भी हैं और भी मुनिदीक्षा ग्रहण करनेका उनके वास्ते निषेध नहीं मिट्टी खाते हैं। इनकी शकलों तथा पेड़ों पर रहने और है-वे सकल-संयम ग्रहण कर सकते हैं। इसी प्रकार फल-फूल खाने आदिसे तो यही मालूम होता है कि, म्लेच्छखंड के रहने वाले दूसरे म्लेच्छ भी सकल संयम ये पशु ही हैं । सम्भव है कि खड़े होकर दो पैरोंसे चलने ग्रहण कर सकते हैं । परन्तु सकल संयम उच्चगोत्री ही आदिकी कोई बात इनमें ऐमी हो जिससे ये मनुष्योकी ग्रहण कर सकते हैं, इस कारण इन महान् पूज्य ग्रन्थों गिनतीमें गिन लिये गये हों । परन्तु कुछ भी हो, अपनी के उपर्युक्त कथनसे कोई भी संदेह इस विषय में बाकी आकृति, प्रवृत्ति और लोक-पूजित कुलोंमें जन्म न होनेके नहीं रहता कि म्लेच्छ खंडोंके रहने वाले सभी म्लेच्छ कारण इनका गोत्र तो नीच ही समझना चाहिये। उच्चगोत्री हैं । जब कर्मभूमिज म्लेच्छ भी सभी उच्चगोत्री ह औरआर्य तो उच्चगोत्री हैं ही, तब सार यही निकला कि नीचगोत्री जीव अधिकसे अधिक पाँचवाँ गुणस्थान कर्मभूमि के सभी मनुष्य उच्चगोत्री हैं और सकल संयम प्राप्त कर सकता है-अर्थात् श्रावकके व्रत धारण कर ग्रहण करने की योग्यता रखते हैं।
सकता है-सकलसंयम धारण कर छठा गुणस्थान प्राप्त
नहीं कर सकता; जैसा कि पूर्वोद्ध त गोम्मटसार, कर्मकाण्ड अब रही भोगभूमिया मनुष्योंकी बात. जो खेती वा गाथा २६७,३०० से प्रकट है । इस कथन पर पाठक यह कारीगरी श्रादि कोई भी कर्म नहीं करते, कल्पवृक्षोंसे ही आशंका कर सकते हैं कि जब गोत्रकर्मका धर्माचरणसे कोई अपनी सब जरूरतें पूरी कर लेते हैं, लड़का और लड़की खास सम्बन्ध नहीं है, महापापी अमुरकुमार, भूत-पिशाच दोनों का इकट्ठा जोड़ा माके पेट से पैदा होता है, वे ही तथा गक्षम-जानिके देव भी उच्चगोत्री हैं और उच्चगोत्रका श्रापममें पति-पत्नी बन जाते हैं और सन्तान पैदा लक्षण एकगोत्र लोकमान्य कुलों में पैदा होना ही है, करते हैं । ये सबभी उच्चगोत्री ही कहे गए हैं । हा, तब यह बात कैसे संगत हो सकती है कि नीचगोत्री इनके अतिरिक्त अन्तरद्वीपोंमें अर्थात् लवणसमद्रादि के पंचमगुणस्थान तक ही धर्माचरण कर सकता है ? टापुओंमें रहनेवाले कुभोगभूमिया मनुष्य भी हैं. जो इस विषय में पाठकगण जब इस बातपर दृष्टि डालेंगे अन्तरद्वीपज म्लेच्छ कहलाते हैं । वे भी कर्मभूमियों जैसे कि वे नीचगोत्री हैं कौन? तब उनकी यह शंका बिल्कुलही कोई कर्म नहीं करते और न कर सकते हैं। इनमेम निर्मल होकर उल्टी यह शंका खड़ी हो जायगी कि वे कोई सींगवाले, कोई पूँछवाले, कोई ऐमे लम्बे कानों तो पंचमगुणस्थानी भी कैसे हो सकते हैं.? नारकी, तिर्यच वाले जो एक कानको ओढ़ लेव और एकको बित्रा और अन्तरद्वीपज ये ही तो नीचगोत्री हैं। इनमें से लेवे, कोई घोड़े जैसा मुखवाले, कोई सिंह-जैसा, कोई नारकी बेचारे तो भयंकर दुःखोंमें पड़े रहने के कारण ऐसे कुत्ते-जैसा, कोई भैंसे-जैसा, कोई उल्लू-जैसा, कोई महा संक्लेश परिणामी रहते हैं कि उनके लिए तो किसी बंदर-जैसा, कोई हाथी जैसा, कोई गाय-जैसा, कोई प्रकारका व्रतधारण करना ही अर्थात् पंचमगुणस्थानी मेढे-जैसा और कोई सूअर-जैसा मुख वाले हैं. प्रायः पेड़ों होना भी असम्भव बताया गया है। तिर्याम भी सबसे
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अनेकान्त
[ कार्तिक, वीर निर्वाण सं० २४ ६४
ऊँची अवस्थावाले संज्ञी पंचेन्द्रिय हैं, उनकी भी ऐसी यही हाल अन्तरधीपजोंका समझ लेना चाहिये, जो नीच अवस्था है कि उनमें न तो आपस में बातचीत मोटे रूप में तियचोंके ही समान मालूम होते हैं । उनके करनेकी ही शक्ति है, न उपदेशके सुनने-समझनेकी, अस्तित्वका पता आजकल मालूम न होनेसे और शास्त्रों कोई नया विचार या कोई नई बात भी वे नहीं निकाल में भी उनका विशेष वर्णन न मिलनेके कारण उनकी सकते । इसीसे वे अपने जीवनके नियमों में भी कोई बाबत अधिक कुछ भी नहीं कहा जा सकता है । हा, उन्नति या परिवर्तन नहीं कर सकते हैं। कौवा जैसा उनका नाम आते ही इतना अफसोस ज़रूर होता है कि घोंसला बनाता चला आ रहा है वैसाही बनाता है, पशु-समान अपनी पतित अवस्थाके कारण उनका चिड़ियाकी जो रीति है वह वैसा ही करती है, ययाकी नीचगोत्री होना तो ठीक ही है; परन्तु उनको मनुष्योंकी जातिमें जैसा घोंसला बनता चला आरहा है वैसा ही वह गणनामें रखनेसे मनुष्यजाति नाहक़ ही इस बातके बनाता है, शहदकी मक्खी और भिरड़ भी अपनी अपनी लिये कलंकित होती है कि उनमें भी नीचगोत्री जातिके नियमके अनुसार जैसा छत्तः बनाती आरही है होते हैं । वैसा ही बनाती है-रत्तीभर भी कोई फेर-फार नहीं हो सकता है। ऐसा ही दूसरे सब तियचोंका हाल है । इसी जान पड़ता है अन्तरद्वीपजोंको म्लेच्छ-मनुष्योंकी कारण उनकी बुद्धिको पश्चिमी विद्वानोंने Instinct कोटिमें शामिल कर देनेसे ही मनुष्योंमें ऊंच-नीचरूप of Bruit: अर्थात् पशु बुद्धि कहा है, जो बहुधाकर उभयगोत्रकी कल्पनाका जन्म हुआ है—किसी ने उसी प्रकार प्रवर्तती है जिस प्रकार कि पुद्गलपदार्थ अन्तरद्वीपजोंको भी लक्ष्य में रखते हुए, मनुष्यों में बिना किसी सोच समझ के अपने स्वभावानुसार प्रवर्तते सामान्यरूपमें दोनों गोत्रोंका उदय बतला दिया; तब हैं। ऐसी दशा में संज्ञी पंचेन्द्रिय तिथंच किस प्रकार दसरीने, वैसी दृष्टि न रखते हये, अन्तरद्वीपजोंसे भिन्न सप्ततत्त्वोंका स्वरूप समझकर सम्यग्दर्शन ग्रहण कर मनुष्यों में भी, ऊँच-नीचगोत्रकी कल्पना कर डाली है। सकते हैं और सम्यग्दृष्टि होने पर किस प्रकार श्रावकके अन्यथा, जो वास्तव में मनुष्य है उनमें नीचगोत्रका व्रत धारण कर पंचम गुणस्थानी हो सकते हैं ? यह बात उदय नहीं- उन्हें तो बराबर ऊँचा उठते तथा अपनी असम्भवमी ही प्रतीत होती है; परन्तु उनको जाति- उन्नतिकी ओर कदम बढ़ाते हुए देखते हैं । उदाहरण स्मरण हो सकता है अर्थात् किसी भारी निमित्त कारण के लिये अफ़रीकाकी पतितसे पतित मनुष्यजाति भी के मिलने पर पूर्वभव के सब समाचार याद आ सकते हैं, आज उन्नतिशील है...अपनी कहने, दूसरोंकी सुनने, जिससे उनकी बुद्धि जागृत होकर वे धर्म का श्रद्धान भी उपदेश ग्रहण करने, हिताहितको समझने, व्यवहार कर सकते हैं और नाममात्रको कुछ संयमभी धारण कर परिवर्तन करने, और अन्य भी सब प्रकारसे उन्नतिशील सकते हैं । इस प्रकार नीचगोत्रियोंकी अत्यन्त पतित होनेकी उसमें शक्ति है । उसके व्यक्तियोंमें Instinct अवस्था होने से उनमें सकल संयम की अयोग्यता पाई of Bruits अर्थात् पशुबुद्धि नहीं है, किंतु मनुष्योंजाती हैं और इसी कारण यह कहा गया है कि नीच- जैसा उन्नतिशील दिमाग़ है; तबही तो वे ईसाई पादगोत्री पंचम गुणस्थान से ऊपर नहीं चढ़ सकते हैं। रियों आदिके उपदेशसे अपने असभ्य और कुत्सित व्यव
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वर्ष २, किरण १]
गोत्रकर्माश्रित ऊँच-नीचता
हारोंको छोड़कर दिनप्रतिदिन उन्नति करते चले जा रहे अर्थात्-उच्च गोत्रके उदयके साथ अन्य कारणोंके हैं और सभ्य बनने लग गये हैं। इन्हीं में से जो लोग मिलने से आर्य और नीचगोत्रके उदय के साथ अन्य
अरबवालोंके द्वारा पकड़े जाकर अमरीका में गुलाम कारणांके मिलनेसे म्लेच्छ होता है *। भावार्थ जो आर्य - बनाकर बेचे गये थे उन्होंने तो ऐसी अद्भुत उन्नति है उसके उच्चगोत्र का उदय ज़रूर है और जो म्लेच्छ है
करली है कि जिसको सुनकर अचम्भा होता है। उनमेंसे उसके नीच गोत्रका उदय अवश्य है । आर्य और म्लेच्छ बहुतमे तो आजकल कालिजों में प्रोफैसर हैं और कई कौन हैं, इसको श्रीअमृतचन्द्राचार्यने तत्वार्थसार अध्याय अन्य प्रकारसे अद्वितीय विद्वान हैं, यहाँ तक कि कोई १, श्लोक २१२ में इस प्रकार बतलाया हैकोई तो अमरीका जैसे विशाल द्वीपके मुख्य शासक
आर्यखण्डोद्भवा आर्या म्लेच्छाः कंचिच्छकादयः। (1Presirlent) रह चुके हैं । वास्तवमें सबही कर्मभूमिज म्लेच्छखराडोद्भवा म्लेच्छा अन्तरद्वीपजा अपि ॥ गर्भज मनुष्यांकी एक मनुष्य जाति है, उनमें परस्पर ।
अर्थात् जो मनुष्य आर्यखण्ड में पैदा हों वे सब घोडे.बैल जैसा अन्तर नहीं है, सभी में सांसारिक और आर्य हैं, जो म्लेच्छखण्डोंमें उत्पन्न होने वाले शकादिक परमार्थिक उन्नति के ऊँचेसे ऊँचे शिखरपर पहुँचने की हैं वे सब म्लेच्छ हैं। और जो अन्तरद्वीपोंमें उत्पन्न योग्यता है, और वे सब ही नारकियों, तियचों तथा अन्तर- होते हैं वे भी सब म्लेच्छ ही हैं । श्लोकवार्तिको म्लेच्छोंद्वीप जोंग बिल्कुलही विलक्षण हैं और बहुत ज्यादा ऊँच
का पता इस प्रकार दिया है पदपर प्रतिष्ठित है-इसीस उच्चगोत्री हैं।
"तथान्तद्वीपजा म्लेच्छाः परे स्युः कर्मभूमिजाः।"... गोमटसार और श्रीजयधवल आदि सिद्धांत ग्रन्थों "कर्मभूमिभवा म्लेच्छाः प्रसिद्धा यवनादयः।"... के अनमार यह बात सिद्ध करनेके बाद कि आर्य और अर्थात म्लेच्छोंके 'अन्तरद्वीपज' और 'कर्ममिज' म्लेच्छ सब ही कर्मभूमिया मनुष्य उच्चगोत्री हैं, अब हम ऐसे दो भेद हैं । जो कर्मभूमिमें पैदा हुए. म्लेच्छ है वे श्रीविद्यानन्द स्वामीके मतका उल्लेख करते हैं, जो उन्हों
यवन आदि प्रसिद्ध हैं । इससे स्पष्ट है कि श्रीविद्यानन्द ने श्लोक वार्तिक अध्याय ३, मूत्र ३७ के प्रथम वार्तिक
आचार्यने यवनादिकको म्लेच्छखण्डोद्भव म्लेच्छ माना की निम्न टीकाम दिया है
है, और इस तरह उनके तथा अमृतचन्द्राचार्य के कथन “उच्चैर्गोत्रोदयादेाः , नीचैर्गोत्रोदयादश्च की एक-वाक्यता सिद्ध होकर दोनों की संगति ठीक बैठ म्लेच्छाः।”
जाती है...... शकादिक और यवनादिक कहने में वस्तुतः
* श्री गोम्मटसारादि सिद्धान्त ग्र-थों के उक्त कथनकी रोशनी में विद्यानन्दाचार्यका यह आर्य-म्लेच्छ विषयक स्वरूप-कथन कुछ सदोष जान पड़ता है। पूज्यपाद-अकलंकादि दूसरे किसी भी प्राचीन आचार्य का ऐसा अभिमत देखने में नहीं पाता । अतः जिन विद्वानों को यह कथन निदोंप जान पड़े उनसे निवेदन है कि वे स्वरूपकथन में प्रयुक्त हुए 'श्रादि' शब्द के वाच्य को स्पष्ट करते हुए भागम तथा सिद्धांतों ग्रन्थों के इस कथन की संगति ठीक करने की कृपा करें, जिससे यह विषय अधिक प्रकाश में लाया जा सके।
----सम्पादक
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अनेकान्त
[कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५
कोई अन्तर नहीं । सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक आदि ग्रन्थों देशोंमें जाबस हैं । पहले, दूसरे और तीसरे कालमें इस में शक, यवन, शबर, पुलिन्दादिको कर्मभूमिज म्लेच्छ आर्यखण्डम भोगभूमिया रहते थे, जो अतिउत्तम आर्य बतलाया ही है । अस्तु ये शक, यवनादिक कौन थे और तथा उच्चगोत्री थे और कल्पवृक्षोंसे ही अपनी सब अब इनका क्या हुआ ? इसपर एक विस्तृत लेख इच्छित वस्तुएँ प्राप्त कर लेते थे । तीसरे कालके अन्त के लिखे जानेकी ज़रूरत है जिससे यह विषय साफ- में कल्पवृक्ष समाप्त हो गए, तब श्रीऋषभदेव भगवान् साफ रोशनी में आजाय । हो सका तो इसके अनन्तर ने उनको क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्ररूप तीन भेदों में उसके लिखनेकी कोशिश की जावेगी।
वाट कर, खेती, पशु-पालन, व्यापार, सेवा और सिपाही
गीरी आदिक कर्म सिखाए । तत्पश्चात् भरत महाराज यहा सबसे पहले यह जाननेकी ज़रूरत है कि आर्य
ने उन्हीं तीनों में से कुछ मनुष्योंकी एक चौथी खंडी हद कहाँ तक है । भरतक्षेत्रकी चौड़ाई ५२६
ब्राह्मण जाति बनाई । इन चारों ही जातियोंकी सन्ताने. योजन ६ कला है । इसके ठीक मध्यमें ५० योजन चौड़ा
जिनमें छूत अछूत मभी शामिल हैं. आर्य सन्तान होनेसे विजयाध पर्वत है, जिसे घटाकर दो का भाग देनेस
जाति-आर्य हैं। २३८ योजन ३ कलाका परिमाण आता है; यही आर्य
कर्म आयोंका वर्णन करते हुए श्री अकलंकदेवने खण्डकी चौड़ाई बड़े योजनों से है, जिसके ४७६०००
राजधातिकमें लिखा है कि वे तीन प्रकार के हैं-एक से भी अधिक कोस होते हैं, और यह संख्या आजकलकी जानी हुई सारी पृथिवीकी पैमाइशसे बहुतही ज्यादा
सावद्यकार्य दूसरे अल्पसावद्यकार्य, तीसरे असावद्य कर्म कई गुणी अधिक है । भावार्थ इसका यह है कि आज
आर्य । पिछले दो भदोंका अभिप्राय देशवतियों तथा कल की जानी हुई सारी पृथिवी तो आर्यखण्ड ज़रूर ही
महावतियोंसे है ।रहे सावद्यकार्य, वे ऐसे क माँसे आजी
बका करने वाले होते हैं जिनमें प्रायः पाप हुआ करता है और आजकलकी जानी हुई इस सारी पृथिवी पर रहने
है । उनके छह भेद है.--(१) जो तीर तलवार आदि वाले सभी मनुष्य आर्य होनेसे उच्चगोत्री भी जरूर ही
हथियार चलाने में होश्यिार हो- फौज, पुलिस के
सिपाही और शिकारी आदि वे असिकर्मार्य (२) सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक और श्लोकवार्तिक आदि जो आमद ख़र्च आदि लिखने में दक्ष हों वे मसिकार्य महान् ग्रन्थोंमें क्षेत्र-आर्य, जाति-आर्य, कर्म आर्य, चारित्र. (३ ) जो खेतीके औजार चलाना जानने वाले, स्वयं
आर्य और दर्शन आर्य ऐसे पांच प्रकारके आर्य बतलाये खेतीहरहलचलाने, खेत नौराने, झाडझूड़ काटने, घास हैं । जो आर्यखण्डमें उत्पन्न हुए हैं-ब्राह्मण हो वा खोदने, पानी सींचने, खेती काटने, ईख छीलने आदि शूद्र, छूत हों वा अछूत यहाँके क़दीम रहने वाले खेतके कामकी मजदूरी करने वालं हां वे कृषिकाय, (आदिम निवासी) हो वा म्लेच्छखण्डों से आकर बसे हुये ( ४ ) जो चित्रकारी आदि ७२ प्रकारके कलाकार--जैसे स्त्री-पुरुषोंकी सन्तानसे हों, वे सब क्षेत्र-आर्य हैं । जाति- चित्रकार, बहुरूपिये, नट, बादो, नाचनेवालं, गानेवालं, आर्य वे कहलाये जा सकते हैं, जो सन्तान क्रमसे आर्य ढोल-मृदङ्ग-वीणा-बांसरी-मारङ्गी-दोतारा-सितार आदि है, परन्तु इस समय आर्य-क्षेत्रों में न रहकर म्लेच्छ- बजानवाल, गजेवाल, इन्द्रजालिये, अर्थात् बाजीगर,
हैं।
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वर्ष २, किरण १]
गोत्रकर्माश्रित ऊँच-नीचता
जुए के खिलाड़ी उबटन आदि सुगन्ध वस्तु बनाने वाले अन्तमें व्यावहारिक दृष्टि से ऊँच-नीचताका विचार शरीरको मलने और पैर चापी करने वाले, चिनाई के करनेके लिये पाठकोंसे हमारा यह नम्र निवेदन है कि वे वास्ते इट बनाने वाले, चना फंकने वाले, पत्थर काटने श्रीप्रभाचन्द्राचार्य-रचित प्रमेयकमलमार्तण्डके चतुर्थ वाले, जर्राही अर्थात् शरीर को फाड़ने चीरने वाले, अध्यायको अवश्य पढ़े, जिसमें श्रीप्राचार्य महाराजने लोकरंजन आदि करने वाले भाड, कुश्तीके पहलवान, अनेक अकाट्य युक्तियों के द्वारा यह सिद्ध किया है कि डण्डों से लड़ने वाले पटेवाज आदि विद्याकार्य, (५) जाति सब मनुष्योंकी एक ही है, जन्मसे उसमें भेद नहीं धोबी, नाई, लुहार, कुम्हार, सुनार आदि-आदि शब्दसे, है, जो जैसा काम करने लगता है वह वैसा ही कहलाता मरे पशुओं की खाल उतारने वाले, जूता बनाने वाले है। प्रतिपक्षी इस विषयमें जो भी कुछ तर्क उठा सकता चर्मकार, बांस की टोकरी और छाज बनानेवाले बॅसफोड़ है उस सबका एक-एक करके श्रीप्राचार्य महाराजने आदि शिल्पकार्य, (६) चन्दनादि गन्धद्रव्य, घी आदि बड़ी प्रबल युक्तियोंसे खंडन किया है, जिससे यह कथन रस, चावल आदि अनाज और कई-कपास मोती आदिका बहत विस्तृत हो गया है। इसी से उसको हम यहां संग्रह कर के व्यापार करनेवाले वणिक्कर्माय । इस तरह ये उदधृत नहीं कर सके हैं। उसको पाठक स्वयं पढ़लें, छहों प्रकार के कर्म करनेवाले श्री अकलंकदेवके कथना ऐसी हमारी प्रार्थना है । हा अन्य ग्रन्थोंके कुछ वाक्य नुसार सावद्यकर्म-आर्य हैं । परन्तु ये उपरोक्त छहों कर्म लिखेजाते हैं, जिनसे व्यवहारिक दृष्टिकी ऊँच-नीचताके दंत्र-आर्य और जाति-आर्य तो करते ही हैं, तब ये कर्म- विषयमें पूर्वाचार्यों का कुछ अभिमत मालूम होसके और आर्य म्लेच्छ खंडोंमें रहनेवाले म्लेच्छ ही होसकते हैं, जो उससे हृदय में बैठी हुई चिरकालकी मिथ्या रूढिका विनाश आर्यों के समान उपर्युक्त कर्म करने लगे हैं, इसीसे कर्म- होकर सत्यकी खोज के लिए उत्कण्ठा पैदा होसके, और आर्य कहलाते हैं।
पूरी ग्वोज होजानेपर अनादि कालका मिथ्यात्व दूर होकर
सम्यकश्रद्धान पैदा होसके । वे वाक्य इस प्रकार हैं, ये सभी प्रकार के आर्य श्रीविद्यानन्दकं मतानुसार
दीक्षायोग्यास्त्रयो वर्णाश्चतुर्थश्च विधोचितः । उच्चगोत्री होते हैं अर्थात् कर्मभूमिके सब म्लेच्छ भी मनोवाक्कायधर्माय मताः सर्वेऽपि ज लवः ।। आर्योंके समान कर्म करने से कर्म-आर्य हो जाते हैं। उच्चावचजनप्रायः समयोऽयं जिनेशिनाम् । इनको छोड़ कर जो म्लेच्छ बच रहे हों वे ही नीचगोत्री
नकिस्मन् पुरुष तिष्ठदकस्तम्भ इवालयः ।।
...-यशस्तिलक चम्पू रह जाते हैं,और वे सिवाय अन्तरद्वीपजोंके और कोई भी नहीं हो सकते हैं-वे ही खेती, कारीगरी आदि कोई भावार्थ-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ये तीनों तो दीक्षा भी आर्य-कर्म करने के योग्य नहीं हैं और न आर्य-क्षेत्रों के योग्य हैं ही, किन्तु शूद्र भी विधि द्वारा दीक्षाके में उनका अागमन अथवा निवास ही बनता है । इस योग्य हैं। मन-वचन-कायसे पालन किये जाने वाले प्रकार विद्यानन्दस्वामीके मतानुसार भी यही परिणाम धर्मके सब ही अधिकारी हैं । जिनेन्द्र भगवानका यह निकल आता है कि अन्तरद्वीपजोंके सिवाय वर्तमान धर्म-ऊँच नीच दोनों ही प्रकार के मनुष्योंके आधार पर संसार के सभी मनुष्य उच्चगोत्री हैं।
टिका हुआ है। एक स्तम्भके आधार पर जिस तरह
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अनेकान्त
[ कार्तिक, वीर निर्वाण सं० २४६४
मकान नहीं ठहर सकता उसही तरह ऊँच वा नीचरूप चिह्नानि विटजातस्य सन्ति नाङ्गेषु कानिचित् । एकही प्रकार के मनुष्यों के आधार पर धर्म नहीं ठहर अनार्यामाचरन् किञ्चिज्जायते नीचगोचरः॥ सकता है।
-पद्मचरित न जातिर्गहिता काचिद् गुणाः कल्याणकारणम् । भावार्थ-व्यभिचारसे अर्थात् हरामसे पैदा हुएका व्रतस्थमपि चाण्डालं तं दंवा ब्राह्मणं विदु ॥ कोई निशान शरीर में नहीं होता है, जिससे वह नीच
समझा जावे। अतः जिसका आचरण अनार्य अर्थात् भावार्थ कोई भी जाति निन्दनीय नहीं है, मनुष्य नीच हो वहही लोकव्यवहार में नीच समझा जाता हैके गुण ही कल्याण करनेवाले होते हैं, व्रतधारी चांडाल गोत्रकर्म मनुष्योंको नीच नहीं बनाता। भी महापुरुषों द्वारा ब्राह्मण माना जाता है।
विप्रक्षत्रियविट्शूद्राः प्रोक्ताः क्रियाविशेषतः । सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गदहजम् ।
जैनधर्मे पराः शक्तास्ते सर्वे बान्धवोपमाः॥
--धर्मरसिक देवा देवं विदुर्भम्मगृढांगारान्तरोजसम् ॥
-रत्नकरण्ड जात
भावार्थ-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये मय भावार्थ-चाण्डालकी सन्तानभी सम्यग्दर्शन ग्रहण
अपनी अपनी कुछ क्रियाविशेषके कारण ही
भेदरूप कहे जाते हैं । वास्तवमें जैनधर्मको धारण करने करनेसे देवों द्वारा देव ( आराध्य ) मानी जाती है।
के लिये मभी समर्थहैं, और उसे पालन करते हुए मब चातुर्वर्ण्य यथान्यच चाण्डालादिविशेषणम् । परस्पर में भाई भाई के समान हैं । अस्तु । सर्वमाचारभेदन प्रसिद्धि भुवनं गतम् ॥
अब इस गोत्र कर्मके लेखको समाप्त करनेसे पहले -पद्मचरित
यह भी प्रकट कर देना ज़रूरी है कि किन कारगोसे भावार्थ- --ब्रह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और चांडाल
उच्चगोत्र कर्मका बन्ध होता है और किन कारणांसे मन आचारगाके भेदमे ही भेद रूप माने जाते हैं।
नीच गोत्रका। इसका बावत तत्वार्थसूत्र, अध्याय ६टे श्राचारमात्रभेदन जातीनां भंदकल्पनम् । के मूत्र नं० २५, २६ इस प्रकार हैं:न जातिर्बाह्मणीयास्ति नियता कापि तात्विकी ॥ "परात्मनिन्दाप्रशंसं सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च गुणोः सम्पद्यते जातिर्गणध्वंसैविपद्यते ।
___ नीचैर्गोत्रस्य ॥ २५ ॥" -धर्मपरीक्षा "तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्त्यनुत्सेको चोत्तरस्य ।"२६ ।। भावार्थ- ब्राह्मणादि जाति कोई वास्तविक जाति इनमें बतलाया है किअपनी बड़ाई और दूसरोंकी निंदा नहीं है, एकमात्र प्राचारके भेदसे ही जातिभेदकी करनेसे ---दुसरांके विद्यमान गुणोंकोभी ढाकने और कल्पना होती है । गुणों के प्राप्त करनेसे जाति प्राप्त होती अपने अनहोते गुणोंकोभी प्रकट करनेसे नीचगोत्रकर्म "और गुणोंके नाश होने से वह नष्ट भी होजाती है। पैदा होता है । प्रत्युत इसके दूसरोंकी बड़ाई और अपनी
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वर्ष २, किरण १]
गोत्रकर्माश्रित ऊँच-नीचता
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निन्दा आदि करने तथा नम्रता धारण करनेसे उच्च- रहनेकी ज़रूरत है । ऐसा न हो कि अपनी अकड़, अहगोत्रकर्मका उपार्जन होता है।
म्मन्यता वा असावधानीसे हम नीचगोत्र बाँधले, जिससे
नरकोंमें पटके जावे या वृक्ष और कीड़े-मकौड़े आदि नीच और ऊँच गोत्र कर्मके पैदा होनेके इस बनकर तिर्यचति में पड़े-पड़े सड़ा करें अथवा कुभोग सिद्धान्तको अच्छी तरह ध्यानमें रखकर हमको मन, भूमिया बनकर तिर्यचों-जैसा जीवन व्यतीत करनेके वचन, कायकी प्रत्येक क्रियामें बहुत ही सावधान लिये बाध्य होवें ।
धर्म क्या ?
(ले०-श्री जैनेन्द्रकुमारजी ) बड़ा अच्छा प्रश्न किया गया है कि धर्म क्या है ? इसका अर्थ मानव का अपनी आत्मा के निषेध पर देह जैन श्रागम में कथन है कि वस्तुका स्वभाव ही धर्म है। के काबू हो जाना है । इसके प्रतिकूल संयम धर्मा
इस तरह स्वभावच्युत होना अधर्म और स्वनिष्ठ भ्यास है। रहना धर्म हुआ।
__इस दृष्टि से देखा जाय तो धर्म को कहीं भी खोजने मानवका धर्म मानवता । दसरे शब्दों में उसका जाना नहीं है। वह आत्मगत है। बाहर ग्रन्थों और अर्थ हुआ आत्मनिष्ठा ।
ग्रन्थियों में वह नहीं पायगा, वह तो भीतर ही है। भीतर मनुष्यमें सदा ही थोड़ा-बहुत द्वित्व रहता है। एक लौ है । वह सदा जगी रहती है। बुझी, कि वही इच्छा और कर्म में फासला दीखता है। मन कल प्राणी की मृत्यु है । मनुष्य प्रमाद से उसे चाहे न सने. चाहता है, तन उस मनको बांधे रखता है। तन पूरी पर वह अतध्वान कभा नहा सा
पर वह अंतर्ध्वनि कभी नहीं सोती । चाहे तो उसे अनतरह मनके बसमें नहीं रहता, और न मन ही एक दम सुना कर दो, पर वह तो तुम्हें मुनाती ही है। प्रात नन के ताबे हो सकता है। इसी द्वित्वका नाम क्लेश क्षण वह तुम्हें सुझाती रहती है कि यह तुम्हारा स्वभाव है। यहीं से दुःख और पाप उपजता है।
नहीं है, यह नहीं है।
उसी लौ में ध्यान लगाये रहना: उसी अंतर्ध्वनि के इस द्वित्वकी अपेक्षा में हम मानवको देखें तो कहा जासकता है कि मन (अथवा आत्मा ) उसका स्व है,
आदेश को सुनना और तदनुकूल वर्तना; उसके अतिरिक्त
कुछ भी और की चिंता न करना; सर्वथैव उसी के हो तन पर है । तन विकारकी ओर जाता है, मन स्वच्छ
रहना और अपने समूचे अस्तित्व को उसमें होम देना, स्वप्न की ओर । तन की प्रकृतिका विकार स्वीकार
उसी में जलना और उसी में जीना--यही धर्मका करने पर मन में भी मलिनता आजाती है और उसकी शक्ति क्षीण हो जाती है । इससे तन की गुलामी परा
सूने महल में दिया जगाले । उसकी लौ में लौ लगा धीनता है और तन को मन के वश रखना और मन को
बैठ। आसन से मत डोल । बाहर की मत सुन । सब आत्मा के वश में रखना स्व-निष्ठा स्वास्थ्य और स्वा- बाहर को अन्तर्गत हो जाने दे। तब त्रिभुवन में तू ही धीनता की परिभाषा है।
होगा और त्रिभुवन तुझ में, और तू उस लौ में । धर्मकी संक्षेप में सब समय और सब स्थिति में आत्मानुकूल यही इष्ठावस्था है । यहाँ द्वित्व नष्ट हो जाता है । आत्मा वर्तन करना धर्माचरणी होना है। उस से अन्यथा वर्तन की ही एक सत्ता रहती है। विकार असत् हो रहते हैं, करना धर्म-विमुख होना है। असंयम अधर्म है; क्योंकि जैसे प्रकाश के आगे अन्धकार ।
सार है।
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अनेकान्त
तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५
अनित्यता
[ले. श्री. शोभाचन्द्र भारिल्ल, न्यायतीर्थ ]
दहला देता था वीरों को जिनका एक इशारा, जिनकी उँगली पर नचता था यह भमंडल सारा। थे कल तक जो शूरवीर रणधीर अभय सेनानी, पड़े तड़पते आज न पाते हैं चुल्लू-भर पानी !
लहरें लोल जलधि है अपनी आज जहाँ लहराता, हा! संसार मरुस्थल उसको थोड़े दिन में पाता ! मनहर कानन में सौरभ-मय सुंदर सुमन खिले है, आँधी के हलके झोंके से अब वे धूल मिले हैं !
अमर मानकर निज जीवनको पर-भव हाय भुलाया, चाँदी-सोने के टुकड़ों में फूला नहीं समाया । देख मूढता यह मानव की उधर काल मुस्काया, अगले पल ले चला यहाँपर नाम-निशान न पाया !
है संसार सराय जहाँ हैं पथिक आय जुट जाते, लेकर दुक विश्राम राह को अपनी-अपनी जाते । जो आये थे गये सभी, जो आये हैं जाएँगे, अपने-अपने कर्मों का फल सभी आप पाएँगे ।।
उच्छासों के मिप से प्रतिपल प्राण भागते जाते, बादल की-सी छाया काया पाकर क्या इठलाते ? कौन सदा रख सका इन्हें फिर क्या तू ही रख लेगा ? पा यम का संकेत तनिक-सा तु प्रस्थान करेगा ?
जीवन तन धन-भवन न रहि है, स्वजन-प्रान छूटेंगे, दुनिया के संबंध विदाई की वेला टेंगे । यह क्रम चलता रहा आदि से, अब भी चलता भाई. संयोगों का एकमात्र फल--केवल सदा जुदाई ।।
विजली की क्षण-भगुर आभा कहती-देखो आओ, तेरे-मेरे जीवन में है कितना भेद बतायो ? जल-बुद-बुद मानों दुनियां को अमर सीख देता हैमौत तभी मे ताक रही जब जीव जन्म लेता है।
कोटि-कोटि कर कोट ओटमें उनकी तू छिप जाना. पद-पद पर प्रहरी नियुक्त करके पहरा बिठलाना। रक्षण हेतु मदा हो सेन सजी हुई चतुरङ्गी, काल बली ले जाएगा, ताकंगे साथी-सङ्गी ।।
बड़ भोर चह अरो ललाई जो भ पर छाई थी. नभ से उतर प्रभा दिनकर की मध्य दिवस आई थी। सन्ध्या-राग रंगीला मन को तुरत माहने वाला, हाय ! कहाँ अब जब फैला है यह भीषण तम काला!
| धन-दौलत का कहा ठिकाना, वह कब तक ठहरगी ?
चारु सुयश की विमल पताका क्या सदैव फहरेगी? पिता-पुत्र-पत्नी-पोतों का संग चार दिन का है. फिर चिर-काल वियोग-वेदना-वेदन फल इनका है ।।
जीवन का सौंदर्य सुनहरा शैशव कहा गया रे ! आंधी-सा मतमाता यौवन भी तो चला गया रे ! श्रद्ध मृत्युमय बूढ़ापन भी जाने को आया है. हा! मारा ही जीवन जैसे बादल की छाया है !!
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A
सेवाधर्म-दिग्दर्शन
[सम्पादकीय ] अहिंसाधर्म, दयाधर्म, दशलक्षणधर्म, रत्नत्रय संवा बजानेवाले स्वयंसंवक में कितना बड़ा
"धर्म, सदाचारधर्म, अथवा हिन्दूधर्म, मुसल- अन्तर है। ऐसे लोग सेवाधर्म को शायद किसी मानधर्म, ईसाईधर्म, जैनधर्म, बौद्धधर्म इत्यादि धर्म धर्मकी ही सृष्टि समझते हों, परन्तु ऐसा समझना नामोंसे हम बहुत कुछ परिचित हैं; परन्तु 'सेवाधर्म' ठीक नहीं है। वास्तव में संवाधर्म सब धर्मो में हमारे लिये अभी तक बहुत ही अपरिचितसा ओत-प्रोत है और सबमें प्रधान है। बिना इस धर्म बना हुआ है। हम प्रायः समझते ही नहीं कि के सब धर्म निष्प्राण हैं, निसत्व हैं और उनका कुछ सेवाधर्मभी कोई धर्म है अथवा प्रधान धर्म है। भी मूल्य नहीं है। क्योंकि मन-वचन-कायसे स्वेच्छा कितनों ही ने तो संवाधर्मको सर्वथा शूद्रकर्म एवं विवेकपूर्वक ऐसी क्रियाओं का छोड़ना जो मान रक्खा है, वे सेवकको गुलाम समझते हैं किसी के लिये हानिकारक हों और ऐसी क्रियाओं
और गुलामीमें धर्म कहाँ ? इसीसे उनकी तद्रूप का करना जो उपकारक हों संवाधर्म कहलाता है। संस्कारोंमें पली हुई बुद्धि संवाधर्मको कोई धर्म मेरे द्वारा किसी जीवको कष्ट अथवा हानि अथवा महत्वका धर्म मानने के लिये तैय्यार नहीं- न पहँचे मैं सावद्ययोग से विरक्त होता हूँ, लोकवे समझ ही नहीं पाते कि एक भाडेके सेवक, संवाकी ऐसी भावना के बिना अहिंसाधर्म कुछ अनिच्छा पूर्वक मजबूरीसे काम करने वाले परतंत्र भी नहीं रहता और 'मैं दूसरों का दुख-कष्ट दूर संवक और स्वेच्छासे अपना कर्तव्य समझकर करने में कैसे प्रवृत्त हूँ' इस सेवा-भावनाको यदि सेवाधर्म का अनुष्ठान करने वाले अथवा लोक- दयाधर्मसे निकाल दिया जाय तो फिर वह क्या
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अनेकान्त
[ वर्ष २, किरण १
अवशिष्ट रहेगा ? इसे सहृदय पाठक स्वयं समझ सेवा कैसे उत्तम फलको फलती है । इसीसे उस सकते हैं। इसी तरह दूसरे धर्मो का हाल है, सेवा- पद्यको उनके 'स्तुतिविद्या' नामक ग्रन्थ (जिनशतक) धर्म की भावनाको निकाल देने से वे सब थोथे से यहाँ उद्धृत किया जाता है:और निर्जीव हो जाते हैं । सेवाधर्म ही उन सब ,
सुश्रद्धा मम ते मते स्मृतिरपि त्वय्यर्चनं चापि ते में, अपनी मात्रा के अनुसार प्राणप्रतिष्ठा करने वाला है। इसलिये संवाधर्मका महत्व बहत ही हस्ताव जलये कथाश्रुतिरतः कर्णोऽति संप्रनते । बढ़ा चढ़ा है और वह एक प्रकार से अवर्णनीय सुस्तुत्यां व्यसनं शिरोनतिपरं सेवेशी येन ते है। अहिंसादिक सब धर्म उसीके अंग अथवा तेजस्वीसुजनोऽहमेव सुकृत तेनैव तेजःपते ॥११४॥ प्रकार हैं और वह सब में व्यापक है। ईश्वरादिक इसमें बतलाया है कि-'हे भगवन् ! आपके की पूजा भक्ति और उपासना भी उसी में शामिल मतमें अथवा आपके ही विषयमें मेरी सुश्रद्धा है(गर्भित ) है, जो कि अपने पूज्य एवं उपकारी अन्धश्रद्धा नहीं-, मेरी स्मृति भी आपको ही
पुरुषोंके प्रति किये जाने वाले अपने कर्तव्यके अपना विषय बनाये हुए है, मैं पूजन भी आपका . पालनादि स्वरूप होती है। इसी से उसको 'देव- ही करता हूँ, मेरे हाथ अोपको ही प्रणामांजलि
सेवा' भी कहा गया है। किसी देव अथवा धमे करनेके निमित्त हैं, मेरे कान आपकी ही गुणकथा प्रवर्तकके गुणों का कीर्तन करना, उसके शासन सुननेमें लीन रहते हैं, मेरी आँखें आपके ही को स्वयं मानना सदुपदेशको अपने जीवन में
रूपको देखती हैं, मुझे जो व्यसन है वह भी उतारना और शासन का प्रचार करना, यह सब आपकी ही सुन्दर स्तुतियों के रचनेका है और उस देव अथवा धर्म-प्रवर्तक की संवा हे और मेरा मस्तक भी आपको ही प्रणाम करनेग तत्पर इसके द्वारा अपनी तथा अन्य प्राणियोंकी जो वादी
___ रहता है। इस प्रकारकी चूँकि मेरी सेवा है-मैं सेवा होती है वह सब इससे भिन्न दूसरी आत्म
- निरन्तर ही आपका इस तरह पर सेवन किया सेवा अथवा लोकसेवा है। इस तरह एक सेवा
| करता हूँ-इसीलिये हे तेज:पते ! ( केवल ज्ञान में दूसरी सेवाएँ भी शामिल होती हैं।
स्वामिन् ) मैं तेजस्वी हूँ, सुजन हूँ और सुकृति स्वामी समन्तभद्र ने अपने इष्टदेव भगवान् (पुण्यवान् ) हूँ।' महावीरके विषयमें अपनी सेवाओंका और अपने यहाँ पर किसीको यह न समझ लेना चाहिये को उनकी फलप्राप्तिका जो उल्लेख एक पद्यमें कि सेवा तो बड़ोंकी-पूज्य पुरुषों एवं महात्माओंकिया है वह पाठकोंके जानने योग्य है और उससे की होती है और उसीसे कुछ फल भी मिलता है, उन्हें देवसेवाके कुछ प्रकारोंका बोध होगा और -
* समन्तभद्रकी देवागम, युक्त्यनुशासन और स्वयंभूस्तोत्र लम होगा कि सच्चे।
नामकी स्तुतियाँ बड़े ही महत्वकी एवं प्रभावशालिनी हैं और और पूर्ण तन्मयताके साथ की हुई वीर-प्रभुकी उनमें सूत्ररूपसे जैनागम अथवा वीरशासन भरा पड़ा है।
अगस
साथ
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कार्तिक, वीर निर्वाण सं० २४६५ ] सेवाधर्म - दिग्दर्शन
छोटों - असमर्थों, अथवा दीन-दुःखियों आदिकी सेवा में क्या धरा है ? ऐसा समझना भूल होगा । जितने भी बड़े पूज्य, महात्मा अथवा महापुरुष हैं वे सब छोटों, असमथों, असहायों एवं दीनदुःखियोंकी सेवा से ही हुए हैं-सेवा ही सेवकको सेव्य बनाती अथवा ऊँचा उठाती है। और इस लिये ऐसे महान् लोक-सेवकोंकी सेवा अथवा पूजा भक्ति का यह अभिप्राय नहीं कि हम उनका कोरा गुणगान किया करें अथवा उनकी ऊपरी (औपचारिक) सेवा चाकरी में ही लगाये रक्खें - उन्हें तो अपने व्यक्तित्व के लिये हमारी सेवाकी जरूरत भी नहीं है - कृतकृत्योंको उसकी जरूरत भी क्या हो सकती है ? इसी से स्वामी समन्तभद्रने कहा है - " न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे" - अर्थात हे भगवन्, पूजा भक्तिसं आपका कोई प्रयोजन नहीं है; क्योंकि आप वीतरागी हैं- रागका अंश भी आपके आत्मामें विद्यमान नहीं है, जिसके कारण किसीकी पूजा-संवासे आप प्रसन्न होते । वास्तव में ऐसे महान् पुरुषांंकी सेवा - उपासनाका मुख्य उद्देश्य उपकारस्मरण और कृतज्ञता व्यक्तीकरण के साथ ' तद्गुणलब्धि' – उनके गुणोंकी संप्राप्ति होता है । इसी बात को श्री पूज्यपादाचार्यने 'सर्वार्थ सिद्धि' के मंगलाचरण (‘मोक्ष मार्गस्यनेतारं ' इत्यादि) में "वन्दे तद्गुणलब्धये" पदके द्वारा व्यक्त किया है । तद्गुण लब्धिके लिये तद्रूप आचरणकी जरूरत है, और इसलिये जो तद्गुण लब्धिकी इच्छा करता है वह पहले तद्रूप आचरण को अपनाता है - अपने आराध्य के अनुकूल वर्तन करना अथवा उसके नक़शेकदम पर चलना प्रारंभ
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करता है। उसके लिये लोकसेवा अनिवार्य हो जाती है - दीनों, दुःखितों, पीड़ितों, पतितों, अस हायों, असमर्थों, अज्ञों और पथभ्रष्टों की सेवा करना उसका पहला कर्तव्यकर्म बन जाता है । जो ऐसा न करके अथवा उक्त ध्येयको सामने न रखकर ईश्वर - परमात्मा या पूज्य महात्माओं की भक्तिके कोरे गीत गाता है वह या तो दभी है, ठग है – अपनेको तथा दूसरों को ठगता है - और या उन जड़ मशीनोंकी तरह अविवेकी है जिन्हें अपनी क्रियाओंका कुछ भी रहस्य मालूम नहीं होता । और इसलिये भक्तिके रूपमें उसकी सारी उछल-कूद तथा जयकारोंका - जय जयके नारोंका - कुछ भी मूल्य नहीं है । वे सब दंभपूर्ण अथवा भावशून्य होनेसे बकरी के गलेमें लटकते हुए स्तनों ( थनों) के समान निरर्थक होते हैंभी वास्तविक फल नहीं होता ।
- उनका कुछ
महात्मा गांधीजीने कई बार ऐसे लोगों को लक्ष्य करके कहा है कि 'वे मेरे मुँह पर थूकें तो अच्छा, जो भारतीय होकर भी स्वदेशी वस्त्र नहीं पहनते और सिरसे पैर तक विदेशी वस्त्रोंको धारण किये हुये मेरी जय बोलते हैं। ऐसे लोग जिस प्रकार गांधीजी के भक्त अथवा सेवक नहीं कहे जाते बल्कि मजाक उड़ाने वाले समझे जाते हैं, उसी प्रकार जो लोग अपने पूज्य महापुरुषोंके अनुकूल आचरण नहीं करते - अनुकूल आचरण की भावना तक नहीं रखते - खुशी से विरुद्धाचरण करते हैं और उस कुत्सित आचरण को करते हुए ही पूज्य पुरुषकी वंदनादि किया करते तथा जय बोलते हैं, उन्हें उस महापुरुषको संवक अथवा
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अनेकान्त
उपासक नहीं कहा जासकता - वे भी उस पूज्य व्यक्तिका उपहास करने—कराने वाले ही होते हैं। अथवा यह कहना होगा कि वे अपने उस आचरण के लिये जड़ मशीनों की तरह स्वाधीन नहीं हैं । और ऐसे पराधीनका कोई धर्म नहीं होता । सेवा धर्म के लिये छापूर्वक कार्यका होना आवश्यक है; क्योंकि स्वपरहित साधन की दृष्टि से स्वेच्छापूर्वक अपना कर्तव्य समझकर जो निष्काम कर्म अथवा कर्मत्याग किया जाता है, वह सच्चा सेवाधर्म है।
जब पूज्य महात्माओं की सेवा के लिये गरीबों, दीन-दुखितोंकी, पीड़ितों- पतितोंकी, असहायोंश्रममर्थोकी, अज्ञों और पथभ्रgat at अनिवार्य है- उस सेवाका प्रधान अंग है, बिना इसके वह बनती ही नहीं -तब यह नहीं कहा जा सकता और न कहना उचित ही होगा कि 'छोटों श्रममर्थो अथवा दीन-दुःखितों आदिकी सेवा में क्या धरा है ?' यह सेवा तो अहंकारादि दोषों को दूर करके आत्मा की ऊँचा उठाने वाली है, तद्गुण-लब्धि के उद्देश्य की पूरा करने वाली है और हर तरह से आत्मविकास में सहायक है, इसलिये परमधर्म है और सेवाधर्मका प्रधान अंग है । जिस धर्म के अनुष्ठान से अपना कुछ भी आत्मलोभ न होता हो वह तो वास्तवमें धर्म ही नहीं है ।
इसके सिवाय अनादिकाल से हम निर्बल, असहाय, दीन, दुःखित, पीड़ित, पतित, मार्गच्युत और अज्ञ जैसी अवस्थाओं में ही अधिकतर रहे
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हैं और उन अवस्थाओं में हमने दूसरों की खूब संवाएँ ली हैं तथा सेवा-सहायताकी प्राप्ति के लिये निरन्तर भावनाएँ भी की हैं, और इसलिये उन अवस्थाओं में पड़े हुए अथवा उनमेंसे गुजरने वाले प्राणियोंकी सेवा करना हमारा और भी ज्यादा कर्त्तव्यकर्म है, जिसके पालनके लिये हमें अपनी शक्तिको जरा भी नहीं छिपाना चाहियेउसमें/ जी चुराना अथवा आना-कानी करने जैसी कोई बात न होनी चाहिये । इसीको यथाशक्ति कर्त्तव्यका पालन कहते हैं ।
एक बच्चा पैदा होते ही कितना निर्बल और असहाय होता है और अपनी समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये कितना अधिक दूसरों पर निर्भर रहता अथवा आधार रखता है। दूसरे जन उसकी खिलाने-पिलाने, उठाने-बिठाने, लिटानेसुलाने, ओढ़ने-बिछाने, दिल बहलाने, सर्दी-गर्मी आदिसे रक्षा करने और शिक्षा देने दिलाने की जो भी सेवाएँ करते हैं वे सब उसके लिये प्राणदान के समान है । समर्थ होने पर यदि वह उन सेवाओं को भूल जाता है और घमण्ड में आकर अपने उन उपकारी सेवकों की--माता-पितादिकों की— सेवा नहीं करता - उनका तिरस्कार तक करने लगता है तो समझना चाहिये कि वह पतनकी ओर जा रहा है। ऐसे लोगों की संसार में कृतघ्न, गुणमेट और अहसानफरामोश जैसे दुर्नामोंस पुकारा जाता है। कृतघ्नता अथवा दूसरोंके किये हुए उपकारों और ली हुई सेवाओं को भूल जाना बहुत बड़ा अपराध है और वह विश्वासघातादिकी तरह ऐसा बड़ा पाप है कि उसके भारसे पृथ्वी भी काँपती है ।
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कार्तिक, वीर निर्वाण सं० २४६५ ]
सेवाधर्म - दिग्दर्शन
किसीने ठीक कहा है:
करे विश्वासघात जो कोय, कोया कृतको बिसरे जोय । आपद पड़े मित्र परिहरे, तामु भार धरणी थरहरै || ऐसे ही पापों का भार बढ़जानेसे पृथ्वी अक्सर डोला करती है - भूकम्प आया करते हैं । और इसमें जो साधु पुरुषभ-ले आदमी होते हैं वे दुमगं के किये हुए उपकारों अथवा ली हुई सेवाओंकी कभी भूलने नहीं हैं - ' न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति' बदले अपने उपकारियोंकी अथवा उनके आदर्शानुसार दूसरोंकी सेवा करके ऋणमुक्त होते रहते हैं । उनका सिद्धान्त तो 'परोपका राय सतां विभूतयः' की नीनिका अनुसरण करते हुए प्राय: यह होता है:
उपकारिषु यः साधुः साधुत्वे तस्यको गुणाः ? अपकारिषु यः साधुः साधुः मद्भिरुच्यते ॥
अर्थात- अपने उपकारियोंके प्रति जो माधुता का - प्रत्युपकारादिरूप सेवाका - व्यवहार करता है उसके उस साधुपनमें कौन बड़ाईकी बात है ? ऐसा करना तो साधारण जनांचित मामूली-सी बात है। सत्पुरुषाने तो उसे सच्चा माधु बनलाया है जो अपना अपकार एवं बुरा करने वालांक प्रति भी साधुताका व्यवहार करता है— उनकी सेवा करके उनके आत्मासे शत्रुता के विषको ही निकाल देना अपना कर्तव्य समझना है ।
ऐसे साधु पुरुषों की दृष्टि उपकारी, अनुप कारी और अपकारी प्रायः सभी समान होते हैं । विश्वबन्धुत्वको भावनामें किसीका अपकार
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या अप्रिय आचरण कोई बाधा नहीं डालता । 'प्रियमपि कुर्वाणो यः प्रियः प्रिय एव सः " इस उदार भावनासे उनका आत्मा सदा ऊँचा उठा रहता है । वे तो सेवाधर्म के अनुष्ठान द्वारा अपना विकाससिद्ध किया करते हैं, और इसीसे सेवाधर्मके पालनमें सब प्रकारसे दत्तचित्त होना अपना परम कर्तव्य समझते हैं।
वास्तव, पैदा होते ही जहाँ हम दूसरों सेवाएँ लेकर उनके ऋणी बनते हैं वहाँ कुछ समर्थ होने पर अपनी भोगोपभोगकी सामग्री जुटाने में, अपनी मान-मर्यादाकी रक्षागं, अपनी कषायों को पुष्ट करने और अपने महत्व या प्रभुत्वको दूसरों पर स्थापित करने की धुन में अपराध भी कुछ कम नहीं करते हैं। इस तरह हमारा आत्मा परकृतउपकार भार और स्वकृत अपराध भारसे बराबर दबा रहता है। इन भाग हलका होनके साथ साथ ही आत्मा विकासका सम्बन्ध है। लोकसेवा यह भार हलका होकर आत्मविकासकी मिद्धि होती है। इसी सेवाको परमधर्म कहा गया है और वह इतना परम गहन है कि कभी कभी तो योगियोंके द्वारा भी अगम्य हो जाता है - उनकी बुद्धि चकरा जाती है, वे भी उसके सामने घुटने टेक देते हैं और गहरी समाधिमें उतरकर उसके रहस्यको खोजने का प्रयत्न करते हैं। लोकसेवा के लिये अपना सर्वस्व अर्पण कर देने पर भी उन्हें बहुधा यह कहते हुए सुनते हैं
“हा दुद्रुक ! हा दुट्टु मासियं ! चितियं च हा दुट्ठे ! अन्तो अन्तोऽमम्मि पच्छुत्तावेण वचतो ॥" मन-वचन-काय की प्रवृत्ति में जहाँ जरा भी
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अनेकान्त
[ वर्ष २, किरण १
प्रमत्तता, असावधानी अथवा त्रुटि लोकहितके अनेक प्रकारके रागद्वेषोंका शिकार बनकर अपनी विरुद्ध दीख पड़ती है वहाँ उसी समय उक्त प्रकार आत्मा का हनन करता है। प्रत्युत इसके, लक्ष्य के उद्गार उनके मुंहसे निकल पड़ते हैं और वे शुद्धिकं होते ही यह सब कुछ भी नहीं होता, सेवाउनके द्वारा पश्चाताप करते हुए अपने सूक्ष्म अप- धर्म एकदम सगम और सुखसाध्य बन जाता है, गधोंका भी नित्य प्रायश्चित्त किया करते हैं।
उसके करनेमें आनन्द ही आनन्द आने लगता है इसीसे यह प्रसिद्ध है कि
और उत्साह इतना बढ़ जाता है कि उसके फल"सेवाधर्मः परम गहनो योगिनामप्यगम्यः ।" स्वरूप लौकिक स्वार्थो की सहज ही में बलि चढ़
सेवाधर्मकी साधनामें, निःसन्देह. बडी साव. जाती है और जरा भी कष्ट बोध होने नहीं पाताधानी की जरूरत है और उसके लिये बहुत कुछ
इम दशामें जो कुछ भी किया जाता है अपना आत्मबलि-अपने लौकिक स्वार्थोकी प्राइति- कर्तव्य ममझ कर खुशीस किया जाता है और देनी पड़ती है। पूर्ण सावधानी ही पूर्ण मिद्धिकी उसके माथमं प्रतिसेवा, प्रत्युपकार अथवा अपने जननी है, धर्मकी पूर्णसिद्धि ही पर्ण आत्म- श्रादर-मत्कार या अहंकारकी कोई भावना न विकासके लिये गारण्टी है और यह प्रामाविका रहने से भविष्यम दुःख, उद्वेग तथा कषाय भावों हो सेवाधर्मका प्रधान लक्ष्य है, उद्देश्य है अथवा की उत्पत्तिका काइ कारण हा नहा रहता; भार ध्येय है।
इसलिये सहज ही में आत्मविकास सध जाता है।
ऐसे लोग यदि किसीको दान भी करते हैं तो नीचे मनुष्यका लक्ष्य जब तक शुद्ध नहीं होता नयन करके करते हैं और उसमें अपना कर्तृत्व तब तक सेवाधर्म उसे कुछ कठिन और कष्टकर नहीं मानते । किसीने पूछा "श्राप ऐमा क्यों करते जरूर प्रतीत होता है, वह सेवा करकं अपना हैं ?" तो वे उत्तर देते हैंअहसान जतलाता है, प्रतिसंवाकी-प्रत्युपकार की-वांछा करता है, अथवा अपनी तथा दूसरों
देनेवाला और है मैं समरथ नहिं देन । की संवाकी मापतौल किया करता है और जब लोग भरम मी करत हैं याते नीचे नैन ॥ उसकी मापतौल ठीक नहीं उतरती-अपनी संवा अर्थात्---दनेवाला कोई और ही है और वह से दूसरेकी सेवा कम जान पड़ती है-अथवा इसका भाग्योदय है-मैं खुद कुछ भी देने के लिये उसकी वह वांछा ही पूरी नहीं होती और न समर्थ नहीं हूँ । यदि मैं दाता होता तो इसे पहले से दूसरा आदमी उसका अहसान ही मानता है, तो क्यों न देता? लोग भ्रमवश मुझे व्यर्थ ही दाता सवह एकदम सुंझला उठता है, खेदखिन्न होता है, मझते हैं, इससे मुझे शरम आती है और मैं नीचे दुःख मानता है, सेवा करना छोड़ देता है और नयन किये रहता हूँ। देखिये, कितना ऊँचा भाव
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कार्तिक, वीर निर्वाण सं० २४६५ ]
सेवाधर्म-दिग्दर्शन
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है। आत्मविकास को अपना लक्ष्य बनानेवाले प्राणव्यपरोपण में कारणीभूत मन-वचन-कायकी मानवोंकी ऐसी ही परिणति होती है। अस्तु । प्रमत्तावस्थाका त्याग किया जाता है । मन-वचन
कायकी इन्द्रिय-विषयों में स्वेच्छा प्रवृत्तिका भले ____ लक्ष्यशुद्धिकं साथ इस सेवाधर्मका अनुष्ठान हर कोई अपनी शक्तिके अनुसार कर सकता है। प्रकार निरोधरूप 'गुप्ति', गमनादिकमें प्राणिनौकर अपनी नौकरी, दुकानदार दुकानदारी,
पीड़ाके परिहाररूप 'समिति', क्रोधकी अनुत्पत्ति वकील वकालत, मुख्तार मुख्तारकारी, मुहरिर. रूप 'क्षमा', मानके अभावरूप 'मार्दव', माया मुहनिरी, ठेकेदार ठेकेदारी, आहदेदार ओहदेदारी, अथवा योगवक्रता की निवृत्तिरूप 'आर्जव, लोभ डाक्टर डाक्टरी, हकीम हिकमत, वैद्य वैद्यक, कं परित्यागरूप 'शौच', अप्रशस्त एवं असाधु शिल्पकार शिल्पकारी, किमान खेती तथा दूसरे वचनोंके त्यागरूप 'सत्य', प्राणव्यपरोपण और पेशेवर अपने अपने उम पेशे का कार्य और मज- इन्द्रिय विषयों के परिहाररूप 'संयम', इच्छानिरोध. दर अपनी मजदूरी करता हुआ उमीगसे मवा पतप'. दष्ट विकल्पोंक संत्याग अथवा आहाका मार्ग निकाल सकता है । मबकं कार्यो में
रादिक देय पदार्थों में से ममत्वके परिवर्जनरूप संवाधर्मके लिये यथेष्ट अवकाश है-गुंजाइश है।
'त्याग,' वाह्य पदार्थों में मूर्खाकं अभावरूप 'प्रा. सेवाधर्मके प्रकार और मार्ग किंचिन्य,' अब्रह्म अथवा मैथुनकर्मको निवृत्तिरूप
'ब्रह्मचर्य,' ( ऐसे 'दशलक्षणधर्म )' क्षुधादि वेदनाअब मैं संक्षेप गं यह बतलाना चाहता हूँ कि ।
हता हू के उत्पन्न होने पर चित्तम उद्वग तथा अशान्ति सेवा-धर्म कितने प्रकार का है और उसके मुख्य
___ को न होने देने रूप 'परिषहजय,' राग-द्वेषादि
मक मुख्य भेद दी हैंएक क्रियात्मक और दूसग प्रक्रियात्मक । क्रिया- विषमताओंकी निवृत्तिरूप 'सामायिक,' और त्मक की प्रवृत्तिरूप तथा अक्रियात्मकको निवृतिरूप कर्म-ग्रहण की कारणीभून क्रियाओम विरक्तिसेवाधम कहने हैं। यह दोनों प्रकारका संवाधर्म रूप 'चारित्र,' ये सब भी निवृत्तिरूप संवाधर्मके मन, वचन और काय के द्वारा चरितार्थ होता ही अंग हैं, जिनमें से कुछ 'हिंसा' और कुछ है, इमलिय सेवाके मुख्य माग मानसिक, वाचिक हिंसेतर क्रियाक निषेधको लिये हुए हैं। और कायिक ऐसे तीन ही है-धनादिकका सम्बंध काय के साथ होने से वह भी कायिक में ही इम निवृत्ति-प्रधान संवाधर्मक अनुष्ठान के लिये शामिल है। इन्हीं तीनों मागस सेवाधर्म अपने किसी भी कौड़ी-पैसकी पासमें जरूरत नहीं कार्यमें परिणन किया जाता है और उसमें है। इसमें तो अपने मन-वचन-कायकी कितनी
आत्म-विकास के लिये महायक मारे ही धर्म- ही क्रियाओं तकका रोकना होता है-उनका भी समूह का समावेश होजाता है।
व्यय नहीं किया जाता। हाँ, इस धर्म पर चलने के निवृत्तिरूप सेवाधर्ममें अहिंमा प्रधान है। लिये नीचे लिखा गुरुमंत्र बड़ा ही उपयोगी हैउसमें हिंमारूप क्रियाका-मावद्यकर्मका-अथवा अच्छा मार्गदर्शक है :
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अनेकान्त
[ वर्ष २, किरण १
"प्रात्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ।” कारको दूर करनेका प्रयत्न करना, रांगसे पीड़ित
प्राणियोंके लिये औषधालयों-चिकित्सालयोंकी 'जो जो बातें, क्रियाएँ, चेष्टाएँ, तुम्हारे प्रति- व्यवस्था करना, बेरोजगारी अथवा भूखस संतप्त कूल है-जिनकं दूसरों द्वारा किये हुए व्यवहार का मनुष्योंके लिये राज़गार-धन्धेका प्रबन्ध करके तुम अपने लिये पसन्द नहीं करते, अहितकर उनक रोटीके सवालको हल करना, और कुरीतियों
और दुखदाई समझने हो- उनका आचरण तुम कुसंस्कारों तथा बुरी आदतोंस जर्जरित एवं दूसरोंके प्रति मत करो।'
पतनान्मुख मनुष्य समाजके सुधारार्थ मभा__ यही पापोंसे बचनेका गुरुमंत्र है । इसमें मामाइटियाका कायम करना और उन्हें व्यवस्थित संकेतरूपसे जो कुछ कहा गया है व्याख्या द्वारा
रूपमं चलाना, ये सब उसी दया प्रधान प्रवृत्तिरूप
सेवाधर्म आङ्ग हैं। पूज्यों की पूजा-भक्ति-उपासना उसे बहुत कुछ विस्तृत तथा पल्लवित करके बत
के द्वारा अथवा भक्तियोग-पूर्वक जो अपने आत्मा लाया जा सकता है।
का उत्कर्ष सिद्ध किया जाता है वह सब भी प्रवृत्तिरूप सेवाधर्म में 'दया' प्रधान है । दूसरों मुख्यतया प्रवृत्तिरूप संवाधर्मका अङ्ग है। के दुःखों-कष्टों का अनुभव करकं-उनसे द्रवीभूत इस प्रवृत्तिरूप संवाधर्ममें भी जहाँतक होकर-उनके दूर करनेके लिये मन-वचन-कायकी अपने मन, वचन और कायसे सेवाका सम्बन्ध जो प्रवृति है-व्यापार है-उसका नाम 'दया है। है वहाँ तक किमी कौड़ी पैसे की जरूरत नहीं अहिंसाधर्मका अनुष्ठाता जहाँ अपनी ओर से पड़नी-जहाँ सेवाके लिये दुसरे साधनों काम किसीको दुःख-कष्ट नहीं पहुँचाता, वहाँ दयाधर्म लिया जाता है वहाँही उसकी जरूरत पड़ती है । का अनुष्ठाता दुसगं के द्वारा पहुँचाए गये दुःख- और इस तरह यह स्पष्ट है कि अधिकांश सेवाधर्म कष्टांका भी दूर करनेका प्रयत्न करता है। यही ।
। के अनुष्ठानकं लिये गनुष्यको टके-पैसकी दोनों में प्रधान अन्तर है । अहिंसा यदि सुन्दर
जरूरत नहीं है। जरूरत है अपनी चित्तवृत्ति और
लक्ष्यको शुद्ध करनेकी, जिसके बिना संवाधर्म पुष्प है तो दयाकी उसकी सुगंध समझना चाहिये।
बनता ही नहीं। दयामें सक्रिय परोपकार, दान, वैय्यावृत्य, इस प्रकार संवाधर्मका यह संक्षिप्तरूप, धर्मोपदेश और दूसरोंके कल्याण की भावनाएँ विवेचन अथवा दिग्दर्शन है, जिसमें सब धोका शामिल हैं। अमानसे पीड़ित जनता के हितार्थ समावेश हो जाता है। आशा है यह पाठकोंको विद्यालय-पाठशालाएँ खुलवाना, पुस्तकालय- रुचिकर होगा और वे इसके फलस्वरूप अपने वाचनालय स्थापित करना, रिसर्च इन्सटीट्य टो लक्ष्यका शुद्ध बनाते हुये लोकसेवा करने में का - अनुसन्धान प्रधान संस्थाओंका - जारी अधिकाधिक रूपसे दत्तचित्त होंगे। कराना, वैज्ञानिक खोजोंको प्रोत्तेजन देना तथा
वीर सेवा मन्दिर, सरसावा, ग्रन्थनिर्माण और व्याख्यानादिके द्वारा अज्ञानान्ध
ता०२५-८-१९३८
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लुप्तप्राय जैन साहित्य सम्पादकीय -
भगवती आराधनाकी दूसरी प्राचीन टीका-टिप्पणियाँ भगवती आराधना और उसकी टीकाएं। कीय नोट में सूचित किया था 'विनयोदया'
'नामका एक विस्तृत लेग्य 'अनेकान्त' के नहीं, जिसके होने पर प्रेमीजीने जोर दिया था। प्रथम वर्षकी किरण ३, ४ में प्रकाशित हुआ था। एक विशेष बात और भी ज्ञात हुई है और वह उसमें सुहृद्वर पं० नाथूगमजी प्रेमीने शिवाचार्य- यह कि अपराजित सूरिका दूसरा नाम 'विजय' प्रगीन 'भगवती आराधना' नामक महान ग्रंथकी अथवा 'श्रीविजय' था । पं० आशाधरजी ने चार संस्कृत टीकाओं का परिचय दिया था-१ अप.
जगह जगह उन्हें 'श्रीविजयाचार्य' के नाम से राजित सूरिकी 'विजयादया,' २५० आशाधरकी
उल्लेखित किया है और प्रायः इसी नामके साथ
उनकी उक्त सम्कृत टीकाके वाक्योंकी मतभेदादिके 'मूलाराधना-दर्पण', ३ अज्ञातक का 'पागधनापंजिका' और ४ ५० शिवजीलाल की 'भावार्थ
प्रदर्शनरूपमें उद्धृत किया है अथवा किसी
गाथाकी अमान्यतादि-विषयमं उनके इस नामको दोपिका' टीका । पं० सदासुखजीकी भाषाबच.
पेश किया है। और इसलिये टीकाकारने टीकाको निकाके अतिरिक्त उम वक्त तक इन्हीं चार टीकाओं
अपने नामाङ्कित किया है, यह बात स्पष्ट हो का पता चला था। हाल में मूलाराधना-दर्पण.
जाती है। स्वयं 'विजयोदया' के एक स्थल परम को देखते हुए मुझे इस ग्रन्थकी कुछ दूसरी प्राचीन यह भी जान पड़ा है कि अपराजित सूरिने दशटीका-टिप्पणियांका भी पता चला है और यह वैकालिक सूत्र पर भी कोई टीका लिखी है और मालूम हुआ है कि इस ग्रंथ पर दी संस्कृत टिप्पणों उसका भी नाम अपने नामानुकूल 'विजयादया' के अतिरिक्त प्राकृत भाषाको भी एक टीका थी, दिया है । यथा:जिसके होनेकी बहुत बड़ी सभावना थी; क्योंकि "दशकालिकटीकायां श्रीविजयोदयायां मूलग्रंथ अधिक प्राचीन है। साथ ही, यह भी स्पष्ट प्रपंचिता उद्गमादिदोषा इति नेह प्रतन्यते ।" हो गया कि अपराजित सूरिकी टीकाका नाम
–'उग्गम उप्यायग्णादि' गाथा नं . ११९७ 'विजयादया' ही है, जैसा कि मैंने अपने सम्पाद
*देखो, 'भनेकान्त, 'प्रथम वर्ष, किरण ४ १०२१०
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अनेकान्त
[ वर्ष २, किरण १
में
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अर्थात्-दशवैकालिककी 'श्रीविजयोदया' श्रीनन्दी था और जिन्होंने वि० सं० १०७० में नामकी टीकामें उद्गमादिदोषों का विस्तारके साथ पुराणसार' नामका ग्रन्थ भी लिखा है ।। वर्णन किया गया है, इमीसे यहाँ पर उनका जयनन्दी नामके यों तो अनेक मुनि होगये हैं; विस्तृत कथन नहीं किया जाता।
परन्तु पं० आशाधरजी से जो पहले हुए हैं ऐसे हाँ, मूलाराधना-दर्पण परसे यह मालूम नहीं एक ही जयनन्दी मुनिका पता मुझे अभी तक होसका कि प्राकृत टीकाकं रचयिता कौन आचार्य चला है, जोकि कनडी भाषाके प्रधान कवि हुए हैं-५० आशाधरजी ने उनका नाम साथ में आदिपम्पसे भी पहले होगये हैं; क्योंकि आदिपम्प नहीं दिया । शायद एक ही प्राकृत टीकाके होने के ने अपने 'आदिपुराण' और 'भारतचम्पू में जिस कारण उसके रचयिताका नाम देनेकी जरूरत न
न
का
का रचनाकाल शक सं० ८६३ (वि० सं० ९९८) समझी गई हो । परन्तु कुछ भी हो, इतना स्पष्ट
है, उनका स्मरण किया है। बहुत संभव है कि है कि पं० पाशाधरजीने प्राकृत टीकाके रचयिताके ये ही 'जयनन्दी' मुनि भगवती आराधनाके विषयमें अपने पाठकोंको अँधेरेग रक्खा है। दोनों टिप्पणकार हो । यदि ऐसा हो तो इनका समय टिप्पणियों के कर्ताओका नाम उन्होंने जरूर दिया वि० का १०वीं शताब्दीक करीबका जान पड़ता है, जिनमें से एक हैं 'जयनन्दी' और दूसरे है क्योंकि आदिपुराणमें बहुतसे आचार्यों के 'श्रीचन्द्र'। श्रीचन्द्राचार्य के दूसरे टिप्पण प्रसिद्ध स्मरणान्त
स्मरणान्तर इनका जिस प्रकारसे स्मरण किया हैं-एक पुष्पदन्त कविके प्राकृत उत्तरपुराणका
गया है उस परसे ये श्रादिपम्पके प्रायः समकालीन टिप्पण है और दूसरा रविपेण के पद्मचरित का। अथवा थोड़े ही पूर्ववर्ती जान पड़ते हैं । अस्तु । पहला टिप्पण वि० सं० १०८० में और दसरा विद्वानोंको विशेष खोज करके इस विषयमं अपना वि० सं० १०८७ में बनकर समाप्त हुआ है। निश्चित मत प्रकट करना चाहिये । जरूरत है, भगवती आराधना का टिप्पण भी संभवतः इन्हीं प्राकृतटीका और दोनों टिप्पणों को शाखभण्डारों श्रीचन्द्रका जान पड़ता है, जिनके गुरुका नाम की कालकोठरियोंसे खोजकर प्रकाशमें लाने की।
• "श्रीविक्रमादित्यसंवत्सरे वर्षाणामशीत्यधिकसहस्र महा- ये सब प्रन्थ पं० आशाधर जी के अस्तित्वकाल पुराण-विषमपदविवरणं सागरसेनपरिज्ञाय मूलटिप्पणं चालोक्य १३वीं-१४वीं शताब्दी में मौजूद थे और इसलिये कृतमिदं समुच्चय-टिपणं अशपातमौतेन श्रीमदलाकारगण श्री पुराने भण्डारोंकी खोज द्वारा इनका पता लगाया नन्याचार्य-सत्कविशिष्येण श्रीचन्द्रमुनिना, निजदोर्दैडाभिभूत- _... रिपुराज्यविजयिन: श्रीभोजदेवस्य [राज्ये ॥१०२॥ इति उत्तर- +धारायां पुरि भोजदेवनृपते राज्ये जयात्युच्चकैः पुराणटिप्पणकम्"।
भीमसागरसेनतो यतिपतेात्वा पुराणं महत् । ___"बलात्कारगण-श्रीश्रीनन्याचार्य सत्कविशिष्येण श्रीचन्द्र- मुक्त्यर्थं भवभीतिभीतजगतां श्रीनन्दिशिष्यो बधो मुनिना, श्रीमविक्रमादित्यसंवत्सरे सप्ताशीस्यधिकवर्षसाने श्रीमहा- कुर्वे चारुपुराणसारममल श्रीचन्द्रनामा मुनिः ॥१॥ रायां श्रीमतो राज्ये भोजदेवस्य पम नरिने । इति पमचरिते १२३
श्रीविक्रमादित्यसंवत्सरे सप्तत्यधिकवर्षसहस्रे पुराणसाराभिधान समाप्तम् ।
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कार्तिक, वीर निर्वाण सं० २४६५ ] भगवती आराधना की दूसरी प्राचीन टीका टिप्पणियाँ
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जा सकता है। देखते हैं, कौन सज्जन इन लुप्तप्राय (३) "करं भक्त । श्रीचन्दटिप्पणके त्वेवप्रन्थोंकी खोज का श्रेय और यश प्राप्त करते हैं। मुक्त । अत्र कथयार्थप्रतिपत्तियथा-चन्द्रनामा अब मैं मूलाराधना दर्पणकं उन वाक्योंमसे सूपकारः ( इत्यादि )"
-मयतण्ठादो० गा०५८९ कुछ को नीचे उद्धृत कर देना चाहता हूँ जिन परसे उक्त टीका-टिप्पण आदि बातोंका पता चलता है:- (४) "एवं सति द्वादशसूत्री तेन (संस्कृतटीका-टिप्पणके उल्लेख
टीकाकारेण) नेष्ठा ज्ञायते । अस्माभिस्तु प्राकृत
टीकाकारोदिमतेनैव व्याख्यायते ।” (१) "पत्रिंशद्गुणा यथा-प्रष्टौ ज्ञाना- -चमरीबाल०, छगलमुत्त गा० न० १०५१,१०५२ चारा अष्टौ दर्शनाचाराश्च तपो द्वादशविधं (५) "कम्मेत्यादि (गा० नं० १६६६) पत्र पश्च समितयस्तिस्रो गुप्तयश्चेति संस्कृतटीकायां, स कममलः मिथ्यात्वादिस्तोककमाणि । सिद्धि प्राकृतटीकायां तु अष्टाविंशतिमूलगुणाः सर्वार्थसिद्धिमिति जयनन्दि-टिप्पणे व्याख्या । प्रचारवत्वादयश्चाष्टो इति पर्तिशत् । यदि वा प्राकृतटोकायां तु कम्ममल विप्पमुक्को कम्ममलेण दश आलोचनागुणा दश प्रायश्चित्तगणा मेल्लिदो । सिद्धि णिव्वाण ।"
-कम्ममलविप्पमुको सिदि० गा० १९९९ । दशस्थितिकल्पाः पड्जीतगुणाश्चेति षट्त्रिंशत् ।" ___ -भायारवामादीया० गाथा न० ५२६ । (६) “सम्मि समभूमिदेशस्थिते वाण
पानोद्भव इति जयनन्दी । अन्ये तु वाणषितरत्रो (२) "किमिरागकंवलस्सव (गा० ५३७) ,
इत्यनेन व्यतरमात्रमाहुः।” कमिभुक्ताहारवर्णतेतुभिरुतः कंबलः कृमिराग- .
-वेमाणिभो थलगदो० गाथा न० २००० कंबलस्तस्येति संस्कृतटीकायां व्याख्यानं । ..... टिप्पणके तु कृमिरात्यक्तरक्ताहाररंजितं तु निष्पा
| अपराजितसूरि और श्रीविजयकी दितकंचलस्येति । प्राकृत टीकायां पुनरिदमुक एकताके उल्लेख-उत्तरापथे चर्मरंगम्लेच्छविषये म्लेच्छा जलौ- (७) श्रीविजयाचार्यस्तु मिथ्यात्व सेवाकाभिमानुषरुधिरं गृहीत्वा भंडकेषु स्थापयन्ति। मतिचा नेच्छति । तथा च तद्ग्रन्थो-"मिथ्याततस्तेन रुधिरेण कतिपयदिवसोत्पमविपन्नकमि- . केणोणसूत्र रंजयित्वा कंबलं वयन्ति । सोऽयं नातिचारिता" इति ।
त्वमश्रद्धानं तत्सेवायां मिथ्यादृष्टिरेषासाविति कृमिरागकंबल इत्युच्यते । स चातीवरुधिरषणों
-सम्मत्तादीचारा. ना.४४ भवति । तस्य हि वन्हिना दग्यस्यापि स कमि- (८) "एतां (णवमम्मिय जं पुर्व० गा. रागो नापगच्छतीति ।"
५६५) श्रीविबयो नेच्छति ।"
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अनेकान्त
[वर्ष २, किरण १
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() एते.(मल्लेहणाए० ६८१, एगम्मि हालतमें श्रीविजय और अपराजितसूरिकी एकनाभवग्गहणे० ६८२) श्रीविजसाचार्योनेच्छति ।" में काई सन्देह नहीं रहता। (१०) "श्रीविचार्योऽत्र प्राणापायविधाग- आशा है साहित्य-प्रेमी और जिनवाणी के
भक्त महाशय शीघ्र ही उक्त प्राकृत टीका और विचयोनामधर्मध्यान 'प्राणापाय' इत्यस्मिन्पाठे ।
दोनों टिप्पणों को अपने अपने यहाँके शास्त्रस्वपायविचयो नामेति व्याख्यत् ।"
भंडारोंग खोजनेका पूरा प्रयत्न करेंगे । जो भाई -कल्लाणपावगाण० गा० १७१२ खोजकर इन ग्रंथों को देखने के लिये मेरे पास (११) "श्रीविजयस्तु 'दिस्मदि दंता व भेजेंगे उनका मैं बहुत आभारी हूँगा और उन उपरीति । पाठं मन्यमानो ज्ञायते ।
ग्रंथों परसे और नई नई तथा निश्चित बातें खोज
करके उनके सामने रक्तूंगा । अपने पुरातन --जदि तस्स उत्तमंग० गा० १५९९
साहित्य की रक्षा पर सबको ध्यान देना चाहिये। उपयुक्त उल्लेखोंगे विजयाचार्यके नामसे
यह इस समय बहुत ही बड़ा पुण्य कार्य है । ग्रंथोंजिन वाक्योंका अथवा विशेषताओंका कथन के नष्ट हो जाने पर किसी मूल्य पर भी उनकी किया गया है वे सब अपराजितमूरिकी उक्त प्राप्ति नहीं हो सकेगी और फिर सिवाय पछतानेटीकामें ज्योंकी त्यों पाई जाती हैं। जिन गाथाओं के और कुछ भी अवशिष्ट नहीं रहेगा । अत: को अपराजितसूरि ( श्रीविजय ) ने न मानकर समय रहते सबको चेत जाना चाहिये । उनकी टीका नहीं दी है उनके विषय में प्रायः इस प्रकार के वाक्य दिये हैं-"अत्रेय गाथा सूत्रेऽनु
वीर-सेवा-मंदिर, सरसावा, श्रयते”, अत्रेमे गाथे सूत्रेऽनुश्रूयेते ।" ऐसी
ता० १०-८-१९३८
भावना कुनय कदाग्रह ना रहे, रहे न पापाचार | अनेकान्त ! तब तेज से हो विरोध परिहार ॥१॥ सूख जायँ दुर्गुण सकल, पोषण मिले अपारसद्भावोंको लोक में सुखी बने-संसार ॥२॥
-'युगवीर'
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प्रभाचन्द्र के समयकी सामग्री
(ले०-श्री० पं० महेन्द्रकुमार न्याय-शास्त्री, )
वाचस्पति और जयन्तका समय अाचार्य प्रभा चन्द्र के समय-निर्णयमें न्याय- म० म० गंगाधर शास्त्री-द्वारा "जातं च सम्बद्ध
"मंजरी कार भट्ट जयन्त तथा प्रशस्तपाद- चेत्येकः कालः' इस वाक्यको वाचस्पति मिश्रका भाष्यकी व्योमवती टीकाके रचयिता व्योमशिवा- लिख देना ही मालूम होता है। चार्यका ममय-निर्णय अत्यंत अपेक्षणीय है; क्योंकि वाचस्पति मिश्रने अपना समय 'न्यायसूचीप्रभाचन्द्र के प्रमय कमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमुदचंद्र- निबन्ध' के अन्तमें स्वयं दिया है । यथापर न्यायमंजरी और व्योमवतीका स्पष्टतया "न्यायमूचीनिवन्धोऽयमकारि सुधियां मुदे । प्रभाव है।
श्रीवाचस्पतिमिश्रेण वसुस्वंकवसुवत्सरे ॥" जयन्तकी न्यायमंजगीका प्रथम संस्करण
संस्करण इम में ८९८ वत्सर लिखा है। विजयनगर सिरीजमं सन् १८९५ में प्रकाशित म. म. विन्ध्येश्वरीप्रसादजीने 'वस्मर' हुआ है। इसके संपादक म० म. गंगाधर शास्त्री शब्द सं शक संवत लिया है।। डा० शतीशचन्द्र मानवल्ली हैं। उन्होंने भूमिका, लिग्वा है कि- विद्याभूषण विक्रम संवत लेते हैं।। म० म० 'जयन्तभट्टका गंगेशीपाध्यायने उपमानचिन्तामणि गोपीनाथ कविराज भी लिखते हैं कि 'तात्पर्य( पृ० ६१ ) में जरन्नैयायिक करके उल्लेख किया टोकाकी परिशुद्धि-टीका बनाने वाले प्राचार्य है । जयन्तभट्टने न्यायमंजरी (पृ० ३१२ ) में उदयनने अपनी 'लक्षणावली' शक सं० ९०६ वाचस्पनि मिश्रको तात्पर्य-टीकामे "जातं च (981 A. D.) में समाप्ती है। यदि वाचस्पतिसम्बद्ध चेत्येकः कालः" यह वाक्य 'प्राचार्य:' का समय शक सं० ८९८ माना जाता है तो इतनी करके उद्धृत किया है। अत: जयन्तका ममय जल्दी उम पर पग्शुिद्धि-जैसी टीका बन जाना वाचस्पति (841 A. D.) से उत्तर तथा गंगेश संभव मालूम नहीं होता। ( 1175 A. D.) से पूर्व होना चाहिये।
अत: विक्रम संवत ८९८ (841 A. D.) डा. शतीशचन्द्र विद्याभूषण भी उक्त वाक्य यह वाचस्पति मिश्रका समय प्रायः सर्वसम्मत के आधार पर इनका ममय ९ वों में ११ वीं है। वाचस्पति मिश्रने वैशेषिक दर्शनको छोड़कर, शताब्दी तक मानते हैं। अत: जयन्तको वाचस्पति- प्रायः सभी दर्शनों पर टीकाएँ लिखी हैं। सर्व. का उत्तरकालीन मानने की परम्पराका आधार
न्यायवात्तिक-भूमिका, ५० १४५। *देखो, न्याय कुमुदचन्द्र के फुट नोट्स, तथा प्रमेय कमल + हिस्टी आफ दि इण्डियन लाजिक, पृ० १३३ । मा० की मोक्षचर्चा तथा म्योमवतीकी मोक्ष चर्चा ।
हिस्टी एंड विश्नोग्राफी माफ दि न्याय-वैशेषिक x हिस्टी भॉफ दि इण्डियन लाजिक, १०१४६ ।
Vol III. पृ०१०१।
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अनेकोन्त
वर्ष २, किरण १
प्रथम इन्होंने मंडन मिश्रके विधिविवेक पर 'न्याय- गुरुरूपसे स्मरण करते हैं तम जयन्तको वाचस्पति कणिका' नामकी टीका लिखी है; क्योंकि इनके के उत्तरकालीन नहीं मान सकते। यद्यपि वाचस्पतिदूसरे प्रन्थों में प्रायः इसका निर्देश है। उसके बाद ने तात्पर्य-टीकामें 'त्रिलोचनगुरुन्नीत' इत्यादि मंडनमिश्रकी ब्रह्मसिद्धिकी व्याख्या 'ब्रह्मतत्त्व- पद देकर अपने गुरुरूपसे 'त्रिलोचन' का उल्लेख समीक्षा' तथा 'तत्वबिन्दु' इन दोनों ग्रन्थोंका किया है, फिर भी जयन्तको उनके गुरु अथवा निर्देश तात्पर्य-टीकागें मिलता है, अत: उनके गुरुसम होने में कोई बाधा नहीं है। एक व्यक्तिके बाद 'तात्पर्य-टीका' लिख गई। तात्पर्य टीकाके अनेक गुरु भी हो सकते हैं। साथही 'न्यायसूची-निबन्ध' लिखा होगा; क्योंकि
अभी तक 'जातश्च सम्बद्ध चेत्येकः कालः' न्यायसूत्रोंका निर्णय तात्पर्य-टीकामें अत्यन्त
इस वचन के आधार पर ही जयन्तको वाचस्पतिअपेक्षित है । 'सख्यतत्वकौमुदी' में तात्पर्य-टीका
का उत्तरकालीन माना जाता है। पर, यह वचन उद्धृत है, अत: तात्पर्य टीकाके बाद 'सख्यितत्व
वाचस्पतिकी तात्पर्य-टीकाका नहीं है, किन्तु न्यायकौमुदी' की रचना हुई । योगभाध्यकी तत्व...
वार्तिककार श्री उद्योतकरका है ( न्यायवार्तिकवैशारदी टीकामें 'सांख्यनत्वकौमुदी' का निर्देश
पृ० २३६ ), जिस न्यायवार्तिक पर वाचस्पतिकी है, अत: निर्दिष्ट कौमुदीके बाद 'तत्ववैशारदी' ।
तात्पर्यटीका है। इनका समय धर्मकीर्ति (635रची गई। और इन सभी ग्रन्थोंका भामती'
650 A. D.) से पूर्व होना निर्विवाद है। टीका में निर्देश होने से 'भामती' टीका सब के
___ म०म० गोपीनाथ कविराज अपनी 'हिस्ट्री अन्त में लिखी गई है।
एण्ड बिब्लोग्राफी ऑफ न्यायवैशेषिक लिटरेचर' जयन्त वाचस्पति मिश्रके
में लिखते हैं * कि-वाचस्पति और जयन्त समकालीन वृद्ध हैं समकालीन होने चाहिएँ; क्योंकि जयन्तके प्रन्थों वाचस्पति मिश्र अपनी आद्यकृति 'न्याय- पर वाचस्पतिका कोई असर देखने में नहीं आता। कणिका' के मङ्गलाचरणमें न्यामञ्जरीकारको बड़े 'जातश्च' इत्यादि वाक्यके विषय में भी उन्होंने महत्वपूर्ण शब्दों में गुरुरूपसे स्मरण करते हैं। सन्देह प्रकट करते हुए लिखा है कि यह वाक्य
___ किसी पूर्वाचार्य का होना चाहिये । वाचस्पतिके अज्ञानतिमिरशमनी परदमनी न्यायमञ्जरीरुचिराम् पहले भी शङ्कर स्वामी आदि नैयायिक हुए हैं, प्रसवित्रे प्रभवित्रे विद्यातरवे नमो गुरवे ॥ जिनका उल्लेख तत्वसंग्रह श्रादि प्रन्थोंमें पाया
इस श्लोक में स्मृत 'न्यायमञ्जरी' भट्ट जयन्त. जाता है। कृत न्यायमञ्जरी-जैसी प्रसिद्ध 'न्यायमञ्जरी' ही म० म० गङ्गाधर शास्त्रीने जयन्तको वाच. होनी चाहिये । अभी तक कोई दूसरी न्यायमञ्जरी स्पतिका उत्तरकालीन मानकर न्यायझरी (पृ० सुनने में भी नहीं आई । जब वाचस्पति जयन्तको सरस्वती भवन सेरीज़ III पार्ट ।
यथा:
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कार्तिक, वीर निवाण सं० २४६५] प्रभाचन्द्र के समयकी सामग्री
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१२० ) में उद्धृत 'यलेनानुमितोऽप्यर्थः। इस पथ म० म० गङ्गाधर शास्त्रीने इस 'भाचार्याः' को टिप्पणीमें 'भामती' टीकाका लिख दिया है। पदकं नीचे तात्पर्यटीकायां वाचस्पतिमिश्रा' पर वस्तुत: यह पद्य वाक्यपदीय (१-३४ ) का है यह टिप्पणी की है। यहाँ यह विचारणीय है कि
और 'न्यायमञ्जरी की तरह भामती टीकागें भी यह मत वाचस्पति मिश्रका है या अन्य किसी उद्धृत ही है-मूलका नहीं है।
पूर्वाचार्यका। तात्पर्य टीका (पृ० १४८) में तो स्पष्ट __न्यायसूत्रके प्रत्यक्ष-लक्षणसूत्र (१-१-४) की हो उभयजज्ञान नहीं मानकर उस ऐन्द्रियक कहा है। व्याख्या वाचस्पति मिश्र लिखते हैं कि-'व्यव- इसलिये वह मत वाचस्पतिका तो नहीं है। व्योमसायात्मक' पदसे सविकल्पक प्रत्यक्ष ग्रहण करना वती टीका (पृ०५५५ ) में उभयजज्ञान का स्पष्ट चाहिये तथा 'अव्यपदेश्य' पदसे निर्विकल्पक ज्ञान समर्थन है, अतः वह मत व्योमशिवाचार्यका हो का । संशयज्ञानका निराकरण तो 'अव्यभिचारी' सकता है । व्योमवतीमं न केवल उभय ज ज्ञानका पदसे हो ही जाता है, इसलिये संशयज्ञानका निरो. ममर्थन ही है किन्तु उसका व्यवच्छेद भी अव्यपकरण करना 'व्यवसायात्मक' पदका मुख्य कार्य देश्य पदसे किया है। हाँ, उम पर जो व्याख्याकार नहीं है । यह बात मैं 'गुरुन्नीत मार्ग' का अनु- की अनुपपत्ति है वह कदाचित वाचस्पतिकी तरफ गमन करके कहरहा हूँ।'
लग सकती है, सो भी ठीक नहीं क्योंकि वाचस्पतिइसी तरह कोई व्याख्याकार 'अयमश्व:' इत्यादि ने अपने गुरुकी जिस गाथाके अनुसार उभयजशब्दसंमृष्ट ज्ञानको उभय जज्ञान कहकर उसकी प्रत्य- ज्ञानको ऐन्द्रियक माना है, उससे साफ मालूम क्षताका निराकरण करनेके लिए श्राव्यपदेश्य पदकी हाता है कि वाचस्पतिक गुरुके सामने उभयजज्ञानको सार्थकता बताते हैं । वाचस्पति 'अयमश्वः' इम माननेवाल प्राचार्य (सभवत: व्योमशिवाचार्य) की ज्ञानको भय ज ज्ञान न मानकर ऐन्द्रियक कहते हैं। परम्परा थी, जिमका खण्डन वाचस्पतिक गुरुने
और वह भी अपने गुरुकं द्वारा उपदिष्ट इस गाथा किया। और जिस खण्डनको वाचस्पतिने अपने के आधार पर
गुरुकी गाथाका प्रमाण देकर तात्पर्य-टीकामें स्थान शब्दजत्वेन शाब्दश्चत् प्रत्यक्षं चाक्षजत्वतः।
दिया। स्पष्टग्रहणरूपत्वात् युक्तमन्द्रियकं हि तत् ॥
इसलिये 'अव्यपदेश्य' पदका प्रयोजन निवि इमी तरह तात्पर्य-टीका ( पृ० १०२ ) कल्पकका संग्रह करना ही बतलाते हैं। 'यदा ज्ञानं तदा हानांपादानापेक्षाबुद्धयः फलम्' . न्यायमञ्जरी (पृ० ७८) में 'उभय जज्ञानका व्य- इसका व्याख्यान करते हुए वाचस्पति मिश्रने उपावच्छेद करना अव्यपदेश्यपदका कार्य है। इस मत दयताज्ञानको उपादान' पदसे लिया है और उसका का 'प्राचार्याः' इस रूप से उल्लेख किया है। उस क्रम भी 'तीयालोचन, तीयविकल्प, दृष्टतज्जातीयपर व्याख्याकारको अनुपपत्ति दिखाकर न्यायमञ्जरी- संस्कारोबाध, स्मरण, 'तज्जातीयचेदम्' इत्या. कारने उभयजज्ञान को स्वीकार नहीं किया है। कारकपरामर्श, इत्यादि बताया है।
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अनेकान्त
[ वर्ष २, किरण १
न्यायमंजरी (पृ०६६) के इमी प्रकरणमें गोपीनाथ कविराजने अवश्य ही उसे सन्देह-कोटिशंका की है कि-'प्रथम आलोचन ज्ञानका फल में रक्खा है। उपादानादिबुद्धि नहीं हो सकती ; क्योंकि उसमें भट्ट जयन्तने कारकसाकल्यको प्रमाण माना कई क्षणका व्यवधान पड़ जाता है ? इसका है तथा प्रत्यक्ष-लक्षणमें इन्द्रियार्थसन्निकर्षात्पन्नउत्तर देते हुए मंजरीकारने 'आचार्याः' करके उपा- त्वादि विशेषणोंसे स्वरूप-सामग्री-विशेषण-पक्ष न देयता ज्ञानको उपादानबुद्धि कहते हैं। इस मतका मानकर फल-विशेषण-पक्ष स्वीकृत किया है। उल्लेख किया है । इस 'प्राचार्याः' पद पर भी म० व्योमवती टीकाके भीतरी पर्यालोचनसे मालूम म० गंगाधर शास्त्रीने 'न्यायवार्तिक-तात्पर्यटीका- हाता है कि-व्यामशिवाचार्य भी कारकसामग्रीयां वाचस्पति मिश्रा, ऐमा टिप्पण किया है। को प्रमाण मानते हैं तथा फलविशेषण-पक्ष भी न्यायमंजरीके द्वितीय संस्करणकं संपादक सूर्य- उन्होंने स्वीकार किया है। नारायण जी न्यायाचार्यन भी उन्हींका अनुसरण यहाँ यह भी बता देना समुचित होगा कि करके उस बड़े टाइपमें हेडिंग देकर वाचस्पतिका व्योमवती टीका बहुत पुरानी है। मैं स्वयं इसी मत ही छपाया है।
लेखमालाके अगले लेखमं व्योमशिवाचार्य के मंजरीकारने इग मतके बाद भी एक व्या. विषयमें लिखूगा । यहाँ तो अभी तककी सामग्री ख्याताका मत दिया है जो इम परामर्शात्मक के आधार पर इतनी प्राक सूचना की जा सकती उपादेयता ज्ञानको नहीं मानता। यहाँ भी यह है कि जयन्तको व्योमशिवके ग्रन्थोंसे कारकविचारणीय है कि--यह मत स्वयं वाचस्पतिका है साकल्य, अनर्थजत्वात् स्मृतिको अप्रमाण मानना, या उनके पूर्ववर्ती उनके गुरुका ? यद्यपि यहाँ फलविशेषणपक्ष, प्रत्यक्षलक्षण सूत्र में 'यतः' पदका सन्होंने अपने गुरुका नाम नहीं लिया है, तथापि समावेश आदि विषयोंकी सूचनाएँ मिली है। व्योमवती जैसी प्रशस्तपादकी प्राचीन टीका (पृ० ५६१ ) में इसका स्पष्ट समर्थन है, तब इस म ट जपन्तका समयावधि
भट्ट जयन्तको समयावधि मतकी परम्परा भी प्राचीन ही मानना होगी। जयन्त मंजरीमें धर्मकीर्तिके मतकी समा
और 'प्राचार्याः' पदसे वाचस्पति न लिए जाकर लोचनाके साथ ही साथ उनके टीकाकार धर्मोत्तरव्योमशिव जैसे कोई प्राचीन आचार्य लेना होंगे। की आदिवाक्यकी चर्चाको स्थान देते हैं। तथा मालूम होता है म० ग० गंगाधर शास्त्रीने 'जातश्च प्रज्ञाकरगुप्त के 'एकमेवेद हर्षविषादाधनेकाकारसम्बद्धनेत्येकः काल: इस वचन का वाचस्पतिका विवर्त पश्यामः तत्र यथेष्टं संज्ञाः क्रियन्ताम्' मानने के कारण ही दो जगह 'आचार्याः' पद पर (भिक्षु राहुल जीका वार्तिकालङ्कारकी प्रेसकापी 'वाचस्पतिमिश्रा ऐसी टिप्पणी करदी है, पृ० ४२९ ) इस वचनका खंडन करते हैं, (न्यायजिसकी परम्परा चलती रही । हाँ, म. म. मंजरी० पृ०७४)।
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वर्ष २ किरण १]
उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी
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भिक्षु राहुलजीने टिबेटियन गुरुपरम्पराके काश्मीरके कर्कोट-वंशीय राजा मुक्तापीड अनुसार धर्मकीर्तिका ६२५, प्रज्ञाकरगुप्तका ललितादित्यका राज्य काल ७३३से ७६८ A. ID. ७००, धर्मोत्तर और रविगुप्तका ७२५ ईस्वी तक रहा है *। यदि प्रत्येक पीढ़ीका समय २५ वर्ष सनका समय लिखा है । जयन्तने एक जगह भी मान लिया जाय तो शक्तिस्वामोके ईस्वी सन् रविगतका भी नाम लिया है। अतः जयन्तकी ७३५में कल्याणस्वामी, कल्याणस्वामीके ७६०में पूर्वाविधि ७२५ A. D. तथा उत्तराविधि ८४१ चन्द्र, चन्द्रके ७८५ में जयन्त उत्पन्न हुए और A. D. होनी चाहिए । यह समय जयन्तके पुत्र उन्होंने ईस्वी सन् ८१५ तकमें अपनी 'न्याय अभिनन्दन द्वारा दीगई जयन्तकी पूर्वजावलीसे मंजरी' बनाई होगी। इसलिये वाचस्पतिके समय भी संगत बैठता है। अभिनन्द अपने कादम्बरी में जयन्त वृद्ध होंगे और वाचस्पति इन्हें आदर कथासारमें लिखते हैं कि
की दृष्टिसे देखते होंगे। यही कारण है कि उन्होंने ___ 'भारद्वाज कुलमें शक्ति नामका गौड़ ब्राह्मण अपनी श्रादाकृतिमें न्यायमंजरीकारका स्मरण था। उसका पुत्र मित्र, मित्रका पुत्र शक्तिस्वामी किया है। हुआ । यह शक्तिस्वामी कर्कोटवंशके राजा मुक्तापाट ललितादित्यके मंत्री थे। शक्तिस्वामीके व्योमशिव और जयन्तकी तुलना तथा पुत्र कल्याणस्वामी. कल्याणस्वामीके पुत्र चन्द्र व्योमशिवका समय एवं उनका जैनग्रंथों पर तथा चन्द्रके पुत्र जयन्त हुए, जो नववृत्तिकारके प्रभाव, ये सब विषय अगले लेखमें लिखे नामसे मशहर थे। जयन्तके अभिनन्द नामका जायँगे। पुत्र हुआ।
-):*:
उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी
-operpe
(ले० श्री स्वामी कर्मानन्द जी जैन) यह हम दावेके साथ कह सकते हैं कि जैन-धर्मका इतिहास अति प्राचीन एवं इसका
* संसारमें जितने मत-मतान्तर हैं उन कथन बहुत ही स्वाभाविक है। आज हम इसके सबका आदि मूल जैन धर्म है। दूसरे सम्पूर्ण कालवाचक शब्द उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीपर धर्म जब भारतीय धर्मोंके विकृतरूप हैं तब ऐतिहासिक दृष्टिसे विचार करेंगे। अति प्राचीन अन्य भारतीय धर्म जैन-धर्मके रूपान्तर हैं। समयमें भारतीय शास्त्र युगके मुख्य दो भाग
* देखो, संस्कृतसाहित्यका इतिहास, परिशिष्ट(ख)प०१५।
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अनेकान्त
[कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५ करते थे, जिनके नाम उत्सर्पिणो तथा अवसर्पिणी विकासवाद तथा ह्रासवाद है। डरविनका विकासवाद थे । यथा :
एवं अन्य विद्वानोंका ह्रासवाद एकान्तवाद हैं; परन्तु उत्सर्पिणी युगाधं च पश्चादवसर्पिणी युगाधं च । जैन-धर्मने प्रारम्भसे ही वस्तुके वास्तविक-स्वरूपमध्ये युगस्य मुषमादावन्ते दुष्णमेन्दच्चात ॥ का कथन किया है। संसारमें हम विकास और
-आर्य सिद्धान्त, ३, ९।
न ह्रास दोनों ही देखते हैं, इसलिये जैनशास्त्रने दोनों
पक्ष माने हैं । जैनफिलासफीकी तरह वर्तमान अर्थात-युगके दो भाग हैं, प्रथम युगार्धका विज्ञान भी इस बातको स्वीकार करना है कि कभी नाम उत्सर्पिणी तथा दूसरेका अवसर्पिणी है। तो विकासका प्राधान्य होता है और कभी ह्रामका । उत्मर्पिणीके मध्यवर्ती ६ विभाग हैं और इसी जब विकासका प्रधान्यत्व होता है तब उत्सप्रकार अवसर्पिणीक भी ६ ही विभाग हैं । इन १२ पिणीकाल कहलाता है और जब हास प्रधान विभागोंके नाम सुषमा-सुषमा आदि तथा दुषमा- होता है तो उसको अवसर्पिणीकाल कहते दुपमा आदि हैं-उत्सर्पिणीके ६ विभागोंके नाम हैं। इन दोनोंके जो सुषमा-सुपमा आदि मुषमा सुपमा आदि और अवसर्पिणीके विभागों- भेद हैं जैन शास्त्रोंमें उनका नाम भार हैं। के नाम दुपमा-दुपमा आदि हैं।
यह 'आरे' कालचक्रकी संज्ञाभी जैनियोंकी ही यदि उपर्युक्त कथनके साथ वैदिक ज्योतिप- परिभाषा है-अन्य मतोंमें इसके लिएभी कोई ग्रंथ 'आर्य सिद्धान्त' का नाम न रखा जाय तो स्थान नहीं है। हाँ वैदिक साहित्यमें आरोंका कुछ कोई भी व्यक्ति इसको वैदिक सिद्धान्त कहनेके वर्णन ज़रूर है । यथालिए उद्यत न होगा; क्योंकि मूलरूपमें उपर्युक्त
छादशारं न हि तज्जराय। मान्यता शुद्ध जैन-धर्म की ही है-वर्तमान समयमें जितने भी मत हैं उनमेंसे किसीके भी यहाँ
३० मं० १ सू० १६४ मन्त्र ११ उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी आदि शब्दोंका व्यवहार अर्थात्-१२ आरे सूर्यकी वृद्धावस्थाके लिये नहीं है *।
नहीं हैं । अभिप्राय यह है कि सूर्य नित्य सनातन ___ जैन-धर्मके सर्वमान्य तत्त्वार्थसूत्रमें इनका है। न कभी उत्पन्न होता है और न कभी नष्ट स्पष्ट वर्णन है । तथा प्रत्येक बाल-वृद्ध जैन उत्स- होता है । अन्य अनेक स्थानों में भी इन अारोंका पिणी-अवसर्पिणीको तथा उनके सुषमा-सुषमादि कुछ कथन है । परन्तु संसारके वास्तविक स्वरूप
और दुषमा-दुषमादि विभागोंको जानता ही नहीं को तदनुकुल सुन्दर शब्दोंमें वर्णन करनेका श्रेय किन्तु कंठस्थ तक रखता है। इसी कालचक्रका नाम जैन-धर्मको ही प्राप्त है । उत्सर्पिणी और अवस
* शब्द कल्पद्रुम कोष और आप्टेकी संस्कृत इंगलिश डिकशनरीमें भी इसे जैनियोंकी ही मान्यता बतलाया है।
...-सम्पादक
। भरतैरावतयोड़िहामौ षटसमयाभ्यामुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्याम् ॥३-२७॥
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वर्ष २ किरण १]
उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी पिणी जैसे सुन्दर शब्द, जो संसारकी सम्पूर्ण इसके अलावा कलियर ब प्रारम्भ हुआ, अस्थाओंके भावको प्रकट करते हैं, अन्य शास्त्रों इस विषयमें शास्त्रकारों तथा आधुनिक विद्वानों में तथा अन्य भाषाओंमें उपलब्ध नहीं हैं। और भयानक मत-भेद पाया जाता है । यथा :इमलिये भारतवर्ष इसपर अभिमान भी कर (१) मदरासके प्रसिद्ध विद्वान विलण्डो०के० अय्यर सकता है, क्योंकि भारतके सिवा अन्य देशोंमें का मत है कि, कलियुगका प्रारम्भ १११६
__वर्ष शक पूर्व है। इतना मौलिक और उपयुक्त नामकरण नहीं पाया। जाता है।
___ (२) रमेशचन्द्रदत्त और अन्य अनेक पाश्चात्य
पण्डितोंका कथन है कि कलियुगका प्रारम्भ ___ यह दुर्भाग्यकी बात है कि भारतमें साम्प्रदायिक
१३२२ वर्ष शक पूर्व है। कलहका बीजारोपण हुआ और उसके फल इतने कड़वे एवं भयानक निकले कि उनके स्मरण मात्रसे
(३) मिश्र-बन्धुओंने सिद्ध किया है कि २०६६ वर्ष
शक पूर्व कलिका प्रारम्भ हुआ। हृदय काँप उठता है । बम जिस नामको जैन धर्म
(४) राज तरंगणीके हिसाबसे २५२६ वर्ष शक म्वीकार करता है उसको हम कैसे स्वीकार करें ?
पूर्व कलिका प्रारंभ ठहरता है। इस प्रकारकी भावनाएँ आपसके विरोधस उत्पन्न (५) वर्तमान पञ्चांगोंके हिसाबसे तथा लोकमान्य हो गईं ! इसीलिये उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीके तिलक आदिके मतसे ३१७६ वर्ष शक पूर्वका स्थानपर पुगणकारोंने मर्ग और प्रतिसर्ग नामों- समय प्राता है। की रचना की तथा श्रारोंके स्वाभाविक कथनके (६) कैलाशवासी मौडकके मतम कलिका प्रारम्भ स्थानपर मन्वन्तरॉकी कल्पना की गई और कलि- समय ५००० वर्ष शक पूर्वका है। युग आदिकी भद्दी कल्पनाका भी जन्म हुआ। (७) वेदान्तशास्त्री विल्लाजी रधुनाथ लेलेके मत
से ५३०६ वर्ष शक पूर्व कालका प्रारम्भ मन्वन्तरॉकी कल्पना किम प्रकार प्रचलित हुई,
हुआ। इसका वर्णन हम 'भारतका आदि सम्राट्' पुस्तक
हमने यहाँ सात मनांका दिग-दर्शन कराया में कर चुके हैं। कलियुग आदिकी कल्पना नवी- है। इसी प्रकार अनेक मत हैं, जिनको स्थानानतर है, इसको अाजकलके प्राय: मभी ऐतिहा- भावसे छोड़ दिया गया है । पाठक वृन्द ११००की मिकोंन मुक्त कंठसे स्वीकार किया है। वैदिक मल तथा ५३००की संख्याओंका भेद कितना विशाल मंहिताओं में कृत, कलि आदि शब्द जूये (यून) ।
है, इसको जरा ध्यानसे देखें । इस भारी अन्तरका
(जून) कारण यह है कि वास्तव में कभी कलियुग प्रारम्भ के पासोंके अर्थमें ही प्रयुक्त हुए हैं। अतः यह ही नहीं हुआ। यह एक निराधार कल्पना है, निश्चित है कि वैदिक समयमें कालकं विभाग जिसको विरोधमें उपस्थित किया गया था । कलियुग आदिके नाममे नहीं थे। उसके पश्चात् इसलिये किसीने कुछ अनुमान लगाया नो किमीने 'ब्राह्मण' ग्रन्थोंमें भी कलि आदि शब्द युगके कुछ धारणाकी । इसीप्रकार कलयुगकी ममामिके अर्थमें प्रयुत्त हुए नहीं देखे जाते। और इसलिय विषयमें भी मतभेद है। नागरी-प्रचारिणीपत्रिका यह स्पष्ट है कि कलि आदिकी कल्पना नवीनतम भाग १० अंक १ में एक लेख भारतके सुप्रसिद्ध तथा अवैदिक है।
ऐनिहामिक विद्वान स्वर्गीय श्रीकाशीप्रमादजी
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अनेकान्त [कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५ जायसवाल, एम. ए. विद्यामहोदधिने लिखा है। हाँ उल्लेख मिलता है २६०० वर्ष बादके बने उसमें अनेक प्रमाणोंसे यह सिद्ध किया गया है सूर्य सिद्धान्त आदि ग्रंथोंमें' । कि विक्रमादित्यस पर्व ही कलियग समाप्त हो
-भारतीय ज्योतिःशास्त्र, पृ०१४१ । चुका था, उसके पश्चात विक्रम संवत चला इसीप्रकार कृतयुग आरम्भकी बात है। जिसको प्राचीन लेखों में कृत-संवतके नामसे इसके विषयमें भी शास्त्रोंका मत है कि जब उल्लेख किया है। इसी भावकी पुष्टि जयचन्द्रजी सूर्य, चंद्रमा, तथा वृहस्पति एक राशीमें आवेगे विद्यालंकारने अपनी रूपरेखा' में की है। तब कृतयुगका प्रारम्भ होगा, परंतु ज्योतिर्विद्
जानते हैं कि इनका एक राशीमें श्राना असंभव है । इस कल्पनाका कारण यही था कि जब उपर्यक्त विवेचन से सिद्ध है कि कलियुग ब्राह्मणोंने देखा कि विक्रमादित्यके राज्यमें सब आदिकी कल्पना एक निराधार कल्पना है तथा बातें अच्छी हैं तो उन्होंने कह दिया कि कृत-युग नवीन कल्पना है। इस कल्पनाका मुख्य कारण श्रागया और उनके संवतका नाम भी कृत-संवत् सृष्टिकी रचनाका सिद्धान्त है। जब यह माना रखदिया; परन्तु जब उनके पश्चान फिर भी वही जाने लगा कि सम्पूर्ण जगत एक समय उत्पन्न पूर्ववत अवस्था होगई तो 'कलि-वृद्धि भविष्यति' हा है तो उसकी प्रायका प्रश्न उपस्थित होना का शोर मचा दिया और कलियुगकी आयुभी भी स्वाभाविक ही था। बस इसी प्रश्नको हल बढ़ादी ! इस विषयमें हम भारतके ही नहीं करनेके लिये उपयुक्त कल्पना की गई है। इस किन्तु संसारके ज्योतिप-विद्याके सर्वश्रेष्ठ विद्वान कल्पनाका एक अन्य भी कारण ऐतिहासिकोंने पं० बालकृष्णजी दीक्षितका मत लिख देना परम लिखा और वह यह है कि खालडियन लोगाम
आवश्यक समझते हैं । श्राप लिखते हैं कि एक यग अथवा सृष्टिसंवत् ४३२००० वर्षका ज्योतिप- ग्रंथोंके मतसे शकारम्भके पूर्व ३१७६ था, उसीके आधारपर इस कल्पनाको जन्म वर्पमं कलियुग श्रारम्भ हुआ ऐसा कहते हैं सही, दिया गया। और उसमें ४३२००० के स्थान पर किन्तु जिन ग्रंथों में यह वर्णन है वे ग्रन्थ २६०० चार बिन्दु बढ़ाकर चार अरब बत्तीस करोड़ वर्ष कलि लगनेके बादके हैं । सिवा इन ज्योतिष
४३२०००००००की संख्या करदी गई। सारांश प्रन्थोंके प्राचीन ज्योतिष या धर्मशास्त्र आदि यह है कि कालके प्राचीन और वास्तविक भेद ग्रन्थोंमें कलियुग प्रारम्भ कब हुआ यह देखनेमें उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी ही हैं, जोकि जैन
गा, न पुराणों में ही खोजनेसे मिलता शास्त्र की मान्यता है । यही मान्यता प्राचीन वैदिक है । यदि कहीं होगा भी तो वह प्रसिद्ध नहीं है। आर्यों की मान्यता थी । वास्तव में जैन-धर्म हाँ यह बात तो अवश्य है कि कुछ ज्योतिष और प्राचीन वैदिक-धर्म एक ही वस्तु थी-बादमें ग्रन्थोंके कथनानुसार यह वाक्य मिलते हैं कि उसके रूपान्तर होकर अनेक मत मतान्तरोंकी कलियुग के प्रारम्भमें सब ग्रह एकत्रित थे, किन्तु सृष्टि हुई है। नवीन वैदिक धर्मी अपने प्राचीन गणित से यह सिद्ध नहीं होता कि ये किस समय वास्तविक धर्मको भलकर नई नई कल्पनाएँ (एकत्रित) थे। यदि थोड़ी देरके लिये ऐसा मान करते हैं जैन- धर्म ही प्राचीन वैदिक धर्म है, भी लें कि सब ग्रह अस्तंगत थे किन्तु भारत इस विषयका सविस्तार और सप्रमाण विवेचन श्रादि पुराणों में तो इसका उल्लेख नहीं मिलता। हम 'धर्मके आदि प्रवर्तक' ग्रंथ में करेंगे।
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भक्तामर स्तोत्र
(ले० श्री. पं० अजितकुमार जैन शास्त्री)
कर्मबन्धनस स्वतन्त्र होने के लिये यद्यपि छोड़कर भक्तिपूर्ण अपने भावोंका ही अवलंबन
" मुख्य साधन ध्यान है क्योंकि आत्म- लेते हैं। परन्तु अर्हन्तपद पानेकेलिये वीतरागता ध्यान द्वारा ही सविशेषरूप से कर्म-राशि क्षय होकर प्राप्त करना' यह उद्देश्य दोनोंका एक ही जैसा अात्मा शुद्ध होता है किन्तु श्रात्मध्यान सतत होता है, जिसे सिद्ध करनेकी मुनि नथा गृहस्थ सर्वदा नहीं हो सकता और न आत्मध्यानका दोनोंही प्रतिदिन चना करते हैं । अस्तु । असली उच्चम्प (शुक्ल ध्यान) सर्वसाधारणका प्राप्त अन्ति-भक्तिकेलिये मळ्यापसे स्तोत्रीका ही होना है अत: आत्मशुद्धिके लिये अनेक प्रकार- सहारा लेना पड़ता है । म्तोत्रोंके द्वारा चित्त के व्रत, नियम, समिति, गुप्ति, भावना, धर्म आदि भक्तिकी ओर अधिक आर्कषित होता है। अतः क्रियाकलापभी नियत किय गय हैं । उनमें छह स्तोत्र द्वारा भक्ति करनेकी पद्धनि मुनि तथा
आवश्यक भी एक गणणीय साधन है । मुनि-मार्ग गृहस्थों में मदाम चली श्रारही है। इमी काग्गा पर चलने वाले वीगत्माओंके लिय सामायिक, जबसे शानिर्मागा प्रारम्भ हश्रा मंगलाचरण वंदना, स्तुति, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय, कायोत्सर्ग ये आदि अनेक म्पमं स्तुति रचना भी प्रारम्भ हुई छह आवश्यक कर्म बतलाये हैं और गृहस्थाश्रमम है। जिन ग्रन्थकारांने ग्रन्थ रचनाकी उन्होंने प्राय: रहकर धर्मसाधन करने वालोक लिये प्रायः सबसे पहले अहन्त भगवानकी स्तुतिपर लग्वनी देवपूजन, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप, दान चलाई-पीछे अन्य विषयपर क़लम उठाई । ये छह आवश्यक कर्तव्य निर्दिष्ठ किये हैं। स्तुतियांका श्रापक सुन्दर रूप म्वामी
समन्तभद्राचार्यकै समयसे प्रारम्भ होता है। भक्त मुनिमार्ग तथा गृहस्थमार्गके इन जुदे-जुदे
"जुन की सच्ची भक्तिमें कितनी प्रबलदिव्य-शक्ति है, इम आवश्यकोंमें भक्ति-विषयक वंदना, स्तुति तथा
बातका उदाहरण सबसे पहले स्वामी समन्तभद्रने देवपूजन, गुरुपासना ये आवश्यक मिलते जुलते
काशी या काञ्ची नगरमें महादेवकी पिण्डीक हैं। मुनि भी स्तुति, वंदना-द्वारा परमेष्ठियोंकी
समक्ष स्वयम्भूम्तोत्र पढ़कर संमारके सामने ग्ग्या । भक्ति करते हैं, गृहस्थ भो स्तुति-वंदना द्वारा पंच
उपस्थित जनताको समन्तभद्राचार्यने दिग्यला दिया परमेशीकी भक्ति करते हैं । यद्यपि भक्तिको कुछ कि मेरा इष्ट भगवान मुझसे दूर नहीं है, मग प्रबल बनानेकेलिये गृहस्थ अष्ट द्रव्य, गीत, नृत्य, द्वार्षिक भक्ति उसे मेरे सामने ला खड़ा करती है। वादित्र आदि अन्य बाह्य साधनोंका भी अवलंबन तदनुसार उपास्य अर्हन्त-प्रतिमा (चन्द्रप्रभु) लेता है; जब कि मुनि इन बाह्य साधनोंको दृर महादेवकी मूर्ति में प्रकट हुई।
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अनेकान्त
कार्तिक वीर-निर्वाण सं०२४६५
स्वयम्भूस्तोत्र की रचना है भी अनुपम । समंत- श्रीमान पं० जिनदासजी न्यायतीर्थ शोलाभद्राचार्यका तत्वविवेचन एवं तार्किक ढंग जिस पुरने एक बार किसी आधारसे लिखा था कि प्रकार अद्भुत है उसी प्रकार उनकी स्तुतिरचना "मानतुङ्गाचार्य पहले श्वेताम्बर थे किन्तु एक भी अदभुत है--उस शैलीकी तुलना अन्य किसी भयानक व्याधिसे छुटकारा पाने पर दिगकिसी स्तुतिसे नहीं की जासकती।
म्बर साधु हो गये थे।" इस कथानकमें कितना समन्तभद्राचार्यके पीछे अनेक गणनीय साधु कि भक्तामरस्तोत्रमें कोई शब्द ऐसा नहीं पाया
तथ्य है, यह कुछ ज्ञात नहीं । हाँ, इतना अवश्य है तथा गृहस्थ स्तुतिकार हुए हैं, जिनकी बनाई हुई जाता जो दिगम्बरीय सिद्धान्तके प्रतिकूल हो। म्नुतियोंमें भी बहुत भक्तिरस भरा हुआ है
अस्तु । किसी किमीमें तो इतना इतना गूढभाव भरा हुआ है जिमका पूर्ण-रहस्य स्वयं उस रचयिताको ही उपलब्ध भक्तामर स्त्रीत्रको यद्यपि दिगम्बर, ज्ञान होगा। विषापहार-स्तोत्रमें पंडित धनञ्जय- श्वेताम्बर उभय सम्प्रदाय मानते हैं किन्तु वे दोनों जीने इस बातमें कमाल किया है। कुछ स्तोत्रोंमें श्लोकसंख्यामें एकमत नहीं हैं। यों तो दिगम्बर मांत्रिक शक्ति अमृतरूपसे रक्खी गई है, किसी- सम्प्रदाय में भी भक्तामर स्तोत्रकी श्लोकसंख्याके में मनोमोहक शाब्दिक लहर लहरा रही है, किसी- लिये दो मत पाये जाते हैं। प्रायः सर्व साधारण में सुन्दर छन्दों द्वारा लालित्य लाया गया है, लोग ४८ श्लोक ही भक्तामरमें मानते हैं और इत्यादि अनेक रूपमें स्तोत्र दीख पड़ते हैं। उन्हीं ४८ श्लोकोंका भक्तामरस्तोत्र अनेक रूपमें
इनमें से कुछ स्तोत्र ऐसे भी हैं जिनको दिग- प्रकाशित हो चुका है। इनकी कई टीकाएँ, कई म्बर, श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदाय आम तौरपर अनुवाद भी छप चुके हैं। अभी श्रीमान पं० ममान आदर भावसं अपनाते हैं। श्रीमान तुंगा- लालारामजी शास्त्रीने, भक्तामरस्तोत्रके प्रत्येक पद्यचार्यके रच हुए भक्तामरस्तोत्र को तथा कुमुदच- के प्रत्येक पादको लेकर और समस्यापूर्ति के रूपमें न्द्राचार्यके बनाये हुए कल्याणमन्दिरको दोनों ही
! तीन तीन पाद अपने नये बनाकर, २०४ श्लोकोंमम्प्रदाय बड़े आदरभावसे अपनाते हैं। ये दोनों स्तोत्र सचमुच हैं भी ऐसे ही, जिनको सब कोई का भक्तामर-'शतद्वयी' नामक सुन्दर स्तोत्रअपना सकता है। इस बातमें हमको प्रसन्नता निर्माण किया है । प्रत्येक श्लोक केवल एक-एक होनी चाहिये कि तत्वार्थसूत्रके समान हमारे दो पादकी समस्यापूर्ति करते हुए ४८ पद्योंका एक स्तोत्र भी ऐस है जिनमें दिगम्बर श्वेताम्बर सम्प्र- सुन्दर राजीमती नेमिनाथ-विषयक 'प्राणप्रिय' दाय समानरूपसे साझीदार हैं। दोनों स्तोत्रोंमें भक्तामरस्तोत्रकी प्रसिद्धि अधिक है। मानतुंगा
काव्य भी प्रकाशित हो चुका है। यंत्र-मंत्र-सहित चार्य दिगम्बर थे या श्वेताम्बर यह बात अभी जो भक्तामरस्तोत्र प्रकाशित हुआ है वह भी ४८ इतिहाससे ठीक ज्ञात नहीं होपाई है; क्योंकि न तो पद्योंका ही है। उनकी और कोई निर्विवाद रचना पाई जाती है, किन्तु कुछ महानुभावोंका खयाल है कि जिससे इस बातका निर्णय होसके और न भक्ता
भक्तामरस्तोत्रमें ५२ श्लोक थे, प्रचलित भक्तामरमरस्तोत्रमें ही कहीं कुछ ऐसा शब्द-प्रयोग पाया जाता है, जिससे उनका श्वेताम्बरत्व या दिगम्ब- स्तोत्रम ४ श्लोक कम पाय जाते है । वे निम्न रत्व निर्णय किया जासके ।
लिखित ४ श्लोक और बतलाते हैं
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वर्ष २ किरण १]
" नातः परः परमवचोभिधेयो, लोकभयेऽपि सकलार्थविदस्ति सार्वः । उच्चैरितीव भवतः परिघोयषन्त-,
भक्तामर स्तोत्र
७१
तो कल्पना निःसार है और न अभी तक किसी विद्वानने समर्थन ही किया है ।
वृष्टिर्दिवः सुमनसां परितः पपात,
प्रीतिप्रदा सुमनसां च मधुव्रतानाम् । राजीवसा सुमनसा सुकुमारसारा,
अब श्वेताम्बर सम्प्रदायकी मान्यता पर विचार कीजिये । श्वेताम्बर सम्प्रदायमें कल्याणस्ते दुर्गभीरसुरदुन्दुभयः सभायाँम् । ३२ | मंदिर स्तोत्र तो दिगम्बर सम्प्रदाय के समान ४४ लोक बालाही माना जाता है किंतु भक्तामर - स्तोत्रको श्वेताम्बर सम्प्रदाय ४८ श्लोक वाला न मानकर ४४ पद्यों वाला ही मानता है । ३२-३३-३४-३५ नम्बर के चार पत्र श्वेताम्बर सम्प्रदाय ने अपने भक्तामर स्तोत्र में से निकाल दिये हैं । इसीसे प्रचलित भक्तामरस्तोत्र साम्प्रदायिक भेद से दो रूप में पाया जाता है ।
सामोसम्पद मदानि ते सुदृश्यः । ३३ । पूष्मामनुष्य सहसामपि कोटिसंख्या,
भाजां प्रभाः प्रसरमन्वहया वहन्ति । अन्तस्तमः पटल भेदमशक्तिहीनं,
जैनी तनुद्युतिरशेपतमोऽपि हन्ति | ३४ | देव त्वदीय सलाम केवलाय,
भक्तामर स्तोत्र में दिगम्बर सम्प्रदाय की मान्यतानुसार ४८ लोक ही क्यों नहीं हैं ? इसका उत्तर तीन प्रकार प्राप्त हुआ। एक तो यह कि जब कल्याणमंदिरस्तोत्र ४४ श्लोकोंका है, तब उसकी जोड़का भक्तामर स्तोत्र ४४ श्लोकोंकाही होना चाहिये - वह ४८ श्लोकोंका कैसे हो ?
बोधातिगाधनिरुपप्लवरत्नराशेः । घोपः स एव इति जनतानुमेते,
गम्भीरभारभरितं तव दिव्यघोषः | ३५ |
ये ४ श्लोक, जोकि भक्तामर स्तोत्र में और अधिक बतलाये जाते हैं, जिस रूप में प्राप्त हुए हैं उसी रूप में यहाँ रक्खे हैं ।
इन श्लोकोंके विषयमें यदि क्षणभर भी विचार किया जाये तो ये चारों श्लोक भक्तामर - स्तोत्रके लिये व्यर्थ ठहरते हैं; क्योंकि इन श्लोकों में क्रमशः दुन्दुभि, पुष्पवर्षा, भामंडल तथा दिव्य ध्वनि इन चार प्रातिहार्योंको रक्खा गया है और ये चारों प्रातिहार्य इन श्लोकोंके बिना ४८ श्लोक वाले भक्तामर स्तोत्रमें भी ठोक उसी ३२-३३-३४३५वीं संख्या पद्योंमें यथाक्रम विद्यमान हैं। अतः ये चारों श्लोक भक्तामरस्तोत्रके लिये पुन. मुक्तिके रूपमें व्यर्थ ठहरते हैं तथा इनकी कविता शैली भी भक्तामर स्तोत्रकी कविताशैलीके साथ जोड़ नहीं खाती। अतः ५२ श्लोक वाले भक्तामर स्तोत्रकी
1
दूसरे, भरत क्षेत्रके २४ तीर्थंकर और विदेह क्षेत्रोंक २० वर्तमान तीर्थंकर इनकी कुल संख्या ४४ हुई, इस संख्या के अनुसार भक्तामर - स्तोत्रके श्लोकोंकी संख्या भी ४४ ही होनी चाहिये ।
तीसरे, श्वेताम्बर जैन गुरुकुल के एक स्नातकसं यह उत्तर प्राप्त हुआ कि भक्तामर स्तोत्र एक मंत्रशक्ति से पूर्ण स्तोत्र है। उसके मंत्रोको सिद्ध करके मनुष्य उन मत्रोंके श्राधीन देवोंको बुला २ कर तंग करते थे । देवोंने अपनी व्यथा मानतुंगाचार्यको सुनाई कि महाराज ! आपने भक्तामर स्तोत्र बनाकर हमारी अच्छी आन ले डाली । मंत्रसिद्ध करके लोग हमको चैनसे नहीं बैठने देतेहर समय मंत्रशक्तिसे बुलाबुलाकर हमें परेशान करते हैं । मानतुंगाचार्यने देवों पर दया करके भक्तामर स्तोत्र में चार श्लोक निकाल दिये । श्रतः भक्तामर ४४ श्लोकोंवाला ही होना चाहिये ।
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७२
अनकान्त [कार्तिक, वीरनिर्वाण सं० २४६५ ___ यदि इन समाधानांपर विचार किया जाय तो अधूरा अवश्य रहजाता है। क्योंकि तीर्थंकरोंके तीनों ही समाधान निःसार जान पड़ते हैं। प्रातिहार्य जिस प्रकार दिगम्बर सम्प्रदायने माने मानतंगाचर्य और कुमदचन्द्राचार्यका आपसमें यह हैं उसी प्रकारके श्वेताम्बर सम्प्रदायमें भी माने कोई समझौता नहीं था कि हम दोनों एक-सी ही गये हैं। इन आठ प्रातिहाल्का वर्णन जिस संख्याक स्तोत्र बनावें। हरएक कवि अपने अपने प्रकार कल्याणमंदिर-स्तोत्रमें है, जिसको कि स्तात्रकी पद्यसंख्या रखने में स्वतन्त्र है। दूसर श्वेताम्बर सम्प्रदायभी मानता है, उसी प्रकार मानतुंगाचार्य कुमुदचन्द्राचार्यसे बहुत पहले हुए हैं। भक्तामरस्तोत्रमें भी रक्खा गया है । श्वेताम्बर श्रतः पहली बातक अनुसार भक्तामरके श्लोकोंकी सम्प्रदायके भक्तामरस्तोत्रमें जिन ३२,३३, ३४, ३५ संख्या ४४ सिद्ध नहीं होती।।
नम्बरके चार श्लोकोंको नहीं रक्खा गया है उनमें दूसग समाधान भी उपहासजनक है। भिन्न कमसे दुन्दुभि, पुष्पवृष्टि, भामण्डल, और भिन्न दृष्टि से तीर्थंकरों की संख्या २४-४८-७२- दिव्यध्वनि इन चार प्रातिहार्योंका वर्णन है । २४०अादि अनेक बतलाई जासकती हैं । भरत- उक्त चार श्लोकोंको न मानने पर ये चारों क्षेत्रके २४ तीर्थंकर हैं तो उनके साथ समस्त प्रातिहार्य छूट जाते हैं। अत: कहना पड़ेगा कि विदेहांके बीस तीर्थकर ही क्यों मिलाये जाते हैं। श्वेताम्बरीय भक्तामरस्तोत्र में सिर्फ चार ही ऐरावततेत्रके २४ तीर्थंकर अथवा ढाई-द्वीपके प्रातिहार्य बतलाये हैं, जबकि श्वेताम्बरीय समस्त भरतक्षेत्रांक तीर्थंकरोंकी संख्या क्यों नहीं सिद्धान्तानुसार प्रातिहार्य आठ होते हैं, और लीजाती ?तीर्थंकरोंकी संख्याक अनुसार स्तोत्रोंकी उन छोड़े हुए चार प्रातिहार्यों को कल्याणमंदिरपद्य संख्याका हीन मानना नितान्त भोलापन है स्तोत्रमें क्रमशः २५, २०, २४ तथा २१ नम्बरके
और वह दूसरे स्तोत्रोंकी पद्यसंख्याको भी दूषित श्लोकोंमें गुम्फित किया गया है । . कर देगा। अतः दूसरी बात भी व्यर्थ है ।
अतः श्वेताम्बर सम्प्रदायके सामने दो अब रही तीसरी बात, उसमें भी कुछ सार समस्याएँ हैं। एक तो यह कि, यदि कल्याणमंदिर प्रतीत नहीं होता; क्योंकि भक्तामरस्तोत्रका प्रत्येक को वह पूर्णतया अपनाता है तो कल्याणमंदिर श्लोक जब मंत्र-शक्तिसं पूर्ण है और प्रत्येक श्लोक की तरह तथा अपने-सिद्धान्तानुसार भक्तामरस्तोत्रमें मंत्ररूपसे कार्यमें लिया जासकता है। तब देवों भी आठों प्रातिहार्योंका वर्णन माने, तब उसे का संकट हटाने के लिये मानतुंगाचार्य सिर्फ चार भक्तामरस्तोत्रके ४८ श्लोक मानने होंगे। श्लोकोंको ही क्यों हटाते ? सबको क्यों नहीं ? दूसरी यह कि, यदि भक्तामरस्तोत्रमें अपनी
सचमुच ही भक्तामरस्तोत्रक मंत्रा- मान्यतानुसार चार प्रातिहार्य ही मानता है तो राधनसे देव तंग होते थे और मानतुंगाचार्यको कल्याणमंदिरसे भी २०, २६, २४ तथा २५ उन पर दया करना इष्ट था तो उन्होंने शेष ४४ नम्बरके श्लोकोंको निकाल कर दोनों स्तोत्रोंको श्लोकोंका देवोंकी श्राफ़त लेनेके लिये क्यों छोड़ समान बना देवें। दिया ? इसका कोई भी समुचित उत्तर नहीं इन दोनों समस्याओंमें से पहली समस्या ही हो सकता।
श्वेताम्बर समाजको अपनानी होगी; क्योंकि अतः इन समाधानोंसे तो भक्तामरस्तोत्रके वैसा करने पर ही भक्तामरस्तोत्रका पूर्णरूप श्लोकोंकी संख्या ४४ सिद्ध नहीं होती। उनके पास रहेगा। और उस दशामें दिगम्बर
हाँ इतना जरूर है कि भक्तामर स्तोत्रको श्वेताम्बर-सम्प्रदायके भक्तामरस्तोत्रमें कुछभी ४४ श्लोकों वाला मान लेने पर भक्तामरस्तोत्र अन्तर नहीं रहेगा।
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लेखक:
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सामाजिक प्रगति
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जैन समाज क्यों मिट रहा है? अयोध्याप्रसाद
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जन-समाज अपनेको उस पवित्र एवं जो गायक अपनी स्वर-लहरीसे मृतकोंमें
शक्तिशाली धर्मका अनुयायी बतलाता जीवन डाल देता था, वह :आज स्वयं मृत-प्राय है जो धर्म भूले-भटके पथिकों-दुराचारियों क्यों है ? जो सरोवर पतितो-कुष्ठियोंको पवित्र तथा कुमार्ग-रतोंका सन्मार्ग-प्रदर्शक था, पतित
बना सकता था, आज वह दुर्गन्धित और मलीन पावन था. जिस धर्ममें धार्मिक-सङ्कीर्णता और क्यों है ? जो समाज सूर्य के समान अपनी प्रग्वर अनुदारुताके लिये स्थान नहीं था, जिस धर्मने किरणोंके तेजसे संसारको तेजोमय कर रहा था, समचे मानव समाजको धर्म और राजनीतिके श्राज वह स्वयं तेजहीन क्यों है ? उसे कौनसे समान अधिकार दिये थे, जिस धर्मने पशु-पक्षियों गहने ग्रस लिया है ? और जो समाज अपनी और कीट-पतंगों तक उद्धारके उपाय बताये कल्पतम-शाखाओंके नीचे सबको शरण देता था, थे. जिस धर्मका अस्तित्व ही पतितोद्धार एवं वही जैन समाज अाज अपनी कल्पतरु-शाखा लोकसेवा पर निर्भर था, जिस धर्म के अनुयायी काटकर बचे खुच शरणागतोंको भी कुचलनेके चक्रवर्तियों, सम्राटों और प्राचार्योने करोड़ों म्लेच्छ लिये क्यों लालायित हो रहा है ? अनार्य तथा असभ्य कहेजाने वाले प्राणियोंको जैनधर्म में दीक्षित करके निरामिष-भोजी, धार्मिक यही एक प्रश्न है जो समाज-हितैषियोंके तथा सभ्य बनाया था, जिस धर्मके प्रसार करनेमें हृदयको खुरच-खुरचकर खाये जारहा है। दुनियाँ मौर्य, ऐल, राष्ट्रकूट, चाल्युक्य, चोल, होयसल और द्वितीयाके चन्द्रमाके समान बढ़ती जारही है, मगर गंगवंशी राजाओंने कोई प्रयत्न उठा न रक्खा जैन-समाज पूर्णिमाके चन्द्रमाके समान घटता था और जो धर्म भारतमें ही नहीं किन्तु भारतके जारहा है । आवश्यकतासे अधिक बढ़ती हुई बाहर भी फैल चुका था। उस विश्वव्यापी जैन- संसारकी जन-संख्यासे घबड़ाकर अर्थ-शास्त्रियांन धर्मके अनुयायी वे करोड़ों लाल आज कहाँ चले घोषणा की है कि "अब भविष्यमें और मन्तान गये ? उन्हें कौनसा दरिया बहा ले गया ? अथवा उत्पन्न करना दुख दारिद्रयको निमंत्रण देना है।" कौनसे भूकम्पसे वे एकदम पृथ्वीके गर्भ में समा इतने ही मानव-समूहके लिये स्थान तथा भोज्यगये ?
पदार्थका मिलना दूभर हो रहा है, इन्हींकी पूर्ति
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अनेकान्त
[कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५ के लिये आज संसारमें संघर्ष मचा हुआ है और रियोंने चट कर लिया ? इन्हीको बाढ़ बहा ले मनुष्य-मनुष्यके रक्तका प्यासा बना हुआ है। गई ? और भूकम्पके धक्कोंसे भी ये ही रसातलमें यदि इसी तेजीस संसारकी जन-संख्या बढ़ती रही समा गये ? यदि नहीं तो ६ लाख बढ़नेके बजाय तो, प्रलयके आनेमें कुछ भी विलम्ब न होगा। ये तीन लाख घटे क्यों ? अर्थशास्त्रियोंको संसारकी इस बढ़ती हुई जन- इस 'क्यों' के कई कारण हैं। सबसे संख्यास जितनी चिन्ता हो रही है, उतनी ही हमें पहले जैन-समाजकी उत्पादनशक्तिकी परीक्षा करें घटती हुई जैन-जन-संख्यासे निराशा उत्पन्न हो रही तो सन १६३१ की मर्दमशुमारीके अंकोंसे प्रकट है। भारतवर्षकी जन-संख्याके निम्न अंक इस होगा कि जैन-समाज में :बातके साक्षी हैं :
विधवा ... ... ... १३४२४५ विधुर ... ... ...
५२६०३ भारतवर्षकी सम्पूर्ण केवल जैन जन-संख्या
जन-संख्या
१ वर्षसे १५ वर्ष तक के कारे लड़के १६६२३५ सन १८८१ २८ करोड़
१५ वर्षसे ४०" " " ... ८६२७४ १५०००००
४० वर्षसे ७०" " " ... १४ सन १८६१ २६ करोड़ १४१६६३८ सन १६०१ ३० करोड़ १३३४१४० १ वर्षस १५ वर्ष तककी कारी लड़कियां १६४८७२ सन् १९११ ३१ करोड़ १२४८१८२ १५ वर्षसे ४० " " " ६४ सन १६२१ ३३ करोड़ ११७८५६६ ४० वर्षसे ७० " " " ७८७ सन १६३१ ३५ करोड़ १२५१३४० वर्षसे १५ वर्ष तकके विवाहित स्त्री-पुरुष ३६७१७ ___ उक्त अंकोंसे प्रकट होता है कि ४० वर्षों में १५ वर्षसे ४० " " " " ४२०२६४ भारतकी जन-संख्या ७ करोड़ बढ़ी । जब कि इन्हीं ४० वर्षसे७० " " " " १३६२२४ ४० वर्षों में ब्रिटिश-जर्मन युद्ध, प्लेग, इन्फ्लुएँञ्जा,
कुल योग १२५१३४० तूफान, भूकम्प-जलजले, बाढ़ वगैरहमें ७-८ करोड़ भारतवासी स्वर्गस्थ होगये, तब भी उनकी
१२५१३४० स्त्री-पुरुषोंमें १५ वर्षकी आयुसे जन-संख्या ७ करोड़ और बढ़ी। यदि इन मृतकों
लेकर ४० वर्षकी आयुके केवल ४२०२६४ विवाकी संख्या भी जोडली जाय तो ४० वर्ष में भारतवर्ष
हित स्त्री-पुरुष हैं, जो सन्तान उत्पादन योग्य कह की जन-संख्या ड्योढ़ी और इसी हिसाबसे जैन- जासकते हैं। उनमें भी अशक्त, निर्बल और रुग्ण जन संख्या भी २२ लाख होनी चाहिये थी। किन्तु चौथाईके लगभग अवश्य होंगे, जो सन्तानोत्पत्ति वह ड्योढ़ी होना तो दूर, घटकर पौनी रह गई।
' का कार्य नहीं कर सकते। इस तरह तीन लाख___ तब क्या जैनी ही सबके सब लामपर चले को छोड़कर ६५१३४० जैनोंकी ऐसी संख्या है. गये थे ? इन्हींको चुन-चुनकर प्लेग आदि बीमा- जो वैधव्य, कुमारावस्था, बाल्य और वृद्धावस्थाकं
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जैन समाज क्यों मिटरहा है ?
वर्ष २ किरण १]
कारण सन्तानोत्पादन शक्तिसे वंचित है। अर्थान् समाजका पौन भाग सन्तान उत्पन्न नहीं कररहा है ।
यदि थोड़ी देरको यह मान लिया जाय कि १५ वर्षकी आयु कम ३६७१७ विवाहित दुधमुँहे चियाँ कभी तो सन्तान उत्पादन योग्य होंगे ही, तो भी बात नहीं बनती । क्योंकि जब ये इस योग्य होंगे तब ३० से ४० की आयु वाले विवाहित स्त्री-पुरुष, जो इस समय सन्तानोत्पादनका कार्य कर रहे हैं, वे बड़ी आयु होजानेके कारण उस समय अशक्त हो जायेंगे । अतः लेखा ज्यों का न्यों रहता है । और इस पर भी कहा नहीं जा सकता कि इन अवोध दूल्हा-दुल्हिनों में कितने विधुर तथा वैधव्य जीवनको प्राप्त होंगे।
जैन समाज में ४० वर्षसे कमकी आयु वाले विवाह योग्य २५५५१० क्वारे लड़के और इसी आयुकी २०४७५६ क्वारी लड़कियाँ हैं । अर्थात लड़कोंसे ५०७५४ लड़कियाँ कम हैं। यदि सब लड़कियाँ क्वारे लड़कोंसे ही विवाही जाँय तोभी उक्त संख्या क्वारे लड़कों की बचती है। और इसपर भी तुर्रा यह है कि इनमें से आधी भी अधिक लड़कियाँ दुबारा तिवारा शादी करनेवाले अधेड़ और वृद्ध हड़प करजायगे । तब उतने ही लड़के क्वारं और रहजायेंगे । अतः ४० वर्षकी आयुसे कमके ५०७५४ बचे हुये क्वारे लड़के और ४० वर्षकी आयु ७० वर्ष तककी आयुके १२४५५ बचे हुये क्वारे लड़के लड़कियोंका विवाह तो इस जन्ममें न होकर कभी अगले ही जन्मोंमें होगा ।
प्रश्न होता है कि इस मुट्ठीभर जैन
समाजमें इतना बड़ा भाग क्वारा क्यों है ? इसका स्पष्टीकरण सन् १६ १४ की दि० जैन डिरेक्टरी के निम्न अंकोंसे हो जाता है.
:
दि०जैन समाज अन्तर्गत जातियाँ | कुल संख्या ।
६७१२१
६४७२६
२०६६५
६४
१ अप्रवाल
२ खण्डेलवाल
३ जैसवाल
जैसवाल सा
४ परवार
५. पद्मावती पुरवाल
६ परवार दसा
७ परवार - चौसके पल्लीवाल ६ गोलालार
१० विनैक्या
११ गान्धीजैन
१२ श्रीसवाल
१३ ओसवाल- बीमा
१४ गंगलवाल
१५ बड़ेले
१६ वरैया
१७ फतहपुरिया
७५
१८ उपाध्याय
१६ पोरवाल
२० बुढ़ले
२१ लोहिया
२२ गोलसिंघारे
२३ खरौआ
२४ लमेचु २५ गोलापूरव २६ गोलापूरव पचविसं
४१६६६
११५६१
१२७७
بری بلا
५५८२
३६८५
२०
७०२
४५.
ویی
१६
१५८४
१३५
१२१६
११५
५६६
६०२
६२६
१७५०
१६७७
१०६४०
१६४
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७६
अनेकान्त
[कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५
२६५४
३०६
७३८ ४२
४३३
८४६७ ११२४१ २४३१ २४२
३८५.
११
२७ चरनागेर २८ धाकड़ २६ कठनेरा ३० पोरवाड़ ३१ पोरवाड़ जाँगड़ा ३२ पोरवाड़जाँगड़ विमा ३३ धवल जैन ३४ कासार ३५ बघेरवाल ३६ अयोध्यावासी (तारनपंथ) ३७ अयोध्यावासी ३८ लाड-जैन ३६ कृष्णपक्षी ४० काम्भोज ४१ समैय्या ४२ असाटी ४३ दशा-हूमड़ ४४ बिसा हूमड़ ४५ पंचम ४६ चतुर्थ ४७ बदनेरे ४७ पापड़ीवाल ४६ भवसागर ५० नेमा ५१ नारसिंहपुरा(बीसा) ५२ नरसिंहपुरा (दस्सा) ५३ गुर्जर ५४ सैतलाल ५५ मेवाड़ा ४६ मेवाड़ा (दसा)
१९८७ ६७ नागदा (बीसा) १२७२ ५८ नागदा (दसा) ६६६ ___५६ चित्तौड़ा (दसा) २८५ ६० चित्तौड़ा (बीसा) १७५६ ६१ श्रीमाल
६२ श्रीमाल-दसा
६३ सेलवार ६६८७ ६४ श्रावक ४३२४ ६५ मादर(जैन) २६ ६६ बोगार २६३ ५७ वैश्य (जैन)
६८ इन्द्र (जैन)
६६ पुरोहित ७०५ ७० क्षत्रिय (जैन) ११०७ ७१ जैन दिगम्बर
४६७ ७२ तगर १८०७६ ७३ चौघले २५५५ ७४ मिश्रजैन ३२५५६ ७५ संकवाल ६६२८५ ७६ खुरसाले
७७ हरदर ७८ ठगर बोगार
७६ बाह्मणजन २८३ ८० नाई-जैन ४४७२ ८१ बढ़ई-जैन २५६३ ८२ पोकरा-जैन
१५ ८३ सुकर जैन २०८८६ ८४ महेश्री जैन २१५८ ८५ अन्यधर्मी जैन
२०६३६
.
२४
२४०
५०१
२३६
७३
४५०५८४
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वर्ष २ किरण १]
जैन समाज क्यों मिट रहा है ? उक्त कोष्टकके अंक केवल दिगम्बरजैन कि जैनसमाजमें १२४५५ लड़के लड़कियाँ तो सम्प्रदायको उपजातियों और संख्याका दिग्दर्शन ४० वर्षकी आयुस ७० वर्ष तकको आयुके कारे कराते हैं । दिगम्बर-जैनसमाजकी तरह श्वेताम्बर हैं। जिनका विवाह शायद अब परलोकमें ही सम्प्रदायमें भी अनेक जाति-उपजातियाँ हैं। जिनके हो सकेगा। उल्लेखकी यहाँ आवश्यक्ता नहीं । कुल १२ लाखकी अल्पसंख्या वाले जैनसमाजमें यह सैकड़ों
जिस समाजके सीने पर इतनी बड़ी आयुके उपजातियाँ कोढ़में खाजका काम दे रही हैं । एक
अविवाहित अपनी दारुण कथाएँ लिये बैठे हों, जाति दूसरी जातिसे रोटी-बेटी व्यवहार न करनेके
जिम समाजने विवाह-क्षेत्रको इतना संकीर्ण और
संकुचित बना लिया हो कि उसमें जन्म लेने कारण निरन्तर घटती जारही है।
वाले अभागोंका विवाह होना ही असम्भव उक्त कोष्ठककं अंक हमारी आँखोंमें ऊँगली बन गया हो; उस समाजकी उत्पादन-शक्तिका डालकर बतला रहे हैं कि नाई, बढ़ई, पोकरा, निरन्तर हास होते रहनेमें आश्चर्य ही क्या है? मुकर, महेश्री और अन्य धर्मी नवदीक्षित-जैनोंको जिस धर्मने विवाहके लिये एक विशाल क्षेत्र छोड़कर दि. जैनसमाजमें ६४० तो ऐसे जैन निर्धारित किया था. उसी धर्मक अनुयायी कुलोत्पन्न स्त्री-पुरुष बालकोंकी संख्या है जो १८ आज अज्ञानवश अनुचित मीमाओंके बन्धनों में जातियोंमें विभक्त है, जिनकी जाति-संत्र्या घटने- जकड़े पड़े हैं, यह कितने दुःखकी बात है !! घटते १०० से कम २०, ११, ८ तथा २ तक रह क्या यही कलियुगका चमत्कार है? गई है। और ३८५६ ऐसे स्त्री-पुरुष-बालकोंकी मंख्या है जो १४ जातियों में विभक्त है। और जैनशास्त्रोंमें वैवाहिक उदारताके मंकड़ों जिनकी जाति संख्या घटते-घटते १०० से भी स्पष्ट प्रमाण पाये जाते हैं। यहाँ पं० परमेठीकम १०० तक रह गई है।
दासजी न्यायतीर्थ कृत "जैनधर्मकी उदारता"
नामक पुस्तकसे कुछ अवतरण दिये जाने हैं, जो भला जिन जातियोंके व्यक्तियोंकी संख्या
हमारी प्राग्वे ग्बोलने के लिये पर्याप्त है:ममस्त दुनिया में २, ८. २०, ५०, १००, २०० रह गई हो, उन जातियोंके लड़के लड़कियोंका उसी भगवजिनसेनाचार्यने श्रादिपुगणमें लिम्बा है किजातिमें विवाह कैसे हो सकता है ? कितनी ही
बोटल्या नान्या स्त्रां तांच नेगमः। जातियोंमें लड़के अधिक और कितनी ही जातियोंमें लड़कियाँ अधिक हैं। योग्य सम्बन्ध वनम्वां ने च गजन्यः म्वां द्विजन्मा किचिश्चताः नलाश करनेमें कितनी कठिनाइयाँ उपस्थित अर्थात शूहका शूद्रकी कन्यासे विवाह होती हैं, इस वे ही जान सकते हैं जिन्हें कभी करना चाहिये, वैश्य वैश्यकी नथा शूद्रकी कन्यासे ऐसे सम्बन्धोंसे पाला पड़ा हो। यही कारण है विवाह कर मकता है. क्षत्रिय अपने वर्णकी
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अनेकान्त [कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५ तथा वैश्य और शूद्रकी कन्यासे विवाह कर इसप्रकार जाति और वर्णकी कल्पनाको सकता है और ब्राह्मण अपने वर्णकी तथा शेष महत्व न देकर जैनाचार्योंने आचरण पर जोर तीन वर्षों की कन्याओंसे भी विवाह कर सकता है। दिया है।
इतना स्पष्ट कथन होते हुए भी जो लोग जैनशास्त्रों, कथा-ग्रंथों या प्रथमानुयोगको कल्पित उपजातियोंमें (अन्तर्जातीय ) विवाह उठाकर देखनेपर, उनमें पद-पद पर वैवाहिक करनेमें धर्म-कर्मकी हानि समझते हैं उनके लिये उदारता नज़र आएगी। पहले स्वयंवर प्रथा चालू क्या कहा जाय? जैनग्रंथोंने तो जाति कल्पनाकी थी, उसमें जाति या कुलकी परवाह न करके धज्जियाँ उड़ादी हैं । यथा
गुणका ही ध्यान रखा जाता था। जो कन्या अनादाविह संसारे दुर्वारे मकरध्वजे। किसीभी छोटे या बड़े कुलवालेको गुण पर कुलेच कामनीमूले का जातिपरिकल्पना॥ मुग्ध होकर विवाह लेती थी उसे कोई बुरा नहीं
अर्थात-इस अनादि संसारमें कामदेव कहता था । हरिवंश-पुराणमें इस सम्बन्धमें स्पष्ट सदासे दुर्निवार चला आरहा है। तथा कुलका
लिखा है किमूल कामनी है । तब इसके आधार पर जाति कन्या वृणीते रुचिरं स्वयंवरगता वरं । कल्पना करना कहाँ तक ठीक है ? तात्पर्य यह कुलीनमकुलीनं वा क्रमो नास्ति स्वयंवरे ॥ है कि न जाने कब कौन किस प्रकार से कामदेव की चपेट में आगया होगा । तब जाति या उसकी
अर्थात-स्वयंवरगत कन्या अपने पसन्द उच्चता नीचताका अभिमान करना व्यर्थ है। यही
वरको स्वीकार करती है, चाहे वह कुलीन हो या बात गुणभद्राचार्यने उत्तरपुराणके पर्व ७४ में और
- अकुलीन । कारण कि स्वयंवरमें कुलीनता अकुलीभी स्पष्ट शब्दोंमें इस प्रकार कही है
नताका कोई नियम नहीं होता है । जैनशास्त्रों में वर्णाकृत्यादिभेदानां देहेऽस्मिन्न च दर्शनात् । विजातीय विवाहके अनेक उदाहरण पाये जाते हैं। ब्राह्मण्यादिषु शूद्रौद्यर्गर्भाधानप्रवर्तनान्॥४१॥ नमूनेके तौरपर कुछका उल्लेख इस प्रकार है
अर्थात-इस शरीरमें वर्ण या आकारसं कुछ १-राजा श्रेणिक (क्षत्रिय)ने ब्राह्मण-कन्या भेद दिखाई नहीं देता है। तथा ब्राह्मण क्षत्रिय नन्दश्रीसे विवाह किया था और उससे अभयवैश्योंमें शूद्रोंके द्वाराभी गर्भाधानकी प्रवृति देखी कुमार पुत्र उत्पन्न हुआ था। (भवतो विप्रकन्यां जाती है। तब कोई भी व्यक्ति अपने उत्तम सुतोऽभूदभयालयः) बादमें विजातीय माता-पिता या उच्च वर्णका अभिमान कैसे कर सकता है? से उत्पन्न अभयकुमार मोक्ष गया । (उत्तरपुराण तात्पर्य यह है कि जो वर्तमानमें सदाचारी है पर्व ७४ श्लोक ४२३ से २६ तक) वह उच्च है और जो दुराचारी है वह नीच है। २-राजा श्रेणिक (क्षत्रिय) ने अपनी पुत्री
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वर्ष २ किरण १]
जैन-समाज क्यों मिट रहा है ? धन्यकुमार 'वैश्य ' को दी थी। (पुण्याश्रव कन्या तिलकवतोसे विवाह किया और उससे कथाकोष)
उत्पन्न पुत्र चिलाती राज्याधिकारी हुआ । ३-राजा जयसेन (क्षत्रिय) ने अपनी पुत्री (श्रेणिकचरित्र) पृथ्वीसुन्दरी प्रीतिकर (वैश्य) को दी थी । इनके १३-जयकुमारका सुलोचनासे विवाह हुआ ३६ वैश्य पत्नियाँ थीं और एक पत्नी राजकुमारी था। मगर इन दोनोंकी एक जाति नहीं थी। वसुन्धरा भी क्षत्रिया थी। फिर भी वे मोक्ष गये। १४-शालिभद्र सेठन विदेशमें जाकर अनेक (उत्तरपुराण पर्व ७६ श्लोक ३४६-४७) विदेशीय एवं विजातीय कन्याओंसे विवाह
५-कुवेरप्रिय सेठ (वैश्य) ने अपनी पुत्री किया था। क्षत्रियकुमारको दी थी।
१५-अग्निभूत स्वयं ब्राह्मण था. उसकी एक ५.-क्षत्रिय राजा लोकपालकी रानी वैश्य थी। नी ब्राह्मणी थी और एक वैश्य थी। ६---भविष्यदत्त (वैश्य) ने अरिंजय (क्षत्रिय)
(उत्तरपुराण पर्व ७५ श्लांक ७१-७२) गजाकी पुत्री भविष्यानुरूपासे विवाह किया था तथा हस्तिनापुरके राजा भूपालकी कन्या स्वम्पा १६-अग्निभूतकी वैश्य पत्नीसे चित्रसना (क्षत्रिय) को भी विवाहा था । (पुण्याश्रव कथा) कन्या हुई और वह देवशर्मा ब्राह्मणको विवाही
७-भगवान नेमिनाथके काका वसुदेव (क्षत्रिय) गई । (उत्तरपुराण पर्व ७५ श्लोक ७३) न म्लेच्छ कन्या जगस विवाह किया था । उसमें १७-तद्भव मातगामी महाराजा भरतनं ३२ जरत्कुमार उत्पन्न होकर मोक्ष गया था। (हरिवंश- हजार म्लेच्छ कन्याओम विवाह किया था। पुराण)
१८ श्रीकृष्णचन्द्रजीने अपने भाई गज८ -चारुदत्त (वैश्य) की पुत्री गंधर्वमना वमुदेव कुमारका विवाह क्षत्रिय-कन्याओंके अतिरिन. (क्षत्रिय) को विवाही थी। (हरि०)
मोमशर्मा ब्राह्मणकी पुत्री मोमास भी किया था। है-उपाध्याय (ब्राह्मण) सुग्रीव और यशोग्रीव (हरिवंशपुराण ७० जिनदाम ३४.०६ तथा हरिवंश ने भी अपनी दो कन्यायें वसुदेव कुमार (नत्रिय) पुगण जिनसेनाचार्य कृत) को विवाही थीं। (हरि०)
१६-मदनवेगा गौरिक' जातिकी थी । ___ १०-ब्राह्मण कुलमें क्षत्रिय मातास उत्पन्न हुई वसुदेवजीकी जाति गौरिक' नहीं थी। फिर भी इन कन्या सोमश्रीको वसुदेवने विवाहा था । (हरिवंश- दोनोंका विवाह हुआ था। यह अन्तर्जानीय पुराण सर्ग २३ श्लोक ४६-५१)
विवाहका अच्छा उदाहरण है । (हरिवंशपुगग्ण ११-सेठ कामदत्त 'वैश्य' ने अपनी पुत्री बंधु- जिनसनाचार्य कृत) मनीका विवाह वमुदेव क्षत्रियस किया था। (हरि०) २०-सिंहक नामक वैश्यका विवाह एक
१२-महाराजा उपश्रेणिक (क्षत्रिय) ने भील. कौशिक बंशीय क्षत्रिय कन्याम हुआ था।
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अनेकान्त [कार्तिक, वीरनिर्वाण सं० २४६५ २१-जोवंधर कुमार वैश्य थे, फिरभी राजा फिर भद्रबाहु स्वामीके निकट दिगम्बर मुनिदीक्षा गयेन्द्र (क्षत्रिय) की कन्या रत्नवतीसे विवाह लेली थी। किया। (उत्तरपुराण पर्व ७४ श्लोक ६४६-५१) २–आबू मन्दिरके निर्माता तेजपाल प्राग्वाट
२२-राजा धनपति (क्षत्रिय) की कन्या (पोरवाल) जातिके थे, और उनकी पत्नी मोद पद्माको जीवंधरकुमार [वैश्य]ने विवाहा था ।
जातिकी थी । फिरभी वे बड़े धर्मात्मा थे। २१ (क्षत्रचूड़ामणि लम्ब५ श्लोक ४२-४८)
हजार श्वेताम्बरों और ३ सौ दिगम्बरोंने मिलकर २३-भगवान शान्तिनाथ (चक्रवती) सोलहवें संवत १२२०की बात है।
___ उन्हें 'संघपति' पदसे विभूषित किया था। यह तीर्थकर हुये हैं। उनकी कई हजार पत्नियाँ तो
३-मथुराके एक प्रतिमा लेखसे विदित है म्लेच्छ कन्यायें थी। (शान्तिनाथपुराण) कि उसके प्रतिष्ठाकारक वैश्य थे। और उनकी
२४----गोपेन्द्र ग्वालाकी कन्या सेठ गन्धोत्कट धर्मपत्नी क्षत्रिया थी। (वैश्य) के पुत्र नन्दाके साथ विवाही गई। ४-जोधपुरके पास घटियाला ग्रामसे संबन (उत्तरपुराण पर्व ७५ श्लोक ३००)
६१८ का एक शिलालेख मिला है । कक्कुक __२५-नागकुमारने तो वेश्या पत्रियोंसे भी नामके व्यक्तिके जैन मन्दिर, म्तम्भादि बनवाने विवाह किया था। फिरभी उसने दिगम्बर मुनिकी का उल्लेख है। यह कक्कुक उस वंशका था दीक्षा ग्रहणकी थी । (नागकुमार चरित्र) इतना जिसके पूर्व पुरुष ब्राह्मण थे और जिन्होंने क्षत्रिय होनेपर भी वे जैनियोंके पूज्य रह सके। कन्यासे शादीकी थी । (प्राचीन जैन लेख संग्रह)
जैनशाखोंमें जब इसप्रकारके सैकड़ों५-पद्मावती पुरवालों (वैश्यों) का पाँडों उदाहरण मिलते हैं जिनमें विवाह सम्बन्धके (ब्राह्मणों) के साथ अभी भी कई जगह विवाह लिये किसी वर्ण जाति या, धर्म तकका विचार मम्बन्ध होता है । यह पाँड लोग ब्राह्मण हैं और नहीं किया गया है और ऐसे विवाह करनेवाले पद्माववी पुरवालोंमें विवाह संस्कारादि कराते थे । स्वर्ग, मुक्ति और सद्गतिको प्राप्त हुये हैं तब बादमें इनका भी परस्पर बेटी व्यवहार चालू एक ही वर्ण, एक ही धर्म और एक ही प्रकारके हो गया। जैनियोंमें पारस्परिक सम्बन्ध करनेमें कौनसी हानि
६ करीब १५० वर्ष पूर्व जब बीजावर्गा है, यह समझमें नहीं आता ।
जातिक लोगोंने खंडेलवालोंके समागमसे जैन-धर्म __इन शास्त्रीय प्रमाणोंके अतिरिक्त ऐसे ही धारण करलिया तब जैनेतर बोजावर्गियोंने उनका अनेक ऐतिहासिक प्रमाण भी मिलते हैं। यथा- बहिष्कार करदिया और बेटी व्यवहारकी कठिनता
१–सम्राट चन्द्रगुप्तने ग्रीक देशके (म्लेच्छ) दिखाई देने लगी। तब जैन बोजावर्गी लोग राजा सैल्यूकसकी कन्यासे विवाह किया था। और घबड़ाने लगे। उस समय दूरदर्शी खंडेलवालोंने
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वर्ष २ किरण ]
जैन-समाज क्यों मिट रहा है ? उन्हें सान्त्वना देते हुये कहा कि “जिसे धर्म-बन्धु सं० १२०६ में श्री० वर्द्धमानसूरिने चौहानोंको कहते हैं उसे जाति-वन्धु कहने में हमें कुछभी और सं० ११७६ में जिनवल्लभसूरिने परिहार संकोच नहीं होता है । श्राजहीसे हम तुम्हें अपनी राजपूत राजाको और उसके कायस्थ मंत्रीको जैन जातिके गर्भ में डालकर एक रूप किये देते हैं ।" धर्ममें दीक्षित किया और लूटमार करने वाले इस प्रकार खंडेलवालोंने बीजावर्गियोंको मिलाकर खीची राजपूतोंको जैन बनाकर सन्मार्ग बताया । बंटी-व्यवहार चालू कर दिया । (स्याद्वादकेसरी गुरु जिनभद्रसरिने राठोड़ राजपूतों और परमार गोपालदासजी बरैया द्वारा संपादित जनमित्र वर्ष ६ गजपतीको संवन १९६७ में जैन बनाया। अङ्क १ पृष्ठ १२ का एक अंश ।)
संवत ११६६ में जिनदत्तसूरिने एक यदुवंशी ७.---जोधपुरके पाससे संवन ६०० का एक राजाको जैन बनाया । ११६८ में एक भाटी राजपूत शिलालेख मिला है। जिससे प्रगट है कि सरदारने राजाको जैन बनाया। जन-मन्दिर बनवाया था । उसका पिता क्षत्रिय श्री जिनसनाचार्यने तोमर, चौहान, साम, और माता ब्राह्मणी थी।
चदला, ठीमर, गौड़, सूर्य, हेम, कछवाहा, सोलंकी, ८-राजा अमोघवर्पने अपनी कन्या विजातीय कुरु, गहलोत, साठा, मोहिल, श्रादि वंशके राजपूतों गजा गजमल्ल सप्तवादको विवाही थी
को जैन धर्म में दीक्षित किया। जो सब खंडेलवाल वि० सं० ४०० वर्ष पूर्व ओसिया नगर
जैन कहलाये और परम्पर रोटी-बंटी व्यवहार (गजपताना) में पमार राजपत और अन्य वर्गात स्थापित हुआ। मनुष्य भी रहते थे । सब वाममार्गी थे और माँस
श्री० लोहचार्यके उपदेशसे लाखों अग्रवाल मदिरा खाते थे उन सबको लाखोंकी संख्या श्री०
फिरसे जैन-धर्मी हुयं । रत्नप्रभुसूरिने जैन धर्म में दीक्षित किया । श्रोसिया इस प्रकार १६ वीं शताब्दीतक जैनाचार्यों नगर निवासी होने के कारण वह सब श्रोसवाल द्वारा भारतके भिन्न-भिन्न प्रान्तोंमें करोड़ोंकी कहलाय । फिर राजपूताने में जितने भी जैन-धर्ममें संख्यामें जैन धर्ममें दीक्षित किये गये। दोक्षित हुये, वह सब ओसवालोंमें सम्मलित इन नवदीक्षितोंमें सभी वर्गों के और सभी श्रेणाहोते गये।
के गजा-रंक सदाचारी दुराचारी मानव-वर्ग था । ___ संवत् १५४ में श्री. उद्योतसरिने उज्जैनके दीक्षित होने के बाद कोई भेद-भाव नहीं रहता था। राजा भोजकी सन्तानको (जो अब मथुरामें रहने जिस धर्ममें विवाहके लिये इतना विशाल लगे थे और माथुर कहलाते थे) जैन बनाया और क्षेत्र था, आज उसके अनुयायी संकुचित दायरेमें महाजनोंमें उनका रोटी-बंटी सम्बन्ध स्थापित फँसकर मिटने जारहे हैं । जैनधर्मको मानने वाली किया।
कितनी ही वैभवशाली जातियाँ, जो कभी लाखों *(जैनधर्मको उदारता पृ० ६३-७१)
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अनेकान्त
की संख्या में थीं, आज अपना अस्तित्व ग्वां बैठी हैं, कितनी ही जैन समाज से प्रथक हो गई हैं और कितनी ही जातियोंमें केवल दस-दस पाँच-पाँच प्राणी ही बचे रहकर अपने समाजकी इस हीनअवस्था पर आँसू बहा रहे हैं।
भला जिन बच्चों के मुँहका दूध नहीं सूख पाया, दान्त नहीं निकलपाये, तुतलाहट नहीं छूटी, जिन्हें धोती बान्धनेकी तमीज़ नहीं, खड़े होनेका शऊर नहीं और जो यह भी नहीं जानते कि व्याह है क्या बला ? उन अबोध बालक-बालिकाओं को ब हृदय माता-पिताओं क्या सोचकर विवाह बन्धन में जकड़ दिया ? यदि उन्हें समाजके मरने की चिन्ता नहीं थी, तब भी अपने लाडले बच्चोंपर तो तरस खाना था । हा ! जिस समाजने ३६७१७ दुधमुँहे बचियोंको विवाह बन्धनमें बाँध दिया हो, जिस समाजने १८७१४८ स्त्री-पुरुषों को अधिकाँश में बाल-विवाह वृद्ध-विवाह और अनमेल विवाह करके वैधव्य जीवन व्यतीत करने के लिये मजबूर करदिया हो और जिस समाजका एक बहुत बड़ा भाग संकुचित क्षेत्र होनेके कारण अविवाहितही मर रहा हो, उस समाजकी उत्पादन शक्ति कितनी ate दशाको पहुँच सकती है, यह सहजमें ही
[कार्तिक, वीर निर्धारण सं० २४६५
अनुमान लगाया जा सकता है।
उत्पादन-शक्तिका विकास करनेके लिये हमें सबसे प्रथम अनमेल तथा वृद्ध विवाहों को बड़ी सतर्कता से रोकना चाहिये । क्योंकि ऐसे विवाहों द्वारा विवाहित दम्पत्ति प्रथम तो जनन शक्ति रखते हुये भी सन्तान उत्पन्न नहीं कर सकते, दूसरे उनमें से अधिकाँश विववा और विधुर होजानेके कारण भी सन्तान उत्पादन कार्य से वंचित हो जाते हैं। साथ ही कितने ही विववा विधुर बहकाये जानेपर जैन-समाजको छोड़जाते हैं।
I
अत: अनमेल और वृद्धविवाहका शीघ्र से शीघ्र जनाजा निकाल देना चाहिये और ऐसे विवाहोंके इच्छुक भले मानसीका तीव्र विरोध करना चाहिये । माथही जैन कुलोत्पन्न अन्तरजातियों में विवाहका प्रचार बड़े वेग से करना चाहिये जिससे विवाह योग्य क्वारे लड़के लड़कियाँ क्वारं न रहने पायें |
जब जैन समाजका बहुभाग विवाहित होकर सन्तान उत्पादन कार्य करेगा और योग्य सम्बन्ध होनेसे युवतियाँ विधवा न होकर प्रसूता होंगी, तब निश्चय ही समाज की जन-संख्या बढ़ेगी ।
-क्रमशः
'सार्वजनिक प्रेम, सलज्जताका भाव, सबके प्रति सद्व्यवहार, दूसरोंके दोषोंकी पर्दादारी और सत्य-प्रियता - ये पाँच स्तम्भ हैं जिनपर शुभ आचरणको इमारतका अस्तित्व होता है ।'
'अनन्त उत्साह-- बस यही तो शक्ति है; जिसमें उत्साह नहीं है, वे और कुछ नहीं, केवल काठ के पुतले हैं । अन्तर केवल इतना ही है कि उनका शरीर मनुष्योंकासा है ।'
- तिरुवल्लुवर
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शिलालेखोंसे जैन-धर्मकी उदारता
- लेखक
श्री. बाबू कामताप्रसाद जैन साहित्यमनीषी
'विप्रतत्रियविट्शूद्राः प्रोक्ताः क्रियाविशेषतः । जैनधर्मे पराः शक्तास्ते सर्वे बांधवोपमाः ||
नशाश्रमं मनुष्यों की मूलतः एक जाति
घोषित की गई है - मनुष्यों में घोड़े और बैल जैसा मौलिकभेद जैनशास्त्राने कहीं नहीं बनाया हूँ । लौकिक अथवा जीवन-व्यवहारकी सुविधाके लिये जैनाचार्योंने कर्मकी अपेक्षा मनुष्योंको ब्राह्मण क्षत्रिय-वैश्य - शूद्र-वर्गों में विभक्त करनेकी कल्पना मात्र की है । यही कारण है कि प्राचीन कालसे लोग अपनी आजीविकाको बदल कर वर्ण-परिवर्तन करते आये हैं । आजकल उत्तर भारतके जैनियों में अधिकांश वैश्य जातियाँ अपने पूर्वजोंको क्षत्रिय बतानी है-वर्ग परिवर्तन के ये प्रत्यक्ष उदाहरण हैं । श्रमवाल, श्रोसवाल लम्बक यदि जातियोंके पूर्वज क्षत्रिय ही थे, परंतु आज उनकी ही सन्तान वणिक-वृत्ति करने के कारण वैश्य होगई है । दक्षिण भारतके होयसल वंश के राजत्वकालमें वर्ण परिवर्तन होनेके उल्लेख मिलते हैं । हस्सन तालुक़के एल्कोटिजिनालय के शिलालेख (नं० १२० सन १९४७ ई०) से स्पष्ट है कि होयसलनरेश विष्णुवर्द्धन के एक सरदार पेरम्माडि नामक थे, जो
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श्रीश्रजितसेनाचार्यजीकं शिष्य थे किन्तु इन्हीं पेरम्माडि सरदार के पौत्र मसरण और माि श्रीपदके अधिकारी हुए थे, अर्थात वे शासनकर्मके स्थान पर वणिक्कर्म करने लगे थे । शिलालेखमें इसी कारण वह सरदार (शासक) न कहे जाकर श्रेष्टो कहे गये हैं । बेलूरतालुक़के शिलालेख नं० ८६ (सन ११७७ ) से स्पष्ट है कि होयसल नरेश वीर बहालदेव के महादंडनायक तंत्रपाल पेम्माडि थे, जिनके पूर्वज चूड़ीके व्यापारी ( Bangle sellers) मारिसेट्टी थे । मारिसेट्री एक दफा व्यापार के लिये दक्षिण भारतको आये और वहाँ उनकी भेंट पोयमलदेवसे हो गई । होयसलनरेश उनसे बहुत प्रसन्न हुए और उन्हें एक महान शामक (Giral (hiinf) नियुक्त किया । इन्हींके पौत्र तंत्रपाल हम्माडियर थे। बल्लालदेव ने बाकायदा दरबार बुलाकर उनके शीशपर राजपट्ट बाँधा था । इस शिलालेखीय साक्षीसे वर्ण-परिवर्तन की वार्ता स्पष्ट होजाती है । इसीलिये जैनाचार्य वभिद की अपेक्षा मनुष्योंमें कोई मौलिक भेद स्थापित
*इपीथेफिया कर्नाटिका, भा० ५ पृष्ट ३६ व ६७
होयसल श्री वीर बल्लालदेवरु श्रीमान्-महा-राजधानि दोरासमुद्रद्द नेलेविदिनालु सुख-संकथा विनोददिं पृथिवी-राज्यं गेय्युत्तम् हरे तत्याद- पद्मोपजीवि श्रीमान महाप्रधान-तंत्रपाल - पेम्माडिय-अन्वयव् एन्तेन्द अय्यावले बलेगार - मारिसेही तेन्कलु व्यवहारदि चन्दु पोयसलदेवनं कन्दु कारुण्यं बडदु हडदु महाप्रभुवाग् इरलातमं... तंत्रपालहेम्मा डियराम... साम्राज्य पट्टमं कहिसित्यादि ।
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अनेकान्त
[कार्तिक, वीर-निर्वाण सं०२४६५५
नहीं करते, बल्कि वह घोषित करते हैं कि जैनधर्म- “नमो अहंतानं फगुयशस नतकसं भयाये शिवकी शरणमें आकर मनुष्यमात्र भ्रातृभावको यशे...३...... आ...आ.. काये प्राप्त होते हैं---जैनी परस्पर भाई-भाई हैं । कमसे आयागपटो कारितो अरहत पूजाये" । कम जैनधर्मायतनों में प्रत्येक वर्ण और जातिके
अर्थात-"अहंतोंको नमस्कार ! नर्तक फगु मनुप्यके साथ समानताका व्यवहार जैनसंघमें
यशा की स्त्री शिवयशाने .....'अहंतों की पूजाके किया जाता रहा है। इस अपने कथनकी पुष्टि लिये आयागपट बनवाया।" (प्लेट नं० १२) इसी में हम पाठकोंके समक्ष निम्नलिखित शिलालेखीय तरह मथुराके होली दरवाजेसे मिले हुये स्तूप वाले साक्षी उपस्थित करते हैं।
आयागपट पर एक प्राकृत-भाषाका लेख निम्न
प्रकार है:-- इस्वी सनके प्रारंभ होनेसे पहलेकी बात है। "नमो अहंतों वर्धमानस आराये गणिकायं मध्य ऐशिया से शक जातिकं लोगोंने भारतपर लोणशोभिकाये धितु समण साविकाये आक्रमण किया और यहाँ वे शासनाधिकारी नादाये गणिकाये वसु (ये)आहेतो देविकुल, होगये। पंजाब और गुजरातमें उनका राज्य स्थापित हुआ था । जैनशास्त्रोंकी अपेक्षा देखा आयागसभा, प्रपा
आयागसभा, प्रपाशिल (I) प (रो) पतिस्ट जाय तो इन शकादि लोगोंकी गणना म्लेच्छोंमें (1) पितो निगंथानं अर्ह(ता) यतने स (हा) करनी चाहिये; परंतु इतिहास बताता है कि म (1) तरे भगिनिये धितरे पुत्रेण सर्वेन च तत्कालीन भारतीयोंने इन म्लेच्छ शासकोंको राजा जो 'छत्रप' कहलाते थे, अपना राजा स्वीकार किया था---यही नहीं, उन्हें भारतीय मतोंमें अर्थात-अहत वर्द्धमानको नमस्कार ! श्रमणोंदीक्षित भी किया था। इन राजाओंके समयमें की श्राविका आरायगणिका लोणशोभिका की जैन धर्मके केन्द्रस्थान (१) मथुरा (२) उज्जैनी पुत्री नादाय गणिका वसुने अपनी माता, पुत्री,
और (३) गिरि नगर थे । इन स्थानोंक श्रासपास पुत्र और अपने सर्व कुटुम्ब सहित अर्हतका एक जैन-धर्मका बहु प्रचार था। मथुरास मिले हुये शिला- मंदिर, एक आयाग मभा, ताल, और एक शिला लखों से स्पष्ट है कि उस समय वहाँके जैनसंघ निग्रंथ अहतोंके पवित्र स्थान पर बनवाये । में सब ही जातियोंके लोग---देशी एवं विदेशीराजा और रंक सम्मिलित थे । नागवंशी लोग
इन दोनों शिलालेखों से स्पष्ट है कि आजसे जो मूल में मध्य ऐशियाके निवासी थे और वहाँ लगभग दो हजार वर्ष पहले जैनसंघमें 'नटी'और से भारतमें आये थे, मथुराके पुरातत्वमें जैन 'वेश्यायें' भी सम्मिलित होकर धर्माराधनकी गुरुओंके भक्त दर्शाये गये हैं। मथुराके पुरातत्वमें पूर्ण अधिकारी थीं । उनका जैनधर्म में गाढ़ श्रद्धान ऐसी बहुतसी मूर्तियाँ उपलब्ध हुई हैं जिन्हें और अटूट भक्ति थी । वे एक भक्तवत्सल जैनी नीच कही जानेवाली जातिके लोगोंने निर्माण की भाँति जिनमंदिरादि बनवाती मिलती हैं । यही कराया था । नर्तकी शिवयशाने आयागपट जैनधर्मकी उदारता है। बनवाया था। जिसपर जैनस्तूप अंकित है और मथुराके जैन पुरातत्वकी दो जिन-मूर्तियों निम्नलिखित लेखभी है
परके लग्वाम प्रकट है कि ईस्वी पूर्व सन ३ में
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वर्ष २ किरण १]
शिलालेखोंसे जैन-धर्मकी उदरता
एक रंगरेजकी स्त्रीने और सन २६ ई० में गंधी रामगौंड ने भगवान पार्श्वकी अष्टप्रकारी पूजाके व्यासकी स्त्री जिनदासी ने अहंत भगवानकी लिये भी दान दिया था। वेलूरके शिलालेख नं० मूर्तियाँ बनवाई थीं! - निस्सन्देह उस समय १३८ (सन् १२४८) से विदित होता है कि आदि जैनधर्मका उदार-रूप दिखाई पड़ता था । गौंडन एक जिनमन्दिर निर्माण कराया था और
उसकी पूजा, ऋपियोंके आहारदान और जीर्णोद्धागिरिनगर (काठियावाड़) के एक शिलालख. रके लिए भूमि का दान दिया था।11। विजयनगरसे भी जैन-धर्मका उदाररूप स्पष्ट होता है । यह में एक तेलिनका बनवाया हुआ जिनमन्दिर गाणशिलालेख क्षत्रपनरेश रुद्रसिंह का है और इससे गित्ति जिनभवन' नामसे प्रसिद्ध है। चालुक्यस्पष्ट है कि उस शकराजाने जैन-मुनियों के लिये नरेश अमद्वितियकं एक लेखसे स्पष्ट है कि उनगुफायें बनवाई थीं । । इसी उल्लेखसं स्पष्ट है कि की प्रेयसी चामेक वेश्या जैन-धर्मकी परम उपावह राजा जैन-गुरुत्रोंका भक्त था-जैनाचार्योने मिका थी। उसने सर्वलोकाश्रयजिनालय' निर्माण इन विदेशियोंसे घृणा नहीं की थी।
कराया था और उसके लिये दान दिया था । उत्तर-भारतके समान ही दक्षिण भारतके सारांशत: यह स्पष्ट है कि दक्षिण-भारतके जैनशिलालेखोंस भी जैन-धर्मके उदार-स्वरूपके दर्शन सघम भी शूद्र और ब्राह्मण-उच्च और नीचहोते हैं। श्रवणवेलगोलके एक शिलालेखमें एक सबही प्रकारके मनुष्य को प्रात्मकल्याण करनेका सुनारक समाधिमरण करनेका उल्लेख है। वहीं एक समान अवसर प्राप्त हुआ था। अन्य शिलालेखमें 'गणित' (तेली) जातिकी आर्यि- राजपूतानामें बीजोल्या पार्श्वनाथ एक प्रसिद्ध काओंका उल्लेख हुआ है । शिलालेख नं० ६६ अतिशयक्षेत्र है। वहाँके एक शिलालंबसे म्पष्ट (२२७ सन १५३६) में माली हुविड के दानका है कि उस तीर्थकी वन्दना करने ब्राह्मण-क्षत्रीवर्णन है एवं शिलालेख नं० १४५ (३३६ सन वैश्य-शूद्र-सभी आते थे और मनोकामना पूरी १३२५) में लिखा हुआ है कि वेल्गोलकी नर्तकी करनेके लिए वहाँके वनीकंड में मभी म्नान करते मंगायीन त्रिभुवनचूड़ामणि जिनालय' निर्माण थे। ग़र्ज़ यह कि शिलालेखीय साक्षी जैन-धर्मकी कराया था । वेलरतालुक़ के शिलालेख नं० १२४ उदारताको मुक्त कण्ठसं म्वीकार करती है। क्या (सन ११३३ ई.) के लेखस प्रगट है कि तेली- वर्तमानक जैनी इमसे शिक्षा ग्रहण करेंगे और दास गौंडने जिन मन्दिर के लिये जैन-गुरु शान्ति- प्रत्येकको मन्दिरोंमें पूजा-प्रक्षाल और दान देनेका देवको भूमि का दान दिया था। उनके साथ २ अवसर प्रदान करंगे ?
* इपीग्रेफिका इंडिका, ११३८४...
11 इपीग्रेफिया कर्नाटिका, भा० ५ पृ० ८३ । जनल भाव दी रॉयल ऐशिया. मो०. भा० ५ पृष्ट १८८ ||| इपी० कना०, भा० ५ पृ० ९२ ।।
IN इपीओफिया इंडिका, भा० ७ १८२। [ रिपोर्ट आन दी एटीकटीज़ आब काठियावाड़।
| ग्वतीतीरकुडेन या नारी स्नानमाचरेत् । एन्ड कच्छ, पृष्ट १४५-१४६ ।
मा पुत्र भतृ मौभाग्यं लक्ष्मी च लभते स्थिराम् ।। + पतितोद्धारक जनधर्म, पृष्ट ३५ ।
ब्राह्मणः क्षत्रियो वापि वैश्यो वा शूद्रो जोऽपिवा। ......स्नानकता म प्राप्नोत्युनमो गतिम ॥७६।।
जैन मिद्धान्तभाकर, भा०२ पृ: ५६. ।
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mam SIX DRAVYASI
- Byo (K. B. Jinara ja Hegde, B. Sc., LL. B., M. L. A.)
According to Jain Metaphysics identified. Taking this to be true there are only six elements in the how was it possible for the girl to Universe. By the word element relate any thing of her past life
nean a thing which cannot be unless that there was something further divided or destroyed or common and continuing conscious added to or subtracted from. They Clement in her between her are independent things. And what present and past life. And it is ever one sees in this universe are this common element Jainism calls either chemical compounds or as Atma or Jiva which is indestructmixtures of all or some of these sisible. A similar case was reportal dravyas.
from Jhansi in Hindustan times in They are (11JIVA(2P'UDGAL
its issue dated 16/9/1938. (3) DHARMA (4) ADILARMA ) KALA & (6) AKASA.
2. PUDGALA l'
ugala is matter, it is a sub1. JIVA
stance which could be percieved Jiva is Atma, a conscious element unlike Atina by all the five or by which we see in human beings. any one of the senses. Pudgala is animals, plants and trees. The common and indestructible: proof of the existence of this Atma element that is present in all subin the Universe consists more in stances like carth, wood, human the experience of people who have body. metal, air. gas, water. tire. genuinely felt of its existence than light, sound, lectricity, s-ray etc. in several arguments that are in this connection it must be sail advanced. I will only attempt to that the element' once thought by draw an inference of its existence. the scientists as final indestructible Many people must have heard of substance is no more found to be some people stating the experience true. Every element known to of their previous life. Recently chemistry is no more a final thing there was a case of a girl near that cannot be further divided or about Delhi which was reported destroyed. It is found hy scientists in the papers, who suddenly started that every atom of an element relating the scenes of her past life consists of two or more packets of and even named her relations in forces (Shakti) which they have her past life. whom later on she called proton and electron identiti
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वर्ष २ किरण १]
ed as positive and negative electricity respectively. The different properties of the elements of gold, iron, oxygen, hydrogen etc.. they have proved, consists in the differ ent numbers of electrons each element is made up of. According to this theory one element could be converted into another. Lead could be converted into gold or into any other element. This theory establishes the truth of Jaina Metaphysics beyond any doubt. Therefore one can say a table is pudgala, gold is pudgala, iron is pudgala, but pudgala is not only gold. iron and table, because pudgala is a common substance perceivable by all or any one of the senses) that is found in table. iron and gold. Sound cannot be produced without air or gas i, e... pudgala. Sound cannot exist without pudgala in some form or other, So much so, it is a character or property of pudgala and of pudgala alone and of nothing else in the universe. The property of a substance cannot exist independently of the substance of which it is the property: a substance could be known or recognised by its properties alone. Therefore, we say sound is pudgala but pudgala is not always sound, because sound is only one of the properties of pudgala.
SIX DRAVYAS
3. DHARMA
Dharma according to Jainism is a medium of motion. We know sound cannot travel without the medium of air. Fish cannot float without the medium of liquid. Birds cannot fly without the
medium of air. It is found magnetic waves travel long distances, even in areas where there is no air, it travels through water, mountains, metal screens and even up to stars and sun. Air is not a medium for those magnetic waves. The scientists could not explain what that medium was, but they were definite that there must be a medium. It is this medium which the scientists have called it as ether (ether-something that cannot be known). They know that without this ether medium magnetic waves cannot travel. It is by these waves we hear the radio. This ether satisfies all the attributes of Dharma as explained by Jain Metaphysicists.
14) ADHARMA
Adharma is another medium which has exactly the opposite character of Dharma. While Dharma is a necessary medium for motion. Adharma is a medium necessary for things to remain at rest or static. It is not character of anything in this universe to remain either in static or in motion If there should be a medium for motion we could easily conceive that there may be a medium for rest. It is found that the magnetic waves though unaffected by air, mountains water etc., do lose their intensity and finally they fail. Why? Ether does not give any resistance, because there is no substance, no strength either. The only conclusion we can come to is, that Adharma and Dharma are like light and darkness. Wherever there is light there is darkness.
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कार्तिक वीर-निर्वाण सं०२४६५
We cannot conceive of light with properties uncommon with any out darkness. The character of other thing in the universe. light is exactly reverse that of darkness. Therefore if there is a
6. AKASA medium for motion there must Akasa is Space. It gives room be medium for rent also. This is for all other five elements named also an established truth not above. It could not be confused beyond the imagination of scien- with the sky we see. Akasa tists.
according to Jain meta-physicists 5. KALA
exists even inside liquid, earth,
and metals. In 10 c.c. of water Kala is time. According to you drop 1 gram of salt or sugar, Jain Metaphysics it is an element it dissolves, but the volume of the that iarks, registers or roughly liquid remains the same. Where brings about change in everything has the extra volume of 1 gram of we see and even among things salt disappeared? The answer is, beyond our vision. It may be it has occupied the space inherent admitted that there is nothing in in the liquid. That space is Akasa. this universe that is always at rest. It pervades the whole of the that does not change. Sun, stars. mmiverse. Its character is to earth, vegetation, human beings, provide room for all things in the animals all undergo change every miverse. Without Akasa nothing second or even every thousand can exist independently of one inillionth part of a second. With another. It is due to Akasa that out cause there is no effect. Then everything finds its own place. what is the cause or what is behind Can anyone imagine a 7th element? all these changes. It may be I t is rather difficult to explain said, it is the very nature of in a short article of this size, the things. But that answer will be six dravyas contemplated by the only begging a question. What Jain metaphysicists and remove all is that nature, what is the cause of doubts and answer all counter such a nature? The cause of such arguments. The main idea of this a nature that brings changes in article is to prove that the conthings is called by Jain Meta- ception of Jain metaphysicists is not physicists as 'Kala'. Properly opposed to the present-day scienticonceived it is not the character fic theories. On the other hand, of Pudgala. Dharma, Adharma or the development of material Jiva. It is independent of them science has made it easier to unand one additional cement among derstand and appreciate the worth them. Its function in the universe of Jain Metaphysicists written or is different and it has independent told more than thousand years ago.
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अहिंसाधर्म और धार्मिक निर्दयता
लेखक:
श्री चन्द्रशेखर शास्त्री . . Ph., H. I. D. काव्यतीर्थ, साहित्याचार्य,
प्राच्यविद्यावारिधि ।
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त्राब इस बातको सिद्ध करनेकी आवश्य- यह भोजन यंत्रों द्वारा उत्पन्न बिल्कुल निरामिप
- कता नहीं रह गई है. कि प्रत्येक जीव- होगा। इसप्रकार वैज्ञानिक लोग मनुष्य-पशु की रक्षा करना मनुष्यमात्रका कर्तव्य है। मनुष्य और पक्षी सभीके बोझको कम करने के लिये आधुनिक विज्ञानके द्वारा उन्नति करता हुआ बराबर यत्न कर रहे हैं। अपने जीवनको जितना ही अधिकसे अधिक सुखी यद्यपि हम भारतवामी यह दावा करते हैं कि बनाता जाता है, उतना ही पशु-पक्षियोंका भार संसारके सबसे बड़े धर्मोंकी जन्मभूमि भारतवर्ष हल्का होता जाता है । वैज्ञानिक खतीने बैलों और है, किन्तु अत्यन्त दयावान जैन और बौद्ध धर्मोंघोड़ोंके हल चलाने के गुरुतर कार्यको बहुत हल्का की जन्मभूमि होते हुए भी जीवरक्षाके लिये जो कर दिया है। रल, मोटरकार आदि वैज्ञानिक कुछ विदेशोंमें किया जारहा है, भारतमें अभी यानाने बोझ ढोनक कार्यसे अनेक पशुओंको बचा उसकी छाया भी देखनेको नहीं मिलती। हम लिया है । वैज्ञानिक नागोंकी शोधका कार्य अभी ममझते हैं कि विदेशी लोग म्लेच्छ बंडके तक बराबर जारी है । उनको अपनी शोधके निवासी एवं मांसभक्षी होने के कारण हिंमाप्रिय विपयमें बड़ा बड़ी आशाएँ हैं । उनको विश्वास है होते हैं, किन्तु तथ्य इसके बिलकुल विपरीत है। कि एक दिन वे विज्ञानको इतना ऊँचा पहुँचा देंगे इसमें कोई मन्देह नहीं कि यूरोप और अमेरिकाकि संसारका प्रत्येक कार्य बिना हाथ लगाये के अधिकांश निवासी मांसभक्षी हैं, किन्तु वे केवल बिजलीका एक बटन दबानस ही होजाया पशुओंके प्रति इतने निर्दय नहीं हैं। आप उनकी करेगा। भोजनके विषयमें उनको आशा है कि इम मनोवृत्तिपर आश्चर्य करसकते हैं, क्योंकि वह किसी ऐसे भोजनका आविष्कार कर सकेंगे, प्राणघात और दयाका आपसमें कोई मेल नहीं हो जो अत्यन्त अल्पमात्रामें खाए जानेपर भी क्षुधा- सकता । किन्नु पाश्चात्य देशोंमें आजकल निगमिष शान्तिके अतिरिक्त शरीरमें पर्याप्त मात्रामें रक्त भोजन और प्राणियों के प्रति दयाका बड़ा भारी आदि धातुओंको भी उत्पन्न करेगा। तिसपर भी आन्दोलन चल रहा है । जिस प्रकार प्राचीन भार
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अनेकान्त [कार्तिक, वीर-
निर्वाण सं० २४६० नीय क्षत्रिय लोग ब्राह्मणों के सहयोगसे हिंसामई शाकाहारी होटल तक मिलेंगे। अब वह जमाना यज्ञ-याज करते करते हिंसासे इतने ऊब गयेथे टल गया, जब पाश्चात्य देशोंमें जानेपर बिना मांम कि उन्होंने भगवान महावीर तथा गौतमबुद्ध जैसे खाए काम नहीं चलता था। अहिंमा प्रचारकोंको उत्पन्न किया उसी प्रकार निरामिष भोजनके प्रचारके अतिरिक्त वहाँ प्रा. अाजकल पाश्चात्य देशवासी भी व्यर्थकी हिंसा णियोंके साथनिईयताका व्यवहार न करनेका आन्दो
और निर्दयतासे ऊब गये हैं। वहाँ प्रत्येक देशमं लन भी प्रत्येक देशमें किया जारहा है । इस समय निरामिप भोजनका प्रचार करने वाली सभाएँ हैं। यूरोपके प्रत्येक देश तथा अमेरिकामें जीवदयाप्रचा. आपको युरोप तथा अमेरिकाके प्रत्येक देशमें रिणी सभाएँ (Humanitarian Lebaglucos)
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टिन्नेवेली जिलेके कई स्थानी में पृथ्वीपर तेज़ नोक वाले भाले या बड़े कीले सीधे गाड़कर उनके ऊपर बड़ी भारी ऊँचाईसे कई सूअर एक-एक करके इस प्रकार फेंके जाते हैं कि वे उस में बिंधकर भालेके नीचे पहुंच जावे । इस प्रकार एक-एक भालेमें एकके ऊपर कई एक सूअर जीवित ही बिंध जाते हैं। बादमें उन मक प्राणियोंकी बलि दी जाती है।
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काम कर रही हैं । जीवदयाप्रचारिणी सभाएँ प्रति सामूहिक अन्याय किये जानेकी बात सुनती प्राणियोंपर निर्दयता न करनेका प्रचार केवल हैं उसका खुला विरोध भी करती हैं। पिछले दिनों ट्रेक्टों, व्याख्यानों और मैजिक लालटैनों-द्वारा ही अमेरिकाकी जीवदया-सभाने भारतसरकारके बिना नहीं करतीं, बल्कि वे अपने अपने देशोंमें पशु- किसी प्रतिबन्धके अमेरिकामें बंदर भेजनेके कार्यनिर्दयता निवारक कानून (Prevention of का कठोर शब्दोंमें विरोध किया था। उन्होंने १ Cruelty to Animals Act) भी बनवाती सितम्बर १६३७ से ३१ मार्च १९३८ तक भारतीय हैं। इसके अतिरिक्त वे जिस देश में प्राणियोंके राष्ट्रीय कांग्रेसके पास भी अनेक पत्र भेजकर उसस
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वर्ष : किरण १]
अहिंसा धर्म और धार्मिक निर्दयता
अनुरोध किया था कि वह भारतसरकारकी इस कार्यका चिकित्सकों, पादरियों, जीवित प्राणियों के प्रवृत्तिको बन्द करनेमें सहायता दें । अमरीकामें श्रॉपरेशनका विरोध करने वाली सभाओं तथा अनेक वैज्ञानिक प्रयोगशालाओंमें जीवित पशुओं- अन्य भी अनेक व्यक्तियोंने घोर विरोध किया। की चीरफाड़ करके अथवा उनका ऑपरेशन एक अमेरिका निवासीका कहना है कि वहां करके वैज्ञानिक प्रयोग किये जाते हैं। इन बंदरों प्रतिवर्ष साठ लाख प्राणियोंका प्रयोगशालाओं में को भारतवर्षसे उन्हीं प्रयोगशालाओंके लिये भेजा बलिदान किया जाता है। उनमें से केवल पाँच जाता था, वहाँ उनको अनेक प्रकारके काटने-फाड़ने प्रति शतको ही बेहोश करके उनकी चीर-फाड़चीरने, छेदने आदिके कष्ट दिये जाते थे। इस की जाती है । शेष सब बिना बेहोश किये ही,
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चिंगलेपट जिलेके मादमबक्कम नामक स्थानमें जीवित भेड़बकरीके पेटको थोड़ा काटकर उमकी अति ग्वीचली जाती हैं और उन्हें सेल्लीयम्मन् देवीके सामने गलेमें हारकी तरह पहिना जाता है।
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चीरे-फाड़े जाते हैं। इन प्रयोगशालाओं पर किसी डाल दिया जाता है यह सब कुछ उन मृक पशुओंप्रकारका निरीक्षण नहीं हैं। इनमें निर्दयता पूर्ण को बेहोश किये बिना किया जाता है । सभी कार्य प्रयोग करने वालोंकी पूर्ण सहमतिसे किये जाते हैं। उन प्रयोगोंमें पशुओंकी रीढ़की इन प्रयोगोंके चिकित्मामें उपयोग विषयमें हड्डीके ऊपरसे खाल और मांसको हटाकर उनकी भी निश्चयसे कुछ नहीं कहा जा सकता । इन बंदरों नाड़ियोंको उत्तेजित करके उनको फासफोरमसे के म्वनमें से इमप्रकार निर्दयता पूर्वक निकाले जलाया जाता है । फिर उनको उबलते हुए पानीमें हुए पानी (Serum) को शिशु-पक्षाघातमें दिया
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कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५
जाता है। इस आपधि के विषयमं खूब बढ़ाचढ़ा व्यर्थ प्रयोगका विरोध बड़े प्रभाव शाली शब्दोंमें कर विज्ञापन निकाल जाते हैं। किन्तु संयुक्तराज्य किया गया । इस विषयमें कैलिफोर्नियाकी अमेरिकामं म्वाश्य-विभागका कहना है कि इस पशुरक्षा समिति तथा जिवित-प्राणि-शल्य प्रकार निर्दयता-पूर्वक निकाले हुए किमी भी मीरम विरोधी समितिकं प्रधानने लिखा है-"भारतक ने शिशु-पक्षाघातको अच्छा नहीं किया। तीर्थस्थान आध्यात्मिक सौन्दर्य और उन्नतिक
भंडार हैं। वह मनुष्यों के अतिरिक्त पशुओंको प्राणियों पर दया तथा अव्यर्थ महीपधि भी प्रेमभावसे रहनेकी शिक्षा देते है: अतएवं न होनक कारण बंदरोंके उपर इस निर्दय तथा ऐसी शिक्षा देने वाला भारत पवित्र नियमका
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टिन्नेवली जिलेमें तो इतनी अमानुपिकता की जाती है . कि वहाँ एक गर्भ वती भेड़के गर्भाशयको फाड़कर उसमसे बच्चोंको इस लिये निकाल लिया जाता है कि उन्हें देवकोट्टामें कोटयम्मापर. मायावरममें मरियम्मापर और पालमकाहामं अयिर थम्मनपर बलि चढ़ाया जाता है।
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उल्लंघन कुत्सित और नीच विदेशी पैसके लिये यद्यपि अाज स्पेन प्रांतरिक युद्धके कप्टस नहीं कर सकता । हम संसारके सभी धर्मोके जीवन और मृत्युके सन्धि-स्थल पर खड़ा है, नाम पर आपसे दया, सत्य और न्यायके लिये किन्तु उन मूक प्राणियों के कष्टसे उसका हृदय अपील करते हैं।" उन सब लोगों की यह बड़ी भी पिघल गया है । उसकी जीवदया सभाके भारी अभिलाषा है कि भारतवर्पके बन्दरोंका मितम्बर १६३७ के एक पत्र में स्पेन के उन पशुओं बाहिर भेजा जाना एक दम बंद होजावे ।
की रक्षा करनेकी अपील की गई है, जो अपने
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अहिंसाधर्म और धार्मिक निर्दयता मालिकोंके स्पेन युद्ध में मारे जाने अथवा लगे माडिमें केवल एक समिति पशुरताका होने के कारण स्पेनके नगरोंकी सुनसान गलियों कार्य करती थी, किन्तु वह अत्यम्त यत्नशील में खाना ढूंढते हुए घूम रहे हैं । खाना न मिलने होती हुई भी उनकी बढ़ी हुई संख्याके कारण के कारण उक्त पशुओंके पंजर निकल आए हैं। उनकी आवश्यकताको पूर्ति करने में असमर्थ है। उन पशुओंमें अनेक उच्च नस्लके कुत्तेभी हैं, इसलिये उक्त समितिने संसार भरके दयालु जो स्पेनकी बमवर्षामें अनाथ होगए हैं। पुरुषोंसे अपीलकी है कि वह अपनी चंचल
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दक्षिणी अरकाट जिले के पूवानूर नामक स्थानमें बकरके गलेको नेहानी वा छीनी मे धीरे-धीरे काटकर उसको असीम वंदना पहुंचाई जानी है। बलिदानका यह कार्य संभवतः कमाईके हलान करनेसे भी अधिक निन्द यतापूर्ण है।
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लामीका कुछ भाग म्पन भेजकर उन पशुओंकी निवारक समिति (Stions for the Pr रक्षाक कार्यमें सहायता दें।
tion ( 1 ) Animals की कनाडामं भी पशुओंक प्रति निर्दयता पूर्ण रिपोर्ट को देखने पर पता चलता है कि ममिति व्यवहारक विरुद्ध घोर आंदोलन किया जारहा के पाम आर्थिक माधनों की कमी नहीं है । उम है। गरेटो ह्यमन मोमाइटीक मैनेजिंग डाइरेक्टर वर्ष उमको अकली ए० काट जर्विम स्टेटस मिस्टर जान मैकनलने पशुश्रांक ऊपर वैज्ञानिक ही दम सहन बाला मिल थे, इसके पदाधिकारी प्रयोग किये जानेका विरोध जोरदार शब्दाम नगर बाहिर १४५ मौकों पर गए । उन्होंने किया है। कनाडाकी पशुपक्षा-समिति जीवित १८०५ पशु निर्दयताकी शिकायतें सुनी. जिनमें प्राणियोंका ऑपरेशन करनेके विरुद्ध घोर से उन्होंने १३६८ को चेतावनी देकर छोड़ दिया आंदोलन कर रही है, कनाडाकी पशु-निर्दयता और ८२ मामलाम मजा कगई । उसने
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[कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५ १४५, ५८० बाड़ॉमें पशुओंका निरीक्षण किया। साफ करके धड़ियों गेगल आदि कूड़ियों पर फेंक ___ पशुओंकी अपेक्षा हमाग पक्षियोंके प्रति देते हैं, किन्तु यदि हम उसको किसी सार्वजनिक भी कम उत्तरदायित्व नहीं है। जैन मंदिरों स्थान पर डलवादिया करें तो, उससे अनेक में प्रायः कबूनगेंको चाग डाला जाता है। वाम्नव पक्षियोंको लाभ हो सकता है। अनेक लोगों की में हमाग उनके प्रति एक विशेष कर्तव्य है। ऐसी बुरी आदत होती है कि वह उन प्रकृतिके जिन पक्षियोंको मनुष्य अपने प्रेमवश किमी स्थान मंगीतवाहकों को लोहेके पिंजरेमें बंद करदेते हैं; विशपमें लाता है, उनके प्रनि तो उसका विशेष अनेक व्यक्ति तोते, मैना, आदि अनेक प्रकार कर्तव्य होता जाता है। हमलोग अपने अनाजपातका के पक्षियोंको पिंजरेमें बन्द रखते हैं; किन्तु वह
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विज़गापट्टम जिलेके अनाकवल्ले नामक स्थानमें एक ऐसा बलिदान किया जाता है जिसमें भाले जैसी एक तेज़ नोकदार छुरीको सूअर के गुदास्थानमें डाल कर इतने ज़ोरसे दबाया जाता है कि वह अंदरके भागोंको फाइतीहुई उसके मुंहमें से निकल आती है
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यह नहीं समझते कि प्रत्येक पक्षि जितना सुन्दर मनुष्य उनको पिंजरे में बन्द करके ही संतुष्ट खुली वायुमें स्वतन्त्रता पूर्वक श्वास लेकर गाता नहीं होता, वह उनको पकड़ता है उनका शिकार है उतना पिंजरे के अंदर बन्द रह कर कभी नहीं करता है और उनपर अनेक प्रकारके अत्याचार गा सकता। वास्तवमें हरे हरे खेतोंसे उड़ कर करता है। कई एक व्यक्ति तो इन, निर्बल प्राणियों नीले आकाशमें गाते हुए जाने वाले पक्षियोंको को मारकाट कर बड़ी शानसे कहा करते हैं, कि देखकर कितना आनन्द होता है ? इस गीतको आज हमने इतने पक्षियोंका शिकार किया । सुनकर कभीभी मन नहीं भरता । किन्तु स्वार्थी शिकारियोंकी अपेक्षा बहेलिये या चिडीमार लोग
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अहिंसाधर्म और धार्मिक निर्दयता इनपर अधिक अत्याचार करते हैं। बहेलियेके निर्दयतापूर्ण कार्यका विरोध किया और
कुछ वर्ष पूर्व कनाडाके क्वेबेक नामक नगरमें कहा कि लोमड़ीके इधर-उधर हिलते समय फोटो एक बहेलियेने एक छोटी लोमड़ीको जीवित ही किस प्रकार लिया जासकता है । इसपर बहेलियेने जालमें पकड़ लिया । उसने उसको अपने घर लोमड़ीको उतारनेके स्थानमें उसकी अगली टांगोंलजाकर उस स्थानपर टांग दिया जहाँ अनेक को एक रस्सीमें बाँधकर आगेको इस प्रकार खींच खाले टंगी हुई थीं। उस समय वहाँ एक फोटोग्रा. कर बाँध दिया कि वह हिलडुल भी न सके । फर भी था। वह उन खालोंका फोटो लेना चाहता इसके बाद फोटोग्राफरने फोटो ले लिया। वह इस था। किन्तु उसने लोमड़ीकी छटपटाते देखकर फोटोको पशुनिर्दयता-निवारक सभामें भेजने
दक्षिणी अरकाटके विरुधचलम् तालुकके मदुवेत्तिमंगलम् मंदिर में एक साथ सात भैंसोंको काटकर उनकी बलि दी जाती है !! और यह पूजो त्मवका वहाँ एक माधा
रग रूप है। kanBadsham Maitri. SHR.LEAGUE:
...... .MKARA LORAMMAR
INREE वाला था। सारांश यह है कि पशुनिर्दयता निवारक उद्योग किया है । एडिनबर्गके डाक्टर मिम्पमनको कानूनके अनुमार अनेक व्यक्तियोंको छोटे छोटे ऑपरेशनके ममय गगियोंका नड़पना और अपराधों में दंड दिया जाता है, किन्तु बहेलियों चिल्लाना देखकर बड़ी दया आई। अतएव उमन
और शिकारियोंपर उक्त कानून लागू नहीं होता। बहोश करनेकी औषधिको खोज निकाला। किसी बच्चेके हाथ में तो जब कभी कोई कुत्ते या अमेरिकामें पशुओंक प्रनि दयाभाव प्रदर्शिन बिल्लीका बच्चा पड़ जाता है. उसकी श्राफत ही श्रा करनका प्रचार रेडियो, ममाचारपत्र और जाती है।
व्याग्न्यानों द्वारा किया जाना है। वहाँ अनेक उन्नीसवीं शताब्दी में बड़े-बड़े चिकित्मकोंन ममितियाँ जीवदयाका प्रचार कर रही हैं । इम गंग और मृत्युमें कष्ट कम करनेका बड़ा भारी विषयमं वहाँ प्रतिवर्ष मैकड़ों ट्रैक्ट निकलते हैं।
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अनेकान्त कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५ रैवरेंड डाक्टर हान पेनहाल रीसने तो जीवदयाके उपर्युक्त वर्णनसे प्रगट है कि यदापि भारतविषयमें एक महसूसे भी अधिक कविताएँ वर्ष में शेष संसारकी अपेक्षा मांसाहारका प्रचार कम लिखी हैं।
है, तथापि वह जीव दयाके कार्य में उससे बहुत रोरोंटोकी ह्यूमेन मोमाइटी तथा इसीप्रकारकी पीछे है । इंगलैण्ड, फ्रांस, जर्मनी, स्पेन और अमेअन्य संस्थाएं वहाँ इस विषयमें अत्यंत उपयोगी रिका मांसाहारी देश होते हुये भी जीवदयाके कार्य कर रही हैं। इस विषयमें डाक्टर ऐलेन भी सम्बन्धमें भारतसे बहुत आगे हैं । भारतवर्षका बड़ा भारी कार्य कर रहे हैं।
दावा है कि वह कई ऐसे विश्वधर्मोकी जन्मभूमि
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ट्रिचनापलीके पास पुत्तुरके कुलुमियार्या मन्दिरमं दो तीन माहके भेड़के बच्चोंकी गर्दने दाँतोंसे काट कर अथवा छुरीम छेद करके देवी के सामने उनका रक्त चूमा जाता है !! इस घोर राक्षसी कृत्यने तो ग्वख्वार जंगली जानवरीको भी मात कर दिया है।
அந்தோ ! இந்த அநாகரிகக்கொடுமை என்று அழியமோ
है, जिसका आधार प्रेम और अहिंसा है, तो भी प्राणांतक कष्ट दिया जाता है। दक्षिण भारत इस यह अत्यन्त खंदकी बात है कि वह जीवदया और विषयमें शेप भारतसे भी बाजी मार ले गया है। प्रागिरक्षाके विषयमें मंसारके अन्य देशोंस बहुत वहाँ मूक पशुओंपर धर्मके नामपर बड़े-बड़े अमापीछे है । संसारका एक बहुत पिछड़ा हुआ नुषिक अत्याचार किये जाते हैं। जिन्हें देख-सुनदेश है।
कर रोंगटे खड़े होते हैं और दिमाग़ चकग जाता
है । लेखमें दिये गये कुछ चित्रांसे इन अत्याचारोंभारतवर्ष में अभी तक परमात्मा और धर्मके का आभास मिलता है। उनके यहाँ पुन: उल्लेग्य नामपर बड़े बड़े अत्याचार करके प्राणियोंको करनेकी आवश्यक्ता प्रतीत नहीं होती।
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अहिंसाधर्म और धार्मिक निर्दयता इनके अतिरिक्त दक्षिणके अनेक जिलोंमें निर्दयताके ये कुछ उदाहरण हैं, जो प्राय: तिलक यज्ञके लिये बकरोंके मारनेकी यह प्रथा बहुत छाप धारी हिन्दुओंके द्वारा किये जाते हैं, और जोरों पर है कि बकरोंके अंडकोषोंको किसी किये जाते हैं खूब गा बजाकर-हिंसानन्दी रौद्र भारी वस्तुसे दबाकर कुचलने श्रादिके अमानुषिक ध्यानमें मग्न होकर !! संसारके और भी भागों में कर्म द्वारा उन मूक पशुओंको मरणान्तिक वेदना इनके जैसे अन्य अनेक ऐसे कुकर्म किये जाते हैं, पहुँचाई जाती है।
जिनको सुनकर हृदय काँप उठता है और समझमें इस प्रकार पशुओंको धर्मके नाम पर असह्य नहीं पाता कि ऐसे कर कोंके करने वाले मनुष्य यंत्रणा पहुँचाने वाले कुकृत्योंके अथवा धार्मिक हैं या राक्षस अथवा जंगली जानवर !!
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नेलोर जिलेके मोपेड़ नामक स्थानपर देवीके मंदिरके सामने एक चार फुट गहरा गढ़ा खोदकर उसमें एक भैसेको उतार कर मज़बूतीसे बांध दिया जाता है। इसके पश्चात् कुछ लोग उसको भालेसे छेदकर जानस मार डालते हैं। ये लोग पहलेसे उसकी इस प्रकार मारनेकी शपथ लेते हैं।
पाश्चात्य देश यद्यपि मांसाहारी हैं किन्तु उन पर अधिक बोझा लादना, उनको पेट से कम वहाँ प्रयोग शालाओंको छोड़कर अन्यत्र पशुओं चारा देना, निर्दयतापूर्वक पीटना और पैर बांधकर को यंत्रणा पहुंचाकर नहीं माग जाता । वहाँ लेजाना आदि कार्य पाश्चात्य देशोंमें कानून पशुओंके ऊपर निर्दयतापूर्ण व्यवहार करने के विरुद्ध घोषित करदिये गये हैं। सन १८६० में विरुद्ध कानून बने हुए हैं, जिनका उल्लंघन करने माननीय मिस्टर इचिनमनने भारतीय कोसिलमें पर जुर्माने से लेकर जेल तकका दंड दिया जाता भी 'पशु निर्दयता निवारक' बिल उपस्थित किया है। पशुओंको गाड़ी में जीत कर अधिक चलाना. था। यद्यपि इस ऐक्ट के अनुमार पशुओंके माथ
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किये जाने वाले अनेक निर्दयतापूर्ण कार्योंको अवैध करार देदिया गया था, किन्तु धर्मके नामपर कीजानेवाली निर्दयताका इसमें भी अन्तर्भाव नहीं किया गया। इस बातको प्रत्येक व्यक्ति समझ सकता है कि मारने पीटने अधिक बोझा लादने आदिमें पशुओं को इतना दुःख नहीं होता, जितना बांध- जूड़कर भालोंसे छेदने ऊपरसे व भाले पर डालने, गुदा मार्ग में लकड़ी डालकर मुँह में से
रक क़ानून' में कुछ और संशोधन किये हैं, किन्तु धर्म के नाम पर की जाने वाली निर्दयताको उसमें भी अवैध नहीं किया गया, यह खेदका विषय है ।
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निकालने, श्रान्तोंको खींचने और अण्डकोषोंको कुचलने आदिमें होता है । परंतु खेद है कि क़ानून निर्माताओंने इन कार्योंको निर्दयतापूर्ण मानते हुए भी धर्म में हस्ताक्षेप करनेके भयसे नहीं रोका !!
हाँ इस विषय में ब्रिटिश भारतकी अपेक्षा देशीराज्योंने कुछ अधिक कार्य किया है निज़ाम हैदराबादने जून १६३८ से अपने राज्यमें गऊ और
सितम्बर १९३८ में भारतीय व्यवस्थापिका सभा (Legislative Assembly) ने अपने शिमला - सेशन (Soession) में 'पशु निर्दयता निवा
दक्षिणी कट जिले के विरुधचलम् ताल्लुक के मदुवेत्तिमंगलम् नामक
स्थान में सूरके छोटे छोटे जीवित बच्चोको भालेसे बींधकर और उसे विधे
रूपमें ही भालोंपर उठाए
हुए आम सड़कों पर जलूम बनाकर चलते हैं
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ऊँटकी क़ुरबानी करना कानून द्वारा बन्द कर दिया है। मैसूर, ट्रावनकोर तथा उत्तरी भारतके अनेक राज्योंने भी अपने यहाँ बलि विरोधी कुछ क़ानून बनाए हैं ।
पाठकों से यह छिपा नहीं है कि लोकमतक प्रबल विरोधके कारण ही भारत सरकारने सती
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अहिंसा धर्म और धार्मिक निर्दयता प्रथाको बन्द किया है, बालविवाहोंमें कुछ रुकावट लोकमत प्रबलताको देखकर धर्ममें भी हस्ताक्षेप डाली है, लाहौर में बूचड़खाना बनाने के विचारका करती है । अतः हमको भारतके कोने कोनेमें परित्याग किया है और बंगाल सरकारने अभी- अान्दोलन करके धर्मके नामपर पशुओंपर किये अभी एक क़ानून बनाकर प्रांतको फूका प्रथाको जाने वाले इन घोर अत्याचारोंको एकदम बंद बन्द किया है।
करा देना चाहिये । इस समय महात्मा गांधी तथा इन उदाहरणोंसे यह स्पष्ट है कि सरकार पंडित जवाहरलाल नेहरू तक पशुबलिको जंगली
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उयनपल्ली जैसे स्थानों में जीवित पशुकी बली देते समय उस की गर्दनको थोड़ासा काट लिया जाता है फिर उस टपकत हुए रक्तको कटोरसे देवीके सामने पियाजाताहै। बेचारा पशु महावदना भोगता हुआ तड़प २ कर प्राण दे देता
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प्रथा बनला कर उसका विरोध कर रहे हैं। और विरोधमें उठे हुए हैं। अतः यह अवसर आन्दीभी कुछ सजन प्राणोंकी बाजी लगाकर पशुबलिके लनके लिये बहुत अनुकूल है।
-* **:* इस लेग्वके लिग्वनमें मद्रासकी साउथ इण्डियन धर्मनिटेरियन लीगकी ओरसे हालमें प्रकाशित (I tarian Outlook) नामक पुस्तकका पूरा उपयोग किया गया है-चित्रभी उसी परमे लिये गये हैं। इसके लिये हम उक्त लीगका हृदयसे आभार मानते हैं और साथ ही उसके संचालकों तथा कार्यकर्तामोका खुला धन्य वाद करते हैं, जो मानव समाजक कलंकरूप मे निदय एवं कर बनिविधान की रोकके लिये प्रयत्नशील हैं।
---लेम्वक
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सम्पादकी
१ प्रास्ताविक निवेदन
वीरनिर्वाण संवत् २४५७ के प्रारम्भ होते उठाना पड़ा था । इस घटेको प्रदर्शित और
उसकी पूर्ति के लिये अपील करते हुये मैंने उस समय लिखा था
ही कार्तिक सुदिमें, 'अनेकान्त' के प्रथम वर्षकी १२ वीं किरणको प्रकाशित करते हुए, अगले वर्षकी जो सूचना निकाली गई थी उसमें समन्तभद्राश्रमका स्थान परिवर्तन, नया डिक्लेरेशन, नया प्रेस - प्रबन्ध और पोस्ट ऑफिसकी नई रजिस्टरी आदि कुछ कारणोंके वश दूसरे वर्ष की प्रथम किरणको विशेषाङ्क रूपसे चैत्र में निका लनेकी सूचनाकी गई थी। उस समय किसीको स्वप्रमें भी यह ख़याल नहीं था कि उक्त १२ वीं किरण और इस प्रथम किरणके मध्यमें पूरा आठ वर्षका अन्तराल होगा और मुझे इतने लम्बे समय तक अपने पाठकों की सेवासे वंचित रहना पड़ेगाश्रीकेबली भगवान् ही जानते होंगे कि इस किरण के उदयमें उस समय ठीक आठ वर्षका श्रबाधाकाल पड़ा हुआ है। यही वजह है जो इस बीचमें किये गये प्रयत्न सफल नहीं हो सके और यदि एक महान सुवर्ण अवसर प्राप्त भी हुआ तो, उस समय मैं स्वयं पत्रका सम्पादनभार उठानेके लिये तय्यार न हो सका ।
पाठकों को मालूम है कि 'अनेकान्त' को उस के प्रथम वर्ष में (००) रु० के क़रीबका घाटा
7075
* देखो प्रथम वर्षकी किरण १२, पृ० ६६८-६९
ARDWARE
घाटा उठान
"यह घाटा बजटके भीतर ही रहा, इतनी तो सन्तोषकी बात है । और यह भी ठीक है कि समाजके प्रायः सभी पत्र घाटेस चल रहे हैं और उनकी स्थिति आदिको दृष्टिसे यह घाटा कुछ अधिक नहीं है । ऐसे पत्रोंको तो शुरूशुरू में और भी अधिक पड़ता है; क्योंकि समाजमें ऐसे ऊँचे गंम्भीर तथा ठोस साहित्यको पढ़नेवालों की संख्या बहुत कम होती है - जैनसमाजमें तो वह और भी कम है । ऐसे पाठक तो वास्तव में पैदा किये जाते हैं और वे तभी पैदा हो सकते हैं जब इस प्रकार - के साहित्यका जनतामें अनेक युक्तियोंसे अधिकाधिक प्रचार किया जाय - प्रचारकार्य में बड़ी शक्ति है, वह लोकरुचिको बदल देता है । परन्तु वह प्रचारकार्य तभी बन सकता है जब कि कुछ उदार महानुभाव ऐसे कार्य की पीठ पर हों और उसकी सहायतामें उनका ख़ास हाथ हो। जितने हिन्दीपत्र आज उन्नत दीख पड़ते हैं, उनकी उन्नतिके इतिहासमें यही रहम्य संनिहित है कि उन्होंने
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वर्ष २ किरण १]
सम्पादकीय शुरू शुरूमें खूब घाटे उठाएँ हैं, परन्तु उन्हें उन निकाला जाय। परन्तु दोनों में से एक भी बात घाटोंको पूरा करने वाले मिलते रहे हैं और इस- न हो सकी ! इस विषयमें लिखा पढ़ी आदिका लिये वे उत्साहके साथ बराबर आगे बढ़ते रहे हैं। जितना परिश्रम किया गया उसका तात्कालिक उदाहरणके लिये 'त्यागभूमि' को लीजिये, जिसे कोई विशेष फल न निकला । हाँ कलकत्तेके प्रसिद्ध शुरू-शुरूमें आठ-आठ नौ-नौ हजारके करीब तक व्यापारी, एवं प्रतिष्ठित सज्जन बाबू छोटेलालजी प्रतिवर्ष घाटा उठाना पड़ा है, परन्तु उसके सिर के हृदयमें उसने स्थान जाकर बनाया, उन्होंने कुछ पर बिड़लाजी तथा जमनालालजी बजाज जैसे महायता भी भेजी और वे अच्छी सहायताके ममयानुकूल उत्तम दानी महानुभावोंका हाथ है, लिये व्यापारादिकी अनुकूल परिस्थितिका अवसर जो उसके घाटोंको पूरा करते रहते हैं, इसलिये देखने लगे। वह बराबर उन्नति करती जाती है तथा अपने जनवरी मन १६३४ में 'जयधवलाका प्रका माहित्यक प्रचारद्वारा लोकचिको बदल कर नित्य शन' नामका मेरा एक लेख प्रकट हुआ, जिसे नये पाठक उत्पन्न करती रहती है और वह दिन पढ़कर उक्त बाबू साहब बहुत ही प्रभावित हुए, अब दूर नहीं है जब उसके घाटेका शब्द भी सुनाई उन्होंने 'अनेकान्त' को पुनः प्रकाशित कराकर मेरे नहीं पड़ेगा किन्तु लाभ ही लाभ रहेगा। 'अने- पासका सब धन ले लेनेकी इच्छा व्यक्त की और कान्त' को अभी तक ऐसे किसी सहायक महानु- पत्रद्वारा अपने हृद्गत भावकी सूचना देते हुए भावका सहयोग प्राप्त नहीं है। यदि किमी उदार लिखा कि, व्यापारकी अनुकूल परिस्थिति न होते महानुभावने इसकी उपयोगिता और महत्ताको हए भी मैं अनेकान्तके तीन सालके घाटेके लिये ममझकर किसी ममय इमको अपनाया और इस ममय ३६००) म० एक मुश्त श्रापको भेट इसके सिरपर अपना हाथ रक्ग्वा तो यह भी करनेके लिये प्रोत्साहित हैं, आप उसे अब शीघ्र व्यवस्थित रूपसे अपना प्रचारकार्य कर सकेगा ही निकालें । उत्तरमें मैंने लिख दिया कि मैं इस
और अपनेको अधिकाधिक लोकप्रिय बनाता हश्रा ममय वीरसंवामन्दिर निर्माण कार्य में लगा घाटेस सदाके लिय मुक्त होजायगा। जैनसमाज हा है-जग भी अवकाश नहीं है-बिल्डिंगकी का यदि अच्छा होना है तो जरूर किसी-न-किसी समाप्ति और उमका उद्घाटन मुहूर्त हो जानेके महानुभावक हृदयम इसकी ठास महायताका भाव बाद अनकान्त' को निकालने का यत्न बन सकेगा, उदित होगा, ऐसा मेरा अंतःकरण कहता है। आप अपना वचन धरोहर रकम् । चनाँच वीरदेवता हैं इस घाटको पूरा करनेक लिय कौन-कौन मंबामन्दिरके उदघाटनके बाद सितम्बर मन उदार महाशय अपना हाथ बढ़ाते है और मुझ १९३६ में, 'जैनलनगावली' के कार्यको हाथमें उत्साहित करते हैं। यदि ६ मजन सौ-सौ रुपये लेते हए जो सचना निकाली गई थी उममें यह भी भी देखें तो यह घाटा सहज ही में पूरा हो
मृचिन कर दिया गया था कि-"अनेकान्तको भी मकता है।"
निकालनका विचार चल रहा है । यदि वह मेरी इस अपील एवं सामयिक निवेदन पर धरोहर मुरक्षित हुई और वीरमवामन्दिरको प्रायः कोई ध्यान नहीं दिया गया सौ-मौ रुपये ममाजके कुछ विद्वानोंका यथेष्ट महयोग प्राप्त हो की सहायता देनेवाले सजन भी आगे नहीं मका ना, आश्चर्य नहीं कि 'अनेकान्न' के पुनः प्रका श्राए । मैं चाहता था कि या तो यह घाटा पूरा कर शनकी योजना शीघ्र ही प्रकट कर दी जाय ।" दिया जाय और या आग को कोई सजन घाटा परन्तु वह धरोहर सुक्षित नहीं रही। बाबू उठानक लिये तय्यार हो जायें तभी अनेकान्त' माहब धर्मकार्यक लिये मंकल्पकी हुई अपनी उम
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अनेकान्त
रकमको अधिक समय तक अपने पास नहीं रख सके और इसलिये उन्होंने उसे दूसरे धर्मकार्य मं दे डाला। बाद को यह स्थिर हुआ कि चूंकि 'जैन लक्षणावली' और 'धवलादिश्रुत- परिचय' जैसे ग्रन्थों के कार्यको हाथ में लिया जारहा है, इसलिये 'अनेकान्त' के प्रकाशनको कुछ समय के लिये और स्थगित रक्खा जाय । तदनुसार २८ जून सन १६३७ को प्रकट होनेवाली 'वीरसेवा मन्दिर - विज्ञप्ति में भी इस बात की सूचना निकाल दी गई थी ।
सालभर में जनलक्षणावली आदिके कामपर कुछ कावृ पानेके बाद मैं चाहता था कि गत वीरशासनजयन्ती' के अवसरपर 'अनेकान्त'को पुनः प्रकाशित कर दिया जावे और उसका पहला अंक 'वीरशामनाक' के नाममं विशेषाङ्क रहे, जिससे वीरसेवामंदिरमें होने वाले अनुसन्धान (रिसर्च) तथा साहित्यनिर्माण जैसे महत्वपूर्ण कार्योंका जनताको परिचय मिलता रहे परन्तु योग न भिड़ा ! इमतरह 'अनेकान्त' को फिरसे निकालनेका विचार मेरा उसी समय से चल रहा है- मैं उससे जगभी ग़ाफिल नहीं हुआ हैं ।
"
हर्षका विषय है कि उक्त वीरशासनजयन्तीके शुभअवसरपर ही श्रीमान लाला तनमुखरायजी (मैनेजिंग डायरेक्टर तिलक बीमा कम्पनी) देहलीका, भाई अयोध्याप्रसादजी गोयलीय महित, उत्सवके प्रधानकी हैसियतसे वीरसेवामन्दिर में पधारना हुआ | आपने वीरसेवामन्दिरके कार्योंको देखकर 'अनेकान्तके' पुनः प्रकाशनकी आवश्यक्ताको महसूस किया, और गोयलीयजीको तो उसका बन्द रहना पहले से हो खटक रहा था वे उसके प्रकाशक थे और उनकी देशहितार्थ जेलयात्राके बाद ही वह बन्द हुआ था । अतः दोनोंका अनु रोध हुआ कि 'अनेकान्त' को अब शीघ्रही निकाना चाहिये । लालाजीने घांटेके भारको अपने ऊपर लेकर मुझे आर्थिक चिंतासे मुक्त रहनेका वचन दिया और भी कितना ही आश्वासन दिया
[ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं० २४६५
साथ ही, उदारतापूर्वक यह भी कहा कि यदि पत्रको लाभ रहेगा तो उस सबका मालिक वीरसेवामन्दिर होगा । और गोयलीयजीने पूर्ववन प्रकाशक के भारको अपने ऊपर लेकर मेरी प्रकाशन तथा व्यवस्था संबन्धी चिन्ताओं का मार्ग साफ करदिया । ऐसी हालत में दीपमालिकासे - नये वीरनिर्वाण संवतके प्रारम्भ होते ही अनेकान्तको फिरसे निकालनेका विचार सुनिश्चित होगया । उसीके फलस्वरूप यह पहली किरण पाठकोंके सामने उपस्थित है और इस तरह मुझे अपने पाठकोंकी पुनः सेवाका अवसर प्राप्त हुआ है । प्रसन्नताकी बात है कि यह किरण आठ वर्ष पहलेकी सूचना अनुसार विशेषाङ्कके रूपमें हो निकाली जा रही है । इसका सारा श्रेय उक्त लालाजी तथा गायलीयजीको प्राप्त है - खासकर अनेकान्तके पुनः प्रकाशनका सहरा तो लालाजीके सरपर ही बँधना चाहिये, जिन्होंने उस अलाको हटाकर मुझे इस पत्रकी गति देनेके लिये प्रोत्साहित किया, जो अबतक इसके मार्ग में बाधक बनी हुई थी।
इसप्रकार जब अनेकान्तके पुनः प्रकाशनका सेहरा ला० तनसुखरायजीके सिरपर बँधन! था, तब इससे पहले उसका प्रकाशन कैसे हो सकता था ? ऐसा विचारकर हमें संतोष धारण करना चाहिये और वर्तमानके साथ वर्तते हुए rasi पाठकों तथा दूसरे सहयोगियों को पत्रके साथ सहयोग - विषयमें अपना अपना कर्तव्य समझ लेना चाहिये तथा उसके पालनमें दृढ़संकल्प होकर मेरा उत्साह बढ़ाना चाहिये ।
यह ठीक है कि आठ वर्षके भीतर मेरा अनुभव कुछ बढ़ा जरूर है और इससे मैं पाठकों को पहले से भी कहीं अधिक अच्छी २ बातें दे सकूंगा; परन्तु साथही यहभी सत्य है कि मेरी शारीरिक शक्ति पहलेसे अधिक जीर्ण होगई है, और इसलिये मुझे सहयोगकी अब अधिक श्रावश्यक्ता है। सुलेखकों और सच्चे सहायकोंका
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वर्ष २ किरण १]
सम्पादकीय
१०३ यथेष्ट सहयोग मुझे मिलना चाहिये और उन्हें रूप देनेका विचार है उसके लिये अपरिमित शक्ति 'अनेकान्त'को एक आदर्श पत्र बनानेका ध्येय हो अधिक अपेक्षित है। अतः समाजको लालाअपने सामने रखना चाहिये । एक अच्छे योग्य जीके आर्थिक आश्वासनकं कारण अपने कर्तव्यक्लर्ककी भी मुझे कितनेही दिनसे ज़रूरत है, यदि से विमुख न होना चाहिये; प्रत्युत, अपने सहयोगउसको संप्राप्ति होजाय तो मेरी कितनी ही शक्तियों द्वारा लालाजी को उनके कर्तव्यपालनमें बराबर को संरक्षण मिले और फिर बहुतसा कार्य सहज प्रोत्साहित करते रहना चाहिये। ही में निकाला जा सकता है। मेरे सामने जैनलक्षरणावली, धवलादिश्रुतपरिचय और ऐतिहासिक अन्तमें मैं अपने पाठकोंसे इतना और भी जैनव्यक्तिकोप-जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथोंके निर्माणका निवेदन करदेना चाहता हूँ कि इस पत्रकी नीति भी दरकाढर काम मामने पड़ा हुआ है, समाज बदस्तूर अपने नामानुकूल वही 'अनकान्त नीति' मग शक्तिको जितना ही सुरक्षित रग्वगा- है जिस 'जैनी नीति' भी कहते हैं, जिसका उल्लेख उमका अनावश्क व्यय नहीं होने देगा-उतना ही प्रथम वर्षकी पहली किरणके पृष्ट ५६, ५७ पर वह मुझसे अधिक संवाकार्य ले सकंगा। मेरा तो किया गया था और जो स्वरूपसे ही मौम्य, उदार, अत्र मर्वस्व ही समाजके लिये अर्पण है
शान्तिप्रिय, विरोधका मथन करने वाली, लोक ___यहाँपर किमीको यह न मममलना चाहिये व्यवहारको सम्यक् वर्तावने वाली. वस्तुतत्वकी कि जब ला० तनमुखरायजी न साग आर्थिक प्रकाशक, लोकहिनकी माधक, एवं सिद्धिकी दाना भार अपने ऊपर ले लिया है तब चिन्ताकी कौन है: और इसलिये जिममें सर्वथा एकान्तता, निर बात है ! अर्थाधारपर तो अच्छे से अच्छे योग्य पक्ष-नय वादना, अमत्यता, अनुदारता अथवा क्लक की योजनाकी जासकती है और चाहे जैसे किसी सम्प्रदाय-विशप अनुचिन पक्षपातक लिये मुलग्यकोंस लग्य प्राप्त किये जासकते हैं। परन्तु कोई स्थान नहीं है । इस नीतिका अनुसरण करके एमा समझना ठीक नहीं है। ला० तनमुखगयजी लोकहितकी दापमं लिख गये प्रायः उन मभी की शक्ति परिभित है और वे श्रापनी उस शक्तिकं लग्बोंको इस पत्रमें स्थान दिया जामकेगा, जो अनुसार ही आर्थिक सहयोग प्रदान कर सकते हैं। यक्तिपरम्मर हो, शिप तथा मौम्य भापाम लिग्व परन्तु समाजकी शक्ति अपरिमित हैं और अने- गये हो. व्यक्तिगत आनेपाम दर हो और जिनका कान्त' को जिम रूपमें ऊंचा उठाने तथा व्यापक. लन्य किमी धर्म विशेषकी तौहीन करना न हो।
२ लुप्तप्राय जैन-ग्रंथांकी खोज अनेकान्त' के प्रथम वर्षकी पहली किरणमें का कुछ विशेष परिचय भी दिया गया था। यपि लुप्रप्राय जैनग्रन्थोंकी खोजके लिये एक विज्ञप्ति समाजने उन ग्रन्थोंकी खाजक लिय काई विशेष (नं. ३) निकाली गई थी, जिसमें गस ग्रन्थों- ध्यान नहीं दिया, फिर भी यह स्वशांकी बात है कि के नामादि दिये गये थे और उनकी खोजकी उम आन्दोलनकं फलम्बम्प तीन ग्रन्थांका पता प्ररणा की गई थी। वादका उन ग्रन्थांका खाजक चलगया है, जिसमें एक ना न्यायविनश्चय मृल, लिये बृहत्पारितोषिककी योजना करक एक दृमरी दुमरा प्रमाणसंग्रह, बापज्ञ भाग्यमहित (ये दोनों विज्ञप्ति (नं०४) चोथी किग्गामं प्रकट की गई थी ग्रन्थ प्रककलंकदेयके हैं) और नीमग वगनग्नि । और उसमें उन ग्रन्धाक उल्लेखवाक्यादि-विषय- वगरग्निका पता प्रोफमर ० एन० उपाध्याय.
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१०४
अनेकान्त
[कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५
जीने कोल्हापुरके लक्ष्मीसेन-मठसे लगाया है, जहाँ और इसतरह अपने कर्तव्य पालनमें लापर्वाहीसे वह ताड़पत्रों पर लिखा हुआ है। साथ हो, यह काम लिया। इसके बाद मैंने उस त्रुटिसूचीको भी खोज की है कि वह वास्तव में रविषेणाचार्यका न्यायाचार्य पं० मणिचन्द्रजीको दिखलाया और बनाया हुश्रा नहीं है-जिनसेनकृत हरिवंश- कई बार सहारनपुर जाकर आराकी टीका-प्रतिपरसे पुराणके उल्लंख परसे विद्वानोंको उसे रविषेणा जाँच कराई । जाँचसे न्यायाचार्यजीने उस त्रुटिचार्यका समझनेमें भूल हुई है किन्तु जटाचार्य सूचीको ठीक पाया और उसपर यह नोट दिया:अथवा जटासिंहनन्दि आचार्यका बनाया हुआ है,
___ "श्रीपंडित जुगलकिशारजी साहिबने भारी जिन्हें धवलकविने अपने हरिवंशपुराणमें 'जटिल
परिश्रम करके इस 'न्यायविनिश्चय' के उद्धारका मुनि' लिखा है । यह ग्रन्थ प्रोफेसरसाहबके उद्योगसे-उन्हींके द्वारा सम्पादित होकर-माणिक
संशोधन किया है। यदि इतने परिश्रमके साथ यह
त्रुटि-सूची तय्यार न कीजाती तो उदधृत प्रति चन्द्र ग्रन्थमालामें छप भी गया है और अब
बहुत कुछ अशुद्ध और अधूरी ही नहीं किन्तु जल्दी ही प्रकाशित होने वाला है।
अतिरिक्त और असम्बद्ध भी रहती। टि-सूची स्वीप भाष्यसहित प्रमाणसंग्रह ग्रन्थ पाटन (गुजरात) के श्वेताम्बर भण्डारसं मिला है और
स्वबुद्धानुसार ठीक पाई गयी।" उसकी सम्प्राप्तिका मुख्यश्रेय मुनि पुण्यविजय तथा
(ता० १०-११-१६३१) पं० सुखलालजी को है। यह ग्रन्थ सिंधी जैन इसके बाद मैंने मूलग्रंथकी एक अच्छी साफ ग्रन्थमालामें छप गया है और जल्दी ही प्रकट कापी अपने हाथसे लिखी और विचार था कि उसे होने वाला है।
फुटनोटोंसे अलंकृत करके छपवाऊँगा । परन्तु न्यायविनिश्चय मुलकी टीकापरसे उदधत पं० सुखलालजीने उसे जल्दी ही प्रमाणसंग्रहके करनेका सबसे पहला प्रयत्न शोलापुरके पं० साथ निकालना चाहा और मेरी वह कापी मुझसे जिनदासपार्श्वनाथजी फडकुलेने किया । उन्होंने मंगाली । चुनाचे यह ग्रंथ भी अब प्रमाणसंग्रहके उसकी वह कापी मेरे पास भेजी। जाँचनेपर मुझे साथ सिंधीजैनग्रंथमालामें छप गया है और भूमिवह बहुतकुछ त्रुटिपूर्ण जान पड़ी। उसमें मूलके कादिसे सुसज्जित होकर प्रगट होने वाला है। कितने ही श्लोकों तथा श्लोकार्बोको छोड़ दिया था मेरे उठाए हुए इस आन्दोलनमें जिन सज्जनों
और कितने ही ऐसे श्लोकों तथा श्लोकार्बोको मूल ने भाग लिया है और इन तीन बहुमूल्य ग्रंथोंके में शामिल कर लिया था, जो मूलके न होकर उद्धारकार्य में परिश्रम किया है उन सबका मैं टीकासे सम्बन्ध रखते थे और भी कितनी ही हृदयसे आभारी हूँ। आशा है दूसरे ग्रंथोंकी खोजअशुद्धियाँ थीं। मैंने उन त्रुटियोंकी एक बृहत सूची का भी प्रयत्न किया जायगा। अभी तो और भी तय्यारकी और उसे पं० जिनदासजीके पास कितने ही ग्रंथ लुप्त, हैं कुछका परिचय इस किरण फिरसे जाँचने आदिके लिये भेजा; परन्तु उन्होंने में अन्यत्र दिया है और शेषका अगली किरणमें जाँचनेका वह परिश्रम करना स्वीकार नहीं किया दिया जायगा ।
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गौरवगाथा
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चाणक्य और उसका धर्म
| लेग्वक-मुनि श्रीन्यायविजयजी ।
n.
विर्यमाम्राज्य के संस्थापक, उद्धारक तथा नन्दवंशके राजाओंके अत्याचार और धनपिपामा
न भारतीय साम्राज्यको विस्तृत एवं व्यापक प्रजाकी रक्षा तथा उस अत्याचारी नृपवंश का रूप देनेवाले मन्त्रीश्वर ntures true a times milne witues otures niml" : नाश करनेका श्रेयभी आप चाणक्यक नाम शायदही इस लेखके लेखक मुनि श्री न्यायवि जय जी कोही था। कोई भारतीय विद्वान अप
श्वेताम्बर जैनसमाजके एक प्रसिह लेखक हैं। आप बहुधा गुजराती भाषा में और गुजराती पत्रों
मंत्रीश्वर चागाक्यने मौर्यरिचित होगा । चाणक्य में लिखा करते हैं। शोध-खोन से आपको अच्छा साम्राज्य की स्थापनामें कितना महान्
कार्य कियाथा, इस सम्बन्धी 'मौर्यप्रेम है और आपकी रुचि ऐतिहासिक अनुसन्धान प्रग्वर विद्वान, महामुत्मही,
है की भोर विशेष रहती है। यह लब आपकी उमीमाम्राज्यके इतिहास' नामक अपनी गजकुशल और अद्वितीय
झनिया एक नमूना है । इसमें चाणक्य के धर्म- पुस्तक (५० ८१) में गाकुलकाँगड़ी सनाधिपतिथे । मौर्यसाम्रा- विषयकी . नई बान मनिहासिक विद्वानोंक तिहासका प्रोफेसर श्री. सत्यकेतु ज्य की स्थापनाक बाद, बड़े : winार के सामने विचार के लिये प्रस्तुत कीगई है और विद्यालंकार नी लिम्बने है ......"भव
उसके लिये कितनी की सामग्री का संकलन किया चन्द्रगुप्तका समय भाता है, इस बड़े गजा-महाराजांका युद्ध गया है । मम्राट चन्द्रगुप्त के बहुत ही कुशाग्रवद्धि वाग्ने भाकर सारे भारतमें एक में पछाड़कर, मौर्यमम्राटके
नाणक्य मे प्रधान मन्त्री के धर्म तथा अन्तिम माम्राज्यकी स्थापना की । पहले
जीवन के विषय में वर्तमानक ऐतिहासिक सिकन्दर द्वारा अधीन किए गए आधीन बनानकी कुशलता
विद्वानों ने अब तक कोई खाम प्रकास नहीं डाला, प्रदेशको स्वाधीन किया । फिर श्रापमं ही थी। उस ममय के यह नि:सन्देह ही आश्चर्य का विषय है ! आशा मगधविम्न्नराज्य को अपने भाधीन
है अब उनका मौन भंग होगा और वे गम्भीर करके मारे भारतको राजनीतिकदृष्टि विदेशी आक्रमणकार सि
गवेषणा-द्वारा मत्य का पता लगा कर उसके प्रकट में भी एक किया । चन्द्रगुप्तने सब कन्दर, सेल्युकम, युडीमोर करने में संकोच नहीं करेंगे। --सम्पादक । विविध गष्टों को नष्ट कर एक साम्राज्य आदि शत्रुओंक हमलोंसे maturmer DIHIMSHIMSHI स्थापित किया। चन्द्रगुप्त मौय्येही
भारतका पहला ऐतिहासिक मम्राट है । इस बड़े भारी काममै मौर्यमाम्राज्य और समस्त भारतकी रक्षाका मुख्य उसकी सहायता करनेवाला भाचार्य चाणक्यथा । वास्तवमै सब श्रेय आपको तथा आपके सैनिकों को प्राप्त था। कुछ करनेवाला चाणक्यही था" ।
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अनेकान्त
[वर्ष २, किरण १
अब यहाँ विचारणीय विषय यह है कि इतनी चाणक्य ब्राह्मण इन नवनन्दोंका नाश करेगा। सामर्थ्य रखनेवाले महामन्त्रीश्वर किम धर्मके नन्दोंके नष्ट होजानेपर मौर्य्यनांग पृथ्वी पर पामक एवं अनुयायी थे ? इनके जीवन के विषय शामन करेंगे। कौटिल्यही उत्पन्न चन्द्रगुप्तको में अनेक भारतीय और पाश्चात्य विद्वानोंने बहुत राज्यगद्दी पर बिठावेगा"। कुछ लिखाहै-जैन, बौद्ध और वैदिकधर्मके मुद्रा राक्षम नाटकके टीकाकार ढूंढीराज अनुयायियांनेभी लिखा है। किन्तु एक को छोड़ चाणक्यका परिचय देते हुए लिखते हैं "xxx कर अन्य सब धर्मावलम्बियोंने चाणक्यकं धर्मके इम ब्राह्मणका नाम विष्णुगुप्तथा। यह दण्डविषयमें मौनही धारण किया है। हाँ, सम्राट् नीतिका बड़ा पंडित और मब विद्याओं में चन्द्रगुप्त जैनथे, इस विषय पर बहुत कुछ प्रकाश पारंगत था । नीतिशास्त्र का तो यह आचार्य डाला जाचुका है और अनेक विद्वानोंने मुक्तकण्ठसे ही था।" खाकार भी किया है कि मौर्यसम्राट चन्द्रगुप्त जैन- कथासरित्सागरमें चाणक्यक विषयमें धर्मानुयायी थे। लेकिन सम्राट चन्द्रगुप्तको जैनधर्म लिग्वा है कि xxx "चाणक्यने निमन्त्रण के उपासक बनानेवाले कौन थे, इसके विषय में जैन- स्वीकार किया और मुख्य होता बनकर श्राद्धमें ग्रंथो के अतिरिक्त प्राचीन और अर्वाचीन प्रायः बैठ गया। एक और ब्राह्मण सुबंधु नामक था। सभी ग्रन्थकागेन मौनका ही अवलम्बन लिया है। वह चाहताथा कि मैं श्राद्धगं मुख्य होता बनें। जैनप्रन्थोंमें मन्त्रीश्वर चाणक्य के धर्मका उल्लेख
शकटार ने जाकर मामला नन्द के सामने पेश ही नहीं किया गया, अपितु उनक सम्पूर्ण जीवन किया। नन्दने कहा सुबन्धु मुख्य होता बने । पर अच्छा प्रकाश डाला गया है । आवश्यक- दुमरा योग्य नहीं है । भयसे काँपता हुआ शकटार नियुक्ति और पयन्नासंग्रह जैसे प्राचीन ग्रन्थों
चाणक्य के पास गया । सब बात कहसुनाई । यह तक में मंत्रीश्वर चाणक्य के जैन होने का प्रमाण
सुननाथा कि चाणक्य क्रोधस जल उठा और मिलताहै।
शिखा खोलकर प्रतिज्ञा की-अब इम नन्द का प्रथमही आजैन माहित्यकारोंने चाणक्य के सात दिनकं अन्दरही नाश करके छोडूंगा और विषयमें जो कुछ लिया है उसका संक्षेपमें परि- तभी मरी यह खुली शिम्बा बँधेगी। " ( मौर्य चय देकर, मैं जैनसाहित्यमें पायाहुआ मंत्रीश्वर मा० इ० पृ. ९६ ) का जीवन-चरित्र उद्धृत करूँगा। पुराणाम प्रायः
प्रसिद्ध बौद्धग्रन्थ महावंश में लिखा है किइतनाही मिलताहै कि 'नवनन्दोंका चाणक्य
"चणक्क (चाणक्य) नामक ब्राह्मणन इस धनब्राह्मण नाश करेगा और वही मौर्यचन्द्रगुप्रको
नन्दका प्रचण्ड क्रोधावेशसे विनाश किया और राज्य देगा"
मारियों के वंशागत चन्दगुत्त ( चन्द्रगुप्त ) को विष्णुपुराण में लिखा है कि "उसके अनन्तर सकल जम्बुद्वीपका राजा बनाया"। और इस
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कार्तिक, वीर निर्वाण सं० २४६४ ] चाणक्य और उसका धर्म
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प्रन्थके टीकाकारने चाणक्य परिचय इस प्रकार साहूहि भणियं-रायाभविस्मह, ततो मादुग्गदिया है-- "यह उचित है कि इम स्थान पर हम इन ति जाहितीति दंता घसिया पुणोवि आयरि दो व्यक्तियों के विषयों में लिखें। यदि मुझसे याया कहिय. भणंति कज्जउ एत्ताहे विवतरिया पूछा जाय कि यह चगणक कहाँ रहताथा और यह
राया भविस्सह अम्मुक बालभावेण चोद्दसवि, किमका पुत्रथा ? तो मैं उत्तर दूंगा कि वह तक्ष. शिलाक ही निवासी एक ब्राह्मणका पुत्रथा। वह
विज्जाठाणाणि आगमियाणि सोत्थ सावगो तीन वदों का ज्ञाता, शास्त्रां गं पारंगत, मंत्र विद्या संतुहा" में निपुण और नीति शास्त्र का प्राचार्यथा"। भावर्थ-गोल्ल दशमं चणिक नामका गाँव
सुज्ञ वाचक ! इन प्रमाणों से ममझ गए होंगे था। उसमें चणित नामको ब्राह्मण रहनाथा। कि चाणक्य जाति का ब्राह्मण थो, वेदशास्त्र, वह श्रावकोंके गुण से सम्पन्नथा। उसके घर नीति-शास्त्र और राज्य-शास्त्र का महान् आचार्य पर जैन श्रमण ठहरे हुएथे। उसके घरमें दाढ़ था और सम्राट चन्द्रगुप्त बौद्धग्रन्थ की मान्य- सहित एक पुत्र की उत्पत्ति हुई। उस लड़के को तानुसार सारे जम्बुद्वीपका राजा बना, यह भी गुरुकं चरणोंमें नमस्कार कराया और गुरुजी को उसी चाणक्य का प्रताप था।
कहा कि यह बालक जन्मस दाढ़ सहित उत्पन्न क्यों अब जैनग्रन्थकारोंन मंत्रीश्वर चाणक्यको जो हुआहै। साधुओने प्रत्युत्तर दियाकि यह बालक जैन मानाहै उसके कुछ प्रमाण उद्धृत करते हैं:- राजा होगा' । यह सुन कर पिनाने सोचा कि
(१) आवश्यक सूत्रकी नियुक्तिमं चाणक्य गजा बनने दुर्गनिम जायेगा, यह दुर्गनिम न की परिणामिकी बुद्धि के विषयग दृष्टान्नम्प नाम जाय, एमा सोचकर पिनाने उम पुत्रक दादी आताहै । यथा
को घिम डाला और फिर प्राचार्य निवेदन "खमए १० अमच्चपुत्ते ११ चाणकके १२ किया । प्राचार्यने उत्तर दिया कि अब यह
बालक राज्यका अधिकारी ना नहीं रहा, लेकिन चेव थूलभद्देच" आवश्यक. भा. ३१० ५२७
राज्यका संचालक अवश्य बनगा। अनुक्रम से
बाल्यावस्था व्यतीत होनेके बाद वह १४ विद्या (२) आवश्यक सूत्रकी चूणिम उक्त गाथाका
का पारगामी हुा । और संतुष्ट चित्त वाला खुलासा करनंहुए लिखादै :
श्रावक बना । ( अावश्यक मूत्र, मलयागिरि टीका "चाणकति, गाल्लविमए, चणयग्गामा, महिन, भाग ३, दे० ला० पु० तरफ में प्रकाशित ) तत्थचणि तो माहणा, सो अवगयमावगा,
इमी सूत्रमें आगे चागाक्यकी बुद्धिका, तस्य घर साहठिया, पुत्ता से जाता सह नन्दगज्यक नाशका और चन्द्रगुप्तका राजा दाढाहि, साहूण पाएसु पाडितो, कहियं च, बनानेका विस्तार से विवचन किया है। लेकिन
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अनेकान्त
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विस्तार के भय से मैं यहाँ उसका उल्लेख नहीं की सुबन्धुने उपलोंके ढेरमें आग लगाकर जला करूँगा। ऐमाही उल्लेख तथा विवेचन नन्दिसूत्र दिया। जलता हुआ चाणक्य (समभाव होने से)
और उसकी टीकामं और उत्तराध्यन सूत्रकी उत्तमार्थको प्राप्त हुआ। टीका भी पाया जाताहै । सुज्ञ वाचक वहाँम (४) मरणसमाहि ग्रंथग पृ० १२९ पर लिखा देख सकते हैं। (३) पयण्णासंग्रहके अन्तर्गत 'संथारापयण्णा'
गब्बर पाओ वगो सुबुद्धिना णिऽघिणेण चाणको । में, जो कि जैनधर्मक महान उपासकोंकी ममाधि दड्ढोणय संचलिमो साहुधिई चितणिज्जाउ ॥४७८॥ पूर्वक मृत्युक उल्लेखोंको लिये हुए है, तीन गाथाएँ अर्थात-चाणक्य उपलोंके ढेर पर प्रायोप निम्न प्रकारसं पाई जाती हैं, जिनसे मंत्रीश्वर गमन संन्यास ( अनशन ) लेकर बैठा हुआथा चाणक्यका परमहितीपासक जैन होना स्पष्ट है-- उम निर्दयी सुबुद्धि (सुबन्धु ) ने आग लगाकर पाटलिपुत्तम पुरे, चाणको णाम विस्सुओ आसी।
___ जला दिया । जलता हुआभी चाणक्य अपने व्रतसे सम्बारंभणिअत्तो, इगिठीमरणं अह णिवणणो ॥७॥
चलायमान न हुआ। उसने समभाव नहीं छोड़ा। भणुलोमपूभणाए, अह से सत्तू जमो डहर देह । सो तहवी डज्झमाणो, पडिवण्णो उत्तम अटुं ॥७४।। ऐसी धीरता जीवन में उतारनी चाहिये । गुट्ठयपाभोवगओ, सुबंधुणा गोबरे पलिवियम्मि ।
(५) तेरहवीं शताब्दी के महाविद्वान और डभतो चागको, पडिवण्णो उत्तम अटुं ॥५॥
प्रसिद्ध इतिहासकगर श्रीहेमचन्दाचार्यजी अपने इनमें बतलाया है कि :-पाटलीपुत्र नगरमें
'परिशिष्टपर्व' के आठवें सर्गमें चाणक्यका परिचाणक्य नामका प्रसिद्ध (विश्रुत) विद्वान (मंत्री)
चय इस प्रकार देते हैं:हुआ। जिसनेमब मावद्यकर्मका त्याग करके जैनधर्म
__ "इधर गोल्लदेश में एक चणक' नामका गाँव सम्मत इङ्गिणी मरण का साधन किया। अनुकूल
था, उस गाँव ग चणी नामका एक ब्राह्मण रहता पूजा पहान सं उसके शत्रु ( सुबन्धु ) ने उसका
था और चणेश्वरी नामकी उसकी पत्नी थी, चणी शरीर जलाया । शरीरके जलते हुएभी चाणक्यनं उत्तमार्थका-अपने अभिमत समाधिमरणको-.
और चणेश्वरी दोनों ही जन्मसे श्रावक (जैनी) थे।
- एक समय जबकि अतिशय ज्ञानवान् जैन मुनि प्राप्त किया। (समभाव होनेस) गांबाडामं प्रायोप
उनके घर पर आकर ठहरे हुएथे, 'चणेश्वरी' गमन संन्यास (अनशन) लेकर बैठे हुए चाणक्य
ने एक दांतों-सहित पुत्रको जन्म दिया । उस * गाथा नं०७३ को मौजूदगोमें इस गाथा की स्थिति कुछ बालक को लेकर चणी साधु याक पास आया संदिग्ध जान पड़ती है; क्योकि इसमें उत्तमार्थ प्राप्तिको उसी और उस बालकम साधुओं को नमस्कार कराकर पातको व्यर्थ दोहराया गया है। हो सकता है कि न. ७४ की
उसके दन्त-सहित पैदा होनका हाल कह सुनाया। गाथा प्रक्षिप्तहो। यह गाथा दिगम्बरीय प्राचीन ग्रन्थ 'भगवती
ज्ञानी मुनि बोले-भविष्य में यह लड़का राजा भाराधना' में 'गट्ठय' की जगह 'गो?' पाठभेदके साथ ज्यों की स्यों पाई जाती है।
-सम्पादक होगा । राज्य जनित प्रारम्भसं मेरा पुत्र
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कार्तिक, वीर निर्वाण सं० २४६५]
चाणक्य और उसका धर्म
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नरक का अतिथि न बने, इस विचारको लेकर दुष्कालकी वजह से वहाँ पर जब साधुओं को चणीने पीड़ा का खयाल न करते हुए लड़के के भिक्षा दुर्लभ होने लगी-निर्वाह न होसका-तब दाँतों को रगड़ दिया और यह समाचार भी उसने आचार्य महागजने अपने शिष्य समुदायको वहाँ साधुओंको कह सुनाया। इस पर वे बोले-दाँतों से सुभिक्ष वाले देशमें भेज दिया और आप वहीं के रगड़ देनेस अब यह बानाक चिम्पान्तरित पर रहे । उनमें से दो क्षुल्लक साधु गुरुभक्तिवशात गाजा होगा। अर्थात् दुसरेको राज्यगद्दी पर बैठा वापिस लौट आये और गुरु संवाग रहते रहे। कर राज्य-ऋद्धि भागेगा । चणी ने उस बालकका इनको भी जब भिक्षा दुर्लभ हो गई और गुरुभक्ति नाम 'चाणक्य' ग्कावा । चाणक्य' भी विद्या में बाधा पड़ने लगी, तब ये दिव्यांजनके प्रयोग समुद्रका पारगामी श्रावक हुआ और वह श्रमणो- द्वारा अदृश्य करकं सम्राट चन्द्रगुप्तकी भोजन पामक हानके कारण बड़ा मन्तोषी था । एक थाली से आहार लेाते थे और गुरु-भक्ति करते कुलीन ब्रह्मगग की कन्याक साथ उमका विवाह थे। इमप्रकार कुछ दिन व्यतीत होगए । एक हुआ था" *
दिन चाणक्यने चन्द्रगुप्तको दुबला देखकर सोचा चाणक्यने नंदवंशका नाश क्या किया ? कि क्या कारण है जिससे चन्द्रगुप्त दुबला होता कैम किया ? किन पायांस चन्द्रगुप्तको राजा जाता है । माथही यह भी सोचा इनकी थाली में बनाकर मगधकं माम्राज्यको विस्तृत बनाया ? में रोज आहारका लोप होजाता है, उसका भी और किन-किन तरीकांस माम्राज्यका शासन
क्या कारगा है ? अन्तको उन्होंने अपनी तरकीब सूत्र संचालित किया ? इन सब बातोंका भी में जान लिया कि यहाँ दी शुल्लक जैन साधु माते अच्छा वर्णन श्री हेमचन्द्राचार्यन अपने उक्त परि- हैं. और वे थाना में से भोजन ले जान है । उस शिष्ट पर्व में किया है। उमी ममय बारह वष का मगय जैनधर्मक, प्रनि भक्ति हानक कारण एक बड़ा भाग अकाल भी पड़ा था। अकालम चाणक्य उनका बचाव करते हुए चन्द्रगुप्त में प्रजाको हीखानके लिए अच्छा नाह नहीं मिलता. कहतह:तब माधुओं की भी भिक्षाम कठिनताका हान। स्वा- "हो. ये ना आप के पितृगगा है। आपके भाविक है। इस प्रसंगका वर्णन करते हुए मूरि. ऊपर इनकी यही कृपा है, जो ये ऋषिवंश धारगण जी महाराज लिम्बते हैं:
कर आपकं पाम पाते हैं, ऐमा कह चाणक्यने उन __ "इधर जब वह बारह वर्षका दुभिक्ष पड़ने माधुओं को वहां से विदा किया।" लगा तब सम्थित नामक एक आचार्य अपने शिष्य याद में चाणक्य प्राचार्य महाराज पाम परिवार के माथ चन्द्रगुप्रक नगग्ग रहने थे। प्राकर उन क्षुल्लक माधुओंके अन्यायको प्रगट
• मूल श्लोक इस लेखक परिशिष्टमे १ दिये हैं। वहीं करना हुश्रा प्राचार्यको उपालम्भ देने लगा। मष देखो इलोकन १९४ मे २०१तक।
वाना सुनकर प्राचार्य महाराज ने प्रत्युत्तर दिया:
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अनेकान्त
"इन बेचारे छुल्लकका क्या दोष है ? जब तुम्हारे जैसे श्री संघके अग्रणी भी स्वोदर पोषक हो गए । आचार्य महाराजके इन वचनोंका सुनकर चाणक्य अत्यन्त नम्रता पूर्वक हाथ जोड़कर सविनय निवेदन किया "भगवान ! आपने मुझ प्रमादोकी भले प्रकार शिक्षादी है। आज से जिस किसी भी साधुको अशन-पानादिकी आवश्यकता हा मेरे घर आएँ और आहार ग्रहण करें" । इस प्रकार का अभिग्रह करके तथा आचार्य महाराज की भक्ति पूर्वक नमस्कार करके 'चाणक्य' अपने गृह-वास में चले गए।"
इस प्रसंग परसे पाठक भली भाँति समझ जायेंगे कि चाणक्यकी जैनधर्मके प्रति कितना भक्ति प्रेम, एवं श्रद्धा थी । चाणक्य ने राजा को भी जैनधर्मका उपासक एवं श्रद्धालु जैन श्रावक बनाने में भरसक प्रयत्न कियाथा। उसी समयक विद्यमान अनेक दर्शनों के प्राचार्यों तथा साधुओं से चन्द्रगुप्तको परिचय कराया था। चन्द्रगुप्तन अन्य धर्मावलंबी साधुओं को अपने दरबार में निमंत्रण भी दिया था । चाणक्यने उन साधुश्र की असच्चरित्रता दिखाकर राजाको कहा, अब आप जैन श्रमण निर्मन्थोंक दर्शन करें। चाणक्यके
मह से राजाने जैन मुनियोंको निमंत्रण दिया । जैन साधु अपने आचार के मुताबिक इर्षा समिति की संशोधन करते हुए शान्तमुद्रासे आकर अपने आसनों पर बैठ गये । राजा और मंत्रीने आकर देखा कि मुनिमहाराज अपने आसनों पर शांति
[ वर्ष २, किरण १
से बैठे हुए हैं। उसी समय साधुओं की प्रशंसा करते हुए कहा कि - "जैन महात्मा बड़े जितेंद्रिय और अपने समयको व्यर्थ नष्ट नहीं करने वाले होते हैं" जैन साधुओंन राजाकी प्रतिबोध देकर, - धर्मतत्व सुनाकर और खामकर साधुधर्म पर प्रकाश डालते हुए समिति शांधते हुए अपने
स्थान पर चले आए। तब चन्द्रगुप्तको चाणक्य ने कहा " देख बेटा ! धर्म-गुरु ऐसे होते हैं । इन महात्माओंका आना और जाना किस प्रकारका होता है ? और जब तक अपन लोग वहां पर नहीं आए तब तक किस प्रकार उन्होंने अपने समयको निकाला ? ये महात्मा अपने आसनको छोड़कर कहीं भी इधर उधर नहीं भटकते । क्योंकि
य
| महात्मा यहाँ पर इधर उधर फिरते ती, अवश्यमेव इस चिकनी और कोमल गिट्टीमें इनकी पदपंक्ति + भी प्रतिविम्बित होजाती । इसप्रकार जैन महात्माओं की सुशीलता और जितेन्द्रियता देखकर चन्द्रगुप्तका जैन साधुओं पर श्रद्धा होई और दूसरे पाखण्डी साधुओं से विरक्ति होगई जैसे योगियोंकी विषयांसे होती है ।"
* दुष्काल भोर साधुओं के इस वर्णनके मूल श्लोक लेखके 'परिशिष्टमें दिये है; वहाँ देखो, श्लोक नं० ३७७ से ४१३ तक ।
आचार्य श्री हेमचन्द्रजीने मंत्रीश्वर चाणक्य की जैनधर्मका परम उपासक लिखा है । और
+ भजैन साधुओंकी परीक्षाभी उसी तरहसे कीगई थी । भजैन साधु जब तक राजा नहीं भाए थे तब तक इधर उधर
घूमते रहे थे और ठेठ अन्तःपुर तक देखने लगे थे। जब कि जैन साधुओं की परीक्षा के लिए सूक्ष्म चिकनी मिट्टी बिछाई गई थी लेकिन जैन साधु तो इधर उधर भटके बिना अपने स्थान पर बैठे रहे और जब राजा और मंत्री आए तब धर्म-तश्व सुनाकर
अपने स्थान पर गए।
* मूत श्लोकोंके लिये देखो, लेखका 'परिशिष्ट' श्लोक ४३० से ४३५ तक ।
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कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५ ] चाणक्य और उसका धर्म
पाठकोंने ऊपर पदभी लियाहै कि चाणक्यने चिन्तासे भी क्या काम ? अब तो समाधि मरण चन्द्रगुप्तका भी जैन बनाया था। आगे चन्द्रगुप्तके से अपना परलोक सुधारूँगा" पुत्र बिन्दुसारको भी चाणक्यने उनके पिताके ।
इसके बाद चाणक्य मंत्रीश्वरने मृत्युकी समान जैनधर्मका उपामक बनायाथा। मंत्रीश्वर ।
तैयारीकी । और जैनधर्मके नियमानुमार सब चाणक्य जैन था, किन्तु सामान्य जैन नहीं,
जीवोंके साथमें क्षमायाचना करके, खानपीनादि दृढ़ताके साथ पक्का जैनधर्मका उपासक था
सब छोड़ करके, माधु जैसी त्याग दशा स्वीकार परम पाहतांपासक एवं परम श्रमणोपासक था।
करके तथा जीवन से भी निस्पृह बनकर अनशन इसका प्रबल प्रमाण उनको मृत्युको घटनासे
स्वीकार किया। प्रत्यक्ष मिलता है।
परिशिष्ठ पर्वमें आचार्य श्री हेमचन्द्र जी इस सम्राट् चन्द्रगुप्तको मृत्युके बाद उनका पुत्र विषयमें लिखते हैं कि-"चाणक्यने दीन-दुःम्वी बिन्दुमार भारतका सम्राट् बना। चाणक्य उनका
अर्थी जनाको दान देना शुरू कर दिया। जितना भी मंत्री हुआ, और जैस मम्राट चन्द्रगुप्त चाणक्य
नकद माल था उस सबको दान करके चाणक्यने की बुद्धि अनुमार गज्य-कार्य संचालन करतेथे
नगरकं बाहर समीपगं ही सूखे प्रारनों के ढेर पर और धर्मका पालन करतथे वैसे ही बिन्दुमार भी
बैठकर कर्मनिर्जग लिये चतुर्विधि श्राहारका चाणक्यकी श्राज्ञा का पालन करता था। किन्तु
त्याग कर अनशन धारण कर लिया। बिन्दुमार नीति शास्त्रका यह वाक्य ठीक है। "गजा मित्रं न
को जब अपनी धायमातास अपनी मानाको मृत्यु कम्यचित" कुछ ममय बाद ऐमा बना कि सुबन्धु
का यथार्थ पना मिला तब वह पश्चाताप करता नामका एक दुमग मंत्रा, जिसे चाणक्यने ही
हुआ वहाँ पाया जहाँ पर 'चाणक्य' ध्यानारूढ़ इस महत्वपूर्ण स्थानपर बैठायाथा, चाणक्य की
था। उसने चाणक्यसं माफी मांगते हुए कहा :हटानक लिए षड्यन्त्र रचने लगा। भाला राजा इसमें फंस गया और अपने पिता तुल्य मंत्रीश्वर
"मेरी भूल पर आप कुछ ख्याल न करके मेरे चाणक्य के प्रति उसका बहम होगया, और उसने गज्यकी मारमंभाल पूर्ववत ही करो । मैं आपकी उनकी श्रवज्ञा का भाव प्रदर्शित किया । महानीनि प्राज्ञाका पालन करूंगा"। चाणक्य बोलाविशारद चाणक्यको भाग मामला ममझने देर "गजन ! इस वक्त ना मैं अपने शरीर पर भी न लगी। प्राविरमें उन्होंने मानाकि -"मैंन ही निस्पृह है अब मुझे आपसे क्या और आपके तो इम दुष्टको इम इस पद पर प्रारूद किया और गज्यस क्या "? जैसे समुद्र अपनी मर्यादामं दृढ़ उसने मेरे उस उपकारका यह बदला दिया ? रहता है वैसही चाणक्यका उमकी प्रनिझाम खैर, इसके कुलकं उचित यही बदला युक्त था। निश्चल देखकर 'बिन्दुमार' निगश होकर अपने अब थोड़े दिनकी जिन्दगी रही है, मुझ राज्य- घर चला आया "
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मंत्रीश्वर चाणक्य अनशन लेकर ध्यानगं बैठे करके देव-गनिको प्राप्त किया ?" हुए हैं, जीवनके अन्तिम क्षण व्यतीत हो रहे हैं। यह प्रसंग बहुतही करुण है। जिसका क्रोध उस समय भी दुष्ट सुबन्धु अपनी दुष्टता नहीं माम्राज्यको नष्ट करने में भी नहीं हिचकताथा । वही छोड़ता है । उमने सोचा कि राजा मंत्राश्वर पुरुष जैनधर्म के प्रनापमं कितना शान्त, कितना चाणक्यक पाम होकर आए है, और मेरे सारे गम्भीर, कितना सहनशील और कितना क्षमावान षड्यन्त्रका भंडाफोड़ होचुका है, अब गजा मुझे एवं उदार बना, इसका यह एक आदर्श नमूना है। दंड देंगे। अतः वह रामके पास आया और जिमने शत्रु-सैन्यके सामने युद्धस्थल पर भयङ्कर अपने षड्यन्त्रकी क्षमा-याचना करने लगा तथा रण-गर्जना की थी और जिसकी गर्जनाको सुन कहने लगा कि मैं अब उन मंत्रीजीस भी जाकर कर विदेशी आक्रमणकारियोंके सर चक्कर खाने क्षमा याचना करता हूँ। इसके बाद वह चाणक्य लगने थे, वही पुरुष मृत्युक समय कितना शान्त के पास जाकर मायाचार पूर्वक अपने अपराधों एवं गम्भीर होता है, शत्रुओं के प्रति कितनी की क्षमा-याचना करने लगा । ऐमा करते हुए उदारता तथा महानुभूनिका परिचय देना है और उमे विचार पाया कि कहीं यह नगरको वापिस न कितने प्रानन्दसे अपने आपको काल के गाल में चला श्रावे, और इम कुविकल्पमें पड़कर उमन डाल देना है ! यह दृश्य सचमुच ही श्रानुपम और उनकी विधिपूर्वक पूजाके लिये गजाम अनुमनि अभूतपूर्व है । "मृत्युरपि महोत्सवायन" इमीका मांगी जो मिनगई। इ के बाद श्री हेमचन्द्राचार्य नाम है । जैन ग्रन्थों के अतिरिक्त किमी अन्य सुबन्धुको दुष्टनाका निम्न प्रकारसे वर्णन करते ग्रन्थकाग्ने मोर्यमाम्राज्यके महान निर्माता मन्त्रीहैं-राजाकी आज्ञा पाकर सुबन्धुने चाणक्यकी श्वर चाणक्यको मृत्युकं समयका किश्चितभी ठीक पूजाका बड़ा ही सुन्दर मालूम देने वाला ढोंग वृत्तान्त नहीं दिया है । मालूम होता है इसमें रचा और उस तरह पूजोपचार करते हुए उमने जरूर कुछ न कुछ रहस्य छुपा हुआ है। चुपकेसे सूखे धूपाग्निकी एक चिंगारी उस आरनों अनशन स्वीकार करकं स्वच्छासे और सहर्ष ( उपला ) के ढेर पर गिगदी, जिसपर चाणक्य मृत्यु प्राप्त करने। जैनधर्म बहु । महत्व मानता है। ध्यानारूढ़ थे। इसमें अग्ने ( उपलों) का वह ढेर मन्त्राश्वर चाणक्य सामान्य जैन नहीं, अपितु एक श्रानुकूल पयन की पाकर एकदम दहक उठा, और महान आहेतापासक एवं श्रमणांपासक थे। मृत्यु उमग चाणक्य काठकी तरह जलने लगे!! चाणक्य के समय वीतरागदवका ध्यान करना, अपने तो पहलेसे ही चतुविध आहार का त्यागकर अन- जीवन के किए हुए पागकी आलोचना करना, शन करके बैठे थे, अतएव उन्होंने निष्पकंप होकर शत्रुओंके प्रति भी ममानभाव तथा क्षमाभाव उस दहकती हुई ज्वालामें अपने प्राणों की समपण रग्वना, मन-वचन-कायसं शुद्ध बनकर संसारसे
• चाणक्यक मनशनादि मृत्यु पर्यन्त वर्णनके मूल इलोकों के लिये देखो. लेखका परिशिष्ट' श्लोक न. ४५७ से ४६९ ।
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कार्तिक, वीर निर्वाण सं० २४६४] चाणक्य और उसका धर्म
निस्पृहता प्राप्त करना सांसारिक सभी कार्योंका त्याग करना एवं अशनपानादि त्याग करके समभावपूर्वक मृत्युकी गादगे सोना इसीका नाम है, अनशन पूर्वक समाधिमरण इसमें क्रोधका, दीनता का, अनाथताका भाव नहीं होता। ऐसा महान् वीर मरण संप्राप्त करके मंत्रीश्वरने सद्गतिका मार्ग पकड़ा है। जैन-दर्शनने इसका नाम “पंडित मरण" रक्खा है। धन्य है ऐसे वीर पुरुषों की जिन्होंने अपना जीवन भारतमाताकी सेवामें लगाया, • पापियों का नाशकर धर्मका राज्य चलाया और अन्त में श्री जिनेन्द्रदेवकी शरण स्वीकार कर आत्म-कल्याण किया ।
दिगम्बर प्रन्थकाराने भी मन्त्रीश्वर चाणक्य के विषय में खूब ही लिखा है। भगवती आराधना पुण्याश्रव कथाकोष और आराधना कथाकीप इनका उल्लेख मिलता है ।
(६) भगवती आराधना में, जोकि बहुत प्राचीन ग्रन्थ है, एक गाथा निम्नप्रकारसे पाई जाती है
"गोट्ठे पान वगदी सुबंधुणा गोब्बरे पलियदम्भि | डज्मन्तो चाणको पडिवगणां उत्तमं श्रम् || १५५६ ।।
इसमें यह स्पष्ट उल्लेख है कि- गोवाडाक स्थान पर चाणक्य प्रायोपगमन संन्यास लिए हुए बैठा था, सुबन्धुने उपलोंके ढेर में आग लगाकर उसे जलाया और वह जलता हुआ ( समभाव के कारण) उत्तमार्थका अपने अभिमतसमाधिमरणुकी प्राप्त हुआ। इस कथन के द्वारा सूत्ररूपसं चाणक्य के जैन विधिसे अनशन लेने आदिकी वह सब सूचना कीगई है जिसका ऊपर उल्लेख किया गया है ।
११३
(७) पुण्याश्रव कथाकोष में ( नन्दिमित्रकी कथा के अन्तर्गत ) नन्दराज द्वारा चाणक्य के वृत्तवर्णन करनेके अनन्तर लिखा है :
"अब चाणक्यको क्रोध आया और वह नगरसे निकलकर बाहर जाने लगा | मार्ग चाणक्यने चिल्लाकर कहा "जो कोई मेरे परम शत्रु राजा नन्दका राज्य लेना चाहता हो, वह मेरे पीछे पीछे चला आवे" । चाणक्यकं ऐसे वाक्य सुनकर एक चन्द्रगुप्त नामका क्षत्रिय, जांकि अत्यन्त निर्धन था यह विचार कर कि इसमें मेरा क्या बिगड़ता है ? चाणक्यके पीछे हालिया । चाणक्य चन्द्रगुप्त को लेकर नन्दके किसी प्रचल शत्रुसे जा मिला और किसी उपाय नन्दका सकुटुम्ब नाश करके उसने चन्द्रगुप्तको वहाँका राजा बनाया । चन्द्रगुमने बहुत कालतक राज्य करके अपने पुत्र विन्दुसारको राज्य दे, चाणक्य के साथ जिनदीक्षा ग्रहण की। (पृष्ठ १९५७)
(2) आराधना कथाकषिके तृतीय भाग, जांकि जैनगित्रके १७वं वर्ष के उपहाररूप प्रकट हुआ था, चाणक्य के विनाका नाम कपिल पुरोहित माताका नाम देविला दिया है और लिखा है कि उस समय पाटलीपुत्र के नन्दराज्यके तीन मन्त्री थे -कावि, सुबन्धु और शकटाल । शेष चाणक्य की जी कथा दी है उसका संक्षिप्रसार इम प्रकार है
"कावित्रीने एक समय शत्रु राजाकी राजा नन्दके कहने में धन देकर वापिस लौटा दिया था। पीछे से धन कमती होजानेसे राजाने कावि मन्त्रीको उनके कुटुम्ब 'सहित जेल में डाल दिया ।
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अनेकान्त
[वष २, किरण १
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काविको इससे बहुत गुम्सा आया। थोड़े समय तदा ते मुनयो धीरा, शुक्ल ध्यानेन संस्थिता।। बाद दूसरा शत्रुराजा युद्ध के लिए चढ़ा। इस समय
हत्वाकर्माणि नि:शेष, प्राप्त: सिविं जगद् हिताम् ॥४२॥ राजाको कावि मन्त्रीकी याद आई । राजाने मंत्री
(हिन्दी अनुवाद पृ० ४६-५३, मूलकथा पृ० ३१० ) को जेलसे बाहर निकाला और राज्यकी रक्षाके
यद्यपि इस कथामें भद्रबाहु और चन्द्रगुप्तका लिए कोई तरकीब निकालनको कहा। काविने
नाममा का उल्लेख नहीं है । तबभी चाणक्यका चरित्र तो अपने अपने बुद्धिबलसे शत्रु राजाको तो वापिस लौटा
को अच्छी तरह मिलता है। दिगम्बर प्रन्थकारों दिया, किन्तु प्रतिहिंसाकी भावनासे प्रेरित होकर
ने मंत्रीश्वर चाणक्यको सामान्य श्रावक नहीं, चाणक्यको राज्य के विरुद्ध उकसाया। चाणक्यने
सामान्य साधु नहीं, किन्तु महान आचार्य मानाहै। नन्द राजाको मार दिया और खुद राजा बन बैठा
इतना ही नहीं किन्तु, इस कलिकालमें-पश्चम युग बहुत वर्षों तक राज्य चलाकर संसार छोड़कर
में भी इनको अपने शिष्यों सहित मोक्षमें जाने दिगम्बर धर्मक महिधर आचार्यके पासमें दिगम्बर
नकका उल्लेख किया है । लेकिन अपनको इसमस दीक्षा स्वीकार की । चाणक्य मुनि बड़े भारी इतना ही फलितार्थ निकालना है कि मंत्रीश्वर
चाणक्य जैनधर्मी था। विद्वन और तेजस्वी थे। इमलिये थाड़े ही ममय ग उन्हें प्राचार्यपद मिल गया। चाणक्य मुनि अब जरा इतिहासकी तरफभी नजर डालिये। ५०० शिष्योंके साथम भूतल पर विचरने लगे। मंत्री चाणक्य सम्राट् विन्दुमारके समयमें भी
विद्यमानथे और सम्राट बिन्दुसारने उनकी ही नन्दराजा का दूसरा मन्त्री सुबन्धु था।
महायतासे राज्य विस्तृत कियाथा यह बात वर्तनन्दराजकी मृत्युके बाद सुबन्धु क्रौंचपुरके राजा
मान समयकं इतिहासज्ञोंको भी मान्य है। देखिये, का मंत्री बना । चाणक्य मुनि विहार करते करते
मौर्य साम्राज्य के इतिहासमं विद्वान् लेखक लिखते क्रौंचपुरमें आए। मंत्री सुबन्धुको चाणक्य मुनि
हैं कि " १६ वीं शताब्दिके प्रसिद्ध तिब्बती लेखक के प्रति द्वष प्रकट हुआ। नन्द राजाका बदला
तारानाथने लिखा है कि "बिन्दुमारने चाणक्यकी लेने के लिये मुनि संघके चारों तरफ घास डलवा
सहायनाम मोलह राज्यों पर विज्य प्राप्तकी'। कर (?) उनकी जिन्दा जलवाने के लिए प्राग
फिर भांग लिखा है कि " यह बात असंभव नहीं लगादी गई । चौतरफ आग जलने लगी मुनि संघ ध्यानमं रहा। चाणक्य मुनि भी शुक्ल ध्यान
___* कथा-कारका यह उल्लेव निरा भूलभरा जान पड़ता है।
दूसरे किसी भी मान्य दिगम्पर ग्रन्थसे इसका समर्थन नहीं होता। ध्याते-ज्याते कर्मों की क्षय कर मोक्षमें पहुँचे (?)
ऐसा मालूम होता है कि 'पडिवाणो उत्तम अटुं' जैसे वाक्यमें इस कथनके पिछले दो श्लोक इस प्रकार है- प्रयुक्त हुए. 'उत्तमार्थ' शब्दका भयं उसने मोक्ष समझ लिया है;
जबकि पुराने अपराजितरि जैसे टीकाकार उसका अर्थ रजत्रय' पापी सुबन्धु नामा च मंत्री मिथ्यात्वदूषितः ।
देते है और प्रसंगसे भी वह बोधि-समाधिका सूचक जान समीपे तन्मुनीन्द्र कारीवाग्नि कुधीर्ददौ ॥४॥ पड़ता है।
-सम्पादक।
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कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५ ] चाणक्य और उसका धर्म
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है कि चाणक्य सम्राट् बिन्दुमार के समय तक चाणक्यक कौटिल्य, चाणक्य और विष्णुगुप्त विद्यमानहो और मौर्य-माम्राज्यको सुदृढ़ करने ये तीन नाम तो प्रसिद्ध हैं, किन्तु आचार्य श्री का निरन्तर प्रयत्न करता रहा हो। वस्तुनः हेमचन्द्रजीनं अपने अभिधान चिन्तामगि नामक आचार्य चाणक्य भारतक इतिहासमें ही नहीं, सुप्रसिद्ध कोश ग्रन्थमं चाणक्यक माठ नाम दिए अपितु संमारके इतिहासमें एक अद्वितीय और हैं। यथाअपूर्व महापुरुष है। मौर्य-माम्राज्यके रूपमें वात्स्यायनो मलिनागः कुटिलश् चणकात्मजः । सम्पूण भारतको संगठिन करना तथा भारतको द्रामिल: पक्षिल स्वामी विष्णुगुप्तोऽङ गुलश्च सः | इतना शक्तिशाली बनाना प्राचार्य चाणक्यका ही अर्थात्-वात्स्यायन, मल्लिनाग, कुटिल(कौटिल्य), कार्य है"।
चाणक्य (पालीभाषामें 'चरणक' और प्राकृतमें
चाणक होता है) द्रामिल, पक्षिलस्वामी, विष्णुगुप्त ___ सुज्ञ वाचक ! ऊपरके वाक्योंसे समझ गए
और अंगुल, ये चाणक्य के नाम हैं। होंगे कि मंत्रीश्वर चाणक्यने ही भारतीय महा
___यद्यपि अजैन प्रन्थकागन मंत्रीश्वर चाणक्य माम्राज्यका मर्जन किया था। मत्रीश्वर चाणक्य ।
के विषयमें बहुत कुछ लिखा है, परन्तु इनके धर्मक जानिक ब्राह्मगा थे लेकिन धर्मसे दृढ जैनीथे। मझ ख्याल है कि पु. पा. प्राचार्य श्रीविजयेन्द्रसूरि
विषयमें किसीने इशाग तक भी नहीं किया ; जब
कि सभी जैन ग्रन्थकागने एक मत होकर मुक्तकंठ जी महाराजने 'प्राचीन भारतवर्षका सिंहावली
से स्वीकार किया है कि मंत्रीश्वर चाणक्य जैन कन' नामक अपना पुस्तक पृ० २६ में लिया है कि "ती चाणक्यने पण जैन गणावे छ पठा
थे। भारतीय ऐनिहासिक साहित्यगे जैन माहित्य
का बहुत बड़ा हिम्मा है। इस तरफ हम उपेक्षा शास्त्रकारी एम कह छे के चाणक्य जैन न हता"। अब मुझे विश्वाम है कि.पा. आचार्य महाराज
नहीं कर सकते । साहित्य व इनिहासप्रेमी विद्वानों मेरे दिए हुए उपयुक्त प्रमागास अपने विचागेम
को मेरा मादर निमत्रण है कि वे मंत्रीश्वर
चाणक्यक धर्मक विषयमें मैंने जो प्रमाण दिए हैं अवश्य परिवर्तन करंग। मंत्रीश्वर चाणक्य जैन
उनको ध्यानसे पढ़ें, विचारविनिमय तथा चर्चा थे, इमक विषयमं वताम्बर और दिगम्बरके
करें और सत्य बात को स्वीकार करें। यही मेरी प्राचीन-अर्वाचीन सभी साहित्यका एक मत।
शुभेच्छा है।
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अनेकान्त
[वर्ष २, किरण १
परिशिष्ट
(श्री हेमचन्द्राचार्य-विरचित परिशिष्ट पर्व के वे सर्ग के-चाणक्य-विषयक कुछ अंश )
"इतश्च गोल्ल विपये ग्रामे चणकनामनि । ब्राह्मणोऽभूञ्चणी नाम तद् भार्या च चणेश्वरी ॥१६४॥ बभूव जन्म प्रभृति श्रावकत्व चणश्चणी । ज्ञानिनो जैन मुनयः पर्यवात्सुश्च तद् गृहे ॥१६॥ अ.यदा तद्गतैर्दन्तश्चणेश्वयां सुनोजनि । जातं च तेभ्यः साधुभ्यस्तं नमोऽकारयच्चणी १६६।। तं जातदन्तं जातं च मुनिभ्योऽकथयच्चणी । ज्ञानिनो मुनयोऽप्याख्यन्भावी राजैप बालकः ॥१७॥ राज्यारम्भेण मत्पुत्रो मा भून्नरकमागिति । अघर्षयत्तस्य दन्तान्पीडामगणयश्चणी ॥१६॥ स मुनिभ्यस्तदप्याख्यन्मुनयोऽप्येवमूचिरे । भाव्येष बिम्बान्तरितो राजा रदनघर्षणात ॥१६॥ चणी चाणक्य इत्याख्यां ददो तस्याङ्ग जन्मनः । चाणक्योऽपिश्रावकोऽभूत्सर्व विद्याब्धि पारगः २००॥ श्रमणोपामकत्वेन स सन्तोषधनः सदा । कुलीन ब्राह्मणस्यै कामेव कन्यामुपायत ॥२०१।। इतश्तस्मिन्दुष्काले कराले द्वादशाब्दके । आचार्यः सुस्थितो नाम चन्द्रगुप्त पुरेऽवमत् ॥३७७।। अन्नदौःस्थ्येन निर्वाहाभावानि जगणं स तु । देशान्तराय व्यसृजत्तत्रैवास्थात्स्वयं पुनः ॥३७८॥ व्याघुट्यतुल्लको द्वौ तु तत्रैवाजग्मतुःपुनः । प्राचार्यैश्च किमाया ताविति पृष्टा वशमताम् ॥३७६।। वियोग गुरु पादानां न ह्यावां सो दुमीश्वहे । तद्वः पार्श्वे जीवितं वा मरणं वावयोः शुभम् ॥३८०॥
आचार्यः स्माह न कृतं युवाभ्यां साध्वमुत्रहि । अगाधे क्लेश जलधौ युवां मुग्धौ प्रतिष्यथः ३८१॥ इत्युक्त्वा तावनुज्ञातो गुरुणा तत्र तस्थतुः । भक्त्या शुश्रूषमाणो तं तत्पदाम्भोजपट पदौ ३८२॥ ततो दुर्भिक्ष माहात्म्यद्भिक्षयात्यल्प लब्धया । सारयित्वा गुरूणां तो भुञ्जानावत्यसीदताम् ३८३।। अदृश्यीभूय सम्भूय तो द्वो तत्रैव वामरे । भोजनावसरे चन्द्रगुप्तस्याभ्यर्णभीपतुः ॥३८७।। अदृश्यमानौ तौ तुल्लो चन्द्रगुप्तस्य भाजने । बुभुजाते यथाकाम बन्धू प्राण प्रियाचिवा ॥३८८ । एवं दिने दिने ताभ्यां भुजानाभ्यां महीपतिः । ऊनोदरत्वे नोदस्थात्तपस्वीव जितेन्द्रियः ॥३८६।। कृष्णपक्षतपाजापानिखितामः शनैः शनैः । चन्द्रगुप्तनरेन्द्रोऽभूताभ्यामाच्छिन्नभोजनः ॥३६०॥ इतिद्वितीय दिवसे चाणक्यो भोजनौकसि । भोजनावसरे धूममुचिभेद्यमकास्यत् ॥४०१॥ अनञ्जनदृशौ तौ तु भुञ्जानौ तत्र भाजने । दृष्टौ नरेन्द्र लोकेन कोपाभृकुटि कारिणा ॥४०४ ॥ पितिगवृषिरूपेण युवां हि परमेश्वरौ । कृत्वा प्रसाद मस्मासु स्वस्मै स्थानाय गच्छतम् ॥४०६॥
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कार्तिक, वीर निर्वाण सं० २४६५ ]
चाणक्य और उसका धर्म
११७
एवं च मोर्य सम्बोध्याचार्याणांवमेत्यत्व । चाणक्यौऽदादुपालम्भ क्षुल्लान्यायं प्रकाशयन् ।।४१०॥ प्रचार्यः स्माहको दोष क्षुल्लयो रनयोर्ननु । स्वकुत्तिम्भरयः सङ्घ-पुरुषायद्भवादृशाः ॥४११॥ चाणक्योऽपितमाचार्य मिथ्या दुष्कृत पूर्वकम् । वन्दित्वाभिदधे साधु शितितोऽस्मि प्रमद्वरः ४१२॥ प्रद्यप्रभृति यद्भक्त पानोपकरणादिकम् । साधूनामुपकुरुते तदादेयं मदोकसि ॥४१३॥
x
सज्जातप्रत्यये राज्ञि द्वितीयेऽहनि तद्गुरुः । धर्ममाख्यातुमाह्वास्त तत्र जैन मुनीनपि ॥४३०॥ निषेदुस्ते प्रथमतोऽप्यासनेष्वेव माधवः । स्वाध्यायावश्यके नाथ नृपागमम् पालयन् ॥४३१॥ ततश्च धर्ममाख्याय साधवी वसतिययुः । इर्याममितिलीन त्वात्पश्यन्तो भुवमेवते ॥४३२॥ गवाक्षविवराधस्ताल्लोप चूर्ण ममीक्ष्यतम् । चाणक्यश्चन्द्रगुप्ताय तद्यथायस्थमदर्शयत् ॥४३३॥ ऊचे च नेते मुनयः पापण्डिब दिहाययुः । तत्पाद प्रतिविम्बानि न दृश्यन्ते कुतोऽन्यथा ॥४३४॥ उत्पन्न प्रत्ययः माधून गुरून्मनेऽथ पर्थिवः । पापण्डिपु विरक्तोऽभूद्विपयेष्विव योगवित् ॥४३५॥
X
गेहान्तन्यस्य तां गेहसर्व स्वमिव पेटिकाम् । दीनानाथादि पात्रेभ्यश्चाणक्यो न्यददाद्धम् ॥४५७॥ ततश्च नगरा सत्र करीपस्थल मूर्धनि । निपद्यानशनं चक्रे चाणक्या निजरायतः ॥४५॥ यथा विपन्न जननी वृनान्तं धात्रिका मुग्वात् । विज्ञाय विन्दमारोऽनुशयानस्तत्र चाययो ॥४५६।। उवाच क्षमयित्वा च चाणक्यं चन्द्रगुप्तसुः । पुनर्वतय में राज्यं तबादेश कृः स्म्यहम् ॥४६०॥ मौर्याचार्योऽभ्यधादा जन्कृतं प्रार्थनयानया । शरीरेऽपि निरीहोऽस्मि माम्प्रतं किं त्वयामम् ४६१।। अचानन्तं प्रतिज्ञाया मयादाय इवाणवम् । चन्द्र गप्तगुरुं ज्ञात्वा बिन्दुमारों ययौ गृहम ॥४६२॥ चुकोप गत मात्रोऽपि बिन्दुमारः सुबन्धवे । सुबन्धुगपि शीतार्न यांचे कम्पमुद्वहन् ॥४६३॥ देव मम्यग विज्ञाय चाणक्या दूषिता भया । गन्या तं क्षमयाम्यद्य यावत्तायन्प्रसीदमे ॥४६४॥ इति गत्वासुबन्धुस्तं नमयामाम मायया । अचिन्तयच्च मा भूयोऽप्यमो ब्रजतु पत्तने ॥४६५।। अमुना कुवि कल्पेन म राजानं व्यजिज्ञपत । चाणक्यं पूजयिष्यामि तस्यापति कार्यहम् ॥४६६।। अनुज्ञातस्ततो गज्ञा सुबन्धुवाणं जन्मनः । पूजामनशनस्थस्य विधातुमुपचक्रम ॥ ४६७ ।। पूजां सुबन्धुरापातवन्धुगं विरचय्य च । धूपाङ्गारं करीपान्तश्चिक्षेपान्यैर लक्षितः ॥४६८।।
धूपाङ्गारेणानिस्फालिनेन प्रोद्यज्वाले द्राकरपिस्थले तु । दारुपायो दयमानोऽप्यकम्पो मोयांचार्योदेव्यभूतत्र मृत्वा ॥४६॥
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सेवा-धर्म | लेखक-श्री डा० भैयालाल जैन, पी-एच० डी०, साहित्यरत्न ]
था, वह उसे बलपूर्वक घसीटे लिए जाता था। मरला-पनिहीना, गृह-हीना, श्राश्रयहीना अपने भविष्य जीवन की सुखमयी कल्पना करनी सरला-संसारके कड़वे अनुभवोसे घबराकर, हुई, सरला आगे बढ़ती ही जा रही थी। एक उमगं मारका लश भी न देखकर, श्राज हिमालय चट्टानसे दूसरी चट्टान पर होती हुई, एक झाड़ीस की किमी निर्जन कंदाम, अपने जीवन के शेष निकलकर, दूमरीमें उलझनी हुई, वह जैसे-तैसे दिन बिताने की इच्छासं निकल पड़ी है। उसका एक सुरम्य स्थल पर पहुंच गई। अहा ! कैसा मन एकबारगी ही विरक्त होगया है। क्या यह मनोरम स्थान है ! कैमी पवित्र भूमि है ! प्रकृति संसार रहने के याग्य है ? क्या यहां की विकार- की कैमी अनुपम शोभा है ! संमारके ईर्षा-द्वेष युक्त दूषित वायु सांस लेने के उपयुक्त है ? यहाँका की लपटें, वहाँका अन्याय और पापाचार क्या दुर्गन्धमय घृणित जीवन क्या कोई जीवन है ? यहाँ प्रवेश कर सकता है ? कदापि नहीं। बस, इसमें कौनसी सार्थकता है ? छल, प्रपंच, धोका, यही स्थान मेरे अनुकूल है। बम्यवृक्षोंके मधुर स्वार्थ ; ऐसी सृष्टिकी रचना करकं, हे परमात्मा ! फलोंका स्वास्थ्यकर भोजन, सुविस्तृत झीलका तू कौनसी अक्षय कीर्ति कमाना चाहता है ? क्या निर्मल जल, सुकोमल तृणाच्छादित भूमि पर इसमें भी कुछ रहस्य है ?
शयन, नम्र प्रकृतिके पशु-पक्षियों का संग, इससे सरला चली । सुकुमार शरीर भागे नहीं अधिक मुझे और क्या चाहिए ? जीवनकी समस्त जाना चाहता था; पर उसमें जो बलिष्ट मास्मा मावश्यक वस्तुएँ यहाँ उपलब्ध हैं। सरलाने मन
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कार्तिक, वीर निवाण सं० २४६५]
सेवा-धर्म
११९
ही-मन ईश्वरको नमन किया । हे परमात्मन ! तूने उतरकर आई हुई जैसे कोई देव-कन्या हो । बहिन अपनी सृष्टिमें सब कुछ सिरजा है। मनुष्यकी सरला, तुम मुझे इम क्षण साक्षात देवी ही जान रुचिका ही दोष है। थोड़ा कष्ट सहन करनेस जब पड़ती हो । देवी, तुम्हारे तेजस्वी रूपका संमारके कि वह सुरक्षित और स्वर्गीय आनन्ददायक महल प्राणियों पर कितना गहरा और स्थायी प्रभाव पड़ में पहुँच सकता है, तब वह अन्धा बनकर खाईमें सकता है ? क्यों गिर पड़ता है ?
सरलाने मुस्कराते हुए कहा-और क्या
मोचते हो, भैया ? अचानक सग्ला चौंकी । मनके विचार मनही देवेन्द्र-और सोच रहा हूँ कि यदि तुम घर में लीन हो गये। जहाँ की नहाँ रुककर खड़ी हो लौट चलो तो कैसा अच्छा हो ! गई। घूमकर देखा। विस्मय बढ़ा। आगन्तुक सरलाने एकाएक गम्भीरभाव धारण करलिया। ज्यों-ज्यों पास आता गया, त्या त्या सरलाके नंत्र फिर उम ऊँचे टीले पर घूमकर चारों और
आश्चर्यसे अधिकाधिक विस्फरित होते गये। अगुली के संकेत दिखाया और बोली, कहाँ लोट पहिचान लेने पर, वह माहसा चिल्ला उठी--- भैया ! चलने को कहते हो, भैया ? दग्वने ही संमार में
विस्मय प्रानन्दम परिणत हागया। दुन गति क्या हो रहा है ? एक दुसरेको ग्वाय जाता है। में सरला झपटी । हाँपना हुई जाकर, भाईके कोई अपनको अपना नहीं समझता। स्वार्थान्ध कन्धेका महारा लेकर खड़ी होगई । दानांक मन- होकर लोग कैसे कैसे पापपूर्ण प्राचार कर रहे मार हर्षसे नृत्य करने लगे. मुग्व कमल खिल गये। है? स्वगक द्वार तक आकर फिर नरक-कण्डकी ___ मन्द-मन्द मुसकरानी हुई मरला बोली- ओर लौट चलूँ भैया ? क्या यह बुद्धिमानीका भैया !
काम होगा? देवन्द्र कुमारने विस्मिन दृष्टिम देखा । क्या यह दवेन्द्रकुमार श्रीजम्वी वाणी में बोले-बहिन, वही दुखिया मग्ला है ? कैमा अद्भुत प्राकस्मिक क्षमा करना, स्वार्थान्ध कौन है, उसे तुमने ठीकसे परिवतन है ? मुग्व पर की चिरस्थायी शांक-छाया नहीं पहिचाना। जो इन दीन-टुग्वियों को तुम विलीन होगई है। उसके स्थान पर विमल कान्ति, दिग्या रही हो, वे घार, अज्ञानान्धकारमें पड़े हुए अपूर्व शोभा और मृतिमान नेज विराज रहा है। हैं। अपने-पराय, भले-बुरे और म्वार्थ-परमार्थका कृशांग कैसे पुष्ट दीग्बने हैं!
ज्ञान उन्हें नहीं है। वे जो कुछ करने है, ममझसरला सुमधुर हास्यक माथ बाली-भैया ! बूझकर नहीं करते। उनकी बुद्धि लोप हो गई है। किन विचारोंमें तन्मय हो रहे हो?
माया-माहम फंसे हुए हैं। पर बहिन ! तुमता वैमी देवेन्द्र-मैं सोच रहा हूँ कि इस समय तुम्हाग नहीं हो । फिर उन आपत्तिमम्न दुग्घियोंकी अकेला रूप अचानक कैसा निखर गया है ! स्वर्ग में छोड़कर, किनारा क्यों काट रही हो ? अपना
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१२०
अनेकान्त
[वर्ष २, किरण १
जीवन मानन्दसे व्यतीत करनेके लिए --अपने ऊँचा उठाकर, गले, लगावें और उन्हें दुग्दुराते स्वार्थसाधनक हेतु-तुम इन निर्बलांकी-अनाथों रहने तथा उनसे घृणा करनेके कारण, समाजके की अवहेलना क्यों कर रही हो ? बाली, बहिन, माथे जो कलङ्कका टीका लग गया है, उसे सदाके उत्तर दी । इन बेचारे दीनोंकी सहायता न करके, लिए धा डालें। तुम अपनं एक अलग ही मार्ग पर जा रही हो। क्या यह स्वार्थपरता नहीं है ?
हिमालयमं लौटकर, देवेन्द्रकुमार और सरला सरलाका हृदय हिल उठा । नत्रांग अश्र छल- देवी दोनों सेवा-क्षेत्र में अवतीर्ण हो गये हैं । त्राहि छला आय। हाथ जोड़कर, उसने भाईके सम्मुख त्राहि करते हुए, प्राणियोंने अब शरण पाई। घटने टेक दिये। बोली-भैया, सचमुच ही मैं दुःखो जनों का जिम प्रकारकी सेवाकी आवश्यक्ता अत्यन्त म्वार्थी और पामर हूँ। मुझे सुमार्ग होती है, वह देवेन्द्र और मरलाके द्वारा तुरन्तकी दिखाओ।
जानी है। श्रानाथ बान कोक लिए, भोजन-वस्त्र देवेन्द्र कुमार भी अपने अश्रु-प्रवाहको न रोक तथा शिक्षा-दीक्षाका सुप्रबन्ध किया जाना है। सके। देर तक दोनों एक दूसरेके मुग्व की और छुआ-छूनका भून मदा के लिए, देशमं निकाल देखकर, रुदन करते रहे ! कैमा हृदय-द्रावक दृश्य बाहर कर दिया गया है। अब कोई अछून नहीं था ! शान्त होने पर देवेन्द्रवे मग्लाका हाथ पकड़ है। जो पहिले अछूत कहे जाते थे वे अब हरिजन कर उठाया और कहा, बहिन, मैं तुम्हें मुगार्ग क्या के नाम पुकार जाने हैं। अब उन्हें मवमाधारण दिखा सकता हूँ ? मैं भी मबके जैमा क्षुद्र और कुओं पर जल भग्नकी कोई रोक-टोक नहीं है। तुच्छ हूँ। तब चली, हम दोनों ही मिलकर, जगन मन्दिगंगं जाकर प्रसन्नताम देव-दर्शन करते हैं। के हितके लिए कुछ कर। हम लोगों के लिए मब अब वे बड़ी सफाईसे रहते हैं। मभा-सुमायटी कार्योंमें उत्तम एक संवा-मार्ग है । आश्री, उसी पर तथा प्रीनि-भोजाम मब लोगोंक माथ मम्मिलित दृढ़ रहकर. दीन-दुखियोंकी विपत्तिमें हाथ बटावें। होते हैं । विद्या पढ़ते हैं। ईति-भीति कोमों दूर अपने ही करोड़ों अछूत कहे जाने वाले भाइयोंको भाग गई । सर्वत्र सुराज हो गया।
अधिकार निरीह पक्षीको मारकर घातक.ने उसे नीचे गिरा दिया, दयालु-हृदय महात्मा बुद्धने दौड़कर उसे उठाया और वे अपने कामल हाथ उसके शरीर पर फेरने लगे । घातकने कहा, "तुमने मेरा शिकार क्यों ले लिया" ? बुद्धने कहा - "भाई, तुमे वनके एक निरीह पक्षीको बाण मारकर गिगनेका अधिकार है तो, क्या मुझे उसे उठाकर पुचकारनेका भी अधिकार नहीं है" १ (कल्याण)
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सुभाषितमणियाँ
चित्त होकर अनुभव कर - अर्थात् समचित्त होकर विचार करेगा, तो तुझे मालूम पड़ेगा कि शरीर में रहने वाला श्रात्माही शुद्ध निश्चय नयी दृष्टिसे देव है-आराध्य है । और इस तरह कोईभी देहधारी तिरस्कार के योग्य नहीं है।'
सिंगो चैव सदा कसाय सहकेहणं कुणदि भिक्खु । संता ह उदीरति कसाए अग्गीव कहाणि ॥ - शिवार्य ।
Plea
प्राकृत
रतो बंधदि कम्मं मुञ्चदि कम्मेहिं रागरहिदप्पा | एसो बंधसमासो जीवाणं जाण णिच्छ्रयदो ॥
- कुन्दकुन्दाचार्य | 'जो रागी है-- विपयादिक में आसक्त है - वह निश्चय से कर्मका बन्धन करता है, और जो राग रहित -अनासक्त चित्त है-वह कर्मोंके बन्धनसे छूटता है - उसे कर्मका बन्धन नहीं होता तथा पूर्व बँधे कर्मोंकी निर्जरा होजाती है। इस प्रकार जीवोंके बन्ध-मोक्षका यह संक्षेपमं रहस्य है ।'
व तव संजम सील जिय सब्ब जाव ण जाणइ इक्क परु सुद्धउ
भकयस्थु ।
भाउ पन्ति ॥
— योगीन्दु देव |
'व्रत, तप, संयम और शीलका अनुष्ठान उस वक्त तक निरर्थक है जब तक इस जीवको अपने परम पवित्र एक शुद्ध रूपका बांध नहीं होता है।' मूढा देवलि देउ वि णबि सिलि लिप्यह चित्ति । दो-देवक देउ जिणु, सां बुज्झहिं समचिति ॥ - योगीन्दुदेव । 'हे मृह देवालय में देव नहीं, पत्थर - शिला, लेप तथा चित्र में भी देव नहीं है। जिन देवतो देह-देवालय में रहते हैं, इस बातको तू सम
'परिग्रह - रहित माधुही सदा कपायोंके कृश करने में समर्थ होता है-परिग्रही नहीं; क्योंकि परिग्रह ही वास्तव में कपायोको उत्पन्न करने तथा बढ़ाने हैं, जैसे कि सूखी लकड़ियाँ अभिकी उत्पत्ति एवं वृद्धि में सहायक होती हैं।'
जो अहिलमेदि पुण्णं सकसाओ विसय सोकखनहाए । दूरे तस्स विसोही विसोहिमूलाणि पुष्णाणि ॥ - स्वामिकार्तिकेय |
-
'जो मनुष्य कपायवशवर्ती हुआ विषयसौम्य की तृष्णा से - अधिकाधिक विषय - मुख की प्राप्तिके लिये पुण्य कर्म करना चाहता है उसके विशुद्ध-चित्त की शुद्धि नहीं बनती और जब विशुद्धही नहीं बनती तब पुण्य कर्म कहाँ से बन सकता है ? क्योंकि पुण्य कर्मों का मूल ' कारण चित्त शुद्धि है । '
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१२२
अनकान्त
कातिक, वोर-निर्वाण मं० २४६५
संस्कृत
“विकारहेतौ सति विक्रियन्त येषां न चेतांसि त एवधीराः।" मामपश्यनयं लोको न मे शत्रुर्न च प्रियः ।
-कालिदास । मा प्रपश्यमयं लोको न मे शयन च प्रियः ॥ 'विकार का कारण उपस्थित होने पर, जिनके
-पूज्यपादाचार्य । चित्तों में विकार नहीं आता-जो राग, द्वप, 'यह अज्ञ जगन जी मुझे-मर शुद्ध म्वरुप मोह और शोकादिकं वशीभूत नहीं होते को-देखता जानता ही नहीं, मंरा शत्र नहीं है ही वास्तव में धीर-वीर हैं।
और न मित्र है-अपरिचित व्यक्ति के साथ विहाय कामान्यः सर्वान्युमांश्च रनि निःस्पृहः । शत्रुता-मित्रता बन नहीं मकती। और यह ज्ञानी निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति ॥ लोक जो मुझे-मग आत्मस्वरूप को-भले प्रकार
-भगवद्गीता। देखता-जानता है, मग शत्र नहीं है और न मित्र 'जो मनुष्य सर्व कामनाओं का परित्याग कर है-हो नहीं सकता क्योंकि आत्मा का दर्शन निःस्पृह-निरिच्छ होकर रहता है और अहंकार होने पर राग द्वेपादिका नाश होजाता है और ममकार जिसके पास नहीं फटकते, वही सुखराग द्वे पादिक अभाव में शत्रता-मित्रता बनती शान्तिको प्राप्त करता है-शेप सब अशान्तिकं नहीं । इस तरह न मैं किसीका शत्र-मित्र है ही शिकार बने रहते हैं।' और न मेरा कोई शत्रु-मित्र है।
हयोपादेयविज्ञानं नोचेद् व्यर्थः श्रमः श्रुतौ । कियतो मारयिष्यामि दुर्जनान् गगनोपमान् ।
-वादीभसिंहाचार्य। मारित क्रोधचित्ते तु मारिताः सर्वशत्रवः ॥ _ 'यदि शास्त्रों को पढ़कर हेयोपादेय का
-बोधिचर्यावतार । विज्ञान प्राप्त नहीं हुआ यह भने प्रकार समझ 'अपकार करनेवाले कितने दुर्जनाको मैं नहीं पड़ा कि किममें आत्माका हित है और मार सकूँगा १ दुर्जन तो अनन्त आकाशकी तरह किसमें अहित है तो उस मार ही मुताभ्यास सर्वत्र व्यान हो रहे हैं । हाँ. यदि मैं अपने चित्त के परिश्रमको व्यर्थ समझना चाहिये ।' की क्रोध परिणतिको मार डालू -क्रोध शत्रु पर कोऽन्धी योऽकायरतःको वधिरो यः शृणोति न हितानि । विजय प्राप्त करलूँ-ती सारे शत्रु म्वयमेव ही को मूको यः काले प्रियाणि वक्त न जानानि ॥ मर जायेंगे- क्योंकि उनके अपकारको गणना
-अमोघवर्ष। न करते हुये क्षमा धारण करने से बैर असंभव
_ 'अन्धा कौन है ? जो न करने योग्य बुरे
कामों के करनमें लीन रहता है । बहरा कौन हो जायगा, बैर के असम्भव हो जाने से शत्रुता है? जो हितकी बातें नहीं सुनता । और गूगा नहीं रहेगी और शत्रुता का न रहना ही शत्रुओं कौन है ? जो समय पर मधुर भाषण करनाका मरण है।'
प्रिय वचन बोलना-नहीं जानता।'
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रोतिहासिक महापुरुष
GESH
LALA
HTRA
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भगवान् महावीरका सेवामय जोवन और
सर्वोपयोगी मिशन
ले. म्वर्गीय श्री. बाड़ीलाल मोनीलाल शाह ]
ETतभद, अज्ञान- भ. महावीर का निवांग हा २४६५ वर्षे ॥ या हिमायती, सामिलक क्रियाओं | बीत गये । उम वन मे बगवर ही हम दरमा मान्यवृद्धि (Common
दीपावली पर उनका निधणात्मव मनाने आरहे और वहमोंको दशम हैं । इस अवसर पर हम केवल पूजा करके जय ।
Sense) को विक. निकाल बाहर करने जयकार बोलकर और ल. दुइ बढ़ाकर ही अपने मित करनेवाला.अन्तः
कर्तव्य को इतिश्री ममझ लन है, और इस बात लिए जिम महावीर की ज़रूरत नहीं देखने कि भगवान के जीवन पर
शक्ति को प्रकाशित नामक महान सुधारक " कल गहग विचार करें और उसमें कोई शिक्षा ना
कनिकी चाबी देने और विचारकन नीम
॥ ग्रहण करे ! इमामे हमारे जावन में कार्य प्रगति नहीं हो रही है और हम जों के नहा नहीं पड़े
वाला, प्राणिमात्रको वर्ष तक उपदेश दिया है बलिक यांत्रिकरित्रके आंधक अभ्यास द्वारा बन्धव की मांकलम
अथवा जड़ मशीनों की ना काय करने पहने था वह उपदेश प्रत्येक जड़ और पनिानक दांत जारहे हैं। ज़मान:
जोइनवाला, श्रान्मदेश,प्रत्येक समाज और पत्र अमरों पर खाम तौर से भ. महावीर के बल अथवा म्वात्म
मेवामय जीवन और मापकांगी मिशन पर विनाम प्रत्येक व्यक्तिका उद्धार करने की तथा उसे अपने सावन में उतारने की।
मंश्रयका पाट मिम्बला करने के लिए समथ मा करकही हम भ. महावीर के परने भन. कर गवनी और कमहै। परन्त धर्मगुरुओं
कहला सकते हैं और अपना नया लोक का हिन माधन कर सकते हैं। हम संबन्धमे असा हा
वादिनी दुनिया को या पगिडनाकी अन्ना श्रीयुत म्वर्गीय भाई यादालाल मानालारा गाद जवांमद तथा कर्मवीर नता और श्रावकोंकी
ने एक महत्वका भाषण प्रार्थना ममाज बंबई के । वापिकान्मन पर दिया था और वर उम ममय
बनानवाला. एक नहीं अन्धश्रद्धाके कारण जनकान्फ्रेन्म हरला तथा जनहितेषी में प्रकट किन्तु पनीम पियों आज व महावीर हा था। इस अवसर के लिये उसे बहन ही उप
सं प्रत्येक वस्तु और युर समझ कर यहाँ उद्धृत किया जाता है।। और वह जैनधर्म अना- | आशा है पाठक जन इससे यथेष्ट लाभ उठायेंगे । । प्रत्येक घटना पर वि. हत हो रहा है । सायंस
-सम्पादक ) | चार करनेकी विशाल
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अनेकान्त्र [कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५ दृष्टि अर्पण करनेवाला और अपने लाभको कर आत्मरमणता प्राप्त की जाती है ) और तप छोड़कर दूसरोंका हित साधन करनेकी प्रेरणा (जिसमें परसेवाजन्य श्रम, ध्यान और अध्ययनका करनेवाला-इम तरहका अतिशय उपकारी समावेश होता है ) इन तत्त्वोंका एकत्र समावेश व्यावहारिक (Practical) और सीधासादा महा- ही धर्म अथवा जैनधर्म है और वही मेरे शिष्यों को वारका उपदेश भले ही आज जैनसमुदाय समझने तथा सारे संसारको ग्रहण करना चाहिए, यह का प्रयत्न न करं, परन्तु ऐसा समय प्रारहा जताकर उन्होंने इन तीनों तत्त्वोंका उपदेश है कि वह प्रार्थनासमाज, ब्रह्मसमाज, थियोसोफि विद्वानोंकी संस्कृत भाषामें नहीं; परन्तु उस समय कल सुमाइटी और यूरोप अमेरिकाकं संशोधकोंके की जनसाधारणको भाषामें प्रत्येकवर्णक स्त्री पुरुषों के मस्तक में अवश्य निवास करंगा।
सामने दिया था और जातिभेदको तोड़कर क्षत्रिय __ सारे संसारको अपना कुटुम्ब माननेवाले महाराजाओं, ब्राह्मण पण्डितों और अधमसे अधम महावीर गुरुका उपदेश न पक्षपाती है और न गिने जानेवाले मनुष्योंको भी जैन बनाया था तथा किसी खास समृहके लिए है । उनके धर्मको स्त्रियोंक दर्जेको भी ऊँचा उठाकर वास्तविक सुधार 'जैनधर्म' कहते हैं, परन्तु इसमें 'जैन' शब्द केवल की नींव डाली थी। उनके 'मिशन' अथवा 'संघ' 'धर्म' का विशेषण है । जड़भाव, स्वार्थबुद्धि, में पुरुष और स्त्रियाँ दोनों हैं और स्त्री-उपदेशिकायें संकुचित दृष्टि, इन्द्रियपरता, आदि पर जय प्राप्त पुरुषोंके सामने भी उपदेश देती हैं। इन बातोंसे करानेकी चाबी देनेवाला और इस तरह संसारमें साफ मालूम होता है कि महावीर किसी एक रहते हुए भी अमर और श्रानन्दस्वरूप तत्त्वका समूह के गुरु नहीं, किन्तु मार मनुष्य समाज स्वाद चग्वानेवाला जो उपदेश है उसीको जैनधर्म के सार्वकालिक गुरु हैं और उनके उपदेशों में से कहते हैं और यही महावीरोपदेशित धर्म है। वास्तविक सुधार और देशोन्नति हो सकती है। तत्त्ववेत्ता महावीर इम रहस्यस अपरिचित नहीं इमलिए इस सुधारमार्गक शोधक समय को थे कि वास्तविक धर्म, तत्त्व, सत्य अथवा आत्मा और देशको तो यह धर्म बहुत ही उपयोगी और काल, क्षेत्र, नाम श्रादिक बन्धन या मर्यादाको उपकारी है। इसलिए कंवल श्रावक कुल में जन्म कभी महन नहीं कर सकता और इसीलिए उन्होंने हुए लोगों में ही छुपे हुए इस धर्म रनको यनकहा था कि “धर्म उत्कृष्ट मंगल है और धर्म पूर्वक प्रकाश में लानेकी बहुतही आवश्य
और कुछ नहीं अहिंमा, संयम और तपका एकत्र कता है। समावेश है।" उन्होंने यह नहीं कहा कि 'जैनधर्म प्राचीन समय में इतिहास इतिहासकी दृष्टि ही उत्कृष्ट मङ्गल है' अथवा 'मैं जो उपदेश देता हूँ से शायद ही लिखे जाते थे। श्वेताम्बर और वही उत्कृष्ट मंगल है।' किन्तु अहिंसा (जिसमें दिगम्बर सम्प्रदाय के जुदा-जुदा ग्रन्थों से, पाश्चादया, निर्मल प्रेम, भ्रातृभावका समावेश होता है) त्य विद्वानों की पुस्तकों से तथा अन्यान्य साधनों संयम ( जिससे मन और इन्द्रियों को वशमें रख से महावीर चरित्र तैयार करना पड़ेगा। किसी
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वर्ष २ किरण १]
भगवान महावीरका सेवामय जीवन
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भी मृत्र में या ग्रन्थ में महावीर भगवान का पूरा में धीरे-धीरे विचार-बलको बढाया ज्ञानयोगी जीवन चरित नहीं है और जुदा-जुदा ग्रन्थकारों बने और फिर क्षत्रिय अथवा कर्मयोगी-समार का मनभेद भी है। उमममय दन्त कथायें. अति- के हित के लिए म्वार्थ त्याग करनेवाले वार बने। शयोक्तियुक्त चरित और सूक्ष्म बातों को स्थूल बालक महावीर के पालन पापण के लिये रूपम बतलानेक लिय उपमामय वणन लिम्बन पाँच प्रवीण धाय रकवी गई थी और उनक द्वारा की अधिक पद्धति थी और यह पद्धति कंवल उन्हें बचपन से वीररस के काव्यों का शोक जैनामें ही नहीं, किन्तु ब्राह्मग, ईमाई आदि के लगाया गया था। दिगम्बरों की मानता के अनु. सभी ग्रन्थों में दिखलाई देती है। इसलिए यदि सार उन्होंने आटवें वर्ष श्रावकके बारह व्रत आज कोई पुरुष पूर्वके किमी महापुरुपका बुद्धिगम्य अंगीकार किये और जगत् के उद्धार के लिये चरित लिखना चाहे तो उसके लिए उपयुक्त स्थल दीक्षा लेने के पहले उद्धार की योजना हृदयंगत वर्णनों, दन्तकथाओं और भक्तिवश लिम्बी हुई करने का प्रारम्भ इतनी ही उम्र से कर दिया। आश्रयजनक बातों में से बाज करके वास्तविक अभिप्राय यह कि वे बाल ब्रह्मचारी रहे। श्वेतामनुष्य-वरित लिम्बनका-यह बतलाने का कि म्बरी कहते हैं कि उन्होंने ३० वर्ष की अवस्था अमुक महात्मा किम प्रकार और कैम कामास तक इन्द्रियों के विषय भांग-व्याह किया, पिता उत्क्रान्त हाने गय और उनकी उक्रान्ति जगत बन और उत्तम प्रकार का गृहवाम (जलकमलवन) को कितना लाभदायक हुइ-काम बहुत ही किस प्रकार से किया जाता है इसका एक उदाजोखिमका है।
हरण व जगतकं मगन नपस्थित कर गयं । जब मगध देश कुण्डग्रामक राजा सिद्धार्थकी दीक्षा लेनकी इच्छा प्रकट की तब माता-पिता गनी त्रिशलादीक गभसं महावीरका जन्म ई० को दुःग्य हुआ, इसमे व उनके म्वगंवाम तक स० से ५२८ वर्ष (?) पहले हया। वं ताम्बर गृहम्बाश्रम में रहे । २८ व वप दीक्षा की तैयारी ग्रन्थमा करने है कि पहन व एक ब्राह्मणी के की गई किन्तु बड़े भाईने गंक दिया। तब दी गर्भ में आयर्थः परन्त पीठे वतांने उन्हें वप नक श्रीर भी गृहस्थाश्रम में ही ध्यान तप त्रिशला क्षत्रियाक गमन सादिया! तुम आदि करने हा रहे । अन्तिम वर्ष प्रचताम्बर धानको दिगम्बर ग्रन्थकता म्याकार ना करने। ग्रन्थों के अनुसार करोड़ों रुपयों का दान दिया। एमा मालूम होता है कि ब्राह्मणों और जनाक महावीर भगवान का दान और दीक्षा में विलम्ब चाच जो पारम्परिक स्पर्धा बढ़ रही थी, उम. व दो बात बन विचारणीय है । दान, शाल, नप कारण बहुत में ब्राह्मण विद्वानांने जैनाकी और और भावना इन चार मार्गों में में पहला माग बहन म नाचान ब्राह्मणांका अपने अपने मवम महज है। आंगलियों के निर्जीव नम्वों के ग्रन्या में अपमानिन करनेक प्रयत्र किया है। यह काट डालने के समान ही 'दान' करना महज है। गभसंक्रमण की कथा भी उन्ही प्रयत्राम का एक कच्च नम्ब के काटने के समान 'शील' पालना है। उदाहरण जान पड़ता है। इसमें यह मिद्ध किया अँगुली काटने के समान तप' है और सार शरीर गया है कि ब्राह्मणकुल महापुरुषों के जन्म लेने पर मेम्बत्व उठाकर आत्माको उसके प्रेक्षकक के योग्य नहीं है । इस कथा का अभिप्राय यह भी ममान तटस्थ बना देना 'भावना है। यह सबसे हो सकता है कि महावीर पहले ब्राह्मण और पीछ कठिन है । इन चारों का क्रमिक रहस्य अपने क्षत्रिय बने, अर्थान पहले ब्रह्मचयकी रक्षापूर्वक दृष्टान्त से स्पष्ट कर देने के लिए भगवानने पहले शक्तिशाली विचारक (Thinker) बने, पूर्व भवां दान किया, फिर मयम अङ्गीकार किया और
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संग्रम की ओर लौ लग गई थी, तो भी गुरुजनों की आज्ञा जब तक न मिली, तब तक बाह्य त्याग नहीं लिया। वर्तमान जैनसमाज इस पद्धति का अनुकरण करे तो बहुत लाभहो ।
३० वर्षकी उम्र में भगवान् ने जगदुद्धार की दीक्षा ली और अपने हाथसे केशलोंच किया । अपने हाथोंसे अपने बाल उखाड़नेकी क्रिया आत्माभिमुखी दृष्टि की एक कसौटी है। प्रसिद्ध उपन्यास लेखिका मरा कोरेली के 'टेम्पोरल पावर' नामक रसिकग्रन्थ में जुल्मी राजाको सुधारनेके लिए स्थापितकी हुई एक गुप्तमण्डलीका एक नियम यह बतलाया गया है कि मण्डली का सदस्य एक गुप्त स्थान में जारर अपने हाथ की नसमें तलवार के द्वारा खून निकालता था और फिर उस खून
वह एक प्रतिज्ञापत्र में हस्ताक्षर करता था ! जो मनुष्य जरासा खून गिराने में डरता हो वह देश रक्षा के महान कार्य के लिये अपना शरीर अर्पण कदापि नहीं कर सकता। इसी तरह जो पुरुष विश्वोद्धार के 'मिशन' में योग देना चाहता हो उसे आत्मा और शरीर का भिन्नत्व इतनी स्पष्टता के साथ अनुभव करना चाहिये कि बाल उखाड़ते समय जरा भी कष्ट न हो । जब तक मनोबलका इतना विकास न हो जाय, तब तक दीक्षा लेन से जगत का शायद ही कुछ उपकार होसके ।
अनेकान्त
[ कार्तिक, वीर निर्वाण सं० २४६५
ज्ञान प्राप्त नहीं किया - अभ्यास नहीं किया, वे लोग सम्भव है कि लाभ के बदले हानि करनेवाले हो जाँय । 'पहले ज्ञान और शक्ति प्राप्त करो, पीछे सेवा के लिए तत्पर होओ' तथा 'पहले योग्यता और पीछे सार्वजनिक कार्य' ये अमुल्य सिद्धान्त भगवान् के चरित से प्राप्त होते हैं । इन्हें प्रत्येक पुरुष को सीखना चाहिए।
महावीर भगवान् पहले १२ वर्ष तक तप और ध्यान ही में निमग्न रहे । उनके किये हुये तप उनके आत्मबलका परिचय देते हैं। यह एक विचारणीय बात है कि उन्होंने तप और ध्यान के द्वारा विशेष योग्यता प्राप्त करने के बाद ही उपदेश का कार्य हाथ में लिया । जो लोग केवल 'सेवा करो,–'सेवा करो' की पुकार मचाते हैं उनसे जगत् का कल्याण नहीं हो सकता । सेवा का रहस्य क्या है, सेवा कैसे करना चाहिये, जगत् के कौन-कौन कामों में सहायता की आवश्यकता है, थोड़े समय और थोड़े परिश्रम से अधिक सेवा कैसे हो सकती है, इन सब बातों का जिन्होंने
योग्यता सम्पादन करनेके बाद भगवानने लगातार ३० वर्षों तक परिश्रम करके अपना 'मिशन' चलाया । इस 'मिशन' को चिरस्थायी बनानेक लिए उन्होंने 'श्रावक-श्राविका' और 'साधु-साध्वियों' का संघ या स्वयंसेवक मण्डल बनाया । क्राइस्ट के जैसे १२ एपोस्टल्स थे, वैसे उन्होंने ११ गणधर बनाये और उन्हें गण अथवा गुरुकुलों की रक्षाका भार दिया। इन गुरुकुलों में ४२०० मुनि, १० हजार उम्मेदवार मुनि और ३६ हजार आर्यायें शिक्षा लेती थीं । उनके संघ में १५९००० श्रावक और ३००००० श्राविकायें थीं। रेल, तार, पोस्ट आदि साधनों के बिना तीस वर्ष में जिस पुरुषने प्रचार का कार्य इतना अधिक बढ़ाया था, उसके उत्साह, धैर्य, सहन शीलता, ज्ञान, वीर्य, तेज कितनी उच्चकोटि के होंगे इसका अनुमान सहज ही हो सकता है ।
पहले पहल भगवानने मगध में उपदेश दिया । फिर ब्रह्मदेश से हिमालय तक और पश्चिम प्रान्तों
उग्र विहार करके लोगों के बहमोंको, अन्धश्रद्धा को, अज्ञानतिमिरको इन्द्रियलोलुपताको और जड़वादको दूर किया । विदेहके राजा चेटक, अंगदेश के राजा शतानीक, राजगृहके राजा श्रेणिक और प्रसन्नचन्द्र आदि राजाओं के तथा बड़े बड़े धनिकों को अपना भक्त बनाया । जातिभेद और लिंगभेद का उन्होंने बहिष्कार किया । जंगली जातियों के उद्धार के लिए भी उन्होंने उद्योग किया और उसमें अनेक महे।
महावीर भगवान ओटोमेटिक (Automatic) उपदेशक न थे, अर्थात् किसी गुरु की बतलाई
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वर्ष २ किरण १ ]
भगवान महावीरका मवामय जीवन
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बातों या विधियों को पकड़े रहनेवाले (Conser. विज्ञान को मानसशास्त्र और अध्यात्मशास्त्र के vative ) कन्सरवेटिव पुरुप नहीं थे: किन्तु स्व. ही समान धर्मप्रभावनाका अग मानते थे । क्योंकि तंत्र विचारक बनकर देशकाल के अनुरूप स्वांग उन्होंने जो आठ प्रकार के प्रभावक बतलाये हैं में सत्य का बोध करनेवाले थे। श्वेताम्बर सम्प्र. उनमें विद्या-प्रभावकों का अर्थात साइन्मक ज्ञान दाय के उत्तराध्य यन सूत्र में जो केशी स्वामी और से धमकी प्रभावना करने वालों का भी समावेश गौतम स्वामी की शान्त-कान्फरेंसका वर्णन दिया होता है। है, उससे मालूम होता है कि उन्होंने पहले तीर्थ
भगवान का उपदेश बहुत ही व्यवहारी करकी बांधी हुई विधिव्यवस्था में फेरफार करके (प्राक्टिकल ) है और वह आज कल के लोगों उसं नया स्वरूप दिया था । इतना ही नहीं, उन्होंने की शारीरिक, नैतिक, हार्दिक, राजकीय श्रार उच्च श्रेणी के लोगों में बोली जानेवाली संस्कृत मामाजिक उन्नतिक लिये बहुत ही अनिवार्य भाषा में नहीं, किन्तु साधारण जनता को मागधी जान पड़ता है। जो महावीर स्वामीक उपदेशों भाषा में अपना उपदेश दिया था । इम बातस का रहस्य समझता है वह इस वितंडावाद में हम लोग बहुत कुछ सीब मकते है । हम अपन नहीं पड मकता कि श्रमक धर्म मजा है और शास्त्र, पृजा पाठ, सामायिकादि के पाठ, पुराना, दम सब झर हैं। क्योंकि उन्मान म्याद्वादशैली साधारण लोगों के लिय दुर्वाध भाषा में बतलाकर ननिक्षपादि २५ दृष्टियांस विचार नहीं किन्तु उनक रूपान्तर, मूलभाव कायम रखके करने की शिक्षा दी है। उन्होंने द्रव्य ( पदार्थ वतमान बोलचाल की भाषाओं में, देशकालानुरूप प्रक्रति ) क्षेत्र (देश). काल (जमाना ) श्रार कर डालना चाहिए।
भाव इन चागेका अपने उपदेशमें श्रादर किया महावीर भगवान का ज्ञान बहुत ही विशाल है।एमा नहीं कहा कि हमेशा ऐसा ही करना, था। उन्होंने पड़द्रव्य के स्वरूपमें सारे विश्वकी दृमरी तरहम नहीं।' मनुष्यामा म्वतत्र है, उसे व्यवस्था बनला दी है। शब्दका बंग लोक अन्त स्वतंत्र रहने देना-केवल मागमन करकं और तक जाता है, इसमें उन्होंने बिना कह ही टेला- अमुक देश कालमें अमुक गनिम चलना अच्छा ग्राफी समझा दी है। भापा पुद्गलात्मका होती होगा. यह बतलाकर उसे अपने देश कालादि है, यह कह कर टेलीफोन और फोनोग्राफ क. संयोगांन किम निम बताव करना चाहिय, आविष्कारकी नींव डाली है । मल, मूत्र आदि १४ यह मान लेने की म्वतंत्रता दे देना-यही स्याद्रास्थानों में सूक्ष्मजीव उत्पन्न हुआ करने है, इमा दर्शनी उपदेशकका कर्तव्य है । भगवानने छुन के गंगों का मिद्धान्त बनलाया है। पृथ्वी. दशवकालिक मत्रम मिचलाया है कि बात-पाने, वनस्पति आदिम जीव है, उनके इस सिद्धान्तको चलने. काम करते, सोने हए हर ममय यत्नाचार श्राज डाक्टर वमुने सिद्ध कर दिया है। उनका पाला, 'अर्थात “Work with attentiveness अध्यात्मवाद और म्याद्वाद वतमान के विना : uncerl mind" प्रत्येक कायको चित्त. रकों के लिए पथप्रदर्शक का काम देने वाला है। की एकाग्रता पर्वक-समतालवृत्तिपूर्वक कगे। उनका बतलाया हुआ लेश्याओं का और लब्धियों कार्य की सफलताक लिए. इमसे अच्छा नियम का स्वरूप वतमान थि प्रोसोफिस्टों की शोधों से कोई भी मानसतत्वज्ञ नहीं बतला सकता। सत्य सिद्ध होता है। पदार्थविज्ञान, मानमशान उन्होंने पवित्र और उच्च जीवनकी पहली सीड़ी
और अध्यात्मक विषयमं भी अढाई हजार वर्ष न्यायापार्जिन द्रव्य प्राप्त करने की शक्ति को पहले हुए महावीर भगवान कुशल थे। वे पदार्थ. बतलाया है और इस शक्तिसे युक्त जीवको
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अनकान्त
[कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५
'मार्गानसारी' कहा है। इसके आगे 'श्रावक' वर्ग मर्दानगी म भरे हय विचार से इस स्वावलम्बन बतलाया है, जिसे बारह व्रत पालन करने पड़ते की भावनासे उन्हें कैवल्य प्राप्त हो गया और है और उसमें अधिक उत्क्रान्त-उन्नत हुए लोगों देवदुन्दुभि बज उठे ! “तुम अपने पैरों पर खड़े रहना के लिए सम्पृग त्यागवाला 'साधु- श्राश्रम' बत- सीवी, तुम्हें कोई दृसा सामाजिक, राजकीय या लाया है। देखिए, कैसी सुगम म्वाभाविक और आत्मिक मोक्ष नहीं दे सकता, तुम्हारा हर तरहका प्राक्टिकल योजना है। श्रावक क बारह व्रतों में मोक्ष तुम्हारे ही हाथमें है।"यह महामंत्र महावीर मादा, मितव्ययी और संयमी जीवन व्यतीत भगवान अपन शिप्य गौतमको शब्दसिनहीं,किन्तु करने की आज्ञा दी है। एक व्रत में म्वदेशरक्षाका बिना कह सिग्बला गये और इसीलिए उन्होंने गुप्त मन्त्र भी समाया हुआ है, एक व्रत में मबस गौतमको बाहर भेज दिया था । समाजसुधारकों को, बन्धुत्व रखने की आज्ञा है, एक व्रतमें ब्रह्मचयपालन देशभक्तों और आत्ममोक्षक अभिलाषियों को यह (म्बम्त्रीमन्तीप ) का नियम है, जो शरीरबल की मंत्र अपने प्रत्येक रक्तबिन्दुके माथ प्रवाहित करना रक्षा करताहै,एक व्रत बालविवाह, वृद्धविवाह और चाहिए। पुनर्विवाह के लिए खड़े होनको स्थान नहीं देता
महावीर भगवानकं उपदेशोंका विस्तृत बिव. है, एक व्रत जिमसे आर्थिक, आत्मिक या राष्ट्रीय
ग्ण करने के लिए महीनों चाहिए। उन्होंने प्रत्येक हित न होता हो ऐसे किसी भी काम में, तक विपयका प्रत्यक्ष और परोक्षरीतिसं विवेचन किया वि . अपध्यान में, चिन्ता नवग और शाक है। उनके उपदेशोंका संग्रह उनके बहुत पीछ में. ममय और शरीरबलकं यानेका निषेध करता
देवगिणिन-जो उनके २७ वें पट्टमें हुए हैं। है और एक व्रत श्रात्मा में स्थिर रहने का अभ्यास किया है और उसमें भी देशकाल लोगोंकी शक्ति डालने के लिए कहता है। इन मब व्रतांका पालन वगैरहका विचार करके कितनी ही तात्विक करनेवाला श्रावक अपनी उत्क्रान्ति और समाज बातों पर स्थल अलकारोंकी पोशाक चढा दोहे तथा देशकी संवा बहुत अच्छी तरह कर सकता है। जिसमें इस समय उनका गुप्त भाव अथवा Mys
जब भगवान की श्राय में ७ दिन शपथं तब ticism समज्ञनवाले पुरुप बहुत ही थोड़े है। इन उन्होंने अपने समीप उपस्थित हए बड़े भारी जन गुप्त भावाका प्रकाश उसी समय होगा जब कशासमूह के सामने लगातार ६ दिन तक उपदेश की बुद्धिवाल और आत्मिक आनन्दके अभिलापी अखण्डधाग बहाई और सातव दिन अपने सेकड़ा विद्वान् माइन्स, मानसशास्त्र, दर्शनशास्त्र मुख्य शिष्य गांतम ऋपि को जान बुझकर आज्ञा आदिको सहायतास जैनशास्त्रोंका अभ्यास करेंगे दी कि तुम समीप के गांवों में धर्मप्रचार के लिए
और उनके छुपे हुए तत्वोंकी खोज करेंगे । जैनधर्म
किसी एक वर्ण या किसी एक देशका धम नहीं; जाश्री, जब महावीर का मोक्ष हो गया, तब गौतम
किन्तु सारी दुनिया सारे लोगों के लिए स्पष्ट किये ऋपि लौटकर आये। उन्हें गुरु-वियोग से शोक
हए सत्योंका संग्रह है। जिस समय देशविदेशोंके होने लगा। पीछे उन्हें विचार हुआ कि "अहा स्वतन्त्र विचारशाली पुरुपोंके मस्तक इसको और मेरी यह कितनी बड़ी भूल है ! भला, महावार लगेंगे, उसी समय इस पवित्र जैनधर्म की जो इस भगवान को ज्ञान और मोक्ष किसने दिया था ? के जन्मसिद्ध ठेकेदार बने हुए लोगोंके हाथसे मिट्टी मेरा मोक्ष भी मेरे ही हाथ में है । फिर उसके लिए पलीद हो रही है वह बन्द होगी और तभी यह व्यर्थ ही क्यों अशान्ति भोगं ?" इस पौरुष या विश्वका धर्म बनेगा।
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अनेकान्त के नियम
प्रार्थनाएँ
अनेकान्तका वार्षिक मूल्य २) म० पेशगी है। वी० पी० से मंगाने पर तीन आन जस्ट्रीक १. अनेकान्त"किमी म्वार्थ बुद्धिसे प्रेरित होकर अधिक देने पड़ते हैं। माधारण ५ प्रतिका अथवा आर्थिक उहश्यको लेकर नहीं निकाला मूल्य चार आना और इम नव-वर्णाङ्कका जाता है. किन्तु वीरमंबामन्दिरके महान मूल्य बारह आना है।
उद्देश्योंको सफल बनाने हा लोकहितको अनेकान्त प्रत्येक इंग्रेजी माहकी प्रथम
माधना नथा सभी मंवा बजाना ही इम पत्र. तारीखको प्रकाशित हश्रा कंग्गा।
का एक मात्र ध्यय है। अन: मभी मजनों अनकान्तक एक वर्षम कमके ग्राहक नहीं
को इमकी उन्नतिमें महायक होना चाहिये । बनाये जाने । ग्राहक प्रथम किग्गाम १० वी
जिन मजनोंको अनेकान्तक जो लग्ब पसन्द किरा तक ही बनाये जाने हैं। एक वर्ष
आर्य, उन्हें चाहिये कि वे जितने भी अधिक के बीचको किमी किरगम दृमर वर्षकी उम
भाइयोंको उसका परिचय करा मके ज़ार किरण तक नहीं बनाय जातं। अनेकान्तका
कगये। नवीन वर्ष दीपावलांस प्रारम्भ होता है। पता बदलनको सूचना नानक कार्यालय ३. यदि कोई लेग्य अथवा लेग्बका अंश ठीक में पहुच जानी चाहिये । महिन-दो महिनक मालूम न हो, अथवा धर्मविरुद्ध दिग्याई दे, लिये पता बदलवाना हो ना अपने यहाँक
ना महज़ उमीकी वजहसे किमीको लग्बक या डाकघरको ही लिग्यकर प्रबन्ध करना
सम्पादकमप-भाव न धारण करना चाहिय, चाहिये। ग्राहकांको पत्र व्यवहार करते किन्तु अनेकान्त-नीनिकी उदारतासे काम ममय उनके लिये पाम्टेज खर्च भंजना
लेना चाहिय और हामक ना युनि-पुरम्मर चाहिये । माथ ही अपना ग्राहक नम्बर और मयत भा में लेग्यकको उमकी भूल मुझानी पताभी स्पष्ट लिग्बना चाहिय, अन्यथा उत्तर
चाहिये। के लिये कोई भगमा नहीं रखना चाहिये । ५. "अनकान्त" की नीति और उहश्यक अनु. कार्यालयस अनकान्त अच्छी तरह जाँच मार लेग्य लिग्यकर भजनके लिय देश तथा करके भेजा जाता है। यदि किसी मामका
समाजक मभी मुलग्यांका आमन्त्रण है। अनेकान्त ठीक समय पर न मिले नो. अपने "अनकान्त" को भंज जाने वाले लग्बादिक डाकघरस लिग्वा पढ़ी करनी चाहिये । वहाँम कागज की एक और हाशिया छोड़कर सुवाच्य जो उत्तर मिल. वह अगली किग्गा प्रकाशित अक्षम लिख हान चाहिये । लग्याको होनस मात गंज पूर्व तक कार्यालयमें पहुँच
घटाने. बढ़ान. प्रकाशित करने न करने.लौटाने जाना चाहिये । देर होनस. डाकघरका जवाब
न लौटानका सम्पुर्ण अधिकार मम्पादकको शिकायती पत्रक माथ न आनस.दमरी प्रति
है । अम्बीकृत लग्य वापिम मंगाने लिये बिना मूल्य मिलने में बड़ी अड़चन पड़ेगी। पाटन खर्च भंजना आवश्यक है। लंग्व निम्न अनेकान्नका मूल्य और प्रबन्ध सम्बन्धी पनेस भेजना चाहिये :पत्र किमी व्यक्ति विशेषका नाम न लिम्ब कर निम्न पनेम भंजना चाहिये ।
जुगलकिशोर मुग्नार व्यवस्थापक 'अनकान्न"
मम्पादक अनकान्त कनॉट मकम पा०प० नं०४८न्य देहली
मम्मावा जि० महारनपुर
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PM
MARA
SOMEONE
तिलक बीमा
११ लाख १३ हजार
-बिजनिस प्राय कारकीर पवासात मुखमा कम्पनियों से शाणे श्राप
HT
का पहर मोरगान गाने का काम करने के बजाय मनमाना किया का अवसर दिया जा सकता है । गाय भान पार पाडत्या मिलेगा। वियो विवरमा कलिम लिन
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किरण २
F
मार्गशिर बीर नि० सं० २४६ ७ दिसम्बर १६३८
सम्पाद
जुगलकिशोर मुख्तार
★ अधिष्ठाता धीरसवा मन्दिर सरसावा (सहारनपुर)
मुद्रक और प्रकाशक-अभ्यासाद गोयलीम |
Als
(वार्षिक मूल्य २))
। गोरडल्स प्रेस
PER
तनसुखराय जैन
कनॉट सरकस पो० ब० नं० ४८ ग्यू देहली
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कर्नाट सरकल न्यू देहली में रूपा ।
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विषय-सूची
१. समन्तभद्र-स्तवन
२. ऊँच-गोत्रका व्यवहार कहाँ ? [सम्पादकीय
३. भगवान महावीर के बादका इतिहास - [श्री० बा० सूरजभानु वकील ४. वीर शासन (कविता) - [पं० हरिप्रसाद शर्मा 'अविकसित'
५. श्रीपाल चरित्र साहित्य - [श्री० अगरचन्दजी नाहटा
६. अधिकार ! (कविता) - (श्री० भगवतस्वरूप जैन 'भगवत' ७. प्रतिज्ञा ! (कविता) [श्री० कल्याणकुमार जैन 'शशि' ८. जैन समाज क्यों मिट रहा है ? - [अयोध्याप्रसाद गोयलीय ६. डाकिया ( कहानी ) श्री भगवनस्वरूप जन १०. 'अनेकान्त' पर लोकमत
कान्त के नियम
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१. अनेकान्तका वार्षिक मूल्य २||) रु० पेशगी है बी० पी० से मंगाने पर तीन आने राजस्ट्रीके अधिक देने पड़ते हैं। साधारण १ प्रतिका मूल्य चार आना 1
२. अनेकान्त प्रत्येक इंग्रेजी साहकी प्रथम तारीखको प्रकाशित हुआ करेगा ।
३. अनेकान्तके एक वर्ष से कम के ग्राहक नहीं बनाये जाते । ग्राहक प्रथम किरण १२वी किरण तक के ही बनाये जाते हैं । एक वर्ष बीचको किसी कर दूसरे वर्षको उस किरण तक नहीं बनाये जाते । अनेकान्तका नवीन वर्ष दीपावली में प्रारम्भ होता है 1
४. अनेकान्तको भेजे जाने वाले लेखादिक काग़ज़की एक और हाशिया छोड़कर सुवाच्य अक्षरोंमें लिखे होने चाहिये | लेखांको घटाने, बढ़ाने प्रकाशित करने या न करने और लौटाने या न लौटानेका सम्पूर्ण अधिकार सम्पादकको है । अस्वीकृत लेख पोस्टेज टिकिट आने पर ही वापिस किये जा सकेंगे । ५. सब तरहका पत्र व्यवहार इस से करना चाहिये । व्यवस्थापक "अनेकान्त " कनॉट सर्कस, पो० ब० नं० ४८ न्यू देहली |
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प्रार्थनाएँ
"अनेकान्न" किसी स्वार्थ बुद्धिसे प्रेरित होकर अथवा आर्थिक उद्देश्य को लेकर नहीं निकाला जाना है, किन्तु वीरमेवामन्दिर के महान उद्देश्योंको सफल बनाते हुए लोकहितको साधना तथा मची सेवा बजाना ही इस पत्रका एक मात्र य है | अतः सभी सज्जनोंको इसकी उन्नतिमें सहायक होना चाहिये ।
जिने सजनाको अनेकान्त के जो लेख पसन्द आये. उन्हें चाहिये कि वे जितने भी अधिक भाइयोंको उसका परिचय करा सके ज़रूर कराये ।
३.
यदि कोई लेख अथवा लेखका अंश ठीक मालूम न हो. अथवा धर्मविरुद्ध दिखाई दे, तो महज़ उसकी वजहसे किसीको लेखक या सम्पादकमे द्वेप-भाव न धारण करना चाहिये, किन्तु अने कान्त-नीतिकी उदारतासे काम लेना चाहिये और हो सके तो युक्ति पुरस्मर संगत भाषा में लेखकको उसकी भूल सुझानी चाहिये ।
अनेकान्त" की नीति और उद्देश्य के अनुसार लेख लिखकर भेजनेके लिये देश तथा समाजक सभी सुलेखांकी आमन्त्रण है ।
-सम्पादक |
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वर्ष २
ॐ अर्हम्
अनेका
नीति-विरोध-ध्वंसी लोक-व्यवहार-वर्त्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीजं भ्रुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ||
सम्पादन - स्थान -- वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम), सरसावा जि० सहारनपुर प्रकाशन-स्थान- कनॉट सर्कस पो० ब० नं० ४८ न्यू देहली मार्गशीर्ष शुक्ल, वीरनिर्वाण सं० २४६५, विक्रम सं० १६६५
समन्तभद्र-स्तवन
समन्तभद्रं सद्बोधं स्तुवे वरगुणालयम् ।
निर्मलं यद्यशष्कान्तं बभूव भुवनत्रयम् ।। - जिनशतकटीकायां, नरसिंहभट्टः ।
किरण २
उन स्वामी समन्तभद्रका मैं स्तवन करता हूँ, जो सद्बोधरूप थे - सम्यग्ज्ञानकी मूर्ति थे, श्रेष्ठ गुणोंके आवास थे- उत्तम गुणोंने जिन्हें अपना आश्रयस्थान बनाया था, और जिनकी यशः कान्तिसे तीनों लोक अथवा भारतके उत्तर, दक्षिण और मध्य ये तीनों विभाग कान्तिमान थे—-आर्थात् जिनका यशस्तेज सर्वत्र फैला हुआ था । :
समन्तभद्रो भद्रार्थो भातु भारतभूषणः । देवागमेन येनाsत्र व्यक्तो देवागमः कृतः ।। - पाण्डवपुराणे, शुभचन्द्राचार्यः ।
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अनेकान्त [ मार्गशीर्ष, वीर-निर्वाण सं० २४६५ जिन्होंने, देवागम, नामक अपने प्रवचनके द्वारा देवागमको-जिनेन्द्रदेवके श्रागमको–इस लोकमें व्यक कर दिया है, वे भारतभूषण और एकमात्र मद्र-प्रयोजनके धारक श्रीसमन्तभद्र लोकमें प्रकाशमान हो।- अर्थान अपनी विद्या और गुणों के बालोकसे लोगोंके हृदयान्धकारको दूर करनेमें समर्थ होवें।
यद्वारत्याः कविः सर्वोऽभवत्सज्ञानपारगः । तं कविनायकं स्तौमि समन्तभद्र-योगिनम् ॥
-चन्द्रप्रभचरिते, कविदामोदरः । जिनको भारतीके प्रसादसे-शानभाण्डाररूप मौलिक कृतियोंके अभ्यासस-समस्त कविसमूह सम्यग्ज्ञानका पारगामी हो गया, उन कविनायक-नई नई मौलिक रचनाएँ करने वालोंके शिरोमणियोगी श्री समन्तभद्रको मैं अपनी स्तुतिका विषय बनाता हूँ-वे मेरे स्तुत्य हैं, पूज्य हैं।
जीयात्समन्तभद्रोऽसौ भन्य-कैरक-चन्द्रमाः। दुर्वादि-वाद-कराडूनां शमनैकमहौषधिः ।।
-हनुमाचरित्रे, ब्रह्म अजितः । वे स्वामी समन्तभद्र जयवन्त हों-अपने ज्ञान तेजसे हमारे हृदयोंको प्रभावित करें--जो भव्यरूपी कुमुदोंको प्रफुल्लित करनेवाले चन्द्रमा थे और दुर्वादियोंकी वादरूपी खाज ( खुजली ) को मिटानेक लिये अद्वितीय महौषधि थे-जिन्होंने कुवादियोंकी बढ़ती हुई वादाभिलाषाको ही नष्ट कर दिया था।
समन्तभद्रस्स चिराय जीयाद्वादीभ-वजांकुश-मूक्तिजाल:। यस्य प्रभावात्सकलावनीयं वंध्यास दुर्वादुक-वार्तयाऽपि ॥
-श्रवणबेल्गोल-शिलालेख नं० १०५ । वे स्वामी समन्तभद्र चिरजयी हों-चिरकाल तक हमारे हृदयोंमें सविजय निवास करें--, जिनका सूक्तिसमूह-सुन्दर-प्रौढ युक्तियोंको लिए प्रवचन-वादिरूपी हस्तियोंको वशमें करने के लिये वनांकुश का काम देता है और जिनके प्रेभावसे यह सम्पूर्ण पृथ्वी एकबार दुर्वादकोंकी वानांस भी विहीन होगई थी-उनकी कोई बात भी नहीं करता था।
समन्तभद्रस्संस्तुत्यः कस्य न स्यान्मुनीश्वरः। वाराणसीश्वरस्याग्रे निर्जिता येन विद्विषः॥
___-तिरुमकूडलुनरसीपुर शि० लेख नं० १०५ । जिन्होंने वाराणसी (बनारस ) के राजाके सामने विद्वेषियोंको-सर्वथा एकान्तवादी मिथ्यादृष्टियोंको-पराजित कर दिया था, वे समन्तभद्र मुनीश्वर किसके स्तुतिपात्र नहीं हैं. ? अर्थात , सभीक द्वारा भले प्रकार स्तुति किये जानेके योग्य है।
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तत्वचची
ऊँच-गोत्रका व्यवहार कहाँ ?
( धवल सिद्धान्तका एक मनोरञ्जक वर्णन )
[सम्पादकीय ]
षट्खण्डागमके 'वेदना' नामका चतुर्थ खण्ड. पर क्या कुछ आपत्ति की जाती थी ? अपने पाठकों के चौबीस अधिकारोंमें से पाँचवे ‘पयडि' के सामने विचारकी अच्छी सामग्री प्रस्तुत करने (प्रकृति) नामक अधिकारका वर्णन करते हुए, और उनकी विवेकवृद्धि के लिये मैं उसे क्रमशः यहाँ श्रीभतबली प्राचार्यने गोत्रकर्म-विषयक एक सूत्र देना चाहता हूँ। निम्न प्रकार दिया है :
टीकाका प्रारम्भ करते हुए, सबसे पहले यह "गोदस्स कम्मस्स दुवे पयडीओ उच्चा
प्रश्न उठाया गया है कि-"उच्चैगोत्रस्य क्व गोदं चेव णीचागोदं चेव एवदियालो पय
व्यापार: ?"-अर्थात ऊँच गोत्रका व्यापार-व्यवडीओ ॥१२६॥"
हार कहाँ ?-किन्हें उचगोत्री समझा जाय ? श्रीवीरसेनाचार्यने अपनी धवला-टीकामें, इस इसके बाद प्रश्नको स्पष्ट करते हुए और उसके सूत्रपर जो टीका लिखी है वह बड़ी ही मनोरंजक समाधानरूपमें जो जो बातें कही जाती हैं, उन्हें है और उससे अनेक नई नई बात प्रकाशमें आती सदोष बतलाते हुए जो कुछ कहा गया है,वह सब हैं-गोत्रकर्म पर तो अच्छा खासा प्रकाश पड़ता ___ क्रमशः इस प्रकार है :है और यह मालूम होता है कि वीरसेनाचार्यके
(१) "न नावद्राज्यादिलक्षणायां संपदि अस्तित्वसमय अथवा धवलाटीका (धवलसिद्धान्त) के निर्माण-समय (शक सं० ७३८) तक गोत्रकर्म- [व्यापारः], तस्याः सद्वेषतस्समुत्पतेः।"
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अनेकान्त [मार्गशिर, वीर-निर्वाण सं० २४६५ अर्थात-यदि राज्यादि-लक्षणकाली सम्पदाके रहानी हों उन्हें उच्चगोत्री कहा जाय तो यह बात साथ उमगोत्रका व्यापार माना जाय-ऐसे सम्प- भी ठीक घटित नहीं होती ; क्योंकि प्रथम तो त्तिशालियोंको ही उच्चगोत्री कहा जाय तो यह बात शानावरण कर्मके क्षयोपशमकी सहायता-पूर्वक नहीं बनती ; क्योंकि ऐसी सम्पत्तिकी समुत्पत्ति सम्यग्दर्शनसे सम्यग्ज्ञानकी उत्पत्ति होती है-उनअथवा सम्प्राप्ति सातावेदनीय कर्मके निमित्तसे गोत्रका उदय उसकी उत्पत्तिमें कोई कारण नहीं है। होती है-उच्चगोत्रका उसके साथ कोई सम्बन्ध दूसरे, तिथंच और नारकियोंमें भी सम्यग्ज्ञानका नहीं है।
सद्भाव पाया जाता है; तब उनमें भी उच्चगोत्रका
- उदय मानना पड़ेगा और यह बात सिद्धान्तके (२) "नाऽपि पंचमहाव्रतग्रहण-योग्यता उच्चै- विरुद्ध होगी-सिद्धान्तमें नारकियों और तिर्यची.
गर्गोत्रेण क्रियते, देवेष्वभव्येषु च तद्- के नीच गोत्रका उदय बतलाया है। ग्रहणं प्रत्ययोग्येषु उच्चैर्गोत्रस्य उदया- (४) "नादेयत्वे यशसि सौभाग्ये वा व्यापारभावप्रसंगात् ।”
स्तेषां नामतस्समुत्पत्तेः ।" अर्थात-यदि यह कहा जाय कि उच्चगोत्रके अर्थात-यदि श्रादेयत्व, यश अथवा सौभाग्यके उदयसे पँचमहाव्रतोंके ग्रहणकी योग्यता उत्पन्न साथमें उच्चगोत्रका व्यवहार माना जाय-जो आदे होती है और इसलिये जिनमें पँचमहाव्रतोंके यगणसे विशिष्ट ( कान्तिमान ), यशस्वी अथवा ग्रहणकी योग्यता पाई जाय उन्हें ही उच्चगोत्री सौभाग्यशाली हों उन्हेंही उच्चगोत्री कहा जायसमझा जाय, तो यह भी ठीक नहीं है ; क्योंकि तो यह बात भी नहीं बनती ; क्योंकि इन गुणोंकी ऐसा मानने पर देवोंमें और अभव्योंमें, जोकि उत्पत्ति प्रादेय, यशः और सुभग नामक नामकर्मपंचमहाव्रत-ग्रहणके अयोग्य होते हैं, उच्चगोत्रके।
प्रकृतियोंके उदयसे होती है-उच्चगोत्र उनकी उदयका प्रभाव मानना पड़ेगा-; परन्तु देवोंके उत्पत्तिमें कोई कारण नहीं है। उच्चगोत्रका उदय माना गया है और अभव्योंके । भी उसके उदयका निषेध नहीं किया गया है।
"" (५) “नेक्ष्वाकुकुलायुत्पत्तौ [ व्यापारः ], (५) नवा
काल्पनिकानां तेषां परमार्थतोऽसत्वाद्, (३) "न सम्यग्ज्ञानोत्पत्ती व्यापारः, ज्ञाना
विड्-ब्राह्मण साधु (शूद्रे ?) प्वपि उच्चैवरण-क्षयोपशम-सहाय-सम्यग्दर्शनतस्त
गर्गोत्रस्योदयदर्शनात् ।" दुत्पत्तेः, तिर्यकनारकेष्वपि उच्चैर्गोत्रं
अर्थात्-यदि इक्ष्वाकु-कुलादिमें उत्पन्न होने के तत्र सम्यग्ज्ञानस्य सत्वात् ।" साथ ऊँच गोत्रका व्यापार माना जाय-जो इन अर्थात्-यदि सम्यग्ज्ञानकी उत्पत्तिके साथमें क्षत्रियकुलोंमें उत्पन्न हों उन्हें ही उसगोत्री कहा ऊँच गोत्रका व्यापार माना जाय-जो जो सम्य. जाय तो यह बात भी समुचित प्रतीत नहीं होती;
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वर्ष २ किरण २]
ऊँच-गोत्रका व्यवहार कहाँ ?
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क्योंकि प्रथम तो इक्ष्वाकुत्रादि क्षत्रियकुल काल्प- साथ ही नाभिराजाके पुत्र श्रीऋषभदेव (आदिनिक हैं, परमार्थस (वास्तवमें) उनका कोई अस्तित्व तीर्थकर) को भी नीचगोत्री बतलाना पड़ेगा; क्योंनहीं है। दूसरे, वैश्यों, ब्राह्मणों और शूद्रों में भी कि नाभिराजा अणुव्रती नहीं थे-उस समय तो उखगोत्रके उदयका विधान पाया जाता है। व्रतोंका कोई विधान भी नहीं हो पाया था। (६) "न सम्पनेभ्यो जीवोत्पत्तौ तद्व्यापारः, (८) “ततो निष्फलमुच्चैोत्रं, तत एव न
म्लेकराज-समुत्पन्न-पृथुकस्यापि उच्च- तस्य कर्मत्वमपि; तदभावेन नीचैर्गोत्रर्गोत्रोदयप्रसंगात् ।"
मपि द्वयोरन्योन्याविनाभावित्वात; ततो अर्थात-सम्पन्न (समृद्ध) पुरुषोंसे उत्पन्न होने गोत्रकर्माभाव इति *।" वाले जीवोंमें यदि उच्चगोत्रका व्यापार माना जाय-.
अर्थात्-जब उक्त प्रकारसे उसगोत्रका व्यवसमृद्धों एवं धनाढ्योंकी सन्तानको ही उच्चगोत्री
हार कहीं ठीक बैठता नहीं, तब उनगोत्र निष्फल कहा जाय तो म्लेच्छ राजासे उत्पन्न हुए पृथुककं
जान पड़ता है और इसीलिए उसके कर्मपना भी भी उच्चगोत्रका उदय मानना पड़ेगा-और ऐमा माना नहीं जाता। (इसके सिवाय, जो सम्पन्नोंसे
कुछ बनता नहीं । उचगोत्रके प्रभाव से नीच गोत्र
का भी प्रभाव हो जाता है; क्योंकि दोनों में पर. उत्पन्न न होकर निर्धनोंसे उत्पन्न होंगे, उनके उच्च
स्पर अविनाभाव सम्बन्ध है-एकके बिना दूसरगोत्रका निषेध भी करना पड़ेगा, और यह बात सिद्धान्तके विरुद्ध जायगी।)
का अस्तित्व बनता नहीं। और इसलिये गोत्रकर्म
का ही अभाव सिद्ध होता है। (७) "नाऽणुव्रतिभ्यः समुत्पत्ती तव्यापारः, ,
इस तरह गोत्रकर्मपर आपत्तिका यह 'पूर्वपक्ष' देवेष्वौपपादिकेषु उच्चैर्गोत्रोदयस्य अस- किया गया है, और इससे स्पष्ट जाना जाता है कि त्वप्रसंगात, नामेयश्च (स्य ?) नीचे- गोत्रकर्म अथवा उसका ऊँच-नीच-विभाग आज गोत्रतापत्तेश्च ।"
ही कुछ आपत्तिका विषय बना हुआ नहीं है,
बल्कि आजसे ११०० वर्षसे भी अधिक समय अर्थात-अणुवतियांस उत्पन्न होने वाले पहलेसे वह आपत्तिका विषय बना हुआ थाव्यक्तियों में यदि उच्चगोत्रका व्यापार माना जाय..... गोत्रकर्माश्रित ऊँच-नीचता पर लोग तरह-तरहकी अणुवतियांकी सन्तानोंको ही उच्चगोत्री कहा जाय---- आशंकाएँ उठाते थे और इस बातको जाननेके तो यह बात भी सुघटित नहीं होती; क्योंकि ऐसा मानने पर देवोंमें, जिनका जन्म औपपादिक होना * ये सब अवतरण और भागके अवतरगा भी है और जो अगुवतियोंसे पैदा नहीं होतं, भाराके जैन-सिद्धान्त भवनकी प्रति परस लिये उन्नगांत्रक उदयका प्रभाव मानना पड़ेगा, और गये हैं।
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अनेकान्त
[मार्गशिर, वीर-निर्वाण सं० २४६५
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लिए बड़े ही उत्कण्ठित रहते थे कि गोत्रकर्मके बात इतने परसे ही जानी जासकती है कि उसके
आधारपर किसको ऊँच और किसको नीच कहा वक्ता श्रीजिनेन्द्रदेव ऐसे प्राप्त पुरुष होते हैं जिनमें जाय ?-उसकी कोई कसौटी मालूम होनी चाहिए। असत्य के कारणभूत राग-द्वेष-मोहादिक दोषोंका पाठक भी यह जाननेके लिए बड़े उत्सुक होंगे कि सद्भाव ही नहीं रहता। जहाँ असत्य-कथनका
आखिर वीरसंनाचार्यने अपनी धवला-टीकामें, कोई कारण ही विद्यमान न हो वहाँसे असत्यकी उक्त पूर्वपक्षका क्या 'उत्तरपक्ष' दिया है और कैसे उत्पत्ति भी नहीं होसकती, और इसलिये जिनेन्द्रउन प्रधान आपत्तियोंका समाधान किया है जो पूर्व- कथित गोत्रकर्मका अस्तित्व जरूर है। पक्षके आठवे विभागमें खड़ी की गई हैं। अतः मैं इसके सिवाय, जो भी पदार्थ केवलज्ञानके भी अब उस उत्तरपक्षको प्रकट करनेमें विलम्ब विषय होते हैं उन सबमें रागीजीवोंके ज्ञान प्रवृत्त करना नहीं चाहता। पूर्व-पतके आठचे विभागमें नहीं होते, जिससे उन्हें उनकी उपलब्धि न होनेपर जो आपत्तियां खड़ी की गई हैं वे संक्षेपत: दो जिनवचनको अप्रमाण कहा जासके। अर्थात् केवलभागोंमें बांटी जा सकती हैं-एक तो ऊँच गोत्रका ज्ञानगोचर कितनी ही बातें ऐसी भी होती हैं जो व्यवहार कहीं ठीक न बननेसे ऊँच गोत्रकी निष्फ छद्मस्थोंके झानका विषय नहीं बन सकतीं, और लता और दूसरा गोत्रकर्मका प्रभाव । इसीलिए इसलिए रागाकान्त छमस्थोंको यदि उनके अस्तित्वउत्तरपक्षको भी दो भागों में बांटा गया है, पिछले का स्पष्ट अनुभव न हो सके तो इतने पर से ही भागका उत्तर पहले और पूर्व विभागका उत्तर उन्हें अप्रमाण या असत्य नहीं कहा जा सकता। पादको दिया गया है और वह सब क्रमशः इस (२) "नच निष्फलं उच्चैः गोत्रं, दीक्षायोग्यप्रकार है :
साध्वाचाराणं साध्वाचारैः कृतसम्ब(१) "[इति] न, जिनवचनस्याऽसत्यत्व- न्धानामार्यप्रत्ययाभिधानव्यवहार-निवविरोधात; तद्विरोधोऽपि तत्र तत्कारणाभाव
न्धनानां पुरुषाणां संतानः उच्चैर्गोत्रम् । तोऽवगम्यते । न च केवलज्ञानविषयीकृते
तत्रोत्पत्तिहेतुकमप्युच्चैर्गोत्रम् । न चास्त्र वर्थेषु सकलेष्वपि रजोजुषां ज्ञानानि प्रवर्तन्ते
पूर्वोक्तदोषाः संभवन्ति विरोधान् । येनाऽनुपलंभाज्जिनवचनस्याप्रमाणत्वमुच्येत ।"
* जैसा कि 'धवला' के ही प्रथम खण्डमें उद्धृत
निम्न वाक्योंसे प्रकट है:अर्थात्-इस प्रकार गोत्रकर्मका प्रभाव कहना आगमो साप्त वचनं प्राप्त दोषक्षयं विदुः । ठीक नहीं है, क्योंकि गोत्रकर्मका निर्देश जिन- व्यक्तदोषोऽनृतं वाक्यं न ब या गत्वसंभवात् ॥ वचन-द्वारा हुआ है और जिनवचन असत्यका रागाहा पाहा मोहादा नाक्यमुच्यते पनृतम् । विरोधी । जिनवचन असत्यका विरोधी है, यह यस्य तु नैते दोषास्तस्यानतकारण नास्ति ।
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वर्ष २, किरण २]
ऊच-गोत्रका व्यवहार कहाँ ?
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तद्वीपरीतं नीचैर्गोत्रम् । एवं गोत्रस्य च्छिन्न ऋषि-परम्परासे बराबर चला पाता है। जिनाद्वे एव प्रकृती भवतः।"
गमके उपदेष्टा जिनेन्द्रदेव-भ० महावीर-राग,
द्वेष, मोह और अज्ञानादि दोषोंसे रहित थे। ये अर्थात-उच्चगोत्र निष्फल नहीं है; क्योंकि ही दोष असत्यवचनके कारण होते हैं। कारणउन पुरुषांकी सन्तान उच्चगोत्र होती है जो दीक्षा के प्रभावमें कार्यका भी प्रभाव हो जाता है, और योग्य-साधुश्राचारोंसे युक्त हों, साधु-आचार- इसलिए सर्वश-वीतराग-कथित इस गोत्रकर्मवालोंके साथ जिन्होंने सम्बन्ध किया हो, तथा को असत्य नहीं कहा जासकता, न उसका प्रभाव आर्याभिमत नामक व्यवहारोंसे जो बँधे हों। ही माना जासकता है । कम-से-कम आगम-प्रमाणऐसे पुरुषोंके यहाँ उत्पत्तिका-उनकी सन्तान द्वारा उसका अस्तित्व सिद्ध है। पूर्वपक्षमें भी बननेका-जो कारण है वह भी उमगोत्र है। उसके अभावपर कोई विशेष जोर नहीं दिया गयागोत्रके इस स्वरूपकथनमें पूर्वोक्त दोषोंकी संभा- मात्र उमगोत्रके व्यवहारका यथेष्ठ निर्णय न हो वना नहीं है क्योंकि इस स्वरूपके साथ उन दोषोंका सकनेके कारण उकताकर अथवा आनुषंगिकविरोध है-उचगोत्रका ऐमा स्वरूप अथवा ऐसे रूपसे गोत्रकर्मका अभाव बतला दिया है। इसके पुरुषोंकी सन्तानमें उचगोत्र का व्यवहार मान- लिये जो दूसरा उत्तर दिया गया है वह भी ठीक ही लेनेपर पूर्व-पक्षमें उद्भत किये हुए दोष नहीं बन है। निःसन्देह, केवल ज्ञान-गोचर कितनी ही ऐसी मकते। पञ्चगोत्रके विपरीत नीचगोत्र है...जो सूरम बातें भी होती हैं जो लौकिक झानोंका विषय लोग उक्त पुरुषोंकी मन्तान नहीं है अथवा उनसे नहीं हो सकती अथवा लौकिक साधनोंसे जिनका विपरीत आचार-व्यवहार-वालोंकी सन्तान हैं वे ठीक बोध नहीं होना, और इसलिये अपने ज्ञानका सब नीचगोत्र-पद के वाच्य हैं, ऐसे लोगोंमें जन्म विषय न होने अथवा अपनी ममझ में ठीक न लेने के कारणभूत कर्मको भी नीचगोत्र कहते हैं। बैठने के कारण ही किसी वस्तुनत्वके अस्तित्वसे इस तरह गोत्रकर्म की दो ही प्रकृतियाँ होती हैं। इनकार नहीं किया जामकता। ___ यह उत्तरपन्न पूर्वपक्षके मुकाबलेमें कितना सबल है, कहाँ तक विषयको स्पष्ट करता है और हाँ, उत्तरपनका दूसग विभाग मुझे बहुत किस हद तक सन्तोषजनक है, इसे सहदय पाठक कुछ अस्पष्ट जान पड़ना है। उसमें जिन पुरुषोंकी एवं विद्वान महानुभाव स्वयं अनुभव कर सकतं मतानको उबगोत्र नाम लिया गया है उनके विशेहैं। मैं तो, अपनी समझ के अनुसार, यहाँपर पणों पर से उनका ठीक स्पष्टीकरण नहीं होतामिर्फ इतना ही बतलाना चाहता हूँ कि इस उत्तर- यह मालूम नहीं होना कि-१ दीक्षायोग्य साधुपक्ष का पहला विभाग तो बहुत कुछ स्पष्ट है। प्राचारोंसे कौनसे प्राचार विशेष अभिप्रेत है ? गोत्रकर्म जिनागमकी नाम वस्तु है और उसका २ 'दीना' शनी मुनिदीलाका ही अभिप्राय है या वह उपदेश जो उत्त मूलसूत्र में मंनिविध है, अवि. श्रावकदीक्षाका भी? क्योंकि प्रतिमाओं के प्रति
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अनेकान्त [मार्गशिर, वीर-निर्वाण सं० २४६५ रिक्त श्रावकोंके बारह प्रतभी द्वादशदीक्षा-भेद कह- होनेसे भी वे उच्चगोत्री नहीं रहेंगे । यदि श्रावकलाते हैं*; ३ सावुश्राचार-वालोंके साथ सम्बन्ध के व्रत भी दीक्षामें शामिल हैं तो तिथंच पशु भी करनेकी जो बात कही गई है वह उन्हीं दीक्षायोग्य उच्चगोत्री ठहरेंगे; क्योंकि वे भी श्रावकके व्रत धारण साधुमाचार वालोंसे सम्बन्ध रखती है या दूसरे करनेके पात्र कहे गए हैं और अक्सर श्रावकके साधुआचार वालोंसे? ४सम्बन्ध करनेका अभिप्राय व्रत धारण करते आए हैं। तथा देव इससे भी विवाह-सम्बन्धका ही है या दूसरा उपदेश, सह- उच्चगोत्री नहीं रहेंगे; क्योंकि उनके किसी प्रकार निवास, सहकार्य, और व्यापारादिका सम्बन्धभी का व्रत नहीं होता-वे अव्रती कहे गए हैं। यदि उसमें शामिल है ? ५ ार्याभिमत अथवा आर्य- सम्बन्ध का अभिप्राय विवाह सम्बन्धसे ही हो; प्रत्ययाभिधान नामक व्यवहारोंसे कौनसे व्यवहारों- जैसा कि म्लेच्छ-खण्डोंसे आए हुए म्लेच्छोंका का प्रयोजन है ? ६ और इन विशेषणोंका एकत्र चक्रवर्ती श्रादिके साथ होता है और फिर वे समवाय होना आवश्यक है अथवा पृथक-पृथक् म्लेच्छ मुनिदीक्षा तकके पात्र समझे जाते हैं, तब भी भी ये उचगोत्रके व्यंजक हैं ? जबतक ये सब देवतागण उच्चगोत्री नहीं रहेंगे; क्योंकि उनका बातें स्पष्ट नहीं होती, तबतक उत्तरको सन्तोषजनक विवाह-सम्बन्ध ऐसे दीक्षायोग्य साध्वाचारोंके साथ नहीं कहा जासकता, न उससे किसीकी पूरी तसल्ली नहीं होता है। और यदि सम्बन्धका अभिप्राय हो सकती है और न उक्त प्रश्न ही यथेष्टरूपमें हल उपदेश आदि दूसरे प्रकारके सम्बन्धोंसे हो तो हो सकता है। साथही इस कथनकी भी पूरी जाँच शक, यवन, शवर, पुलिंद और चाण्डालादिककी नहीं हो सकती कि गोत्र के इस स्वरूप-कथनमें तो बात ही क्या ? तिर्यच भी उच्चगोत्री हो जायँगे; पूर्वोक्त दोषोंकी सम्भावना नहीं है।' क्योंकि क्योंकि वे साध्वाचारोंके साथ उपदेशादिके सम्बन्ध कल्पनाद्वारा जब उक्त बातोंका स्पष्टीकरण किया को प्राप्त होते हैं और साक्षात् भगवान के समव जाता है तो उक्त स्वरूप-कथनमें कितने ही दोष सरण में भी पहुंच जाते हैं। इस प्रकार और भी आकर खड़े हो जाते हैं। उदाहरणके लिए यदि कितनी ही आपत्तियाँ खड़ी हो जाती हैं। 'दीक्षा' का अभिप्राय मुनिदीताका ही लिया जाय तो देवोंको उबगोत्री नहीं कहा जायगा, किसी
आशा है विद्वान् लोग श्रीवीरसेनाचार्य के उक्त पुरुषकी सन्तान न होकर औपपादिक जन्मवाले
स्वरूप-विषयक कथनपर गहरा विचार करके उन * जैसा कि तत्त्वार्थश्लोकबार्तिकमें दिये हुए भी
. छहों बातोंका स्पष्टीकरण करने आदिकी कृपा
भा- करेंगे जिनका ऊपर उल्लेख किया गया है, जिससे विद्यानन्द प्राचार्य के निम्न वाक्य से प्रकट है :- यह विषय भले प्रकार प्रकाशमें आसके और उक्त __ "तेन गृहस्पस्य पंचाणुप्रतानि सप्तशीलानि गुणवत
प्रश्नका सबोंके समझ में पाने योग्य हल होसके। शिक्षामत-व्यपदेशमाजीति द्वादशदीक्षाभेदाः सम्यक्तपूर्वकाः सरलेखनान्ताश्च महात-तच्छीलवत् ।" वीरसेवामन्दिर सरसावा, ता. २१-११-१९३८
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भगवान महावीरके बादका इतिहास
[ले० श्री बाब सूरजभानु वकील]
महावीरस्वामीका निर्वाण ईमासे ५२८ में कायम की। उसके बाद उसके बेटे अनुरुद्ध
'बग्म पहले हुआ, भगवान बुद्धका का, फिर मुंडका. फिर नन्दीका, राज्य हुआ। निर्वाण १५ बरस पहले होचुकाथा। महावीर नन्दीको नन्दवर्धन भी कहते हैं। उसने उड़ीसा भगवान के समयमें मगध देशमें, जिनकी राजधानी तक सब देश जीत लिया और सारे हिन्दुस्तानका गजगृह थी, शिशुनाग वंशी राजा श्रेणिक (बिम्ब- राजा हो गया। उस समय उड़ीमामें जैन-धर्म मार ) गज्य करता था। ईसासे ६४२ बरम पहले फैला हुआ थाः नन्दिवर्धन कट्टर बौद्ध था, जैनशिशुनागने इस राज्यकी स्थापना की थी । श्रेणिक धर्मसे द्वेष रखता था: इमकारण वह वहाँस जैन इम वंशका पाँचवाँ गजा था। ईसासे ५८२ बरस मूर्तियाँ उठा लाया। उसके बाद उसका बेटा महापहले वह गजगद्दी पर बैठा. २८ बरम राज किया नन्द गजा हुआ; उसके पीछे उमका बेटा महा
और अंग देशको जीतकर अपने गज्यमें मिलाया। पद्मनन्द गजा हुआ, वह भी मार हिन्दुस्तानका श्रेणिकके द्वारा जैन-धर्मका बड़ा भारी प्रचार हुआ। एक छत्र राजा हुश्रा और दुनियामें प्रसिद्ध हुश्रा, ईसासे ५५२ बरस पहले उसका बेटा अजातशत्रु उसके पीछ उमके आठ बंटोंका गज्य हुआ, (कुणिक) गद्दी पर बैठा। उसने अपने मामाओंमें जिनमें मुख्य मामल्यनन्द या धननन्द था. प्रजा लड़कर वैशाली और कौशलके गज्य भी जीत उनसे बहुत दुखी थी। ईसासे ३२६ बरम पहले, लिये। अजातशत्रुभी जैनो था; परन्तु बौद्ध चद्रगुप्त नामके एक जैनीने उनसे गज्य छीन प्रन्थोंमें उसको बौद्ध लिखा है । ईसास ५१८ बरस लिया, जिसका कथन आगे किया जायगा। पहले उसका देहान्त होगया, जिसके बाद उसका बटा दर्शक राजा हुआ । उसके बाद ईसासे ४८३ इनदिनों हिन्दुस्तानकी पश्चिमी सीमासे बरस पहले उसका बेटा अजउदयी राजा हुश्रा। लेकर यूरपके यूनान देश तक ईरान (फारिस) । उसने उनको भी जीत लिया और मगधकी के महाराजा दागका राज्य था। इम वंशके राजा राजधानी राजगृहसे हटाकर पाटलीपुत्र (पटना) बड़े अभिमानके साथ अपनेको आर्य-पुत्र कहा
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अनेकान्त
[मार्गशिर, वीर निर्वाण सं० २४६५
करते थे। मिसर, रूम (टर्की) आदि सब देश ही आधीन हो गया । स्यालकोट के मुक्कामपर माझा उसके आधीन थे। पारस राजवानी थी, इसही के कठ लोग और क्षुद्रक और मालवाके राजा नगरीके नामसं यह देश फारस कहलाया। उम खूब लड़े, परन्तु पुरुको महायतासे सिकन्दरको समय सिकन्दरका पिता किलप यूनान के एक छोटे जीत हुई। आगे रावी और ब्यास नदीके पास से पहाड़ी इलाके मकदोनियाका राजा था और पहुँचने पर नन्द राजाकी शक्ति और प्रभावसे दाराकी आधीनता मानता था। वह यवन था। भयभीत होकर सिकन्दरकी सेनाने आगे बढ़नेसे यूनानके रहने वाले योन या यवन कहलाते थे। इनकार कर दिया। यह ईमासे ३२७ बरम पहले उसके मरने पर उसके महाप्रतापी बेटे सिकन्दरने की बात है। सारे यूनान पर अधिकार करलिया; फिर मिश्र
और टर्कीको जीतता हुश्रा ईरान पर चढ़ गया, लाचार सिकन्दर जहलुम नदी तक वापिस दाराको मारा, ईरान पर कब्जा किया, फिर ईसास आया और वहाँसे दक्खिनकी तरफ बढ़ा। शिवि३३० बरस पहले सीस्तान (शकोंके रहनेका स्थान) राजने बिना लड़े ही श्राधीनता मानली । अगलस्य, को जीतकर कंधारको जीता, फिर बाख्तर पहुँचा, मालव और क्षुद्रक जातिवाले लड़े । इस लड़ाईमें समरकंद, बुग्वारा आदि सब देश जीते, यहाँ भी मिकन्दरकी छातीमें घाव होगया । आगे चलने पर शक लोग रहा करते थे। उधर ही एक हिन्दुस्तानी अम्बष्ट, वसानि और शौढ़ जानिके लोगोंने मुकाराजा शशिगुनका राज्य था; उसको भी जीतकर बिला नहीं किया । वहाँसे सिंधकी तरफ बढ़ा, मुचि. साथ लिया और पंजाब पर चढ़ाई की। रावल- कर्ण राज्यने भी मुकाबिला नहीं किया। ब्राह्मण पिंडीसे उत्तर में तक्षशिला (गांधार देश) के राजा राजा ने मुकाबिला किया, परन्तु सिकन्दरने उसको
आम्भिने दूरसे ही उसकी आधीनता स्वीकार कर बहुत निर्दयतासे दबाया। फिर पातानप्रस्थ (हैदली और उसके साथ होलिया। पश्चिमी कंधारका राबाद सिंध) पहुंचा। लोग देश छोड़कर भाग राजा हस्थी खूब लड़ा; परन्तु हार गया, सिकन्दरने गये, फिर पश्चिमके रास्ते हिन्दुस्तानसे बाहर हो
राज्य, उसके साथी संजयको देदिया. फिर गया और ईसासे ३२३ बरस पहले रास्ते में ही अवर्णको जीतकर शशिगुप्तको वहाँका राज्य दिया, उसका देहान्त होगया। पीछे उसके जीते हुए फिर तक्षशिला होता हुआ केकय देश (जहलम, देशोंको उसके सेनापतियोंने दबालिया। सिकन्दरशाहपुर, गुजरात) पर आया। वहाँका राजा पुरु ने अपने इस संग्रामके समयमें यूनानियों, ईरा बड़ी बहादुरीसे लड़ा, आम्भिने हमला करके उसको नियों और हिन्दुतानियोंके बीच आपसमें विवाहपकड़ लिया । सिकन्दरने उसको भी अपना सेना- संबन्ध होनेका बहुत ज्यादा रिवाज डाला था। पति बनालिया और ग्लुचुकायन देशको जीतकर इन दिनों मगधमें नन्द राजाका राज्य था। उसके आधीन क्रिया, चिनाबनदीके उसपार मुद्रक प्रजा उससे दुखी थी। जैन-धर्मी चन्द्रगुप्त ने ईसासे देशका राजा पुसका भतीजा था, वह भी बिना लड़े ३२१ बरस पहले उससे राज्य छीन लिया। कहते
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हैं कि वह नन्द राजाकी मुरा नामकी दासीका बेटा कर अपनी जान बचाई। फिर काश्मीरसे उत्तर था, इसही कारण मौर्य कहलाया। परन्तु उसके का इलाक़ा काम्बोज और बदग्वशां भी चन्द्रगुप्त के कट्टर जैनी होनेके कारण ही उसको द्वेषसे बदनाम आधीन हो गया। वह सारे हिन्दुस्तानका महा किया जाता है। मौर्य नामक क्षत्रियोंका राज्य प्रतापी राजा हुआ और जैन-धर्मका भारी प्रचार हिमालयकी तराईमें, नेपालके पास था । बुद्ध भगा किया । २४ बरस राज्य करके १२ बरसका भारी वानके निर्वाण होनेपर पिप्पली बनकं मौर्य क्षत्रियों- दुर्भिक्ष पड़ने पर अपने बेटे बिन्दुसारको राज ने भी उसकी चिताकी राखका भाग माँगा था। दे, श्री भद्रबाहु श्राचार्य के साथ, कर्णाटक देशभगवान महावीरक गणधरोंमें भी एक मोरिय- को चला गया, और मुनिदीक्षा लेकर भारी पुत्र था । चन्द्रगुप्त बालपन में ही वड़ा साहसी था। तप किया। नन्द राजानं उसके अनुपम साहसको देखकर ही उसके मार डालनेका हुक्म दिया था। वह भागकर बिन्दुसाग्ने भी बहुत योग्यताके माथ गज्य पंजाब चला गया। वहाँ सिकन्दरस मिला. परन्तु किया, परन्तु उमने बौद्ध धर्म ग्रहण कर, दुनिया उससे भी अनबन होगई जिससे सिकन्दरने भी भरमें उसका प्रचार किया। उसके पीछे उसका उसके मार डालनकी आज्ञा दी। वह साहसी वीर बेटा अशोक जो ब्राह्मण गनीसे पैदा हुआ था, वहाँस भी भाग निकला, वहीं पंजाबमें ही उसको राजा हुअा। वह चक्रवर्तीके समान महाप्रतापी चाणक्य नामका एक महानीतिज्ञ ब्राह्मण मिल गजा हुआ। उसने मध्यागशियामें खुतनको और गया। सिकन्दरके चले जानपर चन्द्रगनने चाणक्य तिब्बतके उत्तरमें तातार देशको भी जीता, जिमको की सलाहस सिकन्दरके जीते हुए प्रदेश में विद्रोह ब्रह्म-पुराणमें उत्तर कुरु लिग्या है । इस तरह चीन कराकर स्वयं उनका शासक बन बैठा । फिर उनहीं की हद्द तक उमका गज्य फैल गया। पश्चिममें लोगोंकी फौज बना कर मगधपर चढ़ाई कर दी। उमका गज्य यूनान तक फैला। उड़ीसाके राजाके और नन्द राजाको जीतकर वहाँका राजा होगया। माथ उसकी भारी लड़ाई हुई, जिसमें लाखों
आदी मरते देखकर उसको लड़ाई करने में सिकन्दरके मरने पर उसके सेनापति मैल्यू. घृणा हो गई । तबसे उसने लड़ाई लड़ना छोड़कर कसने उसका जीता हुअा राज्य दवाकर हिन्दु- बौद्ध-धर्मके द्वारा अहिंसा परमोधर्मः का प्रचार स्तानकी पश्चिमी हह तक अपना अधिकार जमा करना शुरू कर दिया । दूर दूर तक मबही देश में लिया था। ईसामं ३०५ बरस पहले उसने पंजाब धर्म उपदेशक भेजे, हुक्मनामे जारी किये, जिनपर भी चढ़ाई कर दी, परन्तु चन्द्रगुप्त ने उमको में हिंसाबन्द करनेकी कड़ी आज्ञा थी । जगह २ ऐसी मात दी कि उसने हिन्दुस्तानक बाहरके बड़े २ स्तम्भ वनवाकर उनपर अपनी प्राज्ञायें चार सूबे कंधार, हिरात. किलात और लालबेला खुदवाई, यज्ञ आदिक धर्म-अनुष्टानोंमें भी चन्द्रगुम को देकर और अपनी बेटी उसको व्याह 'गजाज्ञा द्वारा पशुहिमा बंद की; जिममं वैदिक
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अन्
धर्मका प्रचार बहुत कुछ कम हो गया । और ब्राह्मणोंका जोर घट गया। जात-पाँतका झगड़ा दूर होकर सबहीको लौकिक और धार्मिक उन्नति करने का अवसर प्राप्त हो गया।
अशोक के पीछे उसका बेटा कुणाल राजा हुआ। उसके पीछे उसका बेटा दशरथ राजा हुआ, जिसको सम्प्रति भी कहते हैं । उसको श्री आचार्य महाराज मुहस्तीन जैनी बनाया, उसने जैन धर्मका ऐसाही भारी प्रचार किया जैसा अशोकने बौद्ध धर्मका किया था। उसने अफ़ग़ानिस्तान, ईरान, बलस्न, बुखारा, काशग़र, बदनशान आदि पश्चिमोत्तर देशों में भी धर्म प्रचारकं अर्थ जैन साधु भेजे, जहाँ शक, यवन और पत्र आदि जातियाँ रहती थीं । जगह २ जैनमन्दिर बनवाये । राजपूताने में उसके बनवाये मन्दिरोंके निशान अब तक मिलते हैं। वह सारे हिन्दुस्तानका महा प्रतापी राजा हुआ। उसके बाद शालिशुक, उसके बाद सोमधर्मा (देवधर्मा) उसके बाद शतधनुष, उसके बाद बृहद्रथ राजा हुआ; इसप्रकार ईसासे २८५ बरस पहले तक मौर्य वंशका राज रहा ।
इसी समय बृहद्रथ ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्रने तलवारसे राजाका सिर काट स्वयं मगधका राजा बन बैठा, तभीसे शुंग वंशका राज चला । परन्तु राजपूतानेमें मौर्यवंशी जैनी राजाओं का राज ईसाकी आठवीं शताब्दी तक बराबर बना रहा। चित्तौड़का क़िला मौर्य राजा चित्रांगदने बनवाया । मानसरोवर मौर्य वंशी राजामानने ७१३ ईसवीमें बनवाया। कोटा राज्यमें ७३८
सीका शिलालेख मौर्य - राजा धवलका मिला है।
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बम्बईक खानदेश जिलेमें १०६६ ईसवीके शिलालेखमें वहांक २० मौर्य राजाओं के नाम हैं, जिनके वंशज अबतक दक्षिणमें हैं और मोरं कहलाते हैं
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इसप्रकार श्रीमहावीरस्वामी और भगवान बुद्ध के समय से लेकर चारसौ बरस तक जैनधर्मी राजा श्रेणिककी सन्तान और जैन-धर्मी महाराजा चन्द्रगुप्त मौर्य की सन्तानका राज्य मगधकी गद्दी पर बना रहकर सारे हिन्दुस्तानमें औ हिन्दुस्तानके बाहर भी दूर-दूर तक जैन-धर्म और बौद्ध धर्मका खूब प्रचार रहा । हिंसा कर्म कांडोंके स्थान में अहिंसा परमो धर्मः का डंका बजा और सबही को धर्म पालनका अधिकार मिला, जिसके बाद अब फिर पुष्यमित्र ब्राह्मण के द्वारा हिंसा मय वैदिक धर्मका प्रचार शुरु हुआ, उसने स्वयम दो बार श्रमेध यज्ञ किया, ब्राह्मणोंका महत्व प्रारम्भ हुआ, वैदिक धर्मको न मानने वाले, धर्मअनुष्ठानोंमें पशु-हिंसा न करने वाले शूद्र वा म्लेच्छ कहलाये जाकर घृणा की दृष्टि से देखे जाने लगे, जात-पातका भेद जोरोंके साथ उठ खड़ा हुआ । मगधसे लेकर पंजाब में जालंधर तक पुष्यमित्रने जैन और बौद्ध साधुयोंको क़त्ल कराया, उनके मठ मन्दिर और बिहार जलवाये; जिससे उनमेंसे बहुतोंने दूसरे देशोंमें जाकर जान बचाई। ३६ बरस उसका राज्य रहा, इस बीचमें उसने जैनों और बौद्धोंका जड़ मूल नाश करनेके वास्ते क्या कुछ नहीं किया ?
इधर हिन्दुस्तान से बाहर क़ाबुल, ईरान, बलख.
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बदस्खशामें बड़ी गड़ बड़ होरही थी । बलख-बुग्वारा के मुकाबिलेको खड़ा हुआ। में सीरियाके यूनानी राज्यकी तरफसे यूनानी गवर्नर (क्षत्रप) राज्य करता था । ईसासे २५० इनही दिनों उड़ीसामे एक महाप्रतापी जैन बरस पहले क्षत्रप दियोटोतने अपने राज्यको गजा खारवेल राज्य करता था। उसने देखा कि सीरियाके राज्यसं आजाद करलिया । बलख पुष्यमित्र उसका मुक़ाबिला नहीं कर सकेगा के पच्छिम तरफ़ खुरासानमें पार्थव जातिका राज्य और दिमेत्र उसको जीतकर उड़ीसा परभी चढ़ था, जो पह्नव कहलाते थे, वहाँ उस ममय शकों आवेगा; इसकारण खारवेल खुद दिमेत्रके मुक़ाबिले की एक जाति पर्ण पाबमी थी. इन शकोंकी को पाया और दिमेत्रको वापिस भगाते२पंजाबसे सरदारीमें सारे पार्थव यूनानी राज्यकं स्त्रिलाफ बाहर निकाल कर आया। लौटते हुए खारवेल होकर ईसास २४८ बरस पहले स्वतंत्र होगये. मगध परभी चढ़ आया , परन्तु पुष्यमित्रने फिर उन्होंने मार ईगन पर अधिकार करीलया उसके पैरों पर पड़कर अपना राज्य बचा लिया।
और चार मी बरस नक राज्य किया । बखतरमें पिछले दिनों नन्द गजा जो जैन मूर्तियाँ उड़ीसा यूनानियोंका कुछ राज बना रहा, मौरियाक स उठा लाया था, उनको वापिस लेकर खारवेल यूनानी राजा अन्तियोकन ईमास.०८ बरस पहले वापिस घर चला गया। वारवेल चक्रवर्तीके समान बास्त्रतर पर चढ़ाईकी: वहाँ देवदातका पाता महादिग्विजयी राजा हुआ है । उसने सारे एकथिदिम गज्य करता था। उसने अपने बेटे दग्बन और बंगालको जीत कर वहाँ जैन-धर्मका दिमत्रकी मारफत सुलह करली । अन्तियोक प्रचार किया, परन्तु उसके मरने पर उसका ने दिमत्रको अपनी बेटी व्याह दी और उसकी राज्य आगे नहीं चला । वारवेलके मरने पर सहायतासे काबल पर चढाई की । वहाँके राजा पुष्यमित्रने फिर जार पकड़ा । दिमेत्रको खदेड़ मुभागसेनने मुलह करली । यहाँस अन्तियोक कर जिस पंजाब पर खारवेलका गज्य होगया वापिस चला गया, उसके वापिस चले जान था उसपर अब पुष्यमित्रने कब्जा करके अश्वमेध पर दिमंत्रका गज खूब बढ़ा। सुभागसनक मरनं यज्ञ किया । ईमाम ११५ बग्म पहले दिमेत्र पर ईसास १६० बरस पहले दिमत्रन हरान, यूनानीका बंटा मेनेन्द्र फिर हिन्दुम्नान पर चढ़ काफिरस्थान, कंधार और सीम्नान पर कब्जा कर पाया, परन्तु अबकी बार उसने मगध पर करलिया। फिर दिमेत्रन हिन्दम्तान पर चढाई चढ़ाई नहीं की; किन्तु अव्वल पंजाब पर कब्जा की, और मद्र देशको राजधानी मियालकोटको करके फिर दमवनकी तरफ जीतता हा काठियाजीतकर, मथुरा और मध्य देशभी जीता, और वाड़ तक अपना गज्य जमा लिया। हिन्दुम्नानसे फिर मगध परभी चढ़ाई करदी । इनहीं दिनों बाहरभी चीन तक उमका गज्य होगया, उसने पुष्यमित्र ब्राह्मणने मौर्य राजाका सिर काटकर बुद्धधर्म म्बीकार कर लिया था, बौद्ध-प्रन्यों में मगधका राज्य अपने हाथमें लिया था, वह दिमंत्र उमको मिलिन्द लिखा है।
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अनेकान्त
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पुष्यमित्रके पीछ उसके वंशके १ राजा राज्य कासीपुत्त भागभद्र त्राताके-जोकि अपने राजके करते रहे। इस प्रकार शुंगवंशी ब्राह्मणोंका १४ वें बरसमें है. उसके पास आये हुए. तखसिला यह राज ११२ बरस तक रहा; जबकि राजाक निवासी दियके पुत्र यवनदृत नागवत हेलिमंत्री वासुदेव नामके कण्व ब्राह्मणने गजाको उदोरने" मरवा कर स्वयम राज्य पर कब्जा कर लिया।
____ इनही दिनों विक्रम संवत चला। इस उसके बाद कण्व वंशके तीन गजा और हुए,
संवनके बिषयमें पुरानी खोज करने वाले विद्वान परन्तु इस वंशका राज्य कुल ४५ बरस तक ही रहा। उसके बाद ईसासे २७ बरस पहले अंध्र
___ बड़ी भारी गड़-बड़में पड़े हुए थे-कुछभी पता वंशके एक गजाने जो सातवाहन वा मातकार्णि
नहीं लगा मकं थे कि यह संवन कब चला और कहलाने थे और जिनका राज्य मारे दम्वनमें
किसने चलाया; परन्तु कालकाचार्य नामकी एक फैला हुआ था। कण्ववंशके गजा सुश्रमणको
- जैन कथासे यह गुन्थी बिल्कुल सुलझ गई है मारकर राज्य छीन लिया । ये लोग द्राविड़
- और मब विद्वानांन मानली है। उसके अनुसार थे और बहुत समयसे दक्खनमें गज्य कररहे थे।
। उनके गर्दभिल्ल जानिके एक हिन्दु गजा विक्रमापीछे येही लोग मालबाहनभी कहलाने लगे थे पर
दित्यन जैन-धर्मकी रक्षा करने वाले शकोंको इनके ममयमं प्राकृतका बहुत भार्ग प्रचार हुश्रा
मध्य भाग्नम निकाल कर ईमासे ५७ बग्म और संस्कृतका प्रचार दब गया।
पहले विक्रम संवन चलाया । शक जातिका
वृत्तान्त आगे लिखा जाता है, जिन्होंने विक्रमाशंगवंश और कण्ववंशक राज्य कालम दिन्यक पिता गर्दभिल्लको हराकर उज्जैन पर अपना जैन और बौद्धधर्मक स्थानमें वैदिकधर्मका अधिकार कर लिया था, परन्तु उनका यह अधिकार ग्वब प्रचार हुआ। शैवधर्म और भागवतधर्म केवल चार ही बरम रहाः पीछे विक्रमादित्य (वैष्णवधर्म) की उत्पत्ति हुई और बहुत प्रचार ने उनसे ही राज्य छीन अपना संवन चलाया हुआ । सौ डेढ़ मौ बरसके अन्दर ही अन्दर इन था, इसके १३५ बरम पीछे उजैन पर फिर शकों धोका ऐसा भारी प्रचार होगया कि उस समय का राज हो गया, तब उन्होंने शक संवत् चलाया, तक्षशिलाके एक यूनानी राजाने जो अपना एक जो अब तक चल रहा है। दक्षिण देशके सबही यूनानी दूत यहाँके राजा भागभद्रके पास भेजा जैन ग्रंथों में शक संवन ही लिखा जाता रहा थाः उस यूनानी दृतने भी यहाँ विष्णु भगवानका है। एक गरुडध्वज बनवायाः जिसपर खुदे लेखका
शक लोग तिब्बतके उत्तर और चीनके पच्छिम अर्थ इसप्रकार है:
में तातार देशके रहने वाले थे। ये लोग आर्य भाषा "देवोंके देव वासुदेवका यह गरुडध्वज यहाँ बोलते थे और रहन सहन धर्म विश्वास आदिमें बनवाया, महाराज अन्तलिकितके यहाँसे राजा भी ऐसे ही थे जैसा वर्णन सबसे पुरानी पुस्तक
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वेदोंमें वा ईरान (फारिस) देशकी धर्म पुस्तक कहलाता था। पीछेसे यह ही शब्द बिगड़कर जिन्दावस्था (छन्द व्यवस्था) में मिलता है । इनकी शाहनशाह होगया । अपने बाप दादाका बदला एक टोली बहुत दिनोंसे काबुलसं पश्चिम तरफ लेनेके वास्ते फारिसके राजाने शक सर्दारोंके पास श्राबमी थी; इसहीसे उस स्थानका नाम शक एक कटारी भजी कि अपने परिवारको बचाना स्थान वा सीस्तान होगया था। फिर जब ईसास चाहते हो तो अपने सिरकाटकर भेजदो, नहीं तो २४६ बरस पहले चीनके राजाने अपने देशको सर्वनाश कर्रादया जावेगा। हूण नामकी एक जंगली जातिकी लूट मारसे बचाने वाले चीन भी लम्बी इनदिनों उज्जैनमें गर्दभिल्ल जातिका राजथा, एक दीवार बनवादी । तबसं यह हण लोग शकों जिनके अत्याचारोंसे तंग आकर जैनाचार्य कालक पर लूट मार करने लगे, उनसे तंग आकर ताहिया सीसतानमे चलागया था। उसने शक सरदागेको वा तुखार नामको शक जाति काश्मीरके उत्तरमें ममझाया कि लड़ाई करके क्यों अपना सर्वनाश आबसी थी, उसीके कारण पामीर, कम्बोज, बलख करते हो ? मेरे माथ हिन्दुस्तान चले चलो। शक और वदग्नशानका सारा देश तुस्वार वा तुखारि- सरदारोंने उसकी बात मानली और ६६ सरदार म्नान कहलाने लगा था, इसके कुछ दिनों बाद अपनी अपनी सेना सहित हिन्दुस्तान प्रागये । ईसास १६५ बरस पहले यूइश या ऋषिक नामकी पहले सिंध प्राये वहाँ राज्य कायम किया, फिर एक और शक जाति बाखतग्में प्राबसी, तस्तार काठियावाड़ पहुँच, वहाँ भी राज्य स्थापित किया। भी इनके आधीन होगये. मिस नदी पर जगह २ गवर्नर नियत किये जो क्षत्रप वा महा एक टोली हरातमें भी जावमी और कर क्षत्रय कहलाये । फिर गुजरातके गजात्रोंकी महामीस्तानमें श्रावस. जहां पहलेम ही शक लोग यतासे उज्जैनपर चढ़ाई की और अपना गज ग्हते थे।
स्थापित किया परन्तु उज्जैनमें उनका यह राज चार
बग्म ही रहा, जिसके बाद गर्दभिल्लके बेटे विक्रमा. सीस्तान उस ममय ईरानके पार्थव राजके दित्यने उनसे गज्य छीनकर ईमासे ५७ बरस आधीन था; परन्तु अब नवीन आगन्तुक भाइयों- पहले विक्रम संवम चलाया। का बल पाकर शक लोग पार्थवोंसे लड़ पड़े पार्थव गजा फ्रावन लड़ाई में मारागया। उसके बेटे प्रात
___उस समय शकोंका गजा नहपान था जो वाननं तुम्हारोंपर चढ़ाईकी, परन्तु वह भी मागगया,
नहगत वंशका था, जिमका जमाई उपवदान उसके बेटे मिथदानने शकोंका पूरा पूरा दमन
(ऋषभदत्त) शक था, जिसका एक लेख नासिक किया, शकोंने उम ममय राजाधिराजकी पदवी
(बम्बई अहाता) के पाम मिला है, जिमका अर्थ धारण कर रखी थी। ईरान (कारिस) का राजा
इमप्रकार है:माहुअानसाह अर्थान साधुओंका भी माधु "राजा ज्ञहगत जत्रप नहपानकं जमाई
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अनेकान्त
[मार्गशिर वीर निर्वाण सं० २४६५ दीनिकके बंट, तीनलाम्ब गउओंका दान करनेवाले बुद्धकी मूर्ति स्थापित कराई, जिसके लेखका वार्णासापर म्वर्ण दान करने और तीर्थ बनवाने अर्थ इस प्रकार है :-- वाले, देवताओं और ब्राह्मणोंको २६ गाँव देनेवाले बरसभर लाग्य ब्राह्मणोंको खिलाने वाले, पुन्य तीर्थ __ "क्षहरात चक्षुका क्षत्रप लिक कुसुलुक, प्रभासमं ब्राह्मणोंको पाठ भार्या देने वाले उसका पुत्र पतिक तक्षशिलामें भगवान बुद्धकी धर्मात्मा उपवदात (ऋषभदत्त) ने यह लेख मूर्ति प्रतिष्ठित कराता है, संघाराम भी, बुद्धांकी बनवाई, पोखगेमें जाकर ग्नान किया, तीनहज़ार पूजाके वास्ते," इमसे सिद्ध है कि इस समय गो और गाँव दिय, अश्वभूति ब्राह्मणको खत दिय" शकांका राज चक्षु अथोन अटक तक पहुँच गया
था और वे परम बौद्ध धर्मी थे । शक राजा इसही प्रकार नहपानकी बंटी दक्षमित्राका
__ मोगके मिक्क पंजाबमें बहुत मिलते हैं जिनपर भी दान है। उपवदातक भी अन्य कई भारी लिम्बा होता हे "राजविराज महतस मोअम" दान हैं। उमकं बंटे मित्रदेवणकका भी दान है। इन्हीं दिनों दक्वनमें गोतमी पुत्र राजा मातनहपानक अमान्य वत्मगात्री अयमका भी कर्णिन शाम राज छीनना शुरू कर दिया था, दान है।
उज्जैन उनसे छिन ही गया था, इसकारण अब उर्जनके बाद शकोंने मथग जीता. फिर उनका राज केवल सिंध और गांधार में ही रहगया पंजाब भी लिया और यवनांका अन्त कर दिया. था । गातमी पुत्रक शिलालेखमें उसको शक, मथरामें उनका एक लख मिला जिसका अर्थ यवन और पह्नवों (पार्थिवों) का नाश करने वाला इम प्रकार है :
और वाँका मंकर रोकने वाला लिखा है
जिससे साफ जाहिर है कि वह कट्टर ब्राह्मण धर्म 'महाक्षत्रप रजलकी पटगनी यूवराज खर- को पालने वाला था, जात पातके भेदको खूब अोस्तसा बटी की मां श्रमिय कमुइअने प्रचार देता था, और शकोंके साथ विवाह सम्बंधअपनी मां दादी भतीजी सहित राजा मुकि को मरुतीके साथ रोकता था । गोतमी पुत्रका बेटा और उसके घोड़की भूपा करके शाक्य मनि बद्ध- सिष्टिपुत्र राजा हुआ, उसने राज्यको और भी का शरीर धातु प्रतिष्ठापन किया, स्तुप और ज्यादा बढ़ायाः मगध देश भी जीता और उड़ीसा संघागम भी"
भी। ये सब गजा मातबाहनके नाममे प्रसिद्ध हुए
और मालबाहन भी कहलाये। ईवी सन ६० इसही प्रकार एक और लेखमें महाक्षत्रप तक इनका राज रहा; इसके बाद ऋषिक तुम्बार ग्जुलके बेटे शुडसने बौद्ध संघकी पूजाके लिय नामकी शक जातिने हिन्दुस्तानपर चढ़ाई करके
और सारे शकस्तानकी पूजाके लिये पृथ्वी दान की उनसे राज्य छीन लिया। इससे सिद्ध है कि यह शक कुछ तो बौद्ध धर्मी
इधर तो सीस्तानके शकोंका अधिकार होगये थे और कुछ ब्राह्मण धर्मी।
हिन्दुस्तानसे उठरहा था लेकिन दूसरी तरफ़ ___पंजाबके कैकय देशमें एक शक राजा मोगका बलम्ब बदखशांके ऋषिक तुम्बार जातिके शक अधिकार ईमासे ६५ बरस पहले होगया। फिर दिविजय करते हुए हिन्दुस्तानकी तरफ आरहे थे, ईमासे ६० बरस पहले उनका राज्य हजाग जिले वे लोग काशरार, चतराल और दरद देश होते तक होगया। ईमामे ४५ बरस पहले तक्षशिलामें हुए हजारेमे गांधार पहुंचे। उनकी पाँच रियासतें थीं।
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भगवान महावीरक बादका इतिहास
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ये लोग साहु कहलाते थे। ईसासे २० बरस पहले वजहसे वहाँ एक भारी विहार तैय्यार हुश्रा और इनमें एक रियासतका राजा कुशान हुआ, उसने बौद्धधर्मकी बुनियाद पड़ी। बिम यद्यपि बौद्ध था अन्य चारों रियासतोंको भी जीत लिया, फिर परन्तु हिन्दुस्तानमें शैवधर्मका अधिक प्रचार पार्थवोंसे काबुलभी लेलिया, फिर कंधारभी । वह हो जानेसे अपनी प्रजाको राजी रखनेके वास्ते बौद्ध था, और अपनेको धर्मथिद (धर्म-स्थित) वह अपने सिक्कोंपर शिवनन्दी (बैल) और लिखता था, पीछे वह अपनेको देवपुत्रभी कहने त्रिशूल भी बनाने लगा था। लगा था, उसहीने सबसे पहले चीनमें बौद्ध-धर्मका
ईस्वी ७५ के करीब सातबाहन वंशके राजा प्रचार करनेके लिये चीनके राजाके पास अपने
महेन्द्रने बिमका राज हिन्दुस्तानसे हटा दिया । दूत भेजे थे। पिशावर और तक्षशिलामें भी
पंजाबमें मुलतान और करोरके पास बड़ी भारी उसका राज होगया था, वहाँ एक लेख मिला है
लड़ाई हुई । उस समय पंजाबमें शकोंकी तरफसे जिसमें लिखा है कि 'महाराज राजातिराज देवपुत्र
सिरकप का बेटा रिसालू राज्य करता था। महेन्द्रने कुषणके आरोग्यके लिये बुद्धदेवकी मूर्ति
उसको मारा और शक राज्यको हिन्दुस्तानसे बाहर स्थापित कराई।
कर दिया। महेन्द्रने सारा दक्खन देश, सिंध, ईवी ३६ में उसका देहान्त होनेपर उसका काठियावाड़, बरार और मध्यदेश सब जीत लिया बेटा बिम राजा हुअा। ईम्बी ६० में उसने पंजाब- था। इधर बंगाल, उड़ीसा और उत्तरमें काशमीर पर दम्बल किया, फिर मथुराकी तरफ बढ़ता हा भी अपने अधिकारमें करलिया था। यह तमाम बनारस तक जीतता हुआ चला गया। उसहीने देश जीतकर उज्जैनमें उसने एक भारी जलूस सातबाहनसे उज्जैनका राज्य छीना । उसके सिक्कों निकाला था, जिसमें बंगाल कर्नाटक, गुजरात, पर “ महरजस रजदिरजस सर्वलोग ईश्वरस महि. काशमीर और सिंधके राजा बिन्ध्यबल नामक श्वरस विम" लिखा रहता है। मथुरामें एक देव. '
भील-राजा, निर्मूक नामक फारसका राजा भी मंदिर मिला है, जिसमें एक मूर्ति बिमकी भी जुलूसमें शामिल थे । फिर कलिंग देशका राजा मूर्तिके नीचे लिखा है "महाराज राजातिराजो देव कलिंगसेन भी जो शबरों और भीलोंका स्वामी था पुत्रो कुषाण पुत्री शाहि वेम " बिम बहा प्रतापी अपनी कन्या देकर आधीन होगया था। राजा हुआ, उसका राज पूर्वमें चीन तक, पश्चिममें
मालूम होता है कि बिमके मरनेके बाद तुरन्त रूम तक और हिन्दुस्तानमें बनारस तक फैल गया ही उसके राज्यका कोई अधिकारी नहीं हुआ। था । राजधानी उसको बदम्बशां थी। हिन्दुस्तानका इसीसे यह सब गोलमाल हुआ जो १२ बरस तक राज्य वह अपने क्षत्रपों द्वारा करता था। ईस्वी ६८ रहा। पीछे उसके एक वंशज कनिष्कने राज्यको में हिन्दुस्तानसे कश्यपमातंग और धर्मरत्न नाम- बागडोर सम्हाली । वह अपने सिझोपर के दो बौद्ध साधु चीन भेजे गये थे, जिनकी "साहमान साहुकनेष्क कोशान" लिखता था।
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उसने चढ़ाई करके फिरस सारे हिन्दुस्तानपर अधि- कराई। ११ वे बरस भावलपुरमें राजाधिराज कार कर लिया। खतनके एक लेखमें लिखा है देवपुत्र कनिष्कके नामसे बुद्धकी मूर्ति प्रतिष्ठापित कि खननके राजा विजय संभवके वंशज विनय- हुई । कनिष्कने चीनपर भी चढ़ाईकी थी, परन्तु कीर्तिने कनिष्ककं साथ मिलकर हिन्दुस्तानपर रसद न पहुँचनेसे वापिस आना पड़ा था। उसने चढ़ाईकी और अयोध्या जीती। इसके बाद कनिष्क बदलशांकी जगह पिशावरको अपनी राजधानी ने सातबाहन सालबाहन) से उज्जैन जीतकर बनाया था। अशोककी तरह उसने भी बौद्धधर्म ईम्बी ७८ में एक संवत चलाया जो बराबर अब को दूर-दूर तक फैलाया । काशमीरमें बौद्धधर्म तक चला आ रहा है। राजा विजय संभवके राज्य की एक भारी सभा कराई जिसमें ५०० विद्वान कालमें आर्य वैरोचनने म्लतनमें बौद्धधर्म चलाया इकट्ठे किये गये । बौद्धधर्मकी महायान नामकी था। इस वंशका राज्य बहुत पीड़ी तक बनारहा। नवीन संप्रदाय स्थापित हुई जो इस समय तक तेरहवीं पीढ़ीमें राजा विजयकीर्ति हुआ। ईसासे तिब्बत, चीन, जापान और कोरियामें चल रही है। दो साल पहले चीनके राजदूत चोनमें बौद्धधर्म बुद्ध भगवान के त्रिपिटकका भाष्य तैय्यार किया का प्रचार करनेके वास्ते कम्बोजदेशसे बौद्धधर्मको गया और ताँबके पत्रोंपर खुदवाकर सुरक्षित पुस्तक ले गये थे। इससे सिद्ध है कि खतन और रक्खा गया। काशमीर देशकी सारी आमदनी कम्बोज आदि देशों में बहुत दिनोंसे बौद्धधर्म धर्मप्रचारके वास्ते अर्पण करदी गई। दूर-दूर फैला हुआ था।
देशोंमें बौद्ध साधु धर्म-प्रचारके वास्ते भेजे गये,
जहाँ कनिष्कने अनेक स्तुप, बिहार, मठ और कनिष्क बड़ा भारी प्रतापी राजा हुआ है। चैत्य बनवाय । वह कट्टर बौद्ध था। उसके द्वारा बौद्धधर्मकी असीम उन्ननि हुई । उसने पाटलीपुत्रपर चढ़ाई ईस्वी १२१ में कनिष्कका देहान्त होनेपर कर वहाँके राजाको हराया, गजासे भारी हरजाना उसका बेटा वासिष्क गद्दीपर बैठा, उसके पीछे मांगा लेकिन वहांसे बुद्धभगवानका कमण्डलु हविष्क, यह भी कनिष्कके समान बौद्ध-धर्मका मिलनेपर बौद्ध विद्वान अश्वघोपको साथलेकर बड़ा भारी प्रचारक हुआ। इसका बनवाया हुआ वापिस चला आया। इसके बाद ईरानके पह्नव एक महा विशाल बौद्ध संघाराम मथुरामें मिला है। राजाने हिन्दुस्तानपर चढ़ाईकी, परन्तु कनिष्कने काशमीरमें उसने हविष्कपुर नगर बसाया और घोर युद्धकर उसको भगाया । पिशावरकी खुदाईसे बौद्ध-धर्मको वृद्धि की। ईस्वी ६३१ में जब हेनसांग मिले हुए एक लेखमें जो शक संवत् ५ का है नामका बौद्धयात्री वहाँ गया था तो उस समय बौद्ध प्राचार्योंके प्रतिग्रहमें दिये गये कनिष्क वहाँ पाँच हजार बौद्ध साधु थे जो अनेक बौद्धबिहार और महासनके संघारामका उल्लेख है। धर्मशालायें चला रहे थे, हविष्कके बाद दूसग तीसरे बरस सारनाथमें बुद्धकी मूर्ति प्रतिष्ठापित कनिक राजा हुआ, और फिर वासुदेव राजा हुआ।
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इम प्रकार १८ बरम इम वंशका राज्य रहा। गवर्नरकी मारफत अतुल धन लगाकर इस झीलवासुदेवका राज ईस्वी १७६ तक रहा। काबुलमे को पक्का बना दिया था और नहरें निकाल दी थीं। मथुरा तक उसका राज था। बिलोचिस्तानमें शक राजा रुद्रदामाने इसकी मरम्मत कराई और कुछ ऐसे लेम्ब मिले हैं। जिनसे सिद्ध होता है कि लेख खुदवाया जिसका सारांश इस प्रकार है:वहाँ भी उमका गज था और वहाँ भी बौद्ध-धर्म
“श्राकर अवन्ति, नीवृत, आनर्त, मुराष्ट्र, फैल गया था। वह बौद्ध-धर्म प्रचारक था, परन्तु
तु धान, मारवाड़, कच्छ, सिंधु, सौवीर, कुकर, प्रजाको खुश रखनेके वास्ते अपने सिक्कोंपर शिव, अपरान्त, निषाद आदि सब प्रदेशोंका स्वामी नन्दी और त्रिशूलकी मूर्ति बनाने लगा था। यौधोयोंके राज्यको जबरदस्ती उखाड़ फेंकने वाला ईरानके सासानी गजा भी ईसाकी तीसरी शताब्दी ।
ताब्दा अपने सम्बन्धी मातकर्णीको लड़ाई में दो बार में अपने सिक्कोंपर शिव और नन्दीकी मूर्ति ।
जीतने वाला, महाक्षत्रप नाम वाला, गज कन्याओं बनाने लगे थे।
के स्वयंबरों में मालायें पाने वालेने झीलकी उज्जैनका गज्य ईस्वी ११० में एक पुराने मरम्मत कराई।" महाक्षत्रप चष्टनने कनिष्कक बेटोंसे छीन लिया इससे सिद्ध है कि शकराज अब फिर उज्जैन था । चष्टनका बेटा जयदामा और पोता रुद्रदामा में लेकर पच्छिममें सिंध तक और सारे दक्खन हुधा । इम्वी १३० में रुद्रदामाने दक्षिण देशके में फैल गया था। यौधेय जाति पंजाबमें सतलज महाराजा गौतमीपुत्रके बेटे राजा सातकार्ण के पास रहती थी, उसकोभी रुद्रदामाने दो बार पुलुमायाको अपनी बेटी व्याह दी थी। उस समय हराया अर्थान इधरभी उसका राज होगया। इस रुद्रदामाका गज्य कच्छ देशमें ही रह गया था। लेखस यह भी स्पष्ट सिद्ध होता है कि इतना ही पुलुमायाके पिता गोतमीपुत्रने दक्षिणका बहुतसा नहीं था कि हिन्दुस्तानके क्षत्रिय लोग इन शकोंकी राज्य रुद्रदामासे छीन लिया था, वह कट्टर हिन्दू कन्या ले तो लें किन्तु देते नहीं, बल्कि क्षत्रिय था और शकोंको हिन्दुस्तानसे निकालना चाहता गजाओंकी कन्यायें भी इन शक राजाओं के गलेमें था। ईम्बी १५० में रुद्रदामाने अपने जमाई सात- वरमालाये डालती थीं और इनसे व्याही जाती थीं। कर्णिसे लड़ाई करके वह मब देश छीन लिया जो सातकर्णिके पिता गौतमीपुत्रने कद्रदामासे छीन रुद्रदामाकं मरने पर उसके बेटों, दामजद लिया था। गिरनार के पास एक बहुत बड़ी झीलका और मद्रसिंह में लड़ाई रहती रही। अव्वल बाँध टूट गया था, रुद्रदामाने उसकी मरम्मत दामजद गजा हुश्रा, फिर उसके पीछे रुद्रसिंहका कराई। यह झील जैनराजा चन्द्रगुमने यनवाई बेटा नद्रसेन राजा हुआ । उसके बाद उसका भाई थी, इससे दूर-दूर तक खतोंकी श्रावपाशी होती सिंह दामा, फिर उसका भाई वामसेन ईन्वी २३६ थी। महाराजा अशोकने तुशासप नामके अपने तक राजा रहा। दामसेनके याद ईश्वरदत्त नामके
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एक आदमीने इन क्षत्रपोंसे राज छीन लिया । वह कोई श्रभीर सेनापति मालूम होता है, क्योंकि उन दिनों श्राभीर लोग बहुत जोरों पर थे और राजपूताने के पूर्व तरफ बसे थे, इन आभीरोंने दक्षिणका राज्य भी सातवाहनों से छीन लिया था ।
इसके बाद एकसौ बरस तकके इतिहासका कुछ भी पता नहीं लगता है । ईस्वी ३०८ में पाटलीपुत्र नगर के पास किसी ग्रामके एक छोटेसे राजा चन्द्रगुप्तको लिच्छवि वंशकी कन्या कुमारदेवी व्याही गई । यह लिच्छवि वंश वैशालीके उस राजा चेटकका वंश है जिनकी कन्याओंसे श्री महावीरस्वामीके पिता राजा सिद्धार्थ और मगध देशके राजा श्रेणिक व्याहे गये थे । चन्द्रगुप्तने ऐसे महान वंशकी कन्यासे व्याह होनेको अपना बहुत
भारी गौरव माना, वास्तवमें इस सम्बन्धके प्रतापसे ही वह महाराज हो गया। और चन्द्रगुप्तका राज्य शुरू हुआ। उसने अपने सिक्कों पर लिच्छवियोंकी बेटीके नामसे अपनी स्त्रीकी भी मूर्ति बनवाई। उसकी सन्तान बड़े गर्व के साथ अपनेको लिन्छियोंके दोहते कहा करती थी । चन्द्रगुप्त ने अपना राज तिहुत, बिहार और अवध तक फैलाया, विष्णुबंधु नामके बौद्ध साधुके उपदेशसे उसने बौद्ध-धर्म ग्रहण किया और शिक्षाके वास्ते अपने बेटे समुद्रगुप्त को उसकी शागिर्दीमें दिया । ईस्वी ३३१ में उसका देहान्त हो गया और समुद्रगुप्त राजा हुआ ।
वह ब्राह्मण धर्मी हुआ, बड़ी-बड़ी लड़ाई लड़ी, दूर-दूर तक राज्यका विस्तार किया। उसने सारा हिन्दुस्तान, दक्खन, उड़ीसा, बंगाल और श्रासाम
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सब जीत लिया, यहाँ तक कि मध्यदेश और दक्खनके सब जंगली राजा भी जीते। दक्खन से वह असंख्य धन लूटकर लाया । उत्तरमें नैपाल, कमाऊं, गढ़वाल और कांगड़ा भी जीता, पच्छिममें मालवा और राजपूतानाके राजा भी अपने अधीन किये। इस भारी दिग्विजयके बाद उसने अश्वमेध यज्ञ किया, और असंख्य द्रव्य ब्राह्मणों को दिया, सिक्कों पर यज्ञ-स्तम्भसे बंधे हुए घोड़ेकी मूर्ति बनी है, और ""श्रश्रमेध पराक्रम" लिखा हुआ है। पचास बरस राज्य करनेके बाद ईस्वी ३७५ में उसका देहान्त हुआ । उसका बेटा गद्दी पर बैठा जो चन्द्रगुप्त द्वितीयके नामसे प्रसिद्ध हुआ, उसने अपना नाम विक्रमादित्य रखा । उसने पच्छिममें चढ़ाई कर मालवेको जीता, फिर काठियाबाड़ और गुजरातको शकोंके हाथसे छीना । वह कट्टर हिन्दू था और शकों को बिल्कुल ही समाप्त करदेना चाहता था । कहते हैं कि उसहीने शक राजा सत्यसिंहके बेटे रुद्रसिंहको क़त्ल किया और सारा राज लेकर उनका अधिकार हिन्दुस्तान से उठा दिया ।
ईस्त्री ४१३ में उसका बेटा कुमारगुप्त राजा हुआ। वह अपनी राजधानी पाटलीपुत्रसे उठाकर अयोध्या ले गया। उसने भी अश्रमेध यज्ञ किया। ईस्वी ४५५ में उसका देहान्त हो गया, जिसके बाद उसका बेटा स्कंदगुप्त गद्दी पर बैठा । उसही वक्त हूण नामकी जंगली जाति चीनक उत्तर परिमसे आकर भारी लूटमार करने लगी थी, उसने बड़ी बहादुरीसे हूणों को हटाया और जीतकी खुशीमें एक भारी लाट बनवाई, जिसके
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भगवान महावीरके बादका इतिहास
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उपर विष्णु भगवानकी मूर्ति बनाई गई । गिरनार चीनसे हिन्दुस्तान आया था। वह अपनी यात्राके की झीलकी फिर मरम्मत कराई और बहुमूल्य वर्णनमें लिखता है कि, "स्नुतानमें उसने बौद्धधर्म विष्णुका मन्दिर बनवाया। ईस्वी ४६५ में फिर का बड़ा भारी प्रचार देखा, जहाँ प्रत्येक घर के हण लोग आये और पंजाबमें गांधार देश पर दरवाजे पर स्तूप बने हुये थे। घरवाले नित्य काबिज हो गये। फिर ईस्वी ४७० में हूणोंने स्कन्द. उनकी पूजा करते थे । वहाँके राजाने उसको गुप्त पर भी हमला कर दिया। राजा उनका मुक़ाबिला गोमती नामके संघाराममें ठहराया, जिसमें ३ हजार न कर सका और ४८० ईस्वी में मर गया. जिसके बौद्ध साधु रहते थे। उसके सामने वहाँ रथ-यात्रा बाद उसका भाई पुग्गत गद्दी पर बैठा. फिर ४८५ भी हुई। रथ बहुत बड़ा था, जो एक महलके समान में पुरगम का बेटा नरसिंहगुप्त बालादित्य राजा मालूम होता था और बहुत ही बढ़िया सजाया हुश्रा। वह बौद्ध धर्मी था। उसने मगध देशमें हुआ था, सोने चान्दीकी मूर्तियाँ उसमें विराजमान नालन्दा मुकाम पर ३०० फिट ऊँचा एक बौद्ध थीं । राजा मुकट उतार कर नंगे पाँव अगवानीको मन्दिर बनवाया जो सोने और रत्नोंकी जड़ाईसे जाता था और शाष्टांग प्रणाम कर पूजा करता था। जगमगाता था । ५३५ ईस्वीमें उसका बेटा कुमार- शहर से बाहर राज्यकी तरफसे एक संघाराम बना गुप्त द्वितीय गद्दी पर बैठा, परन्तु उसका राज्य मगधहुआ था, जो ८० बरसमें बनकर तय्यार हुआ था; के एक हिस्से पर ही रहा, नालन्दा बौद्ध धर्मकी उसमें बहुत भारी पञ्चीकारीका काम हो रहा थाशिक्षाका एक भारी केन्द्र रहा, जबतक कि मुसल मोने चान्दीके पात्रों और रत्नोंसे जगमगा रहा था, मानोंने श्राकर उसको जला नहीं दिया। यहाँसे पासही बुद्धदेवका मन्दिर था, जिसकी शोभा शकोंकी कहानी तो समाप्त होती है और होंकी वर्णन नहीं की जा सकती। सारे मन्दिरमें सोनेके कहानी शुरू होनी है. जो किमी दृमरे ही लेग्बमें पत्र जड़े हुए थे। यहाँ दस हजार बौद्ध माधु रहते लिम्वी जा सकती है।
थे।" वहाँसे वह काबुल आया और स्वात, गांधार
और तक्षशिला होता हुआ पिशावर पाया, जहाँ हिन्दुस्तानमें अब शकोंका राज्य नहीं रहा, बहत ऊँचा मुन्दर और बहुत मजबूत स्तुप देखा। लाखों करोड़ों शक जो यहाँ आये थे सब हिन्दु राम्तेमें जगह • अनेक स्तूप और मन्दिर दंग्वे होकर हिन्दुओंमें ही ग्ल-मिल गये। अब कोई परन्त रोमा भव्य और मुन्दर कोई न था। चीनी पहचान इस बातकी नहीं रही है कि कौन शक हैं तुर्किस्तानका गजा भी बौद्ध था, वहाँ चार हजार
और कौन उनके आनेसे पहलेके हिन्दू हैं, परन्तु बौद्ध माध रहते थे। हिन्दुस्तानसे बाहर उनके अपने देशमें जो शक लोग रह गये थे, वे बराबर बौद्ध बने रहे और उधर चीनमें भी इन्हीं शक और पहबाँकी बड़े भारी प्रभावके माथ बौद्ध धर्मको पूजते रहे। कृपास बौद्ध धर्म फैल गया था, जो अब तक ४०५ ईस्वी में फाइयान नामका एक बौद्ध यात्री कायम है। १४४ ईम्बीमें लोकानम नामका एक
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अनेकान्त
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बौद्ध साधु चीन पहुँचा । वह एक पह्नवी युवराज पर लिखा हुआ एक ग्रन्थ मिला । १६०४ में जर्मनथा, जो गजगहीको लात मारकर बौद्ध साधु हो गया यात्रियोंको यहाँके आसपाससे अनेक संस्कृत था। वह बहुत बड़ा विद्वान था, चीनमें जाकर ग्रन्थ मिले। एक जगह प्राकृत प्रन्थ लकड़ी पर उसने चीनी भाषा सीखी, फिर चीनी भाषामें बौद्ध खुदे हुए मिले । तुर्किस्तानमें एक जगह सहस्त्र ग्रंथोंका अनुवाद कर बौद्ध धर्म फैलाया। उसके बुद्धकी गुफा के नामसे प्रसिद्ध हैं, उसकी खुदाई तीन बरस बाद लोकक्षेम नामका एक शकसाधु की गई थी, वह फ्रांसीसी विद्वान वहाँ भी पहुंचा वहाँ गया और १८८ ईम्बी तक बौद्ध धर्मका तो दीवारोंपर दसवीं शताब्दीके बौद्ध चित्र देखे । खूब प्रचार करता रहा । २३८ ईमवीमें काबुल १६०० में यहाँसे एक अन्य भी मिला था। इस निवासी बौद्ध साधु मंघभूतिने तीन बौद्ध ग्रन्थों फ्रांसीसी विद्वानने अधिक खोज करो तो गुफाके का चीनी भाषामें अनुवाद किया। बुद्ध यशस अन्दर एक छोटी गुफा मिली जिसमें ग्रन्थ ही ग्रन्थ पुन्यतर और विमलाक्ष नामके तीन बौद्ध साधुओं भर रहे थे। यह पन्थ चीनी तिब्बती और संस्कृत ने चीन जाकर बौद्ध धर्मका प्रचार किया। ४०३ भाषामे थे, पंद्रह हजार पुस्तके थीं, १०३५ ईसवी ईस्वी में धर्मरक्ष माधु चीन गया।
में आक्रमण कारियोंके डरसे ये पुस्तकं एक गुफामें
रखकर ईंटोंसे चिनाई करदीगई थी। बहुतसे कुमारजीव नामका एक तुर्क ३८३ ईस्वीमें ग्रन्थ रेशम पर भी लिखे हुए मिले हैं, इससे स्पष्ट चीन गया, वहाँ उसने संस्कृतकी अनक पुस्तकोंका सिद्ध है कि यद्यपि हिन्दुस्तानमें बोद्ध धर्मकी अनुवाद चीनी भाषा में किया और उनके द्वारा समाप्ति बहुत पहले होगई, परन्तु अफगानिस्तान वहाँ बौद्ध धर्म फैलाया। इसके ढाई सौ बरस और तुर्किस्तान अदिमें वह बहुत दिनोंतक बनारहा बाद तकका भी पता लगता है कि उस वक्तभी और बहुत ही उन्नत अवस्थामें रहा। तुर्किस्तान संस्कृत विद्याका केन्द्र था। तुर्किस्तानके राजा स्वर्णपुष्यका पुत्र स्वर्णदेव बड़ाही धर्म-निष्ठ इसप्रकार हिन्दुस्तानसं बाहर तो काबुल, बौद्ध था। ५८० ईस्वीमें अफगानिस्तानके बौद्ध कंधार, बलम्न, बदखशा, नुतन और बाम्नतरसं साधु ज्ञानगुप्तने तुर्क मरदारको बुद्ध धर्मको लेकर चीन तक बौद्ध धर्मके द्वारा अहिंसापरमोदीक्षा दी थी। ६२६ ईस्वीमें प्रभाकरमित्र नामका. धर्म: का डंका बजरहा था, परन्तु हिन्दुस्तानमें बौद्ध साधु धर्म प्रचारके वास्ते तुर्किस्तानसं चीन शक राज्य समाप्त होजानेपर, फिरसे हिंसामय गया था। १८६० ईस्वीमें तुर्किस्तान के एक स्तूपमें वैदिकधर्मका प्रचार शुरु होगया था। और दिनसे भोजपत्रपर लिखी हुई एक संस्कृतकी पुस्तक दिन जोर पकड़ता जाता था । मौर्य-गज्य समाप्त मिली,इससे भी पहले जर्मनयात्रियोंको तुनिमें होजानेके पश्चात इन शकोंके द्वारा ही बौद्धधर्मका ताड़-पत्रपर लिखे हुए कई ग्रंथ मिले थे। १८६२ बहुत कुछ प्रचार होकर अहिंमा परमोधर्मः का ईस्वीमें फ्रांसीसी यात्रीको खुतनके पास भोजपत्र प्रचार होता रहा है, महाप्रतापी शकगजा कनिष्कके
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वर्ष : किरण ] भगवान महावीर के बादका इतिहास
१५१ गज्यमें तो महाराज अशोकके समान ही बौद्धधर्मकी पौण्ड काश्चोंड द्रविड़ाः काम्बोजा यवनाःशकाः उन्नति होकर अहिंसा धर्मका झंडा हिन्दुस्तानमें
पारदा पहवाश्चीनाः किगता दरदाः खशाः फहराता रहा है, परन्तु इन शकों का राज्य समाप्त
-१०,४३, ४४ होनेपर धर्मकं नामसे हिंसाका जो प्रचार इस भावार्थ-पौड़, औड़ . द्राविड़, कम्बोज, पूण्यभूमि हिन्दुस्तानमें हुआ है, वह अकथनीय
यवन, शक, पारद, पह्नव, चीनी, किरात, दरद है। शक राज्यका सूर्य मंद पड़जानेपर ही यहाँ और खश यह सब क्षत्रिय थे । परन्तु आहिस्ता २ ब्राह्मणों द्वाग मनुस्मृति नामकी धर्मपुस्तक बनाई धर्म-क्रिया लोप होनेसे और ब्राह्मणोंको न गई है, जिसमें डंके की चोट पशुहिंसा करने और
माननेसे पतित होगय । इनमेसे यवनोंका कथन मांस खानेको आवश्यक धर्मानुष्ठान बताया गया तो सबसे पहले किया जा चुका है. कि वह है और अहिंसाधर्मका पालन करनेके कारणही
यूनान देशके रहने वाले थे और उनमें कुछ शकोंको पतित ठहराया गया है. मनुस्मृति नामकी
ब्राह्मणधर्मी और अनेक बौद्धधर्मी हो गये थे। इम धर्मपुम्नकक कुछ नमूने इस प्रकार हैं: ..
अहिंसामय बौद्धधर्मको मानना हो उनका ऐसा यत्रार्थ ब्राह्मणबध्याः प्रशम्ता मृग पक्षिणः भारी अपराध था जिसके कारण मनुमहागजने
उनका क्षत्रिय जातिस नीचे गिरा दिया और भावार्थ:-यज्ञके वास्ते उत्तम २ पशु-पक्षि ब्राह्मणों धर्मभ्रष्ट बतादिया। पह्नव वा पार्थव भी कुछ
के द्वारा बध किये जाने चाहिये। बौद्धधर्मी हो गये थे और चीन आदिकमें जाकर नियुक्तस्तु यथा न्यायं यो मांस नाति मानवः बौद्धधर्म फैलाते थे। अब रह गये शक वह तो
पक्के जैन वा बौद्धधर्मी और अहिंमा परमोधर्म:का सप्रेन्य पशुनां याति मंभवानेक विंशतिम्
डंका बजाने वाले थे ही। जब तक हिन्दुस्तानमें भावार्थ-श्राद्ध व मधुपर्क आदि अनुष्ठानों में नियुक्त
उनकी हुकूमन रही, तब तक तो यहाँ दया धर्मका हुआ जो मनुष्य मांस नहीं खाता है. वह कई बार
ही झंडा लहराता रहा था और यज्ञ आदिमें पशु
पक्षियोंका होम करना बहुत ही मंद पड़गया था, पशुका जन्म लेता है।
नब वह तो मनुमहागजके कोप भाजन बननहीं __ इस प्रकार ब्राह्मणोंको पशु-पक्षियोंको मारने
थे. कम्बोज और दग्द भी इन शकोंके देश वामी और श्राद्धादिमें मांस ग्वानेकी कड़ी आज्ञा देकर ।
और माथी ही थे. नब वे कैम छूट मकते थे । मनुस्मृति अहिंमा धर्मके मानने वाले शक आदिकों
हाँ ! चीनियोंकी बाबत जन्र हमी आती है; को जाति और धर्म दोनोंस किम तरह नीचं
उन्होंने कब ब्राह्मण-धर्म माना था और कब वह गिराना है, यहभी सुन लीजिये:
ब्राह्मणोंको पूजतेथे ? जिमके छोड़ देनमें मनुशनकैस्तु क्रिया लोपादिमाः क्षत्रिय नानयः महाराजको उन्हें पनिन करना पड़ा। उनका नो वपलन्वं गनालीक बामणादर्शनेनच अबतक हिन्दुस्तानमें कुछ धार्मिक सम्बन्ध भी
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अनेकान्त
[मार्गशिर वीर-निर्वाण सं० २४६५
नहीं हुआ था । उन बेचारोंकी बाबत तो मनुमहाराज वंशी राजा चन्द्रगुप्तका गौरव बढ़ेगा, आंधों के कानमें शायद इतनीसी भनक पड़गई होगी कि (द्राविड़ों) के बाद लिच्छिवियोंके ही दोहतांका शक लोग वहाँ भी बौद्धधर्म फैलानेकी कोशिश अटल राज्य सारे हिदुस्तानमें होगा। इसही गुप्तवंश कर रहे हैं। बस इतनेहीसे आग-बबूला होकर के द्वारा ब्राह्मण-धर्मका प्रचार होगा और इन्हींकी उनको भी धर गिराया। उधर उड़ीसाके निवासी जय बोली जायगी । यह तो रहे मनुमहाराजके जैनी थे और पौंड देशमें भी राजा खारवेलके द्वारा उद्गार; अब दूसरों की भी सुनिये जो इनसे भी जैन-धर्म फैल गया था। इसकारण ये लोग तो ऊँचे कूदे और जिन २ देशों में बौद्ध या दंडके योग्य थे ही । अब रहे द्राविड़ यह सब लोग जैन रहते थे उनकी बाबत यहाँतक लिख मारा कि दक्षिणी हैं; दक्षिणको ही द्राविड़ देश कहते हैं। जो कोई उन देशों में जायगा उसको घर आनेपर दक्षिणमें श्री भद्रबाहस्वामीके संघके चले जानेके प्रायश्चित करना पड़ेगा। कारण वहाँ जैनधर्मका कुछ २ प्रचार होने लगा
अङ्ग बङ्ग कलिङ्गेषु सौगष्ट्रमगधेषुच । था। यहही भनक कानमें पड़ने के कारण मनुमहाराजका पारा तेज होगया और सारेही
तीर्थ यात्रां विना गत्वा पुनः संस्कारमर्हति ॥ द्राविड़ोंको पतित लिख दिया। उन्हें क्या मालूम था
-सिद्धान्तकौमदीकी तत्वबोधनी टीका कि अभी थोड़े ही दिनोंमें द्राविड़ लोग ही अर्थात
भावार्थ-बंगाल, उड़ीसा, काठियावाड़ और शालिवाहन आदि आन्ध्र राजा इस राज्यको मगध देशमें जो कोई तीर्थयात्राके सिवाय अन्य ब्राह्मण राजानोंसे छीनकर ब्राह्मण धर्मको रक्षा किसी कारणसे जावेगा तो उसको फिरसे संस्कार करेंगे और मनुमहाराज जैसे अनेक ब्राह्मणोंसे कराना पड़ेगा। जय-जयकारका आशीर्वाद प्राप्त करेंगे। अभी २ पाठकोंने पढ़ा है कि कण्व ब्राह्मणोंसे आँधोंने राज
सिंधु सौवीर सौराष्टं तथा प्रत्यंत वासिनः छीन लिया और सातकर्णि वा सातबाहन वा साल
कलिङ्ग कौहणन्बङ्गान् गत्वा संस्कारमर्हति । बाहनके नामसे अनेक पीढ़ी तक राज करते रहे।
-देवल स्मृति ये भाँध लोग द्राविड़ये जिनकी बाबत मनुस्मृतिने भावार्थ-सिन्धु-सौबीर, सोरठ और इनके उनके धर्म-भ्रष्ट और जाति-भ्रष्ट होनेकी आज्ञा दे आस-पासके देशोंमें जानेसे और उड़ीसा, रक्खी है। परन्तु अब राजा होने पर तो वे उच्चसे कोकन, बंगाल देशमें जानेसे संस्कार कराना सब धर्मात्मा और कुलीन हो गये हैं, इसही प्रकार मनुमहाराजने लिच्छिवियोंको भी उनके जैनी पातंजलि अष्टाध्यायीके अपने महाभाष्यमें होनेके कारण हीन और पतित जातिके बताया है लिखता है कि शक और यवन शूद्र हैं, तो भी परन्तु उसको क्या मालूम था कि इन्हीं लिच्छि- आर्य लोग उनको अपने वर्तनोंमें भोजन कराते वियोंके साथ सम्बन्ध होजानेके कारण ही गुप्त- है। (२, ४, ७) विष्णु-पुराण और ऐसा ही वायु
पड़ेगा।
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वर्ष २ किरण २] भगवान महावीरके बाद का इतिहास
१५३ पुराणमें लिखा है कि सगरने अपने बैरी हैहयों हैं । भविष्य पुराणसं पता चलता है कि हिन्दुओंऔर तालजंघोंका नाश करके उनके साथी शक, ने सूर्य भगवानकी मूर्ति बनाकर पूजना ईरान यवन, कम्बोज और पह्नवोंको भी नाश करना (फारिस) वालोंसे ही सीखा । सूर्य देवताकी चाहा, जिन्होंने डरकर उसके गुरू वशिष्ठकी शरण जो मूर्ति बनाई जाती है, उसके पैरोंमें घुटनोंतक ली । गुरुने सगरको समझा दिया कि मैंने उनको जूता होता है, जैसाकि ईरानी लोग पहनते थे। द्विजातिसे गिरा दिया है, अब तू उनको मत मार. हिन्दुस्तानमें सूर्य देवताकं हजारों मन्दिर बने, परन्तु तब सगरने यवनोंको सारा सिर मुंडवाते रहनेकी, इन मन्दिरोंके पुजारी सब ईरान देशसं ही बुलाये शकोंको आधा सिर मुंडानेकी, पारदोंको बाल गये, जो मग कहलाते थे। इस प्रकार इनस धर्म बढ़ाये रखनेकी, और पह्नवोंको दाढ़ी रखानेकी भी सीखते थे और म्लेच्छ भी कहनेमें नहीं आज्ञा दी। उनको और अन्यभी अनेक क्षत्रिय लजाते थे। जातियों को होम करने और वेद पढ़नेसे बंदकिया; जो हो. ब्राह्मणोंने ना इन शक आदिकोंको धर्म इससे वे सब जातियाँ म्लेच्छ होगई।
वा जातिसे पतित वा म्लेच्छ इस कारण कहा कि एतच मयेव,त्वत्प्रतिज्ञा परिपालनाय
उन्होंने जैन और बौद्ध होकर अहिंसा परमोधर्म:का निज धर्म द्विजसंग परित्यागं कारिताः ।
डंका बजाया, जिससं ब्राह्मणोंके हिंसा-मय यज्ञ स थेति तद् गुरु वचनम भिनंद्य
और अन्य भी सबही हिंसा-मय धर्म-क्रियाओंका तेषां वेषान्यत्व मकारयत् ।
प्रचार बंद हो गया; परन्तु ब्राह्मणोंका प्रताप बढ़ने यवनान्मुंडिल शिरसोर्ध्व मुंडांछकान्
पर जब उन्होंने इन शक और यवनोंको म्लेच्छ प्रतंबेके शान्यारदान् पहवांश्च श्मश्रुधरान कहना शुरू किया तब इनकी हाँ हाँ मिलानेक निःस्वाध्याय वषट् कारान् एतानन्याँश्च । लिय जैनियोंने भी इनको म्लेच्छ कहना शुरू कर क्षत्रियांश्चकार ते च निज धर्म परित्यागाद् दिया। इस बातका बड़ा आश्चर्य है ! सच तो यह ब्राह्मणैश्च परित्यक्ता म्लेच्छतां ययुः है कि जबसे जैन और बौद्धीका गज्य समाप्त होकर ___ इस प्रकार ज्यों २ शकोंकी हुकूमन हिन्दुस्तान- ब्राह्मणोंका गज्य हुआ था, नबसे जेनियों की रक्षा से उठती गई; त्यों त्यों उनकी निन्दा अधिक २ करने वाला अगर कोई था तो यह शक लोग ही होती गई, यहाँ तक कि वे म्लेच्छ बना दिये गये, थे, जिनके राज्य कालमें इनको अपने धर्म-पालनपरन्तु उनके वास्तविक गुणोंका गौरव हृदयसे कीसब ही सुविधायें बनी रहीं, इस कारण जैनियोंको कैसे हट सकता था, इसही कारण गर्ग संहितामें तो इन शकोंका महाकृतज्ञ होना चाहिये था. परन्तु लिखा है कि यद्यपि यवन लोग म्लेच्छ कहलाने संसार भी कैसा विचित्र है कि इन शकोंकी हुकूमन हैं; परन्तु वे ज्योतिषके पण्डित हैं, इस कारण ममाप्त होकर ब्राह्मणोंकी हुकूमतका डंका बजने पर ब्राह्मणोंसे भी ज्यादा ऋपियोंके ममान पूजने योग्य जैनी भी इन शकोंको म्लेच्छ कहने लगे।
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(ले०-५० हरिप्रमाद शर्मा 'अविकसित')
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(४)
जिसकी दया दृष्टिमे हिंसक जन्तु बन थ दया निधान, किया असंख्यां जीव धारियांका जिसनं जगके कल्याण । मृग, शावक औ शेर, अजा. जल एक घाटपर पीते थे, एक ठौर मिल मोद मनाते भेड़, भेड़िये. चीते थे। हिंसासी पिशाचिनीको द डाला जिसने निर्वासन । वन्दनीय उस वीर प्रभुका धन्य-धन्य वह प्रिय शासन॥
जिसकी आभा लवकर फूटी मरु-प्रदेशमं सरिता धार. तटपर बैठा देख रुका सागरका भी अति भीषण ज्वार । स्वास सुरभि पा वायु प्रसारित कर देता था भक्ति तरङ्ग. धनुष-वाण निज जिन्हें देखकर रख देता था दूर अनङ्ग।
खग-नृप-देवाधिप करते थे जिन चरणोंका अाराधन । वन्दनीय उम वीर-प्रभुका धन्य-धन्य वह प्रिय शासन॥
(२)
ऊंच-नीचका भेद मिटाकर बांधा समताका सम्बन्ध, दिव्य ज्योति लख ाजनकी होती थी, लजित शशिकी मस्कान. भरदी नर-रूपी पुष्पोंमें दया भावकी नूतन गन्ध । दर्शन पाकर प्राणी पीड़ा होजाती थी अन्तर्धान । राग-द्वेष दुर्भाव मिटाकर हृदय सुमन सब दिये खिला . धरा धारकर पद पद्मोको होजाती थीं जिनके धन्य. बिखरी मानवताकी मालाके मोती मब दिये मिला । रही जगमगा जगमें जगमग जिनकी धवल सुकीर्ति अनन्य। दिया अहिंसाकी देवीको अतिऊंचा पावन आसन । किन्नर और अप्सरा जिनपर बरसाते थे देव-सुमन । वन्दनीय उस वीर-प्रभुका धन्य-धन्य बह प्रिय शासन ॥ वन्दनीय उम वीर-प्रभुका धन्य-धन्य वह प्रिय शासन।।
(३)
जिनके चरणोपर इन्द्रादिक नाना रत्न चढ़ाते थे, ध्यान मग्न जिनके शरीरसे बन-पशु देह खुजाते थे। बाघ-निदाघ समयमें जिनकी छायाको अपनाते थे, नाग संड रख जिस मनिवरके चरणों में सोजाते थे।
खग करते थे निकट बैठकर णमोकारका उच्चारण। वन्दनीय उस वीर प्रभुका धन्य-धन्य वह प्रिय शासन ।।
खिल उठती थी उषा देखकर जिनका दिव्य अलौकिक नेज. प्रकृति बिछा देती थी नीचे हरी मखमली दूर्वा सेज । मेघ तान देते थे जिनके सिरपर शीतल छाया छत्र, दर्शन करने मानो प्रभुके होते थे नभपर एकत्र । प्रभु-तन-भाभा बिजली बनकर करती थीं नभमें गर्जन । वन्दनीय उस वीर-प्रभुका धन्य-धन्य वह प्रिय शासन ।।
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अनुसन्धान
श्रीपालचरित्र साहित्य
(ले०-श्री अगरचन्दजी नाहटा बीकानेर)
एवेनाम्बर और दिगम्बर दोनों सम्प्रदायोंमें से + वह यों ही पड़ी रही। कई दि० विद्वानोंसे
श्रीपाल गजाकी कथा विशेष म्पसे प्रच- पृछनेपर भी इस सम्बन्धमें विशेष ज्ञातव्य नहीं लित है और वह भी सैंकड़ों वर्षोंसे। अतएव मिला, अत: अबतक अन्वेषणके फलम्बम्प जो इम कथाका साहित्य विपुल प्रमाणमें उपलब्ध कुछ विदित हुआ है उसे प्रकाशित कर देना होना म्वाभाविक ही है। उस सारे साहित्यकी पूरी परमावश्यक समझता है, जिससे जितना अन्वेपरण खोजकर एक आलोचनात्मक निबंध लिखनकी अपूर्ण रह रहा है, वह भविश्यमें पूर्ण होकर विशेष कई वर्षोंसे इच्छा थी और गतवर्ष तद्विषयक रूपसे विचार करनेका अवकाश प्राप्त होसके । श्वेताम्बर साहित्यकी एक सूची भी तैयार करली आशा है विद्वद्गण इस सम्बन्ध में विशेष प्रकाश थी पर दिगम्बर माहित्यका यथोचित पता न होने डालनेकी कृपा करेंगे।
+ पता न होनेका मुख्य कारण यह है कि दि० सूची (भा० १.२) १० कलकत्ता संस्कृत कॉलेज जैनग्रन्थ जैन-ग्रन्थोंकी कोई भी विशाल एवं प्रामाणिक सूची सूची ११ रॉयल ऐसियाटिक सोसायटी जैनग्रन्थ मूची १२ प्रकाशित नहीं हुई; जबकि श्वेताम्बर समाजमें १ बम्बई एसियाटिक सोसायटी जैनग्रन्थ सूची व अनेक जैनग्रथावली २ बड़ी भंडार सूची ३ सूरत (११ भंडार) रिपोर्ट तथा १३ जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास जैसी भांडागार दर्शिका सूची ४ मोहनलालजी शानभंडार पुस्तकें प्रकाशित होचुकी है । दि० समाजका सर्व प्रथम सूरत-सूचीपत्र ५ उज्जैन भंडारसूची ६ रत्नप्रभाकर कर्तव्य है कि वह जैनसाहित्यके इतिहासकी भांति शीघ्र शानभंडार ओसिया ७ जैसलमेर मंडार मूची पाटणभंडार न होसके तो भी जैनग्रन्थावलीकी भांति सर्व दि. सूची ९भांडारकर ओरियंटल रिसर्च इन्स्टीटयूट संग्रहकी अन्योंकी विशाल सूची प्रकट अवश्य करे।
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अनेकान्त
प्राचीनता - श्वेताम्बर समाजमें सबसे प्राचीन श्रीपाल चरित्र श्री रत्नशेखरसूरिजी रचित है जो कि प्राकृत भाषा में सं० १४२८ में बनाया गया है। इससे पहले किसी भी श्वेताम्बर ग्रन्थमें प्रस्तुत श्रीपालजीका नाम तक जननेमें नहीं आया । अतः यह प्रश्न सहज ही होता है कि कथावस्तु आई कहाँ से ? इसके लिये उक्त प्रन्थ में कोई उल्लेख नहीं है । इस ग्रन्थमें कथाका प्रारंभ, 'गोतम स्वामी
श्रेणिक राजाके समक्ष नवपद श्राराधनके महात्म्य व सुफलपर यह दृष्टांत रूपसे कथा कही' इस रूपसे किया गया है । कथावस्तुकी प्राचीनताका इससे कोई पता नहीं लग सकता, अतएव उपलब्ध साधनों से ही इसकी नींव खोजनी पड़ेगी । दिगम्बर साहित्य में नरदेव या नरसेन कृत प्राकृत चरित्रादि सभी ग्रन्थोंको अवलोकन कर सबसे प्राचीन चरित्र कौनसा व किस समयका रचित है और उसमें कथावस्तु कहाँसे ली गई है, उसके सम्बन्ध में क्या कुछ उल्लेख है ? जैनोंके अतिरिक्त अन्य जैनेतर ग्रन्थोंमें इस कथाका कोई रूप उपलब्ध है या नहीं ? इन सब विषयोंका पूरा अन्वेरण किया जाना परमावश्यक है । खोज-शोध के प्रेमी दिगम्बर विद्वानोंको इस सम्बन्धमें विशेष ज्ञातव्य प्रगट करनेका अनुरोध है ।
१५६
इसीप्रकार होलिका आदि कई पत्रकी कथाऐं भी दिगम्बर श्वेताम्बर दोनोंमें लगभग एकसी प्रचलित हैं और श्राचार्योंके जीवन-चरित्र प्रन्थोंके नामादि + में भी बहुत अधिक साम्य देखा जाता है । अत: उनका मूल भी खोजना + देखें वीर वर्ष १५ अङ्क ३४ में 1
[मार्गशिर वीर निर्वाण सं० २४६५
वश्यक है कि कौनसी कौनसी कथाएँ दिगम्बर साहित्यसे श्वेताम्बरोंने अपनाई और कौनसी श्वेताम्बर साहित्य से दिगम्बरोंने अपनाई हैं ।
प्रचार व लोकादर - श्वेताम्बर समाजमें प्रतिवर्ष आश्विन शुक्ला ७ * से पूर्णिमा तक तथा चैत्र शुक्ला ७ से पूर्णिमा तक ६ दिन श्रीसिद्धचक्र नवपद + की आराधनाकी जाती । उन दिनों में प्रस्तुत चरित्र ६ - ६ महीने से पढ़ा जाता है; फिर भी कथा बड़ी सरस है, लोगोंको बड़ी प्रिय एवं रुचिकर है ।
श्वेताम्बर समाज में इस कथाका प्रचार व आदर कितना अधिक है तो यह परिशिष्टमें दी हुई चरित्र साहित्य-सूची से स्पष्ट ही है । खरतर गच्छ, तपागच्छ [वृद्धतपा, नागपुरीय तपा (पीछेसे पायचंदगच्छ) आदि कई शाखाओंके ] अंचलगच्छ, उपकेशगच्छ, पूर्णिमागच्छ, नायलगच्छ, संडेरकगच्छ, विवंदनीक्गच्छीय विद्वानोंने इसपर अपनी कलम चलाई है, जो कि चरित्रकी
* रत्नशेखरसूरिके प्राकृत चरित्रानुसार सुदी = से ही यह तप प्रारम्भ होता था, पर अभी बहुत समय से सप्तमीसे ही प्रारम्भकी प्रवृत्ति है । श्वे० साहित्य सूचीसे स्पष्ट है कि इसका प्रचार १८ वीं शताब्दीसे बहुत अधिक हो गया है और तभीसे एतद्विपयक ग्रन्थ अधिक बने हैं।
+ श्वेताम्बर समाजमें नवपद पर पूजाएँ आदि बहुत साहित्य है जिसकी सूची मेरे 'पूजासाहित्य' लेखमें प्रकाशित होगी ।
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वर्ष २ किरण २]
श्रीपालचरित्र साहित्य
१५७
अत्यन्त प्रियताका ही द्योतक है। इतना ही नहीं ही दिग्दर्शन हो जाता है। लौकागच्छ और स्थानकवासी * विद्वानोंने भी, ( जो कि मूर्तिपूजाको नहीं मानते हैं) इस श्वेताम्बरोंके समान तो नहीं फिर भी दिगअपनाकर इसकी विशिष्ट लोकप्रियता सिद्धकी है। म्बर समाजमें भी इसका काफी प्रचार देखा जाता प्रकाशित श्रीपालचरित्र व गसोंके प्रतिवर्ष नये है । पं० दीपचन्द वर्णीकी अनुवादित सचित्र नये संस्करण कई सचित्र भी निकलते हैं और चतुर्थावृति इसका स्पष्ट निदर्शन है। दि० समाजकमसे कम उन सबकी ५० हजार प्रति तो अवश्य
में यह कथा कहीं कहीं नंदीश्वरव्रत महात्म्यपर ही छप चुकी हैं।
कही जाती है और उस व्रतकी आराधना कार्तिक
फाल्गुन और श्रापाढ़के अन्तमें --- दिनों तक प्राचीन हस्तलिखित कई श्रीपाल रासोंकी कीजाती है। प्रतियाँ तो सचित्र भी पाई जाती हैं। जिनहर्षकृत ४६ ढालवाले रासकी एक मचित्र प्रति बीकानेरके श्रीपालजी कब हुए थे?-इस सम्बन्धमें क्षमाकल्याणजीके भंडारमें भी उपलब्ध है। श्वेताम्बरीय सबसे प्रचीन प्राकृत श्रीपाल-चरित्रमें यथाम्मरण एक सचित्र श्रीपाल रासकी प्रति बाब तो कोई निर्देश नहीं है पर पिछले चरित्रकारोंने पूरणचन्दजी नाहरके म्युज्यिममें भी है। श्रीपालजीको २० वे नीर्थकर श्री मुनिसुव्रत
स्वामीके शासनमें हुअा बतलाया है । कई बम्बईके निकटवर्ती ठाणा शहरमें जिससे कि विद्वान श्रीपालजीकी आयु आदि पर विचार कर श्रीपालका प्राचीन सम्बन्ध कहा जाता है, विशिष्ट इन्हें नेमिनाथके समयमें होना भी कहते हैं; लोकादरके असाधारण उदाहरण स्वरूप खरतर- पर ये बातें कहाँतक ठीक हैं यह कहनेका कोई गच्छीय मुनि ऋद्धिमुनिजीके उपदेशसे मुनिसुव्रत निश्चित साधन नहीं है। स्वामीके मन्दिरमें श्रीपाल चरित्रकी घटनाओंके मुन्दर भाव पूर्ण दृश्य मय श्रीपालचरित्र मन्दिरके दिगम्बर प्राचीन ग्रन्थों में इस सम्बन्धमें क्या निर्माणकी योजना चल रही है, हजारों रुपयोंका उल्लेख मिलता है वह अज्ञात है। फंड हो गया है । और जगह भी खरीदली गई है। इससे पाठकोंको श्रीपालकथाके लोकादरका सहज- कथातुलना-श्वेताम्बर और दिगम्बर रचित
__ चरित्र-प्रन्थोंमें कथावस्तुमें कितनी समता विषमता * स्थानकवासी मुनि चौथमलजीने मूल श्रीपाल
है, इसकी तुलना करना भी आवश्यक है । दिगम्बर
, चरित्रमें जहाँ जहाँ जिनमन्दिर व मूर्तिका उल्लेग्य था
रचित प्राचीन प्रन्थ हमारे सामने नहीं है, अतः स्वयं मूर्तिपूजाके विरोधी होनेसे बदलकर स्थानक और
श्वेताम्बरीय चरित्र प्रन्थोंमें सबसे प्राचीन रत्नशेमुनि श्रादिका उल्लेख कर दिया है और भी कई
खरमूरिकृत प्राकृत श्रीपाल चरित्रसे दि० ब्रह्म सामान्य परिवर्तन कर डाले हैं।
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अनेकान्त
[मार्गशिर वीर-निर्वाण सं० २४६५
जिनदास कृत श्रीपाल महामुनिरासो की * जो कि ५ चरित्रमें श्रीपालके काकेका नाम अजितसेन प्रथम ग्रन्थसे करीब १०० वर्ष पीछेका रचित है, है, रासमें वीरदमन : लिखा है। तुलना कोजाती है।
६ चरित्रमें धवल संठको कौशाम्बीका निवासी दोनों ग्रन्थोक्त कथावस्तुकी तुलना करने के पूर्व लिखा है, राम में भरूअध्धका । यह कह देना परमावश्यक है कि दि० श्रीपालराम
७ चरित्रमें धवल जहाज न चलनेका कारण में कथा बहुत संक्षिप्त है कई बातें बिल्कुल नहीं
सिकोलरीको पूछता है, रासमें नैमित्तिकको । हैं। अतः अनेक स्थल अस्पष्टसे रह गये हैं, जबकि श्वेताम्बरीय ग्रन्थ बहुत विस्तृत व सरल हैं। अत: ८ चरित्रमें धवल बबरद्वीपमें राजा सुभटसे यहाँ कथा-पात्रोंके नामादिमें जो वैषम्य है, उसीपर बांधा गया लिखा है. राममें चोरों। संक्षिप्त विचार किया जाता है :
६ चरित्रमें बबरके राजाका नाम महाकाल व १ चरित्रमें प्रजापालकी द्वितीय राणी मयणा उसने अपनी पुत्री मदनसेना श्रीपालको व्याही
सन्दरीकी माताका नाम रूपसुन्दरी है, रासमें लिखा है, रासमें राजाका नाम नहीं व मदनकेवल सौभाग्यसुन्दरीका ही नाम है। सेनाके व्याहका कोई जिक्र नहीं है। २ चरित्रमें कन्याओंके शिक्षक शिवभूति और १० चरित्रमें मदनमंजुषाके पिताका नाम कनककेतु
सुबुद्धि लिखे हैं, रासमें नाम न देकर कंवल माताका कनकमाला एवं उनकी नगरीका नाम ब्राह्मण और मुनिही लिखा है ।। रत्नसंचया लिखा है, रासमें रत्नद्वीपका राजा ३ चरित्रमें सुरसुन्दरीके पतिको अहिछत्र विद्युतप्रभ रानी मेघमालिनी लिखा है। (शंखपुरी) के राजा दमितारिका पुत्र लिखा है, ११ चरित्रमें मदनमंजुषाके भावी पतिका नाम
रासमें केवल अहिछत्र राज-पुत्र लिखा है। चक्रेश्वरीने कहा, रासमें ज्ञानसागर मुनिने । ४ चरित्रमें श्रीपालके पिता सिंहरथका मंत्री १२ चरित्रमें समुद्रस निकलकर श्रीपालने कुंकण
मतिसागर लिखा है, रासमें आनंदपद नाम है। देशके राजा बसुपालकी पुत्री मदनमंजरीको ___* पं. दीपचन्दजी वर्णी लि. श्रीपाल-चरित्रमें व्याही लिखा है, रासमें दलपतनके राजा जो कि कविपरिमलके ग्रन्थका अनुवाद है, कविकल्पना धनपालकी पुत्री गुणमाला लिखी है। चरित्रमें ने काफी काम किया है, बहुतसे कथा-पात्र नाम व
श्रीपाल वहाँ ताम्बूलदानके कामपर रहा, प्रसंग जिनदासकृत रासमें सर्वथा भिन्न हैं। अतएव
रासमें भंडारीपदपर। हमें तुलनाका कार्य राससे करना ही विशेष उपयुक्त श्वे. स्था० मुनि चौथमलजी रचितमें भी नाम शात हुआ।
वीरदमन है।
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वर्ष २ किरण २]
श्रीपालचरित्र साहित्य
१५
१३ चरित्रमें धवल श्रीपालके महलपर चढ़नेपर गुजरातमें २६६ कुमारियोंका व्याहना,
छुरीसे मरा, रासमें विष खाके मरा लिखा है। बागड़के भीलोंस दण्ड लेना आदि लिखा है । १४ चरित्रमें कुंडलपुरके राजा मकरकेतुकी पुत्री ११ चरित्र में श्रीपाल पूर्वमव में हिरनपुरका राजा गुणसुन्दरीको श्रीपालने व्याही लिखा है,
था लिखा है, रासमें रत्नसंचय नगरका । रासमें मकरध्वजकी पुत्री चित्रलेखादि १००
कन्याओंके साथ व्याह होना लिखा है। २० रासमें वरदत्तमुनिसे सिद्धचक्र व्रत आषाढ़ १५ चरित्रमें ब्रजसेनकी पुत्री त्रैलोक्यसुन्दरीसे
कार्तिक फाल्गुन शुक्लमें ८ दिन व्रत करने
रूप १२ वर्षतक करने का बतलाया श्रीकांत विवाह होना लिखा है। रासमें विशालमति
११ वें स्वर्ग गया लिखा है चरित्रमें मुनिका आदि ६०० कन्याओं को व्याहा बतलाया है।
नाम नहीं व अन्य सिद्धचक्रादिका विशेष १६ चरित्र में देवदलके राजा धरापालकी राणी स्वरूप नहीं लिखा है।
गुणमालाकी पुत्री शृङ्गार सुन्दरीको ५ सम्बियों सहित-समस्या पूर्णकर व्याही लिखा है, रासमें २१ चरित्रमें श्रीपालके ६ राणिये त्रिभुवनपालादि । कुंडलदेशके विनयसनकी जसोमालारानी थी पुत्र ६ हजार हाथी ६ हजार रथ ६ लाख घोड़े
और उस राजाकी १६०० कन्याओं को जिनमें करोड़ पैदलका परिमाण था १०० वर्षाय सौभाग्य गौरी आदि = मुख्य थीं उनकी भोग १ वे स्वर्ग गये । वे भवमें मोक्ष होगा समस्या पूर्तिकर व्याही लिखा है।
लिखा है, रासमें पुत्र महिपालादि १२००८
१२ हजार हाथी १२ लाख घोड़े १२ हजार रथ १७ चरित्रमें इसके बाद कुल्लागपुरके पुरन्दर
१२ करोड़ पैदल, सुव्रत मुनिके पास दीक्षा विजयाकी पुत्री जयसुन्दरीको राधावेधसाध
२ राजाओंके साथ ली व केवल ज्ञान प्राप्त कर कर व्याही लिखा है रासमें मल्लदेशकी ७००
मोक्ष पधारे लिखा है। कन्याओंको व तिलंगकी १००० कन्याओंको । १८ चरित्रमें वसुपालके राज्य देने, उज्जैन जाते
श्वेताम्बरीय श्रीपाल चरित्र-साहित्य मार्गमें सोपारकके राजा महासेनकी पुत्री (संवतानुक्रम से) तिलकसुन्दरीको निर्विषकर व्याही लिखा है,
प्राकृत रासमें १२ वर्ष पूर्ण होनेसे उज्जैनकी ओर चलते गिरनार यात्रा फाल्गुनमें अठाई महो- १ श्रीपाल चरित्र:- कर्ता-तपा गछीय रत्नत्सव सिद्धक्षेत्र यात्रा ५०० कन्या पाणिग्रहण
शेखरसूरि सं० १४२८ शि० अरिदमनका सेवक होना, मरहठदेशमें ५००
हेमचन्द लि० गाथा १३४२
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अनकान्त
मार्गशिर वीर-निर्वाण सं० २४६५
। वृति:-खरतरगच्छीय उपा
ध्याय क्षमाकल्याण, सं० १८६६ श्रा० सु० १०
। गुजराती भाषांतरः-हीरालाल हंसराज सं० १६६४से पूर्व
संस्कृत
ii
हिन्दीभाषांतर:-खरतर
,
२
"
गच्छीय जिनकृपाचन्द्रमरि
पूर्णिमा (राका) पक्षीय सत्यराज गणि, सं० १५१४ पद्य
सं० १६८०
iii
हिन्दीभाषांतर:-खरतरगच्छीय वीरपुत्र आनन्दसागर सं० १९६१ दीवाली भुज०
वृद्धतपा लब्धिसागर सूरि सं० १५५७ पो० शु० ८ मो० श्लो० ५०७
iv अंग्रेजी भाषांतर-बाड़ीलाल ___ जीवालाल चोकसी B.A.
तपागच्छीय ज्ञानविमलसूरि, सं० १७५५ राध० सु० २ उन्नताख्यपुर गद्य-पद्य ग्र० १८००
खरतरगच्छ य जयकीर्ति, सं० १८६८ मि० व० १० जैसलमेर मूलराजराज्ये गा
खरतरगच्छीय लब्धिमुनि, सं० १६६० जेष्ट सु. ७ भुज० श्लो० १०५१
, वृतिसहित दे०ला. पु०फंड सूरत (ग्रन्थांक ६३)
से सं० १९८० में प्रकाशित है ii भाषांतरसह श्रीजिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार-सूरत से iii भाषांतर सहदोबार, आनन्दसागर ज्ञानभंडार-कोटेसे प्रकाशित । iv रमणीक पी०कोठारी, गांधीरोड, अहमदाबादसे प्र. और युनिवर्सिटीमें प्रीवियस क्लासमें टैक्स्ट बुकरूपसे स्वीकृत । दे० ला• पु० फंडसे प्रकाशित ग्रन्थकी प्रस्तावनामें अवचूरिका कर्ताक्षमाकल्याण प्रघोषरूपसे लिखा है और प्रशस्ति नहीं दी है पर बीकानेर भंडारों आदिमें समकालीन लिखित सब प्रतियोंमें प्रशस्ति उपलब्ध है। भाषांतरसह सं० १९६४-१९७९ दो प्राकृतियें कच्छ और अहमदाबादसे प्र. हो चुकी हैं।
"
निर्नामक पत्र १६ मुनि कांतिसागरजीके पास
३ श्रीवीरसमाज अहमदाबादसे प्र० ४ दे० ला० पु. फंड ग्रन्यांक ५६ प्र० २-५ हीरालाल इंसराजजामनगरसे प्र० ७ जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार-बम्बईसे प्रकाशित है।
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वर्ष २ किरण २ ]
१६ सं० १७२७ भा० सु० ६ २० सं० १७२८ दीवाली
२१ + सं० १७३८
रास- भाषाकाव्य
( हिन्दी गुजराती राजस्थानी - भाषा)
रचियता
श्रीपाल चरित्र साहित्य
रचना-काल
स्थान
८ सं० १४६८ का० सु० ५ गु०, श्रेष्ट मांडा ६ सं० १५०४ आश्विन,
खयनगर
१० सं० १५३१ मि० पु० ३ गु०
११ सं० १५६४ आ० सु०८
१२ सं० १६४२
१३ सं० १६६० भा० व० ६
१४ सं० १७०२ (४१) श्र०सु०१० सोपीलका,
जहानाबाद
१५ सं० १७२२ मि० १३ १६ सं० १७२२ श्र०सु० १० गु० पलियड
१७ सं० १७२६ चै० सु० १५ मं०
साहादउइ
१८ * सं० १७२६ आ० व०८ गु० अहमदाबाद
रतलाम
उल्लेख भा० ३ पृ० ४३३
जै० गु० कवि
उ० धर्म सुन्दर, (पत्र १५ श्रन्त पत्र हमारे संग्रह में ) ज्ञानसागर (नायलगच्छीय) जै० गु० क० भा० १ ० ५८ ईश्वरसूरि (सांडेरगच्छ ) जै० गु०क० भा०३ ०५३२ हमारे सं० पद्मसुंदर (विवंदनीकगच्छीय) देशाइनोंध
खंभात किसनगढ़
रांनेर
२२ सं० १७४० मिश्र २३ सं० १७४० चै० मु० ७ सो० पाटण
२४ * सं० १७४२ चै० ब० १३ पाटण
२५ सं० १७६१ ०सु० १० गु० नवलखबंदर
रत्नलाल ( खरतर )
तपामानविजय खरतरगच्छीय महिमोदय
तपामेरूविजय
तपापद्मविजय
हमारे संग्रह में नं० २५१
जै० गु० क० भा० २ पृ० १२८
""
पृ० १६३
तपा लक्ष्मीविजय
तपा उदयविजय
तपा विनयविजय यशोविजय
( गा० ७५० ) ( गा० ११२५) हरखचन्द साधु खरतर जिनह
""
י,
अंचल ज्ञानसागर जै० गु० क० भा० २ ० ७३
(ढाल ४० गु० ११३१)
21
11
29
99
१६१
"
71
पृ० १६२ अभय० भं०
29
पृ० २५१
पृ० २५५
पृ० १७
पृ० ३५६
पृ० ८६
प्र० ८८
पृ० ५६७
तपा जिनविजय
* पं० हीरालाल हन्सराजके लि० गु० भाषांतरसह कछअंजार से सं० १९७९ में प्रकाशित ।
+ नं० २१ की अनेकों श्रावृतियें सानुवाद ( पूर्णचन्द्र शर्मा आदि द्वारा अनु० ) एवं सचित्र कई प्रकाशकों द्वारा गुजराती एवं नागरी लिपिमें प्रकाशित हो चुकी हैं, सबसे अधिक प्रचार इसी रासका है।
* नं० २३ सं० १९३० में राय धनपतसिंह बहादुरने प्रकाशित किया था, सं० १९९३ में इसकी सचित्र एवं शुद्ध आवृति पं० केशरमुनिजीने जिनदत्तमूरि ज्ञानभंडार बम्बई से प्रकाशित की है।
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१६२
२६ सं० १८०६ प्र० भा० सु० १३
२७ सं० १८२४ पो० व० ६ २०
२८ सं० १८३७ आषाढ़ सु० २ मं०
२६ सं० १८५३ का० सु० २
३० सं० १८५६ फा० २०७०
३१ सं० १८३४ से १८५६
३२ सं० १८७६
३३ सं० १८६६ श्र०
३४ सं० १६१७ काती भाषा गव
३५ सं० १६८१ विजय दशमी
३६ सं० १६८१
हिन्दी गद्य
३७ सं० १९८६ हिन्दी गद्य म० प्र०
३८
३६ श्रीपाल चौपड़
४०
४१
४२ श्रीपाल नाटक
""
लघुरास
बृहचरितं
अनेकान्त
घडसीसर
खरतर रुघपति
Nagaur नेमविजय जै० गु० क० भा० ३ ५० ५३
*
पृ० १५८
पृ० ३३४
पृ० १६१
श्रजीमगंज
""
"g
पाटण
परेडा
सादडी
[मार्गशिर वीर निर्धारण सं० २४६५
खरतर लालचन्द
तपा चेतनविजय
लांका रूपचन्द
99
कृपाविनय
उदयरत्न
विनय विमल
ज्ञानचन्द्रजी कोचरके लि०
""
खरतर तत्व कुमार
तपा क्षेमवर्द्धन जै० गु० क० भा० ३ १० २८४
तपा उदयसोमसूरि
पृ० ३२० हमारे संग्रह में
खरतर देवराज
ढुंड़क चौथमल (प्र० १७५०)
+
वी० पी० सिंधी सीरोहीसे प्रकाशित
पं० काशीनाथ जोन सजिल्द सचित्र प्रकाशित । कन्हैयालालजी जैन कस्तला के लिखित प्र० अनिश्चित ।
ॐ
"
| उल्लेख : - - श्रीपाल - चरित्र सावचूरिकी प्रस्तावना में । मगदानन्द सूरि
प्रकाशित
* नं० ३१ खरतर सूर्यमलजी यतिने संशोधित कर कलकतेसे प्रकाशित किया है।
* जैन गुर्जर कवियोंके भा० १-२ तो श्वे० जैन कॉन्फरेन्ससे प्रकाशित हो चुके हैं तीसरा भाग छप रहा है पृष्ठ ६२४ तक के छपे फरमे ग्रन्थ लेखक श्रीयुत मोहनलाल दलीचन्द देशाईने अवलोकन मुझे भेजे उनका उपयोग किया है।
+ भी जैनोदय पुस्तक प्रकाशक समिति, रतलाम से प्रकाशित ।
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वर्ष : किरण
श्रीपालचरित्र साहित्य
१६३
दिगम्बर साहित्य
नाम
कर्ता
उल्लेख १ श्रीपाल महामुनिगम :- मकल कीर्तिशिष्य ब्रह्म जिनदास :
१६ वीं शताब्दी - " चरित्र
गोपरगट निवासी कवि परिमल (बरैया) मं० १६५१ आगरा आख्यान वीरचन्द्र प्रशिष्य वादिचन्द्र
सं०१६५१ देशाइनोंध ४ " नाटक
श्री दि. जैन उपदेशक सोसायटी द्वारा प्र० पृ० १५२ ५ मैनासुंदरी नाटक लाला न्यामतसिंह
प्र० ६ श्रीपाल * चरित्र (नं० का अनुवाद) दीपचन्दवर्णी सूरत में प्र० सचित्र मूल्य १-)
(श्रीवीर संवन १५३६ जे० ५० ११ नरसिंघपुर) नं० ३ को छोड़ककर पांचों ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं कुछ अनिश्चिन अन्यों के नाम ये हैं :
+ इनके रचित निनोक्त ग्रन्थ और भी उपलब्ध हैं जिससे इस कृत्तिमें रचना काल लिखित ८४ होने पर भी इमका ममय १६ वीं शताब्दीका पूर्वार्द्ध निश्चित होता है । , हरिवंश रास सं० १५२० ४ श्रेणिक रास ७ समकितसार रास २ यशोधर रास
५ करकंडु रास
८ सासर वासो नो रास ३ आदिनाथ राम
६ हनुमंत रास
९ धर्मपचीसी (जै० गु०क०भा०१३) "दि० जैनग्रन्थ-कता और उनके ग्रन्थ" में श्री नाथूरामजी प्रेमीने उपरोक्त प्रन्योक अतिरिक्त इस कविके रचित निनोक्त ग्रन्यांक नाम और भी दिये हैं:१० पद्मपुराण १६ साईद्वयद्वीप पूजा
२. वृहत्सिदचक्र पूजा ११ जंबूस्वामी चरित्र १७ चतुर्विशत्युद्यापन
२२ धर्म पंचासिका १२ होली चरित्र १८ मधमालोद्यापन
२३ कर्मविपाक रास श्रीपाल रामके १३ रात्रिभोजनपृथा
१९ चतुस्त्रिशदुत्तर द्वादश शतोद्यापन साथ प्र० १४ जंबूद्वीप पूजा
२० अनन्त व्रतोद्यापन २४ प्रद्युम्न रास सूरनमे छप भी चुके हैं। १५ अनन्तव्रत पूजा
* इस चरित्रकी श्रीयुत बाड़ीलाल मोतीलाल शाहने कड़ी समालोचना जैनहितेच्छुमें की थी, जिसे अनु. वादित कर बाबू चन्द्रसेन जैन वैद्य इटावा ने सन १९१८ में "श्रीपाल चरित्रकी समालोचना" के नामसे प्रकाशित की थी, मूल्य ) है।
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१६४
नाम
७ श्रीपाल चरित्र ( प्राकृत)
८
77
""
11
99
17
99
अनेकान्त
कर्त्ता
नरदेव वानरसेन कृत नेमिदत्त ब्रह्मचारी सं० १५८५
"
मल्लिभूषण भट्टारक
कवि
विद्यानंदि
[मार्गशिर वीर- निर्वाण सं० २४६५
उल्लेख
दि० जे० प्रन्थकर्त्ता, प्र० १४
पृ०
१४
ह
१०
११
१२
१३
१४
वचनिका
४३
१५ श्रीपालरास (हिन्दी) ब्रह्म रायमलम ( भूलसिंह के पुत्र रणथंभोर निवासी) सं० १६३० (उ० हस्त लि० हि ह० पु० का विवरण भा० १ ० १७१) धूकवि कृत रचनाकाल १५ वीं शताब्दी मे० प० स० भ० बम्बई
11
शुभचन्द्र मलकीर्ति भट्टारक
दौलतराम काशलीवाल (बसवानिवासी)
13
,
12
"
प्र० २०
पृ० २३
पृ० २६
२८
पृ०
पृ० ३०
१६ श्रीपाल चरित्र (अपभ्रंश)
इनमें नं० ८-१३ की प्रति कारंजा ज्ञानमन्दिर में और आरा-सिद्धान्त भवनमें भी है अब शेष ग्रन्थ कहाँ कहाँ पर हैं ? खोजकर रचनाकालादिका पता लगाना आवश्यक है। उपयुक्त सूची में नेमिदत्त और मल्लिभूषण के २ भिन्न व सकलकीर्ति एवं ब्रह्मजिनदास के २ भिन्न भिन्न चरित्र लिखे हैं वे संभव है. ४ के स्थान पर दो ही चरित्र हों । क्योंकि नेमिदत्त मल्लिभूषण के एवं जिनदास सकलकीर्तिके शिष्य थे संभव है सूची कर्त्ता कर्त्ताका नाम निकालने में गलती की हो। आशा है दि० विद्वान इस सम्बन्ध में विशेष प्रकाश डालेंगे ।
/
'योग्य पुरुषोंकी मित्रता दिव्यग्रन्थोंके स्वाध्यायके समान है; जितनी ही उनके साथ तुम्हारी घनिष्टता होती जायगी उतनी ही अधिक खूबियाँ तुम्हें उनके अन्दर दिखायी पड़ने लगेंगी ।'
'बुद्धि समस्त अचानक आक्रमणोंको रोकने बाला कवच है । वह ऐसा दुर्ग है जिसे दुश्मन भी घेर कर नहीं जीत सकते ।' — तिरुवल्लुवर
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अधिकार! (श्री. भगवत्स्व रूप जैन 'भगवत्' )
विकसित हों अभिलाषाएँ भी
और अलौकिक-सुखप्रद-ज्ञान ! छेड़-छेड़ ! बस, मेरे गायक
वही सुरीली मोहक तान !!
जल जाए प्राणोंकी ममता. मिट जाए जगका अनुराग! श्रो गायक! गा ऐसा गायन. धधक उठे जो ऐसी श्राग !!
[२] कम्पित मन दृढ़ताको पाएजाए सुप्त हृदय भी जाग ! उस स्वरागमें लय हो, करदूँमैं अपने प्राणोंका त्याग !!
[३] मर जाए कायरता मनकीनाहरता पाए सन्मान ! मानवता उत्सुक-मन होकरनिर्मित करे भविष्य महान !!
क्षम रहे, या प्रलय मचे, याविश्व कर उठे हाहाकार ! पर स्वतन्त्र बन जानेका हो
मनमें मेरे भव्य-विचार !"
वाणी, प्राकृति, और क्रिया सेहो बस, प्रगट यही उद्गार ! नहीं चाहिए मुझे परायामिल जाए मेरा अधिकार !!
प्रतीक्षा!
[श्री.-कल्याणकुमार जैन “शशि"]
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मैं हूँ , मेरी भावुकता है,
उमड़ी पड़ती है प्रसन्नतापुप्पोंकी डलिया अम्लानः
रोम-रोममें चारों ओर; इन्हें जुटाए हुए प्रतीक्षा
श्रद्धा नचती है मयूर बन, में बैठा हूँ, अन्तर्दान।
हो-होकर आनन्द-विभोर। इसकी भी चिंतान मुझे हैमुरझा जाएँगे ये फूल,
या यह संध्याकी सुहाग
___ नाली हो जायेगी उन्मूल (४) मैं तो उस धुंधले प्रकाशमें
पर भय है, यह मनोनीतही बैठा-बैठा चुपचाप,
इच्छा जिस समय फलेगी, खोज रहा हूँ एकाकी हो
पद पर फूल चढ़ानेकी भीकर, तेरे चरणोंकी चाप।
क्या सुधि मुझे रहेगी?
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लेखक:सामाजिक जैन समाज क्यों मिट रहा है? अयोध्याप्रसाद
गोयलीय ( क्रमागत )
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8-988804
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प्रगति
2Jee.
जैन-समाजकी उत्पादन-शक्ति ही क्षीण हुई दिया गया, कोल्हुओंमें पेला गया, दीवारोंमें चुन
होती, तोभी गनीमत थी, वहाँ तो बचे-खुचों दिया गया, उसका पड़ोसी बौद्ध-धर्म भारतसे को भी कूड़े-करकटकी तरह बुहार कर बाहर फैका खदेड़ दिया गया –पर वह जैन-धर्म मिटायेसे जारहा है। कूड़े-करकटको भी बुहारते समय देख न मिटा । और कहता रहालेते हैं कि कोई क्रीमती अथवा कामकी चीज़ तो कुछ बात है जो हस्ती मिटती नहीं हमारी । इसमें नहीं है; किन्तु समाजसे निकालते समय सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहाँ हमारा ॥ इतनी सावधानताभी नहीं बर्ती जाती। जिसके
-"इकबाल" प्रतिभी चौधरी-चुकड़ात, पंच-पटेल रुष्ट हुये जो विरोधियोंके असंख्य प्रहार सहकर भी अथवा जिसने तनिकसी भी जाने, अनजाने भूल अस्तित्व बनाये रहा, वही जैनधर्म अपने कुछ की, वही समाज से पृथक कर दिया जाता है । इस अनुदार अनुयाइयोंके कारण ह्रासको प्राप्त होता प्रकार जैन-समाजको मिटानेके लिये दुधारी तल- जा रहा है। जिस सुगन्धित उपवनको कुल्हाड़ी न वार काम कर रही है। एक ओर तो उत्पादन शक्ति- काट सकी, उसी कुल्हाड़ीमें उपवनके वृतके बेटे तीण करके समाजरूपी सरोवर का स्त्रोत बन्द कर लग कर उसे छिन्न-भिन्न कर रहे हैं। दिया गया है, दूसरी ओर जो बाकी बचा है, उसे बहुत उम्मीद थीं जिनसे हुए वह महबों कातिल । बाहर निकाला जारहा है। इससे तो स्पष्ट जान हमारे कत्ल करनेको बने खुद पासवाँ कातिल ॥ पड़ता है कि जैन-समाजको तहस नहस करनेका पूरा संकल्पही कर लिया गया है।
सामाजिक रीति-रिवाज उलंघन करनेवालेके
लिये जाति वहिष्कारका दण्ड शायद कभी उप जो धर्म अनेक राक्षसी अत्याचारों के समक्ष योगी रहा हो, किन्तु वर्तमानमें तो यह प्रथा भी सीना ताने खड़ा रहा, जिस धर्मको मिटानेके बिल्कुलही अमानुषिक और निन्दनीय है । जो कवच लिये दुनियाँ भरके सितम ढाये गये,धार्मिकस्थान समाजकी रक्षाके लिए कभी अमोघ था, वही नष्ट-भ्रष्ट कर दिये गये, शास्त्रोंको जला दिया गया, कवच भारस्वरूप होकर दुर्बल समाजको पृथ्वीधर्मानुयाइयोंको औंटते हुये तेलके कदात्रोंमें छोड़ में मिला रहा है।
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जैन समाज क्यों मिट रहा है ?
वर्ष २ किरण २ ]
अपराधीको दण्ड दिया जाय, ताकि स्वयं उसकी तथा औरों को नसीहत हो और भविष्यमें वैसा अपराध करनेका किसीको साहस न होयह तो कुछ न्याय संगत बात जँचती भी है; किन्तु अपराध की पीढ़ी दर पीढ़ी सहस्त्रों वर्ष वही दण्ड लागू रहे― चह रिवाज बर्बरताका यांतक और मनुष्य समाज के लिये कलंक है ।
नानी दान करे और धेवता स्वर्गमें जाय - इस नियमका कोई समर्थन नहीं कर सकता । नाम कर जैनधर्म तो इस नियमका पक्का विरोधी है। जैनधर्मका तो सिद्धान्त है कि, जो जैसे शुभ
शुभ कर्म करता है वही उसके शुभ-अशुभ फल का भोगने वाला होता है किसी अन्यको उसके शुभ-अशुभ कर्मका फल प्राप्त नहीं हो सकता । यही नियम प्रत्यक्ष भी देखनेमें आता है कि जिसको जो शारीरिक या मानसिक कष्ट है, वही उसको सहन करता है. कुटुम्बीजन इच्छा होने पर भी बटा नहीं सकते । राज्य-नियम भी यही होता है, कि कितना ही बड़ा अपराध क्यों न किया गया हो, केवल अपराधीको सजा दीजाती है। उसके जो कुटुम्बी अपराध में सम्मलित नहीं होते, उन्हें दण्ड नहीं दिया जाता है।
किन्तु, हमारी समाजका चलनही कुछ और है । जिसने अपराध किया, वह मरकर अपने श्रागे के भवोंमें शुभ कर्म करके चाहे महान पदको प्राप्त क्यों न होगया हो, किन्तु उसके वंश में होने वाले हज़ारों वर्षों तक उसके वंशज उसी दण्डके भागी बने रहेंगे, जिन्हें, न अपराधका पता है
* अवश्यमेव भोगतव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ।
१६७
और न यही मालूम है कि किसने कब अपराध किया था । और चाहे वह कितने ही सदाचारो धर्म निष्ठ क्यों न रहें, फिर भी वह निम्न ही समझे जाएँगे, बलासे उनके आचरण और त्यागकी तुलना उनसे उच्च कहे जाने वालोंसे न हो सके. फिर भी वह अपराधीके वंश में उत्पन्न हुए हैं, इसलिये लाख उत्तम गुगा होने पर भी जघन्य हैं । क्या खूब !!
जैन समाज में प्राचीन और नवीन दो तरह के ऐसे मनुष्य हैं जो जातिसं पृथक समझे जाते हैं । प्राचीन तो वे हैं जो इम्सा, समैया, और विनैकवार आदि कहलाते हैं, और न जाने कितनी सदियोंसे न जाने किस अपराधके कारण जाति-च्युत चले जाते हैं। नवीन वे हैं जो अपनी किसी भूल या पंच-पटेलोंकी नाराजगीके कारण जातिसे पृथक होते रहते हैं ।
प्राचीन जातिच्युतोंकी तो धीरे-धीरे समार्जे बन गई हैं, वह अपनी २ जातियोंमें रोटी-बेटी व्यवहार कर लेते हैं, उन्हें विशेष असुविधा प्राप्त नहीं होती, किन्तु नवीन जातिच्युतों को बड़ी आपतियों का सामना करना पड़ता है; क्योंकि उनके तो गाँव में बमुश्किल कहीं-कहीं इकेले-दुकेले घर होते हैं। उनसे पुश्तेनी जाति-च्युत तो रोटी-बेटी व्यवहार करते नहीं । क्योंकि उनकी स्वयं जातियाँ बनी हुई है और वह भी रूढ़ीके अनुसार दूसरी जाति से रोटी-बेटी व्यवहार करना अधर्म समझते हैं। और नवीन जातिच्युतों की कोई जाति तो इतनी शीघ्र बन नहीं सकती : उनकी पहली रिश्तेदारियाँ मब उसी जातिमें होती हैं, जिससे उन्हें
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१६८
अनेकान्त
[मार्गशिर वीर-निर्वाण सं० २४६५ पृथक किया गया है, अतः सब नवीन जाति-च्युत वह रक्त जितना पहुँचेगा, उसमें उसके रोगी यही चाहते हैं कि हमारा रोटी-बेटी व्यवहार सब कीटाणुभी उतने ही प्रवेश कर जाँयेंगे । रक्त वंश जाति-सन्मानितोंमें ही हो, जातिच्युतसं व्यवहार में प्रवाहित होता रहता है, इस लिये रोग भी करनेमें हेटी होगी । जातिवाले उनसे व्यवहार वंशानुगत चलता रहता है। पापका रक्तसे सम्बन्ध करना नहीं चाहते और वह जाति-च्युत, जाति नहीं, यह आत्माका स्वतन्त्र कर्म है, अतः वही सन्मानितोंके अलावा जाति-च्युतोंसे व्यवहार नहीं उसके फलाफलको भोग सकता है, दूसरा नहीं । करना चाहते । अतः इसी परेशानीमें वह व्याकुल जैन-धर्ममें तो पापीसे नहीं, पापीके पापसे हुए फिरते हैं।
घृणा करनेका आदेश है। पापी तो अपना अहित कालेपानी और जीवनपर्यन्त सजाकी अवधि- कर रहा है इसलिये वह क्रोधका, नहीं अपितु तो २० वर्ष है; और अपराधी नेकचलनीका प्रमाण दयाका पात्र है । जो उसने पाप किया है, उसका दे तो, १४ वर्षमें ही रिहाई पासकता है; किन्तु वह अपने कर्मानुसार दण्ड भोगेगा ही, हम क्यों सामाजिक दण्डकी कोई अवधि नहीं। जिस तरह उसे सामाजिक दण्ड देकर धार्मिक अधिकारसे संसारके प्राणी अनन्त हैं उसीप्रकार हमारी रोकें और क्यों अपनी निर्मल आत्माको कलुषित समाजका यह दण्डभी अनन्त है। पाप करने करें ? पापीको तो और अधिक धर्म-साधन करनेकी वाला प्राणी कोटानिकोट वर्षोंकी यातना सहकर आवश्यकता है। धर्म-विमुख कर देनेसे तो वह ७ वे नर्कसे निकलकर मोक्ष जा सकता है, किन्तु और भी पापके अन्धेरे कूपमें पड़ जायगा । उसके वंशज उसके अपराधका दण्ड सदैव पाते जिससे उसका उद्धार होना नितान्त मुश्किल है। रहेंगे—यही हमारे समाजका नियम है। तभी तो जैन-धर्मके मान्य ग्रन्थ पंचाध्याईमें __ कुछ लोग कहा करते हैं कि जिस प्रकार लिखा है:उपदंश, उन्माद, मृगी, कुष्ट आदि रोग वंशानु सस्थितीकरणं नाम परेषां सहनुग्रहात् । क्रमिक चलते हैं, उसी प्रकार पापका दण्ड चलता है। कितु उन्हें यह ध्यान रखना चाहिये कि रोग
__ भृष्टानां स्वपदात् तत्र स्थापनं तत्पदे पुनः ।।
टा" के साथ यदि पापका सम्बन्ध होता तो जिस पापके अर्थात-धर्म-भृष्ठ और पद-न्युत प्राणियोंको फल स्वरूप रावण नर्कमें गया, उसीके अनुसार दया करके धर्म में लगा देना, उसी पदपर स्थिर उसके भाई-पुत्रोंको भी नर्कमें जाना पड़ता, किन्तु करदेना-यही स्थितिकरण है। ऐसा न होकर वह मोक्ष गये । उसके हिमायती बन जिस धर्मने पतितोंको, कुमार्गरतोंको, धर्मकर पापका पक्ष लेकर लड़े, किन्तु फिरभी वह तप विमुखोंको, धर्ममें पुन: स्थिर करनेका आदेश करके मोक्ष गये । यदि रोग और पापका एकसा देते हुए, उसे सम्यक् दर्शनका एक अंग कहा है। सम्बन्ध होता तो पिता नर्क और पुत्र स्वर्ग न और एकभी अंग-रहित, सम्यकदृष्टि हो नहीं जाता । रोगोंका रक्तसे सम्बन्ध है, जिसमें भी सकता, फिर क्यों उसके अनुयायी जाति-न्युत
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वर्ष २ किरण २]
जैन-समाज क्यों मिट रहा है ?
१६६
करके, धर्माधिकार छीनकर, धर्म-विमुख करके और कुमार्गरतों मनुष्योंकी जैनप्रन्थों में ऐसी अनेक अपनेको मिथ्यादृिष्टि बना रहे हैं और क्यों धर्ममें कथायें लिखी पड़ी हैं जिन्हें जैन धर्मको शरणमें विघ्न-स्वरूप होकर अन्तराय कर्म बान्ध रहे हैं ! प्रानेसे सन्मार्ग और महान पद प्राप्त हुआ है। जबकि जैन-शास्त्रों में स्पष्ट कथन है कि:- उदाहरण म्वरूप यहाँ ६० परमेष्ट्रीदासजी न्याय
- तीर्थकी “जैनधर्मकी उदारता" नामकी पुस्तकसे म्वापि देवोऽपिदेवः स्वा जायते धर्म किल्विषान्
र कुछ उद्धरण दिये जाते हैं :-- धर्मके प्रभावसे---धर्म सेवनसे-कुत्ता भी
(१) "अनंगसेना नामको वेश्याने वेश्या-वृत्ति देव हो सकता है, अधर्मके कारण देव भी कुत्ता।
छोड़कर जैन दीक्षा ग्रहणकी और म्वर्ग गई । (२) हो सकता है । चाण्डाल और हिंसक पशुओंका
यशोधर मुनिने मछली ग्वाने वाले मृगसेन धीवरभी सुधार हुआ है, वहभी निर्मल भावनाओं और
को व्रत ग्रहण कराये जिसके प्रभावसे वह मरकर धर्म-प्रेमके कारण सद्गतियोंको प्राप्त हुए हैं।
श्रेष कुल में उत्पन्न हुआ। (३) ज्येष्ठ आर्यिकाने जैनधर्म तो कहलाता ही पतित-पावन है। जिसके
एक मुनिसे शीलभ्रष्ट होने पर पुत्र-प्रसव किया, णमोकार मंत्र पढ़नेसे सब पापोंका नाश होमकना
फिर भी वह प्रायश्चित द्वारा शुद्ध होकर तप करके है, गन्धोदक लगाने मात्रसे अपवित्रस अपवित्र
वर्ग गई। (४) राजा मधु अपने माण्डलिक व्यक्ति पवित्र हो सकता है और जिनके यहाँ
राजाकी स्त्रीको अपने यहाँ बलात रखकर विषय हजारों कथायें पतितोंके सन्मार्गपर पानेकी
भांग करता रहा, फिरभी वह दोनों मुनि-दान देने बिखरी पड़ी हैं । जिनके धर्मग्रन्थों में चींटीसे लेकर
थे और अन्तमें दोनों ही दीक्षा लेकर स्वर्ग गये। मनुष्य तककी आत्माको मोक्षका अधिकारी कहकर
(५) शिवभूति ब्राह्मणकी पुत्री देववनोके साथ समानताका विशाल परिचय दिया है। जो जीव
शम्भूने व्यभिचार किया, बादमें वह भ्रष्ट देववती नर्क में हैं, किन्तु भविष्यमं मोक्ष गामी होंगे,
विरक्त होकर दीक्षा लेकर स्वर्ग गई। (६) वेश्या उनकी प्रतिदिन जैनी पूजा करते हैं। कब किस
लम्पटी अंजनचार उसी भवस मद्र्गातको प्राप्त मनुष्यका विकास और उत्थान होने वाला है
हुआ। (७) मॉमभक्षी भृगध्वज और मनुष्यभक्षी यह कहा नहीं जा सकता । तब हम बलानधर्म
शिवदास भी मुनि होकर महान पदको प्राप्त हुए । विमुग्व रखकर उसके विकासको रोककर कितना
(८) अग्निभून मुनिने चाण्डालकी अन्धी लड़की. अधर्म संचय कर रहे हैं ?
को श्राविकाके व्रत ग्रहण कराये । वही तीसरे भवअशरण-शरण, पतितपावन जैन-धर्ममें भूल- में सुकुमाल हुई थी। (६) पूर्णभद्र और मानभद्र भटके पतितों, उच्च और नीच सभीक लिय द्वार दो वैश्य-पुत्रोंने एक चाण्डालको श्रावककं ब्रत खुला हुआ है। मनुष्य ही नहीं-हाथी, सिंह, ग्रहण कराये, जिसके प्रभावसे वह मरकर १६ शुगाल, शूकर, बन्दर, न्योल जैसे जीव जन्तुओं वगमें ऋद्धिधारी देव हुअा। (१०) म्लछ कन्या का भी जैन-धर्मोपदेशमं उद्धार हुआ है। पनिनों जगम भगवान नेमिनाथ के चाचा मुदवने विवाह
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अनेकान्त
मार्गशिर वीर-निर्वाण सं० २४६५
किया, जिससे जरत्कुमार हुश्रा । जरत्कुमारने मुनि विद्युद्वेगोपि गौरीणां विद्यानां स्तंभमाश्रितः। दीक्षा ग्रहणकी थी। (११) महाराजा श्रेणिक कृतपूजास्थितः श्रीमान्स्वनिकायपरिष्कृतः ।। पहले बौद्ध थे तब शिकार खेलते थे और घोर ।
पृष्टया वसुदेवेन तनो मदनवेगया । हिंसा करते थे, मगर जैन हुए. तब शिकार आदि व्यसन त्याग कर जैन-धर्मके प्रतिष्ठित अनुयायी विद्याधरनिकायास्ते यथास्वमिति कीर्तिताः॥ कहलाये । (१२) विद्युतचोर चोरोंका सरदार होने पर भी जम्बू स्वामीके साथ मुनि होगया और तप करके सर्वार्थसिद्धि गया। वैश्यागामी चारुदत्त भी अमी विद्याधरा धार्याः समासेन समीरितः । मुनि होकर सर्वार्थसिद्धि गये। (१३) यमपाल मातंगानामपि स्वामिनिकायान् श्रृणु वच्मिते॥ चाण्डाल जैन-धर्मकी शरणमें आनेसे देवों द्वारा
नीलांबुदचयश्यामा नीलांबरवरस्रजः । पूज्यनीय हुआ।" (पृ० ११ और ४३)
अमी मातंगनामानो मातंगस्तंभसंगताः ।। उक्त उद्धरणोंसे स्पष्ट होजाता है कि जैन-धर्मका
श्मशानास्थिकृत्तोत्तंसा भस्मरेणुविधूसराः । क्षेत्र कितना व्यापक और महान है । उसमें कीटपतंग,जीव-जन्तु, पशु और मनुष्य सभीके उत्थानकी
श्मशाननिलयास्त्वेते श्माशानस्तंभमाश्रिताः।। महान शक्ति है । सभीको उसकी कल्पतरु शाखाके नीलवैडूर्यवर्णानि धारयंत्यंबराणि ये । नीचे बैठ कर सुख-शान्ति प्राप्त करनेका अधिकार पाण्डुरस्तंभमेत्यामी स्थिताः पाण्डुकखेचराः ।। है । जैन-धर्म किसी वर्ग विशेष या जाति विशेष कृष्णाजिनधरास्त्वेते कृष्णचर्माम्बरस्रजः। की मीरास नहीं है। जैन-धर्मके मन्दिर में सभी
कानीलस्तंभमध्येत्य स्थिताः कालश्वपाकिनः॥ समान रूपसे दर्शन और पूजनार्थ जाते थे। इस सम्बन्धका उल्लेख श्रीजिनसेनाचार्य के हरिवंश पिंगलमूर्ध्वर्युक्तास्तप्तकांचनभूषणाः । पुराणमें पाया जाता है जो कि श्रद्धेय पं० जुगल- श्वपाकीनां च विद्यानां श्रितास्तंभ श्वपाकिनः ।। किशोरजी कृत विवाह-क्षेत्र प्रकाश नामकी पुस्तक- पत्रपर्णाशकच्छच-विचित्रमुकुटसजः । से उद्धृत करके पाठकोंके अवलोकनार्थ यहाँ दिया
पार्वतेया इति ख्याता पार्वतस्तंभमाश्रिताः॥ जाता है :
वंशीपत्रकृतोत्तंसाः सर्वर्तुकुसुमस्रजः । सस्त्रीकाः खेचरा याताः सिद्धकूटजिनालयम्। वंशस्तंभाश्रिताश्चैते खेटा वंशालया मताः॥ एकदा वंदितु सोपि शौरिर्मदनवेगया ॥ महाभुजगशोमांकसंदृष्टवरभूषणाः । कृत्वा जिनमहं खेटाः प्रवन्ध प्रतिमागृहम्। वृक्षमूलमहास्तममाश्रिता वार्यमूलकाः ।। तस्थुःस्तंभानुपाश्रित्य बहुवेषा यथायथम् ॥ स्ववेषकृतसंचाराः स्वचिहकतभूषणाः ।
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वर्ष २ किरण २]
जैन-समाज क्यों मिट रहा है ?
समासेन समाख्याता निकायाः खचरोद्गताः ॥ हड्डियोंके भूषणोंसे भूषित भस्म (राख) की रेणुओं इति भार्योपदेशेन ज्ञानविद्याधरान्तरः ।
से भदमैले और श्मशान [स्तंभ] के सहारे बैठे
हुए ये श्मशान जातिके विद्याधर हैं ।। १६ ।। वैडू. शौरियातो निजं स्थानं खेचराश्च यथायथम ।। र्यमणिके समान नोल नोले वनोंको धारण किये
-२६ वा सर्ग।
पांडुर स्तंभके सहारे बैठे हुये ये पाँडक जातिके -१४, १५, १६, १७, १८, १९, २०, २१, २२,
विद्याधर ॥ १७॥ काले काल मगचौका प्रोटे २३, २४.
काले चमड़ेके वस्त्र और मालाओंको धारे काल इन पद्योंका अनुवाद पं० गजाधरलालजीने. स्तंभका आश्रय ले बैठे हुए ये कालश्वपाकी जासिके अपने भाषा * हरिवंश पुराणमें, निम्न प्रकार
विद्याधर हैं ॥ १८ ॥ पीले वर्णके केशसे भूषित,
नप्त सुवर्णके भूषणोंके धारक श्वपाक विद्याओंके दिया है :--
स्तंभके सहारे बैठने वाले ये श्वपाक [भंगी] जाति ___ “एकदिन समस्त विद्याधर अपनी अपनी स्त्रियों
के विद्याधर हैं ।। १६ ।। वृतोंके पत्तोंके समान हरे के साथ सिद्धकूट चैत्यालयकी वंदनार्थ गये । कुमार
वस्त्रोंके धारण करनेवाले, भाँति भाँतिके मुकुट (वसुदेव) भी प्रियतमा मदनवेगाके साथ चलदिये
और मालाओंके धारक, पर्वतस्तंभका महारा लेकर ॥२॥ सिद्ध कूटपर जाकर चित्र विचित्र वेषोंके
बैठे हुए ये पार्वतेय जातिके विद्याधर हैं ।।२०।। धारण करने वाले विद्याधरांने सानन्द भगवानकी
जिनके भूषण बाँसके पत्तोंके बने हुए हैं जो सब पूजाकी चैत्यालयको नमस्कार किया एवं अपने
ऋतुओंके फलोंकी माला पहिने हुए हैं और अपने स्तंभोंका सहारा ले जुदे २ स्थानों पर बैठ गये ॥३॥ कुमारके श्वसुर विधुढेगने भी अपने
वंशस्तंभक महारे बैठे हुए हैं वे वंशालय जातिके जातिके गौरिक निकायकं विद्याधरोंक माथ भले विद्याधर है ।। २१ ।। महासपक चिहोस युक्त प्रकार भगवानकी पूजाकी और अपनी गौरी- उत्तमोत्तम भूषणोंको धारण करने वाले जमल विद्याओंके स्तंभका महाराले बैठ गये ॥४ा कुमार
नामक विशाल म्भके सहारे बैठे हए ये वार्तमूलक को विद्याधरोंकी जातिके जाननेकी उत्कण्ठा हुई
जातिके विद्याधर हैं।॥ २०॥ इस प्रकार रमणी इसलिये उन्होंने उनके विषयमें प्रियतमा मदन
मदनवेगा द्वारा अपने अपने वेष और चिह्न युक्त वंगास पूछा और मदनवेगा यथायोग्य विद्याधरों.
भूषणोंसे विद्याधरोंका भेद जान कुमार अति प्रसन्न की जातियोंका इसप्रकार वर्णन करने लगी--..
हुए और उसके साथ अपने स्थानको वापिम चले
आये एवं अन्य विद्याधर भी अपने अपने स्थानों"प्रभो ! ये जितने विद्याधर हैं वे सब आर्य
को चले गये ।। २३-२४॥" । जातिकं विद्याधर हैं अब मैं मातंग [अनार्य]
इम उल्लेख परसे इतनाही म्पष्ट मालूम नहीं जातिके विद्याधरोंको बतलाती हैं आप ध्यान
होता कि मातंग जातियोंक चाण्डाल लोग भी पूर्वक सुनें
जैनमंदिरमें जाते और पूजन करते थे बल्कि “नील मेघ समान श्याम नीली माला धारण यहभी मालम हाना है कि मशानभूमिकी हड़ियों किये मातंग [चांडाल स्तंभके महारे बैठे हुए, यं
यहाँ इस उल्लेख परसे किसीको यह ममझनेकी मातंग जानिके विनाधर हैं ॥१४-१५ ।। मुद्रोंकी
भूल न करनी चाहिये कि लेखक आजकल ऐसे * देवो इस हरिवंशपुराणका सन १९१६का छपा अपवित्र वेषम जैन मंदिगम जानकी प्रवृत्ति चलाना हुश्रा संस्करण. पृष्ठ २८४, २८५ ।
चाहना है।
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अनेकान्त
[मार्गशिर, वीर-निर्वाण सं० २४६५
के आभूषण पहिने हुए, वहाँकी राख बदनसे मले और चाहे जिसको नहीं। ऐसे सब लोगोंको खूब हुए, तथा मृगछाला ओढ़े, चमड़ेके वस्त्र पहिने याद रखना चाहिये कि दूसरोंके धर्म-साधनमें विघ्न
और चमड़ेकी मालाएँ हाथमें लिये हुए भी करना-बाधक होना-उनका मंदिर जाना बंद जैनमंदिरमें जासकते थे, और न केवल जाही करके उन्हें देवदर्शन आदिस विनुख रखना, और सकते थे बल्कि अपनी शक्ति और भक्तिके इस तरह पर उनकी श्रात्मोन्नतिके कार्यमें रुकावट अनुसार पूजा करने के बाद उनके वहाँ बैठनेके डालना बहुत बड़ा भारी पाप है। अंजना सुंदरीन लिए स्थान भी नियत था, जिससे उनका जैन- अपने पूर्व जन्ममें थोड़ेही कालके लिये, जिनप्रतिमा मंदिरमें जानेका और भी ज्यादा नियत अधिकार को छिपाकर, अपनी सोतनके दर्शनपूजनमें पाया जाता है । जान पड़ता है उस समय अन्तराय डाला था। जिसका परिणाम यहाँ तक 'सिद्ध कूट जिनालय' में प्रतिमागृहके सामने एक कटुक हुआ कि उसको अपने इस जन्ममें २२ वर्ष बहुत बड़ा विशाल मंडप होगा और उसमें स्तंभों तक पतिका दुःसह वियोग सहना पड़ा और अनेक के विभागसे सभी आर्य जातियोंकि लोगोंके बैठने संकट तथा आपदाओंका सामना करना पड़ा, के लिये जुदाजुदा स्थान नियत कर रक्खे होंगे। जिनका पूर्ण विवरण श्रीरविषेणाचार्यकृत 'पद्म आजकल जैनियों में उक्त सिद्धकूट जिनायलके ढंग- पुराण' के देखनेसे मालूम हो सकता है। श्रीकुन्दका-उसकी नीतिका अनुसरण करनेवाला- कुन्दाचार्यने, अपने 'रयणसार' ग्रन्थमें यह स्पष्ट एकभी जैनमंदिर नहीं है। लोगोंने बहुधा जैन बतलाया है कि 'दूसरोंके पूजन और दानकार्यमें मंदिरोंको देवसम्पत्ति न समझकर अपनी घरू अन्तराय (विघ्न) करनेसे जन्मजन्मान्तरमें क्षय, सम्पत्ति समझ रक्खा है, उन्हें अपनी ही चहल- कुष्ट, शूल, रक्तविकार, भगंदर, जलोदर, नेत्रपीड़ा, पहल तथा आमोद-प्रमोदादिके एक प्रकारके साधन शिरोवेदना आदिक रोग तथा शीत उष्ण (सग्दी बना रक्खा है, वे प्रायः उन महोदार्य-सम्पन्न गरमी) के अाताप और (कुयोनियोंमें) परिभ्रमण लोकपिता वीतराग भगवान्के मंदिर नहीं जान आदि अनेक दुःखोंकी प्राप्ति होती हैं।' यथापड़ते जिनके समवशरणमें पशुतक भी जाकर बैठतेथे, और न वहाँ, मूर्तिको छोड़कर, उन पूज्य खयकुमूलमूलो लोयभगंदरजलोदरक्खिसिरोपिताके वैराग्य, औदार्य तथा साम्यभावादि गुणों मोदण्डबहराई पजादाणंतरायकम्मफलं ॥३३॥ का कहीं कोई आदर्श ही नजर आता है। इसीसे सादुलपणापा वे लोग उनमें चाहे जिस जैनीको आने देते हैं इसलिए जो कोई जाति-बिरादरी अथवा
श्री जिनसेनाचार्यने, ९ वीं शताब्दीके वातावरण पंचायत किसी जैनीको जैनमन्दिरमें न जाने के अनुसार भी, ऐसे लोगोंका जैनमंदिर में जाना आदि अथवा जिनपूजादि धर्मकार्योंसे वंचित रखनेका आपत्तिके योग्य नहीं ठहराया और न उससे मंदिरके दण्ड देती है वह अपने अधिकारका अतिक्रमण अपवित्र होजानेको ही सूचितकिया । इससे क्या यह
और उल्लंघन ही नहीं करती बल्कि घोर पापका
अनुष्ठान करके स्वयं अपराधिनी बनती है।" प्रष्ट न समझ लिया जाय कि उन्होंने ऐसी प्रवृत्तिका 39.38 अभिनंदन किया है अथवा उसे बुरा नहीं समझा !
-क्रमशः
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भगइन, वीर निर्वाण स० २४६४]
डाकिया
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लेखक-श्री भगवत स्वरूप जैन 'भगवत'
गांव के एक कोने में उसका घर है। घर कहो शाप एक ऐसी स्त्री की कल्पना कीजिए, जो या झोंपड़ी, जो कुछ है, वही है। सामने टूटा-सा
"ग़रीबी के सबब आँसू बहाया करती है, छप्पर, फिर गिरती हुई मिट्टी की जरा लम्बी-सी पति की अनुपस्थिति के कारण दिल मसोस कर दहलीज । इसके बाद-ऊबड़-खाबड़-सा चोक जिन्दगी बिताती है, और आधी दर्जन बच्चों के और एक कोठा, जिसका पटाव ऐसा, जैसे अब मारे घड़ी भर चैन नहीं लेने पाती। इसके बाद भी
गिरा, अब गिरा! जो कुछ रहता है, उस उसका स्वास्थ्य पूरा करता
वति होती है तो घर में पांव रखने भर को है-कभी जुकाम; कभी बुखार, कभी कुछ और
सूखी जगह नहीं रहती। बच्चों का घर और बेहद कभी कुछ। तो समझ लीजिए कि वह रूपा है। उसका
कीच, यह दोनों बातें उसे और भी घृणास्पद बना पति अहमदाबाद के किसी 'मिल' में नौकर है।
देती हैं। चौक में दीवारों की लगास से कुछ सब्जी तीस दिन,-हाँ ! पूरे तीस दिन, बाद उसे पन्द्रह
हो पड़ी है, जो बजाय सुन्दरता बढ़ाने के-शायद रुपये मिलते हैं। जिस में दस रुपये का वह 'मनि- कीड़ा-मकोड़ा न हो-भय का उत्पादन करती है। आर्डर' कर देता है। बचते हैं चार रुपये चौदह रूपा का मन भय से भर जाता है, जब उसके आने!-अगर खुश किस्मती से कोई 'फायन' न बच्चे घास-पात की और खेलने लगते हैं। पर करें हो जाए तब ! वे बाकी तीस दिन तक पेट की क्या ?-लाचारी है।... ."औरत का दिल इतना ज्वाला बुझाने के काम आते हैं।
करता चला जारहा है, वह क्या थोड़ा है ?-और और इधर
उस पर भी इस भरे-पूरे गांव में कोई उसका हम__छः बच्चे और उनकी मां-रूपा, प्रतीक्षा की
दर्द नहीं, हितू नहीं, दयालु नहीं। गोद में बैठकर तीस दिन काट पाते हैं ! सैकड़ों अरमान मनि-आर्डर आने तक मन में कैद रहते हैं। लेकिन आते ही किधर उड़ जाते हैं, पता नहीं ! आखिर खर्च भी तो है, हल्के पूरे सात
एक महीने बादप्राणियोंका । पररूपा ?....हाँ, रूपा उन दश रुपयों
रात का वक्त है, मेघ बरस चुका है, लेकिन में पूरा एक महीना किस तरह काटती है, वह
थोड़ी फुहारें अब भी शेष हैं । प्रकृतिस्थली अन्धकौन जाने -किसे पर्वाह, जो उसके जीवन- कार की चादर में मुँह छिपाए पड़ी है। समीर की यापन पर नजर डाले।
चंचल प्रवृत्ति अपने कार्य में व्यस्त है । पन-गर्जना
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अनेकान्त
की भयानकता आतंक बन रही है, दामिनी की अस्थिर ज्योति दृष्टि को उदभ्रान्त बना रही है। मगर कहाँ -१
वहाँ, जहाँ पर अभागे प्राणी सोने के लिये जगह नहीं पा रहे, बैठे बैठे रात बिता रहे हैं। कभी रोते हुए आकाश की ओर देखते हैं, और कभी अपनी दशा की ओर ।
वे काले बादल कहीं उनसे स्पर्द्धा तो नहीं कर रहे" .१
गुदड़ों में लुके - छिपे बच्चे इधर उधर लुढ़क रहे हैं- कुछ सोये, जागते से। बड़ा लड़का - 'मीना' जिसकी आयु आठ नौ साल की होगी, मगर दुर्बल शरीर सात आठ वर्ष से अधिक का उसे समझने नहीं देता - रूपा के समीप, सर्दी के मारे ठिठुरता, पेट में घौटू छिपाए बैठा है।
रूपा की दोनों आँखें पानी बरसा रही हैं। वह सोच रही है - 'महीना हो गया, मगर मनिआर्डर आज भी नहीं आया, नौ तारीख होगई । क्या बात हुई ? पिछले महीने तो पाँचवीं को ही मिल गया था। छः, सात, आठ, नौ, चार दिन हो गए। जरूर कोई न कोई वजह हुई - नहीं, वे भला मनिआर्डर न भेजते...? कहीं बीमार तो नहीं हो गये, सिक- रिपोर्ट में ? – और दुखद, अज्ञान-भय ने उसे तड़पा दिया । परन्तु - तुरन्त ही विचार मुड़ा 'किसी नई नवेली के जाल में तो नहीं पड़ गए ? बड़ा शहर है, क्या मुश्किल ? तिस पर ठहरा मर्दों का मन, क्या फिक्र कि गाँव में बाल- बक्चे भूखे नंगे ....११
.......
ईर्षा की एक हल्की लहर उसके मुँह पर दौड़ गई ! स्त्री की शंकित मनोवृत्ति कुछ पनपती, अगर कुछ कारण पाती !... ... या परस्थिति ठीक होती । .." सामने बैठा था, मीना जाड़े के मारे सिकुड़ा हुआ ! फिर विचारों को फिरते क्या देर
[ वर्ष २, किरण २
लगती ! वह सोचती - कल जरूर आजाएगा-मनिआर्डर ! रुक नहीं सकता ! इतने दिन जो हो गए, कल दशवीं तारीख है न १ - पाँच को भी भेजा होगा, तब भी आजायगा ! कल यह बात नहीं कि 'न आये !"
विचारों की धोरा आगे बढ़ती - 'छह रुपये तो अनाज वाले को देने हैं, वह जान लिये लेता है, फिर उससे लाना भी तो है - अनाज ! घर क्या है ? - बहुत होगा, तो कल तक के लिये ! - और तीन रुपये कपड़े वाले के, उस बेचारे को तो बहुत दिन हो गये ! और कपड़ा भी तो लाना हैएक-एक कुरता सबको, एक फतूली ! मुझे ! क़रीब चौदह-गज, दो-रुपये का ! तेल, मिर्च, मसाला और वैद्य जी के दवा के पैसे! कुछ हो, 'मनिआर्डर' आये तो सब कर लूँगी ! छुन्नों को पैंस का दूध पिलाऊँगी, मीना जूतों के लिये अड़ रहा है - दिलवा दूँगी, चार-छ: आने वाले !”
और उसी समय - छुनो, साल भर की दुधमुँही बच्ची, भूख और सर्दी के मारे रो उठती है !
''काहे को रोती है- मेरी !' रूपा उस छाती से लगा लेती है ।
X
आकाश में हवा और पानी दोनों मिल रहे हैं ! अँधियारी उन्हें छिपाना चाहती है, पर असमर्थ ... ! X X X ( ३ ) दूसरे दिन, सुबह नौ बजे - मीना छप्पर में बैठा है । रूपा दहलीज में ! दोनों के मन, दोनों की दृष्टि प्रतीक्षा में लग रही है !
'देख रे ! डाकिया आया कि नहीं, धूप तो आधे छप्पर पर आ गई। यही वक्त तो उसके आने का होता है!' -रूपा ने भ्रमित दृष्टि को मीना के मुख पर गड़ाते हुये कहा ।
'देख तो रहा हूँ-माँ ! अभी तो ........
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अगहन, वीर निर्वाण सं० २४६५]
साकिया
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अरे.........वह रहा 'गोपिया' के द्वार पर, चिट्री डाकिया मीना के द्वार के आगे से निकला। दे रहा है !....."वह आया ......!'-मीना ने उफ ! रूपा की जैसे सारी कक्षाएं भागी जा खुशी में डूब कर कहा।
रही हों। 'उधर ही आ रहा है क्या ?'-रूपा के डाकिया की उड़ती हुई, सरसरी नजर ने धड़कते हुये दिल ने पूछा !
देखा-'मीना की मां के जैसे प्राण निकल रहे हैं।' ___हाँ..." हाँ .... !-मां !!-मीना बोला। उसने अपनी गतिको धीमा किया, सुना-ऐं! दोनों प्रसन्न थे!
आज भी नहीं पाया, भरे कल कहाँसे खायेंगे ?' __'यह लो, तुम्हारा मनिआर्डर है ! रूपा ने
उसके हृदय में एक दर्द उठा, वह सोचने लगा सुना तो गद्गद् हो गई !
'कितनी करुणाजनक परिस्थिति है-मोह ! मनिदेखो, निकला न उसका अनुमान सही ?- आर्डर पर ही इस परिवार का जीवन निर्भर है ! क्या आज उसका मनिआर्डर न पाता, यह हो खाने के लिए चाहिए ही, और मनिआर्डर आही सकता था ?-मीना की बांह में उसने नही रहा ! पाँच मात दिन गए राज़ बेचारों का चिकोटी काटी, जैसे कहा 'पागे, बढ़ !'
कोमल-मन टूट जाता है ! सुबह-ही-सुवह !" और __ मीना लपक कर आगे बढ़ा, डाकिया बराबर
उस पाप का पातक लगता है-मुझे ! अरे ! मैं ही के-घर के द्वार पर था !
तो नित्य उनकी आशाप्रासादों को ढा देता हूँ ! 'लामो, माँ का अंगूठो लगवाऊँ ?'-मीना
उफ ! बेचारे कैसे डरते दिल से देखते हैं, पूछते ने आँखें डाकिया की ओर लगा दी!
हैं। चाहते हैं कि-'हाँ, है तुम्हारा मनिबार्डर ।'नहीं, तुम्हारा नहीं, इसका है!'-डाकिया
मैं कहूँ ! मगर मैं .......? कहता हूँ-कहना पड़ता ने 'केदार' की ओर संकेत किया!
है 'नहीं है।'.."अहः ! यह 'नहीं है !' कैसा तलमीना मन्त्र! 'अरे ! उसके दादा का मनिडर नहीं, वार-सा लगता है-उन्हें ! लेकिन..." बात मेरे माया..?'-अब.......?" उसकी सूखी-आँखों हाथ की भी तो नहीं, मजबूर हूँ।' में नमी आई ! रुंधे- कण्ठ सं बोला
और वह इन्हीं विचारों में उलझा हुमा, भागे हमारा मनिपाडेर .....!"
बढ़ जाता है।
xxx 'नहीं है-बेटा! होता तो देता न ..... ? डाकिया के स्वर में दर्द था, सहानुभूति थी। रात को..........! मीना लौटा, निराशाका असह्य-भारलिए हुए। 'जा रही हूँ, जा रही हूँ--मैं ! सुनता है, रे या ! माँ आज भी नहीं पाया ।'
मीना! बच्चों को संभाल "हो" हो... दादा रूपा दहलीज का एक किवाड़खोले, सब देख भावें. ... जब आवें ... ज .... ब.क ...ह सुन रही थी। पर निश्चय नहीं कर पा रही थी ... ना कि कि छन्नों की मां... तम्हारा ... मनि. कि बात क्या है ? मीना की बात सुनी तो धम्म आर्डर ... मनि । ... ... ... र .... से जमीन पर गिर पड़ी।
डाकिया ने ... हे... भगवान् ... अ " ! __'ऐं ...!...ऐं ... आज भी नहीं पाया, छोटा-सा बच्चा-मीना, मां की अनर्गल-बातें अरे ! कल कहाँ से खायेंगे?'
सुनता रहा, पर समझा कुछ नहीं।" कि वह
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अनेकान्त
[वर्ष २, किरण २
क्या कह रही है, कहाँ जा रही है ? रात के वक्त, का कण्ठ भी आज पराया बन रहा था ! ऐसी बुखार की हालत में | सुबह ही सं तो वह दिनों का फेर इसी को कहते हैं ! तप रही है-आग की तरह ! सात, आठ दिन से डाकिया ने उसकी आँखों में पढ़ा-क्या रोज हरारत आ जाती थी! लेकिन आज की-सी माज मनियार्डर पाया है ?'-मन की जिज्ञासा बातें तो..!
आँखों में खेल रही थी! मीनारों उठा ! उसके भाई-बहिन भी जगकर डाकिया की वाणी स्वतन्त्र होगई ! वह रूपा उसका साथ देने लगे । रात की नीरवता में वह की गीली दृष्टि न देख सका! . टूटी झोपड़ी करुण-क्रन्दन से प्रकम्पित हो उठी। हाँ ! आज तुम्हारा मनि आर पाया है
पर ... ! रूपा की नींद तोड़ने के लिए वह रूपा!'-डाकिया ने चमड़े के थैले और हाथ की 'कुछ नहीं' सिद्ध हुई !
चिट्टियों पर नजर डालते हुए कहा। ___क्योंकि वह मूर्छित थी, अचेत थी, सज्ञा-शून्य लेकिन · यह उसका वचन था, या चन्द्रोदयथी! थर्मामेटर होता तो बतलाता-उसे एक सौ रस ?-मरती हुई रूपाने अपने को आलोकमयपांच-सादे, पाँच डिग्री फ्रीवर था।
संसार में पाया ! मगर उसे देखने वाला कौन ?
__ 'अरे ! उसका मनि आर्डर आगया,"छुन्नों X X X X
उसकी कब की रो रही है, मीना को बाजार भेज ' लेकिन आज यह क्या बात ?-न रूपा कि- कर अनाज!'-सैकड़ा विचार रूपाके मस्तिष्क बाड़ों से झांक रही है-न मीना पाया ! वह में दौड़ गए! वह उठ बैठी। दर्वाजे के सामने प्रागया, मगर फिर भी सन्नाटा ! उसका कण्ठ फूटा-'लामो, अंगूठा करूँ !' यह मामला क्या है ?-सप्ताह-भर से तो वह ! 'मगर मैं मनिआर्डर को डाकखाने भूल पाया उसे याद आई-'यह सब आज खायेंगे-क्या" हूँ ! अभी लाया..
. .."ओ"गरीबी!
हर्ष-भरे स्वर में डाकिया ने उत्तर दिया, और ____उसने अपनी दशा उससे मिलाई ! दोनों में तुरन्त उस झोंपड़ी से बाहर होगया! कोई फर्क, कोई अन्तर नहीं ! उसके घर भी ! 'यह लो, दश रुपया!'-डाकियाने रुपये रूपा वह यहाँ इतनी दूर पड़ा है ! उस क्या खबर ? '
के कांपते हाथों में धर दिए!
'अँगूठा !'-रूपा बोली। ___ उससे न रहा गया ! भागे बढ़ा, किवाहों पर।
'नहीं, कानून बदल गया है, अब अँगूठा नहीं हल्का धका दिया, वह खुल गया ! फिर उसने जो
कराया जाता!-डाकिया ने जवाब दिया। कुछ देखा, वह उस-उसके दयालु-मन की-हिला
मगर वह भोली रूपा इस रहस्य से अधिदित देने के लिये काफी था!
ही रही, कि मनिपार्डर उसका नहीं पाया. रुपये रूपा-मरी-सी, सिसकती-सी, आँखें फाड़े डाकिया ने अपनी जेब से दिये है ! उसकी ओर देख रही है! बचे इधर-उधर उसके डाकिया प्रसन्न था-उसने आज एक परिबराबर पड़े हैं-रोते, मुनमुनाते हुए-से! वार का संरक्षण किया था ! डाकिया कॉप गया!
वह बढ़ा"! पीछे से किसी ने गायारूपा ने बोलना चाहा पर बोल न सकी! उस 'घायल की गति घायल जाने और न जाने कोय!'
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'अनेकान्त' पर लोकमत
'अनकान्त' के द्वितीय वर्षकी प्रथम किग्गाको माम्प्रदायिक कलहके वातावरणमे पत्रको अलग पाकर जिन जैन-अजैन विद्वानों, प्रतिष्ठित पुरुपों, रखनेका जो प्रारम्भ ही शुभ संकल्प किया है वह तथा अन्य मजनों ने उसका हृदयसे वागत किया शत-शत बार प्रशंसनीय है । पत्रकी नीति रीति विशाल है और उसके विपयमें अपनी शुभ सम्मनियाँ है. उदार है. फलतः वह जैन-संमार के मभी विभागों नथा ऊँची भावनायें बीरगंबामन्दिर' को भेजने को एक ममान लाभकारी सिद्ध होगा। की कृपा करके संचालकोंके उन्माहको बढ़ाया है उनमें से कुछ मजनों के विचार तथा हृदयादगार
__श्रीयुत जुगलकिशोर जी जैन-संमार के माने हुए
निष्पन्न विद्वान हैं। पत्रको प्रतिष्ठा के लिए सम्पादक पाठकोंक अवलोकनार्थ नीचं प्रकट किये जाने
म्थानमं एकमात्र आपका नाम ही सर्वतः अलं है। हम
आशा करते हैं-मुयाग्य मम्पादक की छत्रछायाम (१) श्रीमान मुनि श्री कल्याणविजयजी, 'अनेकान्न' अपने निश्चित् ममयपर उदित होता रहेगा
और अपना भविष्य अधिक से अधिक ममुज्वल बना ..'अनेकान्त' की मजधज वही है जो पहले थी, खशीकी बात इतनाही है कि अब इसे अच्छा संरक्षण ।
एगा । यथावकाश हमभी अपनी सेवा कभी-कभी 'अने - मिन्न गया है । आशाही नहीं पूर्ण विश्वास है कि अब कान्त' को अर्पण करने का प्रयत्न करेंगे।" यह माहित्य-क्षेत्रम प्रकाश डालन के माथ माथ मामा
(३) श्रीमान पं० कलाशचन्द्रजी जैनशास्त्री प्रधाजिक में भी अपनी किरण फेकना रहेगा. ।
नाध्यापक स्या० वा०वि० बनारसआमार दीग्वत हैं । नथाम्न ।' (२) श्रीमान शनावधानी मुनि श्री रतनचन्द्र जी
"पाट वर्षके मुदीर्घ अन्नगनकं बाद अपने पूर्व व मुनि श्रीअमरचन्द्रजी
पर्गिचत बन्धुको उमी मुन्दर कलेवरम देखकर किसे
हप न होगा। मुग्वपृष्ठ पर वही अनेकान्तमूर्य अपनी दीर्घानिदीघ निशाका नके बाद अनेकान्त मयका विविध रश्मियोंकि माथ विराजमान है और अन्तरंग उदय बड़ी शान के माथ हुा । वपकी प्रथम किरगा जो
पृटीमें अनुसन्धान, नन्यचर्चा, अतीतम्मृति, सम्यकपथ शान प्रकाश लेकर आई है वह महृदय मजनोंके हृदय
आदि जानकी विविध धाराय अनेकान्तक प्रकाश में मन्दिरको खब जगमगा देनवाला है ।
झिलमिल झिलमिल कर रही हैं। तभीती देग्यनवालों वर्तमान जागृति के लिए जो भी विषय आवश्यक की आंग्य चाँधिया जानी है । अम्नु, लेग्यों का संकलन हैं. उन मवको पत्रमें स्थान दिया है और बड़ी ख़बीसे मुन्दर है और उनकी विविध विषयता गंचक । इममे दिया है । कुछ लेग्व नो बही गवपणापूर्ण है और वे मभी प्रकार के पाठकोंका अनुरञ्जन हो मकंगा। योनी पत्रका प्रतिष्ठा को काफी ऊँच धगतलम ले जाते हैं। मभी लेग्ब मुपाच्य हैं, किन्तु उनमें श्री कुन्दकुन्द और
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Regd. No. L.4328 अतिवृषभके पौवापर्यका आपका लेख ऐतिहासिकोके अशुद्धियाँ अधिक है, अतः इधर ध्यान देने की भावजमने कुछ नये विचार रण्वता है और उससे कुन्दकुन्द श्यकता है। का ममय निर्णन करनेमें कुछ नये प्रमाण प्रकाशम (४) श्रीमान पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायशास्त्री, आये हैं। बाबू सूरजभानजीका लेवनी लेग्बन कला की दृष्टिसे बहुत ही उत्कृष्ठ है। इतने गम्भीर विषयको
"पत्र आशानुरूप रहा । इसकी गति-नी.नम मुझे इतनी मरलना और रोचकतासे प्रतिपादन करना मूग्ज- मी कुछ निम्वन का उत्माह हुआ है। छपाई नथा मानजो मरीख मिदहस्त लेग्यकाका ही काम है।
प्रफ. मशीधन मन्नापजनक नहीं है। पत्र हर नहके
पाठकॉक योग्य यथेष्ठ सामग्रीसे परिपुण है।" ___ आपने मुझम लेग्व मांगा था. परन्तु कोई विषय न मूझ पड़नेस मै अमी आपस क्षमा मांगकर छुट्टी ले (५) श्रीमान पं० शोभाचन्द्रजी न्यायतीर्थ, लेनेका विचार करता था, परन्तु हम अङ्कने, खामकर हेडमास्टर जैन गुरुकुल, व्यावर---- ग सरजमानजीक लेम्वन-मुझे लिम्वन को मामग्री
अनेकान्न की प्रथम किरण ग्राम हई। अने देदी है। और अब मैं आपके नाम उऋण होनी
कान्त चक्रपर नजर पढ़त हा हादिक उल्लामकी अनु चिना है।
मान हुई । अन्दरकी मामा ना ठाम. महत्वपूण आग अन्तम भापके सुदीर्थ जीवनी कामना करना माननीय हानीही थी। आपके मम्पादकत्यम जमी हा 'अनकान्त' के संचालक श्री प्रकाशकको हार्दिक आशा थी. 'श्रनकान्न' उम पूर्ण करना है । ‘गुन न । धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकता जिनकी उदारता हगना गुनगाहक राहगना है। टंग्व समाज अपना और प्रयत्न शीलता में 'अनकान्त' क पुनः दर्शन कर गुणग्राहकनाका किनना परिचय देना है।" मकनका मौभाग्य प्राप्त हुआ। हम अङ्कम पर मबन्धी
-क्रमण
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सचना
सम्पादकजीके १ नवम्बरसे बीमार पड़ जाने के कारण इस किरणके लेखोंका उनके द्वारा सम्पादन नहीं होसका । इतनीही प्रसन्नताकी बात है कि वे शुरूके एक फार्मका मैटर २१ तारीखको भेज सके हैं। अब उनकी तबियत सुधर रही है और पूर्ण आशा है कि '' तीसरी किरणका सम्पादन उन्हीं के द्वारा होगा।
-व्यवस्थापक
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मम्पादकजुगलकिशार मुख्तार
तनसुग्वगय जैन विजाना पारया मान्य मरममामिहानमा कनाट मरम्म पाउन भ्य नाली
1. पायगर या पगार नीय। गायन्म प्रम स्नार मकरानीमा
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पृष्ट
विषय-सूची १. समन्तभद्र-चंदन
१७६ २. आर्य और म्लेच्छ [ सम्पादकीय
१८१ ३. जाति-मद सम्यक्त्व का वाधक है [श्री सूरजभानु वकील
१८७ ४. अधर्म क्या ? [ श्री जैनेन्द्रकुमारजी।
१६३ ५. दीनांक भगवान [श्री. रवीन्द्रनाथ ठाकुर
१६४ ६. क्या सिद्धान्तग्रन्थों के अनुमार मब ही मनुष्य उच्चगोत्री हैं ? [श्री० पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री १६५ ७. कमनीय कामना (कविता) [उपाध्याय कविरत्न श्री अमरचन्द्रजी
२१० ८. जैन समाज क्यों मिट रहा है ? [ अयोध्याप्रमाद गोयलीय ६. प्रभाचन्द्र के समयकी सामग्री [ श्री० पं० महेन्द्रकुमार शास्त्री
२१५ १०. विपत्तिका वरदान [वा० महावीरप्रमाद जैन 18. ... ११. क्या कुन्दकुन्द ही मृलाचार्य के कर्ता है ? [ श्री पं० परमानन्द जैन
२२१ १० अनकान्त पर लोकमत
२११
'वैद्य' का दन्त-रोगाङ्क।
'वैद्य' २२ वर्षम वैदा-जगतकी निरन्तर संवा करता रहा है। अब उमन अपने २० वर्षकी सानन्द ममाप्तिके उपलक्ष दिसम्बर मन १९३८ का अङ्क एक बृहद विशेषाङ्कके रूपमें निकालनेका आयोजन किया है।
आज देशमें दन्तरोगोंकी भरमार है, देशवामी दन्तगंगांस परेशान हैं । यदि देशवामियोंको दन्तरोगों, उनके कारणों और उनकी चिकित्माका सर्वाङ्गपूर्गा प्रामागिणक परिचय कगर्नमें वैद्य' मफल हो सका तो उसका यह परम सौभाग्य होगा।
दन्तगेगाङ्को देशक बड़-बड़ विद्वान वेंगा व डाक्टरोंके सारगर्भित और । उपयोगी निवन्ध रहेंगे। उक्त विशेषाङ्क अति आकर्षक ढंगमे बहुत बड़े आकारमें प्रकाशित होगा । आयुर्वेदीय मारके इतिहासमें नि:संदेह यह एक अनूठी चीज़ होगी।
आज ही, अभी, फौरन ग्राहक बनिये. अन्यथा यह अमृल्य अङ्क न मिल सकेगा।
लेग्यकों और कवियोंकी सवा ३० दिसम्बर तक अपनी रचनाएँ भेजनके | लिए मानुगंध निमन्त्रण है।
विज्ञापन दाताओंको यह अनूठा अवसर न खाना चाहिए । विशपाङ्ग हजागे की तादादमें छपेगा और लाखों आँखांसे गुजरेगा। विशेषाङ्कके लिा विज्ञापनके रेटम पत्र लिखकर मालूम कीजिए।
व्यवस्थापक... 'वैद्य' मुगदाबाद ।
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ॐ अहम्
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नीति-विरोध-ध्वंसी लोक-व्यवहार-वर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥
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वर्ष २
सम्पादन-स्थान-वीरसेवामन्दिर (समन्तभदाश्रम), सरसावा जि.सहारनपुर
प्रकाशन-स्थान-कनॉट सर्कस पो० ब०नं०४८ न्य देहली पौषशुक्ल, वीरनिर्वाण सं०२४६५, विक्रम सं० १६६५
किरण ३
समन्तभद्र बन्दम
तीर्थ सर्वपदार्थ-नत्व-विषय-स्याद्वाद-पुण्योदधेः भव्यानामकलक-भावकृतये प्रामावि काले कलौ । येनाचार्यसमन्तभद्र-यतिना तस्मै नमः संततं (कृत्वा विप्रियते म्तवो भगवतां देवांगमस्तस्कृतिः।।)
-देवागमभाष्ये, भट्टाकलंकदेवः । जिन्होंने सम्पूर्ण-पदार्थ-तत्वोंको अपना विषय करनेवाले म्याद्वादरूपी पुण्योदधि-तीर्थको, इस कलिकालमें. भव्यजीवोंके आन्तरिक मलको दूर करनेके लिए प्राभावित किया है उसके प्रभावको सर्वत्र व्याप्त किया है-उन प्राचार्य समन्तभद्र यतिको-सन्मार्गमें यत्नशील मुनिराजको-बारबार नमस्कार ।
भव्यक-लोकनयनं परिपालयन्तं म्याद्वाद-वन्मे परिणीमि समन्तभद्रम् ।।
-अष्टशत्यां, भट्टाकलंकदेवः ।
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[पौष, वीर - निर्वाणसं० २४६५
स्याद्वादमार्गके संरक्षक और भव्यजीवोंके लिए अद्वितीय सूर्य — उनके हृदयान्धकारको दूर करके अन्त: प्रकाश करने तथा सन्मार्ग दिखलाने वाले -- श्रीसमन्तभद्र स्वामीको मैं अभिनन्दन करता हूँ । नमः समन्तभद्राय महते कविवेधसे ।
यद्वचो वज्रपातेन निर्भिन्नाः कुमताद्रयः ॥ - श्रादिपुराणे, जिनसेनाचार्यः ।
१८०
अनेकान्त
जो कवियोंको-नये नये संदर्भ रचनेवालोंको—उत्पन्न करनेवाले महान विधाता ( कवि-ब्रह्मा ) थे- जिनकी मौलिक रचनाओं को देखकर --अभ्यास में लाकर - बहुत से लोग नई नई रचना करनेवाले कवि बन गए हैं, तथा बनते जाते हैं और जिनके वचनरूपी वज्रपातसे कुमतरूपी पर्वत खण्ड-खण्ड हो गए थे- उनका कोई विशेष अस्तित्व नहीं रहा था— उन स्वामी समन्तभद्रको नमस्कार हो ।
समन्ताद् भुषने भद्रं विश्वलोकोपकारिणी । वन्दे समन्तभद्रं कवीश्वरम् ||
यद्वाणी तं
- पार्श्वनाथचरिते, सकलकीर्तिः ।
जिनकी वाणी - प्रन्थादिरूप भारती - संसार में सब ओर से मंगलमय - कल्याणरूप है और सारी जनताका उपकार करने वाली है उन कवियोंके ईश्वर श्रीसमन्तभद्रकी मैं सादर वन्दना करता हूँ । वन्दे समन्तभद्रं तं श्रुतसागर- पारगम् । भविष्यसमये योss तीर्थनाथो भविष्यति ।। -रामपुराणे, सोमसेनः ।
जो श्रुतमागरके पार पहुँच गए हैं- आगमसमुद्रकी कोई बात जिनसे छिपी नहीं रही — और जो आागेको यहाँ - इसी भरतक्षेत्र में तीर्थकर होंगे, उन श्रीसमन्तभद्रकां मेरा अभिवन्दन है-सादर नमस्कार है ।
समन्तभद्रनामानं मुनिं भाविजिनेश्वरम् । स्वयंभूस्तुतिकर्त्तारं भस्मव्याधिविनाशनम् ॥ दिगम्बरं गुणागारं प्रमाणमणिमण्डितम् । विरागद्वेषवादादिमनेकान्तमतं नुमः ॥
- मुनिसुव्रतपुराणे, कृष्णदासः ।
जो स्वयम्भू स्तोत्र के रचयिता हैं, जिन्होंने भस्मव्याधिका विनाश किया था— अपने भस्मक रोगको बड़ी युक्ति शान्त किया था, जिनके वचनादिकी प्रवृत्ति रागद्वेषसे रहित होती थी, 'अनेकान्त' जिनका मत था, जो प्रमाण - मरिणसं मण्डित थे - प्रमाणतारूपी मणियोंका जिनके सिर सेहरा बँधा हुआ था— अथवा जिनका श्रनेकान्तमत प्रमाणमरिण से सुशोभित है और जो भविष्य-कालमें जिनेश्वर (तीर्थंकर) होने वाले हैं, उन गुणोंके भण्डार श्रीसमन्तभद्र नामक दिगम्बर मुनिको हम प्रणाम करते हैं ।
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अनुसन्धान
RS
आर्य और म्लेच्छ
[सम्पादकीय]
भीगृद्धपिच्छाचार्य उमास्वातिने, अपने चाहिए कि उसमें भी 'आर्य' और 'म्लेच्छ' का
तत्त्वार्थाधिगमसूत्र प्रन्थमें,सब मनुष्यों कोई स्पष्ट लक्षण दिया है या कि नहीं । देखने से को दो भागों में बाँटा है-एक 'आर्य' और दूसग मालूम होता है कि दोनोंकी पूरी और ठीक पहचान ‘म्लेच्छ'; जैसा कि उनके निम्न दो मृत्रोंमे प्रकट बतलानेवाला वैसा कोई लक्षण उसमें भी नहीं है, है:
मात्र भेदपरक कुछ स्वरूप जरूर दिया हुआ है और "प्राङ्मानुषोनगन्मनुष्याः।"
वह सब इस प्रकार है:"आर्या म्लेच्छाश्च*" अ०३।।
"द्विविधा मनुष्या भवन्ति । आर्या मिलशश्च । तत्रार्या परन्तु 'आर्य' किसे कहते हैं और म्लेच्छ'
पविधाः । क्षेत्रार्याः जात्यार्याः कुलार्याः कार्याः
शिल्पार्याः भाषार्या इति । तत्र क्षेत्रार्या पञ्चदशसु कर्मकिस ?-दोनोंका पृथक पृथक क्या लक्षण है ? ऐसा
भूमिषु जाताः । तद्यथा। भरतेवर्धषड्विंशतिषु जनपदेषु कुछ भी नहीं बतलाया। मूलसूत्र इम विषयमें मौन हैं । हाँ, श्वेताम्बरोंके यहाँ तत्त्वार्थसूत्र पर एक
जाताः शेषेषु च चक्रवर्तिविजयेषु । जात्यार्या इक्ष्वा
कवो विदेहा हरयोऽम्बष्ठाः शाताः कुरवो वुनाला भाप्य है, जिसे स्वोपसभाष्य कहा जाता हैअर्थात स्वयं उमास्वातिकृत बतलाया जाता है।
उग्रा भोगा राजन्या इत्येवमादयः । कुलार्याः कुलकरा
चक्रवर्तिनो बलदेवा वासुदेवा ये चान्ये प्रातृतीयादापयद्यपि उस भाष्यका स्वोपज्ञभाष्य होना अभी बहुत कुछ विवादापन्न है, फिर भी यदि थोड़ी देरके लिए
श्चमादासप्तमाता कुलकरेभ्यो वा विशुद्धान्वयप्रकृतयः । विषयको आगे सरकानेके वाम्ते-यह मान लिया
कार्या यजनयाजनाध्यपनाध्यापनप्रयोगकपिलिपिजाय कि वह उमास्वाति-कृत ही है, तब देखना
वाणिज्ययोनिपोषणवत्तयः । शिल्पास्तिन्तुबायकुलाल
नपिततुन्नवायदेवटादयोऽल्पसावद्या आर्हिताश्वताम्बरोंके यहाँ ‘म्लेच्छाश्च के स्थान पर जीवाः। भाषा- नाम ये शिष्टभाषानियतवर्ण लोकम्लिशश्च' पाठ भी उपलब्ध होता है, जिससे कोई __ रूढस्पष्टशन्द पद्धविधानामप्यार्याणां संव्यवहार अर्थभेद नहीं होता।
भाषन्ते।
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१८२
अनेकान्त
[पौष, वीर-निर्वाण सं० २४६५
अतो विपरीता म्लिशः । तद्यथा। हिमवतश्वत- 'कार्य'; अल्प सावद्यकम तथा अनिन्दित आजी. सृषु विदिक्षु त्रीणियोजनशतानि लवणसमुद्रमत्रगाह्य विका करने वाले बुनकरों, कुम्हारों, नाइयों, दर्जियों चतसृणां मनुष्यविजातीनां चत्वारोऽन्तरद्वीपा भवन्ति और देवटों ( artisans = बढ़ई आदि दूसरे त्रियोजनशतविष्कम्भायामाः। तद्यथा । एकोरुकाणा- कारीगरों ) को 'शिल्पकर्मर्य'; और शिष्ट पुरुषों माभाषकाणां लालिकानां वैषाणिकानामिति । चत्त्वारि की भाषाओंके नियतवोंका, लोकरूढ स्पष्ट योजनशतान्यवगाह्य चतुर्योजनशतायामविकम्भा एवा- शब्दोंका तथा उक्त क्षेत्रादि पंच प्रकारके न्तरखीपाः। तद्यथा। हयकर्णानां गजकर्णानां गोक- आर्योंके संव्यवहारका भले प्रकार उच्चारण
र्णानां शष्कुलीकर्णानामिति । पञ्चशतान्यवगाह्य पञ्च- भाषण करनेवालों को 'भाषार्य' बतलाया है। साथ योजनशतायामविष्कम्भा एवान्तरद्वीपाः । तद्यथा । ही क्षेत्रार्यका कुछ स्पष्टीकरण करते हुए उदाहरणगजमुखानां व्याघ्रमुखानामादर्शमुखानां गोमुखानामिति। रूपसे यह भी बतलाया है कि भरतक्षेत्रोंके साढ़ षड्योजनशतान्यवगाह्य तावदायामविष्कम्भा एवान्तः पच्चीस साढ़े पञ्चीस जनपदोंमें और शेष जनपदोंमें रद्वीपाः। तद्यथा । अश्वमुखाना हस्तिमुखानां सिंहमु- से उन जनपदोंमें जहाँ तक चक्रवर्तीकी विजय पहुँच खानां व्याघ्रमुखानामिति । सप्तयोजनशतान्यवगाह्य ती है, उत्पन्न होनेवालों को क्षेत्रार्य' समझना चाहिए। तावदायामविष्कम्भा एवान्तरद्वीपाः। तद्यथा । अश्व- और इससे यह कथन ऐरावत तथा विदेहक्षेत्रोंके कर्णसिंहकर्णहस्तिकर्णकर्णप्रावरणनामानः । अष्टौ योजन- साथ भी लागू होता है-१५ कर्मभूमियों में उनका शतान्यवगायाष्टयोजनशतायामविष्कम्भा एवान्तर- भी ग्रहण है, उनके भी २शा, २शा आर्यजनपदों दीपाः । तद्यथा। उल्कामुखविद्युजिव्हमेषमुखविद्यद्द- और शेष म्लेच्छक्षेत्रोंके उन जनपदों में उत्पन्न न्तनामानः ॥ नवयोजनशतान्यवगाह्म नवयोजनशता- होनेवालोंको क्षेत्रार्य' समझना चाहिए, जहाँ तक यामविष्कम्भा एवान्तरदीपा भवन्ति । तद्यथा। घन- चक्रवर्तीकी विजय पहुँचती है। दन्तगूढदन्तविशिष्टदन्तशुद्धदन्तनामानः॥एकोरुकाणा- इस तरह आर्योंका स्वरूप देकर, इससे विप मेकोरुकद्वीपः । एवं शेषाणामपि स्वनामभिस्तुल्यना- रीत लक्षण वाले सब मनुष्योंको 'म्लेच्छ' बतलाया मानो वेदितव्याः ॥ शिखरिणो ऽप्येवमेवेत्येवं पट- हैं और उदाहरणमें अन्तरद्वीपज मनुष्योंका कुछ पञ्चाशदिति ॥"
विस्तारके साथ उल्लेख किया है। इससे स्पष्ट है इस भाष्यमें मनुष्योंके आर्य और म्लेच्छ ऐसे कि जो लोग उन दूरवर्ती कुछ बचे-खुचे प्रदेशोंमें दो भेद करके श्राोंके क्षेत्रादिकी दृष्टिसे छह भेद रहते हैं जहाँ चक्रवर्तीकी विजय नहीं पहुँच पाती किए हैं-अर्थात पंद्रहकर्म भूमियों ( ५ भरत, अथवा चक्रवर्तीकी सेना विजयके लिए नहीं ऐरावत और ५ विदेहक्षेत्रों ) में उत्पन्न होनेवालों जाती और जिनमें जात्यार्य, कुलार्य, कार्य, को क्षेत्रार्य': इक्ष्वाक, विदेह हरि, अम्बष्ट, मात, शिल्पार्य और भाषार्यके भी कोई लक्षण नहीं हैं कुरु, बुवुनाल, उग्र, भोग, राजन्य इत्यादि वंशवालों वे ही सब म्लेच्छ' हैं। को 'जात्यार्य'; कुलकर चक्रवर्ति-बलदेव-वासुदेवोंको भाष्यविनिर्दिष्ट इस लक्षणसे, यद्यपि, आज तथा तीसरे पाँचवे अथवा सातवें कुलकरसे प्रारम्भ कलकी जानी हुई पृथ्वीके सभी मनुष्य क्षेत्रादि किसी करके कुलकरोंसे उत्पन्न होनेवाले दूसरे भी विशुद्धा- न किसी दृष्टिसे 'आर्य' ही ठहरते हैं-शकन्वय-प्रकृतिवालोंको 'कुलार्य'; यजन, याजन, यवनादि भी म्लेच्छ नहीं रहते-परन्तु साथ ही अध्ययन, अध्यापन, प्रयोग, कृषि, लिपि, वाणिज्य भोगभूमिया-हैमवत आदि अकर्मभूमिक्षेत्रों में और योनियोषणसे आजीविका करने वालोंको उत्पन्न होने वाले-मनुष्य म्लेच्छ हो जाते हैं;
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वर्ष २ किरण ३]
आर्य और म्लेच्छ
१८३
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देते हुए उन्हें 'म्लेन
क्योंकि उनमें उक्त छह प्रकारके आर्योंका कोई इसके सिवाय, उक्तस्वरूप-कथन-द्वारा यद्यपि लक्षण घटित नहीं होता । इसीसे श्वे० विद्वान पं० अकर्मभूमक ( भोगभूमिया ) मनुष्योंको म्लेच्छों सुखलालजीने भी, तत्वार्थसूत्रकी अपनी गुजराती में शामिल कर दिया गया है, जिससे भोगभूमियोंटीकामें, म्लेच्छक उक्त लक्षण पर निम्न फुटनोट की सन्तान कुलकरादिक भी म्लेच्छ ठहरते हैं, हे म्लेच्छ' ही लिखा है...
और कुलार्य तथा जात्यार्यकी कोई ठीक व्यवस्था ___श्रा व्याख्या प्रमाणे हैमवत आदि त्रीश भोग- नहीं रहती ! परन्तु श्वे०पागम ग्रन्थ ( जीवाभिगम भूमिश्रोमा अर्थात् अकर्म भूमिश्रोमा रहेनारा म्लेच्छो तथा प्रज्ञापना जैसे ग्रन्थ) उन्हें म्लेच्छ नहीं बतलातेज छे।"
अन्तरद्वीपजों तकको उनमें म्लेच्छ नहीं लिखा; पएणवणा (प्रज्ञापना) आदि श्वेताम्बरीय बल्कि आर्य और म्लेच्छ ये दो भेद कर्मभमिज आगम-सिद्धान्त पन्थों में मनुष्यके सम्मृच्छिम मनुष्योंके ही किए हैं-सब मनुष्यों के नहीं; जैसा कि और गर्भव्युत्क्रान्तिक ऐसे दो भेद करके गर्भव्यु- प्रज्ञापना-सूत्र नं ३७ के निम्न अंशसे प्रकट है:क्रान्तिकके तीन भेद किये हैं-कर्मभूमक, अकर्म “से किं कम्मभूमगा ? कम्मभूमगा भूमक. अन्तरद्वीपज; और इस तरह मनुष्यों के
पएणरसविहा पएणता, तं जहा-- पंचहिं मुग्य चार भेद बतलाए हैं *। इन चारों भेदोंका समावेश आर्य और म्लेछ नामके उक्त दोनों भंदों
भरहेहिं पंचहिं एरावएहिं पंचहि महाविदेहेहिं; में होना चाहिये था; क्योंकि सब मनुष्यों को इन ते समासो दुविहा पएणत्ता, तं जहा-आयरिया दो भदोंमें बांटा गया है । परन्तु उक्त स्वरूपकथन- य मिलिक्खु य *" परसे सम्मृद्रिम मनुष्योंको-जो कि अंगुलके
ऐसी हालतमें उक्त भाष्य कितना अपर्याप्त, असंख्यातवें भाग अवगाहनाके धारक, असंही. अपर्यातक और अन्तमुईतको आयु वाले होते
कितना अधूरा, कितना विपरीत और कितना हैं-न तो 'आर्य' ही कह सकते हैं और न म्लेच्छ
सिद्धान्तागमके विरुद्ध है उसे बतलानेको उम्रत ही; क्योंकि क्षेत्रकी दृष्टिसे यदि वे आर्य क्षेत्रवर्ति
नहीं-सहदयविज्ञ पाठक स्वयं समझ सकते हैं। मनुष्योंके मल-मूत्रादिक अशुचित स्थानों में
उसकी ऐसी मोटी मोटी त्रुटियाँ ही उस स्वोपन. उत्पन्न होते हैं तो म्लेच्छ क्षेत्रवर्ति-मनुष्योंके मल
भाष्य माननेसे इनकार कराती हैं और स्वोपज्ञभाष्य मूत्रादिकमें भी उत्पन्न होते हैं और इसी तरह
मानने वालोंकी ऐसी उक्तियों पर विश्वास नहीं अकर्मभूमक तथा अन्तरद्वीपज मनुष्योंक मल
होने देतीं कि 'वाचकमुख्य उमास्वातिके लिए सूत्रका मूत्रादिकमें भी वे उत्पन्न होते हैं ।
उल्लंघन करके कथन करना असम्भव है ।' अस्तु। ____ * मणुस्सा दुविहा पएणत्ता, नं जहा-समुच्छिम
अब प्रज्ञापनासूत्रको लीजिए, जिसमें कर्म
भमिज मनुष्योंके ही आर्य और म्लेच्छ ऐसे दो मणस्सा य गम्भवतियमणस्सा य ।....गन्भवति.
भंद किए हैं। इसमें भी आर्य तथा म्लेच्छका यमणुस्सा तिविहा परणत्ता, तं जहा-कम्ममूमगा, अकम्मभूमगा, अन्तरदीवगा । . ., ..
जीवाभिगममें भी यही पाठ प्रायः ज्यों का -प्रशापना सूत्र ३६, जीवाभिगमे अपि त्यों पाया जाता है-'मिलिम्बू' की जगह मिलेच्छा' xदेखो, प्रशापना सूत्र नं०३६ का वह अंश जैसा पाठभेद दिया है। जो "गन्भवतियमणस्मा य" के बाद "से कि -"नापि वाचकमुख्याः मूगोल्लंघनेनाभिदधल्यसंभाव्य संमुच्छिम-मणस्सा!" से प्रारम्भ होता है।
मानत्वात्।" -मिद्धमेनगगिटीका, १०२६७
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अनेकान्त
[पौष, वीर-निर्वाण सं० २४६५
कोई विशद एवं व्यावर्तक लक्षण नहीं दिया। इन देशोंमें कितने ही तो हिन्दुस्तानके भीतरआर्योके तो ऋद्धिप्राप्त, अनद्धिप्राप्त ऐसे दो मूल- के प्रदेश है, कुछ हिमालय आदिके पहाड़ी मुकाम भेद करके ऋद्धिप्राप्तोंके छह भेद किए हैं, अरहंत हैं और कुछ सरहद्दी इलाके हैं। इन देशोंके सभी चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, चारण, विद्याधर । और निवासियोंको म्लेच्छ कहना म्लेच्छत्वका कोई अनृद्धिप्राम आर्योके नवभेद बतलाए हैं, जिनमें ठीक परिचायक नहीं है। क्योंकि इन देशोंमें आर्य छह भेद तो क्षेत्रार्य श्रादि वे ही हैं जो उक्त तत्त्वा- लोग भी बसते हैं--अर्थात ऐसे जन भी निवास र्थाधिगमभाज्यमें दिए हैं, शेष तीन भेद ज्ञानार्य, करते हैं जो क्षेत्र, जाति तथा कुलकी दृष्टिको छोड़ दर्शनार्य, और चारित्रार्य हैं। जिनके कुछ भेद- देने पर भी कर्मकी दृष्टिसे, शिल्पकी दृष्टिसे, भाषाप्रभेदोंका भी कथन किया है। साथही, म्लेच्छु. की दृष्टिसे श्रार्य हैं तथा मतिज्ञान-श्रुतज्ञानकी विषयक प्रश्न (से कि तं मिलिक्व ? ) का उत्तर दृष्टि से और सराग-दर्शनकी दृष्टिसे भी आर्य हैं । देते हुए इतना ही लिखा है--
उदाहरणके लिये मालवा, उड़ीसा, लंका और "मिलम्बू श्रणेगविहा पएणता. तं जहा -सगा काकरण आदि प्रदशाका ल:
कोंकण आदि प्रदेशोंको ले सकते हैं जहाँ उक्त जवणा चिलाया मबर-बन्चर मरुडोह-भडग गिरणग- दृष्टियोंको लिये हए अगणित आर्य बसते हैं। पकणिया कुलस्व-गांड-मिहलपारमग,धा कोच-अम्बह हो सकता है कि किसी समय किसी दृष्टिइदमिल-चिल्लल-पुलिंद-हारोस-दोववोकाणगन्धा हारवा विशेषके कारण इन देशोंके निवासियोंको म्लेच्छ पहिलय-अज्झलरोम- पासपउसा मलया य बंधुया य कहा गया हो; परन्तु ऐसी दृष्टि सदा स्थिर रहने सूर्यल-कोंकण-गमेय-पल्हव-मालव मग्गर श्राभासिधा वाली नहीं होती । अाज तो फिजी जैसे टापुओंके कणवीर-ल्हसिय-ग्वमा खासिय णेदूर-मोद डोंबिन्न निवासी भी, जो बिल्कुल जंगली तथा असभ्य थे गलोस पात्रोस ककेय अक्खाग हणरोमग-हुणरोमग और मनुष्यों तकको मारकर खा जाते थे, आर्यभस्मस्य चिलाय वियवासी य एवमाइ, सेत्त मिलिक्खु ।' पुरुपोंके संसर्ग एवं सत्प्रयत्नके द्वारा अच्छे ___इसमें म्लेच्छ अनेक प्रकार के हैं। ऐसा लिग्व सभ्य, शिक्षित तथा कर्मादिक दृष्टिसे आर्य बन कर शक, यवन, (यूनान) किगत, शबर, बब्बर गये हैं। वहाँ कितने हो स्कूल तथा विद्यालय जारी मुरुण्ड, प्रोड ( उडीमा ), भटक, णिण्णग, हो गये हैं और खेती, दस्तकारी तथा व्यापारादिके पक्कणिय, कुलक्ष, गोंड, सिंहल (लंका), फारस कार्य होने लगे हैं। और इसलिये यह नहीं कहा (ईगन), गोध, कोंच आदि देश-विशेष-निवासियों जा सकता है कि फिजी देशके निवासी म्लेच्छ को म्लेच्छ' बतलाया है। टीकाकार मलयगिरि होते हैं। इसी तरह दूसरे देशके निवासियोंको मुग्नेि भी इनका कोई विशेष परिचय नहीं दिया- भी जिनकी अवस्था आज बदल गई है म्लेच्छ सिर्फ इतना हो लिख दिया है कि म्लेच्छोंकी यह नहीं कहा जा सकता। जो म्लेच्छ हजारों वर्षोंसे अनेकप्रकारता शक-यवन चिलात-शबर-बर्बरादि आर्योंके सम्पर्कमें आरहे हों और पार्योंके कर्म देशभेदके कारण हैं। शकदेश-निवासियोंको 'शक' कर रहे हों उन्हें म्लेच्छ कहना तो आर्योंके उक्त यवनदेश-निवामियोंको 'यवन' समझना, इसी लक्षण अथवा म्वरूपको सदोष बतलाना है। तरह सर्वत्र लगालेना और इन देशोंका परिचय अतः वर्तमानमें उक्त देश-निवासियों तथा उन्हीं लोकसे-लोकशास्त्रों के आधार पर पर्याप्त करना जैसे दूसरे देशनिवासियोंको भी, जिनका उल्लेख
तश्चानेकविधत्वं शक यवन चिलात-शबर-बर्बरा- देशनिवासिनः शका, यवनदेशनिवासिनो यवनाः दिदेशभेदात्, तथा चाह--- जहा सगा. इत्यादि, शक- एवं. नवरममी नानादेशाः लोकतो विज्ञेयाः ।"
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वर्ष : किरण ३]
आर्य और म्लेच्छ
१८५
'एवमाइ' शब्दोंके भीतर संनिहित है. म्लेच्छ व्याघात उपस्थित होगा-न म्लेच्छत्वका ही कोई कहना समुचित प्रतीत नहीं होता और न वह ठीक निर्णय एवं व्यवहार बन सकेगा और न म्लेच्छत्वका कोई पूरा परिचायक अथवा लक्षण आर्यत्वका ही। ही हो सकता है।
रही शिष्ट-सम्मत भाशदिक के व्यवहारोंकी __ श्रीमलयगिरि मूरिने उक्त प्रजापनासूत्रकी बात, जब केवली भगवानकी वाणीको अठारह " टीकामें लिखा है
महाभाषाओं तथा सातसौ लघु भाषाओं में अनुवा"म्लेच्छा अव्यक्तभाषासमाचाराः,"
दित किया जाता है तब ये प्रचलित सब भाषा तो
शिष्टसम्मत भाषाएँ ही समझी जायेंगी, जिनमें अरबी "शिष्टासम्मतसकल व्यवहाग म्लेच्छाः।"
फार्सी, लैटिन, जर्मनी, अप्रेजी, फ्रांसीसी, चीनी अर्थात--म्लेच्छ वे हैं जो अव्यक्त भाषा और जापानी आदि सभी प्रधान प्रधान विदेशी बोलते हैं--ऐसी अस्पष्ट भाषा बोलते हैं जो । भाषाओंका समावेश हो जाता है। इनसे भिन्न अपनी समझमें न आवे । अथवा शिष्ट (सभ्य) तथा बाहर दूसरी और कौनसी भाषा रह जाती है पुरुष जिन भाषादिक व्यवहारोंको नहीं मानते जिसे म्लेच्छोंकी भाषा कहा जाय ? बाकी दूसरे उनका व्यवहार करने वाले सब म्लेच्छ हैं। शिष्टसम्मत व्यवहारोंकी बात भी ऐसी ही है
ये लक्षण भी ठीक मालूम नहीं होते; क्योंकि कुछ व्यवहार ऐसे हैं जिन्हें हिन्दुस्तानी असभ्य प्रथम तो जो भाषा आर्योंके लिये अव्यक्त हो वही समझते हैं और कुछ व्यवहार ऐसे हैं जिन्हें उक्त भाषाभाषी अनार्योंके लिये व्यक्त होती है विदेशी लोग असभ्य बतलाते हैं और उनके तथा पार्योंके लिये जो भाषा व्यक्त हो वह अनार्यो कारण हिन्दुस्तानियोंको असभ्य'-अशिष्ट एवं के लिये अव्यक्त होती है और इस तरह अनार्य Incivilizad समझते हैं। साथही कुछ व्यवहार लोग परस्परमें अव्यक्त भाषा न बोलनेके कारण हिन्दुस्तानियोंके ऐसे भी हैं जो दूसरे हिन्दुस्तानियोंकी
आर्य हो जावेंगे तथा आर्य लोग ऐसी भाषा बोलने- दृष्टि में असभ्य हैं और इसी तरह कुछ विदेशियों के कारण जो अनार्योंके लिये अव्यक्त है-उनकी के व्यवहार दमरे विदेशियों की दृष्टिमें भी असभ्य समझमें नहीं पाती-म्लेच्छ ठहरेंगे । दूसरे, पर हैं। इस तरह शिष्टपुरुषों तथा शिष्टसम्मत स्परके सहवास और अभ्यासके द्वारा जब एक व्यवहारोंकी बात विवादस्पन्न होने के कारण इतना वर्ग दुसरे वर्गकी भाषासे परिचित हो जावेगा तो कहदेने मात्र ही आर्य और म्लेच्छकी कोई इतने परसे ही जो लोग पहले म्लेच्छ समझे जाते व्यावृत्ति नहीं होती-ठीक पहचान नहीं बनती। थे वे म्छेच्छ नहीं रहेंगे-शक-यवनादिक भी और इसलिए उक सब लक्षण मदोष जान म्लेच्छवकी कोटिस निकल जाएँगे, आर्य हो पड़ते हैं। जावेंगे। इसके सिवाय, ऐसे भी कुछ देश है जहाँ. अब दिगम्बर प्रन्योंको भी लीजिए। तन्वार्थ के आर्योंकी बोली-भाषा दूसरे देशके आर्य लोग सूत्रपर दिगम्बरोंकी सबसे प्रधान टीका सर्वार्थ नहीं समझते हैं, जैसे कन्नड-तामील-तेलगु भाषा- सिद्धि, राजवार्तिक तथा श्लोकवार्तिक हैं। इनमें
ओंको इधर यू० पी० तथा पंजाबके लोग नहीं किसी में भी म्लेच्छका कोई लक्षण नहीं दिया समझते। अतः इधरकी दृष्टिसे कन्नड-तामील- मात्र म्लेच्छोंक अन्तरद्वीपज और कर्ममिज ऐसे तेलगु भाषाओंके बोलने वालों तथा उन भाषा- दो भेद बतलाकर अन्तरद्वीपजोंका कुछ पता नोंमें जैन ग्रन्थोंकी रचना करने वालोंको भी बतलायाहे और कर्मभूमिज म्लेच्छोंक विषयमें म्लच्छ कहना पड़ेगा और यों परस्परमें बहुत ही इतना ही लिख दिया है कि "कर्मभूमिजाः शक
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अनेकान्त
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यवनशबरपुलिन्दादयः" (सर्वा०, राज०)-अर्थात अति सूक्ष्म है-वह छद्मस्थोंके ज्ञानगोचर नहीं, शक, यवन, शबर और पुलिन्दादिक लोगोंको उसके आधारपर कोई व्यवहार चल नहीं सकताकर्मभूमिज म्लेच्छ समझना चाहिए । श्लोकवार्तिक- और 'आदि' शब्दका कोई वाच्य वतलाया नहीं में थोड़ासा विशेष किया है-अर्थान यवनादिकको गया, जिससे दूसरे व्यावर्तक कारणोंका कुछ म्लेच्छ बतलानेके अतिरिक्त उन लोगोंको भी बांध हो सकता। म्लेच्छ बतला दिया है जो यवनादिकके प्राचारका
शेष रही आर्योंकी बात, आर्यमात्रका कोई पालन करते हों। यथा:
खास व्यावर्तक लक्षण भी इन ग्रन्थोंमें नहीं हैं-- कर्मभूमिभवा म्लेच्छाः प्रसिद्धा यवनादयः ।।
आर्योंके ऋद्धिप्राप्त-अनृद्धिप्राप्त ऐसे दो भेद करके . स्युः परे च तदाचारपालनाद्वहुधा जनाः ॥
ऋद्धिप्राप्तोंके सात तथा पाठ और अनृद्धिप्राप्तोंके परन्तु यह नहीं बतलाया कि यवनादिकका
क्षेत्रार्य, जात्यार्य, कार्य, चरित्रार्य, दर्शनार्य ऐसे । वह कौनसा आचार-व्यवहार है जिसे लक्ष्य करके ही।
पाँच भेद किये गये हैं। राजवार्तिकमें इन भेदोंकिसी समय उन्हें 'म्लेच्छ' नाम दिया गया है, जिस
का कुछ विस्तारके साथ वर्णन जरूर दिया है; से यह पता चल सकता कि वह प्राचार इस समय । भी उनमें अवशिष्ट है या कि नहीं और दूसरे गोलमोल कर दिया है-"क्षेत्रार्याःकाशीकौशला
__परन्तु क्षेत्रार्य तथा जात्यार्यके विषयको बहुत कुछ आर्य कहलानेवाले मनुष्योंमें तो वह नहीं पाया
। दिषु जाताः । इक्ष्वाकुजातिभोजादिकुलेषु जाता ! हाँ, इससे इतना श्राभास जरूर मिलता
जाता जात्यायः” इतना ही लिखकर छोड़ दिया है कि जिन कर्मभूमिजोंको म्लेच्छ नाम दिया गया है! और कार्य के सावद्यकार्य, अल्पसावद्यहै वह उनके किसी आधारभेदके कारण ही दिया कार्य. असावद्यकार्य ऐसे तीन भेद करके गया है-देशभेदके कारण नहीं। ऐसी हालतमें .
___ उनका जो स्वरूप दिया है उससे दोनोंकी पहचानउस आचार-विशेषका स्पष्टीकरण होना और भी
1 में उस प्रकारकी वह सब गड़बड़ प्रायः ज्योंकी त्यों ज्यादा जरूरी था; तभी आर्य-म्लेछकी कुछ व्यावृत्ति उपस्थित होजाती है. जो उक्त भाष्य तथा प्रज्ञापनाअथवा ठीक पहचान बन सकती थी। परन्तु ऐसा सत्रके कथनपरसे उत्पन्न होती है। जब असि, नहीं किया गया, और इसलिए आर्य-म्लेच्छकी मषि, कृषि, विद्या, शिल्प और वाणिकर्मसे आजीसमस्या ज्यों की त्यों खड़ी रहती है-यह मालूम
मालूम विकाकरने वाले, श्रावकका कोई व्रत धारण करने नहीं होता कि निश्चितरूपसे किसे 'आर्य' कहा
वाले और मुनि होने वाले (म्लेच्छ भी मुनि होसकते जावे और किसे 'म्लेच्छ'! __ श्लोकवार्तिकमें श्रीविद्यानन्दाचार्यने इतना
हैं *) सभी 'आर्य' होते हैं तब शक-यवनादिकको और भी लिग्वा है
म्लेच्छ कहने पर काफी आपत्ति खड़ी होजाती है
और आर्यम्लेच्छकी ठीक व्यवृत्ति होने नहीं "उचैर्गोत्रोदयादेरार्याः,
पाती। नीचैर्गोत्रोदयादेश्च म्लेच्छाः।" ।
___हाँ, सर्वार्थसिद्धि तथा राजवर्तिकमें 'गुणैर्गुसअर्थान--उखगोत्रके उदयादिक कारणसे आर्य बद्भिर्वा अर्यन्त इत्यार्याः' ऐसी आर्यकी निरुक्ति होते हैं और जो नीचगोत्रके उदय आदिको लिये
(शेष पृष्ठ २१० पर देखिए) दुए होते हैं उन्हें म्लेच्छ समझना चाहिये। . - यह परिभाषा भी आर्य-म्लेच्छकी कोई व्याव- देखो, जयधवलाका वह प्रमाण जो इसी वर्षकी तक नहीं है, क्योंकि उच-नीचगोत्रका उदय तो पहली किरणमें पृ०४० पर उद्धृत है।
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तत्वचची
जाति-मद सम्यक्त्वका बाधक है
[ले०-श्री० बाबू सूरजभानजी वकील ]
शर्ममार्ग पर क़दम रखने के लिए जैन-शास्त्रों में आदिपुराणादि जैन-शास्त्रोंके अनुसार चतुर्थ
7 सबसे पहले शुद्ध सम्यक्त्व ग्रहण करनेकी कालमें जैनी लोग एकमात्र अपनी ही जातिमें बहुत भारी आवश्यकता बतलाई है। जब तक श्रद्धा विवाह नहीं करते थे किन्तु ब्राह्मण तो ब्राह्मण, अर्थात दृष्टि शुद्ध नहीं है तब तक सभी प्रकारका क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन चारों ही वर्णकी कन्याओं धर्माचरण उस उन्मसकी तरह व्यर्थ और निष्फल से विवाह कर लेता था; क्षत्रिय अपने क्षत्रिय है जो इधर-उधर दौड़ता फिरता है और यह वर्णकी, वैश्यकी तथा शूद्रकी कन्याओंसे और वैश्य निश्चय नहीं कर पाता कि किधर जाना है अथवा अपने वैश्य वर्णकी तथा शूद्र वर्णकी कन्यास भी उस हाथीके स्नान-समान है जो नदीमें नहाकर विवाह कर लेता था। बादको सभी वर्गों में परस्पर आपही अपने ऊपर धूल डाल लेता है। विवाह होने लग गये थे, जिनकी कथाएँ जैन-शास्त्रों
सम्यक्त्वको मलिन करनेवाले पञ्चीम मल में भरी पड़ी है। इन अनेक वर्णोंकी कन्याओंसे दोषोंमें आठ प्रकारके मद भी हैं, जिनमें सम्यक्त्व जो सन्तान होती थी उसका कुल तो वह समझा भ्रष्ट होता है-उसे बाधा पहुँचती है । इनमें भी जाता था जो पिताका होता था और जाति वह जाति और कुलका मद अधिक विशेषताको लिए हुए मानी जाती थी जो माताकी होती थी। इसी है।सम्यग्दृष्टि के लिए ये दोनों ही बड़े भारी दूषण कारण शाबों में वंशसे सम्बन्ध रखनेवाले दो हैं। मैं एक प्रतिष्ठित कुलका हूँ. मेरी जाति ऊँची है, प्रकारके मद वर्णन किए हैं। अर्थात यह बतलाया ऐसा घमण्ड करके दूसरोंको नीच एवं तिरस्कारका है कि न तो किसी सम्यग्दृष्टिको इस बातका पात्र समझना अपने धर्मश्रद्धानको खराब करना घमण्ड होना चाहिए कि मैं अमुक ऊँचे कुलका है, ऐसा जैन-शास्त्रोंमें कथन किया गया है। हूँ और न इस बातका कि मैं अमुक ऊँची जातिका
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अनेकान्त
[पौष, वीर-निर्वाण सं० २४६५
हूँ। दूसरे शब्दोंमें उसे न तो अपने बापके ऊँचे बना हुआ है-धर्मका श्रद्धान र आचरण न कुलका घमण्ड करना चाहिए और न अपनी होनेके कारण जो नित्य ही पापोंका संचय करता माताके ही ऊँचे वंशका।
रहता है उसको चाहे जो भी कुलादि सम्पदा प्राप्त जो घमण्ड करता है वह स्वभावसे ही दूसरों
हो जाय वह सब व्यर्थ है-उसका वह पापाम्रव को नीचा समझता है। घमण्ड के वश होकर
उसे एक-न-एक दिन नष्ट कर देगा और वह खुद किसी साधर्मी भाईको-सम्यग्दर्शनादिसे युक्त
उसके दुर्गति-गमनादिको रोक नहीं सकेगी। व्यक्तिको–अर्थात जैन-धर्म-धारीको नीचा सम
भावार्थ, जिसने सम्यक्तपूर्वक धर्म धारण करके झना अपने ही धर्मका तिरस्कार करना है। क्योंकि पापका निरोध कर दिया है वह चाहे कैसी ही धर्मका श्राश्रय-अाधार धर्मात्मा ही होते हैं
ऊँची-नीची जाति वा कुलका हो, संसारमें वह चाहे धर्मात्माओंके बिना धर्म कहीं रह नहीं सकता।
कैसा भी नीच समझा जाता हो, तो भी उसके और इसलिए धर्मात्माांक तिरस्कारसं धर्मका पास सब कुछ है और वह धर्मात्माओंके द्वारा तिरस्कार स्वतः हो जाता है। कुल-मद वा जाति- मान तथा प्रतिष्ठा पानेका पात्र है-तिरस्कारका मद करनेका यह विष-फल धर्मके श्रद्धानमें अवश्य
पात्र नहीं। और जिसको धर्मका श्रद्धान नहीं,
धर्मपर जिसका आचरण नहीं और इसलिए जो ही बट्टा लगाता है, ऐसा श्री समन्तभद्र स्वामीने अपने रत्नकरण्डश्रावकाचारकं निम्न पदा नं० २६
मिथ्याष्टि हुश्रा निरन्तर ही पाप संचय किया में निर्दिष्ट किया है
करता है वह चाहे जैसी भी ऊँचसे ऊंच जातिका,
कुलका अथवा पदका धारक हो, ब्राह्मण हो, क्षत्रिय स्मयेन योऽन्यानत्येति धर्मस्थान् गर्विताशयः । हो.शुक्ल हो, श्रोत्रिय हो, उपाध्याय हो, सूर्यवंशी हो, सोऽत्येति धर्ममात्मीयं न धर्मो धार्मिकैविना ॥ चन्द्रवंशी हो, राजा हो, महाराजा हो, धन्नासेठ हो,
धनकुवेर हो, विद्याका सागर वा दिवाकर हो, इसी बातको प्रकारान्तरसे स्पष्ट करते हुए अगले तपस्वी हो, ऋद्धिधारी हो, रूपवान हो, शक्तिशाली श्लोक नं० २७ में बताया है कि-जिमके धर्माचरण ।
- हो, और चाहे जो कुछ हो-परन्तु वह कुछ भी नहीं द्वारा पापोंका निरोध हो रहा है-पापका निरोध हो, करनेवाली मम्यग्दर्शनम्पी निधि जिसके पास है। पापाव के कारण उसका निरन्तर पतन ही मौजूद है-उसके पास तो सब कुछ है, उसको होता रहेगा और वह अन्तको दुर्गतिका पात्र अन्य कुलैश्चर्यादि सांसारिक सम्पदाओंकी अर्थान बनेगा। समन्तभद्रका वह गम्भीगर्थक श्लोक इम सांसारिक प्रतिछाके कारणोंको क्या जरूरत है ? प्रकार है:वह तो इस एक धर्म-सम्पत्तिके कारण ही सब कुछ
यदि पापनिरोधोऽन्यसम्पदा किं प्रयोजनम् । प्राप्त करने में समर्थ है और बहुत कुछ मान्य तथा पूज्य होगया है । प्रत्युत इमके जिसके पापोंका पानव अथ पापात्रवोऽस्त्यन्यसम्पदा किं प्रयोजनम् ।।
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वर्ष २ किरण ३]
जाति-मद सम्यक्त्वका बाधक है
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इसके बादका निम्न श्लोक नं० २८ भी इसी दो मदोंने गारत किया है। ब्राह्मणोंका प्राबल्य बानको पुष्ट करनेके लिए लिखा गया है और उसमें होने पर कुल और जातिका घमण्ड करनेकी यह यह स्पष्ट बतलाया गया है कि चाण्डालका पुत्र भी बीमारी सबसे पहले वेदानुयायी हिन्दुत्रोंमें फूटी। यदि सम्यग्दर्शन ग्रहण करले-धर्म पर आचरण उस समय एकमात्र ब्राह्मण ही सब धर्म-कर्मके करने लगे--तो कुलादि सम्पत्तिसे अत्यन्त गिरा ठेकेदार बन बैठे. क्षत्रिय और वैश्यके वास्ते भी हुश्रा होने पर भी पूज्य पुरुषोंने उसको 'देव' वे ही पूजन-पाट और जप-तप करने के अधिकारी अर्थात आराध्य बतलाया है-तिरस्कारका पात्र नहीं; रह गए; शूद न तो स्वयं ही कुछ धर्म कर सके क्योंकि वह उस अंगारके सदृश होता है जो बाह्य- और न ब्राह्मण ही उनके वास्ते कुछ करने पावे, में राखसे ढका हुआ होने पर भी अन्तरंगमें तेज ऐसे आदेश निकलं; शूद्रोंकी छायासे भी दूर रहने तथा प्रकाशको लिए हुए है और इसलिए कदापि की श्राज्ञाएँ जारी हुई। अचानक भी यदि कोई उपेक्षणीय नहीं होता --
वेदका वचन शूद्रके कानमें पड़ जाय तो उसका सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गदेहजम् । कान फोड़ दिया जाय और यदि कोई धर्मकी बात देवा देवं विदुर्भस्मगूढाङ्गारान्तरोजसम् ॥
उसके मुखसं निकल जाय तो उसकी जीभ काट
. ली जाय, ऐसे विधान भी बने। प्रत्युत इसके, फिर इसीको अधिक स्पष्ट करते हुए श्लोक नं० २६ ।
। ब्राह्मण चाहे कुछ धर्म कर्म जानना हो या न जानता में लिखते हैं कि 'धर्म धारण करनेसे तो कुत्ता भी हो
हो और चाहे वह कैसा ही नीच कर्म करता हो, तो देव हो जाता है और अधर्मके कारण-पापाचरण
__ भी वह पूज्य माना जावे । ऐसा होने पर एकमात्र करनेसे–देव भी कुत्ता बन जाता है। तब ऐसी
हाड़मांसकी ही छुटाई-बड़ाई रह गई ! किसीका कौनसी सम्पत्ति है जो धर्मधारीको प्राप्त न हो
हाड़मांस पूज्य और किमीका तिरस्कृत ममझा मके।' ऐसी हालतमें धर्मधारी कुत्तेको क्यों नीचा
गया !! समझा जाय और अधर्मी देवको तथा अन्य किसी
फल इसका यह हुआ कि धर्म कर्म सब लुप्त ऊँचे वर्ण वा जातिवाले धर्महीनको क्यों ऊँचा
हो गया। क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र तो धर्म-ज्ञानसे माना जाय ? वह श्लोक इस प्रकार है
वंचित कर ही दिये गए थे; किन्तु ब्राह्मणोंको भी श्वापि देवोऽपि देवः श्वा जायते धर्मकिल्विषा। अपनी जातिके घमण्डमें आकर ज्ञानप्राप्ति और कापि नाम भवदेन्या सम्पद्धर्माच्छरीरिणाम् ॥ किसी प्रकारके धर्माचरणकी जरूरत न रही। ___ इस प्रकार आठों प्रकारके मदोंका वर्णन इस कारण वे भी निरक्षर-भट्टाचार्य तथा कोरे करते हुए श्री समन्तभद्र स्वामीने जाति और कुल- बुधू रहकर प्रायः शूद्रोंके समान बन गए और के मदका विशेष रूपसे उल्लेख करके इन दोनों अन्तको रोटी बनाना, पानी पिलाना, बोझा ढोना मदोंके छुड़ाने पर अधिक जोर दिया है। कारण आदि शूद्रोंकी वृत्ति तक धारण करने के लिए इसका यही है कि हिन्दुस्तानको एक मात्र इन्हीं उन्हें वाधित होना पड़ा।
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अनेकान्त
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संक्रामक रोगकी तरह यह बीमारी जैनियोंमें स्वामी कुन्दकुन्दाचार्य भी अपने दर्शनपाहुडम भी फैलनी शुरू हुई, जिससे बचानेके लिए ही लिखते हैंआचार्योंको यह सत्य सिद्धान्त खोलकर समझाना ण वि देहो वन्दिाइ पड़ा कि जो कोई अपनी जाति व कुल आदिका णविय कुलोण विय जाइ संजुत्तो । घमण्ड करके किसी नीचातिनीच यहाँ तक कि चाण्डालके रज-वीर्यसे पैदा हए चाण्डाल-पत्रको का वादम गुणहाणा भी, जिसने सम्यग्दर्शनादिके रूपमें धर्म धारण ण हु सवणो णेय सावओहोई ॥२७।। कर लिया है, नीचा समझता है तो वह वास्तव में अर्थात-न तो देहको बन्दना की जाती है, उस चाण्डालका अपमान नहीं करता है किन्तु न कुलका और न जाति-सम्पन्नको। गुणहीन अपने जैन-धर्मका ही अपमान करता है-उसके कोई भी बन्दना किये जाने के योग्य नहीं; जो हृदयमें धर्मका श्रद्धान रंचमात्र भी नहीं है। धर्म- कि न तो श्रावक ही होता है और न मुनि ही । का श्रद्धान होता तो जैन-धर्मधारी चांडालको क्यों भावार्थ-वन्दना अर्थात पूजा-प्रतिमा के योग्य या नीचा समझता ? धर्म धारण करनेसे तो वह तो श्रावक होता है और या मुनि; क्योंकि ये दोनों चाण्डाल बहुत ऊँचा उठ गया है; तब वह नीचा ही धर्म-गुणसं विशिष्ट होते हैं। धर्म-गुण-विहीन क्यों समझा जाय ? कोई जातिसे चाण्डाल हो कोई भी कुलवान तथा ऊँची जातिवाला अथवा वा अन्य किसी बातमें हीन हो, यदि उसने जैन- उसकी हाडमांस भरी देह पूजा प्रतिछाके योग्य धर्म धारण कर लिया है तो वह बहुत कुछ नहीं है। ऊँचा तथा सम्माननीय हो गया है। सम्यग्दर्शनकं श्रीशुभचन्द्राचार्यने भी ज्ञानार्णवक अध्याय २१ वात्सल्य अङ्ग-द्वारा उसको अपना साधर्मी भाई श्कोक नं० ४८ में लिखा है कि:समझना, प्यार करना, लौकिक कठिनाइये दूर
। कुलजातीश्वरत्वादिमद-विध्वस्तबुद्धिभिः । करके सहायता पहुँचाना और धर्म-साधनमें सर्व प्रकारकी सहूलियतें देना यह सब सो श्रद्धानीका सद्यः संचीयते कर्म नीचर्गतिनिबन्धनम् ।। मुख्य कर्तव्य है। जो ऐसा नहीं करता उसमें धर्म- अर्थात-कुलमद, जातिमद, ऐश्वर्यमद आदि का भाव नहीं, धर्मकी सच्ची श्रद्धा नहीं और न मदों से जिनकी बुद्धि नष्ट हो गई है ऐसे लोग धर्मसे प्रेम ही कहा जा सकता है। धर्मसे प्रेम बिना किसी विलम्बके शीघ्र ही उम पापकर्मका होनेका चिन्ह ही धर्मात्माके साथ प्रेम तथा संचय करते हैं जो नीच गतिका कारण हैवात्सल्य भावका होना है। सभे धर्म-प्रेमीको यह नरक-तिर्यचादि अनेक कुगतियों और कुयोनियों में देखनेकी जरूरत ही नहीं होती कि अमुक धर्मात्मा- भ्रमण कराने वाला है। का हाड़मांस किस रजवीर्यसे बना है-बाह्मणसे इन्हीं शुभचन्द्राचार्यने मानार्णवके । वे अध्यायबना है वा चाण्डाल से।
के श्लोक नं० ३० में यह भी प्रकट किया है कि जो
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जाति-मद सम्यक्त्वका बाधक है
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लोग विकलाङ्गी हों.- खण्डित देह हो, विरूप हों . किसी समय जैनी थीं परन्तु अब उनको जैनधर्म बदसूरत हों, दरिद्री हों, रोगो हों और कुलजाति से कुछ भी वास्ता नहीं है। और यह तो स्पष्ट ही
आदिसे हीन हों वे सब शोभासम्पन्न हैं, यदि है कि जहाँ इस भारतवर्ष में किसी समय जैनी मत्य सम्यक्त से विभूषित हैं'। अर्थात धर्मात्मा अधिक और अन्यमती कम थे वहाँ अब पैंतीस पुरुष कुन जाति आदिसे होन होने पर भी किरही करोड़ मनुष्यों में कुल ग्यारह लाख ही जैनी रह प्रकार तिरस्कारके योग्य नहीं होते। जो जाति गये हैं और उनको भी अनेक प्रकार के अनुचित
आदिके मदमें आकर उनका तिरस्कार करता है दण्ड-विधानों आदिक द्वारा घटानेकी कोशिश की वह पूर्वोक्त श्लोकातुमार अपनको नीच गतिका पात्र जा रही है। बनाता है । यथा:---
घटे या बड़े जिनको धर्मस प्रेम नहीं है, ग्वंडितानां विरूपाणां दर्विधानां च गेगिणाम जिनको धर्मकी सभी श्रद्धा नहीं है और जो
मम्यक्त्वकं स्थितिकरण तथा वात्सल्य अङ्गोंक कुलजात्यादिहीनानां सत्यमेकं विभूषणम्
पास तक नहीं फटकतं उन्हें ऐसी बातोंकी क्या
चिन्ता और उनसे क्या मतलब ! हाँ, जो सच्चे स्वामिकार्तिकेयानु प्रेक्षाकी ४३० वीं गाथामें
श्रद्धानी हैं, धर्म से जिनको सच्चा प्रेम है वे जरूर भी लिखा है कि उत्तम धर्मधारी तिर्यच-पशु भी
मनुष्यमात्रमें उम मचे जैनधर्मको फैलानेकी उत्तम देव हो जाता है तथा उत्तम धर्म के प्रसादम
न कोशिश करेंगे जिम पर उनकी दृढ़ श्रद्धा है। चाँडाल भी देवीका देव सुरेन्द्र बन जाता है।
अर्थात कोई छुन हो वा अछूत, ऊँच ही वा नीच
. मभीको वे धर्म सिखाएंगे, मबहीको जैनी उत्तमधम्मेणजुदो होदि तिरबग्यो वि उनमोदेवो
बनाएँगे और जो जैनधर्म धारण कर लेगा उसके चंडालो वि मुरिंदो उत्तम धम्मेण संभवदि
__ माथ वात्मल्यभाव रग्बकर हृदयम प्रेम भी ___ आचार्यों की ऐसी स्पष्ट आज्ञाओक होने पर करेंगे, उमकी प्रतिया भी करेंगे और उसे धर्म भी, अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि कुल माधनकी मब प्रकारकी महलियने भी प्रदान और जातिके घमंडका यह महारोग जैनियों में करेंगे तथा दृमगम भी प्राप्त कगाएँगे। उनके भी जोर-शोरके साथ घुस गया, जिसका फल यह लिए स्वामी ममन्नभद्रका निम्न वाक्य बड़ा ही हुआ कि नवीन जैनी बनते रहना तो दूर रहा. लाखों पथ-प्रदर्दक होगा, जिसमें म्पाट लिम्बा है कि जो करोड़ों मनुष्य, जिनको इन महान प्राचयाने बड़ी श्री जिनेन्द्रदेवका नत मम्तक होता है. उनकी कोशिशसे जैनो बनाया था, उन कुल का घमंड शरण में आता है--अर्थात जैनधर्म का प्रहण रखने वाले जैनियों में प्रतिषा न पानेके कारण करता है वह चाहं कैमा ही नीचानिनीच क्यों न जैनधर्मको छोड़ बैठे ! इसके सबूतके तौर पर ही, इसी लोक में-इम ही जन्ममे--अनि ऊँचा हो अब भी अनेक जातियां ऐसी मिलनी हैं जो जाता है: नव फिर कौन मा मुख है अथवा कौन
यथा
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ऐसा बुद्धिमान है जो जिनेन्द्रदेवकी शरणमें भर जाय और वे धर्मप्रचारके लिए अपने प्राप्त न होवे अर्थात् उनका बताया हुआ धर्ममार्ग पूर्वजोंका अनुकरण करने लगे, तो दुनिया भरक ग्रहण न करे ? सभी जैनधर्मकी शरणमें आकर लोग आज भी इस सच्चे धर्मकी शरणमें आने अपनी इहलौकिक तथा पारलौकिक हित साधन के लिए उत्सुक हो सकते हैं । पर यह तभी हो कर सकेंगे।
सकता है जब इस समय जो लोग जेनी कहलाते यो लोके त्वानतः सोऽनिहीनोऽप्यतिगर्यतः हैं और जैनधर्मके ठेकेदार बनते हैं, उनको धर्म बालोऽपि त्वा श्रितं नौतिकोनोनीतिपरकता का सच्चा श्रद्धान हो, प्राचार्योक वाक्यांका उनके ___ श्रीसमन्तभद्र आदि महान् प्राचार्योंके समय
हृदयमें पूरा पूरा मान हो, धर्मके मुक़ाबिलेमें में ऐसा ही होता था। सभी प्रकारके मनुष्य जैन
लौकिक रीति-रिवाजोंका जिन्हें कुछ नयाल न धर्म ग्रहण करके ऊँचे बन जाते थे माननीय हा, कुल और जाति का झूठा घमण्ड जिनके पास प्रतिष्ठित हो जाते थे। तब ही तो इन महान
न हो और अपना तथा जीवमात्रका कल्याण प्राचार्योने हिंसामय यज्ञोंको भारतसे दूर भगाया
करना ही जिनका एकमात्र ध्येय हो। आशा है और अहिंसामय धर्मका झण्डा फहराया। अब
धर्मप्रेमी वन्धु इन सब बातों पर विचार कर भी यदि ऐसा ही होने लगे, जैनियोंका हृदय जाति
अपने कर्तव्य-पथ पर अग्रसर होंगे। कुलादिके मदसे शुन्य होकर धर्मकी भावनासे वीर सेवा मन्दिर सरसावा ।
कीया ग़रूर गुल ने जब रंगो-रूप बू का । मारे हवा ने झोके, शबनम ने मुंह में थूका ॥
-अज्ञात् । 'महान् कार्योंके सम्पादन करनेकी आकांक्षाको ही लोग महत्वके नामसे पुकारते हैं और अोछापन उस भावनाका नाम है जो कहती है कि मैं उसके बिना ही रहूंगी।'
'महत्ता सर्वदा ही विनयशील होती है और दिखावा पसन्द नहीं करती मगर घद्रता सारे संसारमें अपने गुणोंका ढिंढोरा पीटती फिरती है।'
-तिरुवल्लुबर।
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IIIIIIIIIII
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LOIN
अधर्म क्या ?
लेखक-श्री जैनेन्द्रकुमारजी ]
HTTTT
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.
अय प्रश्न कि अधर्म क्या ? जो धर्मका मन्द करता है और स्वयं जड़वत परिणमनका बात करे वह अधर्म।
भागी होता है। लेकिन अधर्म अभावरूप है। वह मतरूप नित्यप्रतिके व्यवहार में जीवकी गति द्वंद्वमयी नहीं है । इमसे अधर्म असत्य है।
देखने में आती है। राग-द्वेष, हर्ष-शोक, रतिइसीसे व्यक्ति के साथ अधर्म है । समझमें तो अरति । जैसे घड़ीका लटकन ( पेड्य लम ) इधर अधर्म जैसा कुछ है ही नहीं। धर्माधर्मका भेद से उधर हिलता रहता है, उस थिरता नहीं है अतः कृत्यमें व्यक्तिकी भावनाओंके कारण होताहे। वैसेही संसारी जोवका चित्त उन द्वंद्वांके सिरोंपर
अधर्म स्व-भाव अथवा सदभाव नहीं है। वह जा-जाकर टकराया करता है। कभी बहद विराग विकारी भाव है । अतएव परभाव है। जैन-दर्शन (अरति ) अाकर घेर लेता है और जुगुप्सा हो ने माना है कि वह जीवकं साथ पुद्गलके अनादि आती है। घड़ीमें कामना ओर लिप्मा ( रति) मम्बन्धके कारण सम्भव होता है । पर वह सम्बन्ध जागजाती है । इस छन इमसे राग, तो दूसरे पल अनादि होनेके कारण अनन्त नहीं है । वह सान्त दूसरेसे उत्कट द्वेषका अनुभव होता है। ऐसही
हाल खुशी और हाल दुखी वह जीव मालूम होताहै। जीवके साथ पुद्गलकी जड़ताका अन्त करने अधर्म इम द्वंदको पैदा करनेवाला और बढ़ाने वाला, अर्थात मुक्तिको ममीप लानेवाला इस वाला है। द्वंद्वही नाम क्लेशका है। भाँति जबकि धर्म हुआ, तब उस बन्धनको धर्मका लक्ष्य कैवल्य स्थिति है। वहाँ माम्य बढ़ानेवाला और मुक्तिको हटानेवाला अधर्म भाव है। वहाँ मन और चिनके अतिरिक्त कुछ कहलाया।
नहीं है । विकल्प, संशय, द्वंद्वका यहाँ सर्वथा नाश धर्म इस तरह स्व-पर और मदमद्विवेक स्वरूप है। उसीको कहो मच्चिदानन्द। है। अधर्मका स्वरूप संशय है। उसमें जड़ और अधर्मका वाहन है विकल्प प्रम्न बुद्धि । चैतन्यके मध्य विवेककी हानि है। उसमें जड़में ममता, मोह, मायामें पड़ी मानव-मति । और जड़तामें भी व्यक्ति ममत्व और अाग्रह रखता उसका छुटकारका उपाय है श्रद्धा । बुद्धि जब दीम्बता है। जड़को अपनामानता है, उममें अपना- विकल्प रचती है नो श्रद्धा उमीके मध्य मंकल्प पन आरोपना है और इस पद्धनिसे प्रात्म-ज्योतिको जगा देती है।
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अनेकान्त
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श्रद्धा-संयुक्त बुद्धिका नाम है विवेक । भेद इतना सूक्ष्म होजाता है कि जिज्ञासुके
जहाँ श्रद्धा नहीं है वहाँ अधर्म है । उस जगह उसमें खो रहनेकी आशंका है। बुद्धि जीवको बहुत भरमाती है । तरह-तरहकी मुख्य बात श्रात्म-जागृतिकी है। अपने बारेमें इच्छाओंसे मनुष्यको सताती है। और उसके ताबे सोना किसीको नहीं चाहिए। आँख झपकी कि चोर होकर मनुष्य अपने भवचक्रको बढ़ाता ही है। ऐसी भीतर बैठ जायगा। वह चोर भीतर घुसाहो तब बुद्धिका लक्षण है लोकैष्णा। उसीको अधर्मका बाहरी किसी अनुष्ठानको मददसे धर्मको साधना लक्षण भी जानना चाहिए।
भला कैसे हो सकती है। अपनी आत्माको चौकोपुण्यकर्म समझेजानेवाले बहुतसे कृत्योंके दारी इसलिए खूब सावधानीसे करनी चाहिए । जो पीछे भी यह लोकैष्णा अर्थात् सांसारिक महत्वा- अपनेको धोखा देगा उसे फिर कोई गुरु, कोई काँक्षा छिपी रह सकती है। पर वह जहाँ हो वहाँ ।
और कोई मन्दिर भीतर नहीं अधर्मका निवास है। और जहाँ अधर्म है वहाँ पहुँचा सकेगा। अपनेको भूलना और भुलाना धर्मका घात है।
अधर्म है । जागते रहना और जानते रहना ही इस बातको बहुत अच्छी तरह मनमें उतारलेने धर्मकी साधना है। की आवश्यकता है। नहीं तो धर्माधर्मका तात्विक
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/ दीनोंके भगवान !
[ do-रवीन्द्रनाथ ठाकुर ] उस दिन देवताका रथ नगर-परिक्रमा करने वाला था। महादेवीने महाराजसे कहा-- "आइए, रथ-यात्रा देख पाएँ।"
सभी पीछे चल दिए। केवल एक व्यक्ति नहीं आया। वह था शुद्रक, जो झाड़ के लिए. सीके एकत्रित करता था।
सेवकोंके सरदारने दयार्द्र होकर कहा-"तुम भी आसकते हो, शूद्रक !' उसने सिर झुकाकर कहा-"नहीं देव !"
शदककी झोंपड़ीके समीप होकर ही सब रथ-यात्रा देखने जाते थे। जब राजमन्त्रीका हाथी 8 उसके झोपड़े के समीप आया, तो मन्त्रीने पुकारकर कहा-"शूद्रक ! श्रा, रथ-यात्राके समय देवदर्शन करले।"
"राजाभांकी भांति में देवदर्शन नहीं करता स्वामिन् !" उसने उत्तर दिया। "भला, तुझे देवदर्शनका यह सौभाग्य फिर कब प्राप्त होगा?" "जब भगवान् मेरी झोपड़ी के दरवाज़े पर आवेंगे नाथ !"
मन्त्रीने अट्टहास करके कहा-"मूर्ख तेरे द्वारपर भगवान् स्वयं दर्शन देने आवेंगे, और महाराज उनके दर्शनके लिए रथ-यात्रामें सम्मिलित होने जारहे हैं!"
शद्रकने दबी आवाज़से उत्तर दिया--"भगवान्के सिवा और कौन दरिद्रोंके घर आता है स्वामिन् !"
--'प्रकाश' से।
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क्या सिद्धान्त-ग्रन्थों के अनुसार सब ही मनुष्य उच्चगोत्री हैं ?
(लेखक-श्री०५० कैलाशचन्द्रजी जैन, शात्री)
अनेकान्तके द्वितीयवर्षकी प्रथम किरणमें कि जिन वाक्योंके आधार पर लेखक महोत्यने
"गोत्रकर्माश्रित ऊँच-नीचता' शीर्षकसं उक्त निष्कर्ष निकाला है, उन वाक्योंसे उक्त वयोवृद्ध समाज-सेवक बाबू सूरजभानुजी वकील- निष्कर्ष निकलता है या नहीं ? अपनी शक्तिके का एक सुन्दर लेख प्रकाशित हुआहै । इस लेखको अनुमार ऊहापोह करने के बाद मैं इसी निर्णय महत्ता बतलानेके लिये इतना लिखना ही पर्याप्त पर पहुँच सका हूँ कि लेखकमहोदयका निष्कर्ष है कि सम्पादकने उसे प्रकाशित करनेमें अपने ठीक नहीं है, उन्हें अवश्य कुछ भ्रम हुआ है। पत्रका गौरव बतलाया है। गोम्मटसार और श्रीजय- नीचे उनके भ्रमका स्पष्टीकरण किया जाता है। धवलादि सिद्धान्त-प्रन्थों के आधार पर लेखक- सिद्धान्त-प्रन्थों में बतलाया है कि सभी नारकी महोदयने यह सिद्ध करनेका प्रयन किया है कि आर्य और तिर्यश्च नीचगोत्री होते हैं और सभी देव
और म्लेच्छ सब ही कर्ममूमिया मनुष्य उच्चगोत्री उचगोत्री होते हैं । अपने लेखके प्रारम्भमें लेखक. हैं। तथा चारों ही गतियोंका बटवारा ऊँच और महोदयने इस बातका चित्रण बड़े सुन्दर ढङ्गसे नीच दो गोत्रोंमें करते हुए लिखा हैं-'जिस किया है। उसके बाद उन्होंने इस बातके सिद्ध प्रकार सभी नारकी और सभी तिर्यश्च नीच गोत्री करनेका प्रयम किया है कि देवोंके समान मनुष्य भी हैं उसी प्रकार मभी देव और सभी मनुष्य उच्च- सब उच्चगोत्री हो हैं। इस बातका समर्थन करते गांत्री हैं, ऐसा गोम्मटसारमें लिखा है।' लेखक- हुए उन्होंने लिखा है-"गाम्मटमार-कर्मकाण्ड महोदयका विचार है कि अन्तरद्वीपजीको म्लच्छ गाथा नं. १८ में यह बात साफ तौरसे बताई गई मनुष्योंकी कोटिमें शामिल करदेनेस ही मनुष्योंमें है कि नीच-उचगांत्र भवोंके अर्थात् गनियांके आश्रित ऊँच-नीचरूप उभयगांत्रकी कल्पनाका जन्म हुआ है। जिससे यह स्पष्टतया ध्वनित है कि नरकभव है। अन्तरद्वीपजोंके सिवाय सब ही मनुष्य उच्च- और तिर्यश्चभवके सब जीव जिस प्रकार नीचगांत्री गोत्री हैं । इत्यादि, लेखक महादयका केवल हैं, उमी प्रकार देव और मनुष्यभव वाले सब जीव कल्पना ही उनके उक्त मन्तव्योंका आधार होती भी उचगोत्री हैं । यथा-'भवमस्सिय गीचच तो उन्हें व्यक्तिगत विचार समझकर नजरअन्दाज इति गाद ।। तत्वार्थसूत्र प. ८, सू० २५ की किया जासकता था, किन्तु यतः उन्होंने सिद्धान्त- प्रसिद्ध टोकाओंमें - सर्वार्थमिति, राजवार्तिक प्रन्योंका मथन करके उनके वाक्यों के आधार पर और लोकवार्तिकमें-देव और मनुष्य ये दो अपने मन्तव्योंकी सृष्टि की है, अत: एक अभ्यासी गतियां शुभ वा श्रेष्ठ और उच्च बताई हैं और नरक के नाते स्वभावतः मेरी यह जाननेकी रुचि हुई तथा तिर्यक ये दो गतियां अशुभ वा नीच, इमी
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अनेकान्त
[पौष, वीर निर्वाण सं० २४६५
कारण गोम्मटसार-कर्मकाण्ड गाथा २८५में मनुष्य सुनकर हमारे बहुतसे भाई चौंकेंगें।........"इस गति और देवगतिमं उमगोत्र का उदय बताया है।" कारण इसके लिये कुछ और भी प्रबल प्रमाण देनेइन पंक्तियोंके द्वारा लेखकमहोदयन बड़ी बुद्धि- की जरूरत है।" आइये, जरा प्रबल प्रमाणोंका मत्ताके साथ अपने अभिप्रायका ममर्थन किया है; भी सिंहावलोकन करें। किन्तु गोम्मटमार-कर्मकाण्डकी गाथा २८५ के आपने लिखा है-"श्री तत्वार्थसूत्रमें आर्य जिम अंश 'उच्चुदनी गाग्दवे को उन्होंने अपने और म्लेच्छ ये दा भेद मनुष्य जानिक बताये गये मतकं समर्थन में उपस्थिन किया है, मुझे खेद है कि हैं, अगर प्रबल शास्त्रीय प्रमाणोंमें यह बात सिद्ध वह उनके मनका समर्थक नहीं है क्योंकि-उदय- हा जाव कि म्लेच्छखण्डों के म्लेच्छ भी सब उन्नप्रकरणको प्रारम्भ करते हुए प्रन्थकारने कुछ गोत्री हैं तो आशा है कि उनका यह भ्रम दूर हो गाथाओंके द्वारा विशेष स्थानमं या विशेष अवस्था- जायगा । गोम्मटमार कर्मकाण्ड गाथा २६७ और में उदय पाने वाली प्रकृतियोंका निर्देश किया है। ३००के कथनानुसार नीच-गात्रका उदय पाँचवें उसी सिलसिले में उन्होंने बताया है कि उच्चगोत्रका गुणस्थान तक ही रहता है, इसके ऊपर नहीं । उदय मनुष्यगति और देवगतिमें होता है। उनके अर्थात ... ... नीच-गात्री पाँचवें गुणस्थानसे इस लेखका यह प्राशय कदापि नहीं है कि मनुष्य- ऊपर नहीं चढ़ सकता, छठा गुणस्थानी नहीं गति और देवगतिमें उच्चगोत्रका ही उदय होता है। होसकता और न सकलसंयम ही धारण कर यदि ऐसा आशय लिया जायगा तो उससे प्रन्थमें सकता है । .... .....''श्री जयधवल ग्रन्थमें स्पष्ट पूर्वापर विरोध होजायगा; क्योंकि आगे गाथा तौर पर सिद्ध किया है कि म्लेच्छ खण्डों के २६८में मनुष्यगतिमें उदययोग्य जो १०२ प्रकृतियाँ म्लेच्छ भी सकलसंयम धारण कर सकते हैंगिनाई हैं, उनमें नीचगांत्र भी सम्मिलित है । छठे गुणस्थानी मुनि-साधु हो सकते हैं। ....... ... अतः कर्मकाण्ड गा० २८५ से तो यह बात साबित इसके सिवाय, श्री लब्धिसारकी संस्कृतटोकामें नहीं होती कि 'सभी मनुष्य उच्चगोत्री हैं। भी ज्यों का त्यों ऐसा ही कथन मिलता है।"
मेरे विचारमें अपने उक्त प्रमाण ( गा० २८५) इसके बाद लेखकमहोदय ने जयधवला तथा श्री की कमजोरीको लेखकमहोदय भी अनुभव करते लब्धिसार की संस्कृतटीकासे प्रमाण उद्धृत किये हैं, तभी तो उन्होंने लिखा है-"सभी मनुष्य उच्च- हैं । व्यर्थमें लेखका कलेवर बढ़ाना अनुचित गोत्री हैं, ऐसा गोम्मटसारमें लिखा है, यह बात समझ कर+ यहाँ हम उन दोनों प्रमाणोंका केवल
+यह ठीक है कि उनमें नीच गोत्र भी सम्मिलित है; परन्तु मनुष्य गतिमें भी तो सम्मूछन मनुष्य तथा अन्तरदीपज मनुष्य सम्मिलित हैं, जिन्हें बा. सूरजमानजी ने अपने लेख में उच्च-गोत्री नहीं बतलाया है । उन्हीं में से किसीको लक्ष्य करके यदि यह नीचगोत्रका उदय बतलाया गया हो तो उस पर क्या आपत्ति हो सकती है, उस यहाँ स्पष्ट करके बतला दिया जाता तो अच्छा होता। -सम्पादक
+यहाँ प्रमाणों का ज्यों का त्यो उद्धृत कर देना अनुचित समझते हुए भी भागे चलकर (पृ. २०१ पर) उन्हें तोड़-मरोड़ एवं काट-छाँट के साथ उधत करना क्यों उचित समझा गया, इसके ठीक रहस्यको लेखकमहाशय ही समझ सकते हैं। -सम्पादक
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वर्ष २, किरण ३ ] क्या सिद्धान्त-प्रन्थोंके अनुसार सबही मनुष्य उच्चगोत्री हैं ?
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भावार्थ-लेखकमहोदयके हो शब्दोंमें - दिये रोजानोंको जीतकर अपने साथ भार्यखण्डमें देते हैं, जो इस प्रकार है-"म्लेच्छ भूमिमें लाया गया था और उनकी कन्याभोंका विवाह भी उत्पन्न हुए मनुष्योंके सकलसंयम कैसे हो सकता चक्रवर्ती तथा अन्य अनेक पुरुषों के साथ हो गया है, ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये क्योंकि दिग्वि. था, उन म्लेच्छ राजाओंके संयम प्रहण करने में जयके समय चक्रवर्ती के साथ आये हुए उन कोई ऐतराज नहीं किया जाता-मर्थात जिस म्लेच्छ राजाओंके जिनके चक्रवर्ती आदिके साथ प्रकार यह बात मानी जाती है कि उनको सकलवैवाहिक सम्बन्ध उत्पन्न हो गया है, संयमप्राप्ति- संयम हो सकता है उसी प्रकार म्लेच्छ खण्डोंमें का विरोध नहीं है; अथवा चक्रवादिके साथ रहने वाले अन्य सभी म्लेच्छ भार्यखण्डादव विवाही हुई उनकी कन्याओंके गर्भसे उत्पन्न पुरुषों- प्रार्योंकी तरह सकल-संयमके पात्र हैं। दूसग के, जो मातृपक्षकी अपेक्षा म्लेच्छ ही कहलाते हैं, दृष्टान्त यह दिया है कि जोम्लेच्छकन्याएँ चक्रवर्ती संयमोपलब्धिकी संभावना होने के कारण, क्यों- तथा अन्य पुरुषोंसे व्याही गई थीं उनके गर्भसे कि इस प्रकार की जातिवालों के लिये दीक्षा की उत्पन्न हुए पुरुष यद्यपि मातृपक्षकी अपेक्षा म्लेच्छ योग्यताका निषेध नहीं है।"
ही थे-माताकी जाति ही सन्तानकी जाति होती
है, इस नियमके अनुसार जाति उनकी म्लेच्छ ही श्री जयधवला और लब्धिसारके प्रमाणों का
थी-तो भी मुनिदीक्षा ग्रहण करनेका उनके वास्ते उक्त भावार्थ बिल्कुल अँचा तुला है। अत: उसके
निषेध नहीं है-वे सकल संयम ग्रहण कर सकते सम्बन्धमं कुछ कहनेकी आवश्यकता नहीं है, किन्तु हैं। इसीप्रकार म्लेच्छग्वण्डक रहने वाले दूसरे उसके आधार पर लेखकमहोदयने जो फलिनार्थ .
म्लेच्छ भी मकल-संयम प्रहगा कर मकते हैं। निकाला है, वह अवश्य ही नुक्ताचीनीकं योग्य है।
परन्तु मफल-संयम उच्चगांत्र ही ग्रहण कर मकते आप लिखते हैं "इन लेग्बों में श्री प्राचार्य
हैं, इस कारण इन महान पूज्य ग्रन्थोंक उपयुक महाराजने यह बात उठाई है कि म्लेच्छ भूमिमें
कथनम कोई भी मन्दह इस विषय। बाकी नहीं पैदा हुए जो भी म्लेच्छ हैं उनके मकल-संयम होने
रहना कि म्लेच्छम्वगडाके रहनेवाले ममी म्लेच्छ में कोई शङ्का न होनी चाहिये-सभी म्लेच्छ
उच्चगात्री हैं । जब कर्मभूगन म्लेच्छ भी सभी सकल-संयम धारण कर सकते हैं, मुनि हो सकते
उच्चगोत्रा हैं और अर्य तो वगात्री हैं हो, तब हैं और यथेष्ट धर्माचरण का पालन कर सकते हैं।
सार यही निकला कि कर्मभृमिक सभा मनुष्य उनके वास्ते कोई खास रोक-टोक नहीं है। अपने
उच्चगोत्री हैं और मकल-संयम ग्रहण करने की इस सिद्धान्तको पाठकोंके हृदय में बिठानेके वास्ते
योग्यता रखते हैं।" उन्होंने दृष्टान्तरूपमें कहा है कि जैसे भरतादिचक्रवर्तियों की दिग्विजयके समय उनके साथ जो लेम्बक महायर अपने प्रमाणोका जो भावार्थ म्लेच्छ राजा पाये थे अर्थात जिन म्लेच्छ म्वयं दिया है. समकं प्रमें उनके इम फलितार्थ
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म्लेच्छमात्र करना और 'सकल संयम कैसे हो सकता है ऐसी शंका नहीं करने' का अर्थ 'सकलसंयम होने में कोई शंका न होनी चाहिये' करना, अर्थका अनर्थ करना है। यदि 'ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये' ( इति नाशङ्कितव्यम् ) का अर्थ ' इसमें कोई शंका नहीं करनी चाहिये किया जायगा, तो शास्त्रीय जगत् में बड़ा भारी विव पैदा हो जायगा । शास्त्रकार अपने सिद्धान्तको पुष्ट करने के लिये उसमें संभाव्य शंकाओं का स्वयं उल्लेख करके उनका समाधान करते हैं। इस प्रकार उनके द्वारा जो शंकाएँ उठाई जाती है, वे उनका सिद्धान्त नहीं होतीं, किन्तु उनके सिद्धान्त में वे शंकाएँ की जा सकती हैं, इसीलिए उन्हें उनका समाधान करना पड़ता है । अब यदि 'इति I' शब्दका अर्थ 'ऐसी' के स्थान में 'इसमें' किया जाता है तो सिद्धान्तमें उठाई गई 'आशंका' स्वयं सिद्धान्तका रूप धारण कर लेती है, जैसा कि लेखक महोदयने आशंकाको ही सिद्धान्त बना दिया है। आशंका को ही सिद्धान्त मान लेने पर जो विसव
को जो कोई भी समझदार व्यक्ति पढ़ेगा, वह सिरधुने बिना न रहेगा। मुझे आश्चर्य है कि पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार जैसे सम्पादककी पैनी दृष्टि से बचकर यह फलितार्थ बिना टीका-टिप्पणीके कैसे प्रकाशित हो गया ? अस्तु लेखक महोदयका कहना है कि- "इन लेखों में आचार्य महाराजने यह बात उठाई है कि म्लेच्छ भूमिमें पैदा हुए जीभी म्लेच्छ हैं उनके सकल-संयम होने में कोई शंका नहीं करना चाहिये, समी म्लेच्छ मुनि हो सकते हैं, और अपने इस सिद्धान्तको पाठकोंके हृदयमें बैठाने के लिये उन्होंने दो दृष्टान्त दिये हैं । " किन्तु उनके भावार्थसे यह आशय नहीं निकलता । भावार्थ में तो 'म्लेच्छ भूमि में उत्पन्न हुए मनुष्यों के सकल-संयम कैसे हो सकता है, ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये लिखा है और लेखक महोदय उसका यह आशय निकालते हैं कि म्लेच्छ भूमिमें पैदा हुए जो भी म्लेच्छ हैं उनके सकलसंयम होने में कोई शंका नहीं होनी चाहिये, सभी म्लेच्छ मुनि हो सकते हैं । बहुवचनान्त 'मनुष्यों' का अर्थ
I श्री राजवार्तिक पृ० ४१ पर, सूत्र १- १३ की व्याख्या करते हुए, अकलङ्कदेव ने 'इति' शब्द के हेतु, एवम्, प्रकार, ब्यवस्था, अर्थविपर्यास, समाप्ति और शब्दप्रादुर्भाव, ये अर्थ किये हैं। इनमें 'ऐसा' अर्थका सूचक 'एवम्' शब्द तो वर्तमान है किन्तु 'इसमें ' अर्थका सूचक कोई भी शब्द नहीं है भतः 'इति' का 'इसमें ' भर्थ भ्रान्त है (लेखक) नोट - - बा० सूरजभानजीने 'इति' का साफ एवं स्पष्ट अर्थ 'ऐसी' दिया है, जैसा कि लेखकद्वारा उद्धृत उनके उस 'भावार्थ'' से प्रकट है जिसे लेखक "बिल्कुल जैचा - तुला" माना है। उसे व्यर्थ की खींचतान करके 'इसमें' अर्थ बतलाना लेखकका अनुचित प्रयास है | सम्पादक
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* यह ठीक है कि जो शंका उठाई जाती है वह सिद्धान्त नहीं होती; परन्तु जिस मान्यतामें उठाई जाती है और शंकाका समाधान करके उस मान्यताको दृढ़ करने रूप जो फलितार्थ निकाला जाता है वह सब तो समाधानकारकका सिद्धान्त होता है या इस पर भी कुछ आपत्ति है ? यदि इस पर कुछ आपत्ति नहीं और न हो सकती है, तो हमें सबसे पहले यह देखना चाहिये कि जयधवलामै वि.स मान्यताको सामने रखकर क्या आपत्ति कीगई है ? उसी पर से यह मालूम होसकेगा कि बाबू साहबने भाशंका को ही सिद्धान्त बना दिया है क्या ? लेखमें बाबू साहब द्वारा उद्धृत जयभवलाके "जा एवं कुदो तत्थ " यदि ऐसा है तो वहां अमुक बात कैसे बनती है— ये शब्द भी एक विचारकके लिये इस बातकी ख़ास आवश्यकता उपस्थित करते हैं कि वह पहले 'जह एवं ( यदि ऐसा है ) और 'तस्थ' ( वहाँ ) जैसे शब्दोंके वाक्यको मालूम करे और तब कुछ कहने अथवा लिखनेका साहस करे । अतः जय वला के उस पूर्व प्रकरणको मैं यहाँ उद्धृत कर देना चाहता हूँ। जयथवलके 'संजमलद्धि' नामक अनुयोगद्वार ( अधिकार )
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वर्ष २ किरण ३] - क्या सिद्धान्त-प्रन्थों के अनुसार सब ही मनुष्य उच्चगोत्री हैं !
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उपस्थित होगा, उसके एक दो उदाहरण इस ज सामगणं गहण, इत्यादि गाथाका व्याख्यान प्रकार हैं
करते समय एक वाक्या इस प्रकार है-"अविसं. श्रीधवल जीमें दर्शनोपयोगकी चर्चा में, सदूणम?' इति-अर्थात् अविशेष्य यद् महणं सद् में एक चूर्णिमूत्र देकर जो कुछ इसके पूर्व लिखा गया है वह सब इस प्रकार है
"अकम्मभूमियस्स पडिवज्जमाणस्स जहण्णयं संजमट्ठाणमणंतगुणं । (चू० सू० ) पुग्विलादो भसंखे. लोगमत्तछट्ठाणाणि उवरि गतूणेदस्स समुप्पत्तीए । को अकम्मभूमिओ णाम ? मरहेरावयविदेहेसु विणीतसण्णिदमज्झिमखंडं मोत्तण सेसपंचखंडविणिवासी मणुमो एस्थ 'अकम्मभूभिभो' त्ति विवक्खियो। तेसु धम्मकम्मपवुत्तीए असंभवेण तम्भावोववत्तीदो।"
___ इसमें सूत्रद्वारा अकमभूमिक मनुष्यके जघन्यसंयमस्थानको अनन्तगुणा बतलाकर और फिर उसकी कुछ विशेषताका निर्देश करके यह प्रश्न उठाया गया है कि 'भकर्मभूमिक' मनुष्य किसे कहते हैं ? उत्तरमें बतलाया है कि 'भरत, ऐरावत और विदेहक्षेत्रों में "विनीत' नामके मध्यमखण्ड (आर्य खण्ड) को छोड़कर शेष पाँच खण्डोंका विनिवासी (कदीमी वाशिंदा) यहाँ 'भकर्मभूमिक' इस नामसे विवक्षित है; क्योंकि उन पाँच खण्डोंमें धर्म-कर्मकी प्रवृत्तियाँ भसमव होनेके कारण उस भकर्मभूमिक भावकी उत्पत्ति होती है।
इसके बाद ही “जइ एवं कुदो तत्थ संजमगहणसंभवो?" नामका वह प्रश्न दिया गया है, जिससे बाबू साहबके लेखमै उद्धृत प्रमाणवाक्यका प्रारंभ होता है और जिसका अर्थ है--यदि ऐसा है-उन पाँच खण्डोंमें ( वहाँ के निवासियों में ) धर्म-कर्मकी प्रवृत्तियाँ असंभव है तो फिर वहाँ ( उन पाँच खण्डोंके निवासियोंमें ) संयम-ग्रहण कैसे संभव हो सकता है? और फिर, “त्ति णासंकणिज्ज" इत्यादि वाक्योंके द्वारा प्रश्नगत शंकाको निर्मूल बतलाते हुए, दो उदाहरणों को साथ लेकर-हतुकी पुष्टिमें दो उदाहरण देकर नहीं-विषयका स्पष्टीकरण किया गया है और यह बतलाया गया है कि किस प्रकार उन पाँच खण्डोंके मनुष्योंके सकलसंयम हो सकता है, जिसका स्पष्ट आशय यह है कि उन पाँच ग्वण्डोंके म्लेच्छ मनुष्यों में सकल-संयम-ग्रहणकी पात्रता तो है परन्तु वहाँकी भूमि उसमें बाधक है-वह भूमि धर्म-कर्मक अयोग्य है-और इसलिये जब वे चक्रवति भादिके साथ आर्यखण्डको भाजाते है तब यहाँ भाकर खुशीसे सकलसंयम धारण कर सकते है। उनकी इस संयमप्रतिपत्ति भोर स्वीकृतिमें कोई विरोध नहीं है।
ऐसे कथन और स्पष्टीकरणकी मौजूदगीमें कोई भी विवेकी मनुष्य यह कल्पना नहीं कर सकता कि शंकाको निर्मूल बतलाने वाले प्राचार्य महोदयका वह सिद्धान्त नहीं है जो उक्त सूत्र में उल्लेखित हुआ है अथवा वह उनकी मान्यता नही है जिसको उन्होंने अपने समाधान-द्वारा स्पष्ट और पुष्ट किया है। और इसलिये शास्त्री जी ने जयधवलकी ऐसी स्पष्ट बातके विरोधमें जो कुछ लिखनेका प्रयत्न किया है वह सब उनकी विचारशीलताका द्योतक नहीं है। उन्हें ऊपरका सारा प्रसंग मालूम होने पर स्वयं हो अपनी इस व्यर्थकी कृतिके लिये खेद होगा--इसके लिये पछताना पड़ेगा कि 'इति' शब्दका अर्थ बाबू साहबके 'भावार्थ' में साफ तौर पर 'एसी' दिया होने पर भी खींचतान-द्वारा उसे जो 'इसमें' अर्थ बतलाया गया था उससे भी अपने अभीष्टकी अथवा आचार्यमहोदयके उस सिद्धान्त-मान्यताके प्रभावको सिदि न हो सकी-और यदि सद्भावना अथवा सदाशयता का तकाज़ा हुभा तो लेखमें बा० सूरजभानजीके लिये जिन अोछे शब्दोंका प्रयोग किया गया है, उनके फलितार्थको पढ़कर सिर धुने बिना न रहने भादि की जो बात कही गई है और उन्हें वृद्धावस्थामें अत्याचार न करने का जो अप्रासंगिक एवं अनधिकृत परामर्श दिया गया है उस सबको वापिस मो लेना पड़ेगा।
मुझे खेद है कि शास्त्रीजीने बाबू सूरजमानजीके फलितार्थको यों ही कदर्षित करनेकी धुनमै दो तीन उदाहरणों के द्वारा अपने खण्डनको जो भूमिका बाँधी है अथवा उसे विशद करनेकी चेष्टा की है उसमें सत्यसे काम न लेकर कुछ बलसे काम लियाहैउन उदाहरणों की पंक्तियोंके साथ प्राशंकित सिद्धान्तकी मान्यतादिके सूचक “जब एवं कुदो तस्थ" जैसे शब्दोंक वाचक कोई शब्द नहीं है-न उन्हें तुलनाके लिये रखा गया है-फिर भी उन वाक्योंकी तुलना जयधवलके वाक्यसे की गई है और इस तरह असंगत उदाहरणों-दारा ग़लत अर्थका प्रतिपादन करके अपने पाठकों को जान बूझ कर भुलावे तथा भ्रममें डाला गया है!! सदिचारकोंके द्वारा ऐसा अनुचित कस्य न होना चाहिये--वह उनको शोमा नहीं देता। -सम्यादक
I धवल की दर्शनविषयक चर्चाका कुछ अंश मेरो नोटबुकमें उद्धृत है, उसी परसे यह वाक्य दिया गया है।
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दर्शनम्, इति न 'बाघार्थगतसामान्यग्रहणं दर्श- अनुमान दिया है। उसको निर्दोष सिद्ध करते हुए नम्' इति आशंकानीयम् , तस्यावस्तुनः कर्म- उन्होंने लिखा है-“साध्यसाधनविकल मुदाहरणम् स्वाभावात् ।" इसमें बतलाया है कि-बाह्यमर्थकी इति च न शकुनीयम् , पद्ममध्यगतस्य भृङ्गस्य विशेषता न करके जी ( स्वरूपका ) ग्रहण होता तगन्धलोभकषायहेतुकत्वेन तत्संकोचकाले पारहै उसे दर्शन कहते हैं। अतः 'बाय अर्थक सामान्य तंत्र्यानपेक्षिणः प्रसिद्धत्वात'। इस लेखमें प्रन्थकार
आकारके प्रहण करनेको दर्शन कहते हैं। ऐमी ने बतलाया है कि क्यों उनका उदारण साध्यविकल शङ्का नहीं करनी चाहिये, क्योंकि (केवल) सामान्य और साधनविकल नहीं है। यहां परभी 'उदाहरण अवस्तु है अत: वह ज्ञान का विषय नहीं हो साध्य और साधनस विकल है, ऐसी शङ्का न सकता। यहां पर 'बाह्य अर्थ के सामान्य आकारके करनी चाहिये' का अर्थ यदि लेखकमहोदयके मता. प्रहण करनको दर्शन कहते हैं, ऐसी शङ्का न करनी नुसार किया जाय तो कहना होगा कि-'उदाहरण चाहिय' इस वाक्यका अर्थ यदि लेखकजीके साध्य और साधनसे विकल है. इस बातमें कोई मतानुसार किया जाय तो वह इस प्रकार होगा- शङ्का नहीं करनी चाहिये, अर्थात उदाहरण साध्यसे 'इस वाक्यमें श्री प्राचार्य महाराजने यह बात भी शून्य है और साधनसे भी, और यह बात उठाई है कि 'बाह्य अर्थके सामान्य आकारके इतनी सुनिश्चित है ? कि उसमें किसी सन्देहको भी प्रहण करनेको दर्शन कहते हैं। इस सिद्धान्तमें स्थान नहीं है। क्या खूब रही, बेचारे विद्यानन्दजी किसीको भी शङ्का नहीं कहनी चाहिये, अर्थात का अपने ही अनुमानको समर्थन करनेका प्रयास बाह्य अर्थ के सामान्य आकारके ग्रहण करनेको ही उसका घातक बन बैठा। इस ही कहते हैं अपने दर्शन कहते हैं। बेचारे प्रन्थकार दर्शनके जिस हाथों अपना घातक । अस्तु। प्रचलित अर्थका निराकरण करना चाहते थे, वही लेखकमहोदयका कहना है कि-'अपने इस उनका सिद्धान्त बना जाता है । अस्तु; दूसरा सिद्धान्तको पाठकों के हृदय में बिठानेके वास्ते उन्होंने उदाहरण यहाँ यद्यपि तत्त्वार्थ-श्लोकवार्तिकसं दो दृष्टान्त दिये हैं। । किन्तु उनका यह कथन भी दिया जाता है, किन्तु वह इतना प्रचलित है कि बिल्कुन्त असङ्गत है; क्योंकि जिन दो प्रकारों दर्शन और न्यायका शायद ही कोई प्रन्थ ऐसा (तरीकों) के द्वारा प्रन्थकारने म्लेच्छ जीवोंमें हो जिसमें वह वर्तमान न हो । सूत्र ६-४, की सकलसंयम होसकनेका निर्देश किया है, वे दोनों व्याख्यामें भी विद्यानन्दने संसारी जीवकी पर. प्रकार उदाहरणरूपमें नहीं हैं। शिक्षित पाठकोंसे तन्त्रताको कषायहेतुक सिद्ध करनेके लिये एक यह बात अज्ञात नहीं है कि संस्कृतमें उदाहरण
* खेद कि लेखकजीने जयपवला के उस मूल तुलना-वाक्यमें प्रयुक्त हुए 'जा एवं कुदो तस्थ' जैसे शब्दों के बायको छिपाकर खुद ही तो भी विद्यानन्दजी के वाक्यको गलत रूपमें जयपवला के वाक्यके साथ तुलनाके लिये प्रस्तुत किया और फिर
खुद ही ऐसी सदोष तुलनाके माधार पर विद्यानन्दजीका मखौल उड़ाने बैठ गये ! यह उचित नहीं है। इसी प्रकारका भनौचित्य पिछले तथा भगले उदाहरणके प्रयोगमै भी पाया जाता है। -सम्पादक
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वर्ष २, किरण ३ ]
क्या सिद्धान्त-प्रन्थोंके अनुसार सबही मनुष्य उचगोत्री हैं ?
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या दृष्टान्त का निर्देश करनेके लिये 'यथा' 'इव' का जो उत्तर दिया जायगा वह आशंका न करने
आदि शब्द तथा 'वत्' प्रत्ययका निर्देश किया में हेतु बतलाएगा। इसीसे लेखकमहोदयने अपने जाता है, तथा हिन्दी में 'यथा' 'जैमा' 'तरह' आदि प्रमाणोंका जो भावार्थ दिया है, उसमें लिया हैशब्दों का निर्देश किया जाता है। किन्तु लेखक- 'म्लेन्छभूमिमें उत्पन्न हुए मनुष्योंके सकल-संयम गहादयके द्वारा दिये गये भावार्थमें और उसके कैसे हो सकता है, ऐमी शंका नहीं करनी चाहिये मुलभूत जयधवला और लब्धिमारकी टीकाके क्योंकि .. ।' न्यायशास्त्र के सम्पर्क में आने वाले प्रमाणों इम तरह का कोई शब्द नहीं है। दोनों पाठक जानते ही हैं कि अनुमानमें प्रतिज्ञाक बाद प्रमाणों में विगहाभावादो', 'संयमप्रतिपत्तेर विरा- हेतु और हेतुके बाद उदाहरणका प्रयोग किया धन' और 'संयमसंभवात्' शब्दों की पञ्चमी जाता है । प्रतिज्ञाके बाद-विना हेतुप्रयोगकविभक्तिसे स्पष्ट है कि जिन दो वाक्यों की लेखक- उदाहरण कोई विज्ञ पुरुष नहीं देता । जयधवला महादय दृष्टान्तपरक बतलाते हैं, वे दोनों हतुपरक और लब्धिसार-टीकाकं प्रमाण और उनके भावार्थ है; क्योंकि हेतुगं पञ्चमी विभक्ति हाती है । लेखक- में 'नाशंकितव्यम्' और 'ऐमी शक्का नहीं करनी महादयके द्वारा निकाले गये फलितार्थको दृषित चाहिये' तक ती प्रतिज्ञा-वाक्य है और उसके बाद करने के लिये ऊपर श्री धवलजी और तत्त्वार्थश्लाक- जो दो वाक्य हैं वे दोनों हेतुपरक हैं, वहां दृष्टान्त वार्तिकसं जो दो वाक्य दिये गये हैं, पाठक देखेंगे की तो गन्ध तक भी नहीं है। यदि उन वाक्यों में कि उनमें भी 'आशङ्कनीयम् और नशंकनीयम्' दृष्टान्त भी दिया होता तो उनकी रचना इस के बाद जो वाक्य हैं वे भी पञ्चम्यन्त, अतएव प्रकारमं होनी चाहिये थी - 'ऐसी शङ्का नहीं हेतुपरक हैं। यदि उन वाक्यों को भी दृष्टान्तपरक करनी चाहिये, क्योंकि म्लेच्छभूमिमें उत्पन्न हुए मान लिया जाय तो उनके पूर्ववर्ती वाक्योंका जीवोंके सकलसंयमका विरोध नहीं हैं। जैसे, अर्थ लेखकमहोदयके मतानुमार करनेसे होनेवाली दिग्विजयकं ममय चक्रवर्ती आदिके साथ आये गड़बड़ीमें जो थोड़ी बहुत कमी रह गई थी, हुए उन म्लेच्छ राजाओं के, जिनके चक्रवर्ती उसकी पूर्ति होजायगी। असल में यदि किमीस आदिके साथ वैवाहिक सम्बन्ध उत्पन्न होगया है, कहा जाय कि 'ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये', संयमका विरोध नहीं है । अथवा, जैम, चक्रतो वह तुरन्त प्रश्न करेगा-क्यों ? और इम क्यों वादिकं साथ विवाही हुई उनकी कन्याश्रांक
__ * "म्लेच्छभूमि जमनुष्याणां सकलसंयमग्रहणं कथं भवतीति नाश कितव्यम् , दिग्विजयकाले चक्रवर्तिना सह आर्यखण्डमागतानां संयमप्रतिपत्तेरविरोधात् । अथवा, तत्कन्यकानां चक्रवर्त्यादिपरिणीतानां गर्मे पूरपन्नस्य मातृपक्षापेक्षया म्लेक्ट्रव्यपदेशमाज: संयमसम्भवात् । तथाजातीयकानां दीक्षाहत्वे प्रतिषेधाभावात्।" लब्धिसार टीका, गाथा १९५ । ( लेखमें १९३ अशुद्ध छपा है) जयधवलाके प्रमाण में थोड़ा सा अन्तर है। उसमें लिखा है-'मिलेछण्याणं तत्थ चकवट्टि भादीसिह जादवेवाहियसंबंधाणं संजमपरिवत्तीए विरोहामावादो ( जयधवलामें इस पंक्तिके पूर्व ये शब्द भी दिये हुए हैं, जिनका यहाँ छोड़ा जाना तथा जयधवलाके प्रमाणको पहले न देकर बाद को खण्डित रूप में देना कुछ अर्थ रखता है-“जह एवं कुदो तत्थ संजमगाणसंभवो त्ति णासकपिज्ज। दिग्विजयट्टि चक्रवट्टिरवधावारेण सह मज्जिमखंडमागया।" -सम्पादक )।
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अनेकान्त
[पौष, वीर नि० सं० २४६५
गर्भमें उत्पन्न हुए पुरुषों के सकलसंयमका विरोध संयम धारण कर सकती है। इस शंका-समाधाननहीं है'। टीकाकारने चक्रवर्तीके साथ आये हुए से यही ध्वनित होता है कि म्लेच्छभूमिमें उत्पन्न म्लेच्छ राजाओंके तथा चक्रवर्ती श्रादिका विवाही हुए पुरुषों के आमतौर पर संयमका विधान नहीं गई म्लेच्छकन्याओंके गर्भसं उत्पन्न हुए पुरुषोंके था, अत: टीकाकारको उक्त शङ्कासमाधानके द्वारा सकलसंयम धारण कर सकनेको उदाहरणरूपमें यह बतलाना आवश्यक प्रतीत हुआ कि किन-किन उपस्थित नहीं किया है, किन्तु हेतुरूपमें उपस्थित म्लेच्छपुरुषोंक सकलसंयभ होसकता है। भावार्थकिया है। इसके स्पष्टीकरणके लिये, हमें एकबार की अन्तिम पंक्ति-इम प्रकारकी जातिवालोंके अपना ध्यान लब्धिसारकं उस प्रकरण की ओर लिये दीक्षाकी योग्यताका निषेध नहीं है ( तथालेजाना होगा, जिसमें उक्त वाक्य पाया जाता है। जातीयकानां दीक्षाहत्वे प्रतिषेधाभावात्)-से यह ___ लब्धिसारके जिस प्रकरणमें गाथा नं० १९५ बात बिल्कुल स्पष्ट होजाती है। क्योंकि इसमें स्पष्ट वर्तमान है, जिसकी टीकाके एक अंशको प्रमागा- रूपसे बतलाया है कि इस प्रकारकी जातिवालोंक, रूपमें उद्धृत किया गया है, उस प्रकरणमें म्लेच्छ अर्थात जिन म्लेच्छराजाओंका चक्रवर्ती आदिक पुरुषोंक भी संयम-स्थान बतलाये हैं। उसी परसे साथ वैवाहिक आदि सम्बन्ध होगया है, तथा टीकाकाग्ने यह प्रश्न उठाया है कि म्लेच्छभूमिमें चक्रवती आदिक साथ विवाही हुई म्लेच्छउत्पन्न हुए जीवोंके सकलसंयम कैसे हो सकता कन्याओंसे जो सन्तान उत्पन्न होती है, उनके है ? और उसका समाधान दो प्रकार किया है। दीक्षाका निषेध नहीं है । इस वाक्यसे यह निष्कर्ष एक तो यह कि जो म्लेच्छराजा चक्रवर्ती के साथ निकलता है कि अन्य म्लेच्छोंके दीक्षाका निषेध आर्यग्वण्डमें आजाते हैं और जिनका चक्रवर्ती है। यदि टीकाकारको लेखक महोदयका सिद्धान्त मादिके साथ वैवाहिक श्रादि सम्बन्ध होजाता है, अभीष्ट होता तो उन्हें दो प्रकारकं म्लेच्छोंके संयमवे सकलसंयम धारण कर सकते है, और इस का विधान बतलाकर उसकी पुष्टि के लिये उक्त प्रकार म्लेच्छ पुरुषों में भी संयमके स्थान होसकते अन्तिम पंक्ति लिखनेकी कोई आवश्यकता हो हैं। दूसरा यह कि चक्रवर्ती जिन म्लेच्छ कन्याओं नहीं थी। क्योंकि वह पंक्ति उक्त सिद्धान्त-सभी सं विवाह करता है, उनकी सन्तान मातृपक्षकी म्लेच्छ सकलसंयम धारण कर सकते हैं-के अपेक्षासं म्लेच्छ कहलाती है, और वह सन्तान विरुद्ध जाती है।
• यदि तथा जातीयकानां' पदसे लेखक महाशयको म्लेच्छोंको दो जातियों का ग्रहण अभीष्ट है-एक तो म्लेक्ष कन्याओंसे भार्य पुरुषों के संयोगदाग उत्पन्न हुए उन मनु योका जाति जिन्हें भाप लेग्वमें हो भागे ‘परम्परया मलेच्छ' लिखते हैं और दूसरी म्लेच्छ वण्डोंसे भार्यविण्डको भाए हुए साक्षात् म्लेच्छों की जाति, तब चूंकि मार्य खण्डको भाए हुए साक्षात् म्लेच्छोंकी जो जाति होती है वही जाति म्लेच्छ खण्टी उन दूसरे म्लेच्छों की भी होती ओ आर्य खण्डको नहीं पाते हैं, इसलिये साक्षात म्लेच्छ जाति के मनुष्यों के सकल-संयमके ग्रहण की पात्रता होनेसे म्लेच्छ खण्डोंमें भवशिष्ट रहे दूसरे म्लेच्छ भी सकलसंयमके पात्र ठहरते हैकालान्तरमें वे भी अपने भाई-बन्दों के साथ भार्य खण्डको भाकर दीक्षा ग्रहण कर सकते है। दिग्विजयके बाद भार्य-म्लेच्छखण्डों में परम्पर भावागमनका मार्ग खुल ही जाता है। और इस तरह सकलसंयम-गृहखकी पात्रता एवं संभावनाके कारण म्लेच्छ खण्डोंके सभी मलेच्छों के उन गोत्री होनेसे बाबू सूरजभानजीका वह फलितार्थ अनायास ही सिद्ध होजाता है, जिसके विरोधमैं इतना अधिक द्राविडी प्राणायाम किया गया है !!
-सम्पादक
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अप: किरण ३]
क्या सिद्धान्तग्रन्थों के अनुमार सब ही मनुष्य उचगोत्री हैं ?
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म्लेच्छ पुरुपोंके संयमके स्थान बतलानेके ने जो आशय निकाला है वह सर्वथा भ्रान्त है। लिए जो दो प्रकार बतलाये गए हैं, उनके मध्यमें अत: उनके आधार पर सभी मनुष्योंको उच्चगोत्री पड़ा हुआ अथवा' शब्द भी ध्यान देने योग्य है। नहीं माना जा मकता। नीचे इसीके सम्बन्धमें गथवा'* शब्द एक वियोजक अव्यय है, जिसका एक और भी उदाहरण देकर इम चर्चाको समान प्रयोग वहाँ होता है जहाँ कई शब्दों या पदों से किया जायगा। कि.मी एकका ग्रहण अभीष्ट हो। ममुशयकारक सर्वार्थसिद्धि श्र० १. सू० ७ की व्याख्यामें नया' आदि शब्दोंका प्रयोग न करके 'अथवा' एक वाक्य निम्न प्रकार है-"श्रीपमिकमपर्यामसन्द का प्रयोग करने में कोई विशेष हेतु कानां कथम, इतिचेन , चारित्रमोहोपशमन सह अवश्य होना चाहिये। मैं ऊपर लिख आया हूँ मृतान्प्रति ।" इसमें शङ्का की गई है कि अपर्याप्तकों चि, म्लेच्छ पुरुपोंके मकलसंयमके स्थान किम के श्रीपशमिक सम्यक्त्व किस प्रकार हो सकता प्रकार हो सकते हैं, यह टीकाकारने बतलाया है और उसका समाधान किया गया है कि चारित्रऔर उसके दो प्रकार बतलाये हैं। मरी दृष्टिम मोहनीयका उपशम करके जो जीव मरगको प्राप्त जिन लोगोंके जहन में यह बात समाना कठिन होते हैं, उनके अपर्यातक दशामें श्रीपशमिक जनीन हुई कि चक्रवर्ती आदिके साथ श्राये हुए सम्यक्त्व हो सकता है। इस वाक्यकी रचना म्नेच्छगज मकलमंयम धाग्गा कर सकते हैं. उन लब्धिसार-टीकाके उक्त प्रमाणकी तरह भी की लोगोंको दृष्टिमें रग्बकर प्राचार्य महागजने जा सकती है, जो इस प्रकार होगी-"औपशभिकम्लेच्छों में संयमके स्थान हा मकनेका दृमग प्रकार मपर्याप्त कानां कथं भवतीति नाशंकितव्यम, चारित्रबतलाया है। पहले प्रकार में ना विशिष्ट दशामें माहोपशमन मह मृतानां तत्मत्वाविगंधान ।" मानात म्लेच्छोंक मकलमंयम हा मकनकी बात इसकी रूपरंग्वाम थोड़ासा श्रन्तर हो जाने पर भी कही है. किन्तु इमर में परम्परया म्लेच्छोंक, सर्वार्थसिद्धिकी मूल पंक्ति और उसके इस परिअर्थात प्रार्य सुरुप और म्लेच्छ कन्यास उत्पन्न हुए वनित म्पके अर्थमें कोई नर नहीं पड़ता। पुरुषांक, जा यदापि पितृवंशकी अपेक्षा आर्य ही इसका भावार्थ इम प्रकार है.--'अपर्यात कोंके है. किन्तु मातृवंशकी अपेक्षा म्लेच्छ है, मकल औषमिक सम्यक्त्व कैसे हो सकता है, ऐसी संयमका विधान किया है। यदि मंरा दृष्टिकोण शङ्का नहीं करनी चाहिए क्योंकि चरित्रमोहनीयका ठीक है तो 'अथवा' शब्दस भी उक्त सिद्धान्त- उपशम करके मरणकोप्राय हा जीवांक ओपमिक सभी भन्छ मकलसंयम धारण कर सकते हैं- मम्यक्त्वक होने में कोई विरोध नहीं है।' इम का बण्डन होता है।
भावार्थ का श्राशय यदि लेखक महादयके दृष्टि इस विस्तृत विवेचन यही निष्कर्ष निकलता कोणसे निकाला जाए तो वह इस प्रकार होगाहै कि सिद्धान्त-प्रन्योंकि वाक्यांस लेखकमहादय- 'इम पंक्रिम प्राचार्य महागजने यह बान बनलाई संक्षिप्त हिन्दी शब्दसागर, पृ. ३७
है कि जो भी अपर्याप्तक जीव हैं, या जो भी
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अनेकान्त
पोप, वीर-निर्वाण सं० २४६५
अपर्याप्तक देव हैं क्योंकि उक्त पंक्तिका सम्बन्ध म्लेच्छ होते हैं । तत्त्वार्थ सूत्रकी टीकाओंमें* श्रार्य देवगतिस है-उनके श्रीपमिक सम्यक्त्व होने के पाँच भेद किए हैं--क्षेत्रार्य, जात्यार्य, कर्माय. कोई शङ्खा नहीं करनी चाहिए, सभी अपर्याप्तकों चारित्रार्य और दर्शनार्य । जो काशी, कोशल आदि के औपशामक मम्यक्त्व हो सकता है। और अपने आर्यदेशोंमें उत्पन्न हुए हैं, वे क्षेत्र आर्य हैं। जो इम सिद्वान्तको पाठकोंक हृदय बिठाने के लिए इक्ष्वाकु आदि श्रार्यवंशमें उत्पन्न हुए हैं वे जाति उन्होंने दृष्टान्तम्पमें कहा है कि जैसे चारित्रमोह- आर्य है। जो असि, मास, कृपि, विद्या, शिल्प नीय कर्मका उपशम करके मरणको प्राप्त होनेवाले और वाणिज्यके कार्योको करते हैं तथा जो यजन. जीवोंके औपशभिक मम्यक्त्व होनमें कोई विरोध अश्वताम्बरसम्मत उमास्वातिके भाज्यमें आयपुरुपांक नहीं है अर्थात जिम प्रकार उन जीवकि औप- ६ भेद बतलाए हैं-होत्रार्य, जात्याय, कुलाय, कमार्य मिक सम्यक्त्व माना जाना है, उसी प्रकार सभी शिल्यार्य और भापार्य । १५ कर्मभूमियोंमें, उनमें भी अपर्याप्तकोंके औपशामक सम्यक्त्व हो सकता है।' भरत और ऐरावत क्षेत्रके साड़े पञ्चीस साड़े पच्चीस इम आशयस सार्थसिद्धिकारक मतका तो कचूमर आयदेशीम और विदेहक्षेत्रके १६० विजयों में निकल ही जाता है, माथ ही साथ जैनसिद्धान्तकी (पिछली बात 'श्राया म्लेच्छाश्च' सूत्र के कई मान्यताओंकी भी लगे हाथों हत्या हो जाती उक्त भाज्यमें तो नहीं पाई जाती.-सम्पादक ) है। अतः इस प्रकार के प्राशयको दुगशय कहना ही जो मनुष्य पैदा होते हैं व नवार्य हैं। प्रशापनामत्रमें उपयुक्त होगा। और दुगरायसे जो निष्कर्ष निकाला भरतनं बके साढ़े पश्चीम देशों के नाम इस प्रकार गिनाए जाना है वह कभी भी तात्त्विक नहीं हो सकता। है-मगध, अङ्ग, बङ्ग, कलिङ्ग, काशी, कोसल, कुरु. अतः सिद्धान्त-प्रन्थोंके आधार पर तो यह बात कुशावर्त, पाञ्चाल. जङ्गल. मुराष्ट्र, विदेह. वत्स साबित नहीं होती कि सभी मनुष्य उच्चगोत्री हैं। (कौशाम्बी) शाण्डिल्य, मलय, वत्स (वैराट पुर). वरण. तथा श्रीविद्यानन्द स्वामीके मतसं भी यह बात दर्शाण, चेदि. सिंधु-सौवीर, शूरसेन, भग, पुरिवर्ता, प्रमाणित नहीं होती।
कुणाल, लाट, और प्राधा केकय । जो इक्ष्वाकु, विदेह
हरि, ज्ञात, कुरु, उग्र आदि वंशों में पैदा हुए हैं. वे लेखक महोदयने श्रीविद्यानन्द स्वामीके मतसे जात्यार्य है। कुलकर. चक्रवती, बलदेव, वासुदेव, तथा भी यह सिद्ध करनेकी चेष्टा की है कि सभी मनुष्य अन्य जो विशुद्ध कुलमें जन्म लेते हैं वे कुलार्य है। उचगोत्री हैं। स्वामी विद्यानन्दने अपने श्लोकवार्तिक यजन, याजन, पठन, पाठन, कृषि, लिपि, वाणिज्य, (अ०३मू०३७)में आर्य और म्लेच्छकी परिभाषा करते आदिसे आजीविका करने वाले कर्म-आर्य है । बुनकर, हए लिम्बा है-उबैत्रिोदयादेगर्याः, नीचैर्गोत्रोद- नाई, कुम्हार वगैरह जो अल्प आरम्भवाले और यादेश्च म्लेच्छाः ।" अर्थात उच्चत्रिके उदयके साथ अगर्हित आजीविकासे जीवन पालन करते हैं, वे साथ अन्य कारणोंके मिलनेसे आर्य और नीच शिल्पाय हैं। जो शिष्ट पुरुषोंके योग्य भाषामें योनगोत्रके उदयके साथ अन्य कारणोंके मिलनेसे चाल श्रादि व्यवहार करते हैं, वे भाषार्य है । ले०
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वर्ष २ किरण ३]
क्या सिद्धान्तग्रन्थों के अनुसार सब ही मनुष्य उच्चगोत्री हैं ?
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याजन, अध्ययन, अध्यापन आदि धर्माचरणमें यदि उन्हें म्लेच्छ ही बतलाना था तो आर्यके भेदों संलग्न रहते हैं, ऐसे अव्रती, देशव्रती और महा- में कार्य भंद रखनेकी क्या आवश्यकता थी।
नी कर्म-आर्य हैं। जो उत्कृष्ट चरित्रका पालन तथा ऐसी अवस्थामें भारतवर्षके किसी भी खण्ड करते हैं वे चारित्र-आर्य हैं और सम्याट दर्शन- को म्लेच्छखण्ड कहना ही अज्ञानता है; क्योंकि
आर्य हैं । लेखकमहोदयका कहना है कि-"असि जब वे सभी प्रार्य हैं और इसीलिए उचगांत्री भी ममि आदि कर्म क्षेत्र-आर्य और जाति-आर्य
है, तो फिर बेचारोंको इस बेहूद नामसं पुकारने ना करते ही हैं, तब ये कर्म आर्य म्लेच्छ खण्डोंमें
की वजह ही क्या है ? आर्योंकी तरह ही वे सब सकल रहनेवाले म्लेच्छ ही हो सकते हैं, जो आर्योके
संयम धारण कर सकते हैं, उन्हींकी तरह कृषि ग्यमान उपयुक्तकर्म करने लगे हैं, इमीस कर्म आर्य
आदि कार्य करके अपना उदरपोपण करते हैं कहलाते हैं। ये कर्म-आर्य श्रीविद्यानन्दके मतानुसार और सभी उच्च गात्री भी हैं । विदानन्द म्लेच्छोंके उञ्चगोत्री हैं, क्योंकि विद्यानन्दजीने पार्योक उच्च- नीचगांत्रका उदय बनलाते हैं और म्लेच्छ गोत्र का उदय बतलाया है। इस प्रकार विद्यानन्द
र विद्यानन्द- पण्डोद्भवलेच्छोंको म्लेकर बतलाते हैं, फिर भी म्वामीके मनानमार भी यही परिणाम निकलता
उनके मतसं मभी मनुष्य उच्चगोत्री सिद्ध हो जाते है कि अन्तरद्वीपजोंके मिवाय सभी मनुष्य उच्च
हैं, यह एक अजीव पहेली है। अमल में लेखक गोत्री हैं।" यहाँ यह बतलादना जरूरी है कि
महोदयको पहले की ही तरह गहरा भ्रम हो गया स्वामी विद्यानन्दने मलेच्छोंके अन्त:पज और कर्म
है और उसका एक कारण कार्यकी समस्याको भूमिज इस प्रकार दो भेद किए हैं और यवन
न सुलझा सकना भी ज्ञात होता है । अत: उनके आदिको कर्मभूमिज म्लेच्छ बनलाया है। नथा
इसभ्रमको दूर करने के लिए इस समस्याको लग्बक महोदयने स्वयं इम बानको लिया है कि
मुलझाना आवश्यकप्रतीत होता है। श्रीविद्यानन्द आचार्यने यवनादिकको म्लेच्छखण्डोद्भव म्लेच्छ माना है। इसपर लेग्यकमहोदय
कार्य कौन हैं ? से मंग नम्र प्रश्न है कि यदि म्लेच्छग्यण्डोंमें उत्पन्न हुए म्लेच्छ ही कार्य हैं तो विद्यानन्द. मैं उपर बतला पाया है कि प्राचार्योंने आर्य प्रमुग्व ग्रन्थकागने उन्हें मलेच्छोंके भदाम क्यों पुरुषोंके पाँच भेद गिनाये हैं और म्लेच्छ पुरुपोंक गिनाया ? या तो उन्हें प्रायकि भेदाम से कार्य दो-अन्तीपज और कर्मभूमिज । भरत, गेग. भेद निकाल देना चाहिए था, या फिर म्लेच्छों वत और विदेह कर्मभूमियाँ है, अर्थात कर्म भूमिमंदामें कर्मभूमिज मलेच्छ नहीं गिनाना चाहिए में केवल भार्यग्बगड या म्लेच्छखण्तु ही मम्मिथा। क्योंकि जब म्लेच्छखण्डोद्भव म्लेच्छ आर्य लित नहीं है, किन्तु आर्य और म्लेच्छ दोनों ही के भदोंमें ही अन्न न हो जाते हैं. तो उन्हें भूमियाँ मम्मिलित हैं। ऐसी परिस्थितिमें म्लेच्छोंन्लेच्छोंमें गिननेकी क्या आवश्यकता थी, और के अन्तीपज और म्लेच्छग्यण्डोव भेद न
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अनेकान्त
करके अन्तईपिज और कर्मभूमिज भेद करना निरर्थक प्रतीत नहीं होता। अर्थात म्लेच्द्रखण्डोद्भबके स्थान में कर्मभूमिज भेद रखने से ऐसा प्रतीत होता है कि म्लेच्द्रखण्ड के बाहिर भी म्लेच्छ पाये जाते हैं और अतभूत करने के लिये ही म्लेच्छोक भेदोंमें कर्मभूमिज भेद गिनाया है । अब देखना यह है कि क्या शास्त्रों यह बात प्रमाणित होती है कि आर्यवण्डमें भी म्लेच्छ रहते हैं ? इसके लिये सबसे पहले तो जयधवला और लब्धिसार-टीकाके उन प्रमागोंपर ही ध्यान देना चाहिये, जिन्हें लेखक महोदय ने अपने लेखमें उद्धृत किया है। उनमें स्पष्ट लिखा है कि चक्रवर्ती आदिके साथ बहुत आर्यखण्ड-मद्र रहते थे। में जाते हैं और का यहाँ के लोगों के साथ वैवा हिक आदि होजाता है। अथति वे आर्य
इस लेख से भी यह
स्वगत में आकर बसते हैं और यही रीति-रिवाजों को अपना लेते हैं । तथा श्रादिपुराण, पर्व ४२
में, भरत महाराजने राजाओं को उपदेश देते हुए म्लेच्द्रखण्डोइसा म्लेच्छा अन्तरद्वीपायपि
कहा है
“स्वदेशेऽनक्षरम्लेच्छान्प्रजात्रायाविधायिनः । कुलशुद्धिप्रदानायैः स्वसात्कुर्यादुपक्रमैः ॥७६॥ "
पढ़े
[पॉप, वीर- निर्वाण सं० २४६०
अर्थात --यवनादिक कर्मभूमिज म्लेच्छ प्रसिद्ध हैं तथा मलेच्छोंके आचारका पालन करने के कारण अन्य भी बहुतसे मनुष्य कर्मभूमि म्लेच्छ हो जाते हैं । यहाँ पर ग्रन्थकारने यद्यपि यह स्पष्ट नहीं किया है कि ये म्लेच्छ यवन कौन हैं ? किन्तु श्लोक के उत्तरार्द्धसे ऐसा प्रतीत होता है कि वे लेडा म्लेच्छ ही हैं । परन्तु 'प्रसिद्धा' पद यह बतलाता है कि खडके मनुष्य उन यवनोंसे अच्छी तरह परिचित हैं । और इस परिचयका कारण उन सव कार्य याना ही हो सकता है । श्रुतः है कि खण्ड में भी
अर्थात -प्रापके देश में जो निरक्षर लिखे ) म्लेच्छ प्रजाको कष्ट देते ही उन्हें कुलशुद्धि वगैरह के द्वारा अपने में मिला लेना चाहिये ।
इस उल्लेख भी यह स्पष्ट है कि आर्यखण्डमें भी ग्लेन्द्र पुष आ बसते थे। तथा, श्लोकवार्तिक ( पृ० ३५७) में कर्मभूमिज म्लेच्छोको बतलाते हुए लिखा हैकर्मभूमिभवा म्लेच्छाः प्रसिद्धा यवनादयः । स्युः परे च तदाचारपालनाडु बहुधा जनाः ॥
अमृतचन्द्र सूरिने अपने तत्त्वार्थसार में आर्य का परिचय देते हुए लिखा है-
केचिद्राव्यः
और
ग्रीस डोड़ता आर्याः
अर्थात--जो थाखण्ड उत्पन्न हो व आर्य है । किन्तु कुछ शकादिक ब्ध है। मच्छ खण्ड में उत्पन्न होनेवाले और अन्य ट्रीज सब मोड है। इस इलोका लेखक महोदयने भी उद्भुत किया है । किन्तु उन्होंने 'लेन्द्र auster' और 'शकादयः को क्रमशः विशे
* यदि म्लेच्छखण्डोद्भव म्लेच्छ ही हैं तो यह कथन अमृतचन्द्राचार्य के विरुद्ध जायगा: क्योंक उन्होंने तत्त्वार्थसारके श्लोक नं० २१२ में, जो आगे उद्धत है, शक यवनादिकको आर्यखण्डोद्भव बतलाया है। -सम्पादक
!
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किरण ३ ] क्या सिद्धान्तमन्थों के अनुसार सब ही मनुष्य उच्चगोत्री हैं ?
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और विशेष्य बनाकर उसका अर्थ करते हुए लिखा है "जो प्लेन्द्रखण्डों में उत्पन्न होनेवाले शकादिक हैं वे सब म्लेच्छ हैं ।" किन्तु इस प्रकार अर्थ करनेमें 'केचिन' शब्दको छोड़ देना पड़ता है, जिसका उदाहरण प्रत्यक्षमें वर्तमान है क्योंकि 'केचिन' शब्दको साथमें लेने पर इस प्रकार होता है-लेखी उत्पन्न होने वाले कुछ शकादिकले हैं। इससे लेख में उत्पन्न होनेवाले सभी व्यक्ति लेन्द्र सिद्ध नहीं होते, किन्तु कुछ शकाविक ही मच्छसिद्ध होते हैं, और ऐसा अर्थ करना आगम बाधित है, इससे बा० सूरजभानजीको 'केचि अर्थ करना छोड़ देना पड़ा है. जो ठीक नहीं है। अतः 'म्लेच्छाः केचिडकाव्यः औरा म्लेच्छाः इन दोनों पद की एकमे न मिलाकर स्वतन्त्र ही रखना चाहिए । तभी केविन की सार्थकता भी सिद्ध होती है और थाचार्य अमृतचन्द्रका लेख पूर्वाचार्योक कथन के प्रतिकुल भी नहीं जाता। असल बात यह है कि में उत्पन्न होनेवालोंको कार्य बतलाते समय आचार्य महाराजकी दृष्टिमें आर्यमें आकर बस जानेवाले शकादिक भी थे । अतः स्पष्टीकरण के लिए उन्होंने लिख म्लेच्छ्रवण्डो आर्यमें आकर बसने वाले स्वयं 'आर्यवण्डोद्भव' कहलाते है-लेन्द्रखण्डोद्भव ही कहलाते हैं भले ही आगे चलकर उनकी सन्तान खण्ड उत्पन्न होनेके कारण श्रार्यखण्डोद्रव कहलाए । 'केचित् शब्दका अर्थ साथमें लेत हुए 'आर्य'पद' और 'लेच्छाः दान पदके साथ समानरूपसे सम्बद्ध है। इसके
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दिया कि कुछ शकादिक म्लेच्छ हैं। इस प्रकार आचार्य अमृतचन्द्रके लेखसे भी यह सिद्ध है कि कार्य में लेन्द्र भी आवसते थे । आकर बसे हुए इन होमेंसे जो म्लेच्छ यहाँके रीतिरिवाज अपनाते थे और आर्योंकी ही तरह कर्म करने लगते थे वे कर्मचार्य कहे जाने थे क्योंकि अति उत्पन्न न हे नेके कारण वे नार्य नहीं कहे जा सकते थे और जाल्यार्य तो हो ही कैसे सकते थे। अतः ते कर्म श्रार्य कहलाते थे किन्तु आर्यखण्ड में व्याकर भी जो अपने
पुः
सैनी तंत्राचारको नहीं छोड़ते थे वे म्लेच्छ के स्वच्छ रहते थे। इस प्रकार कर्म आर्य की समस्या सरता सुलभ जाती है।
किन्न प्राचार्य विद्यानन्दने चार्य और म्लेच्छ की जो परिभाषा दी है, जिसपर सम्पादक अनेकान्न' ने भी एक टिप्पणी की है. कह समजस प्रतीत नहीं होती; क्योंकि उनकी परिभाषा के अनुसार तो सभी आर्य, भले ही वे केवल चैत्रार्य हो, उच्चगोत्री और सभी ने जिनमें कुल
साथ आर्यस्वण्टर्स आकर सकलसंयम धारण कर सकनेकी पात्रता रखते हैं. नीच गोत्री ठहरते हैं। अस्तु ।
कथित पाँच
सिवाय शक पवनादिक लोग जिन देशके यादिभ निवासी हैं वे खण्ड के ही प्रदेश --शास्त्र डोके नहीं जैसा कि विवादापन्न लेख में भी कहलाते हुए प्रकट किया गया hve | अतः शकादिकको art याकर afने वाले कहना ठीक नहीं, और न वह याचार्य महोदयका अभिप्राय है।
सम्पादक
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कान्त
इस लम्बी चर्चा पाठक जान सकेंगे कि जिन महान ग्रन्थोंके आधार पर बा० सूरजभानुजी ने अन्तरद्वीपोंके सिवाय सभी मनुष्योंको उच गोत्री सिद्ध करनेका प्रयत्न किया था, उनमें से कोई भी प्रन्थ उनकी इस नवीन खोजका साथ नहीं देना | उनका यह प्रयत्न कहाँ तक सराहनीय है, इसका निर्णय करनेका भार तो मैं पाठकों पर ही छोड़ देना उचित समझता है। किन्तु इतना अवश्य लिख देना चाहता हूँ कि शास्त्र के श्रद्धानी हों या श्रद्धानी, दोनोंन ही शास्त्र के साथ न्याय करनेकी चेष्टा बहुत कम की है । अवश्य ही ऐसा करने में आन्तरिक कारण उनकी सदाशयता रही हो । किन्तु मैं तो इसे सभ्य भाषा में प्यारका अत्याचार ही करूँगा। ऐसा ही अत्याचार बाबू सूरजभानुजीने भी किया है। वृद्धावस्था में इस प्रकार के अत्याचार न करने का उनसे रोध करते हुए में केवल एक बात की और ना करके इस लेखको समाप्त करूँगा ।
[ पौष, वीर- निर्वाण सं० २४६५
असर नहीं डालता, उसके लिए उस कर्मका उदय होना आवश्यक है । इसीसे कर्मकी तीन दशाएँ बतलाई गई हैं--बन्ध, उदय, और सत्ता । बन्धदशा और सत्तादशा में कर्म अपना कार्य करनेमें अशक्त रहता है। उदयकालमें ही उसमें क्रियाशीलता श्राती है। अतः गोत्रकर्म भी अपनी उदयदशामें ही जीवके भावोंपर असर डालता है ।
बाबूजी ने लिखा है जब नीचगोत्रका अस्तित्व केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद सयोगकेवली और और प्रयोगकेवली भी बना रहता है और उससे उन प्राप्त पुरुषों के सच्चिदानन्द स्वरूप में कुछ भी बाधा नहीं आती तब इस बात कोई सन्देह नहीं रहता कि नीच या उस गोत्रकर्म अपने अस्तित्व से जीवों के भावों पर कोई असर नहीं डालता है। है।' लेखक महोदय के इस कथनमें मैं इतना और जोड़ देना चाहता है कि यह विशेषता केवल गोत्रकर्म में ही नहीं है किन्तु कर्ममात्र में है। किसी भी कर्मका अस्तित्वमात्र जीवके भावों वगैरह पर कोई
नोट
इस लेख के लेखक शास्त्रीजी मेरे मित्र हैं। लेखमें मुझे मेरे कर्तव्यकी और जो उन्होंने सावधान किया है, इसके लिये में उनका बहुत आभारी हूँ। उसी चेतावनी एवं उसी सावधानी के फलस्वरूप, अबकाशादिकी अनुकूलता न होनेपर भी मुझे इस लेख पर बुद्ध नोटेक लगाने का परिश्रम करना पड़ा है । लेख परसे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि श्रीविद्यानन्दाचार्य के आर्य-म्लेच्छ-विषयक जिस स्वरूपकथनको मैंने सदोष बतलाया था उसे आपने भी सदोष ही स्वीकार किया है तथा उसकी सदोपताको थोड़ा व्यक्त भी किया है। इससे सम्पूर्ण म्लेच्छों अथवा म्लेच्छमात्र के नीचगोत्री होने की जो एक समस्या खड़ी हुई थी उसका हल होता हुआ नजर आता है। साथ ही, सम्पूर्ण आय तथा आर्यमात्रके उच्चगोत्री होने में भी रुकावट पैदा होनी है। और इस तरह यह बात सामने आती है कि किसीका श्रार्थ अथवा म्लेच्छ होना भी ऊँच-नीच गोत्रका कोई परिचायक नहीं है । अथवा दूसरे शब्दों में यो कहिये कि यदि प्रायमें ही ऊँचगोत्रका व्यवहार माना जाय तो वह टीक
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वर्ष २ किरण ३]
क्या सिद्धान्तग्रन्थों के अनुसार सब ही मनुष्य उच्चगोत्री हैं ?
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नहीं है । इसी तरह म्लेच्छोंमें ही नीचगोत्रका इस लेख के भेजनेले कई रोज पहले श्रापको मिल व्यवहार मानना भी ठीक नहीं है। अच्छा होता चुकी होगी तथा आवश्यकता होनेपर श्राप और यदि शास्त्रीजी धवलसिद्धान्तके आधार पर लिखे भी कुछ दिनके लिये इस लेखका भेजना रोक हुए. मेरे उस लेग्वका भी विचार साथमें कर सकते थे। उस लेखपर आपका विचार आजाने डालते जो 'ऊँचगात्रका व्यवहार कहाँ ? इस पर मुझे भी प्रकृत विपयपर विचार करनेका शीर्षकके साथ 'अनेकान्त'की दूसरी किरणम प्रका- यथेष्ट अवसर मिलता । श्राशा है शास्त्रीजी अब शित हुआ है। क्योंकि आपके इस लेग्यविषयका-. उक्त लेम्बपर भी अपना विचार शीघ्र भेज देने की समस्त कर्मभूमिज मनुष्यों के सिद्धान्तयन्थानुसार कृपा करेंगे। ऊँचगोत्री होनके विचारका- उस लेखके साथ पूरा
-सम्पादक। पूरा सम्बन्ध है। अनेकान्तकी उत्तः किरण भी
'समृद्ध अवस्था तो नम्रता और विनयकी विम्फूर्ति कगे, लेकिन हीन स्थितिके समय मान-मर्यादाका पूग खयाल रकवा ।'
'जमीनकी खामियतका पता उसमें उगने वाले पौधेसे लगता है; ठीक इसी तरह, मनुष्यके मुग्वसे जो शब्द निकलते हैं उनसे उसके कुलका हान मालूम हो जाता है।'
'अच्छी मंगतसे बढ़कर आदमीका सहायक और कोई नहीं है। और कोई भी चीज़ इतनी हानि नहीं पहुंचाती जितनी कि बुरी सङ्गत ।'
-निम्बल्लवर।
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२.१०
पृष्ट १८६ का शेष
और दी है और राजधातिक अन्त का अर्थ 'सेव्यन्ते' भी दिया है । यद्यपि यह आर्य शब्दकी निमक्ति है-लक्षण नहीं। फिर भी इसके द्वारा इतना प्रकट किया गया है कि जो गुणोंक द्वारा तथा गुग्गियोंक द्वारा सेवा किये जाएं प्राप्त हो वा अपनाए जाने के सब 'आर्य' हैं। और इस तरह गुणीजन तथा सुजन जिन्हें अपना वे अगुणी भी सब आर्य ठहरते हैं । शकयनादि काफी गुणीजन होते हैं—बड़े बड़े विद्वान राजा तथा राजसत्ता चलाने वाले मंत्री श्रादिक भी होते हैं ये सब सार्य ठहरेंगे। और जिन गुणहीनों तथा अनक्षर म्लेच्छोको आदिपुराणके निम्न वाक्यानुसार कुल शुद्धि व्यादिके द्वारा आर्य लोग
भी
NAGAR
अनेकान
[दीप, बीर-निर्माणसं० २४६५
अपना लेंगे, वे भी आर्य होजायेंगस्वदेशेऽनक्षरम्लेच्छान प्रजावाधाविधायिनः । कुलशुद्धिप्रदानायैः स्वसात्कुर्यादुपक्रमैः ॥
इससे आर्य-लेकी समस्या सुलझने के बजाय और भी ज्यादा उलझ जाती है। अतः विद्वानों निवेदन है कि वे इस समस्याको हल करने का पूरा प्रयत्न करें-- इस बातको खोज निकालें कि वास्तव में 'आर्य' किसे कहते हैं और
किसे ? दोनोंका व्यावर्तक लक्षण क्या है ? जिससे सब गड़बड़ मिटकर महज में ही सबको आर्य और म्लेच्छका परिज्ञान होसके ।
वीर सेवा मन्दिर सरमात्रा. ता० १७-१२-१६३८
कमनीय कामना
[ ० उपाध्याय कविरत्न श्री अमरचन्द्र जी ] [शार्दूलविक्रीडित] पापाचार न एक भी जगत में,
होवे कहीं भी कभी ;
बडे, बाल, युवा तथा अति हो,
धर्मक प्रेमी सभी ।
पृथ्वी का हर एक मर्त्य पशु से
पात्रे पामर
साक्षात् बने देवता;
पापमूर्ति जगती,
स्वर्लोक से श्रेष्ठता ।
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लेखक:
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सामाजिक प्रगति
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जैन समाज क्यों मिट रहा है? अयोध्याप्रसाद
गोयलीय (क्रमागत )
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नधर्मके मान्य ग्रन्थों में इतना स्पष्ट और जिसके कारण कोई भी बाहरी आदमी उसके
"विशद विवेचन होनेपर भी उसके अनु- पाम तक आनेका साहस नहीं करता। यायी आज इतने संकीर्ण और अनुदार विचारके यह ठीक है कि अपराध करने पर दण्ड दिया क्यों हैं ? इसका एक कारण तो यह है कि, वर्त- जाय-इसमें किमीको विवाद नहीं; परन्तु दण्ड मानमें जैनधर्म के अनुयायी केवल वैश्य रह गए देनेकी प्रणाली अन्तर है । एक कहते हैं-अप हैं, और वैश्य ग्वभावतः कृपण तथा क़ीमती वस्तु- गधीको धर्मसे प्रथक कर दिया जाय, यही उसकी को प्रायः छपाकर रखनेवाले होते हैं। इसलिए सजा है, उसके संसर्गसे धर्म अपवित्र हो जायगा। प्राणोंसे भी अधिक मूल्यवान धर्मको खुदकं उप- दुसरे कहते हैं- जैसे भी बने धर्म-च्युतको धर्म योगमें लाना नथा दूसरोंको देना तो दूर, अपने में स्थिर करना चाहिए, जिससे वह पुनः सन्मार्ग बन्धोंसे भी छीन-झपट कर उमं तिजोरीमें बन्द पर लग जाय । ऐसा न करनेसे अनाचारियोंकी रखना चाहते हैं। उनका यह मोह और म्वभाव मंख्या बढ़ती चली जायगी और फिर धर्म-निष्ठोंउन्हें इतना विचारनेका श्रवमर ही नहीं देता कि का रहना दूभर हो जायगा। भला जिस प्रतिमा
मरूपी सरोवर बन्द रग्वनेसे शुष्क और दुर्गन्धित का गन्धोदक लगानेसे अपवित्र शरीर पवित्र होते होजायगा। वैश्योंमें पूर्व जैनसंघकी बागडोर हैं, वही प्रतिमा अपवित्रोंके छूनेसे अपवित्र क्योंकर क्षत्रियोंके हाथमें थी। वे स्वभावत: दानी और हो सकती है? जिस अमृतमें मंजीवनी शक्ति उदार होते हैं। इसलिए उन्होंने जैनधर्म जितना व्याप्त है. वह रोगीके छूनेस विप कैसे हो सकता दुसरांको दिया उतना ही उसका विकास हुआ। है ? रोगीके लिए ही तो अमृतकी आवश्यकता है। भारतकं बाहर भी जैनधर्म स्खूब फला फूला। जैन- पारस पत्थर लोहेको सोना बना सकता है-लोहे धर्मको जबसे क्षत्रियोंका आश्रय हटकर वैश्योंका के म्पर्शसे स्वयं लोहा नहीं बनता।
आश्रय मिला, तबसे वह क्षीरसागर न रहकर गाँव खेद है कि हम सब कुछ जानते हुए भी का पोखर-तालाब बन गया है। उसमें भी साम्प्र- अन्ध प्रणालीका अनुसरण कर रहे हैं। एक वे दायिक और पार्टियोंके भेद-उपभेद रूपी कीटा- भी जातियाँ हैं जो राजनैतिक और धार्मिक अधिपुत्राने मडाँद ( महादुर्गन्धि ) उत्पा करदी है, कार पानेके लिए हर प्रकारके प्रयत्न और हरेक
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अनेकान्त
[पोप, वीर-निर्वाण सं० २४६५
ढंगसे दृमरी को अपनाकर अपनी संख्या बढ़ानी किया है और मिटानेका कलंक उनके सर मढ़ा जारही हैं, और एक हमार्ग जाति है जो बढ़ना तो जायगा, जिन्होंने लाखों भाइयोंको जाति-च्युत दूर निरन्तर घटती जारही है। भारतके मान करके धर्म-विमुख कर दिया है और रोजाना किसी करोड़ अकृतोंकी जब हिन्दु-धर्म छोड़ देनेकी न किसी भाईको समाजसे बाहर निकाल रहे हैं ! अफवाह उड़ी तो, मिम्रसं मुसलमान, अमेरिकासे हायर अनोखे दण्ड-विधान !!: तनिक किसी ईमाई, जापानसे बौद्ध और पंजावस सिग्य प्रति- स जाने या अनजानेमें भूल हुई नहीं कि वह निधि अछूतांक पाम पहुँच और सबने अपने समाजसे प्रथक ! मन्दिरमें दर्शन करते हुए ऊपरसं अपने धर्मों में उन्हें दीक्षित करनेका प्रयत्न किया, कवृतरका अण्डा गिरा नहीं कि उपस्थित सब किन्तु जैनियोंकी ओरसे प्रतिनिधि पहुँचना तो दर्शनार्थी जातिसे खारिज ! गाढ़ीवानकी असावदरकिनार, ऐसी श्राशा रग्बना भी व्यर्थ साबित धानीसे पहिये के नीचे कुत्ता दबकर मर गया और हुश्रा।
गाड़ी में बैठी हुई मारी मवारियाँ जातिस च्युत ! लेखानुसार जैन-समाजस २२ जैनी प्रतिदिन क्रोधावेशमें श्री कुएं में गिरी और उसके कुटुम्बी घटते जारहे हैं और हम उफ़ तक भी नहीं करते- जातिसे खारिज ! किसी पुरुपने किसी विधवा चपनाप माम्यभावसे देख रहे हैं। एक भी मह- या मधवा श्रीपर दोपारोप किया नहीं कि उस मी धर्माकं घटने पर जहाँ हमारा कलेजा तड़प उठना सहित सारे कुटुम्बी समाजसे बाहर !! चाहिये था-जब तक उसकी पूर्ति न करलें तब
___ उक्त घटनाएँ कपोल्कल्पित नहीं, बुन्देलखण्ड में. तक चैन नहीं लेना चाहिय था-वहां हम निश्चेष्ट
मध्यप्रदेशमें, और राजपूनानेमें. ऐसे बदनसीव बैठे हुए हैं. ! देवियोंके अपहरण और पुरुपोंके
रोजानाही जातिस निकाले जाते हैं। कारज या धर्म-विमुग्य होनेके समाचार नित्य ही सुनते हैं
नुक्ता न करने पर अथवा पंचोंस द्वेष होजाने पर और मर धुनकर रह जाते हैं ! मच बात तो यह भी समाजसे प्रथक होना पड़ता है। स्वयं लेखक है कि ये मब काण्ड अब इतनी अधिक संख्या ने कितनीही ऐसी कुल-बधुश्रांकी श्रात्म-कथाएँ मुनी होने लगे हैं कि उनमें हमें कोई नवीनता ही दिखाई
हैं जो समाजके अत्याचारी नियमोंके कारण दूसरों के नहीं देती-हमारी प्राग्वे और कान इन सब बातों
___ घरों में बैठी हुई आहे भर रही हैं । जानि-बहिष्कार के देखने सुननेके अभ्यस्त हो गए हैं।
के भयने मनुष्योंको नारकी बना दिया है। इसी जैन-समाजकी इस घटतीका जिम्मेवार कौन
भयके कारण भ्रूण हत्याएँ, बाल हत्याएं आत्महै ! जैनसमाजके मिटानेका यह कलङ्क किसके सिर मढ़ा जायगा ? वास्तवमें जैन-समाजकी घटती हत्याएँ जैसे अधर्म कृत्य होते हैं। तथा नियां के जिम्मेवार वे हैं, जिन्होंने समाजकी उत्पादन और पुरुष विधर्मियोंके आश्रय तकमें जानेको शक्तिको क्षीण करके उसका उत्पत्ति स्रोत बन्द मजबूर होते हैं।
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वर्ष २ किरण ३]
जैन-समाज क्यों मिट रहा है ?
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सच है
स्थगित करदेनाही बुद्धिमत्ता थी। उस समय राज्यनशा पिलाके गिराना तो सबको पाता है। धर्म-ब्राह्मणधर्म-जनताका धर्म बन गया । मज़ा तो जय है कि गिरतोंको थामले साक़ी ॥ उसकी संस्कृति श्रादिका प्रभाव जैनधर्म पर पड़ना
-कबाल अवश्यम्भावी था। बहुसंख्यक, बलशाली और गिरते हुओंको टोकर मार देना, मुसीवतजदोंको
राज्यसत्ता वाली जातियों के आचार-विचारकी छाप और चर्का लगा देना, बाऐबोंको ऐव लगादेना, भूले
अन्य जातियों पर अवश्य पड़ती है। अतः जैन
समाजमें भी धीरे-धीरे धार्मिक-संकीर्णता एवं हुओंको गुमराह कर देना, नशा पिलाके गिरादेना, आसान है और यह कार्य तो प्रायः सभी कर सकते
अनुदारुताके कुसंस्कार घर कर गए। उसनेभी हैं; किन्तु पनित होते हुए-गिरतेहुए-को सम्हाल
दीक्षा-प्रणालीका परित्याग करके जातिवाहिष्कार
जैसे घातक अवगुणको अपनालिया ! जो सिंह लेना, बिगड़ते हुएको बनादेना, धर्म-विमुखको धर्मारुढ़ करना, बिग्लोका ही काम है। और यही
मजबुग्न भेड़ोंमें मिला था, यह सचमुच अपनेको विरलेपनका कार्य जैनधर्म करता रहा है । तभीती
भेड़ समझ बैठा !! वह पतित-पावन और अशरण शरण कहलाना वह समयही ऐसा था उस समय ऐसाही रहा है।
करना चाहिए था; किन्तु अब वह ममय नहीं है। ___ जब जैन धर्म को राज-पाश्रय नहीं रहा और अब धर्म के प्रमाग्में किसी प्रकार का खतरा नहीं इसके अनुयायियोंको चुन-चुन कर सताया गया। है। धार्मिक पक्षपान और मज़हबी दीवानगीका उनका अस्तित्व खतरे में पड़ गया, तब नव-दीक्षित समय बहगया। अब हरएक मनुष्य सत्यको खोज करनेकी प्रणालीको इमलिए स्थगित कर दिया गया, में है। बड़ी सरलनास जैनधर्मका प्रसार किया जा ताकि राजधर्म- पापित जातियाँ अधिक क्षभिन न सकता है । इमस अच्छा अनुकूल समय फिर नहीं हान पाएँ और जैनधर्मानुयायियों से शूद्रों तथा प्राप्त हो सकता। जितने भी समाजसे वहिष्कृत म्नन्छों जैसा व्यवहार न करने लगें-नास्तिक समझे जा रहे हैं, उन्हें गले लगाकर पूजा-प्रक्षाल
और अनार्य जैसे शब्दांस तो वे पहले ही अलंकृत का अधिकार देना चाहिए । और नव-दीक्षाका किए जाते थे । अतः पतित और निम्न श्रेणीके पुराना धार्मिक ग्विाज पुनः जारी कर देना चाहिए । लिए तो दरकिनार जैनेतर उच्च वर्ग के लिए भी जैन- वर्तमानमें सराक, कलार आदि कई प्राचीन धर्मका द्वार बन्द कर दिया गया ! द्वार बन्द न जातियाँ लाग्योंकी संख्या में हैं। जो पहले जैन थीं करते तो और करते भी क्या ? जनोंको ही बलान और अब मर्दुम शुमारी में जैन नहीं लिखी जाती जैनधर्म छोड़ने के लिए जब मजबूर किया जारहा हो, हैं; उन्हें फिरसे जैनधर्ममें दीक्षित करना चाहिए। शानोंको जलाया जा रहा हो, मन्दिरीको विध्वंस इनके अलावा महावीरके भक्त ऐसे लाखों गुजर किया जा रहा हो । तब नव-दीक्षा-प्रणालोका मीने आदि हैं जो महवीर के नामपर जान देसकते
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अनकान्त
[पौष, वीर-निर्वाण सं० २४६५
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हैं; किन्तु वह जैनधर्मसे अनभिज्ञ हैं वे प्रयत्न बाला है । जिधर बहुमत है उधरही सत्य समझा करने पर---उनके गाँवोंमें जैन रात्रिपाठशालाएँ जा रहा है। पंजाब और बंगालमें मुस्लिम मिनिस्ट्री खोलने पर-वे आसानीसे जैन बनाए जा सकते है, मुस्लिम बहुमत है तो हिंदुओंके अधिकारोंको हैं। हमारे मन्दिरों और संस्थाओंमें लाखों नौकर कुचला जारहा है; जहाँ काँग्रेसका बहुमत है वहाँ रहते हैं; मगर वह जैन नहीं हैं । जैनोंको छोड़कर उसका बोलबाला है । जिनका अल्ममत है वे संसारके प्रत्येक धार्मिक स्थानमें उसी धर्मका कितनाही चीखें चिल्लाएँ, उनकी सुनवाई नहीं हो अनुयायी रह सकता है; किन्तु जैनोंके यहाँ हो सकती। इसलिए सभी अपनी जाति-संख्या उनकी कई पुश्तें गुज़र जाने पर भी वे अजैन बन बढ़ाने में लगे हुए हैं। समय रहते हमें भी चेत जाना हुए हैं। उनकी कभी जैन बनानेका विचार तक चाहिए | क्या हमने कभी सोचा है कि जिस तरह नहीं किया गया। जल में रहकर मछली प्यासी पड़ी हिन्दु-मुसलमानों या सिक्खों के साम्प्रदायिक
संघर्ष होते रहते हैं यदि उसी प्रकार कोई जाति जिन जातियोंके हाथका छत्रा पानी पीना हमें मिटानेको भिड़ बैठी तब उस समय हमारी अधर्म समझा जाता है, उनमें लोग धड़ाधड़ मिलते क्या स्थिति होगी ? वही न ? जो आज यहूदियों जा रहे हैं। फिर जो जैन समाज खान-पान रहन और अन्य अल्पसंख्यक निर्बल जानियोंकी हो रही सहनमें श्रादर्श है, उन है और अनेक आकर्षित है। अतः हमें अन्य लोगोंकी तरह अपनी एक ऐसी उसके पास साधन हैं, माथही जैनधर्म जैसा मुसंगठित संस्था खोलनी चाहिए जो अपने लोगों सन्मार्ग प्रदर्शक धर्म है तब उसमें सम्मलित होने को संरक्षण एवं स्थितिकरण करती हुई दूसरोंको में लोग अपना सौभाग्य क्यों नहीं समझेंगे ? जैनधर्ममें दीक्षित करनेका मातिशय प्रयत्न करे।
जमाना बहुत नाजुक होता जा रहा है। सबल ताकि हम पूर्ण उत्साह एवं दृढ़ संकल्पके साथ निबलोंको खाए जा रहे हैं। बहु संग्यक जातियाँ कह सके .. अल्प संख्यक जातियों के अधिकागेको छीनने आज जो हमसे जियादा वो कल कम होंगे। और उन्हें कुचलनेमें लगी हुई हैं। बहुमतका बोल जब कमर बांधके उठेंग हर्मा हम होंगे ॥
ले चुके अँगड़ाइयाँ ऐ गेसुओ वालो उठो। नूर का तड़का हुआ, ऐ शव के मतवालो उठो ।।
-"बर्क" देहल्बी।
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प्रभाचन्द्रके समयकी सामग्री
द्वितीय लेख] । लेखक-पं. महेन्द्रकुमार न्याय-शास्त्री.]
व्योमशिवाचार्यका समयादिक राजशेखरने प्रशस्तपादभाष्यकी 'कन्दली' अवश्य लिखा है; क्योंकि उसी प्रशस्ति-शिलालेख
'टीकाकी पंजिका' में प्रशस्तपादभाष्यकी में अत्यन्त स्पष्टतासे यह उल्लेख है कि- 'इनके चार टीकाओंका इस क्रम निर्देश किया है-- वचनोंका खण्डन आज भी बड़े बड़े नैयायिक सर्वप्रथम व्योमवती' (व्योमशिवाचार्य), नहीं कर सकते ।' म्याद्वादरत्नाकर आदि ग्रन्थों में नत्पश्चात् 'न्यायकन्दली' ( श्रीधर ), तदनन्तर पुरन्दरके नामसे कुछ वाक्य उद्धृत मिलते हैं, 'किरणावली' ( उदयन ) और उसके बाद सम्भव है वे पुरन्दर ये ही हों। इन पुरन्दग्गुरुको 'लीलावती' ( श्रीवत्साचार्य )। पतिापर्यालोचनास अवन्तिवर्मा गजा उपेन्द्रपुरसे अपने देशको ले भी राजशेखरका यह निर्देशक्रम मंगत जान पड़ता गया । अवन्तिवर्माने इन्हें अपना राज्यभार मौंप है। इस लेखमें हम व्योमवतीके रचयिता कर शैवदीक्षा धारण की और इस तरह अपना व्योमशिवाचार्य के विषयमें कुछ विचार प्रस्तुत जन्म सफल किया। पुरन्दग्गुमने मत्तमयरपुरमें करते हैं।
एक बड़ा मठ स्थापित किया। दृसग मठ रणिपद्रव्योमशिवाचार्य शैव थे । अपनी गुरु परम्पग पुग्में भी इन्होंने स्थापित किया था। पुरन्दरगुनका तथा व्यक्तित्वके विषयमें स्वयं उन्होंने कुछ भी कवचशिव और कवचशिवका सदाशिव नामक नहीं लिखा। पर रणिपद्रपुर रानोद, वर्तमान शिष्य हुश्रा, जो कि रणिपद्र नामके तापसाश्रम नारोदनाम की एक वापी-प्रशस्ति * से इनकी गुरु. में तप: माधन करता था। सदाशिवका शिष्य परम्परा तथा व्यक्तित्व-विषयक बहुतसी बाते हृदयेश और हृदयेशका शिष्य व्योमशिव हुआ, मालूम होती हैं, जिनका कुछ सार इस प्रकार है- जोकि अच्छा प्रभावशाली, उत्कट प्रतिभासम्पन्न ___ कदम्बगुहाधिवासी मुनीन्द्र के शहमठिकाधि- और समर्थ विद्वान था।' व्योमशिवाचार्यके प्रभावपति नामक शिष्य थे, उनके तेरम्बिपाल, तेरम्बि- शाली हानेका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि पालके अामर्दकतीर्थनाथ और भामर्दकतीर्थनाथ- इनके नामसे ही व्योममन्त्र प्रचलित हुए थे । 'ये के पुरन्दरगुरु नामके अतिशय प्रतिभाशाली ।
____x यस्याधुनापि विबुधैरितिकृत्यशंसि, व्याहन्यते तार्किक शिष्य हु' । पुरन्दरगुमने कोई अन्य न वचनं नयमार्गविधिः ॥
*प्राचीन लेखमाला दि. भाग, शिलालेख नं. "अस्य व्योमपाददिमन्त्र रचनाख्याताभिधानस्य १०८।
च।"-बापीप्रशस्तिः
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अनेकान्त
[पौष, वीर-निर्वाण सं० २४६५
सदनुवानपरायण, मृदु-मितभाषी, विनय-नय- अपने नगरमें लेगया था । अवन्तिवर्माके चाँदीके संयमके अद्भतम्थान तथा अप्रतिम प्रतापशाली थे। सिक्कों पर विजितावनिरवनिपतिश्रीअवन्तिवर्मा इन्होंने रणिपद्रपुरका तथा रणिपदमटका उद्धार दिवंजयति" लिखा रहता है तथा संवत २५० पढ़ा एवं सुधार किया था और वहीं एक शिवमन्दिर गयाहे *। यह संवत संभवत: गुप्त-संवत है। तथा वापीका भी निर्माण कगया था ।' उसी वापी. डा० फलीट के मतानुमार गुप्तसंवत ई० सन ३२० पर उक्त प्रशम्ति बुढ़ी है।
की २६ फर्वरी को प्रारम्भ होता है + । अतः ५७० ___ इनकी विद्वत्ताक विषयमं शिलालेखके ये ई० में अवन्तिवर्माका अपनी मुद्राको प्रचलित करना श्लोक पर्याप्त है
इतिहाससिद्ध है । इस समय अवन्तिवर्मा राज्य "सिद्धान्तेषु महेश एप नियता न्यायक्षपादो मुनिः। कर रहे होंगे तथा ५७० ई०के आसपास ही वे गभीर च कणाशिनस्तु कणभुक्शास्त्रे श्रुतौ जैमिनिः ॥ पुरन्दग्गुरुको अपने राज्यमें लाए होंगे । ये सारव्ये नल्समतिः स्वयं च कपिलो लोकायते सद्गुरुः। अवन्तिवर्मा मौखरी वंशीय राजा थे । शैव होने बुद्धो बुद्धमते जिनोकि जिनः को बाथ नाय कृती ॥ के कारण शिवोपासक पुरन्दरगुरुको अपने यहाँ यद्भ तं यदनागतं यदधुना किंचि चद्रच (तं) तं । लाना भी इनका ठोकही था। इनकं समय-संबन्धमें सम्यग्दर्शनसम्पदा तदग्विल पश्यन् प्रमयं महत् ।। दृसरा प्रमाण यह है कि -वैसवंशीय राजा हर्षवर्द्धनसर्वशः स्फुटमैप कापि भगवानन्यः क्षिती सं(श)करः। की छोटी बहिन राज्यश्री अवन्तिवर्माकं पुत्र धत्तं किन्तु न शान्नधीविषमहग्रौद्रं वपुः केवलम् ॥” ग्रहवाको विवाही गई थी। हर्पका जन्म ई०५६०
इनमें बतलाया है कि व्योमशिराचार्य-शैव में हुआ था। राज्यश्री उससं १ या २ वर्ष छोटी सिद्धान्तमें स्वयं शिर, न्यायमें अक्षपाद, थी। ग्रहवर्मा हपसे ५-६ वर्ष बड़ा जहर होगा। वैशेषिक शास्त्रमं कणाद, मीमांमामें जैमिनि, अनः उसका जन्म ५८४ ई. के करीबका मानना सांख्यमें कपिल, चार्वाक-शामें बृहस्पति, चाहिए । राज्यकाल ६०० से ६०६ नक रहा है। बुद्धमतमें युद्ध नथा जिनमन में स्वयं जिनके समान अवन्तिवर्मा का यह इकलौता लड़का था। अतः थे। अधिक क्या: अनीतानागतवर्तमानवर्ती यावत मालूम होता है कि ५८४ म अथान अन्तिवमा प्रमेयोंको अपनी मम्यग्दर्शनसम्पत्तिम स्पष्ट देखने की ढलती अवस्था में यह पैदा हुआ होगा। अस्तुः जानने वाले सर्वज्ञ थे और ऐसा मालूम होता था यहाँ तो इतना ही प्रयोजन है कि ५७० ई. के कि मात्र विपमनत्र (तृतीयनत्र ) तथा रौद्रशरीर श्रासपास ही अवन्तिवा पुरन्दरको अपने यहाँ को धारण किए बिना वे पृथ्वी पर दूसरे शङ्कर लेगए थे। भगवान ही अवतरे थे । इनके गगनेश, व्योमशम्भु, व्योमेश, गगनशशिमोलि श्रादि नाम भी थे।
___ *देखो, भारतके प्राचीन राजवंश. द्वि० भा० पृ०३७५ । शिलालेखके आधारसं समय-व्योमशिवक देखो, भारत के प्राचीन राजवंश. द्वितीय भाग पूर्ववर्ती चतुर्थगुम पुरन्दरको अवन्तिवर्मा राजा पृ० २२९ ।
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वर्ष २ किरण ३]
प्रभाचन्द्रके समयकी सामग्री
०१७
___ यद्यपि सन्यासियोंकी शिष्य-परम्पराके लिए का वे इस तरह जोर देकर उल्लेख करते हैं, तब प्रत्येक पीढ़ीका समय २५ वर्ष मानना आवश्यक उक्त कल्पनाको स्थान ही नहीं मिलता। नहीं है क्योंकि कभी कभी २० वर्षमें ही शिप्य व्योमवती का अन्तः परीक्षण व्योमवती प्रशिष्यों की परम्परा चल जाती है। फिर भी यदि (पृ० ३०६,३०७,६८० ) में धर्मकीर्तिके प्रमागाप्रत्येक पीढ़ी का समय २५ वर्ष ही माना जाय तो वार्तिक (२.११. १२ तथा १-६८.७२) से कारिकाप भी व्योमशिवकी अधिकसे अधिक उत्तरावधि ई. उद्धृत की गई हैं। इसी तरह व्योमवती (पृ.६१७) सन ६७० से आगे नहीं जा सकती।
में धर्मकीत्तिके हेनुविन्दु प्रथमपरिक "डिगिडक दार्शनिकग्रन्थोंके आधारसं समय-व्योम- रागं परित्यज्य अक्षिणी निमील्य" इम वाक्यका शिव स्वयं ही अपनी व्योमवती टीका (१० ३६२)में प्रयोग पाया जाता है। इसके अतिरिक और भी श्रीहर्षका एक महत्वपूर्ण ढंगसं उल्लेख करते हैं। बहुतसी कारिका प्रमाणवार्तिककी उद्धन देखी
जाती है। यथा
व्योमवती ( पृ. ५६१,५६२ ) में कुमारिलक ___"अतएव मदीयं शरीरमिन्यादि प्रत्यये
मीमांसा श्लोकवार्निकम अनेक कारिकापन प्यान्मानुगगमद्भावेऽपि आत्मनोऽवच्छेद- हैं। व्योमवती ( पृ० १२६ ) में उदोतकरका नाम कत्वम् । श्रहपं देवकुलमिति ज्ञाने श्रीहर्षम्येव लिया है । भतृहरि के शब्दाबैन दर्शनका (पृ०२०च) उभयत्रापि बाधकमद्भाधान, यत्र ह्यनुगग
खण्डन किया है और प्रभाकर के स्मृतिप्रमापवादका
भी ( पृ० ४४० ) ग्वंडन किया है। मद्भावेऽपि विशेपणन्वे बाधकमम्ति नत्रा
इनमें भत हरि धर्मकीनि, कुमारिल तथा वच्छेदत्वमेव कल्प्यते इति । अस्ति च प्रभाकर ये सब प्राय: सममायिक और ईमाकी श्रीहर्षम्य विद्यमानन्वम । अान्मनि कर्न त्व- सातवीं शताब्दिके पूर्वार्द्ध के विद्वान है। उनातकर करणत्वयोगसम्भव इनि बाधकम...।"
छठी शताब्दिक विद्वान हैं। अत: व्याशिवक
द्वारा इन सममामायक एवं किंचित्पूर्ववर्मी विद्वानों यद्यपि इम मन्दर्भ का कुछ पाठ दृटा मालूम
का उल्लेग्ब तथा समालोचनका होना मंगन ही है। होताहै फिरभी'अस्तिच श्रीहर्षस्य विद्यमानत्वम' यह वाक्य म्याम नौरस ध्यान देने योग्य है । इससे
व्योमबती ( पृ० १५ ) में वाणकी कादम्बरीका
उल्लंग्व है । वागण हर्पकी मभाके विद्वान थे, अनः साफमालूम होता है कि श्रीहर्प (05-117A.D. राज्य ) व्योमशिवके समयमें विद्यामान थे। यद्यपि इसका उल्लेग्य भी होना टीक ही है। यहां यह कहा जा सकता है कि व्यामशिव श्रीहर्ष
व्यामवनी टीकाका उल्लेग्य करनेवाले परवर्ती
ग्रन्थकारॉम शान्नचित, विद्यानन्द, वाचस्पनि, के बहुत बाद होकर भी ऐसा उल्लंग्य कर सकते हैं;
प्रभाचन्द्र, श्रीधर. जयंत. उदयन, वादिगज, वादिपरन्तु जब शिलालेखम उनका ममय ई० मन देवमूरि, गुगणरत्न, मिर्पि नथा हेमचंद्र विशेषरूप६७. से आगे नहीं जाता तथा श्रीहर्षकी विद्यमानता सं उल्लेखनीय हैं ।
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अनेकान्त
शांतरक्षितने वैशेपिक-सम्मत पटपदार्थोंकी परीक्षा को है। उसमें प्रशस्तपादके साथ ही साथ शंकरस्वामी नामक नैयायिकका मत भी वे पूर्वपक्षरूप से उपस्थित करते हैं । परंतु जब हम ध्यानसे देखते हैं तो उनके पूर्वपक्ष में प्रशस्तपादव्योमवतीके शब्द स्पष्टतया अपनी छाप मारते हुए नज़र आते हैं। (तुलना - तत्वसंग्रह पृ० २०६ तथा व्योमवती पृ० ३४३ । ) तत्वसंग्रहकी पंजि का ( पृ० २०६ ) में व्योमवती ( पृ०१२६ ) के स्वकारासमवाय तथा सत्ताममत्रायरूप उत्पत्ति के लक्षणका उल्लेख है। शान्तरक्षित तथा उनके शिव्य कमलशीलका समय ई०की आठवीं शताब्दि का पूर्वार्द्ध है । (देखा, तपकी भूमिका पृ० xevi)
विद्यानन्द आचार्य ने अपनी श्रमपरीक्षा ( पृ० २६) में व्योमवती टीका ( पृ० १०७ में समवायके लक्षणकी समस्तपदकृत्य उद्धृत की है। 'द्रव्यवोपलक्षिन समवाय द्रव्यका लक्षण है' व्योमवती ( पृ० १४६ ) के इस मन्तव्यकी समालोचना भी आप्त परीक्षा ( पृ० ६ ) में की गई है
[पौष, वीर- निर्वाण सं० २४६०
श्रप्रमाणमाननेका समर्थन किया है, साथही पृ० ६५ पर व्योमवती ( पृ० ५५६ ) के फलविशेषणपक्षको स्वीकारकर कारकसामग्रीको प्रमाण मानने के सिद्धान्तका अनुसरण किया है। जयन्तका समय हम अपने पहले लेख में ईसाकी नत्रमी शताब्दिका प्रथमपाद सिद्ध कर आए हैं।
वाचस्पति मिश्र अपनी तात्पर्यटीका के पृ० १०८ पर प्रत्यक्षलक्षगणसूत्र में 'यतः' पदका अध्याहार करते हैं तथा पृ० १०२ पर लिंगपरामर्श ज्ञानको उपादान बुद्धि कहते हैं। व्योमवतीटीकामें पृ० ५५६ पर यतः' पदका प्रयोग प्रत्यक्षलक्षण में किया है तथा पृ० ५६१ पर लिंगपरामर्श ज्ञानको ही उपादानबुद्धि कहा है। वाचस्पति मिश्रका सय ८४१ A.D. है ।
जयन्तकी न्यायमंजरी ( पृ० २३ ) में व्योम वती ( पृ० ६२५ ) के अनर्थजन्यान स्मृति-सिद्धान्तको
प्रभाचन्द्र आचार्यने मोक्षनिरूपण ( प्रमेयक मलमार्तणु प्र० श्रात्मस्वरूपनिरूपण ( न्यायकुमुद चन्द्र पृ० ३४६, प्रमेयक मलमा० पृ० २६, समवायलक्षण ( न्यायकुमु० पृ० २६५, प्रमेयकमलमा० पृ० १८२ आदि में व्योमवती को लिया है ( देखो व्योमवती पृ० २० से, ३६३, १०७ ) | स्वसंवेदन सिद्धिमं व्योमवती ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानबादका खंडन भी किया है।
श्रीधर तथा उदयनाचार्यने अपनी कन्दली ( पृ० ४ ) तथा किरणावली में व्योमवती ( पृ० २० क) के 'नवानामात्म विशेषगुणानां सन्तानोऽ त्यन्तमुच्छिद्यते सन्तानत्वात् यथाप्रदीपसन्तानः । इस अनुमान को 'तार्किकाः' तथा 'आचार्याः' शब्द उद्धृत किया है। कन्दली ( पृ०२०)
व्यक्ती ( पृ० १४६ ) के 'द्रव्यत्वोपलक्षितः समवायः द्रव्यत्वेन योग:' इस मतकी आलोचना की गई है। इसी तरह कन्दली ( पृ० १८ ) में व्योमवती ( पृ० १२६ ) के 'श्रनित्यत्वं तु प्रागभाव प्रध्वंसाभावोपलक्षिता वस्तुसत्ता ।' इस अनित्यत्व के लक्षणका स्वण्डन किया है । कन्दली ( पृ० २००)
व्योमवती ( पृ० ५६३ ) के 'अनुमान - लक्षणमें विद्याके सामान्यलक्षणकी अनुवृत्ति करके संशयादिका व्यवच्छेद करना तथा स्मरण के व्यवच्छेद
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वर्ष २ किरण ३]
प्रभाचन्द्रके समयकी सामग्री
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के लिए 'द्रव्यादिषु उत्पद्यते' इस पदका अनुवर्तन सन ६५० से ६७० तक अनुमान करते है। यदि ये करना' इन दो मतोंका समालोचन किया है। आठवीं या नवमीं शताब्दिके विद्वान होते तो कन्दलीकार श्रीधरका समय व्यधिकदशोत्तरनव- अपने समसायिक शंकराचार्य, शान्तरक्षित जैसे शतशकान्दे' पदके अनुसार ११३ शक अर्थात विद्वानों का उल्लेख अवश्य करते। हम देखते हैं ६६१ ई० है । और उदयनाचार्यका समय १८४ ई. कि-व्योमशिव शांकरवेदान्तका उल्लेख भी नहीं
करते तथा विपर्यय ज्ञानके विषयमें अलौकार्थवादिराज अपने न्यायविनिश्चिय-विवरण ख्याति, म्मतिप्रमोष आदिका खण्डन करने पर भी (लिखित पृ० १११ ।।. तथा ११२ A. ) में शंकरके अनिर्वचनीयार्थख्यातिवाद का नामभी व्योमवतीस पूर्वपक्ष करते हैं।
नहीं लेते । व्योमशिव जैसे बहुश्रुत एवं सैकड़ों मतवादिदेवसूरी अपने म्याद्वादरत्नाकर (पृ० ३१८ मतान्तरोंका उल्लेख करने वाले प्राचार्य के द्वारा तथा ४१८ ) में पूर्वपतरूपस व्योमवतीका उद्धरण किसी भी अप्टम शताब्दि या नवम शताब्दिवर्ती देते हैं।
आचार्यके मतका उल्लेख न किया जाना ही उनके गुणरत्न अपनी पड़दर्शनसमुच्चय की वृत्ति सप्तम शताब्दिवर्ती होनेका प्रमाण है। (पृ० ११४ A) में मिर्पि न्यायावतारवृत्ति अत: डा. कीथका इन्हें नवमी शताब्दिका (पृ०६ ) में तथा हेमचन्द्र प्रमाणमीमांसा (पृ०७) विद्वान लिखना तथा डा० एस. एन. दासगुप्ता में व्योमवतोके प्रत्यक्ष, अनुमान तथा आगम इस का इन्हें छठी शताब्दिका विद्वान् बतलाना ठीक प्रमाणत्रित्व की वैशपिकपरम्पराका पूर्वपक्ष करते हैं। नहीं जंचता * | __इस तरह व्योमवती की संक्षिप्त तुलनासे झात हो सकेगा कि व्योमवतीका जनप्रन्यांसे विशिष्ट * यह लेख मैंने व्योमशिवके विशिष्ट अभ्यासी सम्बन्ध है।
मित्रवर श्री विभूतिभूषण भट्टाचार्य काशीसे चर्चा इस प्रकार हम व्योमशिवके समयको शिला• करके लिखा है। अतः उन्हें इसके लिए धन्यवाद है। लेख तथा उनके प्रन्थके उल्लेखोंके आधारसे ईस्वी
-लेखक
'संसार भरके धर्मग्रन्थ सत्यवक्ता महात्माओंकी महिमाकी घोषणा करते हैं।'
'धन, वैभव और इन्द्रिय-सुखके तूफानी समुद्रोंको वही पार कर सकते हैं कि जो उस धर्म-सिन्धु मुनीश्वरके चरणोंमें लीन रहते हैं।'
-तिरुवल्लुवर
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विपत्तिका वरदान
[ ले०-बा० महावीरप्रसाद जैन, बी० ए०, ]
विपत्तिने निविड़ अन्धकार-पूर्ण गत्रिमें चारों धैर्यक कन्धेपर हाथ रखकर साहसनं उत्तर ओरसे साहमको घेर लिया। काले बादलोंक दिया-"माता, तो मुझे जन्म काहेको दिया सदृश उसके पारिधानने उस आच्छादित कर था ! अपनेसे लड़ना मंग धर्म बनाकर आज मुझे प्रत्येक दिशामें साहमका मार्ग रोक दिया। उमस विमुख होनका उपदेश देरही हो ?"
उस प्रलयकारी अन्धकारमें बम कंवल दो विपत्तिने अबकी बार कुछ मुलायम होकर नक्षत्र चमक रहे थे। और वह साहमको दाना कहा-"तेरे इम धर्मानरागस मेरे प्रभावक आँखें थीं !
व्यापकता नष्ट हो रही है । साधारण मनुष्य भी वायुमें प्रकम्पन हुआ। अन्धकार औरभी अब तेरे बृनेपर मरा मामना करनेको उदात हो गहन हो उठा। माहमकी धर्मानयों में भी रक्तका जाते हैं।" प्रवाह बढ़ गया। उसने अपने चमकील नत्र, माहमने कण्ठमें कमगगा भरकर कहा-"माँ ! विपत्तिके आकाशको ठूत हा मिरकी ओर उठाकर क्या तुम्हाग मातृत्व तुम्हारे स्वार्थपर विजय प्रात्र पूछा
नहीं कर सकेगा ? पुत्रकी गौरव-द्धिसे मानाका "माना ! क्या आज अपने पुत्रको चागं ओरसे मम्तक ऊँचा नहीं होगा? अपने एकान्त आधिपत्य घोटकर मारही डालेगी ?"
का अक्षण्ण रग्बनी लानमा माता पुत्रका गला विपत्तिके विकट अट्टहाससे वायुमण्डल काँप घांट देगी ? नहीं-नहीं-माँ : मुझे वरदान दो !!" उठा। उसके सरसे काली काली लटाएँ वायुमें विपत्तिक मुम्बपर पुत्रक नेजपूर्ण मुग्व-मण्डल इधर उधर लम्बे मोको नाई लहराने लगी। . को देखकर प्रसन्नतामो फूट पड़ी । माताका
"मातामं क्या अपनही पुत्रका गौरव नहीं महा वात्मल्य स्वार्थपर विजयी हुआ । गद्गद कण्ठसे जाता?" विपत्नि-पुत्र, माहमने गम्भीर स्वग्में पूछा। वह बोली-"धन्य हो पुत्र, तुम धन्य हो । वत्म, में
दिग दिगान्त को कैंपादेने वाले स्वरमें गर्जन तुम्हें वरदान देती हूँ कि मेरे सन्मुख रणक्षेत्रमे कर विपत्ति बालो-" द्राहो : अपनी जननीको आकर तुम मदा विजय प्राम करो !" हा पगजित कर तू यश-लाभ चाहता है । मेरे चिर चारों ओरके बादल फट गए । और आशाका शत्र 'धैर्य' के साथ मिलकर मुझमे द्रोह करते सुनेहरा प्रकाश सारे संमारपर व्याप्त हो गया। तुझे लज्जा नहीं आती ?"
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क्या कुन्दकुन्द ही 'मूलाचार के कर्ता हैं ?
ले०-श्री०५० परमानन्द जैन, शास्त्री ।
जैन ग्रन्थकारों में प्राचार्य कुन्दकुन्दका जैसे प्रन्थ भी पाहुड-प्रन्थ ही है, जिनमें से कुछ तो
'स्थान बहुत ऊँचा है। आप अपने ममयके ममयपाहुड, पंचत्थिपाहुड जैसे नामोंसे उल्लेखित एक बहुत ही प्रसिद्ध विद्वान हो गए हैं । जैन- भी मिलते हैं। इन ग्रन्थों तथा कुछ भक्तिपाठोंके मिद्धान्ती तथा अध्यात्म-विद्याक विपयमें आपका अतिरिक्त 'बारम-अणुवेक्खा' नामका आपका ज्ञान बहुत बढ़ा चढ़ा था । अापकी उपलब्ध एक ग्रन्थ और भी उपलब्ध है। शेष सब पाहुड मौलिक रचनाएँ ही इम विषयकी ज्वलन्त उदा ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं हैं...उनमें से कुछ के नाम हरण हैं । प्रवचनमार, पंचाम्तिकाय और ममय जरूर मिलते हैं--और यह हमारा दुर्भाग्य तथा मार जैम ग्रन्थ तो ममृचे जैनममाजको अपनी प्रमाद है जो हम उन्हें सुरक्षित नहीं रख सके !
ओर आकृष्ट किए हुए हैं। दिगम्बर-श्वेताम्बर हाँ 'मूलाचार' नामका भी एक ग्रन्थ है, जो दानों ही समाजोंमें उनका समान रूपम आदर और बट्टकराचार्यकृत कहा जाता है । वसुनन्दि आचार्य प्रचार है । अंग्रेजी अनुवादादि के माथ प्रकाशमें न मूलाचारकी टीकामे उस 'वट्टकेराचार्यकृत' लिग्या
आने के कारण बाह्य जगतमें भी अब उनकी अच्छी है। ये वट्टकेगचार्य कब हुए ? किस गुरुपरम्परा ग्व्यानि हो चली है । नियममार और भावपाहुड जैसे में हुए ? इनके बनाए हुए दसरं कौन कौन ग्रन्थ है ? ग्रन्थ भी अपना खास महत्व रग्बने है । वास्तव में और इनके नामका अन्यत्र कहीं उल्लेग्य मिलना आपकी मभी कृतियां महत्वपूर्ण है और ममें जैन- है या कि नहीं ? इन सब बातांका कोई पता नहीं। धर्मको व्यक्त करनेवाली है
मात्र वमनन्दि आचार्यकी टीका परसे ही यह श्री कुन्दकुन्दाचार्यकै विषयमें यह प्रसिद्ध है नाम प्रचारमें आया हुआ जान पड़ता है। कि उन्होंने चौगमी पाहुइ (प्राभूत ) ग्रन्थोंकी कुछ विद्वानोका खयाल है कि 'मृलचार' ग्रन्थ ग्चना की थी। पाहुड नामसे प्रसिद्ध होनेवाले भी आचार्य कुन्दकुन्दकृत ही होना चाहिए। प्रो.
आपके उपलब्ध ग्रन्थोंमें यद्यपि आमतौर पर १ १० एन० उपाध्यायने प्रवचनमारकी अपनी भूमिकादमणपाहुड, २ चारित्त पाहुड. ३ सुत्नपाहुड, बांध- में से कुन्दकुन्दक ग्रन्थोंकी लिस्टमें दिया है. पाहुड, ५ भावपाहुड ६ मोक्वपाहुड, लिंगपाहुड अनेक ग्रन्थ प्रतियोंमें भी वह कुन्दकुन्दकन
और ८ सीलपाहुड, ऐसे पाट पाहु डॉका ही नाम लिखा मिलता है । माणिकचनप्रन्थमालामें लिया जाता है परन्तु वास्तवमें समयसार, प्रकाशिन प्रतिक अन्नमें भी उसे निम्न वाक्य पंचाम्निकाय. प्रवचनमार, नियममार, ग्यगणमार द्वारा कुन्कुन्दाचार्य प्रणीन लिया है- "इनिमला
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अनेकान्त
[पौष, वीर-निर्वाण सं० २४६५
चारविवृतौ द्वादशोऽध्यायः । कुन्दकुन्दाचार्यप्रणीन- प्रथम गाथाके अतिरिक्त बारमअणुवेक्वाकी मूलाचाराव्य-विवृतिः । कृतिग्यिं वसुनन्दिनः दृमरी गाथा भी मूलाचारके उक्त अधिकारमें श्रीश्रमणम्य ।"
मंगलाचरण गाथाके अनन्तर ही ज्यों की त्यों इन सब बातोंको लेकर बहुत दिनोंस में उपलब्ध होती है । यथाहृदयमें यह जिज्ञासा चल रही थी कि 'मृलाचार' अद्भवमसरणमेगत्त मण्णसंमारलोगलमुचित्तं । ग्रन्थ वाम्नवमें किमका बनाया हुआ है और ग्राममत्रमंवरांगज्जरधम्म बाहिं च चिंतेज्जो ॥॥ उत्सुकता थी कि इम विषयका शीघ्र निर्णय होना
-वारसअणुवकावा । । चाहिए । इधर मुख्तार साहब, अधिमाता वीर- अद्ध्वममरणगंगत्तमएणसंसारलीगममुचिनं । सेवा मन्दिरकी सूचना मिली कि कुन्दकुन्दके ग्रन्थों आमवमवर्गगाज्जरधम्म बोधि च चितेज्जी ।। के माथ 'मृलाचारके' साहित्यकी तुलना होनी
-मूलाचार, ६०२ चाहिए । तदनुसार मैं तुलनाके कार्यमें प्रवृत्त हुआ। मूलाचारमें यह गाथा ४०३ नम्बर पर भी पाई यापि मुग्नार माहवकी इच्छानुसार तुलनाका जाती है । इमी तरह बारमअणुवेम्वाकी १४, २२, वह पूरा निर्णायक कार्य मुझम नहीं बनमका. फिर २३, ३५. ३६ नम्बरकी गाथाएँ भी मृलाचार में भी मामान्यरूपम कुन्दकुन्दके प्रन्यांके माथ मूला क्रमशः ६६६, ७०१. ५००.०६.०६ नम्बर पर चारकी गाथाओंका मिलान किया गया । इस पाई जाती हैं। परन्तु इनमेस अनुप्रक्षाकी , मिलान परसे गाथाओं की ममानता असमानतादि- नम्बर वाली गाथाकं चतर्थपाद तम्स फलं भुजदे का जो कुछ पता चला है उसे विद्वानों एवं रिमर्चः एवम्को' की जगह मूलाचार में एवं चिहि पयनं' स्कालरोंक जानने के लिए नीचे प्रकट किया जाता है, पाठ दिया हुआ है । वारमअणुवेकावाकी ५७ नम्बर जिससे यह विषय शीघही निर्णीत हो सके:- की गाथाका पूर्वार्ध मूलाचारकी २३७ नम्वरकी
प्राचार्य कुन्दकुन्दके बारभअगुवेकम्वा' ग्रन्थकी गाथाके माथ ज्यों का त्यों मिलना है; परन्नु मंगलाचरण गाथा कुछ शब्दपरिवर्तनके माथ उत्तरार्ध नहीं निलता। 'मृलाचार के आठवें बादशानुप्रचा' नामक आचार्य कुन्दकुन्दक नियममार' की गाथाएँ अधिकारी भी मंगलाचरगण रूपमं हो पाई जाती नं०६६, ७० ६६. १००. १०२, १०३, १०४ मूलाहै । यथा
चारमें क्रमशः नं० ३३२. ३३३. ४५, ५६, ४८.३६, गामिऊण गव्यमदं झागुनमन्यांवददीह मंसारे। ४२ पर ज्यों की त्यों पाई जाती हैं । १६, १०० दम दम दो दो यतिणे दम दो प्राणुपेहणं वोच्छे ॥ नम्बग्वाली गाथाएँ कुन्दकुन्दके भावपाहडमे ५.५.५८
-वारमअणुवस्वा नम्बर पर और १०० नम्बर वाली गाथा ममयसार मिदं गामसिदृण प झागुनमलाव पदीहसंमारे। में भी२७७ नम्बर पर उपलब्ध होती है। दह दह दो दो य जिणे दमदो अणुपेणं बोल ॥ नियममारकी २, ६२. व ६५ नम्बरकी गाथाएँ
मन्नानार. ६९१ मूलाचारमें कुछ पाठभेद नथा परिवर्ननके माथ
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वर्ष २ किरण ३ ]
क्रमश: नं० २०२, १२, १५ पर पाई जाती हैं ।
यथा
मग मग्गफलं त्तिय दुविह जिगमालणं समवाट । गोमो वा नत्म फलं होड़ शिव्वाण | — नियमसार २
क्या कुन्दकुन्द ही 'मूलाचार के कर्ता हैं ?
मग्गी मग्गफलं त्ति यदुविह जिलामामणे समवाद । मग्गो खलु सम्मतं मग्गफल होइ शिव्या ॥
मुलाचार २०२
मुहाम करमयं वयणं, परिचिता सरहिंद भामासमिदो वद नम्म ॥ . नियमसार, १३२
पेनुएल्हास कम परणिदासविहादी ! जिना मारहिंद भामासमदी हवे कहणं ॥
—मूलाचार. १२
पामुक गृहिए परोपरोहेण । उच्चारादिबागो इट्टा मांदी हवं तस्म ॥
—नियमसार, ६५
एते च दूरे गृहे विमान मत्रिरहे । उच्चारादिन्न पहिठा गया हवे सांसद || -मलाचार, १५.
पंचास्तिकायकी गाथाएँ नं० ४५. १४८ मृलाचार क्रमश: नं० २३४ व ६६६ पर ज्यों की त्यों पाई जाती हैं ।
समयसार की 'भूत्थेाभिगदा' नामकी गाथा भी मुलाचार में २०३ नम्बर पर ज्योंकी त्यों पाई जाती है । परन्तु समयसारकी 'रत्तो बन्धदि' नाम की गाथा नं १५० मूलाचार नं २५७ पर कुछ शब्दों के परिवर्तन के साथ उपलब्ध होती है ।
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यथा
रत्तो बंधदि कम्म मनदि जीवो विराग संप | एसो जिणोवदेसो तह्मा कम्मेसु मा रज्ज ||
—समयसार, १५०
रागी बन्ध कम्मं मनइ जीवां विरागमं । एसो जिगोसो समासदो बन्धमोकवाण' ॥
यह गाथा प्रवचनमार में भी निम्नरूपसे पाई जाती है
रत्तो चदि कम्मं मन्तदि कम्मेहिं रागरहिया । एसो बन्धममामो जीवाणं जाग मिच्छयो ।
- प्रवचनमार, २-८७
'लिंगपाहुड' की मंगलाचरण-गाथाका 'काऊण मोक्कारं अहंता तहेव सिद्धा' । यह पुर्वार्ध मुलाचार के 'पडावश्यक अधिकार की मंगलाचरणगाथाका भी वर्थ है: परन्तु उतरार्ध दोनों का भिन्न है ।
'बोध पाहुड' की ३३ नम्बरकी गइदिये च काये' और ३५ नम्बरकी पंचत्रि-इंद्रियपाणा' नामकी दोनों गाथाएँ मुलाचार में क्रमश: ४४६७ ११६४ नम्बर पर पाई जाती हैं, परन्तु मुलाचारमें मरण वचका की जगह 'मरणवचकायादु' श्री 'पारा' की जगह दाणा' पाठभेद पिछली गाथा नं० १९६१ में पाया जाता है, जो ही बहुन साधारण है ।
'चाग्निपाहुड' की ७ नम्बरकी गाथा भी मुला चार मे २०१ नम्बर पर पाई जाती है । परन्तु 'चारिनपाहुड' में गिम्मकिय क्किंबिय पाठ है और मूलाचार में 'म्मिकि किंविद' पाठ पाया जाता है, जिसे वास्तव में कोई पाठभेद नहीं कह सकते ।
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अनेकान्न
[पोप, वीर-निर्वाण सं० २४६५
इसी प्रकार कुन्दकुन्दकं ग्रन्थांकी और भी हानेकी हालतमें या तो 'बारसअणुवेक्वा' वाला कितनी ही गाथाअंकि पूर्वार्ध, ऊनगर्थ, एकपादादि मंगलाचरण और लिंगपाहुडके मंगलाचरणका अंश मूलाचारमं ज्यों के त्यों या कुछ माधारणसे पूर्वार्ध मूलाचारमें नहीं पाया जाना चाहिए था अन्तर के माथ पाए जाते हैं, जिन्हें विस्तारभयसे और या फिर बारसअणुवेक्खा तथा लिंगपाहुडमें यहाँ छोड़ा जाता है।
ही उसका उस रूपमें अस्तित्व नहीं होना चाहिए ___इस मय तुलना परमं मुझे नी ऐमा मालूम था. क्योंकि कोई भी ममर्थ ग्रंथकार दूसरे ग्रंथकारहोता है कि मृलाचारक का प्राचार्य कुन्दकुन्द ही के मंगलाचरणकी नक़ल नहीं करता है। होने चाहिएँ । कुन्दकुन्दकं एक ग्रंथकी कोई कोई आचार्य कुन्दकुन्दके 'प्रवचनसार' में यद्यपि गाथायें जो मृलाचारम उपलब्ध होना हैं वे कुन्द- मुनि-धर्मका निम्पण है; परन्तु वह बहुत ही संक्षिप्त कुन्दकं दृमर ग्रंथाम भी पाई जाती हैं। उदाहरणक म्पमं है। इसलिए आचारांगकी पद्धतिके अनुरूप लिए ममयमार की निम्न गाथाका लीजिय--
मुनि-चर्याका कथन करनेवाला उनका कोई ग्रंथ "अरसमरूवमगंध 'अध्यन चंदगागुण समद। अवश्य होना चाहिए और वह मेरी समझमें 'मूलाजाग अलिंगमाहणं जावमारणांइट मटाणं ।।
चारही जान पड़ना है। विद्वानों में मेरा निवेदन
-ममयमार. ४९ है कि वे इम विषयमें यथेष्ठ विचार करके अपना यह गाथा प्रवचनमारक दमरे अधिकारमें अपना निर्णय दव, जिमसे यह बात निश्चित हो नंबर ८० पर, नियममार में नम्बर ५६ पर और जाय कि मलाचार ग्रंथ वास्तवमें कुन्दकुन्दाचार्यका भावपाहुइमें नम्बर पर पाई जाती है । इमी बनाया हुआ है या वट्टकेरका । यदि वट्टकरका नरह और भी कुछ गाथाओंका हाल है. और बनाया हुआ है. नी उनकी गुरुपरम्पग क्या है ? यह बात उन गाथाअंकि कुन्दकुन्दकृत होने को पृष्ट अस्तित्वकाल कौनसा है ? और मृलाचारके करती है । मंग यह अनमान कहाँ तक मच है इम अतिरिन उन्होंने किमी दूसरे ग्रंथका भी निर्माण पर विद्वानोंको विचार करना चाहिए। मुझे तो यह किया है कि नहीं ? इन मब बातोंका भी निर्णय बात भी कुछ बटकतीमी ही जान पड़ती है कि दो हाना चाहिए. जिमस वस्तुस्थिति म्लब स्पष्ट हो बगबरकी जोटक विद्वानों में एक दृमरे के ग्रंथके जाय । आशा है कि मेरे इम निवेदन पर ज़ार मंगलाचरणको अपने ग्रंथ में अपनावे-उमं ज्यां ध्यान दिया जायेगा। का न्या उठाकर रक्य । मृलाचारका का भिन्न वीरमवा-मन्दिर-सम्मावा. ता०२६-११-४६३८
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'अनेकान्त' पर लोकमत
(६) श्री० चन्द्रशेखर शास्त्री . I. IPil. II. नहीं किया है-जैनधर्मका अतीत बहुत गौरव.
M. ID काव्यतीर्थ साहित्याचार्य प्राच्य- मय तथा उज्वल था, उमं भारतीय इतिहासमें विद्यावारिधिः
अधिक महत्व मिलना चाहिये । पर जैनसाहित्यसे "पत्र वास्तवमें बहुत सुन्दर निकला है। जैन विद्वानोंको जे पर्याय परिचय नहीं है, उसका समाजके पत्रों में मम्पादनका एकदम अभाव रहता उत्तरदायित्व विशेषनया जैनममाज पर ही है। है । वास्तव में सम्पादनकला और जैनममाज इन मुझे आशा है कि 'अनेकान्त' द्वारा जैनधर्म, जैनदोनों शब्दों में कोई सामंजस्यही नहीं है। किंतु माहित्य तथा जैन-इतिहाम अधिक प्रकाशमें
आपका पत्र न केवल उस नायका अपवाद है श्रावेगा और ऐतिहासिक लोग जैनधर्मक तीनवरन उसका सम्पादन अत्यन्त उनकोटिका है। के माथ अधिक न्याय करने में समर्थ होंगे।" आपने अनेकान्तको निकालकर वामनवम एक बड़ी
बहा () साहित्याचार्य विश्वेश्वरनाथ रेउ.1..... भारी कर्माको पूरा किया है। आशा है कि यह ।
"अनकान्न एक उनकोटिका पत्र है और पत्र इसी प्रकार रिमर्च द्वारा जैनममाज एवं हिन्दी
इसमें जैनधर्म सम्बन्धी उनकोटिक निबन्ध प्रका संसारकी सेवा करता रहेगा। पत्रके उच्चकोटिक
" शिन होते हैं। श्राशा है जैनममाज इमे अपनाकर मम्पादनके लिए मेरी बधाई म्वीकार करें।"
मंचालक और मम्पादकके परिश्रमको सार्थक (७) मंगलाप्रसाद पुरस्कारविजेता प्रो० सत्य करेंगे।"
कंतु विद्यालंकार (डी. लिटः)- (8) श्री० रामस्वरूप शास्त्री, संस्कृताध्यक्ष
अनेकान्त' का दिसम्बर सन ३८ का अंक मुस्लिम यूनिवर्सिटी, अलीगढ़ःमैंने देखा । इसके सभी लेख उत्कृष्ट तथा विद्वत्ता यह पत्र वास्तव में अधिक मचिकर एवं पूर्ण है। विशेषतया, श्रीवा सूरजभानु वकीलका धार्मिक विचागेसे अलंकृत है। नथा विशेषनया 'भगवान महावीरके बादका इतिहास' लेम्ब बहुत जैनधर्मकी मत्ता, थिनि और महत्वको विम्तन ही खोजपूर्ण तथा उपयोगी है। मेरी सम्मनिमें रूपमें बतलाता है। विशिष्टविषयों पर जो लंग्व कवल इसी एक लेखक लिये भारतीय इतिहासके हैं वे सप्रमाण और मर्यातक वर्गिन है। म प्रत्येक जिज्ञासुको ‘अनेकान्त'का अनुशीलन विचारसे यह पत्र वनमान कालमें सुपठिन एवं करना चाहिये। जैनधर्म नथा इतिहास के माथ अल्पपठित जननाक लिय यहारी बनकर परभारतीय इतिहामके विद्वानांने यथोचित न्याय मापयोगी सिद्ध होगा।"
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२२६
अनेकान्त
[पोष, वीर-निर्वाण सं० २४६५
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(१०) श्री पं० नाथूराम प्रेमी, बम्बई:- गए हैं । गोत्रकर्म सम्बन्धीलेख समाजके लिए बड़ा
"सभी महत्वके ऐतिहासिक लेख पढ़ गया ही उपयोगी सिद्ध होगा।" । है। आपके दोनों लेख बहुत महत्वके हैं। पूज्य (१५) श्री पं० सुन्दरलाल वैद्य, दमोह:सूरजभानुजीका लेख वास तौरसं पढ़ा। अन्तर “पत्रका कलंवर महत्वपूर्ण है । लेखमाला द्वीपजोंके अतिरिक्त सारे मनुष्योंको उच्चगोत्री यत- पटन एवं मनन करनेस तो चित्तमें प्राचीन स्मृति लाना बिल्कुल मौलिक ग्बोज है। यह श्रेय आप- तथा नवीन उत्साह आलोकित होने लगता हैको ही है कि आपने उत्साहित करके इस अवस्था- पत्रके प्रत्येक स्थलमें अवश्य ही कोई न कोई में भी उनस लिखवा लिया।"
नवीन बात मिलती है। सम्पादन कलाके मर्मज्ञ (११) श्री० पं० लोकनाथ शास्त्री, मूडविद्री:- वृद्ध सम्पादकजाके सम्पादकीय लेखोंमें नवयुवकों ___ "आपने जिस महन्ध कार्यके करनका-'अने. जैमा उत्साह कूट कूटकर भग हुआ है । मैं पत्र कान्त' को पुनरूजीवन करनेका बीड़ा उठाया है, की रीति-नीति पर मुग्ध हैं तथा चाहता हूँ कि वह सर्वथा मगहनीय तथा प्रशंसनीय है।...
हमारे समाजके विद्वान व धार्मिक वर्ग पत्रको आपके मम्पादकीय लेग्य और श्री मृरजभानुजी पूर्वम्मृतिके प्रकाशमें लाने के लिए हर तरहसे वकीलके (गोत्रकाशित ऊँच नीचता) वगैरह प्रयत्नशील होंगे।" लेख विचारणीय तथा मननीय हैं।"
(१६) श्री वसन्तलाल (हकीम), झाँसी:(१२) श्री० पं० उपमन जैन एम.प.पल.एल.बी. “'अनेकान्त'का रूप मनको मोहित करनेवाला __"इम पत्रकी उपयोगिताक सम्बन्धमें तो कहने है तथा उसमें संकलित लेखादि, जो कि विकास की आवश्यकता ही नहीं; विद्वान म्बयंहो भलीभांति रूप विद्या और बुद्धिद्वारा लिखे गए हैं, वे पठनीय जानते हैं।"
ही नहीं बल्कि हृदयमें बिठानेके योग्य हैं।" (१३) श्री राजेन्द्रकुमार 'कुमरेश', कोटा:- (१७) बा० माईदयाल वी. ए. (ऑनर्स)मेलसा:
"सुयोग्य सम्पादन, सुन्दर प्रकाशन, उच्च- अनेकान्त' के लेखोंके बारे में कुछ लिखना आदर्श, धार्मिकविचार और भिन्न भिन्न विषयोंपर सूर्यको दीपक दिखाना है।" अन्वेषणात्मक लेख 'अनेकान्त'की विशेष (१८) श्री० कामताप्रसाद, सम्पादक 'वीर' अलीगंज ग्वूबियाँ हैं।"
"अनेकान्त' जैसे पहले एक सुन्दर बहुमूल्य (१४) श्री गुणभद्र, गजचम्ममाश्रम अगासः- विचार-पत्र था, वैसा ही अब भी है । उसमें उसके
"समाजमें ऐसे पत्रकी बड़ी भारी आवश्यकता सुयोग्य सम्पादककी मौलिक गवेषणाएँ एवं अन्य थी जो तुलनात्मक दृष्टिस लेबोंद्वारा जैनधर्मका विद्वानोंकी सुसंकलित रचनाएँ पठनीय हैं। विद्वान् प्रचार कर सके । पत्रको नीतिको देखते हुए और सामान्य पाठक इससे समानलाभ उठा सकते अनुमान होता है कि वह भविष्यमें सर्वप्रिय हो हैं।हम अनेकान्तकी उत्तोसर उन्नतिके इच्छुक हैं।" सकेगा। इसके सभीलेम्व अनुसन्धान पूर्वक लिखे
(क्रमशः)
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अनेकान्त के नियम .
प्रार्थनाएँ
3.
१. अनेकान्तका वार्षिक मूल्य २॥) पेशगी है।
वी० पी० से मंगाने पर तीन आने जिम्लीके १. "अनेकान्त" किमी म्वार्थ बद्धिस प्रेरित होकर अधिक देने पड़ते हैं। माधारण एक प्रतिका
अथवा आर्थिक उद्देश्यको लेकर नहीं निकाला
जाता है. किन्तु वीरसंबामन्दिरके महान मूल्य चार आना है। २. अनेकान्न प्रत्यक इंग्रजी माहकी प्रथम
उद्देश्योंको मफल बनाते हुए लोकहितको तागेखका प्रकाशित हुया कगा।
साधना तथा सभी सेवा बजाना ही इम पत्रअनकान्तकं एक वर्षम कमकं ग्राहक नहीं
का एक मात्र ध्येय है। अतः सभी मजनों
को इसकी उन्नतिमें महायक होना चाहिये । बनाए जाते । ग्राहक प्रथम किरगणसे १० वीं किरण नकके ही बनाये जाते हैं। एक वर्पक . जिन मज्जनांको अनेकान्तक जो लग्य पनन्द वीचको किमी किग्गगम दमरे वर्षकी उम आये, उन्हें चाहिये कि वे जिनने भी अधिक किरण तक नहीं बनाये जाने। अनकान्नका भाइयोंको उमका परिचय कग ग जार नवीन वप दीपावलीस प्रारम्भ होता है।
कगये। ४. पता बदलने की सूचना ना... तक कार्यालय ३. यदि कोई लेख अथवा खका अंश ठीक
में पहुंच जानी चाहिए। महिने-दो महिनक मालूम न हो, अथवा धर्मविरुद्ध दिखाई दे, लिय पना बदलवाना हो तो अपने यहाँक ना महज़ उमीकी वजहसे किमीका लंबक या डाकघरको ही लिखकर प्रवन्ध कर लना मम्पादकस प-भाव न धारण करना चाहिये, चाहिए । ग्राहकाका पत्रव्यवहार करने ममय किन्तु अनेकान्त-नीतिकी उदारतास काम उत्तर के लिए पोस्टज़ खच भंजना चाहिए। लेना चाहिये श्रीर हो सके तो युनि-पुरम्मर माध ही अपना ग्राहक नम्बर और पता भी मंयत भाषामें लंग्यकको उसकी भल सुभानी पष्ट लिग्रना चाहिये. अन्यथा उनके लिए चाहिये। काई भगमा नहीं ग्ग्यना चाहिये।
ननकान्न" की नीति और उध्यकं अन कायालयस अनकान्त अन्टी नरह जाँच मार लय लिम्यकर जनक लिय देश तथा करछ, भंजा जाना है। यदि किसी मामका समाजक मभी मलबांका श्रामन्त्रगा है। अनकान्न ठीक समय पर न मिलं ना, अपने डाकपास निग्या पही करनी चाहिए। वाम ५. "यानकान्न" का भज जाने वाले लग्यादिक जो उत्तर मिलं. वह अगली किग्गा प्रकाशित
कागजी एक बार हाशिया छोड़कर बान्य होनम मात गज़ पय तक कार्यालयमं पहच
अनगम लिम्ब होने चाहियं । लग्योंको घटाने. जाना चाहिये। देर होनस, डाकघरका जवाब
बढ़ाने. प्रकाशित कग्न न करने. लोटाने न
टानका सम्पूर्ण अधिकार सम्पादकको है। शिकायती पत्रके माथन यानसे. दमग प्रनि विना मूल्य मि नम बड़ी उड़दन दगी ।
अम्वीकृन लंग्य वापस मंगाने के लिये पोस्टेज ६. अनेकान्तका मुल्य और प्रवाध सम्बन्धी
ग्लच जना आवश्यक है । लंग्य निम्न पनस
भंजना चाहिय :पत्र किमी व्यक्ति विशेषका नाम न लिग्यकार निम्न पतंग भेजना चाहिये।
गलकिशोर मुग्नार व्यवस्थापक निकान्त"
मम्पादक अनेकान्न कनाँट सकस पावन १८न्य देहली।
मम्मावा जि. महाग्न पुर ।
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__Regd. No. L. 4328
अनुकरणीय धर्मप्रेमी ला० छुट्टनलाली मैदवालान ५० ५० 'अनेकान्न की महायनार्थ प्रदान किए है। अतः प्रकी श्रोग्से २५ निम्न जैनेनर संस्थाओंको 'अनेकान्न' ५ अपके लिए भेट-बम्प भिजवाना प्रारम्भ कर दिया है। लानामाहवकी दुम उदारनाक लिए संस्थाओंने धन्यवादक पत्र भी भेजे हैं। जैनेनरोंमें जितना भी अनेकान्न का प्रवेश होगा, उननाही जनधमकं प्रति फैल हुए भ्रामक विचाराका निगकरगा और जनधमका अादर होगा । इम। प्रचारकी दृष्टिस पृष्ट मंग्व्या एक वामें पूर्वग्न देने हुए भी वार्षिक मृन्य ४२० कं म्थानमें ना कर दिया है । इमपर भी जैनतर विद्वानों, शिन्नण संस्थाश्री श्रो पुग्नकालयोंम भंट बम्प भिजवाने वाले दानी महानुभागेस म० वार्षिक ही मुल्य लिया आयगा। किन्तु यह रियायत केवल जननर मंस्थाओंका श्रमूल्य भिजवानं पर ही दी जायगी। यदि ममाजम १०० दानी महानुभाव भी अपनी आग्मं मा-गो. पचाम-पघाम अथवा यथाशक्ति नेता मंग्याओंको अनकान्न" भंट स्वम्प भिजवानको प्रम्न्न होजाए ना अनेकान्न आशातीत मफलता प्राप्त कर माना है। जननगम अनेकान्न जैग माहिन्यका प्रचार करना जनधमक प्रचारका महत्वपुण और मुलभ माधन है। श्राशा है समाजके अन्य उदारदानी महानुभाव श्रीमान ला छट्टनलालजीक , इस कार्यका अनुकरण करंगे। श्रापका आग्मं निम्न मंग्थ.मि “अनकान्न" भट-स्वप वप नक जाना बंगा। , मत्रा शान्निनिकनन बालपुर(बंगाल) ५ " मारवाडी पुग्नकालय दहन्ना दिन्ट युनीवर्मिटी बनाग्य
राजाराम कॉलेज कान्हापुर हिन्दम्नान कदमी इलहाबाद
गायकवाड़ कॉलज बड़ौदा श्री नागरी-प्रचारगी ममा बनारस
मंगट स्टीफन कालंज दहली विटारिया कालेज ग्वालियर
गवर्नमण्ट संस्कृत कॉलेज बनारम गजगत कलिंज अहमदाबाद
वाउिया कॉलेज पृना मद्राम यूनिवर्मिटी मद्राम
महाराणा काल्ज उदयार माग्मि कॉलज नागपुर
हरवट कालेज कानाम्टेट कनकना युनीवर्मिी कलकना
गुजगन पुगनय विद्यामन्दिर गमजम कालेज देहली
अरमदाबाद श्राग्गिटल कॉलेज लाहार
देहला युनावमिटी दहली किंग एडवई कालंज प्रमगवनी ५. हिन्द कॉलेज देनी गुरुकुल विश्वविद्यालय कांगड़ी ५. " आलापुर महाविद्यालय ज्वालापुर
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जुगलकिशोर मुख्तार अधिशाना बीनमंबा मन्दिर मामावा (महारनपुर)।
तनमुखराय जैन कनॉट माकम पो०० न०४८ देहली
पदक और प्रकाशक-याधाप्रमाद गायनया मामलम प्रेम कनाट मान्म न्यू देहला मेरा
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विषय-सूची
०२७
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१. ममन्नभन कीर्तन २. मकाम धर्ममाधन [मम्पादकीय ३. वीरसनाचार्य [अयोध्याप्रसाद गोयलीय ५ अनीत स्मृनि (कविता)-[श्री. भगवतस्वम्प जैन "भगवन" ५. स्त्री-शिवा [श्री. हेमलता जैन हिन्दी प्रभाकर ६ मंगल-गीत ( कविना)-[श्री. भगवनम्बम्प जैन "भगवन" * का कहानी [अयोध्याप्रमाद गोयलीय ८ श्राचार्य हेमचन्द्र [ श्री. निनलाल मंधवा *. शिकारी ( कहानी )-[श्रा० यशपाल १० अन्नर यान ( कविता )-[श्री० कम्मानन्द ४५ हिन्दी-जन माहिन्य और हमाग कर्तव्य [ श्री० अगरचन्द नाटा ५२. निरबल्लकर-मृतियाँ [श्री. निम्बल्लकर १३ श्री नाथराम प्रेमी [ श्री जनन्द्रकुमार ५५ दर्शन और बन्धन ( कविता )-[श्री कल्याण कुमार "जांग" १५ गात्र कर्म सम्बन्धी विचार [७० मानलप्रमाद जी १३ जागति गीत ( कविता )-[श्री कल्याण कुमार जैन अनि
५ धार्मिक वार्तालाप [श्री. वायु मुरजभानु वकील ४८ जीवनके अनुभव [अयोध्याप्रमाद गोयलीय १६ अनेकान्न पर लोकमन २. अनुकरणीय
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२५२
•५५ ५.
प्रकाशकीय
१. "अनकान्त" श्रागामी पाँची किरणमे बिल्कुल नयं और मुन्टर टाइपमे छपेगा। २. ॐ जनवरीके बाद १०० ग्राहक और वनजाने पर प्राट पृए और बढ़ा जा सकेंगे। ६. अनेकान्त'को प्रकाशन और व्यवस्था सम्बन्धी टियांस हम अवस्य मूचित करना चाहिए। माधही अनकान्न को उनरोमर मुर्गचपूर्ण ार उन्ननिर्याल बनाने के लिए अपनी कीमनी राय मोना चाहिए
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___ ॐ अर्हम्
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AHAKAL
TIMUR
नीति विरोध-ध्वंसी लोक-ज्यवहार-वर्तकः सम्यक । परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ।।
सम्पादन-स्थान--वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम), सरसावा जिला महारनपुर
प्रकाशन स्थान कनॉट सर्कस पो०२० नं०४८, न्यू देहली माघशुक्ल, वीरनिर्वाण सं० २४६५, विक्रम सं० १९९५
किरण ४
समन्तभद्र कौतन
कवीनां गमकांना च वादीनां वाग्मिनामपि । यशः सामन्तभद्रीयं मूर्ध्नि चूडामणीयते ।।
-आदिपुराणे, जिनसेनाचार्यः । श्री समन्तभद्रका यश कवियोंके नये नये संदर्भ अथवा नई नई मौलिक रचनाएँ तय्यार करने में समर्थ विद्वानोंके ---गमकोंके,-दूसरे विद्वानोंकी कृतियाँक मर्म एवं रहस्यको समझनेवाले तथा दूसरोको समझानेमें प्रवीण व्यक्तियों के, विजयकी और वचनप्रवृत्ति रखनेवाले वादियोंक, और अपनी वाक्पटुता तथा शब्द चातुरीसे दूसरों कोरंजायमान करने अथवा अपना प्रेमी बना लेने में निपुण ऐसे वाग्मियोंकि मस्तक पर चूडामणिकी तरह सुशोभित है। अर्थात् स्वामी समन्तभद्र में कवित्व, गमकत्व, वादित्व और वाग्मित्व नामके चार गुण असाधारण कोटिकी योग्यताको लिये हुए थे—ये चारोंही शक्तियां आपमें स्वास तौरसे विकासको प्रान हुई थीं- और इनके कारण आपका निर्मल यश दूर दूर तक चारों ओर फैल गया था। उस वक्त जितने वादी, वाग्मी, कवि और गमक थे उन सब पर आपके यशकी छाया पड़ी हुई थी-आपका यश चूडामणिके तुल्य सर्वोपरि था--और वह बादको भी बड़े बड़े विद्वानों तथा महान् प्राचार्यों के द्वारा शिरोधार्य किया गया है।
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२२८
अनेकान्त
[माघ, वीर-निर्वाण सं० २४६५
सामन्तभद्रोऽजनि भद्रमूर्तिस्ततः प्रणेता जिनशासनस्य । यदीय-वाग्वज्रकठोरपातश्चूणींचकार प्रतिवादिशैलान् ।।
-श्रवणबेल्गोल-शिलाले० नं० १०८ श्रीसमन्तभद्र (बलाकपिच्छाचार्य के बाद ) 'जिनशासनके प्रणेता' हुए हैं, वे भद्रमूर्ति थे और उनके वचन-रूपी वज्रके कठोर पातसे प्रतिवादी-रूपी पर्वत चूर-चूर होगये थे---कोई प्रतिवादी उनके सामने नहीं ठहरता था।
कुवादिनः स्वकान्तानां निकटे परुषोक्तयः । समन्तभद्रयत्यग्रे पाहि पाहीति सूक्तयः ।।
-अलङ्कार चिन्तामणौ, अजितसेनः कुवादिजन अपनी स्त्रियोंके निकट तो कठोर भाषण किया करते थे-उन्हें अपनी गवॉक्तियां सुनाते थे:परन्तु जब समन्तभद्र यतिके सामने आते थे तो मधुरभाषी बन जाते थे और उन्हें 'पाहि पाहि'- रक्षा करो, रक्षा करो अथवा आप ही हमारे रक्षक हैं, ऐसे सुन्दर मृदु वचन ही कहते बनता था।
श्रीमत्समन्तभद्राख्ये महावादिनि चागते । कुवादिनोऽलिख भूमिमंगुष्ठरानताननाः ॥
___-अलंकारचिन्ता०, अजितसेनाचार्यः जब महावादी श्रीसमन्तभद्र ( सभास्थान आदिमें ) आते थे तो कुवादिजन नीचा मुख करके अंगूठोंसे पृथ्वी कुरेदने लगते थे-अर्थात उन लोगों पर - प्रतिवादियों पर-समन्तभद्रका इतना प्रभाव पड़ता था कि वे उन्हें देखते ही विपण्ण-वदन होजाते थे और 'किं कर्तव्यविमूढ, बन जाते थे।
समन्तभद्रादिकवीन्द्रभास्वता, स्फुरन्ति यत्राऽमलसूक्तिरश्मयः । व्रजन्ति खद्योतवदेव हास्यता, न तत्र किं ज्ञानलवद्धता जनाः ।।
शानाणवे, श्रीशुभचन्द्राचार्यः श्रीसमन्तभद्र-जैसे कवीन्द्र-सूर्योकी जहां निर्मल सूक्ति रूपी किरण स्फुरायमान होरही हैं वहां वे लोग खद्योत या जुगनूकी तरह हँसीको ही प्राप्त होते हैं जो थोड़ेसे ज्ञानको पाकर उद्धत हैं - कविता अर्थात् नृतन संदर्भकी रचना करने लगते हैं।
सरस्वती-स्वैरविहारभूमयः समन्तभद्रप्रमुखा मुनीश्वराः । जयन्ति वाग्वजनिपातपाटित-प्रतीपरागत-महीध्रकोटयः ।।
-गद्यचिन्तामणी, वादीभसिंहाचार्यः श्रीसमन्तभद्र-जैसे मुनीश्वर जयवन्त हों - अपने तेजोमय व्यक्तित्व से सदा दूसरोंको प्रभावित करते रहें- जो सरस्वती की स्वच्छन्द विहारभूमि थे-जिनके हृदयमन्दिर में सरस्वतीदेवी बिना किसी रोक-टोक के पूरी
आज़ादीके साथ विचरती थी और उन्हें असाधारण विद्याके धनी बनाये हुए थी- और जिनके वचनरूपी वज्रके निपातसे प्रतिपक्षी सिद्धान्तरूपी पर्वतोंकी चोटियां खण्ड-खण्ड होगई थीं .- अर्थात् समन्तभद्रके आगे बड़े बड़े प्रतिपक्षी सिद्धान्तोंका प्रायः कुछ भी गौरव नहीं रहा था और न उनके प्रतिपादक प्रतिवादीजन ऊँचा मुँह करके ही सामने खड़े हो सकते थे ।
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सम्यकपण
सकाम धर्मसाधन
[सम्पादकीय ]
लौकिक फलकी इच्छाओंको लेकर जो धर्मसाधन नहीं हुई। ऐसे लोगोंके समाधानार्थ-- उन्हें उनकी
किया जाता है उसे 'सकाम धर्मसाधन' कहते भूल का परिज्ञान करानेके लिए ही यह लेख लिखा है और जो धर्म वैसी इच्छाओंको साथमें न लेकर, मात्र जाता है, और इसमें प्राचार्य वाक्यों के द्वारा ही विषयअपना आत्मीय कर्तव्य समझकर किया जाता है को स्पष्ट किया जाता है। उसका नाम 'नि काम धर्मसाधन' है। निष्काम धर्म- श्री गुगाभद्राचार्य अपने 'प्रात्मानुशासन' ग्रन्थ में साधन ही वास्तवमें धर्मसाधन है और वही धर्मके लिखते हैंवास्तविक-फलको फलता है । सकाम धर्ममाधन संकल्प्यं कल्पवृक्षस्य चिन्त्यं चिन्तामणेरपि । धर्म की विकृत करता है, सदोष बनाता है और उमसे असंकल्यमसंचिन्त्यं फलं धर्मादवाप्यते ॥ २२ ॥ यथेष्ट धर्म-फलकी प्राप्ति नहीं होसकती । प्रत्युत इसके, अर्थात्-फलप्रदानमें कल्पवृक्ष संकल्पकी और अधर्मकी और कभी कभी घोर पाप-फलकी भी चिन्तामणि चिन्ताकी अपेक्षा रखता है-कल्पवृक्ष प्राप्ति होती है। जो लोग धर्मके वास्तविक स्वरूप बिना संकल्प कियं और चिन्तामणि बिना चिन्ता किए और उसकी शक्ति से परिचित नहीं, जिनके अन्दर धैर्य फल नहीं देता; परन्तु धर्म वैसी कोई अपेक्षा नहीं नहीं, श्रद्धा नहीं, जो निर्बल हैं... कमज़ोर हैं, उतावले रखता-वह बिना संकल्प किए, और बिना चिन्ता हैं और जिन्हें धर्मके फलपर पूरा विश्वाम नहीं, किए ही फल प्रदान करता है। . ऐसे लोग ही फल-प्राप्तिमें अपनी इच्छाकी टांग अड़ा जब धर्म इस प्रकार स्वयं ही फल देता है और कर धर्मको अपना कार्य करने नहीं देत-उसे पंगु फल देनेमें कल्पवृक्ष तथा चिन्तामणिकी शक्तिको और बेकार बना देते हैं और फिर यह कहते हुए भी मात ( परास्त ) करता है, तब फल-प्राप्ति के लिए नहीं लजाते कि धर्म-साधनसे कुछ भी फलकी प्राप्ति इच्छाएँ करके-निदान बांधकर - अपने प्रात्माको
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२३०
अनेकान्त
[माघ, वीर-निर्वाण सं० २४६५
व्यर्थ ही संक्लेशित और पाकुलित करनेकी क्या भवोंमें – करोड़ों जन्म लेकर-क्षय करता है उस अथवा ज़रूरत है ? ऐमा करनेसे तो उल्टा फल-प्रापिके उतने कर्मसमूहको ज्ञानी-विवेकी मनुष्य मन-वचनमार्ग में कांटे बोये जाते हैं । क्योंकि इच्छा फल-प्राप्तिका कायकी क्रियाका निरोधकर अथवा उसे स्वाधीनकर माधन न होकर उस में बाधक है।
स्वरूप में लीन हुअा उच्छवासमात्रमें-लीलामात्रमेंइसमें सन्देह नहीं कि धर्म-साधनमे सब सुम्ब नाश कर डालता हे । प्राप्त होते हैं; परन्तु तभी तो जब धर्म-माधनमें विवेकसे इससे अधिक विवेकका माहात्म्य और क्या हो काम लिया जाय । अन्यथा, क्रिया के-बाह्य धर्मा- मकता है ? यह विवेक ही चारित्र को 'सम्यक्चारित्र' चरण के.-समान होनेपर भी एकको बन्धफल दूमरको बनाता है और मंमार परिभमण एवं उसके दुःख-कष्टोंमें मोक्षफल अथवा एक को पुण्यफल और दूसरेको पापफल मुक्ति दिलाता है । विवेक के बिना चारित्र मिथ्याक्यों मिलता है ? देग्विये, कर्मफलकी इस विचित्रताक चारित्र हैं, कोरा कायक्लेश है और वह संसारविषय में श्रीशुभचन्द्राचार्य ज्ञानार्गव में क्या लिखते हैं --- परिभ्रमण तथा दुःखपरम्पराका ही कारण है। इसीसे यत्र बालश्चरत्यस्मि-पथि तत्रैव पण्डितः । विवेकपूर्वक अथवा सम्यग्ज्ञानके अनन्तर चारित्रका बाल स्वमपि बध्नाति मुच्यते तत्त्वविद्ध्वम् ।।७.२१॥ अाराधन बनलाया गया है; जैसा कि श्री अमृनचन्द्राचार्य__ अर्थात्-जिस मार्ग पर अज्ञानी चलता है उसीपर के निम्न वाक्यमे प्रगट है .... ज्ञानी चलता है । दोनोंका धर्माचरण ममान होनेपर भी न हि सम्यग्व्यपदेशं चारित्रमज्ञानपूर्वकं लभते । अज्ञानी अपने अविवेक के कारण कर्म बांधता है और ज्ञानानन्तरमुक्तं चारित्राराधनं तरमात् ॥ २८ ॥ ज्ञानी अपने विवेक-द्वारा कर्म बन्धनसे छूट जाता है।
--पुरुषार्थसिद्धयुपाय ज्ञानार्णव के निम्न श्लोक में भी इसी बातको पुष्ट किया अर्थात्-अज्ञानपूर्वक---विवेकको साथमें न लेकर
दूसरोंकी देखा-देखी अथवा कहने मुनने मात्रसे-जो वेष्टयत्यात्मनात्मानमज्ञानी कर्मबन्धनै । चरित्रका अनुष्ठान किया जाता है वह 'सम्यक् चारित्र' विज्ञानी मोचयत्येव प्रबुद्धः समयान्तरं ।। ७७॥ नाम नहीं पाता उसे 'सम्यक् चारित्र' नहीं कहते ।
इसमे विवेकपूर्वक आचरणका कितना बड़ा माहात्म्य इमीमे ( आगममें ) सम्यग्ज्ञान के अनन्तर-विवेक होहै उसे बतलानेकी अधिक ज़रूरत नहीं रहती । श्रीकुन्द जाने पर चारित्रक पागधन का---- अनुष्ठानकाकुन्दाचार्यने, अपने प्रवचनसार के चारित्राधिकार में, इसी निर्देश किया गया है-रत्नत्रय धर्मकी आराधनामें, जो विवेकका-सभ्यग्ज्ञानका-माहात्म्य वर्णन करते हुए बहुत मुक्तिका मार्ग है, चारित्रकी आराधनाका इसी क्रमसे स्पष्ट शब्दोंमें लिखा है.....
विधान किया गया है। जं अराणाणी कम्म खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं। श्रीकुन्दकुन्दाचार्यन, प्रवचनसार में, 'चारित्तंतं गाणी तिहिं गुत्तो खवेदि उस्सासमेत्तेण ॥ ३८॥ बलुधम्मो' इत्यादि वाक्य के द्वारा जिस चारित्रको___ अर्थात्--अज्ञानी अविवेकी मनुष्य जिस अथवा स्वरूपाचरणका - वस्तुस्वभाव होने के कारण धर्म जितने ज्ञानावरणादिरूप कर्मसमूहको शत-सहस कोटि बतलाया है वह भी यही विवेकपूर्वक सम्यकुचारित्र
गया है
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सकाम धर्मसाधन
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है, जिसका दूसरा नाम साम्यभाव है और जो मोह- का नाम है ? सांसारिक विषय-सौख्यकी तृष्णा अथवा क्षोभ अथवा मिथ्यात्व-राग द्वष तथा काम-क्रोधादिरूप तीब कपायके वशीभूत होकर जो पुण्य-कर्म करना विभावपरिणतिसे रहित आत्माका निज परिणाम चाहता है वह वास्तव में पुण्यकर्मका सम्पादन कर होता है।
सकता है या कि नहीं ? और ऐसी इच्छा धर्मकी वास्तवमें यह विवेक ही उस भावका जनक होता माधक है या बाधक ? वह खूब समझता है कि सकाम है जो धर्माचरण का प्राण कहा गया है। बिना भावके धर्मसाधन मोह-क्षीभादिसे घिरा रहने के कारण धर्मकी तो क्रियाएं फलदायक होती ही नहीं। कहा भी है - कोटिम निकल जाता है; धर्म वस्तुका स्वभाव होता है
“यस्मात् कियाः प्रतिफलन्ति न भावश याः। और इसन्निये कोई भी विभावपरिणति धर्मका स्थान तदनुरूप भाव के बिना पूजनादिककी, तप-दान-जपा- नहीं ले सकती । इसीसे वह अपनी धार्मिक क्रियाओं में दिक की और यहां तक कि दीक्षाग्रहणादिक की सब तद्रूपभावकी योजना द्वारा प्राणका संचार करके उन्हें क्रियाएं भी ऐसी ही निरर्थक है जैसे कि यकर्गक गले के मार्थक और सफल बनाता है। ऐसे ही विवेकी जनोंके स्तन ( थन ) । अर्थात् जिस प्रकार बकरी के गले द्वारा अनुष्ठित धर्मको सब-सुम्वका कारण बतलाया है। में लटकत हुए स्तन देखने में स्तनाकार होते हैं, परन्तु विवेककी पुट बिना अथवा उसके सहयोग के अभाव में वे स्तनोंका कुछ भी काम नहीं देत-उनसे दध नहीं मात्र कुछ क्रियाओं के अनुष्ठानका नाम ही धर्म नहीं है। निकलता-उसी प्रकार बिना तदनकल भाव के पूजा- ऐसी क्रियाएँ तो जड मशीनें भी कर सकती हैं और तप-दान-जपादिक की उक्त सब क्रियाएँ भी देखने की हा कुछ करती हुई देखी भी जाती हैं-फोनोग्राफके क्रियाएँ होती है, पृजादिकः का वास्तविक फल उनमे कितनेही रिकार्ड ग्वच भक्ति-रसके भरे हुए गाने तथा कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता ।।
भजन गाते हैं और शास्त्र पढ़ते हुए भी देखने में आते
हैं । और भी जडमशीनोम भाप जो चाहें धर्मकी बाह्य ___ ज्ञानी विवेकी मनुष्य ही यह ठीक जानता है कि
क्रियाएँ करा सकते हैं। इन सब क्रियाओंको करके पुण्य किसे कहते हैं और पाप किम? किन भावाम
जडमान जिस प्रकार धर्मात्मा नहीं बन सकीं और पुण्य बँधता है, किनसे पाप और किनमें दोनोंका बन्ध नहीं होता ? स्वच्छ, शुभ तथा शुद्ध भाव किसे
न धर्मकै फलको ही पासकती हैं, उसी प्रकार अविवेककहते हैं ? और अम्वच्छ, अशुद्ध तथा अशुभ भाव किस
पूर्वक अथवा सम्यग्ज्ञान के बिना धर्मकी कुछ क्रियाएँ
कर लेने मात्र ही कोई धर्मात्मा नहीं बन जाता और न *चारित्तं खलु धम्मो धम्मा जो सा ममोत्ति रिणदिठो। धर्मके फलको ही पासकता है। ऐसे अविवेकी मनुष्यों मोहक्खोह विहीणो परिणामो अप्पणो हु समाः।। ७॥ और जडमशीनों में कोई विशेष अन्तर नहीं होता-उन ४ देखो, कल्याणमन्दिर स्तोत्रका 'आकर्णितोऽपि' की क्रियाओं को सम्यक्चापि न कह कर यांत्रिक श्रादि पद्य।
चारित्र' कहना चाहिये । हां, जड़मशीनोंकी अपेक्षा ऐसे भावहीनस्य पूजादि-तपादान-जपादिकम । मनुष्योम मिथ्या ज्ञान तथा मोहकी विशेषता होनेके व्यर्थ दीक्षादिकं च स्यादजाकराठे स्तनाविव ।" कारण व उसके द्वारा पाप-बन्ध करके अपना अहित
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अनेकान्त
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ज़रूर कर लेते हैं जब कि जड़मशीनें वैसा नहीं कर भावसे युक्त हुश्रा विषयसौख्य की तृष्णा से-इन्द्रियसकती । इसी यांत्रिक चारित्रके भुलावेमं पड़कर हम विषय को अधिकाधिक रूपमें प्राप्त करने की तीव्र अक्सर भले रहते हैं और यह समझते रहते हैं कि हमने इच्छा से पुण्य करना चाहता है-पुण्य क्रियाओं के धर्मका अनुष्ठान कर लिया ! इसी तरह करोड़ों जन्म करने में प्रवृत्त होता है-उससे विशुद्धि बहुत दूर निकल जाते हैं और करोड़ों वर्षकी बाल-तपस्या से भी रहती है, और पुण्य-कर्म विशुद्धिमूलक-चित्तकी शुद्धि पर उन कर्मोंका नाश नहीं होपाता, जिन्हें एक ज्ञानी पुरुष प्राधार रखने वाले होते हैं। अतः उनके द्वारा पुण्यका त्रियोगके संसाधन-पूर्वक क्षणमात्रमें नाश कर डालता सम्पादन नहीं होसकता- वे अपनी उन धर्मके नामसे है। अस्तु ।
अभिहित होने वाली क्रियाओंको कर के पुरुष पैदा इस विषयमें स्वामी कार्तिकेयने, अपने अनुप्रेक्षा नहीं कर सकते ।। चंकि पुण्यफलकी इच्छा रखकर धमग्रंथमें, कितना ही प्रकाश डाला है । उनके निम्न वाक्य क्रियाओंके करनेसे- सकाम धर्मसाधनसे- पुण्यकी खास तौरसे ध्यान देने योग्य हैं :
सम्प्राप्ति नहीं होती, बल्कि निष्काम-रूपसे धर्मसाधन करने कम्मं पुराणं पावं हेऊ तेसिं च होंति सच्छिदरा। वालेके ही पुण्यकी संप्राप्ति होतीहै, ऐसा जानकर पुण्यमें मंदकसाया सच्छा तिव्वकसाया असच्छा हु॥ भी भासक्ति नहीं रखनी चाहिये ।। वास्तवमें जो जीव मंद जीवो वि हवइ पावं अइतिव्वकसायपरिणदो णिच्चं । कपायसे परिणत होता है वहीं पुण्य बांधता है, इसलिये जीवी हवेइ पुरणं उवसमभावेण संजुत्तो ॥ मंदकषाय ही पुण्यका हेतु है, विषयवांछा पुण्यका हेतु नहीं जोमहिलसेदि पुराणं सकसाओ विसयसोक्खतराहाए। --विषयवांछा अथवा विषया सक्ति तीवकषायका लक्षण है दूरे तस्स विसोही विसोहिमूलाणि पुराणाणि ॥ और उसका करने वाला पुण्यसे हाथ धो बैठता है । पुण्णासए ण पुराणं जदो गिरीहस्स पुरसंपत्ती। इन वाक्योंसे स्पष्ट है कि जो मनुष्य धर्म-साधनके इय जाणि उरण जइयो पुराणे विम प्रायरं कुणह ॥ द्वारा अपने विषय -कपायोंकी पुष्टि एवं पूर्ति चाहता पुराणं बंधदि जीवो मंदकसाएहि परिणदो संतो। है उसकी कषाय मन्द नहीं होती और न वह धर्मके तम्हा मंदकसाया हेऊ पुराणस्स णहिं बंछा ॥ मार्ग पर स्थिर ही होता है । इसलिए उसके द्वारा
-गाथा नं० ९०, १९०, ४१० से ४१२ वीतराग भगवान्की पूजा-भक्ति-उपासना तथा स्तुतिइन गाथानों में बतलाया है कि-'पुण्य कर्मका पाठ, जप-ध्यान, सामायिक, स्वाध्याय, तप, दान और हेतु स्वच्छ, (शुभ) परिणाम हैं और पाप कर्म का हेतु व्रत-उपवासादिरूपसे जो भी धार्मिक क्रिकाएं बनती अस्वच्छ (अशुभ या अशुद्ध ) परिणाम । मंदकषायरूप हैं वे सब उसके प्रात्मकल्याणके लिए नहीं होतींपरिणामोंको स्वच्छ परिणाम और तीव्र कषायरूप परि. उन्हें एक प्रकारकी सांसारिक दुकानदारी ही समझना णामोंको अस्वच्छ परिणाम कहते हैं । जो जीव चाहिए । ऐसे लोग धार्मिक क्रियाएं करके भी पाप अतितीव्र कषायसे परिणत होता है, वह पापी होता है उपार्जन करते है और मुखके स्थानमें उल्टा दुग्वको
और जो उपशमभाव से-कषाय की मंदता से--युक्त निमन्त्रण देते हैं । ऐसे लोगोंकी इस परिणतिको रहता है वह पुण्यात्मा कहलाता है । जो जीव कषाय- श्रीशुभचन्द्राचार्यने, ज्ञानार्णवग्रन्थके २५वे प्रकरणमें,
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सकाम धर्मसाधन
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निदान-जनित मार्तध्यान लिखा है और उसे घोर होता है, और इसलिए हमें इस विषयमें बहुत हो दुःखोंका कारण बतलाया है । यथा-
सावधानी रखने की ज़रूरत है। हमारा सम्यक्त्व भी पुण्यानुष्ठानजातैरभिलषति पदं यजिनेन्दामराणो, इससे मलिन और खण्डित होता है । सम्यक्त्वके पाठ यद्वा तैरेव वाचत्यहितकुल कुजच्छेदमत्य तकोपात्। अंगोंमें निःकांक्षित नामका भी एक अंग है, जिसका पूजा-सत्कार-लाभ-प्रभृतिकमथवा याचते यद्विकल्पैः वर्णन करते हुए श्रीमतगति प्राचार्य अपने उपासकास्यादात तनिदानप्रभवमिहनृणां दुःखदावोगधाम ॥ चार के तीसरे परिच्छेदमें साफ लिखते हैं___ अर्थात्-अनेक प्रकारके पुण्यानुष्ठानोंको-धर्म विधीयमानाःशम-शील-संयमाः कृत्योंको-करके जो मनुष्य तीर्थकरपद तथा दूसरे श्रियं ममेमे वितरन्तु चिन्तिताम् । देवोंके किसी पदकी इच्छा करता है अथवा कुपित हुआ सांसारिकानेकसुखप्रवर्धिनी उन्हीं पुण्याचरणों के द्वारा शत्रकुल-रूपी वृक्षोंके निष्कांक्षितो नेति करोति कांक्षाम्॥७४ ॥ उच्छेदकी वांछा करता है, और या अनेक विकल्पोंके अर्थात्-निःकाक्षित अंगका धारक सम्यग्दृष्टि इस साथ उन धर्म-कृत्योंको करके अपनी लौकिक पूजा- प्रकारकी वांछा नहीं करता है कि मैंने जो शम शील प्रतिष्ठा तथा लाभादिकी याचना करता है, उसकी और संयमका अनुष्ठान किया है वह सब धर्माचरण यह सब सकाम प्रवृत्ति निदानज' नामका, पात ध्यान मुझं उस मनोवांच्छित लक्ष्मी को प्रदान करे जो नाना है। ऐसा प्रार्तध्यान मनुष्योंके लिये दुःख-दावानल- प्रकारके सांसारिक सुखोंमें वृद्धि करनेके लिए समर्थ का अग्रस्थान होता है-उससे महादुःखोकी परम्परा होती है-ऐसी वांछा करनेसे उसका सम्यत्क्व दूषित चलती है।
होता है। वास्तवमें प्रार्तध्यानका जन्म हो संक्लेश इसी निःकांक्षित सम्यग्दृष्टिका स्वरूप श्रीकुन्दकुन्दापरिणामोंसे होता है, जो पाप बन्धके कारण हैं। चार्य ने 'समयसार' में इस प्रकार दिया हैज्ञानार्णवके उक्त प्रकरणान्तर्गत निम्न श्लोक में भी जो ण करंदि दु ख कम्मफलं तह य सम्बधम्मेसु । मार्तध्यानको कृष्ण-नील-कापोत ऐसी तीन अशुभ सो शिक्कंखो चेदा सम्मादिट्टी मुणेयन्वो ॥ २४८॥ लेश्याओंके बल पर ही प्रकट होने वाला लिखा है अर्थात्- जो धर्मकर्म करके उसके फलकी-इन्द्रिय और साथ ही यह सूचित किया है कि यह बात ध्यान विषयसुखादिकी इच्छा नहीं रखता है-यह नहीं पाप-रूपी दावानलको प्रज्वलित करने के लिये इन्धन- चाहता है कि मेरे प्रमुक कर्मका मुझे अमुक लौकिक के समान है
पल मिले-और न उस फलसाधनकी दृष्टिसे कृष्ण नीलाद्य सल्लेश्याबलेन प्रविजृम्भते । नाना प्रकार के पुण्यरूप धर्मोको ही हष्ट करता हैइदंदुरितदावाचिः प्रसूतेरि-धनोपमम् ॥ ४०॥ अपनाता है और इस तरह निष्कामरूपसे धर्मसाधन
इससे स्पष्ट है कि लौकिक फलोंकी इच्छा रखकर करता है, उसे नि:कांक्षित सम्यग्दृष्ठि समझना चाहिये। धर्मसाधन करना धर्माचरणको दूषित और निष्फल यहां पर मैं इतना और बतला देना चाहता हूँ कि ही नहीं बनाता बल्कि उल्टा पापअन्धका कारण भी भी तत्त्वार्थसूत्रमें क्षमादि दश धोंके साथमें 'उत्तम'
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अनेकान्त
विशेषण लगाया गया है— उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दवादिरूपसे दश धर्मोका निर्देश किया है । यह विशेषण क्यों लगाया गया है ? इसे स्पष्ट करते हुए श्री पूज्यपाद आचार्य अपनी सर्वार्थसिद्धि टीका में लिखते हैं
" दृष्टप्रयोजन परिवर्जनार्थमुत्तमविशेपणम् ।” अर्थात् -- लौकिक प्रयोजनों को टालने के लिए 'उत्तम' विशेषण का प्रयोग किया गया है
1
इससे यह विशेषणपद यहां 'सम्यक' शब्दका प्रतिनिधि जान पड़ता है और उसकी उक्त व्याख्या से स्पष्ट है कि किसी लौकिक प्रयोजनको लेकर कोई दुनियावी ग़र्ज़ साधने के लिये – यदि क्षमा मार्दव- श्रर्जव - सत्यशौच संयम तर त्याग आकिंचन्य ब्रह्मचर्य इन दश धमों में से किसी भी धर्मका अनुष्ठान किया जाता है तो वह अनुष्ठान धर्मकी कोटिसे निकल जाता है-ऐसे काम धर्मसाधनको वास्तव में धर्मसाधन ही नहीं कहते । धर्मसाधन तो स्वरूपसिद्धि अथवा आत्मविकास के लिये आत्मीय कर्त्तव्य समझ कर किया जाता है, और इसलिये वह निष्काम धर्मसाधन ही हो सकता है ।
इस प्रकार सकाम धर्मसाधनके निषेध में आगमका स्पष्ट विधान और पूज्य आचार्योंकी खुली आशाए होते हुए भी, खेद है कि हम आज-कल अधिकांश में सकाम धर्मसाधनकी ओर ही प्रवृत्त हो रहे हैं । हमारी पूजा-भक्ति-उपासना, स्तुति-वन्दन- प्रार्थना, जप, तप, दान और संयमादिकका सारा लक्ष लौकिक फलोंकी प्राप्तिकी तरफ ही लगा रहता है कोई उसे करके धन-धान्यकी वृद्धि चाहता है तो कोई पुत्रकी संप्राप्ति, कोई रोग दूर करनेकी इच्छा रखता है तो कोई शरीरमें बल लानेकी, कोई मुकदमे में विजयलाभके लिये उसका अनुष्ठान करता है तो कोई अपने शत्र को परास्त करनेके लिये, कोई उसके द्वारा किसी ऋद्धि-सिद्धिकी साधना में व्यग्र है तो कोई दूसरे लौकिक कार्योंको सफल बनानेकी धुन में मस्त, कोई इस लोकके सुख चाहता है तो कोई परलोक में स्वर्गादिकांके सुखोंकी अभिलाषा रखता है !! और
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कोई कोई तो तृष्णा के वशीभूत होकर यहां तक अपना विवेक खो बैठता है कि श्री वीतराग भगवानको भी रिश्वत ( घूम) देने लगता है— उनसे कहने लगता है कि हे भगवान आपकी कृपा से यदि मेरा अमुक कार्य सिद्ध होजायगा तो मैं आपकी पूजा करूँगा, सिद्धचक्रका पाठ थापूंगा, छत्रचंवरादि भेंट करूंगा, रथ-यात्रा निकलवाऊंगा, गजरथ चलवाऊंगा अथवा मन्दिर बनवा दूँगा !! ये सब धर्मकी विडम्बनाए हैं ! इस प्रकार की विडम्बनाओं से अपने को धर्मका कोई लाभ नहीं होता और न आत्म-विकास ही सघ सकता है । जो मनुष्य धर्मकी रक्षा करता है— उसके विषय में विशेष सावधानी रखता है— उसे विडम्बित या कलंकित नहीं होने देता, वही धर्मके वास्तविक फलको पाता हैं । 'धर्मो रक्षति रक्षितः' की नीति के अनुसार रक्षा किया हुआ धर्म ही उसकी रक्षा करता है और उसके पूर्ण विकास को सिद्ध करता है ।
ऐसी हालत में सकाम धर्मसाधनको हटाने और धर्मat fastsो मिटानेके लिये समाजमें पूर्ण आन्दोलन होने की ज़रूरत है । तभी समाज विकसित तथा धर्मके मार्ग पर अग्रसर हो सकेगा, तभी उसकी धार्मिक पोल मिटेगी और तभी वह अपने पूर्व गौरवगरिमाको प्राप्त कर सकेगा । इसके लिये समाज के सदाचारनिष्ठ एवं धर्मपरायण विद्वानोंको आगे आना चाहिये और ऐसे दूषित धर्माचरणोंकी युक्ति-पुरम्सर खरी-खरी आलोचना करके समाजको सजग तथा सावधान करते हुए उसे उसकी भूलोंका परिज्ञान कराना चाहिये तथा भृलोंके सुधारका सातिशय प्रयत्न कराना चाहिये । यह इस समय उनका ख़ास कर्तव्य है। और बड़ा ही पुण्य कार्य है । ऐसे आन्दोलन- द्वारा सन्मार्ग दिखलाने के लिये अनेकान्तका 'सम्यक पथ' नामका स्तम्भ द्वार खुला हुआ है वे इसका यथेष्ट उपयोग कर सकते हैं और उन्हें करना चाहिये ।
वीर सेवामन्दिर, सरसावा, ता० ७-१-१९३९
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गाथा
A
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TIMIRE
हमारे पराक्रमी पूर्वज
वीरसेनाचार्य
[ ले.- अयोध्याप्रसाद गोयलीय ] सन् १४७८ ईस्वीकी बात है, जब जैनों पर भी का मूल है। ऐसे ही कुछ विचारोंके चक्कर में पड़कर
बौद्धोंकी तरह काफ़ी सितम ढाये गये थे। जैन जन अपनी राज्य सत्ता लुटा बैटे थे, प्राचीन कोल्हुओंमें पेलकर, तेल के गरम कढ़ानों में प्रोटा गौरव ग्वा बेटे थे, फिर भी वंशज तो नर-केसरियों के कर, जीवित जलाकर और दीवारोंमें चुन कर उन्हें थे । वनका सिंह अपनी जवानी, तेज और शौर्य खो देने म्वगंधाम (2) पहुँचाया गया था ! जो किसी प्रकार बच पर भी मूंछ का बाल क्या उखाड़ने देगा ? वह दलदल रहे, वे जैसे तैसे जीवन व्यतीत कर रहे थे। में फंसे हाथी के समान तो अपमान सहन कर नहीं सकेगा ?
उन्हीं दिनों दक्षिण-अर्काट ज़िलेके जिंजी प्रदेश भलेही जैन अपना पूर्व वैभव तथा बल विक्रम सब गँवा बैठे का वेंकटामयेदृई राजा था। इसका जन्म कवरई नाम थे, परन्तु जैनधर्मद्वपी नीच कुलोत्पन्न राजाको कन्या की नीच जाति में हुआ था। उच्च कुलोत्पन्न कन्या- देदें, यह कैसे हो सकता था ? यह उम कन्या और वरण करके उच्चवंशी बननेकी लालमाने उसे वहशी कन्याके पिताका ही नहीं, वरन ममचे जैनसंघके अप बना दिया था । उसने जैनियोंको बुलाकर अपनी मान और उसकी प्रान-मानका प्रश्न था । यह अभिलापा अभिलाषा प्रकट की, कि वे अपने समाजकी किसी प्रकट करने का साहस ही राजाको कैसे हुआ ? यही सुन्दरी कन्यासे उसका विवाह करदें !
क्या कम अपमान है । इस धृष्टताका तो उत्तर देनाही राजाके मुखसे उक्त प्रस्तावका सुनना था, कि चाहिये, पर विचित्र ढंग से, यही सोचकर जैनियोंने जैनी वज्रहते से रह गये ! यह माना कि 'संसार असार कन्या विवाह देनेकी स्वीकृति देदी । है, जीवन क्षणभंगुर है, राज्य वैभव नश्वर एवं पाप नियत समय और नियत स्थान पर राजा की बारात
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अनेकान्त
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पहुँची, किन्तु वहां स्वागत करनेवाला कोई न था। सिंहके गोली खाने पर जो स्थिति होती है, वही विवाह की चहल-पहल तो दरकिनार, वहां किसी मनुष्य उक्त ग्रहस्थ महाशयकी हुई । वे चुटीले सांप की तरह का शब्द तक भी सुनाई न देता था। घबड़ाकर मकान क्रोधित हो उठे ! 'बचजानेसे तो मरजाना कहीं श्रेष्ठ का द्वार खोलकर जो देखा गया तो, वहां एक कुतिया था, क्या हम छद्मवेपी बने इसी तरह धर्मका अपबैठी हुई मिली, जिसके गले में बन्धे हुए काग़ज़ पर मान सहते हुए जीते रहेंगे- इन्हीं विचारों में निमग्न लिखा था “राजन ! आपसे विवाह करनेको कोई जैन- होकर मारे मारे फिरने लगे, वापिस घर न गये और बाला प्रस्तुत नहीं हुई, अतः हम क्षमा चाहते हैं । श्राप श्रवणबेलगोला में जाकर जिन-दीक्षा ग्रहण करके मुनि इस कुतियासे विवाह कर लीजिये और जैनकन्या की होगये । उन्होंने खूब अध्ययन कर के जैनधर्म का पर्याप्त आशा छोड़ दीजिये । सिंहनी कभी शृगालको वरण ज्ञान प्राप्त किया । और फिर सारे दक्षिणमें जीवनकरते हुए नहीं सुनी होगी।"
ज्योति जगा दी । सौ जैन रोज़ाना बनाकर आहार वाक्य क्या थे ? ज़हर में बुझे हुए तीर थे । आदेश ग्रहण करने की प्रतिज्ञा की । यह आज कल के साधुओं हा राज्यभर के जैनियोंको नष्ट कर दिया जाय । जो जैसी अटपटी और जनसंघ को छिन्न-भिन्न करने जैनधर्म परित्याग करें उन्हें छोड़कर बाकी सब पर लोक वाली प्रतिज्ञा नहीं थी । यह जान पर खेल जाने वाली भेज दिये जाएँ । राज्याज्ञा थी, फौरन तामील की गई। प्रतिज्ञा थी। मगर जो इरादे के मज़बूत और बातके जो जैनत्वको खाकर जीना नहीं चाहते थे, वे हँसते हुए धनी होते हैं, व मृत्युसे भी भिड़ जाते हैं । और सफमिट गये । कुछ बाह्य में जैनधर्म का परिधान फेंककर छद्म- लता उनके पांव चूमा करती है । अतः निर्भय होकर वेषी बन गये। और कुछ सचमच जैनधर्म छोड़ बैठे ! उन्होंने धीमे पर चोट जमाई और वे गाली, पत्थर,
जैनधर्म के बाह्य आचार-जिन दर्शन, रात्रि भोजन- भयङ्कर यंत्रणाश्री तथा मान-अपमान की पर्वाह न कर त्याग और छना हुआ जलपान--सब राज्य द्वारा अपराध
के कार्य-क्षेत्र में उतर पड़े। हार्थीकी तरह झूमते हुए घोषित कर दिये गये। अपराधीको मृत्यु-दण्ड देना
जिधर भी निकल जाते थे, मृतको में जीवन डाल देते निश्चत् किया गया । परिणाम इसका यह हुआ कि थे। उनके सत्प्रयत्नसे बिखरीहुई शक्ति पुनःसञ्चित हुई। धीरे-धीरे जनता जैनधर्म को भलने लगी और अन्य धर्म जो जैन छद्मवेशी बने हुए थे वे प्रत्यक्ष रूप में के आश्रय में जाने लगी।
वीर-प्रभुके झण्डे के नीचे सङ्गठित हए और जो जैन इन्हीं दिनों दुर्भाग्यसे क्यों, सौभाग्यसे कहिये, नहीं रहे थे, वे पुनः जैनधर्म में दीक्षित किए गये। एक ग्रहस्थ महाशय टिण्डीवनमके निकट बेलूर में साथ ही बहुतसे अजेन जो जैनधर्मको अनादरकी एक वापी के किनारे छुपे हुए जल छानकर पीरहे थे। राजा दृष्टिसे देखते थे, जैनधर्म में आस्था रखने लगे, और के सिपाहियोंने उन्हें देखा और जैनी समझकर बन्दी जैनी बननमें अपना सोभाग्य समझने लगे । जिस कर लिया। पुत्र होने की खुशी में गजाने उस समय दक्षिण प्रान्तमें जैन-धर्म लुप्तप्राय हो चुका था । उसी प्राण-दण्ड न देकर भविष्य में ऐसा न करनेकी केवल दक्षिण में फिर से घर-घर में णमोकार मन्त्रकी ध्वनि चेतावनी देकर ही उन्हें छोड़ दिया।
गजने लगी। आजभी दक्षिण प्रान्तमें जो जैनधर्मका
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वर्ष २ किरण ४
हमारे पराक्रमी पूर्वज वीरसेनाचार्य
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प्रभाव और अस्तित्व है. वह सब प्रायः उन्हीं कर्म-वीर सीतामरमें जब भट्टारकका चुनाव होता है तब इस वंश के साहसका परिणाम है। जहां जहां उन्होंने अपने वालेकी सम्मति मुख्य समझी जाती है। इसकी सन्तान चरण-कमल रक्खे, वहांका प्रत्येक अणु हमारे लिए अभी तक तायनूर में वास करती है *। ऐसेही महान् पूज्यनीय बन गया है। मालूम है यह कौन थे? यह पुरुषोंकी अमर सेवाओं द्वारा जैन-धर्मकी जड़ें इतनी श्रीवीरसेनाचार्य थे। आजभी कहीं बीरसेनाचार्य हो; गहरी जमी हुई हैं कि हमारे उखाड़े नहीं उखड़तीं। तो फिर घर-घर में वही जिनमन्त्रोच्चारण होने लगे। वर्ना हमने जैनधर्मको मिटाने का प्रयत्नही कौनसा बाकी और जैनी बारह लाख न रहकर करोड़ोंकी संख्यामें छोड़ा है। ऐसीही महान् आत्माओंके बल पर पहुँच जाय।
जैन-धर्म पुकार-पुकारकर कह रहा है :-- __ इन्हीं प्रातःस्मरणीय श्रीवीर सेनाचार्यका समाधि- नक्शे बातिल मैं नहीं जिसको मिटाये पारमा । भरण वेलूर में हुआ । जैनधर्म के प्रसार में इनकी सहा- मैं नहीं मिटनेका जबतक है बिनाये आरमां ॥ यता देने वाला जिंजीप्रदेशका गगप्पा श्रोडइयर नाम
-.."यक" का एक ग्रहस्थ था। इसने जैनधर्मकी प्रभावना और
* इस लेख में उल्लम्बित बातें कल्पित अथवा प्रसार में जो सहायता दी, उसके फलस्वरूप आजभी जब पौगणिक नही .किन्तु सब सत्य और विश्वस्त हैं तथा विरादरी में दावत होती है तब सबसे पहले इसी के वंश मदास मैसर के स्मारकाम बिग्री हई पड़ी है । उन्हीं पर वालको पान दिया जाता है, तथा टिंडीवनम् तालुकाके से यह निबन्ध संकलित किया गया है। -लेम्वक
प्रतीत हति
इन सूखे-हाड़ोंक भीतर भरी धधकती-ज्याला ! जिसे शान्त करने समर्थ है नहीं असित घनमाला !! इस भग्नावशेष की रजमें समुत्थान की प्राशा-- रखती है अस्तित्व, किन्तु हे नहीं देखने वाला !!
माना, अाज हुए हैं कायर त्याग पूर्वजों की कृति ! स्वर्ग-प्रतीत, कला-कौशल, बल, हुआ मभी कुछ विस्मृति !! पर फिर भी-.--अवशिष्ट भाग में भी----इन्छिन-जीवन है...
वह क्या?--- यही कि मनमें खेले नित अतीत की स्मृति !! पतन-मार्गसे विमुख, सुपथ में अग्रणीयता देकर ! मानवीयताके सुपात्र में अमर अमिय-रमको भर !! कर सकती नूतन-उमंगमय ज्योति-राशि आलोकित.... भूल न जाएँ यदि हम अपने पूर्व गुणी-जनका स्वर !!
वह थे, हां ! सन्तान उन्हींकी हमभी आज कहाते ! पर कितना चरणानुसरणकर कीर्ति-राशि अपनाते !! 'कुछभी नहीं !' इसी उत्तर में केन्द्रित सारी चेष्टा---- काश ! यादभी रख सकते तो इतना नहीं लजाते !!
भगवत्स्व
रूप जैन 'भगवत्'
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नारासमत्थान
स्त्री-शिक्षा
[ ले.- श्रीमती हेमलता जैन, हिन्दी प्रभाकर ]
अाधुनिक उन्नतिक
धुनिक उन्नतिके युगमें इस संसार की प्रत्येक जातियां जानती भी नहीं, उन्हें इतना भी मालूम नहीं
"जाति उन्नति के पथ पर अग्रसर होरही हैं और कि जैन जातिका भी संसार में कुछ अस्तित्व है। इस स्वयंको सबसे अधिक उन्नत बनानेके प्रयासमें संलग्न है। अवनतिका प्रत्यक्ष कारण यही है कि प्राचीन समय में परन्तु खेदका विषयहै कि जैनजाति और विशेषकर जैन समाजकी देवियां पूर्ण शिक्षित होती थीं, उनसे अच्छी स्त्री-जाति अब भी गहरी निद्रामें निमग्न है ! इस वैज्ञा- शिक्षासम्पन्न, कर्मनिष्ट तथा धर्मप्रेमी संतान पैदा होती निक उन्नति के युगमें भी वह चुप्पी साधे हुए है ! इसका थीं और उसके कारण समाज उन्नत होता था, समाजका कारण विचारने पर केवल अशिक्षाही मालूम पड़ता है। प्रत्येक अंग सुदृढ़ होता था, प्रत्येक व्यक्ति अपने धर्म जैन जाति अशिक्षा के घोर अंधकार में डूबी हुई है ! व समाज पर किए गए आक्षेपांको दर करनेकी योग्यता देशकी समस्त स्त्री जतियां जब अविद्या का आवरण रखता था, अपने धर्मकी विशेषताए' स्वयं जानता था पूरी तरह उतारकर फेंकने का निश्चय करके प्रगतिको और औरों को समझानेकी योग्यता रखता था, जिसका अपना रही हैं, तब जैन-स्त्री-जातिही इस दौड़में सबसे फल धर्म की प्रगति होता था। परन्तु खेद है कि अब पीछे है और यही मुख्य कारण है कि जैन समाज दिन अशिक्षिता होने के कारण अबलाए स्वयंही यह नहीं जानती प्रति दिन भवनति के गर्त में फँसता जारहा है। कि धर्म क्या है ? फिर उनकी संतान में धर्म के प्रति
एक समय था जब कि जैनजातिका साम्राज्य चारों ओर ज्ञान व श्रद्धा किस प्रकार पैदा हो सकती है । उन बेचाछाया हुआ था, देशके कोने-कोनेमें जैनधर्मका प्रचार था रियोंको यह पताही नहीं कि धर्मका असली महत्व क्या और एक समय अब है कि जनजातिको बहुत-सी देशकी है और धर्म क्या वस्तु है ? केवल रातको भोजन न
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वर्ष २ किरण ४]
स्त्री-शिक्षा
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करना, नितप्रति मंदिर हो आना, अष्टमी चतुर्दशीको या कि नहीं ? वह कैसी है और उसका हम पर क्या हरे फल फूल न खाना, छानकर पानी पीना, बस इतने असर होता है, इसका विचार करने पर हम प्रत्यक्ष देखते ही पर उनके धर्मकी इति है । सच पूछा जाय तो इसमें हैं कि आधुनिक शिक्षा प्राप्त करके कन्यायें प्रायः अभि उनका कोई अपराध भी नहीं, जब उनको शिक्षाही मानिनी होजाती हैं, अपने सन्मुख किसीको कुछ समनहीं मिली, उनको इससे अधिक कुछ बतायाही नहीं झती ही नहीं, फैशनका भूत उन्हें परेशान किये रहता गया तो वह क्या कर सकती हैं ? अतः अब स्त्री जाति है । वे क्रीम, पाउडर तथा चटक मटक व व्यर्थकी बातों का कर्तव्य है कि वह अपने समाजमें स्त्री शिक्षाके में फंसे रहनाही अधिक पसंद करती हैं, घरका कार्य प्रचारका बीड़ा उठाय । अब यह समय उपस्थित होगया करना पसंद नहीं करतीं, तथा निर्लज्ज भी होजाती हैं ? है जब हम समाज के कोने-कोने में स्त्री-शिक्षाके प्रचारकी इसलिये बहुतसे माता-पिता शिक्षा को पसंद नहीं करते
आवाज़ पहुँच कर अपना कार्य प्रारंभ कर दें । स्त्रियोंके और इच्छा रहते हुए भी अपनी कन्याओं को शिक्षा नहीं शिक्षित होने पर ही समाज पूर्ण उन्नतिको पहुँच सकता है दिला सकते। वे कहते हैं कि सी शिक्षितों से तो अन्यथा नहीं।
अशिक्षित ही अच्छी हैं, और उनका यह कहना प्राचीन समय में शिक्षित माताओंक. गर्भस वास्तव में सत्य भी है । परन्तु साथ ही उन्हें यहभी सोचना ही राजा श्रेणिक जैसे धर्म प्रेमी, अकलंक निष्क- चाहिए कि यह दोष किसका है ? शिक्षाका नहीं बल्कि लंक जैसे धर्म पर मिटनेवाले वीर पैदा हुए थे, जिन्होंने आधुनिक शिक्षा प्रणाली का है, जिसके सुधार की नितांत धर्मके लिये अपना सर्वस्व अर्पण किया । यदि हम अपने आवश्यकता है । शिक्षा यह नहीं कहती कि तुम शिक्षा धर्मकी तथा समाजकी उन्नति चाहते हैं तो हमारा प्रधान प्राप्त करके योग्यता के अतिरिक्त अयोग्यता प्राप्त करो। कर्तव्य है कि हम पृणरूपसे स्त्री शिक्षाको अपनाय, पुस्तकों में यह बात नहीं लिखी होती कि तुम फैशनबिल समाजमें फिरसे अंजना, सीता, गुगणमाला तथा मनोरमा हो जाओ या घमाइन बन जाश्री। जैसी सतियां पैदा करें । परन्तु यह तभी हो सकेगा जब फलतः यह कर्तव्य तो हमारा ही है कि हम अपने हम पूर्णरूपसे अपने ममाज में विद्याका प्रचार करने के लिए शिक्षाकी उत्तमोत्तम प्रणाली स्वीकार करें। योग्य लिये दत्तचित्त हो जायेंगी और अपनी कन्याओंको पूर्ण जैन स्कुल स्थापित करें, उनमें उत्तमोत्तम पुस्तकोंको शिक्षित बनाने का दृढ़ संकल्प कर लेगी। इस समय अन्य स्थान दें तथा योग्य शिक्षिकाय नियत करें । शिक्षजातियों में बहुतसी ग्रेजुएट, वकील, वैरिस्टर तथा डाक्टर काओं का योग्य होना परमावश्यक है, कारण क्योंकि देवियां मिलेंगी, परन्तु जैन जानिमें खोजने पर शायद प्रायः उनके ही ऊपर कन्याओंका भविष्य निर्भर रहता दो-चार ग्रेजुएटही निकल आयें। इससे अधिककी श्राशा है। यदि वे स्वयं योग्य होगी तो कन्याओंकी भी योग्य बिल्कुल व्यर्थ है । अतः हमको भी इस उन्नतिकी दौड़ शिक्षा देने में सफल हो सकेंगी और यदि स्वयं ही अमें शीघ्र-से-शीघ्र भाग लेना चाहिए।
योग्य होंगी तो दूसरोको क्या योग्य बना सकेंगी ? ऐसी अब प्रश्न यह है कि प्राधुनिक उन्नति के साथ-साथ हालत में योग्य शिक्षिकाओं के लिए हमें मुख्य मुख्य हमें आधुनिक शिक्षाप्रणाली को भी अपनाना चाहिए स्थानों पर ट्रेनिंग स्कूल स्थापित करने चाहिये, जिनमें
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अनेकान्त
[ माघ, वीर - निर्वाण सं० २४३५
कायर, कलहप्रिय तथा बाह्याडंबर व श्रंगार में मग्न रहने वाली होती जा रही है, और इसलिए हमारी सन्तानभी पतनोन्मुख हो रही है ।
अब प्रश्न यह उठ सकता है कि जब हम पहले बहुत उन्नति दशा में थीं, तो हमारी यह अवस्था क्योंकर हुई? इसके लिए हम कह सकतीं हैं कि जबसे हिन्दुस्तानकी कुछ परिस्थितियों के वश स्त्री शिक्षाको पाप समझा जाने लगा, पढ़ी लिखी स्त्रियोंको कलङ्क लगाने लगे और उनकी हँसी उड़ने लगी- कहा जाने लगा कि क्या पढ़कर उन्हें नौकरी करना है या पण्डित बनना है, तभी से हमारी यह शोचनीय दशा हुई है । इस में सन्देह नहीं कि भारतकी नारियां सदासे पतियोंकी अनुगामिनी रही हैं, उनकी आज्ञाही उनके लिए सदा आप वाक्य रही हैं, वे पति आज्ञा पालन अपना कर्तव्य और धर्म समझती रहीं, परन्तु पतियोंने उनके प्रति अपना कर्तव्य भुला दिया वे मनमाने ऐसे नियम बनाते चले गये, जिनसे स्त्रियां मूर्ख होती गई और पुरुषों की दृष्टिमें गिरती गई। अन्त में वे केवल तृमि और बच्चे पैदा करने की मशीनें ही रह गई । इस तरह हमारा जीवन भार रूप होने लगा और होता जारहा है तथा इन्हीं कारणांसे हमारा पतन हुआ है।
से योग्य शिक्षा प्राप्त करके निकलें और स्कूलोंमें शिक्षिकाके पद को सुशोभित करें । आधुनिक शिक्षा में कन्याओंको ग्रहप्रबन्धादि तथा धार्मिक शिक्षा देनेका कोई प्रबन्धही नहीं हैं, जिसका कि हमको अपने जीवनकी प्रत्येक घड़ी में काम पड़ता है। अतः हमें गणित, इतिहास आदिके अति रिक्त ग्रहप्रबन्ध शिशुपालन, शिल्पकला, धार्मिक तथा स्वास्थ्य सम्बन्धी विषयभी पूर्ण रूपसे अपनाने चाहिए, जिसमें हमें वास्तव में शिक्षित होनेका सौभाग्य प्राप्त हो सके और हम शिक्षा को बदनाम करनेका अवसर प्राप्त न कर सकें। शिक्षा प्राप्त कर लेने पर हमारे हृदय में नम्रता, सेवाधर्म, देशभक्ति तथा धर्म पर दृढ़ता आदि गुण उत्तरोत्तर वृद्धि को प्रात होने चाहिएं । अवगुणों की उत्पत्ति हममें इसलिए भी होजाती है कि शालाओं में जो शिक्षा लड़कोंके लिए नियत हैं, वही हम लोगों को भी दी जाती है और जो हमारी प्रकृति के बिलकुल विरुद्ध होती है। ऐसी शिक्षा जिसका असर हम पर उल्टा पड़ता है और हम लाभके बदले हानि उठाती हैं। इस कारण शिक्षा प्रचार के साथ-साथ हमारा प्रधान लक्ष शिक्षा प्रणालीको उत्तम बनाना भी है, जिससे हमें वास्तविक लाभहो, हम सच्ची उन्नति कर सकें और समाजको उन्नति बनाने में सहायक हो सके ।
समाज तो वास्तवमें तब तक उन्नति करही नहीं सकता जब तक कि स्त्रियां सुशिक्षता नहीं होंगी, क्योंकि रथ के दोनों पहिये बराबर होनेसे ही रथ ठीक गतिसे चल सकता है अन्यथा नहीं । नारी समाजका उत्थानही देश धर्म तथा समाजको और ख़ासकर ग्रहस्थ जीवनको उन्नत बना सकता है। अशिक्षा के कारण हमारा ग्रहस्थ जीवनभी अत्यन्त कष्टकर होता जारहा है। हम भीरु,
परन्तु हर्ष का विषय हैं कि इस उन्नतिके युगमें कुछ समय से फिर हमारा ध्यान स्त्रीशिक्षाकी ओर आकर्षित हुआ है और हम अपनी त्रुटिको अनुभव करने लगे हैं । अतएव अब वह समय आ गया कि हम समाज के प्रत्येक हिस्से में स्त्रीशिक्षा के प्रचारका बीड़ा उठालें और उसे कोने कोने में पहुँचा कर ही चैन लें, ताकि वह समय शीघ्रही हमारे नेत्रोंके सन्मुख उपस्थित होजाय, जब कि हमारे समाजकी प्रत्येक स्त्री सुशिक्षता दृष्टि गोचर हो, हमारा स्त्रीसमाज फिरसे सुसंगठित
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वर्ष २ किरण ४]
स्त्री-शिक्षा
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हो जाय, घर-घर में सुख और शान्ति का साम्राज्य उप- दूरसे ही तिलाञ्जलि देवे । इस प्रकार के आचरण द्वारा स्थिति होवे और समाज अवनति के गर्त से निकलकर उन्नति प्राप्त करके हम अपने प्राचीन गौरवको फिरसे उन्नतिके शिखर पर आरूढ़ होवे, साथही इस प्रकार प्राप्त कर सकती हैं । अन्यथा उन्नति सर्वथा असम्भव स्त्री जाति योग्य शिक्षा प्राप्त करके मभ्यताकी आधुनिक है । अतः अब हम सबको मिलकर अपने उत्थानका पूरा दौड़में भाग लवे और परस्पर की मुठभेड़में कार्य प्रयत्न करना चाहिए और दिखला देना चाहिए कि परायणता, उदारता, श्रमशीलता, विद्यानुरागता, नम्रता, जागृत हुआ स्त्री समाज देश धर्म तथा समाजकी क्या देशप्रेम, स्वच्छता आदि गुण ग्रहण करें और पुरुषोंके कुछ उन्नति कर सकता है ? औद्धत्य, भोगविलास, चटकमटक आदि अवगुणोंको
मंगल-गीत
उत्कण्ठे ! छिपकर न रहो अब, समारम्भ हो नर्तन ! अाज कराओ पलट-पलट, कल्पना-चित्र दिग्दर्शन !!
उठो, उमंगो ! कैद रह चुकीं, बहुत काल, अब खेलो ! आज़ादी कह रही----उठो,
अपना हक़ बढ़कर लेलो !! हर्ष ! विश्व-उपवन में निर्भय--.. होकर प्रति-दिन फूलो ! दुख ढकेल पाताल-लोक में.... म्वर्ग-लोक को छू लो !!
मनोनीत सुख वारिद आओ, बरषो घुमड़-घुमड़ कर ! प्राणों में भर दो नवीनता,
का असीम-सा सागर !! मन मंगल-मय तन मंगल-मय---- मंगल-मय वसुधा हो !
ओज, तेज, संगीत, राग-मय---- प्रगटित एक प्रभा हो !!
भगवत्स्व
रूप जैन 'भगवत्'
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कथा कहानी
ले-अयोध्याप्रसाद गोयलीय
[इस स्तम्भमें ऐसी छोटी छोटी सुरचि और भाव पूर्ण पौराणिक, ऐतिहासिक तथा मौलिक कथा-कहानियां देने की अभिलाषा है जो व्याख्यानों, शास्त्र सभाओं और लेखोंमें उदाहरण रूपसे प्रस्तुत की जा सके। इस ढंगकी कहानियों के लिखने का अभ्यास न होते हुए भी कुछ लिखनेका प्रयास किया है, जिससे विद्वान लेखक मनोभाव समझ कर इस ढंग की कथा-कहनियां लिखकर भिजवा सकें। ]
(१) जब द्रोपदी सहित पांचो पाण्डव वनों में तेरा बेटा जीता रहे मैं बहुत थक गई हूँ मुझसे यह देश-निर्वासन के दिन काट रहे थे असह्य आपत्तियां अब उठाई नहीं जाती।' घुड़मबार ऐंठकर बोला:झेलते हुए भी परस्पर में प्रेम पूर्वक सन्तोषमय जीवन "हम क्या तेरे बाबा के नौकर हैं, जो तेरा सामान लादते व्यतीत कर रहे थे तब एक बार श्रीकृष्ण और उनकी फिर" और यह कहकर वह घोड़ेको ले आगे बढ़ गया। पत्नी सत्यभामा उनसे मिलने गये। विदा होते समय बुढ़िया विचारी धीरे धीरे चलने लगी। आगे बढ़कर एकान्त पाकर सत्यभामाने द्रोपदीसे पूछाः-"बहन ! घुड़सवारको ध्यान आया कि, गठरी छोड़कर बड़ी गलती पांचों पाण्डव तुम्हें प्रेम और आदरकी दृष्टिसे देखते की। गठरी उस बुढ़ियासे लेकर प्याउवालेको न देकर हैं, तुम्हारी तनिकसी भी बात की अवहेलना करनेकी यदि मैं आगे चलता होता, तो कौन क्या कर सकता उनमें सामर्थ्य नहीं है, वह कौनसा मन्त्र है जिसके था ? यह ध्यान आतेही वह घोड़ा दौड़ाकर फिर बुढ़िया प्रभावसे ये सब तुम्हारे वशीभूत हैं ।" द्रोपदीने सहज के पास आया और बड़े मधुर वचनोंमें बोलाः -- “ला स्वभाव उत्तर दिया-बहन ! पतिव्रता स्त्रीको तो बुढ़िया माई, तेरी गठरी ले चल, मेरा इसमें क्या ऐसी बात सोचनीभी नहीं चाहिए। पति और कुटुम्बी- बिगड़ता है, प्याऊ पर देता जाऊगा।" बुढ़िया बोलीजन सब मधुर वचन तथा सेवासे प्रसन्न होते हैं.- "नहीं बेटा वह बात तो गई, जो तेरे दिलमें कह गया मन्त्रादिसे वशीभत करने के प्रयत्नमें तो वे और भी परे है वही मेरे कानमें कह गया है । जा अपना रास्ता नाप, खिचते हैं।" यह सुनकर सत्यभामा मनही मन अत्यन्त मैं तो धीरे-धीरे पहुंच ही जाऊगी ।" घुड़सवार लज्जित हुई।
मनोरथ पूरा न होता देख अपना सा मुह लेकर चलता (२) एक मार्ग चलती हुई बुढ़िया जब काफी थक बना । चुकी तो राह चलते हुए एक घुड़सवारसे दीनतापूर्वक (३) हज़रत मुहम्मद, जबतक अरबवालोंने उन्हें बोली:-'भैया, मेरी यह गठरी अपने घोड़े पर रखले नबी स्वीकृत नही किया था तबकी बात है, घरसे और जो उस चौराहे पर प्याऊ मिले, वहां दे देना, रोज़ाना नमाज़ पढ़ने मस्जिद में तशरीफ लेजाते तो,
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वर्ष २ किरण ४]
कथा-कहानी
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रास्तेमें एक बुढ़िया उनके ऊपर कढ़ा डालकर उन्हें रत्नों की वर्षा होने लगी। इस प्रलोभनको एक बुढ़िया रोज़ाना तंग करती । हज़रत कुछ न कहते, चुपचाप सँवरण न कर सकी और उसने भी विधिवत् आहार मनही मनमें ईश्वरसे उसे सुबुद्धि देने की प्रार्थना करते बनाकर मुनि महाराजको नवधाभक्ति पूर्वक पड़गाहा । हुए नमाज़ पढ़ने चले जाते । हस्वादस्तूर मुहम्मद साहब मुनि महाराजके अँजुली करने पर बुढ़िया जल्दी-जल्दी एक रोज़ उधर से गुज़रे तो चुढ़िया ने कढ़ा न डाला। गरम खीर उनके हाथ पर खानेके लिए डाल, ऊपर हज़रत के मन में कौतूहल हुआ। आज क्या बात है जो देखने लगी कि अय रत्नोंकी वर्षा हुई, परन्तु मुनिमहाबुढ़िया ने अपना कर्तव्य पालन नहीं किया। दरवाज़ा राज का हाथ तो जल गया, किन्तु रत्न न बरसे । मुनि खुलवाने पर मालूम हुआ कि बुढ़िया बीमार है। हज़रत अन्तराय समझकर चले भीगये । मगर बुढिया ऊपर को अपना सब काम छोड़ उसकी तीमारदारी (परिचर्या) मुँह किये रत्न-वृष्टि का इन्तज़ार ही करती रही । उसकी में लग गये । बुढ़िया हज़रत को देखते ही कांप गई और समझ में यह तनिक भी नहीं आया कि निस्वार्थ और उसने समझा कि आज उसे अपनी उद्दण्डताओं का स्वार्थ मूलकभाव भी कुछ अर्थ रखते हैं ? फल अवश्य मिलेगा। किन्तु बदला लेने के बजाय उन्हें (५) कौरव और पाण्डव जब बचपन में पढ़ा करते अपनी सेवा करते देख, उसका हृदय उमड़ आया और थे, तब एक रोज़ उन्हें पढ़ाया गया- “सत्य बोलना उसने मुहम्मद साहब पर ईभान लाकर इस्लाम धर्म चाहिए, क्रोध छोड़ना चाहिए।" दूसरे रोज़ सबने पाठ ग्रहण किया । हज़रत के जीवन में कितनीही ऐसी झाँकियाँ सुना दिया किन्तु युधिष्टिर न सुना सके और वह खोए हैं, जिनसे विदित होता है कि सुधारकों के पथमें कितनी हुएसे चुप-चाप बैठे रहे, उनके मुँहसे उस रोज़ एक वाधायें उपस्थित होती हैं और उन सबको पार करनेके शब्द भी नहीं निकला । गुरुदेव झुंझलाकर बोले-युधिलिए विरोधियोंको अपना मित्र बनानेके लिए, उन्हें ष्ठिर तू इतना मन्दबुद्धि क्यों है ! क्या तुझे २४ घण्टे कितने धैर्य और प्रेममय जीवनकी आवश्यकता पड़ती में यह दो वाक्य भी कण्ठस्थ नहीं हो सकते, युधिष्ठिर है। विरोधीको नीचा दिखाने, बदला लेने आदिकी का गला भर आया वह अत्यन्त दीनता-पूर्वक बोलेहिंसक भावनाओंसे अपना नहीं बनाया जा सकता। गुरुदेव ! मैं स्वयं अपनी इस मन्द बुद्धि पर लज्जित हूँ। कुमार्गरत, भूला-भटका प्रेम-व्यवहारसे ही सन्मार्ग पर २४ घण्टेमें तो क्या जीवनके अन्त समय तक इन आ सकता है।
दोनों वाक्यों को कण्ठस्थ कर सका--जीवन में उतार (४) अक्सर ऋद्धिधारी मुनियांके आहार लेनेके सका-तो अपने को भाग्यवान् समझंगा। कलका अवसर पर रत्नोंकी वर्षा होती है । एक बारका पुराणों पाठ इतना सरल नहीं था जिसे मैं इतनी शीघ्र याद कर में उल्लेख है कि एक नगरमें जब ऋिद्धिधारी मुनियों लेता।" गुरुदेव तब समझे पाठ याद करना जितना का आगमन हुआ तो भक्तोंके घर आहार लेते हुए सरल है जीवन में उतारना उतना सरल नहीं।
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निहासिकमहामा
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TIMIT
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प्राचार्य हेमचन्द्र
[ लेo-श्री रतनलाल संघवी न्यायतीर्थ, विशारद ]
प्राक-परिचय
भारतीय साहित्य के प्रांगणमें प्रादुर्भत श्रेष्ठतम अलंकार, नीति योग, मन्त्र, कथा, चारित्र, आध्यात्मिक
'विभूतियों में से कलिकाल सर्वज्ञ श्राचार्य हेमचन्द्र और दार्शनिक आदि सभी विषयों पर आपकी सुन्दर भी एक पवित्र और श्रेष्ठतमदिव्य विभूति हैं । विक्रम संवत् और रसमय कृतियाँ उपलब्ध हैं । संस्कृत और प्राकृत ११४५ की कार्तिक पूर्णिमा ही इन लोकोत्तर प्रतिभा- दोनोंही भाषाओं में आप द्वारा लिखित महत्वपूर्ण और संपन्न महापुरुषका पवित्र जन्मदिन है। इनकी अगाधि भावमय साहित्य अस्तित्व में है। कहा जाता है कि बुद्धि, गंभीरज्ञान और अलौकिक प्रतिभाका अनुमान अपने बहुमूल्य जीवन में आपने साढ़े तीन करोड़ करना हमारे जैसे अल्पज्ञोंके लिए कठिन ही नहीं बल्कि श्लोक प्रमाण साहित्यकी रचना की थी। किंतु भारअसम्भव है। आपकी प्रकर्ष प्रतिभासे उत्पन्न महान् तीय साहित्य के दुर्भाग्य से उसका अधिकांश अंश नष्ट मंगलमय ग्रन्यराशि गत सातसौ वर्षोंसे संसार के सहृदय प्रायः हो चुका है। लेकिन यह परम प्रसन्नताकी बात विद्वानोंको पान.द-विभोर करती हुई दीर्घतपस्वी भग- है कि जो कुछ भी उपलब्ध है, वह भी आपकी उज्ज्वल वान् महावीर स्वामी के गूढ़ और शांतिप्रद सिद्धान्तोंका और सौम्य कीर्तिको सदैव बनाये रक्खेगा । समस्त सुन्दर रीति से परिचय करा रही है।
भारतकी ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्वकी संस्कृतसाहित्यका एक भी ऐसा अंग अछूता नहीं छूटा प्राकृत-प्रिय विदुषी जनता आपके दैवी प्रन्योंके लिए है, जिस पर कि आपकी अमर और अलौकिक लेखनी सदैव ऋणी रहेगी। न चली हो, न्याय, व्याकरण, काव्य कोष, छंद, रस, महान् प्रतापी राजा विक्रमादित्यको विद्वत्-समिति
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वर्ष २ किरण ४ ]
में जो स्थान महाकवि कालिदासका था, और गुणज्ञ राजा हर्षकी राजसभा में जो स्थान गद्य साहित्य के अनु पम कवि बाणभट्टका था; वही स्थान और वैसी ही गौरवपूर्ण प्रतिष्ठा आचार्य हेमचन्द्रको चौलुक्यवंशी गुजरात- नरेश सिद्धराज जयसिंहकी राज्य सभा में था अशोक के समान प्रतिभा सम्पन्न और अमारि-पडह के प्रवर्तक परमार्हत महाराज कुमारपालके तो आचार्य हेमचन्द्र साक्षात् राज-गुरु, धर्म-गुरु और साहित्य- गुरूथे । जीवन-परिचय
आचार्य हेमचन्द्रका जन्म स्थान गुजरात प्रान्तान्तर्गत "धंधुका" नामक नगर है, जो कि आजभी विद्यमान है । " इनकी माताका नाम “वाहिनी देवी" और पिता का नाम "चाच देव" था । ये जाति के "मोढ़ " महाजन थे | कहा जाता है कि जब हेमचन्द्र अपनी माता के गर्भ में आये, तब इनकी माताने यह स्वप्न देखा कि “मैंने एक चिन्तामणि रत्न पाया हैं, और उसे अपने गुरुदेवकी सेवामें भेंट कर दिया है।"
सौभाग्यसे दूसरे दिन उसी नगर में पधारे हुए श्री प्रद्युम्रसूरि के शिष्य आचार्य देवचन्द्रसूरिके स.मने पाहिनीदेवी ने अपने स्वप्नकी बात कही । आचार्य ने यही शुभ फल बतलाया कि तुम्हारे गर्भसे एक अगाध बुद्धि सम्पन्न पुत्र रत्न होगा; जो कि दीक्षित होकर जैनधर्मकी चिन्तामणिरत्न के समान प्रभावना करेगा । यह भविष्यवाणी आगे चलकर अक्षरशः सत्य प्रमाणित हुई ।
गर्भकाल के समाप्त होने पर यथा समय चाचदेव को पुत्र - रत्नकी प्राप्ति हुई। यह सन् १०८८ विक्रम ११४५ कार्तिक पूर्णिमा बुधवारकी बात है । पुत्रका नाम "चंगदेव" रक्खा गया। चंगदेव शरीर और कांति में चन्द्रकला के समान शनैः शनैः बढ़ने लगे । एक दिनकी बात है कि आचार्य देवचन्द्रसूरि ग्रामानु
आचार्य हेमचन्द्र
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ग्राम विहार करते हुए "धंधुका" पधारे और जैन मन्दिर में ठहरे । चंगदेव अपनी माताके साथ उनके दर्शनार्थ आये । आचार्य देवचन्द्रसूरिने चंगदेवकी बालसुलभ चांचल्य और बुद्धिमत्ता देखकर पाहिनी - देवी से कहा कि यह बालक इस कलिकाल में जैनधर्म के लिये भगवान् गौतम जैसा महान् प्रभावक और अत्युच्च कोटिका श्रेष्ठ साहित्यकार होगा तथा सम्पूर्ण गुजरात में "मारि अहिंसा" की विजयघोषणा करेगा । इसलिए मेरी इच्छा है कि इसकी मुझे भेंट करदे |
माता हर्षातिरेक और पुत्र प्रेमसे यांखों में आंसू लाती हुई गद् गद् हो गई और तत्काल ही अपने पति की बिना सन्मति लिये ही पुत्रको गुरुदेव के चरणों में समर्पण कर दिया । यह घटना संवत् १९५० की है। जबकि बालककी आयु केवल पांच वर्षकी थी । श्राचार्य श्री चांगदेवको साथ में लेकर खंभात पधारे। उस समय खंभातका शासक जैन कुलभूषण मन्त्री उदयन था। वहां पर चांगदेवको संवत् ११५० माघ शुक्ला चतुर्दशी शनिवारको दीक्षा दी और " सोम-चन्द्र" नाम - संस्करण किया ।
शिशुमुनि सोमचंद्रने दीक्षा-क्षणमे ही विद्याभ्यास और अन्य गुणार्जन में अपनी संपूर्ण शक्ति लगादी और १६ वर्ष में ही अर्थात् २१ वर्षकी आयु होते ही सोमचंद्र महान् विद्वान् और अनेक गुणसम्पन्न महापुरुष होगये । जैन- शास्त्रों और जैनेतर शास्त्रोंका विशाल मननपूर्वकवाचन, नूतनमार्मिक साहित्य निर्माण करनेकी शक्ति समयज्ञता, दंभरहित भाषामाधुर्यपूर्वक स्वाभाविक व्याख्यान वैभव, प्रखर तेज, प्रचंड वाग्मिन्ता, व्यवहार चतुरता, प्रकर्ष प्रतिभा, मौलिक विद्वत्ता, सामाजिक राजनैतिक और धार्मिक परिस्थितिज्ञता आदि सभी आवश्यक गुण मुनि सोमचंद्र में स्पष्ट रूपसे झलकने लगे।
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अनेकान्त
[माघ, वीर-निर्वाण सं० २४६५
__ प्राचार्यपद
करें। आप भेरी सभाके लिये सूर्य -समान सिद्ध होंगे । आचार्य देवचन्द्रसूरिने इस प्रकार आपकी सिद्ध उस दिनसे आचार्य श्री राजाकी विद्वत-सभाको शुशोसारस्वता और अन्य शुभ लक्षणोंको देखकर आपको भित करने लगे । शनैः शनैः दिन प्रति दिन राजाकी आचार्य पदवी प्रदान करनेका कल्याणप्रद निर्णय हमारे चरित्र नायकके प्रति अनन्य भक्ति और असाकिया। तदनुसार संवत् ११६६ वैसाख शुक्ला तृतिया धारण श्रद्धा बढ़ने लगी। तत्कालीन सभी जैन और (इक्ष-तृतीया ) के दिन मध्याह्नकाल में खंभात शहर में जैनेतर लब्धप्रतिष्ठित विद न आचार्य हेमचन्द्रकी प्रतिभा चतुर्विध संघके सामने आचार्य-पदवी प्रदान की और का लोहा मानते हुए अपनी अपनी विद्वत्ता को उनकी "आचार्य हेमचन्द्र सूरि" नाम ज़ाहिर किया । इस समय अद्वितीय विद्वत्ता के आगे हीन-कोटि की समझने लगे सोमचन्द्रसूरि उर्फ हेमचन्द्रसूरिकी आयु केवल २१ थे । यही कारण है कि सिद्धराज जयसिंहने जब राज्यवर्षकी ही थी।
सभा में नवीन संस्कृत-व्याकरणको रचनाका प्रस्ताव हमारे चरित्र-नायककी पूज्य माताजीने भी दीक्षा लेली रक्खा तो सभी विद्वानों की दृष्ठि एक साथ प्राचार्य थी। इस अवसर पर उन्हें भी साध्वी-वर्ग में "प्रवर्तिनी" हेमचन्द्र पर पड़ी। सभीने अपनी अपनी असमर्थता जैसा पवित्रपद प्रदान किया गया। यह आचार्य हेमचन्द्र- प्रगट करते हुए एक स्वरसे यही कहा कि इस पवित्र की असाधारण मातृ भक्तिका ही सुन्दर परिणाम था। और आदर्श कार्यका भार केवल आचार्य हेमचन्द्रही
आचार्य हेमचन्द्र खंभातसे विहार करके विविध सहन कर सकते हैं। अन्य किसीमें इस कार्यको स्थानोंको पवित्र करते हुए गुजरातकी राजधानी पाटणमें पूर्ण करने के लिए न तो इतनी प्रतिभा ही है और न पधारे उससमय वहांके शासक सिद्धराज जयसिंह थे। ___एक दिन मार्गमें हाथी पर बैठकर जाते हुए राजा गुजरातका प्रधान व्याकरण की दृष्टि प्राचार्य हेमचन्द्र पर पड़ गई । लक्षणोंसे 'अन्तमें आचार्य हेमचन्द्रने सिद्धराज जयसिंहके उसे ये महाप्रतापी नर-शार्दल प्रतीत हुए । तत्काल विनयमय आग्रहसे सुन्दर, प्रासादगुणसंपन्न, प्राञ्जल हाथी उनके समीप लेगया और हाथ जोड़कर बोला कि और लालित्यपूर्ण संस्कृत भाषामें सर्वाङ्गसम्पन्न वृहत् हे महाराज ! कृपया मेरे योग्य सेवा फरमाइये । आचार्य व्याकरणकी रचना की। व्याकरणका नाम “सिद्ध हेम" श्रीने काव्यमय उत्तर दिया कि "हे राजन् ! अपने इस रस्खा गया । "सिद्ध' से त त्पर्य सिद्धराज जयसिंह है दिग्गजको आगे-आगे चलाता ही जा; पृथ्वीकोधारण करने और "हेम" से मतलब आचार्य हेमचन्द्र है । वाले दिग्गज भले ही व्याकुल हों, क्योंकि वास्तवमें इस व्याकरणमें ८ अध्याय हैं। प्रथम सात अध्याय पृथ्वीका भार तो तुम्हीने अपने विशाल कंधों पर धारण में संस्कृत भाषाका व्याकरण है और शेष आठवें में कर रखा है । अतः दिग्गजों की परवाह कौन करता प्राकृत, शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिकाशाची है।" चतुर और मर्मज्ञ राजा काब्य चमत्कृतिपूर्ण उत्तर और अपभूश इन ६ भाषाओंका व्याकरण है। प्रथम सुनकर परम संतुष्ठ हुआ और विनय पूर्वक निवेदन किया सात अध्यायोंकी सूत्र-संख्या ३५६६ है और आठवेंकी कि, 'हे महाभाग ! आप सदैव राज-सभा में पधारा १११९ है । सम्पूर्ण मूल ग्रन्थ ११०० श्लोक प्रमाण है।
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वर्ष २ किरण ४]
प्राचार्य हेमचन्द्र
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संस्कृत-भागके प्रकरणोंका क्रम इस प्रकार है :-संज्ञाः है कि यह तत्कालीन उपलब्ध सब व्याकरणोंका स्वर-संधि, व्यंजन संधि, नाम, कारक, पत्वणत्व, स्त्री- नवनीत है । आचार्य हेमचन्द्रकी प्रकर्ष प्रतिभाका प्रत्यय, समास, आख्यात ( क्रिया ) कृदन्त, तद्धित और प्रदर्शन इसमें पद-पद पर होता है ।। प्राकृत प्रक्रिया । इस पर स्वयं प्राचार्य श्री ने दो वृत्तियां इसका आठवां अध्याय सम्पूर्ण भारतीय प्राचीन लिखी हैं । वृहत्वृत्ति १८ हज़ार श्लोक प्रमाण है और भाषाओंके व्याकरणों में अपना विशेष स्थान रखता है। छोटी ६ हज़ार श्लोक प्रमाण है। इनमें सब संस्कृत- संस्कृत व्याकरण के साथ प्राकृत-व्याकरणको भी संयोजित शब्दोंकी सिद्धि आगई है। कोई भी शेष नहीं रही है। करनेकी परिपाटी प्राचार्य हेमचन्द्रने ही स्थापित की छोटी-टीका मन्द बुद्धिवाले के लिये अत्यन्त उपयोगी है । वररुचि और भामह भादि अन्य आचर्योंने भी और सरल है । धातुरूप शान के लिये धातु-परायण उर्फ प्राकृत-व्याकरणकी रचना की है; किन्तु उनका दृष्टिधातु-पाठ ५ हज़ार श्लोक प्रमाण है । उणादि सूत्र २०० कोण संस्कृत नाटकों में आई हुई ( व्यवहृत ) प्राकृत, श्लोक प्रमाण हैं । अनेक प्रकार के ललित छन्दों में शौरसेनी आदि भाषाओका भावार्थ समझने तक ही रचित "लिंगानुशासन" तीन हज़ार श्लोक प्रमाण टीका रहा है, जब कि प्राचार्य हेमचन्द्रका अपने समय तकके मे युक्त है । इसी प्रकार कहा जाता है कि आचार्य पाये जानेवाले विविध भाषाओं के सम्पूर्ण साहित्यको हेमचन्द्रने अपने इस व्याकरण पर ८४००० श्लोक समझने के लिये और उन भाषाओंका अपना अपना प्रमाण बृहन्यास नामक विस्तृत विवरण भी लिखा था। स्वतंत्रव्यक्तित्व सिद्ध करने के लिये और उनका पावर. किन्तु दुर्भाग्यस आज वह अनुपलब्ध है । सुना जाता यक सम्पूर्ण व्याकरण रचनेका उद्देश्य रहा है । दूसरी है कि उसका थोड़ा सा भाग पाटन और राधनपुर के विशेषता यह है कि जिस प्रकार प्रसिद्ध वैयाकरण भण्डारोंमें । है इस प्रकार यह सम्पूर्ण कृति १ लाख और पाणिनि ने “छांदसम् " कह कर वेदकी भाषाका २५ हज़ार श्लोक प्रमाण कहीं जाती है। १ मूल (दो व्याकरण लिखा है; उसी तरहसे जैन-आगमों में व्यवहृत वृत्ति सहित) २ धातु-(सत्ति) ३ गणपाठ शब्दों की सिद्धि "आपम्" कह कर की है महाराष्ट्रीय ( सवृत्ति ) ४ उणादि-सूत्र ( सटीक ) और ५ लिंगानु- जैन प्राकृत और अपश-भाषाको समझानेका जितना शासन ( बृहतवृत्ति सहित ) ये पांच अंग सिद्धहेम प्रयत्न प्राचार्य हेमचन्द्रने किया है; उतना अन्यत्र नहीं व्याकरणके कहे जाते हैं।
देखा जाता है । अपभ्श भाषाके प्रति तो प्राचार्य स्वोपज्ञवृत्तिमें आचार्यश्रीने प्राचीन वैयाकरणों- हेमचन्द्रका वर्णन अद्वितीय है । भारतकी वर्तमान के मन्तव्योंकी ऊहापोह पूर्वक समालोचना की है; इससे अनेक प्रान्तीय-भाषाओंकी जननी अपभूश ही है । व्य करण-शास्त्र के विकास के इतिहासके अनुसन्धान में इस दृष्टिसे निश्चय ही भाषा-विज्ञान के इतिहास में प्राचार्य महत्त्व पूर्ण सहायता मिल सकती है। गुजरात के इस हेमचन्द्रको यह अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण कृति है। प्रधान व्याकरण में सूत्रक्रम, वृत्ति-कौशल, उदाहरण. अष्टम-अध्यायमें क्रमसे प्राकृत, शौरसेनी, मागधी, चातुर्य और व्याकरणके सिद्धन्तोंका विश्लेषण आदि पैशाची, चूलिकापैशाची, और अपभूश-भाषाओंका पर विचार करनेसे यह भली प्रकारसे जाना जा सकता व्याकरण है।
क्रमशः
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शिकारी
बट-वृक्षकी घनी डालियों में सूर्य तापमे सुरक्षित उसके मम्मुख दो समस्याएँ थीं । बच्चेका प्रेम और
'चिड़िया और उसका नन्हा-सा बच्चा बैठे विश्राम जीवनका लोभ । लेरहे थे। गर्मी पड़ रही थी। और वे दोनों दिन-भरके लेकिन निर्णय वह आम्मान में जाकर करेंगी। वह थके-मांदे थे। चिड़िया अधिक थकी नहीं थी। चाहती तो उड़ चली, इतनी ऊँची कि जहाँ मानवबल की पहुँच उड़कर सीधी अपने घोंसले तक पहुँच जाती और अपने नहीं है। अन्य बच्चों के बीच आराम करती; लेकिन वह बच्चेकी उधर ! व्याकुलता न देख सकी । बच्चा बेहद थक गया था और शिकारी की दुनाली बन्दूक चिड़ियाकी और तन अब एक पग भी और उड़ना उसके लिए दूभर हो गया गई। शिकारीने निशाना लगानेका प्रयत्न किया; था । चिड़िया-माँ को उसे छोड़ कर आगे बढ़ जाना लेकिन चिड़िया तेज़ीमे उड़ रही थी। सम्भव नहीं था।
शिकारी निशाना न लगा सका। वह प्रतीक्षा करने ठंडी वायुमें दोनों आँख मूंदे बैठे थे । थोड़ी देर लगा कि ज्यो ही चिड़िया पर थामे कि वह घोड़ा दबादे। में चिड़ियाने कहा- 'बेटा, अब चलें ?'
सहसा सुनाथोड़ा और ठहरो, माँ। अभी चलते हैं।' ...अन्य
'श्रो पगले, व्यर्थ है यह सारा परिश्रम । निश्चित मनस्क भावसे बच्चेने कहा।
बैठ। चिड़िया में माँ की ममता है। वह बच्चेके समीप दोनों चुप हो गये।
श्रायगी, अभी आयगी।' कुच देर पश्चात् चिड़िया ने फिर कहा, 'क्यों बेटा, शिकारी ठहर गया। अब चले ?'
-माँ की ममता! इतनी कि चिड़िया अपने प्राणों 'हाँ, मां, चलो।'
की भी चिन्तान करेगी? और उस निर्जीव बच्चे के लिए -~और ज्यों ही दोनों उड़ने को हुए कि- अपने प्राणोंको भी संकट में डाल देगी ? इतना त्याग ! ठीय-ठाय
इतना बलिदान !! और बच्चा पृथ्वी पर आ गिरा ! चिड़िया ने देखा। शिकारीका मस्तिष्क चक्कर खा उठा । बन्दूक तनी क्षण-भरको वह शान-शून्य हुई कि फिर संभल गई। थी, लेकिन निश्चेष्ट शरीरको लेकर वह अनुभव कर
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वर्ष २ किरण ४]
शिकारी
रहा था कि उसकी उँगलियोंमें जान नहीं है । और था । कहाँ बल था उसमें कि घोड़े को दबाकर चिड़िया जैसे उसके हृदयकी धड़कन थमती जा रही है। को शिकार बनाले।
चिड़िया आस्मानमें मँडराती रही और सोचती क्षण-भर निस्तब्धता छाई रही । चिड़िया निडर रही। लेकिन सारे मार्ग अवरुद्ध थे। केवल बच्चे के पास पर खोई-सी बच्चे से चिपटी वैठी थी । वह जानती थी जाने का मार्ग ही खुला था।
कि उसका घातक उसकी घात में बैठा है। इसकी
चिन्ता उसे लेशमात्र भी नहीं थी। विलम्ब न कर एक ही सपाटे में वह अपने बच्चे के मृत शरीर के समीप आ बैठी।
शिकारीकी बन्दूक अनायास ही नीचे भा गिरी।
एक ओर चिड़िया अपने प्यारे बचके विछोह पर शिकारीकी बन्दूक तनी थी।
गरम-गरम आँसू बहा रही थी, दूसरी ओर शिकारीकी निशाना लगा था।
आँखें मजल थीं और दो-दो अश्रु-कण उसके कपोलों और शिकारी आकुल मन को लिए चुपचाप बैठा पर लुढ़क रहे थे।
अन्तर-ध्वनि (ले० श्री कानन्दजी जैन )
अस्ताचल पर देख भानुको, सिहर उठा तन-मन सारा! चन्द्रदेव ! मुझपर क्यों हँसते, मैं तो आप दुखारी हूँ ! नर-जीवनका यह मौलिक दिन, और खोदिया इक प्यारा !! निज सम्पत खोकर घर घर का, हा! अब बना भिखारी हूँ !! व्यथित हुआ है अन्तरात्मा, विश्व भार ढोते ढोत ! यह सब देख हृदय जल उठता, सुप्त भाव जग जाते है। निकला अहां दिवाला ! वैभव, इसी तरह खाते खोते !! तपत बुझानेको अन्तरकी, नयन मीर भर लाते हैं !!
आशा थी नर-तन पाकर कुछ, घाटा पूरा कर लेंगे ! दूर हुआ हा ! भानु शानका, मन-मन्दिर अँधियारी है ! दर्शन-ज्ञान-चरण-रत्नों से कोठे अपने भर लेंगे !! घाव हृदयके छील रही यह, शशि-सुष्मा हत्यारी है !! फेंक भार को भव सागर से, जल्दी पार उतर लगे! मोह-ज्वरसे अति व्याकुल हूँ, मस्तक-पीड़ा भारी है ! मलिन कोठरी त्याग शुद्धतम, सिद्ध शिला पर घर लेंगे !! खाना पीना बातें करना, सब कुछ लगता खारी है !!
कल कल करते कल्प बिताये, नहीं कभी सुख-फल पाया ! इसके वैद्य आप ही हैं, यह जान शरण में आया हूँ ! मृग मरीचिका-सम भटका में, अन्त समय फिर पछताया !! मन है तुच्छ पास "स्वामिन्”, बस भेंट उसीकी सायाहूँ !! इस पागल पन पर मेरे यह. निशा मौन मुस्काती है ! दुष्कृत्यों पर पछताता हूँ, नीर नयन से जारी है ! शान्त व्योम से मूक-ध्वनि कुछ, कानों में कह जाती है !! लाखों मुझ से तारे अब तो, जिनवर ! मेरी बारी है !!
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हिन्दी-जैन-साहित्य और हमारा कर्तव्य
[ले०--श्री० अगरचन्द नाहटा ]
जन-साहित्य-सागर अगाध और अनुपम है, पर अपनी अकर्मण्यताको सर्वथा एवं सर्वदाके लिये तिला
हम उसके प्रति इतने उदासीन हैं कि चाहे सारा अलि देकर कर्तव्य पथ पर आरूढ़ होंगे। संसार जाग उठे पर हमारी निद्रा भंग नहीं होने की । हम हिन्दी-साहित्यके जो पांच-चार इतिहास प्रकाशित अपनेको इतना कृत्य-कृत्य मान चुके हैं कि हमारे पूर्वजों हए हैं, उनको उठाकर देखिए, कि उनमें कितने जैनने बहुत किया अब हमें कुछ करनेकी आवश्यकता कवियोंको स्थान मिला है ? बाबू श्यामसुन्दग्दासजी के ही प्रतीत नहीं होती । अपने घर में निधिको बन्द करके हिन्दी भाषा और साहित्यमें तो यथाम्मरण एकभी जैनन तो हम स्वयंही उससे लाभ उठाते हैं और न औरोंको का उल्लेख नहीं है । रामचन्द्रजी शुक्ल के हिन्दीही उठाने देते हैं । अपने मुँह मियां मिटू बन बैठे हैं
साहित्यके इतिहास में हिन्दी जैन-कवियों में केवल बनारसीऔर मनही मन फूले नहीं समाते । कहते हैं----हमारा
दामजीका ही संक्षिप्त उल्लेख है, उनके आत्मचरित्रादि जैनधर्म सब धर्मोंसे श्रेष्ठ हैं, हमारा साहित्य विश्व-माहित्य विशिष्ठ एवं हिन्दी-साहित्यमें अजोड़ रचनाके विषयमें में अजोड़ है; पर यह बात भला दूसरे लोग कब मानेंगे? कोईभी खास बात नहीं कही गई है। वक्तव्यमें तो जैन जब तक कि वे उसके प्रत्यक्ष प्रमाण उदाहरण नहीं
अपभश एवं हिन्दी-रचना साहित्यकी कोटिमें आने देख पायेंगे । किन्तु हमें इसकी कोई पर्वाहही नहीं है ? योग्य कोई है ही नहीं ऐसे भाव इन शब्दोंमें व्यक्त किये जगत के सामने अपनी बातोंको सिद्ध कर बताने के लिये हैं."अपभशकी पुस्तकोंमें कईतो जैनोंके धर्मतत्वहमारे पास समयही कहां है ? हमें तो अपनी ही डफली निरूपण सम्बन्धी हैं, जो साहित्य कोटि में नहीं सकतीं बजानेकी धुन लगी हुई है। समय क्या कह रहा है ? दुनिया और जिनका उल्लेख केवल यह दिखानेके लिये ही क्या कहरही है ? हमारे आलापितरागको सुन वह मुँह क्यों किया गया है कि अपभश भाषाका व्यवहार कबसे हो सिकोड़ रही है ? इत्यादि बातोंकी और हमारा ध्यानही रहा था।” ( वक्तव्य पृ० ४) नहीं है । हमेंतो अपने मुँह बड़ा होने में ही सन्तोष है ॥ सारांश यह कि विश्वकी दृष्टि में हम क्या है ? कहां खड़े
"नं० २ (वृद्ध नवकार ), नं० ७ ( जम्बू स्वामीहैं ? अन्य समाजोंके सामने हमारा क्या स्थान है ? इन रास), नं० ९ (नेमिनाथ चौ०) और नं० १० सब बातोंकी और हमारा तनिकभी लक्ष्य नहीं है। (उपएसमाल ) जैनधर्मके तत्व निरूपण पर हैं और ___इसका एक ताज़ा और ज्वलन्त उदाहरण मैं आप
साहित्य कोटि में नहीं सकतीं।" ( वक्तव्य पृ० ६) के सामने रखना चाहता हूं । आशा है इसे पढ़कर शुक्लजीने जम्बूरास, नेमिनाथ चौपई जैसे चरित्र
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वर्ष २ किरण ४]
हिन्दी-जैन-साहित्य और हमारा कर्तव्य
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ग्रन्थोंको भी जैनधर्म तत्व निरूपण के ( बिना देग्वेही) लगभग १०० के जैन-कवियों की नामावलि थी । यह कैसे ठहरा दिये ? इसे वही जाने ।
सूची सं0- में प्रकाशित हुई थी और अब कई मिश्चयन्धु विनोदके ४ भागों में यद्यपि बहुतसे जैन वर्षोंसे नहीं मिलती। कवियोंका नाम निर्देश है पर उनमें भूलभान्तियोंकी इसके पश्चात् श्रीयुत पं० नाथूरामजी प्रेमीने ठोस भरमार है । साहित्य दृष्टि से जिन कवियों व कृतियोंका कार्य किया। उन्होंने जनेतर विद्वानोंका इस ओर परिचय दिया गया है उसमें जैन कवि शायद ही हों। ध्यान आकर्षित करनेके लिए. “हिन्दी जैन साहित्यका हिन्दी साहित्य के विवेचनात्मक इतिहास में भी २-४
इतिहास" नामक एक विशिष्ट निबंध लिखकर उसे जैन कवियोंका नाम मात्र निर्देश है। इसी प्रकार हिन्दी- सप्तम हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन जबलपुर में पढ़ा था और माहित्य के ऐतिहासिक ग्रन्थोंको पढ़कर यह महज धारणा र
स्वतंत्र रूपसे प्रकाशित भी किया था। पर कई वर्षोंसे होती है कि साहित्य कोटि में आनेवाली हिन्दी भाषाकी वह भा अ
र वह भी अप्राप्य है। प्रेमीजीने इसके अतिरिक्त नैनजैन रचना प्रायः नहीं है अर्थात हिन्दी-साहित्य में जैन- हितैषी में जो कि उस समय उनके सम्पादकत्व में प्रकाकवियोंका कोई विशेष स्थान नहीं है। पर हम जब शित होरहा था, “दिगम्बर जैनग्रन्थ और उनके कर्ता" अपने जैन भण्डारीको देखते हैं तो यह धारणा निता.त नामका एक सूचा भा प्रक
नामकी एक सूची भी प्रकाशित की थी और उसे अज्ञान जन्य एवं भम मूलक प्रतीत होती है । सैकड़ों जैन स्वतन्त्र रूपस भी निकलवाया था; पर अब कई वर्षों ग्रन्थ हिन्दी गद्य तथा पद्यमें उपलब्ध होते हैं-खासकर ।
से वह भी नहीं मिलती। प्रेमीजी केवल इतना कार्य गद्य हिन्दीका प्राचीन साहित्य तो जैन रचनाके कर के ही नहीं रह गये, किन्तु उन्होंने प्रसिद्ध-प्रसिद्ध रूपमें सर्वाधिक प्राप्त है। हिन्दी साहित्यके इतिहास हिन
हिन्दी जैन कवियों के कई पदादि के संग्रह भी प्रकाशित ग्रन्थों में प्राचीन हिन्दी गद्य साहित्यका प्रायःअभाव मा ही किये हैं पर उनमसे 'बनारसी बिलास' जैसे उत्कृष्ट ग्रन्थ नज़र आता है और यह सब हमारी हिन्दी जैन साहित्य- अब नहीं मिलते । यह सब जैन समाजका दुर्भाग्य है जो की ओरसे उपेक्षा धारण करनेवाली परिणति है।
ऐसे में उपयोगी ग्रन्थ बोंसे नहीं मिलने परभी उनके अब मैं यह भी बतला देना आवश्यक समझता हूँ कि
प्रकाशनकी ओर कोई ध्यान नहीं है। इधर कई वर्षोंसे जैन विद्वानोंकी ओरसे हिन्दी जैन साहित्यके परिचय पुरातन हिन्दी साहित्य के परिचय और प्रकाशनकी विषयमें अब तक क्या क्या कार्य किया गया है ? इसका प्रवृति बहुत मन्द होगई है, परन्तु वोमे सोए हुए सिंहोंमें भी तनिक सिंहावलोकन कर लिया जाय, जिससे भविष्य अब फिर कुछ जागृतिकी लहर नज़र आने लगी है। हालही में कार्यकी दिशाका ठीक परिज्ञान हो सके और अच्छा में मृलचन्दजी वत्सलका हिन्दी-जैन-कवियोंका इतिहास मुगम मार्ग स्थिर किया जासके।
देखने में आया है। उसमें केवल दोही कवियांका ___ सबसे पहले मेरी दृष्टि में बाबू ज्ञानचन्द्रजी जैनी- परिचय है । आशा है वे भविष्य में शीघ्रही अन्य कवियों लाहौरका प्रयत्न है, उन्होंने अच्छी शोध खोज करके का इतिहासभी प्रगट करेंगे। हिन्दी जैन ग्रन्थोंकी एक सूची प्रकाशित की थी, दूसरा एक छोटासा ट्रक्ट "भूधर" कविके सम्बन्ध जिसमें तीनसौ से भी अधिक हिन्दी जैन ग्रन्थों और में गत वर्ष अवलोकनमें पाया था। उसके लेखक
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अनेकान्त
[माघ, वीर-निर्वाण सं० २४६५
महोदयसे भी इसी प्रकार अन्य कवियोंकी भी काव्य ही कार्य नहीं चलेगा । ग्रन्थतो बहुतसे प्रकाशित हैं, फिर समीक्षा प्रगट करनेका अनुरोध है ।
भी जैन साहित्यके विषय में जैनेतर विद्वान इतने श्वेताम्बर जैन समाजका केन्द्रस्थान गुजरात और अधिक अंधकार में क्यों हैं ? इसके कारण पर जब विचार राजपूताना है । वहां हिन्दी-भाषाका प्रचार पूर्व कालसे किया जाता है तो यह बात स्पष्ट जान पड़ती हैं कि हमने ही नहीं रहा । अतः श्वेताम्बर-समाजमें हिन्दी भाषाके ग्रन्थ अपने ग्रन्थोंको प्रसिद्ध प्रसिद्ध अजैन पुस्तकालयों एवं अपेक्षा कृत कम है । दिगम्बर साहित्यमें हिन्दीग्रन्थों की जैनेतर विद्वानोंके हाथों तक पहुंचानेकी ओर सर्वथा संख्या बहुत अधिक है । इधर ३०० वर्षों में रचित दुर्भिक्ष रक्खा है । अतः अब मेरे नम्र अभिशयानुसार अधिकांश ग्रन्थ हिन्दी में ही हैं । अतः हिन्दी समाजके हमें अपने प्रत्येक विशिष्ट ग्रन्थोंको जैनेतरपत्र सम्पादकों विद्वानोंका यह सर्व प्रथम एवं परमावश्यक कर्तव्य है के पास समालोचनार्थ तथा प्रसिद्ध प्रसिद्ध अजैन पुस्तकि वे अपने प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थोंको पूर्ण खोजकर कालयों एवं विद्वानोंको भेंट स्वरूप भेजना चाहिये। साथ उनके इतिहास नवनीतको शीघ्रातिशीघ्र जनताके ही हिन्दी सामयिक पत्रों में हिन्दी एवं अन्य सभी प्रकार समक्ष रक्खें।
के जैन साहित्यके सम्बन्धमें लेख बहुत अधिक संख्या में ___एक बात मैं कहदेना और भी आवश्यक समझता प्रकाशित करने चाहिये तभी हमारा साहित्य विश्व में है और वह यह है कि केवल ग्रन्थ प्रकाशित कर देनेसे अपना उपयुक्त स्थान पासकेगा।
'जिसका मन सत्यमें निमग्न है वह पुरुष तपस्वीसे भी महान् और दानीसे भी श्रेष्ठ है।' तीर सीधा होता है और तम्बूरे में कुछ झुकाव रहता है । इसलिये आदमियोंको सूरतसे नहीं, बल्कि उनके कामोंसे पहिचानो।' 'अहिंसा रुब धर्मों में श्रेष्ठ धर्म है । सच्चाई का दर्जा उसके बाद है।' 'यदि तुम नेकीको चाहते हो तो कामनासे दूर रहो क्योंकि कामना एक जाल और निराशा मात्र है।' 'कामनासे मुक्त होने के सिवाय पवित्रता और कुछ नहीं है और यह मुक्ति पूर्ण सत्यकी इच्छा करनेसे ही मिलती है। 'मनुष्यकी समस्त कामनाएँ तुरन्तही पूर्ण होजाया करें यदि वह अपने मनके क्रोधको दूर करदे ।' 'हृदयसे निकली हुई मधुरवाणी और ममता मयी स्निग्ध दृष्टि के अन्दरही धर्मका निवासस्थान है ।' 'सब प्रकारकी ईर्ष्यासे रहित स्वभावके समान दूसरी और कोई बड़ी नियामत नहीं है।' 'बुराईसे बुराई पैदा होती है, इसलिये आगसे भी बढ़कर बुराईसे डरना चाहिये ।'
-तिरुवल्लुवर
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हमारी
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लेखक
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विभूतियाँ श्रीनाथूराम प्रेमी
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श्री जैनेन्द्रकुमार
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[ हमारी समाज में वर्तमान में भी ऐसे साहित्य-सेवी, दार्शनिक, लेखक, कवि, दानवीर, धर्मवीर, देशभक्त और लोकसेवक विद्यमान हैं, जिनपर हमें क्या ससारको अभिमान हो सकता है । “अनेकान्तम" कुछ ऐसीही विभूतियों के परिचय देनकी प्रबल इच्छा थी । हर्ष है कि मेरी प्रार्थनाको मान देकर श्री. जैनेन्द्रकुमारजीने इस स्तम्भक उद्घाटन करनेकी कृपाकी है। -व्यवस्थापक ]
साई अयोध्याप्रसादजी चाहते हैं कि श्री नाथूराम कोई एक महीने तक मेरे यहाँ पड़ी रही । साहस न होता
'प्रेमीसे मेरा परिचय है. मी उनके बारे में कुछ था, किस भेज ? वहाँ भेज़ ! प्रकाशकोंके विषय में ऐसीलिखादं । परिचय मेरा उतना घना नहीं है जितना और वैसी कहानियां सुनी थीं और मैं एकदम नया था। बहुतोंका होगा। उम्रमें वह मेरे बड़े हैं। उस अर्थमं हम फिर जाने क्या मझा कि एकबार जीको कड़ा कर साथी नहीं हैं । मुझे सुध-बुध नहीं थी, तब उन्होंने मैंने पुस्तक नाथूराम प्रेमीजीको भेजदी । आशा थी हिन्दी-साहित्य के क्षेत्रमें स्मरणीय काम किया। बम्बईकी वह बेरंग वापिस पाजायगी। और उसकी कोई पूछ न उनकी हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर सीरीज़' हिन्दी-प्रकाशन में होगी। लेकिन भेजने के चौथे रोज़ही एक स्वत मिला कि शायद सबसे नामी ग्रन्थ-माला है । उसका प्रारम्भ हुआ पुस्तक आपकी मिली है । देखकर उत्तर दूंगा। उसके तब मैं बच्चा हूँगा।
तीसरे राज़ पत्र मिल गया कि पुस्तक हम छाप सकते हैं । ___ परिचय मेरा इस तरह हुआ । मेरे पास एक छोटी- और जो टस हो, लिखें रुपया हम पहले भी भेज सकते हैं । सी पुस्तक लिखी हुई थी। उसका नाम था 'परख' । वह मुझ नए लेखक के लिए यह व्यवहार अप्रत्याशित एक प्रकाशकको दी गई थी, लेकिन उन्हें वाइदा करने पर था। लेकिन श्री नाथूराम प्रेमीकी यही खूबी है। वह भी छापनेकी सुविधा नहीं हो सकी थी। नया लेखक था। व्यवहार में अत्यन्त प्रामाणिक हैं। और जहाँ लाभका परिचय मेरा था नहीं। कौन मेरी किताब छापता ? जो सौदा किया जाता है, वहाँभी वह प्रामाणिकता नहीं परिचित थे, वही छापना टालते रहे तो मैं और 'कससे तजेंगे, अपना लाभ छोड़ सकते हैं । स्या आशा कर सकता था? ऐसी हालतमें स्थानीय फिर तो परिचय घनिष्ट ही होता गया। मैंने देखा प्रकाशक-मित्रके यहाँसे लौटने पर पुस्तककी पाण्डु-लिपि कि उन्हें सत्साहित्यकी सहज परख है। किसी विद्वत्ताकी
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अनेकान्त
[ माघ, वीर - निर्वाण सं० २४६
समेटा भी नहीं। वह विस्तृत होते चले गए। विस्तृत अर्थात् समभावी ।
हमारा एक से अधिक बार साथ रहनेका मौका आया है । मैंने देखा कि उनमें युबकोचित स्फूर्ति है । कामको वह टालते नहीं; निबटाते जाते हैं। क्या छोटा क्या बड़ा, सब काम उन्हें समान है। इस बारे में झूटी लजा उनमें नहीं है । अपनेको साधारणसे अधिक नहीं गिनते । परिस्थिति के अनकूल अपने को निभा लेते हैं । साज बाज से वह दूर हैं। और जो ऊपरी है, उसमें वह नहीं फँसते । वह विद्वान् हैं, लेकिन सहानुभूति से शून्य नहीं हैं । यह गुण उनमें सामान्य से अधिक है। हृदय उनका कोमल है । इतना कोमल है कि ज़रूरत से ज्यादा । तबियत से वह परिवार के आदमी हैं। सच्चे अर्थों में सद्गृहस्थ | सहानुभूतिको बांटते चलते हैं । अपनेको एकाकी और अलग बताकर बड़े बनने की उनमें स्पर्धा नहीं है । उनकी विशेषता यह है कि वह उपदेशक नहीं हैं । सुहृद हैं । आपको लैक्चर नहीं देते। चुपचाप आपके काम
जाते हैं। आजके प्रचारवादी युग में यह विशेषता दुर्लभ है। हर कोई एक-दूसरेको सीख देने को और सुधारनेको तत्पर दीखता है । काम आने के समय उद्य कम लोग दीखते हैं ।
कसौटी पर कसकर वह उसे नहीं जाँचते हैं। ऐसी कसौटी तो बल्कि सब जगह काम भी नहीं दे सकती । सहज - बुद्धि द्वारा ही वह सत् और असत् में भेद करते हैं। उनकी शिक्षा अधिक नहीं है, लेकिन बुद्धि पैनी है। और बारीकसे बारीक बात में भी वह खोते नहीं हैं। अध्यवसाय उनका अनुपम है । उसीके बल पर प्रेमीजी आज विद्वान ही नहीं हैं, सफल साहित्य-कर्ता हैं और सफल व्यवसायी हैं।
एक बातसे वह बरी हैं। महत्वाकांक्षा उनकी कर्तव्य से आगे नहीं जाती । कल्पनाओं में वह नहीं बहकते । जो करना है, करते हैं। और नामवरी दूसरेके लिए छोड़ सकते हैं। प्रदर्शन का मोह उन्हें नहीं है । और सभा-समाज में आप उन्हें पहचानने में भूलभी कर सकते हैं | अनायास वह आगे नहीं दीखेंगे और पीछे बैठकर भी वह नहीं सोचेंगे कि पीछे बैठे हैं ।
बिना पूँजी बम्बई जैसे शहर में उन्होंने हिन्दी भाषा का प्रकाशन आरम्भ किया और उसे सफल बनाया । यह सब प्रामाणिकता और अध्यवसायके बल पर । अपना व्यवसाय सफल और भी बनाते हैं. लेकिन इसमें वह अपनी दृष्टि को भी परिमित बना लेते हैं। प्रेमीजी का काम निरा धंधा नहीं था। उनमें दृष्टिका विस्तार आवश्यक था। नई से नई प्रगतिका उस पर प्रभाव था । संकीर्णता उस व्यवसाय में निभ नहीं सकती थी । व्यक्ति जागरूक न रहे तो वह तनिक पिछड़ भी जा सकता है। लेकिन प्रेमीजी पिछड़े नहीं । उनके हिन्दी ग्रन्थ- कार्यालय की साहित्यिक दृष्टिसे अब भी सबसे अधिक प्रतिष्ठा है । यह छोटी खूबी नहीं है। प्रेमीजी जैन संस्कारों को लेकर जैनोंके प्रति तनिक भी पराये नहीं हैं। दिगम्बर हैं; लेकिन श्वेताम्बर भी उनके समान निकट हैं। उसी तरह वह जैनेतर समाजके बीच अपना स्वत्व कायम रख सकते हैं। उन्होंने अपनापन नहीं खोया । लेकिन उसे
पर प्रगट में उग्रता नहीं तो भी असली हड़ता तो उनमें है। उनका जैन- हितैपी अब भी जैनियोंको याद है । अग्रगामी सब आन्दोलनोंके वह साथ दीखे | और भरसक सुधार को वह अपने जीवन में उतारते गए । लेकिन वह इस प्रकार कि विरोध के बीज न पड़ें। हृदय के उदार, पर कर्म से उन्होंने अनुदारोंका भी साथ नहीं छोड़ा । सामाजिक भावसे वह हिल मिलकर चले ।
यह हेलमेलकी वृत्ति उनके संस्कारों में गहरी है । वह नेता नहीं है; न क्रांतिकारी हैं। न शास्ता हो सकते
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श्री नाथूराम प्रेमी
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हैं । वक्ताभी वह नहीं हैं, वह मंच पर आकर बोलनेसे काममें चुस्त, व्यवहार में तत्पर, वह एक सच्चे मित्र बेहद बचते हैं । यह नहीं कि उनके विचार सुलझे नहीं हैं। बुराईकी उनमें क्षमता नहीं । स्वभावसे धर्म-भीरु । हैं, या भावनाकी कमी है। सो तो एक बार जब वह मालूम होता है कि बहुत चेष्टा पूर्वक उन्हें असत् प्रवृत्ति मेरे अनुरोध पर बोले; उनकी वक्तृता अतिशय सुसंगत को नहीं जीतना पड़ता। वैसी प्रवृति असलमें उनमें थी। बेशक जोश उसमें नहीं था। न जोश उभारनेकी निसर्गसे ही दुर्बल है । अनायास वह नेक हैं । बदी कोई उसमें शक्ति थी। स्फूर्ति नहीं, अनुभवकी उसमें अपील उनसे मानों अत्यन्त प्रयत्न पूर्वक ही हो सकती है । वह थी।
मूलसे सजन हैं। प्रेमीजी कर्मशील कार्यकर्ता हैं । वाग्मिताका उनमें मैं मानता हूँ कि उनके जीवन-कार्यमें प्रामाणिक अभाव है। लहरसे उल्टे नहीं चल सकते। लेकिन सदवृत्तिकी एक मूल धारा रही है। और इसीके लहरमें बहते भी नहीं। और विघ्न-बाधाओंके बीच कारण उनके जीवन में हम सबके लिए बहुत कुछ अपने काममें लगे रह सकते हैं।
अनुकरणीय है।
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दर्शन और बन्धन!
यदि बन आए तो चरणों पर, मैं तर मन्दिर में प्रवेश
यह तन मन धन दं सभी वार ! गदगद होकर कर रहा नाथ ! पर मैं तो विकसित पुष्पराशि--
पर चरणों को तो घेरे हैंसे पूर्ण रहित हूँ, रिक्त हाथ !
ये चढ़े हुए अनगिनत हार ! (२)
तत्काल इन्हें चुन चुन करके, यदि निश्चय सत्य-मार्ग पर हूँ,
मैं फेंक क्यों न अभी उतार ! उस में न योग्यता का छिपाव%B तब तो यह बन्धन है कलङ्क !
आते है जो आहादित हो, दर्शन-बन्धन में क्या लगाव ?
तेरे दर्शन की लिये प्यास ! (३)
ये पुष्प-प्रदर्शन कर देतेशंकाओं से होकर स्वतन्त्र,
तेरे पद-चुम्बन से निराश !! हीनत्व, प्रभाव, इसे न मान; निर्बलता को आमन्त्रित कर, तो फिर क्यों मांगू क्षमा-दान?
ये है भक्तों का खण्ड-मान,
सत्ताधारी का अहंकार ! पर बात यहीं तक नहीं अन्त;
इन पुष्पहार ने किया बन्दपाया हूँ यह लेकर विचार
चरण-स्पर्शन का दिव्य द्वार !! (रचयिता :-श्री० कल्याणकुमार जैन 'शशि')
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गोत्रकर्म-सम्बन्धी विचार
(ले०-७० शीतलप्रसादजी)
[अनेकान्त'की सुन्दर समालोचनाके साथ यह लेख 'जैनमित्र के पिछले पौष शुक्ल १ के अङ्कमें मुद्रित हुआ है, और वहां इसे 'अनेकान्त में भी प्रकट कर देनेकी मुझे प्रेरणा की गई है। जैनमित्रका यह लेख अपनेको सुसम्पादनसे विहीन और अवतरणों तथा छापे आदिकी अनेक त्रुटियों- अशुद्धियोंको लिये हुए जान पड़ा, और इसलिये मुझे उसको जैनमित्र परसे ज्योंका त्यों उद्धृत करने में संकोच होता था। बादको ब्रह्मचारीजीने उसकी एक अलग मुद्रित कापी भी, मात्र दो तीन अशुद्धियोंको ठीक कर के, मेरे पाम भेजी और उसे अनेकान्तमें छाप देनेका अनुरोध किया। ऐमी हालत में भाषा आदिका कोई सुधार-संस्कार किये बिना ही यह लेख ब्रह्मचारीजीकी उक्त कापीके अनुसार ज्योंका त्यों प्रकट किया जाता है। साथमें कुछ स्पष्टीकरणादि के लिये एक सम्पादकीय नोट भी लगा दिया है, जिसे पाठक लेखके अन्तमें देखने की कृपा करेंगे। --सम्पादक ]
गोत्रकर्म पर एक लेख बाबू सूरजभानजीका अने- नरकगति, गत्यानुपूर्वी, नर कायु. तिर्यञ्चआयु, देवायु,
"कान्त पृष्ठ ३३ से ४७ तक है व पं० जुलगकिशोर- वैक्रियिक शरीर, व अङ्गोपांग, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी जी लि. पृ० १२९ से १३६ तक है। दोनों लेख विद्वानों इन २० को निकाल देना चाहिये । इन १०२ में नीच को गौर से पढ़ने योग्य हैं।
गोत्र उच्चगोत्र दोनों गर्भित हैं। बाबू सूरजभानजी ने यह सिद्ध किया है कि देवोम गाथा ३०० में मानवोंमें नीचगोत्रकी उदय जैसे उच्चगोत्रका ही उदय है वैसा मनुष्योंमें भी होता व्युच्छित्ति पंचम देशविरति गुणस्थानमें है- अर्थात् नीच है व उसके प्रमाण में कर्मकाण्ड गोमट्टसार गाथा २८५ गोत्रका उदय पांचवें गुणस्थान तक मनुष्यों के भीतर लिखी है। उस गाथाकी संस्कृत टीकामें वाक्य हैं- होसकता है, आगे नहीं । कर्मकाण्ड गाथा २०३-३ से उच्चैर्गोत्रस्योदयो मनुष्ये सर्वदेवभेदके ।--भाषामें पं० विदित होगा कि भोगभूमिके मानवोंके नीचगोत्रका टोडरमलजीने अर्थ दिया है "उच्चगोत्रका उदय उदय नहीं होता। उनके ७८ का उदय होता है । भोगकिसी मनुष्यों व सर्व देवों में है। अर्थात् सर्व मनुष्यों भूमिके मानवोंके उच्चगोत्रका ही उदय होता है। में नहीं । आगे कर्मकाण्डकी गाथा २९२ प्रगट वास्तवमें मनुष्योंके दोनों गोत्रोंका उदय हैं व करती है कि मनुष्योंमें उदय योग्य प्रकृतियां १०२ हैं। एकही वंशमें आचरण के कारण गोत्रका उदय बदल १२२ में से स्थावर, सूक्ष्म, तिर्यचगति व गत्यानुपूर्वी, जाता है । आर्यखण्ड में जब कर्मभूमि हुई तब मानवों प्रातप, उद्योत, एकेंद्रिय से चार इन्द्रिय जाति, साधारण में नीच-ऊच का भेद होगया । उस समय जो लोक
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गोत्रकर्म-सम्बन्धी विचार
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निंद्य काम करने वाले मानव थे। उनके नीचगोत्रका साता असाता भेद हैं । जब साताकारी थाहरी निमित्त उदय होगया, जिनके पुरुषों में भोगभूमिमें उच्चगोत्र होता है तब जीवके साताका व जब असाताकारी का उदय था।
निमित्त होता है तब असाताका उदय कहते हैं । जैसे नारक तिर्यंचोंमें सदा नीच व देवों में सदा निश्चय नयसे सर्व ही परवेदना असाता है। देवोंके उच्चका उदय होता है । वैसा मानवोंमें एकसा
उच्चगोत्रके माननेका कारण उनके शरीर पुद्गलकी नियम नहीं है।
उच्चता है। मलमूत्रका न होना, कवलाहारका न गोत्रकर्मका कार्य
होना, रोगादिका न होना । बर्ताव में ऐसा है कि सब गोम्मटमार जीवकाण्ड गाथा ११३-१९७॥ लाख कोड़ देव क्रीड़ा करते हैं। कुलोका वर्णन करती हुई कहती है-"उच्चैर्गोत्र- व्यवहार में कोई परकी देवांगना से भीग नहीं नीचैगोत्रयोः उत्तरोत्तरप्रकृतिविशेशादयैः संजाताः वंशा करता है । मदिरा मांस खाते नहीं हैं। मानव नारक व कुलानि ।"
तिर्यचकी अपेक्षा, पुद्गलोंकी व लौकिक व्यवहारकी भावार्थ-उच्चगोत्र नीचगोत्रकी उत्तरोत्तर अनेक उत्तमता है। उन पर्यायों में पीतादि तीन लेश्याए शुभ प्रकृति विशेष के उदयसे जो उत्पन्न होते हैं वंश होती है । किल्विष जाति के देवोंका व भूतपिशाचोंका उनको कुल कहते हैं । कुलांका कथन ११७ तक हैं। भी शरीर समचतुन संस्थान होता है। यहां वे कामदेव पंडित टोडरमलजी लिग्बते हैं.-जिन पुद्गलोंसे शरीर से भी सुन्दर होते हैं। उच्चगोत्रके तारतम्यसे अनेक निपजे तिनके भेद कुल हैं।
भेद होते हैं । इससे देवों में जातिभेद है। नारकियों १९७।। लाख करोड़ कुल सर्व संसारी जावकि होत का शरीर हुडक, कुत्सित होता है। खराब पुद्गलोंसे हैं । गोत्रकर्मक उतने ही भेद होते हैं । उनसे शरीर बना है । वर्ताव भी कष्टप्रद है। इससं नीच गोत्रका की जड़ बनती है । जैसा बीज होता है वैसा असर उस उदय माना गया है। तिर्यचौका शरीर अनेक प्रकार वीर्य से उत्पन्न शरीरमें व जीवमें बना रहता है । जैस पुदगलोम रचित है । मनुष्यके मुकाबलेमें उनका आनके वृक्ष में व फल में आमके बीजका असर रहता व्यवहार व वर्ताव व रहन-सहन मब निम्न श्रेणीका है। है। गोत्र कर्भ जीव विपाकी है । खानदानी बीजका व घासपर जी सकते हैं, मनुष्य घास पर नहीं जी सकता। असर जीव में बना रहना गोत्रकर्मका कारण है। इत्यादि कारणांस उनके नीचगोत्रका उदय व्यवहार ___ नारकियोंका गोत्रकर्म नारकियोंका आचरण में माना गया है । नरक क्षेत्रके योग्य रखता है । देवांका आचरण गोत्र- मानवोंमें दोनों गोत्रोंका उदय होता है । जिस कर्म देवोंके अनुसार रखता है। तिर्यचौक आचरण देशमें व क्षेत्रमें जो वंश निंद्य आचरण वाले माने तियंचके अनुसार । इन तीन गतिके जितने कुलक्रम जाते हैं उनसे उत्पन्न मानव के जन्म समय नीच गोत्र हैं वे गोत्रकर्मक उदय से होते हैं, उच्चगात्र नीचगोत्र का उदय व जो वंश या कुल अपेक्षासे ऊच माने जाते की संज्ञाए परस्पर सापिक्ष है । व्यवहार नयसे हैं, हैं उनसे उत्पन्न मानवमें जन्म समय उच्चगोत्र का उदय उपचार से हैं । जैसे वेदनीय कर्म एक है, व्यवहारसे माना जायगा । यह सर्व ही आर्यखण्ड व म्लेच्छखण्ड
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अनेकान्त
[माघ, वीर-निर्वाण सं० २४६५
वासियोंके होता है । म्लेच्छखण्डोंमें भी खेती, वाणिज्य, वर्तमान जानी हुई दुनियां में सर्व देशों के मानवोंमें राज्यादि व चांडालादि कर्म करनेवाले होते हैं। दोनों गोत्रोंका उदय किसी न किसी मानव के मानना
मनुष्योंमें योग्य आचरणकी मान्यता लोगोंमें होगा। नीच ऊँचकी कल्पना सर्व देशोंमें रहती है। बढ़नेसे वह मानव माननीय होकर नीच गोत्रके उदयको स्वाभाविक है । जैसे शरीरमें उत्तम अंग मस्तक है न भोगकर उच्च गोत्रका उदय भोगता है। जो उच्च नीचा अंग पगथली है । जो दीनहीन सेवक मदिरापायी गोत्री अयोग्य आचरणसे लोकनिंद्य होजाता है वह उच्च आदि हैं वे सब जगह नीच माने जाते हैं। तो भी गोत्रके उदयको बंद करके नीच गोत्रका उदय भोगने कोई नियत आचरण नीच कुलों का स्थापन नहीं किया लगता है । गोत्र परिवर्तन न हो तो कर्मभूमिके मानवों जा सकता है । यह उच्च व नीच आचरणकी मान्यता के अवसर्पिणी कालमें भोगभूमिकी संतान होनेमे सबके उस स्थान के लोगोंकी मान्यतापर है । जैसे कोई ठण्डी उच्च गोत्रका उदय ही हो सो ऐसा नहीं माना जासकता, हवामें साता कोई असाता मान लेता है। कर्मकाण्डकी गाथाओंसे । उत्सर्पिणीमें पहले कालमें व वास्तव में गोत्रकर्म वंशकी परिपाटीकी संतानको अवसर्पिणीके छठे कालमें नीच आचरण होनेसे मानवों व उसके आकारको ही निर्णय करता है। उसका असर में बहुत के नीन गोत्रका उदय होता है, फिर उत्सर्पिणी जीवके वर्तनपर पड़ता हैं । इससे इसको जीवविपाकी के दूसरे तीसरे काल में उनकी संतानोंमें योग्य व लोक- माना गया है। मान्य चारित्र होनेसे उच्च गोत्रका उदय होजाता है।
सम्पादकीय नोटश्री ऋषभदेव द्वारा स्थापित तीन वर्ण लौकिक हैं व काल्पनिक हैं व भरतजी स्थापित ब्राह्मण वर्ण भी
. इस लेखमें मेरे और बाबू सूरजभानजीके ऐसे दो काल्पनिक है । जैसे श्री वीरसेनाचार्य धवलटीकामें लेखाका उल्लेख है और उन्हें गोरस पढ़नका विद्वानालिखते हैं। देखी अने० पृ० १३२ नं० (५) को प्रेरणा भी की गई है; परन्तु विचार उनमेंसे सिर्फ बाबू काल्पनिकानां।
सूरजभानजीके लेख पर ही किया गया है । अच्छा होता इन चार वर्ण धारियोंमें जो प्रशंसनीय प्राचारके यदि ब्रह्मचारीजी मेरे लेख पर भी अपने विचार प्रकट धारी हैं वे नीच गोत्रीसे सद् शूद्र याने लोक पूज्य कर देते । अस्तु । लेखको मैंने दो तीन बार पढ़ा परन्तु आचरणका धारी शूद्र जैन साधु होसकता है व सुश्राच- उस परसे यह पूरी तौर पर स्पष्ट नहीं हो सका कि लेखम रणी म्लेच्छ भी मुनि होसकते हैं । कर्मोंका उदय नोकर्म कौनसी बातको लेकर किन हेतुओंके साथ उसे विचार या बाहरी निमित्तके भाधीन आता है। जहां आचरण के लिये प्रस्तुत किया गया है। हां, कुछ प्रमाण-शून्य लोकमान्य है, वहीं उच्चगोत्रका उदय है। जहां आचरण ऐसी बातें ज़रूर जान पड़ी जो पाठकोंको चक्करमें डाल लोक-निंद्य है वहीं नीच गोत्रका उदय मानना होगा। देती हैं और कुछ भी निर्णय नहीं कर पातीं। नीच जिस प्रांत या देशकी जनता जिस आचरणको बुरा इन्हीं सब बातोंको दिग्दर्शन कराया जाता है:-- मानती है वह लोक निंद्य है । जिसे अच्छा मानती है (१) गोम्मटसार-गाथा नं० २८५ की टीकाओंक वह लोकमान्य है।
आधार पर जो यह प्रतिपादन किया गया है कि 'उच्च
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गोत्रकर्म-सम्बन्धी विचार
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गोत्रका उदय किसी मनुष्यमें है, सर्व मनुष्योंमें नहीं' पांचवें गुणस्थान तक नीच गोत्रका उदय हो सकता वह एक प्रकारसे व्यर्थ जान पड़ता है। क्योंकि बाबू है' वह एक अच्छा प्रमाण ज़रूर है; परन्तु उसका कुछ सूरजभानजीने सब मनुष्यों अथवा मनुष्यमात्रको उच्च- महत्व तब ही स्थापित हो सकता है जब पहले यह सिद्ध गोत्री नहीं बतलाया । पं० टोडरमलजीका "किसी कर दिया जावे कि 'कर्मभूमिज मनुष्योंको छोड़कर मनुष्य" शब्दोंका प्रयोग भी मनुष्यों के किसी वर्गका शेष सब मनुष्यों से किसी भी मनुष्यमें किसी सूचक जान पड़ता है और वह उस वक्त तक 'कर्मभूमिज' समय पांचवां गुणस्थान नहीं बन सकता मनुष्योंके लिये व्यवहृत समझा जा सकता है जब तक है।' बिना ऐसा सिद्ध किये उक्त सामा य कथनसे प्रकृत कि उसके विरुद्ध कोई स्पष्ट उल्लेख न दिखलाया विषयमें कोई बाधा नहीं आती। जाय । बाबूजीने अन्तरद्वीपजोंको नीचगोत्री बतलाकर (४) कर्मकाण्ड-गाथा नं. ३०२, ३०३ के एक वर्गके मनुष्योंको नीचगोत्रके उदयके लिये छोड़ आधार पर भोगभूमिया मनुष्योंके, ७८ प्रकृतियोंके उदय रक्खा है--मन्मूर्च्छन मनुष्य भी नीचगोत्री ही हो सकते का उल्लेख करके, जो उच्चगोत्र का ही उदय होना प्रतिहैं-ऐसी हालतमें कर्मभूमिज मनुष्योंको उच्चगोत्री पादित किया गया है वह निरर्थक जान पड़ता है; बतलाना उक्त टीका वाक्योंसे बाधित नहीं ठहरता, और क्योंकि बाबू सूरजभानजीने अपने लेखमें उन्हें उच्चइसलिये बिना किसी विशेष स्पष्टीकरण के उनका दिया गोत्री स्वीकार ही किया है, सिद्धको साधना व्यर्थ है। जाना व्यर्थ जान पड़ता है।
हां, इस उल्लेख परसे ब्रहाचारीजीका मनुष्योंमें उदय
यमि योग्य १०२ प्रकृतिवाला उल्लेख और भी निःसार हो उदय योग्य १०२ प्रकृतियोंका कोई उल्लेख नहीं है, जाता है और यह स्पष्टरूपमे समझमें आने लगता है बद उल्लेख गाथा नं० २९८ में ज़रूर है और उसमें कि मनुष्य जातिकं सब वर्गोमें उदययोग्य प्रकृतियाँ जिन प्रकृतियोंका उल्लेख है उनमें नीच गोत्र भी शामिल की संख्या १०२ नहीं है । और इस लिये गाथा नं. हैं: परन्तु वहां यह नहीं बतलाया कि ये १०२ प्रकृतियां २९८ का कथन मनुष्य-सामान्यको लक्ष्य करके ही कर्मभूमिज मनुष्यों में ही उदययोग्य हैं । सामान्यरूपसे किया गया है। मनुष्यजातिक लिये उदय-योग्य कर्मप्रकृतियोंका (५) "वास्तवमं मनुष्योंके दोनों गोत्रोंका उदय उल्लेख किया है और साफ तौर पर 'ओघ' शब्दका है," ब्रह्मचारीजीके इस वाक्यमें प्रयुक्त हुए, 'मनुष्यों प्रयोग किया है, जो सामान्यका वाचक है । इसमे नीच पदका अर्थ यदि ‘मनुष्यमात्र' का है, तब तो उनका गोत्रके उदयका निर्देश अन्तरद्वीपजों और सन्मूर्छन यह कथन अपने उस पूर्व कथनके विरुद्ध पड़ता है मनुष्योंके लिये हो सकता है। बिना स्पष्टीकरणके मात्र जिसमें वे भोगभूमियोंके सिर्फ उच्चगोत्रका ही उदय इस समच्चय-कथनसे कोई नतीजा बाबू सूरजभानजीके बतलाते हैं। और यदि उसका अभिप्राय किसी वर्गलेखके विरुद्ध नहीं निकाला जासकता।
विशेषके मनुष्योस है तो जब तक उसका सूचक कोई (३) उक्त ग्रन्थकी गाथा नं० ३०० के आधार विशेषण साथमें न हो तबतक यह नहीं समझा जा पर जो यह प्रतिपादन किया गया है कि मनुष्य में सकता कि इस वाक्यक द्वारा बा. सूरजभानजी के
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अनेकान्त
[ माघ, वीर - निर्वाण सं० २४६५
कथनका कोई विरोध होता है। तब यह वाक्य निरर्थक- कर्मकी ऊँच-नीचता नहीं मानते, किन्तु लौकिक जैसा ही रह जाता है।
कर्माश्रित ऊंच-नीचता का विधान करते हैं और उसी के आधार पर गोत्रकर्मके उदय अस्त का नृत्य होना बतलाते हैं ? यदि ऐसा है तब तो यह आपका एक निजी सिद्धान्त ही ठहरेगा, और इस सिद्धान्त के अनुसार एक जन्म में सैंकड़ों ही नहीं किन्तु हज़ारों बार गोत्रका परिवर्तन हो जाया करेगा; क्योंकि आम तौर पर मन-वचन-कायके कर्मद्वारा क्षण क्षण में (बहुत कुछ शीघ्र ) मनुष्यपरिणति पलटती रहती है- प्रायः शुभसे अशुभ और अशुभसे शुभरूप होती रहती है । ऐसी हालत में गोत्रकर्म एक खिलवाड़ हो जायगा और उसका कुछ भी सैद्धान्तिक मूल्य नहीं रहेगा | साथ ही, विद्यानन्द स्वामीने आर्योंके उच्चगोत्रका जो उदय बतलाया है वह बात भी नहीं बन सकेगी । अतः ब्रह्मचारीजीको पूर्ण विवेचनात्मक दृष्टिसे अपने कथनका स्पष्टीकरण करना चाहिये । योंही चलती अथवा जो मन आई बात कह देने से कोई नतीजा नहीं ।
(७) गोम्मटसार--जीव काण्डकी गाथा नं० ११३ में संस्कृतका वैसा कोई वाक्य नहीं है, और न उसका कोई आशय ही संनिविष्ट है, जिसे उक्त गाथा "कहती है" इन शब्दों के साथ उद्धृत किया गया है और फिर जिसका भावार्थ दिया गया है ! उक्त गाथाकी संस्कृत छाया इस प्रकार है.
कारण
( ६ ) एकही "वंश में आचरण के गोत्रका उदय बदल जाता है," इसके समर्थन में कोई प्रमाण नहीं दिया गया, और न इसी गतको किसी प्रमाणसे स्पष्ट किया गया है कि उच्चगोत्री भोगभूमियों की संतान कर्मभूमिका प्रारम्भ होते ही कैसे ऊँच-नीच गोत्र में बँट जाती हैं ? भोगभूमि के समय जिनके पूर्व पुरुषों- माता-पितादिमें उच्चगोत्रका उदय था उनके किसी लोकनिंद्य कामके करने मात्र से एकदम नीच गोत्रका उदय कैसे होगया ? क्या गांत्रकर्मके उदय और अस्तका आधार लोककी वह अनिश्चित् मान्यता है, जो सदा एकरूपमें नहीं रहा करती ? युक्ति और आगमसे इन सब बातोंका स्पष्टीकरण हुए बिना ब्रह्मचारीजी के उक्त कथनका कुछ भी मूल्य नहीं आँका जा सकता वह उनकी निजी कल्पना ही समझी जायगी। प्रत्युत इसके, उनका यह कथन श्री पूज्यपाद, अकलंकदेव और विद्यानन्द - जैसे आचार्योंके विरुद्ध पड़ता है; क्योंकि इन आचार्य ने अपने ग्रन्थों में - क्रमशः सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक में 'उच्चगोत्र उसे बतलाया हैं, जिसके उदयसे लोकपूजित कुलांम जन्म होता हैं और नीचगांत्र उसे, जिसके उदयसं गर्हित कुलों में जन्म होता है ।' यह किसी भी ग्रन्थम नहीं बतलाया कि लोकपूजित कुलमं जन्म लेकर भी कोई हीनाचरणमात्र से नीचगोत्री होजाता है अथवा उसका जन्म ही बदल जाता है। और न यही लिखा है कि एक ही जन्म में आचरण के बदल जानेसे गोत्रकर्मका उदय बदल जाता है। क्या ब्रह्मचारीजी जन्म को लेकर अथवा गोम्मटसार के "भवमस्सिय णीचुच्च" वाक्य के अनुसार भवको आश्रित करके गोत्र
द्वाविंशतिः सप्त त्रीणि च सप्त च कुल कोटिशतसहस्त्राणि । या पृथिव्युदकाग्निवायुarfarai परिसंख्या || हां, एक टीका में वह ज़रूर पाया जाता है, जब कि दूसरी टीकामें उसका अभाव है । और इसलिये उसे एक टीकाकारका अभिमत कहना चाहिये,
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वर्ष २, किरण ४ ]
न कि मूल गोम्मटसारका । परन्तु उसके उल्लेख द्वारा और सर्व संसारी जीवोंके १९७|| लाख कोटि कुलोंका उल्लेख करके ब्रह्मचारीजी विवादस्थ विषय के सम्बंध में क्या विशेष नतीजा निकालना चाहते हैं वह उनके लेख परसे कुछ भी स्पष्ट नहीं होता ! आप लिखते हैं---" १९७ ।। लाखकोडकुल सर्व संसारी जीवोंके होते हैं। गोत्रकर्म के भी उतने ही भेद होते हैं" । यद्यपि सिद्धान्तग्रंथों में गोत्र कर्मकी दो ही प्रकृतिया बतलाई है—– एक ऊंच गोत्र, दूसरी नीचगोत्र; पटाखण्डागम में भूतल आचार्यने “एवदियाओ पयडीओ" वाक्यके द्वारा यह नियमित किया है कि गोत्रकर्मकी ये ही दो प्रक्रितियां हैं; फिर भी ब्रह्मचारीजीकी इस संख्याका अभिप्राय यदि ऊंच नीच गोत्रोंकी तरतमताकी दृष्टि से हो और उसके अनुसार यह मान भी लिया जाय कि गोत्रकर्मके भी कुलों जितने भेद हैं तब भी वे सब भेद ऊँच नीच के मूल भेदों से बाहर तो नहीं हो सकते ऊँचगोत्रकी तरतमताके जितने भेद हो सकेंगे वे सब ॐ च गोत्रके भेद और नीच गोत्रकी तरतमा के जितने भेद हो सकेंगे व सब नीच गोत्र के होंगे । ऐसी हालत में जीवोंके जिस वर्ग उच्चगोत्रका उदय होगा वहां उच्चगांत्रकी तरतमता को लिये हुए कुल होंगे और जिस वर्ग में नीचगांत्रका उदय होगा उसमें नीचगांत्रकी तरतमता को लिए हुए कुल होंगे | उदाहरण के लिये देवांक २६ लाख नारकियों के २५ लाख कोटि कुल हैं और देवोंमें उच्चगोत्र तथा नारकियों में नीचगोत्रका उदय बतलाया गया है, इससे देवोंके वे सब कुल उच्चगोत्रकी और नारकियोंके नीच गोत्रकी तरतमताको लिये हुए हैं। इसी तरह मनुष्योंके १२ लाख कुलकोटि भी अपने वर्गीकरण के अनुसार ऊँच अथवा नीचगांत्र की तरतमताको लिये हुए है । अर्थात् भोग भूमिया मनुष्यों के कुल जिस प्रकार उच्च
गोत्रकर्म-सम्बन्धी विचार
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गोत्रकी तरतमताको लिये हुए हैं उसीप्रकार कर्मभूमिज मनुष्यों के कुल भी उच्चगोत्रकी तरतमता को लिये हुए हो सकते हैं । उच्चगोत्रकी इस तरतमताका अभिप्राय यदि ऊँच-नीच गोत्र किया जायगा तो फिर देवों तथा भोग भूमिया मनुष्यों में भी ऊँच-नीच दोनों गोत्री का उदय मानना पड़ेगा। साथ ही, नीचगोत्र संबन्धी तरमतता की भी वही स्थिति होने से नारकियोंके ऊँचनीच दोनों ही गोत्रोंका उदय कहना पड़ेगा । और यह सब कथन जैन सिद्धान्त के विरुद्ध जायगा । अतः ब्रह्मचारीजीके उक्त उल्लेखों परसे कोई भी अनुकूल नतीजा निकलता हुआ मालूम नहीं होता, और इसलिये वे निरर्थक जान पड़ते हैं ।
(८) ब्रह्मचारी जी लिखते हैं -- " जैसा बीज होता है वैसा असर उस वीर्य से उत्पन्न शरीर में व जीव में बना रहता है ।" साथही यहभी लिखते हैं कि “खानदानी बीज का असर जीव में बना रहना गोत्र कर्मका कारण हूँ ।" इन दोनों वाक्योंको पढ़कर बड़ाही कौतूहल होता है और इनकी निःसारताको व्यक्त करने के लिये बहुत कुछ लिखने की इच्छा भी होती है, पर उसके लिये यथेष्ट अवसर और अवकाश न देखकर यहां इतना ही लिख देना चाहता हूँ कि यदि 'जैसा बीज होता है उसका वैसा असर जीव में बना रहता है' ऐसा ब्रह्मचारीजी मानते हैं तो फिर उन्होंने उच्चगोत्री भोगभूमियामां की कतिपय सन्तानों के लिये कर्मभूमिका प्रारम्भ होने पर नीचगोत्री होने का विधान कैसे कर दिया ? उनके बीज में जो ऊँच गोत्रका असर था वह तो तब बना नहीं रहा !! इसी तरह जब वे भाचरणके अनुसार गोत्रका बदल जाना मानते हैं और जिसकी चर्चा ऊपर नं० ६ में की गई है, तब उस परिवर्तन के पूर्व बीजमं जिस गोत्रका जो 'असर था वह परिवर्तन हो जाने पर कहां
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बना रहेगा ? यदि असर बना रहेगा तो भिन्न परिवर्तन मनुष्योंके गोत्र कर्मकी इस विशेषताके लिये किसी हेतु. नहीं हो सकेगा--कोई भी नीचसे ऊँच और ऊँचसे नीच का निर्देश साथ में होना चाहिये था। और यदि ऐसा गोत्री नहीं बन सकेगा;-क्योंकि ब्रह्मचारीजी अपने दूसरे नहीं है, तो फिर मनुष्यके गोत्रका कथन यहां क्यों छोड़ा वाक्यमें खानदानी बीजका असर जीवमें बना रहना ही गया ? तथा तीन गतिसम्बन्धी गोत्रोंके कार्यका उल्लेख गोत्र कर्मका कारण बतलाते हैं !! फिर तो जैसा कारण करके क्या नतीजा निकाला गया? यह सब कुछ भी वैसा ही कार्य होगा--नीचसे ऊँच और ऊँचसे नीच समझमें नहीं आसका। गोत्ररूप भिन्न कार्य नहीं हो सकेगा। और न ऊँचगोत्री . (१०) देवोंके उच्च गोत्रका मुख्य कारण उनके भोगभूमियाओंकी कोई सन्तान ही नीच गोत्री हो सकेगी, शरीरपुद्गलको उच्चता, नारकियोंके नीच गोत्रका
और इस तरह आर्यखण्डके सब मनुष्य उच्चगोत्री बने कारण उनके शरीरका हुँडक, कुत्सित तथा ख़राब रहेंगे। जान पड़ता है इसपर ब्रह्मचारीजीका कुछ भी पुद्गलोंसे रचित होना और तिर्यचोंके नीच गोत्रका लक्ष नहीं गया और उन्होंने यो हो बिना कोई विशेष कारण उनके शरीर पुद्गलोंकी विविधता तथा उनका विचार किये उक्त दोनों वाक्योंकी सृष्टि कर डाली है !! घास पर जी मकना बतलाकर, मनुष्योंके लिये ऊँच और ___ 'बीजका असर जीवमें बना रहना गोत्र कर्मका नीच दोनों गोत्रीका जो विधान किया है वह कुछ विलकारण है' यह निर्देश तो ब्रह्मचारीजीका और भी विचित्र क्षणसा जान पड़ता है। जिस मनुष्यशरीरसे देशजान पड़ता है ! किस सिद्धान्तग्रन्थ में ऐमा लिखा है, संयम और सकल-संयमका साधन हो सकता है, जिसको उसे ब्रह्मचारीजीको प्रकट करना चाहिये । श्रीतत्वार्थसूत्र- पाकर ही मुक्तिकी प्राप्ति हो सकती है, जिसको पानेके जैसे ग्रन्थों में तो ऊँच-नीच गोत्रके कारण दूसरे ही बत- लिये देवगण भी तरसा करते हैं-यह आशा लगाये लाये हैं, जिन्हें बाबू सूरजभानजीने अपने लेग्वके अन्तमें रहते हैं कि कब मनुष्यभव मिले और हम संयम धारण उद्धृतभी किया है और जो परात्मनिन्दाप्रशं०' आदि करें--और जिसका मिलना शास्त्रों में बड़ा ही दुर्लभ दो सूत्रों तथा उनके भाष्यादि परसे जाने जासकते हैं। बतलाया है, वह शरीर क्या उच्च पुद्गलोका बना हुआ
(९) खानदानी बीजवाले उक्त वाक्यके अन- नहीं होता ? यदि होता है और गोत्रकर्म शरीरपुद्गन्तर लिखा है कि ....नारकियोंका गोत्रकर्म नारकियों- लाश्रित है तो फिर मनुष्योंके देवोंकी तरह एक उच्चका आचरण नारकक्षेत्रके योग्य रखता है। देवोंका गोत्रका विधान न करके ऊँच-नीच दो गोत्रांका विधान पाचरण गोत्रकर्म देवोंके अनुसार रखता है। तिर्यंचों- क्यों किया गया हैं ? यदि शरीरपुद्गलोकी कुछ विविके आचरण तिर्यंचोंके अनुसार। इन तीन गतिके धता इसका कारण हो तो फिर तिर्यंचोंके भी ऊँच-नीच जितने कुलक्रम है वे गोत्रकर्मके उदयसे होते हैं। दोनों गोत्रोंका विधान करना चाहिए था। घास खाकर तब क्या मनुष्योंका गोत्रकर्म ----मनुष्योंका आचरण जी सकना यदि उन्हें उच्च गोत्री न बना सकता हो तो मनुष्योंको मनुष्यक्षेत्रके योग्य नहीं रखता है और मनु- मनुष्य भी उच्च गोत्री न बन सकेंगे; क्योंकि वे भी घास ध्य गतिके जितने कुल क्रम हैं वे मानवोंके उस गोत्र अर्थात् वनस्पति-आहार पर जीवित रह सकते हैं और कर्मके उदयसे नहीं होते हैं ? यदि ऐसा है तब तो रहते है-आर्य समाजियोंमें तो इस बातको लेकर घास
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गोत्रकर्म-सम्बन्धी विचार
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पार्टी और मांसपार्टी ऐसे दो भेद ही बन गये हैं- और होने वाले मनुष्य भी उच्चगोत्री ठहरेंगे और जिस इसलिये ब्रह्मचारीजीका यह लिखना कि "मनुष्य घासपर वंश वाले उस प्राचारको छोड़ देंगे वे वहां रहते हुए नहीं जी सकता" कुछ विचित्र-सा ही जान पड़ता है। नीचगोत्री हो जावेंगे। इसी तरह जिन ार्य क्षेत्रोंमें इसके सिवाय, घास खाकर जीना यदि नीच गोत्रका मांसभक्षणादिक निन्द्यकर्म समझे जाते हैं वहां उनका कारण और नीच गोत्री होनेका सूचक है तो फिर सेवन न करने वाले चाण्डालादि कुलोंमें भी उत्पन्न मानव जितने भ मांसाहारी पशु हैं वे सब उच्च गोत्री हो जावेंगे उच्चगोत्री और सेवन करने वाले ब्राह्मणादि कुलोंमें भी
उन्हें उच्च गोत्री कहना पड़ेगा। कितने ही उत्पन्न मानव नीच गोत्री होंगे, यही क्या ब्रह्मचारीजीतिर्यचोंके शरीर ऐसे सुन्दर और इतने अधिक उच्च का आशय है ? यदि ऐसा ही आशय है तो फिर जिस पुद्गलों के बने हुए होते हैं कि मनुष्य भी उन पर मोहित देश में मामभक्षण अथवा विधवाविवाह आदिको मनुष्यों होता है और अपने सुन्दर-से-सुन्दर अंगोंको भी उनकी का एक वग निन्द्य और दूसरा वर्ग अनिन्द्य समझता है उपमा देता है । शरीर-पुद्गलोंकी इस उच्चताके कारण वहाँ आपके ऊँच-नीच गोत्रकी क्या व्यवस्था होगी ? यह उन तिर्यचोंको भी उच्चगोत्री मानना पड़ेगा । इस तरह मालूम होना चाहिए । साथ ही यह भी मालूम होना ब्रह्मचारीजीने गोत्रकी ऊँच-नीचताका जो माप-दण्ड चाहिए कि ऐसी हालतमें-लोकमान्यता पर ही एक स्थिर किया है वह बहुत कुछ दूपित तथा आपत्तिके अाधार रहने पर ... गोत्रकर्मकी क्या वास्तविकता रह योग्य जान पड़ता है।
जायगी ? अथवा गोत्रकाश्रित ऊँच-नीचता और व्या(११)आर्यखण्ड और म्लेच्छखण्डोंके मनुष्यों में वहारिक ऊँच-नोचतामें क्या भेद रह जायगा ? यदि कुछ ऊँच-नीच गोत्रकी विशेषताका कोई विशेष भेद न करके भेद नहीं रहेगा तो फिर देवों में जो व्यावहारिक ऊँच-नीचता ब्रह्मचारीजी सभी खण्डोंके मनुष्योंमें जन्म-समयकी है उसके अनुसार देव भी ऊँच और नीच दोनों गोत्रक अपेक्षा नीचगोत्रका उदय उन सब मनुष्यों के बतलाते क्यों नहीं माने जाएँगे ? और इसी प्रकार तियनों में भी, जो हैं जो ऐसे कुलों या वंशोंमें उत्पन्न हुए हों जो उस देश कि अणुव्रत तक धारण कर सकते हैं, दोनों गोत्रों का उदय वा क्षेत्रकी दृष्टिसे निन्द्य आचारण वाले माने जाते हो, क्यों नहीं माना जायगा? इन सब बातोंका स्पष्टीकरण और ऊँच गोत्रका उदय उन सब मनुष्यों के ठहराते हैं।
न होना चाहिए। जो ऐसे वंशों या कुलोंमें पैदा हो जो अपेक्षाकृत वहाँ (१२) नीच कुलमें जन्म लेकर अर्थात् नीचगोत्री ऊँच माने जाते हों। इससे जिन म्लेच्छ देशोंमें म्लेच्छा
होकर भी यदि कोई मनुष्य योग्य प्राचारणके द्वारा लोकमें चार-हिंसाम रति, मांस भक्षण में प्रीति और परधन हर
अपनी मान्यता बढ़ा लेवे तो वह नीचगोत्रके उदयको
न भोग कर उच्च गोत्रका उदय भोगता है, और उच्च णादि* निन्द्य नहीं समझा जाता, वहांके वंशोंमें उत्पन्न ।
गोत्री होकर भी यदि कोई मनुष्य अयोग्य आचरण करके *म्लेच्छाचारो हि हिंसायां रतिर्मासाशनेऽपि च । लोक निन्द्य हो जावे तो वह उच्च गोत्र के उदयको बन्द परस्वहरणे प्रीतिः निधूतत्वमिति स्मृतम् ॥४२-१८४॥ करके नीचगोत्रका उदय भोगने लगता है, ऐसा ब्रह्मचारी
-आदिपुराणे, जिनसेनाचार्यः जी लिखते हैं । इसका आशय है--किसी गोत्रका उदय
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होकर भी फल न देना और किसीका उदय न होकर भी (१५) ब्रह्मचारीजीका एक वाक्य इस प्रकार फल प्रदान करना ! यह सिद्धान्त कौनसे ग्रन्थके आधार है-"इन चार वर्णधारियों में जो प्रशंसनीय आचारके पर निश्चित किया गया है वह लेखपरसे कुछ मालूम नहीं धारी हैं वे ही नीचगोत्री से सद् शूद्र याने लोक-पूज्य होता ! ब्रह्मचारीजीको उसे सिद्धान्तग्रन्यांक आधार पर आचरणका धारी शूद्र जैनसाधु होसकता है व स्पष्ट करके बतलाना चाहिए। साथ ही यह भी बतलाना सुआचरणी म्लेच्छ भी मुनि होसकता है ।" इस वाक्य, चाहिए कि इस सिद्धान्तकी मान्यता पर ख़ानदानी बीजका की बैठक पर से उसका पूरा आशय व्यक्त नहीं होता। असर जीवमें बना रहना जो आपने प्रतिपादन किया है हां, इतना तो समझमें अगया कि इसके द्वारा वह कहाँ बना रहेगा ? और पूर्व गोत्रके उदयानुसार जिस ब्रह्मचारीजी सत् शूद्रों तथा सुआचरणी म्लेच्छोंके लिये उच्च या नीच शरीर पुग्दलकी सम्प्राप्ति हुई थी वह क्या मुनि होसकने का खुला विधान करते हैं; परन्तु चारों गोत्र परिवर्तन पर विघट जायगा अथवा उसका उपयोग वर्गों के मनुष्योंमें जो प्रशंसनीय आचारके धारी हैं वे ही नहीं रहेगा? क्योंकि ऊँच और नीच दोनों गोत्रोंका नीच गोत्री, ऐसा क्यों ? यह कुछ समझ नहीं आया !! उदय अथवा फलभोग एक साथ नहीं होता। खुलासा होना चाहिये । साथही, यह भी स्पष्ट होना चाहिये
(१३) आगे ब्रह्मचारीजी लिखते हैं-"गोत्र कि “जहां आचरण लोक-मान्य है वहीं उच्चगोत्रका परिवर्तन न हो तो कर्मभूमिके मानवोंके अवसर्पिणी उदय है ।” ऐसा लिखकर ब्रह्मचारीजीने जो आगे काल में भोगभूमिकी संतान होनेसे सबके उच्चगोत्र- लोकमान्य अथवा लोकपूज्य आचरणका यह लक्षण का ही उदय ही सो ऐसा नहीं माना जासकता, कर्म दिया है कि "जिम प्रांत या देशकी जनता जिस आचकाण्डकी गाथाओंसे ।" परन्तु कर्मकाण्ड की वे गाथाएँ रणको अच्छा मानती है वह लोकमान्य हैं ।" इस कौनसी हैं, यह प्रगट नहीं किया ! यदि पूर्वोल्लिखित के अनुसार पार्यखण्डान्तर्गत किसी ऐसे म्लेच्छदेशका गाथाओंसे ही अभिप्राय है तो उनसे उक्त अमान्यता कोई म्लेच्छ या सत् शूद्र जहां मांस-भक्षण अच्छा व्यक्त नहीं होती; जैसा कि शुरूके नम्बरों में की गई माना जाता है और इसलिये लोकमान्य आचरण है, उनकी चर्चा से प्रकट है । यदि उच्चगोत्री भोग भूमि- अपने उस आचरण को कायम रखता हुआ मुनि हो याओंकी संतान उच्चगोत्री न हो तो जिसके उदय से सकता है या कि नहीं" और लक्षणानुमार ऐसे पूज्य लोक पूजित कुलोंमें जन्म होता है उसे उच्चगोत्र कहते आचरणी मांसाहारियोंके यहां भोजन कर सकता है है, यह सिद्धान्त ही बाधित होजायगा और ब्रह्मचारीजीकी या कि नहीं ? 'खानदानी बीजका असर जीवमें बना रहने वाली बात, (१७) अन्तम ब्रह्मचारीजीने "नीच-ऊँचकी भी फिर बनी नहीं रहेगी ! अस्तु; उक्त वाक्यके अनन्तर कल्पना सर्व देशोंमें रहती है । स्वाभाविक है, इत्यादि अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के कुछ कालोंमें ऊंच रूपसे जो कुछ लिखा है वह सब लोकव्यवहार तथा नीच गोत्रका जो नियम दिया है उसके लिये स्पष्ट की ऊँच-नीचताका द्योतक है--विचारके लिए उपरूपसे किसी मान्य ग्रंथका प्रमाण प्रकट होनेकी ज़रूरत स्थित 'गोत्र कर्माश्रित ऊँच-नीचता, के साथ उसका है। वह यों ही निराधार रूपसे नहीं माना जा सकता। कोई खास सम्बन्ध स्थापित नहीं होता। ऐसी ऊंच
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गोत्रकर्म-सम्बन्धी विचार
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नीचता तो देवों, नारकियों तथा तिर्येचोंमें भी पाई जाती कर्म-सिद्धान्तशास्त्रकी कोई वस्तु ही रह जायगी-- है, जिसका कितना ही उल्लेख बाबू सूरजभानजीने लौकक तथा सैद्धान्तिक गोत्रोंका भेद भी उठ जायगाअपने लेखमें किया है; परन्तु उसके कारण जिस प्रकार तब तो गोत्रकर्मका निर्णय, निर्धार और उसकी सब देवादिकों में ऊंच-नीच दोनों गोत्रोंके उदयकी व्यवस्था व्यवस्था भी किसी सिद्धान्तशास्त्र अथवा प्रत्यक्षदर्शीके नहीं की जाती उसी प्रकार मनुष्योंमें भी उसका किया द्वारा न होकर उस स्थानकी जनताके द्वारा ही हुआ जाना अनिवार्य नहीं ठहरता । यदि मनुष्योंमें उसे करेगी जहां वह आचरण-कर्ता निवास करता होगा !! अनिवार्य किया जायगा तो देवों, नारकियों तथा इस तरह ब्रह्मचारीजोका लेख बहुतही अस्पष्ट है तियचोंको भी उभयगोत्री मानना पड़ेगा उन्हें एक और वह बहुतसी बातोंको स्पर्श करता हुआ किसी भी गोत्री मानने का फिर कोई कारण नहीं रहेगा। एक विषयको विचार के लिये ठीक प्रस्तुत करता हुआ
इसके सिवाय, ब्रह्मचारीजीके शब्दोंमें यदि कोई मालूम नहीं होता। आशा है ब्रह्मचारीजी, उक्त १.७ नियत आचरण नीच कलोंका स्थापित नहीं किया जा. कलमों द्वारा भूचित की गई सब बातों पर प्रकाश सकता और ऊँच-नीच आचरणकी यह मान्यता उस डालते हुए, अपने लेखको स्पष्ट करने की कृपा करेंगे, स्थानके लोगोंकी मान्यता पर निर्भर है, तो फिर जिमसे गोत्रकाश्रित ऊँच-नीचताका यह विषय सम्यक् गोत्रकर्मके ऊंच-नीच परमाणुओंकी भी कोई वास्त- प्रकार से निगीत हो सके। विकता नहीं रहेगी, न शास्त्रकथित उनके पासव
वीरसेवामन्दिर, सरसावा, कारणोंका ही कोई मूल्य रह सकेगा और न बह गोत्र
ता०१८---१-१९३९
जागति-गीत
सर्वत्र हुआ है समुत्थान ! हो रहा विजय का तुमुल गान ! नव-क्रान्ति हुई है विद्यमान ! उठ, तू भी उठ, उन्माद त्याग ! उठ, सोये साहस ! जाग जाग !!
रायता : श्री कल्याणकुमार जैन, शशि
भर भूमण्डल में ध्वनि महान ! गा उथल-पुथल-मय क्रान्ति-गान! जग चाह रहा है शक्ति-दान ! नव राग छेड़, कुछ गा विहाग! उठ, सोये साहस ! जाग जाग !!
(२) जडता तक में जीवन-विकासपा रहा पनप कर पूर्ण हास! तू शक्ति केन्द्र है कर प्रय स! महका कर नव-जीवन-पराग! उठ, सोये साहस ! जाग जाग !!
यदि पौरुष सोता है संभाल ! जग डूब रहा है तो उछाल! बन जा इतिहासों में मिसाल ! कायर जीवन में लगा आग ! उठ, सोये साहस ! जाग जाग !!
गुमराह हो रहा सार्थवाह ! रुक रहा वीरता का प्रवाह ! मानव में दानव धुसा श्राह ! प्रस्तुत है सिर पर काल-नाग ! उठ, सोये साहस! जाग जाग !!
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तत्वचची
धार्मिक-वार्तालाप
[ले० -श्री बाबू सूरजभानुजी वकील ]
मथुराप्रसाद ....कहिये बाबू ज्योतिप्रसादजी, खुल्लक आदि अतिथिको भी देवें, ऐसी शास्त्रकी सुना है आपके साधु आये हैं, जिनके भोजन के वास्ते आशा है । जो गृहस्थ इसके विरुद्ध आचारण करते हैं, घर-घर में बड़ी भारी तय्यारियां हो रही हैं, पर आपके अर्थात् मुनि विशेष के निमित्त भोजनका प्रारम्भ कर के यहाँ तो वैमा कोई विशेष प्रारम्भ होता दिखाई नहीं उस बातको छिपाते हुए उन्हें भोजन कराते हैं वे देता है !
स्वयं अपराधके भागी होते हैं। ___ ज्योतिप्रसाद-जैन-धर्म के अनुसार तो, जो मथुराप्रसाद---आपके साधु नग्न रहते हैं, यदि वे भोजन किसी साधु महाराजको खिलाये जाने के उद्देश्य लँगोटी लगा लिया करें तो क्या कुछ हरज हो ? से बनाया जाता है, उनके निमित्तसे ही भोजनका ज्योतिप्रसाद --- एल्लक, क्षल्लक हमारे यहां लंगोटी प्रारम्भ किया जाता है-वह भोजन उनके ग्रहण करने बांधते हैं वा एक खंड वस्त्र रखते हैं: परन्तु मुनि वा के योग्य नहीं होता वे तो उदिष्ट भोजन अर्थात् अपने साधुका दर्जा बहुत ऊँचा है। उनको अपनी देहसे निमित्त बनाये गये भोजनके त्यागी होते हैं। कुछ भी ममत्व नहीं होता है, क्रोध-मान-माया-लोभ जैनधर्मके साधुओंका तो बहुत ही उच्च स्थान है, आदि विषयों और मोहका वे अच्छा दमन किये रहते उदिष्ट भोजनका त्याग तो तुल्लक और ऐल्लक के भी हैं; कामवासना उनके पास तक भी फटकने नहीं गती, होता है, जो साधु-मुनि नहीं कहलाते हैं, किन्तु गृह-त्यागी एक मात्र आत्म शुद्धि ही में उनका समय व्यतीत होता अवश्य होते हैं। वास्तव में सच्चे श्रावकोंके यहां तो है, और संसारकी कोई लजा-कजा उन्हें पथ भूष्ट नित्य ही प्रासुक भोजन बनता है । जो भोजन वह नित्य नहीं कर सकती। कोई बुरा कह वा भला, स्तुति करै वा अपने लिये बनाते हैं उसी मेंसे कुछ मुनियों का, ऐल्लक, निन्दा, आदर सत्कार करे या तिरस्कार गाली दे, पूजा
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वर्ष २, किरण ४]
धार्मिक-वार्तालाप
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वंदना करै वा मारे पीटे, सबसे उनका समभाव ही उनका नग्न-पना बुरा नहीं मालूम होता है और न किसी रहता है । सबहीका वे हित-चिंतन करते हैं, सब ही के मन में कोई विकारही उत्पन्न होता है। कारण इसका का कल्याण करते हैं। साथ ही बस्तीसे दूर बन में यही है कि उन बच्चों के मनमें अभी तक किसीभी प्रकार रहते हैं, जेठ प्राषाढ़की कड़ाके की धूप, सावन-भादों. का कोई काम विकार पैदा नहीं हुआ है न उनकी चेष्टा की मूसलाधार वर्मा, पोह-माघका ठिठराने वाला पाला, से ही किसी प्रकार के काम विकारकी प्राभा पाती है, सब उनके नंगे शरीर पर पड़ते हैं, परन्तु उनको कुछ इसीसे उनका नग्न रहना किसीको बुरा मालूम नहीं भी पर्वाह नहीं होती, कुछ भी यत्न वे उसमे बचनेका होता, यहां तक कि यह खयाल भी नहीं आता कि यह नहीं करते हैं। ऐसे आत्म-ध्यानियों को लंगोटी बांधने नंगा है । इस ही तरह सच्चे जैन-साधुओंके मन में भी किसी की क्या पर्वाह हो सकती है ?
प्रकारका विकार नहीं होता है। परम वीतरागता उनकी मथुराप्रसाद तो क्या वह आबादी में आते ही चेष्टासे झलकती है और कामवासना की तो गंध भी नहीं हैं-मनुष्योंसे दूर ही रहते हैं ?
उनमें नहीं होती है। इसी कारण उनके दर्शनासे ज्योतिप्रसाद-आते हैं, जब देखते हैं कि खाना- गृहस्थियों को भी वीतरागके भाव पैदा होते हैं-राग-भाव पीना दिये बिना किसी प्रकार भी यह शरीर स्थिर नहीं तो किसी प्रकार पैदा ही नहीं हो सकते । हां, लंगोटी रह सकेगा, तब आहार के वास्ते ज़रूर बस्तीमें आते हैं। उस बांधनेस ज़रूर उनकी वीतराग मुद्रामें फ़र्क भाता है। समय जो कोई श्रावक शुद्ध आहार तय्यार बताकर उन्हें इसी कारण लंगोटो बंद त्यागी (ऐल्लक दुलक) के दर्शनों बुलाता है, उसके घर जाकर खड़े-खड़े कुछ आहार ले सं वीतरागताका इतना भाव नहीं होता जितना कि नग्न लेते हैं और फिर बनमें चले जाते हैं। रात्रिको भी साधुके दर्शनोंस होता है। यह तो प्राकृतिक बात है, आत्म-ध्यान में ही लगे रहते हैं।
जैसा कोई होगा वैसा ही उसका प्रभाव दूसरों पर पड़ेगा। मथुराप्रसाद-अच्छा, ऊँच दर्जेके तपम्वी होने मथुराप्रसाद- तो क्या आपके साधु कोई भी वस्तु पर भी यदि वह लंगोटी बांध लिया करें तो क्या हरज अपने पास नहीं रखते हैं ? हो ? आहार के लिये तो बस्ती में उनको आना ही पड़ता ज्योतिप्रसाद -रखते हैं, एक तोशान-प्राप्तिके वास्ते हैं, वन में भी लोग उनके दर्शनोंको ज़रूर जाते होंगे, शास्त्र रखतं हैं; दूसरे मोरके पंख वा अन्य किसी पक्षी अब यदि उनके हृदय में किसी प्रकारकी कोई वासना के मुलायम पगेकी कुची रखते हैं, जिससे जहाँ बैठना नहीं रही है तो भी उनको नग्न देखकर गृहस्थियोंके होता है, वह स्थान जीव-जन्तुओंसे साफ़ कर लिया जाता मनमें तो विकार आ सकता है और खासकर स्त्रियोंको है और इस तरह कोई जीव उनके शरीरसे दबकर मर तो अवश्यही बुरा मालूम होता होगा।
न जाय, इसकी पूरी अहतियात की जाती है, तीसरे ज्योतिप्रसाद-सबही घरोमें बच्चे नंगे फिरते हैं, कमण्डलु जिसमें कुछ पानी रहता है, और वह टट्टी जाने गली-बाज़ारोंमें भी जात-आते हैं, मां, बहन, दादी, पर गुदा साफ करनेके काम आता है। बस इन तीन नानी, नौकरानी आदि सब ही उनको नग्न अवस्था वस्तुओंके सिवाय और कुछ नहीं रखते हैं। में अपनी छातीसे चिपटाकर सुलाते हैं, किसीको भी मधुराप्रसाद-कमण्डलु तो शायद काम्का होता
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अनेकान्त
[ माघ, वीर-निर्वाण सं० २४६५
है और काठके अन्दर पानी घुस जाता है; इसलिए ही लगे रहना अनोखी बात कैसे हो सकती है ? धोने मांजनेसे शुद्ध नहीं होसकता ? उस कमण्डलुका मथुराप्रसाद-अच्छा तो क्या संसारी मनुष्योंके जल, जो गुदा साफ करनेके वास्ते टट्टीमें लेजाया जाता वास्ते भी स्नानादिके द्वारा शरीरको पवित्र रखना धम है, कुल्ली करने और हाथ मुँह धोने आदिके काम में नहीं है ? कैसे आसकता होगा?
ज्योतिप्रसाद-- साधु हो वा गृहस्थी धर्मतो सबके जोतिप्रसाद-कमण्डलु काठका हो वा धातुका,
वास्ते एक ही है और वह एक मात्र अपनी आत्माको मुनि महाराज उसको धोते व मांजते नहीं हैं, न वह
रागद्वेषादि के मैलसे शुद्ध करना ही है, फ़क सिर्फ इतना गुदा धोकर अपने हाथको ही मट्टी मलकर साफ करते।
है कि साधु तो बिल्कुल ही संमारके मोहसे विरक्त होकर हैं, उनके पास तो कोई दूसरा शुद्ध पानी ही नहीं होता पूर्णरूपसे आत्म-शुद्धि में लग जाते हैं और ग्रहस्थी संसार है, जिससे वे कमण्डल वा हाथको शुद्ध करलें, मुँह भी के मोह में भी फँसता है और कुछ धर्म साधन भी करता वह स्वयं कभी नहीं धोते हैं, न दांत साफ करते हैं, है। इसीसे पद्मनन्दिपंचविंशतिका में कहा है-- न कुल्ली करते हैं, न कभी नहाते और न कभी शरीर
सम्पूर्ण देशभेदभ्यां स ब धर्मो द्विधा भवेत् । को धोते व पोंछते हैं । उनको तो शरीरमे कुछ भी मोह
श्राद्यभेदे च निग्र द्वितीये गृहिणौ मताः ।। नहीं होता है। इसही कारण शरीरकी सफ़ाई की तरफ उनका कुछ भी ध्यान नहीं जाता है। उनका ध्यान तो
हो अर्थात् –पूर्णरूप और अंशरूप भेदसे धर्म-साधन एकमात्र अपनी आत्माको शुद्ध करनेकी तरफ़ लगा
दो प्रकार है, पूर्ण साधन करनेवाला नग्नसाधु और रहता है--वे सदा मोह-माया और ममताको दरकर अंशरूप साधन करनेवाला गृहस्थी कहलाता है। जैन
आत्माको अपने शुद्ध ब्रह्मस्वरूपमें लेजानेकी ही धर्ममें धर्मात्मा गृहस्थ के ग्यारह दर्जे कायम किये गये हैं। कोशिश करते रहते हैं।
पहला दर्जा श्रद्धानीका है, जिसको जैनधर्मके सिद्धान्तों ___ मथुराप्रसाद- यह तो आपने बड़ी अनोखी बात का श्रद्धान तो होगया है परन्तु अभी त्याग कुछ भी नहीं। सुनाई । हिन्दूधर्ममें तो शरीर शुद्धिको ही सबसे मुख्य दूसरा दर्जा अणुव्रतीका है, जो हिंसा झूठ चोरी आदि माना है, और आप उसको बिल्कुलही उड़ाये देते हैं। पांचों पापोंका अंशरूप त्याग करता है और अपने इस ___ज्योतिप्रसाद ---प्रत्येक जीव अपने वास्तविक रूप ल्यागको बढ़ाने के वास्ते तीन प्रकारके गुणवतों और से सच्चिदानन्द स्वरूप है; परन्तु राग-द्वेष-मोहके जालमें चार प्रकार के शिक्षाव्रतोंका पालन करता है । शिक्षाव्रतोंफँसा हुआ संसारमें रुलता फिरता है। जो जीव इस में उसका एक व्रत यह भी होता है कि महिनेमें चार गग-द्वेष मोह-रूप- मैलको धोकर शुद्ध-बुद्ध होजाता है, दिन प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशीको वह उपवास वही अपने असली सच्चिदानन्द स्वरूप को पालेता है। करता है, अर्थात् गृहस्थका सब प्रारम्भ त्याग कर, एक शरीरके मैलको धोने पोंछनेसे आत्माका मैल नहीं मात्र धर्म सेवन में ही लग जाता है खाना, पीना, धुलता है, तब जैन मुनियोंका अपने शरीरकी शुद्धिकी नहाना और शरीरका सँवारना आदि कुछ भी सांसारिक तरफ कुछ भी ध्यान न देकर एक मात्र आत्मशुद्धि में कार्य वह नहीं करता है।
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धार्मिक-वार्तालाप
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उत्तमचन्द ( जैनी ) यह आपने क्या कहा कि, चौथे, श्रीप्रकलङ्कदेवने राजवार्तिकमें भी ऐसा ही उपवासके दिन श्रावकको नहाना भी नहीं चाहिये १ वर्णन किया हैस्नान नहीं करेगा तो पूजन, स्वाध्याय, ध्यान, सामायिक स्वशरीर संस्कार संस्करण स्नानआदि धर्म-साधन कैसे होगा ?
___ गंध मात्या भरणादि विरहतः... ज्योतिप्रसाद-शास्त्रों में तो उपवासीके वास्ते स्नान
-तत्वार्थ सूत्र अध्याय ७ सूत्र २१ का भाप्य करना मना ही लिखा है। देखिये प्रथम तो रत्न-करंड
पांचवें श्रीविद्यान्दाचार्यजीने अपने प्रसिद्ध ग्रन्ध श्रावकाचारके निम्न श्लोक में ही श्री समन्तभद्रवामी
श्लोकवार्तिकमें भी उल्लेख किया हैने साफ़ लिखा है कि, उपवासके दिन पांचों पापोंका,
__कः पुनः प्रोपधोपवासो यथा विधीत्यु
च्यते स्नान गंध माल्यादि विरहितोः... शृंगार, आरंभ, गंध, पुष्प, स्नान, अंजन और नस्यका
...-तत्वार्थ सूत्र अध्याय ७ सूत्र २१ का भाष्य त्याग करना चाहिये..
इस प्रकार उपवास के दिन स्नान न करनेकी सब पञ्चानां पापानामलंक्रियारम्भ गन्ध पुप्पाणाम् ।
ही महान् श्राचार्योंकी स्पष्ट आज्ञा होने पर, मेरी बात स्नानाञ्जननस्या ना मुपवासे परिदृति कुर्यात् ।।१०१।।
पर सन्देह करनेकी तो कोई वजह नहीं होसकती है; हां दूसरे स्वामि कार्तिके यानुप्रेक्षाकी गाथा ३५८,
उल्टा मैं यह सन्देह अवश्य कर सकता हूँ कि पूजा, ३५९ में लिखा है कि "जो ज्ञानी श्रावक दोनों पोंमें
स्वाध्याय, ध्यान: सामायिक आदि धर्म कर्मों के करने में स्नान-विलेपन, आभूषण, स्त्रीसंसर्ग, गंध, धूप, दीप
स्नानका किया जाना क्यों ज़रूरी समझा जावे ? स्नान आदिका त्याग करता है, वैराग्यसे ही अपनेको आभूषित
तो उस शरीर को साफ करनेके वास्ते है, जो ऐसा महान् करके, उपवास, एक गर भोजन अथवा नीरस आहार
अपवित्र और अशुद्ध है कि किसी बड़े भारी समुद्र का करता है; उसके प्रोषध उपवास होता है, यथा -
सारा पानी भी उसके धोने में लगा दिया जावे, तो भी रहाण विलवणभृसण इत्थी संसग्गगंधधूवदीवादि। पवित्र न हो, और यदि पवित्र हो भी जाय तो उसकी जो परिहरेदिणाणी वरग्गाभरणाभूसणं किच्चा ।३५८ पवित्रतासे धर्मका क्या सम्बन्ध ? स्वाध्याय, पूजा, ध्यान, दोसुवि पव्यैस समा उववासं एय भत्तणिवियडी। सामायिक, स्तुति, भजन आदि जो कुछ भी हैं वे तो एक जो कणइ एव माई तस्य वयं पोसहं विदियं ।।३५६॥ मात्र आत्माकी शुद्धि, विषय-कपाय तथा राग-द्वेष मोहक
तीसरे, श्री पूज्यपाद स्वामीने सर्वार्थसिद्धि नामक दर करनेस ही होती है, न कि हाड मांस अथवा चर्ममहामान्य ग्रन्थमें प्रोषधोपवासी के लिये लिखा है कि, वह को धोनेसे । तब शरीर शुद्धिके विदून आत्मशुद्धि स्नान, गंध, माला, आभरणादि जो भी शरीर के शृंगार से हो सकती; ऐसा क्यों माना जावे ? मुनि बिना स्नान हैं उन सबसे रहित होवे
किये ही रात दिन धर्म-साधनमें लगे रहते हैं, नहाना तो प्रोषधोपवासः स्वशरीरसंस्कारकारण, दूर रहा वे तो टट्टी जानेके बात गुदाको कमण्डलुके पानी स्नान-गंध-माल्याभरणादि विरहितः। से धोकर हाथोंको भी नहीं मटियाते हैं और न किसी
-तत्वार्थसूत्र अध्याय ७ सूत्र २१ का भाष्य दूसरे शुद्ध पानीसे ही धोते हैं । उस कमण्डलुको जिसके
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अनेकान्त
[ माघ, वीर निर्वाण सं० २४६५
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पानीसे गुदाको धोते हैं साथ लिये फिरते हैं, उसी अर्थात् -- पहले किये हुए करोड़ों पापोंकी धूल जमकमण्डलुके, पानीसे धोए हुए हाथोंसे शास्त्र जमकर चित्त मलिन हो रहा है उस मिथ्यात्वको दूर लिये रहते हैं और स्वाध्याय आदि दूसरे धर्म- करनेवाला जो विवेक है वही वास्तविक स्नान है, जलकृत्य करते रहते हैं। इससे सिद्ध है कि स्नान करना के स्नानसे तो जीवोंका नाश होकर एकमात्र पापही धर्मसाधनके वास्ते ज़रूरी नहीं है किन्तु बाधक है। इस होता है, उसमें कुछ भी धर्म नहीं है और न उसके ही कारण मुनियोंको तथा उपवास कर्ताओंको स्नान द्वारा उस शरीरकी पवित्रताही बन सकती है, जो स्वभावकरनेका निषेध है।
से ही अपवित्र है। उत्तमचन्द-स्नान करना धर्म साधन में बाधक है, उत्तमचन्द-अगर स्नान करना पाप है तो मुनियों यह आपने एकही कही ! भागेको शायद आप इसको और उपवास करने वालों हो को क्यों, अन्य सब ही लोगोंपाप बताने लगेंगे!
को नहानेसे क्यों मना नहीं किया गया? ज्योतिप्रसाद-बाधक मैंने अपने ही मनमे नहीं ज्योतिप्रसाद-पहले दर्जे वाला अव्रती श्रावक तो बताया, किन्तु जैन-शास्त्रों में ही मुनि और उपवासकर्ता त्रस, स्थावर किसी भी जीवकी हिमाका त्यागी होनेको के लिये स्नानकी मनाही करके इसको बाधित सिद्ध तैयार नहीं होता है, हिंसादि पांचों पापोंको अंश रूपभी किया है । और बाधक ही नहीं किन्तु खुल्लम-खुल्ला पाप छोड़नेको हिम्मत नहीं करता है, तब उसके वास्ते तो बताया है। देखिये श्री पद्मनन्दि प्राचार्य पंचविंशतिका म्नानकी मनाही कैसे की जा सकती है ? दूसरे दर्जेवाला में इस प्रकार लिखते हैं:
अणुव्रती भी एकेन्द्रिय स्थावर जीवोंकी हिंसाका तो आत्मातीव शुचिः स्वभावत इति स्नानं वृथास्मिन्या, त्याग नहीं करता है त्रस जीवोंकी भी एकमात्र कायश्चाशुचिरे व तेनशचितामभ्येति नो जातचित् संकल्पी हिंसाका ही त्याग करता है, प्रारम्भी स्तानस्यो भय थेत्य भूद्विफलता ये कर्वते तत्पुनः उद्योगी और विरोधी हिंमाका त्याग नहीं करता है। स्तेषां भूजलकीटकोटिहननात्पापाय रागाय च। इस कारण उसको भी म्नानकी मनाही नहीं की जा
अर्थात - श्रात्मा शुद्ध है, उसको जल-स्नानकी क्या सकती है। हां, उपवास के दिन वह प्रारम्भ श्रा ज़रूरत है ? शरीर महा अपवित्र है, वह जल-स्नानसे गृहस्थके सबही कामोंका त्याग करके मात्र धर्म-साधन पवित्र हो नहीं सकता, इस कारण दोनों प्रकारके म्नानसे में ही लगता है, इसही कारण उस दिन उसको स्नान कुछ लाभ नहीं ? जो स्नान करते हैं उनको मिट्टी और करने की भी मनाही है। स्वामिकातकेय अपने अनुजल के करोड़ों जीवोंके मारनेका पाप लगता है और प्रेक्षा ग्रन्थमें लिग्वते हैंरागका पाप भी।
उवासं कुब्वंतो आरभं जो करेदि मोहादो। चित्रे प्राग्भव कोटि संचितरजः संबंधिता विर्भवन्, सो णिय देहं सोसदि ण झाडए कम्म लेसंपि ॥३७८।। मथ्यात्वादि मल व्यपाय जनकः म्नानं विवेकः सताम्। अर्थात्-- जो उपवासमें मोह बस आरम्भ करता है, अन्यद्वारिकृतं तु जंतुनिकर व्यापाद नात्पाप कृत् वह उपवास करके अपनी देह ही को सुखाता है, कर्मों नो धर्मो न पवित्रता खलु ततः काये स्वभावाशुचौ ॥ की तो लेशमात्र भी निर्जरा नहीं करता है।
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वर्ष
२,
किरण ४ ]
धार्मिक- वार्त्तालाप
उत्तमचन्द - उपवासके दिन कोई भी गृहस्थका कार्य न किया जाए, मुनि होकर बैठ जावे, ऐसा तो किसी से भी नहीं हो सकता है।
1
ज्योतिप्रसाद - शास्त्रोंमें तो ऐसा ही लिखा है और भी देखिये -
कषाय विषयाहार त्यागो यत्र विधीयते । उपवासः स विज्ञेयः शेषं लंघनकं विदुः ॥ --स्वामिकार्तिकेय टीका
अर्थात् - - कषाय, विषय और आहार इन तीनों का जहां त्याग होता है वहीं उपवास बनता है, नहीं तो शेष सब लंघन है।
1
उत्तमचन्द - हम तो एक बात जानते हैं कि जिस दिन हम बिना स्नान किये ही सामायिक करने बैठ जाते हैं तो चित्त कुछ व्याकुल ही सा रहता है। ऐसा शुद्ध और शान्त नहीं रहता जैसा कि स्नान करके सामायिक करने में रहता है।
ज्योतीप्रसाद - हम जैसे मोही जीवोंकी ऐसी ही हालत है। यदि किसी दिन हमारे मकानमें झाड़ न लगे तो उस मकान में बैठनेको जी नहीं चाहता है, बैठते हैं तो चित्त कुछ व्याकुल मा ही रहता है। ऐसा साफ शुद्ध और प्रसन्न नहीं रहता जैसा कि झाड़ू बुहारू दिये साफ और सुथरे मकान में रहता है। झाड़ने बुहारने के बाद भी यदि मकानकी सब चीजें अटकल पच्चू बेतरतीब ही पड़ी हों; सुव्यवस्थित रूपसे यथास्थान न रक्खी हुई हों, तो भी उस मकान में बैठकर काम करने को जी नहीं चाहता है। कारण कि हमारा मोही मन सुन्दरता और सफ़ाई चाहता है, ऐसा ही बिना स्नान किये अर्थात् शरीर को साफ और सुन्दर बनाये बिदून सांसारिक वा धार्मिक किसी भी काममें हमारा जी नहीं लगता है । यह सब मोहकी हो महिमा है। जब तक मोह है तब तक तो मोहकी गुलामी करनी ही पड़ेगी, इस कारण किसी भी सांसारिक वा धार्मिक कार्य प्रारम्भ करनेसे पहले यदि हमारा मन स्नान करना चाहे तो अवश्य कर लेना चाहिये । वैसे भी शरीरकी रक्षा के
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वास्ते स्नान करना ज़रूरी है, परन्तु स्नान करनेको धर्मका अंग मानना वा स्नान किये विदून धर्म-साधनका निषेध करना अत्यन्त धर्म विरुद्ध और मिध्यात्व है ।
उत्तमचन्द आप तो निश्चय सी बातें करते हैं, परन्तु हम जैसे गृहस्थियों से तो निश्चय का पालन नहीं हो सकता है । व्यवहार धर्म ही सध जाय तो बहुत हे 1 इसका भी लोप हो गया तो कुछ भी न रहेगा । ज्योतिप्रसाद - मैं भी व्यवहार धर्मकी ही बात कहता हूँ । जीवका जो वास्तविक परम वीतराग रूप ज्ञानानन्द स्वरूप है अर्थात् श्रर्हतो और सिद्धोंका जो स्वरूप है वह ही जीवका निश्चय धर्म है, उस असली रूप तक पहुँचने के जो साधन हैं, वह सब व्यवहार धर्म हैं; 'जो सत्यारथ रूप सो निश्चय, कारण सो व्यवहारो ।' ऐसा छह ढाला में तो कहा है । परन्तु इसके लिए श्री कुन्दकुन्दाचार्य आदिके निम्न वाक्य ख़ासतौर से ध्यान देने योग्य हैं-
1
धम्मादी सद्दणं सम्मत्तं गाणमंग पुत्र गदं चिट्ठा तवंहि चरिया ववहारो मोवख मग्गोति । १६० । पंचास्तिकाये, कुन्दकुन्द ० धर्मादि द्रव्योंका श्रद्धान करना व्यवहार १२ अंग १४ पूर्व जिन-वाणीका ज्ञान
होना व्यवहार सम्यग्ज्ञान है; तप आदिक में लगना तथा १३ प्रकार के चारित्रका अनुष्ठान व्यवहार चरित्र हैं; और यह सब व्यवहार मोक्ष मार्ग है।
अर्थात् मम्यग्दर्शन
सुहादो विणिवित्ती सुहे पांवत्तीय जाण चारितं । वदसमिदिगुत्तिरूवं ववहार यादु जिरा भणियम् ॥ -- द्रव्यसंग्रह, नेमिचन्द्र
अर्थात् अशुभसे बचना और शुभमें लगना यह व्यवहार चारित्र है। व्रत, समिति गुतिरूप चारित्र धर्म व्यवहार नयसे ही जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है ।
इस प्रकार जो भी साधन आत्म-कल्याणके वास्ते होता है वह सब व्यवहार-धर्म है, और ज साधन विषय कषायोंकी पूर्तिके वास्ते होता है, वह लौकिक व्यवहार हैं । गृहस्थीको दोनों ही प्रकार के साधन करने पड़ते हैं,
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अनेकान्त
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अर्थात् जितना उससे हो सकता है वह धर्म-साधन भी जाती है, सुबह होनेको तीन घण्टेकी देर है, रातको करता है और विषयकषायों की पूर्ति भी करता है, इसही उठकर नहानेकी हिम्मत नहीं, तब यदि ऐसी अवस्थामें कारण रत्न-करंड श्रावकाचारमें श्री समन्तभद्र स्वामीने परमात्माका ध्यान, स्तुति आदि नहीं कर सकता तो भोगोपभोग परिमाण-व्रतका वर्णन करते हुए, त्यागने धर्मको धक्का लगा कि नहीं। योग्य विषयों में स्नानका भी नाम दिया है
उत्तमचन्द-आपभी गज़ब करते हैं। कहीं ऐसा भी भोजन-वाहन-शयन-स्नान अपवित्राङ्ग-रागकसमेष। हो सकता है कि अपवित्र रहनेके कारण कोई परसात्मा ताम्बूल वसन भूपण मन्मथ-संज्ञीत गीतेषु ।
की स्तुति, भक्ति न कर सके ऐसा होता तो ऐसा क्यों भावार्थ-भोजन, सवारी, बिस्तर, स्नान, सुगन्ध,
कहा जाता है किपुष्पादि ताम्बूल, वस्त्र, अलंकार काम-भाग, गाना- अपवित्रः पावत्रो वा सुस्थितो दुःस्थितोऽपि वा। बजाना, इनका नियम रूप त्याग करना । इसही प्रकार ध्यायेत्पंच नमस्कारं सर्व पापैः प्रमुच्यते ॥१॥ अमितगति श्रावकाचारमें भी भोगोपभोग परिमाण-व्रत
“अपवित्र पवित्रो वा सर्वावस्थांगतोऽपि वा । का वर्णन करते हुए अध्याय ६ श्लोक ९३ में स्नान यः स्मरेत्परमात्मानं स बाह्याभ्यन्तरे शुचिः" ॥२॥ करनेको भोग बताकर त्याज्य बताया है..
अर्थात् -काई पवित्र हो वा अपवित्र हो, अच्छी हाँ, जो दूसरी प्रतिमा-धारी अणुव्रती नहीं है, अर्थात् अवस्था में हो वा बुरी में, जो णमोकार मंत्र का ध्यान जिसको भोगोपभोग परिमाण-व्रत नहीं है उसे अवश्य करता है, वह सब पापोंसे छूट जाता है, इसही प्रकार स्नान करना चाहिए। परन्तु स्नान करनेको व्यवहार- जा कोई पवित्र हो वा अपवित्र हो अथवा किसी भी धमका ज़रूरी अंग नहीं मानना चाहिए। ऐसा मानने अवस्थाको प्राप्त क्यों न हो, जो परमात्माका स्मरण से तो व्यवहार-धर्म लोप होता है- उसको भारी धक्का करता है वह अंतरंगमें भी और बाहरसे भी पवित्र है। पहुँचता है।
__ ज्योतिप्रसाद-बस तब तो हमारी आपकी बात उत्तमचन्द-धक्का कैसे पहुँचता है ?
एक हो गई। ज्योतिप्रसाद --स्नान करनेको यदि व्यवहार धर्मका मथुराप्रसाद--आजकी आपकी बातोंसे मुझे तो ज़रूरी अग मान लिया जावे तो जो बीमार बिस्तरस बहुत-ही आनन्द प्राप्त हुआ। मैं तो जैन-धर्मको ऐसा ही नहीं उठ सकता है, महा अपवित्र अवस्था में पडा हा समझता था जैसे हिन्दु सनातनियोंके बे सिर-पैरके ढकोहै, कम-से-कम जो स्नान नहीं कर सकता है, प्रसूता- सले, पर आजकी बातोंसे तो यह मालूम हुआ कि जैनस्त्री जो दस दिन तक जच्चारवाने में महा अपवित्र दशाम मत तो बिल्कुल ही प्राकृतिक धर्म है। वस्तु-स्वभाव पड़ी रहती है, अन्य भी जो कोई किसी दृष्टका बन्दी हो और हेतुवाद पर अवलम्बित है। यदि आप घंटा-आधगया है और स्नान आदि नहीं कर सकता है. वह सब घंटा दे सके तो मैं तो नित्य-ही इस सच्चे धर्मका स्वरूप परमात्माका ध्यान, स्तुति. बंदना आदि कछ भी नहीं सुना करूँ । कर सकेगा। तब तो शायद वह कोई धर्म-भाव भी ज्योतिप्रसाद-आप ज़रूर आया करें जहाँ तक अपने हृदयमें न ला सके, किन्तु एकमात्र पाप परिणाम मुझसे हो सकेगा में ज़रूर जैनधर्मका स्वरूप वर्णन ही अपने हृदयमें लाने पड़ें मन तो चुप रह नहीं सकता; किया करूँगा । जितना आप इसका स्वरूप जानते जायँगे शरीर अपवित्र होनेके कारण जब उसको धर्म-भाव उतना-ही-उतना आपको यह प्रतीत होता रहेगा कि हृदयमें लाने की मनाही होगी तब पाप-परिणाम ही मनमें वास्तव में वस्तु स्वभाव-ही जैन-धर्म है, यह धर्म परीक्षालाने पड़ेंगे, जाड़े में चार बजे ही गृहस्थीकी आँख खुल प्रधानी युक्ति-युक्त और पक्षपात रहित है।
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जीवन के के अनुभव
ले० - अयोध्याप्रसाद गोयलीय
[ इस स्तम्भ में जीवन सम्बन्धी ऐसी घटनाएँ देनेकी इच्छा है जो सत्यके प्रयोग, आत्म-विश्वास, सदाचार, सेवाधर्म, लोकसेवा, दान, तप, संयम, स्वाध्याय, पूजा, उपासना, भक्ति, सामायिक, व्रत, उपवास तथा पूर्वजन्मके फलस्वरूप आदि रूपसे अपने जीवन में अनुभव की हों, या आँखों से प्रतक्ष देखी हों। हमारी समाज में ऊँचे से ऊँचे तपस्वी, त्यागी, धर्मात्मा, ज्ञानी, दानी, विद्यमान हैं। हमारी उनसे विनीत प्रार्थना है कि वे कृपण करके अपने जीवन के ऐसे अनुभव लिखें जो उपयोगी होवें । साथ ही यह भी बतलाएँ कि उन्होंने किस प्रकार साधना की, उनके कार्य में कितनी विघ्न वाधाएँ उपस्थित हुई और फिर किम प्रकार सफलता प्राप्त हुई ? शायद कुछ सज्जन लेखनकला का अभ्यास न होने से लिखने में संकोच करें, किन्तु हमारी उनसे पुनः नम्र प्रार्थना है कि जैसी भी भाषा में लिख सकें या लिखवा सकें अवश्य लिखवाएँ । स्वानुभव की वह टूटी फूटी भाषा ही, अनुभव हीन सँवरे हुए लाखों लेखो से अधिक कल्याणकारी होगी और उससे काफ़ी आत्म-लाभ हो सकेगा । अपने भावों को स्पष्ट करने के लिए यहां कुछ उदाहरण लिख देने का विनम्र प्रयास किया है। इसमें आत्म-विज्ञापनकी गन्ध आए तो मुझे अनधिकारी समझते हुए क्षमा करें। इसके द्वारा आत्मानुभवी अपने लेख लिखने की रूप रेखा बना सकें, इसीलिये अनधिकार चेष्टा करनेकी यह धृष्टता की है। ]
( १ ) सन् १९२५ - २६ ईस्वीकी बात होगी । जाड़ों के दिन थे, मेरे एक मित्र जो देहली में ही रहते थे । उनके यहां कुछ मेहमान आये हुए थे । उन सबकी इच्छा थी कि मैं भी रातकी उन्हींके पास रहूं। अतः घर पर मैं अपनी मां से रातको न आनेके लिए कहकर चला गया और मित्रके यहां जागरण में सम्मलित हो गया; परन्तु रात्रिको दस बजेके करीब घर आनेके लिये एकाएक मन व्याकुल होने लगा । मित्रके यहां मुझे काफ़ी रोका गया और इस तरह मेरा अकस्मात् चल देना उन्हें बहुत बुरा लगने लगा। मैं भी इस तरह एकाएक जानेका कोई कारण न बता सकने की वजहसे अत्यन्त लज्जित हो रहा था, किन्तु उनके बार बार रोकने पर भी मुझे वहां एक मिनट भी रहना दूभर हो गया
और मैं ज़िद करके चला ही आया। घर आकर मां को दरवाज़ा खोलने को आवाज़ दी। दरवाज़ा खुलने पर देखता हूं कि कमरे में धुआं भरा हुआ है और मां के लिहाफ़ में आग सुलग रही है। दौड़कर जैसे तैसे आग बुझाई। पूछने पर मालूम हुआ कि थोड़ी देर पहले लालटेन जलाने को माचिश जलाई थी, वही बिस्तरे पर गिर गई और धीरे-धीरे से सुलगती रही। यदि दो चार मिनट का बिलम्ब और हो जाता तो मां जलकर भस्म हो जाती । साथही मकान में ऊपर तथा बराबर में रहने वालोंकी क्या अवस्था होती, कितनी जन-हत्या होती, कितना धन नष्ट होता, यह सब सोचते ही कलेजा धक-धक करने लगा ! उस समय किस आन्तिरिक शक्तिने मुझे घर आनेके लिये प्रेरित
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अनेकान्त
[ माघ, वीर - निर्वाण सं० २४६५
किया ? यह मेरे किसी पूर्व संचित पुण्यका उदय ही फिर आप पर काफ़ी सख्ती होगी और दवा भी पीनी
समझना चाहिए ।
होगी । सिपाहियोंकी सूचना पर साहब मेरे पास आया और दवा न पीनेका कारण पूछा। मैंने दवा पीनेमें अपनी असमर्थता प्रकट की तो बोला : “यदि बीमार पड़ गये तब ?” मेरे मुँह से अनायास निकल पड़ा“यदि बीमार होजाऊँ तो आप कड़ीसे कड़ी सज़ा दे सकेंगे ।" साहब ऑलरायट कहकर चला गया ? किन्तु सजाकी पूरी अवधि तक मुझे दवाकी तनकि भी आव श्यकता न पड़ी । बुखार, खांसी, जुकाम, क़ब्ज़ वगैरह मुझे कुछ भी नहीं हुआ। इतने अर्से में एक भी तो शिकायत नहीं हुई। जबकि अन्य साथी दो-तीन माह में ही जेल से बीमारियोंका पु ंज बनकर आते थे ।
२ ) सन् १९३० मं, असहयोग आन्दोलन में, मुझे २ वर्षका कारागार हुआ, तब वहां मोन्टगुमरी जेल ( पंजाबका उन दिनों काला पानी ) में मलेरिया बुखार किसीको न आजाय, इस ख़याल से प्रत्येक कुदीको जबरन कुनैन मिक्शचर पिलाया जाता था । उन दिनों विलायती दवासे मुझे परहेज़ था । अतः जब वे मेरी ओर आये तब मैंने दवा पीनेसे कृतई इन्कार कर दिया। कुछ लिहाज़ समझिये या श्रात्म-विश्वास समझिये, सिपाहियोंने मुझे जबरन दवा नहीं पिलाई। किन्तु यह अवश्य कहा कि दवा न पीनेकी सूचना हमें साहब ( सुपरिटेण्डेण्ट जेल) को अवश्य देनी होगी और
* *
कात पर लोकमत
(१६) बाबा भागीरथजी वणीं
"अनेकान्त" की दो किरणें मैंने पढ़ी हैं । 'अनेकान्त' अपने ढंगका एक ही पत्र हैं । जैनियों में सम्भवतः अभी इसे अपनानेकी योग्यताका अभाव है। मेरी शुभ कामना है कि अनेकान्त विश्वव्यापी होकर घर-घर में वीर प्रभुका सन्देश पहुँचाने में समर्थ हो ।” ( २० ) श्री उपाध्याय मुनि अमरचन्दजी 'कविरत्न'
"आज एक बहुत आनन्दका दृश्य देख रहा हूं । सात वर्ष पहलेका मेरा पाठ्यपत्र 'अनेकान्त' पुनः प्रकाशित होकर समाजके सम्मुख आया है और आते ही अपनी पुरानी पुनीत स्मृतिको फिरसे ताजा बना दिया है।
क्रमशः
जैनसंसार में यह पहलाही पत्र है, जो इस ढंगमे निकल रहा है । विद्वतापूर्ण लेखों का संग्रह, वास्तव में हर किसी सहृदय विद्वानसे प्रशंसा पा सकता है। साथ ही सांप्रदायिक वातावरण से अपने आपको अलग रखनेका जो संकल्प है, वह और भी शतशत बार अभिनन्दनीय है। श्री मुख्तार साहबकी मँजी हुई लेखनीका चमत्कार सम्पादकीय टिप्पणीके रूपमें, एक ख़ास दर्शनीय वस्तु है । हृदय से अनेकान्तकी सफलता चाहता हूँ एवं चिरायुके लिये मंगल कामना करता हूँ ।"
- क्रमशः
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अनुकरणीय
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धर्म-प्रेमी ला० छुट्टनलालजी जैन मंदेवालान “अनेकान्न" जिन २५ जैनेतर संस्थाओं को एक वर्ष नक भेट म्वरूप भिजवाते रहनके लिए ५१) 70 की महायता प्रदान की थी, उन संस्थाओंकी सूची नीमरी विग्णाक चौथे पत्र पर दी जा चुकी है । हमें हर्प है कि इस मामें निम्नलिखिन दानी महानुभावोंकी अरसे 'अनेकान्न' एक वर्ष तक भेट स्वरूप भिजवाने रहने के लिए और महायता प्राप्त हुई है। अन. अनकान्न' प्रथम किग्णसे भंजना प्रारम्भ कर दिया गया है । धन्यवानम्वरूप जो मंन्यााकी ओरस पत्र पा रह है वह दानी महानुभावोंका भेजे जा रहे हैं । 'अनेकान्न' पर श्राप हा लेकमन से ज्ञान हो मकंगा कि अनेकान्नके प्रचारकी कितनी नितान्त आवश्यकता है । जितना अधिक अनेकान्न' का प्रगर होगा उतना ही अधिक मत्य. शान्ति और लं कहिनगी भावनाओं का प्रचार गा । अनेकान्न' को हम बहुत अधिक मुन्दर और उन्नतिशील देखना चाहते है. किन्नु दमाग शनि. अद्वि और हिम्मन मव वृछ परिमित है । हमें ममाज-हिनपी धर्मप्रेमी बन्धयाक महयोगी ग्रयन्त श्रावश्यकता है। हम चाहते है कि समाजक उदार हृदय बन्ध जनतर मधाश्री र विद्वानों
प्रचारकी दृष्टिम 'अनेकान्त अपनी पारस भंट बम्प भिजवाएँ आर जैन बन्धअंकी अनेकानया माक बननय लिय उमाहिन करें। नाकि अनेकान्न कितनी ही उपयोगी पाठ्य-मामग्री और पुत्र मरगा वटाने में मम हो सकें।
व्यवस्थापक काम-त सेट लन्मीचन्द्रजी भेलमा को ओर से '-- ५ काशीराम हाई स्कूल महारनपुर , गनिमी कालेज आफ ला नागपुर वैश्य हाई स्कूल
गहनक • हम्प कालेज नागपुर १५ मी. ग. वी. हार्ट स्कल
हनक मिटी कालेज
नागपुर = बौद्ध विहार लाय-ग माग्नाथ बनारस , श्रा- कालन
गयपुर किंग जाई मदिकन कालेज नम्वनः ५ गजाराम नायत्री
नागपुर 20 लम्पनर यनिवर्सिटी लग्न ६ गवनमंण्ट हाईम्बन
* काशी विद्या पीट
बनारम ७ जगन्नाथ हाई स्कल
• ऋपिवुल ब्रह्मचर्याश्म, हरिदार = गवनमैग्ट हाई कल दमोह १ सनानन धर्म सभा
भनमा ६ हिन्दी भाषी मंघ दाई म्कल नागपुर ४ क्रीन्म कालेज १० पटवर्धन हाई स्कन नागपुर -५ पटना यूनिवर्सिटी
पटना ११ युवगज पटिनक लायब्रग उन्जन २६ मारवाड़ी पुग्नकालय. बडा बाजार कलयका • मथरादाम इण्टर मिडियट कालेज. मेगा न्यालमिह कालेज
नाहर ५३ पब्लिक लायी जुवनी बाग महारनपुर ८ गयाप्रमाल पब्लिक लायी जी.रो कानपुर १४ म्युशीगम पटिनक लायग देहरादन २६ इण्टग्मांजिण्ट कालेज वत्रा
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सागर
मागला
बनारम
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३० वमन कालेज
भड़की
३१ गमजम इस्टर मिजिएट कालेज. दि
३० रायल मियाटिक सोसाइटी
३३ व हाई स्कूल
३ बम्बई यूनिवर्सिटी
३५ मारवाड़ी रिलीफ सोसाइटी
वर्षा शिक्षा योजना मन्दिर
३५ ग्राम ोग मंत्र. भगनवाडी पक्निक जायरी
सकर कालेज
20 क्रिमनियन कालेज
१५ पजात्र अनिवमिटा
* गवर्नष्ट कालेज
arta faitयन जि
४४ मनानन धम कॉलेज
१५ ला कालेज
** म्यूनिसिपल लायब्रेरी
vs डी एडीटर इन चीफ, कैटेलोगस
यूनिवर्सिटी आफ मद्राम आर्यसमाज मन्दिर
fre at० गमवरूपजो वकील
कलकना
राँची (विहार)
बम्बई
कलकत्ता
qui
ari
मोर
दर
उदार
नार
लाहोर
लो
नाही
लाहोर
लाहोर
कॅटलोग्रम
मत्राम
भलमा
४६ मा जनिक वाचनालय
भेजमा
५७. ५१ दो उन्होंने विद्वानोंको भिजवाए है।
जैन नवयुवक सभा जबलपुरकी ओर से :
१ एगरीकलचर कालेज
२ साइन्स कालेज
३. रोबर्टसन मैडिकल हाई स्कूल ४ इन्जीनियरिंग कालेज
नागपुर
नागपुर
नागपुर
नागपुर
Regd. No. L. 4328
५ यनिवर्सिटी लायब्रेरी
६
मन कालेज
नागपुर
जबलपुर
जबलपुर
जबलपुर
जबलपुर
जबलपुर
जबलपुर
जवनपुर
जबलपुर
जयन्तपुर
जबलपुर
ला० गमन की ओर से
तक
: श्री जैन मन्दिर महोदधिवास त्रिआय मित्र दर्श होमीन)
मांवरील राय जैनका
' वद्धमान पक्कि लायनरी
७ सिटी कालेज
= स्ट्रिक्ट लायब्रेरी
६. मोटल हाई स्कूल
१० हिकारिणा हाई स्कूल
८६ महाराष्ट्र हाई स्कूल
१०
माल नवयुवक मंडल
स्टेन्सन नि कान्तंज
: थियलोजिकल कालेज
१५ जैन लायब्रेरी जवाहरगंज
देही
aerosene न मरचना की ओर से
'डी. . श्री. कॉलेज
to बुद्धिप्रकाश जैनकी ओर से . - २ इलाहाबाद यूनिवर्सिटी
बा० ज्ञानचन्द्र कोटाकी ओर से :
१ महाराजा कॉलेज
= गवर्नमेंट कालेज
३ रामसुखदास कालेज
४ लाहोर कालेज आफ वीमैन
५ मरे कालेज
इलाहावाद
जयपुर
रोहनक
फिरोजपुर
लाहौर
म्यानकोट
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वार नि-म.२५६५ : मार्च :५९
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मचानकजुगलकिशोर मुग्लार
तनमुखगय जैन अधिष्ठाता वीरसंवा मन्दिर मरमावा (सहारनपुर) कनाट मरकस पो.ब.नं. ४ न्यू बेली
मद्रक और प्रकाशक-अयोध्याप्रमाद गांयनीय।
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विषय-सूची
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१. समन्तभद्र-अभिनन्दन २. मनोवेदना (कविता)-[श्री० भगवनस्वरूप “भगवन" ... ३. अपनी दशा (कविता)-[श्री. भगवनस्वरूप "भगवन"... ४. गोत्र कर्म पर शास्त्रीजीका उत्तर लेग्य [सम्पादकीय ५. परिवर्तन (कहानी) [श्री. भगवतस्वरूप भगवन् ... ६. आचार्य हेमचन्द [श्री. रतनलाल संघवी ७. मुभापित (कविता) [ संकलित ... ८. कथा कहानी [अयोध्याप्रसाद गोयलीय ९. बौद्ध तथा जैनधर्म पर एक मरमरी नज़र [श्री. बी. एल. सराफ वकील १०. संमारकी मम्पत्ति कैमी ? (कविता) [कविवर स्व० बनारसीदामजी ११. कोल्हूकं बैलकी दशा १२. दुर्जनका मन १३. मुक्ति मुक्तालि ५४. अदृष्ट शक्तियाँ और पुरुपार्थ [श्री. सूरजभान वकील १५. मूलाचार संग्रह ग्रन्थ है [श्री. पं० परमानन्द न्यायतीर्थ ५६. अनेकान्त पर लोकमत १७. अनुकरणीय
टाइटिल
प्रकाशकीय
१. पूर्व सूचनानुमार पाँचवीं किरण नए टाइपमें प्रकाशिन हो रही है। २. "अनेकान्त” के इस माहमें ४ पृष्ठ और अधिक जा रहे हैं और यदि हमारी पसन्दका मोटा और रूस्खा
काराज मिल गया जैसा कि आर्डर दिया हुआ है तो छटवी किरणसे चार पृष्ठ और बढ़ा दिये जाएंगे।
यानी टाइटिल सहित ६० पृष्ठ अनेकान्त में रहा करेंगे। ३. स्थानाभावके कारण हमारी विभूतियाँ', 'पराक्रमी पूर्वज', 'जीवन के अनुभव', 'शिक्षाका महत्व' और
नारी-उपयोगी लेख इस अंक में नहीं दिये जा सके।
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ॐ अहम्
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ITIMIR
नीति विरोध-ध्वंसी लोक व्यवहार-वर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ।।
वर्ष २
सम्पादन-स्थान-चीर-सेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम) सरसावा, निसहारनपुर
प्रकाशन-स्थान-कनॉट मर्कस, पो.ब.नं०४८, न्य देहली फाल्गुणशुक्ल, वीरनिर्वाण सं० २४६५, विक्रम सं० १६६५
.किरण "
समन्तभद्र अभिनन्दन .
कार्यादर्भेद एव स्फुटमिह नियतः सर्वथा कारणादरित्याये का तबादोद्वततरमतयः शाततामाश्रयन्ति । प्रायो यस्योपदेशादविवटितनया मानमूलादलंध्यात् स्वामी जीयात्म शश्वत्प्रथिततरयतीशोऽकलंकोरुकीतिः ।।
-अष्टमहरूयां, विद्यानन्दाचार्यः जिनक नर-प्रमागा-मूलक अलग उपदेशन-प्रवचनको मुनकर-महाउस नमति ययान्तवादीमा प्रायः शान्तकापातान है जो कारण कार्याधिकका सर्वथा भेदही नियन माना है अथवा यह नीकार करते है कि कारगा-कार्यादिक सर्वथा अभिन्न ी - क ही है-वे निमन तथा विशालकार्निग युन, अनि प्रति मनिराम स्वामी ममन्तभद्र सदा जयवन्त रह-अपने प्रपचनप्रभावंस बराबरलोक हृदयका प्रभारित करते रहें।
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२७६
हृदयकी वह
मूल्य-निधियाँ
कि जिनसे है जीवन, जीवन ! उगाकर भोलेपनसे उन्हेंदरिद्री हो बैठा यह मन !!
किया करते उद्वेलित इसेक्षणिक, अस्थिर सुख-दुख तूफ़ान न करनेको समर्थ होतावास्तविकताकी दृढ़ - पहिचान !
मनोवेदना
भगवत्स्वरूप जैन 'भगवत्'
पहुँच जाता सक्षेम सानन्द कभी उत्थान - हिमालय पर ! दुलककर पतन - तलहटीमेंबना लेता यह अपना घर !!
अपनी दशा
मैं हँसता हूँ तो दुनिया - मुझको पागल बतलाती ! जब रोता हूँ तो उस परकुछ दया नहीं दिखलाती !! मेरे रोने हँसनेमें
अनेकान्त
फिर विशेषता क्या है ! हँसना भी वैसा ही हैजैसा कि दुखद रोना है !!
इस दुनियाकी क्या कहतेदुनिया है रंग-रंगीली ! दुखियोंको रौरव है तोसुखियोंको तान रसीली !! मैं सुख-दुख के सागरमेंअपनापन भूल रहा हूँ !
[ फाल्गुन, वीर निर्वाण, सं० २४६५
विविध, भ्रामिक- प्रलोभनों परनिरन्तर यह रहता फुला ! झूलता मंत्र-मुग्धकी भांतिनिराशा - आशाका झूला !!
ग्रन्थि ऐसी दृढ़ता के साथदुखद घटनाओंसे उलझी ! चाहती नहीं सुलझना औरन जो है अबतक भी सुलझी !!
माया-मरीचिका लेकर
हर्षित हो फूल रहा हूँ !!
पर हृदय- देशमें कैसा
चल रहा विकट आन्दोलन !
कोमल तर अभिलाषाएँपा रहीं नित्य-प्रति बन्धन !!
मेरी सूखी आंखों में
नित सजल - गानकी लहरी !
क्यों अनजाने ही दुखप्रद - मदिरा-सी चढ़ती गहरी !!
भगवत्स्वरूप जैन 'भगवत्'
मैं नहीं चाहता मेराकोई रहस्य प्रगति हो ! सुख हो या दुख कुछ भी होबस, मनमें ही सीमित हो !!
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तत्वचची।
गोत्रकर्म पर शास्त्रीजीका उत्तर-लेख
[ सम्पादकीय ]
द्वादमहाविद्यालयके प्रधान अध्यापक पं० बहुत ही कम थी, कोई ऐसा खास शास्त्रप्रमाण भी
कैलाशचन्दजीका एक लेख 'अनेकान्त' की उन्होंने अपनी तरफ़से प्रस्तुत नहीं किया था जिससे यह गत तीसरी किरणमें प्रकाशित किया गया था । वह स्पष्ट होता कि कर्मभूमिज मनुष्य ऊँच और नीच दोनों लेख बाबू सूरजभानजी वकीलके 'गोत्रकर्माश्रित गोत्रवाले होते हैं, लेखका कलेवर 'ऐसी' और इसमें के ऊँच-नीचता' शीर्षक लेखके उत्तर रूपमें था और शब्दजालमें पड़कर और उनके प्रयोग-फलको प्रदर्शित उसमें उक्त लेख पर कुछ 'नुक्ताचीनी' करते हुए बाबू करनेके लिये कई व्यर्थके उदाहरणोंको अपनी तरफसे साहबको 'गहरे भ्रमका होना' लिखा था, बाबू साहबने घड़-मढ़कर बढ़ाया गया था-अर्थात्, बाबू साहबने जयधवला तथा लब्धिसार टीकाके वाक्योंका जो निष्कर्ष अपने लेखमें उद्धृत जयधवला और लन्धिसारटीकाके अपने लेखमें निकाला था उसे 'सर्वथा भ्रान्त' 'अर्थका प्रमाणोंका जो एक संयुक्त भावार्थ दिया था उसमें मूलअनर्थ' तथा 'दुराशय' बतलाते हुए और यहां तक भी के 'इति' शब्दका अर्थ 'ऐसी' ही लिखा था, बादको लिखते हुए कि 'फलितार्थको जो कोई भी समझदार जब वे उन प्रमाणोंका निष्कर्ष निकालने बैठे तो उन्होंने व्यक्ति पढ़ेगा वह सिरधुने बिना नहीं रहेगा' बाब साहबको मूल के शब्दोंका पूरा अनुसरण न करके-निष्कर्षमें उसके कारण 'दुराशयसे युक्त', 'शास्त्रके साथ न्यायकी मलके शब्दोंका पूरा अनुसरण किया भी नहीं जाता और यथेष्ट चेष्टा न करने वाला' और 'अत्याचारी' तक न लाजिमी ही होता है उसे अपने शब्दोंमें दिया था। प्रकट किया था। साथ ही, 'वृद्धावस्थामें ऐसा अत्याचार उस निष्कर्ष में 'इसमें' शब्दका प्रयोग देखकर शास्त्रीजी न करनेका उनसे अनुरोध' भी किया था । यह सब ने उसे बलात् 'इति' शब्दका अर्थ बतलाते हुए कहा कुछ होते हुए भी शास्त्रीजीके लेखमें विचारकी सामग्री था कि 'इति' शब्दका 'इसमें अर्थ नहीं होता, 'इसमें
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अनेकान्त
[फाल्गुण,वीर-निर्वाण सं०२४६५
श्रई करनेसे बड़ा अनर्थ हो जायगा और उस अनर्थको दो फार्मके करीबका होगया है, उसे ज्योंका त्यों पूरा छाप सूचित करने के लिये तीन लम्बे लम्बे उदाहरण घड़कर कर यदि तुर्की-बतुर्की जवाब दिया जावे तो समूचे लेख पेश किये थे, जिनस उनके लेखमें व्यर्थका विस्तार का कलेवर चार फार्मस ऊपरका हो जावे और पढ़नेहोगया था। ऐसी हालत में उनका लेख अनेकान्तमें वालोंको उसपरसे बहुत ही कम बात हाथ लगे। मैं दि जानके योग्य अथवा कुछ विशेष उपयोगी न होते नहीं चाहता कि इस तरह अपने पाटकोंका समय व्यर्थ हुए भी महज़ इस ग़र्ज़से देदिया गया था कि न देनेसे नष्ट किया जाय । शास्त्रीजीके पिछले लेखको पढ़कर कुछ कहीं यह न समझ लिया जाय कि विरोधी लेखोंको स्थान विचारशील विद्वानोंने मुझे इस प्रकारसे लिखा भी है नहीं दिया जाता । माथ ही उसकी निःसारता आदिको कि-"परिमित स्थानवाले पत्र में ऐसे लम्बे लम्बे लेखा व्यक्त करते हए कुछ सम्पादकीय नोट भी लेख पर का प्रकाशन जिनमें प्रतिपाद्य वस्तु अधिक कुछ न हो लगा दिये गये थे । मेरे उन नोटीको पढ़कर शास्त्रीजी- बांछनीय नहीं है। शास्त्रीय प्रमाणीको 'ऐसी' और को कुछ क्षोभ हो पाया है और उमी क्षोभकी हालतमें इसमें' के शाब्दिक जंजाल में नहीं लपेटना चाहिए । उन्होंने एक लम्बामा लेख लिखकर मर पाम भेजा है। व प्रमाण तो स्पष्ट है जैसा कि ग्रापने अपने नोट में लिखा लेखमें पद-पद पर लेखकका क्षोभ मूर्तिमान नज़र आता है । म्लेच्छोमें संयमकी पात्रतासे इनकार तो नहीं किया है और उसमें मेरे लिये कुछ कटुक शब्दोंका प्रयोग भी जा सकता।” साथ ही, मुझे यह भी पसंद नहीं है कि किया गया है, जिन्हें यहाँ उद्धृत करके पाटकोंके कंटुक शब्दोंकी पनरावृत्ति द्वारा उनकी परिपाटीको हृदयाको कलंपित करनेकी मैं कोई ज़रूरत नहीं आगे बढ़ाकर अप्रिय चर्चाको अवसर दिया जाय । समझता । क्षोभके कारण मेरे नोटों पर कोई गहरा हमारा काम प्रेमके माथ खुले दिलसे वस्तुतत्त्व के विचार भी नहीं किया जा सका और न उसे करना निर्णयका होना चाहिये—मूल बातको ऐसी' और जरूरी ही समझा गया है-क्षोभ में ठीक इसमें' के प्रयोग-जैसी लफती (शाब्दिक) बहसमें डाल विचार बनता भी नहीं-यों ही अपना क्षोभ व्यक्त कर किसीको भी शब्द छलसे काम न लेना चाहिये। करनेको अथवा महज़ उत्तर के लिये ही उत्तर लिखा उधर शास्रीजी कुछ हेर-फेरके साथ बाब सूरजभानजीके गया है । इमीस यह उत्तर-लेख भी विचारकी कोई नई विषयमें कहे गये अपने उन शब्दोंको वापिस भी ले सामग्री कोई नया प्रमाण-कामने रखता हुअा रहे हैं जिनकी सूचना इस लेखके शुरूमें की गई है। नज़र नहीं आना । उन्हीं बातोंको प्राय; उन्हीं शब्दोंमें साथ ही मेरे लिये जिन कटुक शब्दोंका प्रयोग फिर फिरसे दोहरा कर-अपने लेखके, वकील साहबके किया गया है उस पर लेखके अन्तमें अपना खेद भी लेखक तथा मर नोटोंके वाक्योंको जगह-जगह और पुनः व्यक्त कर रहे हैं-लिख रहे हैं कि “नोटोंका उत्तर पुनः उधृत करके अपनी बातको पुष्ट करनेका देते हुए मेरी लेखनी भी कहीं कहीं तीव्र होंगई है और निष्फल प्रयत्न किया गया है।
इसका मुझे खेद है !” ऐसी हालतमें शास्त्रीजीका । इस तरह प्रस्तुत उत्तरलेखको फ़िज़लका विस्तार पूरा लेख छापकर और उसकी पूरी अालोचना करके दिया गया है और वह १४ बड़े पृष्ठों का अर्थात् पाने पाठकोंके समय तथा शक्तिको दुरुपयोग करना और
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वर्ष २, किरण ५ ]
गोत्र कर्म पर शास्त्रीजीका उत्तर लेख
२७६
व्यर्थकी अप्रिय चर्चाको आगे बढ़ाना उचित मालूम वाक्य से प्रकट है:नहीं होता। अतः उज्र-माज़रत, सफ़ाई-सचाई तथा आर्यखण्डोद्भवा आर्या म्लेच्छाः केचिच्छकादयः। व्यक्तिगत आक्षेप और कटुक अालोचनाकी बातोंको म्लेच्छखण्डोद्भवा म्लेच्छा अन्तरद्वीपजा अपि ॥ छोड़कर, जो बातें गोत्रकर्मकी प्रस्तुत चर्चासे खास
-तत्त्वार्थसार मम्बंध रखनी हैं उन्हीं पर यहां सविशेषरूपसे विचार अर्थात्-अार्यखण्डमें उत्पन्न होनेवाले मनुष्य किये जानकी ज़रूरत है। विचार के लिये वे विवादापन्न प्रायः करके तो 'आर्य' हैं परन्तु कुछ शकादिक 'म्लेच्छ' यात संक्षेप में इस प्रकार हैं:
भी है। बाकी म्लेच्छखण्डों तथा अन्तरद्वीपोंमें (१) म्लेच्छोंके मूल भेद कितने हैं ! और शक, उत्पन्न होनेवाले सब मनुष्य म्लेच्छ' हैं। यवन, शवर तथा पुलिन्दादिक म्लेच्छ अार्यवएडोद्भव पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री म्लेच्छोंके म्लेच्छखण्डो है या म्लेच्छखण्डोद्भव ?
द्भव और अन्तरद्वीप न ऐसे दो भेद ही करते हैं और (२) शक, यवन, शबर और पुलिन्दादिक म्लेच्छ शक-यवनादिकको म्लेच्छरखण्डोंसे पाकर आर्यखण्डमें मकलमंयमके पात्र हैं या कि नहीं ?
बसनेवाले म्लेच्छ बतलाते हैं ! साथही, यह भी लिखते हैं (३) वर्तमान जानी हुई दुनिया के सब मनुष्य कि अार्यखण्डोद्भय कोई म्लेच्छ होतं ही नहीं, आर्य उच्चगोत्री हैं या कि नहीं?
खण्डमें उत्पन्न होनेवाले सब श्रार्य ही होते हैं, यहां (४) श्री जयधवल और लब्धिसार-जैसे सिद्धान्त- तक कि म्लेच्छखण्टांस अाकर यार्यखण्डमें बसनेवालों अन्योंके अनुगार म्लेच्छ खण्डोंके सब मनुष्य सकल- की संतान भी अार्य होती है, शकादिकको किसी मंयमक पात्र एवं उच्चगोत्री हैं या कि नहीं? भी प्राचार्यने अार्यखण्ड में उत्पन्न होने वाले
इन सब बातोंका ही नीचे क्रमशः विचार किया नहीं लिग्या, विद्यानन्दाचार्यने भी यवनादिकको जाता है, जिनमें शास्त्री जीकी तद्विषयक चर्चाकी म्लेच्छखण्डो भव म्लेच्छ बतलाया है। परन्तु अालोचना भी संगी। इससे पाटकोंके मामने कितनी इनसे कोई भी बात उनकी टीक नहीं है । ही नई नई बात प्रकाशमं श्राएँगी और वे मब उनकी विद्यानन्दाचार्यने यवनादिकको म्लेच्छग्वण्डोद्भव नहीं जानवृद्धि तथा वस्तुतत्त्व के यथार्थ निर्णयमें सहायक बतलाया और न म्लेच्छोंके अन्तरद्वीपज तथा म्लेच्छ होगी:
खण्डोदभव ऐसे दो भेद ही किये हैं, बल्कि अन्तरद्वीपज (१) मलेच्छोंके मल भेद दो अथवा नीन है--- और कर्मभूमि ऐम दो भेद किये हैं, जैसा कि उनके १ कर्मभमिज र अन्तरद्वीपज रूपसे दो भेद और ग्रार्य- श्लोकवार्तिक के निम्न वाक्यांस प्रकट हैखण्डोद्भव, २ म्लेच्छग्वण्डाद्भव तथा ३ अन्तरद्वीपज "तथा तरद्वीपजाम्लेच्छाः परे स्युः कर्मभमिजाः ।... रूपसे तीन भेद हैं । शक-यवन-शवरादिक आर्यग्वण्डोद्भव "कर्मभमिभवा म्लेच्छाः प्रसिद्धा यवनादयः । म्लेच्छ हैं—ार्यखण्ड में उत्पन्न होते हैं, म्लेच्छग्वण्डों- रयुः परे च तंदाचारपालनाबहुधा जनाः ॥" में उत्पन्न होनेवाले अथवा वहां के विनिवामी (कदीमी श्रीपज्यपाद और अकलंकदेवने भी ये ही दो भेद बाशिन्दे) नहीं है, जैसा कि श्रीअमृतचन्द्राचार्यके निम्न किये हैं और शक यवनादिकको म्लेच्छवराष्टोद्भव नहीं
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२८०
अनेकान्त
[फाल्गुन, वीर-निर्वाण सं०२४६५
लिखा, किन्तु कर्मभूमिज बतला याहै । यथा- निवेशितास्तथाऽन्येपि विभक्ता विषयास्तथा ॥१५६॥ "म्लेच्छा द्विविधा अन्तरद्वीपजाः कर्मभूमिजाश्चेति ।" तदन्तेवन्तपालानां दुर्गाणि परितोऽभवन् । "कर्मभूमिजाश्च शक-यवन-शबर-पुलिन्दादयः ।" स्थानानि लोकपालानामिव स्वर्धामसीमसु ॥१६०॥
--सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक तदन्तरालदेशाश्च बभूवुरनुरक्षिताः। वास्तवमें आर्यखण्ड और म्लेच्छखण्ड दोनों ही लुब्धकाऽरण्यचरट-पुलिन्द-शबरादिभिः ॥१६१ ॥ कर्मभूमियाँ हैं और इस लिये 'कर्मभूमिज' शब्दमें आर्य
-श्रादिपुराण, पर्व १६ खण्डोदभव तथा म्लेच्छखण्डोदभव दोनों प्रकारके यही वजह है कि जिस समय भरत चक्रवर्ती दिग्विम्लेच्छोंका समावेश है। इसीसे अमतचन्द्राचार्यने जयके लिये निकले थे तब उन्हें गंगाद्वार पर पहुँचनेसे उन्हें स्पष्ट करते हुए म्लेच्छोको तीन भेदोंमें विभाजित पहले ही श्रार्यखण्डमें अनेक म्लेच्छ राजा तथा किया है। अतः अमतचन्द्राचार्य के उक्त वाक्यमें प्रयक्त पुलिन्द लोग मिले थे-पुलिन्द म्लेच्छोंकी कन्याएँ हुए 'केचिच्छकादयः' का अर्थ म्लेच्छखण्डोंसे श्राकर चक्रवर्तीकी सेनाको देखकर विस्मित हुई थीं-और उन्होंने श्रार्यखण्डमें बसने वाले म्लेच्छ नहीं किन्तु 'श्रार्य
अनेक प्रकार की भेंटे देकर भरत चक्रवर्तीके दर्शन खण्डोद्भव' म्लेच्छ ही हो सकता है और यह विशेषण किये थे । उस वक्त तक म्लेच्छखण्डोंके कोई म्लेच्छ दूसरे म्लेच्छोंसे व्यावृत्ति करानेवाला होने के कारण आर्यखण्डमें आये भी नहीं थे, और इसलिये वे सब सार्थक है । अमृतचन्द्राचार्य के समयमें तो म्लेच्छखण्डों- म्लेच्छ पहलेसे ही आर्यखण्डमें निवास करते थे; से आकर आर्यखण्ड में बसने वाले कोई म्लेच्छ थे भी जैसा कि श्रादिपुराण के निम्न वाक्योंसे प्रकट हैं:-- नहीं, जिन्हें लक्ष्य करके यह भेद किया गया हो । जो पुलिन्दकन्यकाः सैन्यसमालोकनविस्मिताः। म्लेच्छ किसी चक्रवर्तीके समयमें श्राकर बसे भी होंगे अव्याजसुन्दराकारा दूरादालोकयत्प्रभुः ॥४१॥ उनका अस्तित्व उस समय होही नहीं सकता और उनकी चमरीबालका केचित् केचित्करतरिकारडकान् । संतान शास्त्रीजीके कथनानसार म्लेच्छ रहती नहीं-- प्रभोरुपायनीकृत्य ददृशुग्लेंच्छराजकाः॥४२॥ वह पहले ही आर्यजातिमें परिणत होगई थी। इसके ततोविदूरमुल्लंप्य सोऽध्वानं सह सेनया। सिवाय, शक और यवनादिक जिन देशोंके निवासी हैं गंगाद्वारमनुप्रापत् स्वमिवालंध्यमर्णवम् ॥४५॥ वे आर्यखण्डके ही प्रदेश हैं । श्री श्रादिनाथ भगवान्के
-आदिपुराण, पर्व २८ समयमें और उनकी आज्ञासे आर्यखण्डमें जिन मुख्य इन सब प्रमाणोंसे इस विषयमें कोई संदेह नहीं तथा अन्तराल देशोंकी स्थापना की गई थी उनमें शक- रहता कि शक, यवन, शबर और पुलिन्दादिक म्लेच्छ यवना दिकके देश भी हैं । जैसा कि श्रीजिनसेनाचार्य- आर्यखण्ड के ही रहने वाले हैं, आर्यखण्डोद्भव हैं-- विरचित आदिपुराण के निम्न वाक्योंसे प्रकट है :-- म्लेच्छखण्डोद्भव नहीं हैं । शास्त्रीजी का उन्हें 'म्लेच्छ दर्वाभिसार-सौवीर-शूरसेनापरान्तकाः।
खण्डोदभव' लिखना तथा यह प्रतिपादित करना कि विदेह-सिन्धु-गान्धार-यवनाश्वेदि-पल्लवाः ॥१५५॥ 'आर्यखण्डोद्भव कोई म्लेच्छ होते ही नहीं' तथा 'किसी काम्भोजर-बाल्हीक-तुरुष्क-शक केकयाः। प्राचार्यने उन्हें आर्यखण्डमें उत्पन्न होनेवाला लिखा
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वर्ष २ किरण ५ ]
ही नहीं, बिल्कुल ग़लत । साथ ही, यह कहना भी ग़लत हो जाता है कि 'श्रार्यखण्ड में उत्पन्न होनेवाले सब चार्य ही होते हैं, म्लेच्छ नहीं' । इसके सिवाय, 'क्षेत्र आर्य' का जो लक्षण श्रीभट्टाकलंक - देवने राजवार्तिक में दिया है उसमें भी यह नहीं बतलाया कि जो श्रार्य खण्ड में उत्पन्न होते हैं वे सब 'क्षेत्र श्रार्य' होते हैं, बल्कि "काशी - कोशलादिषु जाताः क्षेत्रार्याः” इस वाक्यके द्वारा काशी- कौशलादिक जैसे श्रार्यदेशोंमें उत्पन्न होनेवालोंको ही 'क्षेत्र श्रार्य' बतलाया है—शक, यवन तुरुष्क ( तुर्किस्तान) जैसे म्लेच्छ देशोंने उत्पन्न होने वालोंको नहीं । और इस लिए शास्त्रीजीका उक्त सब कथन कितना अधिक निराधार है उसे सहृदय पाठक अब सहज ही में समझ सकते हैं। साथ ही, उनके पूर्वलेख पर इस विषयका जो नोट मैने (अनेकान्त पृ० २०७ ) दिया था उसकी यथार्थताका भी अनुभव कर सकते हैं। और यह भी अनुभव कर सकते हैं कि उस नोट पर गहरा विचार करके उसकी यथार्थता आँकनेका अथवा दूसरी कोई खास बात खोज निकालने - का वह परिश्रम शास्त्रीजीने नहीं उठाया है जिसकी उनसे आशा की जाती थी । अस्तु व शक-यवनादि के सकलसंयम की बातको लीजिये ।
गोत्र कर्म पर शास्त्रीजीका उत्तर लेख
( २ ) जब ऊपर के कथनसे यह स्पष्ट है कि कि शक यवनादि देश आर्यखण्डके ही प्राचीन प्रदेश हैं, उनके निवासी शक पवन-शबर- पुलिन्दादिक लोग श्रर्यखण्डोद्भव म्लेच्छ हैं और वे सब आर्यखण्ड में कर्मभूमिका प्रारम्भ होने के समय से अथवा भरतचक्रवर्तीकी दिग्विजयके पूर्वसे ही यहाँ पाये जाते हैं तब इस बात को बतलाने अथवा सिद्ध करनेकी जरूरत नहीं रहती कि शक- यवनादिक म्लेच्छ उन लोगोंकी ही सन्तान हैं जो आर्यखंड में वर्तमान कर्मभूमिका प्रारंभ
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होनेसे पहले निवास करते थे । शास्त्रोंके कथनानुसार वे लोग भोगभूमिया थे और भोगभूमिया सब उच्चगोत्री होते है— उनके नीच गोत्रका उदय ही नहीं बतलाया गया* -इसलिये भोगभूमियोंकी सन्तान होनेके कारण शकयवनादिक लोग भी उच्च-गोत्री ठहरते हैं।
सकलसंयमका अनुष्ठान छठे गुणस्थान में होता है और छठे गुणस्थान तक वे ही मनुष्य पहुँच सकते हैं जो कर्मभूमिया होने के साथ साथ उच्चगोत्री होते हैं । चूंकि शक-यवनादिक लोग कर्मभूमिया होने के साथसाथ उच्चगोत्री हैं, इस लिये वे भी आर्यखण्डके दूसरे कर्मभूमिज मनुष्यों (आर्यों) की तरह सकलसंयम के पात्र हैं ।
भगवती आराधनाकी टीका में श्रीश्रपराजितसूरिने, कर्मभूमियों और कर्मभूमि जोंका स्वरूप बतलाते हुए, कर्मभूमियाँ उन्हें ही बतलाया है जहाँ मनुष्योंकी याजीविका असि, मषि, कृषि आदि पट् कर्मों द्वारा होती है और जहां उत्पन्न मनुष्य तपस्वी हुए सकलसंयमका पालन करके कर्मशत्रुओं का नाश करते हुए सिद्धि अर्थात् निर्वृति तक को प्राप्त करते हैं। यथा
सिषिः कृषिः शिल्पं वाणिज्यं व्यवहारिता । इति यत्र प्रवर्तन्ते नृणामाजीवयोनयः ॥ पाल्य संयमं यत्र तपः कर्मपरा नराः । सुरसंगतिं वा सिद्धिं प्रयान्ति हतशत्रवः ।। एताः कर्मभुवो ज्ञेयाः पूर्वोक्ता दश पंच च । यत्र संभूय पर्याप्तं यान्ति ते कर्मभूमिजाः ॥
इससे साफ़ ध्वनित है कि कर्मभूमियों में उत्पन्न मनुष्यसकलसंयम के पात्र होते हैं, और इसलिये उनके उच्चगोत्रका भी निषेध नहीं किया जा सकता । यतः चायकी तरह शक-यवनादि म्लेच्छ भी उच्च-गोत्री होते हुए * देखो, गोम्मटसार-कर्मकाण्ड गाथा न०३०२, ३०३
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अनेकान्त .
[फाल्गुण, वीर-निर्वाग सं० २०६५
सकलसंयम के पात्र हैं, इतना ही नहीं, बल्कि म्लेच्छ मिथ्यादृष्टि चरस्याऽऽर्यण्डजमनुष्यस्य सकलसंयमखण्डोंके म्लेच्छ भी कर्मभूमिज मनुष्य होनेके कारण ग्रहणप्रथमसमयेवर्तमानं जघन्यं सकलसंयमलब्धिसकलसंयमके पात्र हैं, जिनके विषयका विशेष विचार स्थानं भवति ।...*ततःपरमसंख्येयलोकमात्राणि पटआगे नम्बर ४ में किया जायगा ।
स्थानानि गत्वा आर्यखण्डजमनुष्यस्य देशसंयतचरस्य ___ यहाँ पर, इस विपयको अधिक स्पष्ट करते हुए, मैं संयमग्रहणप्रथमसमये वर्तमानमुत्कृष्टं सकलसंयमइतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि श्री जयधवल- लधिस्थानं भवति ।" के 'संयमलब्धि' अनुयोगद्वारमें निम्न चूर्णिमूत्र और इन मब अवतरणासि यह बिल्कुल स्पष्ट है कि उमके स्पष्टीकरण-द्वारा आर्यखण्डमें उत्पन्न होनेवाले ग्रार्य-खण्डमें उत्पन्न होने वाले मनुष्कॉम सकलगंयमके कर्मभूमिक मनुष्यको सकलसंयमका पात्र बतलाया है। ग्रहणकी पात्रता होती है । शक, यवन, शबर और उसके सकलगंयम-लब्धिके जघन्य स्थानको भी पूर्व पुलिन्दादिक लोग चंकि अार्यन्वण्डमें उत्पन्न होते हैंप्रतिपातस्थानसे अनन्तगुणा-अनन्तगुणी भावमिद्धि जमा कि ऊपर गिद्ध किया जा चुका है इसलिये वे भी (विशुद्धि) को लिये हुए लिखा है
सकलमंयमके पात्र हैं-मुनि हो भवते हैं । ___ "कम्मभमियस्स पडिवज्जमाणस्स जहरणयं (३) आर्यग्बण्डकी जो पैमाइश जैनशास्त्रों में बन संजमाणमणंतगुणं (च० सूत्र)। कुदो ? संकिलस- लाई है उसके अनुसार याज कलकी जानी हुई मारी णिबंधणपडिवादटाणादो पुयिल्लादो तब्यिवरीदस्स दुनिया उसकी सीमा के भीतर या जाती है । इमाम दस्स जहएणत्ते विश्रणंतगुणभावसिद्धीए गायोवव- बाबू सूरजभानजीन उस प्रकट करत हा अपन लेखों एणत्तादो । एत्थ कम्म भूमियस्सेति वुत्ते परणारसकम्म लिखा थाभमीसु मज्झिमखंडसमुप्पण्णुमणुसस्स गहणं कायव्यं "भरतक्षेत्रकी चौड़ाई ५२६ योजन ६ कला है । कर्मभूमिसु जातः कर्मभामजामेति तस्य तद् व्यपदेशा- इसके टीक मध्यम ५० योजन चौड़ा विजयार्ध पर्वत है, हेत्वात्।"
जिसे घटाकर दोका भाग देनसे २३८ योजन ३ कलाका इसी तरह सकलसंयमके उत्कृष्ट स्थानको भी पूर्व परिमाण भाता है; यही यायखण्डकी चौड़ाई बढ़े प्रतिपद्यमान स्थानस अनन्तगुग्गा लिया है । यथा- योजना है, जिसके ४७६००० से भी अधिक कोम होते
"कम्ममिथस्स पडियज्जमाणस्स उकस्सयं हैं,और यह संख्या या नकलकी जानी हई गारी पथिवीकी संजमठ्ठाणमणंतगुणं (चरिण सत्र)। कुदो ? खेत्तागु- पैमाईशसे बहुत ही ज्यादा-कई गुणी अधिक है। भावेण पुचिल्लादो एदस्स तहाभावसिझीए वाहाणुव- भावार्थ इसका यह है कि ग्राम कालका जानी हुई भाग लद्धीदो।"
पृथिवी की यार्यवराट जमरही। यही राव यात लम्भिार ग्रंश नाशा नं. १६५ की इन मध्य भाग छोटे पकी आय म्लेच्छनि टीकासे और को पाटन में नी जाती है। ग्वाड के गानु कि मकाममनकी पात्रतास सम्बन्ध
"तस्मादेशसंयमप्रतिपाताभिमुखोलात्पिात- रत है, ..न्हें आगे थे नम्बरकी चर्चा में यथास्थान स्थानादसंख्ययलोकमात्राणि पट्स्थाना-य तरायत्वा उधृत किया जायेगा।
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गोत्र कर्म पर शास्त्रीजीका उत्तर लेख
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वर्ष २ किरण ५]
इस पर शास्त्री जीकी भी कोई आपत्ति नहीं। आए हुए उन म्लेच्छोको 'कर्म आर्य' बतलाया है जो और समाजके प्रसिद्ध विद्वान् स्वर्गीय पं. गोपालदासजी यहाँके रीतिरिवाज अपना लेते थे और आर्योंकी ही तरह वरैय्याने भी अपनी भूगोजमीमांसा पुस्तकमें, श्रार्यखण्ड- कर्म करने लगते थे; यद्यपि आर्यखण्ड और म्लेच्छखंडोके भीतर एशिया, योरुप,अमेरिका, एफ्रीका और श्राष्ट्र के असि, मषि, कृषि, पाणिज्य और शिल्पादि षट् कर्मोमें लिया-जैसे प्रधान प्रधान द्वीपोंको शामिल करके वर्तमान- परस्पर कोई भेद नहीं है-वो दोनों ही कर्मभूमियोंमें की जानी हई सारी दुनियाका आर्यखण्डमें समावेश समान है,जैसाकि ऊपर उद्धृत किये हुए अपराजितसूरिके बलाया है। जब आर्यखण्ड में आजकलकी जानी कर्मभूमिविषयक स्वरूपसे प्रकट है, और भगवजिनसेनके
निराशाजाती है. और आर्यखण्डमें उत्पन्न निम्न वाक्यसे तो यहां तक स्पप है कि म्लेच्छखंडोंके होनेवाले मनुष्य सकलसंयमके पात्र होते हैं, जैसा कि म्लेच्छ धर्मकर्मसे बहि त होनेके सिवाय और सब बातोंमें नं०२ में सिद्ध किया जा चुका है,तब अाजकलकी जानी
। जानी आर्यावर्त के ही समान श्राचारके धारक हैं
आर्यावर्त के ही समान हुई सारी दुनियाके मनुष्य भी सकलसंयमके पात्र ठहरते धर्मकर्म
मी म्लेच्छका मताः। हैं। और चंकि सकलसंयमके पात्र वे ही हो सकते हैं जो अयथाऽन्यः समाचारैरार्यावर्तेन ते समाः ॥ उच्चगोत्री होते हैं, इसलिये अाजकलकी जानी हुई दुनिया
-श्रादिपुराण पर्व ३१, श्लोक १४२ के सभी मनुष्योंको गोत्र-कर्मकी दृष्टिसे उच्चगोत्री कहना
साथ ही, यह सिद्ध किया जा चुका है कि शक,यवन होगा-व्यावहारिक दृष्टिकी ऊँच-नीचता अथवा लोकमें शबर और पुलिन्दादिक जातिके म्लेच्छ आर्यखंडके ही प्रचलित उपजातियों के अनेकानेक गोत्रोंके साथ उसका अादिम निवासी (कदीमी बाशिन्दे) है-प्रथम चक्रवर्ती कोई सम्बन्ध नहीं है।
भरतकी दिग्विजयके पूर्वसे ही वे यहां निवास करते हैं(४) अब रही म्लेच्छन्वण्ड ज म्लेच्छोंके सकल सं- म्लेच्छग्वंडोंसे श्राकर बसने वाले नहीं है । ऐमी हालतमें यमकी बात, जैन-शास्त्रानमार भरतक्षेत्रमें पांच म्लेच्छ. यद्यपि म्लेच्छग्वंड ज म्लेच्छोकी सकलसंयमकी पात्रताका
और वे सब आर्यखण्डकी सीमाके बाहर हैं। विचार कोई विशेष उपयोगी नहीं है और उससे कोई ब्यावर्तमान में जानी हई दुनियांसे वे बहुत दूर स्थित है,वहां वहारिक नतीजा भी नहीं निकल सकता, फिर भी चंकि के मनुष्योंका इस दुनियाके साथ कोई सम्पर्क भी नहीं इस विषयकी चर्चा पिछले लेखोंमें उठाई गई है और है और न यहांके मनष्योंको उनका कोई जाती परिचय शास्त्री जीने अपने प्रस्तुत उत्तर-लेखमें भी उसे दोहराया ही है। चक्रवर्तियोंके समयमें वहाँके जो म्लेच्छ यहां है, अतः इसका स्पष्ट विचार भी या कर देना उचित याए थे वे अब तक जीवित नहीं हैं, न उनका अस्तित्व जान पड़ता है। नीचे उसीका प्रयत्न किया जाता है:-- इस समय यहां संभव ही हो सकता है और उनकी जो भी जयधवल नामक सिद्धान्त ग्रन्थमें 'मयमलब्धि' सन्ताने हई ये कभीकी श्रार्यों में परिणत हो चुकी है, उन्हें नामका एक अनुयोगद्वार (अधिकार) है। मकलमावद्य म्लेच्छखण्डोद्भव नहीं कहा जा सकता-शास्त्रीहीने भी। कर्मसे विरक्ति-लक्षणको लिये हुए पंचमहाबत,पंचममिति अपने प्रस्तुत लेखमें उन्हें क्षेत्र आर्य' लिखा है और और तीनगुमिरूप जो सकलसंयम है उसे प्राप्त होनेवालके अपने पूर्व लेखमें (अने० पृ० २०७) म्लेच्छरखण्डोंसे विशुद्धिपरिणामका नाम संयमलब्धि है और यही मुख्य.
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अनेकान्त
तया उक्त श्रनुयोगद्वारका विषय है। इस अनुयोगद्वार में श्रार्यखंडके मनुष्योंकी तरह म्लेच्छखंडोंके मनुष्योंको भी सकलसंयमका पात्र बतलाया है और उनके विशुद्धि स्थानोंका श्रल्पबहुत्वरूपसे उल्लेख किया है; जैसा कि उसके निम्न वाक्योंसे प्रकट है:
“अकम्मभूमियस्स पडिवज्जमाण्यस्स जहण्यं संजमद्वारामांतगुणं (चणि सूत्र ) [कुदो? ] पुच्चिल्लादो असंखेयलोगमेत्तछट्टाणाणि उवरि गंतेदस्स समुप्प - त्तीए । को अकम्मभूमिश्रो णाम ? भर हैण्वयविदेहेसु विणीतसण्णिदमज्झिमखंडं मोत्तणं सेसपंचखंडविणिवासी म एत्थ 'कम्मभूमिश्र'त्ति विवक्खिश्रो। तेसु धम्मकम्मपवुत्तीए असंभवेण तब्भावोववत्तीदो
जइ एवं कुदो तत्थ संजमग्गहणसंभवो ? तिनासंक अिं । दिसाविजयचिक्कवटिखंधावारेण सह मज्झिमखण्डमागयाणं मिलेच्छ्रण्याणं तत्थ चक्कवहिदीहि सह जादवेवाहियसंबंधाणं संजमपडिवत्तीए विरोहाभावादो ।
अहवा तत्तत्कन्यकार्ना चक्रवर्त्यादिपरिणीतानां गर्भेषुत्पन्ना मातृपक्षापेक्षया स्वयमकर्मभूमिजा इतीह विवक्षिताः । ततो न किंचिद्विप्रतिषिद्धं । तथा जातीयarat दीक्षार्हत्वं प्रतिषेधाभावादिति ।
तस्सेवकस्यं पडिवजमाणस्स संजमट्टाणमरांतगुणं (चर्णिसूत्र ) । कुदो ? ......
ये वाक्य उन दोनों वाक्य समूहोंके मध्य में स्थित
[फाल्गुण, वीर- निर्वाण सं० २४६५
हैं जो ऊपर नं० २ में श्रार्यखंडके मनुष्योंके सकलसंयमकी पात्रता बतलानेके लिये उद्धृत किये जा चुके हैं। इनका श्राशय क्रमशः इस प्रकार है
इस प्रश्नका उत्तर अपनी कापीमें नोट किया हुआ नहीं है और वह प्रायः पूर्वस्थान से असंख्येय लोकमात्र षट् स्थानोंकी सूचनाको लिये हुए ही जान पड़ता है ।
'सकलसंयमको प्राप्त होनेवाले कर्मभूमिक जघन्य संयम-स्थान- मिथ्यादृष्टिसे सकलसंयमग्रहण के प्रथम समय में वर्तमान जघन्य संयमलब्धिस्थानअनन्तगुणा है । किससे ? पूर्व में कहे हुए श्रार्यखंडज मनुष्य के जघन्य संयमस्थानसे; क्योंकि उससे असंख्येय लोकमात्र घट स्थान ऊपर जाकर इस लब्धिस्थानको उत्पत्ति होती है । 'अकर्मभूमिक' किसे कहते हैं ? भरत, ऐरावत और विदेहक्षेत्रों में 'विनीत' नामके मध्यमखण्ड (आर्यखण्ड) को छोड़कर शेष पाँच खण्डों का विनिवासी (क़दीमी बाशिन्दा) मनुष्य यहाँ 'कर्मभूमिक' इस नाम से विवक्षित है; क्योंकि उन पाँच खंडोंमें धर्मकर्मकी
प्रवृत्तियां असंभव होनेके कारण उस अकर्मभूमिक भावकी उत्पत्ति होती है ।'
'यदि ऐसा है - उन पाँच खण्डों में ( वहाँ के निवासियोंमें) धर्म कर्म की प्रवृत्तियाँ असंभव हैं तो फिर वहां (उन पाँच खंडोंके निवासियोंमें) संयम-ग्रहण कैसे संभव हो सकता है ? इस प्रकारकी शंका नहीं करनी चाहिये; क्योंकि दिग्विजयार्थी चक्रवर्तीकी सेनाके साथ जो म्लेच्छ राजा मध्यमखंड ( श्रार्यखंड ) को आते हैं और वहाँ चक्रवर्ती श्रादिके साथ वैवाहिक सम्बन्धको प्राप्त होते हैं। उनके सकलसंयम-ग्रहण में कोई विरोध नहीं है- अर्थात् जब म्लेच्छखंडोंके ऐसे म्लेच्छोंके सकलसंयम-ग्रहण में किसीको कोई आपत्ति नहीं, वे उसके पात्र समझे जाते है, तब वहाँ के दूसरे सजातीय म्लेच्छों के यहाँ श्राने पर उनके सकल संयम-प्रहरणकी पात्रता में क्या श्रापत्ति हो सकती है ? कुछ भी नहीं, इससे शंका निर्मूल है।
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वर्ष २, किरण ५]
गोत्र कर्म पर शास्त्रीजीका उत्तर लेख
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'अथवा-और प्रकारान्तरसे +- न म्लेच्छोंकी नहीं है, अर्थात् एक को सकलसंयमका पात्र और जो कन्याएँ चक्रवर्ती श्रादिके साथ विवाहित होती हैं दूसरेको अपात्र नहीं कहा जासकता क्योंकि उस प्रकारकी उनके गर्भसे उत्पन्न होनेवाले मातृपक्षकी अपेक्षा दोनों ही जातिवालोंके दीक्षाग्रहणकी योग्यताका प्रतिस्वयं अकर्मभूमिज (म्लेच्छ) होते हैं-अकर्मभूमिककी षेध नहीं है-अर्थात् आगम अथवा सिद्धान्त ग्रन्थों में न सन्तान अकर्मभमिक, इस दृष्टिसे-वे भी यहाँ विवक्षित तो उस जातिके म्लेच्छोंके लिये सकलसंयमकी दीक्षाका हैं-उनके भी सकलसंयमकी पात्रता और संयमका निषेध है जो उक्त म्लेच्छखंडोंमेंसे किसी भी म्लेच्छखंड उक्त जघन्य स्थान अनंतगुणा है । इस लिये कुछ भी के विनिवासी (कदीमी बाशिन्दे) हों तथा चक्रवर्तीकी विप्रतिषिद्ध नहीं है-दोनोंके तुल्य बलका कोई विरोध सेना श्रादिके साथ किसी भी तरह आर्यखण्डको भागये
'अथवा' तथा 'वा' शब्द प्रायः एकार्थ-वाचक हो, और न उस जातिवालोंके लिये जो म्लेच्छरखंडकी हैं और वे 'विकल्प' या 'पक्षान्तर' के अर्थमें ही नहीं. कन्याश्रोसे आर्यपुरुषोंके संयोग-द्वारा उत्पन्न हुए हो।' किन्त 'प्रकारान्तर' तथा 'समञ्चय' के अर्थ में भी आते 'सकलसंयमको प्राप्त करनेवाले उसी अकर्मभूमिक हैं: जैसा कि निम्न प्रमाणों से प्रकट है :- मनुष्यके उत्कृष्ट संयम स्थान-देशसंयतसे सकलसंयम
अहवा (अथवा ), "सम्बन्धस्य प्रकारान्तरो- ग्रहणके प्रथम समयमें वर्तमान उत्कृष्ट संयम-लब्धिस्थान पदर्शने", २ "पर्वोक्तप्रकारापेक्षया प्रकारान्तरत्व -अनन्तगुणा है । किससे ?...।' द्योतने ।”
-अभिधानराजेन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती श्रीनेमिचन्द्राचार्यने श्रार्यखटज वा='वा स्याद्विकल्पोपमयोरिवार्थेऽपि समुच्चये । और म्लेच्छखंडज मनुष्योंके सकलसंयमके जघन्य और
-विश्वलोचन कोश, सिद्धान्तकौ० त० टी० उत्कृष्ट स्थानोंका यह सब कथन लब्धिसार ग्रंथकी गाथा 'अथ' शब्द भी 'समुच्चय' के अर्थमें आता है। नं० १६५ में समाविष्ट किया है, जो संस्कृतटीका-सहित यथा
इस प्रकार है___“अथेति मङ्गलाऽननन्तरारम्भप्रश्नकार्त्यधि
ततो पडिवजगया अजमिलेच्छे मिलेच्छअजेय । कारप्रतिज्ञासमुच्चयेषु ।"
कमसो अवरं वरं वरं वरं होदि संखं वा ॥ -सिद्धान्तको० तत्त्वबो० टी० टीका-तस्माद्देशसंयमप्रतिपाताभिमुखोत्कृष्टप्रति. 'अहवा' के प्रयोग का निम्न उदाहरण भी ध्यान पातस्थानादसंख्येयलोकमात्राणि षट्स्थानान्यन्तरयिमें लेने योग्य है
त्वामिथ्यादृष्टिचरस्याऽऽर्यखण्डजमनुष्यस्यसकलसंयम "आहारे धणरिद्धि पवइ,चउविहुवाउ जि एहुपवट्ठइ ग्रहणप्रथमसमये वर्तमानं जघायं सकलसंयम-लब्धिअहवा दुट्ठवियप्यहँ चाए,चाउ जिएहुमुबहु समवाए।' स्थानं भवति । ततः परमसंख्येयलोकमात्राणि पट
-दशलाक्षणिकधमजयमाला स्थानान्यतिक्रम्य म्लेच्छभमिज-मनुष्यस्य मिथ्यादृष्टिविप्रतिषेधः-"तुल्यबलविरोधो विप्रतिषेधः।" चरस्य संयमग्रहण-प्रथमसमये वर्तमानं जघन्यं संयम"The opposition of two courses of action
लब्धिस्थानं भवति । ततः परमसंख्येयलोकमात्राणि which are equally important, the conflict of two even matched interests." v. S. Apte. षट्स्थानानि गत्वा म्लेच्छभूमिजमनुष्यस्य देशसंयत
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श्रनेकान्त
[फाल्गुण, वीर- निर्वाण सं० २४६५
होता है। उसके बाद असंख्यात लोकमात्र पट् स्थान जा करके म्लेच्छखण्ड के देशसंयमी मनुष्यके सकलसंयमग्रहणके प्रथम समय में उत्कृष्ट सकलसंयम-लधिका स्थान होता है । तदनन्तर असंख्यात लोकमात्र घट् स्थान जा करके आर्यखंडके देशसंयमी मनुष्य के सकलसंयमग्रहण के प्रथम समयमें वर्तमान उत्कृष्ट सकलसंयम - लब्धिस्थान होता है । ये सब सकलसंयम ग्रहणके प्रथम समय में होने वाले आर्य म्लेच्छभूमिज मनुष्यविषयक संयम-लब्धिस्थान 'प्रतिपद्यमान स्थान' कहलाते हैं ।'
चरस्य संयमग्रहण-प्रथमसमये उत्कृष्टं संयमलब्धिस्थानं भवति । ततः परमसंख्येयलोकमात्राणि षट्स्थानानि गत्वा श्रार्यखंडज-मनुष्यस्य देशसंयतचरस्य संयमग्रहण-प्रथमसमये वर्तमानमुत्कृष्टं सकलसंयम लब्धिस्थानं भवति । एतान्यार्यम्लेच्छमनुष्यविषयाणि सकलसंयम-ग्रहण-प्रथमसमये वर्तमानानि संयमलब्धिस्थानानि प्रतिपद्यमानस्थानानीत्युच्यन्ते ।
अत्रार्य म्लेच्छमध्यमस्थानानि मिथ्यादृष्टिचरस्य वा असंयतसम्यग्दृष्टिचरस्य वा देशसंयतचरस्य वा तदनुरूपविशुद्धा सकलसंयमं प्रतिपद्यमानस्य संभवन्ति । विधिनिषेधयोर्नियमाऽवचने संभवप्रतिपत्तिरिति न्यायसिद्धत्वात् । अत्र जघ यद्वयं यथायोग्यतीत्रसंक्ले. शविष्टस्य, उत्कृष्टद्वयं तु मंदसंक्लेशाविष्टस्येति ग्राह्यं ।
म्लेच्छभूमिज मनुष्याणां सकलसंयमग्रहणं कथं संभवति? इतिनाशं कितव्यम् । दिग्विजयकालेचक्रवर्तिना सह आर्यखण्डमागतानां म्लेच्छराजानां चक्रवर्त्यादि - भिः सह जात वैवाहिकसम्बन्धानां संयम प्रतिपत्तेरविरोधात् । अथवा तत्कन्यकानां चक्रवर्त्यादिपरिणीतानां गर्भेषुत्पन्नस्य मातृपक्षापेक्षया म्लेच्छव्यपदेशभाजः संयमसंभवात् । तथाजातीयकानां दीक्षार्हत्वे प्रतिषेधाभावात् । "
टीका में गाथाके श्राशयको स्पष्ट करते हुए लिखा हैं और चक्रवर्ती श्रादिके साथ वैवाहिक सम्बंधको प्राप्त होते हैं उनके सकलसंयम के ग्रहरणका विरोध नहीं है— अर्थात् जब उन्हें सकलसंयम के लिये पात्र नहीं समझा जाता तब उनके दूसरे सजातीय म्लेच्छबन्धुत्रों को श्रपात्र कैसे कहा जा सकता है और कैसे उनके सकलसंयमग्रहणकी संभावनासे इनकार किया जा सकता है ? कालान्तर में वे भी आर्यखंडको श्राकर सकलसंयम ग्रहण कर सकते हैं, इससे शंका निर्मूल है । अथवा उन म्लंच्छोंकी जो कन्याएँ चक्रवर्ती श्रादिके साथ विवाहित
t
'उस देशसंयम- प्रतिपाताभिमुख उत्कृष्ट प्रतिपातस्थानसे असंख्यात लोकमात्र पट् स्थानोंका अन्तराल करके मिध्यादृवि श्रार्यखंड जमनुष्य के सकलसंयम-ग्रहणके प्रथम समय में वर्तमान जघन्य सकलसंयम लब्धिस्थान होता है। उसके बाद असंख्यात लोकमात्र घट् स्थानोंको उल्लंघन करके मिथ्यादृष्टि म्लेच्छभूमिज मनुष्य के संयमग्रहण के प्रथम समय में वर्तमान सकलसंयम लब्धिका जघन्य स्थान
'यहां श्रार्यखंडज और म्लेच्छखंडज मनुष्यों के मध्यम स्थान - जघन्य और उत्कृष्ट स्थानोंके बीच स्थानमिथ्यादृष्टि वा श्रसंयतसम्यग्दृष्टिसे अथवा देशसंयतसे सकलसंयमको प्राप्त होनेवालेके संभाव्य होते हैं । क्योंकि विधि - निषेधका नियम न कहा जाने पर संभवकी प्रतिपत्ति होती है, ऐसा न्याय सिद्ध है । यहां दोनों जघन्य स्थान यथायोग्य तीव्रसंक्लेशाविष्टके और दोनों उत्कृष्ट स्थान मंदसंक्लेशाविष्टके होते हैं, ऐसा समझ लेना चाहिये ।'
'म्लेच्छ भूमिज अर्थात् म्लेच्छखंडों में उत्पन्न होनेवाले मनुष्यों के सकलसंयमका ग्रहण कैसे संभव हो सकता है ? ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये; क्योंकि दिग्विजयके समय में चक्रवर्तीके साथ जो म्लेच्छराजा श्रार्यखंडकोश्राते
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होती है उनके गर्भसे उत्पन्न होनेवाले मातृपक्षको की रचना की है। चूर्णिसूत्रोंमें कर्मभमिक और अकर्मअपेक्षा म्लेच्छ कहलाते हैं उनके सकलसंयम संभव होने- भूमिक शब्दोंका प्रयोग था,कर्मभूमिकमें म्लेच्छ खण्डोंके से भी म्लेच्छभूमिज मनुष्योंके सकलसंयम-ग्रहणको सं- मनुष्य पा सकते थे और अकर्मभूमिकमें भोगभूमियोंका भावना है। उस प्रकारकी जातिवाले म्लेच्छोंके दीदा- समावेश हो सकता था। इसीसे जयधवलकारको 'कर्मग्रहणकी योग्यताका (आगममें) प्रतिषेध नहीं है-इससे भूमिक' और 'अकर्मभूमिक' शब्दोंके प्रकरणसंगत बान्य भी उन म्लेच्छभूमिज मनुष्यों के सकलसंयम-ग्रहणकी को स्पष्ट कर देनेकी ज़रूरत पड़ी और उन्होंने यह स्पष्ट संभावना सिद्ध है जिसका प्रतिषेध नहीं होता उसकी कर दिया कि कर्मभूमिकका वाच्य 'श्रार्यखण्डज' मनुष्य संभावनाको स्वीकार करना न्यायसंगत है।' और अकर्मभूमिक का 'म्लेच्छखण्डज' मनुष्य है-साथ ___ यहाँ पर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ ही यह भी बतला दिया कि म्लेच्छखण्डज कन्यासे कि श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती जयधवलकी रचना आर्यपुरुपके संयोग-द्वारा उत्पन्न होनेवाली सन्तान भी के बहुत बाद हुए हैं-जयधवल शक सं०७५६ में बन एक प्रकारसे म्लेच्छ तथा अकर्मभूमिक है, उसका भी कर समाप्त हुआ है और नेमिचन्द्राचार्य गोम्मटस्वामीकी समावेश 'अकर्मभूमिक' शब्दमें किया जा सकता है। मूर्तिका निर्माण करानेवाले तथा शक संवत् ६०० में इसीलिये नेमिचन्द्राचार्यने यह सब समझ कर ही अपनी महापुराणको बनाकर समाप्त करने वाले श्रीचामुण्ड- उक्त गाथामें कर्मभूमिक और अकर्मभूमिकके स्थान पर रायके समय में हुए और उन्होंने शक सं०६० ०के बाद ही क्रमशः 'अज' तथा 'मिलेच्छ' शब्दोंका प्रयोग दूसरा चामुंडरायकी प्रार्थनादिको लेकर जयधवलादि ग्रंथों परसे कोई विशेषण या शर्त साथमें जोड़े बिना ही किया है, जो गोम्मटसारादि ग्रंथोंकी रचना की है । लब्धिसार ग्रन्थ देशामर्शकसूत्रानुसार 'आर्यखण्डज' तथा 'म्लेच्छखण्डज' भी चामुण्डरायके प्रश्नको लेकर जयधवल परसे सार- मनुष्यके वाचक हैं; जैसा कि टीकामें भी प्रकट किया संग्रह करके रचा गया है; जैसा कि टीकाकार केशववर्णी- गया है । ऐसी हालतमें यहां (लब्धिसारमें) उस प्रश्न के निम्न प्रस्तावना-वाक्यसे प्रकट है-
की नौबत ही नहीं पाती जो जयधवलमें म्लेच्छखण्डज ___"श्रीमाचेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्ती सम्यक्त्वच- मनुष्यके अकर्मभूमिक भावको स्पष्ट करने पर खड़ा हुआ डामणिप्रभृतिगुणनामानित-चामुण्डरायप्रश्नानुरूपेण था और जिसका प्रारंभ 'जइ एवं'-'यदि ऐसा है-',इन कषायप्राभृतस्य जयधवलाख्यद्वितीयसिद्धान्तस्य पंच- शब्दोंके साथ होता है तथा जिसका समाधान वहां उदादशाना महाधिकाराणां मध्ये पश्चिमस्कंधाख्यस्य पंच- हरणात्मक हेतुद्वारा कियागया है। फिर भीटीकाकारने उस दशस्यार्थ संगृह्य लब्धिसारनामधेयं शास्त्रं प्रारभमाणो का कोई पर्व सम्बन्ध व्यक्त किये बिना ही उसे जयधवल भगवत्पंचपरमेष्ठिस्तव प्रणामपर्विको कर्तव्यप्रतिज्ञा परसे कुछ परिवर्तनके साथ उद्धृत कर दिया है ( यदि विधत्ते ।”
टीकाका उक्त मुद्रित पाठ ठीक है तो) और इसीसे टीकाके ___ जयधवल परसे जो चार चूर्णिसूत्र ऊपर (नं० २, पूर्व भागके साथ वह कुछ असंगतसा जान पड़ता है। ४ में ) उद्धृत किये गये हैं उन्हें तथा उनकी टीकाके इस तरह यतिवृषभाचार्यके चूर्गिसूत्रो, वीरसेनआशयको लेकर ही नेमिचन्द्राचार्यने उक्त गाथा नं० १६५ जिनसेनाचार्योंके 'जयधवल' नामक भाष्य, नेमिचन्द्र
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अनेकान्त
[फाल्गुण, वीर-निर्वाण सं०२४१५
सिद्धान्तचक्रवर्तीके लब्धिसार ग्रन्थ और उसकी केशव- कार केशववर्णीने !! क्योंकि यतिवृषभने अपनी चूर्णिमें वणि कृत टीका परसे यह बिल्कुल स्पष्ट है कि म्लेच्छ- अकर्मभूमिक पदके साथ ऐसा कोई शब्द नहीं रक्खा खंडोंके मनुष्य संयमलब्धिके पात्र है-जैन मुनिकी दीक्षा जिससे उसका वाच्य अधिक स्पष्ट होता या उसकी लेकर, छठे गुणस्थानादिकमें चढ़ कर, महाव्रतादिरूप व्यापक शक्तिका कुछ नियन्त्रण होता ! जयधवलकारने सकलसंयमका पालन करते हुए अपने परिणामोंको वि. अकर्मभूमिकका अर्थ सामान्यरूपसे म्लेच्छखंडोंका शुद्ध कर सकते हैं । यह दूसरी बात है कि म्लेच्छग्वंडोंमें विनिवासी मनुष्य कर दिया ! तथा चर्णिकारके साथ रहते हुए वे ऐसा न कर सकें; क्योंकि वहाँकी भूमि पूर्ण सहमत न होते हुए भी अपना कोई एक सिद्धान्त धर्म-कर्मके अयोग्य है । श्री जिनसेनाचार्यने भी, भरत कायम नहीं किया !! और जो सिद्धान्त प्रथम हेतुके द्वारा चक्रवर्तीकी दिग्विजयका वर्णन करते हुए ‘इति प्रसाध्य- इस रूपमें कायम भी किया था कि सिर्फ वे ही म्लेच्छ तो भूमिमभूमि धर्मकर्मणाम्' इस वाक्यके द्वारा उस राजा सकलसंयमको ग्रहण कर सकते हैं जो चक्रवर्तीकी म्लेच्छभूमिको धर्म-कर्मकी अभूमि बतलाया है। वहाँ सेनाके साथ आर्यखण्डको श्राकर अपनी बेटी भी चक्ररहते हुए मनुष्योंके धर्म-कर्मके भाव उत्पन्न नहीं होते, वर्ती या आर्यखंडके किसी दूसरे मनुष्यके साथ विवाह यह ठीक है। परन्तु आर्यखंडमें श्राकर उनके वे भाव देवें, उसका फिर दूसरे हेतु-द्वारा परित्याग कर दिया और उत्पन्न हो सकते हैं और वे अपनी योग्यताको कार्यमें यह लिख दिया कि ऐसे म्लेच्छ राजाओंकी लड़कीसे जो परिणित करते हुए खुशीसे श्रार्यखण्डज मनुष्योंकी तरह संतान पैदा हो वही सकल संयमकी पात्र होसकती है !!! सकलसंयमका पालन कर सकते हैं । और यह बात पहले इसी तरह सिद्धान्तचक्रवर्तीने भी अपनी उक्त गाथामें ही बतलाई जा चुकी है कि जो लोग सकलसंयमका पालन प्रयुक्त हुए 'मिलेच्छ' शब्दके साथ कोई विशेषण नहीं कर सकते हैं-उसकी योग्यता अथवा पात्रता रखते हैं- जोड़ा-यार्यखण्डके मनुष्यों के साथ विवाह सम्बन्धवे सब गोत्र-कर्मकी दृष्टिसे उच्च गोत्री होते हैं । इसलिये जैसी कोई शर्त नहीं लगाई–जिससे उसकी शक्ति सीमित श्रार्यखंड और म्लेच्छखंडोंके सामान्यतया सब मनुष्य होकर यथार्थतामें परिणत होती !! और न उनके टीकाअथवा सभी कर्मभमिज मनुव्य सकलसंयमके पात्र होने के कारने ही उस पर कोई लगाम लगाया है; बल्कि खुले साथ-साथ उच्चगोत्री भी हैं। यही इस विषय में सिद्धान्त- श्राम म्लेच्छभूमिज-मात्रके लिये सकल संयमके जघन्य, ग्रंथाका निष्कर्ष जान पड़ता है।
मध्यम तथा उत्कृष्ट स्थानोंका विधान कर दिया है !!! विचारकी यह सब साधन-सामग्री सामने मौजूद मेरे खयालसे शास्त्रीजीकी रायमें इन श्राचार्योंको चर्णिहोते हुए भी, खेद है कि शास्त्रीजी सिद्धान्तग्रंथोंके उक्त सूत्र श्रादिमें ऐसे कोई शब्द रख देने चाहिये थे जिनसे निष्कर्षको मानकर देना नहीं चाहते ! शब्दोंकी खींच- सामान्यतया सब म्लेच्छोंको सकलसंयमके ग्रहणका तान-द्वारा ऐसा कुछ डौल बनाना चाहते हैं जिससे अधिकार न होकर सिर्फ उन ही म्लेच्छ राजाओंको वह यह समझ लिया जाय कि सिद्धान्तकी बातको न तो यति- प्राप्त होता जो चक्रवर्तीकी सेनाके साथ श्राकर अपनी वृषभने समझा,न जयधवलकार वीरसेन-जिनसेनाचार्यो- बेटी भी प्रार्यखण्डके किसी,मनुष्यके साथ विवाह देतेने, न सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्रने और न उनके टीका- बेटी विवाह देने की शर्त खास तौर पर लाजिमी रक्खी
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गोत्र कर्म पर शास्त्रीजीका उत्तर लेख
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जाती !! अथवा ऐसा करदिया जाता तो और भी अच्छा पदसे ऐसी दो जातियोंका ग्रहण अभीष्ट है, तब चंकि होता कि उन बेटियोंसे पैदा होने वाली सन्तान ही सकल- आर्यखंडको आए हुए उन साक्षात् म्लेच्छोंकी जो जाति संयमकी अधिकारिणी है-दूसरा कोई भी म्लेच्छखंडज होती है वही जाति म्लेच्छखंडोंके उन दूसरे म्लेच्छोंकी मनुष्य उसका पात्र अथवा अधिकारी नहीं है !! ऐसी भी वही है जो आर्यखंडको नहीं पाते हैं, इसलिये स्थितिमें ही शायद उन श्राचार्योंकी सिद्धान्तविषयक साक्षात् म्लेच्छ जाति के मनुष्योंके सकलसंयम-ग्रहणकी समझ-बूझका कुछ परिचय मिलता !!! परन्तु यह सब पात्रता होनेसे म्लेच्छखंडोंमें अवशिष्ट रहे दूसरे म्लेच्छ भी कुछ अब बन नहीं सकता, इसीसे स्पष्ट शब्दोंके अर्थकी सकलसंयमके पात्र ठहरते हैं--कालान्तरमें वे भी अपने भी खींचतान-द्वारा शास्त्री मी उसे बनाना चाहते हैं !!! भाई-बन्दों (सजातीयों) के साथ आर्यखंडको पाकर ___ शास्त्रीजीने अपने पूर्वलेखमें 'तथाजातीयकानां दीक्षा ग्रहण कर सकते हैं । और इस तरह सकलसंयमदीक्षार्हत्वप्रतिषेधाभावात'इस वाक्यकी,जोकि जयधवला ग्रहणकी पात्रता एवं संभावनाके कारण म्लेच्छुखंडोंके
और लब्धिसार-टीका दोनोंमें पाया जाता है और उनके सभी म्लेच्छोंके उच्चगोत्री होनेसे बाबू सूरजभानजीका प्रमाणोंका अन्तिम वाक्य है, चर्चा करते हुए यह बत- वह फलितार्थ अनायास ही सिद्ध हो जाता है, जिसके लाया था कि इस वाक्यमें प्रयुक्त हुए 'तथा जातीयकानां' विरोधमे इतना अधिक द्राविडी प्राणायाम किया गया है।' पदके द्वारा म्लेच्छोंकी दो जातियोंका उल्लेख किया गया म्लेच्छखंडोंमें अवशिष्ट रहे म्लेच्छोंकी कोई तीसरी है-एक तो उन साक्षात् म्लेच्छोंकी जातिका जो म्लेच्छ- जाति शास्त्रीजी बतला नहीं सकते थे, इसलिये उन्हें मेरे खंडोंसे चक्रवर्ती आदिके साथ आर्यखंडको श्रा जाते हैं उक्त नोटकी महत्ता को समझनेमें देर नहीं लगी और वे तथा अपनी कन्याएँ भी चक्रवर्ती श्रादिको विवाह देते ताड गये कि हम तरह तो सचमच हमने बद ही अपने हैं और दूसरे उन परम्परा म्लेच्छोंकी जातिका जो उन हाथों अपने सिद्धान्तकी हत्या कर डाली है और अजानम्लेच्छ कन्याओंसे आर्य पुरुपोंकेसंयोग द्वारा उन्पन्न होते में ही बाब साहब के सिद्धान्तकी पुष्टि करदी है !! अब करें हैं । इन्हीं दो जाति वाले म्लेच्छोंके दीक्षाग्रहणका निषेध तो क्या करें ? बाब साहबकी बातको मान लेना अथवा नहीं है। साथ ही लिखा था कि-"इस वाक्यसे यह निष्कर्ष चप बैठ रहना भी इष्ट नहीं समझा गया, और इसलिये निकलता है कि अन्य म्लेच्छोंके दीक्षाका निषेध है । शास्त्रीको प्रस्तुत उत्तरलेखमें अपनी उस बातसे ही फिर यदि टीकाकारको लेखकमहोदय (बा० सूरजभानजी) का गये है !! अब वे 'तथाजातीयकानाम्' पदमें एक ही सिद्धान्त अभीष्ट होता तो उन्हें दो प्रकारके म्लेच्छोंके जातिके म्लेच्छोंका ममावेश करते हैं और वह है उन संयमका विधान बतलाकर उसकी पुटिके लिये उक्त म्लेच्छ कन्याश्रॉस आर्य पुरुषोंके सम्बन्ध-द्वारा उत्पन्न अन्तिम पंक्ति (वाक्य) लिखनेकी कोई अावश्यक्ता ही होनेवाले मनुष्योंकी जाति !!! इसके लिये शास्त्री जीको नहीं थी, क्योंकि वह पंक्ति उक्त सिद्धान्त----सभी म्लेच्छ शब्दोंकी कितनी ही खींचतान करनी पड़ी है और अपनी खंडोंके म्लेच्छ सफलसंयम धारण कर सकते हैं--के नासमझी, कमजोरी, दिलमुलयकीनी, डाँबाडोल परिणति विरुद्ध जाती है।" इस पर मैंने एक नोट दिया था और तथा हेराफेरीको जयधवल के रचयिता भाचार्य महाराज उसमें यह सुझाया था कि--'यदि शास्त्रीजीको उक्त. ऊपर लादते हुए यहाँ तक भी कह देना पड़ा है कि
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२६०
अनेकान्त
[फाल्गुण, वीर-निर्वाण सं०२४६
(१) "श्राचार्यने सूत्रमें आये हुए 'श्रकर्मभूमिक' खंडोंके मनुष्य को छोड़ कर, अकर्मभूमिक शब्दकी शब्दकी परिभाषाको बदल कर अकर्मभूमिकोंमें संयम- दूसरी विवक्षा करनी पड़ी, जिसमें किसीको कोई विप्रतिस्थान बतलानेका दूसरा मार्ग स्वीकार किया !" पत्ति न हो सके । इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि
(२) तितो न किंचिद् विप्रतिषिद्धम्' पदसे यह श्राचार्यका अभिप्राय किसी-न-किसी प्रकारसे अकर्मवात ध्वनित होती है कि 'अकर्मभूमिक' की पहली विवक्षा भूमिक मनुष्यके संयमस्थान सिद्ध करना है न कि में कुछ 'विप्रतिषिद्ध' अवश्य था । इसीसे प्राचार्यको म्लेच्छ खंडोंके सब मनुष्योंमें सकलसंयमकी पात्रता 'अकर्मभूमिक' की पहली विवक्षाको बदल कर दूसरी सिद्ध करना, यदि उनकी यही मान्यता होती तो वे विवक्षा करना उचित जान पड़ा!"
अकर्मभूमिक शब्दसे विवक्षित म्लेच्छ खंडके मनुष्योंको (३) "यदि प्राचार्य महाराजको पाँच खंडोंके समी छोड़ कर और अकर्म भूमिककी दूसरी विवक्षा करके म्लेच्छ मनुष्योंमें सकलसंयम ग्रहणकी पात्रता अभीष्ट सिद्धान्तका परित्याग न करते !!" थी और वे केवल वहाँकी भूमिको ही उसमें बाधक शास्त्री जीके लेखकी ऐसी विचित्र स्थिति होते हुए समझते थे—जैसा कि सम्पादक जीने लिखा है तो और यह देखते हुए कि वे अपनी हेराफेरीके साथ जयप्रथम तो उन्हें पार्यखंडमें श्रागत म्लेच्छ मनुष्योंके धवल-जैसे महान् ग्रन्थके रचयिता श्राचार्य महाराजको संयमप्रतिपत्तिका अविरोध बतलाते समय कोई शर्त भी हेराफेरीके चक्कर में डालना चाहते हैं और उनके नहीं लगानी चाहिये थी। दूसरे, पहले समाधान के बाद कथनका लब्धिसारमें निश्चित सार खींचने वाले सिद्धान्तजो दूसरा समाधान होना चाहिये था, वह पहले समा- चक्रवर्ती नेमिचन्द्र-जैसोंकी भी बातको मानकर देना धानस भी अधिक उक्त मतका समर्थक होना चाहिये था नहीं चाहते, यह भाव पैदा होता है कि तब उनके और उसके लिए 'अकर्मभूमिक' की परिभाषा बदलनेकी साथकी इस तत्त्वचर्चा को आगे चलानेसे क्या नतीजा आवश्यकता नहीं थी !"
निकल सकता है ? कुछ भी नहीं। अतः मैं इस बहस (४) "इस प्रकारसे अकर्मभूमिक मनुष्यों के सकल- को यहाँ ही समाप्त करता हूँ और अधिकारी विद्वानोंसे संयम-स्थान बतलाकर भी श्राचार्यको संतोष नहीं हुआ, निवेदन करता हूँ कि वे इस विषयमें अपने-अपने विचार जिसका संभाव्य कारण मैं पहले बतला आया हूँ । अतः प्रकट करनेकी कृपा करें। उन्हें अकर्मभमिक शब्दकी पहली विवक्षा-म्लेच्छ वीर-सेवामन्दिर, सरसावा, ता०२१-२-१९३६
सुभाषित घरमें भूखा पड़ रहै, दस फाकै हो जाय । मांगन मरण समान है, मत कोई माँगो भीख । तुलसी भैया बन्धुके कबहुँ न मांगन जाय ॥ मांगन ते मरना भला, यह सतगुरकी सीख ॥-तुलसी तुलसी कर पर कर करो, कर तर कर न करो। दस्ते सवाल सैंकड़ों ऐबोंका ऐब है। जा दिन कर तर कर करो, ता दिन मरन करो ॥ जिस दस्तमें यह ऐब नहीं वह दस्ते गैब है ॥नालिय
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व अतीत स्मृति
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परिवर्तन
लेखकरूप जैन 'भगवत् ।
[ भगवत्स्व
गानोदया थी अतीव सुन्दर ! और फिर प्रेमके है !......
लिए क्या सुन्दर, क्या असुंदर ? वह तो उसदिन जैसेही राजकुमार-बाहुने अपने भव्यअन्धा होता है न ?-विवेक-हीन ! तिस पर था बज्र- भवनमें प्रवेश किया, कि-एक सम वयस्क युवक पर बाहुको स्वभाव-गत उचित और हार्दिक-प्रेम ! होना उनकी दृष्टि पड़ी ! प्रमाभिवादन हुआ ! एक दूसरेको भी चाहिए, वह इसलिए कि पुरुषके लिए सौन्दर्य-वती, देख, दोनों प्रसन्न हुए ! पतिपद-पूजक नारीके अतिरिक्त इस अथिर-विश्व में और यह थे-उदय सुन्दर ! कोई सुख ही नहीं। विश्वकी कठोरताका निराकरण हस्तिनागपुर-नरेश महाराज दन्तवातनके सुपुत्र ! नारी ही कर सकती है । साथ ही-मनोदया और यज्र- राजकुमारी मनोदया के प्रेमपूर्ण सहोदर ! या कहना बाहुका दाम्पत्तिक चयन, मानवीय त्रुटियों द्वारा न होकर चाहिए-वीर-बज्रयाहुके स्नेही ---माले साहिब ।। प्राकृतिक या जन्म-जात संस्कारों द्वारा हुआ हो, ऐसा खुले मन और खुले तरीके पर बातें चलीं। सालेप्रतिभासित होता था ! दोनों ही तारुण्यके उमङ्ग भरं बहनोई का नाता, फिर लगावट और परदेका काम ही उपवनमें विहार कर रहे थे ! मनोदया सौन्दर्य-समृद्धि क्या ?-बातें करते कितनी देर हुई, इसका दोनों में से की अधीश्वरी थी तो बज्रबाहु ये युवक-तेज और मन्मथ- किमीको पता नहीं ! इसके बाद कामकी बातोंका नम्बर मैन्यके सरस अधिनायक ! वह इन्द्रीवर सुरभि थी, तो पाया।वह रस-लोलुप-भूमर ! वह साध्य थी तो वह माधक! ..तो महाराजने स्वीकारता देदी ?'-कुछ कष्ट-सा किन्तु इस अन्तरकी तहमें विरसता न थी, एक उमंग अनुभव करते हुए यज्रबाहुने पूछा ! थी, एक आकर्षण था, और थी एक अभिन्नता-सी! हा!- सहर्ष...! अस्वीकारताकी वजह भी तो जो प्रेम सम्बन्धमें, वांछनीय-वस्तुके रूपमें, ग्राह्य होती होती-कुछ!'-.साले-साहिबने प्रावश्यकतासे अधिक
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भनेकान्त
[ फाल्गुण, वीर-निर्वाण सं० २४६५
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दृढ़-स्वर में उत्तर दिया ! जैसे उन्हें इच्छित-विजय प्राप्त क्या मेरी बहिन के साथ-साथ आपकी भी बिदा हुई हो।
होगी. . .?....--साश्चर्य, विस्फारित-नेत्रों से राजकुमार'लेकिन...!---अस्फुट, भग्न-वाक्य बज्रबाहुके की ओर देखते हुए उदयमुन्दरने कहा! मुँहसे निकला । और वह कुछ सोचने लगे ! जैसे हृदयमें हां ! मैं भी उसके साथ ही चलंगा !... क्षीर-फेन उठ रहा हो, कुछ ठेस लगी हो ! मनो-वेदना- विदा...! विदा टल नहीं सकती, 'मैं बगैर उसके रह नहीं ने मुखाकृति पर व्याघात किया !
सकता ! और उपाय नहीं !'-उदास-चित्त, गंभीरतालेकिन...? लेकिन महाराज विवेकशील हैं ! पूर्वक बज्रवाह बोले। वृद्ध-पुरुप हैं ! उन्होंने बहुत ज़माना देखा है ! वे वाह ! अरे, ज़रा सोचिये तो इसमें आपका मर्यादा नहीं उलङ्घ सकते ।'-उदय सुन्दरने अपनं कितना अपयश होगा ? --लोगों की आपके लिए कैसी पक्षकी मज़बूती सामने रखी ! मगर इसने बज्रबाहुके धारणा बनेगी?-दूपित ही, न ?.. 'फिर लाभ क्या ?सुनहरे-स्वप्नोंका ध्वंश कर दिया । वह तिलमिला उठे! दो दिन बाद भी तो आप आ सकते हैं !... उदय
'तो...? - तो बिदा होगी ही ? • लेकिन यह तो मुन्दरने दलील पेश की। मेरे लिए अन्याय है ! मेरी कोमल-भावनाओं का हनन मौन ! शोक-शील, चिन्ता-पर्ण मदा ! फिर है ! मेरी जीवन-पहेली का निरादर है ! मौत है, सरासर बाष्पाकुलित-कण्ठ से वह बोले--'दो-दिन...? श्रोष ! मौत ! नहीं, मैं एक क्षण भी एकाकी जीवन बितानेके दो-दिन ! मैंने कहा न, मैं उसके बिना क्षण-भर भी लिए समर्थ नहीं !'–बज्रबाहुके उत्तजित हृदयसे प्रगट नहीं रह सकता !...समझते नहीं उदयसुन्दर ! लोग हुमा !
कहेंगे, जो उनका मन कहेगा! और मैं करूँगा, जो उदयसुन्दर खिलखिलाकर हंस पड़ा! उसकी मेरे मनकी होगी। मन. गलामका भी स्वतंत्र हँसीमें व्यंग था ! उपेक्षा थी !! और थी चुभने वाली होता है।'
'तो अन्तिम निर्णय...?' ___.. खूब ! तो क्या कीजिएगा ?--वृद्धि-पितामह- यही कि मैं भी साथ-साथ चलंगा! ज्योत्स्नास की भाशा भंग ?..."-हँसी पर काबू करते हुए साले- शशि जुदा रह नहीं सकता !' साहिब ने फर्माया !
'आपकी इच्छा!' अवाक! क्षण-भर पूर्ण शान्ति !!
तरुण-हृदयोंमें सदा बसन्त रहता है। लेकिन फिर
बसुन्धरा एक वर्ष बाद अपने वक्षस्थल पर उसे फलते'कदापि नहीं...!'
फुलते देखती है। 'तब...?'
कितना मनोमुग्धकर था मधु-ऋतुका शुभागमन ! 'मैं भी साथ चलूंगा ....!'
प्रकृति-सुन्दरीने जैसे किसी प्रशत्-लोककी सुषमाऐं ..! भापभी साथ चलेंगे-क्या मतलब - का चित्रण किया हो । चतुर्दिक नेत्र-प्रिय सौन्दर्य
कसक !!!
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वर्ष २, किरण ५]
परिवर्तन
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बिखरा हुआ था। लगता था-बनस्पति-बाला रूप- कर खेल रहे थे। वह अपने 'आप' को भूले जारहे थे। प्रतियोगिताके लिये साज-श्रृंगार युक्त खड़ी है!
---- और आगे बढ़ गए। __ रंग-बिरंगे फूलों, हरी हरी दूब और कुहु-बादिनी- .. हँय ! यह पापाण-स्तम्भ नहीं' पाषाण-बत, कोयलों; शुकों द्वारा वह पार्वतीय-उपवन रमणीकता- स्थिर, कायोत्सर्ग-धारी ऋषिराज हैं!-- सहसा कमारकी सीमा बनाया था ! धवलित-निझरोका निनाद, के मुखसे प्रकट हुआ। वह समीपमें उनके सन्मुख विचित्र प्रकारके संगीतका सुजन कर रहा था! खड़े हो, दर्शन करने लगे ! मनकी विचार-धारा दूसरी सौरभित-मलय-समीर सरस-हृदयोंमें मादकता का दिशाकी ओर बहने लगी!उत्पादन कर रही थी!...चराचर, जसे सभी सौन्दर्य
'धन्य ! योगीश्वर ! निस्पृही, मोक्षाभिलाषी ! मदिरा पी, उन्मत्त हो रहे थे !
...कितना पवित्र, कितना प्रादर्श, और कितना मनुऔर तभी-...
करणीय जीवन है-इनका ! इन्हींका जीवन, जीवन उपवन के प्रबल-आकर्षणने पथ पर जाते हुए कहलानेका अधिकारी हो सकता है। बामना रहित, युवकोंका ध्यान अपनी ओर खींचा। वह रुक गये।... राग-दंश वर्जित परोपकार और प्रात्म-माराधना पर्ण! उतरे।
यथार्थ सुख पथके पथिक ! मुक्ति-मन्दिर के निकट ! 'इतनी रमणीक यह कौन-सी जगह है ?'- बज्र- इन्द्रिय-विकार विजयी !..." बाहुने उपवन को भर नज़र देखते हुए कहा!
'उह ! कितना सौम्य है मुख मण्डल, क्षीग शरीर 'बसन्त-गिरि-शल !' उदयसुन्दरने उत्तर दिया। होने पर भी तपोबलकी कैमी प्रग्बर-दीप्ति विराज रही
'कुछ देर यहाँ विश्राम किया जाए तो क्या है? जैसे शशि बिम्बसे सौम्य, सम्वद कति ! कैसी हानि ?-राजकुमारके सरस-मनसे निकला।
अलौकिक अजेय शक्ति उपार्जन की है--कि 'वसन्त' कुछ नहीं !'...-और तभी उदय सुन्दर भगिनी- की मधुर बेला भी परास्त हो रही है ! वही नासाग्र भाग मनोदयाके बैठने के लिये स्थानकी व्यवस्थामं लगा। पर दृष्टि ! वही अचल वैराग्य पूर्ण, दिगम्बर पवित्र
राजकुमार–बज्रबाहु लता-मण्डपोंकी शोभा निर- वेष!...) खते, आगे बढ़े !
यज्रवाहुकी सरस दृष्टिमें परिवर्तनका नाट्य हृदय आनन्दसे उन्मत्त हो रहा था।
आरम्भ हुआ। वह निनिमेप देखते-भर रह गये! अहो ! कितने मुहावने वह आम्र-बृक्ष .... यह हृदय में महत्भावनाएं तरगित होने लगी। कर्णिकार--जातिके, और यह...?--अग्निकी तरह यदि मैं इस वेषको स्वीकार कर लं...?-क्या दहकते हुए कुसुम वाले--रौद्र जाति के वृक्ष ? ' 'वाह विषयान्वित हृदय पवित्र न बन जाएगा ?..'अवश्य ! कितने प्रकार के पादप समुदाय मण्डित है-यह उद्यान अफ ! मैंने जीवन के इतने अमूल्य दिन व्यर्थ गँवा कैसी मनोहारी शोभा है-यहां शरीरको कैसी आनन्द- दिये ! धिक मेरी दषित बद्धिको! पर अब भी मैं वर्धक वायु लगती है-जैसे विरहीको प्रिया-मिलन ! ।
बरहाका प्रिया-मिलन अपनी दुखद भूलको, आत्म-चिन्तन के मार्ग पर लगा .. 'कोकिलोका मधुर-रव कैसा प्रिय मालुम देता है कर सुधार सकता हैं।..जो हमा, वह हमा!.... जैसे समरांगण में विजय-सन्देश!
__ कुमारकी चञ्चल दृष्ठि जैसे कील दी गई हो। वह -और वह ..? - वह क्या है, भग्न द्रुम या मंत्र मुग्धकी तरह ज्यों के त्यों खड़े देखते रहे । हृदयपाषाण-स्तम्भ ?.. उस लता मण्डपके उधर !... में विचारोंके ज्वार भाटे पा रहे थे। लेकिन वह
कुमारका हृदय हर्षसे प्लावित हो रहा था! क्षणिक न थे, स्थायित्व उनके साथ था । वह सोचने कल्पना-प्रांगण में कौतुहल, जिज्ञासा, और प्रमोद मिल लगे
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अनेकान्त
ण, वीर-
निर्वाण.सं.२४६५
x
... मैं वासनाओंका गुलाम, विषय-शैल्यके शिखर वियोग दोनों पास-पास रहते हैं। जो जन्मता है, वह पर सो रहा था --एकदम तन्मय, अचेत ! अगर चेत मरता अवश्य है। फिर किसका मोह ?---कैसा प्रेम.... न हा होता, तो...?-. निश्चय था स्वाभाविक यही तोसंसार है ! अस्थिर-संसार !! त्याज्य सँसार!!!...' था कि रसातलमें पतनके महान-दुखको प्राप्त होता! क्षण-भर के लिये बज्रबाहका विरक्त कण्ठ रुका। और तब...............!"
उदय सुन्दर रोता रहा ! वह बोले-...'मत रोश्रो ! रोना 'क्या मुनी होने के विचार में हैं- श्राप ?' घूमकर ।
उपाय नहीं, कायरता है ! रोना आता है। इसलिए कुमारने दृष्टि फेरी तो ... उदय सुन्दर विचारोंका रात हो ! यह नहीं सोचते-रोनेका उत्पाद कहांसे क्षेत्र सीमित ! बज्रबाहने गम्भीरता पूर्वक मस्करा हुआ ? उसे ही नाश न कर दो!...यह तुम्हारी हँसी भर दिया।
नहीं थी, मेरे लिए उपकार था। आदर्श-हँसी थी!
मुझे मुखकी ओर अग्रसर करना था। वह हुश्रा, उदयसुन्दर हँसता रहा! जैसे उसकी हँसी में...... लोकलाजकी परवाह न करने वाले कामी, तपोधन
मेरा जीवन सफलतासे पूर्ण हुआ। योगीश को देख रहे हैं, खूब-यह भाव हों!
- और वह दिगम्बर-वेष रख, तपोनिधि महाराज साले साहिबने व्यंग तो तीखा किया, शायद अपने ।
गुणसागरसे स्वर्गापवर्ग-दायिनी भगवती-दीक्षाकी याचना
करने लगे। दिलकी बुझाई। लेकिन बहिनोई साहबको वह चुभा भी नहीं ! वह उसी तरह हँसते हए, बोले.... यात ती
उदयमुन्दरका रुदन सीमा लाङ्कने लगा ! राजठीक पकडी! यही तो मेरे मन में थी! लेकिन अब यह कुमारी मनोदया भी था पहँची ! तो कहो, तुम्हारे मन में क्या है ?....
X मेरे मन में ..?- अगर तुम भुनी होओगे, तो कुछ समय बादमुझे क्या ?-मैं भी हो जाऊँगा ? मैं तुम-सा थोड़े हूँ ! राजकुमार बज्रबाहु और उदयसन्दर दोनो वंदतुम अपनी कहो!' ....
नीय-साधुके रूप में विराजमान थे ! वही विश्वपूज्य दिग -उदयसुन्दरने फिर भी अपनी ठिठोली न छोड़ी! म्बरवेश ! शान्तिमय मुखाकृति !! और वासना-शून्य उसे था विश्वास, ऐसा सरस-जीवन बिताने वालेके हृदय !!! यह उदगार -महज़ हँसी हैं ! और हँसीमें जो कहा पति और भाता दोनोंक प्रेमसे वञ्चिता-मनोदयाजाय-सब ग़लत ! फिर वह पीछे हटे तो क्यों ? ने अपना कर्तव्य सोचा !...एक आदर्श नारीका ध्येय
'तो बस, यह तो अब यों ही रही! विरक्त-जीवन विचारा!!महान्-वस्तु है ! आत्मिक-सुखका साधन है ! और विषया- और वह .....?भिलाषा है--नरकका रास्ता!'--वीर बज्रबाहुने वस्त्रा- मात्र श्वेत-साड़ीसे सशोभित आर्यिका के रूप में थी! भूषण परित्याग करते हुए, विवेक पूर्ण, हद-स्वर में बसन्तकी मधुरिम बयार अब भी बह रही थी !
कोकिलोंकी कूकसे उद्यान अब भी मुखरित हो रहा था ! उदयसुन्दर आश्चर्यचकित !
फलों-पल्लवोंकी छटा अब भी वैसी ही थी ! यह हुमा क्या ?--यह हँसी थी या यथार्थ वस्तु ! लेकिन............. अब...?
लेकिन अब किसीका ध्यान उस पर न था ! कोई रो पड़ा वह ! जैसे हँसीका साथी भा पहुंचा हो! उन्हें निरख कर प्रसन्न होने वाला न था! जैसे उन या हो हँसीका प्रायश्चित्त !!!
सयका भाकर्षण, सारी शोभा नष्ट होगई हो! • 'उदयसुन्दर ! रोते हो?-किसलिए...? संयोग- एक महान-परिवर्तन !......
कहा!
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रेतिहासिक महापुरमा
Marria
AL
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प्राचार्य हेमचन्द्र
ले...श्रीतिनलाल संघवी न्यायतीर्थ. विशारद]
(क्रमागत )
व्याकरणका सम्मान
अर्थात्-. भई ! जहाँ तक श्रीसिद्धिहेम-व्याकरणकहा जाता है कि जब आचार्यश्रीने यह व्याक की अर्थमधुरमय उक्तियां सुनने में आती हैं; वहां तक
रण समाप्त कर लिया तोगजा अत्यन्त प्रसन्न पाणिनि ( व्याकरण ) के प्रलापको बन्द रख । कातन्त्र ताके साथ ममारोह पूर्वक उम ग्रन्थगजको अपने खुदकीम (शिवशर्मा कृत ) व्याकरणरूपी कंथाको व्यर्थ समझ। वारीवाले हाथी पर रखवाकर दरबार में लाया। हाथी पर शाकटायन व्याकरण के कटुवचनोको मत बोल । क्षद्र दोनों ओर दो स्त्रियं श्वेत चामर उड़ाती थीं और ग्रन्थ चांद्र ( चन्द्रगोत्री बौद्धकृत ) व्याकरण तो किस काम पर श्वेत-छत्र द्वारा छाया कर रखी थी । राज्य-मभामं की ? इसी प्रकार कंठाभरण आदि अन्य व्याकरणों के विद्वानों द्वारा उमका पाठ कराया गया और ग्रन्थकी द्वारा अपने आपको क्यों बठर ( कलुषित ) करता है ? विधिवत् पूजा करके प्रतिष्ठा पूर्वक राजकीय सरस्वती अर्थात्, केवल सरस शब्दमय, लालित्यपदपूर्ण, काव्यभण्डारमें उसकी स्थापना की गई। उस समय किसी तुल्यमधुर मिद्धहमव्याकरण ही सर्वश्रेष्ठ और सुन्दर है। कविने अपने उद्गार भी इस प्रकार प्रकट किये :--- अब पाठक स्वयं कल्पना कर सकते हैं कि कलिकाल भातः संवृणु पाणिनि प्रलपितं, कातन्त्रकथा वृथा। मवंश आचार्य हमनन्द्रका जैनसमाजके प्रतिभाशाली मा द्वाषीः कटुशाकटायनवचः, तद्रण चान्द्रेण किम्॥ प्राचयों; समर्थ विद्वानों, सुयोग्य लेखकों और सुपुज्य किं कंठाभरणादिभिर्बठरयस्यात्मानम यैरपि । प्रभावक महात्माओंमें कितना ऊँचा, कितना गौरवमय श्रयन्ते यदि तावदर्थमधुराः, श्रीसिद्धहेमोक्तयः ॥ और कितना महत्त्वपूर्ण स्थान है ! यदि हम ऐसे
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अनेकान्त
आचार्यश्रीजीको "जिन शासन-प्रणेता” जैसी उगांध विभूषित करें तो भी अपेक्षा विशेषसे यह अत्युक्तिपूर्ण नहीं समझा जाना चाहिये ।
जयसिंह के अन्य संस्मरण
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कहा जाता है कि कुछ द्वेषी ब्राह्मणोंने राजा और आचार्यश्री के परस्पर में फूट उत्पन्न करानेका प्रबल प्रयत्न किया । किन्तु वे असफल रहे । ब्राह्मणोंने राजा से कहा कि हे राजन् ! महर्षि वेद व्यास कृत महाभारत में तो लिख़ा है कि पांडव शैवदीक्षासे दीक्षित होकर हिमालय गये थे । और आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं कि जैन-दीक्षा ग्रहण करके वे मोक्ष में गये हैं। यह परम्पर विरोधी बात कैसी ? आचार्यश्रीने तत्काल उत्तर दिया कि जैन पांडव और थे एवं महाभारतीय पांडव दूसरे थे । विभिन्न काल में अनेक पांडव होगये हैं। इसका प्रमाण महाभारत में इस प्रकार है: -- अत्र भीष्मशतं दग्धं. पाँडवानाम् शतत्रयम् । द्रोणाचार्य सहस्र तु. कर्णसंख्या न विद्यते ॥
इस प्रकार महाभारतीय प्रमाण पर वे सब ब्राह्मण पण्डित लज्जित हुए और क्षमा मांगी। एकबार राजा ने आचार्यश्री से प्रश्न पूछा कि महाराज संसार में सत्य धर्म कौनसा है ? महाराजने उत्तर दिया किः-तिरोधीयत दर्भादिभिर्यथा दिव्यं तदौषधम् । तथाऽमुष्मन् युगे सत्यो धर्मो धर्मान्तरे नृप ॥ परं समय धर्माण। सेवनात् कस्यचित् क्वचित् । जायते शुद्धधर्माप्तिः दर्भच्छन्नोवधाप्तिवत् ॥
अर्थात् - हे राजन् ! जिस प्रकार दिव्य औषधि दर्भ आदि घासमें ढँकी रहती है। वैसे ही इस युग में भी सत्य धर्म अन्य धर्मोंसे ढँका हुआ है । किन्तु जिस प्रकार सब घासका अनुसंधान करनेसे दिव्य औषधि मिल जाती है। वैसे ही सब धर्मोका अध्ययन, मनन
[ फाल्गुण, वीर - निर्वाण सं० २४६५
और परिचयसे वास्तविक धर्म की भी प्राप्ति हो जाती है । अतः सब धर्मोका अध्ययन परिचयादि करना चाहिये । राजा आचार्यश्री के मुखसे धर्म- गवेषणाके लिये इस प्रकार के निष्पक्षपात वाले सुन्दर विचार सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ। राजा आचार्यश्री के इसी प्रकार के अन्य आदर्श विचारों और भाव- पूर्ण व्याख्यानोंसे प्रभावान्वित होकर पूरी तरहसे जैन धर्मानुरागी हो गया था । सिद्धराजने महाराज साहब के साथ विशाल संघको लेकर सोमनाथ, गिरनार और शत्रु जय आदि जैसे स्थानोंकी तीर्थ-यात्रा भी की थी। आचार्य हमचन्द्र के विचारोंसे पता चलता है कि वे सर्व धर्म समभाव वाले, उदार और निष्पक्षपाती मनस्वी महा-पुरुष थे । यही कारण है कि वे सोमनाथ जैन अजैन मन्दिर में भी राजा के साथ गये और मधुर - कण्ठमे उदार दृष्टि- पूर्वक इस प्रकार स्तुति कीः
यत्र तत्र समये यथा तथा;
योऽसि सोऽसि अभिधया यया तया । वीतदोष कलुषः सचेत् भवान् : एक एव भगवन् ! नमोऽस्तु तं ॥ भव बीजांकुर जनना;
रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वाः नमस्तस्मै ॥ इत्यादि इत्यादि ॥
सिद्धराज जयसिंहने एक " रामबिहार" नामक जैन मन्दिर पाटण में और दूसरा २४ जिन प्रतिमावाला “सिद्ध विहार" नामक जैन मन्दिर सिद्धपुर में बनाया था। राजा शैव होता हुआ भी पूरी तरहसे जैन-धर्मानुरागी और आचार्य हेमचन्द्रका परम भक्त एवं अनन्य श्रद्धालु बन गया था । सिद्धराजने विक्रम ११५१ से ११९९ तक राज्य किया और ११९९ में देवगतिको प्राप्त हुआ ।
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वर्ष २, किरण ५ ]
प्राचार्य हेमचन्द्र
कुमारपालसे भेंट और उसकी कृतज्ञता गङ्गानदी, दक्षिणमें विंध्याचल, और पश्चिममें समुद्र-. - सिंद्धराज जयसिंहकी मृत्यु के पश्चात् श्राचायश्री पर्यंत बतलाई है। गुजरात के विभिन्न प्रदेशोंको अपने पादपङ्कजों द्वारा परमाहत कुमारपालके धर्म-कार्य • पवित्र करने लगे। एक दिन उनकी और भावी गुजरात
नरवीर कुमारपालने अपने सम्पूर्ण राज्यमें निम्ननरेश कुमारपालकी भंट होगई । सामुद्रिक श्रेष्ठ लक्षणी
लिखित तीन पाशाओंका पूरी तरह से पालन करानके के आधारसे आचार्यश्रीने उसका यथोचित आदर लिये प्रभावशाली हुक्म जारी कर दिया था जिसका कि सत्कार किया और फरमाया कि "आजसे सात वर्ष पश्चात्
अक्षरशः सम्पूर्ण राज्य में पालन किया गयाः-. अमुक दिन और अमुक घड़ी में तुम्हारा राज्याभिषक (१) प्राणी मात्रका वध बन्द किया जावे और सभी जीवोंहोगा।"
को अभयदान दिया जाय। (२) मानव-जीवनको नष्ट करने अन्तमं यह बात सत्य प्रमाणित हुई और संवत् वाले दुर्व्यसन-बूत, मांस, मद्य, शिकार भादि प्रकार्य ११९९ में ५० वर्षकी आयु कुमारपाल पाटणकी सर्वथा नहीं किये जावें । (३) दीर्घतपस्वी भगवान् महाराज्यगद्दीका अधिकारी हा । जनताने और राज्याधि वीर स्वामीकी पवित्र श्राशाओंका पालन और सत्यकारियोन परम उल्लास के साथ उसका राज्याभिषेक धर्मका प्रचार किया जावे। किया; एव अपना शासक रवीकार किया । राजा कुमार.
परमाईतकुमार पलने 'अमारि पडह' अर्थात् पूर्ण पालने राज्याभिषेक होतही तत्काल प्राचार्यश्रीको कृत
अभयदानकी जयघोपण। अपने सम्पूर्ण और विस्तृत
गज्य में करवादी थी। राजकुल देवी कटवेश्वरीको जी शतापूर्वक स्मरण किया। प्राचार्य हेमचन्द भी राजाको
हिंसामय बलिदान दिया जाता था, वह तक बन्द करवा विनांतको स्वीकारकर पाटणम पधारे । राजाने अत्यन्त
दिया गया था। इस प्रकार प्राचार्य हेमचन्द्र ने इस कलिआदर सत्कार किया और अपना राज्य, वैभव, सम्पत्ति मब कुछ इस कृतज्ञ और गुरुभच राजाने भाचार्यश्री-
युग तकमें भी जन-धर्मका पुनः महान् प्रभाव स्थापित कर पुन
के जैन-धर्मकी असाधारण संवा की है। विस्तृत राज्यकी के चरणों में समर्पण कर दी।
शासन-प्रणाली पर जैन-धर्मका प्रेममय नियंत्रण स्थापित राजा पूरी तरहसे हेमचन्दसूरिको अपना गुरु मानने
करके हमारे चरित्र-नायक निश्चयही 'जैन-शासन प्रणेता' लगा और विक्रम संवत् १२१६ की मार्गशीर्ष शुक्ला
की पंक्ति में जा विराजे हैं। द्वितीयाको प्रगट रूपसे सम्यक्त्वकी और श्रावक व्रतकी
महागज कुमारपालने अपनी स्मृति के लिए 'कुमार दीक्षा लेली। राजाके दृढव्रती श्रावक बन जानेपर विहार' नामक अत्युच्चकोटिका अतिभव्य जैनन्दिर प्राचार्यश्रीने ‘परमाहत' नामक सुन्दर और विशिष्ट- बनवाया था। जोकि ७२ जिनालयों में परिवेष्टित था। भावद्योतक पदवीसे उसे विभूषित किया । धर्म प्रेमकं तारकाजी पर्वत पर भी अजितनाथजीका महान सुन्दर प्रस्तावसे परमाहंत कुमारपाल के राज्यकी सीमा भी बहुत मन्दिर बनवाया था । कुमारपालका यह प्रांतरिक विस्तृित होगई थी। प्राचार्य हेमचन्दने 'महावीर-चरित्र' विश्वास था कि मैं अजितनाथजीकी कपासे ही प्रत्येक में कुमारपालके राज्यकी सीमा उत्तर में तुर्किस्तान, पूर्वमें कार्यमें विजयी होता हूँ। धर्मात्मा कुमारपालने अनेक
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अनेकान्त
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मन्दिर, तालाब, धर्मशाला, पुस्तकालयभण्डार और एक मन्यामीका रूप प्रगटित किया और राजाको अपनी उपाश्रय आदिका निर्माण कराया था। कहा जाता है कि विशिष्ट शक्तिका प्रामाणिक मूर्तिमंत विश्वास कराया । अपने जीवन में कुमारपालका दैनिक कार्यक्रम भी आदर्श ऐसा कहा जाता है कि एक-दो युद्धके प्रसंग उपस्थित
और नियमित था । मुनिदर्शन, सामायिक श्रादि धर्म होने पर आचार्यश्री अपने विद्या-बलसे मानव-संहारका कार्य भी प्रतिदिन किया करता था। इस सम्बन्धी विस्तृत टालनेके उद्देश्यसे शत्रु गजाको कुमारपालकी शरण
और प्रामाणिक विवरण मोमप्रभाचार्य विरचित 'कुमार. में ले आये थे। पालप्रतिबोध' नामक ग्रन्यमे जाना जासकता है । विस्तार एक बार काशीसे आये हुए विश्वेश्वर नामक कविभयसे अधिक लिखनेमें असमर्थता है । यह सब प्रताप ने कुमारपालके समक्ष ही राज-सभामं हेमचन्द्रश्रीके प्राचार्य हेमचन्द्रका ही है। इस प्रकार अनक दृष्टियों लिए व्यङ्गात्मक ध्वनिसे कहा किसे आचार्य हेमचन्द्र महान प्रभावक, अद्वितीय मेधावी पातु वा हेमगोपालः कम्बलं दंडमुद्वहन्"
और असाधारण महापुरुष हैं । इनका माहित्यिक-जीवन अर्थात्--- कम्बल और दंडा रखने वाला हेमगोपाल जितना श्रेष्ठ और उज्ज्वल है उतना ही कर्तव्य-मय ( गाय चराने वालेको वेषभूशा वाला अतः ग्वालिया ) जीवन भी प्रशस्त और आदर्श है।
हमारी रक्षा करे । इस पर प्राचार्यश्रीने अविलम्ब उत्तर कुमारपालके संस्मरण
दिया कि कुछ ब्राह्मण पंडित कुमारपालको हिन्दू-धर्म में पुनः “पड दर्शन पशुग्रामं चारयन् जैनगोचरं ।” दीक्षित करने के लिये अनेक प्रयत्न करने लगे । इन्द्र- अर्थात् - जैनधर्मरूपी बाड़े में छः दर्शनरूपी पशु जाल द्वारा कुमारपालको दिखाने लगे कि देखो ये तुम्हा. समूहको घेरकर रखने वाला ( ऐमा गोपाल-स्वरूप हेम.. रेमाता-पिता और अन्य पूर्वज तुम्हारे कुलधर्मको छोड़ने चन्द्र रक्षा करे ) । इस पर मारी मभा प्रसन्न हो उठी और से दुःखी होरहे हैं और तुम्हें श्राप देरहे हैं । इसपर वह कवि लज्जित होगया । आचार्य हेमचन्द्र की प्रत्युभाचार्य हेमचन्द्रने पुनः योग्य-विद्याके बलसे कुमारपाल त्पन्नमतिसम्पन्न प्रतिभाका अनेक प्रकरणोंमें से यह एक को बतलाया कि देखो ये तुम्हारे पूर्वज तुम्हारे द्वारा छोटासा किन्तु मार्मिक प्रमाण है । यह उनकी दक्षता, जैन-धर्म ग्रहण करनेसे ही सखी और सन्तुष्ट हैं। और स्फूर्तिशीलता और हाज़िर-जबाबीका एक सुन्दर उदा तुम्हें कल्याणमय भावनाके साथ शुभाशीर्वाद दे रहे हैं। हरण है। इस प्रकार अनेक और हर प्रकारकी प्रवृत्तियोंसे विधर्मियों प्राचार्य हेमचन्द्र के प्रति परमाहंत कुमारपालकी द्वारा च्युत करनेका प्रबल प्रयत्न किया जाने पर भी असाधारण श्रद्धा, अनन्य भक्ति, अद्वितीय सम्मान कुमारपालको जैन-धर्म में दृढ़ बनाये रम्बना केवल हमार और अलौकिक अनुराग था । यदि लौकिक अलङ्कारिक चरित्र-नायककी विशिष्ट प्रतिभाका ही फल था। ऐसी भाषामें कहे तो इन दोनोंका सम्बन्ध "दो शरीर और सामर्थ्य अन्य किसी में होना असंभव नहीं तो करिन एक जीववत्" था। इन दोनोंके अनेक उपदेशप्रद अवश्य है । प्राचार्य हेमच द्र जब कुमारपाल के साथ संस्मरण है किन्तु स्थलसंकोचसे अधिक लिम्वनेमें अससोमनाथके मन्दिरमें गये तो वहां महादेवजीके लिंगमेंसे मर्थता है। अधिक जाननेकी इच्छा रखनेवाले पाठक
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आचार्य हेमचन्द्र
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"कुमारपालप्रतियोध, प्रभावकचरित्र, प्रबन्धचिन्तामणि, ग्रन्थोंमें इन कृतियोंका असाधारण और महत्वपूर्ण प्रबन्धकोश, और उपदेशतरङ्गिणी" आदि ग्रन्थोसे स्थान है । जाननेकी कृपा करें। महाराज कुमारपालका जन्म
इन काव्योंको "द्वयाश्रय" कहनेका तात्पर्य यह है संवत् ११४९ है । राज्याभिषेक संवत् ११९९ हैं और
कि एक तरफ तो कथा-वस्तुका निर्वाह व्यवस्थितरूपसे स्वर्गवास संवत् १२३० है । इस प्रकार लगभग ३१ वर्ष
चलता है और दूसरी ओर “सिद्धहेम" में आए हुए तक राज्य शासन करके ८१ वर्षकी आयु में आपका
"प्रयोग" क्रमपूर्वक काव्यशैलीसे व्यवहृत होते हुए देखे स्वर्गवास हुआ।
जाते हैं । प्राकृत महाकाव्यमें प्राकृत, शोर सेनी, मागधी हेमचन्द्रकी कृतियां-दो महाकाव्य
पैशाची, चूलिकापैशाची और अपभु श इन छः भाषा
ओंके सुन्दर साहित्यक पद्य और व्याकरणगत नियमोंके अब प्राचार्य हेमचन्द्र की साहित्यिक उत्कृष्ट कृतियों
श्रानुपूर्वीपूर्वक उदाहरणोंका अभूतपूर्व मामजस्य देखा का सिंहावलोकन करना अप्रासंगिक नहीं होगा ।
जाता है । इसकी कथा-वस्तु “सोलंकी वंश" वर्णन है। "सिद्धहेम" व्याकरण के सम्बन्धमे पहले लिखा जा चुका
जो कि मलगजस प्रारंभ होकर कमारपालक शासनहै । इसी व्याकरण में आई हुई संस्कृत शब्दसिद्धि और
वर्णन तक चलती है। प्राकृत शब्दसिद्धिका प्रयोगात्मक ज्ञान कराने के लिये "संस्कृतद्वयाश्रय' और प्राकृत द्वयाश्रय नामक दो
महाकविहिने भी "पाणिनी व्याकरण" में आई
हुई शब्दमिद्धिको समझाने के लिये रामायण की कथा महाकाव्योंकी रचना की है। इन महाकाव्योंके अध्ययन
वस्तु लेकर "भट्टिकाव्य" की रचना की है। किन्तु ऐतिमे विद्यार्थीको व्याकरण और व्याकरण के नियमोका
हामिक दृष्टिले उमका उतना मूल्य नहीं है जितना कि तथा काव्यमय शब्द कोषका भली भांति ज्ञान होसकता
हेमचन्द्र के इन महाकाव्योका । क्योंकि भट्टिकी कथाहै। मिहेम में आई हुई शन्दसिद्धि का प्रयोगात्मक
वस्तु प्रागैतिहासिक कालकी होनेसे इतिहासकी वास्तजान करने के लिए अत्यन्त परिश्रम करनेकी अावश्यकता
विकताका निर्णय कगने में सर्वथा अनुपयोगी है जबकि नहीं । दोनों महाकाव्योंकी इतिहासकी दृष्टि से भी महान
आचार्यश्रीकी ये कृतियां गुजरात के मध्यकालीन उपयोगिता है। क्योंकि संस्कृत महाकाव्यमें तो गुज
इतिहासके खोज के लिये अनुपम माधनरूप हैं व्याकरण रातके गजनैतिक इतिहास में प्रख्यात चालुक्य वंशका
की दृष्टि में भी दोनों काव्य उसमे अधिक श्रेष्ठ हैं। वर्णन तथा मिद्धराज जयसिंहके दिगंबजयका विवेचन
क्योंकि पाणिनीम जिम क्रमस शब्दमिद्धि आई है उस किया गया है। और प्राकृत महाकाव्यमं सालही वंशक. ऐतिहासिक वर्णनके साथ-साथ महाराज कुमारपालका
क्रमस भट्टिकाव्यमें उनका प्रयोग उदाहरण पूर्वक नहीं
ममझाया गया है। जबकि अधिकृत काव्योम मिद्धहमके चरित्र भी विस्तार पूर्वक लिखा गया है । इमीलिए.
क्रमको नहीं छोड़ा गया है। इसका अपरनाम “कुमारपाल-चरित्र' भी है। यह काव्य अतिविचित्र और काव्य-चमत्कृतिका सुन्दर दानों काव्यांका परिमाण क्रममे २८२८ और उदाहरण है। अतः गुजगतके प्रामाणिक इतिहास.२५०० श्लोक संग्च्या प्रमाण है। संस्कृत काव्य पर
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अनेकान्त
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अभयतिलक गणिकी १७५७४ श्लोक प्रमाण टीका है। विभाजित है। इसमें विश्वकोपके समान प्रत्येक शब्दके और प्राकृत काव्य पर पूर्णकलश गणिकी ४२३० श्लोक अधिक से अधिक कितने अर्थ होसकते हैं; यह बतलाया प्रमाण टीका है । दोनों ही काव्य सटीकरूपसे बम्बई गया है । मूल १८२६ श्लोक प्रमाण है । इसपर भी संस्कृत सीरीज द्वारा प्रकाशित होचुके हैं ।
६०३० श्लोक प्रमाण स्वोपज्ञ वृत्ति है। कहा जाता है कि प्राचार्य हमचन्द्र ने “मतसंधान तीसग कोश "देशीनाम माला" है । जो कि भाषामहाकाव्य" और "नाभेय-नेमिद्विसंधान" महाकाव्यको विज्ञानकी दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी और उपादेय ग्रंथ भी रचना की थी। किन्तु वर्तमान में उनकी अनुपलब्धि है। जी शब्द संस्कृत-भाषाकी दृष्टि से न तो तदरूप है, होने से नहीं कहा जा सकता है कि यह उक्ति कहां न तद्भव है और न तत्मम हैं, वे देशी कहलाते हैं । तक सत्य है । लेकिन सचन्द्रकी प्रतिभाको देखते भापा-विकासका अध्ययन करने, नष्ट प्रायः तत्कालीन हुए यह कल्पना सत्य प्रतीत होती है कि सप्तसंधान
भाषायोको सीखने और प्राचीन भ पात्रों के अवशिष्ट काव्य और द्विसंधान काव्यकी रचना करना उनकी माहित्यका जीणोद्धार करनेकी दृष्टिसे यह कोप एक शक्तिके बाहिरकी बात नहीं थी।
बहु मूल्य साधन है । आचार्यश्रीकी यह कृतिभी विद्वानोंचार कोष-ग्रन्थ
के लिक अलंकार समान है । मूल ८५० श्लोक प्रमाण "ध्याकरण और काव्य" रूप ज्ञान-मन्दिरके है। इसपर भी स्वोपज रत्नावलि नामक ३५०० श्लोक स्वर्ण-कलश समान चार कोप ग्रन्थोंका भी प्रमाग वृत्ति है । “शेप-नाममाला” के रूपमें एक आचार्य हेमचन्द्र ने निर्माण किया है । प्रथम परिशिष्टांशरूप कोप भी पाया जाता है; जो कि २२५ कोपका नाम "अभिधान-चिन्तामणि" है। यह श्लोक प्रमाण कहा जाता है। छः काण्डोंमें विभाजित है। अमरकोपके समान होता चौथा कोष "निघटु-शेप' है। जिसमें वनस्पतिके हुआ भी इसमें उसकी अपेक्षा शब्द संख्या ड्योढीके नाम भेदादि यतलाये गये हैं। यह आयुर्वेद-विज्ञान लगभग है। यह मूल १५९१ श्लोक संख्या प्रमाण है। और श्रीपधि विज्ञानकी दृष्टि में एक उपयोगी और लाभ इसपर दस हज़ार श्लोक प्रमाण स्वोपज्ञ टीका भी है प्रद ग्रन्थ है। इससे आचार्यश्री की आयुर्वेद-शास्त्रम दुसग कोष "अनेकार्थ-संग्रह" है। यह सात काण्डोंमें भी अव्याहतगति थी-एमा प्रतीत होता है।
छटवी किरण में समाप्त )
सुभाषित दो बातनको भूल मत जो चाहत कल्याण । पर-द्रोही पर दार-रत पर-धन पर-अपवाद । "नारायण" एक मौतको दजे श्रीभगवान ॥ ते नर पामर पापमय देह धरें मनजाद ॥ "कबिरा" नौबत आपनी दिन दस लेहु बजाय । जाके घट समता नहीं ममता मगन सदीव । यह पुर पट्टन यह गली बहुरि न देखो आय ॥ रमता राम न जानही सो अपराधी जीव ।। चाह गई चिन्ता गई मनुऑ बेपरवाह । राम रसिक अरु राम रस कहन सुननको दोय । जिसको कछू न चाहिये सो जन शाह-शाह || जब समाधि परगट भई तब दुविधा नहिं कोय ।
-संकलित
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ONTE PER TE
RE OGAE ROYAL PARA FIRE DOSE OVERET DER ESAM PRET
। कथा कहानी
ले०-अयोध्याप्रसाद गोयलीय
शाह होने पर भी इसके एक ही पत्नी थी । घरेलू कार्यों नववीर केसरी राणा प्रताप जगलों और पर्वत के अलावा रसोई भी स्वयं वेगमको बनानी पड़ती थी।
कन्दराम भटकत फिरते थे, तब उनका एक एकबार रसोई बनाते समय बेगमका हाथ जल गया तो भाट पेटकी ज्यालासे तंग आकर शहनशाह अकबर के दर उमने बादशाह कल दिनके लिये मोबनाने के लिए चार में पहुँचा और सिर की पगड़ी बग़ल में छुपाकर फशी नौकरानी रग्य देनेकी प्रार्थना की। मगर बादशाहने सलाम झुकाया । अकबरने भाटकी यह उद्दण्डता देखी यह कहकर बेगमकी प्रार्थना अस्वीकार करदी कि नो तमतमा उठा और रोपभरे स्वर में पूछा. पगड़ी "गज कोप पर मेरा कोई अधिकार नहीं है, वह तो उतार कर मुजग देना जानता है कितना बड़ा अपराध प्रजाकी और से मेरे पास केवल धरोहर मात्र है। और है' ? भाट अत्यन्त दीनतापूर्वक बोला - "अन्नदाता ! धद में में अपने कार्यों में व्यय करना अमानत में खयाजानता तो सब कुछ हूं; मगर क्या करूं मजबूर है ? यह नत है । बादशाह तो क्या, प्रत्येक व्यक्तिको स्वावलम्बी पगड़ी हिन्दूकुल भूपण गणा प्रतापकी दी हुई है. जब होना चाहिये । अपने कुटुम्बके भरण-पोषण के लिए, स्वयं वे आपके सामने न झुके, तब उनकी दी हुई यह पगड़ी कमाना चाहिये । जो बादशाह स्वावलम्बी न होगा, कैमे झका मकना था ? मेरा क्या है; मैं ठहरा पेटका उसकी प्रजा भी अकर्मण्य हो जायगी, अतः मैं राज-कोपकुत्ता, जहां भी पेट भरनेकी आशा देखी, वहीं मान में एक पैसा भी नहीं लमकता और मेरी हाथकी कमाई अपमानकी चिन्ता न करके पहँच गया । मगर जहां- मीमित है। उसमें नाम बताओ नौकरानी से सवी पनाह......?" अकबरने सोचा, यह प्रताप कितना महान जासकती है?" है, जिसके भाट तक शत्रके शरगणागत होने पर भी उसके स्वाभिमान और मर्यादाको अक्षरगा रखते हैं !
पाण्डवोंका चिाशत्रु दुर्योधन जय किसी शषु दाग
पन्दी कर लिया गया, तब धर्मराज युधिष्ठिर अत्यन्त गुलाम-वंशीय नासिरुद्दीन महमूद बादशाह अत्यन्त व्याकुल हो उठे। उन्होंने भीमसे दुर्योधनको छुड़ा मञ्चरित्र और धर्मनिष्ठ था । आजीवन इसने गज-कोष- लानेका अनुरोध किया। भीम युधिष्ठिरकी आशकी से एक भी पैसा न लेकर अपनी हस्त-लिखित पुस्तको अवहेलना करता हुआ बोला-"मैं और उस पापीको से नीवन-निर्वाह किया। भारतवर्षका इतना बड़ा बाद- कृदा लाऊँ ? जिस अधमके कारण भाज हम दर-दर के
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भिखारी और दाने-दाने को मोहताज है, जिस पापात्माने द्रोपदी का अपमान किया और जो हमारे जीवन के लिए राहु बना हुआ है, उसी नारकीय कीड़ेके प्रति इतनी मोह ममता रखते हुए आपको कुछ ग्लानि नहीं होती धर्मराज !” भीमके रोप भरे उत्तरसे धर्मराज चुप हो रहे; किन्तु उनकी आन्तरिक वेदना नेत्रोंकी राह पाकर मुँह पर अश्रु रूपमें लुढ़क पट्टी ! अर्जुनने यह देखा तो लपककर गाण्डीव - धनुप उठाया और जाकर शत्रुको युद्ध के लिए ललकार उसे पराजित करके दुर्योधनको बन्धनसे मुक्त कर दिया | तब धर्मराज भीमसे हँसकर बोले- भैया, हम आपस में भले ही मतभेद और शत्रुता रखते हैं, कौरव १०० और हम पाण्डव ५, बेशक जुदा-जुदा हैं । हम आपस में लड़ेंगे, मरेंगे, किन्तु किसी दूसरे के मुकाबिले में हम १०० या ५ नहीं, अपितु १०५ हैं । संसारकी दृष्टिमें भी हम भाईभाई हैं। हममें से किसी एकका अपमान हमारे समूचे वंशका अपमान है, यह बात तुम नहीं, अर्जुन जानते हैं । युधिष्ठिरके इस व्यंग भीम मुँह लटकाकर रह गये । ( ९ )
विश्व विजेता सिकन्दर जय मृत्यु- शैया पर पड़ा छटपटा रहा था, तब उसकी माँने रुधे हुए कण्ठसे पूछा - "मेरे लाइले लाल ! अब मैं तुझे कहाँ पऊँगी ?" सिकन्दरने बूढ़ी मांको ढारस देनेकी नीयत में कहा - “अम्मीजान ! सत्रहवीं वाले रोज़ मेरी कुछ पर आना, वहां तुझे मैं अवश्य मिलूंगा ।" मांकी मोहब्बत, बड़ी मुश्किलसे १७ रोज़ कलेजा थामकर बैठी रही । आखिर १७ वीं वाले दिन रातके समय कब्र पर गई । कुछ पाँवों की आहट पाकर बोली “कौन बेटा सिकन्दर !" आवाज़ भाई "कौनसे सिकन्दरको तलाश करती है ?" मांने कहा - "दुनियाके शहन्शाद अपने लख्ते जिगर
[ फाल्गुण, वीर - निर्वाण सं० २४६५
सिकन्दर को, उसके सिवा और दूसरा सिकन्दर है कौन ?” अट्टहास हुआ और वह पथरीली राहांकां तें करता हुआ, भयानक जंगलोंको चीरता फाड़ता पर्वतोसे टकराकर विलीन हो गया । धीमे से किसीने कहा -"अरी बावली कैसा सिकन्दर ! किसका सिकन्दर ! कौनसा सिकन्दर ! यहाँके तो ज़रें ज़रें में हज़ारों मिकन्दर मौजूद हैं !" वृद्धा मांकी मोहनिन्द्रा भग्न हुई ।
( १० )
भरत चक्रवर्ती छहखण्ड विजय करके नृपभाचल पर्वत पर अपना नाम अंकित करने जब गये, तब उन्हें अभिमान हुआ कि, मैं ही एक ऐसा प्रथम चक्रवतीं हूँ जिसका नाम पर्वत पर सबमें शिरोमणि होगा । किन्तु पर्वत पर पहुंचते ही उनका माग गर्व खर्व होगया | जब उन्होंने देखा कि यहां तो नाम लिखने तक को स्थान नहीं । न जाने कितने और पहले चक्रवर्ती होकर यहां नाम लिख गये हैं। तब लाचारीको उन्हें एक नाम मिटाकर अपना नाम अंकित करना पड़ा |
( ११ )
हज़रत हुए बली
अयूब मुसलमानांके एक बहुत माने हुए 1 वे बड़े दयालु थे । उनके सीने में ज़न्म हो गये थे और उनमें कीड़े पड़ गये थे । एक रोज़ आप मदनमें एक स्थान पर खड़े हुए थे कि चन्द की ज़ख्म में निकलकर ज़मीनपर गिर पड़े। तब आपने वे कीड़े ज़मीन से उठाकर दुबारा अपने ज़ख्म में रख लिये। लोगों के पूछने पर हज़रतने फर्माया कुदरतने इन कीड़ोंकी खुराक यहीं दी है, अलहदा होने पर मर जाएँगे । जब हम किसी में जान नहीं डाल सकते, तब हमें उनकी जान लेनेका क्या हक हैं ?"
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sexEXEMEIKNEMENCE:MXXEXEXXEMEANITY बौद्ध तथा जैनधर्म पर एक सरसरी नज़र ,
[ ले० श्री० बी० एल० सराफ बी० ए० एलएल० बी० वकील
__ मंत्री सी० पी० हिन्दी साहत्य सम्मेलन ]
aarakARMIKAKIRAKAR
100000000000000000
वेदोक अशरीरी जन्ममें भी विरोधी धाग छुपी यालिग़ होजाना सावितकर हिन्दूसमाजको "पुत्रं मित्र
हुई दीखती है, यदि वैदिक ऋषि या वैदिक स- वदाचरेत्" वाली उक्ति पर चलनेको वाध्य किया और भ्यता को माननेवाले पा- g00000000000000000000000000000000000g हिन्दूममाजको अपने सामा शाक पहिनते हैं, ईश्वरको इस लेख के लेखक वकीलसाहब एक प्रसिद्ध अजैन । जिक तथा धार्मिक संगमानते हैं और पशुबल विद्वान् हैं, जो कि मध्यप्रदेशकी साहित्यिक विद्वत्परिपद के उनमें आये हुए विकारोंको करते हैं, तो एक ओर 8 मेम्बर भी हैं। थोड़ीसी प्रेरणाको पाकर आपने जो धो डालना पड़ा-पशु. ऐसे नग्न क्षपणकोंकी यह लेख भेजनेकी कृपाकी है उसके लिए आप विशेष हिंसासे मुग्व मोड़ना पड़ा भी भारी संख्या है जो धन्यवाद के पात्र हैं। लेख परमे सहज ही में यह जाना और जातियोंकी असमावस्त्र नहीं पहिनना चाहते ३ जासकता है कि हमारे उदार-हृदय अजैन बन्धु जैन- नताका दुर्ग भगवान के हैं, जगत्का ईश्वरका 8 धर्मका अध्ययन करने के लिये भी कितना परिश्रम उठाने मन्दिरके मामने ध्वंम होअस्तित्व नहीं मानते तथा है, कहां तक उसमें सफल होते हैं और उसके विषय में गया । वह विरोधका युग हिंसाको गवारा नहीं करते कितना सुन्दर विचार रखते हैं। तुलनात्मक दृष्टिको खतम हुए सैंकड़ों वर्ष
और उसके विरोध 8 लिए हुए यह लेख अच्छा पढ़ने योग्य है। और इसके 8 बीत गये । जैनधर्म तथा अपनी आवाज़ उठाते हैं। 8 अन्त में जैनियोंके तीन कर्तव्योंकी ओर जो इशारा किया बौद्धधर्मकी उस कृपाको इन विरोधियोंने ही मालूम गया है वह वास तौरसे जनियाँक ध्यान देनेकी वस्तु भी जो उहोंने सजीव हिन्दू होता है आगे चलकर है। यदि हमारे जैनी भाई अपने उन कर्तव्योको पूरी 8 जाति परकी, लम्बाकाल सुसंस्कृत जैन और बौद्धो-8 तरहसे पालन करें तो इसमें मन्देह नहीं कि भाजके होचुका, पर न हमने ही यह का रूप धारण किया है। वातावरण में जैन-धर्मके असंख्य प्रेमी पैदा होसकते हैं। सोचा कि इन उपकारी वि. इन दोनों धर्मोंने हिन्दूधर्म ।
राधियोंके अन्य सिद्धान्तों
-सम्पादक के प्रति कई अमर उपकार B.
0000000000000000000000000000Nmanna MOMDVD00000000000000000003
की ओर भी लक्ष्य दिया किये हैं। हिन्दूसमाजके इन दो झगड़ेलू किन्तु जावे,शायद उनमें भी कहीं छुपा हुआ विरोधका अन्त करने सत्याग्रही पुत्रोंने अन्तमें विरोध करते करते अपना वाला स्याद्वाद जैसा हीरा निकल पावे, और न
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उन्होंने ही। विरोधी तो कहाँसे सोचनेमें प्रवृत्त होते, जैनधर्ममें १४ कुलकरोंका होना भी पाया जाता है, उन्हें तो संस्कृति-विध्वंसक एक और जातिसे भी संघर्ष- जिन्होंने कला-कौशल, ज्ञान विज्ञान तथा सामयिक में आना पड़ा, जिसके कारण उन्हें सभ्यता और संस्कृति सिद्धान्तों आदिका प्रसार किया; और ये तीर्थंकरोंसे पूर्व की ही बात नहीं, किन्तु अपने ग्रन्थों तकको सुरक्षित होचुके हैं । अंतिम कुलकरने ही प्रथम तीर्थकरको रखनेके लिए स्वास तहखाने तैयार कराने पड़े ! और जन्म दिया था। हिन्दूधर्मके सतयुग, त्रेता, द्वापर, कल. उनकी वह मनोवृत्ति आज भी सैकड़ों अमूल्य ग्रन्थोंको युगके अनुसार कुलकरोंका युग भोग भूमिया सतयुग हवा तक नहीं लगने देती; हालांकि आजका संसार इस समझा जाता है, जिसके अन्तमें कर्मभूमि शुरू होजाती सम्बन्धमें उतना दुराग्रही नहीं है । आजका संसार ज्ञान- है। तीर्थंकरोंकी योग्यता अवतारों जैसी रहती है, पर वे पिपासु है अथवा परस्पर के आदान-प्रदानको गुण सम- साप्टकत्ता नही माने जाते।। झने लगा है । वैसे भी भारतवर्षके इतिहासके खासे अतिशयोंकी कमी न तो हिन्दूधार्मिक पुस्तकोंमें है पहलको तबदील करनेवाली इन जातियों के इतिवृत्तिको और न जेनधार्मिक ग्रन्थों में ही है । आयुका क्रम हज़ारों अब उपेक्षित छोड़नेका फल होगा-भारतीय इतिहास- वर्षाका जिस तरहसे पल्य और कोड़ा कोड़ी सागर के रूपका अधूग रहना, जो प्रगतिमें बहुत बाधा उपस्थित में हम जैनधर्म में पाते हैं, वैसी ही हजारों वर्षोंकी श्रायुका करेगा । सरसरी तौरसे देखा जाये तो इन धर्मों के अनु- प्रमाण हिन्दूधर्मकी पुस्तकों में भी पाया जाता है। अहिंसारूप समय समय पर हिन्दुधर्म में क्रांति और सुधारकी का सिद्धांत जैन तथा बौद्ध धर्ममें प्रायः एकसा पाया धारा निकलती रही है । यदि जैन और बौद्धधर्मने जो जाता है । परन्तु एकने अपने बाद के कालमें अहिंसाको कुछ किया यह खराब समझा जाने लायक है, तो प्रायः ईश्वरीय रूपमें अभिषिक्त किया और हम यह भी समझने इसी तरहका बहतसा काम मध्यकालीन भारतके सधारक लगे कि जैनधर्मकी अहिंसा अव्यवहार्य है तथा भार साधु संतोने भी किया है-सिक्खोके गुरुप्रोने किया, तवर्षका पतन इस अहिंसावृत्ति ही ने किया । दूसरे धर्ममें महाराष्ट्रके संतोंने किया और हमारे पास वाले युगमें अहिंसाका नाम लेते हुए भी प्रायः किसी भी प्राणीको अपि दयानन्दने भी किया है। हमने बहुतसी नाक भी मनुष्यका पेट भरने के लिए छोड़ा नहीं, तब भी आश्चर्य सिकोड़ी; किन्तु अन्तगं हमें कह देना पड़ा कि हे क्रांति है कि इस अहिंसाका पाठ पढ़ाने वाले किन्तु व्यवहारी कारी सुधारको ! तुम्हारे अप्रिय सत्यमें जो उपकार हिंसक धर्म के अनुयायी भारतवर्ष के बाहर चीन, जापान छिपा है वह भुलाया नहीं जा सकता और विरोधके कोलम्बो, रगून आदिमें करोड़ोकी संख्यामें अब भी पार्य कारण हम तुम्हें मिटा देना उचित नहीं समझते। वह जाते हैं, और शुरू.से आरवीरतक अहिंसाव्रतको पकड़े समय बहुत वर्षों पूर्व चुका है जबकि हमें इन क्रांति- चले आने वाले और अहिंसाकी वास्तविक वृत्तिमें उत्तकारी धर्मोसे बहुत समीपता प्राप्त कर लेनी चाहिये थी। रोत्तर सक्रिय वृद्धि करते जाने वालोंकी समाज संख्या जैनधर्म में हिन्दूधर्मकी तरह उनके खुदके २४ अवतार केवल ११ लाख रह गई है ! भारत के बाहर तो हमारे है, जो तीर्थकर कहे जाते हैं । बौद्धधर्म में भी गौतम दुर्भाग्यसे प्रायः है ही नहीं। हिंदूधर्मम धर्मके नामपर बुद्धके पूर्व २३ और बुद्धोका होना बतलाया जाता है। पीजाने वाली हिंसा या कर्मकाण्डी हिंसाको तथा भापद्
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धर्मकी हिंसाको बौद्ध तथा जैनधर्मोकी भांति पाप नहीं कहा गया है | पर जैनधर्म तथा बौद्ध धर्मकी कृपा से यह हिंसा भी बन्द होगई। जैनधर्मकी विरोधी हिंसा कर्मयोगकी हिंसा से मिलती जुलती है। देशकी विपत्तिको टालने की अथवा आक्रमणकारियोंसे रक्षण करनेकी यह हिंसा ग्रहस्थोंके लिये शास्त्रसम्मत है । फिरभी जैनधर्मियोने बहुत समयसे इसे प्रोत्साहन देना प्रायः बन्द कर दिया है
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बौद्ध तथा जैनधर्म पर एक सरसरी नज़र
हिंदूसमाजकी वर्णव्यवस्था न जैनधर्म में पाई जाती हैं और न बौद्धधर्ममं ही । जैन और बौद्धधर्मके नाते इन दोनों धर्मो में सामाजिक अधिकार समानता से प्राप्त होत रहे हैं । और जैन तथा बौद्ध समाजमें प्रवेश हिंदूधर्म के चारों वर्णों में से होता रहा है, किन्तु श्राज इस सम्बन्ध में अपराधी जैनसमाज ही पाया जाता है, जो उमी मर्ज़को स्वतः पुष्ट कर रहा है जिसकी दबाके रूपमें उसने यह अङ्ग हिन्दूसमाज के सामने विराट तथा सुन्दर रूप में अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीरके युग में पेश किया था। वैसे तो भगवान आदिनाथ के जन्मकाल में ब्राह्माणोंको छोड़कर शेष तीन वर्ण उपस्थित थे ही और उनके सुपुत्र सम्राट भरतचक्रवतीने ब्राह्मण्वर्गकी आव श्यकता होने पर उसे भी कायम किया था, किन्तु वर्ण शृङ्खला भी धीरे धीरे ढीली पड़ती गई, जिसके कारण आज जैनसमाज वैश्यसमाजका पर्याय होगया. यद्यपि जैन तीर्थंकर क्षत्रिय वर्णके थे तथा बुद्ध भगवान् भी क्षत्रिय वर्णके थे।
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आश्रम व्यवस्था मोटे रूपमें जैनधर्म मानता है भेद केवल इतना ही है कि वानप्रस्थ तथा सन्यास यहां सब वर्णोंके लिए खुला हुआ हैं जबकि हिन्दूसमाज में चतुर्थवर्णको वे प्राप्त नहीं ? बौद्धधर्ममें तो तृतीय आश्रम यानी वानप्रस्थकी कठोर तपस्या तथा यातना किसी भी
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बौद्ध के लिये नियत नहीं, किन्तु सन्यास में भी नग्नत्व द्वारा जैन समाजने जो उत्कृष्टता लादी वह बौद्धधर्म में नहीं ।
हिन्दू धर्म में आत्माका परमात्मा के अंग रूपमें जो अमरताका सिद्धान्त स्थापित किया गया है, वह जैनधर्मको उस तरह से मान्य नहीं, क्योंकि जैन धर्मने परमात्माको यानी किसीको विश्वकर्ताके रूपमें माना ही नहीं - बौद्ध धर्मकी भी प्रायः यही धारणा है। जैन - सिद्धांत में जड़ प्रकृति तथा चैतन्य आत्मा अनादिगे इसीतरह कर्मके चक्र में बँधे हुए चले आ रहे हैं । बौद्ध धर्म आत्माकी नित्य नहीं मानता | जैन धर्ममं कर्मको वस्तु रूपमें अर्थात् उस Matter रूप में जिसे वे पुद्गल कहते हैं, माना है। हालांकि हिन्दू धर्म में वैसा नहीं । कि तु इस कर्मको भी जैन धर्म अर्थात् सूक्ष्म माना है। कर्मकी विवेचना और उनका संग्रह तथा नाशका वर्गीकरण जैन धर्म में एक बड़ी सुन्दर वस्तु है ।
सनातन धर्म के ईश्वर के समीपवर्ती जैन धर्मके तीर्थकर हैं, जो आदर्श- गुणोंग मुसज्जित विशेष व्यक्ति कहे जाते हैं, और जिनतक पहुँचनेका प्रयास हर एक जैनीका परम कर्तव्य है । यही धारणा बौद्ध धर्मके महायानपंथकी है, जो भगवान बुद्धको प्रायः ईश्वर के स्थानपर विटलाता है । जैन तथा बौद्ध दोनों धर्म ब्राह्मणत्वकी विशेषताके हामी नहीं | जैनियोंके कुल तीर्थंकर क्षत्रिय वर्णके थे । भगवान् बुद्ध भी इसी वर्णके महापुरुष थे । वेदको जिसतरह हिन्दू धर्म में भगवान्का वाक्य माना जाता हैं, उसतरहसे जैन-धर्म उसे मानने को तैयार नहीं । उनके यहां यदि कोई अमर वाक्य हो सकते हैं, तो वे उनके तीर्थंकरोंकी अंतिम अवस्था में खिरनेवाली चाणी वाक्य हैं, जिसे जैन समाज में वही सम्मान है जो वेद-वाक्योंको हिन्दु धर्ममं है। हमारे ऋगु, यजु०,
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अथर्व०, तथा साम की तरह उनके प्रथमानुयोग, चरणा- तक हिन्दू-धर्मकी भी वही अवस्था है जो जैन धर्म की । नुयोग, करणानुयोग द्रव्यानुयोगके ग्रन्थों में वह वाणी इसका कारण है साहित्यिक अज्ञानता। जिसके निमित्त संकलित कही जाती है । मोक्ष तथा निर्वाणकी प्राप्ति कारण हैं बहुत दूरतक जैनी ही, जो अपने बहुतसे अमूल्य कर्मोका क्षय होजाने पर बौद्ध तथा जैन दोनों धर्म ग्रन्थों को अबतक भी समाजके सामने नहीं रख सके । मानते हैं । बुद्ध भगवान्ने चारित्र के सम्बन्धमें बहुत एक समय था जब पाश्चात्य विद्वान लेविज ( Leth ज़्यादा ज़ोर दिया है । जैन-धर्म सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, Bridge. ) तथा एलफिन्सटन ( Elpliinstone) सम्यक्चारित्र इन तीनोंपर एकसा ज़ोर देता है, जिसे जैसे विद्वान जैनधर्मको छटवीं शताब्दी में पैदा हुआ रत्नत्रय कहा जाता है। धर्म, बुद्ध तथा संघको यही स्थान बतलाते थे, विलसन (Wilson) लासेन (Lilssen) बौद्ध-धर्ममें प्राप्त है । हिन्दू-धर्ममें तो किसी एकके द्वारा वार्थ ( Burth ) वेवर ( Welhi ) आदिने तो जैनभी मोक्ष प्राप्त हो सकता है-चाहे वह केवल ज्ञान धर्मको बौद्ध धर्मकी शाखा ही बता दिया था। डा० बुहहो, चाहे केवल कर्म या केवल वैराग्य या केवल लर और हालही में स्वर्गस्थ होने वाले जर्मन विद्वान भक्ति हो ।
जैन-दर्शन-दिवाकर डाक्टर हरमन जैकोबीने कमसे हिन्दुओंके धर्मशास्त्र केवल संस्कृत भाषामें वा कम २३ वें तीर्थकर पार्श्वनाथ तक जैनियोंका ऐतिहा. बादको हिंदी में भी तैयार किये गये; किन्तु जैनधर्मके सिक काल स्वीकृत किया है । यदि हम खोज करते तो प्राचीन ग्रन्थ अर्धमागधी प्राकृत भाषामें और बादको हम भी उसी निष्कर्षको पहुँचते, पर हमारा दुर्भाग्य है संस्कृत तथा हिन्दी-भाषामें भी रचे गये, जैन तथा बौद्ध कि हम अपना महत्व पश्चिमकी रञ्जित अांखों द्वारा ही दोनों धर्मोका यह उद्देश्य था कि धार्मिक विचारोंका देखते हैं। उनके निष्कर्ष के बाद हम भी उनके पद चिन्हों प्रचार जनताकी बोलचालकी भापामें ही होना चाहिये पर चलनेको तैयार हो जाते हैं।
और इसलिये जैन-लेखकोंने प्राकृत तथा अन्य प्रान्तीय खेद है कि हम भारतवासियोंने भी यहाँके जन्म भाषाओंको साहित्यिक-दृष्टि से बहुत मूल्यवान बना दिया। लेनेव ले जैन और बौद्ध धर्मको अच्छी तरह समझनेका दक्षिण भारतकी तामिल,कनाड़ी आदि बहुत सी भाषाओंके यत्न नहीं किया और न हम पुरानी कुभावनाओं से भादि ग्रन्थ तो जैनाचार्योंके ही लिखे हुए हैं । बौद्धोंने अपनेको ऊपर ही उठा सके । हमने जहाँ क्षपणकको पाली भाषाको अपनाकर उसे ही उच्च-शखरपर पहुँचाया। देखा कि कुण्डलकी चोरी या ऐसा ही कोई और प्रणितभक्तिकालीन भारतमें तथा बाद के कालमें बना- कार्य उसके पीछे लगा दिया। हम तो "न पठेत् यामनी रसीदास आदि जैसे कवियोंने हिन्दी-साहित्यके प्रति भाषां प्राणैः कण्ठ गतैरपि, हस्तिना ताड्यमानोऽपि न बड़ा उपकार किया है। आजकलके तो प्रायः सभी गच्छेज्जैन मन्दिरम्' का पाठ लिये हुए अपने दृष्टि-कोणलेखक जैन तथा बौद्ध साहित्य हिन्दी-भाषामें लिख रहे को पहिलेसे ही दूपित किये हुए बैठे थे । यद्यपि हमारे है । जैनियोंके आजकल के हिसाबसे माने हुए इतिहास शास्त्रों में जैन और बौद्धोंसे बढ़कर चार्वाक आदि जैसे कालके पूर्वके महापुरुषों तथा उनकी कृतियोंको इतिहास घोर तथा वास्तविक नास्तिक पहलेसे ही थे, फिर यदि प्रबतक माननेको तैयार नहीं। इस संबन्ध में कुछ हद- जैन और बौदोंने भी इसी तरहसे कुछ अनर्गल अथवा
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चौद्ध तथा जैनधर्म पर एक सरसरी नज़र
अरुचिकर बातें हमारे धर्मके संबन्धमें लिखदीं तो क्या धर्मका भातृत्व उन छोटे छोटे जीवों तक फैला हुआ है,
आश्चर्य ? और इन्हीं सब झमेलोंमें पड़कर यदि पाश्चत्य जिनके अस्तित्वको भी नैतिक दृष्टिसे अन्य समाज मानने विद्वानोंने जैन तथा बौद्ध-धर्मका वास्तविक महत्व. को तैयार नहीं। नहीं समझा तो हम सब भारतवासियों ही के दुर्भाग्य से ! कोई आश्चर्यकी बात नहीं यदि जैन-धर्मसे दीक्षित
जिस तरहसे बौद्ध-धर्म महायान तथा हीनयान पंथों- नर श्रेष्ठोंने सदियों तक राज्य-संचालनकी बागडोर अपने में विभक्त होगया, उसी तरहमे उज्जैन के दुष्कालने भद्र- हाथोंमें थामी और सफलता पूर्वक राज्य-संचालन भी बाहु श्रुतकेवलीके समयमें जैन-धर्मको भी दो बड़ी किया, किन्तु संकल्पी हिंसाको अपने कार्यों में स्थान शाखाओंमें विभाजितकर दिया है .. एक दिगम्बर दूसरा नहीं दिया । भलेही विरोधी हिंसाके सबन्धमें राज्यकारण श्वेताम्बर, जो आपत् धर्मके रूप में वस्त्र धारण करने लगा। जहाँ बाध्य करता था, वहाँ आगा पीछा भी नहीं किया। जिस शांति तथा प्राणीमात्रकी एकताका पाठ पढ़ानेको आज बौद्ध-धर्म भले ही प्रचारका धर्म है, किन्तु जैनमहावीरने अन्तिम तीर्थकर के रूपमें जन्म लिया था, उमी धर्मने तो इस महान अंगको त्यागकर जैन-धर्मको पंगु सिद्धान्तकी अवहेलना कर बड़ी कटुताके साथ दोनों फिरके तथा एक दृष्टि से सीमित बनादिया है। बढ़ रहे हैं और लाखों रुपयोंका अपव्यय भी कर रहे बड़े आश्चर्यकी बात है कि जनता की भाषावाला हैं । देखें भगवान् इन्हें कर मुबुद्धि देता है । मोटा तथा जनताकी भावनाको प्रमुख रखनेवाला महान-धर्म अन्तर इनदो वर्गोमें इतना ही है कि श्वेताम्बर तीर्थ. एकतो भारत के बाहर ही होगया, व दूसरा भी अधिकांश करोंकी मूर्तियोंको वस्त्राभूपण पहिनाते हैं, जबकि दिग- जनताका धर्म न होसका ! बौद्ध धर्मकी आकर्षक आधार म्बर प्रतिमाओंको उनके असली रूपमें नग्न रग्बते हैं। शिला चारित्रपर थी, परन्तु जिस समय शंकराचार्य व दूसरे श्वेताम्बगम्नाय स्त्रीको मोक्ष-गामिनी भी मानता उनके पूर्ववती कुमारिलभट्ट तथा परवर्ती भाचार्योंका है दिगम्बर नहीं ! इसमें सन्देह नहीं कि जैनधर्मने स्त्री प्रहार हुआ, उस समय चारित्रकी आधारशिला भिक्ष. जातिकी दशा बहुत सुधारी है और उनके लिए. श्राविका तथा भिक्षणियों दोनों में भ्रष्टाचार में परिवर्तित हो तथा आर्यिकाके रूप में संघ सङ्गठित कर उन्हें धर्म-पालनः चुकी थी । जितनी मोहक मुखता बौद्ध-धर्मके "धुदका अच्छा अवसर दिया है।
धर्म" व "संघ" में थी, उतनी जैन-धर्मके सम्यग्दर्शन हिंसा रोकनेको मुखपर कपड़ा बांधने वाले तथा ज्ञान-चारित्रमें न थी । इसलिये बौद्ध-धर्म अधिक प्रचादन्तधावन न करने वाले दंदिया जैन-समाज में बहुत कम रित होते हुए भी स्थायी न रह सका । भगवान् बुद्धके हैं। उनके समाजको खराब व गलीज समझ बैठना अनिचिश्तबादने यद्यपि जनताको बौद्धिक दासतामें नहीं हमारी बड़ी गलती है। जैनधर्मके विश्वभातृत्व तथा रक्खा, किन्तु फिरभी सैद्धान्तिक निश्चयकी कमी एक अहिंसावादमें और अन्य धर्मोके सिद्धान्तोंमें यही अन्तर दोष समझा जाने लगा व हमला करनेवालोको दो है कि अन्य धर्मों में कहीं, कहीं आपत् धर्मके तौर पर दार्शनिकविचार-धाराओं के मिलान करने में बौद्धिक-धर्महिंसा स्वीकृत की गई है, किन्तु निरे उपयोगितावाद- का अधूरापन बतानेका अवसर मिला । इसे दूर करनेके की भित्ति पर जैन-धर्म हिंमाकी स्वीकृति नहीं देता। जैन लिए बड़ी-बड़ी सभाएँ कीगई, पर नतीजा माशाजनक
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भनेकान्त
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नहीं निकला । सदाचारकी अनुपस्थितिमें अनिश्चितवाद- तथा सुख दुखका कर्ता मान कर उनका में समाजके सामने कोई आधारशिला समाजकी पूजन भी शुरू कर दिया, परन्तु फिर भी हिन्दूव्यवस्थाको कायम रखने को नज़र नहीं आती थी। धर्म बाजी मार लेगया । छठी शताब्द। के महान पंडित राज्याश्रयों में दुर्बलताके कारण फिर सनातन धर्मी तथा 'प्रमागा-समुच्चय' के प्रणेता दिग्नाग-जैसे अपने प्राचीन जागृति सामने आगई।
पंथ पर दृढतामे कायम रहनेवाले महान् बौद्ध भी ईश्वर । हूग लोगोंने गुप्त राज्यको नष्ट भष्ट कर ही दिया कृष्ण द्वारा विहार जलाए जाने पर इस धर्मके अपकर्षथा, व अशान्ति फैल ही रही थी। हर्ष-वर्धन-जैसे में अधिक समय तक हाथ न लगा सके । सौत्रान्तिक. राजाने बौद्ध तथा हिन्दू दोनों धर्मोका मत्कार किया, शाखाके सम्पादक कुमारलब्धने भी माथा टेक दिया जबकि वह बौद्ध था । गुप्त राजाओंके ज़माने में हिन्दू- और अश्वघोपकी प्रतिभा भी प्रवाहको न बांध सकी। धर्मका पुनरुद्धार पहिले ही शुरू होगया था, जिस समा- तक्षशिला, नालन्दा, विक्रमशिला, ओदन्तपुरी और ध.यनता की तीन धारा तथा हिमाके प्रति घणा बौद्ध-धर्मने कुटी के महान विद्यालय भी काफी तादाद में इतने महान जाग्रत की थी, उसे सनातन धर्मने भी ग्रहणकर वैष्णव- पुरुष तैयार नहीं कर सके जो इस धर्मको जैसे तैसे १२ धर्ममें सम्मलित कर दिया। इसलिए हिन्दू धर्मको वैष्णव वीं शताब्दीसे आगे ले जाते, जबकि बख्तयार खिलजीशाखा सार्वजनिक धर्म के रूपमे समाज की समस्या हल ने विक्रमशिला व श्रीदन्तपुरीके महान पुस्तकागार तथा करनेको सामने आई।
विहार अग्नि समर्पित कर दिये ! राजगृह तथा वैशाली में ___ जिस बौद्ध-धर्मने नागार्जुन, गुणमति, चन्द्रपाल, बड़े बड़े उत्सव हुए, पर ये सारी बातें इस धर्मको भारतशानचन्द्र, प्रभामित्र, स्थिरमति धर्मपाल, शीलबुद्ध, जिन- वर्षमें सुरक्षित न रख सकी। प्रयास तथा क्रान्तिमें भी मित्र आदि जैसे विशेषज्ञांका नालन्दविश्व-विद्यालयमं मामनेकी समस्याका हल पधान था व जहां कुछ हद तक की संस्कृति में जन्म दिया और जिस विश्वविद्यालयने होगया वहां उस धर्मका महत्व भी गिर गया। जैनधर्म छटवां सदीमें शीलभद्र जैसे सौ वर्षमे भी अधिक भी उमी भएईको उठाकर खड़ा हुआ था जो कुछ जीवित रहने वाले अधिष्ठाताको जन्म दिया. जिम- ममयको भगवान बुद्धके भी हाथों में रहा। के हाथके नीचे १५०० अध्यापक और १०.... - जैनदर्शनमें वह अधूरापनका दोष नहीं लग सकता अधिक विद्यार्थी जो हर तरहसे निःशुल्क पढ़ते थे, तथा जो कि बौद्धदर्शनके सम्बन्धमें लगाया जाता था। जैनजिसके वर्षों चरणचुम्बनभं ह्म नत्मांग जैसे प्रसिद्ध चीनी यतियोंने शिक्षणका कार्य अपने जिम्मे ले समाजके परिव्राजकने अपना अहोभाग्य समझा और जिसने अपने अन्तस्तलके निकट पहुँचनका बड़ा प्रेमयुक्त प्रयत्न गुरु धर्मपाल के समक्ष ही मगध राज्यमें विख्यात् ऐतिहा- किया था, यहां तक कि उनका "ॐ नमः सिद्धम्" सिक विजय प्रात की, ऐसी महान आत्माके रहते हुए भी जैनेतर जैसा मालूम होने लगा था। राजस्थानमें इम भारतकी जनताके हृदय पर बौद्ध-धर्म भासन न धर्मके प्रचारका कारण था वैष्णवोंकी विचार विराटता. जमा सका।
का जैनधर्मसे समीकरण। जैनधर्मकी हिंसामं मनम्यन्यत. महायान पन्यनं भगवान बुद्धको अवतार वचस्यन्यत्का प्रश्न नहीं था। प्रचार के लिये जैनधर्मने
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बौद्ध तथा जैनधर्म पर एक सरसरी नज़र
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हिन्दी तथा अन्य प्रान्तीय भाषाओं को भी इकदम अपना लिया था तथा समय समय पर व्यवहार कुशलता भी प्रदर्शित की थी । श्रशीक - जैसे कलिंग विजयके बाद उन्होंने हथियार नहीं फेंक दिये। हिंसा के जंगली सिद्धान्त में जहां पवित्रता लाई जा सकती थी. वहां उन्होने पवित्रता भी प्रदान की ।
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कलाकौशल तथा स्थायी ऐतिहासिक सामग्री प्रदान करनेके संबन्ध में दोनों धर्मोका एकसा महत्व है । श्रवणबेलगोल, खजराहा, आबू सम्मेदशिखर आदि तथा एलोरा, श्रजंता, सांची, सारनाथ, तक्षशिला आदि में आज इन दोनोंके कीर्तिस्तम्भ इनके जीवित होने के प्रमाण दे रहे हैं । जैनधर्मका शाश्वत शान्तिका प्रयास तो उनके सप्तभंगीनय सापेक्षावाद, स्याद्वाद या electinity के सिद्धान्त में छुपा हुआ है । वाद-प्रवादादिके द्वारा भी युद्धको वे गुंजाइश देना नहीं चाहते । प्रायः हरएक मत के प्रति उनकी विचार-सहिष्णुता स्याद्वाद से झलकती है बौद्धमतने जिसतरहसे राज्याश्रय में विस्तार किया उसी तरह से जैन-धर्मने भी अपना प्रसार किया। अशोक श्रेणिक, बिम्बमार, हर्षवर्धन आदि जैसे बौद्ध तथा उज्जैन के चण्डप्रद्योतको हरानेवाले सिंधुमौवीरके अधिपति उदायन, कलिंगपर विजय करनेवाले तथा आदि तीर्थकरकी प्रतिमा लेप्रानेवाले मगधेश नन्दिवर्धन, राजनीति -कुशल कलिंगवीर खारवेल, जिन्होंने मगध से बदला चुकाया; बादामीके चालुक्य महाकवि रविकीर्ति के राज्याश्रयी पुलकेशी द्वितीय, मोलंकी नरेश कुमारपाल, वीर-प्रवर राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष, गंगवंशके वीर सेनानी चामुण्डराय, गुजरात के अधीश्वर बलवीर, वीरधवल के युद्धाध्यक्ष मन्त्री पगलबन्धु नेपाल तथा वस्तुपाल, जिन्होंने आबूके इतिहास
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प्रसिद्ध मन्दिर बनवाये और जिन्होंने अपने पथभूष्ठ राजाके काका को भी जैनयतिके अपमानपर उनकी अँगुली कटवाकर दण्डित किया, बीकानेर के राजमन्त्री भागचन्द बच्छावत जिन्होने राजा के दुराग्रहको सिर नहीं नवाया व युद्धकर वीरगति प्राप्त की, तथा श्रावस्ती के सुहृदयध्वज आदि जैसे जैन नराधिपों, युद्ध वीरों और सामन्तोंने इन धर्मोंको बहुत उपकृत किया है। और उत्कृशानयोगकी तैयारी में जिनसेन, गुणभद्र अकलङ्क नेमिचन्द्र, समन्तभद्राचार्य, हेमचन्द्राचार्य, कुन्दकुन्दाचार्य, सिद्धसेन दिवाकर, हरिभद्र, धनपाल अमित गत्याचार्य, ही विजयसूरि आदि जैसे विद्वान भी पीछे नहीं थे। इन जैन यतियोंकी भद्रता तथा सचाईको देख उस युगके चक्रवर्ती सम्राटको भी हिंसा बन्द करनी पड़ी । पशु-पक्षियों को भी जैनयतियोंकी कुटीर के पास अभयप्रदान किया गया। भारत- दिवाकर प्रातः स्मरणीय गणावंश के महाराणा राजसिंह ने भी अहिंसाक अपने कृत्यंसि अति किया । व दीरविजय के स्वागतको फतहपुर सीकरी में सम्राट अकबर ने बड़ी तैयारी की थी, पर उन्होंने मांगी केवल हिंसा ।
आजका जैनसमाज नित्यशः देवदर्शन, स्वाध्याय रात्रिभोजनत्याग तथा अहिंसा के अनुपालन आदि द्वारा धर्मकी प्राण-प्रतिष्ठा कर रहा है। पर इन सबसे बढ़कर विशाल परिग्रह सामिग्री से ओत-प्रोत मन्दिरों में उसका खर्च हो रहा है, जिनमें जैन समाजके ही नहीं, किन्तु प्राणी मात्रके उद्धारक वीतराग भगवान् ऋषभदेव, पार्श्वनाथ, महावीर आदि विराजे है । आज विशालकाय मन्दिरोंका निर्माण कराने वालोंके लिए अपने नामको अमर बनाने के प्रचुर-साधन प्राप्त है। इसलिए कीर्ति ध्वजा फहराने के लिए दूसरी संस्थाओं की खोज अधिक बाँछनीय है, जहाँ जैन तथा नैनेतर समाजकी भलाई
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अनेकान्त
निहित है । साहित्य प्रकाशन की ओर सम्पति-वैभवकी तूफानी लहरों पर तैरने वाले इस शान्त समाजका उतना लक्ष्य नहीं, जितने परिमाणमें सदुपयोग के लिए वीतराग भगवान्ने परिग्रहका स्वामी इन्हें बनाया है । दानकी सार्वा त्रिक विराटता भी उतनी जैन समाज में नज़र नहीं आती जितनी अपेक्षित है । धर्म प्रचार शैथिल्य को देखत हुए तो ऐसा मालूम पड़ता है कि जैनसमाजने प्रचार धर्म के नामसे जैनधर्मका पुकारा जाना गौरवकी बात नहीं समझी है या फिर श्रेणिक बिम्बसार के युवराज अभयकुमारकी पार
संसार की सम्पति केमी है जासू तू कहत सम्पदा हमारी सो तो. साधुनि ये डारी ऐसे जैसे नाक सिनकी ।
जासू तू कहत हम पुण्य जोग पाई सो तो, नरककी साई है बढ़ाई डेढ़ दिन की ॥ घेरा मोहि परयो तू विचारे सुख श्रखिन को, माँखिन के चूटत मिठाई जैसे मिनकी ।
ऐते पर होय न उदासी जगवासी जीव, जगमें असाता है न साता एक छिनकी ॥
कोल्हू के बेलकी दशा पाटी बांधी लोचनि सो सकुंचे दबोचनि सों. कोचनी सोचसों निवेदे खेल तनको ।
धाइवो ही धन्धा अरु कन्ध माहि लग्यो जांत, बार बार भारत है कायर है मनको || भूख सहे प्यास सहे दुर्जनको त्रास सहै, थिरता न गहे न उसास लहे छिनको ।
पराधीन घूमे जैसे कोल्हूको कमेरो बैल, तैसो ही स्वभाव भैया जग वासी जनको ॥
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सीक विजय तथा धर्म प्रचारको निरी गाथा समझ रखा है । निःसन्देह वीरोंकी इस जातिने आज अपनेको व्यापार वीर-वैश्य ही समझ रक्खा है, पर उसी वीरत्व में आशाशाहकी (आततायी बनवीर से उदयसिंह के रक्षणकी) ज्योति
नहीं, महाराणा प्रतापकी धर्म-टेक रखने में सहायक होने वाले भामाशाह के अपरिग्रह या परिग्रह परिभाषा व्रतकी शक्ति नहीं, क्या जैन समाज इन विशाल-आत्माओं के जीवन त्यागको उपेक्षणीय वस्तु ही मानता रहेगा ?
दुर्जनका मन
सरलको सुट कहै चकताको घीट कहै, बिन करे तासों कहे धनको अधीन है।
क्षमको निबल कहै दमीको अदत्ति कहे, मधुर वचन बोलं तासों कहँ दीन है ॥ धरमीको दंभी निसप्रेहीको गुमानी कहे. तृपा घटाये तासों कहे भाग्यहीन है ।
जहां साधु गुण देखे तिनकों लगावे दोप. ऐसो दुर्जनको हिरो मलीन है || सूक्तिमुक्तावली
ज्यों मतिहीन विवेक बिना नर साजि मतङ्गज ईंधन ढोवे ।
[ स्वर्गीय कविवर बनारसीदासजी ]
कञ्चन भाजन धूल भरे शठ, मृढ़ सुधारस सों पग धोवै ।
वाहित काग उड़ावन कारण. डार महा मणि मूरख रोवे ।
यह दुर्लभ देह बनारसि, पाय अजान अकारथ खोवें ।
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अदृष्ट शक्तियां और पुरुषार्थ
[ले० श्री. बाबू सूरजभानुजी बकील ]
मनुष्यों में सबसे अधिक पतित अवस्था इस समय भयंकर महामारी आती है वा दुष्काल आदि अन्य कोई
'अफरीकाके हब्शियोंकी है। कुछ दिन पहिले वे आपत्ति आपड़ती है तो ग्राम के लोग इकट्ठे होकर भैसे लोग नंगे रहते थे, घर बनाकर रहना नहीं जानते थे, न भाग आदि किसी बड़े पशुकी बलि देते हैं, चेचक आदि बीमाजलाकर भोजन बनाना ही उनको आता था । परन्तु अब रियोंको शान्त करनेके वास्ते मुर्गा, बकरीका बच्चा वा ईसाई पादरियोंके अथक परिश्रममे उनमें कुछ समझ-बूझ सूअरका बच्चा आदि भेंट चढाते हैं और प्रवे, लपसी, आती जाती है। पतितावस्थामें वे लोग बादलोंकी गरज खील-बताशे तो मामूली तौर पर छोटी-मोटी शक्तियोंको और बिजलीकी कड़कसे बहुत भयभीत होते थे और समझते भी चढ़ाते रहते हैं । सर्पकी पूजा की जाती है, गा-बजा ये कि कोई बलवती शक्ति हमारा नाश करनेको आरही कर खब स्तुति की जाती है और दूध पिलाया जाता है। है। इस कारण वे इन बादल और बिजली के आगे हाथ स्त्रिया बेचारी तो चूहों तकको पूजती है, हलवा बनाकर जोड़ते थे, मस्तक नवाते थे, और प्रार्थना करते थे कि उनके बिलोंमें रखती हैं और हाथ जोड़कर प्रार्थना हम तुम्हारी शरणागत हैं, हम पर क्षमा करो। वह सम- करती हैं कि हे मामा चूहों, हमारे घर की वस्तुएँ मत झते थे कि जिस प्रकार बलवान् पुरुप खुशामद करनेसे काटना।
और भेंट-पूजा देनेसे शान्त होजाते हैं, उसी प्रकारके अफरीका के इन बुद्धिहीनोंको चलते-फिरते हई-कहे विधानोंसे ये गरजते बादल और कड़कती हुई बिजलियाँ
मनुष्यके मरजानेका भी बड़ा अचम्भा होता है, वे नहीं भी शान्त हो जाएंगी। इसही कारण वे किसी कमज़ोर समझते कि यह क्या होगया है. इसही कारण हरते हैं मनुष्यको मारकर उनकी भेंट चढ़ाते थे, उनकी स्तुति कि कहीं वह शक्ति जो इस मृतक शरीर में से निकल गाते थे और गिड़गिड़ा कर प्रार्थना करते थे कि हम गई है और दिखाई नहीं देती, गुप्तरूपसे हमको कुछ तुम्हारे दास हैं हमको क्षमा करो। इसही प्रकार अांधी, हानि न पहुँचादे । इसकारण प्रतोंकी भी पूजा कीजाती पानी, अग्नि आदिसे भी डरकर भेंट चढ़ाते थे और पूजा- है। दिखाई न देने के कारण इन प्रतोंका भयतो इन प्रतिष्ठा किया करते थे । यही इनका धर्म था-इससे जङ्गली लोगोंके हृदय में बादल, बिजली आदि से भी अधिक वे और कुछ भी नहीं जानते थे।
अधिक बना रहता है-विशेषकर एकान्तमें, अँधेरे में ___ बलवती शक्तियोंका यह भय मनुष्य में बहुत कुछ इनसे डरते रहते हैं। कोई मरगया, तो किसी भूतने ही समझ-बूझ पाजाने पर भी बना रहता है; जैसा कि प्राचीन मार दिया, किसीको बीमारी होगई, तो किसी भूत प्रेतने कालमें जब मनुष्य जहाज़ चलाकर समुद्र पार आने ही करदी, कोई गिर पड़ा चोट लग गई वा अन्य कोई जाने लग गए थे, तब भी समुद्र को मनुष्यकी बलि देते उपद्रव होगया तो किसी भूत-प्रेतका ही कोप होगया ! थे, फिर होते-होते मनुष्यकी बलि देना गज-श्राशासे बंद इस प्रकार हरसमय ही उनका भय बना रहता है। होगया तब इन भयङ्कर शक्तियोंको पशु-पक्षियोंकी बलि दी उनके इस भारी भयके कारण ही उनमेंसे कुछ जाने लगी। जैसाकि यहां आर्यभूमिमें अब तक भी जब चालाक लोग इन मूखौंको यह विश्वास दिलाने लगजाते
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हैं कि हमने अनेक प्रकारकी सिद्धियोंके द्वारा अनेक भूत प्रेतोंको अपने वश में कर लिया है, जिससे हम जो चाहें वह वही करने को तैयार होजाते हैं। इन चालाक लोगोंके बकाये में आकर ये बुद्धिहीन मनुष्य अपनी प्रत्येक बीमारी, आपत्ति और अन्य सबही प्रकार के कष्टांके निवारण करनेके लिए इनही लोगों के पीछे-पीछे फिरने लग जाते हैं।
इन मन्दबुद्धि हशियोंका तो आश्चर्यही क्या है, जबकि इस आर्यभूमि पर भंगी, चमार, कहार, कुम्हार आदि श्रमजीवी लोगोंमें आज तक भी ऐसाही देखने में आता है। वे भी अपनी सबही बीमारियों और कष्टों को किसी अष्ट भूतका ही प्रकोप मानते हैं उन्हीं में से कुछ चालाक लोग ऐसे भी निकल आते हैं, जो भूत प्रेतों के इस प्रकोपको दूर करनेकी शक्ति रखनेका बहाना करने लग जाते हैं, इस कारण बेचारे भोले- लोग अपने प्रत्येक कष्टमें इन चालाक लोगोंकी ही शरण लेते I
गांव के इन गँवार लोगोंकी देखादेखी बड़े-बड़े सभ्य और प्रतिष्ठित घरानोंकी मूर्ख स्त्रियाँ भी अपने बच्चोंकी सर्व प्रकार की बीमारियों में इन्हीं मायाचारी भङ्गी चमारोंको बुलाती हैं, हाथ जोड़ती हैं, खुशामद करती हैं कि जिस प्रकार भी हो सके कृपा करके हमको वा हमारी बेटीबहूवा बच्चों को इन अदृष्ट भूत-प्रेतोंकी झपेट से बचाओ। इन मायाचारियों में से जो अति धूर्त होते हैं, वे तो यहांतक भी कहने लग जाते हैं कि हम अपने बस में किये भूतों के द्वारा चाहे जिसको जान से मरवादें वा और भी जो चाहे करा दें । इन धूर्तों का यह पराक्रम सुनकर मोहांध पुरुष उनके पीछे-पीछे फिरने लग जाते हैं, यहां तक कि बड़ेबड़े श्रेष्ठ और बुद्धिमान पुरुष भी अपने बलवान् चैरीका नाश करने के वास्ते इन्हीं का सहारा लेते हैं, वैरीको मारनेके वास्ते उस पर मूठ चलवाते हैं और अन्य भी अनेक प्रकारसे उनको हानि पहुँचानेका उपाय कराते हैं ।
इस प्रकार प्रतिष्ठित पुरुषोंके द्वारा इन भंगी, चमारोंको पुजता देखकर पढ़े लिखे विद्वानोंको भी लालच आता है, वे बीमारी आदिक सर्व प्रकारकी आपत्तियों का कारण भूत प्रेतोंके स्थान में सूरज शनि
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श्वर आदि क्रूर ग्रहों का प्रकोप बताकर सोना चांदी आदि देनेके द्वारा उनका प्रकोप दूर हो जानेका उपाय बताने लग जाते हैं, और धनवान लोग आई हुई श्रापत्ति दूर होने का यह सहज उपाय सुनकर तुरन्त ही उसे स्वीकार कर लेते हैं सोना चांदी आदि बहुमूल्य वस्तुएँ देकर इन क्रूर ग्रहोंकी दशाको टालनेका उपाय करने लग जाते हैं और यह नहीं सोचते हैं कि इस प्रकार धन दे डालनेसें क्या ये ग्रह अपनी चाल पलट देंगे ? जन्म कुण्डलीके जिस घर में स्थित होने से ये ग्रह हमारे वास्ते हानि कारक बताये जाते थे, उपाय करने से क्या अब वे उस घर से हट गये हैं ? यदि हट गये हैं तो क्या पिछली जन्म कुण्डली रद्द हो गई है और दूसरी शुभ ग्रहों वाली बनानी पड़ गई है ? नहीं ऐसा तो नहीं होता है । इसप्रकार के उपायों द्वारा न तो ग्रहों की चाल ही बदली जा सकती है और न इस बदली हुई नवीन चालकी कोई नवीन जन्म-पत्री ही बनती है, तब फिर इन उपायों द्वारा ग्रहोंका टलना क्यों मानते हैं ? इसका कोई भी उत्तर नहीं मिलता है !
इस प्रकार संसार में अफरीका के जंगली लोगों के समान अव्वल २ तो हानिकारक देवी देवताओं और भूत प्रेतों आदि की मान्यता शुरू होती है, जो लोगों के बहुत कुछ सभ्य हो जाने पर भी बनी रहती है, फिर उन्नति करते करते जब मनुष्य घर बनाकर रहने लगता हैं, खेती बाड़ी करता है, बैज डंगर रखता है, विवाह के बन्धन में पड़कर कौटुम्बिक जीवन बिताने लग जाता है, वस्तु संग्रह करता है और जब उसकी ज़रूरतें तथा कामनायें भी बहुत कुछ बढ़ जाती हैं, तब वह अपनी प्रबल इच्छाओं के वश होकर आधी पानी आग बिजली श्रादिक भयानक शक्तियों को भेंट चढ़ा कर केवल यह ही प्रार्थना नहीं करता हैं कि हमको विध्वंस मत करना, किसी प्रकारकी हानि मत पहुँचाना, किन्तु उनसे अपनी इच्छाओं और मनोकामनाओं की पूर्ति की भी प्रार्थना करने लग जाता है, जिससे होते होते ये शक्तियां सर्व प्रकार के कारज साधने वाली भी मानी जाने लगती हैं । यह दशा स्पष्ट रूपसे हमको वेदों के
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अदृष्ट शक्तियां और पुरुषार्थ
गीतों में मिलती है । उस समय आर्य लोग बादल, बिजली, आग, पानी आदि प्राकृतिक शक्तियोंको देवता मान कर अपनी इच्छा पूर्ति के लिये उनसे प्रार्थना रूप जो गीत गाया करते थे उनका संग्रह होकर ही ये चार वेद बन गये हैं । इन गीतोंके द्वारा इन्द्र, अग्नि, वायु, जल और सूर्य आदिकसे यह प्रार्थना की गई है कि लड़ाई में तुम हमारी विजय कराओ, हमारे वैरियोंका नाश करो, उनकी टांग तोड़ो और गर्दन मरोड़ो, उनकी बस्तियाँ बर्बाद करो, हमको सुख सम्पति दो, समृद्धिशाली करो, सन्तान दो, बल दो, पराक्रम दो और धन्यधान्य दो | इन देवताओंको प्रसन्न करनेके वास्ते वे भेड़, बकरी आदि पशु अग्नि में भस्म करते थे और पूर्व तथा भुना अन्न भी चढ़ाते थे ।
कुछ समय पीछे अधिकाधिक बुद्धिका विकास होने पर इनका यह भी विचार होने लगा कि धरती, आकाश, सूरज, चान्द, हवा, पानी आदि सब ही वस्तुओं का कोई एक नियन्ता भी ज़रूर है, जो इन सबको नियम रूपसे चला रहा है। इस प्रकार अब उनमें सर्व शक्तिमान एक ईश्वर के मानने की भी प्रथा शुरू हुई, साथही स्तुति करने और भेंट चढ़ाने से ख़ुश होकर वह भी हमारे कार्य सिद्ध कर देता है यह मान्यता बराबर जारी रही । फिर होते होते जीवका भी ख्याल आया कि यह देहसे भिन्न कोई नित्य पदार्थ हैं, ज्ञानवान होने से ईश्वरका ही कोई अंश है, जो इच्छा, द्वेष आदि मोह माया में फँसकर संसारके दुख-भोग रहा है। इसके बाद कालक्रमसे यह भी माना जाने लगा कि मनुष्य, कुत्ता, बिल्ली, कीड़ा, मकौड़ा, चील, कबूतर आदि सबही पर्यायों में यह जीव अपने कर्मानुसार भूमण करता फिरता है, ईश्वर सर्व शक्तिमान और सर्वज्ञान सम्पन्न होनेके कारण जीवोंके कर्मोंका न्याय करता रहता है, बिल्ली, कुत्ता आदि बनाता रहता है, और सुख तथा दुख देता रहता है, वह न्यायवान है, सबके कर्मोंको जानने वाला है, इस कारण जो जैसा करता है, उसको वैसाही फल देता है । यह सब कुछ हुआ, परन्तु यह मान्यता फिर भी उसही जोर शोर के साथ
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कायम रही कि अपनी स्तुति और बड़ाईको सुनकर अपनी पूजा-प्रतिष्ठा से अपनी मान मर्यादा पूरी हुई देख कर वह न्यायकारी ईश्वर हमारे सग्रही कष्ट दूर कर देता है, हमारी मनोकामनायें भी सब पूरी कर देता है। इसीसे "मेरे अवगुण मत न चितारो नाथ ! मुझे अपना जान उबारो" जैसी प्रार्थनाएँ बराबर चली आती है। फल इसका यह होता है कि संसार के मोही जीव पाप कर्मोंसे बचना इतना ज़रूरी नहीं समझते हैं, जितना कि शक्तिशाली ईश्वरकी भक्ति, स्तुति और पूजाके द्वारा उसको ख़ुश रखना ज़रूरी समझते हैं ।
मोहक कैसी बड़ी विचित्र महिमा है कि सर्वश, सर्व शक्तिमान् और पूर्ण न्यायकारी एक ईश्वरको कर्मोंका फल देनेवाला मानते हुए भी मनुष्योंके मोहवश ऐसी २ अद्भुत मान्यतायें भी इस हिंदुस्तान में प्रचलित होजाती हैं कि गङ्गास्नान करते ही जन्म-जन्मके सब पाप नष्ट हो जाते हैं ! कौनसा मूर्ख है जो ऐसे सस्ते सौदेको स्वीकार न करे। नतीजा इसका यह होता है कि बड़े-बड़े कहाज्ञानी, साधु-संन्यासी, अनेक पन्थों और सम्प्रदायोंके यांगी, बड़े-बड़े विद्वान और तार्किक, राजा और धनवान्, स्त्री और पुरुष, पापी और धर्मात्म, सभी प्रांय मीचकर गङ्गामें गोता लगाने को दौड़े आते हैं. गंगाके पडोंकी द्रव्य चढ़ाते हैं, और कृतार्थ होकर ख़ुशी ख़ुशी घर जाते हैं । समझ लेते हैं, कि पिछले पाप तो निबटे आगेको जय अधिक पाप संचय होजाएँगे तब फिर एक गोता लगा आएँगे ।
इसमें भी आसान तरकीब मन्त्रोंकी है। किसी के सिर में दर्द होगया, वर आगया, आंख वा दाड़ दुखने लगी, पीलिया होगया, जिगर बढ़ गया, तिल्ली होगई, दूध पीते बच्चेने माताकी छाती में चोट मारदी, गरज़ चाहे किसी भी कारण से कोई भी रोग शरीर में होगया हो, उसकी चिकित्सा किसी वैद्यसे करानी निरर्थक है, शरीरकी बिगड़ी हुई प्रकृतिको श्रपधियों के द्वारा ठीक करना व्यर्थ है-म किसी मन्त्रवादीके पास चले जाइये, उसके कुछ शब्द उच्चारण करतेही सब रोग दूर होजायगा ! सांप ने काट लिया हो, बिच्छू भिड़ ततैया दिने डक
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मारा हो, बावले कुत्तेने काटा हो, किसी पुरुषका व्याह न होता हो, स्त्री सन्तान न होती हो, होकर मरजाती हो, बेटा न होता हो, बेटियाँ ही बेटियां होती हो, अति कष्ट रहता हो, कोई पुरुष किसी स्त्री पर आशिक़ होगया हो और वह न मिलती हो, कोई झूठा मुक़दमा जीतना हो, किसीका किसीसे मनमुटाव कराना हो, किसीको जानसे मरवाना हो, किसीकी धनसम्पत्ति प्राप्त करनी हो, ये सब कार्य मन्त्रवादीके द्वारा सहजद्दीमें सम्पन्न होसकते हैं ! जो कार्य सर्वशक्तिमान परमेश्वर की बरसों पूजा-भक्ति करने से सिद्ध नहीं हो सकता वह मन्त्रवादीके ज़रा ओठ हिलानेसे पूर्ण होसकता है ! परन्तु दूसरोंका ही, खुद मन्त्रवादीका नहीं, यह भी मन्त्रका एक नियम है !!
मन्त्रके बीजाक्षर बड़े-बड़े ब्रह्मज्ञानियोंने अपने आत्मबल से जाने हैं; तभीतो इनमें इतना बल है कि चलते दरियाको रोक दें, गगनभेदी पहाड़को भी इधर से उधर करदें, सूरजकी चालको बदलदें और पृथ्वीको उलटकर धरदें, जलती आगको ठण्डी करदें, बजती बीनको बन्द कर दें, चलती हवाको रोकदें, जब चाहें पानी बरसादें और बरसते पानीको रोकदें, प्रकृतिका स्वभाव, सृष्टिका नियम, ईश्वरकी शक्ति मन्त्रबल के सामने कुछ भी हस्ती नहीं रखती है !. किसी धनवानको ऐसी व्याधि लगी हो कि जीवनकी आशा न रही हो, तो अनेक पडित ऐसा मन्त्र जपने बैठ जाएँगे कि मृत्यु पास भी न फटकने पाए, कोई ऐसा बैरी चढ़कर आवे, जो सेनासे परास्त नहीं किया जासकता हो तो, मन्त्रवादी उसको अपने बलसे दूर भगा देंगे ! ऐसी ऐसी अद्भुत शक्तियाँ मन्त्रोंकी गाई जाती हैं।
ग़ज़नीका एक छोटा-सा राजा महमूद हिन्दुस्तान जैसे महाविशाल देशपर चढ़कर आता है। आवे, एक महमूद क्या यदि हज़ार महमूद भी चढ़कर आएँ तो मन्त्रकी एक फूल कसे उड़ा दिये जावेंगे ! फल इसका यह होता है कि बहुत थोड़ीसी सेना के साथ एक ही महमूद सारे हिन्दुस्तान में मन्दिरोंको तोड़ता और मूर्तियों को फोड़ता हुआ फिर जाता है, कोई चंतक भी नहीं कर पाता है, राजा महाराजाओं, बड़े-बड़े धनवानों विद्वानों
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और मन्त्रवादियोंकी हज़ारों स्त्रियोंको पकड़कर लेजाता है, जो काबुल में जाकर दो-दो रुपयेको बिकती हैं ! हिंदुस्तानका मन्त्रबल यह सब तमाशा देखताही रह जाता है ! इस प्रकार महमूद १७ बार हिन्दुस्तान आया और बेखटके इसी प्रकार के उपद्रव करता हुआ हँसताखेलता वापस जाता रहा ! यह सब कुछ हुआ, परन्तु मन्त्रोंके द्वारा कार्य सिद्ध करानेका प्रचार ज्योंका त्यों चना ही रहा ! महमूद पर मन्त्र नहीं चला, क्योंकि वह राजा था, राजा पर मन्त्र नहीं चलता है, बस इतना-सा कोई भी उत्तर काफ़ी है !!
संसार के नियमानुसार काम करने में तो बहुत भारी पुरुषार्थ करना पड़ता है – किसान ज्येष्ठ आपकी धूपमें दिनभर हल जोतता है, फिर बीज बोता है, नौराई करता है, पानी देता है, बाढ़ लगाता है, रातों जागजागकर रखवाली करता है, खेत काटता है, गाहता है. उड़ाता है, तब कहीं छः महीने पीछे कुछ अनाज प्राप्त होता है अतिवृष्टि होगई, ओला काकड़ा पड़ गया, टिड्डीदलने खेत खालिया तो सालभर की मेहनत यों हीं बर्बाद गई । परन्तु मन्त्रके द्वारा कार्यकी सिद्धि कराने में तो मन्त्रवादीकी थोड़ी-सी सेवा करनेके सिवाय और कुछ भी नहीं करना पड़ता है, इस कारण पुरुषार्थ करनेमें कौन जान खपावे ? अकर्मण्य होकर आराम के साथ क्यों न जीवन बितायें ? फल इस अकर्मण्यताका यह हुआ कि वह भारत जो दुनिया भरका सरताज गिना जाता था, काबुल जैसे छोटेसे राज्यका गुलाम बन गया ! बेखटके मुसलमानोंका राज्य होगया, मन्दिर तोड़ २ कर मस्जिदें बननी शुरू होगई, गौ माताकी हत्या होने लगी नित्य कई लाख जनेऊ टूटने लगे और मुसलमान बनाये जाने लगे ! राज्य गया, मान गया और इसीके साथ धर्म गया और ईमान गया, सब कुछ गया, परन्तु नहीं गया तो मन्त्रशक्ति पर विश्वास नहीं गया ।
अकर्मण्यका चाहे सब कुछ जाता रहे, परन्तु उससे पुरुषार्थ कदाचित भी नहीं होसकता है । इस वास्ते अब बेचारे हिन्दुस्तानियोंने मुसलमानोंका सहारा लेना शुरू कर दिया है, वे अपना कलमा पढ़कर हमारे बच्चों पर
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फंक मार देंगे तो हमारा बच्चा जीता रहेगा, वह कोई ये मन्त्र क्यों नहीं मालूम हुए । परमपिता परमेश्वरने तावीज़ ( यन्त्र ) लिखकर देदेंगे तो उसको बांधनेसे ये मन्त्र बड़े-बड़े ब्रह्म-ज्ञानियोंसे क्यों छिपाये रक्खे और कोई बीमारी नहीं आएगी, उनके मन्त्रोंसे सर्व प्रकारकी इन अधर्मियोंको क्यों बता दिये ?
मारी दूर होजाएगी, पुत्रहीनोंको पुत्रकी प्राप्ति होजा- इन बातोंको विचारे कौन ? विचार होता तो प्रकएगी, अविवाहितोंका विवाह होजाएगा, झूठे मुकदमे मण्य ही क्यों होते, और क्यों इस प्रकार भटकते फिरते। फतह होजाएँगे, खेतमें खूब पैदावार होगी, आजीविका प्रकृतिकी रीति के अनुसार सीधा पुरुषार्थ करते और लग जाएगी, अन्य भी सब ही कार्योंकी सिद्धि होजाएगी, सबके सरताज बने बैठे रहते। साप बिच्छू-भिड़ ततय्या आदि जानवराका ज़हर उता- इनको इस प्रकार विचार शून्य देखकर और यह रनके वास्तेभी अब इन दुनियाँ --विजयी मुसलमानोक बात जानकर कि न ज्ञानियोंके जाने हुए देव भाषाके पासही जाना चाहिये, पण्डितोंके मन्त्र तो अब फीक मन्त्रों के स्थानमें मुसलमानों के अरबी भाषाके मन्त्रों पर पड़ गये हैं, इन शक्तिशाली मुसलमानोंकी जीती जाग
भी वैसा ही बल्कि उससे भी ज्यादा विश्वास हमार हिन्दू ती जोत है, इस कारण अब तो इनहींसे कारज सिद्ध
भाइयोंका होगया है, ग्रामके कुछ चालाक लोगोंने कराना उचित होगा । बस इतना विश्वास होने पर
__अपनी गँवारू भापामें भी मन्त्र पढ़ने शुरू कर दिये और मस्जिद में अज़ान देने वाला कोई गरीव अनपढ़ मुल्ला,
जब गांव के भोले लोगोंको उन गँवारू मन्त्रोंका विश्वास भीख मांगता फिरता हुमा कोई ग़रीब मुसलमान भी
होगया तो शहरोके बड़े-बड़े लोगों तकमें भी उनकी धाक पुजने लग जाता है, इन्हींके द्वारा अकर्मण्य और पुरु
र पुरु- बैठ गई । इन गँवारू भाषाके मन्त्री द्वाराभी दुनिया के पार्थहीन हिन्दुओंके सब कामोंकी सिद्धि होने लगता है !! सब काम सिद्ध होने लग गये। बल्कि इन मन्त्रीमें तो यहां
क्योंजी हिन्दू भाइयो ! तुम्हारे पण्डितो, पुजारियों तक बल आगया कि यदि किसीको कोई सांप काट ले और सन्यासियोंके जो मन्त्र थे, वे तो बड़े बड़े ब्रह्मज्ञा- तो मन्त्रबादी अपना गवारू मन्त्र पढ़कर बांसका एक नियोंको उनकी भारी भारी दुद्धर तपस्याके पश्चात् तिनका फंक देगा और वह तिनका उस सांपको पकड़ उनके आत्म-बल के द्वारा ही ज्ञात हुए थे, उन मन्त्रीम लावेगा और वह साप अपने मुँहसे उस मनुष्य के शरीर ईश्वरकी शक्ति विद्यमान थी, मन्त्रोंके बीजाक्षरों में ही में से जहर चम लेगा। सबही लोग गंवारू मन्त्रोंकी इस ईश्वरने अपनी सारी शक्तिको स्थापन कर रखा था। अद्भुत शक्ति पर विश्वास रखते हैं । परन्तु क्या किसीने जिनका उच्चारण होतेही कुछसे कुछ हो जाता है, मन्त्रों- ऐमा होते देखा है ? देखा नहीं तो ऐसोसे मना जरूर के उच्चारण करने में यदि एक छोटीसी मात्राका भी हेर है जिहोंने मन्त्र शक्तिका यह अद्भुत दृश्य अपनी फेर होजाय तो ग़ज़ब ही होजाय । इस कारण उच्च-जाति- आंखोंमे देखा है ? अच्छातो चलो ढुंढकर किसी ऐसे के बड़े-बड़े विद्वान ही इन मन्त्रीको साधत थे, बड़ी भारी आदमी से मिलें, जिसने अपनी प्रांखों यह अद्भुत दृश्य शुद्धि और पवित्रताई रखते थे, तबही यह मन्त्र उनको देखा हो, परन्तु हिन्दुस्तान भरमें फिर जाइये ऐसा कोई सिद्ध होते थे और उनके पास टिकते थे, परन्तु इन मुमल- न मिलेगा जिसने यह अचम्भा अपनी आंखों देखा हो । मानोंको तो तुम धर्मसे परान्मुख और ऐसे अशुद्ध अप हां ऐसे बहुत मिलेंगे जिन्होंने सुना है और सननेसे ही वित्र बतातेहो कि यदि ५० गज लम्बा भी फरश बिछा हो जिनको इस पर पूर्ण विश्वास है । हिन्दुस्तान में अनेक
और उसके एक कोने पर कोई मुसलमान बैठा हो तो, भाषा बोली जाती हैं-पञ्जाबी, हिंदुस्तानी, मारवाड़ी, उस फरसके दूसरे कोने पर बैठकर भी तुम पानी नहीं पूर्वी, बँगला उड़िया, गुजराती, मराठी, मदरासी पीसकते हो, तब ईश्वरीय शक्ति रखने वाले ये मन्त्र सबही प्रकारकी बोलियों में यह गँवारू मन्त्र बन इनके पास कहाँसे आगये और तुम्हारे ब्रह्म-ज्ञानियोंकी गये हैं । हिन्दुस्तानके विचारहीन लोगोंका
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अनेकान्स
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ऐसा सहज विश्वास देखकर भंगी, चमार आदि और ग लाम बने । साथही यह भी बतला देना चाहते महा पतित जातियों के चालाक लोगोंने भी अपनी टूटी- हैं कि बच्चोंकी बीमारी में योग्य डाक्टरोंसे औषधि कराने फूटी भापामें अनेक मन्त्र घड़ लिए और उन मन्त्रोंके वाले अंग्रेज़ोंके हज़ार बच्चोंमें से चालीस मरते हैं और द्वारा अपनी आतिके मूर्ख लोगोंके कारज सिद्ध करने ब्रह्मज्ञानियोंके बीज मन्त्रों, मुसलमानोंके गडे ताबीज़ों, शुरू करदिये ! जब इन मूर्ख लोगोंके द्वारा ऊँची जाति- अनपढ़ गँवारोके मन्त्रों और भङ्गी चमारोंकी झाड़-फूक की मूर्ख स्त्रियोंको भी भङ्गी चामारोंके मन्त्रोंका बल का सहारा लेने वाले हिन्दुस्तानियोंके हज़ार में से चारसौ सुनाई दिया तो वे भी अपने बच्चोंकी बीमारी आदिमें बच्चे मर जाते हैं। अब आपही विचार करलें कि मूढ़इन लोगोंको बुलाने लग गई । "फुरे-मन्त्र बाचा गुरूका- मति बनकर आप अपना संसार चला रहे हैं वा अमूढ़ बोल सांचा, फुरे नाफुरे तोलूना चमारीकं कुण्डम पड़े" दृष्टिहए विचारसे काम लेकर । इसही प्रकारके ऊट-पटाग कुछ गवारू बाल कहकर संसार में कोई भी अदृष्ट शक्ति किसीका बिगाड़ या कठिनस-काटन कार्योंकी सिद्ध होने लग गई। ये शक्ति- वार नहीं करती है. यहां तक कि यह सारा संसार भी शाली मन्त्र ऐसे महा नीच और अपवित्र पुरुपं के पास किमीके चलाये नहीं चल रहा है। न कोई इसका कैसे ठहर सकते हैं, ऐसे तर्क उठने पर यह विश्वास
बिगाइनेवाला है और न बनानेवाला है, जो भी कुछ
वाला और दिलाया जाने लगा कि यह कलि-काल है जिसमें पवित्र
होरहा है वह सब वस्तु स्वभाव के अनुसार ही होरहा है। मन्त्र तो ठहर ही नहीं सकते हैं, इस कारण अब तो अप
वस्तुएँ अनादि हैं और उनके स्वभाव भी अनादि हैं। वित्र मन्त्रही काम देंगे और उसही के पास रहेंगे जो
। आगका जो स्वभाव है वह अनादिसे है और अनन्त अपवित्र रहेगा-पाक रहने वाले के पास तो ये मन्त्र ..
.' तक रहेगा। इसही प्रकार प्रत्येक वस्तुका स्वभाव ठहर ही नहीं सकते हैं । जब विचार-शक्ति से काम ही न ।
अनादि अनन्त है। प्रत्येक वस्तु अपने-अपने स्वभावालेना हुआ तब इस बातका भी विश्वास क्यों न कर
नुसार काम करती है और नियमानुसार अपने समीपकी लिया जाय ?
वस्तु पर असर डालती है। इसहीसे अलटन-पलटन विश्वास भी कैसे न हो ! जब कठिनसे कठिन होता है और संसारका चक्र चलता है। संसार के सबही बीमारी या अन्य कोई कष्ट अथवा कठिनसे कठिन कार्य मनुष्य और सबही पशु-पक्षी बहुधा वस्तुओं के स्वभाव दो चार पैसे नकद या सेर माधसेर अनाज देनेसे इन का अटल होना जानते हैं, तबही तो बेखटके खाते बेचारे भनी चमारों के द्वारा सिद्ध होता हुआ नज़र आता पीते हैं और अन्य प्रकार बर्तते हैं। वस्तु स्वभावके है तो क्यों न करालिया जावे ? गृहस्थ लोग रात-दिन इस अटल द्धिा-तपर ही जीवोंका सारा संसार-कार्य अनेक प्रकारकी चिन्ताओं में फँसे रहते हैं, उनका काम चल रहा है-खेती बाड़ी होती है, खाना पीना बनता तर्क-वितर्क करनेसे नहीं चल सकता है, गृहस्थीका है, दवादारू की जाती है, सब प्रकारकी कारीगरी संसार तो अांख मीचकर सबही को मानने और सबही बनती है, विषय-भोग होते हैं, खेल तमाशे किये से सहायता लेते रहनेसे ही चल सकता है ! अच्छा भाई जाते हैं, और भी सबही प्रकारके व्यवहार चलते हैं। यदि महा-मूढ़ और अविचारी बननेसे ही तुम्हारा संसार यदि संसारकी वस्तुओंके स्वभावके अटल होनेका चलता है तो ऐसे ही चलाओ । परन्तु इतना कहे बिना विश्वास न होता तो किसी वस्तुके छनेका भी साहस न हम भी नहीं रह सकते हैं कि अपने शक्तिशाली मन्त्रों होता और न कोई किसी प्रकारका व्यवहार ही चल पर भरोसा रखने वाले तीस करोड़ हिन्दुस्तानी, पुरुषार्थ सकता था ।
और बाहु-बल पर भरोसा रखने वाले ३० लाख मुसल- ऐसी दशामें कर्ता-हर्ता आदि अदृष्ट शक्तियोंकी मानोंसे परास्त होगये । राजपाट खोया, धर्म कर्म खोया कल्पना करना और फिर उनको मनुष्योंके समान खुशा
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अदृष्ट शक्तियां और पुरुषार्थ
मद करने, बड़ाई गाने वा भेंट पूजासे खुश होकर चाहके चक्कर में पड़ जानेसे ही जीवको दुःख होता है, हमारी इच्छानुसार काम करनेवाला मानलेना मढता जितनी-जितनी विषय कपाएँ भड़कती हैं उतना-उतनाही नहीं तो और क्या है ? मनुष्यकी श्रेष्ठता तो उसकी जीवको तड़पाती हैं और जितनी-जितनी मन्द होती हैं बुद्धिसे ही है, नहीं तो उसमें और पशुमें अन्तर-ही उतनी-उतनीही जीव को शान्ति मिलती है। अतः क्या है ? बुद्धिबलसे ही यह छोटासा मनुष्प बड़े-बड़े विषय-कपाय ही जीवात्मा के विकार हैं, जिनके द्र होनेसे हाथियों को पकड़ लाकर उनपर सवारी करता है, महा ही इसको परम शान्ति मिल सकती है। इन विषय कषायों भयानक सिंहोंको पिंजरे में बन्द करता है, पहाड़ोंको के कम करने तथा सर्वथा दूर कर देने के साधनोंका नाम तोड़ता है, गंगा जमुना जैमी विशाल नदियों को बसमें ही धर्म है। करके नहरी द्वारा अपने खेतों तक वहा लेजाता है, जितने भी धर्म इस समय संसार में प्रचलित होरहे हैं भाग पानीको बसमें करके उसकी भापसे हज़ारों काम वे सब धर्म के इस सिद्धान्तको मानने वाले ज़रूर है, लम्बे चौड़े ममुद्रकी छातीपर करोड़ों मन बोझके भारी- परन्तु किसी एक ईश्वर वा अनेक देवी देवताओंकी जहाज़ चलाता है, इसही प्रकार धरतीपर रेल और खुद मुख्तारी कायम रखने के कारण जिस प्रकार वे सांसाआकाश में विमान उड़ाता फिरता है, महा भयानक रिक कार्योंकी सिद्धि के वास्ते उनकी खुशामद करना, कड़कती हुई बिजली को बसमें करके उसके द्वारा क्षण- बड़ाई गाना और भेंट चढ़ाना श्रादि ज़रूरी समझते भर में लाखों कास ख़बर पहुँचाता है, घर बैठा दूर-दूर हैं। जिसमें वह अदृश्य शक्ति प्रसन्न होकर उनका कार्य देशों के गाने सुनता है, अन्य भी अनेक प्रकार के चम- सिद्ध करदं उसी प्रकार प्रात्मशुद्धिके वास्ते भी यही त्कारी कार्य करता है । ये सब मनुष्यने किमी देवी- तीब बताते हैं। परन्तु जिस प्रकार खुशामद करने देवताको मानकर वा किसी मन्त्र बादीकी खुशामद और गिड़गिड़ान से संसारका कोई कार्य सिद्ध नहीं करके सिद्ध नहीं किये हैं, किन्तु अपने बुद्धिबलसे आग होता, जो कुछ होता है वह वस्तु स्वभावानुसार पुरुषार्थ पानी आदि वस्तुओंके स्वभावको पहचानकर ही सम्पन्न करनेमे ही होता है, उसी प्रकार अस्मिक उन्नति भी महज़ किये हैं।
खुशामदों और प्रार्थनासे नहीं हो सकता है, किन्त यह सब पुरुषार्थका ही .न है । अकर्मण्यको हिम्मत के माथ कापायोंके कम करनेसे ही होती है। यदि गिड़गिड़ाने और किसी देवी-देवता या ईश्वर के आगे हम खेतमं अनाज पैदा करना चाहें तो नि हाथ पसारकर भीख मांगनेसे कुछ नहीं मिलता है । अतः जोतना बोना यादि खेत के सबही पुरुषार्थ करने पड़ेंगे, जेन-धर्मकी सबसे पहली शिक्षा यही है कि अाख खोलो, घर बैठे किनी अदृष्ट शक्तिकी खुशामद करते रहनसे मनुष्य बनी, बुद्धिसे काम लो, वस्तुस्वभावको खोजी, तो अनाज पैदा नहीं होजायगा। यही हाल आत्मोन्नति उसहीके अनुसार चलो, स्वावलम्बी बनी, और पूरी का है, उसमें भी जो कुछ होगा अपने ही पुरुषार्थसे होगा। हिम्मत के साथ पुरुषार्थ करने में लगो, न किमीम कुछ हां, अात्मोन्नति का उत्साह हृदयमें लाने के वास्ते मांगों, न डरो, सबके साथ मिल जुल कर रहो, यही उन महान पुरुषोंकी बड़ाई ज़रूर गानी चाहिए, तुम्हारा मनुष्यत्व है, यही तुम्हारा गृहस्थ जीवन हैं। जिन्होंने महान् धर्य और साहस के साथ अपनी विषयइसही प्रकार आत्मिक उन्नति के वास्ते भी आत्माके असली कपायों पर विजय पाकर अपनी प्रात्माको शुद्ध किया स्वभावको जानो, उसमें जो विकार रहा है उसको है-सच्चिदानन्द पद प्राप्त कर लिया है-अथवा जो इस पहचानो और वह जिस तरह भी दूर हो सकता हो उम ही प्रकारकी महान् साधनामों में लगे हुए हैं। उनके कोशिश में लग जाओ। क्रोध, मान, माया, लोभ आदिक महान कृत्योंको याद कर करके हमको भी ऐसी महा कपायोंके वश में हो जानसे और इन्द्रियों के विषयोंकी साधनाश्रीक करने का हौसला, उत्साह, तथा साहस
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अनेकान्त
[ फाल्गुण, वीर-निर्वाण सं० २४६५
हो सकता है।
आक्रान्त, विषय-कषायोंसे व्याप्त और विवेक-बलसे जैनधर्मके तीर्थकर पुरुषार्थ पूर्वक महती साध- विहीन होता है, तब वह इसी तरह भटका करता है नाओं के द्वारा परमात्म-पदको प्राप्त करके संसारके भोले और इसी तरह उसका पतन हुआ करता है। विवेकके लोगोंको पुकार-पुकार कर कहते हैं कि किसीके भरोसे प्रभावमें वह पुरुषार्थको नहीं अपनाता, स्वावलम्बी मत रहो, न हम तुम्हारा कुछ कर सकते हैं न कोई बनना नहीं चाहता, इच्छाओंका दमन, विषय-कषायों दूसरे। तुम्हारा भला बुरा तो जो कुछ होगा वह सब तुम्हारे पर विजय तथा भय पर काबू नहीं कर सकता, और ही किये होगा, हौसला करो, हिम्मत बांधों और विषय इसलिये अकर्मण्य तथा परावलम्बी हा दर-दरकी कषायोंको कम करने में लग जाओ, न जल्दी करो न ठोकरें खाता फिरता है, दुःख उठाता है और उसे घबराओ, धैर्य के साथ पुरुषार्थ करते रहनेसे सब कुछ कभी शान्ति नहीं मिलती । विवेकको खोकर ही भारतहोजायगा, मगर होगा सब तुम्हारे ही कियेसे । इस कारण वासियोंकी यह सब दुरावस्था हुई है और वे पतित तथा एक मात्र अपने पुरुषार्थ पर ही भरोसा रक्खो और डटे पराधीन बने हैं ! अथवा यों कहिये कि अविवेकके रहो-कारज अवश्य सिद्ध होगा, पुरुषार्थ ही लोक-पर- साम्राज्यमें ही धूर्त चालाकोंकी बन आई है और
तथा परमार्थ दोनोंकी सिद्धि का मल-मन्त्र है. उन्होंने अनेक अस्तित्व-विहीन झूठे देवी-देवताओंकी वस्तु स्वभावके अनुसार काम करनेसे कार्य अवश्य सिद्ध सृष्टि, तरह-तरह के बनावटी मन्त्रों-यन्त्रोंकी योजना और होता है, बुद्धिबलसे काम लेकर वस्तु स्वभावको जानना उन सबमें तथा पुरातनसे चले आये देवी-देवताओं और तदनुसार काम करना ही पुरुषका कर्तव्य है; मूढ़ एवं समीचीन मन्त्रोंमें विचित्र-विचित्र शक्तियोंकी मति होनेसे सबही काम बिगड़ते हैं, पशुता आती है कल्पना करके उसके द्वारा अपने कुत्सित स्वार्थकी और पशुके समान खंटेसे बँधनेकी और दूसरोंका सिद्धिकी है और कपायोंकी पुष्टि की है-इस तरह स्वयं गुलाम बननेकी नौबत पाती है । यही जैन-धर्मकी पतित होते हुए देश तथा समाजका भी पतनके गड्ढे स्वावलम्बिी शिक्षा है।
में ढकेला है ! जनताके अविवेकका दुरुपयोग करने वाले ऐसे धूर्त तथा चालाक लोग प्रायः सभी समयों और सभी देशोंमें होते रहे हैं और उन्होंने मानव-समाजको खूब हानि पहुँचाई है। जब-जब जनतामें अविवेक बढ़ता है तब-तब ऐसे धूर्तीका प्राबल्य होता है
और जब अविवेक घटता जाता है तब ऐसे लोगोंकी इस लेख में लेखक महोदयने अनेकानेक अदृष्ट सत्ता भी स्वतः उठनी जाती है। अतः जनतामें विवेकशक्तियों-देवीदेवताओंकी निराधार कल्पना, उनकी के जाग्रत करनेकी खास जरूरत है; जो उसे जाग्रत निष्फल आराधना, मन्त्रोंकी विडम्बना और उन सबसे करते हैं वे ही मानव-समाजके सच्चे हितैषी और परमहोने वाली मनुष्यत्व तथा देशकी हानिका जो चित्र उपकारी हैं। खींचा है, वह प्रायः बड़ा ही सुन्दर, हृदयद्रावक और लेख के मात्र इतने आशय अथवा अभिप्रायसे ही शिक्षाप्रद है। इसमें सन्देह नहीं कि जब मनुष्य मिथ्या- मैं सहमत हूं, शेषके साथ मेरी सहमति नहीं है। त्वके वशीभूत, भयसे पीड़ित, नाना प्रकारकी इच्छाओंसे
-सम्पादक
सम्पादकीय नोट
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F
HESH
मूलाचार संग्रह ग्रन्थ है।
(ले०-श्री पं० परमानन्द जैन शास्त्री)
जैन-समाजमें 'मूलाचार' ग्रन्थ श्राचार्य कुन्दकुन्द- वह अभी तक मेरे देखनेमें नहीं आई। इनके सिवाय,
" के ग्रन्थों के समान ही श्रादरणीय है । इसमें दो हिन्दी भाषाकी टीकाएँ भी उपलब्ध हैं । इन सब आचारांग-कथित यतिधर्मका-मुनियों के प्राचार-विचार- टीकात्रोंके कारण जैनसमाजमें इस ग्रंथके पठन-पाठनका का-अच्छा वर्णन है । साथ ही, अन्य भी कुछ श्राव- खूब प्रचार है। मूलाचारके रचयिता श्री वट्टकेर कहे श्यक विषयोंका समावेश किया गया है । ग्रंथकी गाथा- जाते हैं। परन्तु वे कौन है, कब हुए है, किसके शिष्य थे संख्या १२४३ है और वह निम्नलिखित बारह अधि- और उनका क्या विशेष परिचय है ? इत्यादि बातोका कारोंमें विभाजित है
हमें कुछ भी पता नहीं है। कुछ लोगोंकी दृष्टिमें श्राचार्य १ मूलगुण, २ बृहत्पत्याख्यान संस्तर संम्तव, कुन्दकुन्द ही 'मूलाचार' के कर्ता हैं-ग्रंथकी कुछ ३ संक्षेपप्रत्याख्यान, ४ समाचार, ५ पंचाचार, ६ पिण्ड- प्रतियों में कुन्दकुन्दका नाम भी साथ में दर्ज है। शुद्धि, ७ पडावश्यक, ८ द्वादशानुप्रेक्षा, ६ अनगार- ग्रंथम कन्दकन्दाचार्यके ग्रंथोंकी बहुतसी गाथाको भावना, १० समयमार, ११ शीलगुण, १२ पर्यामि । देवकर पहले मेरा यह खयाल हो गया था कि हम
इस ग्रन्थ पर एक टीका तो बारहवीं शताब्दी के ) मूलाचारके कर्ता कुन्दकुन्द ही होने चाहिये, और उसी श्राचार्य वसुनन्दीकी बनाई हुई 'पाचाग्वृत्ति' नामकी को मैंने 'अनेकान्त' की तीसरी किरणमें प्रकाशित अपने मिलती है, जो माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला में प्रकाशिन भी एक लेग्य द्वारा प्रकट किया था। परन्तु अब मलानारका हो चुकी है; और दूसरी 'मूलाचारप्रदीपिका' नामकी दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों श्राानायके ग्रन्थों के साथ संस्कृत टीका सकलकीर्ति प्राचार्य कृत भी उपलब्ध है तुलनात्मक दृटिसे अध्ययन करने पर नतीजा कुछ दूमरा जो पर्वटीकासे कईमौ वर्ष बादकी बनी हुई है। परन्तु ही निकला । और उमसे यह निश्चय हो गया कि इसके
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अनेकान्त
[फाल्गुन, वीर-निर्वाण ०२४६५
कर्ता प्राचार्य कुन्दकुन्द नहीं है और न इसकी रचना कुछ पाठभेद या परिवर्तनादिके साथ संग्रह पाया जाता एक ग्रन्थके रूपमें हुई है। किन्तु यह भिन्न भिन्न १२ है उसका परिचय नीचे दिया जाता है । ऊपरकी सब प्रकरणोंका एक संग्रह ग्रंथ है, जिनमेंसे एकका दूसरे परिस्थिति और नीचे दिये हुए परिचय परसे विद्वान् प्रकरणके साथ कोई घनिष्ट सम्बन्ध मालूम नहीं होता- पाठकोंको यह भले प्रकार मालूम हो सकेगा कि मूलाचार अर्थात् एक प्रकरणके कथनका सिलसिला दूसरके साथ कोई स्वतन्त्र ग्रंथ न होकर एक संग्रह ग्रंथ है। इसी ठीक नहीं बैठता । ग्रन्थके शुरूमें ग्रंथके नामादिको लिये विज्ञापनाके लिए इस लेखका सारा प्रयत्न है:हुए कोई प्रतिज्ञा-वाक्य भी नहीं और न ग्रन्थके प्रकरणों इस ग्रंथके 'पर्याप्ति'नामक अन्तिम अधिकारमें गतिअथवा अधिकारोंका ही कोई निर्देश है-प्रत्येक प्रकरण आगतिका कुछ वर्णन 'सारसमय' नामक ग्रंथसे लेकर अपने अपने मंगलाचरण तथा कथनकी प्रतिज्ञाको लिये रक्खा गया है; जैसा कि उसकी गाथा नं. ११८४ के हुए है । इससे यह ग्रन्थ जुदे जुदे बारह प्रकरणोंका निम्न पूर्वार्धसे प्रकट हैएक संग्रह ग्रंथ जान पड़ता है । १२वाँ 'पर्याप्ति' नामका “एवं तु सारसमए भरिणदा दु गदीगदी मए किंचि ।" अधिकार तो श्राचारशास्त्रके साथ कोई खास सम्बन्ध इस गाथाकी व्याख्या करते हुए श्रीवसुनन्दी भी नहीं रखता, और इस लिये वह इन प्रकरणोंकी श्राचार्यने लिखा हैनिर्माण-विभिन्नता और संग्रहत्वको और भी अधिकताके "एवं तु अनेन प्रकारेण 'सारसमये' व्याख्यामाथ सूचित करता है । परन्तु यह नहीं कहा जा सकता प्रज्ञप्त्या सिद्धान्ते तस्माद्वा भणिते गत्यागती गतिश्च कि इन सब प्रकरणोंका निर्माण किमी एक विद्वान्के भणिता आगतिश्च भणिता मया किंचित् स्तोकरूपेण। द्वारा हुश्रा है । हाँ, इतना हो सकता है कि किसी एक सारसमयादुद्धृत्य गत्यागतिस्वरूपं स्तोकं मया विद्वान के द्वारा इनका संग्रह तथा इनमें संशोधन-परि- प्रतिपादितमित्यर्थः।" वर्धनादि होकर 'मलाचार' नाम दिया गया हो । कुछ इसी संस्कृत टीकाका अाश्रय लेकर भ.पा-टीकाकार भी हो. ग्रंथ में प्रायः प्राचीन श्राचार्यों के वाक्योंका ही पं० जयचन्दनीने भी लिखा है कि-"इस प्रकार व्याख्या मंकलन किया गया है और वह संकलन शिवार्य विरचित प्राप्ति नामके सिद्धान्त ग्रंथ मेंसे लेकर मैंने कुछ गति'भगवती श्राराधना' के बादका जान पड़ता है; क्योंकि प्रागतिका स्वरूप कहा ।" समय की सबसे अधिक गाथाग्रीको मूलाचारमें अप. प्राचार्य वसुनन्दीने 'सारसमय'का अर्थ जो व्याख्यानाया गया है।
प्रजति नामका सिद्धान्त ग्रंथ किया है वह किस श्राधार __ श्रीकुन्दकुन्दाचार्य के ग्रंथोंसे जिन गाथानों तथा पर किया है, यह कुछ मालूम नहीं होता । मूल ग्रंथके माधा-याक्योंका इस ग्रंथम संग्रह किया गया है उसका उस उल्लेख परसे तो ग्रंथका नाम 'सारगमय' ही जान कुछ दिग्दर्शन, मैं अपने पिछले लेखमें-क्या कुन्दकुन्द पड़ता है, जो कोई प्राचीन ग्रंथ होना चाहिये । ही मूलाचारके कर्ता हैं !' इम शीर्षक के नीचे-करा श्वेताम्बर समाज में 'भगवती सूत्र' को व्याख्याप्रज्ञप्ति नका ई । कुन्दकुन्द के ग्रंथोंसे भिन्न जिन दूसरे ग्रंथों नामका पाँचवां अंग माना जाता है । उसका अवलोकन अथवा दूसरे प्राचार्य वाक्योंका इसमें ज्योंका त्यों तथा करनेसे मालूम हुआ कि उसमें संक्षिप्तरूपसे गति आगतिका
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' वर्ष २ किरण ५
मूलाचार संग्रह ग्रंथ है
• कुछ वर्णन ज़रूर है; परन्तु वह मूलाचारके वर्णनसे भिन्न इस परसे यह अनुमान होता है कि या तो प्राचार्य
जान पड़ता है । हो सकता है कि व्याख्याप्रज्ञप्ति नामका अमृतचन्द्र के सामने मूलाचारका उक्त प्रकरण था और कोई दूसरा ही ग्रंथ दिगम्बर सम्प्रदायमें उस समय मौजूद या उक्त प्रकरणा के रचयिताके सामने तत्त्वार्थसार मौजूद हो और उस परसे उक्त कथनको ज्यों का त्यों देखकर था-एकने दुतरेकी कृतिको अपने ग्रंथमें अनुवादित हो 'सारसमय' का दूसरा नाम व्याख्याप्रज्ञप्ति लिख दिया किया है । संभव है 'सारसमय' का अभिप्राय तत्वार्थमारहो अथवा सारसमयका दूसरा नाम ही व्याख्याप्रज्ञप्ति हो । से ही हो, और यह भी संभव है कि 'सारसमय' नामका कुछ भी हो, मूल ग्रंथके देवं बिना निश्चितरूपसे कुछ कोई दूसरा ही प्राचीन ग्रंथ हो और उसी परसे दोनों ग्रंथभी नहीं कहा जा सकता । ऐसे ग्रंथकी तलाश होनी कारांने उसे अपने अपने ग्रंथमें अपनाया हो। ये सब चाहिये।
बातें विद्वानांके लिये विचार किये जाने के योग्य हैं। यहां पर मैं इतना और भी प्रकट कर देना चाहता मूलाचार के पटावश्यक अधिकार में, छहों श्रावहूँ कि मूलाचारका उक्त गति श्रागति-विषयक कथन श्यकोंकी नियुक्तियोंका वर्णन है । श्वेताम्बर सम्प्रदायम अमृतचन्द्र श्राचार्य के 'तत्त्वार्थसार' में अर्थतः ज्योंका कुछ ग्रन्थों पर जो नियुक्तियाँ पाई जाती है वे यद्यपि त्यों पाया जाता है, सिर्फ मूलाचारकी ११६२ और भद्रबाहु स्वामीकी बनाई हुई कही जाती हैं और प्राचीन ११८४ नं ० की दो गाथाओंका कथन नहीं मिलता, जो भी जान पड़ती हैं परन्तु उनका संकलन श्वेताम्बराचार्य प्रतिज्ञा-वाक्य और उपसंहारकी सूचक हैं और संग्रहकर्ता- देवर्द्धिगणिके समय में हुअा है, जो वीर निर्वाण संवत् के द्वारा स्वयं रची गई जान पड़ती हैं । तुलनाके लिये, ६८० (वि० सं० ५१०) कहा जाता है । इन नियुक्तिनमूनेके तौर पर, मूलाचारकी दो गाथाएँ तत्त्वार्थसारके ग्रंथों में श्रावश्यक नियुक्ति नामका भी ग्रन्थ है । इमको पद्यों सहित नीचे उद्धृत की जाती हैं
देखने और मूनाचार के साथ तुलना करने पर मालम तिएहं खल कायाणं तहेव विगलिदियाण सव्वेसि । हुया कि कितनी को गाथाएँ जो श्रावश्यक नियुक्ति में अविरुद्धं संकमणं माणुसतिरिएसु भवेसु ॥ मिलती है व मूलाचारके उक्त अधिकारमें भी ज्यांकी
–मूलाचार, ११६४ त्यों अथवा कुछ पाटभेद या थोड़से शब्द-परिवर्तन के त्रयाणां खलु कायाना विकलात्मनामसंजिनाम् । साथ पाई जाती है । नमूने के तौर पर मूलाचार श्रीर मानवानां तिरश्चां वाऽविरुद्धं संक्रमो मिथः ॥ श्रावश्यक-नियुनिकी ऐमी कुछ गाथाएँ. इस प्रकार
' -तत्त्वार्थसार, २-१५४ सव्वे वि तेउकाया सन्चे तह वाउकाइया जीवा । रागद्दीसकसाये इंदियाणि य पंच य । ण लहंति माणुसत्तं णियमा दु अणंतरभवेहि ॥ परीसह उबसग्गे पासयंतो गमोऽरिहा ॥ -मूलाचार, ११६५
-मूला०, ५०४ सर्वेपि तैजसा जीवाः सर्वे चानिलकायिकाः ।
रागद्दीसकसाए इंदिप्राणि अपंच वि। मनुजेषु न जायन्ते ध्रुवं जन्मन्यन्तरे ।
परीसह उवसांग नासयंतो नमोऽरिहा ॥ -तत्त्वार्थसार, २-१५७
-श्राव०नि०,६१८
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अनेकान्त
[पाल्गुन, बीर-निर्वाण सं०२४६५
दीहकालमयं जंतू उसदो अट्टकम्महि । उत्तरार्धसे नहीं मिलता; स्योंकि वह श्रीकुन्दकुन्दके सिदे धचे विधत्ते य सिद्धत्तमुवगच्छइ । नियमसारकी १२८ नंबरकी गाथाका पूर्वार्ध है और वहीं
-मूला०, ५०७ से उठाकर रक्खा गया जान पड़ता है। मूलाचारकी दीहकालरयं जंतू कम्मंसेसियमट्टहा। ५२५, ५२६ नं वाली दोनों गाथाएँ नियमसारमें क्रमशः सिंप्रचंतंति सिद्धस्स सिद्धत्तमुवजायइ । नं. १२७ व १२६ पर पाई जाती है; परन्तु ५२६वीं
-श्राव०नि०,६५३ गाथाका उत्तरार्ध नहीं मिलता, वह नियमसारकी १२८वीं बारसंगं जिणक्खादं सज्झायं कथितं बुधैं । गाथाका पूर्वार्ध है और वहीं से उठाकर रखा गया उवदेसइ सम्झायं तेणुवझाओ उच्चदि ॥ जान पड़ता है।
मूला०,५११ इनके सिवाय, आवश्यक-नियुक्ति और मूलाचारके बारसंगो जिणक्खाओ सज्झाओ कहिओं बुहे हिं। पडावश्यक-अधिकारको और भी बहुतसी गाथाएँ परस्पर तं उवइसति जम्हा उवझाया तेण वुच्चंति ॥ मिलती जुलती हैं, जिनके नम्बगेकी सूचना पं० सुखलाल
-ग्राव नि० ६६७ जीने अपनी 'सामायिक प्रतिक्रमण- रहस्य' नामक निब्बाणसाधए जोगे सदा जुंजंति साधवो। पुस्तक में की है । नियुक्ति-सहित 'श्रावश्यक' ग्रन्थका समा
ते सव्वसाधवो॥ उत्तरार्ध वीरसेवामन्दिरमें न होनेके कारण मुझे उनकी
-मूला०, ५१२ जाँचका अवसर नहीं मिल सका । अतः पाठकोंकी निव्वाणसाहए जोए जम्हा साहंति साहुणो। जानकारी अादिके लिये वे गाथा-नम्बर क्रमशः उक्त समा य सव्वभग्सु तम्हा ते भावसाहुणो । पुस्तक परसे नीचे दिये जाते हैं :
-श्राव०नि०, १००२ मूलाचारकी गाथाएँ–नं० ५०५, ५२४, ५३८, सामाइयणिज्जुत्ती वोच्छामि जधाकमं समासण। ५१०, ५६०, ५६१, ५६३, ५६४, ५६५, ५६६, ५६७, आयरियपरंपरए जहागदं आणुपुबीए ॥ ५६८, ५६६, ५७६, ५७७, ५७८, ५६२, ५६३, ५६४,
-मूला०, ५१७ ५६५, ५६६, ५६७, ५३६, ५४०, ५४१, ५४४, ५४६, सामाइयनिज्जुत्तिं वुच्छं उवएसियं गुरुजणेणं । ५४६, ५५०, ५५१, ५५२, ५५३, ५५५, ५५६, ५५७, आयरियपरंपराएण आगयं आणुपुवीए ॥ ५५८, ५५६, ५६६, ६००, ६०१, ६०३, ६०४, ६०५,
-श्राव नि०,८७ ६०६, ६०७, ६०८, ६१०, ६१२, ६१३, ६१४, ६१५, इमी प्रकार मूनाचारकी १२५,५१४,५२५, ५२६, ६१७, ६२१, ६२६, ६३२, ६३३, ६४०, ६४१, ६४२, ५३०, ५३१ नंबरकी गाथाएँ आवश्यक नियुक्ति में ६४३, ६४५, ६४८, ६५६, ६६८, ६६६, ६७१, ६७४, क्रमशः नं०६६६, ६२६, ७६७, ७६८, ७६६,८०१ पर ६७५, ६७६, ६७७ । कुछ पाठभेद या थोड़ेसे शब्द-परिवर्तन के साथ उपलब्ध आवश्यकनियुक्ति की गाथाएँ-नं. ६२१, (१४६ होती हैं । परन्तु मूलाचारकी ५२६ नं० की गाथाका भाष्य), (१६० भाष्य),६५४, १०६६, १०७६,१०७७, उत्तरार्ध श्रावश्यक-नियुक्तिकी ७६८ नंबरकी गाथाके १०६६, १०६३, १०६४, १०६५, १०६६, १०६७,
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बर्ष २ किरण ५ ]
११०२, ११०३, १२१७, ११०५, ११०७ ११६१, ११०६, ११६३, ११६८, (लोगस्स १, ७ ), १०५८ १०५७, १६५, १६७, १६६, २०१, २०२, १०५६, १०६०, १०६२,१०६१, १०६३, १०६४, १०६५, १०६६, १२००, १२०१, १२०२, १२०७, १२०८, १२०६, १२१०, १२११, १२१२, १२२५, १२३३, १२४७, १२३१, १२३२, १२५०,१२४३, १२४४,(२६३ भाप्य), १५१५, ( २४८ भाग्य), ( २४६ भाष्य ), २५०, २५१, १५८६, १४४७, १३५८, १५४६, १५४७, १५४१, १४७६, १४६८, १४६०, १४६.२ ।
इसी तरह मूलाचार के पिण्डशुद्धि अधिकारमें उद्गम उत्पादनादि दोषोंके नाम प्रकट करने वाली तथा अन्य भी कुछ गाथाएँ ऐसी पाई जाती हैं जो 'पिण्डनिर्युक्ति' में कुछ पाठभेद अथवा थोड़े शब्द परिवर्तन के साथ उपलब्ध होती हैं । यथा:धादी दूदणिमित्तं आजीवे वणिवगे य तेगिच्छे । कोधी माणी मायी लोभी य हवंति दस एदे ॥ पुत्री पच्छा संथुदि विज्जामंते य चुण्णजोगे य। उप्पादणा य दोसो सोलसमो मूलकम्मे ॥
मूलाचार संग्रह ग्रंथ है
मूला० ४४५, ४४६ धाईदूयणिमित्ते आजीववणीमगे तिगिंच्छा य । कोहे माणे माया लोभे य हवंति दस एए ॥ पुचि पच्छा संथव विज्जामंते य चुन्न जोगे य । उप्पायणाइदोसा सोलसमे मृलकम्मे य ॥
- ००४०८, ४०६
wis उवसग्गे ति रिक्खया बंभचेरगुतीसु । पाणिदया तबहेउं सरीरबो राद्वाए ॥ पिंडे उग्गमउप्पायरोसणा जोयला पमाणं च । इंगालधूमकारण अट्ठविहा पिण्डणिज्जुती ।। - पिं० नि० ६६६, १
के उवसग्गे तिरखणे बंभचरगुत्तीओ। पाणिदया तवहेऊ सरीरपरिहारवोच्छेदो || उग्गमउप्पादणए सणं च संजोयणं पमाणं च । इंगालधूमकारण अट्टहा पिण्डसु दु ।।
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मूलाचारकी गाथाएँ नं०४२२, ४२३, ४८७, ३५०, ४७६, ४६२, पिण्डनिर्युक्ति की क्रमशः गाथाच नं० ६२, ६३, १०७, ६६२, ६६२, ५३०, के साथ मिलती-जुलती हैं—थोड़े से साधारण परिवर्तन अथवा पाठभेदको लिये हुए हैं।
मूलाचारकी निम्नलिखित गाथाएँ वे हैं जो भगवती श्राराधना में ज्योंकी त्यों उसी रूपमें उपलब्ध होती हैं:
५६, ११६, १६३, १६४, २३७, २३६, २४५, २४६, २६६, २७७, २६५, २६६, २६६, ३००, ३०२, ३०७, ३०८, ३१४, ३१५, ३२६, ३२७, ३२८, ३२६, ३३२, ३३३, ३३४, ३३६, ३३७, ३३८, ३४०, ३४१, ३४२, ३४३, ३४६, ३५३, ३५३, ३५८, ३६५, ३६६, ३७२, ३७३, ३७४, ३७५, ३७६, ३७७, ३७८, ३७६, ३८०, ३८५, ३८६, ३८७, ३८८, ३६१, ३६२, ३६६, ४००, ४०१, ६६२, ७०२, ६००, ६०७, ६०८, ६४०, ६६६, १०३० ।
भगवती श्राराधनामें इन गाथाओं के नं० क्रमशः इस प्रकार है :
:
५४७, १६६६, ४११, ४१२, १८२५, १८३५, १८४७, १८४८, २६०, ३४, ११८५, ११८६, ११७, ११८, ११६१, ११६२, ११६३, ११६४, ११६.५, १२००, १२०१, १२०२, १२०३, ११४८, ११८८, ११८६, १२०५, १२०६, १२०७, १२१०, १२११, ७७०, १२१३, २०८, २१३, २१४, २३६, ११४, ११५, - मूला० ४८०, ४२१ ११८, ११६, १२०, १२१, १२२, १२३, १२४, १२५,
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अनेकान्त:
[फाल्गुन, वीर-निर्वाण सं०२४६५
२. १२६, १२८,१२६, १३०, १३१, ३०५, ३०६, १७०३, ३२५, ३३०, ३५२, ३७०, ३७१, ३८४, ३६४, ३६५, १७१२, १७१३, १७१५, १६७०, ७७०, २८६, ८०, ३६७, ३६६,६१८, ६७०, नं० की गाथाएँ भी भगवती ७०, १०४,५६२।
अाराधनामें क्रमशः ६८२, ४१०, ११६६, ११६७, भगवती श्राराधनाकी कितनीही गाथाएँ ऐसी भी हैं ११६६, १२०४, २१५, ११६, ११७, १२७, ११८४, जो थोड़ेसे पाठभेद अथवा कुछ शब्द परिवर्तनके साथ १७०२, १७०४, १७११, ५६१, १०७ नंबरों पर छोटे मूलाचारमें उठाकर रक्खी गई जान पड़ती हैं। उनमेंसे मोटे परिवर्तनोंके साथ पाई जाती हैं। नमूनेके तौर पर तीन गाथाएँ नीचे दी जाती हैं:
इस सब तुलना और ग्रंथके प्रकरणों अथवा अधिआचेलकुदसियसेज्जाहररायपिंडकिरियम्मे । कारोंकी उक्त स्थिति परसे मुझे तो यही मालूम होता है जेट्ठपडिकमणे वि य मासं पज्जोसवणकप्पो ॥ कि मूलाचार एक संग्रह ग्रंथ है और उसका यह संग्रहत्व
-भग० प्रा० ४२१ अथवा संकलन अधिक प्राचीन नहीं है। क्योंकि टीकाअचेलकुदेसियसेज्जाहररायपिण्डकिरियम्मं । कार बसुनन्दीसे पूर्वके प्राचीन साहित्यमें उसका कोई बदजेट्टपडिकमणे मासे पज्जोसवणकप्पो॥ उल्लेख अभी तक देखने तथा सुनने में नहीं आया ।
-मूला०६०६ हो सकता है कि वसुनन्दीसे कुछ समय पहलेके वट्टकेर एयग्गेण मणं रुभिजण धम्मं चउब्विहं झादि। नामक किसी अप्रसिद्ध मुनि या श्राचार्यने ग्रंथके प्रकआणापाय विवागं विचयं संठाणविचयं च ॥ रणोंकी अलग अलग रचना की हो और उनके यकायक
-भग० प्रा०, १७०८ देहावसानके कारण वे प्रकरण प्रकाशमें न श्रासके होंएग्गेण मणं रंभिऊण धम्मं चउन्विहं झाहि। कुछ अर्से तक यों ही पड़े रहे हों । बादको वसुनन्दी प्राणापायविवायं विचओ संठाणविचयं च ॥ प्राचार्य ने उनका पता पाकर उन्हें एकत्र संकलित करके
-मूला०, ३६८ 'मूलाचार' नाम दे दिया हो और अपनी टीका लिखकर अह तिरियउड्ढलोए विचणादि सपज्जए ससंठाणे। उनका प्रचार किया हो । कुछ भी हो, इस विषयमें एत्थे य अणुगदाओ अणुपेहाश्रो वि विचणादि । विशेष अनुसंधानकी ज़रूरत है । विद्वानोंको इसकी
-भग० श्रा०, १७१४ असलियत खोज निकालने और ग्रंथकार तथा ग्रंथके उड्ढमह तिरियलोए विचणादि सपज्जए ससंठाणे। रचना-समय पर यथेष्ट प्रकाश डालनेके लिये पूरा प्रयत्न एत्थेव अणुगदाभो भणुपेक्खाओ य विचणादि॥ करना चाहिये । इसके लिये मेरा विद्वानोंसे सानुरोध
--मूला०, ४०२ निवेदन है । इसी प्रकार मूलाचारकी ११८, १६०, ३१६, ३१८, वीरसेवामन्दिर, सरसावा, ता०८-१-१हरे
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‘ালা’ স্কার।
(२१) मुनि श्री विद्याविजयजी:
(२४) श्री साहु श्रेयांसप्रसादजी, नजीबाबादः___“'अनेकान्त' का पुनः प्रकाशन भी उतनी ही अनेकान्त'का अंक प्राप्त हुना। पाठ्यसामग्री योग्यता और उपयोगिताके साथ निकलता है जैसे और संकलन बहुत सुन्दर है। आपके संचालनमें कि पहले निकलता था । सारी जैन समाजमें 'अनेकान्त' का इतना उपयोगी और विद्वता पूर्ण यह एक ही मासिक पत्रिका है जो विद्वद् योग्य प्रकाशन होना निश्चय ही था । निःसन्देह यह पत्र खुराक देती है। प्रत्येक लेख खासी खोजपूर्वक और समाजके लिए आदर और मननकी वस्तु बनेगा"। विद्वता पूर्ण निकलता है।"
(२५) श्री० रतनलालजी संघवी, न्यायतीर्थ-विशारद (२२) मुनि श्री न्यायविजयजी देहली
अभ्यापक जैन फिलासोफी जैन गुरुकुल,छोटी सादड़ी___“ अनेकान्त' अपने भूतपूर्व गौरवके साथ "लेख सामग्री और गेट-अप आदि पान्तरिक निकलता है। अपना गौरव और प्रतिष्ठा रख सकने में और बाह्य दोनों दृष्टिसे 'अनेकान्त' वर्तमानमें जैनसमर्थ हो यही हमारी शुभेच्छा है।" समाजका सर्वश्रेष्ठ और सुन्दर पत्र है । गवेषणा
पूर्ण गंभीर संपादकीय लेख पत्रकी आत्मा हैं। (२३) श्री ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी:
आशा है कि आपके तत्वावधानमें पत्र निरन्तर __"इस परमोपयोगी सैद्धान्तिक पत्रका पुनः प्रका
- उन्नति करता हुआ जैनसाहित्य और जैनइतिहासकी शन अभिनन्दनीय है। दोनों ही अंक पढ़ने योग्य
चिरस्थायी महत्वपूर्ण सेवा करता रहेगा।" लेखोंसे भूषित हैं। लेखकोंने सर्व ही लेख बड़े परिश्रमसे लिखे हैं। यह पत्र जिनधर्मकी प्रभावनाका (२६) श्री. प्रो० हीरालालजी एम.ए., एल.एल.बी. व जिनशासनकी महिमा जगतमें प्रगट करनेका अमरावती :साधन है। जिस ढंगसे ये अंक प्रगट हुए हैं उसी 'अनेकान्त' के नवीन दो अंक देखकर अत्यन्त तरह यदि भागेके अंक प्रगट हों व उनमें पक्षपात- आनन्द हुा । जैन पत्र पत्रिकाओं में जिस कमीको की व असभ्य भाषाकी दुर्गन्ध न हो तो यह पत्र प्रत्येक साहित्यिक अनुभव कर रहा था, उसकी गलाबके पुपके समान सर्वको श्रादरणीय होगा। सोलहों श्राना पूर्ति इस पत्र के द्वारा होगी ऐमी श्रा। प्रकाशक लालाजीको कोटिशः धन्यवाद है जो है। यह और भी बड़ी प्रसन्नताकी बात है कि याव इसके खर्च के घाटेवा भार स्वीकार करते हैं। सूरजभानजी वकील जैसे कुशल, अनुभवी महा
मूल्य २॥) वार्षिक है। हर एक स्वाध्याय प्रेमी- रथियोंको आपने पुनः साहित्य-सेवामें खींचा है। को अवश्य प्राहक होजाना चाहिये, जिससे प्रकाशक- मैं इस पत्रिकाको चिरंजीवी देखनेका अभिलापी को घाटा न सहना पड़े।"
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अनेकान्त
(२७) श्री. पं० पन्नालालजी साहित्याचार्य, सागर :" 'अनेकान्त' का नववर्षाङ्क प्राप्त हुआ । ललई हुई खोंसे उसे पढ़ा-खूब पढ़ा । सभी लेख सारभूत हैं । प्रसन्नताकी बात है कि अंकका कलेवर व्यर्थ के बकबादसे बर्जित है । आपने सम्पादकका भार लेकर जैन समाज पर जो अनग्रह किया है उसकी मैं स्तुति करता हूं। और यह भी लिखता हूँ कि आप समाज के पंडितोंको जो बहुत कुछ लिख सकते हैं, पर उपेक्षामें निमग्न हैं, कुछ लिखवानेका प्रयत्न करेंगे ।”
(२८) श्री. पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य, बीनाः
"मेरी उत्कट अभिलाषा है कि मैं 'अनेकान्त' का इसी रूपमें सतत् दर्शन करता जाऊं और इस महत्वपूर्ण पत्रकी कितनी ही सेवा करके अपने को धन्य समझं ।”
"कान्त" अपने नाम के अनुरूप जैन सिद्धान्तका प्रकाशक हो और यदि मैं आगे न बढं ू तो भी इसके जरिये अनेकान्तवादी जैनियों का व्यावहारिक जीवन न केवल समुन्नत हो बल्कि आदर्शताका नमूना हो । इस के विषयमें यह मेरी आन्तरिक भावना है। इसका भविष्य सुन्दर है ऐसा मेरा दृढ विश्वास है ।"
[फाल्गुन, वीर निर्माण सं० २४६५
समाजोन्नतिकी साधन सामग्रीको लेकर उदित हुई है वह अवश्य ही इसके उज्वल भविष्यकी सूचक है। हमारा दृढ विश्वास है कि 'अनेकान्त'दी विविध रश्मियां अवश्य ही मिथ्याभिषिक्त आत्माओं के हृत्पटलांकित मिथ्यातमको पूर्ववत् श्रपसारित करनेमें समर्थ होंगी। हम 'अनेकान्त' का हृदय अभिनन्दन करते हैं और भावना भाते हैं। 'अनेकान्त' अपनी अनेकान्तमयनीति से अनेकान का प्रबल प्रचार करने में हमारा सहायक होगा" ।
"ठ वर्षकी लम्बी प्रतीक्षा के बाद 'अनेकान्त' सूर्य के दर्शन पाकर हृत्पद्म विकसित हुआ । वर्षकी प्रथम किरण ही जिस प्रकारकी ऐतिहासिक और
(३०)श्री.कल्याण कुमारजी जैन 'शशि' रामपुरस्टेट
"हमारी समाजमें यही एक ऐसा पत्र है जि हिम्मत के साथ जैनेतरोंके हाथमें दिया जा सक है । पत्रमें समस्त सामग्री नामकी अपेक्षा कम दृष्टिकोणसे दी गई है । संकलन अभूतपूर्व छपाई, सफाई, ढंग इत्यादि सब गेट अप उत्तम अनेकान्त प्रत्येक दृष्टिसे सर्वाङ्ग सुन्दर है । "
(३१) प्रोफेसर आर. डी. लड्ड ू, एम. ए., परशुरा भाउ कालिज पूना :
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"By this elegant literary magazine you have really done great service to Jainisma. It fills a longfelt lacuna in field of Indology, and I trust that (२६) श्री पं० गोविन्दराय जैन शास्त्री, न्यायतीर्थ it will redound to the study of Jain culture. My heartfelt congratulations कोडरमा :to you on the pious and genuine zeal you have shown in rejuvenating a worthy journal though after a long interval"
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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालाका महत्त्वपूर्ण नया प्रकाशन
श्रीमद् राजचन्द्र
गुजरातके सुप्रसिद्ध तत्त्वज्ञानी शतावधानी कवि रायचन्द्र जोके
गुजराती ग्रन्थका हिन्दीअनुवाद .
अनुवादकर्ता-पं० जगदीशचन्द्र शास्त्री एम० ए० प्रस्तावना और संस्मरणलेखक-विश्ववन्ध महात्मा गाँधी
एक हजार पृष्ठोंके बड़े साइजके बढ़ियाँ जिल्द बंधे हुए ग्रन्थकर्ताके पाँच चित्रों सहित ग्रन्थका मूल्य सिर्फ ६) जो कि लागतमात्र है । डाकखर्च १०)
महात्माजीने अपनी आत्मकथामें लिखा है
" मेरे जीवनपर मुख्यतासे कवि रायचन्द्रभाईकी छाप पड़ी है। टाल्स्टाय और रस्किनकी अपेक्षा भी रायचन्द्रभाईने मुझपर गहरा प्रभाव डाला है।"
रायचन्द्र जी एक अद्भुत महापुरुष हुए हैं। वे अपने समयके महान् तत्ववेत्ता और विचारक थे। जैनसम्प्रदायमें जन्म लेकर भी उन्होंने तमाम धर्मोका गहराईसे मनन किया था और उनके सारभूत तत्त्वोंपर अपने विचार बनाये थे। उनकी स्मरणशक्ति गजब की थी। किसी भी ग्रन्थको एक बार पढ़कर वे हृदयस्थ कर लेते थे। शतावधानी तो वे थे ही, अर्थात् सौ बातोंमें एक साथ उपयोग लगा सकते थे।
इस ग्रन्थमें उनके मोक्षमाला, भावनाबोध, आत्मसिद्धि आदि छोटे मोटे ग्रन्थोंका संग्रह तो है ही, सबसे महत्त्वकी चीज है उनके ८७४ पत्र, जो उन्होंने समय समयपर अपने परिचित मुमुक्षुजनोंको लिखे थे और उनकी डायरी, जो ये नियमित रूपसे लिखा करते थे और महात्मा गान्धीजीका आफ्रिकासे किया हुआ पत्रव्यवहार भी, इसमें है। जिनागममें जो आत्मज्ञानकी पराकाष्ठा है उसका सुन्दर विवेचन इसमें है। अध्यात्मके विषयका तो यह ग्वजाना ही है। उनकी रायचन्द्रजीकी कवितायें भी अर्थसहित दी है। मतलब यह कि राय चन्द्र जीसे संबंध रखनेवाली कोई भी चीज छूटी नहीं है।
गुजरातीमें इस ग्रन्थके अबतक सात एडीशन हो चुके हैं। हिन्दीमें यह पहली बार ही महात्मा गाँधीजीके आग्रहसे प्रकाशित हो रहा है । ग्रन्थारंभमें विस्तृत विषय-सूची और श्रीमद् राजचन्द्रकी जीवनी है । ग्रन्थान्तमें ग्रन्थार्गत विषयोंको स्पष्ट करनेवाले छह महत्वपूर्ण मौलिक परिशिष्ट हैं, जो मूल ग्रंथमें नहीं है । प्रत्येक विचारशील और तत्त्वप्रेमीको इस ग्रन्थका स्वाध्याय करना चाहिए ।
लाभकी बात जो भाई श्रीमद राजवन्द्र की दो प्रतियाँ एक साथ मँगायँगे, उन्हें समाप्यतत्त्वार्थाधिगममूत्र भाषाटीका ३) का ग्रंथ भेंट दिया जायगा । पर उन्हें दो प्रतियोंका दाम १२) और पोस्टेज रजिस्ट्री पकिंग ।।) ऐसे कुल १२) पेशगी भेजना होंगे। वी० पी० न किया जायगा । ग्रंथ रेल्वेपार्सलस भंज जायँग । भाडा उन्हें ही देना होगा। यह रियायत दो प्रतियाँ मैंगानेवालोंको है। एक प्रति मँगानेवालकि लिए नहीं।
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(२)
१ उपदेशछाया और आत्मसिद्धि-श्रीमद्राजचन्द्रविरचित गुजरातो ग्रंथका हिन्दीअनुवाद पं० जगदीशचन्द्रजी शास्त्री एम० ए० ने किया है।
उपदेशछायामें मुख्य चर्चा आत्मार्थके संबंध है, अनेक स्थलोंपर तो यह चर्चा बहुत ही मार्मिक और हृदयस्पर्शी है । इसमें केवलज्ञानीका स्वउपयोग, शुष्क ज्ञानियोंका अभिमान, ज्ञान किसे कहते हैं ! कल्याणका मार्ग एक है, निर्धन कौन ? आत्मार्थ ही सच्चा नय है, आदि गहन विषयोंका सुन्दर वर्णन है।
__आत्मसिद्धिमें श्रीमद्रायचन्द्र की अमर रचना है । यह ग्रंथ लोगोंका इतना पसंद आया कि इसके अंग्रेजी मराठी अनुवाद हो गये हैं। इसमें आत्मा है, वह नित्य है, वह कर्ता है घह भोक्ता है, मोक्षपद है, और मोक्षका उपाय है, इन छह पदोंको १४२ पद्योंमें युक्तिपूर्वक सिद्ध किया गया है। ऊपर गुजराती कविता है, नीचे उसका विस्तृत हिन्दी-अर्थ है । इस ग्रंथका विषय बहुत ही जटिल और गहन है, किन्तु लेखन-शैलीकी सरलता तथा रोचकताके कारण साधारण पढ़े लिखे लोगोंके लिये भी बोधगम्य और उपयोगी हो गया है। प्रारंभमें ग्रन्थकर्ताका सुन्दर चित्र और संक्षिप्त चरित भी है । पृष्ठसंख्या १०४, मूल्य सिर्फ ॥) है ।
२ पुष्पमाला मोक्षमाला और भावनाबोध-श्रीमद्राजचन्द्रकृत गुजराती प्रन्थका हिन्दीअनुवाद पं० जगदीशचन्द्रजी शास्त्री एम० ए० ने किया है ।
पुष्पमालामें सभी अवस्थावालोंके लिए नित्य मनन करने योग्य जपमालाकी तरह १०८ दाने ( वचन ) गूंथे हैं ।
मोक्षमालाकी रचना रायचन्द्रजीने १६ वर्षकी उम्रमें की थी, यह पाठ्य-पुस्तक बड़ी उपयोगी सदैव मनन करने योग्य है, इसमे जैन-मार्गको यथार्थ रीतिसे समझाया है। जिनोक्त-मार्गसे कुछ भी न्यूनाधिक नहीं लिखा है। बीतराग-मार्गमें आबाल वृद्धकी रुचि हो, और उसका स्वरूप समझें, इसी उद्देशसे श्रीमद्ने इसकी रचना की थी। इसमें सर्वमान्य धर्म, मानवदेह, सद्देव, सद्धर्म, सद्गुरुतत्त्व, उत्तम गृहस्थ, जिनेश्वरभक्ति, वास्तविक महत्ता, सत्य, सत्संग, विनयसे तत्त्वकी सिद्धि, सामायिक विचार, सुखके विषयमें विचार, बाहुबल, सुदर्शन, कपिलमुनि, अनुपम क्षमा, तत्त्वावबोध, समाजकी आवश्यकता, आदि एकसे एक बढ़कर १०८ पाठ हैं। गुजरातीकी हिन्दी अर्थ सहित अनेक सुन्दर कवितायें हैं। इस प्रथको स्याद्वाद-तत्त्व-बोधरूपी वृक्षका बीज ही समझिये।
भावनाबोधमें वैराग्य मुख्य विषय है, किस तरह कषाय-मल दूर हो, इसमें उसीके उपाय बताये हैं । इसमें अनित्य, अशरण, अत्यत्व, अशुचि, आश्रव, संवर, निर्जर आदि बारह भावनाओं के स्वरूपको, भिखारीका खेद, नमिराजर्षि, भरतेश्वर, सनत्कुमार, आदिकी कथायें देकर बड़ी उत्तम रीतिसे विषयको समझाया है। प्रारंभमें श्रीमद् रायचन्द्रजीका चित्र
और संक्षिप्त चरित्र भी है । भाषा बहुत ही सरल है । पृष्ठसंख्या १३०, मूल्य सिर्फ 1) है। ये दोनों ग्रंथ श्रीमद् राजचन्द्रमेंसे जुदा निकाले गये हैं।
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( ३ )
परमात्मप्रकाश और योगसार [जैन रहस्यवादी और अध्यात्मवेत्ता श्रीयोगीन्दुदेवकृत अपभ्रंश दोहे, उनकी संस्कृतछाया, श्रीब्रह्मदेवसूरिकृत संस्कृतटीका, स्व० पं० दौलतरामजीकृत भाषा टीका, प्रो० उपाध्यायकी ९२ पृष्ठकी अंग्रेजी भूमिका, उसका हिन्दीसार, विभिन्न पाठभेद, अनुक्रमणिकायें, और हिन्दी अनुवादसहित ' योगसार ' ]
सम्पादक और संशोधक- पं. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्याय, एम्. ए. अर्द्धमागधी प्रोफेसर राजाराम कॉलेज, कोल्हापुर ।
परमात्मप्रकाश अपभ्रंश भाषा - साहित्यका सबसे प्राचीन और अमूल्य रत्न है, आधुनिक हिन्दी, मराठी, गुजराती आदि भाषायें इसी अपभ्रंशसे उत्पन्न हुईं हैं, अतः भाषाशास्त्र के जिज्ञासुओंके लिए यह बड़े कामकी वस्तु है । भाषा-साहित्यके नामी विद्वान् प्रो० उपाध्यायजीने अनेक प्राचीन प्रतियोंके आधारसे इसका संशोधन संपादन करके सोनेमें सुगंधी कहावत चरितार्थ की है । पहले संस्करणसे यह संस्करण बहुत विस्तृत और शुद्ध है । इसकी भूमिका तो एक नई वस्तु है-ज्ञानकी खान है । इसमें परमात्मप्रकाशका विषय, भाषा, व्याकरण, ग्रन्थकारका चरित, समय-निर्णय और उनकी रचनाओंका परिचय, टीकाकार और उनका परिचय, बड़ी छान-बीन से किया गया है । अंग्रेजी भूमिकाका हिन्दीसार पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने लिखा है ।
ग्रन्थ में योगीन्दुदेवने तत्कालीन जनसाधारणकी भाषामें बड़ी ही सरल किन्तु प्रभावो - त्पादक शैलीमें परमात्माके स्वरूपका व्याख्यान किया है। इसमें बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमामाका लक्षण, परमात्मा के रूप जाननेकी रीति, शुद्धात्माका मुख्य लक्षण, शुद्धात्मा के ध्यानसे संसार - भ्रमणका रुकना, परमात्मप्रकाशका फल आदि सैकड़ों ज्ञातव्य विषयोंका वर्णन है । समाधि-मार्गका अपूर्व ग्रन्थ है । इसकी हिन्दटिका भी बड़ी सरल और विस्तृत है । मामूली पढ़ा लिखा भी आसानी से समझ सकता है । ऐसी उत्तम पद्धतिसे सम्पादित ग्रन्थ आपने अभीतक न देखा होगा । ग्रन्थराज स्वदेशी कागजपर बड़ी सुन्दरता और शुद्धतासे छपाया गया है । ऊपर कपड़े की सुन्दर मज़बूत जिल्द बँधी हुई हैं । पृष्ठसंख्या ५५०, मूल्य केवल ४ || ) है ।
योगसार - यह श्रीयोगीन्दुदेवकी अमर रचना है, इसमें मूल अपभ्रंश दोहे, संस्कृतछाया, पाठान्तर और हिन्दीटीका है । १०८ दोहोंके छोटेसे ग्रंथमें आध्यात्मिक गूढ़वाद के तत्वोंका बड़ा ही सुन्दर विवेचन है । यह ग्रन्थ साक्षात् मोक्षका सोपान है। इसका सम्पादन और संशोधन प्रोफेसर ए० एन० उपाध्यायने किया है। पं० जगदीशचन्द्रजी शास्त्री एम० ए० ने सरल हिन्दीटीका लिखी है। बहुत अच्छे मोटे कागजपर सुन्दरतापूर्वक छपा है 1 पृष्ठसंख्या २८, मूल्य सिर्फ । ) परमात्मप्रकाशके अंतमें यह ग्रन्थ है । उसीमेंसे जुदा निकाला है ।
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YOGINDU, HIS PARAMĀTMAPRAKĀŠA AND OTHER
__WORKS अर्थात् योगीन्दुदेव और उनकी रचनायें
प्रोफेसर ए० एन० उपाध्यायका बड़ी गवेषणासे लिखा हुआ महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक . अंग्रेजी ग्रंथ है । पृष्ठसंख्या १०८. मूल्य १) है । यह परमात्मप्रकाशके प्रारंभमें हैं, उसीमेंसे जुदा निकाला गया है।
प्रवचनसार-[श्रीमत् कुन्दकुन्दाचार्यकृत प्राकृत मूल गाथायें, श्रीअमृतचन्द्राचार्य और श्रीजयसेनाचार्यकृत संस्कृतटीकाद्वय, पांडे हेमराजजीकृत हिन्दीटीका, प्रोफेसर उपाध्यायकृत अंग्रेजी अनुवाद, १२५ पृष्ठोंकी अति विस्तृत अंग्रेजी भूमिका, विभिन्न पाठ-भेदोंकी और ग्रन्थकी अनुक्रमणिका आदि अलंकारों सहित संपादित । ] सम्पादक-पं० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्याय एम० ए०, प्रोफेसर राजाराम कॉलेज, कोल्हापुर
यह अध्यात्मशास्त्रके प्रधान आचार्यप्रवर श्रीकुन्दकुन्दका ग्रन्थ है, केवल इतना ही आत्मज्ञानके इच्छुक मुमुक्षु पाठकोंको आकर्षित करनेके लिए काफी है । यह जैनागमका सार है । इसमें ज्ञानाधिकार, ज्ञेयतत्त्वाधिकार, और चारित्राधिकार ऐसे तीन बड़े बड़े अधिकार हैं । इसमें ज्ञानको प्रधान करके शुद्ध द्रव्यार्थिकनयका कथन है, अर्थात् और सब विषयोंको गौण करके प्रधानतः आत्माका ही विशेष वर्णन है । इस ग्रन्थका एक संस्करण पहले निकल चुका है। इस नये संस्करणको प्रोफेसर उपाध्यायजीने बहुतसी पुरानी सामग्रीके आधारसे संशोधित किया है, और उसमें श्रीकुन्दकुन्दाचार्यका जीवनचरित, समय, उनकी अन्य रचनाओं, टीकाओं, भाषा, दार्शनिकता आदिपर गहरा विवेचन किया है। इसकी अंग्रेजी भूमिका भाषा-शास्त्र और दर्शनशास्त्रक विद्यार्थियोंके लिए तो ज्ञानकी खान है, और धैर्ययुक्त परिश्रम और गहरी खोजका एक नमूना है । इस भूमिकापर बम्बई विश्वविद्यालयने २५० ) पुरस्कार दिया है, और इसे अपने बी० ए० के पाठयक्रममें रखा है। इस ग्रन्थकी छपाई स्वदेशी कागजपर निर्णयसागर प्रेसमें बहुत ही सुन्दर हुई है । पृष्ठसंख्या ६००, ऊपर कपड़ेकी मजबूत और सुन्दर जिल्द बंधी है । मूल्य सिर्फ ५) है ।
स्याद्वादमञ्जरी-कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यकृत अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिकाकी श्रीमल्लिषेणमूरिकृत विस्तृत संस्कृतटीका स्याद्वादमञ्जरीके नामसे प्रसिद्ध है । इसी टीकाका पं० जगदीशचन्द्रजी शास्त्री, एम० ए० कृत सरल और विस्तृत हिन्दीअनुवाद है । मल्लिपेणसूरिने इस प्रन्थमें न्याय, वैशेषिक, मीमांसा, वेदान्त, सांख्य, बौद्ध, और चार्वाक नामके छह दर्शनोंके मुख्य मुख्य सिद्धान्तोंका अत्यन्त सरल, स्पष्ट और मार्मिक भाषामें प्रतिपादनपूर्वक खण्डन करके सम्पूर्ण दर्शनोंका समन्वय करनेवाले स्याद्वाद-दर्शनका प्रौढ़ युक्तियोंद्वारा मण्डन किया है । दर्शनशास्त्र के अन्य ग्रंथोंकी अपेक्षा इस ग्रंथकी यह एक असाधारण विशेषता है कि इसमें दर्शनशास्त्रके कठिनसे कठिन विषयोंका भी अत्यन्त सरल,. मनोरंजक और प्रसाद गुणसे युक्त भाषामें प्रतिपादन किया है । इस ग्रंथके संपादन और अनुवादकी जितनी प्रशंसा की जाय उतनी थोड़ी है । अनुवादक महोदयने स्याद्वादमंजरीमें
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आये हुए विषयोंका वर्गीकरण करनेके साथ कठिन विषयोंको, वादी प्रतिवादीके रूपमें शंका समाधान उपस्थित करके, प्रत्येक श्लोकके अन्तमें उसका भावार्थ देकर समझाया है, और इस तरह ग्रंथको संस्कृत और हिन्दीकी अनेक टीका-टिप्पणियोंसे समलंकृत बनाया है । सम्पादक महोदयने जैन, बौद्ध, न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग, मीमांसा, वेदान्त, चार्वाक और विविध परिशिष्ट नामके आठ परिशिष्टोंद्वारा इस ग्रंथको और भी अधिक महत्त्वपूर्ण बना दिया है। इन परिशिष्टोंमें छह दर्शनोंके मूल सिद्धातोंका नये दृष्टिकोणसे विवेचन किया गया है, और साथ ही इनमें दर्शनशास्त्रके विद्यार्थियोंके लिये पर्याप्त सामग्री उपस्थित की गई है। इस ग्रंथके आरंभमें ग्रंथ और ग्रंथकारका परिचय देते हुए, ' स्याद्वादका जैनदर्शनमें स्थान ' यह शीर्षक देकर, स्याद्वादका तुलनात्मक दृष्टिसे विवेचन किया गया है। स्याद्वादमंजरीके अतिरिक्त इस संस्करणमें हेमचन्द्राचार्यकी अयोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका भी हिन्दीअनुवाद सहित दी गई है । इस ग्रंथके प्राक्कथन-लेखक हिन्दूविश्वविद्यालयके दर्शनाध्यापक श्रीमान् पं० भिस्वनलालजी आत्रेय, एम० ९०, डी० लिट हैं। अन्तमें आठ परिशिष्ट, तथा तेरह अनुक्रमणिकायें हैं।
यह ग्रंथ हिन्दूयूनिवर्सिटी काशीके एम० ए० के कोर्समें, और कलकत्ता यूनिवर्सिटीके न्यायमध्यमाके कोर्समें नियत है। कपड़ेकी सुन्दर जिल्द बँधी हुई है । पृष्ठसंख्या ५३६ है, मूल्य भी सिर्फ ४॥ ) है। सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र अर्थात् अर्हत्सवचनसंग्रह-मोक्षशास्त्र-तत्त्वार्थ
मूत्रका संस्कृतभाष्य और उसकी प्रामाणिक भाषाटीका।
श्रीउमास्वातिकृत मूल सूत्र स्वोपज्ञभाष्य, (संस्कृतटीका) और विद्यावारिधि पं० खूबचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीकृत भाषाटीका सहित । जैनियोंका यह परमाननीय ग्रन्थ है, इसमें जैनधर्मके सम्पूर्ण सिद्धान्त आचार्यवर्यने बड़े लाघवसे संग्रह किये हैं । सिद्धान्तरूपी सागरको मथके गागर (घड़े ) में भर देनेका कार्य अपूर्व कुशलतासे किया है। ऐसा कोई तत्त्व नहीं, जिसका निरूपण इसमें न हो। इस ग्रन्थको जैनसाहित्यका जीवात्मा कहना चाहिए। गहनसे गहन विषयका प्रतिपादन स्पष्टतासे इसके सूत्रोंमें स्वामीजीने किया है। इस ग्रंथपर अनेक आचार्याने अनेक भाष्य-संस्कृतटीकायें रची है । प्रचलित हिन्दीमें कोई विशद और सरल टीका नहीं थी, जिसमें तत्त्वोंका वर्णन स्पष्टताके साथ आधुनिक शैलीसे हो । इसी कमीकी पूर्तिके लिये यह टीका छपाई गई हैं। विद्यार्थियोंको, विद्वानोंको, और मुमुक्षुओंको इसका अध्ययन, पठन-पाठन, स्वाध्याय करके लाभ उठाना चाहिए । यह ग्रन्थ कलकत्ता यूनिवर्सिटीके न्यायमध्यमाके कोर्समें है। प्रन्धारंभमें विस्तृत विषयमूची है, जिसे ग्रंथका सार ही समझिये। इसमें दिगम्बर श्वेताम्बर सूत्रोंका भेदप्रदर्शक कोष्टक
और वर्णानुसारी मूत्रांकी मूची भी है, जिससे बड़ी सरलता और सुभीतेसे पता लग जाता है कि कौन विषय और सूत्र कौनसे पृष्ठमें है । ग्रंथराज स्वदेशी कागजपर बड़ी शुद्धता और सुन्दरता पूर्वक छपा है । ऊपर कपड़ेकी मुन्दर जिल्द बंधी हुई है । इतनी सब विशेषतायें होते हुए भी बड़े आकारके ४७६+२४५०० पृष्ठोंके ग्रंथका मूल्य लागतमात्र
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सिर्फ तीन रुपया है, जो ग्रंथको देखते हुए कुछ नहीं है । मूल्य इसी लिये कम रखा है, जिससे सर्वसाधारण सुभीतेसे खरीद सकें।
. पुरुषार्थसिद्धयुपाय-श्रीअमृतचन्द्रस्वामीविरचित मूल श्लोक और पं० नाथूरामजी प्रेमीकृत सान्वय सरल भाषाटीका सहित । इसमें आचारसम्बन्धी बड़े बड़े गूढ़ रहस्योंका वर्णन है। अहिंसा तत्त्व और उसका स्वरूप जितनी स्पष्टता और सुन्दरतासे इस प्रथमें वर्णित हैं, उतना और कहीं नहीं है । तीन बार छपकर बिक चुका है, इस कारण चौथी बार छपाया गया है। न्योछावर सजिल्दकी ११)
पशास्तिकाय-श्रीकन्दकन्दाचार्यकृत मूल गाथायें, तथा श्रीअमृतचन्द्रसूरिकृत तत्त्वदीपिका, श्रीजयसेनाचार्यकृत तात्पर्यवृत्ति ये दो संस्कृत टीकायें, और पं० पन्नालालजी बाकलीबालकृत अन्वय अर्थ भावार्थ सहित भाषाटीका । इसकी भाषाटीका स्वर्गीय पांडे हेमराजजीकी भाषा-टीकाके अनुसार नवीन सरल भाषामें परिवर्तित की गई है । इसमें जीव, अजीव, धर्म, अधर्म और आकाश इन पाँचों द्रव्योंका उत्तम रीतिसे वर्णन है। तथा काल द्रव्यका भी संक्षेपमें वर्णन किया गया है । बम्बईयूनिवर्सिटीके बी० ए० के कोर्समें है । दूसरी बार छपी है । मूल्य सल्जिदका २) । ज्ञानार्णव-श्रीशुभचन्द्राचार्यकृत मूल श्लोक और स्व० पं० जयचन्दजीकी पुरानी भाषावचनिकाके आधारसे पं० पन्नालालजी बाकलीवालकृत हिन्दी भाषाटीका सहित। योगशास्त्र संबंधी यह अपूर्व ग्रंथ है। इसमें ध्यानका वर्णन बहुत ही उत्तमतासे किया है. प्रकरणवश ब्रह्मचर्यव्रतका वर्णन भी विस्तृत है। तीसरी बार छपा है । प्रारंभमें ग्रंथकर्ताका शिक्षाप्रद ऐतिहासिक जीवनचरित है । उपदेशप्रद बड़ा सुन्दर ग्रंथ है । मूल्य सजिल्दका ४ )
सप्तभंगीतरंगिणी-श्रीमद्विमलदासकृत मूल और पं० ठाकुरप्रसादजी शर्माकृत भापाटीका । यह न्यायका अपूर्व ग्रन्थ है। इसमें ग्रंथकर्त्ताने स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, आदि सप्तभंगानयका विवेचन नव्यन्यायकी रीतिसे किया है । स्याद्वाद क्या है, यह जाननेके लिये यह ग्रंथ अवश्य पढ़ना चाहिये । दूसरी बार सुन्दरतापूर्वक छपी है । न्यो० १)
बृहद्रव्यसंग्रह-श्रीनेमिचन्द्राचार्यकृत मूल गाथायें, श्रीब्रह्मदेवसूरिकृत संस्कृतटीका और पं. जवाहरलालजी शास्त्रीकृत भाषाटीका सहित । इसमें जीव, अजीव, आदि छह द्रव्योंका स्वरूप अति स्पष्ट रीतिसे दिखाया है। दूसरी बार छपी है । कपड़ेकी सुन्दर जिल्द बँधी है । मूल्य २।)
गोम्मटसार कर्मकाण्ड-श्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्तीकृत मूल गाथायें और पं० मनोहरलालजी शास्त्रीकृत संस्कृतछाया तथा भाषाटीका सहित । इसमें जैनतत्वोंका स्वरूप कहते हुए जीव तथा कर्मका स्वरूप इतने विस्तारसे किया गया है, जिसकी वचनद्वारा प्रशंसा नहीं हो सकती है । देखनेसे ही मालूम हो सकता है। जो कुछ संसारका झगड़ा है, वह इन्हीं दोनों ( जीव कर्म ) के सबन्धसे है, इन दोनोंका स्वरूप दिखानेके लिये यह ग्रंथ-रत्न अपूर्व सूर्यके समान है । दूसरी बार पं० खूबचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीद्वारा संशोधित हो करके छपा है । मूल्य सजिल्दका २१)
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( ७ )
गोम्मटसार जीवकाण्ड - श्रीनेमिचन्द्राचार्यकृत मूल गाथायें और पं० खूबचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीकृत संस्कृतछाया तथा बालबोधिनी भाषाटीका सहित । इसमें गुणस्थानोंका वर्णन, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, मार्गणा, उपयोग, अन्तर्भाव, आलाप आदि अनेक अधिकार हैं । सूक्ष्म तत्वोंका विवेचन करनेवाला यह अपूर्व ग्रंथ है । दूसरी बार संशोधित होकर छपा है । मूल्य सजिल्दका २ || )
लब्धिसार - ( क्षपणासार गर्भित ) श्रीनेमिचन्द्रा चार्यकृत मूल गाथायें, और स्व० पं० मनोहरलालजी शास्त्रीकृत संस्कृतछाया और हिन्दी भाषाटीका सहित यह ग्रंथ गोम्मटसारका परिशिष्ट है । इसमें मोक्षके मूलकारण सम्यक्त्वके प्राप्त होने में सहायक क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य, करण इन पाँच लब्धियोंका वर्णन है । मूल्य सजिल्दा १ ॥ ) द्रव्यानुयोगतर्कणा और समयसार - ये दो ग्रंथ अप्राप्य हैं । समयसार तो पुनः सुसम्पादित होके छपेगा ।
गुजराती ग्रंथ
श्रीमद्राजचन्द्र-आं पुस्तकमा श्रीमद्राजचन्द्रनी हयातीमां ते ओश्रीने जुदे जुदे प्रसंग मुमुक्षुभाईओ, सज्जनों अने मुनिश्रीओ वगैरे तरफधी भिन्न भिन्न विषयों प्रत्ये पुळेला सवालोना जबाबना पत्रोना संग्रह, तथा बाल्यावस्थामां रचेला भावनाबोध, मोक्षमाला, आत्मसिद्धि ग्रंथोंनो संग्रह छे, श्रीमदनी सोळा वर्ष पहेलानी वयथी देहोत्सर्ग पर्यन्तना विचारोना आ भव्य ग्रंथमां संग्रह छे, जैनतत्त्वज्ञानको महान ग्रंथ छे, जैनतत्वज्ञाननो उंडो अभ्यास समजवा माटे आ ग्रंथ खास उपयोगी छे, बीजी आवृत्ति संशोधनपूर्वक बहार पाडी छे. अने तेनी अंदर श्रीमदूना अप्रगट लखाणे पण दाखल करवामां आग्या छे. ग्रंथारंभमां महात्मा गांधीजीए लखेली महत्त्वपूर्ण प्रस्तावना छे । आ पुस्तक सारामां सारा कागळ ऊपर सुप्रसिद्ध निर्णयसागर प्रेसनी अन्दर खास तैयार करावेला देवनागरीमां उपान्युं छे. सुन्दर बाईंडिंगथी सुशोभित है. दरेक ग्रन्थभण्डार, लाईब्रेरीमा राखवा योग्य छे, तेमज साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविकाओने खास वाँचवा लायक अने मनन करवा योग्य आ महान ग्रन्थ छे, रॉयल चार पेजी साइजना ८२५ पृष्ठवाला दळदार प्रन्थना मूल्य फक्त ५ पाँच रुपया, लागतमात्र थी अर्धा राखेला है । ५ चित्र छे । भावनाबोध 1- आ ग्रंथना कर्त्ता उक्त महापुरुष छे, वैराग्य ए आ ग्रंथनो मुख्य विषय छे, पात्रता पामवानुं अने कषायमल दूर करवानुं आ ग्रंथमां उत्तम साधन छे, आत्मगवेषीओने आ ग्रंथ आनंदोल्लास आपनार छे, आ ग्रंथनी पण आ त्रीजी आवृत्ति छे, आ बने ग्रंथों खास करीने प्रभावना करवा सारू अने पाठशाला, ज्ञानशाला, तेमज स्कूलोमा विद्यार्थियो विद्याभ्यास अने प्रभावना करवामाटे अति उत्तम ग्रन्थ छे, अने तेथी सर्व कोई लाभ लई सके, ते माटे गुजराती भाषामा अने बालबोध टाईपमा छपावेलुं छे । मूल्य सजिल्दनु फक्त
चार आना ।
रिपोर्ट- प. प्र. मं. नी. सं. १९७३ थी. सं. १९९० सुनीनां रिपोर्ट अने महात्मा गांधीने लखेटी श्रीमद् राजचन्द्र ग्रंथनी गुजराती और हिन्दी प्रस्तावना मफत मश जे भाईओ ने जोइये, ते मंगावी लेशो ।
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निवेदन स्वर्गवासी तत्त्वज्ञानी शतावधानी कविवर श्रीरायचन्द्रजीने श्रीकुन्दकुन्दाचार्य, श्रीउमास्वाति ( मी ) मुनीश्वर, श्रीसमन्तभद्राचार्य, श्रीनेमिचन्द्राचार्य, श्रीअकलङ्कस्वामी, श्रीशुभचन्द्राचार्य, श्रीअमृतचन्द्रसूरि, श्रीहरिभद्रसूरि, श्रीहेमचन्द्राचार्य, श्रीयशोविजय आदि महान् आचार्योंके रचे हुए अतिशय उपयोगी और अलभ्य जैनतत्त्व-ग्रन्थोंका सर्वसाधारणमें सुलभ मूल्यमें प्रचार करनेके लिये श्रीपरमश्रुतप्रभावकमंडलकी स्थापना की थी, जिसके द्वारा उक्त कविराजके स्मरणार्थ श्रीरायचन्द्रजैनशास्त्रमाला ३० वर्षांसे निकल रही है । इस ग्रंथमालामें ऐसे अनेक प्राचीन जैन-ग्रंथ राष्ट्रभाषा हिन्दी टीकासहित प्रकट हुये हैं, जो तत्त्वज्ञानाभिलाषी भव्यजीवोंको आनंदित कर रहे हैं।
उभय पक्षके महात्माओद्वारा प्रणीत सर्वसाधारणोपयोगी उत्तमोत्तम प्रन्थोंके अभिप्राय विज्ञ पाठकोंको विदित हों, इसके लिये इस शास्त्रमालाकी योजना की गई है। इसीलिये आत्मकल्याणके इच्छुक भव्य जीवोंसे निवेदन है कि इस पवित्र शास्त्रमालाके ग्रन्थोंके ग्राहक बनकर वे अपनी चल लक्ष्मीको अचल करें, और तत्त्वज्ञानपूर्ण जैनसिद्धान्त-ग्रन्थोंके पठनपाठन द्वारा प्रचार कर हमारी इस परमार्थ-योजनाके परिश्रमको सफल करें । प्रत्येक मन्दिर, सरस्वतीभण्डार, सभा और पाठशालाओंमें इनका संग्रह अवश्य करें । जैनधर्म और जैनतत्त्वज्ञानके प्रसारसे बढ़कर दूसरा और कोई पुण्यकार्य प्रभावनाका नहीं हो सकता, इसलिए अधिकसे अधिक द्रव्यसे सहायता कर पाठक भी इस महत्कार्यमें हमारा हाथ बटावें । पाठकगण जितने अधिक ग्रन्थ खरीदकर हमारी सहायता करेंगे, उतने ही अधिक ग्रन्थ प्रकाशित होंगे।
इस शास्त्रमालाकी प्रशंसा मुनियों, विद्वानों तथा पत्रसंपादकोंने तथा पाश्चात्य विदेशी विद्वानोंने मुक्तकंठसे की है । यह संस्था किसी स्वार्थ-साधन लिये नहीं है, केवल परोपकारके वास्ते है । जो द्रव्य आता है, वह इसी शास्त्रमालामें उत्तमोत्तम ग्रन्थोंके उद्धारके काममें लगा दिया जाता है । हमारे सभी ग्रन्थ बड़ी शुद्धता और सुन्दरतापूर्वक अपने विषयके विद्वानोंद्वारा हिन्दी टीका करवाके अच्छे कागजपर छपाये गये हैं । मूल्य भी अपेक्षाकृत कम अर्थात् लागतके लगभग रखा जाता है । उत्तमताका यही सबसे बड़ा प्रमाण है कि कई ग्रन्थोंके तीन तीन चार चार संस्करण हो गये हैं । भविष्य में श्रीउमास्वामी, श्रीभट्टाकलंकदेव, स्वामी समन्तभद्र, श्रीसिद्धसेनदिवाकरके ग्रंथ निकलेंगे। कई ग्रंथोंका उत्तमतापूर्वक सम्पादन हो रहा है।
नोट-रायचन्दजैनशास्त्रमालाके ग्रन्थ इकडे मँगानेवालोंको और प्रचार करनेवालोंको बहुत किफायतसे भेजे जाते हैं । इसके लिए वे हमसे पत्रव्यवहार करें।
सहायता भेजने और ग्रंथोंके मिलनेका पता
निवेदक-ऑ० व्यवस्थापकश्रीपरमश्रुतप्रभावकमंडल (श्रीरायचन्द्रजैनशास्त्रमाला )
खाराकुवा, जौहरीबाजार, बम्बई नं० २ न्यू भारत प्रिंटिंग प्रेस, ६ केळेवाडी, गिरगांव, मुंबई नं. ४.
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वीर पुत्रो ! वीर-जयन्ति आ रही है।
कार-काणीका प्रचार करो
थोड़े खर्चे में भारी प्रभावना। दो पैसे ५० किताव का १) कर्तव्य कोमुदी १॥) ४ किताब का ६) १ जैन दर्शन जैनधर्म, : जैन धर्म क्या है ? पुण्य प्रभाव १) ५ किताब का ३) । ३ अहिंमा, ४ जैन दर्शन, ५ शील का १६ कड़ा। पैकिंग पोस्टेज़ जिम्मे खरीददार तीन पैसे ३० किताब का १)
कुन पुस्तकों का पूग मेट५) का है परन्तु १ जैन सिद्धांत, २ जैन धर्म का मिद्धांतिक जयन्ती तक ३॥) ० मनीआर्डर मे आने पर घर म्वरूप, ३ मुक्तिका स्वरूप, ४ ईन धमकी वृवियां बैठे पहुंचा देंगे। ५ मत्य ज्ञानकी कुजी. ६ भारतका भावी गटीय १७३५ पप्ठकी ३१ पस्तकं ३0) की २) में धर्म, जैन धर्म की विशेषता, ८ धर्म ग्न्न पाने योग्य कीन ?, ६ भगवान महावीर का उपदेश व
___ शांतिसुधा, जम्बुम्बामी चरित्र, प्रार्थना-संग्रह, मन्देश।
श्रात्म जागृनि भावना, धर्म का डंका, हितोपदेश,
विद्यार्थी युवक भावना, पप्प प्रभाव, मूल्यवान म.नी. डेढ़ आना १५ किताब का १)
जैन स्तुति संग्रह, स्यावाद की मार्थकता, धर्म रत्न १ म्याद्वाद की मार्थकता. २ श्राविका धम, पाने योग्य कौन ?, जैन धर्मका सिद्धांतिक स्वरूप, ३ व्यापार शिक्षा, ४ विद्यार्थी प्रार्थना, ५ भावना
जैन दर्शन, जैन सिद्धांत, अहिमा, मुक्ति का स्वरूप, मंग्रह, ६ विद्याथी युवक भावना, ७ शान मुवा शील का १६ कड़ा. भावना मंग्रह, श्राविया धम, (शांति प्रकाश ममकिन छप्पनी उपदेश रन्न कोप
जैनधर्मकी विशेषताएँ, अनि विद्वानों की मम्मका संग्रह)
तियां, जैनधर्म की वृवियां, भारतका भावी गट दो आना १२ किताव का १) धर्म, सत्य ज्ञान की कजी जैन धर्म की व्यापकता. १ धर्म का डंका, २ हितोपदेश रत्नावली । जैन दर्शन जैन धर्म, हम जैन कैसे हुये ?, व्यापार साढ़े तीन आने ६ किताव का १) शिक्षा, श्रामहित संग्रह, कल्याण मामिग्री, मफलता
जैन स्तुनि मंप्रह, विधवा मनी का चारित्र, के सिद्धांत । ३ मफलता के ३६५ मिद्धांत ।
___एक सेट का ग्यर्चा ॥), जि में खरीददार, पांच जम्बुस्वामी का चरित्र ।-) ४ किताब का ११) सेट एक माथ मंगवानं पर ग्र्चा माफ़।
पता-मोतीलाल रांका, जैन पुस्तक प्रकाशक आफिम ब्यावर (गजपताना)
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Regd. No. L. 4328
अनुकरणीय
जिन मालागेकी प्रोग्म १०१ मंस्थाको अनकान्न' भंटम्वरूप भिजवाया जा रहा है, उन दातारों और संस्थाओंकी मृची तीमरी और चौथी किरणम मधन्यवाद प्रकाशित हो चुकी है । इम माहमें ला वंशीधर मीगमल जैन देहलीने विवाहोपलक्षम और श्रीमती सुनहरीदेवी शाहदराने अपने पति म्बर्गीय लाला श्योमिहरायजीकी स्मृतिम अन्य मन्थाको भंजते हुए अनेकान्न' के लिये भी ६-६० वान स्वरूप भिजवानेकी कृपा की है। किन्नु हम अपन नियमानुसार अनेकान्तकं लिये दान नहीं लेते। अतः उन मपयोंसे ६ स्थानाम अनकान प्रथम किरण भिनयाना प्रारम्भ कर दिया है। उक्त दानारोंके अलावा बाट आनन्दकुमारजी न्यू दहनी और बाद महावीरप्रसादजी बी मरधनान एकनाक संस्था को भिजवाने के लिये 20 और वा० मुखपालचन्दजी जैन न्य देहलीने २॥) भिजवा है । अन' उ दातारोंकी भोग्म निम्न संस्थाओंको अनेकान्न प्रथम किरणमे मंट-म्वरूप एक वर्षकं लिये जारी कर दिया गया है। आशा है अन्य मजन भी अनुकरण करके अनेकान्तके प्रचारमे सहायक होंगे।
--व्यवस्थापक
श्रीमती सुनहरीदेवी धर्मपन्नी म्ब० लाला . वंशीधर मारीमलजी जैन, देहलीकी श्योमिहराय जैन रईस शाहदग ( देहली) आर मेंकी भोरस---
१०६ गवर्नमैण्ट कालेज. लायलपुर
१७ भूपेन्द्र कालज, पटियाला स्टंट । १०२ मंत्री, मारवाड़ी लायोग, शाहग (देहली)
१०८ दि जैन मन्दिर. शिकारपुर (बुलन्नशहर) १४६ एम. एल. डी. कालेज लिब्रिज अहमदाबाद १०४ बनारसीदाम कालेज लायनेरी, अम्बाला कंट।
लाआनन्दकुमार जैन,न्य दहलीकी ओग्मे---
॥ १०९ वीप्रमाद पब्लिक लायनंग. मजीमण्डीबा० महावीरप्रसाद जैन, बी.प. मगधना
फिगंजपर कैण्ट । (मेरठ) की ओर से--
बामुखमालचन्दनी जैन,त्यदेहलीकी आग्मे--- १०५ सैण्ट चार्लस हाईस्कूल मरधना (मेरठ) १० जैन स्कूल बाजार हामानवाम, महारनपुर
नेमचन्द जैन बांडीडरक प्रबन्धसे 'पोरस' माफ इन्डिया कनॉट सकम न्यू टेहलीम छपा।
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वीर नि:म:
३५
वार्षिक मूल्य )
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मम्पादक
मचायकजुगलकिशोर मुख्तार
तनमुम्बगय जैन 'अधिष्ठाना बारमेवा मतिर मग्मावा (महाग्नपुर): कनॉट मरकम पो बन.
मुद्रक और प्रकाशक अयाध्यापमा मोयनीय ।
न्य देहली
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बन्दे वारम्
[ल. श्री. 'भगवत' जैन]
[३] पुण्य-दिवस है आज, वीर-प्रभुने अवतार लिया था ! वह विभति ! जिनका दर्शन है सबको मंगल-कारी ! दखी-विश्वकं साथ एक गरुतर-उपकार किया था..! जिनकी शान्ति-मखाकतिसं तर जातं पापाचारी !! कठिन कार्य तत्व-लोकहितको-स्वीकार किया था ! नाम-मात्र जिनका अव्यर्थ कहलाता संकट-हारी ! मंत्र-अहियाका जगतीको करुणाधार दिया था !! अभय-लोकका वासी बनता वीर-नाम-व्यापारी!!
है जिनक नंतत्व-कालकी अबतक हम पर छाया ! वंदनीय वह अखिल विश्वके, माया-मोह विजेता ! 'हम उनकं' यह कहने भरका गौरव हमने पाया !! सर्व शक्ति-शाली परमेश्वर ! जगक अनुपम नेता !' यदि हम उनके पथ पर चलते तो मिट जाती माया ! सीमा-हीन-ज्ञानकं बल पर हैं अणु-अणुकं चत्ता ! रहता नहीं कभी भी यह मन सुखके हित ललचाया !! गाते जिनकी सतत महता मुनि सर-गण-अधिनंता !!
हृदय ! उन्हीं के चिन्तनमें अब भक्ति-युक्त होकर रम! बदल वासना-पर्ण विश्वका यह मिथ्या कार्यक्रम !! तभी. वंदना वन्हि स्वतः ही, हो जायेगा उपशम ! अतः प्रेम कही निर.तर सब-कर बन्दै बारम !!
विषय-सची *
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५. ममन्तभद्र-प्रवचन २. अन्तरद्वीपन मनध्य-मम्पादकीय ३. गजा हरमुग्यगय- [अ०प्र० गोयलीय ४. मत्संग ( कविता ) -[ अजान ५. परोपकार ( कविता )-[ श्री. कविग्न गिरधर शर्मा ६. प्राचार्य हेमचन्द्र- श्री रतनलाल मंचयी न्यायतीर्थ विशारद ७. शिक्षाका महत्व - [ श्री. परमानंद शाम्बी ... ८. भगवान महावीर ( कविता ) [ ले. श्री. यानंद जैन ६. नागन्य ( कहानी )-[ले. श्री भगवत् जैन ... १०. मुभापित [ले. स्वर्गीय पं० भधर दाम ... ११. उन्मत्त मंमार के काले कारनामे - पं. नाथगम डांगरीय १२. दक्षिण तीर्थ क्षेत्र-[ श्री. पं. नाथगमी प्रेमी १३. कथा कहानी [अयोध्याप्रमाद गोयलीय ... १४. भाग्य और पुरुषार्थ श्री. बा. सूरजभानजी वकील १५. मानव-मन ( कविता ) -[ श्री. नाथगम डोगरीय ५६. जैनधर्म और अनेकान-माहित्यरत्न पं. दरबागेलाल न्यायतीर्थ.. १७. तरुगा-गीत । कविता ) [ श्री. भगवन जैन १८. भगवनी अाराधना और शिवकोटि | ले. पं. परमानन्द शास्त्री १६. पथिक (कहानी:--लि. श्री नन्द्रप्रमाद जैन बी. ए.
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अनेकान्त
श्री जैन नया मन्दिर देहली
इस मन्दिरकी निर्माण कला देखते ही बनती है। समवशरण में संगमरमर की वेदी में पचकारीका काम बिल्कुल अनूठा और अभूतपूर्व है। कई अंशों में ताजमहल से भी अधिक बारीक और अनुपम काम इस वेदीमें हुआ ( पृ० ३३४)
( ल० पन्नालाल जैन श्रमवालके सौजन्य से प्राप्त )
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ॐ महम्
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नीति-विरोध-ध्वंसी लोक-व्यवहार-वर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥
वर्ष २
सम्पादन-स्थान-वीर-सेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम) सरसावा, जि.सहारनपुर प्रकाशन-स्थान-कनॉट सर्कस, पो० ब० नं० ४८, न्यू देहली
चैत्र शुक्ल, वीरनिर्वाण सं० २४६५, विक्रम सं०१६६६
किरण
नित्यायेकान्तगर्तप्रपतनविवशान्प्राणिनोऽनर्थसार्थादुद्धर्तुं नेतुमुथैः पदममलमलं मंगलानामलंध्यम् । स्याद्वाद-न्यायवर्ती प्रथयदवितथार्थ वचः स्वामिनोदः प्रेक्षावत्त्वात्प्रवृत्तं जयतु विघटिताऽशेषमिथ्याप्रवादम् ।।
-प्रष्टसहस्या, विद्यानंदाचार्य: स्वामी समन्तभद्रका वह निर्दोष प्रवचन जयवन्त हो-अपने प्रभावसे लोकहृदयोंको प्रभावित करे-जो नित्यादि एकान्तगर्तोमें-वस्तु कूटस्थवत् सर्वथा निस्य ही है अथवा क्षण-क्षणमें निरम्बय विनाशरूप सर्वथा क्षणिक ही है, इस प्रकारकी मान्यतारूपी एकान्तखडोंमें-पड़ने के लिये विवश हुए प्राणियोंको अनर्थ-समूहसे निकालकर मंगलमय उच्चपदको प्राप्त कराने के लिये समर्थ है, स्यादाद न्यायके मार्गको प्रख्यात करने वाला है, सत्यार्थ है, अलप्य
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अनेकान्त
[चैत्र, वीर निर्वाण सं० २४६५
है, परीक्षापूर्वक प्रवृत्त हुआ है अथवा प्रेक्षावान्-समीक्ष्यकारी प्राचार्यमहोदयके द्वारा जिसकी प्रवृत्ति हुई है और जिसने संपूर्ण मिथ्याप्रवादको विघटित-तितर बितर-कर दिया है।
विस्तीर्णदुर्नयमयप्रबलान्धकार-दुर्बोधतत्त्वमिह वस्तु हितावबद्धम् । व्यक्तीकृतं भवतु नस्सुचिरं समन्तात्सामन्तभद्र-वचनस्फुटरत्नदीपैः ।।
-न्यायविनिश्च यालंकारे, वादिराजसूरिः फैले हुए दुर्नयरूपी प्रबल अन्धकार के कारणमे जिसका तत्त्व लोकमें दुर्बोध हो रहा है-ठीक समझ नहीं पड़ता-वह हितकारी वस्तु-प्रयोजनभन जीयादि पदार्थमाला-श्रीसमन्तभद्रके वचनरूपी देदीप्यमान रत्नदीपकोंके द्वारा हमें सब ओरसे चिरकाल तक स्पष्ट प्रतिभामित होव–अर्थात् स्वामी ममन्तभद्रका प्रवचन उम महा-जाज्वल्यमान रत्नसमूहके ममान है जिसका प्रकाश अप्रनिहन होता है और जो संमारमें फैले हुए निरपेक्षनयरूपी महामिथ्यान्धकारको दूर करके वस्तुतत्त्वको म्पट करनेमें समर्थ है, उसे प्राप्त करके हम अपना अज्ञान दूर करें ।
स्यात्कारमुद्रितसमस्तपदार्थपर्ण त्रैलोक्यहर्म्यमखिलं स खलु व्यनक्ति । दुर्वादकोक्तितमसा पिहितान्तरालं सामन्तभद्र वचनस्फुटरलदीपः ।।
-श्रयगावेल्गोलशिलाले. नं०१०५ श्रीममन्तभद्रका प्रवचनम्पी देदीप्यमान रत्नदीप उम त्रैलोक्यरूपी महलको निश्चितरूपसं प्रकाशित करता है जो स्यात्कारमुद्राको लिये हा समझा पदाथोंग पग है और जिसके अन्तराल दुर्वादियोंकी उक्तिम्पीयन्धकारम आच्छादित हैं।
जीवसिद्धिविधायीह कृतयुक्त यनुशासनम् । वचः समन्तभद्रस्य वीरस्येव विज़म्भते ।।
-हरिवंशपुराणे, जिनसनाचार्यः जीवसिलिका विधायक और युक्तियों द्वारा अथवा युक्यिोंका अनुशासन करने वाला अर्थात् 'जीवनिद्धि' और 'युनयनुशामन' जैसे ग्रन्थों के प्रणयनरूप---ममन्तभद्रका प्रवचन श्रीवीर के प्रवचनकी तरह प्रकाशमान हैअन्तिम तीर्थंकर श्रीमहावीर भगवान के वचनों के समकक्ष है और प्रभावादिकमें भी उन्हींके तुल्य है।
श्रीमत्समन्तभद्रस्य देवस्यापि वचोऽनघम् । प्राणिनां दुर्लभं यद्वन्मानुषत्वं तथा पुनः॥
-सिद्धान्तसारसंग्रह, नन्द्रसेनाचार्यः श्रीसमन्तभद्रदेवका निदीप प्रवचन प्राणियों के लिये ऐमा हो दुर्लभ है जैसा कि मनुष्यत्वका पाना-अर्थात् अनादि कालसे संमार में परिभ्रमण करते हुए प्राणियों को जिस प्रकार मनुष्यभवका मिलना दुर्लभ होता है उमी प्रकार समन्तभद्रदेवके प्रवचनका लाभ होना भी दुर्लभ है, जिन्हें उसकी प्रामि होती है वे निःसन्देह सौभाग्यशाली हैं।
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LEE , तत्वचची
अन्तरद्वीपज मनुष्य
_ [मम्पादकीय]
नुष्योंके कर्मभमिज आदि चार भेदोंमें 'अन्तरद्वीपज' पश्चिम दिशामें 'पतिमानप' भी बाम करते हैं, जिनके
भी एक भेद है। अन्तरद्वीपोंमें जी उत्पन्न होते हैं उन्हें पक्षियोंकी तरह पगंका होना जान पड़ता है। यथाः'अन्तरद्वीपज' कहते हैं । ये अन्तरद्वीप लवणोदधि तथा कालोदे दिशि निश्चेयाः प्राच्यामुदकमानुपाः । कालोदधि समुद्रोंके मध्यवर्ती कुछ टाप है, जहां कुमानुपा- अपाच्यामश्वकर्णास्तुप्रतीच्या पक्षिमानुपाः ।। ५.५६७।। को उत्पत्ति होती है और इमीम इन द्वीपोंको 'कुमानपदीप'
-हरिवंशपुराणे, जिनसेनः भी कहते हैं, जैसा कि निलोयपएणती (विनोकप्रशमि) के अपनी सी ऐसी विचित्र प्राकृनियों और पशुश्रांक निम्न वाश्याम प्रकट है
ममान जीवन व्यतीन करने के कारण वे लोग 'कुमानुप' "कुमाणसा होनि तराणामा ।" कहलाते हैं । अपजिनमृरिने,जो कि विक्रमकी प्रायः ७वीं "दीवाण कुमाणसहि जनाणं ।।" या ८ वीं शताब्दीक विद्वान हैं. भगवनी अाराधनाकी
-अधिकार ४ था __गाथा नं. ७८१ की टोकामें इन कुमानपोंकी श्राकृति इन द्वीपोंमें उत्पन्न होनेवाले मनुष्योकी प्राकृति श्रादिका कुछ वर्णन देते हुए इन्हें माफ़तौर पर मनुष्याय पर्गरूपसे मनुष्यों-जैनी नहीं होनी-मनुष्याकृतिक माथ को भोगने वाले, कन्द-मूल फलाहारी और मृगोपमचेष्टित पशुश्रांकी प्राकृतिके मिश्रणको निये हुए होती है । ये निग्या है। यथा--- मनुष्य प्रायः नियंचमुन्व होने हैं-कोई अश्वमग्य है, इत्येवमादयो ज्ञया अन्तरद्वीपजा नराः॥ कोई गजमुग्य, कोई वानरगुन्ध इत्यादि किन्हीं के मांग है, समुद्रीपमध्यस्थाः कन्दमलफलाशिनः । किन्हींक पंछ और कोई एक ही जंघावाले होते हैं । अपने चंदय ते मनुप्यायुस्ले गूगोयमचंटिताः॥ इम श्राकृतिभेदके कारण ही उनमें परस्पर भेद है- 'मग पमचेटिन' विशेषगमे यह स्पष्ट माना जाना है एक अन्तरद्वीप में प्रायः एक ही श्राकृतिक मनाय निवाम किये हो। प्रायः पशुओं के समान जीवन व्यतीत करते हैं । कालोदधिको पूर्वदिशाम को 'उदकमानुप' भी करने वाले होते हैं। रहते हैं, जिन्हें जलचर मनुष्य नमझना चाहिये और श्रीनटा मिदनन्धाचार्य, जो रिक्रमकी प्रायः यां
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अनेकान्त
[चैत्र, वीर-निर्वाण सं० २४६५
शताब्दीके करीब हुए है,अपने वरांगचरित केछठे सर्गमें दिग्विजयके अनन्तर भरत चक्रवर्तीकी विभूतिके वर्णनमें तिर्यंचगतिके दुःखों और उसके कारणोंका वर्णन करते शामिल किया है, जिससे यह मालूम होता है कि भरतहुए लिखते हैं :
चक्रवर्तीने अन्तरद्वीपोंको भी अपने प्राधीन किया है सुसंयतान्वाग्भिरधिक्षिपन्तो संयतेभ्यो ददते सुखाय । और इसलिये वे द्वीप भोगभूमिके क्षेत्र नहीं हैं । श्रादितिर्यड्मुखास्ते च मनुष्यकल्पा दीपान्तरेषु प्रभवन्त्यभद्राः पुराणका वह वाक्य इस प्रकार हैकेचित्पुनर्वानरतुल्यवक्ताः केचिद्गजेद्रप्रतिमाननाश्च । भवेयुरन्तरद्वीपाः षट्पंचाशत्पमा मिताः। अश्वानना मेएर मुखाश्चकेचिदजोष्ट्रवक्तामहिषीमुखाश्च। कुमानुषजनाकीर्णा येऽविस्य खिलायिताः॥६५॥ __अर्थात्-जो लोग सुसंयमी पुरुषोंका वचनों द्वारा
-पर्व ३७वां तिरस्कार करते हुए असंयमी पुरुषों (अपात्रों) को सुखके अब इस विषयमें तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकके कथनको लिये दान देते हैं वे द्वीपान्तरोंमें तिर्यंचमुख वाले अभद्र भी लीजिये, जो अनेक ग्रन्थकथनोंके समन्वयरूप जान प्राणी (कुमानुष) होते हैं, जिन्हें 'मनुष्यकल्प'-मनुष्योंसे पड़ता है । श्रीविद्यानन्दाचार्य 'आर्या म्लेच्छाश्च' इस सूत्रकुछ हीन-समझना चाहिये। इनमेंसे कोई बन्दर-जैसे की टीकामें,म्लेच्छमनुष्योंके अन्तरद्वीपज और कर्मभूमिज मुखवाले, कोई हाथी-जैसे मुखवाले, कोई अश्वमुख, कोई ऐसे दो भेद करनेके बाद 'श्राद्याः षरणवतिः ख्याता मेंढामुख, कोई बकरामुख, कोई ऊँटमुख,और कोई भैस- वार्घिद्वयतटद्वयोः' इस वाक्यके द्वारा अन्तरद्वीपोंको मुख होते हैं।
लवणो दधि और कालो दधिके दोनों तटवर्ती द्वीप भेद ___ साथ ही, सातवें सर्गमें निम्न वाक्य-द्वारा, उन्होंने के कारण ६६ प्रकार के बतलाते हुए, लिखते हैंयह भी सूचित किया है कि अपात्रदानका फल. कुमानुषों "ते च केचिद्भोगभूमिसमप्रणिधयःपरेकर्मभूमिमें जन्म लेकर और सुपात्रदानका फल भोगभूमिमें जन्म समप्रणिधयःश्रयमाणा कीहगायुरुत्सेधवृत्तयइत्याचष्टेलेकर भोगना पड़ता है, इससे अपात्रदान त्याज्य है- भोगभूम्यायुरुत्सेधवृत्तयो भोगभूमिभिः । अपात्रदानेन कुमानुषेषु सुपात्रदानेन च भोगभूमौ । समप्रणिधयः कर्मभूमिवत्कर्मभूमिभिः ।। फलं लभन्ते खलु दानशीलास्तस्मादपात्र परिवर्जनीयम् भोगभूमिभिःसमानप्रणिधयोऽन्तरद्वीपजा म्लेच्छा
इन दोनों कथनों से स्पष्ट है कि भीजटा-सिंहनन्दी- भोगभूम्यायुरुत्सेघवृत्तयःप्रतिपत्तव्याः, कर्मभूमिभिःसमश्राचार्यने अन्तरढीपज मनुष्योंको प्रायः तिर्यंचोंकी कोटिमें प्रणिधयःकर्मभूम्यायुरुत्सेधवृत्तयस्तथानिमित्तसद्भावात्।" रक्खा है, उन्हें 'मनुष्यकल्प' तथा 'कुमानुष' बतलाया इन वाक्योंके द्वारा यह प्रतिपादन किया गया है है और भोगभूमिया नहीं माना।
कि-'उन अन्तरदीपज मनुष्योंमेंसे कुछ तो किसी भीजिनसेनाचार्यने आदिपुराणमें अंतरद्वीपोंको किसी अन्तरदीपके निवासी तो—'भोगभूमिसमप्रणिधि' कुमानुषजनोंसे भरे हुए लिखा है और साथ ही उन्हें है और शेष सब 'कर्मभूमिसमप्रणिधि' है । जिनकी
यह अन्य प्रो. ए. एन. उपाध्याय एम.ए.के श्रायु, शरीरकी ऊंचाई और वृत्ति (प्रवृत्ति अथवा भाजीद्वारा सुसंपादित हो कर अभी माणिकचन्दग्रन्थमालामें विकाके साधन ) भोगभूमियोंके समान है उन्हें 'भोगप्रकट हुआ है।
भूमिसमप्रणिधि' कहते हैं और जिनकी आयु, ऊँचाई
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वर्ष २, किरण ६]
अन्तरखीपज मनुष्य
तथा वृत्ति कर्मभूमि के समान हैं वे 'कर्मभमिसमप्रणिषि और इसलिये गोम्मटसार-कर्मकाण्डकी गाथा न. कहलाते हैं। क्योंकि उनकी प्रायु प्रादिके लिये उस उस ३००में 'देसे तदियकसाया णीचं एमेव मणुससामरणे प्रकारके निमित्तका वहां सद्भाव है।'
इस वास्यके द्वारा मनुष्य सामान्यकी दृष्टिसे-किसी वर्गऊपरके इन सब प्राचीन कथनोका जब एक साथ विशेषकी दृष्टिसे नहीं-देशसंयत गुणस्थानमें जो नीच विचार किया जाता है तो ऐसा मालम होता है कि गोत्रका उदय बतलाया है वह इन अन्तरदीपज मनुष्यों
अन्तरद्वीपज मनुष्य अधिकांशमें 'कर्मभमिसमप्रणिधि' को लक्ष्य करके ही जान पड़ता है। और 'मणवे भोषो हैं--कर्मभूमियोंके समान आयु, उत्सेध तथा वृत्तिको थावर' इत्यादि गाथा नं०२६८ में मनुष्योंके जो उदयलिये हुए हैं, उनका 'कन्दमलफलाशिनः' विशे- योग्य १०२ प्रकृतियां बतलाई हैं और उनमें नीचगोत्र पण और भरत चक्रवर्तीके द्वारा उन द्वीपोंको जीतकर की प्रकृतिको भी शामिल किया है उसमें नीचगोत्र-विषस्वाधीन किया जाना भी इसी बातको सूचित एवं पुष्ट यक उल्लेख इन अन्तर दीपज मनुष्यों तथा सम्मूर्धन करता है। यहां इस लेख में उन्हींका विचार प्रस्तुत है। मनुष्योंको भी लक्ष्य करके किया गया है,क्योंकि ये दोनों वे सब कुमानुष है, मनुष्य कल्प हैं-मनुष्योंसे हीन हैं हीनीचगोत्री हैं और गाथामें 'पोष' शब्दके प्रयोगद्वारा -और 'मृगोपमचेष्टित' विशेषणसे पशुओंके समान सामान्यरूपसे मनुष्यजातिकी दृष्टिसे कथन किया गया है जीवन व्यतीत करने वाले हैं। उनकी प्राकृति अधिक- -मनुष्यमात्र अथवा कर्मभूमिज आदि किसी वर्गविशेष तर पशुत्रोंसे 'मिलती-जुलती है-पशजगतकी तरफ के मनुष्योंकी दृष्टिसे नहीं। यदि मनुष्यमात्र अथवा सभी उसका ज्यादा मुकाव है क्योंकि शरीरका प्रधान अंग वोंके मनुष्योंके लिये उदययोग्य प्रकृतियोंकी संख्या 'मुख' ही उनका पशों -जैसा है और उसीकी विशेषता १०२ मानी जाय तो गाथा नं.३०२ व ३०३ में भोगके कारण उनमें नामादिकका भेद किया जाता है- भूमिज मनुष्योंके उदययोग्य प्रकृतियोंकी संख्या जो ७८ 'तिर्यड मुखाः' विशेषण भी उनकी इसी बातको पुष्ट करता बतलाई है और उसमें नीचगोत्रको शामिल नहीं किया है। जटासिंहनन्दी प्राचार्यने तो तिर्यचोंके वर्णनमें ही उसके साथ विरोध पाता है। साथ ही,अन्तरद्वीपज और उनका वर्णन दिया है-मनष्योंके वर्णनमें उनका सम्मछन मनुष्योंमें भी उबगोत्रका उदय ठहरता है; समावेश नहीं किया। इससे यह स्पष्ट जाना जाता है क्योंकि १०२ प्रकृतियोंमें उथगोत्र भी शामिल है। बाकी कि ये अन्तरद्वीपज मनुष्य प्रायः तिर्यचोंके ही समान कर्मभमिज मनुष्य-जिनमें प्रार्यखण्डज और म्लेच्छखहैं-मात्र मनुष्यायुका उपभोग करने तथा कुछ प्राकृति एडज दोनों प्रकारके मनुष्य शामिल हैं-सकलसंयमके मनष्यों-जैसी भी रखने प्रादिके कारण कमानष कह पात्र होने के कारण उच गोत्री हैं. यह बात लाते हैं । और इसलिये इन अभद्र प्राणियोंको तिर्यचों- पिछले लेखमें -'गोत्रकर्म पर शास्त्रीजीका उत्तर लेख' के ही समान नीचगोत्री समझना चाहिये ।
शीर्षकके नीचे स्पष्ट कर चुका हूँ और इसलिये गोम्मटसार चंकि तिर्यचौको देशसंयमका पात्र माना गया कर्मकाण्डकी उक्त गाथा नं०२६८ तथा ३०. में मनुष्योंहै और ये कर्मभूमिसमवृत्तिवाले अन्तरद्वीरज मनुष्य के नीचगोत्रके उदयका जो सम्भव बतलाया गया है मनुष्याकृति श्रादिके संमिश्रण द्वारा दूसरे तिर्यचपशुओंसे कुछ अच्छी ही हालतमें होते हैं, इसलिये इनमें देश- इस प्रकार प्राचीन दिगम्बर जैन ग्रंथोपरसे कर्मभूमिसंयमकी पात्रता और भी अधिक सम्भव जान पड़ती है। समप्रणधि अन्तरद्वीपजमनुष्योंके नीचगोत्री होने और ऐसी हालतमें यह कहना कुछ भी असंगत मालूम नहीं देशसंयम धारण कर सकने का जो निष्कर्ष निकलता है होता कि ये लोग तिर्यंचोंकी तरह नीचगोत्री होनेके यह पाठकोंके सामने है। आशा है विद उमन इसपर साथ साथ देशसंयत नामके पांचवें गुणस्थान तक जा विचार करने की कृपा करेंगे। सकते है।
वीरसेवामंदिर, सरसावा; ता०३-३-२६३६
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गोरवगाथा पर
हमारे पराक्रमी पूर्वज
राजा हरसुखराय
[ले. अयोध्याप्रसाद गोयलीय]
भी दिन थे, जब हमारे पर्वज लक्ष्मीकी होना सम्भव नहीं। इसीलिये व लक्ष्मीको ठकराते थे
अाराधना न करके उस पर शासन करतं और उसके बल पर सम्मान नहीं चाहते थे; पर होता ५ ! धनको कौड़ियोंकी तरह बखेरते थे, पर वह कम न था इसके विपरीत । लक्ष्मी उनके पाँवाँस लगी फिरती होता था! ग़रीब-गुरबानोंकी इम्दाद करते थे, मगर थी। कोयलोंमें हाथ डालते तो अशर्फियां बन जाती थीं डरते हुए !-कहीं ऐसा न हो कोई भाई बुरा मान जाय और सांप पर पांव पड़ता था तो वह रत्न-हार बन और कह बैठे----"हम ग़रीब हुए तो तुम्हें धन्नासेठी जाता था। जतानी नसीब हई!" धार्मिक तथा लोकोपयोगी कार्यो- व लक्ष्मीके लिये हमारी तरह वीतराग भगवान्को म लाखों रुपये लगाते थे, परन्तु भय बना रहता था कि रिझानेका हास्यास्पद प्रयत्न नहीं करते थे। और न कहीं किसीको यात्म-विज्ञापनकी गन्ध न श्राजाए ! धेलीकी खील-बताशे गले में बांटते हुए मंगतोंके सर पर किए हा धर्म-दानकी प्रशंमा सुन पड़ती थी तो बहरे पांव रखकर दानवीर कहलानेकी लालमा रखते थे। बन जाते थे, जिससे श्रात्म-प्रशंसा सुन कर अभिमान पांच अानेकी काटकी चौकी मन्दिर में चढ़ाते हुए उनके न हो जाय ! व लक्ष्मीके उपासक न होकर वीतरागके पायों पर चारों भाइयोंका नाम लिखानेकी इच्छा नहीं उपासक थे । लक्ष्मीको पूर्व संचित शुभ कर्मीका उपहार रखते थे और न अपनी स्वर्गीय धर्मपत्नीकी पवित्र स्मृति न समझ कर कुमार्गकी प्रवर्तक समझते थे। उनका में सवा रुपयेका छतर चढ़ा कर कीर्ति ही लुटना चाहते विश्वास था--सुईके छिद्रोंमें हजार ऊंटोका निकल थे। उन्हें पद प्रतिष्ठा तथा यश-मानकी लालसा न आना तो सम्भव, पर लक्ष्मीपतिका संसार-सागरसे पार होकर आत्मोद्धारकीही कामना बनी रहती थी।
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वर्ष २, किरण [६]
नेकी करके कुए में फेंकनेवाले ऐसे ही माई के लालोंमें देहली के राजा हरसुखराय और उनके सुपुत्र मुगनचन्दजी हुए हैं। सन् १७६० में देहलीके धर्मपुरे मोहल्ले में राजा हरसुखराजजीने एक अत्यन्त दर्शनीय भव्य जिन मन्दिरका निर्माण कराया, जिसकी लागत उस समयकी ८ लाख कृती जाती है। यह मन्दिर वर्ष बनकर जब तैयार हुखा तो एक दिन लोगोंने सुबह उठकर देखा कि मन्दिरका सारा काम सम्पूर्ण हो चुका है केवल शिखर पर एक दो रोज़का काम और बाकी था, किन्तु तामीर बन्द कर दी गई है और राजा साहब, जो सर्दी गर्मी बरसात में हर समय मार-मज़दूरों में खड़े काम कराते थे, आज यहाँ नहीं है ।
लोगोंको अनुमान लगाते देर न लगी। एकसज्जन बोले - "हम पहले ही कहते थे इस मुसलमानी राज्यमें जब कि प्राचीन मन्दिर ही रखने दूभर हो रहे हैं, तब नया मन्दिर कैसे बन पाएगा ?"
दूसरे महाशय अपनी अक्लकी दौड़ लगाने हुए बोल उठे "खेर भाई राजा साहब बादशाह के खजांची हैं, मन्दिर बनानेकी अनुमति ले ली होगी। मगर शिव मन्दिर कैसे बनवा सकते थे ? अगर मन्दिरका शिखर बनानेकी श्राज्ञा दे दी जाय, तो मस्जिद और मन्दिर अन्तर ही क्या रह जायगा ?"
राजा हरसुखराय
तीमने टकल लगाते हुए कहा- "वेशक मन्दिरकी शिखरको मुसलमान कैसे सहन कर सकते हैं ? देखो न, शिखर बनता देख फौरन तामीर रुकवादी ।"
किसीने कहा--"अरे भई राजा साहबका क्या बिगड़ा, वे तो मुँह छुपाकर घरमें बैठ गये । नाक तो हमारी कटी !! भला हम किसीको अब क्या मुँह दिखाएँगे इस फजी से तो यही बेहतर था कि मन्दिरकी नींव ही न खुदवाते !!! "
२३३
जिस प्रकार म्युनिस्पैलिटीका जमादार ऊँचे-ऊँचे महल और उनके अन्दर रहने वाले भव्य नर-नारियोंको न देखकर गन्दगीकी ओर ही दृष्टिपात करता है, उसी प्रकार छिद्रानुवेधी गुण न देख कर अवगुण ही खोजते फिरते हैं । जो कोरे नुक्ताचीं थे वे नुक्ताचीनी करते रहे; मगर जिन्हें कुछ धर्मके प्रति मोह था उन्होंने सुना तो अन्न-जल छोड़ दिया। पेट पकड़े हुए राजा हरमुग्वराय जीके पास गये और श्रोमं श्रोंसू भर कर अपनी व्यथा को प्रकट करते हुए. बोले
" आपके होते हुए भी जिन-मन्दिर अधूरा पड़ा रह जाय, तत्र तो समझिये कि भाग्य ही हमारे प्रतिकुल है
| आप तो फर्माते थे कि बादशाह सलामतने शिखर बनाने के लिये खुद ही अपनी ख्वाहिश जाहिर की थी; फिर नागहानी यह मुसीबत क्यों नाज़िल हुई !"
राजा साहबने पहले तो टालमटूलकी बातें कीं फिर मुंह लटकाकर सकुचाते हुए बोले- “भाइयोंके श्रागे
पर्दा रखना भी ठीक नहीं मालूम होता, दरअसल बात यह है कि जो कुछ थोड़ीसी यूंजी थी, वह सब ख़त्म हो गई, कर्ज में किसीसे लेनेका आदी नहीं, सोचता हूँ बिरादरी चन्दा करलूं, मगर कहने की हिम्मत नहीं होती। इसीलिये मजबूरन तामीर बन्द कर दी गई है ।"
सुना तो बांछें खिल गई - " बस राजासाहब इतनी जरीमी बात !!" कहकर यागन्तुक सज्जनोंने अशर्फियोंका ढेर लगा दिया ! और बोले— “श्रापकी जूतियाँ जाएँ चन्दा माँगने । हम लोगोंके क्षेते आपको इतनी परेशानी !! लानत है हमारी ज़िन्दगी पर !!!
राजासाहब कुछ मुस्कराते श्रीर कुछ लजाते हुए बोलेबेशक, मैं अपने सहधर्मी भाइयोंसे इसी उदारताकी श्राशा रखता था । मगर इतनी रकमका मुझे करना क्या
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अनेकान्त
[चैत्र, वीर-निर्वाण सं०२९६५
है? दो चार रोजकी तामीर-खर्चके लिये जितनी रकमकी गरके हाथ चूम लेनेको जी चाहता है और बेसाख्ता ज़रूरत है, उसे अगर मैं लूंगा तो सारी बिरादरीसे लूंगा हरसुखरायजीकी इस सुरुचिके लिये वाह-वाह निकल वर्ना एकसे भी नहीं।"
पड़ती है। श्री जिनभगवान्का प्रतिविम्ब इस वेदीमें जिस ___ हील-हुज्जत बेकार थी, हर जैन घरसे नाममात्रको पापाण-कमल पर बिराजमान है वह देखते ही बनती चन्दा लिया गया। मन्दिर बनकर जब सम्पूर्ण हुअा है। यद्यपि प्राचीन तक्षणकलासे अनभिज्ञ और जापानी तो बिरादरीने मिन्नतें कीं-राजा साहब मन्दिर श्रापका टाइलोंसे आकर्षित बहुतसे जैनबन्धुश्रोंको यह है, आप ही कलशारोहण करें । राजा साहब फ्गड़ी मन्दिर अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सका है, फिर उतारकर बोले-भाइयो ! मन्दिर मेरा नहीं पंचायतका भी जैनोंके लाख-लाख छुपाने पर भी विदेशोंमें इसकी है, सभीने चन्दा दिया है, अतः पंचायत ही कलशा- भव्य कारीगरीकी चर्चा है और विदेशी यात्री देहली रोहण करे और वही श्राजसे इसके प्रबन्धकी ज़िम्मे- आने पर इस मन्दिरको देखनेका ज़रूर प्रयत्न करता दार है।"
है । यह मन्दिर १७६ वर्ष पुराना होने पर भी नए लोगोंने सुना तो अवाक रह गये, अब उन्होंने इस मन्दिरके नामसे प्रसिद्ध है। थोड़ीसी रकमके लिये चन्दा उगाहनेके रहस्यको इस मन्दिरकी जब प्रतिष्ठा हुई थी, तो तमाम कीमती समझा।
___सामान मुसलमानोंने लूट लिया था, किन्तु बादशाहके मन्दिर श्राज भी उसी तरह अपना सीना ताने हुक्मसे वह सब सामान लुटेरोंको वापिस करना पड़ा। हुए. गत गौरवका बखान कर रहा है। इस मन्दिरकी हरसुखरायजी शाही खजाँची थे और बादशाहकी ओरनिर्माण-कला देखते ही बनती है। समवशरण में से उन्हें राजाका खिताब मिला हुआ था। इन्हींके संगमरमरकी वेदीमें पच्चीकारीका काम बिल्कुल अनूठा सुपुत्र सेठ सुगनचन्दजी हुए हैं। इन्हें मी पिताके बाद
और अभूतपूर्व है । कई अंशोंमें ताजमहलसे भी अधिक राजाकी उपाधि और शाही खजाँचीगीरी प्राप्त हुई थी बारीक और अनुपम काम इस वेदी पर हुअा है । वेदी- और वह ईस्टइण्डिया कम्पनीके शासनकाल तक इन्हीं में बने सिंहोंकी मूछोंके बाल पत्थरमें खुदाई करके के पास रही। इनका जीवन-परिचय अगली किरणमें काले पत्थरके इस तरह अंकित किए गए हैं कि कारी- देखिये।
परोपकार जाइयो तहाँ ही जहाँ संग न कुसंग होय, जड़से उखाड़के सुखाय डारे मोहि, कायरके संग शूर भागे पर भागे है। मेरे प्राण घोट डारें धर धुओंके मकानमें । फूलनकी बासना सुगन्ध भरे बासनामें, मेरी गाँठ काटें मोहि चाकूसे तरास डारे, कामिनीके संग काम जागे पर जागे है। अन्तरमें चीर डारे धरें नहीं ध्यानमें । घर बसे घर पै बसौ, घर वैराग कहाँ, स्याही माहि बोर-बोर करें मुख कारो मेरो, काम, क्रोध, लोभ, मोह पागे पर पागे है । करू मैं उजारो तोकू ज्ञानके जहानमें । काजरकी कोठरीमें लाखहु सयानो जाय, परे हूँ पराये हाथ तन परोपकार, काजरकी एक रेख लागे पर लागे है ॥ चाहै घिस जाऊँ यूँ कहै कलम कानमें । -भज्ञात्
-कविरत्न गिरधर शर्मा
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२, किरण]
प्राचार्य हेमचन्द्र
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प्राचार्य हेमचन्द्र [ले. श्री रतनलाल संघवी न्याय-तीर्थ विशारद ]
(क्रमागत)
रस-अलंकार-ग्रन्थ
उदाहरण पूर्वक समझानेका सफल प्रयास किया गया साहित्यके प्रामाणिक अंग रूप रस, अलंकार, गुण, है।
" दोप, रीति श्रादिका वास्तविक और विस्तृत ज्ञान व्यंजना शक्ति के विवेचन में और शान्तरसकी सिद्धि करने के लिये प्राचार्य हेमचन्द्रकी इस संबंधमें"कान्यानु- में गंभीर और उपादेय मीमांसा की गई है । "सिद्धहेम" शासन" नामक सुन्दर कृति महान् और उच्चकोटिकी है। के समान ही इममें भी पाठ अध्याय है। पहला इसकी रचना सुप्रसिद्ध कान्यज्ञ मम्मट कृत "काव्य- प्रस्तावना रूप है, दूसरा रस संबंधी है। जिसमें । प्रकाश" के समान है । साहित्यशास्त्र के प्रमुख अङ्गका रसोंका एवं स्थायी, व्यभिचारी और साविक भावोंका अधिकारी रूपसे इसमें जो मार्मिक विवेचन किया गया भेद पर्वक वर्णन है। रमाभामका विवेचन भी है। है; उसमें प्राचार्य हेमचन्द्रकी सर्वतोमुखी प्रतिभाका तीसरे अभ्यायमें काध्य, रस, पद, वाक्य श्रादिके दोषोंकी और प्रकांड पोडित्यका अच्छा पता चलता है। यह मीमांसा की गई है। चौथमें माधुर्य, भोग और सूत्र-बद्ध ग्रंथ है। इस पर "अलंकार-चूडामणि" प्रसाद गुणोंका विवेचन है । पचिमें अनुप्रास, नामक २८०० लोक प्रमाण स्वोपशवृत्ति है। इसी लाटानुप्रास, यमक, चित्रकाष्य, श्लेष, वक्रोक्ति प्रकार इस पर "अलकार-वृत्ति-विवेक" नामक ४००० और पुनरक्ताभास प्रादि शम्दालंकारोंका वर्णन है। श्लोक प्रमाण एक दूसरी स्वोरश विस्तृत रीका मी है। छठेमें अर्थालंकारिका' विस्तार किया गया है। इन विशालकाय टीकाओंमें विस्तृत रूपसे मूल-भावोंको सातमें नायक, नायिका उनके भेद प्रमेंद और उनके
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अनेकान्त
गुण लक्षण आदिकी विवेचना है। अंतिम आठवें में प्रबंधात्मक काव्यके भेदोंका, और प्रेचयकाव्य, श्रव्य काव्य और नाटक आदिका कथन किया गया ' छन्द-शास्त्र
छन्द-शास्त्रमें "छन्दानुशासन" नामक कृति पाई जाती है। मूल ग्रंथ २२५ श्लोक प्रमाण है। उस पर भी तीन हजार श्लोक प्रमाण सुन्दर स्वोपशवृत्ति है। यह भी आठ अध्यायोंमें बटा हुआ है । छन्द-शास्त्रमें यह ग्रंथ अपनी विशेष सत्ता रखता है । अन्य छन्द-ग्रंथोंसे इसमें अनेक विशेषताएँ हैं। संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषा के छन्दोंका अनेक सुन्दर उदाहरणोंके साथ इसमें विवेचन किया गया है। यह इसकी उल्लेखनीय विशेषता है। इसके अध्ययनसे छन्दोंका सरल रीतिसे उपयोगी ज्ञान हो सकता है।
हमारे परम प्रतापी चरित्र नायकने शब्दानुशासन (व्याकरण), लिंगानुशासन ( कोष), काव्यानुशासन ( अलंकारादि ग्रंथ) और छन्दानुशासन, इस प्रकार चार महत्वपूर्ण ग्रंथोंकी रचना करके संस्कृत-साहित्य पर महान् और अवर्णनीय उपकार किया है। कहा जाता है कि इन्होंने बाद विवाद संबंधी "वादानुशासन” नामक थकी भी रचना की थी । किन्तु अनुपलब्ध होनेसे इस संबंध में भी लिखना कठिन है। लेकिन “प्रमाणकुछ मीमांसा" में इन्होनें जो "डल, जाति, निग्रहस्थान आदिका विस्तृत विवरण लिखा है; उसको देखते हुए यह कहा जा सकता है कि इनकी इस संबंध में कोई न कोई स्वतंत्र कृति अवश्य होनी चाहिये। लेकिन इनकी अनेक अन्य कृतियोंके समान ही संभव है कि यह कृति भी नष्ट हो गई होगी।
[ चैत्र, वीर-निर्वाण सं० २४६५
अपर नाम “अध्यात्मोपनिषद" है । मूल १२०० श्लोक प्रमाण है । यह भी १२ हजार श्लोक प्रमाण स्वोपशटीकासे अलंकृत । मुमुत्तु जीवोंके लिये-उभय लोककी शांति प्राप्त करनेवालोंके लिये यह सरल और महत्वपूर्ण ग्रंथ है। यह प्रकाश नामक १२ अध्यायों में विभाजित
। इसमें ज्ञानयोग, दर्शनयोग, चारित्रयोग, सम्यक्त्व, मिथ्यात्व, गृहस्थधर्म, कषाय, इंद्रिय-जय, मनः शुद्धि, मैत्री आदि चार भावना, आसन प्राणायाम, अत्याचारधारणा, पिंडस्थ, पदस्थ श्रादि शुभध्यानोंके भेद, मनजय, परमानंद, उन्मनीभाव, श्रादि श्रनेक योग और अध्यात्म विषयोंका वर्णन किया हुआ है । शान्तरसपूर्ण श्रात्मोपदेश दिया हुआ है। यह भी अपनी कोटिका श्रनन्य ग्रंथ है। इसमें पातंजलिकृत योग-शास्त्र में वर्णित श्राठ योगांगोको जैनधर्मानुसार श्राचरणीय करनेका प्रयास किया गया है। इसमें श्रासन प्राणायाम संबंधी जो विस्तृत विवेचन पाया जाता है। उससे पता चलता है कि उस समयसे “हठ-योग" का प्रचुर मात्रामें प्रचार था इस ग्रंथ में "विक्षिप्त", यातायात, श्लिष्ट और सुलीन ये मनके ४ भेद सर्वथा नवीन और मौलिक किये गये हैं । निश्चय ही जैन श्राचार-शास्त्र और जैन तत्त्वज्ञान शास्त्रका प्रतिनिधित्व करनेवाले ग्रंथोंमेंसे एक यह भी कहा जा सकता है।
आध्यात्मिक ग्रंथ
आध्यात्मिक विषयमें आपकी रचना “योग-शास्त्र"
स्तोत्र - ग्रंथ
श्राचार्यश्रीने "वीतराग स्तोत्र" और "महादेवस्तोत्र" नामक दो स्तोत्र भी लिखे हैं। "वीतराग स्तोत्र" अर्हतदेवके विविध लोकोत्तर गुणोंका परिचायक, भक्तिरससे भरपूर और स्तुतिके सर्व गुणोंसे संपन्न प्रसाद गुण युक्त, प्रतिदिन पठनीय सुन्दर स्तोत्र है । यह अनुष्टुप छन्दमें होता हुआ भी अत्यंत आह्लादक और आकर्षक
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वर्ष २, किरण ६]
प्राचार्य हेमचन्द्र
कथा-ग्रंथ
यह प्रन्थ भरा पड़ा है। इतिहासकी पिसे यह महान् समुद्र-समान विस्तृत और अति गंभीर "त्रिषष्टि- उपादेय ग्रंथ है। शलाका पुरुष-चरित्र" और परिशिष्टपर्वग्रन्थ श्राप द्वारा
नीति और अन्य अन्य रचित कथा-ग्रन्थ हैं । त्रिषष्टिशलाका पुरुष-चरित्रमें नीति-ग्रन्थोंकी दृष्टिसे “भईनीति" ग्रंथ प्रापकी वर्तमान अवसर्पिणीकालके २४ तीर्थकर, १२ चक्र- रचना कही जाती है। यह १४०० लोक प्रमाण है। वी, ६ बलदेव, ६ यासुदेव और ६ प्रतिवासुदेवका विद्वानों में मतभेद है कि यह ग्रंथ प्राचार्य हेमचन्द्रक. जीवन-चरित्र वर्णित है। यह पौराणिक-कान्य होता हुआ है या नहीं। क्योंकि इसमें वर्णित अनेक बातें प्राचार्य भी मध्यकालीन इतिहासके अनुसंधानमें और खास के व्यक्तित्वके अनुकूल प्रतीत नहीं होती हैं। करके गुजरातके इतिहासकी दृष्टि से उपयोगी साधन इसी प्रकार न्यायबलाबल सूत्राणि, बालभाषा सिद्ध हो सकता है। क्योंकि इसमें हेमचन्द्रकालीन व्याकरण सूत्रवृत्ति, विक्रम सूत्रम्, शेषसंग्रह, शेषसंग्रहसमाज-स्थिति, देशस्थिति, लोक व्यवहार आदि बातोंका सारोद्धार, द्वात्रिंशत्वात्रिंशिका, विजबदनचपेटा, चन्द्रवर्णन मिल सकता है। इससे यह भी पता चलता है लेखविजयप्रकरणम् , इत्यादि ग्रंथ भी प्राचार्य हेमचन्द्रकि आचार्य हेमचन्द्र सुधारक-मनोवृत्तिके महापुरुष के रचित कहे जाते हैं । आईतमत प्रभाकर कार्यालय थे । यह १० वर्षोंमें समाप्त हुआ है। इसका परिमाण पना द्वारा प्रकाशित प्रमाणमीमांसाके भूमिका पृष्ठ ३४००० श्लोक प्रमाण है । रस, अलंकार, छन्द, कथा- और १० पर उक्त ग्रंथोंका उल्लेख किया हुआ है। वस्तु, और काव्योचित अन्य गुणोंकी अपेक्षासे यह इस सम्बन्धमें अनुसंधान करनेकी पावश्यकता है, एक उच्च कोटिका महाकाव्य कहा जासकता है। हेमचन्द्र- तभी कुछ निश्चित् निर्णय दिया जा सकता है। . की पूर्ण प्रतिभाका पूरा-पूरा प्रकाश इसमें उज्ज्वलताके
न्याय-मान्य साथ सुन्दरीति से प्रकाशित हो रहा है । संस्कृत न्याय-ग्रंथोंमें दो स्तुति-श्रात्मक अतीसियाँ और काव्य साहित्यका इसे रवाकर समझना चाहिये। डेढ़ अध्यायवाली प्रमाणमीमांसा उपलब्ध है। प्रमाण
परिशिष्ट पर्व इसी ग्रंथराजका उपसंहार है। इसमें मीमांसा-ग्रंथ जैनन्याय साहित्यमें अपना विशेष स्थान महावीर स्वामीसे लगाकर युगप्रधान वनस्वामी तक- रखता है । "श्रथ प्रमाणमीमांसा" नामक प्रथम का जीवन-वृत्तान्त वर्णित है । अखण्ड-जैन संघमें सूत्रकी स्वोपश-वृत्तिसे शात होता है कि प्राचार्यश्रीने उत्पन्न होने वाले मतभेद, श्रुतपरम्पराका विच्छेद और व्याकरण, कान्य, और छन्दानुशासनकी रचनाके बाद उद्धार, देशमें पड़े हुए १२ दुष्काल, साधुसंघकी इसकी रचना की थी। यह पांच अध्यायोंमें विभक्त संयमपरायणता और शिथिलता, संघकी महासत्ता, था। प्रत्येक-अध्याय एकसे अधिक श्रानिक बाला मगध-सम्राट श्रेणिक और बिविसार, अजातशत्रु कोणिक, था। किन्तु दुर्भाग्यसे आजकल प्रथम अध्याय (दो संप्रति, चन्द्रगुप्त, अशोकभी, नवनन्द, मौर्योंकी उमति प्रान्दिक बाला) श्रीर दृमर अभ्यायका प्रथम प्रानिक
और अपकर्ष, गर्दभिल्लकी बलपूर्वकता, शको द्वारा इस प्रकार केवल द अध्याय ही उपलब्ध है। उपदेशका अंगभंग, आदि अनेक ऐतिहासक वर्णनांसे लब्ध अंशके सूत्रोंकी संख्या १०० है और इस पर
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३३०
अनेकान्त
[चैत्र, वीर निर्वाण सं० २४६५
म्वोपनवृत्ति २५०० श्लोक प्रमाण है। सम्पूर्ण श्वेता- उपलब्ध अंश है। म्बरीय न्याय साहित्यमें वादिदेवसरिके न्याय सूत्रों इनकी न्यायविषयक बतीसियोंमेंसे एक “अन्य(प्रमाणनयतत्त्वालोक) के अतिरिक्त केवल यहीन्याय- योगव्यवछेद" है और दूसरी "अयोगव्यवछेद" है । अथ सूत्रबद्ध है। यादिदेवसूरिके न्यायसूत्रोंकी अपेक्षा दोनोंमें प्रसादगुणसंपन्न ३२-३२ श्लोक हैं । उदयनाइस ग्रन्थ के सूत्र अधिक छोटे, सरल, स्पष्ट और पूर्ण चार्यने कुसुमांजलिमें जिस प्रकार ईश्वरकी स्तुतिके अर्थके द्योतक हैं।
रूपम न्याय-शास्त्रका संग्रंथन किया है, उसी तरहसे प्राचार्य हेमचन्द्र गौतमकी श्रान्हिक पाली पंचा- इनमें भी भगवान् महावीर स्वामीकी स्तुतिक रूपमें ध्यायीकी रचनाशैलीके अनुसार "जैन न्याय-पंचा- घट-दर्शनोंकी मान्यताओंका विश्लेषण किया गया ध्यायी" के रूप में प्रमाणमीमांसाकी रचना करना है। श्लोकोकी रचना महाकवि कालिदास और स्वामी चाहते थे। किन्तु यह ग्रंथ पांच अध्यायोंमें समाप्त शंकराचार्यकी रचना-शैलीका स्मरण कराती है। हुश्रा था या नहीं; अधरा ही रह गया था, या शेप दार्शनिक श्लोकोंमें भी स्थान २ पर जो विनोदमय अंश अंश नष्ट हो गया है, अादि बातें विस्मृतिके गर्भमें देखा जाता है; उससे पता चलता है कि प्राचार्य हेममंनिहित हैं। इसमें गौतमकी रचनाशैली मात्रका चन्द्र हंसमुख और प्रसन्न प्रकृति के होगे । अयोगव्यवअनुकरण किया गया है न कि विषयका । शब्दोंके छेदका विषय महावीर स्वामीमें "श्राप्तत्व सिद्ध करना" लक्षणों में भी पर्याप्त भिन्नता है । विषयकी दृष्टि से है और अन्ययोगव्यवछेदका विषय अन्य धर्म प्रवर्तकोंप्रमाण, अनध्यवसाय, विपर्यय, वस्तु, प्रत्यभिज्ञान, में "श्राप्तत्वका अभाव सिद्ध करना" है । अन्ययोग व्याप्ति, पक्ष, दृष्टान्ताभास, दूषण, जय, पराजय, व्यवछेद पर मल्लिषेणसरिकी तीन हजार श्लोक प्रमाण अवग्रह, हा, अवाय, धारणा. मनःपर्यायशान, अवधि- स्याद्वाद-मंजरी नामक प्रसादगुणसंपन्न भाषामें सरस जान, द्रव्येन्द्रिय आदि विषय गौतम सत्रोंमें सर्वथा और सरल व्याख्या है । जैन न्यायसाहित्यमें यह व्यानहीं है । गौतमने ५ हेयामास माने हैं; जब कि जैन- ख्या ग्रंथ अपना विशेष और आदरपूर्ण स्थान रखता न्यायमें २ ही माने गये हैं। इसी प्रकार मान्यताप्रोंकी है। इस व्याख्यासे पता चलता है कि मूलकारिकाएँ अपेक्षासे भी गौतम-सत्रोंमें और इसमें पर्याप्त (अन्ययोगव्यवछेद-मूल ) कितनी गंभीर, विशद अर्थभिन्नता है । "प्रमाण" के लक्षण में "स्व" पदके संबंध वाली और उच्चकोटि की हैं। हेमचन्द्रकी प्रतिमापूर्ण में प्राचार्य हेमचन्द्रने काफी ऊहापोह की है और अपनी स्वाभाविक कलाका इसमें सुन्दर प्रदर्शन हुआ है। उल्लेखनीय मतभिन्नता स्पष्ट शब्दों में प्रदर्शित की है।
सवझता श्राचार्य श्री की विशेषतामय नैयायिक प्रतिभा के इसमें इस प्रकार आचार्य हेमचन्द्र, व्याकरण, काव्य, पद-पद पर दर्शन होते हैं। यदि सौभाग्यसे यह संपूर्ण कोष, छन्द, अलंकार, वैद्यक, धर्मशास्त्र, राजधर्म, पाया जाता तो जैन-न्यायके चं टीके अन्योंमेंसे नीतिधर्म, युद्धशास्त्र,समाजव्यवस्थाशास्त्र, इन्द्रजाल विद्या, होता । और प्राचार्य भीकी हीरेके समान चमकने शिल्पविद्या, वनस्पतिविद्या, रत्नविद्या, ज्योतिषविद्या, वाली एक उज्ज्वल कृति होती । इसका प्रत्यक्ष प्रमाण सामुद्रिकशास्त्र, रसायनशास्त्र, धातुपरिवर्तनविद्या, योग
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वर्ष २, किरण ६]
प्राचार्य हेमचन्द्र
२५६
विद्या, मन्त्र, तन्त्र, यंत्र, वादविद्या, न्यायशाख, लिखा हुमा रहेगा। कहा जाता है कि प्राचार्य हेम
आदि अनेक विधाओंके महासागर थे । इस प्रकार चन्द्रने एक सर्वथा नग्न पचिनी खीके सामने अपनी इनकी प्रत्येक शास्त्र में अव्याहतगति, दूरदर्शिता और विद्याकी सिझी की थी। उस समय भी इनके शरीरमें व्यवहारशता देखकर यदि "कलिकाल सर्वश" अथवा बाल बराबर भी विकृति नहीं आई थी। इससे अनुमान वर्तमान भाषामें कहा जाय तो "जीवितविश्वकोष" किया जा सकता है कि ये ब्रह्मचर्वके कितने बड़े जैसी भावपूर्ण उपाधिसे हमारे चरित्र नायक विभूषित हिमायती और पूर्ण पालक थे । यों तो ये बाल-बमचारी किये गये हैं तो यह जरा भी अत्तुक्ति पूर्ण नहीं समझा ये ही और पाजीवन एक निष्ठासे विशुद्धरूपेण ब्रह्मजाना चाहिये । यही कारण है कि इनके नामके साथ चर्य व्रतका इन्होंने पालन किया था । दीर्घ कालसे “कलिकालसर्वश” उपाधि जुड़ी हुई देखी ।इस प्रकार प्राचार्य हेमचन्द्र साधुनोंमें चक्रवती जाती है। पीटर्सन आदि पाश्चिमात्य विद्वानोंने तो कामदेव जीतनेमें महादेव, शानलक्ष्मीमें कुबेर, ज्याश्राचार्य श्री को Ceeon of knowledge अर्थात् ख्यान समयमें बृहस्पति, प्रयत्नमें भागीरथ, तेजमें "जानके महासागर" नामक जो अनुरूप उपाधि दी सर्य, शान्तिमें चन्द्र, स्थिरतामें मेरू, इन्द्रिय दमनमें है । वह पूर्णरूपेण सत्य है ।।
यमराज, और सत्यमें युधिष्ठिरके समान थे। हमारे
चरित्र-नायक तपस्याके जलते हुए अंगारे, शानक प्राचार्यश्रीके अन्य संस्मरण
समुद्र, चारित्रमें स्फटिक, संयमकी साकार प्रतिमा, कहा जाता है कि प्राचार्य हेमचन्द्रने अपने प्रशंस- गुणोंके आगार, शक्तिके भण्डार, और सेवामेंनीय जीवन कालमें ३३ हजार घरोको अर्थात् लगभग परोपकारमें दधीचिके समान थे। डेढ़ लाख मनुष्योंको जैनधर्मावलम्बी बनाया था । अन्तमें ८४ वर्षकी आयुमें संवत् १२२६ में श्राचार्य श्री चाहते तो अपने नामसे एक अलग संप्र- गुजरातके ही नहीं किन्तु सम्पूर्ण भारतके असाधारण दाय अथवा नया धर्म स्थापित कर सकते थे। किन्तु तपोधन रूप इन महापुरुषका स्वर्गवास हुना। यह उनकी महान् उदारता और अलौकिक निस्पृहता .आपके अनेक शिष्य थे । उनमेंसे रामचन्द्र, ही थी, कि उन्होंने ऐसा नहीं करके जैनधर्मको ही दृढ़, गुणचन्द्र, यशचन्द्र, उदयचन्द्र, वर्धमानगणि, महेन्द्रस्थायी, एवं प्रभावशाली बनानेमें ही अपना सर्वस्व मुनि, और बालचन्द्र ये सात मुख्य कहे जाते हैं। होम दिया।
__ अन्त में इन शन्दोंके साथ यह निबन्ध समास ___ यह जैन-समाज इस प्रकार अनेक दृष्टियोंसे किया जाता है कि प्राचार्य हेमचन्द्रकी कृतियाँ, चरित्र प्राचार्य हेमचन्द्रको सदैव कृतज्ञता पूर्वक स्मरण करता और परोपकारमय जीवन बतलाता है कि ये कलिकाल रहेगा और प्राचार्य हेमचन्द्रका नाम जैनधर्मके उस सर्वश, जिन-शासनप्रणेता और भारतकी दिव्य विभूति कोटिके ज्योतिर्धरोंकी श्रेणीमें सदैवके लिये स्वर्णाक्षरों में थे।
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अनेकान्त
[चैत्र, वीर-निर्वाण सं० २४६५
शिक्षाका महत्व
(लेखक-पं० परमानन्द शास्त्री)
मानव-समाजकी उन्नतिकी जड़ शिक्षा है । इसके वास्तवमें जो शिक्षित हैं—सच्चे अर्थ में शिक्षासे
"वारा ही मनुष्य अपनी मानसिक, शारीरिक, नैतिक सम्पन्न है और इसलिये जिनके पास शिक्षारूपी चिन्ताऔर आध्यात्मिक शक्तियोंका उद्भावन एवं विकास कर मणि मौजूद है वे ही संसारमें महान् हैं, प्रतिष्ठित हैं सकता है। शिक्षासे शिष्टता, सभ्यताकी सृष्टि, एवं वृद्धि और धनी हैं । उनके सामने संसारकी दूसरी बड़ीसे बड़ी होती है और उसके द्वारा ही हमारे उस पवित्रतम ध्येय- विभूतियाँ भी तुच्छ है । भीषणसे भीपण आपदाएँ भी की सिद्धि हो सकती है, जिसकी प्राप्तिकी हमें निरन्तर उन्हें अपने कर्तव्यपथसे विचलित नहीं कर सकतीं और वे अभिलाषा लगी रहती है और जिसके लिये हम अनेक बराबर अपने कर्तव्यपर प्रारूढ़ हुए, प्रगति करते रहते तरहके साधन जुटाया करते हैं । आत्मिक शिक्षाही हमारे हैं तथा देशको स्वतन्त्र एवं आज़ाद बनानेमें बड़ी भारी हृदयोंमें सन्निहित अशान अन्धकारके पुंजका नाश शक्तिका काम देते हैं। करती है, अन्धविश्वासको जड़मूलसे उखाड़ कर फेंकती यह सब शिक्षाका ही माहात्म्य तथा प्रभाव है है, कदाप्रहको हटाती है और उसीसे हमें हेयोपादेयका जो हमें पशु जगतसे अलग करता है, अन्यथा ठीक परिशान होता है । शिक्षित समाज ही सर्वकला अाहार, भय, निद्रा और मैथुन ये चारों संज्ञाएँ पशुओं सम्पन्न होकर धार्मिक सामाजिक तथा राजनैतिक खेत्रों- तथा मनुष्यों दोनों में ही समानरूपसे पाई जाती हैं । एक में प्रगति पासकता है, वहीं अपने देशको ऊंचा उठा शिक्षा ही मनुष्यमें विशेषता उत्पन्न करती है और वही सकता है और उसीके प्रयत्नसे राष्ट्र अपनी शक्तिको में पशुत्रोंसे उच्च तथा श्रादर्श नागरिक बनाती है । संगठितकर खूब सम्पन्न समृद्ध तथा लोकोपयोगी बन जा अशिक्षित हैं-वस्तुतत्व से अनभिज्ञ है-अपने सकता है। प्रत्युत इसके, अशिक्षित समाज एक कदम कर्तव्यको नहीं पहिचानते । उन्हें 'विद्या विहीनाः पशुभिः भी भागे नहीं बढ़ सकता, उसमें नवजीवनका संचार समानाः' की नीतिके अनुसार पशुवत् ही समझना हो नहीं सकता, शिक्षित समाजकी तरह वह अपने चाहिये । गौरवको संसारमें कायम नहीं रख सकता है और न परन्तु भारतीय वर्तमान शिक्षण-पद्धतिसे हमारा समय शक्तिके प्रबल वेगके सामने अपनेको स्थिर ही समाज सच्चे अर्यमें शिक्षित नहीं हो सकता और न रख सकता है।
२. उसमें प्राचीन भारतीय गौरवकी झलक ही आसकती
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वर्ष २, किरण ६]
शिक्षाका महत्व
है क्योंकि वर्तमान शिक्षा प्रणाली बहुत कुछ दूषित हो बनाती और न लोकसेवा जैसे महत्वपूर्ण कार्यों में चुकी है, उसके कारण शिक्षित व्यक्तियोंसे भी शिष्टता प्रवृत्ति हो कराती है। जिससे हमारा प्रात्मा स्वतन्त्रवाऔर सभ्यताका व्यवहार उठता जा रहा है। यही की ओर अग्रसर नहीं होता और न जो हमें कर्तव्यका वजह है कि समाजसे लोकसेवा और विश्वप्रेम जैसी यथेष्ट ज्ञान ही प्रदान करती है, ऐसी शिक्षासे हमारा सद्भावनाएँ भी किनारा करती जाती हैं और वह हमें उत्थान कैसे हो सकता है ! अस्तुः शिक्षा सम्बन्धमें पराधीनता या गुलामीके गर्तमें ढकेलती चली जाती है शिक्षाके ध्येयकी व्याख्या करते हुए भारतकी विभूतिऐसी शिक्षासे हमारे मनोयल तथा शात्मिक शक्तियोंका स्वरूप महात्मा गांधी निम्न वाम्य खासतौरसे मान पूर्ण विकास होना तो दूर रहा, हम साधारणसे दुःख देने योग्य है:कष्टोका भी मुकाबला करनेके लिये समर्थ नहीं हो "जो शिक्षा चित्तकी शुदि न करती हो, मन और सकते हैं। वह हमारे पथमें रोड़े अटकाती है और इन्द्रियोंको वशमें रखना न सिखाती हो, निर्भयता हमें कर्तव्य-विहीन, अकर्मण्य, स्वार्थी, प्रमादी और और स्वावलम्बन न पैदा करे, उप-जीविकाका साधन देश-द्रोही बनाती जाती है। यही कारण है जो हमसे न बतावे और गुलामीसे छूटनेका और बाजाद बनेका स्वावलम्बन तथा सदाचार दूर होता चला जाता है हौसला, साहस और सामर्थ न पैदा करे, उसमें जान
और उनके स्थानपर पराधीनता तथा असदाचारता कारीका खजाना कितना ही भरा हो, कितनी ही हमें घेरे हुए है । आज भारतीय समाजोंमें तार्किक कुशलता और भाषा-पाण्डित्य हो, यह वास्तफैशनका रोग इतना बढ़ गया है कि उससे भारतका विक नहीं, अधूरी है।" कोई भी प्रान्त देश या नगर-ग्राम अछूता नहीं बचा है। महात्माजीके इन महत्वपूर्ण एवं सारगर्मित वाक्यों यह रोग टिही दलके समान भारतियोंके सीधे-सादे पर ध्यान रखते हुए हमें अब अपने कर्तव्यकी ओर
आनन्दप्रद रहन-सहन और वेष-भूषाका एकदम पूर्ण तौरसे ध्यान देना चाहिये । भारतके सभी बीसफाया बोलता हुआ चला जाता है। और इसने भारत- पुरुषों, बालक-बालिकाओं और बढ़े तथा जवानोंको की सभ्यताका नाशकर उसे उजाड़ सा बना दिया है। शिक्षित करनेका उन्हें साक्षर विद्यावान एवं सदाचारी आज भारतके नवयुवक और युवतियां सभी जन बनानेका प्रयत्न करना चाहिये । इसके लिये उनै बर्वपाश्चात्य सभ्यताकी चकाचौंधमें चुंधियाकर अपने प्राचीन मान शिक्षा प्रणालीको छोड़ कर प्राचीन शिक्षा पद्धतिक गौरवको भूलते जा रहे है, विदेशोंकी चमकीली, अनुसार अथवा उसमें थोड़ासा उपयोगी सुधार करके भड़कीली वस्तुओंके लुभावमें पड़कर अपने गरीब देश- सत्-शिक्षाका प्रायोजन करना होगा, तभी मारत अपनी का करोड़ों अरबों रुपया उनके संग्रह करनेमें म्यर्थ खोई हुई स्वाधीनता प्राप्त कर सकेगा और तभी भारतफंसाते जारहे हैं। यह सब दलित शिक्षा प्रणालीका ही वासी अपनी लौकिक तथा पारमार्षिक उन्नति कर सकेंगे प्रभाव है।
वीर-सेवा-मन्दिर, सरसावा, __वास्तवमें वह शिक्षा ही नहीं, जो मस्तिकको परिणत
ता.१५-१-१E तया चित्रको निर्मल एवं प्रसादादिगुगोंसे युक्त नहीं
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अनेकान्त
[चैत्र, वीर-निर्वाण में• २४६५
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भगवान् महावीर
[ले. श्री. आनन्द जैन, दर्शन-साहित्य शास्त्री, न्याय-साहित्यतीर्थ]
विषम दुःखकी ज्वालाप्रोसे जला हुआ था जब संसार ! सिंह-गर्जना सुन कर तेरी हुए पराजित अत्याचार ! दानष बन, मानव था करता अबलाओं पर अत्याचार !! मानुषता सिखलाई तूने हे मानवताके शृंगार !! शुद्र-जनोंका सुन पड़ता था संसृति-तल में हाहाकार ! कोरी कर्म-काण्डता विघटी, हुआ मूक पशुबलि-संहार ! धर्म-नाम पर होता था नित पशुओंका भीषण संहार !! फूले थे जो अन्यायोंसे पछताते अब बारम्बार !!
प्रकृति प्रकम्पित होकर अपने गिन-गिन अश्रु बहाती थी! अनेकान्तकी अद्भुत शैली सब जगको सिखलाई थी! मानवता रोती थी केवल दानवता हँस पाती थी !! धर्म-समन्वय करके सबकी मौलिकता दिखलाई थी ! कर्मकाण्डका जाल बिछाकर दम्भी मौज उड़ाते थे! सम्प्रदायके द्वन्द्व भगाकर निज-पर भेद मिटाया था! नीति-न्यायका गला घोट कर न्यायी पीसे जाते थे !! श्राध्यात्मिकता सिखा जगत्को आनन्द पाठ पढ़ाया था !!
जातिवादने छीन लिये ये शूद्र-जनोंके सब अधिकार! जनमतकी परवाह न करके जग-हितकी दिखलाई राह ! मानुषतासे वंचित मानव फिरता था बस मनुजाकार !! हुआ विरोध तुम्हारा लेकिन घटा न उससे कुछ उत्साह !! उसी समय इस पृथ्वीतल पर तुमने लिया पुण्य-अवतार! अन्त विजय-लक्ष्मीने डारी कण्ठ तुम्हारे घर-घरमाल ! राज-पाट तज पुनः जगतका करने लगे सतत उद्धार !! 'जिन' कहलाए,शत्रु नशाए,गावे अबतक सब गुणमाल!!
ललनाएँ चरणोंमें तेरे स्वागत-पुष्प चढ़ाती थीं ! दुखियोंको गोदीमें लेकर तुम्ही खिलाने वाले थे ! उत्सुकतासे पावन-पथमें बदकर पुण्य कमाती थीं ! प्यासोको सुधाम्बु निज-करसे तुम्ही पिलाने वाले थे !! गद म्लेच्छ सब ही में तुमने भातृ-भाव दरसाया था ! मुर्दो में भर कर नव-जीवन, तुम्हीं जिलाने वाले थे! अन्यायोंकी होली करके नव-जीवन सरसाया था !! अन्यायोंकी पकड़ जड़ोंको, तुम्ही हिलाने वाले थे !!
महावीर थे, पर्धमान तुम, सन्मति नायक जगदाधार ! सत्पथ-दर्शक विश्व-प्रेममय दया-अहिंसाके अवतार !! प्रमुदित होकर मुझे सिखाम्रो सेवा पर होना बलिदान !.. मिट जाऊँ, पर मिटे न मेरा सेवामय उत्सर्ग महान !! .
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INनारासमत्थानक
M
[लेखक-श्री. भगवतस्वरूप जैन 'भगवत्']
नोनों इतिहाससे पहलेकी चीजें है—पाप और खाली न था ! अयोध्याके इर्द-गिर्द चारों तरफ बड़ी पड़ी
'पुण्य ! .."नीची-मनोवृत्तिका नाम पाप और फौजें उसे घेरे हुए पड़ी थीं ! नगरमें आतंक छाया हुवा ऊँचीका नाम पुण्य ! चाहे एकका नाम दुर्जनता, था! प्रत्येक स्वदेश प्रेमीका हृदय-इस सहसा श्रानेवाले दसरीका सज्जनता रख लीजिए !प्रकारान्तरसे बात एक संकटके कारण-क्षब्ध हो रहा था! दुखद-भविष्यकी ही श्राकर पड़ती है।
कठोर-कल्पना उसे उत्पीडन दे रही थी ! महाराजकी __छिद्रान्वेषण अधम-मनोवृत्तिका ही एक प्रकार है । अनुपस्थितिमें, इन उद्दण्ड, दुष्ट-प्रकृति, राज्य लोलुपोंके
और वह प्रत्येक न्याय-हीन हृदयमें स्थान पानेके लिए अनाचार-पूर्ण कृत्योंके प्रति जनता अत्यन्त उम्र थी कटिबद्ध रहा करता है !...अयोध्या नरेश महाराज मधुकको अवश्य ! लेकिन विवश थी, मजबूर थी ! उसका प्यारा उत्तर-दिशाकी अोर दिग्विजयके लिए गया हुआ जान, शासक उससे दूर था ! उसके दुख दर्द, उसकी अन्तरदुर्जन-नरेशीको अयोध्याका राजमुकुट लेनेकी सूझी ! वेदनाका पछने-सुनने वाला कोई न था ! नगरमें नीरवता उन्होंने सोचा-'अयसर अनुकूल है ! अवसरसे लाभ विराज रही थी! ठीक वैसी, जैसी मध्य रात्रिमें श्मशान लेना है विद्वत्ताका काम ! सिंहासन सूना है! नाम मात्र की! न कहीं उमंग न उल्लास ! के लिए-महारानी सिंहिका स्थानापन्न है ! लेकिन उससे स्या ... ? ... रणांगण, कठोरताका उपनाम है ! वनहृदयकी आवश्यकता है उसके लिए ! नारी...!-कोमलांगी-नारी, नाम सुनकर ही भयाकुल हो उठेगी! धैर्य ...मैं मानती हूँ नारी कोमल होती है ! लेकिन खो बैठेगी ! उसके किए. कुछ न होगा ! और राज्य स्मरण रखिए, मान-मर्यादाका ध्यान उसे भी रहता है ! हमारा, और फिर हमारा ! इसमें कोई सन्देह नहीं !...' महाराजकी अनुपस्थिति में राज्यकी जिम्मेदारी, उतका
और दूसरे ही प्रभात-अयोध्याका सिंहासन खतरेसे उत्तरदायित्व मेरे सिर है ! प्रणाका सुख-दुख मेरे अधीन
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अनेकान्त
[चैत्र, वीर-निर्वाण सं०२४६॥
है! अधीनस्थकी रक्षाका भार मेरे कन्धों पर है!...सुनो, तो कभी बुरा न कहेंगे !...' अगर मैं आज नारीत्वकी रक्षा करती हूँ तो उसका स्पष्ट काश! आज अगर हमारा हृदय महाराजकी अर्थ यही होता है कि मैं अपने कर्तव्यको ठुकराती हूँ! नाराजीके डरसे न भरा होता तो-इन पवित्र विचारोंका प्रजाके साथ विश्वास-घात करती हूँ ! और आँखों देखते मुक्त-कराटसे स्वागत किया होता!...धन्य हो देवी! एक स्वदेशको अनधिकारियोंके हाथ लुटने देती हूँ !...मेरा भारतीय-महिलाके लिए यही शोभा है ! अबलाके कलंक निश्चय है कि-.........'
को सबला बन कर मिटाना ही उनका ध्येय है! ___ महारानी अपना निश्चय प्रगट करें इसके पहिले तो उठो, आज़ादीकी रक्षाके लिए अपने बल, प्रधान सचिवने कुछ कहना मुनासिब समझा ! बातको अपने पौरुष, और अपनी साहसिकताका परिचय दो! तोड़ते हुए जरा गंभीर मुद्राके साथ वह बोले-... महाराज जिन विचारोंको अधिक तरजीह देते हैं उनके बावजद में खयाल करता हूँ कि आप खामोश बैठे तो कुछ दिन बादज्यादह मुनासिब-बात होगी ! और समर-भूमिमें हमारी दिग्विजयकी दुन्दुभीबजाते हुए महाराज-मधुक लौटे ! मौज जी-जान से, वफादारीसे लड़ेगी इसका मुझे पूरा सूनी-सी अयोध्या लह-लहा उठी ! प्रत्येक भवन श्रानन्द विश्वास है!....
नादसे प्रकम्पित हो उठा ! सब ओर खुशीका साम्राज्य महारानीने खिन्न-भावसे बातें सुनी ! मुख पर एक छा गया ! राज्य-भक्ति उमड़ पड़ी ! महाराज राज-महल उदासीकी रेखा-सी खिंच गई! यह क्षण-भर चुप रहीं: पहंचे ! स्वयं भी उन्हें कम प्रसन्नता न थी! वह अपनी फिर
विजय पर मुग्ध ये!'पर...श्राप यह तो सोचिए---अगर कहीं विजय 'महाराजकी जय हो !'-दरबारियोंने अभिवादन लक्ष्मी उधर गई तो...? तब मुझे मर्मान्तक पश्चाताप किया।
श्राप कह सकते हैं?-स्वदेशकी स्या दशा महाराज सिंहासनासीन हए! कशल-क्षेमोपरान्त, होगी?--महाराज लौटकर भी 'महाराज' कहला सकेंगे? राज्य-समाचार दर्याफ्त किए गए!x x x x जवाब दीजिए न इन बातों का !...एक ओर नारीत्व हूँ ! ऐसी बात १...अच्छा फिर...?'-महाराजने है, दूसरी ओर कर्तव्य, कठोर-कर्तव्य ! देशका प्रतिनिधित्व साश्चर्य पछा ! गुरुतर-उत्तरदायित्व !!...एक ओर मैं गुलाम हूँ, दूसरी '...समीप ही था कि राज-सिंहासन पर शत्रुओंका मोर राष्ट्र-का राष्ट्र मेरा सेवक ! बतलायो-मुझे अपनी अधिकार हो जाता और...!'--प्रधान सचिवने उत्तर गुलामीकी रक्षा करनी चाहिए या अपने प्राधीनोंकी १ दिया। '... यह तो ठीक है ! लेकिन......!-
तो फिर लड़ाई छिड़ी, और उसमें तुम्हारी जीत 'लेकिन...फिर ठीक' के साथ 'लेकिन' बे-सूद है! हुई ! क्यों यही न ?' स्वतंत्रताके रणांगणमें नारीत्वका बलिदान चढ़ाना भी हाँ ! महाराज!' उचित ही है इसे महाराज यदि लम्बे-दृष्टिकोणसे देखेंगे 'मैं तुम्हारी बीरताकी प्रशंसा करता हूँ ! संकटके
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वर्ष २, किरण ६]
नारीत्व
an
समयमें जिस धीरतासे तुमने काम लिया-उसके तो होती है ! मैं नहीं जानता था-महारानी इतनी लिए मैं तुम लोगों से बहुत प्रसन्न हूँ ! तुम्हें इसी वफा- उहण्ड है ! यह उनकी गहरी पुस्ताका परिचय है। दारीके साथ-!'
पौरुष, पुरुषों के बाँटकी चीज़ है। उसे अपनाकर उनोने 'लेकिन महाराज...!
अनधिकार चेष्टा की है!--बज़नदार अपराध किया है! 'क्या...'
स्त्रीत्वकी अवहेलना ही उसका अन्त है। "त्रियोंको .."विजय प्राप्तिमें हम लोग तो नाम मात्रके लिए होना चाहिए कोमल! वीरत्व उन्हें शोभा नहीं देता! हैं। असल में इस बातका सारा श्रेय महारानी सिंहिका- वह उनकी चीज़ ही नहीं!'-एक गहरी साँस लेते हुए को ही दिया जा सकता है । उन्हींके बल, उन्हींके महाराजने प्रगट किया ! साहस और उन्हींके अदम्य उत्साहके कारण हमारी 'महाराजका कहना अनुचित नहीं ! लेकिन इतना विजय हो सकी है । नहीं तो देशकी रक्षा नितान्त कठिन विचारणीय अवश्य है कि उस परिस्थितिमें जिसमें यी ! 'साथ ही, उन्होंने एक और शुभ-संवाद अापके कि महारानीजीने स्वदेश प्रेमसे प्रेरित होकर अपनी सुनानेके लिये प्रेषित किया है ! वह यह कि लगे हाथों बीरताका सफल-प्रदर्शन किया है कदापि दूषित नहीं ! उन्होंने दक्षिण-दिग्विजय भी कर डाली । सभी उद्दण्ड उसे धृष्टता न कहकर कर्तव्य-निष्ठा कहना अधिक उपदुश्मन श्राज नत-मस्तक हैं। महारानीकी शत्रुघाती युक्त प्रतीत होता है !'-प्रधान-सचिवने दलील पेश तलवारने वह करिश्मा दिखाया कि आज आपकी कीर्ति की! शतोमुखी हो रही है !...'
__'ऊँह ! कोरी विडम्बना ! अगणित-पर-पुरुषों के 'महारानी स्वयं रणांगण में लड़ी ?'
बीचमें एक स्त्रीका जाना, चारित्रिक-रबिसे क्षम्य 'हाँ, महाराज! उन्हींके शौर्यने विजयी बनाया, नहीं ! स्त्रीकी निचय ही- -जघन्य-प्रवृत्तिका योतक नहीं--देश बर्बाद हो हीचुका था। उन्होंने इस दिलेरीके है!...'-महाराजने अपनी उपेक्षाको आगे बढ़ाया। साथ शत्रु-सेनाका क्षय किया कि बड़े-बड़े योद्धा दाँतों-तले साधारण तरीके पर यह भी माननीय हो सकती है। उंगली दाब गये । शत्रु-पक्ष तितर-बितर हो गया। वह परन्तु यह बात सिद्धान्त नहीं बन सकती ! स-तेज शस्त्र-शास्त्रकी पूर्ण ज्ञाता है।.."
स्त्रीत्वके सन्मुख विकारोंको नष्ट होजाना पड़ता है! फिर ___ महाराजने स्या सुना, क्या नहीं; कौन कहे? महारानी जैसी पतिवृत-धर्म-परायणा स्त्री पर भारोप उनका मुख-कमल मलिन हो गया उदासीकी लकीरें लगाना, उनके साथ अन्याय है ! उनके उपकारपर्ण कपोलों पर मलक उठी। जैसे मनोवेदना स-जग हो कार्यके प्रति कृतघ्नता है! और एक महान् श्रादर्शउठी हो।
का विरोध !!'-प्रधान-सचिवने समझाया ! वह कुछ देर चुप, सोचते रहे !
पोलिटिक्स-विचारोंने महाराजके दाम्पत्तिक-जीवन में गहरी निस्तब्धता!
विरक्तताका सूत्रपात किया ! वह राष्ट्रीय हानि लाभके फिर बोले-'प्रोफ़ ! कितनी विचारणीय बात है ! मावोंसे दूर हटकर, नारीवके अन्वेषणमें घुस लम्जाका इतना परित्याग ?"नीकी शोभा लज्जासे ही पड़े! बोले-'हो सकता है महारानीके सतीत्व पर शंका
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अनेकान्त
[चैत्र, वीर-निर्वाण सं०२४६५
'न की जा सके । लेकिन मेरी दृष्टि में यह धृष्टता कदापि वह मैंने किया ही,-श्रोत !"अब..१...
क्षम्य नहीं ! मैं उसका परित्याग करता हूँ ! महिर्षी-पद दुर्गा-सी कठोर महारानी सिंहिका-जिनके तेजके पापिस लिया जाए !!'
आगे शत्रुकी परछाई तक न टिक सकती थी-अविरलकिसकी ताब?-किसकी हिम्मत ? जो महाराजकी अाँसुत्रों से रो पड़ीं ! शत्रु-दलके सामने डटा रहनेवाला श्रांशाके खिलाफ जबान हिलाता !
साहस पानी बन चला ! पति-प्रेमके आगे वह हार सब चुप !
मान गई ! पौरुष, बल, कठोरता और धीरताके पटको राज-श्राश ! अटलनीय-राज-श्राशा !-और महा- फाड़कर नारीत्वकी कोमल-भावना प्रगट हो गई ! रांनी परित्यक्त करदी गई!
वह रोने लगीं ! विवशताका श्रृंगार यही तो
. है ! परित्यक्त-जीवन ! नीरस-जीवन !! मृत्युके ही तो (४)
उपनाम हैं !!! दिन बीत रहे थे--
पर न अब उमंग शेष थीन उत्साह ! एक लम्बी निराशा, एक कसक, और प्रात्मग्लानि महारानीके 'वह मुझे भूल सकते हैं, लेकिन मैं उन्हें एक साथ थी ! उसका समग्र-वैमव, दरिद्र बन चुका था ! मिनिटको भी भूल सकूँ, यह असम्भव ! उनका तिरिउसकी 'श्राशा' का नाम अब 'पुकार' था ! उसके मुख- स्कार भी मुझे प्यारसे अधिक है। उनकी खुशी मेरा का तेज़ अब करुणत्व में परिवर्तित हो चुका था! स्वर्ग है ! उनकी तकलीफ़ मेरी मौत ! बोलो १-बोलो
अब 'दिन' वर्ष बनकर उसके सामने आता है ! ...?- उन्हें क्या हुआ है ?--क्या कष्ट है ?--महाकभी-कभी यह सोचती है--'क्या नारीका जीवन सच- रानीके प्रेम-विव्हल हृदयने प्रश्न किया ! मुच दूसरे पर अवलम्बित है ?--उसका अपना कुछ भी 'दाह-रोग !'--सेविकाने परस्थिति सामने रखी !नहीं १ दूसरेकी खुशी ही उसकी खुशी है ! उसका 'अगणित-भिषग्वरोंने बहुमूल्य औषधियोंका सेवन निश्चित उद्देश्य ही नहीं १-कर्तव्य..?—यही कि कराया है ! लेकिन लाभके नामपर महाराजकी एक
आँखें मूंदकर-दूसरेका अनुकरण करे ! फिर चाहे भी 'श्राह !'बन्द नहीं हुई ! जीवन-श्राशा संकटमें है ! किसीका कितना ही अनिष्ट क्यों न हो।...
बड़ी वेदना है--उन्हें ! क्षण-भरको शान्ति नहीं !...." बाहरे, नारी-जीवन !...
'दाह-रोग ?... महाराजको कष्ट ?--जीवनमें इतना जटिल, इतना परतन्त्र !'
सन्देह -महारानी कभी उसके विचार दूसरी-दिशाकी ओर बहते- हाँ ! ऐसी ही बात है !'-परिचारिकाने दृढ़ताके 'बड़ी गहरी-भूल हुई मेरी ! मुझे इन झगड़ोंमें पड़ना साथ कहा । क्षण-भर महारानी चुप रहीं ! आँखें मूंदें ही क्यों था ! मेरा इनसे मतलब ?-मुझे महाराजकी कुछ सोचती रहीं ! फिर बोलीप्राशाके अतिरिक्त और सोचना ही क्या ? यहीं तक है 'सखी ! प्रधान-सचिबसे कहो, अगर मेरा सतीत्व मेरा कार्यक्षेत्र !.."भागे बदनाहीतो अपराध था! निदोष है! महाराजके प्रति ही मेरा सारा प्रेम रहा है
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वर्ष २, किरण ६]
नारीत्व
Y.
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तो-मेरी अंजुलीके जलके छींटे उन्हें प्रारोग्य यही सतीत्वकी परीक्षा हो !' करेंगे ! जाओ, सीघ्र जाकर इसकी व्यवस्था करो ! -और ततारपनीने उनी जलसेकर मुझे विश्वास है, मेरा सतीत्व, मेरी परीक्षाके समय काम महाराजको शीटे दिए!
. आयेगा! 'जो हुक्म !!
महाराज उठ बैठे ! जैसे उनकी सारी वेदना मंत्रशक्ति द्वारा खींचली गई हो ! मुँहपर उत्साह, हर्ष एक
साथ खेल उठे ! शरीर क्रान्तिपूर्ण, नीरोग ! परीक्षा-भूमि पर
सब, पाचर्यचकित नेत्रोंसे देखते-बर में गए । राज्य-दरबार में आज उपस्थिति-नित्यकी अपेक्षा श्रद्धासे मस्तक झुक गए ! कहीं अधिक थी ! नगरके सभी प्रमुख व्यक्ति मौजूद महाराज-प्रेमोन्मत्त महाराज--राग्या त्याग महाथे ! दर्शकोंकी भीड़ उमड़ी पड़ रही थी! एक कौतुहल रानीके समीप पाए ! प्रसमता भरे गद्-गद्-स्वरमें था-'जिस कठिन-रोगको उग्र-श्रौषधियाँ नष्ट न कर बोले-'धन्य सतीत्व-सामर्थ्य ! मुझे क्षमा करो, मैंने सकीं, उसे सतीत्व-पातिव्रत-धर्म तत्काल दूर कर अपराध किया है ! भूल की है मैंने !...मैं नहीं जानता दिखायेगा!!
था-कि वीर-रमणियाँ दूषित-विकारोंसे दूर हट जाती - ज़िम्मेदार राज-कर्मचारी बैठे हुए थे। एक ओर है!... महाराज शय्याशन पर लेटे, वेदनाकी आहें भर महारानीका वज-हृदय पानी होगया। प्रेमोकके रहे थे!
मारे कण्ठ अवरुद्ध होगया। आँखोंमें प्रसन्नताका . . ."मलिन-वेश, परित्यक्ता महारानी सिंहिकाने, पानी छलछला पाया । आदर्श-स्थापित करने के बहुत-दिन बाद आज दरबारमें प्रवेश किया ! उनके दानकी मुसीबतें विस्मरण होगई ! हर्ष-पूर्ण-स्वर मुखपर श्राज दिव्य-तेज झलक रहा था !
में बोलीं-- ___ सब-लोग उठ खड़े हुए! महारानीने आगे बढ़, ..."महाराज!' अन्तःकरणकी शुद्धता-यूर्वक गंभीर-स्वरमें कहा- महाराजने स्वर्ग-मुखका अनुभव करते हुए उत्तर 'अगर मेरा सतीत्व अक्षुण्ण रहा हो, निदोष हो ! तो दिया-'प्रिये !' इस प्रासुक-जलके छींटे महाराजको भारोग्य करें! तूपति-शलि !!!
जे परनारि निहारि निलज्ज, हँसै विगसे बुषिहीन बड़ेरे, जंठनकी जिमि पातर देखि, खुशी उर कूकर होत घनेरे । है जिनकी यह टेव सदा, तिनको इह भव अपकीरति है रे,
परलोक विषे हद दण्ड, करै शत खरड सुखाचल के रे॥
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उन्मत्त संसारके काले कारनामे
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[ले. पं० नाथराम जी डोंगरीय जैन ]
: घाज हिन्दुस्तान में है
माज हिन्दुस्तानमें ही नहीं, दुनियाँ के तमाम उदार व्यवहार करनेकी शिक्षा देता है; किन्तु होता
का मुल्कोंमें मानसिक अनुदारता और इससे विपरीत ही है। क्योंकि इसके विचार मेरे विचारोंपाशविक असहिष्णुताका नग्न तांडव हो रहा है। एक से मिन्न है।" प्रायः यही सोचकर मानव-समाजका जाति दूसरी जातिसे, एक देश दूसरे देशसे, एक पार्टी अधिकांश भाग उसकी रहनुमाईका दम भरने वाले दूसरी पार्टीसे, एक माई दूसरे भाईसे, प्रायः इसलिये बड़े बड़े नामधारी नेता (Leaders) एक दूसरेके लड़ता है कि उससे भिन्न जाति, देश, पार्टी या भाईके कट्टर दुश्मन बने हुए हैं और उसके प्राणोंका अपहरण विचार भिन्न है और उसके अनुकूल नहीं है। कट्टर करने तक पर तुले हुए हैं। मुसलमान हिन्दुओं और ईसाइयोंको अपना महान् शत्रु केवल धार्मिक विचारोंमें ही विभिन्नता होने के केवल इसलिये समझता है कि वे उसके मान्य कुरान कारण भारतके हिन्दू और मुसलमानोंके असहिष्णुताशरीफ, खुदा और रीति-रिवाजोंसे सहमत नहीं हैं । इसी पर्ण भीषण दंगे और रक्तपात, जो कि आये दिन होते प्रकार अनुदार ईसाई या हिन्दू मुसलमानोंको भी उक्त रहते हैं, विश्वविख्यात हैं। अब ज़रा दूसरे मुल्कोंमें कारणोंसे ही अपना कट्टर शत्रु समझते हैं। होने वाले असहिष्णुता और हृदय संकीर्णता सम्बन्धी
यद्यपि अधिकांश धर्म अपने अपने शास्त्रोंमें मान्य काले कारनामों पर भी दृष्टिपात कीजिए-जर्मनी और एक ही ईश्वर, खुदा या गॉड (God) को ही सारी इटली रूसके स्पष्टतः इसलिए घोर शत्रु बने हुए हैं कि दुनियाँ और उसके मनुष्योंका कर्ता-धर्ता मानते हैं उसका सिद्धान्त प्रजातन्त्र और साम्यवादको मित्ति पर और इसीलिये उन सबके मतानुसार जिस परमपिता, खड़ा हुआ है और इटली व जर्मनीका उसके विरुद्ध खुदा या गॉडने हिन्दूको बनाया उसीने 'मुसलमान और डिक्टेटरशिप एवं फैसिष्ट बादके आधार पर । इन राष्ट्रो-' साईको भी पैदा किया, यह बात सिद्ध है; तो भी कट्टर की पारस्परिक शत्रुतामें और भी कई कारण हो सकते मुसलमान हिन्दुओंकी हस्ती मिटा देनेकी और अनुदार हैं और है, किन्तु जैसी कि समय समय पर हर हिटलर हिन्दू मुसलमानोंको नेस्तनाबूद कर देनेकी दिली ख्वाहिश और सीन्योर मुसोलिनीके मुँहसे ध्वनि निकलती रहती रखता है और इस प्रकार वह अपने संकुचित एवं है, मुख्य कारण विचार-विभिन्नता ही है । स्पेनमें प्रजाअनुदार दृष्टिकोण द्वारा मज़ेमें अपने ही मान्य धर्मशास्त्रों- तन्त्रात्मक शासनका, किन्तु जनरल फ्रांकोने वहाँ का गला घोंटता रहता है । इसी तरह प्रत्येक धर्मात्माका डिक्टेटरशिप कायम करनेके लिए विद्रोहके नाम पर जो धर्म यद्यपि संसारके संपर्ण मानवोंके प्रति मित्रतापर्ण अपने ही देशवासियोंका हृदयविदारक संहार किया व
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वर्ष २, किरण ६]
उन्मत्त संसारके काले कारनामे
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करवाया है वह कलकी बात नहीं है बल्कि इन पंक्तियोंके खिलाफ विचार रखने और बोलने वाला व्यक्ति फाँसी लिखने तक जनसंहार वहाँ पर भीषण रूपसे हो रहा और मौतकी सजासे कमका अपराधी नहीं माना जाता। है। हजारों औरतों और निरपराध बच्चोंको केवल जब प्रजातंत्रात्मक देशमें ही अधिकार-हीन जनताके इसलिए मौत के घाट उतार दिया गया है कि वे प्रजा- मुँहमें लगाम लगानेकी ही नहों,मुँह-सीमने तककी कोशियें तांत्रिक सरकारकी छत्रछायामें पल रहे थे, जो कि उसके जारी हैं, तो फैसिस्ट शासनमें होने वाले अत्याचारोका विचारोंके अनुकूल नहीं थी। यही नहीं जापानने तो कहना ही स्या है। जर्मनीमें नाजी-विरोधियों और चीनियोंके ऊपर जो जबरदस्त और भीषण अाक्रमण यहूदियोंकी दुर्दशा किसे कष्ट नहीं पहुँचाती ? प्रस्तु। कर रखा है उसका कारण भी उसने चीनियोंकी घर देखिये-आजादपार्क में जल्सा हो रहा है, विचार विभिन्नता ही बतलाई है । जापानियोंका कहना फला साहबके अमुक बात कहते ही उक्त विचारके है कि चीनी बोलशेविषमके अनुयायी होते जा रहे हैं। विरोधी सज्जनों (1) ने ईट पत्थर बरसाने शुरू कर दिये ! और जापान चाहता है कि वह अपने पड़ोसियोंको इस सैंकड़ोंके सर फूटे और दो चारने प्राणोंसे हाथ धोये !! खतरनाक मर्जसे बचावे । अतः जापानने चीनमें हर रासलीलामें कृष्णका पार्ट अदा करने वाले ममकिन कोशिश की, कि चीनी इस रूसी सिद्धान्तके फेर एक्टरके सर पर जो मकट होता है उसकी कलगी एक में न पड़ें, किन्तु जब उसे सफलता न मिली तब उसे पार्टीके कथनानुसार दायीं ओर दूसरीके कथनानुसार उसकी रहनुमाई करने के लिए मजबूरन इस प्राखिरी बायीं ओर होना चाहिये थी, बस, इसी बात पर झगड़ा संहार शस्त्रका प्रयोग करना पड़ा, आदि प्रादि ! हो गया और शायद सैकड़ों पायल हो गये !!
यद्यपि जापानियोंने चीनपर जो आक्रमण किया वह देखिये-मस्जिदके सामनेसे बाजा बजाता है वह उस पर कब्जा करनेकी नीयतसे ही किया है, हुमा एक हिन्दुओंका जुलूस निकल रहा है। यद्यपि फिर भी यदि उसकी ही बात मानली जावे, तो यह ऐसे बाजों पर न तो पहिले कभी झगड़ा हुआ था, न प्रश्न विचारणीय ही रहेगा कि विचार-भिन्न होनेसे ही इस बाजेके बराबर ही शोर मचाने वाले दूसरे मोटर, स्या किसीके प्राण ले लेना चाहिये ? या उसे दुश्मन एंजिन, वायुयान या बादलों आदि पर कोई ऐतराज समझ लेना चाहिये !
किया जा सकता है और न अभी नमाज पढ़नेका ही विचार-विभिन्नता और स्वार्थ सिद्धि के फलस्वरूप वक्त है, तो भी धर्मधुरन्धर मुसलमानोंने हमला कर दम्भी जापान चीनपर हमला करके जो-जो अत्याचार दिया ! और तडातड़ लाठियाँ चलनेसे सैकड़ों सर फूट चीनियोंके कुचलनेमें कर रहा है, उनको नज़रन्दाज़ कर गये !! क्या यह सब जहालतसे भरी हुई अनुदारता देनेके बाद हमारी दृष्टि दुनिया में एक मात्र प्रजातंत्रका और असहिष्णुताका परिणाम नहीं है! दम भरने वाले उस देश पर जाती है, जहां कि जरा-सी हम समझते हैं कि अनादि कालसे ही प्रत्येक मासी विचार-विभिन्नताके कारण उसी देशके हजारों मनुष्य के विचार एक दूसरसे मिल रहे है और अनन्त काल गोलीसे उड़ा दिये गये। समाचार-पत्रोंके पाठकोंको तकरोगे।य
।। समाचार-पत्राक पाठकाका तक राग। यह बात दूसरी कि किसी किसी विषय मालूम होगा कि रूसमें मोसिये स्टैलिनकी सरकारके या बातके सम्बन्धमें एकसे अधिक मनुष्य सहमत हो
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अनेकान्त
[चैत्र, वीर-निर्वाण सं०२४६५
पये हो या हो जाएँ; किन्तु यह असम्भव है कि प्रत्येक के नाना स्वमाव और विचित्र दृष्टिकोणोंके होनेसे मतप्राणीके विचार किसी भी समय एकसे ही हो जाएँ। भेद होना स्वाभाविक है। अपने दृष्टिकोणको पवित्र सब देश जातियों तथा एक नगरके निवासियोंके वि- बनाश्रो और प्रत्येक बात पर या वस्तुके स्वभाव पर हर चारोंकी एकता तो दूर, एक ही बापके दो बेटोंके भी सब पहलूसे हठको छोड़कर विचार करो। हो सकता है कि विचार एकसे नहीं होते । ऐसी अवस्थामें क्या केवल कोई जान बूझकर ग़ल्ती कर रहा हो या उसने बातको मतभेद होने मात्रसे ही मनुष्योंको कुत्तोंकी तरह लड़ लड़ ग़लत समझा हो, तो भी उससे वेप न कर यदि तुमसे
जीवन बर्बाद करते रहना चाहिए और बन सके और तुम उसे समझानेका पात्र समझो तो बलवानोंको निर्बलों पर अत्याचार करते रहना चाहिए ? उसे वास्तविकता समझा दो, वरना मध्यस्थ ही रहो यह एक प्रश्न है, जिस पर समय रहते प्रत्येक समझदार और उसकी मूर्खता पर झुंझलाश्रो नहीं, किंतु दया व्यक्तिको तो विचार करना ही चाहिए; किंतु उन जाहिलों- करो । साथही, प्रत्येक प्राणीकी दिलसे भलाई चाहते को भी, जो कि उक्त दुष्कृत्य करने कराने पर तुले हुए रहो और किसीका स्वप्नमें भी बुरा न विचारो। और है और दुनिया में अशांतिकी आग धधकाकर खुद भी यदि तुम्हें कोई दीन दुखी दिखाई दे तो दयार्द्र होकर उसीमें जल रहे हैं, शीघ्र ही ठंडे दिलसे विचार करना फौरन उसकी मदद करो। यदि किसी गुणी पुरुषके चाहिए । अन्यथा, वह दिन दूर नहीं है जब कि अस- दर्शन हों तो उसका प्रेम पूर्वक श्रादर करो और यदि हिष्णुताकी इस धधकती हुई श्रागमें दूसरांके साथ वे कारणवश या अकारण ही कोई तुमसे द्वेष करे तो खुद भी देखते देखते भस्म हो जाएँगे।
तुम उस पर उपेक्षा कर जाश्रो। यदि ऐसा करोगे तो - इस समस्या पर हमें कोई नये सिरेसे विचार करने- शीघ्र ही देखोगे कि दुनिया सुख और शांतिकी गोदमें की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि प्राचीन कालमें भी खेल रही है।" हीनाधिकरूपसे हमारे पूर्वजोंके सामने कभी जात्यन्धताके ये हैं विश्वकी दिव्य विभूति भगवान् महावीरके रूममें तो कभी धर्मान्धताके रूपमें यह असहिष्णुता पवित्र विचार, जो उन्होंने संसारके प्राणी मात्रको सुखी अनेक रूपसे प्रगट होती रही है। इसका हल भी उन्होंने बनाने एवं विभिन्न विचारोंके कारण फैली हुई अशांतिर केवल उस समयके लिए किया बल्कि सदा-सर्वदाके को दूर करनेके लिये व्यक्त किये थे, जिस पर अमल लिए करके रख दिया । दुनियाँ चाहे तो उस हलके करने से मानव-समाज ही नहीं बल्कि उस समयका निम्न सूत्र पर अमलकर अपने जीवनको और दूसरोंके पशु-समाजभी अानन्द-विभोर हो गया था। क्या आज जीवनको भी पूर्णरूपसे सुखी तथा शांतिपूर्ण बना का मदोन्मत्त, स्वार्थाध और असहिष्णु संसार ठण्डे सकती है:
दिलसे उपरोक्त पवित्र विचारों पर विचार करेगा ? यदि ., "भाइयो ! यदि तुम सचमुच ही शांति और सुखके वह सुख और शांतिको दिलसे चाहता है तो हमारा इच्छुक हो, तो दुनियाके प्रत्येक प्राणीको अपना मित्र यह पूर्ण विश्वास है कि एक दिन उसे उक्त पवित्र समझो, गोद होने मात्रसे ही किसीको अपना शत्रु बास्मों पर विचार करना ही पड़ेगा । समझकर उसंस दंप मत करो; क्योंकि विभिन्न प्राणियों
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तीर्थ मंदिर
दक्षिणके तीर्थक्षेत्र
! [वि० सं० १७४० के लगभगके एक यात्रीकी दृष्टिमें ]
昕
5
端
( लेखक - श्री० पं० नाथूरामजी 'प्रेमी'.)
हमारे ग्रन्थभण्डारों और घरोंमें न जाने कितनी ऐतिहासिक सामग्री पड़ी हुई है जिसकी ओर बहुत ही कम ध्यान दिया गया है । बहुतसे ग्रन्थभण्डारोंकी नाममात्रकी सूचियाँ भी बन गई हैं, परन्तु सूचियाँ बनानेवालोंको शायद वह दृष्टि ही प्राप्त नहीं है जिससे वे ऐसी सामग्री की खोज कर सकें और उसको महत्व दे सकें। इसके लिए जरूरत है कि अब कोई व्यवस्थित प्रयत्न किया जाय ।
लगभग २७-२८ वर्ष पहले मैं सोनागिर गया था और वहाँके भट्टारकजी से मिला था। वहांके प्रन्थ-भंडारको देखनेकी मेरी प्रबल इच्छा थी । भंडार दिखलाने से उन्होंने इक्कार तो नहीं किया, परन्तु दिखलाया भी नहीं- आजकल आजकल करके टाल दिया । उसी समय मैंने उनके पास एक पुरानी बही देखी और एक बस्तेमें बँधे हुए कुछ कागज पत्र । वही सौ - सवासौ बर्षकी थी । उन दिनों भट्टारक और उनके शिष्य पंडित या
पांडे
अपनी गद्दी अनुशासनमें रहने वाले स्थानोंका सालमें कमसे कम एकबार दौरा करते थे और अपना बँधा हुआ टैक्स वसूल किया करते थे। उक्त बहीमें उन स्थानोंकी सिलसिलेवार सूची थी और प्रत्येक स्थानके दो दो चार चार मुखियोंके नाम भी लिखे थे। किस शिष्यके अधिकार में कहाँसे कहाँ तकका क्षेत्र है, यह भी उससे मालूम हो जाता था । अपने गांवका और उसके आस पासके परिचित स्थानों तथा मुखियोंका नाम भी मैंने उसमें देखा । मुखिया वे ही थे जिनके नाम मैंने अपनी दादीके मुँहसे सुन रक्खे थे। कहीं कहीं टैक्सकी रकम भी लिखी हुई थी ।
बस्ते में कुछ सुन्दर सचित्र चिट्ठियाँ थीं जो जन्मकुंडलियोंके समान काफी लम्बी और गद्यपद्यमय थीं। वे गजरथ-प्रतिष्ठाएँ करानेवालोंकी तरफसे लिखी हुई थीं। उनमें प्रतिष्ठा कराने वालेके वंशका, स्थानका, वहाँके मुखियोंका, राज्यके शौर्य वीर्यका और दूसरी आनुषंगिक बातों क
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अनेकान्त
आतिशय्य युक्त वर्णन था । कुछ चिट्टियां शिष्यों द्वारा उनके गुरु भट्टारको नामकी भी थी, जिनको भाषा कुछ संस्कृत और कुछ देशी थी। मैंने चाहा कि उन. काराज-पत्रों को अच्छी तरह देखकर कुछ नोट्स लेलू, परन्तु भट्टारकजीने दूसरे समयके लिए टाल दिया और फिर मैं कुछ न कर सका ।
इसके बाद मैंने सन् १९१६ में मुनि श्रीजिनविजयजी द्वारा सम्पादित 'विज्ञप्ति त्रिवेणी' देखी, जो एक जैन साधु-द्वारा अपने गुरु के नाम लिखी हुई एक बहुत विस्तृत कवित्वपूर्ण संस्कृत चिट्ठी थी, जिससे उस समयकी (वि० सं० १४८४ की ) अनेक धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक बातों पर प्रकाश पड़ता है । उस समय जैन साधु जब किसी स्थानमें चातुर्मास करते थे तब अपने श्राचार्य या गुरुको खूब विस्तृत पत्र लिखकर भेजते थे और वह 'विज्ञप्ति' कहलाती थी ।
विज्ञप्ति त्रिवेणीको और भट्टारकजीके बस्तेकी उक्त चिट्ठियोंको देखकर मुझे विश्वास-सा हो गया है कि इस तरह की अनेक चिट्टियाँ हमारे मंडारोंमें – विशेष करके वहाँ, जहाँ भट्टारकोंकी गड़ियां रही हैं- पड़ी होंगी और प्रयत्न करनेसे वे संग्रह की जासकती हैं। उनसे मध्यकालीन इतिहासपर बहुत कुछ प्रकाश पड़ सकता है ।
स्वर्गीय 'गुरुजी' पं० पन्नालालजी वाकलीवालने आरासे पं० जयचन्दजी, दीवान अमरचन्दजी और कविवर बृन्दावनजीकी जो चिट्ठियाँ प्राप्त की थीं वे प्रकाशित हो चुकी हैं ।। सभी
श्री आत्मानन्द- जैनसभा, भावनगर द्वारा प्रकाशित । देखो, जैनग्रन्थरत्नाकर -कार्यालय बम्बई द्वारा प्रका थित 'वृन्दाबन-बिलास' ।
[ चैत्र, वीर निर्वाण सं० २४६५
जानते हैं कि वे कितने महत्व की हैं।
हमारा अनुमान है कि अधिकांश तीर्थक्षेत्रोंके सम्बन्ध में भी हमारे मंडारों और निजी अथवा घरू काग्रज पत्रोंमें बहुत-सी सामग्री मिल सकती है। उस समय लोग बड़ी बड़ी लम्बी तीर्थ-यात्रायें करते थे और चार चार छह छह महीनों में घर लौटते थे। उनके साथ विद्वान् और त्यागी - व्रती भी रहते थे । उनमें से कोई-कोई अपनी यात्राओं का विवरण भी लिखते होंगे। प्राचीन गुटकों और पोथियोंमें ऐसे कुछ विवरण मिले भी हैं। श्वेताम्बर - सम्प्रदाय के सुरक्षित और सुव्यवस्थित पुस्तक भंडारोंसे जब ऐसे अनेक यात्रा-वर्णन उपलब्ध हुए हैं, तब दिगम्बर भंडारोंमें भी इनके मिलने की काफी संभावना है ।
इस लेखमें मैं ऐसे ही एक यात्रा वर्णनका परिचय देना चाहता हूँ। मैंने और प्रो-हीरालालजीने 'हमारे तीर्थक्षेत्र' नामक अपने विस्तृत लेखमें एक दो जगह 'तीर्थमाला' से कुछ प्रमाण दिये हैं । उसके कर्ता श्रीशीलविजयजी श्वेताम्बर संप्रदाय के तपागच्छीय संवेगी साधु थे और उनके गुरुका नाम पं० शिवविजयजी था । उन्होंने पश्चिम-पूर्व-दक्षिण और उत्तर चारों दिशाओंके तीर्थोंकी पैदल यात्रा की थी और जो कुछ उन्होंने देखा-सुना था उसे अपनी गुजराती भाषामें पद्यबद्ध लिखलिया था । इसके पहले भागमें ८५, दूसरेमें ५५, तीसरेमें १७३ और चौथेमें ५५ पद्य हैं। प्रत्येक भागके प्रारम्भमें मंगलाचरणके रूपमें दो दो तीन तीन दोहे और अन्तमें चार चार लाइनों का एक एक 'कलस' है । शेष सब चौपइयाँ हैं ।
* देखो जैनसिद्धान्तभास्कर किरण ४ वर्ष पूर्वे की।
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वर्ष २, किरण ६]
दक्षिणके तीर्थक्षेत्र
पूर्वके तीर्थोकी यात्रा उन्होंने वि० सं० १७११- अप्याणं च किलबइ हिडजइ तेल पुहवीए ॥ १२ में, दक्षिणकी १७३१-३२ में, पश्चिमकी १७४६ अर्थात्-विविध प्रकारके चरित देखना में और उत्तरकी शायद १७४८ में की थी। 'शायद' चाहिए, दुर्जनों और सज्जनोंकी विशेषता जाननी इसलिए कि पुस्तकके पद्य-भागमें संवत् नहीं दिया चाहिए और आत्माको भी पहिचानना चाहिए। है, परन्तु अन्तकी पुष्पिकामें लिखा है--"संवत् इसके लिए पृथ्वी-भ्रमण आवश्यक है। १७४८ वरषे मागसरमासे शुकलपक्षे त्रयोदशी इस पुस्तकमें जो कुछ लिखा है लेखकने स्वयं तिथौ सोमवासरे लिखितम् १"
पैदल यात्रा करके लिखा है और सब कुछ देखकर स्व० श्रीधर्मविजयसूरिने वि० सं० १९७८ में लिखा है, फिर भी बहुत-सी बातें सुनी-सुनाई भी 'प्राचीन तीर्थमाला संग्रह' नामका एक संग्रह प्रका- लिखी हैं, जैसा कि उन्होंने कहा हैशित कियाथा । उसमें भिन्न-भिन्नयात्रियोंकी लिखी जगमा तीरथ सुंदरू, ज्योतिवंत झमाल । हुई छोटी-बड़ी पञ्चीस तीर्थमालायें हैं । शीलविजय- पभणीस दीठो सभिल्या, सुणता अमी रसाल ॥२॥ जीकी तीर्थमाला भी उसीमें संग्रहीत है।
अथवा-- ___यों तो यह समस्त पुस्तक ही बड़े महत्वकी दष्यिण दिसिवी बोली कथा, है, परन्तु हम इसकी दक्षिण-यात्राके अंशका ही निसुणी दीठी जेमियथा ।।१०८।। विवरण पाठकोंके सामने उपस्थित करेंगे । क्योंकि अपनी दक्षिण-यात्राका प्रारम्भ वे नर्मदा नदीयह अंश ही दिगम्बर सम्प्रदायके पाठकोंके लिए के परले पारसे करते हैं और वहींसे दक्षिण देशमें अधिक उपयोगी होगा। अबसे लगभग ढाईसौ प्रवेश करते हैं। वर्ष पहलेके दक्षिणके तीथों और दूसरे धर्मस्थानोंके नदी निर्बदा पेलि पार, आज्या दयिणदेसमझारि । सम्बन्धमें इससे बहुत-सी बातें मालूम होंगी। मानधाता तीरथतिहाँ सुण्य, शिवधर्मी ते मानि पणुं । ___ स्वयं श्वेताम्बर होने पर भी लेखकने दक्षिणके मान्धाताके विषयमें इतना ही कहकर कि इसे समस्त दिगम्बर-सम्प्रदायके तीर्थोंका श्रद्धा-भक्ति शिवधर्मी बहुत मानते हैं वे आगे खंडवा जाकर पर्वक वर्णन किया है और उनकी वन्दना की है। खानदेशके बरहानपुरका वर्णन करने लगते हैं।
पृथ्वी-भ्रमणकी उपयोगिता दिखलाने के लिए यहाँ यह नोट करने लायक बात है कि मान्धाताउन्होंने एक गाथा उद्धृत की है--
का उल्लेख करके भी लेखक 'सिद्धवरकूट' का दिसह विविहचरियं जाणिज्जेइ दुजणसज्जनविससा। कोई जिक्र नहीं करते हैं और इसका कारण यही
यह लेखककी लिखी या लिग्याई हुई पहली ही जान पड़ता है कि उस समय तक वहाँ सिद्धवरप्रति मालम होती है और उक्त प्रति ही प्रकाशनके समय कूट नहीं माना जाता था। सम्पादकके सामने अादर्श प्रति थी।
सिद्धवरकट' तीर्थकी स्थापना पर 'हमारे तीर्थxश्रीयशोविजय-जैनग्रंथमाला. भावनगर-द्वारा प्रकाशित क्षेत्र' नामक लेखमें विचार किया गया है, जो जैनसिहामूल्य २)
न्तभास्करकी हालकी किरणमें प्रकाशित हुआ है।
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अनेकान्त
[चैत्र, वीर-निर्वाण सं०२४६५
बुरहानपुरमें चिन्तामणि पार्श्वनाथ, महावीर, वनविहारको निकला और मन्दिर भूल गया। शान्तिनाथ, नेमिनाथ, सुपार्श्वनाथके मन्दिर हैं तब उसने बालू और गोबरकी एक प्रतिमा बनाई
और बड़े-बड़े पुण्यात्मा महाजन बसते हैं। उनमें और नमोकार मन्त्र पढ़कर उसकी प्रतिष्ठा करके एक ओसवालवंशके भूषण 'छीतू जगजीवन'नामके आनन्दसे पूजा की । वह प्रतिमा यद्यपि वन-सदृश मंघवी (संघपति) हैं, जिनकी गृहिणीका नाम होगई परन्तु कहीं पीछे कोई इसका अविनय न 'जीवादे' है । उन्होंने माणिक्यस्वामी, अन्तरीक्ष, करे, इसलिए उसने उसे एक जलकूपमें विराजमान
आबू, गोडी (पार्श्वनाथ ) और शत्रुजय की यात्रा कर दिया और वह अपने नगरको चला आया। की है। प्रतिष्ठायें की हैं। वे संघके भक्त और इसके बाद उस कुए के जलसे जब 'एलगराय' सुपात्रदानी हैं। दूसरे धनी पोरबाड़ वंशके सारंग- का रोग दूर होगया, तब अन्तरीक्ष प्रभु प्रकट धर' संघवी हैं, जिन्होंने संवत् १७३२ में बड़ी भारी हुए और उनकी महिमा बढ़ने लगी। पहले तो यह ऋद्धिके साथ चैत्यबन्दना और मालवा, मेवाड़, प्रतिमा इतनी अधर थी कि उसके नीचेसे एक आबू, गुजरात तथा विमलाचल (शत्रुजय ?) सवार निकल जाता था, परन्तु अब केवल एक की यात्रा करके अपनी लक्ष्मी को सफल किया है। धागा ही निकल सकता है ! तीसरे दिगम्बर-धर्मके अनुयायी 'जैसल जगजीवन- इसके आगे लूणारा गाँव और एलजपुरी दास' नामके बड़े भारी धनी हैं, जिनकी शुभमति अर्थात् एलिचपुरका उल्लेखमात्र करके कारंजा है और जो प्रतिदिन जिन पूजा करते हैं। उनकी नगरका बहुत विस्तृत वर्णन किया है, जो यहाँ तरफसे सदाबत जारी है, जिसमें आठ रुपया रोज सबका सब उद्धृत कर दिया जाता हैखर्च किया जाता है।
एलजपुरकारंजानयर, धनवंतलोक वसि तिहां सभर । __ इसके आगे मलकापुर है, वहाँके शान्तिनाथ जिनमन्दिर ज्योती जागता,देव दिगंबरकरि राजता ॥२१ भगवान को प्रणाम करता हूँ। वहाँसे देवलघाट तिहां गच्छनायक दीगंबरा, छत्र सुखासन चामरधरा । चढ़कर बरारमें प्रवेश किया जाता है। देवलगाँवमें श्रावक ते सुद्धधरमीवसिई,बहुधनअगणित तेहनि अछ। नेमीश्वर भगवानको प्रणाम किया। इसके आगे बघेरवालवंश सिणगार, नामि संघवी भोज उदार । समुद्र तक सर्वत्र दिगम्बर ही बसते हैं-
जिसे राजा 'एल' कहा जाता है शायद वही हवि संघलि दीगंबर वसि,समुद्रसुधीते घणं उल्हसि।।१३ यह 'एलगराय' है। आकोलाके गेजेटियरमें लिखा है फिर 'अन्तरीक्ष पार्श्वनाथ' का वर्णन करते हैं- कि एल राजाको कोढ़ हो गया था, जो एक सरोवरमें शिरपुरनयर अंतरीकपास,अभीझरो वासिभासुविलास। नहानेसे अच्छा होगया । उस सरोवरमें ही अन्तरीक्षकी
आगे इस तीर्थक विषयमें एक दन्तकथा लिखी प्रतिमा थी और उसीके प्रभावसे ऐसा हुआ था। है कि रावण का भगिनीपति खरदूषण राजा बिना लोणार बुलडाना जिलेमें मेहकरके दक्षिणमें पूजा किये भोजन नहीं करता था। एक बार वह १२ मील पर है। बरारमें यह गाँव सबसे प्राचीन है।
बासिभ सिरपुरसे १० मील दूर है। इसका पुराना नाम विरजक्षेत्र है।
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वर्ष २, किरण
दक्षिणके तीर्थक्षेत्र
२१५
समकितधारी जिनने नमइ,अवरघरमस्य मननविरमहर३ स्वामी है ( भट्टारक) और उनके पुस्तक भंडारका तेहवे कुले उत्तमभाचार, रात्रिभोजननो परिहार। पूजन करते हैं। उन्होंने संघ निकाला, प्रतिष्ठा की, नित्यई पूजामहोच्छव करइ,मोतीचोकजिनभागलिभरइ२४ प्रासाद ( मन्दिर ) बनवाये और पाल्हाद पूर्वक पंचामृत अभिषेक धणी, नयणे दीठी तेम्हि भणी। बहुतसे तीर्थों की यात्रा की है। कर्नाटक, कोकण, गुरुसाइमी पुस्तकभंडार,तेहनी पूजा करि उदार ॥२५ गुजरात, पूर्व, मालवा और मेवाड़से उनका बड़ा संघप्रतिष्ठा ने प्रासाद, बहुतीरथ ते करि बाहाद। भारी व्यापार चलता है । जिनशासनको शोभा करनाटककुंकणगुजराति, पूरब मालव ने मेवात ॥२६ देनेवाले सदावर्त, पूजा, जप, तप, क्रिया, महोत्सव द्रव्यतणा मोय व्यापार, सदावर्त पूजा विवहार। आदि उनके द्वारा होते हैं। संवत् १७०७ में उन्होंने तपजपक्रियामहोच्छवघणा,करिजिनसासनसोहामणा२७ गढ़ गिरनारकी यात्रा करके नेमि भगवानकी पूजा संवत सातसतरि सही, गढ़ गिरनारी जात्रा करी। की, सोनेकी मुहरोंसे संघ-वात्सल्य किया और लाख एक तिहां धनवावरी, नेमिनाथनी पूजा करी ॥२८ एक लाख रुपया खर्च करके धनका 'लाहा' लिया । हेममुद्रासंघवच्छलकीओ,लाच्छितणोलाहोतिहाँ लीओ प्रपात्रों (प्याऊ) पर शीतकालमें दूध, गर्मियोंमें परविं पाई सीप्रालि दूध, ईषुरस उंनालि सुद्ध ॥२६॥ गन्नेका रस और इलायची वासित जल पन्थियोंअलाफूलि वास्यां नीर, पंथीजननि पाई धीर । को पिलाया और पात्रोंको भक्तिपूर्वक पंचामृतपंचामृत पकवाने भरी, पोषि पात्रज भगति करी ॥३० पक्वान्न खिलाया। 'भोज संघवी' के पुत्र 'अर्जुन भोजसंघवीसुत सोहामणा, दाता विनयी ज्ञानी घणा संघवी' और 'शीतल संघवी' भी बड़े दाता,विनयी, अर्जुनसंघवीपदारथ(?)नाभ,शीतलसंघवीकरिशुभकाम३१ ज्ञानी और शुभ काम करनेवाले हैं।
इसका सारांश यह है कि-'कारंजामें बड़े बड़े इसके आगे मुतागिरिके विषयमें लिखा है कि धनी लोग रहते हैं और प्रकाशमान जैन मन्दिर वह शत्रुजयके तुल्य है और वहाँ चौबीस हैं,जिनमें दिगम्बरदेव विराजमान हैं। वहाँ गच्छ- तीर्थकरोंके ऊँचे ऊंचे प्रासाद हैं-- नायक (भट्टारक) दिगम्बर हैं जो छत्र, सुखासन हवि मगतागिरि जात्रा कहुं,शेत्रुजतोलि ते पण लहुँ। (पालकी) और चॅवर धारण करते हैं। शुद्ध धर्मी ते उपरि प्रासाद उतंग, जिन चौबीसतणा अतिचंग ॥ श्रावक हैं, जिनके यहाँ अगणित धन है । बघेरवाल
इसके आगे सिंधपेडि, पातूर, गोसावुदगिरि, वंशके शृंगार रूप भोज-संघवी (सिंघई) बड़े ही
कल्याण, और विधर शहरका उल्लेख मात्र किया उदार और सम्यक्त्वधारी हैं। वे जिन भगवान् ।
र है, सिर्फ पातूरमें चन्द्रप्रभ और शान्तिनाथ जिनके को ही नमस्कार करते हैं। उनके कुलका आचार उत्तम है। रात्रिभोजनका त्याग है। नित्य ही पूजा महोत्सव करते रहते हैं, भगवान्के आगे इस 'स्वामी' शब्दका व्यवहार कारंजाके भट्टारकोंमोती-चौक पूरते हैं और पंचामृतसे अभिषेक के नामोंके साथ अब तक होता रहा है; जैसे वीरसेन करते हैं। यह मैने आँखों देखकर कहा है। गुरु- स्वामी ।
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अनेकान्त
[चैत्र, वीर-निर्वाण सं०३४६५
सिंघषेडि आबा पातूर, चन्द्रप्रभ जिन शांति सनूर । है
है। उसकी सेनामें एक लाख घड़सवार और नौ
लाख सिपाही हैं । गोलकुंडे में छत्तीसहजार वेश्यायें भोसावुदगिरि गढ़ कल्याण,सहिर बिधर प्रसीद्धं ठाण। हैं और रातदिन नाचगान हुआ करता है । यहाँ . इसके आगे तैलंगदेशके भागनगर गलकुंडू के श्रावक धनी,वानी,ज्ञानी और धर्मात्मा हैं । मणि (गोलकुंडा) का वर्णन है । लिखा है कि उसका माणिक्य, मूंगेके जानकार (जौहरी) और देवगुरुविस्तार चार योजनका है और कुतुबशाहकाईराज्य की सेवा करनेवाले हैं। १ महाराष्ट्र ज्ञानकोशके अनुसार जब जानोजी
वहाँ ओसवाल वंशके एक 'देवकरणशाह' नाम भोसलेने निजामअलीको परास्त करके सन्धि करनेको के बड़े भारी धनी हैं,जो चिन्तामणि चैत्यमें प्रतिदिन लाचार किया था, तब पेशवा स्वयं तो शिन्दखेडमें रह
जिनपूजा और संघ-वात्सल्य करते हैं। उनकी ओरगया था और विश्वासराव तथा सिन्धियाको उसने
है। वे दीन-दुखियोंके लिए कल्पवृक्ष औरंगाबाद भेज दिया था। इसके बाद सारवरखेड है। राजा उन्हें मानते है । 'उदयकरण' और 'आसबड़ी भारी लड़ाई हुई और निजामअली परास्त हुआ
करण" सहित वे तीन भाई हैं—सम्यक्त्वी, निर्मल (ई. सन् १७५६) । इसी शिन्दखेडका शीलविजयजीने
बुद्धि, गवरहित और गुरुभक्त । उनके गुरु अंचल उल्लेख किया है । यह बरारमें ही है।
गच्छके हैं।
वहाँ आदिनाथ और पार्श्वनाथके दो मन्दिर २ अांबा बरारका ही कोई गाँव होगा। ३ श्राकोला जिलेकी बालपुर तहसीलका एक कस्बा
हैं। एक दिगम्बर मन्दिर बहुत बड़ा है। इसके पामके जंगल में कई गुफायें हैं। एक गुफामें एक
इसके आगे लिखा है कि कुल्लपाकपुर-मंडन जैनमन्दिर भी है। संभव है, वह चन्द्रप्रभ भगवानका
माणिक-स्वामीकी x सेवा करनी चाहिए। वहाँकी
प्रतिमा भरतरायकी स्थापित की हुई है। इस तीर्थ४ यह शायद 'ऊखल्लद' अतिशय क्षेत्र हो, जो का उद्धार राजा शंकररायकी रानीने किया है। इस निजाम स्टेट रेलवेके मीरखेल स्टेशनसे तीन चार मील
मिथ्याती राजाने ३६० शिवमन्दिर बनवाये और
इसकी रानीने इतने ही जिनमन्दिर। इन मन्दिरोंहै। यह स्थान पहाड़ पर है, इसलिये 'गिरि' कहा जा मकता है।
का विस्तार एक कोसका है, जहाँ पूजन-महोत्सव ५ कल्याणको अाजकल 'कल्याणी' कहते हैं । यह हुआ करत ह । (अगला किरण म समाप्त) निजाम राज्य के बेदर जिलेकी एक जागीरका मुख्य स्थान है। चालुक्य-नरेश सोमेश्वर (प्रथम) ने यहाँ अपनी
इन संख्यायाम कुछ अतिशयोक्ति हो सकती है। राजधानी स्थापित की थी। सन् १६५६ में यहां के गढ़
पो० इन्द्र विद्यावाचस्पति-लिखित 'मुगलसाम्राज्यका या किलेको औरङ्गजेबने फ़तह किया था ।
क्षय और उसके कारण' नामक ग्रन्थके अनुसार इस ६ यह निजाम राज्यका जिला 'बेदर' है।
शहरमें बीस हजार वेश्यायें और अगणित शराबघर थे । • हैदराबादसे पश्चिम पांच मील पर बसा हुआ
पर बसा हुआ x कुल्याक या माणिकस्वामी तीर्थ निजाम स्टेटमें पुराना शहर । इमीका पुराना नाम भागनगर था। मिसाल है। वहाँ जनपिालालेग्न मिले हैं।
1यह कुतुबशाहीका अन्तिम बादशाह अबहसन- दिगम्बर जैन डिरेक्टरीके अनुसार गजपन्थमें संवत् १४४१ कुतुबशाह होगा, जो सन् १६७२ में गोलकुंडे की गद्दी पर का एक शिलालेख था जिसमें 'हँसराजकी माता गोदूबाई बैठा था । सितम्बर १६८७ में औरंगजेबने गोलकुंडा ने माणिकस्वामीका दर्शन करके अपना जन्म सफल फतह किया और अबहसनको गिरिफ्तार किया। किया' लिखा है, पर अब इस लेखका पता नहीं है ।
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FRICASSESSNESENSIONSENSESSION
Bardhamanawa panduan
ले-अयोध्याप्रसाद गोयलीय
o कथा कहानी
- अयोध्याप्रसाद गोयलीप
ASTROERARRIERRIERRRRRRRRREARSATSANSARRRRRRRIERTAIMER
(१२)
तूने सोचा--'जब भरे दरबार में दुर्योधनने साड़ी महाभारतके युद्ध में कौरव सेनापति भीष्मपिता- खींची तब उपदेश देते न बना, बनोंमें पशु-तुल्य
मह जब अर्जुनके बाणोंसे घायल होकर रण जीवन व्यतीत करनेको मजबूर किया गया तब भूमिमें गिर पड़े तो कुरुक्षेत्रमें हा-हाकार मचगया। सान्त्वनाका एक शब्दभी मुँहसे न निकला, कीचक कौरव-पाण्डव पारस्परिक वैर-भाव भूलकर गायकी द्वारा लात मारे जानेके समाचार भी साम्यभावसे तरह डकराते हुए उनके समीप आए । भीष्मपिता- सुन लिये, रहने योग्य स्थान और क्षुधा-निवृत्तिको महकी मृत्यु यद्यपि पाण्डव-पक्षकी विजय-सूचक भोजन मांगने पर जब कौरवोंने हमें दुतकार थी। फिर भी थे तो पितामह न ? धर्मराज युधिष्ठिर दिया, तब उपदेश याद न आया। सत्य और बालकोंकी भाँति फुप्पा मार कर रोने लगे । अन्तमें अधिकारकी रक्षाके लिये पांडव युद्ध करनेको धैर्य रखते हुए रुंधे हुए कण्ठसे बोले-"पितामह ! विवश हुए तो सहयोग देना तो दूर, उल्टा कौरवोंहम ईर्ष्यालु दुर्बुद्धि पुत्रोंको, इस अन्त समयमें के सेनापति बनकर हमारे रक्तके प्यासे हो उठे जीवनमें उतारा हुआ कुछ ऐसा उपदेश देते जाइये और जब पांडवों द्वारा मार खाकर जमीन Vष जिससे हम मनुष्य जीवनकी सार्थकता प्राप्त कर रहे हैं--मृत्युकी घड़ियाँ गिन रहे हैं तब हमीको सकें।" धर्मराजके वाक्य पूरा होनेपर अभी पिता- उपदेश देनकी लालसा बलवती हो रही है। पुत्री महके ओठ परी तरह हिल भी न पाए थेकि द्रोपदी- तेरा यह सोचना सत्य है। त मुझ पर जितना के मुखपर एक हास्यरेखा देख सभी विचलित हो हँसे कम है। परन्तु, पुत्री ! उस समय मुझमें उठे। कौरवोंने रोप भरे नेत्रोंसे द्रोपदी को देखा। उपदेश देनेकी क्षमता नहीं थी, पापात्मा कौरवोंका पाण्डवोंने इस अपमान और ग्लानिका अनुभव अन्न खाकर मेरी आत्मा मलीन होगई थी, दूषित करते हुए सोचा--"हमारे सरसे साया उठ रहा रक्त नाड़ियों में बहनेसे बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी। किन्तु है और द्रोपदीको हास्य सूझा है ।" पितामहको वह सब अपवित्र रक्त अर्जुनके बाणोंने निकाल कौरव-पांडवोंकी मनोव्यथा और द्रोपदीके हास्यको दिया है। अतः श्राज मुझे सन्मार्ग बतानेका भांपनेमें विलम्ब न लगा। वे मधुर स्वरमें बोले साहसहो सकता है।" 'बेटी द्रोपदी! तेरे हास्यक
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अनेकान्त
[चैत्र, वीरनिर्वाण सं०२४६५
मृत्युसे खिलवाड़ करनेको सदैव प्रस्तुत रहता है। हजरत उमर (द्वितीय खलीफा) बहुत सादगी- मैं नहीं चाहताकि आप कर्जदार होकर जाएँ।' पसन्द थे । इन्होंने अपने बाहुबलसे अरब, फल- हज़रत उमर इस पर्चेको पढ़कर रो पड़े और स्तीन, रूम, बेतुल मुकद्दस, (शामका एक स्थान) कोषाध्यक्षकी इस दूरन्देशीकी बारबार सराहना
आदिमें केवल १० वर्षमें ही ३६००० किले और की । प्यारे पुत्रको अगले माहमें कपड़े बनवा देनेशहर फतह किये । यह विजयी खलीफा सादगीके का आश्वासन देते हुए गलेसे लगाया ! इन्हीं नमने थे। राज-कोषसे केवल अपने परिवारके खलीफा साहबने अपने इस प्यारे पुत्रको एक पालनके लिये २० रु० माहवार लेते थे। तंगदस्ती अनाथ लड़कीसे बलात्कार करने पर बेंत लगवाई इतनी रहती थी कि कपड़ों पर आपको चमड़ेका थीं, जिससे पुत्रकी मृत्यु हो गई थी। पेवन्द लगाना पड़ता था, ताकि उस स्थानसे दोबारा न फट जाएँ । जूते भी स्वयं गांठ लेते थे। सिरहाने तकियेकी एवज ईटें लगाते थे। उनके बच्चे भी फटे हाल रहते थे। इसलिये हमजोली पानीपतकी दूसरी लड़ाईमें हेमू युद्ध करता बालक अपने नये कपड़े दिखाकर उन्हें हुअा अकबर बादशाहके सेनापति द्वारा वन्दी कर चिड़ाते थे । एक दिन आपके पुत्र अब्दुलरहमानने लिया गया । वन्दी अवस्थामें वह अकबरके समक्ष अपने लिये नये कपड़े बनवानेके लिये रो-रोकर लाया गया। उस समय अकबरकी आयु केवल खलीफासे बहुत मिन्नतें कीं । खलीफाका हृदय १३ वर्षकी थी। पुरातन प्रथाके अनुसार अकबरको पसीजा और उन्होंने अगले वेतनमें काट लेनेके हेमूका वध करनेके लिये कहा गया, किंतु उसने लिये संकेत करते हुए दो रुपया पेशगी देनेको यह कहकर कि--निःसहाय और वन्दी मनुष्य पर लिखा । किंतु कोषाध्यक्ष खलीफाका पक्का शिष्य था हाथ उठाना पाप है' प्राण लेनेसे इकार कर अतः उसने यह लिखकर दो रुपये पेशगी देनेसे दिया। बालक अकबरकी इस दूरदर्शिता और इहार कर दिया कि-- 'काश इस बीचमें आप विशाल हृदयताकी उपस्थित जनसमूहने मुक्तकंठसे इन्तकाल फर्मा गये--स्वर्गस्थ हो गये तो यह प्रशंसाकी। अकबर अपने ऐसे ही लोकोत्तर गुणोंके पेशगी लिए हुए रुपये किस खातेमें डाले जाएँगे? कारण इस छोटी-सी आयुमें काँटोंका ताज पहनकर मौतका कोई भरोसा नहीं उसे पानेमें देर नहीं विशाल साम्राज्य स्थापित कर सका था। लगती और फिर आपका तो युद्धमय जीवन
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भाग्य और पुरुषार्थ [तकदीर और तदबीर]
[ले० श्री० बाबू सूरजभानुजी वकील]
भाग्य, दैव, किस्मत वा तकदीर क्या है और रास्ता बताता रहे और अन्धा चलता रहे तो दोनों ही
पुरुषार्थ, उद्यम, तदबीर वा कोशिश क्या बनसे बाहर हो जावेंगे । इसी प्रकार भाग्य और पुरुषार्थ है ? भाग्यसे ही सब कुछ होता है वा जीवकी अपनी दोनों ही के सहारे संसारी जीवोंके कार्योंकी सिद्धि होती कोशिश भी कुछ काम कर सकती है ? और श्रगर दोनों है किसी एकसे नहीं। ही शक्तियोंके मेलसे कार्य होता है तो इनमें कौन भाग्य और पुरुषार्थ क्या है, इसको भी विद्यानन्द बलवान् है और कौन निर्बल ? भाग्यकी शक्ति कितनी है स्यामीने श्रष्टसहस्रीम (श्लोक नं०८८ की टीकामें) इस
और पुरुषार्थकी कितनी ? भाग्यका काम क्या है और प्रकार स्पष्ट किया है-"पहले बांधे हुए कर्मों ही का पुरुषार्थका क्या ? इन सब बातोंको जानना मनुष्यके नाम देव (भाग्य या किस्मत) है, जिसको योग्यता भी लिये बहुत ही ज़रूरी है । अतः इस लेख में हन ही सब कहते हैं, और वर्तमानमें जीव जो तदबीर, कोशिश या बातोंको स्पष्ट करनेकी कोशिश की जायगी। चेष्टा करता है वह पुरुषार्थ है।" (भावार्थ जो पुरुषार्थ ___ एकमात्र भाग्यसे ही वा एकमात्र पुरुषार्थसे ही किया जा चुका है और जिसका फल जीव भोग रहा है कार्यकी सिद्धि माननेको दूषित ठहराते हुए श्रीनेमिचन्द्रा- वा भोगेगा वह तो भाग्य कहलाता है और जो पुरुषार्थ चार्य गोम्मटमार कर्मकांड गाथा ८६४ में लिखते हैं कि, अब किया जा रहा है वह पुरुषार्थ कहलाता है । वास्तव यथार्थ ज्ञानी भाग्य और पुरुषार्थ दोनों ही के संयोगसे में दोनों ही पुरुषार्थ है-एक पहला पुरुषार्थ है और कार्यकी सिद्धि मानते हैं, एक पहियेस जिस प्रकार दूसरा हालका पुरुषार्थ । गाड़ी नहीं चल सकती, उसी प्रकार भाग्य वा पुरुषार्थमें जीवका असली स्वरूप सर्वदर्शी, सर्वश, मर्यसे किसी एकसे ही कार्यकी सिद्धि नहीं हो सकती। शक्तिमान्, और परमानन्द है, परतन्त्रता इन्द्रियोंकी अथवा बनमें आग लग जानेपर जैसे अंधा पुरुष दौड़ने श्राधीनता, राग, देष, मोह-श्रादि उसका असली भागनेकी शक्ति रखता हुश्रा भी बनसे बाहर नहीं हो स्वभाव नहीं है । परन्तु अनादि कालसे यह जीव कर्मोसकेगा वैसे ही एक लंगड़ा पुरुष देखनेकी शक्ति रखता के बन्धनमें पड़ा हुश्रा, अपनी शनादि शक्तियोंको बहुत हुआ भी बाहर नहीं निकल सकेगा । हाँ, अगर अन्धा कुछ खोकर, राग, द्वेष और मोहके जालमें फंसा हुआ, लंगड़ेको अपनी पीठ पर या कंधे पर चढ़ा ले, लंगड़ा शरीर रूपी कैदखाने में बन्द पड़ा तरह तरके दुख मोग
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अनेकान्त
[चैत्र, वीर-निर्वाण सं० २४६५
रहा है। किन्तु इस प्रकार कर्मोके महाजालमें फँसा निगोदिया जीवों तकको भी कुछ न कुछ शान जरूर रहकर भी जीवका निज स्वभाव सर्वथा नष्ट नहीं हो होता है यह दोनों शान ज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशम गया है और न सर्वथा नष्ट हो ही सकता है । से ही होते हैं । जीवके स्वभावको बिल्कुल नाश कर इस कारण कर्मोंके जाल में पूरी तरह फँसे हुये भी जीव- देने वाले कर्मके बड़े हिस्सेका बिना फल दिये नाश हो की शानादि शक्तियाँ कुछ न कुछ बाकी जरूर रहती हैं, जाना, हल्का असर करने वाले हिस्सेका फल देना और जिनके कारण ही वह अजीव पदार्थोंसे अलग पहचाना बाकी हिस्सेका श्रागेसे फल देने के वास्ते सत्तामें रहना जाता है और जीव कहलाता है। इन ही बची हुई क्षयोपशम कहलाता है । शक्तियों के द्वारा पुरुषार्थ करके वह कर्मों के बन्धनोंको यह ऐसा ही है जैसा कि शरीरमें कोई दुखदाई कम और कमजोर कर सकता है और होते होते सब ही मवाद इकट्ठा हो जाने पर या कोई नुक्सान करनेवाली बन्धनोंको तोड़कर सदाके लिये अपना असली ज्ञानानन्द वस्तु खा लेने पर उसको के या दस्तके द्वारा निकाल स्वरूप प्राप्त कर सकता है। अपने इस असली स्वभाव- डालना, या किसी दवा के द्वारा उसका असर रोक देना को प्राप्त कर लेने के बाद फिर कभी कोई कर्म उसके या कुछ निकाल देना और कुछ असर होते रहना। पास तक भी नहीं फटकने पाता है और न कभी उसका जिस तरह किसी दवाईके ऊपर दूसरी दवाई खानेसे पहली किसी प्रकार का बिगाड़ ही कर सकता है। खाई हुई दवाई जल्द ही अपना असर शुरू कर देती
कर्मफल देकर नित्य ही झड़ते रहते हैं और नये २ है उस ही तरह एक कर्म जो बहुत देरमें फल देने वाला बंधते रहते हैं परन्तु तपके द्वारा कर्म बिना फल दिये हो, किसी कारणसे तुरन्त ही फल देने लग जाता है, भी नाश हो जाते हैं । साधारण गृहस्थी भी दर्शन जिसको कर्मकी उदीरणा कहते हैं । कर्मका अपने समय मोहनीयकी तीन और चारित्र मोहनीयकी चार कर्म पर फल देना उदय कहलाता है और समयसे पहले फल प्रकृतियोंका क्षय, उपशम वा क्षयोपशम करके ही देना उदीरणा है। सम्यकभद्धानी होता है। किसी कर्मका बिल्कुल ही कोंका पैदा होना और बँधना भी रुक सकता है। नाश कर देना ही क्षय है, फल देनेसे रोक देना उपशम जिसको सँवर कहते हैं । मूलकर्म श्राट हैं और उनके है और कुछ क्षय, कुछ उपशम तथा कुछ उदयका भेद अर्थात् उत्तर प्रकृति १४८ हैं । इनमेंसे ४१ प्रकनाम क्षयोपशम है । संसारी जीव कोई भी ऐसा नहीं है तियोंका बँधना तो सम्यक् श्रद्धान होते ही रुक जाता है जिसको कुछ न कुछ मतिज्ञान और श्रुतज्ञान न हो। अणुव्रती श्रावक होने पर और भी १० प्रकृतियाँ
बँधनेसे रुक जाती हैं, इस ही तरह आगे श्रागे बढ़ने देखो गोमट्टसार गाथा २६ की संस्कृत टीका और पं. टोडरमलजीका हिंदी अनुवाद ।
पर और प्रकृतियोंका भी बँधना रुकता जाता है। किसी देखो भगवती श्राराधनासार गाथा १८५. की समयके भले बुरे परिणामोंके कारण पहली बँधी हुई कर्म संस्कृत टीका अपराजितसूरि कुन तथा लब्धिसारकी प्रकृतियाँ एक उत्तर प्रकृतिसे दूसरी उत्तर प्रकृतिमें बदल टीका टोडरमलजी कृतमें गाथा ३९२ के नीचेका प्रश्नो- देखो गोमट्टसार जीवकांड गाथा १३ की संस्कृत
टीका और पं० टोडरमलजी कृत हिन्दी अनुवाद ।
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वर्ष २, किरण ६]
भाग्य और पुरुषार्थ
३६१
जाती है-जैसे कि सुख देने वाली साता और दुख करते हैं, यह बात सब ही सांसारिक कार्योंमें स्पष्ट दिखाई देने वाली असाता ये वेदनीय कर्मकी दो उत्तर प्रकृतियाँ देती है। मनुष्य अपने पुरुषार्थ से खेती करके तयसातासे असाता और असातासे साता हो सकती है, तरहके अनाज, तरह-तरहकी भाजी और तरह-तराके अर्थात् किसी समय के भले बुरे कर्मोंकी ताकतसे पहला फल पैदा करता है; एक वृक्षकी दूसरे वृक्षके साथ बँधा हुआ पुण्य कर्म बदल कर पाप रूप हो सकता है कलम लगाकर उनके फलोको अधिक स्वादिष्ट और और पाप बदल कर पुण्य हो सकता है।
रसभरे बनाता है। अनाजको पीस-पोकर और भागसे ___ यह बात ऐसी ही है जैसे कि दूध पीनेके बाद कोई पकाकर सत्तर प्रकारके सुस्वाद भोजन बनाता है। मिहीसे तेज़ खटाई खाले, जिससे वह दूध भी फटकर दुखदाई इंटें बनाकर, फिर उनको भागमें पकाकर भाकायले हो जाय, या पेटमें दर्द कर देने वाली कोई वस्तु खाकर बातें करनेवाले बड़े-बड़े ऊंचे महल चिनता है। हजारों फिर कोई ऐसी पाचक औषधि खा लेना जिससे पहली प्रकारके सुन्दर-सुन्दर वस्त्र बनाता है, लकड़ी, लोहा, खाई हुई वस्तु तुरन्त पचकर सुखदाई हो जाय । इस तांबा, पीतल, सोना, चाँदी अदि ढूंढ कर उनसे अनेक ही प्रकार कर्मोंके फल देनेकी शक्ति भी बदल कर हल्की चमत्कारी वस्तुएँ पड़ लेता है; काग़ज़ बनाकर पुस्तके भारी हो सकती है और कर्मोके कायम रहनेका समय लिखता है और चिठियाँ भेजता है; तार, रेल, मोटर, भी घट बढ़ सकता है। इस सब अलटन-पलटनको ऍजिन, जहाज, घड़ी, घंटा, फोन, सिनेमा श्रादिक अनेक संक्रमण कहते हैं ।
प्रकारकी अद्भुत कलें बनाता है और नित्य नयेसे नई ____ साराँश इस सारे कथनका यह है कि कर्म कोई बनाता जाता है; यह सब उसके पुरुषार्थकी ही महिना ऐसी अटल और बलवान शक्ति नहीं है जो टाली टल है। पशु इस प्रकारका कोई भी पुरुषार्थ नहीं करते हैं, ही न सके । उसको सबही जीव अपने पुरुषार्थसे सदा इस ही कारण उनको यह सब वस्तुएँ, प्राप्त नहीं होती है, हो तोड़ते मरोड़ते रहते हैं।
उनका भाग्य वा कर्म उनको ऐसी कोई वस्तु बनाकर तीव्र कषाय करनेसे पाप बँध होता है और मन्द नहीं देता है, घास-फूस जीव-जन्तु आदि जो भी वस्त कषायसे पुण्य, जो लोग कर्मोंके उदयसे भड़कने वाली स्वयं पैदा हुई मिलती है उस ही पर गुजारा करना पड़ता कषायको भड़कने नहीं देते । कर्मोको अपना असर नहीं है, बरसातका सारा पानी, जेठ असादकी सारी धूप, करने देते । अपने परिणामोंकी पूरी पूरी सम्हाल रखते शीत समयका सारा पाला अपने नंगे शरीर पर ही है, वे पुण्य बन्ध करते हैं और जो कुछ भी सावधानी झेलना पड़ता है, और भी अन्य अनेक प्रकारके असा नहीं रखते, भड़काने वाले कर्मोका उदय होने से परि- दुःख पुरुषार्थहीन होनेके कारण सहने पड़ते हैं! णामोंको चाहे जैसा भड़कने देते हैं वे पाप बंध करते इसके उत्तर में शायद हमारे कुछ भाई यह काने है, और दुख उठाते हैं।
लगें कि मनुष्योंको उनके कर्मोंने ही तो ऐसा शान और पुरुषार्थहीनके प्रायः सब ही कार्य नष्ट भ्रष्ट होते हैं ऐसा पुरुषार्थ करनेका बल दिया है जिससे वे ऐसी और पुरुषार्थ करनेवालेके प्रायः सब कार्य सिद्ध हुआ ऐमी अद्भुत वस्तुएँ बना लेते हैं, पशुओंको उनके कोने
• देखो गोमट्टसार कर्मकांड गाथा ४३८, ४३६। ऐसा ज्ञान और पुरुषार्थ नहीं दिया है, इस कारण
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३६२
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श्रनेकान्त
[चैत्र, वीर- निर्वाण सं० २४६५
जीवके शत्रु हैं, इस कारण उनका काम तो एकमात्र बिगाड़नेका ही है—सँवारने का नहीं । भेद सिर्फ इतना ही है कि जब कोई कर्म हमको अधिक काबू में करके अधिक दुख पहुँचाता है तो उसको हम पाप कर्म कहते हैं और जब कोई कर्म कमजोर होकर हमपर कम काबू पाताहै जिससे हम अपने असली ज्ञान गुण और बलवीर्यसे कुछ पुरुषार्थ करने के योग्य हो जाते हैं और कम दुःख उठाते हैं तो इसको हम पुण्य कर्म कहने लग जाते हैं और खुश होते हैं ।
जिस प्रकार बीमारी मनुष्यको दुख ही देती है सुख नहीं दे सकती है उसी प्रकार कर्म भी जीवको दुःख ही देते हैं सुख नहीं दे सकते हैं। बीमारी भी जब मनुष्यको अधिक दबा लेती है, उठने बैठने भी नहीं देती है, होशहवाश भी खो देती है, खाना पीना भी बन्द कर देती है, नींद भी नहीं श्राती है, रात्रि दिन पीड़ा ही होती रहती है, तब वह बीमारी बहुत बुरी और महानिन्द्य कही जाती है; परन्तु जब योग्य औषधि करनेसे वह सह्य बीमारी कम होकर सिर्फ़ थोड़ी-सी कमज़ोरी आदि रह जाती हैं, मनुष्य अपने कारोबार में लगने योग्य हो जाता है, तो खुशियां मनाई जाती हैं, परन्तु यह खुशी उसको बीमारीने नहीं दी है किन्तु बीमारीके कम होने से ही हुई है । इसी प्रकार कर्म भी जब जीवको अच्छी तरह जकड़कर कुछ भी पुरुषार्थ करनेके योग्य नहीं रहने देते हैं तो वे खोटे व पापकर्म कहलाते हैं और जब जीव अपने शुभ परिणामोंके द्वारा कपायोंको मंद करके कमको कमजोर कर देता है जिससे वह पुरुषार्थ करनेके योग्य होकर अपने मुखकी सामग्री जुटाने लग जाता है तो वह उन हलके कर्मोंको शुभ व पुण्य कर्म कहने लग जाता है।
कर्म क्या है, जीवके साथ कैसे उनका सम्बन्ध
नहीं बना सकते हैं। मनुष्योंको उनके कर्म यदि ऐसा ज्ञान और उद्यम करनेकी शक्ति न देते तो वे भी कुछ न कर सकते, यह सब भाग्य वा कर्मोंकी ही तो महिमा है जिससे मनुष्य ऐसे अद्भुत कार्य कर रहे हैं । परन्तु प्यारे भाइयो ! क्या आपके खयालमें तीर्थंकर भगवान्को जो केवलज्ञान प्राप्त होता है, जिससे तीनों लोक सबही पदार्थ उनको बिना इन्द्रियोंके सहारेके साक्षात् नजर श्राने लग जाते हैं तो क्या केवलज्ञानकी यह महान् शक्ति भी कर्मोंकी ही दी हुई होती है ? नहीं ऐसा नहीं है । यह सब शक्ति तो उनको उनके पुरुषार्थके द्वारा कर्मोंके नाश करनेसे ही प्राप्त होती हैं, कर्मोंकी दी हुई नहीं होती है। कर्म तो जीवको कुछ देते नहीं किन्तु बिगाड़ते ही हैं । कमका कार्य तो जीवको ज्ञान या विचारशक्ति वा अन्य किसी प्रकारका बल देना नहीं है, किन्तु इसके विपरीत कमका काम तो जीवके ज्ञान और बल वीर्यको नष्ट भ्रष्ट कर देनेका ही है । ज्ञान और बल वीर्य तो जीवका निज स्वभाव है, जितनाजितना किसी जीव का बलवीर्य नष्ट-भ्रष्ट और कम होरहा है वह सब उसके कर्मशत्रुग्रोंका ही तो काम है, और जितना-जितना जिस किसी जीवमें ज्ञान और बल वीर्य है वह उसका अपना असली स्वभाव है, जिसको नष्ट-भ्रष्ट करने के लिये कर्मोंका काबू नहीं चल सका है। इस कारण मनुष्य अपने ज्ञान और विचार चलने जो यह लाखों करोड़ों प्रकारका सामान बनाता है वह सब अपनी निज शक्तिसे ही बना रहा है, कर्मोंकी दी हुई शक्तिसे नहीं । कर्मोंका काबू चलता तो वे उसकी यह शक्ति भी छीन लेते और कुछ भी न बनाने देते ।
मनुष्योंकी बनिसबत पशुओं पर कमका अधिक काबू चलता है इसी वास्ते उन बेचारोंको यह कम उनकी जरुरतका कुछ भी सामान नहीं बनाने देते हैं । कर्म तो
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वर्ष २, किरण ६]
भाग्य और पुरुषाय
होता है और वह क्या कार्य करते हैं, इसका सारांश दुक्ख सरूवमसादं तं वेदयदीदि वेदणियं ॥ म्प कथन इस प्रकार है, कि राग-द्वेष रूप भावोंसे अर्थ पं० टोडरमलजी कृत-इन्द्रियनके अपने अात्मामें एक प्रकारका संस्कार पड़ जाता है, विषयनका अनुभवन-जानना सो वेदनीय है, तहाँ जिससे फिर दोबारा राग-द्वेष पैदा होता है, उस मुखस्वरूप साता है, दुखस्वरूप असाता है, तिन गग द्वेषसे फिर संस्कार पड़ता है, इस प्रकार एक सुख दुखनको वेदयति कहिये अनुभव करावे मो वेदचक्करसा चलता रहता है, परन्तु किसी वस्तु में कोई नीय कर्म है। प्रकार का भी संस्कार वा बिगाड़ बिना किसी दूसरी परन्तु यह वेदनीय कर्म मोहनीय कर्मके उदयके वस्तु के मिले हो नहीं सकता है, इस कारण यहां भी यह बलमे ही अर्थात् राग देषके होनेपर ही मुख दुखका होता है कि रागद्वेष रूप भावोंके द्वारा जब आत्मामें अनुभव करा मकता है; जैसाकि गोमट्टमार कर्मकांड इलन चलन होती है तो श्रात्माके पासके मूक्ष्म पुद्गल गाथा १६ में लिखा है। परमाणुत्रोंमें भी हलन चलन पैदा होती है, जिसमे वे घादिव वेयणीयं मोहस्स बलेण घाददे जीयं । अात्माके साथ मिलकर उसमें संस्कार वा बिगाड़ इदि घादीणं मजे मोहस्सादिम्हि पटिदंतु ।। पैदा कर देते हैं। वे ही पुद्गल परमाणु कर्म कह अर्थ पं० टोडरमलजी कृत-वेदनीय नामाकर्म लाते हैं।
मी घातिया कर्मवत मोहनीय कर्मका भेद जो रति परति आत्माके माथ इन कर्मोका जो कर्तव्य होता है तिनके उदयकाल कर ही जीवको पाते हैं, सुख दुख उमके अनुसार इन कौके पाट भेद कहे स्वरूप माना श्रमाता को कारण इन्द्रियनका विषय गये हैं-जानावरणीय, दर्शनावरणीय. मोहनीय, तिनका अनुभव करवाय घात कर है। अन्तराय, वंदनीय, श्रायु, नाम, और गोत्र । ज्ञाना- कुछ ममय नक किमी एक शरीरमें जीवको वरगा और दर्शनावरगासे श्रात्माकी जाननकी शक्ति टहराये ग्ग्यना यह श्रायु कर्मका काम है, किसी प्रकारका . खराब होती है, मोहनीय कर्मसे पदार्थोंका मिथ्या श्रद्धान शरीर प्राम करना यह नाम कर्मका काम है। ऊँच-नीच होकर मचा श्रद्धान भ्रष्ट होता है और विषय कपाय भव वा गति प्राम कराना यह गोत्र कर्मका काम है। म्प तरंगें उठकर उसकी मुग्व शाँतिमें खगयी थाती इस प्रकार इन श्राट कमों के कार्यको जान लेने पर है। अन्तगय कमसे अान्मा के बलवीयं श्रादि शनियोंको यह बात साफ़ हो जाती है, कि कौका जो कुछ मी जोर अपना कार्य करनमें रोक पैदा होती है। श्राग्न नाक चलता है यह उम ही पर चलता है जिसके वे कर्म होते
आदि पांचो इन्द्रियाँ अपने अपने विषयका अनुभव है। कर्म करनेवाले जीवके मिवाय अन्य किसी भी जीव अर्थात् स्वाद वेदनीय कर्मके द्वारा प्राप्त करती हैं। पर वा उसके शरीर के निवाय अन्य किसी पुद्गल पदार्थ माता वेदनीयसे मुखका अनुभव होता है और श्रमातासे पर उनका कोई अधिकार नहीं होता है। दुखका । जैसा कि गोम्मटसार कर्मकांड गाथा १८ संसार में अनन्तानन्त जीव और हजारों लाखों ग्रह निग्या है
तारे नक्षत्र और श्राग पानी हवा मिट्टी श्रादिक अनन्त अक्खाणं अणुभवणं वेयपीयं सहसम्वयं साद पदगल पदार्थ सब अपना-अपना काम करते रहते हैं।
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अनेकान्त
[चैत्र, वीर-निर्वाण सं०२४६५
उसी संसारमें हम भी हैं, हमारा और इन सब जीव पड़ता है, गर्मी होती है, पानी बरसता है, बादल होता
और अजीव पदार्थोंका संयोग इसी तरह हो जाता है है, धूप निकलती है, हवा कभी ठण्डी चलती है, कभी जिस तरह रातको बसेरेके लिये एक पेड़ पर आये हुए गर्म, नदियाँ बहती हैं, पानी का बहाव श्राता है, अन्य पक्षियोंका वा एक सरायमें इकडे हुए मुसाफिरोंका- भी अनेक प्रकारके अलटन-पलटन होते रहते है । संसार
पक्षियों वा मुसाफिरोंका यह सब संयोग एक पेड़ का यह सारा चक्र हमारे कर्मोके आधार नहीं चल रहा पर आ बैठने वा एक सरायमें आकर ठहरनेके कारण है, किन्तु घड़ियालके घंटोंकी तरह सब कार्य संसारकी ही होता है, कोई किसी दूसरेके कर्मोंसे खिंचा हुआ अनन्तानन्त वस्तुओंके अपने अपने स्वभावके अनुआकर इकट्ठा नहीं होता है न कोई किसी दूसरेके कर्मों सार ही होरहा है । परन्तु हम अपनी इच्छाके अनुसार से खिंच ही सकता है। इस ही अचानक क्षणभरके कभी रात चाहते हैं कभी दिन, कभी जाड़ा चाहते हैं संयोगमें हम किसीसे राग कर लेते हैं और किसीसे देष कभी गर्मी, कभी बादल चाहते हैं, कभी धूप, कभी वर्षा फिर इसी रागद्वेषके कारण उनके अनेक प्रकारके चाहते हैं कभी सूखा । इसी प्रकार संसारके अन्य भी परिवर्तनों उनके सुख और दुःखोंको अपना सुख और सभी कामोंको अपनी इच्छाके अनुसार ही होते रहना दुःख मानकर सुखी और दुःखी होने लग जाते हैं। चाहते हैं, परन्तु यह सारा संसार हमारे श्राधीन न होनेसे इसी प्रकार जीवका अपने कुटम्बियो नगर-निवासियों जब यह कार्य हमारे अनुसार नहीं होते हैं तो, हम
और देशवासियोंसे संयोग और वियोग होता रहता है, दुःखी होते हैं और अपने भाग्य व कर्मोको ही दोष देने ऐसा ही जीवोका संयोग संसारकी अनेकानेक निर्जीव लग जाते हैं । किन्तु इसमें हमारे कर्मोंका क्या दोष ! वस्तुओंसे भी होता रहता है।
भूल तो हमारी है जो हम सारे संसारको, जो न हमारे ___एक कामी पुरुष बहुत दिन पीछे रातको अपनी आधीन है न हमारे कर्मोके ही श्राधीन,अपने ही अनुकूल बीसे मिलता है और चाहता है कि रात लम्बी होजाय चलाना चाहते हैं, नहींचलता है तो दुःखी होते हैं। इसी कारण नगरका घंटा बजने पर मुझलाता है कि रेलमें सफ़र करते समय इधर उधरसे श्रा-आकर क्यों ऐसी जल्दी २ घंटा बजाया जारहा है; फिर दिनमें अनेक मुसाफिर बैठते रहते हैं, कोई उतरता है कोई जब अपनी प्यारी स्त्रीसे विछोहा रहता है तो तड़पता है चढ़ता है, यों ही तांतासा लगा रहता है-तरह तरहके कि क्यों देर देरमें घंटा बज रहा है। इसीको किसी पुरुषोंसे संयोग होता रहता है, किसीसे दुख मिलता है, कविने इस प्रकार वर्णन किया है
किसीसे सुख । कोई बीमार है, हरदम खांसता है, थकता कल शवेवस्ल में क्या जल्द बजें थी घडियाँ। है, छींकता है, जिससे हमको दुख होता है। किसीके भाज क्या मरगये घड़ियाल बजाने वाले ॥ शरीर और कपड़ोंमें य श्रारही है, जिससे हमारा नाक इसी प्रकार कभी रात होती है कभी दिन, कभी
फटा जा रहा है। कोई सुगन्ध लगाये हुए है जिसकी
महकसे जी खुश होता है कोई सुन्दर गाना गाता है, चाँदनी होती है कभी अँधेरी, मौसमें बदलती हैं, जाड़ा
कोई दूसरे मुसाफिरोसे लड़ रहा है, इन सब ही के भले मिलापकी रात ।
बुरे कृत्योंसे कुछ न कुछ दुख सुख हमको भी भोगना
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वर्ष २, किरण ६]
भाग्य और पुरुषार्थ
ही पड़ता है। कारण इसका एकमात्र यही है कि रेल में नहीं, ऐमा मानना तो बिल्कुल ही हँसीकी बात होगी। सफर करनेके कारण हमारा उनका संयोग हो गया है असल बात तो यह ही माननी पड़ेगी कि म्याह हमारे कर्म हमको दुख सुख देने के वास्ते उनको उनके वालेके यहां भी उसके अपने ही कर्मोंसे विवाह प्रारम्भ घरोंसे ढंचकर नहीं ले पाये हैं, हमारी ही तरह वह सब हुश्रा और मरने वालेके यहां भी उसके अपने ही कर्मोसे भी अपनी जरूरतोंके कारण ही यहां रेल में सफर करनेको मौत हुई, परन्तु पड़ौसमें रहने के संयोगसे वह हमारी आये हैं। हमारे कर्मोका तो कुछ भी ज़ोर उन पर नहीं नीदमें खलल डालने के निमित्त ज़रूर हो गये। चल सकता है और न उनके कर्मोंका कुछ ज़ोर हमारे इसको और भी ज्यादा सप्त करनेके लिये दूसरा ऊपर ही चल सकता है।
दृष्टान्त यह हो सकता है कि कुछ वर्ष पहले यहां हिन्दुइस ही प्रकार नरक स्वर्ग आदि अनेक गतियोंसे श्रा स्तानमें लाखों मन चीनी जावास श्राती थी और खूब श्राकर जीव एक कुटम्बमें, एक नगरमें और एक देशमें मँहगी बिकती थी, जिससे हरसाल करोड़ों रुपया इकट्ठे हो जाते हैं, वह भी सब अपने अपने कर्मानुसार हिन्दुस्तान से जाया चला जाता था, हिन्दुस्तान कंगाल ही श्रा-श्रा कर जन्म लेते हैं, हमारे कर्म उनको खेंच और वह मालामाल होता जाता था, लेकिन अब कुछ कर नहीं ला सकते हैं। रेलके मुसाफिरोंकी तरह एक सालसे हिन्दुस्तानियोंने यहां ही चीनी बनानी शुरू करदी स्थान में इकट्ठा होकर रहने के संयोगसे उनके द्वारा भी है, जिससे यहां चीनी भी मस्ती हो गई है और रुपया भी हमारा अनेक प्रकारका बिगाड़ संवार होता है जो हमें यहाँका यहाँ ही रहनं लग गया है परन्तु जायावालोमेलना ही पड़ता है। दृष्टान्त रूप मान लीजिये कि की चीनीकी बिक्री बन दोने में उनके सब कारखाने एक हमारे किसी पड़ौसीके यहाँ बेटेका विवाह है जिसके पट हो गये हैं, तो क्या जावाबालोंके खोटे कर्मोंने ही कारण रात दिन गाजा बाजा, गाना नाचना, स्वाना जावावालोको हानि पहुँचाने के वास्ते हिन्दुस्तानवालोंखिलाना श्रादि अनेक उत्सव होते रहते हैं, उनके इम से चीनी बनाने के कारग्याने खुलवा दिये है ? नहीं ऐसा शोर-गुलसे रातको हमको नींद भर सोना नहीं मिलता नहीं माना जा सकता है, यहां बालोंने जो कारखाने है, जिससे हम कुछ दुखी होते हैं; तो क्या हमारे कर्मोने वाले हैं वह तो अपनेही कर्मोस या अपने ही पुरुषार्थही हमको यह थोड़ा मा दुख पहुँचाने के वास्ते पड़ौमीके से ग्वाले हैं, जावाबालोंके ग्वंटे काम वह क्यों खोलते, यहां उसके बेटेका विवाह रचवा दिया है? हाँ कारखाने खोलकर जायावालोको नुकसान पहुँचने___ ऐसा ही दूसरा दृष्टान्त यह हो सकता है कि पड़ौसीके के निमित्त कारण वह जरूर हो गये हैं। यहाँ कोई जवान मौत हो गई है जिससे उसकी जवान (नोट-लेख के अगले अंशमं निमित्त कारण विधवा रात दिन विलाप करती है, उसके इस विलापसे और उसकी शक्ति पर विशेष विचार किया गया है जो हमारी नींद में खलल पड़ रहा है, तो क्या हमारे कर्मोने पाठकों के लिये विचारकी बहुत कुछ नई सामग्री प्रस्तुत ही हमारी नींद में खराबी डालनेके वास्ते जवान पड़ौसी- करेगा और उसके माथही यह लेग्व अगले अंकमें को मारकर उसकी जवान स्त्रीको विधवा बनाया है! समाप्त होगा।)
muster Sesoma
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मानव-मन+
[ ले० - पं० नाथूरामजी डोंगरीय जैन ]
[ १ ]
विश्व रंगभूमें अदृश्य रह
बनकर योगिराज-सा मौन
मानव जीवनके अभिनयका
संचालन करता है कौन ?
[ ४ ] क्षणभंगुर यौवनश्री पर यह
इतराता है इतना कौन ?
रूप-राशि पर मोहित होकर
[ ३ ]
आशा और निराशाओं की धारा कहाँ बहा करती ? अभिलाषाएँ कहाँ निरन्तर नवक्रीड़ा करती रहती ?
शिशु-सम मचला करता कौन ?
[ ७ ] चित्र विचित्र बनाया करता
बिन रंग ही रह अन्तर्द्धान ।
[ २ ]
किसके इंगित पर संसृतिमें
किसने चित्रकलाका ऐसा
यं जन मारे फिरते हैं ?
पाया है अनुपम वरदान ?
मृग-तृष्णामें शांति-सुधाकी
अति कल्पना करते हैं ।
[ ६ ]
रोकर कभी विहँसता है, तो फिर चिन्तित हो जाता है। भावङ्गिके नित गिरगिट-सम नाना रंग बदलता है ॥
[ ५ ] बिन पग विश्व - विपिन में करता -
रहता कौन स्वच्छंद विहार ? वन सम्राट् राज्य चिन किसने
कर रक्खा सब पर अधिकार ?
[ - ] प्रिय मन ! तेरी ही रहस्यमय
यह सब जब कहानी है ।
कर सकता जगती पर केवल
मन ! तू ही मनमानी है ॥
[ ६ ]
किन्तु वासना-रत रहता ज्यों, त्यों यदि प्रभु चरणोंमें प्यार -- तो अबतक हो जाता भवसागर से बेड़ापार ॥
करता,
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जैनधर्म और अनेकान्त
[ले-श्री पं० दरबारीलालजी 'सत्यमा']
धर्म और दर्शन ये जुदे-जुदे विषय हैं; परन्तु प्रागैतिहा- एकान्तदृष्टि एक बड़ा भारी पाप है। जैनधर्ममें इसे 7 सिक कालसे ही इन दोनोंका आश्चर्यजनक सम्बन्ध मिथ्यात्व कहते हैं । मिथ्यात्व पाँच पापोंसे भी यहा पाप चला आता है । प्रत्येक धर्म अपना एक दर्शन रखता माना गया है। क्योंकि वे पाप, पाप के रूपमें ही दुनियारहा है । उस दर्शनका प्रभाव उस धर्म पर आशातीत को सताते हैं, इसलिये उनका इलाज कुछ सरलतासे रूपमें पड़ा है। दर्शनको देखकर उस धर्मको समझने में होता है परन्तु मिथ्यात्वरूपी पाप तो धर्मका जामा पहिन मुभीता हुश्रा हैइतना ही नहीं, किन्तु उस समय दर्शन- कर समाजका नाश करता है। अन्य पाप अगर म्यान को समझे बिना उस धर्मका समझना अति कठिन था। है तो मिथ्यात्वरूपी पाप गोमुख-व्या है । यह कर भी
जैन-धर्मका भी दर्शन और उसमें एक ऐसी विशे- हैऔर पहिचानने में कठिन भी है। पता है जो जैनधर्मको बहुत ऊँचा बना देती है। जिसके हदयमें सर्वथा एकान्तबाद बस गया उसके प्रात्मा क्या है? परलोक क्या है? विश्व क्या है? हृदयमें उदारता, विश्वप्रेम आदि जो धर्मके मूल-तत्व है
श्वर है कि नहीं? आदि समस्याओंको सुलझानेकी वे प्रवेश नहीं पा सकते, न वह सत्यकी प्राप्ति कर सकता कोशिश सभी दर्शनोंने की है और जैन-दर्शनने भी है। इस प्रकार वह चारित्र-हीन भी होता है और शानइस विषयमें दुनियाको बहुत कुछ दिया है, अधिकारके हीन भी होता है। यह दुराग्रही होकर अहंकारकी और साथ दिया है और अपने समयके अनुसार वैशानिक अन्धविश्वासकी पूजा करने लगता है । इस तरह वह ष्टिको काममें लाकर दिया है परन्तु जैन-दर्शनकी इतनी जगत्को भी दुःखी वथा प्रशान्त करता है और स्वयं ही विशेषता बतलाना विशेषता शब्दके मूल्यको कम कर भी बनता है। देना है। जैन-दर्शनने जो दार्शनिक विचार दुनियाके एकान्तवादकी इस भयंकरताको ना करने के लिये सामने रखे वे गम्भीर और तथ्यपूर्ण है यह प्रश्न ही जैनदर्शनने बहुत कार्य किया है। उसका नयवाद और जुदा है । इस परीक्षामें अगर जैन-दर्शन अधिकसे सप्तभंगी उसकी बड़ी से बड़ी विशेषता है । इसके द्वारा अधिक नम्बरोंमें पास भी हो जाय तोमी यह उसकी नित्यवाद, अनित्यवाद, ईनबाद, अद्वैतवाद, धादिक चड़ी विशेषता नहीं कही जा सकती। उसकी बड़ी दार्शनिक विरोधोको बड़ी खत्रीके साशान्त करने की विशेषता है 'अनेकान्त' जो कंवल दार्शिनिक सत्य ही कोशिशकी गई है। इतना ही नहीं किन्तु यह अनेकान्तनहीं है, बल्कि धार्मिक सत्य भी है। इस अनेकान्तका बाद भी कहीं एकान्ववाद न बन जाये इसके लिये सतदूसरा नाम स्याद्वाद है । जैन-दर्शनमें इसका स्थान कंवा रक्ली गई है और कहा गया है कि:इतना महत्वपूर्ण है कि जैन-दर्शनको स्याद्वाद दर्शन या अनेकान्त दर्शन भी कहते हैं।
अनेकान्तोप्यऽनेकान्तः. प्रमाल नव साधनः ।
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अनेकान्त
[चैत्र, वीरनिर्वाण सं०२४६५
अनेकान्तः प्रमाणाते, तदेकान्तोऽर्पिताच्यात् ॥ है। जैन-समाज भी इससे अछूता नहीं है । यदि जैन
अर्थात्-अनेकान्त भी अनेकान्त है। प्रमाण दृष्टि- समाजमें अनेकान्तकी भक्ति होती तो क्या यह सम्भव था को मुख्य करनेसे वह अनेकान्त है और नयाष्टिको मुख्य कि इस युद्धका ऐसा रूप होता ? पद-पद पर द्रव्य-क्षेत्र करनेसे वह एकान्त भी है । इसलिये एकान्तका भी काल-भावकी दुहाई देने वाले जैनशास्त्र क्या किसी उपयोग करना चाहिये । सिर्फ इतना ख्याल रखना सुधारके इसीलिये विरोधी हो सकते हैं कि वह सुधार है या चाहिये कि वह एकान्त असदेकान्त न हो जाय। नया है ? क्या हमारा अनेकान्त सिर्फ इसीलिये है कि वह - एकान्त असदेकान्त तभी बनता है जब वह दूसरे स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी अपेक्षा घटका अस्तित्व और दृष्टिबिन्दुका विरोधी हो जाता है । अपने दृष्टिविन्दुके परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी अपेक्षा घटका नास्तित्व बतअनुसार विचार करता रहे और दूसरे दृष्टिविन्दुका खंडन लाया करे ? क्या उसका यह कार्य नहीं है कि वह यह न करे तो वह सदेकान्त है । इस प्रकार सदेकान्तके रूप- भी बतलावे कि समाजके लिये अमुक कार्य-रीतिरिवाज में एकान्तको भी उपादेय माना गया है, यह अनेकान्त- अमुक-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावके लिये अस्ति है और दूसरे की परम अनेकान्तता है । इस प्रकार जैन-दर्शनकी द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावके लिये नास्ति है। इसलिये यह बहुत उदारता व्यापक हो करके भी कितनी व्यवस्थित और सम्भव है कि धर्मके नाम पर और व्यवहारके नाम पर विचार पूर्ण इसका पता लगता है।
आज जो प्राचार-विचार चल रहे हैं उनमेंसे अनेक हजार ___ मैं ऊपर कह चुका हूँ कि दर्शनका और धर्मका दोहजार वर्ष पुराने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावके लिये अस्तिनिकट सम्बन्ध रहा है। जैन-दर्शनका यह अनेकान्त- रूप हों और प्राजके लिये नास्तिरूप हो। मेरा यह कहना सिद्धान्त अगर दार्शनिक क्षेत्रकी ही वस्तु रहे तो उससे नहीं है कि हरएक प्राचार-विचारको बदल देना चाहिये। विशेष लाभ नहीं हो सकता । दार्शनिक समस्याएँ जटिल मैं तो सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूँ कि हमको अपने बनी रहें या सुलझ जाएँ इसकी चिन्ता जन-साधारणको आचार-विचार पर अनेकान्त-दृष्टि से विचार करना नहीं होती। जनता तो उसके व्यावहारिक उपयोगको चाहिये कि उसमें क्या क्या प्राजके लिये अस्तिरूप है देखती है, इसलिये अनेकान्तकी न्यावहारिक उपयोगिता और क्या क्या नास्तिरूप है । सम्भव है कल जो अस्ति ही विशेष विचारणीय है।
है वह आज नास्ति हो जाय और कल जो नास्ति था धर्म हो या संसारकी कोई भी व्यवस्था हो, वह इसी वह प्राज अस्ति हो जाय ।। लिये है कि मनुष्य सुख-शान्ति प्राप्त करे सुखशान्तिके परन्तु, जैन-समाजका दुर्भाग्य तो इतना है कि इस लिये हमारा क्या कर्तव्य है और क्या प्रकर्तव्य है और अनेकान्त-दष्टिका म्यावहारिक उपयोग करना तो दूर, उस कर्तव्यको जीवनमें कैसे उतारा जा सकता है और किंतु उस पर विचार करना भी घृणित समझा जाता अकर्तव्यसे कैसे दूर रहा जा सकता है, इसके लिये धर्म है। अगर कोई विदेशी इस दृष्टिसे विचार करके कुछ है, इसी जगह अनेकान्तकी सबसे बड़ी उपयोगिता है। बात कहे तो जैन समाज उसके गीत गा देगा; परन्तु
आज रूदि और सुधारके बीचमें तुमुल युद्ध हो रहा उस रष्टि से स्वयं विचार न करेगा । आज अनेकान्तके यह स्वामी समन्तभद्रके स्वयम्भूस्तोत्रका वाम-सम्पादक गीत गानेको जैन समाज तैयार है और उनके गीत गाने
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वर्ष २, किरा
जैनधर्म और अनेकान्त
को भी चैन समाज तैयार है जो 'जैनसमाजके बाहर, सनसे उतार सका, मेर-सवले देशमान्य पदास्पद मन्यरहकर अनेकान्तका म्यावहारिक उपयोग कर रहे को फेंक सका, विज्ञानकी कसौटी पर जो न उतरा उसका परन्तु दुर्माग्वषय जैनसमाज यह नहीं चाहता कि कोई 'ऑपरेशन' कर दिया, तभी यह दवा के साथ का उसका बाल अनेकान्सका व्यावहारिक उपयोग करे, सका कि मैं वैशनिक हूँ । परन्तु भाका जैन-धर्मउसको कुछ ऐसा रूप दे जिससे जड़ समाजमें कुछ अर्थात् जैनधर्मके नाम पर समझा जानेवाला यह रूप चैतन्यकी उद्भूति हो, दुनियाका कुछ प्राकर्षण हो, जो साधारण लोगोंकी अन्ध भवारूपी गुफामें पड़ा हैउसको कुछ मिले भी। जैन समाजको आज सिर्फ नामकी क्या इस प्रकार वैज्ञानिकताका परिचय दे सकता है! पूजा करना है, अर्थकी नहीं।
आज तो जैनसमाजका शिक्षित और त्यागीवर्ग भी । परन्तु जैन समाजसे मैं विनीत किन्तु स्पष्ट शब्दोंमें वैज्ञानिक जैनधर्मके पक्षमें खड़ा नहीं हो पाता । कह देना चाहता हूँ कि यह रुख जैनधर्मका रुख नहीं शिक्षितवर्गकी शक्ति मी जनताको सुपथ पर लाने में नहीं है। जैनधर्म कवित्वकी अपेक्षा विज्ञानकी नींव पर अधिक किंतु रिझाने में ना हो रही है । उसे वैज्ञानिक जैनधर्मके खड़ा है। कवित्वमें भावुकता रहती है अवश्य, परन्तु मार्ग पर चलानेकी बात तो दूर, परन्तु सुनानेमें और उसमें अन्धश्रद्धा नहीं होती और विज्ञानमें तो अन्धभदा- सुनने में मी उसका हृदय प्रकम्पित हो उठता है। अहा ! का नाम ही पाप समझा जाता है । विशानका तो प्राण कहाँ जैन धर्म, कहाँ उसकी वैशनिकता, अनेकान्तता ही विचारकता, निष्पक्षता है । यदि जैनसमाज जैन और कहाँ यह कायरता, अन्धभदा !! दोनोंमें जमीन धर्मको वैज्ञानिक धर्म कहना चाहता है जैसा कि वह प्रास्मानसे भी अधिक अन्तर है। है तो उसे स्वतन्त्र विचारकता, योग्य परिवर्तनशीलता, याद रखिये ! इस वैशानिक निश्पक्षताके बिना सुधारकताका स्वागत करना चाहिये । धर्मका मूल- अनेकान्त पास भी नहीं फटक सकता, और अनेकान्तद्रव्योंकी योजनोंकी वर्षोंकी और अविभाग प्रतिच्छेदोंकी के बिना जैन-धर्मकी उपासना करना प्राणहीन शरीरका गणनामें नहीं है किन्तु वह जनहितमें है। विश्वके उपयोग करना है । जैन-धर्मकीविजय-जयन्ती उड़ाने. कल्याणके लिये, सत्यकी पजाके लिये किसी भी की बात तो दूर रहे, परन्तु उससे जैनसमाज अगर मान्यताका बलिदान किया जा सकता है। विशान कुछ लाभ उठाना चाहता हो, तो उसे सस्य और
आज जो विद्युद्वेगसे दौड़ रहा है और विद्युत्के समान कल्याणकारी प्रत्येक विचार और प्रत्येक प्राचारको हो चमक रहा है उसका कारण यही है कि उसमें अपनाकर, उसका समन्वय कर अनेकान्तकी म्यायअहंकार नहीं है। सत्यकी वेदी पर वह प्राचीनसे हारिक उपयोगिताका परिचय देना चाहिये । जहाँ प्राचीन और प्यारेसे प्यारे सिद्धान्तका-विचारका अनकान्तकी यह म्यावहारिक उपयोगिता है यहां जैनबलिदान कर देता है । कोई धर्म अगर वैज्ञानिक है तो धर्म है । इसके बिना जैनधर्मका नाम तो रस्सा जा उसमें भी यही विशेषता होनी चाहिये।
सकता है। परन्तु जैनधर्म नहीं रक्खा जा'मकता । एक दिन जैन धर्ममें यह विशेषता थी, इसीलिये यह • जैनाचार्य श्रीवात्मानन्द-जन्मशताब्दि-स्मारक ईश्वर-सरीखे सर्वमान्यतत्वको निरर्थक समकार सिंहा- मन्यसे उद्घत ।
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तरुण- गीत
भगवत्स्वरूप जैन "भगवत्"
क्रान्ति - नर्त्तनमें ले आल्हाद,
उमंगों की त्राएँ लहरें ! हमारे शौर्य पराक्रम की,
पताकाएँ नभ में फहरें !! मिटे दुखितों का हाहाकार वीर ! भरदो फिर वह हुंकार !
端
पू
वीर ! भरदो फिर वह हुकार !
मचे अवनी पर धुआँधार !!
誠
服
等
शक्ति मय, बल-शाली जीवन, विश्व-मंदिर की शोभाएँ ! अहिंसा की किरणें पाकर ! प्रभाकर -तुल्य जगमगाएँ !!
नराधम - छलियों की सत्ता,
न जग में कहीं जगह पाए !
हमारे उर की मानवता
बहुत सो चुकी, जाग जाए !! सिखादे, कहते किसको प्यार ! वीर ! भरदो फिर वह हुंकार !
宾
霸
समाई कायरता मन में,
辉 !
रक्त का हुआ आज पानी ! मुर्दनी-सी मुँह पर छाई
लुट गई सारी मर्दानी !
356
बाग़ फिर हो जाए गुलज़ार ! वीर ! फिर भरदो वह हुंकार !!
昕
न हो हमको प्राणों का मोह, न हम कर्तव्य विमुख जाएँ ! धर्म और देश-प्रेम-पुरित, सदा बलिदान - गान गाएँ !!
तभी हो जीने का अधिकार ! वीर ! मरदो फिर वह हुंकार !!
जीवित प्रति
हो उठे नव जीवन संचार !
वीर ! फिर भरदो वह हुंकार !!
编
昕
骂
बनें हम आशावादी सिंह,
अभय पुस्तक को सिखलाने ! बनाले अन्तरंग को सुदृढ,
लगे उद्यम पथ अपनाने !!
निराशा पर कर ज्रब-प्रहार !
वीर ! भरदो फिर वह हुंकार !!
新
昕
रूढियोंका दुखप्रद विश्वास - श्रृंखलाओंका पागल प्रेम ! भग्न हो सारा गुरुडम-वाददृष्टिगत हो समाज में क्षेम,
解
बनावट हीन, स्वच्छ व्यवहार ! वीर ! भरदो फिर वह हुंकार !!
46
धर्म पर मर मिटने की साधहृदय में सदा फले फले न सुखमें, दुखमें संकटमें
हृदय उसको क्षण भर भूले
यही हो जीवन का शृंगार वीर ! भरदो फिर वह हुंकार !!
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भगवती आराधना और शिवकोटि
[ले०-५० परमानन्दजी शास्त्री] उपलब्ध जैन साहित्य में 'भगवती आराधना' नाम- वाला दुसरा ग्रन्थ दिगम्बर जैन समाजमें उपलब्ध नहीं
का ग्रन्थ बड़ा ही महत्वपूर्ण है और वह अपनी खास है। हां, इतना ज़रूर मालम होता है कि इससे पहले विशेषता रखता है । ग्रन्थका प्रतिपाद्य विषय बड़ा रोचक भी जैन समाजमें श्राराधना-विषयके कुछ अन्य मौजूद तथा हृदयग्राही है। इसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, ये उन्हीं परसे शिवार्यने इस प्रन्यकी रचना की है, और सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप नामकी चार बाराधनाओं- यह बात प्रन्थमें पूर्वाधारको व्यक्त करने वाले 'पुण्याका वर्णन किया गया है, जो मोक्षको प्राप्त करनेमें यरियणिबदा' जैसे पदोंसे भी साफ. ध्वनित है। समर्थ होने के कारण 'भगवती' कहलाती है और इसलिये ग्रन्थके अन्तमें बालपण्डित-मरणका कथन करते विषयानुरूप ग्रन्थका भगवती आराधना नाम उपयुक्त हुए, देशयती-श्रावक-के प्रतोंका भी कुछ विधान प्रतीत होता है। यह ग्रन्थ खासकर मुनियोंको लक्ष्य किया है और वह इस प्रकार है:करके लिखा गया है । वास्तवमें मुनिधर्मकी और पंच य अणुव्वदाई सत्त य सिक्खाउ देसजदिधम्मो । श्रावकधर्मकी भी अधिकांश सफलता सल्लेखना या सबेण य देसेण य तेण जुदो होदि देसजदी ।। समाधिपूर्वक मरण करनेमें अर्थात् शरीर और कषायोंको पाणिवधमुसावादादत्तादाणपरदारगमणेहि । कश करते हुए शान्तिके साथ अपने प्राणोंका त्याग अपरिमिदिच्छादो वि य अणुव्ययाई विरमगाई। करनेमें है। इसी कारण इस ग्रन्थमें सल्लेखनामरणके जंच दिसावेरमणं प्रपत्थदंडेहि जब वेरमा । भेद-अभेदों और उनके योग्य साधन-सामग्री प्रादि- देशावगासियं वि य गुणबयाई भवेताई ।।. का कितना ही विस्तृत वर्णन किया गया है। बारा- भोगावं परिसंखा सामाइयमति हि संविभागोय। धनाके विषयको इतने अच्छे दंगसे प्रतिपादन करने पोसहविधी य सव्यो चदुरो सिक्खाउ कुत्तानी।
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अनेकान्त
[चैत्र, वीर-निर्वाह सं०२४६५
आसुसारे मरखो लोरिपार पीविदासाए । इन चारों से प्राकृत टीका अधिक प्राचीन है और गादीहि वा अमुको पश्चिमसल्लेहरामकासी । टिप्पणादि उसके बाद के बने हुए मालम होते हैं। ये
-गाथा नं० २०७६ से २०८३ .सब टीका-टिप्पणा १३वीं शताब्दीमें पं० प्राथाघरजीके इन गाथाओंमें श्रावकके बारह व्रतोंका विधान करते सामने मौजूद थे । परन्तु खेद है कि आज कहीं भी हुए निचर्यने प्राचार्य समन्तभद्रकी तरह गुणवतोंमें उनका अस्तित्व सुनने में नहीं पाता ! भोगोषमोगपरिमाण व्रतको न लेकर देशावकाशिकको
रचनाकाल ग्रहण किया है और शिक्षाबतोमें देशावकाशिकको न यह ग्रन्थ प्राचार्य शिवकोटि या शिवार्यका लेकर मोगापभोगपरिमाण व्रतका विधान किया है । बनाया हुआ है। ग्रन्थमें 'सिवजेण' पदके द्वारा ग्रंथपरन्तु सल्लेखनाका कथन समन्तभद्रकी तरह व्रतोंसे कारका नाम 'शिवार्य' अथवा संक्षिसरूपसे 'शिव' नामके अलग ही किया है, जब कि प्राचार्य कुन्दकुन्दने सल्ले- प्राचार्य सूचित किया है, और श्रीजिनसेनाचार्यादिने खनाको चौथा शिक्षाप्रत बतलाया है। इससे मालूम उन्हें 'शिवकोटिं' प्रकट किया है। ये शिवकोटि अथवा होता है कि ग्रन्थकारने उमास्वातिप्रणीत तत्त्वार्थसूत्रके शिवार्य कब हुए हैं, किस संवत्में उन्होंने इस ग्रन्थकी 'दिग्देशानर्थदण्ड' इत्यादि सूत्र (७-२०) को रचनाकी और उनका क्या विशेष परिचय है ? इत्यादि मान्यताको बहुत कुछ अपनाया है।
बातोंके जाननेका इस समय कोई साधन नहीं है। क्योंकि इस ग्रन्थ पर प्राकृत और संस्कृतभाषामें कई न तो ग्रन्थकारने ही इन बातोंकी सूचक कोई प्रशस्ति टीका-टिप्पण लिखे गये हैं, जिनमेंसे चार टीकात्रों- दी है और न किसी दूसरे प्राचार्यने ही उनके विषयका-विजयोदया, मूलाराधनादर्पण, आराधनापंजिका का ऐसा कोई उल्लेख किया है। हाँ, ग्रंथके अन्तमें
और भावार्थदीपिका नामकी टीकाओंका-उल्लेख तो निम्न दो गाथाएँ ज़रूर पाई जाती है:पं. नाथूरामजी प्रेमीने 'भगवती आराधना और उसकी अज्जजिणणंदिगणिसव्वगुत्तगणिप्रज्जमित्तणंदीणं । टीकाएँ' शीर्षक लेखमें किया है। ये सभी टीकाएँ अवगमिय पादमूले सम्म सुत्तं च भत्थं च ॥ उपलब्ध हैं और उनमेंसे शुरूकी दो टीकाएँ तो, पुवायरियणिषद्धा उपजीवित्ता इमा ससत्तीए। अमितगत्याचार्य-कृत पद्यानुवाद सहित, मूल ग्रन्थकी पाराधणा सिवजेण पालिदलभोइला रहदा ॥ नवीन हिंदी टीकाके साथ 'देवेन्द्रकीर्तिग्रन्थमाला' में
-गाथा नं० २१६५, २१६६ प्रकाशित भी हो चुकी है,शेष दो टीकाएँ अप्रकाशित हैं। इन दोनों गाथानोंमें बतलाया है कि 'आर्य इनके सिवाय, एक प्राकृतटीका, चन्द्रनन्दी और जय- जिननंदिगणी, आर्य सर्वगुतगणी और धार्य मित्रनंदिनन्दीकत दो टिप्पणों तथा किसी अज्ञातनाम प्राचार्यकृत गणीके चरणोंके निकट भले प्रकार सूत्र और अर्थको दूसरे पद्यानुवादके नामादिकका उल्लेख भी पं० पाया- समझ करके और पूर्वाचार्योंके द्वारा निबद हुई मारापरजीको 'मूलाराधनादर्पण' नामक टीकामें पाया घनामोंके कथनका उपयोग करके पाशितलमोगीजाता है।
करतल पर लेकर भोजन करने वाले-शिवार्यने यह • देखो, अनेकान्त वर्ष १, अंक ३, ४। 'भाराधना'मन्य अपनी शकिके अनुसार रचा।
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वर्ष २, किरण
भगवती आराधना और शिवकोटि
इस प्रशस्तिमें आर्य जिननन्दिगली आदि जिन जं भरणाली कम्मखदि भक्सवसहस्सकोसीहि । तीन गुरुत्रोंका नामोल्लेख है, वे कौन है, कब हुए है, तं पाणी तिहि गुत्तों सवेदि अंतोमुहत्तेख ॥ उनकी गुरुपरम्परा और गण-गच्छादि क्या है ? इत्यादि
-भग० प्रा०, १०८ बातोंको जाननेका भी कोई साधन उपलब्ध नहीं है । हाँ, इसी तरहकी स्थिति गाथा में० १९८४, १२०६, द्वितीय गाथामें प्रयुक्त हुए ग्रन्थकारके 'पाणिदलभोइसा' १२०७, १२१०, १८२४ की समझनी चाहिये, जो कुछ इस विशेषणपदसे इतनी बात स्पष्ट हो जाती है कि परिवर्तनादिके साथ चारित्र प्राभूतकी गाथा +० ११, प्राचार्य शिवकोटिने इस ग्रन्थकी रचना उस समय की ३२. ३३, ३५ और पंचास्तिकायकी गाथा २०६४ तथा है जब कि जैनसंघमें दिगम्बर और श्वेताम्बर भेइको प्रवचनसारके द्वितीय अध्यायकी गाथा नं. ७६ परसे उत्पत्ति हो गई थी। उसी भेदको प्रदर्शित करनेके लिये बनाई गई जान पड़ती है। ग्रन्धक ने अपने साथ उक्त विशेषण-पदका लगाना इस सब कथनसे शिवकोटिका कुन्दकुन्दाचार्यके उचित समझा है।
बाद होना पाया जाता है। इसके सिवाय, अन्यमें उमा'भगवती आराधना में प्राचार्य कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंकी स्वाति के तत्त्वार्थसूत्रका भी कई जगह अनुकरण किया कुछ गाथाएँ ज्योंकी त्यों रूपसे पाई जाती हैं । जिनका गया है। उदाहरण के लिये निम्न गाथाको ही लीजिये:एक नमूना इस प्रकार है
भरासाभवमोदरियं रसपरिचाभो य बुत्तिपरिसंखा । दंसबभट्टा भट्टा दंसणभट्टस्स गस्थि शिवाणं । कायस्स च परिताको विवित्तसयपासणं घट्ट । सिझति चरियभट्टा दंसणभट्टा ए सिझति ॥
-गाथा नं० २०८ भगवती श्राराधनामें नं० ७३८ पर पाई जाने वाली यह गाथा तत्त्वार्थसूत्र अध्याय नं०६ के निम्न सूत्र यह गाथा कुन्दकुन्दके दर्शनप्राभृतकी तीसरी गाथा है। से बनाई गई जान पड़ती हैइसी प्रकार कुन्दकुन्दके नियमसारकी दो गाथाएँ नं०६६, "अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्याग७० भगवतीअाराधनामें क्रमशः नं०११८७, ११८८ पर, विविक्तशय्यासनकायक्लेशा बाह्यं तपः ॥१६॥" चारित्रप्राभूतकी ३६ वी गाथा नं० १२११ पर और
इसी प्रकारकी और भी कुछ गाथाएँ हैं, जिनमें वारसअणुवेक्खाकी दूसरी गाथा नं० १७१५ पर ज्यों
उमास्वातिके सूत्रोंका सष्ट अनुकरण जान पड़ता है। की त्यों पाई जाती है । इनके अतिरिक्त कुछ गाथाएँ
सात शिक्षाबतों वाले सूत्रके अनुसरण की बात ऊपर, ऐसी भी हैं जो थोड़ेसे पाठभेद या परिवर्तनादिके साथ
बतलाई ही जा चुकी है। उपलब्ध होती है। ऐसी गाथाओंका एक नमना इस प्रकार है
श्राचार्य शिवकोटिके सामने समन्तभद्रस्वामीके
ग्रन्थोंका होना भी पाया जाता है, क्योंकि इस प्रन्थमें जं भगवाणी कम्मं खवेदि भवसयसहस्सकोडीहि ।
बृहत्स्वयंभूस्तोत्रके कुछ पद्योंके मावको अनुवादित किया तं पाणी तिहिं गुत्तो खवेदि उस्सासमेत्तेण ॥ गया है-टीकाकारने भी उसके समर्थनमें स्वयंभूस्तोत्रके
-प्रवचनसार, ३, ३८ वाक्यको उद्धृत करके बतलाया है। यथा:
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७४
अनेकान्त
[चैत्र, वीर-निर्वाण सं०२४६५
जह.जब जइ भोगे तह तह भोगेसु बड्ददे तरहा। कार्तिकेयके पिताका नाम अग्नि नामक राजा दिया है
-भग. पा. गा. १२६२ और कार्तिकेयानुप्रेक्षाकी ४८७ नं०की गाथा में 'सामितृष्णाषिः परिदहन्ति न शान्तिरासा
कुमारेण पदके द्वारा उसके रचयिताका नाम जो स्वामिमिष्टेन्द्रियार्थविभवैः परिवृद्धिरेव। . कुमार दिया है। उसका अर्थ संस्कृत-टीकाकार शुभ
-गृहत्स्वयंभूस्तोत्र, ८२। चन्द्रने 'स्वामिकार्तिकेयमुनिना आजन्मशीलधारिणा' बाहिरकरणविसुदी भभंतरकरणसोधणत्थाए ॥ किया है। इसके सिवाय, अन्य किसी कार्तिकेय मुनि
-भग० प्रा० १३४८ का नाम भी जैन साहित्यमें उपलब्ध नहीं होता, जिससे बाचं तपः परमदुश्चरमाचरंस्त्व-
आराधनामें प्रयुक्त हुए अग्निराजाके पुत्र कार्तिकेयको माध्यात्मिकस्य तपसः परिवृहणार्थम् ।।
कार्तिकेयानुप्रेक्षाके कर्तासे मिन्न समझा जा सके। -बृहत्स्वयंभूस्तोत्र, ८३। ऐसी हालतमें, यदि सचमुच ही यह अनुप्रेक्षा ग्रन्थ इनके अतिरिक्तरत्नकरण्डश्रावकाचारके सल्लेखना- उक्त गाथा-वर्णित अग्निपुत्र कार्तिकेयके द्वारा रचा गया विषयक 'उपसर्गे दुर्भिक्षे' इत्यादि पद्यकी प्रायः सभी है तो यह कहना होगा कि 'भगवती अाराधना' ग्रन्थ बातोंका अनुकरण इस ग्रन्थकी गाथा २०७३, ७४ में कार्तिकेयानुप्रेक्षाके बाद बनाया गया है। परंतु कितने किया गया है। इससे ग्रन्थकारमहोदय प्राचार्य कुन्द- बाद बनाया गया, यह अभी निश्चित रूपसे कुछ भी कुन्द तथा उमास्वाति के बाद ही नहीं किंतु समन्तभद्रके नहीं कहा जा सकता तो भी यह निःसंकोच रूपसे कहा भी बाद हुए जान पड़ते हैं।
जा सकताहै कि इस प्रथकी रचना प्राचार्य समंतभद्र भगवती अाराधनामें १५४६ नं. पर एक गांथा और पूज्यपादके मध्यवती किसी समयमें हुई है। क्योंकि निम्न रूपसे पाई जाती है:
बालोचनाके दश दोषोंके नामोंको प्रकट करनेवाली इस रोहेडयम्मि सत्तीए हमओ कोंचेण अग्गिदइदो वि॥ ग्रंथकी निम्न गाथा २०५६२ तत्त्वार्थसूत्रके हवं अध्यातं वेयामधियासिय परिवरणो उत्तमं अट्ठ॥ यके २२वें सूत्रकी व्याख्या करते हुए पूज्यपादने अपनी
इसमें बताया गया है कि रोहेड नगरके क्रोच नाम- सर्वार्थसिद्धि में 'उक्तं च' रूपसे उद्धत की हैके राजाने अग्नि नामक राजाके पुत्रको शक्तिशस्त्रसे भाकंपिय अणुमाणिय जं दिट्ठबादरं च सुहुमं च । मारा था और उन अग्निपुत्र मुनिराजने उस दुःखको छएणं सदाउलयं बहुजणअन्वत्त तस्सेवी॥ साम्यभावसे सहनकर उत्तमार्थकी प्राप्ति की थी। पं० इसके सिवाय, आचार्य पूज्यपादने 'सर्वार्थसिद्धि' में
आशाधरजीने 'मूलाराधनादर्पण' में इस गाथाकी इस आराधना ग्रंथ परसे और भी बहुत कुछ लिया है, व्याख्या करते हुए अग्नि नामक राजाके पुत्रका नाम जिसका एक नमूना नीचे दिया जाता है'कार्तिकेय' लिखा है, अकलंकदेवने तत्त्वार्थराजवार्तिक' "निक्षेपश्चतुर्विधः अप्रत्यनिक्षेपाधिकरणं दुष्पमें महावीरतीर्थमें दारुण उपसर्ग सहनेवाले दश मुनियों मृष्टनिक्षेपाधिकरणं, सहसा निक्षेपाधिकरणमनाभोगके नामोंमें कार्तिकेयका भी नाम दिया है, आराधना निक्षेपाधिकरणं चेति । संयोगो द्विविधा भकपानकथाकोषकी ६६वीं कार्तिकेयस्वामीकी कथामें भी संयोगाधिकरणमुपकरणसंयोगाधिकरणं चेति ।
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वर्ष २, किरा ६ ]
भगवती श्राराधना और शिवकोटि
निसर्गस्त्रिविधः--- कायनिसर्गाधिकरणं, वाग्निसर्गाधि- कोई दूसरे ही शिवकोटि मालूम पड़ते हैं; क्योंकि यदि
करणं, मनोनिसर्गाधिकरणं चेति । अ० ६, सू०६ कीटीका । यह सब व्याख्या भगवती आराधना ग्रंथकी निम्न गाथाओं ( नं० ८१४, ८१५) परसे ली गई जान पड़ती हैसहसाणाभोगियदुष्पमज्जिद अपच्ववेक्खणिक्खेवो । देहो व दुप्पउत्तो तहोवकरणं च शिव्वित्ति ।। संजोयमुवकरणां च तहा पाणभोयणाणं च । दुणिसिट्ठा मणवचकाया भेदा सिग्गस्स ||
ये शिवकोटि ही समन्तभद्रके शिष्य होते, तो वे अपने गुरु समन्तभद्रका स्मरण ग्रन्थमें जरूर करते और उनकी भस्मक व्याधि दूर होने तथा चन्द्रप्रमकी मूर्तिके प्रकट होनेवाली घटनाका भी अन्य उदाहरणोंकी तरह उल्लेख करते । परन्तु भगवती श्राराधनामें ऐसा कुछ भी नहीं किया गया, इससे यह बात अभी सुनिश्चित रूपसे नहीं कही जासकती कि ये शिवकोटि ही समन्तभद्रके शिष्य हैं। जबतक इसका समर्थन किसी प्राचीन प्रमाणसे न होजाय तब तक यह कल्पना पूरी तौरसे प्रामाणिक नहीं मानी जासकती और न इस पर अधिक जोर ही दिया जासकता है।
इस तरह शिवकोटि अथवा शिवार्य श्राचार्य पूज्यपादसे पहले होगये हैं; परंतु कितने पहले हुए यह यद्यपि अभी निश्चितरूपसे नहीं कहा जा सकता, फिर भी समंतभद्र तक उसकी सीमा जरूर है।
समन्तभद्रका शिष्यत्व
श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं० १०५ में, जो शक संवत् १०५० ( वि० सं० १९८५) का लिखा हुआ है, शिवकोटिको समन्तभद्रका शिष्य और तस्वार्थ सूत्रकी टीकाका कर्ता घोषित किया है । यथा:तस्यैव शिष्यश्शिवकोटिसूरिस्तपोलतालम्बनदेहयष्टिः संसारवाराकरपोतमेतत्तत्त्वार्थसूत्रं तदलंचकार ॥
'विक्रान्तकौरवनाटक' के कर्ता श्राचार्य हस्तिमलने भी, जो विक्रमकी १४वीं शताब्दीमें हुए हैं अपने निम्न श्लोक में समन्तभद्रके दो शिष्यों का उल्लेख किया हैएक शिवकोटि, दूसरे शिवायनःशिष्यौतदीयो शिवकोटिनामाशिवायनः शास्त्रविदांवरेण्यौ कृत्स्नश्रुतं श्रीगुरुपादमूले प्रधीतवन्तौ भवतः कृतार्थो
उक्त दोनों पद्यों में जिन शिवकोटिको समन्तभद्रका शिष्य बताया है वे भग० आराधनाके कर्त्तासे भिन
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'भगवती श्राराधना' के तस्वार्थसूत्र विषयक अनुसरणको देखनेसे तो यह कल्पना भी हो सकती है कि इन्हीं प्राचार्य शिवकोटिने तत्त्वार्थसूत्र की टीका की हो, तब ये शिवकोटि समन्तभद्रके शिष्य ही ठहरते हैं; क्योंकि १०५ नं० के उक्त शिलावाक्य में प्रयुक्त हुए 'एतत्' शब्दसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि वह तत्त्वार्थ सूत्रकी उस टीका परसे लिया गया है जिसे समन्तभद्रके शिष्य शिवकोटिने रचा है। परन्तु श्राचार्य शिवकोटिने अपने जिन गुरुओं का नामोल्लेख किया है उनमें श्राचार्य समन्तभद्रका कहीं भी जिक्र नहीं है, यह एक विचारणीय बात जरूर है। हाँ, यह हो सकता है कि समन्तभद्रका दीक्षानाम 'जिननन्दि' हो; तब समन्तभद्रके शिष्यत्व विषयकी सारी समस्या हल होजाती है। इसमें सन्देह नहीं कि एक शिवकोटि समन्तभद्र के शिष्य जरूर थे, और वे संभवतः काचीके राजा थे-बनारसके नहीं; किन्तु वे यही शिवकोटि हैं, और इन्होंने ही तस्वार्थ सूत्रको सर्व
* देखो, श्री जुगलकिशोरजी मुख्तार-रचित 'स्वामी समन्तभद्र (इतिहास)' पृष्ठ ६६ ।
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श्रनेकान्त
प्रथम-पूज्यपाद से भी पहले अपनी टीकासे अलंकृत किया, यह अभी निश्चित रूपसे नहीं कहा जासकता । इसके लिये विशेष अनुसन्धान की जरूरत है । रत्नमाला कर्ता शिवकोटि पं० जिनदासजी शास्त्रीने 'भगवती श्राराधना' की भूमिका में यह सिद्ध करनेकी चेष्टा की है कि रत्नमाला ग्रंथके कर्त्ता शिवकोटि ही समन्तभद्र के शिष्य हैं और उन्हींके द्वारा यह भगवती श्राराधना ग्रंथ रचा गया है। उनकी यह कल्पना बिल्कुल ही निराधार जान पड़ती है।
'रत्नमाला' एक छोटासा संस्कृत ग्रंथ है, जिसकी रचना बहुत कुछ साधारण है और वह माणिकचंदग्रंथमाला 'सिद्धान्तसारादिसंग्रह' में प्रकाशित भी हो चुका है। उसका गवेषणापूर्वक अध्ययन करनेसे पता चलता है कि यह ग्रंथ श्रधुनिक है, शिथिलाचारका पोषक है और किसी भट्टारकके द्वारा रचा गया है। इसकी रचना 'यशस्तिलकचम्पू' के कर्ता सोमदेवसूरिसे पीछे की जान पड़ती है; क्योंकि यशस्तिलकके उपासकाध्ययन का एक पद्य रत्नमालामें कुछ तोड़-मरोड़कर रक्खा गया मालूम होता है । यथाः
सर्व एव हिजैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः । यत्र सम्यक्त्वहानिर्न यत्र न व्रतदूषणम् ॥ --- यशस्तिलक चम्पू सर्वमेवविधिजैनः प्रमाणं लौकिकः सतां । यत्र न व्रतहानिः स्यात्सम्यक्त्वस्य च खंडनं ॥
--रत्नमाला ६५ यशस्तिलक चम्पूका रचनाकाल शकसंवत् ८८१ ( वि० सं० १०१६ ) है, अतः रत्नमालाकी रचना इसके पीछेकी जान पड़ती है । रत्नमाला में शिथिलाचारपोषक वर्णन भी पाया जाता है, जिसका एक श्लोक नमूने के तौर पर दिया जाता है:कलौ काले वनेवासो वर्ज्यते मुनिसत्तमैः । स्थीयते च जिनागारे ग्रामादिषु विशेषतः ||२२|| इस श्लोक में बताया है कि इस कलिकालमें मुनियों को बनमें न रहना चाहिये । श्रेष्ठ मुनियोंने इसको वर्जित
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[चैत्र, वीर-निवाण सं० २४६५
बतलाया है। इस समय उन्हें जैनमन्दिरोंमें, विशेषकर ग्रामादिकों में ठहरना चाहिये। इससे पाठक जान सकते हैं कि यह उस समयकी रचना है जबकि साधु- सम्प्रदाय में शिथिलता श्रागई थी और चैत्यवास तथा ग्रामवासकी प्रवृत्ति जोर पकड़ती जाती थी । भगवती श्राराधना में वनवासके निषेधादिका ऐसा कोई विधान नहीं पाया जाता है । इसके सिवाय, 'भगवती आराधना' में शिवकोटिने अपने जिन तीन गुरुश्रोंके नाम दिये हैं उनमें से 'रत्नमाला' के कर्त्ताने एक का भी उल्लेख नहीं किया, जब रत्नमाला में सिर्फ़ सिद्धसेन भट्टारक और समन्तभद्रका ही स्मरण किया गया है। इससे स्पष्ट जाना जाता है कि 'रनमाला' और 'आराधना' दोनों ग्रंथ एक ही विद्वानकी कृति नहीं है और न हो सकते हैं । भगवती श्राराधनाके सिवाय, शिवकोटिकी कोई दूसरी रचना अब तक उपलब्ध ही नहीं हुई है। ऐसी हालत में पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि उक्त पं० जिनदास शास्त्रीने श्राराधना ग्रंथके कर्ता शिवकोटिको जो रत्न - मालाका कर्त्ता लिखा है वह कितना अधिक निराधार, भ्रमपूर्ण तथा श्रप्रामाणिक है ।
ऊपरके इस समस्त विवेचन परसे यह बात स्पष्ट है कि 'भगवती श्राराधना' के कर्त्ता शिवकोटि या शिवार्य श्राचार्य कुन्दकुन्द, उमास्वाति, समन्तभद्र तथा संभवतः कार्तिकेयके बाद हुए हैं, और सर्वार्थसिद्धिप्रणेता पूज्यपादसे पहले हो गये हैं- उनका अस्तित्वकाल स्वामी समन्तभद्र और पूज्यपाद दोनोंके मध्यवर्ती है। साथ ही, यह भी स्पष्ट कि 'रत्नमाला' के कर्ता शिवकोटि भगवती श्राराधनाके रचयिता से भिन्न हैं— दोनों एक व्यक्ति नहीं हो सकते। रही भगवती श्राराधनाके कर्ताकी समन्तभद्रके साथ शिष्य सम्बन्धकी बात, वह अभी सन्दिग्ध है- विशेष प्रमाणोंकी उपलब्धिके बिना उसके सम्बन्धमें निश्चयपूर्वक कुछ भी नहीं कहा जा सकता । श्राशा है विद्वान् लोग इस विषय में विशेष प्रमाणोंको खोज निकालनेका प्रयत्न करेंगे ।
मुझे अबतक के अनुसन्धान- द्वारा जो कुछ मालूम होसका है वह विद्वानोंके सामने विचारार्थ प्रस्तुत है ।
वीरसेवामन्दिर, सरसावा, ता० ७-१-१६३६
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सम्यकपण
पथिक [ ले० श्री नरेन्द्रप्रसाद जैन, बी. ए.]
उसके नन्हेसे हृदयमें कितनी पीड़ा थी, कितनी कसक विक्षोभसे भर जाता, यह तलिका रख देता ! उसकी
थी, इसका किसीको अनुमान नहीं ! अशान्तिके दूंची प्रकृतिके ऐसे ऐसे नयनाभिराम हरयोंकी सृष्टि बवण्डर उठते और एक क्षणके लिये उसके मनको करती, परन्तु उसकी आत्मा सन्तुष्ट न होती! उसका उद्वेलित कर देते ! शांति उससे कोसों दूर थी, उसे जी ऊब गया था ! वह कमी कभी वीणा उठा लेता अपने जीवनसे असंतोष था, वह जीवनका अर्थ समझना और गुनगुनाने लगता, परन्तु ऐसा राग न निकाल चाहता पर नहीं समझ पाता था ! जितना ही वह इस पाता जो उसकी प्रास्माको कुछ क्षणके लिये उस लोकमें गुत्थीको सुलझानेका प्रयत्न करता उतना ही वह ले जाता जहाँ सर्वदा शान्ति है, सुख है संतोष है। निराश होता जाता ! उसकी दृष्टि में दुनिया क्या प्रत्येक उसने सोचा शायद देश-भक्ति ही उसको शामिल कार्य हेय था । वह खोजमें था एक ऐसे उद्देश्यकी जो प्रदान कर सके। उसने स्वयंसेवकोंमें नाम लिया उसकी आत्माको स्वीकार हो । एक और ही किसी वस्तु- लिया, नमक कानून तोड़ा, जेल गया, परन्तु उसको का बना हुआ उसका हृदय था । दुनियाने उसे नहीं अभिलिषित वस्तु प्राप्त न हुई ! वह-दिन पर दिन निराश समझा, उसकी दृष्टिमें वह पत्थरका टुकड़ा था, पर होता जाता, उसकी सारी प्राशायें भस्म होती जा रही वास्तवमें वह एक रन था जिसकी भाभा देरमें प्रकट थीं ! उसने प्रकृतिको भी अपनी सहचरी बनाया, वह होती है। उसका दिल रोता था, लेकिन उस विलापको घण्टों सरिताके तट पर बैठा हुआ लहरोका नृत्य देखा संसारने न सुना।
करता, पत्तोंकी मर्मर ध्वनि, वायुका संदेश सुनता, वह एक चित्रकार था, और था एक सफल कला- फूलोंसे बातें करता; परन्तु उसका हृदय संतुष्ट न होता ! कार । सुन्दरसे सुन्दर चित्र बनाता, पर उसकी दृष्टि में व ह अपने हृदयकी पुकार न सुन पाता ! जंचता और मिटा देता ! उस स्वप्नलोककी प्रभाको अपनी कलाके द्वारा चिन्तित करता, पर उसका मन
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अनेकान्त
[ चैत्र, बीरनिर्वाण सं० २४६५
वह देशका भूषण है। प्रत्येक देशवासीके हृदयमें उसकी मंजुलमयी प्रतिमा विराजती हैं। वह अनाथोंका पिता है, विधवाओंका भ्राता है, युवकोंका सखा है, और वृद्धोंका सहारा है । दुखीकी एक भी करुण पुकार उसके अन्तस्तलमें उथल-पुथल मचा देती है, वह अधीर हो उठता है ! अब भी प्रकृति उसकी सहचरी है, परन्तु 'सेवा' अब उसके हृदयकी रानी है ! न उसे किसीसे घृणा है, न उसे किसीसे द्वेष है । उसके हृदयमें प्रेमकी एक सरिता बहती है, जिसकी कोई सीमा नहीं, जिसका कोई अन्त नहीं ! ग्राम-ग्राम घर-घर वह जाता है। छोटे-छोटे बच्चोंको अपने पास बिठा कर बड़े प्रेमसे शिक्षा देता है। युवकोंको वह बातें समझाता है और उनके काम में सहायता देता है। उसने प्रत्येक व्यक्तिके हृदयमें यही भावना भर दी है कि भगवान् तुम्हारे अन्दर हैं, उनको देखो, उनको पहिचानो, मनुष्य मात्रसे प्रेम करो, तभी उनको पहिचान सकोगे । उसने ही जनतामें साहस, सज्जनता, उदारता और क्षमा आदि गुणोंका फिरसे संचार कर दिया है ! उसके ही त्यागसे सारे देशमें शांति तथा सुखका साम्राज्य फैला हुआ है और इसीमें उसका सच्चा संतोष है।
प्रत्येक देशवासीने उसे अपना सम्पूर्ण हृदय अर्पित कर दिया है, वह उसकी पूजा करता है, भक्ति करता है और उसे अपना देवता समझता है।
और सब उसे 'पथिक' कहते हैं ।
रात्रिका पिछला प्रहर, पृथ्वी पर अलसाई -सी चाँदनी फैली हुई थी, श्राकाशमें चन्द्रदेव हँस रहे थे और वह 'चला जा रहा था न मालूम किस श्रोर १ पक्षी बोला'कहाँ चले' | फूलने कहा- 'उस पार'। उसके पास इतना समय न था कि इसका उत्तर देता ! श्राज या तो उसके जीवनका अवसान था और या मंगल प्रभात । वह अपने प्रश्नका उत्तर पूछने जा रहा था । उसके हृदयमें आशा की ज्योति जग रही थी, कभी निराशा आकर उसको बुझा देती और कभी फिर श्राशा श्राकर उसको सँवार लेती। उसने देखा कुछ दूरपर कदम्बके नीचे दीपक जल रहा है। उसकी श्रात्माने कहा - 'बढ़े चलो, उसकी गति तेज़ हो गई ! उसने देखा एक योगी ध्यानमग्न बैठे हैं, वह बैठ गया ! उनकी शान्त मुद्रासे एक ज्योति-सी निकल रही थी। समाधि टूटी, योगीश्वर बोले - "क्या पूछते हो ।” उसने कहा" जीवन का उद्देश्य ।" एक कोमल वाणी हुई, उसने सुना, योगीश्वर ने कहा- "मनुष्य मात्रकी सेवा ।" वह खड़ा हो गया, उसके हृदयने कहा - "परोपकार" । दूरसे ध्वनि श्रई "मनुष्यकी सेवा" ! सहसा अशानका पर्दा फट गया ! इष्टि निर्मल हो गई। उसकी श्रात्माने संतोषकी साँस ली। उसके मनमें तब शांति विराजमान थी । वह एक ओर चला और बिलीन हो गया !
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अनकान्त के नियम
प्रार्थनाएँ १. अनेकान्तका वार्षिक मूल्य २॥) पेशगी है। १. "अनेकान्त" किसी स्वार्थ बद्धिसे प्रेरित होकर
वी.पी.से मंगाने पर समयका काफी दुरुपयोग अथवा आर्थिक उद्देश्यको लेकर नहीं निकाला होता है और ग्राहकोंको तीन पाने रजिस्ट्रीके जाता है, किन्तु वीरसेवामन्दिरके महान् अधिक देने होते हैं । अतः मूल्य मनिआर्डरसे उद्देश्योंको सफल बनाते हुए लोकहितको भेजने में ही दोनों ओर सुविधा रहती है। साधना तथा सभी सेवा बजाना ही इस पत्र२. अनेकान्त प्रत्येक माहकी २८ ता० को अच्छी का एक मात्र ध्येय है। अतः सभी सजनों
तरह जाँच करके भेजा जाता है। जो हरहालत को इसकी उन्नतिमें सहायक होना चाहिये । में १ ता तक सबके पास पहुँच जाना चाहिये। ,
२. जिन सज्जनोंको अनेकान्तक जो लेख पमन्द इसीलिये टाइटिल पर १ ता. छपी होती है। .
आरें, उन्हें चाहिये कि वे जिसने भी अधिक यदि किसी मासका अनेकान्त १ ता.को न मिले तो, अपने डाकघरसे लिखा पढ़ी करनी
भाइयोंको उसका परिचय करा सकें जरूर चाहिये । वहाँमे जो उत्तर मिलं वह उस
करायें। मामकी १५ ता० तक हमारे पाम पहुँच जाना ३. यदि कोई लेख अथवा लेखका अंश ठीक चाहिये । देर होनसे, डाकघरका जवाब मालूम न हो अथवा धर्मविरुद्ध दिखाई दे, शिकायती पत्रके माथ न आनसे दूसरी प्रति तो महज़ उमीकी वजहसे किमीको लेग्यक या बिना मूल्य भजनमें असुविधा रहेगी।
सम्पादकमे द्वेष-भाव न धारण करना चाहिये, ३. अनेकान्तके एक वर्षसे कमके ग्राहक नहीं बनाये । किन्तु अनेकान्त-नीतिकी उदारतामे काम
जाते । ग्राहक प्रथम किरणसे १२ वी किरण लेना चाहिये और हो मकं तो यक्ति पुरस्सर तकके ही बनाये जाते हैं। एक वर्षकी किरणसे मंयत भापामें लेखकको उमकी भूल सुझानी दृमरे वर्षकी बीचकी किमी उस किरण तक चाहिये। नहीं बनाये जाते। अनेकान्तका नवीन वर्ष
४. "अनेकान्त" की नीति और उद्देश्य के अनुदीपावलीसे प्रारम्भ होता है।
मार लंग्व लिग्यकर भेजने के लिए देश तथा ४. पता बदलनेकी मृचना ता०२० तक कार्या
ममाजकं मभी सुलग्यांको आमन्त्रण है। लयमें पहुँच जानी चाहिये । महिने दो महिने के लिये पता बदलवाना हो, तो अपने यहाँके
५. "अनंकान्न" को भेजे जाने लग्बादिक डाकघरको ही लिग्यकर प्रबन्ध कर लेना
क़ाराजकी एक ओर हाशिया छोड़कर मुवाच्य चाहिये । ग्राहकोंको पत्र व्यवहार करते
अक्षगेम लिम्ब होने चाहिये । लेखांको ममय उत्तरके लिए पोस्टंज खर्च भंजना
घटाने, बढ़ाने, प्रकाशित करने न करने, चाहिये । साथ ही अपना ग्राहक नम्बर और
लौटानं न लौटानका सम्पूर्ण अधिकार मम्पापता भी स्पष्ट लिखना चाहिये, अन्यथा उत्तर
दकको है। अस्वीकृत लेम्प वापिस मॅगाने के
लिये पोस्टंज खच भंजना आवश्यक है । लेग्य कलिय कोई भरामा नहीं रखना चाहिय।
निम्न पनम भंजना चाहियः६. अनेकान्तका मूल्य और प्रबन्ध सम्बन्धी
पत्र किमी व्यक्ति विशंपका नाम न लिग्वकर निम्न पतसे भंजना चाहिये ।।
जुगलकिशोर मुख्तार व्यवस्थापक "अनकान्त"
सम्पादक अनेकान्त कनॉट मर्कम पो ब. नं०४८ न्य देहली।
सरमावा, जि. सहारनपुर
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Regd. No. L. 4328
वीर-सेवा-मन्दिरको सहायता
हालम वीरमंत्रा-मन्दिर मम्मावाको निम्न माजनांकी श्रोग्म ३६ रु. की सहायता प्राम हुई है, जिमके लिय दानार महाशय धन्यवाद के पात्र हैं:१०) श्रीमती मुनहरीदेवी धर्मपत्नी म्ब० ला० श्यामिह वा० नानकचन्द जी जैन रिटायर्ड सब इजिनियर
गयमी जेन रमि देशली-शाहदग (पनिकी मृत्यके मरमावा (सहारनपुर) नर हवेली के मुहुनकी खुशीम
ममय निकाली हुई दानकी रकममेमे)। ५) ला० उग्रमेन शीतलप्रमादनी जैन सहारनपुर ५) ला. जोगीदाम एडवोकेट करनाल व मेमर्म चोग्वे (विवाहका वशीम)
लाल गजेन्द्रकुमार जैन अम्बाला छावनी (दि. ५) ला• अनमिह जी सोनीपन और ला• बमाउलालजी पदमचन्द व शान्नीदेवीके विवाहकी खशीमें)। पानीपत (पुन-पुत्रीक विवाह की स्वशीम)
-अधिष्टाना 'वीर संवा मदिर।
धन्यवाद
फाजिलका निवासी ला हरप्रसादजी जैनने दोम्पय भेजकर अपनी श्रोग्सं साहित्य मदन अबोहर (पजाब) iyक वर्ष के लिये "अनेकान्त" भिजवाना प्रारम्भ किया है और निम्नलिम्वित बधश्रोने अनेकान्नके ग्राहक बनानेकी कृपा की है। एनदर्य धन्यवाद । ग्राहक
ग्राहक बा० मुम्बमालचदजी जेन, न्यू देहली २५ बा. जुगमन्दरटाम जैन बाकौशलप्रमादत्री जन
१२ प. भवरलाल जैन मि.बबनद गुमा
१० या छबीलदाम बमल मा०पशीलाल जैन
१० प० होतीलालजी शाम्बा या. राजेन्द्रप्रसाद अन
६ श्री नदलालजी जैन प० गमलाल जेन पञ्चरल
४ बा. छोटेलाल जैन मि. धर्मदाम गमा
४ बा. दलीपचंद जैन
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माणसाद गोगली ।
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१. समन्तभद्र-प्रणयन २. दक्षिणके तीर्थ क्षेत्र-[श्री० ५० नाथूरामजी प्रेमी ३. सुभाषित-[श्री० तिरुवल्लुकर ४. श्रुतज्ञानका आधार-[श्री. पं० इन्द्रचन्द्र जैन शास्त्री ५. प्रकृतिका सन्देश-[ नीतिविज्ञान से ६. ज्ञान-किरण (कहानी)-[श्री० 'भगवत्' जैन ७. सुख-दुख-श्री० लज्जावती जैन ८. हमारा जैन-धर्म ( कविता )-[श्री० पं० सूरजचन्द गंगी ९. श्रीपूज्यपाद और उनकी रचनाएँ-[सम्पादकीय १०. चहक ( कविता )-[श्री० 'भगवत' जैन ११. भाग्य और पुरुषार्थ-[श्री० बाबू सूरजभानु वकील १२. सेठ सुगनचन्द-[अयोध्याप्रमाद गोयलीय १३. इतिहास ( कविता )-[देशदूतसे १४. कथा कहानी-[अयोध्याप्रसाद गोयलीय १५. वीर जयन्तीपर भाषण-[श्री० लोकनायक अणे एम. एल. ए. ... १६. , , , [श्री. गोविंददासजी एम.एल.ए. १७. ,, ,, , [सेठ बैजनाथ बाजोरिया एम. एल. ए. १८. ज्ञान पर लीबिनिज-[श्री० नारायणप्रसाद जैन बी. एस. सी. ... १९. हेमचन्द्राचार्य और जैनज्ञानमन्दिर-[मम्पादकीय २० मेरी अभिलाषा (कविता)-[श्री रघुवीरशरण अग्रवाल एम.प. 'घनश्याम'... २१ एक बार ( कविता )-[श्री भगवनस्वरूप जैन भगवन्'
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टाइटिल
अनुकरणीय
जिन दातारोंकी ओरसे १११ संस्थाओंको 'अनेकान्त' भेट स्वरूप भिजवाया जा रहा है, उन दातारों और संस्थाओंकी सूची सधन्यवाद छठी किरण तक प्रकाशित होचुकी है। इस माहमें श्रीमान सिद्ध करणजी सेठी अजमेर वालोंने ४ रु० दो जैनेतर विद्वानोंके लिये और ला• लक्ष्मीचन्दजी जैन पालम निवासी ने २२०१ संस्थाको एक वर्ष तक अनेकान्त भेट स्वरूप भिजवाने के लिये भिजवाए हैं। अतः दातारोंकी इच्छानुसार “अनेकान्त" प्रथम किरणसे जारी कर दिया गया है। -व्यवस्थापक
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नीति-विरोध-ध्वंसी लोक व्यवहार-वर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥
वर्ष २
सम्पादन-स्थान-बीर-सेवामन्दिर (ममन्तभद्राश्रम) सरसावा, जि.सहारनपुर
प्रकाशन-स्थान-कनॉट सर्कस, पो० ब० नं०४८, न्य देहली बैशाख शुक्ल, वीरनिर्वाण सं० २४६५, विक्रम सं०१६६६
किरण
समन्तभद्रादिमहाकवीश्वरैः कृतप्रबन्धोज्वलसत्सरोवरे । लसिद्रसालंकृति-नीरपङ्कजं सरस्वती क्रीडति भाववन्धुरे ॥ .
-शृंगारचन्द्रिकाया, विजयवर्णी महाकवीश्वर श्रीसमन्तभद्र-द्वारा प्रणयन किये गये प्रबन्धसमूह (वाङमय)रूपी उस उज्वल सत्सरो-५ वरमें, जो रसरूप जल तथा अलंकाररूप कमलोंसे सुशोभित है और जहाँ भावरूपी हंस विचरते हैं, सरस्वती क्रीड़ा । करती है- अर्थात्, स्वामी समन्तभद्र के ग्रन्थ रस तथा अलंकारोंसे सुमज्जित हैं, सद्भावाँसे परिपूर्ण है और सरस्वतीदेवीके क्रीडास्थल हैं-विद्यादेवी उनमें बिना सकिी रोक-टोक के स्वच्छन्द विचरती है और वे उसके शानभण्डार हैं । इसीसे महाकवि श्री यादीभसिंहमूरिने, गद्यचिन्तामणिमें, समन्तभद्रका "सरस्वती-स्वर-विहारममयः" विशेषणके साथ स्मरण किया है।
स्वामिनश्वरितं तस्य कस्य नो विस्मयावहं । देवागमेन सर्वज्ञो येनाधापि प्रदर्श्यते ॥
-पार्श्वनाथचरिते, वादिराजसूरिः उन स्वामी (समन्तभद्र) का चरित्र किसके लिये विस्मयकारक-श्राश्चर्यजनक नहीं है, जिन्होंने 'देवागम' नामके अपने प्रवचन-द्वारा आज भी सर्वशको प्रदर्शित कर रखा है। सभीके लिये विस्मयकारक हैनिःसन्देह, समन्तभद्रका 'देवागम' नामका प्रवचन जैनसाहित्यमें एक अद्वितीय एवं वेजोड़ रचना है और उसके द्वारा जिनेन्द्रदेवका भागम भले प्रकार लोकमें व्यक्त हो रहा है। इसीसे शुभचन्द्राचार्यने, अपने पाण्डवपुराणमें
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देहली-महावार-जयन्तोके जुलूसका एक दृश्य
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नीति-विरोध-ध्वंसी लोक व्यवहार-वर्तकः सम्यक । परमागमस्य बाज भुवनैकगरुर्जयत्यनेकान्तः ॥
वर्ष २
सम्पादन-स्थान-बीर-सेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम) सरसावा, जि०सहारनपुर
प्रकाशन-स्थान-कनॉट सर्कस, पो.ब.नं.४८, न्य देहली वैशाख शुक्ल, वीरनिर्वाण सं० २४६५, विक्रम सं०१६६६
समन्तभद्र-मायन समन्तभद्रादिमहाकवीश्वरैः कृतप्रबन्धोज्वलसत्सरोवरे। लसिद्रसालंकृति-नीरपङ्कजे सरस्वती क्रीडति भावबन्धुरे ॥ .
-शृंगारचन्द्रिकायां, विजयवर्गी महाकवीश्वर श्रीसमन्तभद्र-द्वारा प्रणयन किये गये प्रबन्धसमूह ( वाडमय ) रूपी उस उज्वल सत्सरोवरम, जो रसरूप जल तथा अलंकाररूप कमलोंसे सुशोभित है और जहाँ भावरूपी हंस विचरते हैं, सरस्वती क्रीड़ा करती है-अर्थात्, स्वामी समन्तभद्र के ग्रन्थ रम तथा अलंकारोंसे मुसज्जित है, सदभावोंसे परिपर्ण है और सरस्वतीदेवीके क्रीडास्थल हैं-विद्यादेवी उनमें बिना सकिी रोक-टोक के स्वच्छन्द विचरती है और वे उसके शानभएडार हैं । इसीसे महाकवि श्री यादीमसिंहसूरिने, गद्यचिन्तामणिमें, समन्तभद्रका "सरस्वती-स्वर-विहारममयः" विशेषण के साथ स्मरण किया है।
स्वामिनश्चरितं तस्य कस्य नो विस्मयावहं। देवागमेन सर्वज्ञो येनाधापि प्रदर्श्यते ॥
-पार्श्वनाथचरिते, वादिराजसूरिः उन स्वामी (समन्तभद्र) का चरित्र किसके लिये विस्मयकारक-पाश्चर्यजनक नहीं है, जिन्होने , 'देवागम' नामके अपने प्रवचन-द्वारा आज भी सर्वशको प्रदर्शित कर रखा है! सभीके लिये विस्मयकारक है- निःसन्देह, समन्तभद्रका 'देवागम' नामका प्रवचन जैनसाहित्यमें एक अद्वितीय एवं वेजोड़ रचना है और उसके द्वारा जिनेन्द्रदेवका भागम भले प्रकार लोकमें व्यक्त हो रहा है। इसीसे शुभचन्द्राचार्यने, अपने पाण्डवपुराणमें
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[वैशाख, वीर-निर्वाण सं०२४६५
समन्तभद्रका स्मरण करते हुए, उन्हे "देवागमेन येनाऽत्र व्यको देवागमः कृतः" विशेषणके साथ उल्लेखित किया है।
त्यागी स एव योगीन्द्रो येनाऽक्षय्यसुखावहः । अर्थिने भव्यसार्थाय दिष्टो रत्नकरण्डकः।।
-पार्श्वनाथचरिते, वादिराजसूरिः वे ही योगीन्द्र समन्तभद्र सच्चे त्यागी (दाता) हुए हैं, जिन्होंने भव्यसमूहरूली सुखार्थीको अक्षय सुखका कारण धर्मरत्नोंका पिटारा-रत्नकरण्डक' नामका धर्मशास्त्र-दान किया है।
प्रमाण-नय-
निति-वस्तुतत्त्वमबाधितम् । जीयात्समन्तभद्रस्य स्तोत्रं युक्त्यनुशासनम् ।।
-युक्त्यनुशासनटीकायां, विद्यानन्दः श्रीसमन्तभद्रका 'युक्त्यनुशासन' नामका स्तोत्र जयवन्त हो, जो प्रमाण और नयके द्वारा वस्तुतत्त्व के निर्णयको लिये हुए है और अबाधित है-जिसके निर्णयमें प्रतिवादी आदि द्वारा कोई बाधा नहीं दी जा सकती।
यस्य च सद्गुणाधारा कृतिरेषा सुपद्मिनी । जिनशतकनामेति योगिनामपि दुष्करा ।। स्तुतिविद्या समाश्रित्य कस्य न क्रमते मतिः। तद्वृत्तिं येन जाड्ये तु कुरुते वसुनन्द्यपि ।।
-जिनशतकटीकायां, नरसिंहभट्टः स्वामी समन्तभद्रकी 'जिनशतक' (स्तुतिविद्या) नामकी रचना, जो कि योगियोंके लिये भी दुष्कर है, सदगुणोंकी अाधारभत सुन्दर कमलिनी के समान हैं-उसके रचना-कौशल, रूप-सौन्दर्य, सौरभ-माधुर्य और भाववैचित्र्यको देखते तथा अनुभव करते ही बनता है। उस स्तुतिविद्याका भले प्रकार श्राश्रय पाकर किसकी बुद्धि
को प्राप्त नहीं होती ? जडबुद्धि होते हुए भी वसुनन्दी स्तुतिविद्याके समाश्रयण के प्रतापसे उसकी वृत्ति (टीका) करने में समर्थ होता है।
यो निःशेषजिनोक्तधर्मविषयः सामन्तभद्रैः कृतः सूक्तार्थेरमलैः स्तवोऽयमसमः स्वल्पैः प्रसनैः पदैः। स्थेयांश्चन्द्रदिवाकरावधि बुधप्रहादचेतस्यलम् ॥
-स्वयम्भूस्तवटीकायां, प्रभाचन्द्रः श्रीसमन्तभद्रका 'स्वयम्भस्तोत्र', जो कि सूत्ररूपमें अर्थका प्रतिपादन करनेवाले, निर्दोष, स्वल्प एवं प्रसन्न (प्रसादगुणविशिष्ट ) पदोंके द्वारा रचा गया है और सम्पूर्ण जिनोक्त धर्मको अपना विषय किये हुए है, एक अद्वितीय स्तोत्र है, वह बुधजनों के प्रसन्न नित्तमें सूर्य-चन्द्रमाको स्थिति-पर्यन्त स्थित रहे।
तत्त्वार्थसूत्र व्याख्यान-गन्धहस्तिप्रवर्तकः ।
स्वामी समन्तभद्रोऽभद्देवागमनिदेशकः ।। स्थामी समन्तभद्र तत्त्वार्थसूत्रके 'गन्धहस्ति' नामक व्याख्यानके प्रवर्तक (विधायक ) हए हैं और साथ ही देवागमके-'देवागम' नामक ग्रन्थके अथवा जिनेन्द्रदेव प्रणीत श्रागमके-निर्देशक (प्ररूपक) भी थे।
यहाँ पर 'श्रीगौतमायैः पद दिया हुआ है, जिसका कारण गौतम स्वामीके स्तोत्रको भी शुरूमें साथ लेकर दो तीन स्तोत्रोंकी एक साथ टीका करना है।
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दक्षिणके तीर्थक्षेत्र
[वि०सं० १७४० के लगभगके एक यात्रीकी दृष्टिमें [ले०-श्री पं० नाथूरामजी प्रेमी]
(छटी किरणका शेष अंश)
इसके श्रागे द्रविड़ देशका प्रारंभ हुआ है जिसके से शिवालय तथा विष्णुकाँचीमें विष्णुमन्दिर है जहाँ ४ गंजीकोटिन, सिकाकोलि और चंजी+ चंजा- पूजा, रथयात्रायें होती रहती हैं । उरे स्थानों के नाम दिये हैं जिनमें सोने, चाँदी और इसके बाद कर्नाटक देशका वर्णन है जहाँ चोरोंका रत्नोंकी अनेक प्रतिमा हैं।
संचरण नहीं है। कावेरी नदीके मध्य (तर!) श्रीरंगश्रागे जिनकांची, शिवकांची और विष्णुकांचीका पट्टण बसा हुआ है। यहाँ नाभिमल्हार (ऋषभदेय ), उल्लेख है जिनसे जिनकांचीके विषयमें बतलाया है चिन्तामणि (पाव) और वीर भगवान के विहार (मन्दिर) कि वहाँ स्वोपम जैनमन्दिर हैं और शिवकांचीमें बहुत- की भेंट की। वहाँ देवराय नामक राजाजो मिथ्या
मती होने पर भी शुभमति है। भोज सरीखा दानी है नगंजीकोट शायद मद्रास इलाकेके कडाप्पा जिलेका गं डकोट है जिसे बोमनपल्लेके राजा कप्पने
और मद्य-मांससे दूर रहने वाला है। उसकी सेनामें पांच बसाया था और एक किला बनवाया था। फरिश्ताके लाख सिपाही है। यहाँ हाथी और चन्दन होते हैं। उसकी अनुसार यह किला सन् १५८८ मे बना था । विजय- * दोड देवराजका समय ई० स०१६५६-७२ है नगरके राजा हरिहरने यहाँ एक मान्दर बनवाया था। और चिक्क देवराजका १६७२-१७०४ है । शील
सिकाकोलि गंजाम जिलंकी चकाकोल तह- विजयजीके समयमें अर्थात ११८३ के लगभग पिकसील है।
देवराज ही होना चाहिए । इसने लिंगायत शेवधर्म + चंजी कुछ समझमें आया। छोड़कर वैष्णवधर्म स्वीकार किया था। श्री रंगनाथx चजाउरि तंजौर है।
की सुवर्णमूर्ति शायद इसीकी बनवाई हुई है।
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अनेकान्त
श्रीमदनी ६५ लाखकी है जिसमेंसे १८ लाख धर्म कार्यमें खर्च होता है— श्राठ लाख ठाकुर (विष्णु) के लिए, चार लाख जिनदेव के लिए और छह लाख महादेव के लिए । रंगनाथकी मूर्ति सुवर्णकी है। हरि शयन मुद्रामें है और गंगाधर (शिव) वृषभारूढ़ हैं । इनकी पूजा बड़े टाटसे होती है। इसी तरह सिद्धचक्र और श्रादिदेवकी भी राजाकी श्रोरसे अच्छी तरह सेवा होती है । देवको चार गांव लगे हुए हैं, जिनसे ढलक नाता है। यहाँ के श्रावक बहुत धनी, दानी और दयापालक है । राजाके ब्राह्मण मन्त्री विशालाक्ष जिन्हें बेलांदुर पंडित भी कहते हैं विद्या, विनय और विवेकयुक्त हैं । जैनधर्मका उन्हें पूरा अभ्यास है । जिनागमोंकी X तीन बार पूजा करते हैं, नित्य एकासन करते हैं और केवल बारह वस्तुएँ लेते हैं। जैन शासनको दिपाते हैं। राज-धुरन्धर हैं। उन्होंने वीर प्रासाद नामका विशाल मन्दिर बनवाया है, जिसमें पुरुषप्रमाण पीतल की प्रतिमा है । सप्तधातु, चन्दन और रत्नोंकी भी प्रतिमायें है । इस कार्य में उन्होंने बीस हजार द्रव्य उत्साहसे खर्च की है। ये पुण्यवन्त सात क्षेत्रोंका पोषण करते हैं, पंडितप्रिय, बहुमानी और सज्जन है। प्रति वर्ष
[ वैशाख, वीर - निर्वाण सं० २४६५
माघकी पूनों को गोमट्टस्यामीका एकसौ आठ कलशोंसे पंचामृत अभिषेक करते हैं। बड़ी भारी रथयात्रा होती है । गोमहस्वामी श्रीरंगपट्टण से बारह कोस पर हैं, जो बाहुबलिका लोक प्रसिद्ध नाम है । चामुंडराय जिनमतीने यह तीर्थ स्थापित किया था। पर्वतके ऊपर अनुमान ६० हाथकी कायोत्सर्ग मुद्रावाली यह मूर्ति है । पास ही बिलगोल (श्रवणबेलगोल) गाँव है । पर्वतपर दो और शेष ग्राममें इक्कीस मिलाकर सब २३ मन्दिर हैं । चन्द्रगुप्तराय ( चन्द्रगुप्त बस्ति ) नामक मन्दिर भद्रबाहु गुरुके अनशन ( समाधिमरण ) का स्थान है । गच्छके स्वामीका नाम चारुकीर्त्ति ( भट्टारक पट्टाचार्य ) है । उनके श्रावक बहुत धनी र गुणी हैं। देवको सात गाँव लगे हुए हैं, जिनसे सात हजारकी श्रामदनी है । दक्षिणका यह तीर्थराज कलियुगमें उत्पन्न हुआ है ।
इसके श्रागे कनकगिरि* है जिसका विस्तार पाव
* कनकगिरि मलेयूरका प्राचीन नाम है । मैसूर राज्यके चामराजनगर तालुकेमें यह माम है। प्राचीन कालमें यह जैन तीर्थ के रूपमें प्रसिद्ध था और एक महत्त्वपूर्ण स्थान गिना जाता था । कलगर ग्राममें सरोवर के तटपर शक संवत् ८३१ का एक शिलालेख मिला है जिसमें लिखा है कि परमानदी कोंगुणि वर्माके राज्यमें कनकगिरि तीर्थपर जैनमन्दिरके लिए श्री कनकसेन भट्टारककी सेवामें दान दिया गया । ( देखो मद्रास और मैसूरके प्राचीन जैनस्मारक ।) यहाँ पहले एक जैन मठ भी था जो अब श्रवणबेलगोलके अन्तर्गत है । कनकगिरि पर बीसों शिलालेख मिले हैं। शक १५६६ के एक लेखमें इसे 'हेमाद्रि' लिखा है जो कनकगिरिका ही पर्यायवाची है । शक सं० १७३५ में यहाँ देशीय
x संभव है उस समय श्रीरंगपट्टणमें भी धव- गणके अमणी और सिद्धसिंहासनेश भट्टाकलंकने
लादि सिद्धान्त पंथ रहे हों ।
समाधिपुर्वक स्वर्गलाभ किया ।
* मैसूर से दक्षिण - पूर्व ४२ मील पर येलान्दुर नामका एक गाँव है । विशालाक्ष उसी गाँवके रहने वाले थे, इसलिए उन्हें येलांदुर पंडित भी कहते थे । चिक्कदेवराज जब नज़रबन्द था तब विशालाक्षने उसपर अत्यन्त प्रेम दिखलाया था । इस लिए जब सन् १६७२ में वह गद्दीपर बैठा, तब उसने इन्हें अपना प्रधान मन्त्री बनाया । सन् १६७७ में इन्होंने गोम्मटस्वामीका मस्तकाभिषेक कराया ।
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वर्ष २, किरण ]
दक्षिणके तीर्थक्षेत्र
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कोस है और जिसमें चन्द्रप्रभा स्वामीको देवी ज्वाला- है, सात धनुषकी प्रतिमा है। यहाँसे भागे जैनोका राज्य मालिनी है।
है, पाँच स्थानोंमें अब भी है। तुल' (सुलुब) देश कनकगिरि ज्वालामालिनी, देवी चन्द्रप्रभस्वामिनी का बड़ा विस्तार है, लोग जिनाशाके अनुसार प्राचार
भागे शीलविजयी कावेरी नदीको पार करके मल- पालते हैं। याचलमें संचार करते हैं और अगनगिरिक स्थानमें भागे बदरी नगरी या मूडवित्रीका पर्शन है। जो विश्राम लेकर शान्तिनाथको प्रणाम करते हैं। वहाँ अनुपम है, जिसमें १६ मन्दिर हैं। उनमें बड़े-बड़े मंडप, चन्दनके बन है, हाथी बहुत होते हैं और भारी-भारी पुरुष प्रमाण प्रतिमायें हैं । वे सोनेकी हैं और बहुत सुन्दर सुन्दर वृक्ष हैं। फिर घाट उतरकर कालिकट बन्दर है। चन्द्रप्रभ, मादीश्वर, शान्तीरवर, पाके मन्दिर । पहुँचते हैं जहां श्वेताम्बर मन्दिर है और गुज्जर जिनकी भाषकजन सेवा करते हैं। जिनमती श्री राज्य (गुजराती) व्यापारी रहते हैं।
करती है । दिगम्बर साधु हैं। ग्रामण, क्षत्रिय, वैश्य और वहाँसे सौ कोसपर सुभरमणी'नामकामामहे । वहाँ- शूद्र चारों वर्ण के भाषक है। जातियोंका यही व्यवहार के संभवनाथको प्रणाम करता हूँ। फिर गोम्मटस्वामीपुर' है। मिभ्यादेवोंको कोई नहीं मानता । वाइपत्रोंकी
पुस्तकोंका भंडार है, जो वाँकी पेटियोंमें रहती है। सात सन् १४०० (वि०सं० १४५७) के एक शिला
धातुकी, चन्दनकी, माणिक, नीलम, वैड्र्य, हीरा और लेखसे मालम होता है कि शुभचन्द्रदेवके शिष्य
विद्रुम (मूंगा) रत्नोंकी प्रतिमायें हैं । बड़े पुण्यसे इनके चन्द्रकीर्तिदेवने इस पर्वतपर चन्द्रप्रभस्वामीकी प्रतिमा
दर्शन किये। स्थापित की । शीलविजयजीने शायद इन्हीं चन्द्रप्रभस्वामीका उल्लेख किया है।
आगे कारकल प्राममें नौपुरुष उंची गोम्मटस्वामीकी यह अंजनगिरि कुर्ग (कोडगु ) राज्यमें है। ३ यात्रीके कथमानुसार उस समय तुलदेशमें इस समय भी वहाँ शान्तिनाथका मन्दिर मौजूद है। कई छोटे-छोटे राज्य थे। जैसे अजिल, चौट, बंग, यहाँ शक १४६६ का एक कनड़ीमिश्रित संस्कृत मुल आदि। शिलालेख मिला है, जिसमें लिखा है, कि अभिनव- दक्षिण कनाडा जिला तुलुदेश कहलाता है। चारुकीर्ति पंडितने अंजनगिरिकी शान्तिनाथबस्तीके अब सिर्फ वहाँपर तुल भाषा बोली जाती है। पहले दर्शन किये और सुवर्णनदीसे पाई हुई शान्तिनाथ उत्तर कनाडाका भी कुछ हिस्सा तुलु देशमें गर्भित और अनन्तनाथकी मूर्तियोंको विराजमान किया। था। शीलविजयजीके समय तक भी तुलु देसमें कई
१ सुभरमणी शायद 'सुब्रमण्य' का अपमेश नाम जैन राजा थे। कारकलके राजा भैरस मोरियरने जो है। यह हिन्दुओंका तीर्थ है । यह तुलुदेशके किनारे गोम्मट देवीके पुत्र थे. ई० स० १५० से १५६% तक पाचिम घाटके नीचे विद्यमान है।
राज्य किया है । ये बैन थे। .. २ गोम्मटस्वामीपुर शायद यही है जो मैसूरसे .नातितलो ग्रहण विवहार, नियादेवतो पश्चिमकी ओर १६ मीलकी दूरीपर जंगलमें है और परिहार । ८३ । 'हज' का अर्थ यह ही होता है, वहाँ गोम्मटस्वामीकी १५ हाथ ऊँची प्रतिमा है। परन्तु 'यही व्यवहार' क्या सो कुछ सा नहीं होता।
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अनेकान्त
[वैशाख, वीर-निर्वाण सं०२४६५
- प्रतिमा है । नेमिनाथके चैत्यमें बहुत-सी रत्न विनुरिसे फिर हुंबसि' आये, जहाँ पार्श्वनाथ और : प्रतिमायें हैं। नाभिमल्हार (ऋषभदेव) की चौमुखी मूर्ति पद्मावती देवी है। वहाँ आसपास अनेक सर्प फिरते रहते
हैं पर किसीका पराभव नहीं करते। ऐसे महिमाधाम और आगे वरांग ग्राममें नेमिकुमारका 'मन्दिर है और वांछित-काम स्थानकी पूजा की। । पर्वतपर साठ मन्दिर हैं । इस तरह तुलुव देशका फिर लिखा है कि चित्रगढ़, बनोसीगाँव' और वर्णन श्राहादपूर्वक किया।
पवित्र स्थान बंकापुर देखा,जो मनोहर और विस्मयवन्त आगे लिखा है कि सागर और मलयाचलके बीच- -
१हूमच पद्मावती तीर्थ शिमोगा जिलेमें है और में जैन-राज्य है। वहाँ जिनवरकी झांकीका प्रसार है।
तीर्थलीसे १८ मील दूर है । यहाँ भट्टारककी गद्दी है। और कितना वर्णन करूँ ? वहाँसे पीछे लौटकर फिर
यह जैनमठ आठवीं शताब्दीके लगभग स्थापित हुआ कर्नाटकमें' आया, घाट चढ़कर विनुरि श्राया, जहाँ
बताया जाता है । इस मठके अधिकारी बड़े-बड़े रानी राज्य करती है जिसके नौ लाख सिपाही हैं -
विद्वान् हो गये हैं। पद्मावतीदेवीकी बहुत महिमा विनुरिमें दो सुन्दर मन्दिरोंकी बन्दना की।
बंतलाई जाती है। __ मद्रास-मैसूरके जैन-स्मारकके अनुसार कार- २ मैसूर राज्यके उत्तरमें चित्तल दुर्ग नामका एक कलमें चौमुखा मन्दिर छोटी पहाड़ी पर है जिसे शक जिला है । चित्रगढ़ शायद यही होगा । यहाँ होयसंवत् १५०८ में वेंगीनगरके राजा इम्मदि भैरवने साल राजवंशकी राजधानी रही है । गढ़ और दुर्ग बनवाया था।
पर्यायवाची हैं, इसलिए चित्तलदुर्गको चत्तलगढ़ या कारकलसे तीर्थली जाते हुए वरांग ग्राम चित्रगढ़ कहा जा सकता है। . पड़ता है। वहाँ विशाल मन्दिर है । इसके पास ३ बनौसी सायद वनबासीका अपभ्रंश हो । उत्तर
जंगल और बड़े बड़े पहाड़ हैं । इन पहाड़ों से ही कनाडा जिलेकी पूर्व सीमापर वनबासी नामका एक किसीपर उस समय साठ मन्दिर रहें होंगे। गाँव है। इस समय इसकी जनसंख्या दो हजारके
१ वेएरके पास कोई घाट नहीं है, संभव है गंग- • लगभग है । परन्तु पूर्वकालमें बहुत बड़ा नगर था वाड़िके पास यात्रीने घाट चढ़ा हो।
और वनबास देशकी राजधानी था। १३ वीं शताब्दी २विनुरि अर्थात् बेलूर । यह मृडबद्रीसे १२ तक यहाँ कदम्ब बंशकी राजधानी रही है। यहाँके और कारकलसे २४ मील दूर है । यहाँ गोम्मर. एक जैनमन्दिरमें दूसरीसे बारहवीं शताब्दी तकके स्वामीकी २५ हाथ ऊँची मूर्ति है जिसका निर्माण शिलालेख हैं । वि०सं०१६६० में हुआ था । यह स्थान गुरुयुर नदीके धारवाड़ जिलेका एक कस्बा है । भगक्द्गु णकिनारे पर है।
भद्राचार्यने अपना उत्तरपुराण इसी बंकापुरमें समाप्त धेयरमें सन् १९८३ से १७२१ तक अजिलवंश किया था । उस समय यह वनबास देशकी राजधानी की रानी पदुमलादेवीका राज्य था, जो जैन थी। नौ था और राष्ट्रकूट-नरेश अकालवर्षका सामन्त लोकालाल सेनाकी बात अतिशयोक्ति है।
दित्य यहाँ राज्य करता था । राष्ट्रकूट महाराज अमोघ
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वर्ष २, किरण ७ ]
तीर्थ है
दक्षिण के तीर्थक्षेत्र
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चित्रगढ़ बनोसी गाम, बंकापुर दीठु सुभधाम । तीरथ मनोहर विस्मयवन्त,.......
फिर दशवें दिन दर्शन करो । इस पर भावकोंने नौ दिन ऐसा ही किया और नवें दिन ही देख लिया तो उन्होंने उस शंखको प्रतिमारूप में परिवर्तित पाया परन्तु
आगे यात्रीजीने लक्ष्मेश्वरपुर तीर्थ की एक अपूर्व प्रतिमाके पैर शंखरूप ही रह गये, अर्थात् यह दशवें दिन बात इस तरह लिखी हैकी निशानी रह गई । शंखमेंसे नेमिनाथ प्रभु प्रगट हुए. और इस प्रकारक शंख परमेश्वर कहलाये । इसके बाद शील विजयजी गदकि', राय
स्वामी सेवकने अर्थात् किसी यक्षने श्रावकोंसे कहा कि नौ दिन तक एक शङ्खको फलोंमें रक्खो और वर्ष (८५१-६६.) के सामन्त 'बंकेयेरस' ने इसे अपने
नामसे बसाया था ।
हुथेज़ी', और रामराय के लोकप्रसिद्ध बीजानगर में होते हुए ही बीजापुर श्राते हैं। बीजापुर में शान्ति जिनेन्द्र और पद्मावती के दर्शन किये, यहाँके भावक बहुत धनी गुणी और मणियों के व्यापारी हैं। ईदलशाहका " बल वान राज्य है, जो बड़ा 1 जा-पालक है और जिसकी सेनामें दो लाख सिपाही हैं ।
+ लक्ष्मेश्वर धारवाड़ जिलेमें मिरजके पटवर्धनकी जागीरका एक गाँव है । इसका प्राचीन नाम 'पुलिगरे' है। यहाँ शंस बस्ति नामका एक विशाल जैनमन्दिर है जिसकी छत ३६ खम्भोंपर थमी हुई है, यात्रीने इसीको 'शंख- परमेश्वर' कहा जान पड़ता है इस शंखवस्तिमें छह शिलालेख प्राप्त हुए हैं । शक संवत् ६५६के लेखके अनुसार चालुक्य नरेश विक्रमादित्य (द्वितीय) ने पुलिगेरेकी शंखतीर्थ वस्तीका जीर्णोद्धार कराया और जिनपजाके लिए भूमि दान की । इससे मालूम होता है कि उक्त बस्ति इससे भी प्राचीन है । हमारा अनुमान है कि अतिशय क्षेत्र कांडमें कहे हुए शंखदेवका स्थान यही है----
पासं सिरपुर बंदमि होलगिरी संखदेवम्मि । जान पड़ता है कि लेखकोंकी अज्ञानतासं 'पुलिगेरि' ही किसी तरह 'होलगिरि' हो गया है। उक्त पंक्तिकं पूर्वार्धका सिरपुर (श्रीपुर) भी इसी धारबाड़ जिलेका शिरूर गाँव है जहाँ का शक संवत् ७८७ का एक शिलालेख ( इन्डियन ए० भाग १२, पृ० २१६ ) प्रकाशित हुआ है । स्वामी विद्यानन्दका श्रीपुर पार्श्वनाथ स्तोत्र संभवतः इसी श्रीपुरके पार्श्वनाथको लक्ष्य करके रचा गया होगा ।
१ धारवाड़ जिलेकी गदग तहसील । २ हुबली जिला बेलगाँव ।
३-४ विजयनगरका साम्राज्य तालीकोटकी लड़ाई में सन् १५६५ में मुसलमानों द्वारा नष्ट हो गया और रामरायका बध किया गया । यह वहाँका अन्तिम हिन्दू राजा था । इसके समय में यह साम्राज्य उच्चतिके शिखर पर था । यात्रीके समयके कुछ बरसों बाद पेा विजय रामरायने पोतनरसे राजधानी हटाकर विजयनगरमें स्थापित की थी ।
५ सन् १६८३ के लगभग जब शीलविजयजीने यह यात्रा की थी, बीजापुरकी आदिलशाही दुर्दशाप्रस्त थी । उस समय अली आदिलशाह (द्वि०) का बेटा सिकन्दर आदिलशाह बादशाह था 1 औरङ्गजेबकी चढ़ाईयाँ हो रही थीं । १६८४ में शाहजादा आजमशाहको उसने बीजापुरकी चढ़ाईपर भेजा था । १६८६ में सिकन्दर कैद हो गया और १६८६ में उसकी मृत्यु हो गई ।
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अनेकान्त
आगे कहिडा और कलिकुंड पार्श्वनाथके विषयमें लिखा है कि उनकी महिमा श्राज मी अखंड है। दिवालीके दिन ब्रह्मादिक सारे देव श्राकर प्रणाम करते हैं। इसके बाद कुछ स्थानोंके नाम मात्र चारणगिरि,
दिये हैं
-
नवनिधि',
लोग बहुत है ।
फिर स्याहगढ़, मूगी पठाण के नाम मात्र हैं । पईठाणमें वाण गंगाके किनारे जीवित स्वामी मुनिसुव्रतकी प्रतिमा प्रकट हुई । यहाँ सिद्धसेन दिवाकर और राय - हरिभद्रसूरि हुए । कविजनोंकी माता भारती भद्रकाली देवी दीपती है !
आगे किसनेर, दौलताबाद, देवगिरि, श्ररङ्गाबाद के नाम मात्र देकर इलोरिके' विषयमें लिखा है कि देख कर हृदय उल्लसित हो गया। इसे विश्वकर्माने बनाया है । फिर इमदानगरि, १° नासिक, त्रंबक और तुंगगिरिका उल्लेखमात्र करके दक्षिण यात्रा समाप्त कर दी हैदष्यिणदिसिनी बोली कथा, निसुणी दीठी जेमि यथा ।”
१०
पं० के० भुजवलि शास्त्रीने इस लेख के कई स्थानोंका पता लगाने में सहायता देनेकी कृपा की है ।
बाग, हुकेरी |
इस तरफ पंचम, वणिक, छीपी, कंसार, वणकर " और चतुर्थ जातिके भावक हैं। ये सभी दिगम्बरी हैं, पर एक साथ भोजन नहीं करते। शिवाजीके मराठा राज्य के अधीन हैं । तुलजा देवीकी सेवा करने वाले
[ वैशाख, बीर निर्वाण सं० २४६५
१ जान पड़ता है 'नवनिधि' पाठ भूलसे छप गया है । 'तवनिधि' होगा। यह स्तवनिधि तीर्थ है जो बेलगाँवसेरे और निपाणी ३ मील है । द०म० जैनसभाके जल्से अक्सर यहीं होते हैं ।
२ कोल्हापुर राज्यके एक जिलेका सदर मुकाम । ३बेलगाँव जिलेकी चिकोड़ी तहसीलका एक कस्ब ४ शिंपी या दर्जी । ५ बुननेवाले ।
६ शोलापुरसे २८ मीलकी दूरी पर तुलजापुर नामका कस्बा है, उसके पास पहाड़की तलैटीमें तुलजादेवीका मन्दिर है । वहाँ हर साल बड़ा भारी मेला लगता है।
-***6000000
७ प्राचीन प्रतिष्ठानपुर और वर्तमान पैठण निजाम राज्यके औरङ्गावाद जिलेकी एक तहसील | विविध तीर्थकल्प के अनुसार यहां 'जीवंतसामि- मुखि सुब्वय' की प्रतिमा थी ।
८ औरङ्गाबादके पासका कचनेर है ।
६ एलोरा गुफा मन्दिर ।
१० अहमदनगर ।
सुभाषित
'संसार भर के धर्म ग्रन्थ सायवक्ता महात्मानोंकी महिमाकी घोषणा करते हैं।'
'अपना मन पवित्र रक्खो, धर्मका समस्तसार बस एक इसी उपदेशमें समाया हुआ है । बाकी और सब बातें कुछ नहीं, केवल शब्दाडम्बर मात्र है ।"
'केवल धर्म जनित सुख ही वास्तविक सुख है। बाकी सब तो पीड़ा और लज्जा मात्र है ।' तिरुवल्लुवर
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श्रुतज्ञानका प्राधार
[ लेखक-५० इन्द्रचन्द्र जैन यानी ]
नाचार्योने मतिशन और भुतशानको सभी भावमनके दो भेद किये जाते हैं-लब्धिप और
" संसारी प्राणियोंके स्वीकार किया है। मति- उपयोगरूप । लन्धि "अर्थ-ग्रहण-शक्ति" और उपयोग मान सब प्राणियोंके होता है, इस विषयमें विवादके "अर्थ-ग्रहण व्यापार" को कहते है। इन दोनों प्रकार लिये स्थान नहीं है। परंतु श्रुतशनके विषयमें नाना के परिणामोंको भावमन कहते है। प्रकारकी शंकायें उठा करती है। प्राचार्योंने श्रुतज्ञानको “समनस्कामनस्काः" इस सूत्रकी म्याख्यामें मनका विषय माना है. तथा श्रुतशान सभी प्राणियोंके "वीर्यान्तराय-नोइन्द्रियावरणक्षयोपरामापेक्षयामात्महोता है, ऐसी अवस्थामें सभी प्राणी मन वाले हो नो विशुद्धिर्भावमनः" इस वाक्यके द्वारा यह जावेंगे । जितने भी मन-सहित होते हैं वे सभी संशी प्रतिपादन किया है कि बीर्यान्तराय और नोइन्द्रियाकहलाते हैं । इस प्रकार सभी संसारी प्राणी संशी कह- वरण कर्मके क्षयोपशमसे श्रात्माकी विशुद्धिको भावमन' लाने लगेंगे, तब संज्ञी और असंज्ञी की भेदकल्पना हीन कहते हैं। रहेगी । यदि इन दोनों भेदोंको माना जाय तो श्रुतज्ञान यह भावमन केवल प्रात्मपरिणामों पर ही निर्भर की संभावना सभी संसारी प्राणियोंके न रहेगी, क्योंकि है। लन्धि और उपयोग इन दोनों प्रात्मपरिणामोंमेंसे असंशीके मन कैसे संभव हो सकता है ? मन तो न हो किसी एक परिणामके होने पर भी भावमनकी संभावना और मनका विषय हो यह कैसे हो सकता है?
हो सकती है। इस प्रकार लन्धिरूप भावमन सभी __ इसका समाधान इस प्रकार किया जाता है कि, प्राणियोंके संभव हो सकता है । इसलिये 'भुतशन सभी असंज्ञीके द्रव्यमन तथा उपयोगरूप भावमन नहीं होता प्राणियोंके होता है इसमें कोई बाधा नहीं पाती। किन्तु लधिरूप भावमन सभी प्राणियोंके होता है। इस शंका-क्या द्रव्यमनके बिना भावमन हो सकता लिये श्रुतशान सभी प्राणियोंके हो सकता है । यह सम- है ? यदि एकेंद्रिय जीवमें द्रव्यमनके बिना भावमन हो न्वय कहाँ तक उचित है, इसी पर विचार करना है। सकता है, तो द्रव्यरसनाके बिना भावरसना, द्रव्यप्राणके . जैनाचार्योंने मनके दो भेद किये है-पहिला भाव बिमा भावनागा आदि पांचों भावेन्द्रियोंका सत्व होना मन दूसरा द्रव्यमन -। द्रव्यमनके विषयमें विचार नहीं चाहिये । अन्यथा, एकेंद्रिय जीवमें द्रव्यमनके बिना करना है । यहां विवाद केवल भावमनके विषयमें है। भावमन तो होजाय,किन्तु द्रव्यरसना प्रादिके बिना भावइसलिये उसी पर विचार किया जाता है।
रसना आदि न हो इसमें क्या नियामक है। भावमन * श्रुतमनिन्द्रियस्य । - तत्वार्थस्त्र-श्र० २ सूत्र २१
जैसे द्रव्यमनके बिना उपयोगरूपमें नहीं मा xमनो द्विविध द्रव्यमनो भावनति ।
तत्वार्थग्रहणशक्तिलंब्धिः, अर्थग्रहणध्यापारउपयोगः । -सर्वार्थसि०अ०२ सू०.११
-सपीयकाय, पे०१५
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अनेकान्त
[ वैशाख, वीर-निर्वाण सं०२४६५
उसी प्रकार अन्य भावेन्द्रियाँ भी द्रव्येन्द्रियोंके बिना इस कथनसे यह स्पष्ट है कि लन्ध्यपर्यातक जीवमें उपयोगरूपमें न पावें, परंतु उनका क्षयोपशम भी न नोइन्द्रियावरण कर्मके क्षयोपशमके लिये किसी प्रयलहो यह कैसे हो सकता है ? जब कि सावमन भी वहाँ पर विशेषकी आवश्यकता नहीं होती, यह क्षयोपशम उसके इयोपशमरूपसे विद्यमान है । परंतु जैन-सिद्धांतमें स्वयं होता है । इसलिये वहाँ द्रव्यमनके बिनामी भावएकेन्द्रिय जीवोंके रसना श्रादि भावेन्द्रियोंका लब्धिरूपमें मन हो सकता है, तथा भावमनमें मी उपयोगरूप भावप्रभाव स्वीकार किया है। तब भावमनका भी लन्धिरूपसे मनके बिना लब्धिरूप भावमन हो सकता है। अन्य अमाव स्वीकार करना चाहिये । ऐसी हालतमें श्रुतंशन इन्द्रियों के विषय में ऐसा नहीं है। इसलिये भावेद्रिय और सय जीवोंके होता है, यह सिद्धांत बाधित हो जाता है। भावममकी तुलना नहीं की जा सकती है ।
समाधान-किसी भी द्रव्येन्द्रिय या भावेन्द्रियके लिये शंका-विग्रह-गतिमें मनुष्य-भवोन्मुख प्राणीके जब उसी जाति के क्षयोपशमकी आवश्यकता हुआ करती है। पाँचों इन्द्रियाँ क्षयोपशमरूपमें विद्यमान रहती हैं फिर - बिनायोपशमके कभी भी द्रव्येन्द्रिय या भावेन्द्रियकी सं- भी उसका पंचेन्द्रियत्व कायम रहता है। इसी तरह भावना नहीं हुआ करती । इस नियमके अनुसार भावमन- जिन असंशी जीवोका मन केवल क्षयोपशम रूपमें ही के लिए भी नोइन्द्रियावरणके क्षयोपशमकी आवश्यकता विद्यमान रहता है, उनका समनस्कत्व ही क्यों छीना होती है,यह पहिले कहाजाचुका है। अब देखना यह है कि, जाय ! यदि विग्रहगतिमें जीव संज्ञी कहलाता है, तो नोइन्द्रियावरणके क्षयोपशमके समान ही अन्य इन्द्रियोंका दूसरे दो इन्द्रियादिक जीव भी संशी कहलाने चाहिये; क्षयोपशम होता है अथवा कुछ भिन्नता है इसके लिये क्योंकि भावमनस्त्व दोनों जगह बराबर है । अगर वह गोम्मटसार-जीव-काण्डकी निम्न गाथा पर भी विचार संज्ञी हैन असंही तो दो इन्द्रियादिक जीव भी संशित्वकरना उचित है।
असंशित्व दोनोंसे रहित होने चाहिये। सुहमणिगोदभपज्जत्तयस्य जादस्स पढमसमयम्हि समाधान-विग्रहगतिमें मनुष्य-भवोन्मुख प्राणीके फासिदियमदिपुव्वं सुदणाणं लछि भक्खरयं ॥ पांचों इन्द्रियाँ क्षयोपशमरूपमें विद्यमान रहती हैं। यह
अर्थात्-सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्यातक जीवके क्षयोपशम ही द्रव्येन्द्रियकी रचना कराने में कारण होता उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें स्पर्शन-इन्द्रियजन्य मति- है। भावेन्द्रियाँ,द्रव्येन्द्रियोंकी रचना नियमसे कराती हैं। मानपूर्वक लब्ध्यवररूप श्रुतशान होता है । 'लन्धि' भाषेन्द्रियाँ हों और द्रव्येन्द्रियकी रचना न हो यह संभव भुतशानावरणके क्षयोपशमको कहा है, और 'अक्षर' नहीं हो सकता । इतना होने पर भी यह कोई नियम अविनश्वरको कहते हैं । अर्थात्-इतना शान हमेशा नहीं कि उसी समय रचना हो। समय-भेद हो सकता है। निरावरण होता है, इसलिये इस ज्ञानको लन्ध्यक्षर कहते विग्रहगतिमें पंचेन्द्रियत्वकी उपचारसे कल्पना की गई है है। इस क्षयोपशमका कभी विनाश नहीं होता है, कमसे परन्तु भावेन्द्रियकी तरह भावमन नियमसे द्रव्यमनकी कम इतना क्षयोपशम तो सब जीवोंके होता ही है। लगभ्य- रचना नहीं कराता, इसलिये इसकी उपचारसेभी कल्पना चररूप भूतशान और नोहन्द्रियावरण कर्मके क्षयोपशम नहीं करना चाहिये। का एक ही अर्थ है।
विग्रहगतिमें मनुष्य-भवोन्मुख जीवके क्षयोपशमरूप
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भुतानका प्राधार
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में विद्यमान पांचों इन्द्रियोंको कारणरूप रोनेके कारण वह नहीं माना जा सकता।. .... कार्यमें उपचार कर सकते है। प्राचार्य पम्पपादने साबमें यह भी स्मरताना साहिये कि यही • "लघुपयोगी मावेन्द्रिवं" सूत्रकी प्याख्या करते हुए, और प्रसंशीको कल्पना शरीरसहित सारी प्राणियों की
शंका की है कि भावेन्द्रियमें इन्द्रियत्वकी कल्पना येते की अपेक्षा है। शरीरसे मेरा वापर्ववारिक गाय ? इसका उत्तर दियाई-कारलपर्मस्य कार्य माहारक शरीर है । तथा प्राशीली कल्पक दर्शनात् यथा पटाकारपरिणतं विज्ञानं घट इति"। औदारिक शरीरमें ही होती है। जिस अजरामें .कीर इस दृष्टांतके अनुसार विग्रहगतिमें पंचेन्द्रियत्सकी कल्पना ही नहीं होते, उस अवस्थामें संशी, असंहीकी कहानही मिथ्या नहीं कही जा सकती। यह नियम मनके विषयमें अर्थ है। इसलिये विग्रहगतिमें इस विसरको रोगना घटित नहीं किया जा सकता।
उचित नहीं है।.बदि किसी तरह विग्रहगति में कहना दूसरी बात यह भी है कि इन्द्रियके दो भेद किये है, की भी जाय तो उस नियमको सीन्द्रिवादि जीवोंमें परित द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय । इन दोनों में किसी एकके करना सर्वथा अनुचित है। होने पर भी, उस जीवको उस इन्द्रिय-वाला कह सकते शंका-प्रसंशोके भावमन यदि लम्भिकपमें माना है। परन्तु यह बात मनके विषयमें घटित नहीं हो सकती। जायगा तो 'प्रसंशिस्व' को जीवके साधारणमात्रों से संशीके लिये द्रव्यमन और उपयोगरूप भावमन (लब्धि- कोई-सा भी भाव नहीं मानना होगा। जबकि भाकलंकने रूप भावमन तो उपयोगके साथ होता ही है ) दोनोंकी इसे प्रौदायिक भावोंमें गर्भित किया है। संबिलको पावश्यकता होती है। तथा दोनोके प्रभावसे प्रसंगी प्रौदायिक मानने के लिये नोइन्द्रि यावरणके सर्वशतिकहलाता है । जैसा कि द्रव्यसंग्रह के टीकाकार ब्रह्मदेवने स्पद कोका उदय मानना अनिवार्य है, जबकि बाधिरूप लिखा है-“एकेन्द्रियास्तेपि यदष्टपत्रपनाकारं द्रव्य- भावमनमें नोइन्द्रियावरणके सर्वपातिस्पर्धकोका उदयामनस्तदाधारण शिक्षालापोपदेशादिप्राहकं भावमन- भावीक्षय विद्यमान है। इसलिये असंशित्व भाव या तो
ति तदुभयाभावादसंझिन एव" । अर्थात्-अदल बौदयिक नहीं होना चाहिये अथवा भावमनको अवंतीके पनके आकार द्रव्यमन और उसके आधार शिक्षालाप लन्धिरूपमें नहीं रहना चाहिये, परन्तु भाकलंक असंउपदेश आदि ग्रहण करने वाला भावमन होता है। शित्वको प्रौदयिक भावोंमें गिनाते हैं। इससे स्पोकि इन दोनोंका जिनके प्रभाव होता है, ऐसे एकेन्द्रियादिक भट्टाकलंक भावमनको प्रसंशीके कैसे भी स्वीकार नहीं जीव असंशी होते हैं। इतना स्मरण रखना चाहिये कि करते । प्राचार्य माधवचन्द्र विद्यने जीव-कापड बड़ी यहाँ जो भावमनका निषेध किया है, उसका तात्पर्य का पृष्ट ३५ पर भी इसी बातका समर्थन किया है। उपयोगरूप भावमनसे ही है, लधिरूप भावमनसे नहीं। समाधान-महाकलंकने 'नोइन्द्रियावरणस्य सर्वउपयोगका सामान्य लक्षण-अर्थग्रहणन्यापार' किया पातिस्पर्धकस्योदयात् हिताहितपरीक्षा प्रत्यसामर्थहै, शिक्षा उपदेश आदि ही मनका व्यापार है। मसंजित्वमौदयिकम्" ऐसा कहा है। यहाँ बहिसका लब्धिका काम शिक्षा उपदेयादि ग्रहण करना नहीं। अर्थ हिताहितमासिके प्रति असमर्थता बननाईपा • इसलिये यहाँ लग्धिरूप भावमनके प्रभावको किसी उसका कारण नोइन्द्रियावरबाके सर्वचाविसकोका
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२९.
अनेकान्त
[वैशाख, वीर-निर्वाण सं०२४३५
उदय बताया है। इसीको यदि दूसरे शब्दोंमें कहा जाय प्राशोंका वर्णन करते हुए लिखा है-"मनोबलपाब: को यों कह सकते हैं-हिताहितमाप्तिमें सामर्थ्य रखने पर्याससंक्षिपंचेन्द्रियेष्वेव संभवति तन्निबन्धन वीर्यान्तवाले नोइन्द्रियावरणके सर्वजातिस्पर्षकोका उदय होनेसे रायनोइन्द्रियावरणक्षयोपशमस्पान्यत्राभावात्" अर्थात् असंशित्वको प्रोदयिक कहा है। यहां 'हिताहित- मनोबल प्रासका अस्तिस्व पर्याप्त संजी पंचेन्द्रियके ही "परीक्षा" पदसे ही भष्टाकलंकका अमिपाय साफ मालम संभव हो सकता है क्योंकि इसप्रकारका नोइंद्रियावरणका होता है कि नोइन्द्रिया वरणका और भी कुछ अन्य क्षयोपशम पर्याप्त संशी पंचेन्द्रियको छोड़कर दूसरी जगह कार्य है, जिसकी यहाँ अपेक्षा नहीं है । अन्यथा संभव नहीं। यहां तन्निबन्धन' पदसे स्पष्ट है कि किसी "नोइन्द्रियावरणस्य सर्वघातिस्पर्द्धकस्योदयात्" सिर्फ खास नोइन्द्रियावरणके क्षयोपशमकी यहाँ विवक्षा है। • इवमा ही पद रखते “हिताहितपरीक्षा प्रत्यसामर्थ्य" इसका यह अर्थ कभी भी नहीं किया जा सकता कि ..पदकी कोई आवश्यकता नहीं थी। इस कथनसे स्पष्ट है संशी पंचेन्द्रियको छोड़कर नोइन्द्रियावरणका क्षयोपशम कि हिताहितपरीक्षा करने वाले उपयोगरूप भावमनका दूसरी जगह नहीं होता । अन्यथा, यहाँ 'तन्निबन्ध पद ही यहाँ कथन है, लन्धिरूप भावमनका नहीं । यदि नडालकर 'वीर्यान्तरायनोइन्द्रियावरणक्षयोपस्यान्यत्रानोइन्द्रियावरणके क्षयोपशमका कार्य सिर्फ हिताहित- भावात्' इतना ही पद डालना चाहिये था । इस कथनसे परीक्षाकी सामर्थ्य ही हो तो फिर 'अर्थग्रहणरूप शक्ति' प्राचार्यका अाशय लब्धिरूप भावमनका कारण नोकिससे होगी १ इसके लिये क्या कारण माना जायगा? इन्द्रियावरणसे नहीं है । इसलिये श्राचार्य माधवचन्द्र
नोइन्द्रियावरणके क्षयोपशमसे दोनों लब्धि और उपयोग त्रैविद्यके मतसे भी असंज्ञीके भावमन माननेमें कोई .. रूप भावमन होते हैं । दोनोंका कारण एक ही है। बाधा नहीं पाती। " कारण एक होने पर भी सम्पर्ण नोइन्द्रियावरणके शंका--अन्य लब्धीन्द्रियोंके होने पर जब कि द्रव्ये
उदयकी विवक्षा नहीं मानी जा सकती। जिस प्रकार न्द्रियोंका बनना अनिवार्य है, तब मनोलन्धिके होने पर चाक्षुष मतिशानावरणके उदयका अर्थ सम्पर्ण मति- द्रव्यमनका बनना अनिवार्य होना ही चाहिये । इसी अनिज्ञानावरणका उदय नहीं माना जा सकता, उसी प्रकार वार्यताको लक्ष्य में रखकर भगवान् पूज्यपपादने लन्धिका - हिताहितपरीक्षा करने वाले नोइद्रियावरणके उदयसे लक्षण 'क्षयोपशविशेष' ही नहीं किया, किन्तु “यत्सलम्भिरूप नोइन्द्रियावरणका उदय कभी नहीं लिया जा निधानादात्मा द्रव्येन्द्रियनिवृतिः प्रति व्याप्रियते" सकता । इसलिये असंज्ञीके लब्धिरूप भावमन रहते हुए अर्थात् जिसके रहनेसे अात्मा द्रव्येन्द्रियकी रचनामें भी नोइन्द्रियावरणके उदयसे असंशित्वको प्रौदयिक लग जाय, इतना और जोड़ दिया है। इसलिये केवल भावमें गर्भित कर सकते है। इस प्रकार असंजीके भावननका अस्तित्व कैसे रह सकता है। सर्वभाविपद्धोका उदयाभावी क्षय और उदय दोनों समाधान-उमास्वामीने संसारी प्राणियोंके दो भेद
समय हो सकते है। इस प्रकार भाकलंकके मतसे "समनकामनस्काः " इस सूत्र द्वारा किये हैं। इस सूत्र। प्रशीके भाषमन माननेमें कोई बाधा नहीं पाती। की व्याख्यामें प्राचार्य पूज्यपादने “पुद्गलविपाकि.... प्राचार्य माधषचन्द्र विद्यदेक्ने प्राणियों के अनुसार कर्मोदयापेतं द्रव्यमनः" तथा "वीर्यान्तरायनो.
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वर्ष
२, किरण ७]
प्रकृतिका संदेश
इन्द्रियावरणक्षयोपशमापेक्षया श्रात्मनो विशुद्धिर्भावमन : ” इस प्रकार लक्षण किया है । यदि श्राचार्यको भावेन्द्रियकी तरह भावमनको भी द्रव्यमनकी रचना में अनिवार्य कारण बतलाना होता तो श्रवश्य* उसका खुलासा करते, जैसा कि "लब्ध्युपयोगी” सूत्रकी व्याख्या में किया है। यदि यह कहा जाय कि दो जगह उसी बातको लिखने से क्या फायदा ? भावेन्द्रियके किने गयै लक्षणोंको यहाँ भी घटित कर सकते हैं। परंतु यह कहना भी ठीक न होगा; क्योंकि रचना - सामान्य दोनों जगह मनमें भी और इन्द्रियों में भी। ऐसी अवस्थामें किसी खास कारणको पहिले न कहकर पश्चात् कहने में कोई खास हेतु नहीं मालूम होता । तथा "समनस्का मनस्काः” सूत्रमें द्रव्यमन और भावमनके लक्षण पृथक् लिखने की भी श्रावश्यकता नहीं थी । द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रियके लक्षणोंसे ही कार्य चल सकता था। इससे मालूम होता है कि आचार्य द्रव्यमन और भावमनके लक्षणको द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रियके लक्षणोंसे पृथक् रखना चाहते थे ।
RE?
सूत्रकी व्याख्या के लिये पृथक् लक्ष्य यदि मान भी लिया जाय तब भी "संसारिणखस्थावराः” सूत्रके पहिले "समनस्काम नस्काः " सूत्र देने की कोई आवश्य"कता नहीं थी । इन्द्रियोंके भेद और लक्षण करने वाले सूत्रोंके बाद इस सूत्रको दे सकते थे, वहाँ इस सूत्रका स्थान और भी संगत होता । तथा "संसारिणस्रस्थावरा" के स्थान पर सिर्फ "स्थावराः" इतन सूत्र से ही कार्य चल जाता। एक अक्षरकी बचतको पुत्रोत्पत्ति सदृश लाभ समझनेवाले सूत्रकार चार मह की बचतसे क्यों न लाभ उठाते ! परन्तु प्राचार्यको दोनों प्रकरण अलग अलग रखना इष्ट था, ऐसा ज्ञात होता है। इसलिये इन्द्रियोंमें किंगे लक्षणों को 'मन' के किये गये लक्षणोंमें भी स्वीकार कर लिया जाय यह नहीं माना जा सकता ।
इन प्रमाणोंके द्वारा यह सिद्ध हो जाता है कि लब्धिरूप भावमन सभी सँसारी प्राणियोंके होता है । इसलिये श्रुतज्ञान सभी संसारी प्राणियोंके होता हैं; इसमें बाधा नहीं आती ।
प्रकृतिका संदेश
पराधियोंको दण्ड देनेमें प्रकृति जरा भी संकोच नहीं करती। प्रकृति उच्च और गम्भीर स्वरके साथ चिल्ला चिल्ला कर कह रही है कि "वह जाति - जिसके कि शासक विलासितामें इवें हुए हैं, कामोन्मादमें सराबोर हैं, इन्द्रिय-परतामें तरवतर है, दुर्बलों, दरिद्रों और अनाथोंसे घूया करते हैंजीवित नहीं रह सकती । कमज़ोर जातियों पर दाँत लगाये, टकटकी बान्धे, मुँह फाड़कर बगुलोंके समान उन्हें उदरस्थ करनेकी कामना रखने वाली बलवती जातियाँ जीती न रहेंगी। जो जाति केवल बल और तलवार के ही साम्राज्यको मानती है वह तलवारसे ही मरेगी। न्याय, धर्म और सदाचारके अतिरिक्त में किसी भी देश या जातिकी परवाह नहीं करती। ऐ संसारकी वर्तमान जातियो, यदि तुम मुझे ध्यानमें न रक्खोगी तो, बाबिलौन, यूनान और रोमकी तरह तुम भी सदाके लिये अन्तर्हित हो जाओगी! मैं न्यायी धार्मिक और पुण्यात्मा राष्ट्र चाहती हूँ ।। मुझे सीधे सादे स्वभावके, स्वच्छ हृदयके, निर्विकार दिलके तथा जवानके सच्चे मनुष्य प्रिय है। मैं ऐसे लोगोंसे प्यार करती हूँ जिन्हें सत्य जीवनसे भी प्यारा है। मैं इतना ही चाहती हूँ। ऐ मनुष्यकी सन्तानो, क्या तुममें मुझे तृप्त करनेकी शक्ति है ! यदि तुम मुझे सन्तुष्ट कर सकोगे, तो मैं तुम्हें सदाके लिये अजर-कामर और अजेय कर दूंगी; जब तक सूर्य में ताप, चन्द्रमामें ठंडक, नममें नक्षत्र और शाकाथमें नील वर्ण है— नहीं नहीं जब तक कालका सोत बहता है, तब तक मैं तुम्हारी यशः कीर्ति और सुख्यातिकी दुन्दभिः बजाती रहूँगी ।" — नीति-विज्ञान, १० १३१।"
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ज्ञान-किरण
( लेखक - श्री० 'भगवत्' जैन )
एक-दूसरेका शत्रु बन गया ! भ्रातृत्व तककी हत्या करनेके लिए प्रस्तुत ! इसका सबब थीएक सुन्दरी ! लेकिन जब ज्ञान-किरणका उदय हुआ, तब .....?
तब दोनों तरुण- साधुके रूपमें जगहितकी भावनाका प्रस्तार कर रहे थे ! बाँछनीय, पवित्र ज्ञान-किरण !!!
[१]
इससे पहिले उन्होंने और कुछ देखा -पहिचाना ही नहीं ! लम्बे-लम्बे दिन आते, रातें आतीं और चली जाती ! सप्ताह, मास, वर्ष बनकर बहुत-सा समय निकल गया ! लेकिन उन्होंने उसकी ओर देखा तक नहीं ! देखते-विचारते तो तब, जब अवकाश होता ! दैनिक कार्यक्रम ही इतना सीमित, इतना व्यवस्थित और इतना नियंत्रित था कि विद्या मन्दिर के अतिरिक्त भी पृथ्वी पर कुछ और है, इस तकका उन्हें पता न लगा ! अध्यापककी गम्भीर - मुद्रा और पाठ्यपुस्तकें बस, इन्हीं दो तक उनका ध्यान, उनकी दृष्टि सीमित रही !
कितना परिवर्तन हो चुका था - अव ! जब महाराजने साक्षर बनाने के लिए सौंपा था, तब दोनों अबोध बालकके रूपमें थे ! लेकिन भाज... ? – वे दोनों स्मर-स्वरूप, नव-यौवन, महा विद्या विभूषित पण्डितराज बनकर महाराजके सामने जा रहे हैं !
*
अध्यापक सागरघोषके हर्षोन्मत्त-हृदयकी क्या आज कल्पना की जा सकती है..? – उन्हें एक अवर्णनीय-सुखका अनुभव हो रहा है ! वह
आज अपने कठिन परिश्रमका दरबार में प्रदर्शन कराएँगे ! आजका दिन उनके लिए सफलताका दिन है !
सिद्धार्थ नगर के महाराज क्षेमंकरके ये दो पुत्र हैं - एक देश - भूषण दूसरे कुल भूषण ! [ २ ] 'महाराजकी जय हो !'
एक हर्ष-भरे जय घोपके साथ दरबार में कुछ व्यक्तियोंने प्रवेश किया !
महाराजने देखा — उन्हींके श्रात्मज तो हैं ! खुशीका पारावार नहीं ! चिरपिपासित - उत्कंठा नर्त्तन कर उठी !
क्या इससे भी अधिक कोई हर्षका अवसर होगा ? महाराज अपनी पद-मर्यादा भूल गए, वात्सल्यने उन्हें प्रोत-प्रोत कर दिया ! सिंहासन पर वे स्थिर न रह सके ! उतरे ! स-भक्ति दोनोंने चरण स्पर्श-पूर्वक प्रणाम् किया ! महाराजने किया प्रगाढ़ - प्रेमालिंगन ! - और सब यथा स्थान बैठे ! अब महाराज, सागरघोषकी तरफ मुखातिब हुए एक कृतज्ञता भरी नजरसे उनकी ओर देखा, कुछ मुस्कराये भी उन्होंने करबद्ध नमस्कार किया !
!
इसके बाद – बातें प्रारम्भ हुई ! पहिले राज
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वर्ष २, किरण ]
शान-किरण
[३]
कुमारोंके विद्याध्ययनकी ! फिर कुमारोंकी योग्यता- फिर उपाय...१ च्या उसके लिए उसे मैदान खाली परीक्षा-सम्बन्धी ! तदुपरान्तमहाराजने राजकुमारों- कर देना पड़ेगा ?--यह सुख-संकल्प, मधुर की विवाह-चर्चामें योग दिया-क्या वे सब राज- भाकांक्षा क्या यों ही छोड़ दी जा सकेगी? और कन्याएँ आगई, जो राजकुमारोंके लिए तजवीज फिर वह इन्हें छोड़ भी सकता है क्या ? कदापि की गई हैं ?
नहीं ! हरगिज नहीं ! वह भव इस रास्तेसे तिल__ 'जी, महाराज! आज्ञानुसार सारा प्रबन्ध भर भी नहीं हट सकता ! अब यह सब उसके उचित रीतिसे किया जा चुका है ! सभी राजकुमा- वशकी बात भी तो नहीं !.. भात-स्नेह..?-- रियाँ स-सन्मान ठहरा दी गई हैं...।'–सचिव ऊँह ! उस पर कहाँ तक ध्यान दिया जा सकता महोदयने अ-विलम्ब उत्तर दिया।
है? वहीं तक न, जहाँ तक प्रणय-बलिदानका 'तो...? राजकुमारोंको अवसर दिया जाना अवसर न पाए ! फिर उसे भी तो सोचना भावचाहिए ?'–महाराजने कहा।
श्यक है, सब मैं ही सोचूं ? यह हो कैसे सकता 'अवश्य !! प्रधान सचिव बोले ।
है ! वह मेरे पथका बाधक न बने, हट जाये, यही ठीक है ! परनः...?-वरनः मैं उसे जानसे मार
दूंगा। और शादी मेरे ही साथ होकर रहेगी!...' प्रासादके एक भव्य झरोखे पर राजकुमारोंकी और उधरनजर टिकी ! एक अनिंद्य-सुन्दरी, लावण्यकी उधर छोटे साहिब--राजकुमार कुलभूषण-- प्रतिमा, षोड़शी-बाला बैठी, राज-पथकी ओर देख सोच रहे हैं-'साक्षात् अप्सरा तो है ही ! रही थी!
अगर नारी ही माना जाय तो सौन्दर्यकी सीमा ! पद, गति-हीन ! वाणी स्तब्ध ! और हृदय-? इससे अधिक-सुन्दर कोई और हो सकती है, मुझे विक्षुब्ध ! बस, देखते-भर रह गए-वे दोनों! इसमें सन्देह है, विवाद है, मतभेद है ! मेरा
देशभूषण सोचने लगे-'कितनी मनोमुग्धकर विवाह-संस्कार होगा तो इसीके साथ ! मुझे दूसरी है यह ?...कैसा रूप पाया है-इसने ?...यही अन्य राज-कन्याओंसे कोई प्रयोजन, कोई वास्ता मेरे योग्य है ! मेरा पाणि-ग्रहण इसीके साथ नहीं ! मेरा मकसद--मेरा विचार-अनेक शादी होना चाहिए !...हजार शादियां भी कुछ नहीं, करनेका नहीं, मैं एक शादी करना चाहता हूँ ! अगर यह मेरी अपनी न हुई तो ?...
लेकिन मनकी ! तबियतकी ! और ऐसी, जो सहसा समीप खड़े हुए कुलभूषणकी ओर हजारों में एक हो! इसीलिए तो हमें यह मौकानजर जा पड़ी ! देखा तो वह भी एकटक! कीलित- यह अवसर--दिया गया है कि हम इच्छितदृष्टि !...भ्रमित-विचारोंको ठेस लगी! मन कुछ पत्नी-निर्वाचन कर सकें ! फिर भी, इतने अधिदूसरी तरहका हो उठा!-'अगर कुलभूषण इस कार पर भी, इतनी स्वतंत्रता पर भी हम निष्ट प्रेमके मैदानमें सामने आए तो... ?-तो." रहें तो यह अपनी मूर्खता होगी बड़ी-मूर्खता!...'
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अनेकान्त
[वैशाख, वीर-निर्वास सं०२४६५
-सोचते जा रहे थे, शायद अभी बहुत कुछ कर दिया ! जन्म-जात-स्नेह, विद्यार्थी-जीवनकी सोचते। पर को-भाईने जो संक्षिप्त-रष्टि इनकी अभिमता! चिर-प्रेम, सब-कुछ क्षण भरमें अदृश्य !! मोर फेरी कि विचार-धाराका रुख पलट पड़ा! दोनों अचल, भकम्प वहीं, उसी वातायनके बोला एक-दूसरे से कोई कुछ नहीं! जरूरत ही न सामने, खड़े रहे ! जैसे सजीव न हों, निर्जीव हों, महसूस हुई किसीको कुछ ! जैसा सोचना ही पाषाण हों ! और भी खड़े रहते-कुछ देर ! हृदयदोनों का सब-कुछ हो!--'अरे ! भाई साहब भी की, नेत्रोंकी प्यास बुझाने, या कहें बढ़ानेके लिए ! तो...?--लेकिन यह उनकी अनुचित चेष्टा है ! अगर उसी वक्त, पीछेकी ओरसे याचक-समुदाय उन्हें कुछ गम्भीरतासे भी काम लेना चाहिए ! विरवावलि न गा उठता !प्रेम करें, बा-खुशी, शौकसे करें ! पर थोड़ा विचार 'महाराजाधिराज सिद्धार्थ-नगर-नरेश महाराज कर तो, किप्तसे करना चाहिए किससे नहीं! यो क्षेमकर, रानी विमला उनके ये युगल-चाँद-सूर्यसे ही जिधर मुह उठा, उधर ही ! यह क्या ?-थोड़ा पुत्र, तथा यह झरोखेमें स्थित रम्भा-सी सुकुमारी मुझे भी रास्ता देंगे कि नहीं, मैं क्यों हटने लगा भगिनी कमलोत्सवा चिरंजीव होउ...!' अपने पथ से ? वे ही न हट जाएँ ! मैं छोटा हूँ 'ह्य ! यह क्या ?'-दोनों ही कुमारोंके मुँहसे कि वे ? प्रेम करना वे ही तो जानते हैं, दूसरा तो एक साथ निकला ! कोई है--ही नहीं वाह ! खूब रहे ! पहिले वे चन तनी हुई भृकुटियाँ, स्वभाव पर आगई ! लें, फिर बचे-खुचेका मालिक मैं ? यह हरगिज विकारी-नेत्र भूमिकी ओर गए ! घोर पाप !... नहीं हो सकता ! वह बड़े हैं, उनका बड़प्पन, उन्नत-शलके शिखरसे गिर गए हों, अचानक उनकी गुरुता तभी तक है जब तक मैं उस बनाघात हुआ हो, या मर्म-स्थानमें असह्य-यंत्रणा रूपमें उन्हें मानता हूँ ! वरनः इस प्रेम-युद्धमें दी गई हो! आहत-व्यक्तिकी तरह दोनों कराह वे बुरी तरह हारेंगे, मैं कठोर से कठोर शक्तियाँ भी उठे। अड़ानेसे बाज न आऊँगा ! भले ही मुझे भात- अब दोनोंकी विचार-धारा एक होकर एकरकसे हाथरॅगने पड़ें! लेकिन मैं पीछे कदम न दिशाकी ओर बह रही थीहटाऊँगा। इस सुन्दरीका गठ-बन्धन होगा मेरे ही '...उँह ! कितना छल-मय है--यह संसार ? साथ ! देखेंगे कौन रोकेगा-तब ?...' मायावी...! यहीं पर ऐसे घृणित, अ-श्रवणीय
दोनों ही की उप-विचार-धाराएँ अन्तमें एक- विचार उत्पन्न हो सकते हैं ! ओफ़ ! मोहकी मुख होकर वेगके साथ, दूषित-ढालू-पथकी ओर महत्ता?--स्नेहके बन्धन...? स्वार्थी-प्रेम...?बहने लगी ! मुखाकृति पर रौद्रता अधिकृत होगई! कितने दूषित-विचार उत्पन्न कर दिए तूने !...कुछ दोनों ही प्रेम-पूर्ण-हृदय कुछ विरसता-सी, कटुता- ठिकाना है ? प्राण-से भ्राहकी हत्याके लिए उद्यत सी अनुभव करने लगे! एक घातक संघर्स-सा हो गया ! किसके लिए ?--अपनी ही बहिनके छिड़ गया, जिसने भंवरंगकी कोमलताका ध्वंश लिए ! हिश्!
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वर्ष २, किरण ७ ]
बहिन...? - - कमलोत्सवा हम दोनोंकी बहिन है ! अहह ! विद्याध्ययन ! तू ने परिवार तफके परिचयसे मंचित रखा ! हम लोगोंने यह तक न जाना, परिवार में कौन-कौन हैं ? अध्यापक, पाठ्यपुस्तकें, और विद्या मन्दिर मे ही हमारी दुनियाँ रहे !
ज्ञान-किरण
उफ् ! कितना जघन्य पाप कर डाला - हम लोगोंने ! अपनी सहोदरा भगिनी पर कुदृष्टि ! कितना बड़ा धोखा खाया, जिसका हिसाब नहीं ! लेकिन अब... ?
पश्चात्तापके अतिरिक्त भी एक उपाय शेष है, जिसके द्वारा भूलका सुधार हो सकता है, वह -- पापका प्रायश्चित्त !
-तो
बस, 'हमें अब वही करना है !' और वे चल दिए --बरौर राज- कन्याओंका निरीक्षण किए हुए !
[ ४ ]
'आखिर बात क्या हुई ? यह रंगमें भंग, रसमें विष कैसा ?"
सब चकित ! किसीकी जिज्ञासाका उत्तर नहीं ! स्वयं महाराज कारण समझने में असमर्थ हैं कि अनायास राजकुमार विरक्त हुए क्यों ?... वे राजकन्याओं का दिग्दर्शन करने गये थे, विवाहसंस्कारका आयोजन किया जा रहा था ! और इसी बीच सुना जाता है कि दोनों राजकुमार विश्वबन्धन-निराकरणार्थ विपिन-विहारी होने जा रहे हैं! ती आश्चर्य !
L
चले जा रहे हैं। सभी हृदयोंमें विचित्र कोलाहल, धनोला ताडव और निराला संघर्ष हो रहा है !
और आगे बढ़ते हैं! देखते हैं और जो देखनेमें जाता है, वह महाराजके स्नेही मनको प्रकम्पित किए बगैर नहीं रहता। वे मन्त्र-मुग्धकी तरह देखते-भर रह जाते हैं ! हृदयकी मूर्तिमान् होने वाली सुखद अभिलाषाएँ भविष्य के गर्भ में ही नष्ट हो जाती हैं ! कैसा कष्ट है, महान् कष्ट !
..दोनों तरुण- राजकुमार बैराग्य वेशंमें, विश्वविकार - वर्जित, परम शान्ति-मुद्रा रखे, तिष्ठे हुए हैं! धन्य !!! -
सभी आगन्तुकों - उस वंदनीयता के आगेश्रद्धा मस्तक झुक गए ! महाराज भी बच न सके ! हृदय पुत्र-शोक में डूब रहा है ! मनोवेदना मुखपर प्रतिभासित हो रही है ! ... तनो- बदनकी उन्हें ख़बर नहीं, कब वे बैठे, कब तपोनिधि-योगिराजका व्याख्यान प्रारम्भ हो गया ?
उन्होंने कुछ अस्पष्ट-सा मुना'संसार भ्रान्तिमय है ! यहाँ प्रतिपल दूषित विचारों का सृजन होता रहता है ! .......
'अबतक हमने ज्ञानार्जन किया था | लेकिन यथार्थ ज्ञान-किरणका उदय न हुआ था ! अब हृदयाकाशमें ज्ञान - किरणें प्रस्फुटित हो उठी हैं ! अब दुषित- विचारोंका, संसारका हमें भय नहीं ! यही निर्भय अवस्थाका वास्तविक मार्ग है !.....
लेकिन महाराजके मोही-हृदयमें ज्ञान-किरण प्रविष्ट न हुई ! शोकार्त हो, उन्होंने ठान लिया
अपार जन-समूहको साथ लिए, महाराज बढ़े आमरण अनशन !!!
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ख -(लेखिका-श्री० लजावती जैन) संसारकी गति षड़ी विचित्र है, सुखके बाद दुख तरंगें मनको लुभाती हों, जहाँ मनुष्य मान और
और दुखके बाद सुख पाते रहते हैं। बल्कि विलासिताके हिंडोलेमें झूल रहा हो. और जहाँ यों कहिये कि संसारमें सुखी जीवोंकी अपेक्षा, तृष्णारूपी जलके प्रबल प्रवाहमें गिर कर मनुष्य दुखी जीवोंका क्षेत्र बहुत विस्तृत है । जनसमुदाय- बेसुध हो रहा हो, वहाँ रोग समझना कठिन ही में अधिक संख्या आधिव्याधि से परिपूर्ण है । दुख- नहीं, किन्तु असम्भव जैसा है। अपनी आन्तरिक का मुख्य कारण है वासना । हजारों प्रकारकी सुख- स्थितिका ज्ञान न रख सकने वाले व्यक्ति बिल्कुल सामग्री एकत्रित होने पर भी सांसारिक वासनाओं- नीचे दर्जेके होते हैं । जो जीव मध्यम श्रेणीके हैं, से दुखकी सत्ता भिन्न नहीं होती । प्रारोग्य शरीर, जो अपनेको त्रिदोषाक्रान्त समझते हैं-अपनेको लक्ष्मी, गुणवती सुन्दर स्त्री और सुयोग्य सदाचारी त्रिदोषजन्म उप्रतापसे पीड़ित मानते हैं और सन्तान आदिके प्राप्त होते हुए भी दुःखका संयोग- जो उस रोगके प्रतिकारकी शोधमें हैं, उनके लिये कारण कम नहीं होता । इससे यह स्पष्ट है कि आध्यात्मिक उपदेशकी आवश्यकता है। दुःखसे सुखको भिन्न करना और केवल सुख-भोगी 'अध्यात्म' शब्द 'अधि' और 'आत्म' इन दो बननेकी इच्छा रखना दुःसाध्य है।
शब्दोंके मेलसे बना है। इसका अर्थ है आत्माके सुख-दुःखका समस्त आधार मनोवृत्तियों पर शुद्ध स्वरूपको लक्ष्य करके उसके अनुसार व्यवहार है। महान धनी एवं ज्ञानवान व्यक्ति भी लोभ तथा करना । संसारके मुख्य दो तत्व हैं--जड़ और वासनाके वशीभूत होकर कष्ट उठाता है । निर्धन- चेतन, जिनमेंसे एकको जाने बिना दूसरा नहीं से निर्धन व्यक्ति भी सन्तोषवृत्ति के प्रभावसे मनके जाना जा सकता । ये आध्यात्मिक विषयमें अपना उद्वेगोंको रोककर सुखी रह सकता है। मनोवृत्तियों- पूर्ण स्थान रखते हैं। का विलक्षण प्रवाह ही सुख दुःखके प्रवाहका मूल आत्मा क्या वस्तु है ? आत्माको सुख-दुखका है। जो वस्तु आज रुचिकर और प्रिय मालूम होती अनुभव कैसे होता है ? सुख-दुखके अनुभवका है, वह ही कुछ समय बाद अरुचिकर प्रतीत होने कारण आत्मा ही है या किसी अन्यके संसर्गसे लगती है। इससे यह बात स्पष्ट है कि बाघ पदार्थ आत्माको सुख-दुखका ज्ञान होता है ? आत्माके सुख-दुखके साधक नहीं हैं, बल्कि उनका आधार साथ कर्मका क्या सम्बन्ध है ? वह सम्बन्ध कैसे हमारी मनोवृत्तियोंका विचित्र प्रवाह ही है। होता है ? तथा आदिमान है या अनादि ? यदि ___ राग, द्वेष और मोह ये मनोवृत्तियोंके विशेष- अनादि है तो उसका उच्छेद कैसे हो सकता है ? रूप अथवा इन्हीं पर समस्त संसार चक्र चल रहा कर्मके भेद-प्रभेदोंका क्या हिसाब है ? 'कार्मिक है। इस त्रिदोषको दूर करनेका सरल उपाय सत्- बन्ध, उदय ओर सत्ता कैसे नियम बद्ध हैं ? अध्याशास्त्रावलोकनके अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है। त्ममें इन सब बातोंका यथेष्ट विवेचन है और इनकिन्तु मनुष्यको मैं रोगी हूँ, मुझे कौनसा रोग है, का पूर्णरूपसे परिचय कराया गया है। यह शान कठिनतासे होता है । जहाँ संसारकी सुख इसके अतिरिक्त अध्यात्मशास्त्रमें संसारकी
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वर्ष २, किरण ७]
असारता का हूबहू चित्र अङ्कित किया गया है। इस शास्त्रका मुख्य उद्देश्य भिन्न-भिन्न रूपसे उपदेश द्वारा भावनाओं को स्पष्टतया समझाकर मोह-ममता के ऊपर दबाव डालना है । और मोह-ममताके दूर होने पर ही सुख-दुख समान हो सकते हैं।
बुरे आचरणोंका त्याग, तत्व अध्ययनकी इच्छा, साधु-सन्तोंकी संगति, साधुजनोंके प्रति प्रीति, तत्त्वोंका श्रवण, मनन तथा अध्ययन, मियादृष्टिका नाश, सम्यकदृष्टिका प्रकाश, राग-द्वेष, क्रोधमान, माया, आदिका त्याग, इन्द्रियोंका संयम, ममताका परिहार, समताका प्रादुर्भाव, मनोवृत्तियों का निग्रह, चित्तकी निश्चलता, आत्मस्वरूपमें रम गता, सद्ध्यानका अनुष्ठान, समाधिका श्राविर्भाव, मोहादिक कर्मोंका क्षय और अन्त में केवलज्ञान तथा निर्वाणकी प्राप्ति | इस प्रकारका आत्मोन्नति का क्रम अध्यात्ममें भली भाँति दिया गया है ।
अनन्तज्ञानस्वरूप सच्चिदानन्दमय आत्मा कमोंके संसर्गसे शरीररूपी अंधेरी कोठरीमें बन्द है। कर्मके संसर्गका मूल अज्ञानता है, समस्त शाखावलोकन करके भी जिसको आत्माका ज्ञान प्राप्त न हुआ हो उसको अज्ञानी ही समझना उचित है। क्योंकि श्रात्मिकज्ञानके बिना मनुष्यका उच्च से उच्च ज्ञान भी निरर्थक है। और अज्ञातासे जो दुःख होता है वह आत्मिकज्ञान द्वारा ही क्षीण हो सकता है। ज्ञान और अज्ञानमें प्रकाश और अन्धकारके समान बड़ा अन्तर है। अंधकारको दूर करनेके लिये जिस प्रकार प्रकाशकी अत्यन्त आवश्यकता है उसी प्रकार अज्ञानको दूर करने के लिये ज्ञानकी आवश्यकता है। आत्मा जब तक कपायों, इन्द्रियों और मनके आधीन
सुख-दुख
REG
रहता है, तबतक उसको सांसारिक सुख-दुखका अनुभव होता रहता है। किन्तु जब वही इनसे भिन्न हो जाता है— निर्मोही बन अपनी शक्तियोंको पूर्ण रूपसे विकसित करनेमें लग जाता है-सब 'मुमुक्षु' कहलाता है और अन्तको साधनाकी समाप्ति कर 'सिद्धात्मा' अथवा 'शुद्धात्मा' बन जाता है।
क्रोधका निग्रह क्षमासे है, मानका पराजय मृदुतासे, मायाका संहार सरलतासे और लोभका विनाश संतोषसे होता है। इन कषायोंको जीतनेके लिये इन्द्रियोंको अपने वशमें करना आवश्यक है । इन्द्रियों पर पूर्णतया अधिकार जमानेके लिये मनःशुद्धिकी आवश्यकता होती है। मनोवृत्तियोंको दबानेकी आवश्यकता होती है। वैराग्य और सत्क्रियाके अभाव से मनका रोध होता हैमनोवृत्तियाँ अधिकृत होती हैं। मनको रोकने के लिये राग-द्वेषका दबाना बहुत आवश्यक है और राग-द्वेष के मैलको धोनेका काम समतारूपी जल करता है । ममता मिटे बिना समताका प्रादुर्भाव नहीं होता । ममता मिटानेके लिये कहा है:
"नित्यं संसारे भवति सकलं यनयनगम्” अर्थात् — नेत्रोंसे इस संसार में जो कुछ दिखाई देता है वह सब अनित्य है--क्षण भंगुर है । ऐसी अनित्यभावना और इसीप्रकार दूसरी अशरणआदि भावनाएँ भावनी चाहिएँ । इन भावनाओंका वेग जैसे जैसे प्रबल होता जाता है वैसे ही वैसे ममत्वरूपी अन्धकार क्षीण होता जाता है और समताकी देदीप्यमान ज्योति जगमगाने लगती है। जब समताका आत्मामें प्रादुर्भाव हो जाता है तो सुख-दुख समान जान पड़ते हैं और मनुष्यमें प्रबल शान्ति विराजने लगती है।
कृपय
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[ले०-५० सूरजचंरजी डाँगी 'सत्यप्रेमी'] हमारा चैन-धर्म गुणसान। परम भहिसाका प्रतिपादक सुखका सत्य विधान । हमारा चैन-धर्म गुणखान ।।
हटाये सब प्रमाद-व्यवहार, 'सम्यग्दर्शन-शान नाचरण, कहा मुक्तिका द्वार।
पूर्व संयमका पाया सार । संयम-तप-सेवा बतलाया, विश्व-शांतिका सार | निर्विकार बन मार भगाया क्रोध-लोभ-उल-मान अमरा-संस्कृतिका ले प्राधार,
हमारा जैन-धर्म गुणखान ॥ कर्म-काण्डोंमें किया सुधार । करताका करके संहार,
विविध नयों का द्वन्द देखकर बना मनुज दिग्ग्रान्त । "सिखाया सब जीवों पर प्यार। अनिरपेक्ष स्याद्वाद सिखाकर नष्ट किया एकान्त ॥ कर्मचेतनामें समझाया, सरल भद-विज्ञान । द्रव्य तो पृथक पृथक् स्यादेक, हमारा जैन-धर्म गुणखान ॥
किन्तु पर्याय अनेकानेक । (२)
__ मिटाई ध्रुव-अध्रुवकी टेक, त्याग और वैराग्य-भावमें समझ जगतका प्राण।
कहा पाखण्ड सदा अतिरेक । वीतरागता ध्येय बनाया जीवनका कल्याण ॥ शुद्ध समन्वय-शक्ति बताई सद्विवेक पहिचान । शरण उत्कृष्ट सिद्धभगवन्त,
- हमारा जैन-धर्म गुलखान ॥ हमारे व्यक्ति-देव महन्त । सगुरु निर्मन्य उच्चतम सन्त,
वर्णाश्रम या यज्ञ-नाम पर फैले अत्याचार । दयामय प्रेमपंथ सुखवन्त । परमाधार चतुर्मगल हैं, शिवमय मोद-निधान ॥ प्रात्मशुद्धिके निर्मल बलसे उनपर किया प्रहार ॥ हमारा जैन-धर्म गुणखान ॥
युद्ध भी रहा दया का अंग, कभी हो सका न संयम भंग ।
पड़े आकर जब कठिन प्रसंग निर्गुण-सगुण-जिनेश्वर पाठक और संघ-सरदार,
बनाया उचित धर्मका ढंग। . जगमें व्याप्य समस्त सन्तजन परम इष्ट 'नवकार'
सप्तभगियोंका उत्पादन सत्य उदार महान । हमारा महामंत्र सुख-धाम, अनवरत अवलम्बन अभिराम |
हमारा जैन-धर्म गुलखान ।। किया करते हम सदा प्रणाम,
हृदय पाता विशुद्ध विश्राम । सभी धर्म वे भी महान हैं सत्य जिन्होंका प्राण । विनाशक अष-संहारक पंचशक्तिका ध्यान। जिनने समय समय पर पाकर किया लोककल्याण ॥ हमारा जैन-धर्म गुलखान ।
किन्तु हम बने रूढ़ि के दास,
हृदयमें हुमा दम्भका वास । राग देवकी प्रन्थि भेदकर दूर किया दुःस्वार्थ । द्वेष, अघप्रसर, मोह, उच्छ्वास बोड़ा जब मिभात्त-दुरामह, मिला सत्व परमार्थ ॥
हमारे पास अन्ध-विश्वास । सीखकर प्रथम धर्म सागार,
द्रके सत्यप्रेमकी ज्योत्स्ना हो कि विहान । लिये फिर पंच महाबत पार ।
हमारा जैन-धर्म गुणखान । Recem
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अनुसन्धान
श्रीपूज्यपाद और उनकी रचनाएँ
[ सम्पादकीय ]
नसमाज मे 'पूज्यपाद' नामके एक सुप्रसिद्ध प्राचार्य विक्रमकी छटी ( ईसाकी पाँचवीं शताब्दी में हो गये हैं, जिनका पहला अथवा दीक्षानाम 'देवनन्दी' था और जो बादको 'जिनेन्द्रबुद्धि' नामसे भी लोक में प्रसिद्धि को प्राप्त हुए हैं। आपके इन नामोंका परिचय अनेक शिलालेखों तथा ग्रन्थों आदि परसे भले प्रकार उपलब्ध होता है। नीचे के कुछ अवतरगा इसके लिये पर्याप्त है यो देवनन्दिप्रथमाभिधानो
:
बुद्ध्या महत्या स जिनेन्द्रबुद्धिः ! श्रीपूज्यपादोऽजनि देवताभिर्यत्पूजितं पादयुगं यदीयम् ||३||
- श्रीवणबेलगोल शि० नं० ४० (६४) प्रागभ्यधायि गुरुणा किल देवनन्दी, बुद्ध्या पुनर्विपुलया स जिनेन्द्रबुद्धिः । श्रीपूज्यपाद इति चैष बुधैः प्रचये, यत्पूजितः पदयुगे वनदेवताभिः ॥२०॥
- भ० शि० नं० १०५ (२५४)
श्रवणबेलगोलके इन दोनों शिला वाक्यों परले, जिसका लेखनकाल क्रमशः शक सं० २०३७५ १३२० है, यह साफ जाना जाता है कि आचार्य महोदयका प्राथमिक नाम 'देवनन्दी' था, जिसे उनके गुरुने रक्खा था और इसलिये वह उनका दीचानाम है, 'जिनेन्द्रबुद्धि' नाम बुद्धि की प्रकर्षता एवं विपुलवाके कारण उन्हें बादको प्राप्त हुआ था और जबसे उनके चरणयुगल देवताओंसे पूजे गये थे तबसे वे बुधजनों द्वारा 'पूज्यपाद' नामसे विभूषित हुए है। श्रीपूज्यपादोद्धृतधर्मराज्यस्ततः सुराधीश्वरपूज्यपादः । यदी दुष्पगुणानिदानी वदन्ति
शाखाणि तदुद्धृतानि ॥१५॥ धृतविश्वबुद्धिरयमत्र योगिभिः
कृतकृत्यभावमनुषिअद्दुच्चकैः । जिनबद्धभूव यदनङ्गचापहृत्स
जिनेन्द्रबुद्धिरिति साधुवर्णितः ॥१६॥
- १० शि० ० १०८ (२५८)
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अनेकान्त
वैशाख, वीर निर्वाण सं०२:४६५
में कार्य हुए इन शिला- जागते प्रमाण हैं । भट्टाकलंकदेव और श्रीविद्यानन्द जैसे बास भारस्यपादने धर्मराज्यका उद्धार बड़े बड़े प्रतिष्ठित प्राचार्योने अपने राजयार्तिकादि प्रयोंकिया-लोकमें धर्मकी पुनः प्रतिष्ठा की थी-सीसे में आपके वाक्योका-सर्वार्थसिद्धि प्रादिके पदोंकाप्रापसानों के अधिपति-बारा पूजे गये और 'पूज्य- खुला अनुसरण करते हुये बड़ी श्रद्धाके साथ उन्हें स्थान पाद मालाये । आपके विद्याविशिष्ट गुणोंको आज भी ही नहीं दिया बल्कि अपने अन्योंका अंग तक प्रापबारा उद्धार पाये हुए-रचे हुए-शास्त्र बतला बनाया है। दे। उनका खुला गान कर रहे हैं । श्राप जिनेन्द्रकी
जैनेन्द्र-व्याकरण तरह विश्वयुद्धिके धारक-समस्त शास्त्र विषयोंके पारं- शब्द-शास्त्र में आप बहुत ही निष्णात थे । आपका गत-ये और कामदेवको जीतनेवाले थे, इसीसे आपमें 'जैनेन्द्र' व्याकरण लोकमें अच्छी ख्याति एवं प्रतिष्ठा ऊँचे दर्जेके कल्य-मारको धारण करनेवाले योगियों- प्रात कर चुका है-निपुण वैयाकरणोंकी दृष्टिमें सूत्रोंके ने आपको ठीक ही 'जिनेन्द्रबुद्धि' कहा है । इसी लापवादि के कारण उसका बड़ा ही महत्व है और इसीशिलालेखमें पूज्यपाद-विषयक एक वाक्य और भी पाया
पाया
है
से भारतके आठ प्रमुख शान्दिकोंमें आपकी भी गणना जाता है, जो इस प्रकार है:
है कितने ही विद्वानोंने किसी प्राचार्यादिकी प्रशंसाश्रीपूज्यपादमुनिरप्रतिमौषध
में उसके व्याकरण-शास्त्रकी निपुणताको श्रापकी उपमा दिजीयादिदेहजिनदर्शनपतगात्रः। दी है। जैसा कि श्रवणबेल्गोल के निम्न दो शिलावाक्योंयत्पादधीतजलसंस्पर्शप्रभावात्
से प्रकट है:कालायसं किल तदा कनकीचकार ॥१७॥ "सर्वव्याकरणे विपश्चिदधिपः श्रीपूज्यपादः स्वयम् ।" इसमें पूज्यपाद मुनिका जयघोष करते हुए उन्हें
(शि० नं० ४७, ५०) अदितीय प्रौषध-ऋद्धिके धारक बतलाया है। साथ ही, "जैनेन्द्रे पूज्यपादः।" (शि० नं० ५५) यह भी प्रकट किया है कि विदेहक्षेत्र स्थित जिनेन्द्रमग- पहला वाक्य मेघचन्द्र विद्यदेवकी और दूसरा पान के दर्शनसे उनका गात्र पवित्र हो गया था और जिनचन्द्राचार्यकी प्रशंसामें कहा गया है। पहलेमें, मेघउनके चरण-धोए जलके स्पर्शसे एक समय लोहा भी चन्द्रको व्याकरण-विषयमें स्वयं 'पूज्यपाद' बतलाते हुए, सोना बन गया था।
पूज्यपादको 'अखिल-व्याकरण-पण्डितशिरोमणि' सचित इस तरह आपके इन पवित्र नामोंके साथ कितना किया है और दूसरेमें जिनचन्द्रके 'जैनेन्द्र'-व्याकरणही इतिहास लगा हुआ है और वह सब आपकी महती विषयक शानको स्वयं पूज्यपादका न बतलाया है, कीर्ति, अपार वित्ता एवं सातिराय प्रतिष्ठाका द्योतक और इस तरह 'जैनेन्द्र' व्याकरणके अभ्यासमें उसकी है। इसमें सन्देह नहीं कि श्रीपूज्यपाद स्वामी एक बहुत दक्षताको घोषित किया है। ही प्रतिभाशाली प्राचार्य, माननीय विद्वान् , युगप्रधान
इन्द्रश्चन्द्रः काराकृत्स्नपिशलीशाकटायनाः। और असमर्थ योगीन्द्र हुए है। आपके उपलब्ध पालिन्यमरजैनेन्द्रा जयन्त्यष्टौ च शाब्दिकाः॥ . अन्य निश्चय ही प्रापकी असाधारण योग्यताके जीते
-चातुपाठः।
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वर्ष २, किरण ]
भीपूज्यपाद और उनकी रचनाएँ
पूज्यपादके इस व्याकरणशास्त्रकी प्रशंसामें प्रथया में और अधिक क्या कहा जाय ? दूसरे वाक्पमें पादिइस व्याकरणको लेकर पूज्यपादकी प्रशंसामें विद्वानोंके राजसूरिने बतलाया है कि जिनके बारा--जिनके देरके देर वास्य पाये जाते हैं। नमूने के तौर पर यहाँ व्याकरणशास्त्रको लेकर--राम्द भले प्रकार सिद्ध होते उनमेंसे दो-चार वाक्य उद्धृत किये जाते हैं:- वे देवनंदी प्रचित्य महिमायुक्त देवी और अपना कवीना तीर्थरुदेवः कितरी तत्र वर्यते।
हित चाहनेवालोंके द्वारा सदा वंदना किये जाने के विदुषां वाङ्मलध्वंसि तीर्थ यस्य वचोमयम् ॥५२॥ योग्य है । तीसरे वास्यमें, शुभचंद्र भष्टारकने, पूज्यपाद.
-आदिपुराणे, जिनसेनः। को पूज्यों के द्वारा भीपूज्यपाद तथा विस्तृत सद्गुणों के अचिन्त्यमहिमा देवः सोऽभिवंधो हितैषिणा। धारक प्रकट करते हुए उन्हें ब्याकरण-समुद्रको तिरशब्दाश्च येन सिद्ध्यन्ति साधुत्वं प्रतिलम्भिताः।।१८।। जानेवाले लिखा है और साथ ही यह प्रार्थना की है कि
-पार्श्वनाथचरिते, वादिराजः । वे मुझे पवित्र करें । चौथेमें, मलपारी पप्रमभदेवने पूज्यपादः सदा पज्यपादः पज्यैः पुनातु माम्। पूज्यपादको 'शब्दसागरका चंद्रमा' बतलाते हुए उनकी व्याकरणार्णवो येन तीनों विस्तीर्णसद्गुणः॥ वंदना की है । पाँचवे में, पूज्यपादके लक्षण (व्याकरण)
-पांडवपुराणे, शुभचन्द्रः। शास्त्रको अपूर्व रत्न बतलाया गया है । छठेमें, शब्दान्ध दं च वन्दे।
पूज्यपादको नमस्कार करते हुए उनके लक्षण शास्त्र -नियमसारटीकायां, पद्मप्रभः। (जैनेन्द्र ) के विषयमें यह घोषणा की गई है कि जो प्रमाणमकलंकस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् । बात इस व्याकरणमें है वह तो दूसरे म्याक. द्विसंधानकवेः काव्यं रखत्रयमपश्चिमम् ।।
रणोंमें पाई जाती है परन्तु जो इसमें नहीं है वह -नाममालाया, धनञ्जयः। अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं होती, और इस तरह नमः श्रीपूज्यपादाय लक्षणं यदुपक्रमम् ।। आपके 'जैनेन्द्र' व्याकरणको सर्वाङ्गपूर्ण बतलाया गया यदेवात्र तदन्यत्र यन्नात्रास्ति न तत्कचित् ॥ है। अब रहा सातवाँ वास्य, उसमें श्रीशुभचन्द्राचार्यने
-जैनेन्द्रप्रक्रियायां, गुणनन्दी। लिखा है कि जिनके वचन प्राणियोंके काय, पास्य अपाकुर्वन्ति यदाचः कायवाञ्चित्तसंभवम् । और मनः सम्बन्धी दोषोंको दूर कर देते हैं उन देवनन्दी कलंकमंगिना सोऽयं देवनन्दी नमस्यते ॥ को नमस्कार है। इसमें पूज्यपादके अनेक प्रन्योंका
-शानार्णवे, शुभचन्द्रः। उल्लेख संनिहित है-वाग्दोषोंको दूर करनेवाला तो इनमेंसे प्रथमके दो वाक्योंमें पूज्यपादका 'देव' आपका वही प्रसिद्ध 'जैनेन्द्र' व्याकरण है, जिसे गिननामसे उल्लेख किया गया है, जो कि आपके 'देवनन्दी' सेनने भी 'विदुषां वाङ्मलध्वंसि' लिखा है, और चित्तनामका संक्षिप्त रूप है। पहले वाक्यमें श्रीजिनसेना- दोषोंको दूर करनेवाला आपका मुख्य प्रन्य "समाधितंत्र" चार्य लिखते हैं कि 'जिनका वाङमय-शन्द शास्त्ररूपी है, जिसे 'समाधिशतक' भी कहते है, और जिसका कुछ व्याकरण-तीर्थ-विद्वन्जनोंके वचनमलको नष्ट करने विशेष परिचय प्रस्तुत लेखमें आगे दिया जायगा । हा वाला है वे देवनंदी कवियोंके तीर्थकर है, उनके विषय- कायदोषको दूर करनेवाला मन्थ, वह कोई वैद्यकशास्त्र
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४.२.................
....... अनेकान्त
[वैशाख, धीर-निर्वाण सं०२४६५
होना चाहिये, जो इस समय अनुपलब्ध है। 'जैनेन्द्र' के संग्रहीत है। इससे मालूम होता है कि पूज्यपाद नामके कर्म संस्करण अपनी जुदी जुदी वृत्तियों सहित प्रकाशित एक विद्वान् विक्रमकी तेरहवीं (१४वी १) शताब्दीमें हो चुके हैं।
भी हो मये है और लोग भूमवश उन्हींके वैद्यकमंयको .. .वैद्यक शास
जैनेन्द्रके कर्ताका ही बनाया हुआ समझकर उल्लेख विक्रमकी १५वीं शताब्दीके विद्वान् कवि मंगराजने कर दिया करते हैं।" कबडी माषामें 'खगेन्द्रमणिदर्पण' नामका एक चिकि- इस निर्णयमें प्रेमीजीका मुख्य हेतु 'मंगराजका साग्रन्थ लिखा है और उसमें पूज्यपादके वैद्यकग्रन्थका अपनेको पूज्यपादका शिष्य बतलाना' है जो ठीक नहीं भी आधाररूपसे उल्लेख किया है, जिससे मंगराजके है। क्योंकि प्रथम तो ग्रंथपरसे यह स्पष्ट नहीं कि समय तक उस वैद्यकग्रन्थके अस्तित्वका पता चलता है मंगराजने उसमें अपनेको किसी दूसरे पूज्यपादका शिष्य परन्तु सुहृदर पं. नाथरामजी प्रेमी उसे किसी दूसरे ही बतलाया है--वह तो पूज्यपादके विदेह-गमनकी घटना पूज्यपादका ग्रन्थ बतलाते हैं और इस नतीजे तक तकका उल्लेख करता है, जिसका सम्बन्ध किसी दूसरे पहुँचे हैं कि 'जैनेन्द्र' के कर्ता पूज्यपादने वैद्यकका कोई पूज्यपादके साथ नहीं बतलाया जाता है; साथही, अपने शास्त्र बनाया ही नहीं-यों ही उनके नाम मँदा जाता इष्ट पूज्यपाद मुनीन्द्रको जिनेन्द्रोक्त सम्पूर्ण सिद्धांतसागरहै, जैसा कि उनके “जैनेन्द्रव्याकरण और श्राचार्य- का पारगामी बतलाता है और अपनेको उनके चरणदेवनन्दी" नामक लेखके निम्न वाक्यसे प्रकट है:- कमलके गन्धगुणोंसे आनन्दित चित्त प्रकट करता है;
"इस (खगेन्द्रमणिदर्पण) में वह (मंगराज) जैसा कि उसके निम्न अन्तिम वाक्योंसे प्रकट है:अपने आपको पूज्यपादका शिष्य बतलाता है और यह 'इदु सकल-आदिम-जिनेन्द्रोक्तसिद्धान्तपयः भी लिखता है कि यह ग्रंथ पूज्यपादके वैद्यक-ग्रंथसे पयोधिपारग-श्रीपूज्यपादमुन्नीन्द्र-चारु--चरणारविन्द___ पूज्यपादकी कृतिरूपसे 'वैद्यसार' नामका जो गन्धगुणनंदितमानस श्रीमदखिलकलागमोत्तुंग मंगग्रंथ 'जैन-सिद्धान्तभास्कर' ( त्रैमासिक) में प्रकाशित विभुविरचितमप्प खगेन्द्रमणिदर्पणदोलु षोडशाधिहो रहा है वह इन श्री पज्यपादाचार्यकी रचना नहीं है। कारं समाप्तम् ।।"-(श्रारा०सि० भ० प्रति) हो सकता है कि यह मंगलाचरणादिविहीनग्रंथ पूज्यपादके इससे मंगराजका पूज्यपादके साथ साक्षात् गुरुकिसी ग्रन्थ पर ही कुछ सार लेकर लिखा गया हो; परंतु शिष्यका कोई सम्बन्ध व्यक्त नहीं होता और न यही स्वयं पूज्यपाद कृत नहीं है । और यह बात ग्रन्थके मालूम होता है कि मंगराजके समय में कोई दूसरे साहित्य रचनाशैली और जगह जगह नुसखोंके अन्तमें पूज्यपाद' हुए हैं--यह तो अलंकृत भाषामें एक भक्तपज्यपादने भाषितः निर्मितः जैसे शब्दोंके प्रयोगसे भी का शिष्य-परम्परा के रूप में उल्लेख जान पड़ता है। जानी जाती है।
शिष्यपरम्पराके रूपमें ऐसे बहुतसे उल्लेख देखने में • देखो, 'जैनसाहित्यसंशोधक' भाग १, अङ्क २, पाते हैं। उदाहरणके तौर पर 'नीतिसार' के निम्न पु० ८३ और 'जैनहितैषी' भाग १५, अङ्क १-२, प्रशस्तिवाक्यको लीजिये, जिसमें प्रन्यकार इन्द्रनन्दीने
हजार वर्षसे भी अधिक पहलेके प्राचार्य कुन्दकुन्द
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वर्ष २, किरण ७]
भीपूज्यपाद और उनकी रचनाएँ
स्वामीका अपनेको शिष्य (विनेय) सूचित किया है:-- थका स्पष्ट नाम भी दिया है और वह है 'शाला “–स श्रीमानिन्द्रनन्दी जगति विजयतो भरिभावानुभावी जो कि कर्ण, नेत्र, मासिका, मुख और विरोरोगको देवज्ञः कुन्दकुन्दप्रभुपदविनयः स्वागमाचारचंचुः।' चिकित्सासे सम्बंध रखता है। अतः प्रेमी गीने जो कल्पास
ऐसे वाक्योंमें पदों अथवा चरणोंकी भक्ति श्रादिका की है वह निर्दोष मालूम नहीं होती। .... अर्थ शरीरके अङ्गरूप पैरोंकी पूजादिका नहीं, किन्तु यहाँ पर मैं इतना और भी प्रकट कर देना चाहता उनके पदोकी-वास्योंकी-सेवा-उपासनादिका होता हूँ कि चित्रकवि सोमने एक कल्याणकारक वैधकान्य है, जिससे ज्ञान विशेषकी प्राप्ति होती है।
कमडी भासमें लिखा है, जोकि मद्य-मांस-मधुके व्यवहार दूसरे, यदि यह मान भी लिया जाय कि मंगराजके से वर्जित है और जिसमें अनेक स्थानोपर गय-पच-रूपसे साक्षात् गुरु दूसरे पूज्यपाद थे और उन्होंने वैवकका संस्कृत वाक्य भी उद्धृत किये गये हैं। यह अन्य पायकोई ग्रंथ भी बनाया है, तो भी उससे यह लाज़िमी पाद मुनिके 'कल्याणकारकबाहडसिद्धान्तक' नामक नतीजा नहीं निकाला जा सकता कि उन्हींके उस ग्रन्थके अाधारपर रचा गया है। जैसाकि उसके "पज्य. वैद्यकग्रन्थके भ्रममें पड़कर लोग 'जैनेन्द्र' के कर्ता पज्य- पादमुनिगलं पेल्द कल्याणकारकयाडसिद्धांतकदिष्ट" पादको वैद्यकशास्त्रका कर्ता कहने लगे हैं। क्योंकि ऐमी विशेषण से प्रकट है। इससे पूज्यपादके एक दूसरे हालतमें वह भ्रम मंगराजके उत्तरवर्ती लेखकोंमें ही होना वैद्यक-ग्रन्थका नाम उपलब्ध होता है। मालूम नहीं सम्भव था-पर्ववर्ती में नहीं । परन्तु पूर्ववर्ती लेखकोंने भी चित्रकवि सोम कब हुए हैं। उनका यह ग्रन्थ प्राराके पूज्यपादके वैद्यकग्रन्थका उल्लेख तथा संकेत किया है जैनसिद्धात-भवनमें मौजूद है। संकेतके लिये तो शुभचन्द्राचार्यका उपयुक्त श्लोक ही इसके सिवाय, शिवमोग्गा जिलातर्गत 'नगर' पर्याप्त है, जिसके विषय में प्रेमी जीने भी अपने उक्त ताल्लुकके ४६ वे शिलालेख में, जो कि पद्मावती-मंदिरके लेखमें यह स्वीकार किया है कि "श्लोकके 'काय' शब्द- एक पत्थरपर खुदा हुआ है, पूज्यपाद-विषयक जो से भी यह बात ध्वनित होती है कि पूज्यपाद स्वामीका हकीकत दी है वह कुछ कम महत्वकी नहीं और कोई चिकित्साग्रंथ है।" वह चिकित्माग्रंथ मंगराजके इसलिये उसे भी यहां पर उद्धृत कर देना उचित जान साक्षात् गुरुकी कृति नहीं हो सकता; क्योंकि उसके पड़ता है। उसमें जैनेन्द्र-कर्ता पूज्यपाद-द्वारा वैद्यकशास्त्र' संकेत-कर्ता शुभचंद्राचार्य मंगराजके गुरु से कई शताब्दी के रचे जानेका बहुत ही स्पष्ट उल्लेख मिलता है ।यथाःपहले हुए हैं। रही पूर्ववर्ती उल्लेखकी बात, उसके 'न्यासं जैनेंद्रसमसकलबुधनुतं पाणिनीयस्य भूगोलिये उग्रादित्य श्राचार्य के 'कल्याणकारक' वैद्यकग्रंथका न्यासं शब्दावतारं मनुजततिहितं वैद्यशास्त्रं च कृत्वाउदाहरण पर्याप्त है, जिसमें पूज्यपादके वैद्यकयका यस्तत्वार्थस्य टीको व्यरचयदिह तो मात्यसौ पज्यपाद 'पूज्यपादेन भाषितः' जैसे शब्दोंके द्वारा यहुत कुछ स्वामी भुपालवंद्यः स्वपरहितवचः पूर्णद्रग्बोषकृतः ॥.. उल्लेख किया गया है और एक स्थानपर तो अपने शब्दावतार भौर सर्वार्थसिदि . ग्रंथाधारको व्यक्त करते हुए 'शालाक्यं पूज्यपादप्रकटि- 'नगर ताल्लुकके उक्त शिलावास्यमें पूज्यपादके घर तमधिकं' इस वायके द्वारा पूज्यपादके एक चिकित्सा- प्रन्थोंका क्रमनिर्देशपूर्वक उल्लेख किया गया है, जिनमेंसे।
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अनेकान्त
[वैशाख, वीर-निर्वाण सं० २४६५.
पहला ग्रंथ है 'जैनेन्द्र' नामक न्यास (व्याकरण), जिसे भरक्षणार्थ विरचिसि जसमें तालिददं विश्वविद्याभरणं । संपूर्ण दुधजनोंसे स्तुत लिखा है। दूसरा पाणिनीय व्याक- भव्यालियाराधितपदकमलं पूज्यपादं व्रतीन्द्रम् ।' रणके ऊपर लिखा हुआ 'शब्दावतार' नामका न्यास . पाणिनीयकी काशिका बत्तिपर 'जिनेन्द्रबुद्धि'का एक है तीसरा मानव-समाजके लिये हितरूप 'वैद्यशास्त्र' न्यास है। पं० नाथरामजी प्रेमीने अपने उक्त लेखमें
और चौथा है तत्त्यार्थसूत्रकी टीका 'सर्वार्थसिद्धि'। प्रकट किया है कि 'इस न्यासकार जिनेन्द्रबुद्धि' के यह टीका पहले तीन ग्रन्थोंके निर्माणके बाद लिखी गई नामके साथ 'बोधिसत्वदेशीयाचार्य' नामकी बौद्ध पदवी है, ऐसी स्पष्ट सूचना भी इस शिलालेखमें की गई है। लगी हुई है, इससे यह ग्रंथ बौद्ध भिक्षुका बनाया हुआ साथ ही, पूज्यपाद स्वामीके विषयमें लिखा है कि वे है। आश्चर्य नहीं जो वृत्त-विलास कविको पूज्यपादके राजासे x वंदनीय थे, स्वपरहितकारी वचनों (ग्रंथों) 'जिनेन्द्रबुद्धि' इस नाम साम्यके कारण भ्रम हुअा हो के प्रणेता थे और दर्शन-शान-चारित्रसे परिपूर्ण थे। और इसीसे उसने उसे पूज्यपादका समझकर उल्लेख कर
इस अवतरणसे पूज्यपादके 'शब्दावतार' नामक दिया हो।' परन्तु ऊपरके शिलालेखमें न्यासका स्पष्ट एक और अनुपलब्ध ग्रंथका पता चलता है, जो पाणि- नाम शब्दावतार दिया है और उसे काशिकावृत्तिका नहीं नीय व्याकरणका न्यास है और 'जैनेन्द्र' व्याकरणके बल्कि पाणिनीयका न्यास बतलाया है, ऐसी हालतमें बाद लिखा गया है। विक्रमकी १२ वीं शताब्दीके जब तक यह सिद्ध न हो कि काशिकापर लिखे हुए. विद्वान कवि वृत्तविलासने भी अपने 'धर्मपरी' नामक न्यासका नाम 'शब्दावतार' है और उसके कर्त्ताके नामकन्नडी ग्रन्थमें, जो कि अमितगतिकी 'धर्मपरीक्षा'को के साथ यदि उक्त बौद्ध विशेषण लगा हुआ है तो वह लेकर लिखा गया है, पाणिनीय और व्याकरण पर किसीकी बादकी कृति नहीं है । तब तक धर्म-परीक्षाके पम्पपादके एक टीकाग्रन्थका उल्लेख किया है जो उक्त कर्ता वृत्तविलासको भ्रमका होना नहीं कहा जा सकता; 'शब्दावतार' नामक न्यास ही जान पड़ता है। साथ ही क्योंकि पूज्यपादस्वामी गंगराजा दुर्विनीतके शिक्षागुरु पज्यपादके द्वारा भरक्षणार्थ (लोकोपकारके लिये) यंत्र- ( Precoptor ) थे, जिसका राज्यकाल ई० सन् मंत्रादि-विषयक शास्त्रोंके रचे जानेको भी सूचित किया ४८२ से ५२२ तक पाया जाता है और उन्हें हेब्बुर है-जिसके 'श्रादि' शब्दसे वैद्यशास्त्रका भी सहज ही में आदिके अनेक शिलालेखों ( ताम्रपत्रादिकों) में ग्रहण होसकता है-और पूज्यपादको 'विश्वविद्याभरण' 'शब्दावतार'के कर्तारूपसे दुर्विनीत राजाका गुरु उल्लेजैसे महत्वपूर्ण विशेषणोंके साथ स्मरण किया है।
देहलीके नये मन्दिर में 'काशिका-न्यास'की जो यथाः
हस्तलिखित प्रति है उसमें उसके कर्ता 'जैनेन्द्रबुद्धि' 'भरदि जैनेन्द्रं भासुरं एनल भोरेदं पाणिगीयके टीकुंब के नामके साथ 'बोधिसत्वदेशीयाचार्य' नामकी कोई रेदं तत्वार्थमं टिप्पणादिम् भारपिदं यंत्रमंत्रादिशास्त्रोक्त
उपाधि लगी हुई नहीं है-ग्रन्थकी संधियोंमें "इत्याकरमं ।
चार्य स्थविरजिनेन्द्रबुद्धय परचितायां न्यास- (तथा x यह गंगराजा 'दूर्विनीत' जान पड़ता है। 'काशिकाविवरणन्यास' ) पंचिकार्या" इत्यादि रूपसे जिसके पूज्यपाद शिक्षागुरु थे।
उल्लेख पाया जाता है।
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वर्ष २, किरण
भीपूज्यपाद और उनकी रचनाएँ
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खित किया
सिद्धिसोपान' में यह अपने विकास के साथ प्रकाशित इटोपदेश मादि दूसरे अन्य हुआ है। इन सब ग्रंथोंके अतिरिक्त पूज्यपादने और कितने हाँ, लुतप्राय अन्यों में बंद और काम्ययाव-विषयक वथा किन किन ग्रंथोंकी रचना की। इसका अनुमान प्रापके दो ग्रंथोंका पता और भी अवणवेल्गालशिलालगाना कठिन है-इटोपदेश' और 'सिद्धभकि' । जैसे लेखन. ४. के निम्न वास्यसे चलता है:प्रकरण ग्रंथ तो शिलालेखों आदिमें स्थान पाये बिना ही “जैनेन्द्र निजराब्दभागमतुलं सर्वार्थसिदिः परा. अपने अस्तित्व एवं महत्वको स्वतः ख्यापित कर रहे हैं। सिद्धान्ते निपुगत्वमुद्धकविता जैनाभिषेक सका। 'पोपदेश' ५१ पद्योंका एक छोटासा यथा नाम तथा छन्दः सूक्ष्मषियं समाधिशतक स्वास्वं यदी विदागुग्णसे युक्त सुंदर माध्यात्मिक ग्रंथ है और वह पं० माख्यातीह सपज्यपादमुनिपः पूज्यो मुनीना गा " प्राशावरजीकी संस्कवटीका सहित माणिकचंद्र ग्रंथमाला- इस वास्यमे, उचे दर्जकी कुब रचनामोका उख में प्रकाशित भी हो चुका है। सिदिभक्ति' पद्योंका करते हुए, बड़े ही अच्छे देंगसे यह प्रतिपादित किया
हैकि 'जिनका "जैनेन्द्र" शब्द शास्त्र में अपने अतुलित एक बड़ा ही महत्वपूर्ण 'गम्भीरार्थक' प्रकरण है। इसमें सूत्ररूपसे सिद्धिका, सिद्धिके मार्गका सिद्धिको प्राप्त
भागको, 'सर्वार्थसिद्धि' (तस्वार्यटीका) सिद्धांतमें परम होने वाले प्रात्माका आत्मविषयक जैन सिद्धांतका,
हम निपुणताको, 'जैनाभिषेक' ऊँचे दर्जेकी कविताको, सिद्धि के कमका, सिद्धिको प्राप्त हुए सिद्धियोंका और
'छन्दःशास्त्र' बुद्धिकी सूक्ष्मता (रचनाचातुर्य) को और सिद्धियोंके सुखादिका अच्छा स्वरूप बतलाया गया है।
'समाधिशतक' जिनकी स्वास्मस्थिति (स्थितप्राता) को
संसारमें विद्वानों पर प्रगट करता है ये 'पूज्यपाद मुनीन्द्र देखो 'कुर्गइन्स्किपशन्स' भू० ३, 'मैसूर ऐएर मुनियों के गणोंसे पूजनीय है । कुर्ग' जिल्द १, पृ०३७३, 'कर्णाटकभाषाभूषणम्' ० 'एकान्सखण्डन'प्रथमें लक्ष्मीधरने, पूज्यपाद स्वामी पृ० १२, 'हिस्टरी आफ कनडोज लिटरेचर' पृ० २५ का पड्दर्शनरहस्य-संवेदन-सम्पादित-निस्सीमपापिरत्यऔर 'कर्णाटककविपरिते'।
मण्डिताः' विशेषणके साथ स्मरण करते हुए, उनके सिद्धभक्तिके साथ श्रुतभक्ति, चरित्रमति, विषयमें एक खास प्रसिद्धिका उल्लेख किया है-अर्थात् बोगभक्ति, प्राचार्यभक्ति, निर्वाणमकि, तथा नन्दी- यह प्रकट किया है कि उन्होंने निस्यादि सर्वथा एकान्त श्वरभक्ति, नामके संस्कृत प्रकरण भी पूज्यपादके पक्षकी सिद्धिनें प्रयुक्त हुए साधनोंको दूषित करनेके लिये प्रसिद्ध है । क्रियाकलापके टीकाकार प्रभाचन्द्रने उन 'विक्र' हेत्वाभास बतलाया है। जब कि सिद्धसेनाअपनी सिद्धभक्ति टीकामें "संस्कृताः सर्व भक्तयः चार्यने प्रसिद्ध' हेत्वाभास प्रतिपादन करनेमें ही संतोष पूज्यपादस्वामिहतः प्रान्तास्तु कुंदकुंदाचार्यकता" धारण किया है और स्वामी समन्तमहने 'असिख-विम्ब' इस वाक्यके द्वारा उन्हें पूज्यपादकत बतलाया है। प्रस्तावना-लेखक-दारा लिखीईया ये सब भक्ति पाठ देरामकि भादिमें मुद्रित होकर पृष्ठकी सिदिसोपान' पुस्तक पीरसेवामन्दिर,सरसावाप्रकाशित हो चुके हैं।
से बिना मूल्य मिलती है।
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. अनेकान्त
[वैशास्त्र, वीर-निर्वाण सं०२४६
दोनों ही रूपसे उनै दूषित किया है। साथ ही, इसकी शास्त्रका विशद विवेचन हो और उसके द्वारा नित्यादिपुष्टिमें निम्न वाक्य 'तदुक्तं' रूपसे दिया है:- एकान्तबादियोंको दूषित ठहराया गया हो । नयके
प्रसिद्ध सिद्धसेनस्य विरुवं देवनन्दिनः। लक्षणको लिये हुए वह उल्लेख इस प्रकार है:इयं समन्तभद्रस्य सर्वकान्तसाधनमिति ॥ "तथा सारसंग्रहेऽप्युक्तं पूज्यपादैरनन्तपर्यात्मकस्य
एकांत साधनाको दूषित करनेमें तीन विद्वानोंकी वस्तुनोऽन्यतमपर्यायाधिगमे कर्तव्ये जात्यहेत्वपेक्षो प्रमिटिका यह लोक सिद्धिविनिश्चय टीका और न्याय- निरर्वद्यप्रयोगोनय इति । विनिश्श्य-विवरणमें निम्न प्रकारसे पाया जाता है:
-'वेदना' खण्ड ४ , असिद्धः सिद्मसेनस्य विरुद्धो देवनन्दिनः। ऊपरके सब अवतरणों एवं उपलब्ध ग्रंथोंपरसे । पा समंतभद्रस्य हेतुरेकांतसाधने ॥ पूज्यपादस्वामीकी चतुर्मुखी प्रतिभाका स्पष्ट पता चलता
न्यायविनिश्चय-विवरणमें वादिराजने इसे 'तदुक्तं' है और इस विषयम कोई संदेह नहीं रहता कि आपने पदके साथ दिया है और सिद्धिविनिश्चय-टीकामें अनन्त- उस समयके प्रायः सभी महत्वके विषयोंमें प्रन्योंकी वीर्य प्राचार्यने इस लोकको एकबार पाँचवें प्रस्तावमें रचना की है। आप असाधारण विद्वत्ताके धनी थे, ,“यवायत्यसिद्धः सिद्धसेनस्य" इत्यादि रूपसे उद्धृत सेवा-परायणों में अग्रगण्य थे, महान दार्शनिक थे, अद्विकिया है, फिर छठे प्रस्तावमें इसे पुनः परा दिया है तीय वैयाकरण थे, अपूर्व वैद्य थे, धुरंधर कवि थे, बहुत
और यहाँ पर इसके पदोंकी व्याख्या भी की है। इससे बड़े तपस्वी थे, सातिशय योगी थे और पज्य महात्मा थे। यहरलोक कलंकदेबके सिद्धिविनिश्चय ग्रंथके लक्ष- इमीसे कर्णाटकके प्रायः सभी प्राचीन कवियोंने-सा यसिद्धि' नामक बठे प्रस्तावका है। जब अकलकदेव की८वीं, हवी, १०वीं शताब्दियोंके विद्वानोंने-अपने जैसे प्राचीन-विक्रमकी सातवीं शताब्दीके-महान् ग्रंथोंमें बड़ी श्रद्धा भक्तिके साथ प्रापका स्मरण किया है प्राचार्यों वकने पूज्यपादकी ऐसी प्रसिद्धिका उल्लेख और आपकी मुक्तकंठसे खूब प्रशंसा की है। किया है वब यह बिल्कुल स्प है कि पूज्यपाद एक
जीवन-घटनाएँ। बहुत बड़े तार्किक विद्वान् से नहीं थे बल्कि उन्होंने आपके जीवनकी अनेक घटनाएँ हैं-जैसे, १ विदेस्वतंत्ररूपसे किसी न्यायशासकी रचना भी की है, जिसमें हगमन,२पोर तपादिके कारण आँखोकी ज्योतिका नष्ट नित्यादि-एकान्तवादोंको दूषित ठहराया गया है और हो जाना तथा 'शान्त्यष्टक' के एकनिष्ठा एवं एकाग्रताजो इस समय अनुपसन्ध है अथवा जिसे हम अपने पूर्वकसाठसे उसकी पुनः सम्माप्ति,३ देवताओंसे चरणोंका प्रमाद एवं अनोखी श्रुतभक्तिके यश खो चुके हैं!
यह शान्त्यष्टक 'न स्नेहाच्छरणं प्रवान्ति सारसंग्रह
भगवन्' इत्यादि पद्यसे प्रारम्भ होता है और 'दराश्रीवलसिद्धान्तके एक उखसे यह भी पता भक्ति' भादिके साथ प्रकाशित भी हो चुका है। चलता है कि पूम्पपादने 'सारसंग्रह' नामका भी कोई इसके अन्तिम चार पधमें 'मम मक्किास्यविनो! प्रेस रचाईजो नय-प्रमाण-जैसे कानोको भी लिये परिप्रसधाकुर एसाइपक पाय मी पाया जाता है, हुए है। प्राचर्य नहीं जो उनके इसी अंधमें, न्याय- जो दृष्टि प्रसपताकी प्रार्थनाको लिया है।
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वर्ष २, किरण .]
भीपज्यपाद और उनकी रचनाएँ
४०७
पूजा जाना, ४ अौषधि ऋतिकी उपलब्धि, ५ और थी, जिसका उमेत देवसेनके दर्शनसार' प्रथमें पादस्पष्ट जलके प्रभावसे बोडेका सबबई में परिणतसे या प्रकाशमाप कर्णाटक रेरा निवासी थे। जाना (अथवा उस लोहेसे पट विशेष लाभ प्रास र भाषामे हुए 'पूज्यपादचरिते' तथा 'राजाबहोना)। इनपर विशेष विचार करने तथा ऐतिहासिक. लीक नामक ग्रंथों में आपके पिताका नाम 'माधवमह' प्रकाश डालनेका इस समय अवसर नहीं है। ये सब तथा माताका श्रीदेवी दिया है और आपको बामणाविशेष उहापोहके लिये यह समय और सामग्रीको कुलोच लिखा है। इसके सिवाय, प्रसिद्ध म्बाकरणाअपेक्षा रखती हैं । परन्तु इनमें असंभवता कुछ भी नहीं कार पाणिनि' ऋषिको चापका मातुल (मामा) मी बतहै-महायोगियोंके लिये ये सब कुडशस्य है। जबतक लाया है, जो समयादिककी रहिसे विश्वास किये जानेकोई स्पष्ट बाधक प्रमाण उपस्थित न हो तब तक 'सर्वत्र के योग्य नहीं है। बाधकामावादस्तुव्यवस्थितिः' की नीतिके अनुसार इनें .. माना जासकता है।
x जैसा कि दर्शनसारकी निम्न दो मावली पितृडल और गुलाल प्रकट है:। पितृकुल और गुरुकुलके विचारको भी इस समय सिरिपुजपादसीसो दाविसंघस्स कारगो दुहो। छोड़ा जाता है। हाँ, इतना ज़रूर कह देना होगा कि |आप मूलसंघान्तर्गत नन्दिसंघके प्रधान प्राचार्य थे,
- रामेण मजणंदी पाहुउपेदी महासत्तो ॥२४॥ स्वामी समन्तभद्रके बाद हुए हैं-प्रवणबेल्गोलके पंचसए छव्वीसे विकमरायस्स मरणपत्तस्स। शिलालेखों (नं० ४०, १०८) में समन्तभद्रके उल्लेखा- दक्खिण महुराजादो दाविडसंघो महामोहो ॥२॥ नन्तर 'ततः' पद देकर आपका उल्लेख किया गया है यह लेख पीरसेवामन्दिरमन्यमालामें और स्वयं पज्यपादने भी अपने 'जैनेन्द्र' में 'चतुष्टयं
संस्कृत-हिन्दी-टीकामोंके साथ मुद्रित और शीघ्र समन्तभद्रस्य' इस सूत्र (५-४-१६८) के द्वारा समन्तभद्रके मतका उल्लेख किया है। इससे अापका समन्त
प्रकाशित होनेवाले 'समाधितन्त्र' अन्यकी 'प्रस्तावमा' भद्रके बाद होना सुनिश्चित है। आपके एक शिष्य वन- का प्रथम अंश है। द्वितीय अंश अगली फिरणमें नन्दीने विक्रम स० ५२६ में द्राविसंघकी स्थापना की प्रकट किया बायगा।
[-भगवत भाग सुखके गीत गा लो प्रेम की दीपावली में,
मुग्ध होकर जगमगातो !! भाव सुलके गीत गा लो !!
सुर-धनुषकी रम्यता यहएक सबमें जायेगी ढह ।
फिर निसाकी स्वाम-मामा. बाग जावेगी भवावह ॥
गा उठेंगे पास नत हो
प्रभाकर ! ज्योति डालो ।
भाष सुखके गीत गा लो !! सपल सौदामिनि-सहित पन--१
जो रहा है विश्व पर तन ! एकपलमें मग्न होकर
जायेगा बलद वह बन । करुणा स्वरमें तब कहेगाहे अवनि ! मुझको दिपालो !
भाष सुखके गीत गा लो।।
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भाग्य और पुरुषार्थ
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[ तक़दीर और तदवीर ]
[ लेखक श्री० बाबू सूरजभानु वकील ] ( क्रमागत )
निमित्त
मित्त कारण कमको कैसा नाच नचाता है और क्या से क्या कर डालता है, यह बात अकाल मृत्युके कथनसे बहुत अच्छी तरह समझमें श्रासकती है। कुंदकुंद स्वामीने भाव पाहुडकी गाथा नं० २५, २६ में अकालमृत्युका कथन इस प्रकार किया है— हे जीव ! मनुष्य और तिर्येच पर्यायमें तूने अनेक बार अकाल मृत्युके द्वारा महादुख उठाया है, विषके खानेसे वा विषैले जानवरोंके काटे जानेसे, किसी असह्य दुखके आपड़नेसे, अधिक खून निकल जानेसे, किसी भारी भयसे, हथियार के घातसे, महा संक्लेशरूप परिणामोंके होनेसे- श्रर्थात् अधिक शोक माननेसे वा अधिक क्रोध करनेसे आहार न मिलनेसे, सांस के रुकनेसे, बरफ़ में गलजानेसे, आगमें जलजानेसे, पानीमें डबजानेसे, पर्वत, वृक्ष वा अन्य किसी ऊँचे स्थानसे गिरपड़नेसे, शरीर में चोट लगनेसे, अन्य भी अनेक कारणोंसे श्रकाल मृत्यु होती रही है। इसीप्रकार गोमट्टसार कर्मकांडकी निम्न गाथा ५७ में भी विष, रक्त-क्षय, भय, शस्त्रघात, महावेदना, सांसरुकना, आहार न मिलना आदि कारणोंसे बँधी आयुका डीजना अर्थात् समयसे पहले ही मरण होजाना लिखा है।
विसवेयणर तक्खयच्चयसत्थग्गहण संकिलेसेहि । उस्सासाहाराणं गिरोहदो छिन्जदे भाऊ ||५७|
तत्त्वार्थ सूत्र ध्याय २ सूत्र ५३ का भाष्य करते हुए श्री अकलंकस्वामीने राजवार्तिक में और श्रीविद्यानन्दस्वामीने श्लोकवार्तिक में मरणकालसे पहले मृत्युका हो जाना सिद्ध किया है और लिखा है कि अकालमृत्युके रोकने के वास्ते श्रायुर्वेदमें रसायन श्रादिक वर्तना लिखा है जिससे भी अकाल मृत्यु सिद्ध है। इस ही प्रकार अन्य शारीरिक रोगोंके दूर करनेके वास्ते भी श्रौषधि श्रादिक वाह्य निमित्त कारणोंका जुटाना जरूरी बताया है। भगवती श्राराधनासार गाथा ८२३ का अर्थ करते हुए पंडित सदासुखजीने अकाल मृत्युका वर्णन इस प्रकार किया है
" कितनेक लोग ऐसे कहे हैं, आयुका स्थिति-बंध किया सो नहीं छिदे है, तिनकं उत्तर कहे हैं- जो श्रायु नहीं ही छिदता तो विष भक्षण तैं कौन पराङमुख होता श्रर उखाल ( कराना) विष पर किस वास्ते देते, अर शस्त्रका घाततैं भय कौन वास्ते करते श्रर सर्प, हस्ती, सिंह, दुष्ट मनुष्यादिकनको दूरहीतें कैसे परिहार करते; श्रर नदी समुद्र कृप वापिका तथा श्रमिकी ज्वालामें पतन तें कौन भयभीत होता ।' जो आयु पूर्ण हुआ बिना मरण ही नहीं तो रोगादिकका इलाज काकूं करते, तातै यह निश्चय जानहूँ– जो आयुका घातका वाह्य निमित्त मिल जाय तो तत्काल श्रायुका घात
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वर्ष.२, किरण..]
माम्य और पुरुषार्थ
४०६
होम ही जाय, ईमें संशय नहीं है, बहुर बायुकर्मकी परमागमते निभय करना, जो वायु कर्मका परमाणु तो नाई प्रत्यकर्म भी जो वानिमित्त परिपूर्ण मिल साठ वर्ष पर्यंत समय समय पावाजोग्य निषेकनिमें जाय तो उदय हो ही जाय, नीम-भक्षण करेगा ताके बांटाने प्राप्त भया होय पर बीचमें बीस बरसकी अवस्था तत्काल असोता वेदनीय उदय भावे है, मिभी इत्यादिक ही में जो विष शस्त्रादिकका निमित्त मिल जाय तो ए वस्तु-भक्षण करे ताके सातावेदनीय उदय भावे ही चालीस बरस पर्यंत जो कर्मका निषेक समय समय है तथा वस्त्रादिक आड़े आजाय चक्षुद्वारे मतिशान निर्जरता सो अन्तर्महूर्तमें उदीर्णा नै मास होय का रुक गाय, कर्ण में डाटा देवें तो कर्ण द्वारे मतिशन रुक नाश प्राप्त होय, सो अकाल मरण है।" जाय, ऐसे ही अन्य इन्द्रियनके द्वारे शान रुके हो हैनथा भावार्थ इस कथनका यह है कि जिस प्रकार किसी श्रादिक द्रव्यते श्रुतशान रुक जाय है, भैसकी दही अंगीठीमें जलते हुए कोयले भर दिये जावे तो साधारण लस्सन आदिक द्रव्यके भक्षण ते निद्राकी तीव्रता होय ही रीतिसे मन्द-मन्द तौर पर जलते हुए वे कोयले एक है, कुदेव, कुधर्म, कुशास्त्रकी उपासना से मिथ्यात्वकर्मका घंटे तक जलते रहेंगे, कोयलोंके थोडे थोडे कण हरदम उदय श्रावे ही है, कषायण के कारण मिले कषायणकी जल जल कर राख होते रहेंगे और एक घंटे में सब ही उदीर्णा होवे ही है, पुरुषका शरीरक तथा स्त्रीका शरीर जलकर खतम हो जायेंगे, परन्तु अगर तेज हवा चलने कं स्पर्शनादिक कर वेदकी उदीर्णत कामकी वेदना लगे या कोई जोर जोरसे पंखा झलने लगे, पंक मारने प्रज्वलित होय ही है, परति कर्मकं इष्टवियोग, शोककर्म- लगे या उन कोयलोपर मिट्टीका तेल गल दे तो वे कं सुपुत्रादिकका मरण, इत्यादिक कर्मकी उदय उदी- कोयले एकदम भड़क उठेंगे और दस पांच मिनटमें ही
दिक करे ही है । तातें ऐसा तात्पर्य जानना, जलकर राख हो जायेंगे । उसही प्रकार हर एक कर्मका इस जीवके अनादिका कर्म-संतान चला आवे है, भी बंधा हुआ समय होता है, उस बँधे हुए समय श्रर समय समय नवीन नवीन बन्ध होय है, तक वह कर्म साधारण रीतिसे मन्द मन्द गतिसे अपना समय समय पुरातन कर्म रस देय देय निजरे हैं, सो असर दिखाता हुभा हरदम कण कण नाथ होता जैसा वाह्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, मिल जाय तैसा रहता है। समय पूरा होने तक वह सब खतम हो जाता उदयमें भाजाय, तथा उदीर्णा होय उत्कटरस देवे । पर है, इस ही को कर्मोंका उदय होना, मरजाना या निर्जरा जो कोऊ या को, कर्म करेगा सौ सेयगा, तो कर्म तो होते रहना कहते हैं, परन्तु अगर किसी जोरदार निमित्त या जीवके सर्व ही पाप पुण्य सत्तामें मौजूद विर्षे, कारणसे कर्मका वह हिस्सा भी जो देरमें उदय होता जैसा जैसा वाम निमित्त प्रबल मिलेगा, तैसा तैसा जल्दी उदयमें पाजाय तो उसे उदीर्णा कहते है। उदय आवेगा, और जो बाम निमित्त कर्मके उदयको दृष्टांत रूपसे किसीकी आयु साठ बरसकी है लेकिन कारण नाही, तो दीवा लेना, शिक्षा देना तपश्चरण करना बीस बरसकी ही अवस्थामें उसको सापने काट खावा सत्संगति करना, वाणिज्य म्यवहार करना, राजसेवादि या किसीने तलबारसे सिर काट दिया, जिससे वह मर करना, खेती करना, औषधि सेवन करना, इत्यादिक गया वो यह समझना चाहिये कि उसकी बाकी बची सर्व व्यवहारका जोर हो जाय, ताते ऐसी भावनाई हुई चालीस बरसकी भायुकी उदीर्ण हो गई, ऐसे ही
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अनेकान्त
[वैशाख, वीर निर्वाण सं०२४६५
अन्य मी काँकी उदीर्णा निमित्त कारणों के मिलनेसे एक हड़प करना चाह रहा है। इसीसे अपने अपने होती रहती है।
कोंके मरोसे न रह कर सब कोई पूरी पूरी सावधानीके अकालमृत्युके इस कथनसे यह तो जाहिर ही है साथ अपने अपने जान मालकी रक्षाका प्रबन्ध करता कि जिस जीवकी आयु ६० वर्ष की थी, उसको है, चौकी-पहरा लगाता है, अडोसी पड़ौसी और नगरउसके आयुकर्मने ही २० वर्षकी उमरमें नहीं मार डाला निवासियोंका गुट्ट मिलाकर हर कोई एक दूसरेकी रक्षा है; अर्थात् उसके श्रायुकर्मने ही ऐसा कारण नहीं करनेके लिये तैय्यार रहता है, रक्षाके वास्ते ही राज्यका मिलाया है, जिससे वह २० वर्षकी ही श्रायुमें मर जाय। प्रबन्ध किया जाता है, और बड़ा भारी कर राज्यको दिया
आयुकर्मका जोर चलता तो वह तो उसको ६० वर्ष तक जाता है। जिन्दा रखता; परन्तु निमित्त कारणके मुकाबिले में पाय- ऊपरके शास्त्रीय कथनसे यह बात भी स्पष्ट हो जाती कर्मकी कुछ न चल सकी, तब ही तो ४० वर्ष पहले ही है कि बुरे वा भले किसी भी प्रकारके निमित्त मिलानेका उसकी मृत्यु हो गई । जब प्रायु जैसे महा-प्रबल कर्मका दुख वा सुखकी सामग्री जुटानेका काम कर्मोका नहीं यह हाल है तब अन्य कर्मोकी तो मजाल ही क्या है,जो है; तब ही तो प्रत्येक मनुष्य कर्मोके भरोसे न बैठकर निमित्त कारणोंका मुकाबिला कर सकें-उनको अपना अपने सुखकी सामग्री जुटाने के वास्ते रात्रिदिन, पुरुषार्थ कार्यकरनेसे रोक सकें तब ही तो कोई जबरदस्त प्रादमी करता है, खेती, सिपाहीगीरी, कारीगरी, दस्तकारी, किसीको जानसे मार सकता है, लाठी जूते थप्पड़से भी दुकानदारी, मिहनत-मजदूरी, नौकरी-चाकरी आदि सब पीट सकता है, उसका रहनेका मकान भी छीन सकता ही प्रकारके धंधोंमें लगा रह कर खून पसीना एक करता है, धन सम्पत्ति भी लूट सकता है, उसकी स्त्री-पुत्रको रहता है, यहाँ तक कि अपने आरामको भी भुला देना भी उठाकर ले जा सकता है, चोरी भी कर सकता है, पड़ता है और तब ही ज्यों त्यों करके अपनी जीवन-यात्रा अन्य भी अनेक प्रकारके उपद्रव मचा सकता है, कर्मों में पूरी करनेके योग्य होता है । जो मनुष्य पुरुषार्थ नहीं यह शक्ति नहीं है कि इन उपद्रवोंको रोक दें । कोंमें करता है, कर्मोंके ही भरोसे पड़ा रहता है वह नालायक यह शक्ति होती तो संसारमें ऐसे उपद्रव ही क्यों होने समझा जाता है और तिरस्कारकी दृष्टि से देखा जाताहै। पाते ? परन्तु संसारमें तो बड़ा हाहाकार मचा हुआ है, ऊपरके शास्त्रीय कथनमें साफ लिखा है कि किसीजीव जीवको खारहा है, सब ही जीव एक दूसरेसे भय ने नीमके कड़वे पत्ते चबाये, जिससे उसका मुँह कड़वा भीत होकर अपनी जान बचाते फिर रहे हैं, चूहे बिल्ली- होगया तो उसके असातावेदनीय कर्मने उदय हो कर से डरकर इधर-उधर छिपते फिरते हैं, बिल्ली कुत्तेसे उसका जी बुरा कर दिया अर्थात् उसको दुखका अनुहर कर दुबकती फिरती है, मक्खियोको फंसानेके लिये मव करादिया और जब उसने मिठाई खाई, जिससे मकड़ीने अलग जाल फैला रक्खा है, चोर-डाकू अलग उसका मुँह मिठा हो गया, तो सातावेदनीय कर्मने उदय ताक लगा रहे हैं, दुकानदार ग्राहकको लूटनेको धुनमें है होकर उसका जी खुश कर दिया, उसको सुखका अनु
और ग्राहक दूकानदारको हो उगनेकी फ़िकरमें है, धोका मव करा दिया । मावार्य-कड़वी-मीठी वस्तुका बुटामा फरव जालसाजीका बाजार गरम हो रहा है, एकको काँका काम नहीं है, यह काम तो मनुष्य के स्वयं पुरु
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२, किस्सा ..
मानोर पुरुषार्थ
पार्यके द्वारा या दूसरों के द्वारा मिलाये हुए निमितकाही मिठाई. या खटाई खाकर उसे, लिलादे। इसी प्रकार है। कर्मका काम तो एकमात्र इतना ही है कि जैता. कर्म भी जीवोंमें तरह तराकी विषय और कषाय पैदा निमित्त मिले उसके अनुसार जीवको सुखी वा दुसी करते यते है परन्तु उनका यह काम नहीं कि जीवकरके।
... . में प्रेसी विषय या कषाय पैदा की उसके अनुरूल या - इस एक ही ससारमें अनन्ते जीवों और अनन्ते प्रतिकूल वस्तुएं भी इधर उपरसे खीचकर उसको खाद। पुद्गल पदार्थोंका निवास है और वे सब अपना अपना : क्या बिल्लीको भूख लगने पर उसके ही शुभ कर्म काम करते रहते हैं, जिससे अापसमें उनकी मुठभेड़ होती चूहोंको बिलमेंसे बाहर निकाल कर फिराने लगते है, रहती है-रेल व सरायके मुसाफिरोंकी तरह संयोग-वियोग जिससे बिल्ली प्रासानीसे पका कर खाले मा धोके होता ही रहता है। एकका कर्म किसी दूसरेको खींच नहीं खोटे कर्म ही बिल्लीको पकाकर खाते हैं, जिससे वह लाता और न खींच कर ला ही सकता है।
चहोंको मार डाले ? यदि पिछली बात ठीक है तो जब ___ कोका काम तो जीवमें एक प्रकारका बिगार वा कोई मनुष्य किसी दूसरे मनुष्यको मार गलता है तो रोग पैदा करते रहना ही है । रोगीको जब रोगके कारण मारनेवाला क्यों पकड़ा जाता है और क्यों अपराधी जाड़ा लगता है तो ठंडी हवा बुरी लगती है, परन्तु उस- ठहराया जाता है उसको तो मरनेवालेके खोटे कोंका रोग उसको दुस्ख देनेके वास्ते ठंडी हवा नहीं चलाता ने ही मरनेके वास्ते मजबूर किया था, तब उस बेचारका न ठंडीहवा चलानेकी रोगमें सामर्थ्य ही होती है, रोगका क्या कुसूर ? परन्तु ऐसा माननेसे तो संसारका सबही तो सिर्फ इतना ही काम है कि ठंडी हवा लगे तो गेगी व्यवहार गड़बड़ों पर जाता है और राज्यका भी कोई को दुख हो, फिर जब रोगीको तेज़ बुखार चढ़ जाता प्रबन्ध नहीं रहता है । ऐसी हालतमें हिंसक, शिकारी, है तो ठंडी हवा अच्छी और गर्म हवा बुरी लगने लगती चोर, गकू, लुटेरा, धोकेबाज जालिम, जार, जालनाक, है, तब भी उसके रोगमें यह सामर्थ्य नहीं होती है कि बदमाश, प्रादि कोई भी अपराधी नहीं मरता है। को उसको दुख देनेके वास्ते गर्म हवा चलादे । इसी प्रकार जुल्म किसी पर हुआ है वह सब जब उस ही के कोसे कर्म भी जीवको सुख-दुख पहुँचानेके वास्ते संसारके हुआ-खुद उसीके कर्म चोर गव अन्य किसी जीवों तथा पुद्गल पदार्थोंको खींचकर उसके पास नहीं लालिमको जुल्म करनेके वास्ते खींचकर लाते हैं, तब लाते है, उनका तो इतना ही काम है कि उसके अन्दर जुल्म करने वालेका क्या कुसूर १ वह क्यों पकड़ा जाये ऐसा भाव पैदा करदें जिससे वह किसी चीज़के मिलनेसे और क्यों सजा पाये। . सुख मानने लगे और किसीसे दुख ।
. इस प्रकार यह बात किसी तरह भी नहीं मानी जा कफ़के रोगीको मिठाई खानेकी बहुत ही प्रबल सकती है कि भला-बुरा जो कुछ भी होता है यह सब इच्छा होती है, मिठाई खानेमें सुख मानता है और अपने ही कोंसे होता है, अपने कर्म उसके निमित्तखटाईसे दुख । पित्तका रोगी खटाईसे खुश होता है कारण बनते है अथका निमित्त कारणोंको जुयते ।।
और मिठाईसे दुखी । परन्तु रोगीके रोगका यह काम कर्म जब हमारे ही किये हुवे है तब उनका बस भी हम नहीं है कि वह उसको सुखी वा दुखी करनेको कहींसे पर ही पखना चाहिये, दूसरों पर उनका ब यान
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सकता है। कोई पैदा होता है तो अपने कर्मोसे, मरता अपने पास तक भी न आने देनेकी और परी कोशियके है तो अपने कर्मोसे, दूसरोंके शुभकर्म न किसीको स्वीच साथ उत्तम उत्तम निमित्तोंको मिलाते रहने की बहुत ही लाकर उसके यहाँ पैदा करा सकते हैं और न दूसरोंके ज्यादा जरूरत है । खोटे निमित्त जीवके उतने ही वैरी अशुभ कर्म किसीको मारकर उससे वियोग ही करा नहीं जितने कि खोटे कर्म; बल्कि उनसे भी अधिक शत्रु सकते हैं। संयोग-वियोग तो सरायके मुसाफिरोंके मेलके हैं क्योंकि ये खोटे निमित्त ही तो सोती. कषायोंको जगा समान एक ही संसारमें रहने के कारण आपसे आप ही कर जीवसे महा खोटे कर्म कराते हैं और उसका सत्याहोता रहता है और यह ही संयोग वियोग अच्छा बुरा नाश कर डालते हैं। इस ही कारण शास्त्रोंमें महामुनियों निमित्त बन जाता है । अच्छे अच्छे निमित्तोंके मिलनेसे तकको भी खोटे निमित्तोंसे बचते रहनेको भारी ताकीद जीवका उद्धार हो जाता है, जैसे कि सद्गुरुओंके उप- की गई है, जिसके कुछ नमूने इस प्रकार है:देशसे व सत्शास्त्रोंके पढ़नेसे जीवका अनादि कालीन भगवती माराधनासारके नमूनेमिथ्यात्व छूटकर सम्यक् भदानकी प्राप्ति हो जाती है गाथा १०६४-एकान्तमें माता, पुत्री, वहनको वीतराग भगवान्की वीतराग मुद्राको देखकर वीतराग देखकर भी काम भड़क उठता है । गाथा १२०६-जैसे भगवान्के गुणोंको याद करनेसे, गुणगानरूप स्तुति कोई समुद्र में घुसे और भीगे नहीं तो बड़ा आश्चर्य है,ऐसे करनेसे और वीतरागताका उपदेश सुननेसे सम्यक- ही यदि कोई विषयोंके स्थानमें रहे और लित न हो तो चारित्र धारण करनेका उत्साह पैदा होता है, जिससे आश्चर्य ही है। सत्पथ पर लग कर जीव अपना कल्याण कर लेता है- “ गाथा ३३५--हे मुनि अनि समान और विषसमान सदाके लिये दुखोसे छूट जाता है । खोटे निमित्तोंके जो आर्यिकाओंका संग है उसको त्याग । मिलनेसे जीव विषय-कषायोंमें फँसकर अपना सत्यानाश . गाथा ३३८-यदि अपनी बुद्धि स्थिर भी हो,तो भी कर लेता है, कर्मोकी कही जंजीरोंमें बन्धकर नरक और आर्यिकाकी संगतिसे इसप्रकार चित्त पिघल जाता है तिर्यवगतिके दुख उठाता है।
जैसे अमिसे घी। अनादिकालसे ही विषय-कषायोंमें फँसा हुमा यह गाथा १०८६-जैसे किसीको शराब पीता देखकर जीव विषय-कषयोंका अभ्यासी हो रहा है, इस ही कारण वा शराबकी बातें सुनकर शराबीको शराब पीनेकी भड़क विषय-कषायोको भड़काने पाले निमित्तोका असर उस उत्पन्न हो जाती है, उसही प्रकार मोही पुरुष विषयोंको पर बहुत जल्द होता है, विषय-कषायकी बातोंके ग्रहण देखकर वा उनकी बात सुनकर विषयोंकी अभिलाषा करने के लिये वह हर वक्त तैय्यार रहता है । इसके करने लग जाता है। विपरीत विषय-कषायोंको रोकने, दबाने, काबमें रखने
मूलाचारके नमूने अथवा सर्वथा छोड़ देनेकी बात उसको बिल्कुल ही गाथा ९५४-संगतिसे ही सम्यक्त्व प्रादिकी शुद्धि अनोली मालम होती और इसीसे यह बहुत ही कठि- बढ़ती है और संगतिसे ही नष्ट होती है, जैसे कि कमलमताके साथ हृदयमें बैठती है। ऐसी हालतमें बड़ी मारी की संगतिसे पानी सुगंधित हो जाता है, और अनिकी सावधानीके साथ लोटे निमित्तोंसे बचते रानकी. उनको संगतिसे गरम ।
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वर्ष २, किरश] . -
भाम्य चौर पुरुषार्थ
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. गाथा ६९-काठकी बनी हुई खीसे भी डरना पुलमिल नहीं जाते सबको भी. इस देना शुरू चाहिये, क्योंकि निमित्त कारण के मिलने से चित्त चलाय- नहीं करते है, धुलने मिलने में जो समय लगता है उसको मान होता है।
भाकाषा काल कहते हैं। इसके बाद में जिस निमित्त कारणके मिलनेसे कर्म किस तरह भड़क तरह. कोयलोंका कुछ भाग जल-जमार राख होता उठते हैं इसका उल्लेख गोम्मटसारमें संशाओंके वर्णनमें रहता है उसी तरह कोका भी एक-एक भाग मय-इस प्रकार मिलता है--
क्षणमें झड़ता रहता है, इसही को काँकी निर्णय होते गाथा १३३--जिसके निमित्तसे भारी दुःख प्राप्त रहना कहते है। हो ऐसी बाँच्छाको संशा कहते हैं । श्राहार, भय, मैथुन अङ्गीठी पर कोई नीड पकनेको रखी हो, तो.. भी और परिग्रह यह चार संशाएँ हैं।
अङ्गीठीके कोयलोंका थोड़ा थोड़ा हिस्सा जल जलकर गाथा १३४-आहारके देखने वा याद करनेसे राख जरूर होता रहेगा। इस ही प्रकार कोंको भी पेट भरा हुश्रा न होनेपर असातावेदनी कर्मकी उदय अपना भला बुरा फल देनेके वास्ते कोई निमिसि मिले उदीरणा होकर आहारकी इच्छा पैदा होती है। या न मिले तो भी क्षण क्षणमें उनका एक एक हिस्सा
गाथा १३५-किसी भयंकर पदार्थ के देखने वा ज़रूर कड़ता रहेगा । फल देने योग्य कोई निमित्त नहीं याद करनेसे शक्तिके कम होनेपर भयकर्मकी उदय मिलेगा तो बिना फल दिये ही अर्थात् बिना उदयमें उदीरणा होकर भय उत्पन्न होता है।
प्राये ही उस हिस्सेकी निर्जरा होती रहेगी। जिस कर्मकी गाथा २३६---स्वादिष्ट, गरिष्ट, रसयुक्त भोजन जो स्थिति बँधी होगी अर्थात् जितने काल तक किसी करनेसे, कुशील सेवन करने वा याद करनेसे वेद कर्म-कर्मके कायम रहनेकी मर्यादा होगी उतने काल तक की उदय उदीरणा होकर काम-भोगकी इच्छा होती है। बराबर उस कर्मके एक एक हिस्सेकी निर्जरा वणवण___ गाथा १३७-पदार्थोके देखने वा याद करनेसे में जरूर होती रहेगी। परन्तु जिस प्रकार मजीठीमें लोभ कर्मकी उदय-उदीरणा होकर परिग्रहकी इच्छा मिट्टीका तेल पड़ जानेसे वा तेज हवाके लगनेसे होती है।
अङ्गीठीके कोयले एकदम ही भवक उठते हैं, जिससे गोम्मटसारके इस कथनका सार यही है कि कोयलोका बहुत-सा हिस्सा एकदम जलकर राख हो निमित्त कारणोंके मिलनेसे कर्म उदयमें प्राजाते है। जाता है उसीप्रकार किसी भारी निमित्त कारणके अर्थात् कषाय भड़कानेका अपना कार्य करने लग जाते मिलने पर कोंका भी बहुत बड़ा हिस्सा एकदम भरक
। यह बात अच्छी तरह समझमें आजाने के लिये उठता है, कोका जो हिस्सा बहुत देर में उदयमें प्राता हम फिर जलते हुए कोयलोंसे भरी हुई अंगीठीका है, वह भी उसी दम उदयमें आ जाता है। इस ही को दृष्टान्त देते हैं । जिस तरह अंगीठीमें मरे हुए कोयले जब उदीरणा कहते है। तक अच्छी तरह भाग नहीं पकड़ लेते हैं तब तक वह कोका कोई हिस्सा बिना फल दिये मी कैसे अंगीठी पर रखी हुई चीजको पकाना शुरू नहीं करते करता रहता है, इसको समझने के लिये यह जानना हैं, उसी तरह नवीन कर्म भी जबतक पुराने कोंसे चाहिये कि, साता और असाता अर्थात् सुख देनेवाला
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अनेकान्त
और तुल देने वाला ये दोनों कर्म एक साथ फल नहीं 'दे सकते है। जिस समय साताका उदय होगा उस समय
साता कर्म बेकार रहेगा और जिस समय असाताका उदय होगा उस समय साता फर्म बेकार रहेगा । परन्तु कमका एक एक हिस्सा तो क्षण क्षणमें जरूर ही कहता रहता है, इस कारण सुखका निमित्त मिलने पर जिस समय साता कर्म फल दे रहा होगा उस समय
साताकर्म बिना फल दिये ही मड़ता रहेगा और जब दुखका निमित्त कारण मिलनेपर असाताकर्म फल दे रहा होगा उस समय साताकर्म बिना फल दिये ही ड़ता रहेगा। दोनों कर्म जब एक साथ काम नहीं कर सकते हैं तब एक कर्मको तो ज़रूर बेकार रह कर ही झड़ना पड़ेगा । इसही तरह रति और अरति अर्थात् प्यार और तिरस्कार हास्य और शोक अर्थात् खुशी और रंज दोनों एक साथ फल नहीं दे सकते हैं—एक समय में एक ही कर्म फल देगा और दूसरेको बिना फल दिये ही फड़ना पड़ेगा । निद्रा कर्मको देखिये कायदेके "बमूजिब उसका भी एक एक हिस्सा क्षण क्षणमें झड़ता रहता है, परन्तु जब तक हम सोते हैं तब तक तो बेशक निन्द्राकर्म अपना फल देकर ही फड़ता है, लेकिन जितने समय तक हम जागते हैं, उतने समय तक तो निंद्रा कर्मको बेकार ही कड़ता रहना पड़ता है । इसही प्रकार अन्य भी अनेक दृष्टांत दिये जा सकते हैं, जिनसे यह स्पष्ट हो जिस समय कर्मको अपना फल देनेका निमित्त मिलता है वह कर्म तो उस समय फल देकर हो खिरता है बाकी जिन कर्मोंको निमित्त नहीं मिलता है वे सब बिना फल दिये ही खिरते रहते हैं।
भगवती आराधनासारकी संस्कृत टीकामें भी अपराजितसूरिने गाया १७५४के नीचे स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि 'कर्म उपादान हैं जिनको अपना फल देनेके
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वास्ते द्रव्य क्षेत्र आदि निमित्त कारणोंकी आवश्यकता होती है। जिस प्रकार नामका बीज मिट्टी पानी और हवा श्रादिका निमित्त पाकर ही वृक्ष बनता है और फल देता है, बिना निमित्त मिले हमारे बक्समें रक्खा हुआ वैसे ही बोदा होकर निकम्मा हो जाता है। इस ही प्रकार कर्म भी बिना निमित्त मिले कुछ भी फल नहीं दे सकते हैं, यूंही व्यर्थ ही झड़ जाते हैं। इस ही प्रकार गाथा १७२६ के नीचे लिखा है कि जब द्रव्य क्षेत्र, काल आदि मिलते हैं तब ही कर्म अपना फल आत्माको देते हैं।' ऐसा ही गाथा १७४० के नीचे लिखा है । ऐसा ही मूलाराधना टीकामें गाथा १७११ के नीचे लिखा है कि 'द्रव्य' क्षेत्र श्रादिके श्राश्रयसे कर्मका योग्यकाल में श्रात्माको फल मिलना कर्मका उदय होना कहलाता है । वास्तवमें निमित्त कारण यहाँ बलवान इसीसे महामुनि गृहस्थाश्रमको छोड़ श्राबादीसे दूर जंगलमें चले जाते हैं । गृहस्थियोंकी आबादी में स्त्री पुरुषोंके समूह में राग-द्वेष और विषय कषायका ही बाजार गरम रहता है, हर तरफ़ उन्हीका खेल देखनेमें श्राता है और उन्हीं की चर्चा रहती है। ऐसे लोगोंके बीचमें रह कर परिणामोंका शुद्ध रहना - किंचित मात्रभी विचलित न होना - एक प्रकार असम्भव ही है, इसी कारण श्रात्मकल्याणके इच्छुक महामुनि विषय कंत्राय उत्पन्न करने वाले निमित्त कारणोंसे बचनेके वास्ते आबादीसे दूर चले जाते हैं। उनके चले जाने पर आबादी उजड़ नहीं जाती, किन्तु वैसी ही बनी रहती है जैसी कि पहले थी । इससे साफ़ सिद्ध है कि यह आबादी उनके कमकी बनाई हुई नहीं थी, किन्तु उनके वास्ते निमित्त कारण जरूर थी, तब ही वे उसको छोड़ सके। उनके कर्मोंकी बनाई हुई होती तो उनके साथ जाती; क्योंकि जिन कर्मोंने उनके वास्ते आबादीका सामान बनाया है, वे कर्म
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वर्ष २, किरण
भाप और पुरुषार्थ
तो अभी उनके नाश नहीं हुए , ज्योंके त्यो मौजूद है। चले जाते हैं बल्कि मुनियों के संवमें गते है, जहाँ शान
इस ही प्रकार बस्ती छोड़कर जिस बनमें जाकर ये वैराग्यके सिवाय अन्य कोई बात ही नहीं होती है। रहते हैं, वहाँ भी शेर, भेड़िया आदिक मशु और डाँस, प्राचार्य महाराज उनकी पूरी निगरानी रखकर उन. मच्छर आदि कीड़े-मकौड़े सब पहलेसे ही वास करते है विचलित होनेसे बचाते रहते है।
और इनके दूसरे बनमें चले जाने पर भी उसी तरा परन्तु गृहस्थियों का मामला बड़ा रहा है, उनका बास करते रहेंगे । बनसे आये हुए इन मुनियोंको परिषह काम विषय-कषायोंसे एकदम मुंह मोड़ना नहीं, उनको देनेके वास्ते उनके कर्मोंने इनको पैदा नहीं कर दिया बिलकुल ही दवा देना व बोर्ड बैठना भी नहीं, किन्तु । हैं। हाँ ! मुनियोंके यहाँ पाने पर उनको परिषह पहुँ- उनको अपने प्राधीन चलानेका ही होता है। उनका चानेके निमित्त कारण ये ज़रूर बन गये हैं । दिनको यह काम काले नाग खिलानेके समान है इसीसे बहुत कड़ी धूपका पड़ना, रातको ठंडी हवाका चलना, बारिश- ही कठिन और बहुत ही नाजुक है। मुनी तो विषक का यरसना, बरफका पड़ना आदि भी जो कुछ अब हो कायोंको जहरीले साँप मानकर उनसे दूर भागते है, रहा है वही इन मुनियोंके प्रानेसे पहले भी होता था दूर भागकर उनको पास तक भी नहीं पाने देते है,
और जब ये मुनि दूसरे बनको चले जायेंगे तब भी होता परन्तु गृहस्थी स्वयं विषय-कषायोको पालते हैं, अर्थात् रहेगा । इससे स्पष्ट सिद्ध है परिषहका सब सामान भी विषय-भोग भी करते हैं और कोष-मान-माया-लोम प्रादि मुनियोंके कर्मोंने नहीं बनाया है किन्तु उनके यहाँ आने सभी प्रकारकी कषायें भी. करते हैं। सच पुखिये तो ये पर निमित्त कारण जरूर हो गया है । जो सचे मुनि कषाय ही तो गृहस्थीके हथियार होते है जिनके सहारे महाराज होते हैं वे इन सब परिषहोंको समभावके साथ अपना गृहस्थ चलाते हैं, अपने गृहस्थके योग्य सब सहन करते हैं किंचित मात्र भी दुख अपने मनमें नहीं प्रकारकी सामग्री जुटाते हैं और जुटी हुई सामग्रीकी लाते है. न अपने ध्यानसे ही विचलित होते है। रक्षा करते हैं। परन्तु ये विषय-कवाय काले नागके यदि पापी मनुष्य भी उनको दुख देते हैं, अपमान करते समान अत्यन्त जहरीले और केहरिसिंहकी तर महा है वा अन्य प्रकार पीड़ा पहुँचाते है तो भी वे कुछ भयानक तथा खूनके प्यासे होते है, जिनको वयमें खयाल नहीं करते हैं, कोष और मान श्रादि कर्मोंको. रखना और अपने अनुसार चलाना कोई प्रासान बात किचिंतमात्र भी उभरने नहीं देते हैं अपने महान पुरु- नहीं है। इसके लिये बड़ी होशियारी, बड़ी मारी हिम्मत पार्थसे उनको दबाये ही रखते हैं, दबाये ही नहीं, किन्तु बड़ा दिलगुर्दा और बड़ी सावधानीकी ज़रूरत है और सभी प्रकारकी कषायोंको, सारे ही राग-द्वेषको अथवा इस कारण ये काम वे ही कर सकते है जो महान् साहसी सारे ही मोहनीय कर्मको जड़-मूलसे नाश करनेके ही और पूर्ण पुरषार्थी होते है । करा चुके और मारे गये, यलमें लगे रहते हैं । इस ही कारण वे धन्य है और जरा भी किसीने असावपानी की और बहरीले सांपोने पजने योग्य है।
उसको मां दबोचा; फिर तो विषय-कषायोंका पहर खोटे निमित्तोंसे बचे रहने के वास्ते मुनि विषयं- बढ़कर वह ऐता बेहोय वा उन्मन्त होता कि अपने कषायोंसे भरी हुई बस्तीको छोड़कर जंगल में ही नहीं भले बुरेकी कुछ भी सुषि नहीं सती, विषय-कषायोंमें
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अनेकान्त
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फंसकर पाप ही अपनी ऐसी दुर्गति बना लेता है,होलीका साथ थामकर उनको अपने अनुकूल ही चलाता रहे । यही भड़वा बनकर अपने ही हाथों ऐसा जलील और उसका सद्गृहस्थीपन है, नहीं तो वह नीचातिनीच मनुष्य स्वार होता है, ऐसे २ महान् दुख भोगकर मरता है कि ही नहीं, किन्तु भयंकर राक्षस तथा हिंसक पशु बनकर जिनका वर्णन नहीं किया जासकता है और मरकर भी अथवा विष्टाके कीड़े के समान गन्दगीमें ही पड़ा रहकर सीधा नर्कमें ही जाकर दम लेता है। इसी कारण इस अपना जन्म पूरा करेगा और मरकर नरक ही जायेगा। लेखमें पुरुषार्थ पर इतना जोर दिया गया है कि जिसके कर्मोको बलवान मानकर उनके आधीन होजानेका यही भरोसे गृहस्थी लोग कर्मोको निर्बल मानकर उनके उदय- तो एकमात्र कुफल है। से पैदा हुई विषय कषायोंकी मड़कको काब कर अपने वस्तुतः पुरुषार्थसे ही मनुष्यका जीवन है और अनुकूल चलानेका साहस कर सकें, गृहस्थ-जीवन इसीसे उसका मनुष्यत्व है । गृहस्थीका मुख्यकार्य कर्मोसे उत्तमतासे चलाकर भागेको भी शुभगति पावें-कर्मोंके उत्पन हुए महा उद्धत विषय-कषायोको पुरुषार्थ के बलउदयसे डरकर, हाथ पैर फुलाकर अपने हिम्मत, साहस से अपने रूप चलानेका ही तो है, इस कार्यके लिये
और पुरुषार्थको न छोड़ बैठे, डरे सो मरे यही बात उसमें सामर्थ्य भी है । वह तो अपनी सामर्थ्य के बल पर हरवक्त ध्यानमें रक्खें।
इससे भी अधिक ऐसा-ऐसा अद्भुत और चमत्कारी पुरुअगर किसी मुसाफ़िरको किसी बहुत ही दंगई घोड़े पार्थ कर दिखा रहा है कि स्वर्गाके देवोंकी बुद्धी भी पर सवार होकर सफर करना पड़जाय और उसके मनमें जिसको देखकर अचम्भा करने लग जाती है । देखो यह या बैठ जाय किसी
ाय कि इस घोड़े पर मेरा कोई वश नहीं चल पाँच हाथका छोटा-सा मनुष्य ही तो श्राग, पानी, हवा, सकता है, ऐसा विचारकर वह घोड़ेकी बाग ढीली छोड़दे, बिजली आदि सृष्टि के भयंकर पदार्थोंको वश करके तो पाप ही समझ सकते हैं कि फिर उस मुसाफिरकी उनसे अपनी इच्छानुसार सर्व प्रकारकी सेवाएँ लेने खैर कहाँ ? वह बे लगाम घोड़ा तो उल्टा सीधा भागकर लग गया है, प्राग, पानीसे भाप बनाकर उससे आटा मुसाफिर की हड्डी-पसली तोड़कर ही दम लेगा। यही हाल पिसवाता है, लकड़ी चिरवाता है, पत्थर फुड़वाता है, गृहस्थीका है, जिसको महा उद्धत विषय-कषायोंको हजारों मनुष्य और लाखों मन बोझ लादकर रेलगाड़ी भोगते हुए ही अपना गृहस्थ-जीवन व्यतीत करना होत खिचवाता है-खिचवाता ही नहीं, हवाके सामने तेज़ीहै। यह भी अगर यह मानले कि जो कुछ होगा वह से भगाता है। क्या कोई भयंकरसे-भयंकर राक्षस ऐसा मेरे कर्मोंका ही किया होगा, मेरे किये कुछ न होसकेगा बलवान् हो सकता है जैसे ये मापसे बनाये ऐखिन होते और ऐसा विचारकर वह अपने विषय-कषायोकी बागडोर- जिनकों यह साधारणसा मनुष्य अपने अनुकूल को बिल्कुल ही ढीली छोड़कर उनको उनके अनुसार होकता है । यह सब उसके पुरुषार्यकी ही तो महिमा ही चलने दे तो उसके तबाह होनेमें क्या किसी प्रकारका है। मनुष्यको अपने पुरुषार्थसे किधित मात्र भी असावशक या शुबाह हो सकता है ! गृहस्थी तो कुशलसे धान तथा विचलित होते देख यही मनुष्यका बनाया तब ही प सकता है जब अपने पुरुषार्थ पर पूरा-पूरा ऐजिन ऐसा भयंकर होजाता है कि पलकी पलमें हजारों भरोसा करके विषयकषायोंकी बागडोरको सावधानीके मनुष्योंको यमद्वार पहुँचा देता है।
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वर्ष २, किरण ७ ]
धन्य है मनुष्य ! तेरे पुरुषार्थको, धन्य है तेरे साहसको, जो ऐसी ऐसी भयंकर शक्तियोंके कान पकड़ कर उनसे कैसी कैसी सेवा ले रहा है, मीलों गहरे और हजारों मील लम्बे चौड़े समुद्रकी छाती पर हजारों मनुष्यों और लाखों मन बोसे लदा हुआ भारी जहाज़ इस तरह लिये फिरता है, जैसे कोई बच्चा अपने घर के आँगनमैं किसी खिलोनेसे खेलता फिरता हो, और अब तो श्राकाशमें हवाई जहाज़ इस तरह उड़ाये फिरता है जैसे देवतागण विमान में बैठे श्राकाशकी सैर करते फिर रहे हों । श्राकाशकी कड़कती बिजलीको काबू करके उससे भी आटा पिसवाना, पंखा चलाना, कुत्रोंसे पानी निकलवाना, रेलगाड़ी चलाना, श्रादि सब ही कामलेना शुरु कर दिया है । गङ्गा-यमुना जैसी बड़ी-बड़ी भयंकर नदियोंको काबू करके उनसे भी आटा पिसवाता है, और खेतोंकी सिंचाई के वास्ते गाँव-गाँव लिये फिरता है । धरतीकी छाती बींधकर उसमेंसे पानी निकालना तो बच्चा ही खेल हो गया है । वह तो उसकी छाती खूब गहरी चीर कर उसमेंसे तेल, कोयला, लोहा, पीतल, सोना, चाँदी आदि अनेक पदार्थ खींचलाता है । निःसन्देह मनुष्यका पुरुषार्थ अपरम्पार है जो महाविशाल - काय हाथीको पकड़ लाकर उन पर सवारी करता है और महा भयंकर सिंहोंको पकड़ लाकर उनसे सरकसका तमाशा कराता है ।
- भाग्य और पुरुषार्थ
गरज कहाँतक गीत गाया जाय, पुरुषार्थका मद्दारम्य तो जिह्वासे वर्णन ही नहीं किया जा सकता है और न किसीसे उसकी उपमा ही दी जा सकती है। हाँ, इतना और भी समझ लेना चाहिये कि जो पुरुषार्थ करते हैं वे मालिक बनते हैं और जो पुरुषार्थहीन होकर अपने कर्मोंके ही भरोसे बैठे रहते हैं वे गुलाम बन जाते हैं और पशुओंके समान समझे जाते हैं ।
एक बात और भी कह देने की है और वह यह कि मनुष्योंकी बस्तीमें चोर, डाकू, जालिम, हत्यारे, राक्षस, लोभी, मानी, विषयी सबही प्रकारके मनुष्य होते हैं, मांस शराब व्यभिचार श्रादिक सभी प्रकारके कुव्यसनोंकी दुकानें लगी रहती और चारों तरफ विषय-कषायोंमें फँसने के ही प्रलोभन नज़र आते हैं।
४१७
मुनि महाराज तो ऐसे भयंकर संबोधमें अपने परिणामों को संभाले रखना अपनी सामर्थ्य से बाहर समझ बस्तीको छोड़ बनको चले जाते हैं, परन्तु सद्गृहस्य बेचारा कहाँ चला जाय ? उसको तो इन सब प्रकारके तुट मनुष्यों और खोटे प्रलोभनोंमें ही रहना होता है। इनहीके बीच में वह इस प्रकार रहता है जैसे पानी में कमल । इस कारण सद्गृहस्थका पुरुषार्थ मुनियोंके पुरुषार्थसे भी कहीं अधिक प्रशंसनीय और बलवान् है, जिससे पुरुषार्थकी महान् सामर्थ्यका पूरा पूरा अन्दाजा हो जाता है । धन्य हैं वे सद्गृहस्थ जो इस पुरुषार्थका सहारा लेकर कर्मोंका भी मुकाबिला करते हैं और निमित्त कारणोंका भी अपने ऊपर काबू नहीं चलने देते हैं, कायर और अकर्मण्य बनकर इस प्रकार नहीं लुढ़कते फिरते हैं, जैसे पत्थर वा लकड़ीके टुकड़े नदीके भारी बहावमें बहते और लुढ़कते फिराकरते हैं ।
हमारी भी यही भावना है कि हम लकड़ी पत्थर की तरह निर्जीव न बनकर पुरुषार्थी बनें और अपने मनुष्य जीवनको सार्थक कर दिखावें ।
" बहुत रुलो संसारमें, बश प्रमादके होय । अब इन तज उद्यम करो, जातै सब सुख होय ।। "
"भाग्य भरोसे जे रहें, ते पाछे पछताय । काम बिगाड़ें आपनो, जगमें होत हँसाय ॥"
* यह विवेचनात्मक लेख भाग्यके मुकाबले में पुरुषार्थ से प्रोत्तेजन देने और उसकी महत्ता स्थापित करनेके लिये बहुत अच्छा तथा उपयोगी है; परन्तु इसकी सिद्धान्त-विषयक कुछ कुछ बातें खटकती हुई तथा एकान्तके लिबास में लिपटी हुई-सी जान पड़ती हैं। लेखक महोदय उन सबके लिये स्वयं ज़िम्मेदार हैं।
-सम्पादक
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गारवगाथा
हमारे पराक्रमी पूर्वज
(३)
[ले. अयोध्याप्रसाद गोयलीय ]
का सुना आपने ? यह जो हस्तिनागपुर तीर्थ- रथ यात्राओंके अधिकार प्राप्त हुए हैं। अतः तबकी , क्षेत्र पर खड़ा हुआ गगनचुम्बी विशाल जैन- तो बात ही निराली थी। सेठ साहबकी मनोभिमन्दिर स्वछ धवलपताका फहरा रहा है कब और लाषाको मीराँपुरके रांगड़ पूरी नहीं होने देते थे। कैसे बना १ देहलीके सेठ सुगनचन्दजीकी श्रान्ति- वे मरने मारने पर तुले हुएथे। उन दिनों हस्तिनागरिक अभिलाषा थी कि हस्तिनागपुर जैसे प्राचीन पुर और मीराँपुर साढौरा स्टेटमें सम्मिलित थे। जैन-तीर्थ-स्थानमें एक जिनमन्दिर बनवाकर भाग्यकी बात, दुष्काल पड़नेपर महाराज सादौतीर्थक्षेत्रका पुनरुद्धार किया जाय, किन्तु उन दिनों राको एक लाख रुपयेकी जरूरत पड़ी। सेठ सुगनजैनमन्दिर बनवाना मानों लन्दनमें काँग्रेस-भवन चन्दजी साहूकारीके लिये काफी विख्यात थे। अतः निर्माण करना था। एक ओर मुसलमानी बादशाहत सब ओरसे निराश होकर महाराज साढौराने अपना
मन्दिरोंके निर्माणकी आज्ञा नहीं देती थी, दूसरी दीवान सेठ साहबके पास भेजा और बगैर कोई “ओर हिन्दु भी जैनोंका विरोध करते थे। वे विरोधी लिखा पढ़ी कराये ही सेठ साहबके संकेत पर मुनीभावनाएँ आज इस संगठन और स्वतन्त्रताके युग- . मने एक लाख रुपया गिन दिया। में भी बहुत कुछ अपशिष्ट बनी हुई हैं, कितने ही एक वर्षके बाद दीवान साहब जब एक लाख स्थानोंपर अब भी जैनमन्दिर बनवाने और रथ- रुपया व्याज समेत वापिस देने आए तो सेठ साहबयात्राएँ निकालनेमें रुकावटें आती हैं और सैंकड़ों के मुनीमने रुपया लेनेसे इनकार करदिया और स्थानों में लाखों रुपया व्यय करके अदालतों द्वारा कहा कि “हमारे यहाँसे महाराज सादौराको कभी
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वर्ष, किरण ]
सेठ सुगनचन्द
४१६
.
रुपया कर्ज नहीं दिया गया ।"
लिखा हुआ था--"दीवानसाहबके हस्ते महाराज दीवान हैरान था कि मैं स्वयं इस मुनीमसे सादौराके पास एक लाख रुपया हस्तिनागपुरमें एक लाख रुपये ले गया हूँ और फिर भी यह अन- जैनमन्दिर बनवाने के वास्ते बतौर अमानत जमा भिज्ञता प्रकट करता है ! एक लाख रुपयेकी रकम कराया।" भी तो मामूली नहीं जो बहीमें नाम लिखनेसे रह . पढ़ा तो दीवान साहब अवाक रह गये! फिर. गई हो। इससे तो दो ही बातें जाहिर होती है-.. भी रुपया जमा करने के लिये काकी भापह किया या तो सेठ साहब के पास इतना रुपया है कि कुबेर किन्तु सेठ साह ने यह कहकररा रुपया जमा करानेभी हार मानें या इतना अन्धेर है कि कुछ दिनों में में अपनी असमर्थता प्रकट की कि--"जब मन्दिरसफाया होना चाहता है।
के लिये रुपया लिखा हुआ है तो वह वापिस कैसे ___आखिर दीवान साहब तंग आकर बोले-“सेठ लिया जासकता है ? धर्मके लिये अर्पण किया साहब ! यह हमने माना कि आपने भाड़े बक्तमें हुआ द्रव्य तो छूना भी पाप है।" रुपया देकर हमारे काम साधे। मगर उसका यह लाचार दीवान साहब रुपया वापिस लेकर अर्थ तो नहीं कि आप अपना रुपया ही न लें। महाराजके पास पहुँचे और सारी परिस्थिति
और उसपर भी कहा जारहा है कि रुपया कर्ज दिया समझाई और कहा कि जब अन्य उपायोंसे सेठ ही नहीं गया। अगर रुपया हम कर्ज न ले जाते साहब मन्दिर बनवानेमें असफल रहे तो उन्होंने तो हमारे पास आपकी तरह रुपया फालतू तो है यह नीति अख्तियार की । अन्तमें महाराज सादी नहीं,जो व्यर्थमें देने आते । मैं स्वयं इन्ही मुनीमजी- राने कृतज्ञता स्वरूप राँगड़ोंको राजी करके जैनसे.....ता० को रुपया उधार लेकर गया हूँ। मन्दिर बनवा दिया । मन्दिर निर्माण होनेपर सेठ आखिर .....!"
साहबको बुलाया गया और हँसकर उनकी प्रमा सेठ साहब बातको जरा सम्हालते हुए बोले- नत उन्हें सौपदी। "मुनीमजी ! जरा अमुक तारीम्बकी रोकड़ बही फिर सेठ साहबकी इस दूरदर्शिताके कारण हस्तिध्यानसे देखो। आखिर एक लाख रुपयेका मामला नागपुरमें आज अमरस्मारक खड़ा हुआ श्रीशान्तिहै । दीवान साहब भी तो आखिर झूठ नहीं बोल नाथ आदि तीन चक्रवर्ती तीर्थंकरों और कौरवरहे होंगे।"
पाण्डव आदिकी अमर कथा सुना रहा है। हजारों मुनीमजीने रोजनामचा उस तारीखका देखा नर-नारी जाकर वहाँकी पवित्र रज मस्तक पर लगा तो गर्म होगये। ताव में भरकर बोले-"लीजिये ते हैं। सेठ साहब चाहते तो हर इंट पर अपना
आप ही देख लीजिये, उधार दिया हो तो, पता नाम खुदवा सकते थे, मगर खोज करने पर भी चले। मुझे व्यर्थ में इतनी देरसे परेशान कर कहीं नाम लिखा नहीं मिलता। केवल वहाँकी वाय रक्खा है।"
ही उनको सुगन्ध कीर्ति फैलाती हुई भावक-हदयों..सेठ साहब और दीवान साहबने पढ़ा तो को प्रफुल्लित करती हुई नज़र आती है।
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अनेकान्त
[वैशाख, वीर निर्वाण सं०२४६५
सेठ सुगनचन्दजी और उनके पिता राजा हर- सेठानी पर मुर्दनी-सी छागई, न जाने वह सुखरायजीने भारतके भिन्न-भिन्न स्थानोंमें कोई कैसे घर पहुँची। और वह फ़ैशनेबिल स्त्री !! म'६०-७० जैन मन्दिर बनवाए हैं।
न्दिरमें ही समा जानेको राह देखने लगी! सेठानीने दूसरोंको उपदेश देनेकी अपेक्षा स्वयं जीवन- घर पाने पर रोकर अपराध पूछा तो सेठजी बोलेमें उतारना उन्हें अधिक रुचिकर था । उन्होंने "देवी ! अपराधी तुम नहीं, मैं हूँ ! मैंने उस स्त्रीमन्दिरमें देखा कि एक स्त्री आवश्यकतासे अधिक को समझानेकी शुभ भावनासे तुम्हारा इतना बड़ा चटक-मटकसे आती है। सेठजीको यह ढंग पसन्द तिरस्कार किया है। अपनी समाजका चलन न न था। उन्होंने सोचा यदि यही हाल रहा तो और बिगड़ने पाए इसी ख्यालसे यह सब कुछ किया भी बहु-बेटियों पर बुरा असर पड़े बरौर न रहेगा। है।" उसदिनके बाद सेठजी के जीतेजी किसीने बिरादरीके सरपंच थे, चाहते तो मना कर सकते उनकी उक्त आज्ञाका उलंघन नहीं किया । थे, किन्तु मना नहीं किया और जिस टाइम पर * * * वह फैशनेबिल स्त्री दर्शनार्थ आती थी, उसी मौक.. एकबार सेठ साहबने नगर-गिन्दौड़ा किया। पर अपनी स्त्रीको भी ज़रा अच्छी तरह सज-धजसे सारी देहलीकी जनताने श्रादर-पूर्वक गिन्दौड़ा आनेको कह दिया। शाही खजाँचीकी स्त्री, सजनेमें स्वीकृत किया। केवल एक स्वाभिमानी साधारण क्या शक होता ? स्वर्गीय अप्सरा बनकर मन्दिरमें परिस्थितिके जैनीने यह कहकर गिन्दौड़ा लेनेसे प्रविष्ट हुई तो सेठ साहबने दूरसे ही कहा-"यह इनकार कर दिया कि "मेरे यहाँ तो कभी ऐसा कोन रण्डी मन्दिरमें घुसी जारही है ?" टहला होना है नहीं,जिसमें सेठ साहबके गिन्दौड़ों
सेठानीने सुना तो काठमारी-सी वहीं बैठ गई, के एवजमें मैं भी कुछ भिजवा सकू, इसलिये मानों शरीरको हजारों बिच्छुओंने उस लिया। मैं ........" मन्दिरका व्यास सेठ साहबकी आवाज सुनकर पाया सेठजीने उस गरीब साधर्मी भाईकी स्वाभितो सेठानीको देखकर भौंचकसा रह गया । उससे मान भरी बात कर्मचारियोंसे सुनी तो फूले न उत्तर देते नहीं बना कि, सेठ साहब, यह रण्डी समाये और स्वयं सवारीमें बैठ नौकरोंको साथ ले नहीं आपकी धर्मपत्नी है। व्यासको निरुत्तर गिन्दौड़ा देने गये। दुकानसे २०-३० गजकी दूरीसे देख सेठ साहब वहाँ स्वयं आए और बोले- आप सवारीसे उतरकर अकेलेही उसकी दूकान पर "मोह ! यह सेठानी है, यह कहते हुए भय लगता गए और जयजिनेन्द्र करके उसकी दुकानमें बैठ था। खबरदार ! यह वीतरागका दरबार है, यहाँ गये। थोड़ी देर बाद बातचीत करते हुए दुकानमें कोई भी कामदेवका रूप धारण करके नहीं था- बिक्रीके लिये रक्खे हुए चने और गड़के सेव उठासकता । चाहे वह राजा हो या रंक, रानी हो या कर खाने लगे। चने सेव खानेके बाद पीनेको बान्दी । यहाँ सबको स्वच्छता और सादगीसे माना पानी माँगा तो गरीब जैनी बड़ा घबड़ाया । मैलीसी चाहिये।
टूटी सुराही और भदा-सा गिलास, वह कैसे सेठ
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वर्ष २, किरण ]
सेठ सुगनचन्द
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साहबको पानी पिलाए ? और जब सेठ साहबने इखियाके शासन कालतक आपके राज खजांची माँगा है तो इनकार भी कैसे करे? उसे असमंजसमें रहे! माज भी उनके वंशमें बीपी०डी०रामचन्दजी पड़ा हुआ देख सेठ साहबने स्वयं ही हाथ धोकर विद्यमान हैं जो देहली पंचायत के जरनल सेक्रेटरी पानी पीलिया।
"इशारा पाते ही कर्मचारी गिन्दौड़ा ले आए। मुझे यह लेख लिखने के लिये बहुत-सी बातें वह विचारा जैन अत्यन्त दीनता और लज्जाके वयोवृद्ध चन्दूलालजीसे माई पन्नालालजीकी साथ कुछ सटपटाता-सा बोला-"गरीब परवर! सहायतासे सात हुई है जिसके लिये में उनका मुझे क्यों काटोंमें घसीट रहे हैं ? भला गिन्दौड़ा भाभारी हूँ। बाबा चन्दूलालजी भी क सेठजीके देनेके लिये आपको तकलीफ उठानेकी क्या पारू बंशमेंसे ही हैं। रत थी ? मुझे गिन्दौड़ा लेनेमें क्या उन्न हो सकता था, मगर..........?"
"अजी वाह, भाई साहब ! यह भी आपके कहनेकी बात है, मैं तो खुद ही आपका माल बरौर इतिहास सिखाता है कैसे गिर जाते हैं उठने वाले। आपसे पूछे लेकर खा चुका हूँ, फिर आपको भव इतिहास सिखाता है कैसे उठ जाते है गिरने वाले। ऐतराज करनेकी गुंजाइश ही कहाँ रही ?"
इतिहास सभ्यता का साथी, ग़रीब जैन निरुत्तर था, गिन्दौड़े उसके हाथ इतिहास राष्ट्रका रक प्राण, में थे, सेठ साहब प्यारसे उसे थपथपा रहे थे और ऊँचे नीचे दुर्गम मग में, वह इस धर्मवत्सलताको देख मुका जारहा था।
बढ़ने वालों का अमर गान, एक नहीं ऐसी अनेक किंबदन्तियाँ हैं। कहाँ इतिहास सिखाता है कैसे बढ़ चलते हैं पढ़ने वाले। तक लिखी जाएँ।
यह जीवन और मृत्युका नित
संघर्षकहानी का पुराण, सेठ सुगनचन्दजीके पूर्वज सेठ दीपचन्दजी जीवन अनन्त, जीवन अजेय, अप्रवाल जैन, हिसारके रईस थे। देहली बसाए इसका जीता-जगता प्रमाण, जानेके समय शाहजहां बादशाहके निमन्त्रण पर इतिहास सिखाता है कैसे तू अजर-अमर जीने वाले। वे देहली आए थे और दरीवेके सामने ४-५ बीघे प्रस लेते हैं पर सलमरको, जमीन बादशाह द्वारा प्रदान किए जाने पर आपने भूकम्प, बहि, मुखे सागर, अपने १६ पुत्रोंके लिये पृथक-पृथक महल बनवाए वे यहां नष्ट करते निवास, थे। बादशाहने प्रसन्न होकर सात पार्चेका (जामा, हम वहाँ बसाते नये नगर, पायजामा, चादरजोड़ी, पेटी, पगड़ी, सिरपेच इतिहास सिखाता है कैसे जी उठते हैं मरने वाले, कलगी, तुर्रा) खिलभत भता फर्माया था। ईट
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ले०--अयोध्याप्रसाद गोयलीय] KARTERRIERRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRY
(१५) . . . . . वही पराजित और बन्दीके रूप में अपनी प्रजाके सामने । महर्षि व्यासदेवके पुत्र शुकदेव संसार में रहते हुए इस जिल्लतसे घुमाया जा रहा था कि जमीन फट जाती भी विरक्त थे। वे आत्म-कल्याणकी भावनासे प्रेरित तो उसमें समा जाना वह अपना गौरव समझता ! होकर घरसे 'जंगलकी ओर चल दिए । तब व्यासदेव भी दोपहरकी कड़ी धूप, हथनीकी नंगी पीठ, कैदीका वेश, पुत्रमोहते वशीभत उन्हें समझाकर घर वापिस लिवा. और फिर प्रजाके भारी समूहमेंसे गुजरना, दाराको लाने के लिये पीछे पीछे चले। मार्ग में दरियाके किनारे सहस्त्र बिन्नोंके कसे भी अधिक पीड़ा दे रहा था। कुछ स्त्रियाँ स्नान कर रहीं थीं। व्यासदेवको देखते ही वह रास्ते भर नीची नजर किए बैठा रहा, भलकर भी सबने बड़ी तत्परतासे उचित परिधान लपेट लिये- पलक ऊपर न किए । एकाएक जोरकी आवाज़ आईअङ्गोपाङ्गटँक लिये। महर्षि बासदेव बोले-"देवियो! “दारा । जब भी त निकलता था, खैरात करता हुआ वह अभी मेरा जवान पुत्र शुकदेव तुम्हारे पागेसे जाता था, आज तुझे क्या हो गया है? क्या तेरी उस निकलकर गया है उसे देखकर भी तुम नहीं सकुचाई। सखावतसे हम महरूम रहेंगे १५ दाराने नेत्र उठाकर एक ज्योकील्यों स्नान करती रहीं। जो युवा था, सब तरह पागल फकीरको उक्त शन्द कहते देखा । चट कन्धे पर योग्य था, उससे तो पस्वान किया, और मुझ अर्द्ध- पड़ा हुआ दुपट्टा उसकी ओर फेंक दिया और फिर मृतक समान वृद्धसे लजाकर परदा कर लिया, यह भेद नीची नज़र करली। फकीर “दारा जिन्दाबाद के नारे कुछ समझमें नहीं आया।" स्त्रियाँ बोलीं-"शुकदेव लगाता हुश्रा नाचने लगा । प्रजा दाराके इस साधुवाद युवा होते हुए भी युवकोचित विकारोंसे रहित है। पर आँसू बहाने लगी। उसने उस अापत्तिके समय भी वह स्त्री-पुरुषके अन्तरको और उसके उपयोगको भी अपने दयालु और दानी स्वभावका परिचय दिया । नहीं जानता उसकी दृष्टि में सारा विश्व एक रूप है।
(१७) . सांसारिक भोयोपभोमसे बालकके समान अबोध है। दार । मुसलमान होते हुए भी सर्वधर्म समभावी परन्तु देव ! श्रापकी वैसी स्थिति नहीं है। इसीलिये था। उसके हृदयमें अन्य धर्मों के प्रति भी सन्मान था। आपकी दृष्टिसे अपने के लिये परिधान लपेट लिया है।" वह जितना ही दयालु और स्नेहशील था, उतना ही
वीर प्रकृतिका भी था। शत्रुके हाथों मेड़ोंकी तरह मरना धर्मान्ध और पितृ-द्रोही औरंगजेब अपने पज्य पिता उसे पसन्द नहीं था । वह औरंगजेब द्वारा बन्दी बनाए साहवहाँको कैदमें डालकर बादशाह बन बैठा.तो उसने जानेपर कमरेमें बैठा हुया चाकसे सेव छील रहा था अपना मार्ग निष्कंटक करने के लिये शुजा और मुराद कि औरंगजेबकी ओरसे उसका वध करने के लिये नामके अपने दो सगे भाइयोंको भी लगे हाथों यमलोक घातक आए. घातकोंको आते देख उसने प्राण-भिवाके पहुँचा दिया ! सल्तनतके असली उत्तराधिकारी बड़े लिये गिड़गिड़ाना पाप समझा और चुपचाप प्रात्मभाई दारा को भी गिरफ्तार करके एक भद्दी और बढ़ी समर्पण करना कायरता जानी। तलवार न होनेपर भी हक्नीकी नंगी पीठपर बिठाकर देहलीके मुख्य मुख्य सेव छीलनेवाले चाकसे ही प्रात्म-रक्षाके लिये तैयार हो बामातेमेसे उसको धुमाया गया। कहनेको जुलस था, गया और अन्तमें आक्रमणको रोकने का प्रयत्न करता पर पैशाचिक वांडव था । जिन बाजारोंमें दारा युवराज हुआ जामदोंकी तरह मरकर वीरगतिको प्राप्त हुआ। और स्थानापन सम्राटकी हैसियतसे कभी निकलता था,
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देहली-महावीर-जयंती पर
महत्वपूर्ण तीन भाषण
भाषण श्री लोकनायक अणे M.LA. सभापतिजी, भाइयो भौर देवियो !
उस समय यज्ञादिकमें हिंसाका अधिक प्रचारमा मुझे इस बातका हर्ष है कि मैं आज भगवान लोग स्वार्थ के वशीभूत होकर जीवोंकी हिंसा में भी वीरके विषयमें यहां कुछ कहने खड़ा हुआ हूँ। धर्म मानने लगे थे । परन्तु वीरने उस यज्ञादित हमारा देश एक धार्मिक
पलिको बिल्कुल मिटा देशहै। आज दुनियामें
दिया । यद्यपि वेदोंमें चारोंतरफ क्रान्ति मची
हिंसाका विधान है हुई है, परन्तु भारत
परन्तु यह भगवान् कीरअब भी शान्त है। राष्ट्र
के ही उपदेशका प्रभाव वही है जो भले बुरेका ॥
है कि लोग वेदोंमें विचार कर सके ।
हिंसाका विधान होते जहाँ भले बुरेका
हुए भी बलि नहीं देते विचार नहीं, वह राष्ट्र ॥
है और न अब उनके नहीं कहा जा सकता।।
॥ ऐसे भाव ही होते है। भारत एक धर्म प्रधान
यदि किसी सनातवी राष्ट्र है। इसने औरों
श्री लोकनायक अणे एम. एल. ए. " माईसे हम यहमें पर को रास्ता बतलाया है। श्री० लोकनायक अणे परखे हुए पुराने राष्ट्र-सेवक बलि देनेको कहें और
यद्यपि भारतमें | हैं। सन ३२ के असहयोग आन्दोलनमें श्राप कांग्रेसके वेद-वाय दिलामी प्रत्येक धर्म अहिंसाको । डिक्टेटर जैसे जोखिम और उत्तरदायी पद पर रह चुके है तो वह हमें ही पटा मानता है परन्तु जो || हैं। वर्तमानमें श्राप केन्द्रीय असेम्बलीके एक सुलझ || देवाफ समझता है। अहिंसाका वर्णन महा- || हुए सदस्य हैं । आपकी विद्वता और वक्तृत्वताके शत्रु- यह सब असर भगान वीरने किया है वह और | मित्र सभी कायल है। आपके व्यक्तित्व पर भारतको ... वीरका ही है लेकिन किसीमें नहीं है। भग- || अभिमान है।
|| मनुष्य वही विजयी वान् वीरने बतलाया " = = =
oa d होता है जो बजे है कि सबसे पहले जीवको दूसरोंसे प्रेम करना चा- 'स्वयं अच्छी वरह देख लेता है। मन हिये। अपने दिलको साफ किये बिना म्नति कमी वान वीरने पहले अपनी शुद्धि करती थी। भी न हो सकती। जब भगवान् वीर पैदा हुए थे, वे दूसरोंका कल्याण कर पाये थे । की
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४२४
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अनेकान्त
[वैशाख, वीर निर्वाण सं०२४६५
कोई जीव अपनेको सबसे बड़ा समझता है तो भापके सामने मौजूद है। वीरके तत्वज्ञानका असर वह कभी भी उन्नत नहीं हो सकता, उन्नत होनेके सबके ऊपर है और भारत आज वीरके अहिंसावादका लिये कुछ त्याग अवश्य करना पड़ता है । दया कृतज्ञ है। हिन्दुओं और जैनियोंका मापसमें बड़ा
और अहिंसाका जो महत्व जैनधर्ममें पाया है, वह प्रेम रहा है। भगवान्ने पुण्यका रास्ता बतलाया इतना अन्य किसी धर्ममें नहीं है। भगवान् वीरके था। जैनधर्म, बौद्धधर्म, और वैदिक धर्म ही भारतकी पैदा होनेसे यह बात तो निर्विवाद सिद्ध है कि सम्पत्ति हैं, बाक़ीके धर्म तो यहाँ बाहरसे आये हैं। यज्ञ-मार्ग पीछे पड़ा । महावीरका तस्व-शान बहुत भगवान महावीरने दुनियाँका सबा उपकार किया ऊँचा था। उन्होंने बतलाया था कि जीव सबमें है, था। उन्होंने संसारको बतला दिया था कि दूसरोंकिसीसे घृणा मत करो, दूसरोंको सुखी बनानेकी को दुखी रखना सबसे बड़ा पाप है । मैं जैनधर्म कोशिश करो। हमें यहाँ बहससे कोई मतलव को बड़ी भक्ति से देखता हूँ। मेरा तो यह सिद्धान्त नहीं है पर यह बात जरूर है कि भगवान वीरने है कि जैनधर्म एक अद्वितीय धर्म है। लोगोंको दयाका रास्ता बतलाया था, मांसाहारको अब रह जाती है बात वीर-जन्मोत्सवके छुट्टी हटाया था और दुनियाको प्रेमका पाठ दिया था। की। इसके लिये आपको सबसे पहले अपनी छुट्टी भाज जो कुछ भी अहिंसाका असर हमारे सामने है करनी पड़ेगी। मुझे इस बातका दुःख है कि भाज उसका श्रेय वीरके ही उपदेशको है। उसी उपदेश- सब धर्मोकी छुट्टी होते हुए भी जैनियोंकी कोई का फल है कि आज उतनी हिंसा नहीं है, जितनी बुट्टी नहीं है । छुट्टीका न होना हमारे लिये एक कि वैदिक कालमें थी। यद्यपि बुद्धने भी हिंसा- दुखकी बात है। श्रावण बदी अमावस्याको किसी का उपदेश दिया था लेकिन वह इतने ऊँचे पैमाने- किसी प्रान्तमें गाड़ी चलाने वाले बैलों तकको एक का नहीं था । आज बौद्धधर्मके दीक्षित देश हिंसासे दिनका विश्राम दे देते हैं। परन्तु भाज उस महिसा खाली नहीं हैं । जहाँ पर आज बौद्धोंकी बस्ती के देवताकी एक भी छुट्टी नहीं है, यह भारतके लिये है वहाँ मांसाहारकी कोई कमी नहीं है। लज्जाकी बात है ! मैं तो यह कहता हूँ कि भाप __ जैनधर्म हिन्दूधर्मसे बहुत कुछ मिला हुभा रहा लोगोंको अगस्त माह तक कोशिश कर लेनी है। उपनिषदग्रन्थों में बतलाये. हुए सिद्धांतोंसे जैन- चाहिये, क्योंकि अगस्तमें अगली सालका कलेण्डर सिद्धान्त मिलते जुलते हैं। हिन्दूधर्मकेउससे मिलने- बन जाता है। मैं तो इसके लिये हर समय सेवा का यही सवृतहै कि माज हिन्दूधर्म पशुबलि मादि करनेको तैयार हूँ । जितनी कोशिश मुझसे हो को स्वयं बुरी निगाहसे देखने लगा है । यद्यपि सकेगी मैं अवश्य छुट्टी करानेकी कोशिश करूँगा। पृथ्वीपर बड़े बड़े अत्याचार हुए और होरहे हैं परंतु अब मैं फिरसे भगवान्के गुण-गान करता हुमा जैन और हिन्दुभोंके कभी पापसमें गले नहीं कटे। उनको श्रद्धाञ्जलि समर्पित करके अपने भासनको जैनधर्म भिन्न धर्म है ऐसा नहीं है । भगवान् पीरको ग्रहण करता हूँ। (१-४-१९३९) साही सम्प्रदाय मानते हैं जिसका उदाहरण भाज
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२
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भाषण श्री सेठ गोविन्ददासजी M.L.A. भाइयो और बहिनों!
यद्यपि मैं जैन नहीं हूँ, फिर भी मेरी सदा आपने मुझे देहली-जीव-दया मण्डलीका महावीरके चरणों में भक्ति रही है। जिन्होंने दूसरों सभापति बनाकर मेरी तारीफ़में जो कुछ कहा है, की सेवा की है वे ही सबै सुखी हुए हैं और ये ही मैं उस काबिल नहीं हूँ। यद्यपि मुझे दुनियावी हर दुनियाँमें चिरस्मरणीय होते हैं । मैं सब धमाको तरहका सुख प्राप्त था TAXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXAANTARNXXX एक-सा मानता हूँ। और मैंने राजा गोकल
* विचार भी सबके एक दासजीके भवनमें सब
* से हैं सब धर्म यह कुछ प्राप्त भी किया,
मानते हैं कि दूसरोंकी परन्तु मैं उस सुखको
पीड़ाके समान दुनिया कुछ नहीं समझता
में कोई पाप नहीं और जो कि अपने श्रा
* उनकी भलाई के सिवाय त्माका कुछ भला न
कोई पुण्यनहीं है । यह कर सके । सुख तो
सारा विश्व ईश्वरका भाग्यसे ही मिलता है।
• स्वरुपहै। विश्वमें और बहुतसे मनुष्य ऐशो
जीवमें कोई भी भेद इशरतमें ही सुख सम
नहीं है । महिसाका झते हैं और कुछ ऐसे सेठ गोविन्ददासजी एम. एल. ए.
स्वरूप जितना भगवान् भी हैं जो कि अपने 'सेठ गोविन्ददासजी पोतड़ों के रईस है । देव-दुर्लभ
* वीरने प्रज्वलित किया जीवनको उन्नत करने- लाड़ प्यारमें बड़े हुए हैं। धन वैभव और भोगविलास
था उतना किसीने भी में ही सौख्य मानते हैं। * की मोहमायासे निर्लिप्त रहते हुए स्वदेश सेवामें संलग्न
नहीं किया । उन्होंने दूसरोंको खुश करनेके हैं। स्वतन्त्रताका सुनेहरा प्रभात देखने के लिये आपके
संसारमें अहिंसाका सि
संसारम भी लिये वर्षों गुज़र जातेहैं. हृदयमें तड़प है। आप ही त्रिपुरी-काँग्रेसके स्वागता
बान्त सबके दिलोंमें परन्तुस्वयंके आनन्दके *ध्यक्ष थे। वर्तमानमें केन्द्रीय असेम्बलीके सम्मानित कूट कूट कर भर दिया बिना कुछ भी नहीं हो सदस्य हैं। वीरजयन्ती-महोत्सव पर देहलोकी जीवदया था और प्रत्येक जीव सकता मुझे तो वह मण्डलीके अध्यक्ष-पदसे आपने यह भाषण दिया था। एक दूसरेसे प्रेम करना सुख जिसको मैं पसन्द ARMIXIXXXMAMMAXIMMMMMMELANXII सीख गया था। करता था जेलमें बन्दी रूपमें मिला है । वह सुख आपको यह ख्याल नहीं करना चाहिये कि मुझे राजा गोकलदासजीके भवनमें भी नहीं मिला। जैनी कम तादाद में हैं। धर्म कभी भी अनुयाइयों सुख निजी आत्मासे पैदा होता है और वह अच्छे पर नहीं तोला जा सकता । धर्म तो एक अमर भावोंके ऊपर ही अवलम्बित रहता है। चीज होती है, जिसके होनेसे अपना और परका
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[वैशाख, वीर-निर्वाण सं० २४६५
उद्धार होता है। मैं तो यह कहता हूँ कि जैनी कम नहीं कर सकता। जालिम और अत्याचारीको सभी नहीं है मेरा तो यह हार्दिक ख्याल है कि जो भी बुरी निगाहसे देखते हैं । हिन्दू मुसलमानोंका पहिसा पर चलता है, वही जैनी है चाहे वह कोई लड़ना हमेशाके लिये खतम होगा और फिरसे मी क्यों न हो।
• भाई भाईके नाते दोनोंका व्यवहार होगा । यदि अब तक लोग मांसाहार छोड़नेमें ही अहिंसा हम अपने दिलोंसे कशिश निकाल दें तो फिर समझते थे, परन्तु माज महात्मा गान्धीने वास्तविक सचा प्रेम अवश्य ही प्राप्त होगा। अहिंसावादको संसारके सामने रख कर बतला अहिंसाका विचार सर्वश्रेष्ठ वीरने ही दिया दिया है कि अहिंसाके सामने शस्त्री-करणको भी है। यहाँ एकसे एक विद्वान और महात्मा हुए लेकिन मुकना पड़ता है । हमने अभी तक अहिंसाके सबसे उत्कृष्ट भगवान् वीरकी ही अहिंसा थी । अहिअसली मतलबको नहीं समझा था। परन्तु माधु- साका जितना प्रचार वीरने किया उतना किसीने नहीं निक गान्धीय वातावरणने हमें उसका असली किया ।मांसाहारी कभीभी सुखी नहीं रहसकता,ऐसा मतलब बतला दिया है । आततायी बातोंको रोकने- एलोपैथिक डाक्टर भी मानते हैं । माँसाहारीको के लिये अहिंसाका अपनाना सबसे अच्छा है। रोग अवश्य पकड़े हुए होता है। आज वेदान्त पर जबतक संसारमें अहिंसा-धर्मका प्रचार नहीं होगा. जो अहिंसाकी छाप है, वह वीरप्रभुकी अहिंसा की तबतक शान्ति कायम नहीं हो सकती। हमें संसार- ही छाप है । यज्ञमें हिंसाको मिटा देना चीरका ही को शान्त करनेके लिये रक्तपात और शस्त्री-करण- काम था, मैं तो इसी कारण कहता हूँ कि हम को दूर करना होगा । वह भी एक समय था जब अजैन नहीं बल्कि जैन ही हैं । वीर प्रभुने संसारके कि मनुष्य मनुष्यको खा जाया करता था ! परन्तु प्राणियोंका कल्याण किया । हमें भी उनके विचारों भाज संसारमें इस बातका पता भी नहीं मिलता। पर चलना चाहिये । वे वाक़ई वीर थे। संसारका इससे आप अन्दाजा लगा सकते हैं कि हमने सच्चा इतिहास वीरोंका ही इतिहास है। वीर-पूजाका वरकी की है और हम इससे भी अधिक तरकी यही महत्व है कि हम भी उन गुणोंको प्राप्त करें। रेंगे।
जिनका हमें वीरने उपदेश दिया था। हमें श्राशाही भगवान् वीरने दुनियाको बतलाया था कि नहीं बल्कि विश्वास है कि हमारा भारत वीरके मनुष्यको अपने समान दूसरोंको भी मानना उपदेश पर चलनेसे ही सुखी होगा । इसलिये मैं चाहिये। भाज भारतवर्षका वातावरण, जिसने आप लोगोंको पुनः बता देना चाहता हूँ कि आप. कि तमाम योरुपको चकित कर दिया है, अवश्य अब यह अच्छी तरह समझलें कि जबतक अहिंसाही कलायेगा और फिर वह दिन भी होगा जब को नहीं अपनाएँगे, जिसका कि श्रेय भगवान् कि, प्रेम, अहिंसा और सचाईका जमाना और वीरको है, तबतक हम सुखी नहीं हो सकते । राज्य होगा। जुल्म करके मनुष्य कभी भी उन्नति
(२-४-१९३९)
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(२)
भाषण श्री बैजनाथजी बाजोरिया M.L.A. सभापति महोदय तथा उपस्थित भाइयो और देवियो! भाइयो ! अहिंसाके महत्वका वर्णन पूर्ण रूपेण .
. सबसे प्रथम मैं भगवान् श्री महावीरके करना मेरे ऐसे सामान्य व्यक्तिका कार्य नहीं है। प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ। भगवान श्रीकृष्णचन्द्रजीने श्रीमद्भगवद् गीता महावीरजीका जन्म ऐसे समयमें हुआ था जब कि इस प्रकार कहा है:धर्मके नाम पर यज्ञ तथा होमादिमें हिंसाकी मात्रा भयं स त्वस शुद्भिनियोगव्यवस्थितिः। बहुत ही अधिक हो गई थी तथा और भी नाना दानं दमश्च यज्ञश्व स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ॥ . प्रकारसे प्राणि मात्रको सताया जा रहा था । ऐसी अहिंसा सत्यम कोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम् ।। स्थितिमें भगवान महावीरने संसारको अहिंसाका दया भतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं हीरचापलम् ।। . परम उपदेश देनेके ..mmmmmmmmmmmmmmmm तेजःक्षमा धृतिःशौचमलिये-संसारको अहिं.
द्रोहो नाति मानिता। सक बनानेके लिये
भवन्ति सम्पदं देवीमजन्म ग्रहण किया था।
। भिजातस्य भारत ॥ अहिंसा शब्दका अर्थ
। निर्भयता, अन्तः केवल पशु-हिंसाके
। करणकी शुद्धि, ज्ञान निषेधसे ही नहीं है,
और योगमें निष्ठा, बल्कि किसी भी प्राणी- सेट बैजना । बाजोरिया एम. एल. ए. दान, इन्द्रियनिग्रह, के जीवको तनसे, मन- सेंट जनाथ बाजोरिया भारत के एक प्रमुग्व व्या- यज्ञ, वेद पढ़ना, तप, से. वचनसे किसी भी पारी होते हुए भी अपना अधिकांश समय धार्मिक मीधापन मिा प्रकारसे दु और लोकोपयोगी कार्योम व्यतीत करते हैं। श्रार
सच बोलना, क्रोध न भारतकी प्राचीन सभ्यताके कहर पक्षपाती हैं। मनाननी चाना उसीका नाम
रीतिरिवाजकी समर्थक जनताके श्राप केन्द्रीय असेम्बली. करना, त्याग, शान्ति, अहिंसा है। अहिंसा में एक विश्वस्त प्रतिनिधि हैं।
। चुगुलखोरी न करना, को हमारे धर्ममें प्रधान rrrrr.
mummer प्राणीमात्र पर दया धर्म माना गया है, इसीलिये श्रुति है-"अहिंमा निर्लोभता, कोमल स्वभाव रखना, लज्जा, परमो धर्मः ।" भगवान् महावीरने सारे संसारमें चंचलताका त्याग, तेज, क्षमा, धीरता, पवित्रता : अहिंसाकी महिमाको प्रज्वलित किया सबके हृदयमें किसीसे घृणा या वैर न करना, अपनेको बड़ा .. दयाका संचार किया, उस समय प्रजा जो हिंसात्मक समझ कर घमंड न करना । ये २६ देवी सम्पत्तियां थी, उसे अहिंसात्मक बनाया, हिंसासे जो अनर्थ हो हैं। ये उन्हीं में होती हैं जिनका आगे भला होने रहे थे, उनसे संसारका उद्धार किया और जो लोग वाला होता है। अपने धर्मको भूल रहे थे उन्हें सन्मार्ग पर लगाया। इसलिये, भाइयो और देवियो ! मैं आपसे
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सानुरोध विनय करता हूँ कि आप इन वाक्योंके सकता है। परन्तु हम लोगोंको अपने धर्म अपने अनुसार चलकर अपने जीवनको पवित्र बनावें। कर्म पर अटल रहना चाहिये, इसीमें हमारा
भाज भी महात्मा गान्धीने अहिंसाके परम कल्याण है इसीसे हम मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। तस्वके आधार पर ही हमारे इस प्यारे भारतवर्ष- भाइयो ! श्री महावीरकी जन्म-तिथिके दिन को जो परतन्त्रताकी बेड़ीमें जकड़ा हुआ है, स्वतन्त्र भारतवर्षमें छुट्टी मनाई जाय और सरकारकी बनानेका दृढ़ संकल्प किया है और उसी अहिंसाके पोरसे वह दिन प्रत्येक वर्ष छुट्टीका दिन घोषित कर बल पर यह देश स्वतन्त्रताकी ओर अग्रसर हो दिया जाय इस बातका मैं सहर्षअनुमोदन करता हूँ। रहा है। जब कि योरुपमें रक्त-पातकी तैयारियाँ हो जबकि जन्माष्टमी, रामनवमी, शिवरात्रीके दिन रही हैं और युद्धकी भीषण अग्निमें आहुति हो तथा यहाँ तक कि ईसामसीह तथा मुहम्मदके जन्म जानेके भयसे शान्ति-रक्षाकी चेष्टा हो रही है, उस दिनोंकी सार्वजनिक छुट्टियाँ होती हैं, तब मैं नहीं समय हमारे देशमें अहिंसाका सिद्धान्त उन्हें नत- समझता कि श्री महावीरके जन्म दिनकी छुट्टी क्यों मस्तक कर रहा है । अहिंसाका सामना कोई भी न हो । आज भारतवर्षमें जैनियोंकी संख्या ५० शत्रु नहीं कर सकता, अन्तमें उसे परास्त होना लाखसे कम नहीं है। इतनी बड़ी संख्या होते हुए ही पड़ता है।
भी उनके धर्म संस्थापककी जन्म-तिथिको छुट्टी न . भाइयो ! आजकल सुधारकी आँधी बह रही है हो इस बातका मुझे अत्यन्त खेद है । तथा जिसमें स्थान स्थान पर हमें अपने धर्म-पथसे विमुख होने- उन्हें यह छुट्टी प्राप्त हो जाय इस शुभकार्यमें मैं के उपदेश सुनाये जा रहे हैं। अपनी धर्म-रूढ़ियों. सदैव उनके साथ हूँ । लेकिन इस छुट्टीके दिन, को मानने वालोंको कूप मंडूक कहा जारहा है। जैन भाइयोंको यह न चाहिये कि अपना समय मैं आप लोगोंको ऐसे उपदेशोंसे सावधान करता व्यर्थके कार्योंमें गँवावें । उस दिन उन्हें अपने भगहूँ। पापको अपने धर्म-पथसे कदापि बिचलित न वान महावीरके शुभगुणोंका गान करना चाहिये होना चाहिये । अपने धर्मके अनुसार सब कोईको और उनके उपदेशोंको दोहरा कर हृदयंगम करना चलना वांछनीय है, हमारे धर्ममें जो दोष दिखलाते चाहिये, जिससे कि वे अपने धर्मको भूल न जाएँ हैं वे भूल करते हैं। “सहजं कर्म कौन्तेय सदोष उस पर दृढ़ रह कर अपना कल्याण करनेमें समर्थ मपि न त्यजेत्" के अनुसार अपने स्वाभाविक कर्म हों। इतना कह कर मैं अपना भाषण समाप्त करता में दोष भी हो तो उसे न छोड़ना चाहिये । कारण हूँ और अपनी त्रुटियोंके लिये क्षमा प्रार्थी हूँ। भगवान के नामके अतिरिक्त दोष सभीमें पाया जा
(१ अप्रैल ३९)
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नया तो साफ़ होता है
या धुंधला; सुलझा या
ज्ञा उलझा; पर्याप्त या अपर्याप्त; तात्कालिक या
सङ्केतात्मक । पूर्ण ज्ञानको साफ़, सुलका, पर्याप्त और तात्कालिक होना चाहिये;यदि वह इन कसौटियोंमेंसे किसी एक पर ठीक नहीं उतरता तो वह न्यूनाधिक अपूर्ण है । इसलिये हम ज्ञानकी दर्जाबन्दी निम्नलिखित तरतीब से कर सकते हैं:
साफ़
ज्ञान पर लीबनिज
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[ श्री० नारायणप्रसाद जैन बी. एस सी . ]
सुलझा
पर्याप्त
ज्ञान
धु घला
उलझा
अपर्याप्त
सङ्केतात्मक
तात्कालिक
पूर्ण
हमारा किसी वस्तुका शान धुंधला है, जब कि हम उसको फिर शनाख्त न कर सकें और शेष दूसरी तमाम चीज़ोंसे उसे छाँट न सके । हमें गुलाबके और बहुतसे साधारण फूलोंका ज्ञान साफ़ है; क्योंकि हम उन्हें यकीनके साथ ( निश्चित रूपसे ) शनाख्त
• लोबनिज ( Leibnitz ) संसार का महान् गणितज्ञ और दार्शनिक ।
कर सकते हैं। जिन लोगोंसे हम प्रायः मिलते रहते हैं या अपने घनिष्ठ मित्रोंमेंसे किसीका हमारा शान साफ है; क्योंकि उन्हें जब कभी हम देखते हैं बिना हिकिचाहट, पूरे यक़ीनके साथ, उनकी शनाख्त कर लेते हैं। जौहरीको रत्नोंका शान साफ़ होता है, पर एक साधारण व्यक्तिको धुँधला ।
साफ़ ज्ञान उलझा हुआ होता है जबकि हम जानी हुई वस्तुके भागों और गुणोंमें तफ़रीक़ ( भेद ज्ञान ) न कर सकें, उसे सिर्फ अविभाजित रूप में जान सकें ।
हालाँकि कोई भी अपने मित्रको तत्क्षण जान जाता है और शेष तमाम लोगोंसे उसे छाँट सकता है, तो भी उसके लिये यह बता सकना बहुधा असम्भव होता है है कि वह उसे कैसे और किन चिन्होंसे जानता हैभले ही वह उसकी शक्ल-सूरतका अत्यन्त स्थूल रूपसे वर्णन कर सकें। एक व्यक्ति, जिसे चित्रकलाका अभ्यास नहीं, जब घोड़ा या गाय जैसी परिचित चीज़का चित्र खींचनेकी कोशिश करता है तो उसे जल्द पता चल जाता है कि उसे उसकी शक्लका सिर्फ उलझा हुआ शान है, जबकि एक कलाकारको उसके हर श्रवयवका सुलझा हुआ शान होता है। रसायन-शास्त्रवेत्ताको सोने चाँदीका सुलझा हुआ साफ शान होता है; क्योंकि वह दावेके साथ न सिर्फ यह बता सकता है कि अमुक धातु वास्तवमें सोना है या चाँदी बल्कि उन गुणोंका भी यथार्थ स्पष्ट वर्णन कर सकता है जिनके द्वारा वह उसे जानता है और यदि जरूरी हो तो, और भी बहुतसे अन्य गुणोंको बता सकता है। लेकिन जब
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४३.
अनेकान्त
[[वैशाख, वीर-निर्वाण सं०२४६५
हम 'वैधानिक गवर्नमेंट' या 'सभ्य' राष्ट्रका जिक डाक्टर टॉम्सन का मत है कि हम उस शानको पर्याप्त करते हैं तो हमें इनका सिर्फ अनिश्चित विचार रहता मान सकते हैं जो कि विश्लेषण को लक्षित उद्देश्यके है। इन शन्दोंके अर्थ न तो साफ है न सुलझे हुए। लिये काफी दूर तक ले जाता है। जैसे कलसाजको यही बात स्पर्शों, स्वादों, सुगन्धियों, रंगों और आवाजों- मशीनका पर्याप्त ज्ञान है यदि वह न सिर्फ़ उसके कुल के विषय में भी है, इनका शान साफ हो सकता है, पर पहियों और हिस्सोंको जानता है बल्कि उन हिस्सोंके उस अर्थ में सुलझा हुआ नहीं जिसमें कि लीबनिज उद्देश्य, द्रव्य, रूप, और कार्य को भी जानता है। इसके इस शब्दका प्रयोग करता है।
अलावा बशर्तेकि वह उस द्रव्य की कल-सम्बन्धी पर्याप्त और अपर्याप्त शब्दोंसे जो अन्तर लीबनिज़ खूबियोंको और शक्लोंकी उन विशेषताओंको भी प्रकटाना चाहता था उसे बताना आसान नहीं । वह जाने जो कि मशीनके काममें प्रभाव डालती हैं। लेकिन कहता है-"जब हर चीज़ जिसका ज्ञान सुलझी कोटिमें उससे यह श्राशा नहीं रखी जा सकती कि वह इससे
आता है पूरे तौरसे सुलझे रूपमें जानली जाती है या भी आगे बढ़े और यह समझाये कि 'अमुक प्रकारका जब अन्तिम विश्लेषण पहुँच जाता है तो ज्ञान पर्याप्त लोहा या लकड़ी मज़बत या कमज़ोर क्यों है', 'तेल होता है। कदाचित् मैं नहीं जानता कि इसका कोई क्यों चिकना कर देता है' या यह कि'यान्त्रिक शक्तियोंकामिल उदाहरण दिया जा सकता है--संख्याओंका के सिद्धान्त किन स्वयं सिद्धियों पर आधार रखते हैं।' शान अलबता इसका उदाहरण कहा जा सकता है।" अन्तमें, हमें संकेतात्मक और तात्कालिक ज्ञानके . तब वस्तु के पर्याप्त ज्ञान के लिये हमें न केवल वस्तु- अत्यन्त आवश्यक अन्तरको ध्यानपूर्वक देखना के उन अवयवोंकी ही तमीज़ होनी चाहिये जिनसे कि चाहिये। उस वस्तुका शान हुअा था बल्कि उन अवयवोंके अव- तात्कालिक शान वह है जिसे हम इन्द्रियों द्वारा यवों की भी। उदाहरण रूपसे कहा जासकता है कि हमें सीधा या मनसे तत्क्षण प्राप्त करें। हम तात्कालिक रूपसे शतरंजके तख्तेका पर्याप्त ज्ञान है; क्योंकि हम जानते जान सकते हैं कि वर्ग या षट्कोण क्या है, लेकिन है कि वह ६४ वर्गोसे बना है और उनमेंसे हर वर्गको सहस्रभुजको इस प्रकार जानना मुश्किल है। हम सुलझे हुए रूपसे जानते हैं हरएक वर्ग चार हम १००० भुजाओंकी और १००१ भुजाओंकी बराबरकी सरल रेखाओं से बना है, जो कि समकोण शक्लों के फ़र्कको देखते ही नहीं बता सकते और बनाती हुई मिलती हैं। फिर भी यह नहीं कहा जा- न हम ऐसी किसी शक्लकी पर्णतया अपने मनमें सकता कि हमें सरल रेखाका सुलझा हुश्रा शान है। कल्पना ही कर सकते हैं। इसे हमने सिर्फ नामसे या क्योंकि उसकी हम भली भाँति परिभाषा नहीं दे सकते संकेतात्मक रूपसे जाना है। तमाम बड़ी संख्याएँ जैसे या उसका सरलतर रूपमें विश्लेषण नहीं कर सकते। प्रकाशकी रफ्तार (१८६००० मील प्रति सैंकिंड), पूर्णरूपसे पर्याप्त होनेके लिये हमारे शानको विश्ले- सूर्यकी दूरी (६३०००००० मील) बतानेवाली या पणके बाद विश्लेषणको अनन्तवार तस्लीम करना ऐसी ही और, हमें सिर्फ संकेतोंसे शात है, और हमारी चाहिये, गोया पर्याप्त ज्ञान असम्भव होगया। लेकिन कल्पनाशक्ति के बाहर हैं।
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वर्ष २, किरण ] सुभाषित
- अनन्त भी ऐसे ही तरीकेसे जाना जाता है। तात्मक कभी नहीं देता। हम युद्धिसे उस वस्तुसे परिचित हो सकते हैं जिसका जो गणितसम्बन्धी विषयों के लिये कहा गया है वहीं शान हमें इन्द्रियों-द्वारा कभी न होता। हम न-कुछ, सब प्रकारके तर्कोमें लाग किया जा सकता है। क्योंकि शून्य, परस्पर विरोधी, नास्तित्व, विचारातीत शब्द भी अब स या क ख ग की तरह चिन ही है तकका जिक्र करते हैं, हालाँकि ये शन्द उस बातको और उनके अर्थोके स्पष्ट शान के बिना भी तर्क की जा जनाते हैं जिसको मनमें कभी मूर्तिमान नहीं किया सकती है। जासकता बल्कि सिर्फ़ संकेतात्मक रूपमें जिसका विद्यार्थी या पाठकमें वस्तुओंके ज्ञान के बजाय शविवेचन किया जा सकता है।
ब्दोंको अपनानेसे अधिक बुरी आदत नहीं । धर्मग्रन्थमें __ अङ्कगणित और बीजगणितमें प्रधानतः चिन्हास्मक प्रात्मा, परमात्मा, पुण्य पाप, स्वर्ग नरक, संसार मोक्ष (संकेतात्मक) ज्ञान ही हमारा विषय होता है। क्योंकि यादिके बारे में पढ़ना और मनमें इन शन्दोंका भाव अङ्कगणितके किसी लम्बे प्रश्नमें या बीजगणितके स्पष्ट न हो तो इनका पाना शायद न पढ़नेसे बदतर है। सवालमें यह ज़रूरी नहीं है कि हम हर कदम पर न रसायन और । प्राकृतिक दर्शन शास्त्र के ग्रंथोसे संख्याओं और संकेतोंके अोंको मनके आगे उप- (जहाँ संकड़ों नये शब्द मिलेंगे जो कि उसे मात्र स्थित करें।
खोखले और उलझे निन्द दिग्याई देंगे) कोई विशेष लेकिन रेखागणितमें हम हर कदमकी सत्यताके लाभ उठा सकता है ताबने कि वह स्वयं प्रयोगोंका सहज (तात्कालिक ) शानसे तर्कना करते हैं; क्योंकि निरीक्षण और वस्तुश्रीका परीक्षण न करे। इस कारण हम विचाराधीन शक्लोकी शक्लोंको मनके सन्मुख हमें अपनी इन्द्रियोसे घस्तुत्रोंके रूप, गुण, और परिलाकर यह देखते हैं कि पाया उन शक्लोंमें इच्छित वर्तनांसे परिचित होने का कोई भी अवसर नहीं छोड़ना विशेषताएँ वाकई हैं।
चाहिये, ताकि जिस भाषाका हम प्रयोग किया करते __ संकेतात्मक और तात्कालिक तरीकोंके तुलनात्मक हैं; जहाँतक सम्भव हो सहज, तात्कालिक रूपमें प्रयुक्त लाभोंके विषय में बहुत कुछ कहा जा सकता है । संके- की जा सके और हम उन बुद्धि विरुद्ध बातों और तात्मक कम श्रमसाध्य होता है और विशालतम रूपसे प्रमाणाभासीसे बच सकें जिनमें कि हम अन्यथा पड़ लाग होनेवाले उत्तर देता है। लेकिन तात्कालिकके सकते हैं। समान विषयकी स्पष्टता और उस पर अधिकार संके
सुभाषित ___ 'श्रात्म-संयमसे स्वर्ग प्रान होता है, किन्तु असंयत इन्द्रिय-लिप्सा रौरव नर्कके लिये खुली शाह-राह (खुला राज मार्ग) है।' ___'यात्म-संयमकी, अपने खजानेकी तरह रक्षा करो, उससे, बढ़कर इस दुनियाँमें अपने पास और कोई धन नहीं है।'
-तिरुवल्लुः र
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DILIHI/ minANILE"
हेमचन्द्राचार्य-जैनज्ञानमन्दिर
न श्री हेमचन्द्राचार्यका परिचय पाठक अनेकान्तकी कभी भी सोचा-समझा नहीं होगा !!" जगत तीन किरणोंसे पढ़ रहे हैं उनकी पुण्यस्मृतिमें मुंशीजीकी हेमचन्द्राचार्य के प्रति श्रद्धा-भक्ति और हाल ही गुजरातकी पुरातन राजधानी पाटण शहरमें एक साहित्योद्धारकी उत्कट भावनाका पता इतने परसे ही विशाल जैनशानमन्दिरकी स्थापना होकर उसकी चल जाता है, कि अापने बम्बईमें भी हेमचन्द्राचार्यका उद्घाटन-क्रियाके लिये 'हेम-सारस्वत-सत्र' नामसे एक स्मारक कायम करनेके लिये ३५ हजार रुपये तो एकत्र बड़ा भारी उत्सव गुजराती साहित्य-परिषदकी श्रोरसे कर लिये हैं और ५० हजारसे ऊपर और एकत्र करने गत ७,८,९ अप्रैलको नेता और बम्बई गवर्नमेण्टके का श्रापका प्रयत्न चाल है। अतः ऐसी सच्ची लगनगृहसचिव श्री. कनैयालाल माणिकलालजी मुन्शीकी वाले एक प्रसिद्ध पुरुषके हाथों इस शान-मन्दिरका अध्यक्षतामें मनाया गया है। मुन्शीजीके ही पवित्र उद्घाटन बहुत ही समुचित हुआ है और वह उसके हाथोंसे ७ अप्रैलको दिनके ३ बजे इस मन्दिरकी उद- उज्ज्वल भविष्यका द्योतक है। उद्घाटनके समय तक घाटन-क्रिया सम्पन्न हुई है । उद्घाटनादिके अवसरपर मन्दिरमें पन्दरह हज़ारके करीब प्राचीन हस्तलिखित
आपके जो भाषण हुए हैं वे बड़े ही महत्वपर्ण, सार- ग्रंथों और बहुतसे बहुमूल्य चित्रोंका संग्रह हो चका था, गर्मित तथा गुजराती भाइयोंमें साहित्यसेवाकी भावना- जिन सबकी कीमत लाखों रुपयोंमें भी नहीं-श्राँकी को और भी अधिक जागृत करने वाले थे। ग्रन्थसंग्रहके जा सकती। अस्तु । प्रदर्शनमें एक बड़ा-सा ट्रंक ताड़पत्रीय शास्त्रोंके टटे यह शानमन्दिर किसने बनवाया ! किस उद्देश्यसे फूटे पत्रोंसे भरा हुश्रा रक्खा था, उसकी तरफ इशारा बनाया ? किसकी प्रेरणासे बना ! कितनी लागतमें करते हुए मुन्शीजीका हृदय भर आया था और उन्होंने इसका निर्माण हुआ। इसके निर्माण में क्या कुछ उपस्थित जनताको लक्ष्य करके कहा था-शास्त्रोंके विशेषता है? और इसमें संग्रहीत ग्रंथ-राशि आदि टे-फटे पत्रोंके इस ढेरको देखकर हृदयको रोना आता सामग्री कहसि प्राप्त हुई ? ये सब बातें ऐसी हैं जिन्हें है! हमारे बुजुर्ग दादाओं तथा साधु-महाराजोंने परम्परा- जाननेके लिये हर एक पाठक उत्सुक होगा । हाल में से जिस अट खजानेको सुरक्षित रखा था वह इस प्राप्त हुए गुजराती पत्रोंमें इन विषयोंपर कितना ही • प्रकार नष्ट होगा, उनकी संतान ऐसी नालायक प्रकाश डाला गया है, उन्हीं परसे कुछ परिचय यहाँ निकलेगी-उनके साहित्यको नष्ट करेगी, ऐसा उन्होंने 'अनेकान्त'के पाठकोंके लिये संकलित किया जाता है।
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वर्ष २, किरण ७]
हेमचन्द्राचार्य-जैनशानमन्दिर
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शानमन्दिरके निर्माता और प्रेरक अपार लक्ष्मीका सदुपयोग किया था। गुजरातके ये यह शान-मन्दिर पाटण-निवासी तथा बम्बईके सब शानभंडार जैनाचार्योंकी प्रबल प्रेरणासे स्थापित हुए प्रसिद्ध जौहरी सेठ हेमचन्द मोहनलालजीने बनवाया थे, फिर भी किसीको यह समझनेकी भल न करनी है। आपके पिता श्री सेठ मोहनलाल मोतीचन्दजीको चाहिये कि इनमें मात्र जैन-धर्मके साहित्यको ही एकत्र प्रवर्तक मुनि श्रीकान्तिविजयजी महाराजने उपदेश किया जाता होगा। ऐसा नहीं है-न भंडारोंमें तो देकर ऐसे मन्दिरकी भारी आवश्यकता बतलाई थी वेद, उपनिषद, गीता, जैनागम और बौर-पिटकोंसे
और उनके भीतर उसके निर्माणकी भावनाको जागृत लेकर न्याय, व्याकरण, ज्योतिष, वैद्यक, नाटक, छंद, किया था । वे स्वयं अपनी भावना पूरी नहीं कर सके अलंकार, काव्य, कोशादि सभी विषयोंके मूल ग्रंथ बड़ी परन्तु सेठ हेमचन्दजीने पिताकी भावनाको मान देकर लगन तथा दिलचस्पीके साथ इकट्ठे किए जाते थे और उसे मस्तक पर चढ़ाया और उसकी पर्त्यर्थ मन्दिर- इस प्रकार भारतवर्षकी अमूल्य शान लक्ष्मी वहाँ एकत्र निर्माणके लिये ५१००० रु. की स्वीकृति श्रीसंघको होती थी। प्रदान करके एक सत्पुत्रका श्रादर्श सबोंके सामने इन भण्डारोंके द्वारा शानलक्ष्मीकी जो विरासत रक्खा । आपकी इस ५१ हजारकी भारी रकमसे ही गुजरातको प्राप्त हुई है उसमें पाटणका नाम सर्वोपरि शान-मन्दिरकी बिल्डिंग तय्यार हई है, जिसके उदघा- है। पाटण में आज जुदा-जुदा पाठ मुख्य शान-भण्डार टन अवसर पर मन्दिरके निर्वाहार्थ अापने दस हज़ार है, जिनमें ताड़पत्र तथा कागज पर लिखी हुई हजारो रुपयेकी और भी सहायता प्रदान की है। अपनी इस ग्रंथ प्रतियाँ मौजद हैं-उनकी कीमतका कोई तखमीना महती उदारता और सुदूरदृष्टताके लिये सेठ हेमचन्दजी नहीं किया जा सकता । विद्वान् लोग इस संग्रहको देख निःसन्देह बहुत ही प्रशंसाके पात्र हैं, उन्होंने अपनी कर चकित होते हैं । संस्कृत साहित्यके प्रेमी पिटर्सन इस पुनीत कृतिसे जगतको अपना ऋणी बनाया है। साहबने इन भण्डारोंको 'अद्वितीय' लिखा है। यहौदाश्रीकान्तिविजयजी महाराजकी श्रुतभक्ति, पुरातनसाहि- नरेश स्व. महाराजा सयाजीराव गायकवाड़को अपने त्यक-रक्षाकी शुभभावना, समयोचित सूझ-बूझ और राज्यके इन शानभण्डारोंका बड़ा अभिमान था ।इन दूरदृष्टिताकी भी प्रशंसा किये बिना नहीं रहा जा सकता, भण्डारोंसे समय-समय पर ऐसे हिन्दू, बौद्ध तथा जैनग्रंथ जिनकी सत्प्रेरणाका ही यह सब सुफल फला है। उपलब्ध होते रहे हैं, जो अन्यत्र कहीं भी नहीं पाये जाते मन्दिर निर्माणका उद्देश्य
हैं। हालमें भट्टाकलंकदेवका 'प्रमाण-संग्रह' ग्रन्थ मी गुजरातके महाराजा श्री सिद्धराज जयसिंहदेव बड़े- स्वोपज्ञभाष्य सहित यहींके भण्डारसे मुनि श्री पुण्यविजयही विद्वतोमी तथा साहित्यरसिक थे। उन्होंने अपनी जीके सटायल-द्वारा उपलब्ध हुना है, जो दिगम्बर जैनोंराजधानी अणहिलपुर पाटणमें एक राजकीय पुस्तका- के किसी भी भण्डारमें नहीं पाया जाता था। लयकी स्थापना की थी और तीनसौ लेखकों को रखकर इन सब भण्डारोंके बहुमूल्य ग्रंथ संरक्षाकी विशेष प्रत्येक दर्शनके सभी विषयोंसे सम्बन्ध रखनेवाली योजनाओंके साथ निर्माण किये गये एक ही मकानमें पुस्तकोंकी अनेक नकलें कराई थीं। उनके बाद रखे जायँ तो उनका ठीक-ठीक संरक्षण होवे और गुजरातके पराक्रमी अधिपति राजा कुमारपालने इकीस सुव्यवस्था तथा सुविधा होनेके कारण जनता उनसे शान-भण्डार स्थापित किये थे और श्री हेमचन्द्राचार्यके यथेष्ट लाभ उठा सके, इसी उद्देश्यको लेकर बह वर्ष रचे हुए ग्रंथोंकी २१-२१ प्रतियाँ सुवर्णाक्षरोसे लिखाकर हुए पाटणमें इस शान-मन्दिरके निर्माणकी हलचल तैयार कराई थीं। महामन्त्री वस्तुपाल-तेजपाल, मंत्री उत्पन्न हुई थी, जो श्राज बहुत अंथोंमें पूर्ण हो रही है। पेथडशाह और मंडनमंत्री श्रादि दूसरे भी अनेक पुस्खोंने साथ ही उक्त उद्देश्यमें कुछ वृद्धि हुई मी जान पड़ती शान-भण्डारोंकी स्थापनामें अपनी उपार्जन की हुई है-अर्थात् ऐसा मालम होता है कि अब यह ज्ञान
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.. अनेकान्त .....
[वैशाख, वीर-निर्वाण सं० २०६५
मन्दिर इधर-उधरसे महत्वके प्राचीन ग्रन्थोंको संग्रह करके इस मकानकी योजना की गई है। उसके बाहरका दृश्य उनकी मात्र रक्षा और वहीं पर पढ़नेकी सुविधाका काम बहुत ही भव्य है । संगमर्मरकी विशाल सीढ़ियोंकी श्रेणी ही नहीं करेगा बल्कि ऐसे अलभ्य ग्रन्थोंको प्रकाशित और उनके ऊपर एलोराके जगद्विख्यात गुहामन्दिरों के कर उन्हें सविशेषरूपसे लोकपरिचयमें लानेका यत्न भी ढंगके सुन्दर स्तम्भ इस मन्दिरके बनाने वालेकी विशाकरेगा जोअभीतक अप्रकाशित है। इसीसे उद्घाटनके लता और कला-प्रियताकी प्रतीति कराते हैं। जानमन्दिरअवसर पर मुन्शीजीने कहा था-'यह जो ज्ञान-मन्दिर के अन्दर प्रवेश करने पर बीच में विशाल हॉल.और तय्यार हना है वह पुस्तकोंको संग्रह करके हीन रक्खे चारों तरफ सब मिलाकर सात खण्ड दृष्टिगोचर होते हैं। बल्कि उन्हें छपाकर-उद्धार करके जगतको सौंपे ।' उनमेंके दायें बायें हाथ के पहले दो खण्ड साधारण ढंगइससे इस शान-मन्दिरका उद्देश्य कितना उत्कृष्ट तथा के है और उनका उपयोग ज्ञानमन्दिरके श्रॉफिसके तौर महान है और उसे पूरा करता हुआ यह शान-मन्दिर पर किया जायगा । शेष पाँच खण्ड खास तौरसे लोहेकितना अधिक लोकका हित-साधन करेगा-कितने ज्ञान- के बनाये गये हैं, जिससे उनके भीतर के अन्य किसी भी पिपासुत्रोंकी पिपासाको शान्त करेगा-उसे बतलानेकी स्थितिमें सुरक्षित रह सकें, अग्निका इन खण्डों पर किसी. जरूरत नहीं, सहृदय पाठक स्वयं समझ सकते हैं। जिन भी तरहका असर नहीं पड़ सकता । हवा के आने जानेके ग्रन्थोंकी प्राप्ति के लिये बहुत कुछ इधर-उधर भटकना लिये भी इन खण्डों में सब तरहका प्रबन्ध किया गया है, पड़ता था और भण्डारियोंकी मिन्नत खुशामदें करने पर जिससे नमी नहीं पहुँच सकती और दीमक वगैरह जन्तु भी उनके दर्शन नहीं हो पाते थे, उनकी प्राप्तिका ऐसा नीचे नीचे ज़मीनमेंसे कभी कोई प्रकारका उपद्रव न कर सुगम मार्ग खुल जाने के कारण किस साहित्य-प्रेमीको सकें इसके लिये बहुत गहरी नीवमें नीले थोथेसे मिश्रित हर्ष न होगा?
किया हुआ सीमेंट कंक्रीट भरा गया है। इन खण्डों पर "पाटणके उक्त पाठ ज्ञान-भण्डारोंकी प्रमुख-साहित्य- साथ ही साथ विशाल गैलरी भी बनाई गई है । यह सामग्री ही अभी तक इस ज्ञान-मन्दिरमें एकति मकान ज़मीनसे ८ फुट ऊँचा है, इसलिये वर्षाकालमें हई है। प्राशा है दूसरे स्थानोंके ऐसे शास्त्र-भण्डारोप भी इसको कोई प्रकारका भय नहीं है । ३६ फीट ऊँचा भी इस मन्दिरको शीघ्र ही महत्वक ग्रन्थ रत्नोंकी प्राति होनेसे यह मकान खब अाकर्षक मालम होता है। होगी जहाँ उनकी रक्षा तथा उपयोगका कोई समुचित इसमें सन्देह नहीं कि श्वेताम्बर भाइयोंका यह प्रबन्ध नहीं है।
ज्ञानमन्दिर ज्ञान-पिपासुओंके लिये एक ज्ञान प्याऊका । मन्दिरकी निर्माण-विशिष्टता
काम देगा और देश-विदेशके हजारों विद्वानोंके लिये - इस ज्ञान-मन्दिरका निर्माण पाटणके पंचासरा
यात्राधाम बनेगा। इसके निर्वाहार्थ सेठ हेमचन्दकी उक्त पार्श्वनाथके भव्य मन्दिरके पास ही हुआ है। निर्माण
दस हजारकी रकमके अतिरिक्त २१ हजारकी और भी की योजना तय्यार करने में सेठ हेमचन्दजीको बड़ा भारी रकम कुछ गृहस्थ
रकम कुछ गृहस्थोंकी तरफसे जमा हुई है और अधिक
रकम जमा करने के लिये बम्बई तथा पाटनमें प्रयत्न जारी परिश्रम उठाना पड़ा है। सबसे पहले मन्दिरकी रचनाके
है, और ये सब भावीके शुभ चिन्ह हैं । लिये उन्हें हिन्दुस्तान तथा युरोपके अपने मित्रों तथा कितने ही होशियार इंजिनियरोंके साथ खुब सलाह
- मशविरा करना पड़ा; क्योंकि ज़रूरत इस बातकी थी कि मकान ऐसी रीतिसे बनाया जाय जिससे उसमें नमी, ® इस लेखके संकलित करने में श्रीधीरजखाल टोकरशी दीमक आदि जन्तु और अग्निका उपद्रव न हो सके। शाहके लेखसे अधिक सहायता सी गई है, अतः ., १२५ वर्ग फीट जगहमें ६५+६५ फीटकी नीव पर उनका मामार मानता हूँ।
-सम्पादक
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मेरी प्रमिलाया [To-श्री रघुवीरशरण अग्रवाल एम.ए. 'धनरपाम' ]
अज्ञान-निशाने कर प्रसार, फैलाया फिरसे अन्धकार ! सब लुप्त हुआ वह पर्व-ज्ञान भारतको जिससे मिला मान !!
अब होवे तमका शीघ्र अन्त । चमके सुज्योति फिरसे अनन्त ।।
एक कार [ भी भगवतस्वरूप बैन 'भगवत्'] टूट टूटकर उलझ गये हैं, मेरी बीलाके सब तार ! उतर गया है मम-भाग्यसे, प्यार और आदर सत्कार !! 'व्यर्थ' समझने लगा उसे है, अब यह स्वार्थ-पर्ण-संसार ! प्रभो . कृपाकर एकबार तो, भरदो फिर रस-मय झनकार !!
हिंसाका फैला है स्वराज्य, सब भक्षणीय कुछ नहीं त्याज .. आचार नहीं, नहिं सद्विचार, अपना-सा होता कहाँ प्यार !!
हो जाएँ फिरसे सब सुधार । पसी मुज्योतिका हा प्रसार ॥
मेरे इस मरु-थल प्रदेशमें, नीरसताका है अधिकार ! ठुकराता है विश्व हृदय से, दुर्वचनोंका दं उपहार !! फले-फलं हुए द्रुम दलसं, वंचित है मेरा आकार ! प्रभो कृपाकर एकबार तुम, करदो मुझमें रम संचार !!
हा ' पड़ा परम्पर भेद भाव, उत्पन्न हुए जिसस कुभाव ! छल दम्भ मोहका पड़ा जाल, पल-पल में प्राती नई चाल !!
हों शुद्ध परम्पर प्रेम-भाव । मिट जाएँ सभी मन मलिन भाव ।।
हैं धर्म आड़में छिपे पाप. जिन नए किया सब यश प्रताप ! हुआ सत्य धर्मका हा ! विनाश. पाखण्ड मतोंके बिछे पाश !!
अब 'अनेकान्त' में हों विलीन । मुख पाएँ सब ही धनी दान ।।
नाविक मूर्ख, जर्जरित नौका, शंप नहीं जिसमें पतवार ! विमुख-वायु बह रही पयोनिधि, मचा रहा है हा-हाकार !! मैं हताश, निश्चेष्ठ, कर रहा, केवल चिन्ताका व्यापार ! प्रभो! कृपाकर एकबार बस,
मझको उस पार !!
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ल-जैन-अन्यमाला जबलपुर द्वारा प्रका सरल-जन-धर्म पर
लोकमत श्री पं० माता जी एका (माधुरी सम्पादको-'मैंने 'सरल जैन-धर्मी पुस्तकें पढ़ी । मुझे बहुत पसन्द । आई । ये बचोक लिये चार रीडर है । जिसे उद्देश्य से बनाई गई है उसकी पतिक उद्योग में अच्छा सहयोग दे। 1 सकती है। जैन अन्ये चाय भाग आधुनिक पद्धति से लिखे गये है। विद्याथियोंको सरलतासे समझाने के लिये जीयो, इन्द्रियों, पानीके कीटाणु, लेश्या, वीरवाणी, जम्बूदीप, तीनलोक स्वादाद, पाठ कोंक श्रावव । निमित्त रूप त्रादि अनेक चित्र यथास्थान दिये है। इससे ये पुस्तक बास्तवमें सरल जैन धर्म बन गई है।
बारबविवारी भाग बड़े रोचक ढंग से तैयार किए गए हैं। इन्हें बालोपयोगी बनानक लिये श्रीपने कई जैन विद्वानोंकी सम्मति ली है । यथार्थ में पुस्तके मौजूदा बालोपयोमी जेन पुस्तकोंसे उपयोगितामें बढ़ी हुई है। र जैन गजद- चारों भामौके पड़ने से अाशा होती है कि पुस्तकें जिस उद्देश्यकी पर्तिको लक्ष करके बनाई गई है, ,
उन्हें बहत अंश तक पूर्ण कर सकेंगी। अनेक चित्रोंक दिये जाने से पुस्तकोंकी उपयोगिता बढ़ गई है। जो प्रयल किया है वह अच्छा है। जन-मित्र 'जिनवाणीका चित्र बहुत बढ़िया है। यह चुनाब अच्छा है। चारों भागोंको। मंगाकर पाठशालाके मंत्रियोंको देखना चाहिये और उपयोगी समम प्रचार करना चाहिये। शुभचिन्तक प्रस्तुत प्रस्तकों में तो आपने जैनधर्म सम्बन्धी गढ़ तत्वोंक पाटो, उदाहरणों, कविताओं, प्रश्नोत्तरों और श्राख्यानों द्वारा है. समझानेका सफलतापूर्ण प्रयल किया है। जो लोग जैनधर्म समझना चाहते हैं, पर जिन्हें इतना अवकाश और र जान नहीं कि बडे २ ग्रन्थीका अध्ययन कर सकें उनके लिये इन पुस्तकोंक रूपमें बहुत अच्छा साधन उपस्थित कर दिया है । चित्रों के समावेश में कठिन धार्मिक विषयोको समझने में बड़ी सरलता श्रा गई है।
अपनी अपनी सम्मति भजिये। ELEMENTAL
अनेकान्तके नियम १. अनेकान्तका वार्षिक मूल्य २) २० पेशगी है। बी. जाते । प्राहक प्रथम किरणसे १२ वी किरण तकके
पी.से मंगाने पर समयका काफी दुरुपयोग होता है। ही बनाये जाते हैं। एक वर्षकी किरणसे दूसरे वर्षकी
और ग्राहकोंको तीन पाने रजिस्ट्रीके अधिक देने बीचकी किसी उस किरणतक नहीं बनाये जाते अनेहोते हैं। प्रतः मूल्य सनिबार्डरसे भेजने में ही दोनों कान्तका नवीन वर्ष दीपावलीसे प्रारम्भ होता है। और सुविधा रहती है।
७. पता बदलनेकी सूचना ता० २० तक कार्यालयमें कास्त प्रत्येक माहकी २८ ता० को अच्छी तरह पहुँच जानी चाहिये। महिने दो महिने के लिये जाँच करके भेजा जाता है। जो हर हावलमे १ ता पता बदलवाना हो, तो अपने यहाँके डाकघरको तक सबके पास पहुंच जाना चाहिये । इसीलिये ही लिखकर प्रबन्ध कर लेना चाहिये। ग्राहकोंको गाटिल पर १ ता कपी होती है । यदि किसी पत्र व्यवहार करते समय उसके लिए पोस्टेज खर्च। मासका अनेकान्त र ता० को न मिले तो, अपने भेजना चाहिये। साथ ही माना ग्राहक नम्बर डाकपने जिला पड़ी करनी चाहिये । वहाँसे जो और पता भी स्पष्ट लिखना चाहिये, अन्यथा उत्तरके उत्तर मिले वह उस मालकी १६ ला तक हमारे लिये कोई भरोसा नहीं रखना चाहिये। पास पर जाना चाहिये । देर होनेसे, बाकघरका अनेकान्तका मूल्य और प्रबन्ध सम्बन्धी पत्र किसी जबाब शिकायती पत्र के साथ न आने दूसरी प्रति व्यक्ति विशेषका नाम न लिखकर निम्न पतेसे बिमा मुल्य मानेमें असुविधा रहेगी।
चाहिये। वस्थापक "अनेकान्त" । अनेकान्स में एक पर्वसे कर
कनाट सर्कस पो० ब० नं. ४८ न्यू देहली।
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* विषय सूची के
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१. ममन्तभद्र वागी २. अपराजिन सूरि और विजयोदया-[श्री पं० परमानन्द शास्त्री ३. शिक्षा (कहानी)-श्री. यशपाल ४. अमर प्यार ( कविता )-श्री० "भगवत"जैन ५. मुभापित (कविता)-[श्री नारायण ६. कथा कहानी [ अयोध्याप्रमाद गोयलीय ७. श्री पूज्यपाद और उनकी रचनाएँ [ मम्पादकीय ८. सुभाषिन ( कविता )-[श्री तुलसी, कबीर ६. पंछी ( गद्यगीन )-[श्री. "भगवत" जैन १०. रायचन्द भाईके कुछ मम्मरण [ महात्मा गांधी ११. जागति-गीत (कविता)-[श्री. राजेन्द्र कुमार “कुमरश" १२. वीरप्रभके धर्म जाति भेदको स्थान नहीं है-[श्री० मूरजभानु वकील १३. सुभाषित ( कविता )- [श्री. चकबम्त, अकबर, दाग़, अज्ञात् १४. श्रावण कृष्ण प्रतिपदाकी म्मरणीय तिथि [पं० परमानन्द जी १५. प्रवृत्ति पथ-[श्री अजेय १६. वीर-शामन-जयन्ती-[सम्पादकीय १७. जीवन के अनुभव-अयोध्याप्रमाद गोयलीय १८. मरे जैनधर्म-प्रेमकी कथा-[श्री० बी. एल. मराफ़ ZMLAPUmuaarwrwSMI
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चित्र और ब्लाक रंगीन, हाफटौन अथवा लाइन चित्र
ब्लॉक बनवाने के लिये
निम्न पता नोट कर लीजिये आपके आदेशका पालन ठीक समय पर किया जाएगा। मैनेजर-दी ब्लॉक सर्विस कम्पनी
कन्दलाकशान स्ट्रीट, फतहपुरी-देहली।
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नीति-विरोध-ध्वंसी लोक-व्यवहार-वर्तकः सम्यक् ।
परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥ सम्पादन-स्थान-चीर-सेवामन्दिर (ममन्तभद्राश्रम) मरमावा, जि.महारनपुर
प्रकाशन-स्थान-कनॉट मर्कम, पो० ब० नं. ४८. न्य देहली ज्येष्ठ शुक्ल, वीरनिर्वाण सं० २४६५, विक्रम सं० १६६६
वर्ष २
किरण
समन्तभन्न-बाणा
प्रज्ञाधीशप्रपज्योज्वलगुणनिकरोभतसत्कीर्तिसम्पद्विद्यानन्दोदयायाऽनवरतमखिलक्लेशनिर्णाशनाय । स्ताद्गौः सामन्तभद्री दिनकररुचिजित्सप्तभंगीविधीद्धा भावाद्येकान्तचेतस्तिमिरनिरसनी वोऽकलंकप्रकाशा ।।
-प्रष्टसहस्या, श्रीविद्यानन्दाचार्यः श्रीसमन्तभद्रकी वाणी-वाग्देवी-बड़े बड़े बुद्धिमानों (प्रज्ञाधीशों) के द्वारा प्रपूजित है, उज्ज्वल गुणोंके समूहसे उत्पन्न हुई सत्कीर्तिरूपी सम्पत्तिसे यक्त है, अपने तेजसे सूर्यके तेजको जीतने वाली सप्तभंगी विधिके द्वारा प्रदीप्त है, निर्मल प्रकाशको लिये हुए है और भाव-भाव आदिके एकान्त पक्षरूपी हृदयान्धकारको दूर करनेवाली है। वह वाणी तुम्हारी विद्या (केवलज्ञान) और आनन्द (अनन्त सुख) के उदयके लिये निरन्तर कारणीभत होवे और उसके प्रमादसे नुम्हारे संपूर्ण दुःख-क्लेश नाशको प्राप्त हो जावें ।
अद्वैताद्याग्रहोग्रग्रह-गहन विपन्निग्रहे ऽलंध्यवीर्याः स्यात्काराऽमोघमंत्रप्रणयन विधयः शमदध्यानधाराः |
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अमेकान्त
[ज्येष्ट, वीर-निर्वाण सं०२४६५
धन्यानामादधाना धृतिमधिषसता मंडलं जैनमग्यू आचः सामन्तभद्रयो विदधतु विविधां सिद्धिमुद्भूतमुद्राः ।।
-पटसहस्या, श्रीविद्यानन्दः स्वामी समन्तभद्रकी वाणी-वाक्ततिरूप सरस्वती-अद्वैत-पृथक्त्व आदिके एकान्त आग्रहरूपीउग्रग्रह-जन्य गहन विपत्तिको दूर करनेके लिये अलंध्यवीर्या है-अप्रतिहत शक्ति है-,स्यात्काररूपी अमोष मंत्रका प्रणयन करनेवाली है, शुद्ध सद्ध्यान धीरा है-निर्दोष परीक्षा अथवा सची जांच-पड़तालके द्वारा स्थिर है,-उद्भूतमुद्रा है-ऊँचे आनन्दको देनेवाली है-धैर्यवन्त-धन्य-पुरुषोंकी अवलम्बनस्वरूप है
और अग्र जैन मंडल है-जैनधर्मके अन्तःतेजको खूब प्रकाशित करने वाली है- वह वाणी लोकमें नाना प्रकारकी सिद्धिका विधान करे-उसका आश्रय पाकर लौकिक जन अपना हित सिद्ध करनेमें समर्थ होवें।
अपेक्षकान्तादि-प्रबल-गरलोद्रेक-दलिनी प्रवृद्धाऽनेकान्ताऽमृतरस-निषेकाऽनवरतम् । प्रवृत्ता वागेषा सकल-विकलादेश-वशतः समन्ताद्भद्रं वो दिशतु मुनिपस्याऽमलमतेः॥
-मष्टसहस्यां, श्रीविद्यानन्दः निर्मलमति श्रीसमन्तभद्र मुनिराजकी वह वाणी, जो अपेक्षा-अनपेक्षादिके एकान्तरूप प्रबल गरल (विप) के उद्रेकको दलने वाली है, निरन्तर अनेकान्तरूपी अमृतरसके सिञ्चनसे खूब वृद्धिको प्राप्त है
और सकलादेशों-प्रमाणों-तथा विकलादेशों-नयों के अधीन प्रवृत्त हुई है, सब ओरसे तुम्हारे मंगल एवं कल्याणकी प्रदान करने वाली होवे-उसकी एकनिष्ठापूर्वक उपासना एवं तद्रूप आचरणसे तुम्हारे सब ओर भद्रतामय मंगलका प्रसार होवे ।
गुणान्विता निर्मलवृत्तमौक्तिका नरोत्तमैः कण्ठविभूषणीकृता । न हारयष्टिः परमेव दुर्लभा समन्तभद्रादिभवा च भारती ॥
-चन्नप्रभचरिते,श्रीवीरनन्याचार्यः गुणोंसे-सूतके धागोंसे गूंथी-हुई, निर्मल गोल मोतियोंसे युक्त और उत्तम पुरुषोंके कण्ठका विभषण बनी हुई हार यष्टिको-मोतियोंकी मालाको प्राप्त कर लेना उतना कठिन नहीं है जितना कठिन कि समन्तभद्रकी भारती (वाणी) को पा लेना-उसे खूब समझ कर हृदयंगम कर लेना है, जो कि सदगणोंको लिये हुए है, निर्मल वृत्त (वृत्तान्त, चरित्र, आचार, विधान तथा छंद) रूपी मुक्ताफलोसे यक है और बड़े बड़े प्राचार्यों तथा विद्वानोंने जिसे अपने कण्ठका आभूषण बनाम है-वे नित्य ही उसका उधारण तथा पाठ करनेमें अपना गौरव और अहोभाग्य समझते रहे हैं । अर्थात् समन्तभद्रकी वाणी परम दुर्लभ है-उनके वचनोंका लाभ बड़े ही भाग्य तथा परिश्रमसे होता है
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अनुसन्धान
अपराजितसूरि और विजयोदया
[लेखक-पं. परमानन्दजी जैन शाबी]
निम्बर जैन ग्रन्थोंके टीकाकारों में अपराजितसरि- नीयसूरिचडामणि' तथा 'जिनशासनोद्धरणधीर' तक
का नाम भी खास तौरसे उल्लेखनीय तथा लिखा है । प्रापकी कृतियोंमें 'भगवती आराधना' की गौरवको प्राप्त है। आपका दूसरा नाम 'श्रीविजय' एक संस्कृत टीका ही इस समय उपलब्ध है, जिसका अथवा 'विजय' है, जो कि 'अपराजित' का ही पर्याय- नाम 'विजयोदया। यह टीका बड़े महत्वको। नाम जान पड़ता है। पं. पाशाधरजीने 'मूलाराधना- सूक्ष्मदृष्टिसे अवलोकन करने पर इसकी उपयोगिताका दर्पण' में इम नामके साथ आपका तथा आपके वास्यो. सहज ही में पता चल जाता है-इसमें शेय पदार्थोफा का बहुत कुछ उल्लेख किया है। आप अपने समयके अच्छे ढंगसे प्रतिपादन किया गया है और यह पढ़ने में बड़े भारी विद्वान् थे--दिगम्बर-श्वेताम्बर-साहित्यसे पड़ी ही रुचिकर मालूम होती है। इस टीकाके एक केवल परिचित हीन थे किन्तु दोनोंके अन्तस्तत्त्वके मर्म- उल्लेख परसे यह भी जाना जाता है कि अपराजिनको भी जाननेवाले थे। न्याय, व्याकरण, काव्य, कोश सरिने 'दशकालिक' ग्रन्थपर भी कोई महत्वकी टीका और अलंकारादि विषयों में भी आपकी अच्छी गति थी। लिखी है. जिसकी खोज होनी चाहिये। भगवती आराधनाकी टीका-प्रशस्तिमें प्रापको 'मारा- अपर जितसरि कम हुए, कब उनकी यह 'विजयोदेखो, 'भनेकान्त ,कि.१५.१.पर
दया' टीका लिखी गई और उनकी दूसरी रचनाएँ स्या 'भगवती भाराषवाको दूसरी जटिपरिणी नाम क्या है, ये सब बातें अभी बहुत कुछ अन्धकारमें है। सम्पादकीय बेला
का प्रशस्तिमें भी इनका कोई उस नहीपा
नाचाया
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अनेकान्त
[ज्येष्ट, बीर-निर्माण ०२१
प्रशस्ति इस प्रकार है:- . ...
है। उनकी तत्वार्थसूत्र-व्याख्या 'सर्वार्थसिद्धिं' का इस "चन्द्रनन्दि-महाकर्मप्रकृत्याचार्य-अशिष्येण मारा- टीकामें बहुत कुछ अनुसरण किया गया है-उसके तीपरिपूलामणिना नागनन्दिगणिपादपमोपजात- वाक्यों तथा प्राशयको 'तथा चोक्तं' 'तथाचाभ्यन्यायि' मदिन पबदेवसूरिशिष्येव बिनशासनोवरणधीरेण और 'अन्ये श्रादि ग्रन्दोंके साथ अथवा उनके बिना
या प्रसरेणापराजितरिया श्रीनन्दिगणिना भी प्रकट किया गया है-,जिससे इतना तो स्पष्ट हो बोरिन रविता आराधनाढीका श्रीविजयोत्या माना जाता है कि अपराजितसूरि विक्रम की छठी शताब्दीके
बाद हुए हैं । सर्वार्थसिद्धिके ऐसे कुछ वाक्य उन समें बतलाया है कि 'इस टीकाके कर्ता अपरा- गाथाओंके नम्बर-सहित जिनकी टीकामें वे पाये जाते जितपरि चन्द्रनन्दि नामक महाकर्मप्रकृत्याचार्य के प्रशिष्य हैं,टीका वाक्यके साथ, नमूनेके तौर पर इस प्रकार हैं:
और बलदेवसूरिके शिष्य थे, श्रारातीय प्राचार्योंके (१) गाथा १८४७-तथा चोक्तं "एकदेशकर्मसंजयचड़ामणि थे, जिनशासनका उद्धार करने में धीर लक्षणा निर्जरा"(सर्वार्थसि० अ०१ सू० ४) इति । तथा यशस्वी थे, और नांगनन्दिगणीके चरणोंकी सेवासे (२) गाथा नं.१८०-"रागो कात्यहाससम्मिमोउन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ था और श्रीनन्दिगणीकी प्रेरणासे शिष्टवाक्प्रयोगः कंदर्पः" (सर्वार्थ ०अ० ७-३२) उन्होंने 'भगवती श्राराधना' नामक ग्रंथकी यह 'विजयो- (३) गाथा नं० १७७२-अन्ये तु भव परिवर्तनमेवदया' नामकी टीका लिखी है।'
वदन्ति-"नरकगतौ सर्वजघन्यमायुर्दशवर्षसहस्त्राणि । इस प्रशस्तिमें दी हुई गुरुपरम्पराका अन्यत्र किमी तेनायुषा तत्रोत्पनः पुनः परिश्रम्य तेनैवायुषा तत्र प्राचीन शिला लेख या पट्टायलिमें ऐमा उल्लेख नहीं जायते । एवं दशवर्षसहस्राणां यावंतः समयास्तावत्कृत्वा मिलता जिससे टीकाकारके समयादिका ठीक निर्णय 'तत्रैव जातो मृतः पुनरेकसमयाधिकभावेन त्रयस्त्रिंशकिया जासके। ऐमी स्थितिमें श्राचार्य अपराजितके स्सागरोपमाणां परिसमा पितानि ततः प्रच्युत्य तिर्यग्गती । समयादिका निर्णय करनेमें यद्यपि कितनी ही कठिना- अन्तर्मुहूर्तायुः समुत्पनः पूर्वोक्तन क्रमेण त्रीणि पल्योप इयाँ उपस्थित हैं, फिर भी टीका में प्रयुक्त हुए याक्योंका मानि परिसमापितानि । एवं मनुष्यगतौ । देवगती गवेषणापूर्वक अध्ययन करनेसे समयादिके निर्णयमें नारकवत् । अयं तु विशेषः एकत्रिंशत्सागरोपमाणि परिबहुत कुछ सहायता मिल जाती है।
समापितानि यावत्तावनवपरिवर्तनम ।" अपराजितसूरिने अपनी इस टीकामें श्रीकुन्दकुन्द,
(सर्वार्थ०२-१०) उमास्वाति, समन्तभद्रादि दिगम्बर प्राचार्योंके ग्रंथोंके इसी प्रकार कर्मद्रव्यपरिवर्तन, नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन, अतिरिक्त श्वेताम्बर सम्प्रदायके कल्पसूत्र, भावना लथा क्षेत्रपरिवर्तनादिका स्वरूप भी सर्वार्थसिद्धि के दूसरे श्रावश्यकादि ग्रंथोका भी उपयोग किया है। पुरातन अध्याय के १०वें सूत्रकी व्याख्यासे लिया गया है। दिगम्बराचार्योंमें जैनेन्द्र व्याकरण और समाधितंत्र श्रादि आचार्य पूज्यपादने इन परिवर्तनोंका स्वरूप निर्दिष्ट करते
ग्रंथोंके रचयिता प्राचार्य पूज्यपादका समय सुनिश्चित : हुए इनकी पुष्टि के लिये प्राचार्य कुन्दकुन्दकृत 'बारस it और वह विक्रिमकी छठी (ईसाकी पांचवी ) शनान्दी अणुवेकवा' ग्रंथकी जो पाँच गाथाएँ 'उक्तं च' रूपसे
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वर्ष २. किरण
अपराजितपरिऔर बिजोरया
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दी थीं उनमेंसे तीन गाथाओंको अपराजितसूरिने भी सम्पगितिविशेष.............................. उद्धृत किया है । जैसा कि टीकामें दिये हुए कालपरि- पूनापुरत्सरा किया सत्कार संपतो महानिति बोके वर्तनके निम्न स्वरूपसे प्रकट है:
प्रकाश बोक्तिः एषमागेवीसितमपुरिय पारी(1) गाथा १...-मस्य गावापाः प्रपंचया- कि विग्यसुखं पनपेष किपमाणो नियोतिति पा-"उत्सपिल्याः प्रथमसमये नाता पबिग्जीवा परिगीतेति प्रतिपयर्थ-सम्पगिति विशेषणमुपदीयते" स्वायुपपरिसमासौ एतः स एव पुनःहितीपाषा उत्सर्पि
-तत्त्वा० रा०६-४, बा.२,. स्या दितीयसमये जातः स्वायुषः सयान्मतः । स एवं कापवाल्मनःकर्मयां प्राकाम्यामानोनिग्रह पर पुनस्तृतीपाया उत्सर्पिरुपास्तृतीयसमये जातः, एवमनेन चरितामागो गुतिः । सम्पगिति विशेषणात् पूजापुरत्सव क्रमेण उत्सर्पिणी परिसमाता तथा भवसर्पिणी []। कियां संयतो महानपमिति पशबामपेज पारतोषिक एवं जन्मनरंतर्यमुक्तं । मरणस्यापि नैरंतर्ष प्रायमेवं मिन्द्रिपसुख वा क्रियमाणा गुसिरिति कथ्यते ।" ताबकालपरिवर्तनम् । उक्तंच
-भग० श्रा० गाथा ११५ उपसप्पिणिभवसप्पिणिसमयावलियासु णिखसेसासु। अकलंकदेवका समय विक्रमको ७वीं शताब्दी भादो मदो य बहुसो भमणेण दुकाबसंसारे ॥" सुनिश्चित है-वि० संवत् ७००में उनका बौद्धों के साथ
(सर्वार्थ०२--१०) महान्वाद हुआ है और वे बौद्ध विद्वान् धर्मकीर्तिके अपराजितसूरिने अपनी इस टीकामें, भट्टाकलंक- समकालीन थे। अतः अपराजितसूरिका समय विक्रमकी देवके तत्त्वार्थराजवार्तिकका भी कुछ अनुसरण किया ७वीं शताब्दीके बाद का जान पड़ता है। और चूँकि, है, जिसके दो नमूने इस प्रकार है
जहाँतक मैंने इस टीकाको तुलनात्मक दृष्टि से अवलोकन "साभ्यायाः क्रियायाः साधनानां समभ्यासीकरणं किया है, मुझे इसमें अकलंकके बाद होनेवाले किसी समाहारः समारम्भः।"
प्रसिद्ध आचार्यका अनुकरण अथवा अवलम्बन मालम -तत्त्वा० रा०, ६-८ के वार्तिकका भाष्य । नहीं होता, इसलिये मेरी रायमें यह टीका ८वीं शताब्दीके "साभ्याषा हिंसादिक्रियायाः साधनानां समाहारः मध्यकालकी बनी हुई होनी चाहिये । और ऐसी हालतमेंसमारम्भः।".
अपराजितसूरिका ममय अनुमानतः विक्रमकी ८वी -भग० श्रा० टी० गाथा ८११ शताब्दीका मध्यकाल ही उपयुक्त जान पड़ता है। "प्राकाम्याऽभावो निग्रहः॥प्राकाम्यं पहुंचारित्रं मेरे इस कथनका ममर्थन सम्पादक श्री जुगलतस्थाभावो निग्रह इत्याल्यायते । योगल्य निग्रहः किशोरजीके उस फुटनोटसे भी होता है जिसे उन्होंने योगनिग्रहः।
५० नाथूरामजी प्रेमीके 'भगवनीबाराधना और उसकी • इन दोनों अवतरणाम जो परस्पर थोड़ा-सा टीकाएँ' शीर्षक लेखके नीचे दिया था और जो निम्न साधारण भेद दृष्टिगोचर होता है उसका कारण दोनों प्रकार है:ग्रन्थोंकी वर्तमान मुद्रित प्रतियोंका ठीक तौर पर सम्पादित "इस टीकाके कर्ता प्राचार्य अपराजित अपनेको'चन होना भी हो सकता है।
न्द्रनन्दीका प्रशिष्य और बलदेवमूरिका शिष्य लिखते हैं।
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४.
अनेकान्त ...............ज्ये, वीर-निर्वाण सं. २४६५
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चन्द्रनन्दीका सबसे पुराना उल्लेख जो अभी तक पुष्टि मिलती है । दूसरे विद्वानों को भी इस विषय में विशेष उपलब्ध हुआ है वह श्रीपुरुषका दानपत्र है, जो 'गोव- अनुसन्धानके साथ अपना अभिमत प्रकट करना चाहिये पैय' को ई. सन् ७७६ में दिया गया था । इसमें गुरु- और ऐसा यत्ल करना चाहिये जिससे अपराजितसूरिका रूपसे विमलचन्द्र, कीर्तिनन्दी, कुमारनन्दी और 'चन्द्र- समय और भी अधिक स्पट ताके माथ सुनिश्चित हो जाय । नन्दी नामके चार प्राचार्योंका उल्लेख है ( S. I. J. श्राशा है विद्वज्जन मेरे इस निवेदन पर अवश्य ही Pt. II, 88 )। बहुत सम्भव है कि टीकाकारने ध्यान देने की कृपा करेंगे। इन्हीं चन्द्रनन्दीका अपनेको प्रशिष्य लिखा हो। यदि अब मैं 'विजयोदया' टीकाके विषय में कुछ थोड़ाऐसा है तो इस टीकाके बनने का समय ८ वीं-६वीं शता- सा और भी परिचय अपने पाठकों को करा देना चाहता म्दी तक पहुँच जाता है। चन्द्रनन्दीका नाम 'कर्मप्र- हूँ। यह टीका 'भगवती श्राराधना' की उपलब्ध टीकाकृति' भी दिया है और 'कर्मप्रकृति' का वेलरके १७वें ओंमें अपनी खास विशेषता रखती है, इसमें प्रकृत शिलालेखमें अकलंक देव और चन्द्रकीर्ति के बाद होना विषयसे सम्बन्ध रखने वाले सभी पदार्थों के रहस्यका बतलाया है, और उनके बाद विमलचन्द्र का उल्लेख उद्घाटन युक्ति और अनुभवपूर्ण पण्डित्यके साथ किया किया है। इससे भी इसी समयका समर्थन होता है। गया है। वस्तुतत्त्व के विज्ञासुत्रों और खासकर सल्लेबलदेवसूरेका प्राचीन उल्लेख श्रवणबेलगोलके दो शिला- खना या समाधिमरणका परिज्ञान प्राप्त करने के इच्छुकोंसेखो नं. ७ और १५ में पाया जाता है, जिनका के लिये यह बड़े ही कामकी चीज़ है। अाठ श्राश्वासों समय फमराः ६२२ और ५७२ शक संवत्के लगभग या अधिकारों में इसकी समाति हुई है और ग्रन्थसंख्या, अनुमान किया गया है। बहुत सम्भव है कि इन्हीं में से हस्तलिखित प्रतियों के अनुसार, सब मिलाकर १३ हजार कोई बल देवसूरि टीकाकारके गुरु रहे हों। इनके समयसे श्लोक प्रमाण है। विद्वानोंके लिये यह अनुभव तथा भी उक्त समयको पुष्टि मिलती है। इसके सिवाय, नाग- विचारकी बहुत-सी सामग्री प्रस्तुत करती है। नन्दीको भी टीकाकारने जो अपना गुरु बतलाया है वे इस टीकापर से यह भी पता चलता है कि इसके वे ही जान पड़ते हैं जो 'असग'कविके गुरु थे और उनका पूर्व 'भगवती आराधना' पर और भी कितनी ही टोकाएँ मी समय ८वी-हवीं शताब्दी है। इस घटना-समुच्चय बनी हुई थीं, जिनका उल्लेख इम टोकामें 'केचित्', परसे यह टीका प्रायः ८ वी हवीं शताब्दीकी बनी हुई 'अपरे', 'परे', 'अन्ये', 'कांचिद्व्याख्यानं', 'अन्येषां जान पड़नी है।"
व्याख्यानं' श्रादि शन्दोंके द्वारा किया गया है। और बादको मुख्तार साहबने अनेकान्तकी गत छटी जिसके कुछ नमूने इस प्रकार हैं:किरणमें प्रकाशित अपने 'अन्तरद्वीपज मनुष्य' शीर्षक (गाथा ०१.) "तस्मिन् सोचते बोचस्थिते लेखमें, इस समयको विक्रिमकी ८वीं शताब्दी तक ही इति केचित् ।' 'भन्मे तु वदम्ति 'खोयगई इति पठंसः सीमित किया है, जिससे मेरे उक्त कथनको और भी खोचंगतः प्राप्तः तस्मिम्मिति" ।
देखो भनेकान्त, प्रथम वर्ष, किरण, पृ०१८ (गाया .101) "प्राचार्याखां म्याल्यादृणा के दूसरे कानमा कुरमोट
दर्शनेन मतभेदेन । केचिसिपमुखेनैवं सूत्रार्थमुपपाव
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वर्ष २, किरण ]
अपराजितसूरि और विजयोदया
४४१
यंत्यपरे गमाविविचित्रमयानुसारेण, भन्ये सदाधनु- प्रत्यास्यानं संयत-संपतासंपतयोरपि अल्पकालिक योगोपन्यासेन । अपरे 'भदसपसत्याचं होई पबदरी' जीविवाधिकंपा।" इति पबन्ति ।'
अर्थात् यह प्रत्याख्यान दो प्रकारकाई-मूलगुण (गाया नं० २१७) "अन्येषां पाठा परिवदिावा- प्रत्याख्यान और उत्तरगुणप्रत्याख्यान । उनमेंसे पायो-परिवर्विवावधान परिषदिलदोवधाबो- संयमी मुनियोंके मूल-गुण प्रत्याख्यान जीवनपर्यंतके परिवर्षितामहः ।
लिये होता है । संयतासंयत पंचमगुणस्थानवर्ती इनके सिवाय और भी बहुत-सी गाथाओंमें दूसरे टीकाकारों द्वारा माने गये पाठभेदोंको दर्शाया गया है, भावकके अणुव्रतोंको मूलगुण कहते हैं । गृहस्थों के
मूलगुणका प्रत्याख्यान अल्पकालिक और सर्वकालिक जिनसे यह स्पष्ट पता चलता है कि अपराजितसूरिके सामने कितनी ही दूसरी टीकाएँ भ. पाराधनापर
ऐसे दोनों प्रकारसे होता है। पक्ष, महीना, छह महीने उपस्थित थीं और उन सबका अवलोकन करके ही
इत्यादि रूपसे भविष्यत्कालकी मर्यादा करके जो स्थल
हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुनसेवन और परिग्रहरूप पंच 'विजयोदया'की सृष्टि की गई है।
पापोंको मैं नहीं करूँगा ऐसा संकल्प करना अल्पकालिक इस टीकामें कितना ही ऐसा महत्वका वर्णन भी है
प्रत्याख्यान कहलाता है । तथा मैं जीवनपर्यंत स्थल जो अन्यत्र नहीं पाया जाता और वह सब इस टीकाकी
हिंसादि पापोंको नहीं करूँगा ऐसा संकल्प कर उनका जो विशेषता है । उस विशेषताको समय समय पर स्वतंत्र
त्याग करता है वह जीवितावधिक प्रत्याख्यान है। लेखों द्वारा प्रकट करनेका मेरा विचार है । यहाँ नमूनेके
उत्तरगुण-प्रत्याख्यान तो मुनि और गृहस्थ दोनों ही तौरपर गाथा नं०११६ की व्याख्या में 'संयमहीन तप
जीवनपर्यंत तथा अल्पकाल के लिये कर सकते है। कार्यकारी नहीं इसकी पुष्टि करते हुए मुनि-भावकके
इस टीकामें, ५वीं गाथाकी व्याख्या करते हुए, मूलगुणों तथा उत्तरगुणों और आवश्यकादि कर्मो के
'सिद्धप्राभृत' नामक ग्रन्थका उल्लेख निम्न प्रकारसे अनुष्ठान-विधानादिका जो विस्तारके साथ विशेष वर्णन
किया हैदिया है उसका एक छोटासा अंश इस प्रकार है :
'सिरप्राभूतगदितस्वरूपसिबज्ञानमागमभावसिडः।' "तद्विविध मूबगुणप्रत्याख्यानमुत्तरगुणप्रत्या- और ७५३ नं. की गाथाकी व्याख्या करते हुए खानं । तत्र संबताना जीवितावधिकं मूबगुव-प्रत्या
'नमस्कारपाहुड' नामक ग्रन्थका उल्लेख भी किया है। ल्यानं । संवतासंपतानां अखातानि मूलगुण प्रत
यथा:भ्यपदेशावि भवंति ते विविध प्रत्याख्यानं अल्प
'नमस्कारप्राभवं नामास्ति ग्रन्थः पत्र गय प्रमाकाबिक, बीवितावधिकं चेति । पर-मास-परमासादि
खादिनिपादिमुखेन नमस्कारो निरूप्यते।' स्पेव भविष्यकाळ सावधिकं हवा तत्रस्थून हिंसा,
विद्वानोंको इन दोनों ग्रन्थोंका शास्त्रभंडारोंकी नृतस्तेवाममपरिग्रहानाचरिष्यामि इति प्रत्याल्पानमल्पकासकम् ।
कालकोठरियोंमेंसे खोजकर पता लगाना चाहिये । भामरबमसिया न करिष्यामि स्थहिंसा और इनके विषयका परिचय भी प्रकट करना चाहिये। दीनि इति प्रत्याल्यानं जीवितावधिक। उत्तरगुरु वीरसेवामंदिर, सरसावा, ता. १२-४-१९३९
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४४२
... अनेकान्त..... ...
[ज्येष्ट, वीर-
निय २४६४
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शिक्षा ...... अमर प्यार [श्री. यशपाल]
[श्री भगवत्स्वरूप जैन 'भगवत्' - गजीने क्लासमें पढ़ाया-आपसमें झगड़ना बुरा है; ..
जीवन-धन, हे जीवनाधार ! ७ वह पाप है।
सात बरसके मु-नूने गुरूजीकी बात सुननी और हैं पत्र-युष्य यदि नहीं यहाँ- . पेटमें रखली।
तो मैं अब द्वंद उन्हें कहाँ ? संध्याको पदकर घर लौटा तो उसने देखा कि मां- इस हृदय-कमल ही को लेकरबापमें झगड़ा हो रहा है।
चरणों को दूं प्रेमोपहार । उसने कहा-माँ, आज गुरूजीने बताया कि प्रापस यदि मिले न मुझको अग्नि कहींमें झगड़ना बुरा है; वह पाप है।
फिर होगी क्या अर्चना नहीं ?
ले वन्हि वेदना की मन सेअगले दिन गुरूजीने क्लासमें पढ़ाया-जीव हत्या
आरती उतारूँ हर्षधार ! बुरी है । जीवों पर दया करनी चाहिये ।
जल भी न मिले पर्वाह नहींसात बरसके मुन्ने गुरूजीकी बात सुनली और
निकलेगी मुँह से आह नहीं ? पेटमें रखनी।
करुणेश ! न होगा कुछ विलम्बसंध्याको पढ़कर घर लौटा तो उसने देखा उसके
हग-जलसे लंगा पग पखार ! बाप बहुतसे जानवर मारकर लाए हैं। उसने कहा
कछ भी न पास पर खेद नहीं - पिताजी, श्राज गुरूजीने बताया कि जीव हत्या बुरी है। जीवों पर दया करनी चाहिए।
होगा पजा में भेद नहीं !
बस, अमर-लगन हो, अमर-चाहतीसरे दिन गुरूजीने क्लासमें पढ़ाया-भूखे-नंगेकी
बैठा होमन में अमर-प्यार! सहायता करनी चाहिए, वह पुण्य है।
सात बरसके मुजूने गुरूजीकी बात सुनली और पेटमें रखली।
चार दिनन की चादनी, यह सम्पति संसार । संध्याको पढ़कर घर लौटा तो उसने देखा उसके 'नारायन' हरिभजन कर, यासौ होइ उबार । भाईने एक भूखे-नंगे भिखारीको दरवाज़ेसे फटकार कर तेरै भा0 कछु करौ, भलो कुरो संसार । भगा दिया है।
'नारायण' तू बैठक, अपनो भवन बुहार ॥ चौथे दिन सात बरसका मुन् स्कूल न गया । घर बहुत गई थोड़ी रही, 'नारायण' अब चैत । वालोंने पूछा तो उसने कह विषा-गुरुनी अच्छा नहीं काल-चिरैया चुगि रही, निसदिन आय खेत ॥ पनाते।
सुभाषित
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ERMANETISMEESENSENSES
.. layananananananananana
कथा कहानी
ले-अयोध्याप्रसाद गोयलीय ] .
PARATIREDEREDIEDERIERRIERTISISTERSAREERISRTERSNERSEASORED
(१८)
हो गए। पास ही गुरुदेव बैठे थे। पूछा-"वत्स ! किन्हीं प्रात्म-ध्यानी मुनिराजके पाम एक मोक्ष- क्या हुआ ?" शिष्यने कहा-"गुरुदेव ! आज लोलुप भक्त बैठा था। उसे अपने धर्मरत होनेका ध्यानमें दाल-बाटी बनानेका उपक्रम किया था । अभिमान था । गृहस्थ होते हुए भी अपनेमें आत्म- आपके चरणकमलोंके प्रतापसे ध्यान ऐसा अच्छा संयमकी पूर्णता समझता था । मुनिराजके दर्शनार्थ जमा कि यह ध्यान ही न रहा कि यह सब मनकी कुछ स्त्रियाँ बाई तो संयमाभिमानी भक्तसे उनकी कल्पनामात्र है । मैं अपने ध्यानमें मानों सचमुच ही
और देखे बिना न रहा गया । पहली बार देखने दाल-बाटी बना रहा था कि मिचें कुछ तेज होगई पर मुनिराज कुछ न बोले, किन्तु यह देखनेका क्रम और खाते ही सीकारा जो भरा तो ध्यान भंग जब एक बारसे अधिक बार जारी रहा तो मुनिराज होगया । ऐसा उत्तम ध्यान आजतक कभी न जमा बोले-वत्स! प्रायश्चित लो!"
था गुरूदेव ! मुझे वरदान दो कि मैं इससे भी कहीं "प्रभो ! मेरा अपराध ?"
अधिक ध्यान-मग्न हो मः।" गुरुदेव मुस्कराकर "ओह ! अपराध करते हुए भी उमे अपराध बोले--"वत्म ! प्रथम तो ध्यानमें-परमात्मा, नहीं समझते, वत्स ! एक बार तो अनायास किमी मोक्ष, सम्यक्त्व, आत्म-हितका चिंतन करना की ओर दृष्टि जा सकती है, किन्तु दोबारा तो चाहिये था, जिससे अपना वास्तवमें कल्याण विकारी नेत्र ही उठेंगे । और आत्मामें विकार होता, ध्यानका मुख्य उद्देश्य प्राप्त होता। और आना यही पतनका श्रीगणेश है । आत्म-संयमका यदि पूर्वसंचित संस्कारोंके कारण सांसारिक अभ्यासी प्रायश्चित द्वारा ही विकारों पर विजय मोह-मायाका लोभ मॅबरण नहीं हो पाया है तो प्राप्त कर सकता है। मोक्ष-लोलुप भक्तको तब ध्यानमें खीर, हलुवा, लइ, पेड़ा मादि बनाए होते अपने संयमकी अपूर्णत प्रतीत हुई।
जिससे इस वेदनाके बजाय कुछ तो स्वाद प्राप्त
हुआ होता । वत्म ! स्मरण रक्खो, हमारा जीवन, एक ध्यानाभ्यासी शिष्य ध्यान-मग्न थे कि हमारा मस्तिष्क सब सीमित हैं। जीवनमें और सीमारेकी-सी भावात्रा करते हुए ध्यानसे विचलित मस्तिष्कमें ऐसे उतम पदार्थोका संचय करो जो
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४४४
अनेकान्त
[ ज्येष्ठ, वीर-निर्वाण सं०२४६५
अपने लिये ज्ञान-बर्द्धक एवं लाभप्रद हो । व्यर्थकी एक ऐमा गुण था, जिसने उसे महान सेनापतियोंवस्तुओंका मंग्रह न करो, ताकि फिर हिनकारी की पंक्ति में बैठने योग्य बना दिया था । वह आत्मचीजोंके लिये स्थान ही न रहे।"
विश्वासी था, वह दूसरोंका मुँह देखा न होकर (२०)
अपने बाहुओंका भरोसा रखताथा । उसने दूसरोंएक अत्तारकी दुकानमें गलाबके फल घोटे की सहायता पर अपनी उन्नतिका ध्येय कभी नहीं
थे। किसी सहदयने पछा-"आप लोग बनाया और न अपने जीवनकी बागडोर किसीको उद्यानमें फने फने, फिर आपने ऐसा कौनमा मौंपी। जिस कार्यको वह स्वयं करनेमें असमर्थ अपराध किया, जिसके कारण आपको यह अमह्य पाता, उम कार्यको उसने कभी हाथ तक न लगाया। वेदना उठानी पड़ रही है।” कुछ फलोंने उत्तर देहली विजय करने पर विजित बादशाह महम्मद दिया-"शभेच्छ ! हमारा सबसे बड़ा अपराध शाह रंगीलेने उसे हाथी पर सवार कराके देहलीकी यही है कि हम एकदम हॅम पड़े ! दुनियाँमे हमाग मैर करानी चाही। नादिरशाह इससे पहले यह हँमना न देग्या गया। वह दुग्वियोंको देवकर कभी हाथी पर न बैठा था, उसने हाथी भारतमें ममवेदना प्रकट करती है दयाका भाव रग्वती है. ही श्राने पर देग्वा था । हाथीके होदेमें बैठने पर परन्त मुग्वियोंको देख ईर्ष्या करती है, उन्हें मिटाने नादिरशाहने आगेकी अोर झककर देखा तो हाथीको तत्पर रहती है । यही नियों का स्वभाव है।" की गर्दन पर महावत अंकुश लिये बैठा था।
और कल फलोंने उनर दिया--"किमीके लिये नादिरशाहने महावतमे कहा-"त यहाँ क्यों बैठा मर मिटना यही तो जीवनकी मार्थकता है।" फल है ? हाथीकी लगाम मुझे देकर त नीचे उतरजा।" पिम रहे थे. पर परोपकारकी महक उनमें से जीवित महावतने गिड़गिड़ाते हए अर्ज़ किया-"हजर ! हो रही थी। महदय मनाय चपचाप ईर्ष्याल और हाथीके लगाम नहीं होती । बेअदबी मुश्राफ इसको स्वार्थी संसारकी ओर देख रहा था।
हम फीलवान ही चला सकते हैं... ... ... ...!" (२१)
"जिसकी लगाम मेरे हाथमें नहीं मैं उसपर नहीं नादिरशाह एक माधन-हीन दरिद्र परिवारमें बैठ सकता । मैं अपना जीवन दूसरोंके हाथों में जन्म लेने पर भी संसार-प्रसिद्ध विजेता हुआ है। देकर खतरा मोल नहीं ले सकता।" यह कहकर वह आपत्तियोंकी गोदमें पलकर दुःख-दारिद्रयके नादिरशाह हाथी परसे कूद पड़ा ! जो दूसरोंके हिण्डोलोंमें झलकर एक ऐसा विजेता हुआ है कि कन्धेपर बन्दुक रखकर चलानेके आदी हैं या जो विजय उमके घोड़ोंके टाप की धलके साथ-साथ दुमरोंके हाथकी कठपुतली बने रहते हैं, नादिरचलती थी। यद्यपि वह स्वभावसे ही कर, रक्तः शाह उनमेंसे नहीं था ! यही उसके जीवनका एक लोलप मनुष्य था। फिर भी स्वावलम्बन उममें सबसे बड़ा गुण था।
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श्रीपूज्यपाद और उनकी रचनाएँ
[सम्पादकीय ]
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बोध होता चला जाता है, अशानादि मल छंटता रहता समाधितंत्र-परिचय
है और दुःख-शोकादि अात्माको सन्तप्त करनेमें समर्थ
नहीं होते। माय मैं पूज्यपादके ग्रंथोंमेंसे 'समाधितंत्र' ग्रंथका कुछ इस ग्रन्थमें शुद्धात्माके वर्णनकी मुख्यता है और
' विशेष परिचय अपने पाठकोंको देना चाहता हूँ। बह वर्णन पज्यपादने आगम, युक्ति तथा अपने अन्तःयह ग्रंथ श्राध्यात्मिक है और जहाँ तक मैंने अनुभव
करणाकी एकाग्रता-द्वारा सम्पन्न स्वानुभवके बलपर भले किया है ग्रंथकारमहोदय के अन्तिम जीवनकी कृति है
प्रकार जाँच पड़ताल के बाद किया है। जैसा कि ग्रंथके उस समय के करीबकी रचना है जब कि प्राचार्य महो
निम्न प्रतिशा-वाक्यमे प्रकट है:दयकी प्रवृत्ति बाह्य विषयोंसे हटकर बहुत ज्यादा अन्त
श्रुतेन लिनेन यथास्मशक्ति मुंखी हो गई थी और श्राप स्थितप्रज्ञ जैसी स्थितिको
समाहितान्तः करणेन सम्यक् । पहुँच गये थे। यद्यपि जैनममा जमें अध्यात्म-विषय के
समीषय कैवल्यसुग्घस्पृहाणां कितने ही ग्रंथ उपलब्ध हैं और प्राकृतभाषाके 'ममय
विविक्तमात्मानमथाभिधास्ये ॥३॥ सार' जैसे महान एवं गद ग्रंथ भी मौजूद हैं परन्तु यह
ग्रंथका तुलनात्मक अध्ययन करनेमे भी यह मालम छोटा-सा संस्कृत ग्रंथ अपनी खास विशेषता रखता है। होता है कि इसमें श्रीकुन्दकुन्द-जैसे प्राचीन प्राचार्यों के इसमें थोड़े ही शब्दों द्वारा मूत्ररूपम अपने विषयका
श्रागम वाक्यांका बहुत कुछ अनमरण किया गया है। अच्छा प्रतिपादन किया गया है। प्रतिपादन शैली बड़ी
कुन्दकुन्दका --- "एगो मे सस्मदो अप्पाणाणसणल
क्षणो सेसा मे बाहिरा भावा सम्वे संजोगलक्षणा" ही सरल, सुन्दर एवं हृदय ग्राहिगी है; भाषा-मोठव . देखते ही बनता है और पद्य-रचना प्रमादादि गुगामे यह गाथा नियममारम नं० १०२ पर विशिष्ट है। इसीसे पढ़ना प्रारम्भ करके छोड़नेको मन मोक्षप्राभूतमें नं. ५६ पर पाई जाती है। इसमें यह नहीं होता-ऐसा मालम होता है कि समस्त अध्यात्म- बतलाया है कि-'मेरा श्रात्मा एक है-ख़ालिम है, वाणीका दोहन करके अथवा शास्त्र-ममुद्रका मन्थन उममें किमी दूसरेका मिश्रण नहीं-,शाश्वन है-कभी करके जो नवनीताऽमृत (मक्खन) निकाला गया है वह नष्ट होनेवाला नहीं-और शान दर्शन लक्षणवाला सब इसमें भरा हुअा है और अपनी मुगन्धसे पाठक. (शाता-द्रटा) है; शेष संयोग-लक्षणवाले समस्त पदार्थ हृदयको मोहित कर रहा है। इस ग्रंथ के पढ़नेसे चित्त मेरे अात्मासे बाह्य है-वे मेरे नहीं है, और न मैं बड़ा ही प्रफुल्लित होता है, पद-पद पर अपनी भूलका उनका हूँ ।'
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अनेकान्त
[ज्येष्ट, वीर-निर्वाण सं०२४६५
यह वाक्य तो इस ग्रंथका प्राण जान पड़ता है ग्रंथके स्सर तथा स्वानुभवपूर्वक कथनका कितना ही सुन्दर कितने ही पद्य कुन्दकुन्दके 'मोक्षप्रामृत' की माथाश्रोंको श्रामास मिल सकता है । वस्तुतः इस ग्रंथमें ऐसी कोई सामने रखकर रचे गये हैं-ऐसी कुछ गाथाएँ पद्य भी बात कही गई मालूम नहीं होती जो युक्ति, श्रागम नं० ४, ५, ७, १०, ११, १२, १८, ७८, १०२ के तथा स्वानुभवके विरुद्ध हो। और इसलिये यह ग्रंथ नीचे फुटनोटोंमें उद्धृत भी की गई है, उनपरसे इस बहुत ही प्रामाणिक है। इसीसे उत्तरवर्ती श्राचार्योंने विषयकी सत्यताका हरएक पाठक सहज ही में अनुभव इसे खूब अपनाया है। परमात्मप्रकाश और ज्ञानार्णवकर सकता है । यहाँ पर उनमेंसे दो गाथाएँ और एक जैसे ग्रंथोंमें इसका खुला अनुसरण किया गया है। गाथा नियमसारकी भी इस ग्रंथके पद्यों-सहित नमूनेके जिसके कुछ नमूने इस ग्रंथके फुटनोटोंमें दिखाये तौर पर नीचे उद्धृत की जाती हैं:
गये हैं। जं मया दिस्सदे रूवं तरण जाणादि सम्वहा । __चूंकि ग्रन्थमें शुद्धात्माके कथनकी प्रधानता है जाणगं दिस्सदे णं तं तम्हाजपेमि केणहं ॥ मोक्ष०२॥ और शुद्धात्माको समझने के लिये अशुद्धात्माको जानने यम्मया रयते रूपं तत्र जानाति सर्वथा ।
की भी ज़रूरत होती है, इसीसे ग्रन्थमें आत्माके बहिराजावच एयते रूपं ततः केन ब्रवीम्यहम् ॥ समा०१॥ त्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा ऐसे तीन भेद करके
उनका स्वरूप समझाया है। साथ ही, परमात्माको उपाजो सुत्तो ववहारे सो जोई जग्यए सकज्जम्मि ।
देय (आराध्य), अन्तरात्माको उपायरूप श्राराधक और जो जम्गदि बवहारे सो सुत्तो अप्पणे कज्ने । मो०३१॥
बहिरात्माको हेय (त्याज्य) ठहराया है । इन तीनों प्रात्म
भेदोंका स्वरूप समझानेके लिये अन्थमें जो कलापूर्ण म्यवहारे सुषुप्तो यः स जागांत्मगोचरे ।
तरीका अख्तियार किया गया है वह बड़ा ही सुन्दर एवं जागर्ति व्यवहारेऽस्मिन्सुषुप्सरचारमगोचरे ॥ समा० ७॥
स्तुत्य है और उसके लिये ग्रन्थको देखते ही बनता है।
यहाँ पर मैं अपने पाठकोंको सिर्फ उन पदोंका ही परिचय णियभावं ण वि मुबइ परभावं सेव मेहह केई।
करा देना चाहता जो बहिरात्मादिका नामोल्लेख अथवा जाणदि पस्सदि सर्व सोहं इदिचितपणाणी नियम०१७ निर्देश करने के लिये ग्रन्थमें प्रयुक्त किये गये हैं और यदप्रामु म गृहाति गृहीतं नापि मुञ्चति । जिनसे विभिन्न श्रात्माओंके स्वरूप पर अच्छा प्रकारा जानाति सर्वथा सर्व तत्स्वसंवेचमस्म्यहम् ॥ समा० २०॥ पड़ता है और वह नयविवक्षाके साथ अर्थपर दृष्टि रखते
इससे उक्त पद्य नं. ३ में प्रयुक्त हुश्रा 'श्रुतेन' पद हुए उनका पाठ करनेसे सहज ही में अवगत हो जाता बहुत ही सार्थक जान पड़ता है । 'लिङ्गेन' तथा 'समा- है। इन पदोंमेंसे कुछ पद ऐसे भी हैं जिनका मूल प्रयोग हितान्तापरणेन' पद भी ऐसी ही सार्थक हैं। यदि द्वितीयादि विभक्तियों तथा बहुवचनादिके रूपमें हुआ है कुन्दकुन्दके समयसारकी गाथा नं०४३८ से ४४४ तकके परन्तु अर्थावबोधकी सुविधा एवं एकरूपताकी दृष्टिसे कथनकी इस ग्रंथके पद्य नं०८७,८८के साथ तुलना की उन्हें यहाँ प्रथमाके एक क्वनमें ही रख दिया गया है। जाय तो पज्यपादकी विशेषताके साथ उनके युक्तिपुर- प्रस्तु; बहिरात्यादि-निदर्शकले.पय क्रमशः निम्न प्रकार
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वर्ष २, किरण] . . .
श्रीपूज्यपाद और उनकी रचनाएँ
है। उनके स्थान-सूचक-पद्याङ्क भी साथमें दिये जाते तात्मा ३, ७३; परः ४, ८६, ९५, परमः ४, ३१,९८;
परमात्मा ५,६,१७,२७, ३० प्रतिनिर्मलः ५; निर्मलः(१) पहिरात्म-निदर्शक पर
केवलः-शुद्धः-विविक्तः प्रभुः-परमेष्ठी-परास्मा-ईश्वरः । बहिः ४; बाहेरात्मा ५, ७, २७; शरीरादौ जातात्म. अंन्ययः ६, ३३, अनन्तानन्तधीशक्तिः अचल स्थितिः भ्रान्तिः ५; अात्मजानपराङ मुखः ७; अविद्वान ८ मूढः स्वसंवेद्यः ६,२०,२४, निर्विकल्पकः १६, अतीन्द्रियः१०,४४,४७;अविदात्मा ११; देहे स्वबुद्धिः १३; मूढात्मा अनिर्देश्यः २२; बोधात्मा २५, ३२; सर्वसंकल्पवनितः २६,५६,५८, ६०; उत्पन्नात्ममतिदेहे ४२; परत्राहम्मतिः २७; परमानन्दनिर्वृतः ३२; स्वस्थात्मा ३६; उत्तमःकायः ४३; देहात्मदृष्टिः ४६, ६४; अविद्यामयरूपः ५३; वाक- ४०; निष्ठितात्मा ४७; सानन्दज्योतिरुत्तमः ५१ विद्यामयशरीरयोः भ्रान्तः ५४; बालः ५५; पिहितज्योतिः ६० रूपः ५३; केवलज्ञप्तिविग्रहः ७०; अच्युतः ७६; परमं पदअबुद्धिः ६१ ६६; शरीरकंचुकेन संवृतज्ञानविग्रहः ६८; मात्मनः८४,८६, १०४; परं पदं८५ परात्मज्ञानमम्पम्नः अनात्मदर्शी ७३, ६३; दृढात्मबुद्धिदेहादी ७६; श्रात्म. ८६; अवाचा गोचरं पदं । गोचरे सुषुप्तः ७८; मोही ६०; अनन्तरजः ६१, अनीण- यह त्रिधात्मक पदावली त्रिधात्मा के स्वरूपको व्यक्त दोषः-सर्वावस्थाऽऽत्मदर्शी ६.३; जडः १०४ ।
करने के लिये कितनी सुन्दर एवं भावपर्ण है उसे बत(२) अन्तरात्म-निदर्शक पद
लानेकी ज़रूरत नहीं-सहृदय पाठक सहज हीमें उमका अन्तः ४, १५,६०, श्रान्तरः ५ चित्तदोषात्मऽऽवि. अनुभव कर सकते हैं । हाँ.इतना जरूर कहना होगा कि भ्रान्तिः ५, स्वात्मन्येवात्मधीः १३; बहिरव्यापृतेन्द्रियः एक छोटेसे ग्रंथमें एक ही पात्म विषयको स्पष्ट करने के १५; देहादी विनिवृतात्मविभ्रमः २२;अन्तरात्मा२७,३०; लिये इतने अधिक विभिन्न शब्दोंका ऐसे अच्छे ढंगसे तत्वज्ञानी ४२, स्वस्मिन्नहम्मतिः ४३, बुधः ४३, ६३-६६ प्रयोग किया जाना, निःसंदेह, साहित्यकी दृष्टि से भी कुछ श्रात्मदेहान्तरज्ञानजनिताल्हादनिर्वृतः ३४ श्रवबुद्धः कम महत्वकी चीज़ नहीं है। इससे ग्रंथकार महोदय के ४४;आत्मवित् ४७; स्वात्मन्येवात्मदृष्टिः ४६ नियनेन्द्रियः रचना-चातुर्य अथवा शन्द-प्रयोग-कौशल्यका भी ५१; श्रारब्धयोगः-भावितात्मा ५२; वाकशरीग्योरभ्रान्तः कितना ही पता चल जाता है। ५४; प्रात्मतत्त्वे व्यवस्थितः ५७; प्रबुद्धात्मा ६०; बहि- समाधितंत्रमें और क्या कुछ विशेष वर्णन है उस
ावृत्तकौतुकः ६०; दृष्टात्मा७ ३, ६.२ श्रात्मन्येवात्मधीः सबका संक्षिम परिचय ग्रन्थ के साथमें दी हुई विषयानुक्र. ७७ व्यवहारे सुषप्तः ७८; दृष्धात्मतत्त्वः-स्वभ्यस्तात्मधीः मणिकाको देखनेसे महजम ही मालम हो सकता है। वहीं ८० मोनार्थी ३: योगी८६.३०० भेदः१२ अात्म- पर कोष्टकमें मूल श्लोकोंके नम्बर भी दे दिये है । यहाँ पर दर्शी १२; शातात्मा ६४; मुनिः १०२, विद्वान, १०४; उसकी पुनरावृत्ति करके प्रस्तावना लेखके कलेवरको परात्मनिष्ठः १०५।
बढ़ानेकी जरूरत मालम नहीं होती । और न ग्रन्थविषय (१) परमात्म-निदर्शक पद
का दूसरे तत्सम ग्रन्थों के माथ तुलनाका अपनेको यथेष्ट अक्षयानन्तयोधः १, सिद्धात्मा ?; अनीहिना-तीर्थ अवकाश ही प्राप्त है । अतः जो तुलना ऊपर की जाचुकी कृत् २: शिव:-धाना-सुगतः-विष्णुः निनः२, ६: विवि. है उभी पर मनोष रखते हुए शेषको छोड़ा जाना है।
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अनेकान्त
ज्येष्ठ वीर निर्वाण सं०२४६ए
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प्रकाशित 'समाधिशतक के मराठी संस्करणकी अपनी ग्रन्थनाम और पद्यसंख्या
प्रस्तावनामें, उसपर कुछ आपत्ति की है । आपकी रायमें यह ग्रन्थ १०५ पद्योंका है, जिनमेंसे दूसरा पद्य ग्रंथका असली नाम 'समाधिशतक' और उसकी पद्य'वंशस्थ' वृत्तमें, तीसरा 'उपेन्द्रवज्रा' में, अन्तिम पद्य संख्या १०० या ज्यादासे ज्यादा १०१ है। आप पद्य'वसंततिलका' छन्दमें और शेष सब 'अनुष्टुप्' छन्दमें नं० २, ३, १०३, १०४ को तो निश्चित रूपसे हैं । अन्तिम पद्यमें ग्रंयका उपसंहार करते हुए, ग्रन्थका (खात्रीन') प्रक्षिप्त' बतलाते हैं और १०५ को 'बहुधा नाम 'समाधितंत्र' दिया है और उसे उस ज्योतिर्मय प्रक्षिप्त' समझते हैं । कैवल्य सुखकी प्राप्तिका उपायभूत-मार्ग बतलाया है 'बहुधा प्रक्षिप्त' समझनेका अभिप्राय है उसकी जिसके अभिलाषियोंको लक्ष्य करके ही यह ग्रंथ लिखा प्रक्षिप्तता में सन्देह का होना-अर्थात् वह प्रक्षिप्त नहीं गया है और जिसकी सूचना प्रतिज्ञावाक्य (पद्य नं०.३) भी हो सकता। जब पद्य नं० १०५ का प्रक्षिप्त होना में प्रयुक्त हुए, 'कैवल्यसुखस्पृहाणां' पदके द्वारा की गई संदिग्ध है तब ग्रन्थका नाम 'समाधिशतक' होना भी है । माथ ही, ग्रंथ-प्रतिपादित उपायका संक्षिप्त रूपमें संदिग्ध होजाता है; क्योंकि उक्त पद्यपर से ग्रंथका नाम दिग्दर्शन कराते हुए, ग्रंथके अध्ययन एवं अनुकल 'समाधितन्त्र' ही पाया जाता है, इसे डाक्टर साहब स्वयं वर्तनका फल भी प्रकट किया गया है। वह अन्तिम स्वीकार करते हैं। अस्तु । सूत्रवाक्य इस प्रकार है:
जिन्हें निश्चितरूपसे प्रक्षिप्त बतलाया गया है, "मुक्त्वा परत्र परबुद्धिमहंधियं च . उनमेंसे पद्य नं. २, ३ की प्रक्षिप्ताके निश्चयका कारण संसारदुःखजननी जननाद्विमुक्तः ।
है उनका छन्दभेद । ये दोनों पद्य ग्रंथके साधारण वृत्त ज्योतिर्मयं सुखमुपैति परास्मनिष्ठ
अनुप छन्द में न लिखे जाकर क्रमशः 'वंशस्थ तथा स्तन्मार्गमेतदधिगम्य समाधितंत्रम् ॥ १०॥ 'उपेन्द्रवज्रा' छन्दोंमें लिखे गये हैं । डाक्टर साहबका प्रायः १०० श्लोकोंका होने के कारण टीकाकार खयाल है कि अनुष्टुप छन्दमें अपने ग्रंथको प्रारम्भ करने प्रभाचन्द्रने इस ग्रन्थको अपनी टीकामें 'समाधिशतक' वाला और आगेका प्रायः सारा ग्रंथ उसी छंदमें लिखने नाम दिया है और तबसे यह 'समाधिशतक' नामसे वाला कोई ग्रंथकार बीच में और खासकर प्रारम्भिक भी अधिकतर उल्लेखित किया जाता है अथवा लोक- पद्यके बाद ही दसरे छन्दकी योजना करके 'प्रक्रमभंग' परिचय में आ रहा है।
नहीं करेगा । परन्तु ऐसा कोई नियम अथवा रूल नहीं मेरे इस कथनको 'जैनसिद्धान्तभास्कर' में-'श्री- है जिससे ग्रंथकारकी इच्छा पर इस प्रकार का कोई पज्यपाद और उनका ममाधितन्त्र' शीर्षकके नीचे- नियंत्रण लगाया जा सके। अनेक ग्रंथ इसके अपवाददेखकर डाक्टर परशुराम लक्ष्मण (पी० एल०) वैद्य, टास्टर साहबने द्वितीय पद्यको 'उपेन्द्रवज्रा' में एम० ए०, प्रोफेसर वाडिया कालिज पनाने, हालमें
और तृतीयको 'वंशस्थ' वृत्तमें लिखा है, यह लिखना * यह लेख जैन सिद्धान्तभास्करके पांचवें भागकी आपका छन्दःशास्त्रकी दृष्टि से ग़लत है और किसी भूलप्रथम किरणमें प्रकाशित हुआ है।
का परिणाम जान पड़ता है।
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वर्ष:, किरण
श्रीपूज्यपाद और उनकी रचनाएँ
स्वरूप भी देखने में आते हैं । उदाहरणके लिये महान् पुनरुक्तताकी वहाँ कोई गन्ध भी मालूम नहीं होती; ग्रंथकारभट्टाकलंकदेवके लधीयस्त्रय'और'न्यायविनिश्चय'- परन्तु टीकाके मंगलाचरण-पद्यमें प्रयुक्त हुए "वषये जैसे कुछ ग्रंथोंको प्रमाणमें पेश किया जा सकता है, समाधिशतकं"--मैं समाधिशतक की व्याख्या करता जिनका पहला पद्य अनुष्टुप् छन्दमें है और जो प्रायः हूँ-इस प्रतिज्ञा वाक्यकी मौजूदगीमें, तीसरे पद्यको अनुष्टुप् छन्दमें ही लिखे गये हैं। परन्तु उनमेंसे प्रत्येक टीकाकारका बतलाकर उसमें प्रयुक्त हुए प्रतिशा-याक्यको का दूसरा पद्य 'शार्दूलविक्रीडित' छन्दमें है, और वह प्रस्तुत स्थलका, श्रावश्यक और अपुनरुक्त समझते हैं, कण्टकशुद्धिको लिये हुए ग्रंथका खास अंगस्वरूप है। तथा दूसरे पद्यको भी टीकाकारका बतलाकर प्रतिशाके सिद्धिविनिश्चय ग्रंथमें भी इसी पद्धतिका अनुसरण पाया अनन्तर पुनः मंगलाचरणको उपयक्त समझते हैं यह जाता है। ऐसी हालतमै छन्दभेदके कारण उक्त दोनों सब अजीब-मी ही बात जान पड़ती है !! मालम होता है पद्योंको प्रक्षिप्त नहीं कहा जामकता।
आपने इन प्रभाचन्द्र के किसी दूसरे टीका ग्रंथके साथ ग्रंथके प्रथम पद्यमें निष्कलात्मरूप सिद्ध परमात्माको इम टीकाकी तुलना भी नहीं की है। यदि रखकरण्ट श्राऔर दूसरे पद्यमें सकलात्मरूप अहत्परमात्माको नमस्कार- वकाचार की टीका के माथ ही दम टीकाकी तुलना की रूप मंगलाचरण किया गया है परमात्मा के ये ही दो मुख्य होती तो श्रापको टीकाकारके मंगलाचरणादि--विषयक अवस्थाभेद हैं, जिन्हें इष्ट समझकर स्मरण करते हुए टाइपका-लेखनशैली का-कितना ही पता चल गया यहाँ थोड़ा-सा व्यक्त भी किया गया है । इन दोनों पद्योंमें होता और यह मालूम होगया होता कि यह टीकाकार ग्रंथ-रचना-सम्बन्धी कोई प्रतिज्ञा-वाक्य नहीं है-ग्रंथक अपनी ऐमी टीका के प्रारम्भमें मंगलाचरण तथा प्रतिज्ञाअभिधेय-सम्बन्ध-प्रयोजनादिको व्यक्त करता हुअा वह का एक ही पद्य देते हैं श्रीर हमी तरह टीका के अन्तमें प्रतिज्ञा-वाक्य पद्य नं. ३ में दिया है; जैमा कि ऊपर उपमहारादि का भी प्रायः एकही पदा रखते हैं और तब उसके उल्लेखसे स्पष्ट है। और इसलिये शुमके ये आपको मूलग्रंथके उन दोनों पयों (नं. २,३)को तीनो पद्य परस्परमें बहुत ही सुमम्बद्ध हैं-उनमेंसे दो बलान टीकाकारका बतलानेकी नौबत ही न पाती। के प्रक्षिप्त होनेकी कल्पना करना, उन्हें टीकाकार प्रभा- हां, एक बात यहाँ और भी प्रकट कर देनेकी है चन्द्र के पद्य बतलाना और उनकी व्यवस्थित टीकाको और यह यह कि, टा० माहब जब यह लिखते हैं कि किसीका टिप्पण कहकर यों ही ग्रंथम घुमड जानेकी बात "पज्यपादानी हा विषय श्रागम, युक्ति प्राणि अंतःकर करना बिल्कुल ही निराधार जान पड़ता है। डा० साहब गाची एकाग्रता करून त्यायोग म्वानुभव संपन्न होऊन प्रथम पद्यमें प्रयुक्त हुए "मायामन्तबोधाय तस्मै त्याच्या प्राधारे स्पष्ट आणि सुलभ रीनीमें प्रतिपादला सिवात्मने नमः"-उस अक्षय-अनन्त बोधस्वरूप परमा- आहे", तब इस बातको भुला देते हैं कि यह पागम, त्माको नमस्कार-इस वाक्यकी मौजूदगीमें, तीसरे पद्यमें युक्ति और अन्तःकरणकी एकाग्रता-द्वारा सम्पन्न स्वानुभव निर्दिष्ट हुए ग्रंथके प्रयोजनको अप्रस्तुत स्थलका के आधार पर ग्रंथरचनेकी बात पूज्यपादने ग्रंथके तीसरे(बेमौका ) बतलाते हुए उसे अनावश्यक तथा पुनरुक्त पद्यमे ही तो प्रकट की है-वहीं से तो वह उपलब्ध तक प्रकट करते हैं, जब कि अप्रस्तुत स्थलता और होती है-; फिर उम पद्यको मूलग्रंथका माननेमे क्यों
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अनेकान्त .
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ज्येष्ठ वीर निर्वाण से०२४१
इनकार किया जाता है और यदि यह बात उनकी खुदकी विषय और पूर्वपद्यों के साथ इनके प्रतिपाद्य-विषयक जाँच पड़ताल तथा अनुसंधानसे सम्बन्ध रखती हुई होती असम्बद्धता बतलाते हैं---लिखते हैं "या दोन तो वे आगे चलकर,कुछ तत्सम-अन्योंकी सामान्य तुलना मेकांच्या प्रतिपाद्य-विषयांशी व पूर्व श्लोकांशी काहींच का उल्लेख करते हुए, यह न लिखते कि 'उपनिषद् संबन्ध दिसत नाही ।" साथ ही, यह भी प्रकट ग्रंथके कथनको यदि छोड़ दिया जाय तो परमात्मस्व- करते हैं कि ये दोनों श्लोक कब, क्यों और कैसे इस रूपका तीन पदरूप वर्णन पूज्यपादने ही प्रथम किया है ग्रंथमें प्रविष्ट (प्रक्षिप्त ) हुए हैं उसे बतलानेके लिये वे ऐसा कहने में कोई हरकत नहीं'; क्योंकि पूज्यपादसे असमर्थ हैं । पिछली बातके अभावमें इन पद्योंकी प्रक्षिपहले कुन्दकुन्दके मोक्षप्राभृत (मोक्खपाहुड) ग्रन्थमें ताका दावा बहुत कमज़ोर होजाता है; क्योंकि असम्बद्धविधात्माका बहुत स्पष्टरूपसे वर्णन पाया जाता है और ताकी ऐसी कोई भी बात इनमें देखनेको नहीं मिलती। पूज्यपादने उसे प्रायः उसी ग्रंथपरसे लिया है; जैसा कि टीकाकार प्रभाचन्द्रने अपने प्रस्तावना-वाक्योंके द्वारा नमूने के तौर पर दोनों ग्रंथोंके निम्न दो पद्योंकी तुलनासे पूर्व पद्योंके माथ इनके सम्बन्धको भले प्रकार घोषित प्रकट है और जिससे यह स्पष्ट जाना जाता है कि ममा- किया है । वे प्रस्तावना वाक्य अपने अपने पद्यके साथ धितंत्रका पद्य मोक्षप्राभृतकी गाथाका प्रायः अनुवाद इस प्रकार हैं:
"ननु यचास्मा शरीरास्सर्वथा भिमस्तदा कथमात्मनि तिपयारो सो अप्पा परमंतरवाहिरो हु दे हीणं। चलति नियमेन तचलेत् तिष्ठति तिष्टेदिति वदन्तं प्रत्याहतत्य परो माइज्ज अन्तोषाएल चयहि बहिरप्पा प्रवनादात्मनो बापुरिच्छादेवप्रवर्तितात् । -मोक्षप्राभूतः
वायोः शरीरयंत्राणि वर्तन्ते स्वेषु कर्मसु ॥१०३॥" बहिरन्तः पररचेति निधारमा सर्वदेहिषु । "तेषां शरीरयन्त्राणामात्मन्यारोपाऽमारोपी कृत्वा उपेयात्तत्र परमं मध्योपाचावहिस्त्यजेत् ॥ अविवेकिनौ किं कुर्वत इत्याह
-ममाधितंत्रम् तान्यात्मनि समारोप्य साक्षाण्यास्ते सुखं जहः । मालूम होता है मैंने अपने उक्त लेखमें ग्रंथाधारकी त्यक्त्वाऽऽरोपं पुनर्विद्वान् प्राप्नोति परमं पदम् ॥१०॥" जिस बातका उल्लेख करके प्रमाणमें ग्रन्थ के पद्य नं०३को इन प्रस्तावना-वाक्योंके साथ प्रस्तावित पद्योंके अर्थको उद्धृत किया था और जो ऊपर इस प्रस्तावना-लेखमें देखकर कोई भी सावधान व्यक्ति यह नहीं कह सकता कि भी पद्य नं. ३ के साथ ज्योकी त्यों दी हुई है उसे डा. इनका ग्रंथके विषयतथापर्व पद्योंके साथ कोई सम्बन्ध नहीं साहबने अनुवादरूपमें अपना तो लिया परन्तु उन्हें यह है-जिस मूलविषयको ग्रन्थमें अनेक प्रकारसे पुनः पुनः खयाल नहीं पाया कि ऐसा करनेसे उनके उस मन्तव्य- स्पष्ट किया गया है उसीको इन पद्योंमें भी प्रकारान्तरसे का स्वयं विरोध होजाता है जिसके अनुसार पद्य नं ३को और भी अधिक स्पष्ट किया गया है और उसमें पुनरुक्तता निश्चितरूपसे प्रक्षित कहा गया है । अस्तु ।
जैमी भी कोई बात नहीं है। इसके सिवाय, उपसंहारअब रही पद्य नं. १०३, १०४ की बात, इनकी पाके पर्व, ग्रंथके विषयकी ममामि भी 'मदुःखमावितं' प्रक्षिप्तताका कारण डा. साहय ग्रन्थके प्रतिपाद्य नामके भावनात्मक पद्य नं. १०२ की अपेक्षा पद्य नं.
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श्रीपूज्यपाद और उनकी रचनाएँ
१०४ के साथ ठीक जान पड़ती है। जिसके अन्तमें घोषणा करते हैं । इसलिये समाधिततंत्रका पद्म नं. साध्यकी सिद्धि के उल्लेखरूप प्राप्नोति परमं पदम्' वाक्य १०५ पूज्यपादकृत ही है, इसमें सन्देह को जरा भी पड़ा हुआ है और जो इस ग्रन्थके मुख्य प्रयोजन अथवा स्थान नहीं है।
आत्माके अन्तिम ध्येयको स्पष्ट करता हुआ विषयको जब पद्य नं० १०५ असन्दिग्धरूपसे पूज्यपादकृत समाप्त करता है।
है तब ग्रन्थका असली मूलनाम मी 'समाधितन्त्र' ही है। अब मैं पद्य नं० १०५ को भी लेता हूँ, जिसे डा. क्योंकि इसी नामका उक्त पद्यमें निर्देश है, जिसे डा. क्टर साहबने सन्देह-कोटिमें रक्खा है। यह पद्य संदिग्ध साहबने भी स्वयं स्वीकार किया है। और इसलिये नहीं है, बल्कि मूलग्रंथका अन्तिम उपसंहार पद्य है; 'ममाधिशतक' नामकी कल्पना बादकी है--उसका जैमा कि मैंने इस प्रकरणके शुरू में प्रकट किया है। अधिक प्रचार टीकाकार प्रभाचन्द्र के बाद ही हुआ है। पज्यपादके दूसरे ग्रंथोंमें भी, जिनका प्रारम्भ अनुरूप श्रवणबेल्गोलके जिस शिलालेख नं० ४० में इस नामका छन्दके पद्यों द्वारा होता है, ऐसे ही उपमहारपद्य पाये उल्लेख पाया है वह विक्रमकी १३वीं शताब्दीका है जाते हैं जिनमें ग्रंथकथित विषयका मंक्षेपमें उल्लेग्य करने और टीकाकार प्रभाचन्द्रका समय भी विक्रमकी १३वीं हुए ग्रंथका नामादिक भी दिया हुआ है । नमूने के तौर शताब्दी है। पर 'इष्टोपदेश' और 'मर्वार्थमिद्धि' ग्रंथों के दो उपसंहार- इस तरह इस ग्रंथका मूलनाम 'समाधितंत्र' उत्तर पद्योंको नीचे उद्धृत किया जाता है:
नाम या उपनाम 'समाधिशतक' है और इसकी पद्यइष्टोपदेशमिति सभ्यगधीत्य धीमान् मंग्ख्या १०५ है-उसमें पाँच पद्योंके प्रक्षिप्त होनेकी जो मानापमानसमता स्वमताद्वितन्य । कल्पना की जाती है वह निरी निर्मल और निराधार है। मुक्ताग्रहो विनिवसन्सजने वने वा ग्रंथकी हस्तलिखित मूल प्रतियों में भी यही १०५ पद्यमुक्तिश्रियं निरुमामुपयाति भन्यः ॥" संख्या पाई जाती है । देहली श्रादिके अनेक भण्डा
-इष्टोपदेशः । रोम मुझे इस मलग्रंथकी हस्तलिखित प्रतियोंके देखने स्वर्गाऽपवर्गसुखमा मनोभिराय- का अवसर मिला है-देहली-सेठके कूँचेके मन्दिर में जैनेन्दशासनवरामृतसारभूता।
तो एक जीर्ण-शीर्ण प्रति कईसौ वर्षकी पुरानी लिखी सर्वार्थसिद्धिरिति समिक्षपात्तनामा हुई जान पड़ती है । श्रारा जैन-सिद्धान्त भवनके अध्यक्ष तस्वार्थवृत्तिरनिशं मनसा प्रधार्या ॥ पं० के० भुजबलीजी शास्त्रीसे भी दर्याफ्त करनेपर यही
-मर्वार्थमिद्धिः मालम हुआ है कि वहाँ ताडपत्रादि पर जितनी भी इन पद्यों परसे पाटकोको यह जानकर श्राश्चर्य होगा मूलप्रतियाँ है उन सबमें इस ग्रन्थकी पद्यसंख्या १०५ कि ये दोनों पद्य भी उमी वमन्नतिलका छन्द, लिग्वे ही दी है। और इसलिये डा०साहबका यह लिखना उचित गये हैं जिसमें कि समाधितंत्रका उक्त उपसंहार-पद्य पाया प्रतीत नहीं होता कि 'इस टीकासे रहित मूलग्रंथकी जाता है। तीनों ग्रंथोंके ये तीनों पद्य एक ही टाइपके है हस्तलिखित प्रतियाँ उपलब्ध नहीं है।' और वे अपने एक ही प्राचार्यद्वारा रचे जानेको स्पष्ट ऐसा मालम होता है कि 'शतक' नामपरसे ग.
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अनेकान्त
[ज्येष्ठ वीर निर्वाण सं०२४६५
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सुभाषित
साहबको ग्रंथम १०० पद्यांके होनेकी कल्पना उत्पन्न हुई है और उसीपरसे उन्होंने उक्त पाँच पद्योंको प्रक्षिप्त करार
. [गद्य-गीत ] देनेके लिये अपनी बुद्धिका व्यापार किया है, जो ठीक [भी• भगवत्स्व रूप जैन 'भगवत्'] नहीं जान पड़ता; क्योंकि 'शतक' ग्रन्थके लिये ऐसा पंछी ! तुम कितने सुन्दर हो ? नियम नहीं है कि उसमें पूरे १०० ही पद्य हो, प्रायः न जाने कितने मंगल-प्रभातोंका तुमने संसारको १०० पद्य होने चाहिये-दो, चार, दश पद्य ऊपर भी सन्देश दिया ? हो सकते हैं। उदाहरणके लिये भर्तृहरि-नीतिशतकमें कितनी बार उषा तुम्हारी चुहल श्रवण कर तारुण्य ११०, वैराग्यशतकमें ११३, भूधर-जैनशतकमें १०७ की ओर बढ़ी ?
और श्री समन्तभद्रके जिनशतकमें ११६ पद्य पाये जाते कितनी वार सोया हुआ प्रभाकर तुम्हारी मनोहरहैं । अतः ग्रन्थका उत्तरनाम या उपनाम 'समाधिशतक' ध्वनि सुनने के लिए जागा ? होते हुए भी उसमें १०५ पद्योंका होना कोई आपत्तिकी कितना उपादेय है तुम्हारा-स्वर ! कुछ ठीक है
इस सबका? बात नहीं है ।
बिहग ! तुम मुक्त-आकाशमें सहज-साध्य बिहार वीर-सेवा-मन्दिर, सरसावा, ता. ५-५-१६३६
करते हो, जहाँ मानवीय समृद्धि-शालिनी चेष्टाएँ ही
पहुँच पाती हैं ! फल भारत नमि बिटप सब रहे भूमि निराइ। वायु तुम्हारी सहचरी और श्राकाश तुम्हाग पथ ! पर उपकारी पुरुष जिमि नवहिं सुसंपति पाइ ॥ जैसे छलमय-विश्वसे दूर-सुदूर-रहना ही तुम्हारा सुखी मीन सब एक रस अति अगाध जल माहि। लक्ष्य हो ! जथा धर्मसीलहि के दिन सुख संजुत जाहि ॥ तुम्हारे छोटे-से जीवन में कितनी मधुरिमा छिपी बैठी
-तुलसी है.कि देखते ही रसिक-आँखें तुमसे स्नेह करने लगती माला मनसे लड़ पड़ी, क्या फेरे तू मोय। हैं ! सुकमारियाँ तुम्हें अपनी उँगलियों पर विठला कर तुझ में है यदि साँच तो, राममिला, तोय ॥
प्रमोद प्राप्त करती हैं। मन दिया कहुँ और ही, तन मालाके संग।
तुम्हारी चहक उनके हृदय-प्याले में श्रासनकी तरह कहे कबीर कोरी गजी कैसे लागे रंग ॥
उन्माद पैदा करती है ! -कबीर
क्या तुम भी प्रेम-योगमें विश्वास रखते हो?
अवश्य रखते हो! • यह लेख वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमालामें संस्कृत
भले ही तुम ऊँचे उड़े ! किन्तु प्रेमकी डोर-ममता हिन्दी-टीकानोंके साथ मुद्रित और शीघ्र प्रकाशित ।
की डोर-तो न काट सके ? होने वाले 'समाधितंत्र' ग्रन्थकी प्रस्तावनाका द्वितीय ।
अब तुम्हीं सोचो-महत्ता किस ओर है, ऊँचे -सम्पादक पहुँचनेमें, या प्रेम-बन्धनसे मुक्त होने में...!
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रायचन्द भाईके कुछ संस्मरण
[ले. महात्मा गान्धी] मज जिनके पवित्र संस्मरण लिखना प्रारंभ करता सगे संबंधियोंसे मिल, और उनसे जानने योग्य
हूँ, उन स्वर्गीय श्रीमद् राजचन्द्रकी आज बातें जानकर ही फिर कहीं लिखना प्रारम्भ करूँ। जन्मतिथि है । कार्तिक पूर्णिमा (संवत् १९२४) परन्तु इनमेंसे मुझे किसी भी बातका परिचय नहीं। को उनका जन्म हुआ gammatrammmmmmmmmmmmmmmitra इतना ही नहीं, था । मैं कुछ यहाँ। महात्मा गान्धीजीके जीवन पर जिनके व्यक्तित्वकी सबसे । मुझे संस्मरण लिखनेश्रीमद् राजचन्दका अधिक गहरी छाप पड़ी है, महात्माजीको जिनके प्रति की अपनी शक्ति और जीवनचरित्र नहीं 1 बहुमान है और जिनके गाढ परिचयमें महात्माजी रहा।
चके हैं उन पुरुषोत्तम एवं कविश्रेष्ठ श्रीमद् राजचन्य लिख रहा हूँ। यह
शंका है । मुझे याद है अथवा रायचन्दजीके कुछ संस्मरण स्वयं महात्मा गांधीकार्य मेरी शक्तिके
जीके लिखे हुए प्राप्त होना कम प्रससताकी बात नहीं है। मन कई बार ये विचार बाहर है। मेरे पास ये संस्मरण महात्माजीने यरवदा जेलमें लिखे थे और / प्रकट किये हैं कि अवसामग्री भी नहीं । उन-1बादको उस प्रस्तावनामें अन्तर्भूत किये गये थे,जो उन्होंने ! काश मिलने पर उनके का यदि मुझे जीवन-1 परम भुत प्रभावक मंडल बम्बईसे प्रकाशित होने वाले
संस्मरण
मो चरित्र लिखना हो तो श्रीमद्राजचन्द्र' ग्रंथकी द्वितीय गुजराती भावृत्तिके
। एक शिष्यने जिनके लिये लिखी थी। हालमें प्रस्तावना सहित उक्त संस्मरण मुझे चाहिये कि
पं. जगदीशचन्द्रजी शास्त्री एम. ए. द्वारा प्रमानिलिये मुझे बहुत मान मैं उनकी जन्मभूमि होकर उक्त ग्रंथके हिन्दी संस्करणमें प्रकट हुए हैं। भने- है,ये विचार सुने और ववाणीबंदरमें कुछ कान्तके पाठकों के लिये उपयोगी समझ कर उन्हें यहाँ / मुख्यरूपसे यहाँ उन्हींसमय बिताऊँ. उनके उधृत किया जाता है। प्रस्तावनाके मुख्यभागको । क सन्तोषके लिये यह रहनेका मकान देखें, पाराशष्ट' स्पर्म ३ दिया गया है। -सम्पादक लिस
है। श्रीमद्राजउनके खेलने कूदनेके " स्थान देखू , उनके बाल-मित्रोंसे मिलूँ, उनकी भाई' अथवा 'कवि' कहकर प्रेम और मान पूर्वक पाठशालामें जाऊँ, उनके मित्रों, अनुयायियों और सम्बोधन करता था । उनके मंस्मरण लिखकर
लखंगा ।
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४५४
अनेकान्त
पीर-निर्वाण स०२४६५
उनका रहस्य मुमुक्षुओंके समक्ष रखना मुझे प्रात्माके कल्याणके लिये चिन्ता करना शुरू करअच्छा लगता है । इस समय तो मेरा प्रयास दिया। उस समय मैं अपना एक ही कर्तव्य समझ केवल मित्रके मंतोषके लिये है । उनके संस्मरणों सका कि जबतक मैं हिन्दूधर्मके रहस्यको पूरी पर न्याय देनेके लिये मुझे जैनमार्गका अच्छा तौरसे न जान लूँ और उससे मेरी आत्माको परिचय होना चाहिये, मैं स्वीकार करता हूँ कि वह असंतोष न हो जाय, तबतक मुझे अपना कुलधर्म मुझे नहीं है । इसलिये मैं अपना दृष्टि-बिन्दु अत्यंत कमी न छोड़ना चाहिये । इसलिये मैंने हिन्दू धर्म संकुचित रक्तूंगा। उनके जिन संस्मरणोंकी मेरे और अन्य धर्मोंकी पुस्तकें पढ़ना शुरू करदी । जीवन पर छाप पड़ी है, उनके नोट्स, और उनसे क्रिश्चियन और मुसलमानी पुस्तकें पढ़ीं। विलायतजो मुझे शिक्षा मिली है, इम ममय उसे ही लिख के अंग्रेज मित्रोंके साथ पत्र व्यवहार किया। उनके कर मैं मन्तोष मानूंगा। मुझे आशा है कि उनसे समक्ष अपनी शंकाएं रक्खीं। तथा हिन्दुस्तानमें जो लाभ मुझे मिला है वह या वैसा ही लाभ उन जिनके ऊपर मुझे कुछ भी श्रद्धा थी, उनसे पत्रमंस्मरणोंके पाठक मुमुक्षुओंको भी मिलेगा। व्यवहार किया। उनमें रायचन्द भाई मुख्य थे ।
'मुमुक्त' शब्दका मैंने यहाँ जान बूझकर प्रयोग उनके साथ तो मेरा अच्छा सम्बन्ध हो चुका था। किया है । मब प्रकारके पाठकोंके लिये यह पर्याप्त उनके प्रति मान भी था, इसलिये उनसे जो मिल नहीं।
मके उसे लेनेका मैंने विचार किया। उसका फल ___ मेरे ऊपर तीन पुरुषोंने गहरी छाप डाली है- यह हुआ कि मुझे शांति मिली। हिन्दुधर्ममें मझे टालस्टॉय, रस्किन और गयचन्द्र भाई । दालम्टॉ- जो चाहिये वह मिल सकता है, ऐसा मनको वियने अपनी पुस्तकों द्वारा और उनके साथ थोड़े श्वास हुआ । मेरी इस स्थितिके जवाबदार रायचन्द पत्र व्यवहारसे: रस्किनने अपनी एक ही पस्तक भाई हुए, इससे मेरा उनके प्रति कितना अधिक 'अन्टदिसलास्ट' मे. जिसका गुजराती अनुवाद मान होना चाहिये, इसका पाठक लोग कुछ अनमैंने 'सर्वोदय' रक्खा है: और रायचन्द भाईने मान कर सकते हैं। अपने साथ गाढ़ परिचयसे । जब मुझे हिन्दू धर्म इतना होनेपर भी मैंने उन्हें धर्मगुरु नहीं माना। में शंका पैदा हुई उम ममय उपके निवारण करने- धर्मगुरुकी तो मैं खोज किया ही करता हूँ, और में मदद करनेवाले गयचन्द भाई थे। सन् १८९३ अबतक मुझे सबके विषय में यही जवाब मिला में दक्षिण आफ्रिकामें मैं कुछ क्रिश्चियन मजनोंके है कि 'ये नहीं।' ऐसा सम्पूर्ण गुरु प्राप्त करनेके विशेष सम्बन्धमें आया। उनका जीवन स्वच्छ लिये तो अधिकार चाहिये, वह मैं कहाँ से लाऊँ ? था। वे चुस्त धर्मात्मा थे । अन्य धर्मियोंको क्रिश्चियन होनेके लिये ममझाना उनका मुख्य व्यवसाय था । यद्यपि मेरा और उनका सम्बन्ध व्यावहारिक रायचन्द भाईके साथ मेरी भेंट जौलाई सन कार्यको लेकर ही हुआ था तो भी उन्होंने मेरी १८६१ में उम दिन हुई जब मैं विलायतसे बम्बई
प्रथम भेंट
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वर्ष २, किरण ८]
रायचद भाईके कुछ संस्मरण
चापिस आया । इन दिनों समुद्रमें तूफान पाया राती पाठशालामें भी उन्होंने थोड़ा ही अभ्यास करता है, इस कारण जहाज रातको देरीसे पहुँचा। किया था। फिर भी इतनी शक्ति, इतना ज्ञान और मैं डाक्टर-बैरिटर--और अब रंगूनके प्रख्यात आसपाससे इतना उनका मान! इमसे मैं मोहित झवेरी प्राणजीवनदास मेहताके घर उतरा था । हुआ । स्मरणशक्ति पाठशालामें नहीं बिकती, रायचन्द भाई उनके बड़े भाईके जमाई होते थे । और ज्ञान भी पाठशालाके बाहर, यदि इच्छा हो डाक्टर साहबने ही परिचय कराया । उनके दूसरे जिज्ञासा हो-तो मिलता है, तथा मान पानेके बड़े भाई झवेरी रेवाशंकर जगजीवनदासकी लिये विलायत अथवा कहीं भी नहीं जाना पड़ता; पहिचान भी उसी दिन हुई । डाक्टर साहबने परन्तु गुणको मान चाहिये तो मिलता है-यह रायचन्द भाईका 'कवि' कहकर परिचय कराया पदार्थ-पाठ मुझे बम्बई उतरते ही मिला।
और कहा--'कवि होते हुए भी आप हमारे साथ कविके साथ यह परिचय बहुत आगे बढ़ा। व्यापारमें हैं; आप ज्ञानी और शतावधानी हैं ।' स्मरण शक्ति बहुत लोगोंकी तीव्र होती है, इसमें किसीने सूचना की कि मैं उन्हें कुछ शब्द सुनाऊँ, आश्चर्यकी कुछ बात नहीं। शास्त्रज्ञान भी बहुतोंमें
और वे शब्द चाहे किमी भी भाषाके हो, जिस पाया जाता है । परन्तु यदि वे लोग संस्कारी न हों क्रमसे मैं बोलूँगा उसी क्रमसे वे दुहरा जावेंगे। तो उनके पास फटी कौड़ी भी नहीं मिलती। जहाँ मुझे यह सुनकर आश्चर्य हुआ । मैं तो उस समय संस्कार अच्छे होते हैं, वहीं स्मरण शक्ति और ‘जवान और विलायत से लौटा था; मुझे भाषा शास्त्रज्ञानका सम्बन्ध शोभित होता है, और जगत्ज्ञानका भी अभिमान था । मुझे विलायतकी हवा को शोभित करता है कवि संस्कारी मानी थे। भी कुछ कम न लगी थी । उन दिनों विलायत से आया मानों श्राकाश से उतरा । मैंने अपना समस्त ज्ञान उलट दिया, और अलग अलग भा- अपूर्व अवसर एवो क्यारे भावो, षाओंके शक पहले तो मैंने लिख लिये--क्योंकि क्यारे थईशु बाह्यान्तर निग्रंथ को, मुझे वह क्रम कहाँ याद रहनेवाला था ? और सर्व संबंधर्नु बंधन तीच बेदीने, बादमें उन शब्दोंको मैं बाँच गया। उसी क्रममे विचरणु का महत्पुरुषने पंथयो । रायचन्द भाईने धीरेसे एकके बाद एक शब्द सर्वभावयी भौवासीन्य वृत्तिकरी, कह सुनाये । । मैं राजी इश्रा, चकित हुआ और मात्र हे ते संथमहेतु होप बो; कवि की स्मरण शक्तिके विषयमें मेरा उच्च विचार अन्य कारणे अन्य कर्श करपे महि, हुआ। विलायनकी हवा कम पड़नेके लिये यह देहे पण किंचित् मर्या नवजोप को। सुन्दर अनुभव हुआ कहा जा सकता है।
कविको अंग्रेजीका झान बिल्कुल न था । उम गयचन्द भाईकी १८ वर्षको उमरके निकले ममय उनकी उमर पचीससे अधिक न थी । गुज- हुए अपर्व उद्गारोंकी ये पहली दो कड़ियाँ हैं।
वैराग्य
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अनेकान्त
[ज्येष्ट, वीर-निर्वाण जो वैराग्य इन कड़ियोंमें छलक रहा है, वह एकाग्रता चित्रित थी। चेहरा गोलाकार, होंठ मैंने उनके दो वर्षके गाढ़ परिचयसे प्रत्येक क्षणमें पतले, नाक न नोकदार और न चपटी,.शरीर - उनमें देखा है। उनके लेखोंकी एक असाधारणता दुर्बल, कद मध्यम, वर्ण श्याम, और देखनेमें वे यह है कि उन्होंने स्वयं जो अनुभव किया वही शान्तमूर्ति थे। उनके कंठ में इतना अधिक माधुर्य लिखा है । उसमें कहीं भी कृत्रिमता नहीं । दूसरेके था कि उन्हें सुननेवाले थकते न थे उनका चेहरा ऊपर छाप डालनेके लिये उन्होंने एक लाइन हंसमुख और प्रफुल्लित था। उसके ऊपर अंतराभी लिखी हो यह मैंने नहीं देखा। उनके पास नंदकी छाया थी । भाषा उनकी इतनी परिपूर्ण थी. हमेशा कोई न कोई धर्म पुस्तक और एक कोरी कि उन्हें अपने विचार प्रगट करते समय कभी कापी पड़ी ही रहती थी। इस कापीमें वे अपने कोई शब्द ढूँढना पड़ा हो, यह मुझे याद नहीं । मनमें जो विचार आते उन्हें लिख लेते थे। ये पत्र लिखने बैठते तो शायद ही शब्द बदलते हुए विचार कभी गद्यमें और कभी पद्यमें होते थे। मैंने उन्हें देखा होगा । फिर भी पढ़नेवाले को यह इसी तरह 'अपूर्व अवसर' आदि पद भी लिखा मालूम न होता था कि कहीं विचार अपूर्ण हैं हुआ होना चाहिये।
अथवा वाक्य-रचना त्रुटित है, अथवा शब्दोंके खाते, बैठते, सोते और प्रत्येक क्रिया करते चुनावमें कमी है। हुए उनमें बैराग्य तो होता ही था। किसी समय यह वर्णन संयमीके विषयमें संभव है । बाह्याउन्हें इस जगत्के किसी भी वैभव पर मोह हुआ डंबरसे मनुष्य वीतरागी नहीं हो सकता । वीतहो यह मैंने नहीं देखा।
रागता आत्माकी प्रसादी है । यह अनेक जन्मोंके उनका रहन-सहन मैं आदर पूर्वक परन्तु सू- प्रयत्नसे मिल सकती है, ऐसा हर मनुष्य अनुभव दमतासे देखता था। भोजनमें जो मिले वे उसीसे कर सकता है। रागोंको निकालनेका प्रयत्न करने मंतुष्ट रहते थे। उनकी पोशाक सादी थी । कुर्ता, वाला जानता है कि राग-रहित होना कितना कठिन अँगरखा, खेस, सिल्कका डुपट्टा और धोती यही है। यह राग-रहित दशा कविकी स्वाभाविक थी, उनकी पोशाक थी। तथा ये भी कुछ बहत साफ ऐसी मेरे ऊपर छाप पड़ी थी। या इस्तरी किये हुए रहते हों, यह मुझे याद नहीं। मोक्षकी प्रथम सीढ़ी वीतरागता है । जब तक जमीन पर बैठना और कुर्सी पर बैठना उन्हें दोनों जगतकी एक भी वस्तुमें मन रमा है तब तक मोक्षही समान थे। सामान्य रोतिसे अपनी दुकानमें की बात कैसे अच्छी लग सकती है ? अथवा वे गद्दीपर बैठते थे।
अच्छी लगती भी हो तो केवल कानोंको ही___ उनकी चाल धीमी थी, और देखनेवाला समझ ठीक वैसे ही जैसे कि हमें मर्यके समझे बिना सकता था कि चलते हुए भी वे अपने विचारमें किसी संगीतका केवल स्वर ही अच्छा लगता है। मग्न हैं। माँखमें उनकी चमत्कार था । वे अत्यन्त ऐसी केवल कर्ण-प्रिय क्रीड़ामेंसे मोक्षका अनुसरण . तेजस्वी थे। विहलता जरा भी न थी। आँखमें करने वाले पाचरणके पानेमें बहुत ममय बीत
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वर्ष २, किरह].
रायचन्द भाग कुछ संस्मरण
जाता है । पातर वैराग्यके विना मोषकी भगन देरासरोंमें, और मस्जिदों में ही होता है और दूकान नहीं होती। ऐसे पैराग्यकी लगन कविमें थी। . या दरवार में नहीं होता, ऐसा कोई नियम नहीं । व्यापारी जीवन
इतना ही नहीं, परन्तु यह कहना धर्मको न सम. ॐ "वणिक वेर्नु नाम ह वूडू नव बोले, झनेके बराबर है, यह रायचन्द भाई कहते, मानते परिक तर्नु नाम, तोल मो नव तोबे।
और अपने प्राचारमें बताते थे। बधिक तेहतुं नाम बापे बोल्यु ते पाले, ___ उनका व्यापार हीरे जवाहरातका था । वे भीबधिक तेहर्नु नाम ब्याज सहित धनवाले । रेवाशंकर जगजीवन झवेरीके साझी थे । साथमें विवेक तोज ए वणिक, सुलतान तोष ए शाव के, वे कपड़ेकी दुकान भी चलाते थे। अपने व्यवहारबेपार चुके जो पाखीमो, दुःख दावानल थाप छे" में सम्पूर्ण प्रकारसे वे प्रामाणिकता बताते थे, ऐसी
-सामलभट्ट उन्होंने मेरे ऊपर छाप डाली थी । वे जब सौदा सामान्य मान्यता ऐसी है कि व्यवहार अथवा करते तो मैं कभी अनायास ही उपस्थित रहता। व्यापार और परमार्थ अथवा धर्म ये दोनों अलग उनकी बात स्पष्ट और एक ही होती थी । 'चाअलग विरोधी वस्तुएँ हैं । व्यापारमें धर्मको घुसे- लाकी' सरीखी कोई वस्तु उनमें मैं न देखता था । ड़ना पागलपन है। ऐसा करनेसे दोनों बिगड़ दूसरेकी चालाकी वे तुरंत ताड़ जाते थे; वह उन्हें जाते हैं। यह मान्यता यदि मिथ्या न हो तो अपने असल मालम होती थी। ऐसे समय उनकी प्रकुटि भाग्यमें केवल निराशा ही लिखी है क्योंकि ऐसी भी चढ़ जाती, और आँखोंमें लाली मा जाती, यह एक भी वस्तु नहीं, ऐसा एक भी व्यवहार नहीं मैं देखता था । जिससे हम धर्म को अलग रख सकें।
धर्म कुशल लोग व्यापार-कुशल नहीं होते, धार्मिक मनुष्यका धर्म उसके प्रत्येक कार्यमें इस बहमको रायचन्द भाईने मिथ्या सिद्ध करके भलकना ही चाहिये, यह रायचन्द भाईने अपने बताया था। अपने व्यापारमें वे पूरी सावधानी जीवनमें बताया था। धर्म कुछ एकादशीके दिन ही, और होशियारी बताते थे । हीरे जवाहरातकी पर्यषणमें ही, ईदके दिन ही, या रविवारके दिन ही परीक्षा वे बहुत बारीकीसे कर सकते थे । यपपि पालना चाहिये; अथवा उसका पालन मंदिरोंमें, अंग्रेजीका ज्ञान उन्हें न था फिर भी पेरिस वगैरह
बनिया उसे कहते हैं जो कभी झूठ नहीं बोलता; के अपने भाड़तियोंकी चिट्ठियों और तारोंके मर्मको बनिया उसे कहते हैं जो कम नहीं तोलता । बनिया वे फौरन समझ जाते थे, और उनकी कला समउसका नाम है जो अपने पिताका वचन निभाना झनेमें उन्हें देर न लगती। उनके जो तर्क होते थे, है; बनिया उसका नाम है जो ग्याज सहित मूलधन वे अधिकांश स ही निकलते थे। चुकाता है। बनियेकी तोल विवेक है; साहू सुलतानकी इतनी सावधानी और होशियारी होने पर भी तोलका होता है। यदि बनिया अपने बनिजको चक जाय वे व्यापारकी उद्विग्नता अथवा चिन्ता न रखते नो मंमारकी विपत्ति बढ़ जाय। -अनुवादक थे। दुकानमें बैठे हुए भी जब अपना काम ममाप्त
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अनेकान्त
ज्येष्ठ वीर निवार्ण ०२४६५
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हो जाता, तो उनके पास पड़ी हुई धार्मिक पुस्तक यद्यपि कर्तव्य करते हुए शरीर तक भी समैपैण अथवा कापी, जिसमें वे अपने उद्गार लिखते थे, कर देना यह नीति है, परन्तु शक्तिसे अधिक खुल जाती थी। मेरे जैसे जिज्ञासु तो उनके पास बोझ उठा कर उसे कर्तव्य समझना यह राग है । रोज आते ही रहते थे और उनके साथ धर्म-चर्चा ऐसा अत्यंत सूक्ष्म राग कविमें था, यह मुझे करनेमें हिचकते न थे। 'व्यापारके समयमें व्यापार अनुभव हुआ। और धर्मके समयमें धर्म' अर्थात् एक समयमें एक बहुत बार परमार्थ दृष्टि से मनुष्य शक्तिसे ही काम होना चाहिये, इस सामान्य लोगोंके अधिक काम लेता है और बादमें उसे पूरा करनेसुन्दर नियमका कवि पालन न करते थे। वे में उसे कष्ट सहना पड़ता है। इसे हम गुण समझते शतावधानी होकर इसका पालन न करें तो यह हैं और इसकी प्रशंसा करते हैं । परन्तु परमार्थ हो सकता है, परन्तु यदि और लोग उसका उल्लं. अर्थात धर्म-दृष्टिसे देखनेसे इस तरह किये हुएघन करने लगें तो जैसे दो घोड़ों पर सवारी करने काममें सूक्ष्म मूर्खाका होना बहुत संभव है। वाला गिरता है, वैसे ही वे भी अवश्य गिरते। यदि हम इस जगतमें केवल निमित्तमात्र ही सम्पूर्ण धार्मिक और वीतरागी पुरुष भी जिस हैं, यदि यह शरीर हमें भाड़े मिला है, और उस क्रियाको जिम समय करता हो, उसमें ही लीन हो मार्गसे हमें तुरंत मोक्ष-साधन करना चाहिये, जाय, यह योग्य है। इतना ही नहीं परन्तु उसे यही यही परम कर्तव्य है, तो इस मार्गमें जो विघ्न आते शोभा देता है। यह उसके योगकी निशानी है। हो उनका त्याग आवश्य ही करना चाहिये; यही इसमें धर्म है। व्यापार अथवा इसी तरहकी जो पारमार्थिक दृष्टि है दूसरी नहीं। कोई अन्य क्रिया करना हो तो उसमें भी पूर्ण जो दलीलें मैंने ऊपर दी हैं, उन्हें ही किसी एकाग्रता होनी ही चाहिये । अन्तरंगमें श्रात्म- दूसरे प्रकारसे रायचन्द भाई अपनी चमत्कारिक चिन्तन तो मुमुक्षु में उसके श्वासकी तरह सतत भाषामें मुझे सुना गये थे । ऐसा होने पर भी चलना ही चाहिये । उससे वह एक क्षणभर भी उन्होंने कैसी कैसी व्याधियाँ उठाई कि जिसके फल वंचित नहीं रहता । परन्तु इस तरह आत्मचिन्तन स्वरूप उन्हें सख्त बीमारी भोगनी पड़ी ? करते हुए भी जो कुछ वह वाह्य कार्य करता हो वह रायचन्द भाईको भी परोपकारके कारण • उसमें तन्मय रहता है।
मोहने क्षण भरके लिये घेर लिया था, यदि मेरी मैं यह नहीं कहना चाहता कि कवि ऐसा न यह मान्यता ठीक हो तो 'प्रकृति पाति भूतानि करते थे। ऊपर मैं कह चुका है कि अपने व्यापार- निग्रहः किं करिष्यति' यह श्लोकार्ध यहाँ ठीक में वे पूरी सावधानी रखते थे। ऐसा होने पर भी बैठता है और इसका अर्थ भी इतना ही है। मेरे ऊपर ऐसी छाप जरूर पड़ी है कि कविने कोई इच्छापूर्वक बर्ताव करने के लिये उपयुक्त अपने शरीरसे आवश्यकतासे अधिक काम लिया कृष्ण-वचन का उपयोग करते हैं, परन्तु वह तो है । यह योगकी अपूर्णता तो नहीं हो सकती ? मर्वथा दुरुपयोग है । रायचन्द भाईकी प्रकृति
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२; किरण:.
रायचन्द माईक कुछ संस्मरण
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जन्हें बलात्कार गहरे पानीमें ले गई । ऐसे कार्य- इस तरहके अपवाद होते हुए भी व्यवहारको दोषरूपसे भी लगभग सम्पूर्ण आत्मानों में ही कुशलता और धर्म-परायणताका सुन्दर मेल जितना माना जा सकता है। हम सामान्य मनुष्य तो परोप- मैंने कविमें देखा है। उतना किसी दूसरे में कारी कार्यके पीछे अवश्य पागल बन जाते हैं, देखनेमें नहीं आया। तभी उसे कदाचित् पूरा कर पाते हैं। इस विषयकों
धर्म इतना ही लिखकर समाप्त करते हैं।
रायचन्द भाईके धर्मका विचार करनेसे पहले ." यह भी मान्यता देखी जाती है कि धार्मिक यह जानना आवश्यक है कि धर्मका उन्होंने क्या मनुष्य इतने भोले होते हैं कि उन्हें सब कोई ठग स्वरूप समझाया था। सकता है। उन्हें दुनियाकी बातोंकी कुछ भी न बर धर्मका अर्थ मत-मतान्तर नहीं । धर्मका अर्थ नहीं पड़ती। यदि यह बात ठीक हो तो कृष्णचन्द शास्त्रों के नामसे कही जानेवाली पुस्तकोंका पदजाना,
और रामचन्द दोनों अवतारोंको केवल संसारी कंठस्थ करलेना, अथवा उनमें जो कुछ कहा, मनुष्योंमें ही गिनना चाहिये। कवि कहते थे कि उसे मानना भी नहीं है। जिसे शुद्धज्ञान है उसका ठगा जाना असंभव होना धर्मात्माका गण है और वह मनष्य जाति. चाहिये । मनुष्य धार्मिक अर्थात नीतिमान होनेपर में दृश्य अथवा अदृश्यरूपसे मौजूद है। धर्मसे हम भी कदाचित ज्ञानी न हो परन्तु मोक्षके लिये नीति मनुष्य जीवनका कतव्य समझ सकते हैं। धर्मद्वारा
और अनुभवज्ञानका सुसंगम होना चाहिये। जिसे हम दूसरे जीवों के साथ अपना सबा संबन्ध पह. अनुभवज्ञान होगया है, उसके पास पाखण्ड निभ चान सकते हैं । यह स्पष्ट है कि जबतक हम अपने ही नहीं सकता। सत्यके पास असत्य नहीं निभ को न पहचान लें, तबतक यह सब कभी भी नही सकता । अहिंसाके सानिध्य में हिंसा बंद हो जाती हो सकता । इसलिये धर्म वह साधन है जिसके है। जहाँ सरलता प्रकाशित होती है वहाँ छलरूपी द्वारा हम अपने आपको स्वयं पहिचान सकते हैं। अंधकार नष्ट होजाता है । ज्ञानवान और धर्मवान यह साधन हमें जहाँ कहीं मिले, वहींसे प्राप्त यदि कपटीको देखे तो उसे फौरन पहिचान लेता है, करना चाहिये । फिर भले ही वह भारतवर्षमें मिले,
और उसका हृदय दयासे आई होजाता है। जिमने चाहे यूरोपसे आये या परबत्तानसे पाये । इन श्रात्मको प्रत्यक्ष देख लिया, वह दूसरको पहिचाने माधनं का सामान्य स्वरूप समस्त धमशास्त्रों में बिना कैसे रह सकता है ? कविके मम्बन्ध में यह एक ही सा है । इस बातको वह कह सकता है नियम हमेशा ठीक पड़ता था, यह मैं नहीं कह जिमने भिन्न-भिन्न शास्त्रों का अभ्यास किया है। मकता । कोई कोई धर्मके नाम पर उन्हें टग भी ऐसा कोई भी शास्त्र नहीं कहता कि असत्य बोलना लेते थे। ऐसे उदाहरण नियमकी अपूर्णता सिद्ध चाहिये, अथवा असत्य पाचरण करना चाहिये। नहीं करते, परन्तु ये शुद्ध ज्ञानकी ही दुर्लभता सिद्ध हिंसा करना किसी भी शास्त्र में नहीं बताया। करते हैं।
ममम्त शास्त्रोंका दोहन करते हुए शंकराचार्यने
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[ज्येष्ट, वीर-निर्भ
कहा है-'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या' । उसी बातको थे। उनके बाँचने और ग्रहण करनेकी शकि कुरानशरीफमें दूसरी तरह कहा है कि ईश्वर एक अगाध थी। पुस्तकका एक बारका बाँचन इन ही है और वही है, उसके बिना और दूसरा कुछ पुस्तकोंके रहस्य जाननेके लिये उन्हें काफी था । नहीं । बाइबिलमें कहा है कि मैं और मेरा पिता कुरान, जंदअवेस्ता आदि पुस्तकें भी वे अनुवादके एक ही हैं। ये सब एकही वस्तु के रूपांतर हैं । परन्तु जरिये पढ़ गये थे। इस एक ही सत्यके स्पष्ट करने में अपूर्ण मनुष्योंने वे मुझसे कहते थे कि उनका पक्षपात जैनअपने भिन्न-भिन्न दृष्टि-बिन्दुओंको काममें लाकर धर्मकी ओर था। उनकी मान्यता थी कि जिनाहमारे लिये मोहजाल रच दिया है; उसमेंसे हमें गममें प्रात्मज्ञानकी पराकाष्ठा है। मुझे उनका यह बाहर निकलना है। हम अपूर्ण हैं और अपनेसे विचार बता देना आवश्यक है । इस विषयमें कम अपूर्णकी मदद लेकर आगे बढ़ते हैं और अपना मत देने के लिये मैं अपनेको बिलकुल अनअन्तमें न जाने अमुक हदतक जाकर ऐसा मान धिकारी समझता हूँ। लेते हैं कि आगे गम्ता ही नहीं है, परन्तु वास्तव में परन्तु रायचन्द भाईका दूसरे धर्मोके प्रति ऐमो बात नहीं है । अमुक हदके बाद शास्त्र मदद अनादर न था, बल्कि वेदातके प्रति पक्षपात भी नहीं करते, परन्तु अनुभव मदद करता है। इसलिये था । वेदातीको तो कवि वेदांती ही मालूम पड़ते रायचन्द भाईन कहा है :--
थे । मेरी साथ चर्चा करते समय मुझे उन्होंने
कभीभी यह नहीं कहा कि मुझे मोक्ष प्राप्ति के लिये प पद श्रीसर्वशे दीई ध्यानमा,
किसी खाम धर्मका अवलंबन लेना चाहिये । मुझे कही शक्या नहीं ने पद श्रीभगवंत जो ।
अपना ही आचार विचार पालनेके लिये उन्होंने एह परमपदप्राप्तिर्नु क ध्यान में,
कहा । मुझे कौनसी पुस्तकें बाँचनी चाहिये, यह गजावगर पणहान मनोरथ रूपजो
प्रश्न उठने पर, उन्होंने मेरी वृत्ति और मेरे बचइसलिये अन्तमें तो आत्माको मोक्ष देनेवाली पनके संस्कार देखकर मुझे गीताजी बाँचने के लिये श्रात्मा ही है।
उत्तेजित किया; और दूसरी पुस्तकोंमें पंचीकरण, इस शुद्ध सत्यका निरूपण रायचन्द भाईने मणिरत्नमाला, योगवासिष्ठका वैराग्य प्रकरण, अनेक प्रकारों से अपने लेखों में किया है। रायचन्द काव्यदोहन पहला भाग, और अपनी मोक्षमाला भाईने बहुतसी धर्म पुस्तकों का अच्छा अभ्यास किया बाँचनेके लिये कहा।। था। उन्हें संस्कृत और मागधी भाषाके समझनमें रायचन्द भाई बहुत बार कहा करते थे कि जरा भी मुश्किल न पड़ती थी। उन्होंने वेदान्तका भिन्न भिन्न धर्म तो एक तरहके बाड़े हैं और उनमें अभ्यास किया था, इसी प्रकार भागवत और गीता- मनुस्य घिर जाता है। जिसने मोक्ष प्राप्ति ही पुरुजीका भी उन्होंने अभ्यास किया था । जैनपुस्तके षार्थ मान लिया है, उसे अपने माथे पर किसी भी तो जितनी भी उनके हाथमें आती, वे शंच जाते धर्मका तिलक लगानेकी आवश्यकता नहीं।
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वर्ष २, किस्स
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रायचन्द भार कुछ संस्मरण
' सूितर पाये त्यम तुं रहे, उपम त्यम करिने हरीने बरे- मोक्ष प्राप्त कर लिया है। मैं समझता हूँ कि रे
जैसे पाखाका यह सूत्र था वैसे ही रायचन्द दोनों ही मान्यताएँ अयोग्य हैं । इन बातोंको भाईका भी था। धार्मिक झगड़ोंसे वे हमेशा अबे मानने वाले या तो श्रीमद्को ही नहीं पहचानते, रहते थे-उनमें वे शायद ही कभी पड़ते थे । वे अथवा तीर्थकर या मुक्त पुरुषकी ये व्याख्या ही समस्त धर्मोकी खूबियाँ पूरी तरहसे देखते और दूसरी करते हैं। अपने प्रियतमके लिये भी हम उन्हें उन धर्मावलम्बियोंके सामने रखते थे। सस्यको हल्का अथवा सस्ता नहीं कर देते हैं। दक्षिण भाफ्रिकाके पत्र व्यवहारमें भी मैंने यही मोक्ष प्रमूल्य वस्तु है । मोक्ष मारमाकी अंतिम वस्तु उनसे प्राप्त की।
स्थिति है । मोक्ष बहुत मॅहगी वस्तु है। उसे प्राप्त __मैं स्वयं तो यह मानने वाला हूँ कि ममस्त करनेमें, जितना प्रयत्न समुद्र के किनारे बैठकर एक धर्म उस धर्मके भक्तोंकी दृष्टिसे सम्पूर्ण हैं, और मीक लेकर उसके ऊपर एक एक वृद चढ़ा चढ़ा दूसरोंकी दृष्टि से अपूर्ण हैं। स्वतंत्र रूपसे विचार कर समुद्रको खाली करने वालेको करना पड़ता है करनेसे सब धर्म पूर्णापूर्ण हैं। अमुक हदके बाद और धीरज रखना पड़ता है, उससे भी विरोष सब शान बंधन रूप मालूम पड़ते हैं। परन्तु यह प्रयत्न करनेकी आवश्यकता है । इस मोक्षका संपूर्ण तो गुणातीतकी अवस्था हुई। रायचन्द भाईकी वर्णन असम्भव है । तीर्थकरको मोक्षके पहलेकी दृष्टिसे विचार करते हैं तो किमीको अपना धर्म विभूतियाँ सहज ही प्राप्त होती हैं। इस देहमें मुक्त छोड़नेकी आवश्यकता नहीं । सब अपने अपने पुरुषको रोगादि कभी भी नहीं होते । निर्विकारी धर्ममें रह कर अपनी स्वतंत्रता-मोक्ष प्राप्त कर शरीरमें रोग नहीं होता । रागके बिना रोग नहीं सकते हैं। क्योंकि मोक्ष प्राप्त करनेका अर्थ सर्वांश होता । जहाँ विकारहै वहाँ राग रहता ही है और से राग-द्वेष रहित होना ही है।
जहाँ राग है वहाँ मोक्ष भी संभव नहीं । मुक्त परिशिष्ट *
पुरुषके योग्य वीतरागता या तीर्थकरकी विभूतियाँ
श्रीमद्को प्राप्त नहीं हुई थीं। परन्तु मामान्य मनुष्य इन प्रकरणोंमें एक विषयका विचार नहीं
हा की अपेक्षा श्रीमद्की वीतगगता और विभूतियाँ हुआ । उसे पाठकोंके समक्ष रख देना उचित सम
बहुत अधिक थीं,इसलिये हम उन्हें लौकिक भाषाझता हूँ । कुछ लोग कहते हैं कि श्रीमद् पचीसवें
में वीतराग और विभूतिमान कहते हैं। परन्तु मुक तीर्थकर हो गये हैं। कुछ ऐसा मानते हैं कि उन्होंने
पुरुषके लिये मानी हुई वीतरागता और तीर्थकरकी +जैसे सूत निकलता है वैसे ही तू कर । जैसे बने विभूतियोंको श्रीमद् न पहुँच सके थे, यह मेरा तैसे हरिको प्राप्त कर। -अनुवादक ह ढ़ मत है। यह कुछ मैं एक महान और पूज्य
*'श्रीमदराजचन्द्र' की गांधीजी द्वारा लिखा हुअा व्यक्तिके दोष बताने के लिये नहीं लिखता । परन्तु प्रस्तावनाका वह अंश जो उक्त संस्मरणोंसे अलग है उन्हें और मत्यको न्याय देनेके लिये लिखता हूँ । और उनके बाद लिया गया है।
यदि हम संसारी जीव है तो श्रीमद् भसंसारी
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..... “अनेकान्त
[ज्येष्ट, वीर-निर्वाण सं०२४१५.
-- हमें यदि अनेक योनियों में भटकना पड़ेगा तो श्री- मोह छोड़ कर-मात्मार्थी बनेंगे। . . . .--- मदको शायद एक ही जन्म बस होगा । हम इसके ऊपरसे पाठक देखेंगे कि श्रीमदके लेख शायद मोक्षसे दूर भागते होंगे तो श्रीमद् वायुवेग- अधिकारीके लिये ही योग्य हैं । सब पाठक तो से मोक्षकी ओर से जा रहे थे। यह कुछ थोडा उसमें रम नहीं ले सकते । टीकाकारको उसकी पुरुषार्थ नहीं। यह होने पर भी मुझे कहना होगा टीकाका कारण मिलेगा । परन्तु श्रद्धावान तो उसकि श्रीमद्ने जिस अपूर्व पदका स्वयं सुन्दर वर्णन मेंस रम ही लूटेगा। उनके लेखोंमें सत् नितर रहा किया है, उसे वे प्राप्त न कर सके थे। उन्होंने ही है, यह मुझे हमेशा भास हुआ है। उन्होंने अपना स्वयं कहा है कि उनके प्रवाममें उन्हें सहाराका ज्ञान बनाने के लिये एक भी अक्षर नहीं लिखा। मरुस्थल बीच में आ गया और उमका पार करना लेखकका अभिप्राय पाठकोंको अपने आत्मानन्दमें बाकी रह गया । परन्तु श्रीमद् राजचन्द्र अमाधारण महयोगी बनानेका था । जिसे आत्म क्लेश दूर व्यक्ति थे। उनके लेख उनके अनुभवके बिंदु के करना है, जो अपना कर्तव्य जानने के लिए उत्सुक समान हैं। उनके पढ़ने वाले, विचारने वाले और है, उसे श्रीमद्कं लेखों में से बहुत कुछ मिलेगा, ऐसा तदनुसार आचरण करने वालोंको मोक्ष सुलभ मुझे विश्वास है, फिर भले ही कोई हिन्दू धर्मका होगा, उनकी कषायें मन्द पड़ेगी, और वे देहका अनुयायी हो या अन्य किमी दूसरे धर्मका । जागति गीत.....
जागरं उठनकं अरमान ! जड़ता काट, भगा कायरता,
तेरा हास्य प्रलय ला दे, होआलस छोड़, दिखा तत्परता;
संकट का अवसान । दम्भ, अनीति कुचल पैरोंसे,
जागरे उठनेके अरमान ! गा सुक्रान्तिकर गान ।
तनिक क्रोधसे अखिल चराचरजागरे उठने के अरमान !
कम्पित हो यह प्रतिक्षा थर थर; अनल उगल हाहाकारोंसे,
एक अजेय शक्ति दे जाएँविश्व कैंपादे हुँकारो से;
तेरे ये बलिदान ।
जागरे उठनेके अरमान ! पाह-ज्वालसे भस्मसात्। पापीका अभिमान ।
ध्रुव प्राशाके पीकर प्याले,
हो जाएं मानव मतवाल; जागरे उठनेक अरमान .
सत्य-प्रेमके पागलपनमेंहूकों से यह हूक उठे जगः
हो पथका निर्माणा। कसकोंसे यह कृक उठं जग,
जागरे उठनेके अरमान ! तेरी दृढ़तासे आजाए
दुःख, वैर, परिताप दूर हों, . मुर्दो में भी जान ।
देष, घृणा अभिशाप चुर हों; जागरे उठनेके भरमान !
जीवन में नवज्योति जाग. फिरअट्टहाससे हंसदें नारे,
लाये नव वरदान । ---- - . नियर जैन "मरंश"] जागरे उठने के अरमान !
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02
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वीर प्रभुके धर्ममें । जाति भेदको स्थान नहीं है।
बेसी बाबू साबमानुजी
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जीवमात्रके कल्याणका जो सच्चा और सीधा मार्ग प्रचार कर भोले लोगोंको अधर्म मार्गसे हटाकर कल्या
श्रीवीरप्रभुने बताया है वही जैनधर्म कहलाता णके मार्ग पर लासकते हैं। है, उस ही धर्मके अनुयायी होनेका दावा हम लोग करते वो समय वह था जबकि पशु-पक्षियों को मारकर हैं । अढाई हज़ार बरस हुए जब वीरप्रभुका जन्म इस अग्निमें फंकदेना ही बहुधा धर्म और स्वर्ग तथा मोक्ष
आर्यावर्त में हुआ था, तब जैमा महान् अंधकार यहाँ प्राप्तिका माधन समझा जाता था, हिंसा करना ही धर्म फैला हुश्रा था, जिस प्रकार खुल्लमखुल्ला पापको पुण्य माना जाता था, निर्दयता ही कल्याणका मार्ग होरहा
और अधर्म को धर्म बताया जारहा था, डंकेकी चोट था। यशमें होम किये जानेके वास्ते ही परमेश्वरने पशुधर्मके नामपर जैसा कुछ जुल्म और अन्याय होरहा था पक्षी बनाये हैं, जो पशु-पक्षी यशके अर्थ मारे जाते हैं वे उसको सुनकर बदनके रोंगटे खड़े होते हैं, वीरप्रभुने उत्तम गति पाते हैं, वेदके तत्त्वको जाननेवाले जो किस प्रकार यह मब जुल्म हटाया, दयाधर्मका पाठ ब्राह्मण मधुपर्क श्रादि अनुष्ठानों में अपने हाथसे पशुश्रोपढ़ाया, मनुष्यको मनुष्य बनना सिखाया, उसको सुनकर को मारते हैं वे सद्गति पाते हैं और जिन पशुओंको वे
और भी ज्यादा आश्चर्य होता है और वीरप्रभुकी सची मारते हैं उनकी भी सद्गति दिलाते हैं, हर महीने पितवीरताका परिचय मिलता है । सच्चे धर्मके ग्रहण करने रोका श्राद्ध अवश्य करना चाहिये और वह भाद्ध मांसके और उसका प्रचार करनेके लिये सबसे पहले हृदयसे द्वारा ही होना चाहिये, बाद में ब्राह्मणोंको मांस अवश्य सब प्रकारका भय दूर करनेकी आवश्यकता इसही खाना चाहि में नियुक्त हुआ जो ब्राह्मण मांस कारण तो शास्त्रोंमें बताई गई है कि उलटे पुलटे खानसे इनकारना उसको इम अपराधके कारण प्रचलित सिद्धान्तोंके विरुद्ध सत्यसिद्धान्तका व्याख्यान २१ बार पशु जन्म लेना पड़ेगा, इस प्रकारकी अद्भुत करने पर दुनिया भड़कती है। और सब ही प्रकारकी धर्म-अाज्ञाएँ उम ममय प्रचलित थी और ईश्वर-वाम्य आपत्तियाँ उपस्थित करने पर उतारू होती है। जिनके मानी जाती थी। हृदयमें भय नहीं होता, सत्यके वास्ते जो सबही प्रकार उन दिनों याममार्ग नामका भी एक मत बहुत की आपत्तियाँ फेसनेको तथ्यार होते हैं वे ही निर्मय देखो, मनमविषयावर डोकर, होकर सत्यको ग्रहण कर सकते और सत्य सिद्धान्तका .., १२, बच्चावरोक ।
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......अनेकान्त. . .-.
[ज्येष्ठ वीरनिर्वाण :०२६५
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w.
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जोरोंसे प्रचलित था, जिसके द्वारा खूनकी प्यासी अनेक तुम्हारे राज्यमें कहीं कोई मान ने निससे देषियोंकी स्थापना होकर उन पर मा अपना और अपने पिताक सामने पुत्र मरने लगा है। रामने सब ऋषियोंबाल बचोकी सुख शान्तिके वास्ते लाखों करोड़ों पशु को इकट्ठाकर पूछा,तो उन्होंने बताया कि सतयुगमें केवल मारमार कर चढ़ाये जाते थे, जिसके कुछ नमूने अब- ब्राह्मण ही तप कर सकते थे, त्रेतायुग आनेपर पापका तक भी इस हिन्दुस्तानमें मौजूद है। हृदयको कम्पा- ' भी एक चरण श्रागया, जिस पापके कारण क्षत्रिय भी यमान करदेनेवाली जिस निर्दयतासे ये बलियाँ अाज तप करने लगे, परन्तु उस युगमें वैश्यों और शद्रोका दक्षिण देशके अनेक मन्दिरों में होती है उसके कुछ अधिकार केवल सेवा करना ही रहा । फिर द्वापर युग नमूने अनेकान्त वर्ष दो की प्रथम किरणमें दिये गये हैं, आनेपर पापका दूसरा चरण भी-भागया, इस पापके उनसे तो यह बात अनुमानसे भी बाहर होजाती है और कारण वैश्य भी धर्मसाधन करने लगे, परन्तु शूद्रोंको यह खयाल पैदा होता है कि जब अाजकल भी यह हाल धर्म-साधनका अधिकार नहीं हुआ। परन्तु इस समय है तो श्री महावीर स्वामीके जन्म समयमें तो क्या कुछ न तुम्हारे राज्यमें किमी स्थानपर कोई शूद्र तप कर रहा है, होता होगा ? उस समय तो जो कुछ होता होगा, वहाँ इस ही महापापके कारण ब्राह्मणका यह पुत्र मर गया तक हमारी बुद्धि भी नहीं जासकती है । हाँ, इतना ज़रूर है । यह सुनकर श्रीराम तुरन्त ही विमानमें बैठ उस कहा जासकता है कि वह जमाना प्रायः मनुष्यत्वके शूद्रकी तलाशमें निकले; एक स्थान पर शम्बूक नामका बाहरका ही. जमाना था, मांसाहारी फरसे क्रूर पशु भी शूद्र तपस्या करता हुआ मिला, श्री रामचन्द्र जीने इस प्रकार तड़पा तड़पा कर अपने शिकारको नहीं तुरन्तही तलवारसे उसका सिर काट दिया जिसपर देवमारता है जिस प्रकार कि आजकल दक्षिण भारत के कुछ ताोंने धन्य धन्य कहा और ब्राह्मणका पुत्र भी जिन्दा लोग अपनी और अपने बालबच्चोंकी सुख शान्तिके वास्ते करदिया। ऐसी दुर्दशा उस समय शूद्रोंकी वा धर्मकी किसी किसी देवीको प्रसन्न करनेके अर्थ पशुओंको हो रही थी, समाज-विज्ञान आदि अनेक ग्रंथोंसे यह भी तड़पा तड़पा कर मारते हैं, किन्दा पशुत्रोंका ही खून पता लगता है कि उस समय यदि भूलसे भी वेदका चूस चूसकर पीते हैं, अाँते निकाल कर गले में डालते कोई शब्द किसी शूद्रके कानमें पड़ जाता था तो उसके है, उनके खून में नहाते हैं: उन्हींके खूनसे होली खेलत कान फोड़ दिये जाते थे, धर्म की गंध तक भी उनके
और अन्य भी अनेक प्रकारकी ऐसी ऐसी क्रियाएँ पास न पहुँचने पावे, ऐसा भारी प्रबन्ध रखा जाता था। करते हैं जिनसे बलि दिये जानेवाले पशुकी जान बहुत इस ही प्रकारक धार्मिक जुल्म स्त्रियों पर भी होते थे, देर में और बहुत ही तड़प तड़प कर निकले !! वे चाहे ब्राह्मणी हो वा क्षत्रिया उनको कोई भी अधिकार ___ उस समय तो पशुओंके सिवाय मनुष्यों पर भी किसी प्रकारके धर्म-साधनका नहीं था, यहाँतक कि धर्मके नाम पर भारी जुल्म होते थे, बाल्मीकि रामायण उनके जात कर्म आदि संस्कार भी बिना मन्त्रों के ही उत्तर कांड सर्ग ०३से ७६के अनुसार भी रामचन्द्रके होते थे । राज्यमें एक बढ़े ब्राह्मणका बालक मर गया, जिसको - लेकर षह रामके पास आया और उलाहना दिया कि मनस्मृति इ.१८ .. ...
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वर्ष.२, किरण]
वीरभुके धर्ममें जातिभेदको स्थान नहीं है.............. ... --
मन
विनों पुत्रके किसीकी गति नहीं होसकती, यह भी और परिणामोकी शुद्धिका तो उस समय बहुत कुछ एक महा अहुत बाटा सिद्धान्त उस समय माना जा- अभाव होगया था। रहा था, इस हो कारण अपने पतिसे पुत्रकी उत्पत्ति न वीरप्रभुने ४२ बरसकी अवस्थामें केवलशन प्राप्त हो सकने पर स्त्री किसी कुटम्बीसे नियोग करके पुत्र कर लोगोंका मिथ्यात्व अंधकार दूर करना शुरू किया उत्पन्न करले, यह भी एक ज़रूरी धर्म प्रचलि हो रहा और स्पष्ट शब्दोंमें समझाया कि 'मुख वा दुख जो भी था- क्षत्रिय रणमें लड़ता हुश्रा मर जाय तो उसको कुछ मिलता है यह सब जीके अपने ही खोटे परे महायज्ञ करनेका फल मिलेगा, उसकी क्रियाकर्मी परिणामोंका फल होता है, जैसा करोगे पैसा भरोगे । गेहूँ भी कोई जरूरत न होगी, अर्थात् वह बिना क्रियाकर्म बोलोगे तो गेहूँ उगेंगे और जो बोनोगे तो जौ, बबलका किये ही स्वर्ग चला जायगा । इत्यादिक अद्भुत बीज बोनेसे काटे ही लगेंगे, किसी परमेश्वर वा देवी सिद्धान्त धर्मके नाम पर बन रहे थे और सर्व साधारण देवताकी खुशामद करने वा भेंट चढ़ानेसे बबूल के पेड़ में अटल रूपसे माने जारहे थे।
को श्राम अमरूद वा अनार अंगर नहीं लगने लगेंगे; इसके अलावा उस समय तांत्रिकोंका भी बड़ा भारी तब स्यों इस भ्रमजाल में फँसकर वृथा डले दो रहे हो? जोरशोर था, जो अनेक प्रकारकी महा भयङ्कर और जिस प्रकार देहकी बीमारीका इलाम शरीरके अन्दरसे डरावनी देवियोंकी कल्पना और स्थापना करके उनके दूषित द्रव्य (फ़ासिद माहा ) निकाल देने के सिवाय द्वारा लोगोंकी इच्छाओंके पूरा कर देनेका विश्वास और कुछ नहीं हो सकता है, उसी प्रकार प्रारमामें भी दिलाते थे—मारण, ताड़न, उच्चाटन, वशीकरण, रागद्वेष रूपी जो मैल लगा हुआ है उसके दूर किये अर्थात् किसी को जानसे मार डालना, अंग-भंग करदेना, बिना सुख शान्ति नहीं मिल सकती है।' कोई भयानक रोग लगा देना, धन-दौलत वर्बाद कर- अगर हम अपना भला चाहते हो तो सब भटकावा देना, अन्य भी अनेक प्रकारकी आपत्तिमें फंसा देना, छोड़ एक मात्र अपने ही परिणामोकी दुरुस्तीमें लग
आपसमें मनमुटावकर कर लड़ाई-झगड़ा करा देना, जाओ, अपनी नीयतको साफ़ करो, अपने भावोंको शुद्ध किसी दूसरेकी स्त्री श्रादिको वशमें करा देना धन बनाओ, स्वार्थ में अन्धे होकर दूसरोंको मत सतायो, सम्पत्ति निरोगता, पुत्र आदिकी उत्पत्ति, वा किसी स्त्री दूसरों के अधिकारों पर झपट्टा मत लगाओ, संतोषी बनो, प्रादिकी प्राप्ति करा देना श्रादि सब कुछ तांत्रिकोंके न्यायकी दृष्टिसे देखो तुम्हारे समान संसारके सब ही ही हाथमें माना जा रहा था। इस कारण उस समयके जीवोंको जीवित रहने, संसारमें विचारनेका अधिकार है, अधिकांश लोग अपने शुभाशुभ कर्मोकी तरफसे अगर तुम्हारी नीयत इसके विपरीत होती है तो वही बिल्कुलही बेपरवाह होकर और पुरुषार्थसे भी मुँह मोड़ खोटी नीयत है, वही खोटा भाव है जिसका खोय इन तांत्रिकोंके मंत्रों यंत्रोंके ही भरोसे अपने सब कार्यों परिणाम भी अवश्य ही तुमको भोगना पड़ेगा।' की सिद्धि करानेके चकरमें पो हुए थे। प्रात्मोप्रति किसी भी जीवको मारना, सताना, दुख देना, * मनुस्मृति २०६०
उसके अधिकारोंको छीनना, या किसी प्रकारकी रोक मिनुस्मृति ५-15
वैदा करना महापाप है,जो किसीको सताएगा वह उसके
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"अनेकान्त
[ज्येष्ट, वीर-निवास
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परिणाम स्वरूप ज़रूर सताया जायगा और दुख उठा- वा धर्मसाधन करनेसे रोकता है वह धर्म नहीं, किन्तु येगा, जैसा तुम दूसरों के लिये चाहोगे, वैसे ही तुम ज़बरदस्तोंकी ज़बरदस्ती और ज़ालिमोंका जुल्म है, ऐसी खुद बन जानोगे, यह ही एक अटल मिद्धान्त हृदयमें घोषणाकर वीर प्रमुने अपने धर्मोपदेशमें सब ही जीवोंको धारण करो। भला बुरा जो कुछ होता है वह सब अपने स्थान दिया, शूद्रो, चांडालों, पतितों, कलंकियों, दुराही किये कर्मोंसे होता है, इस कारण मरे हुए. जीवोंकी कारियों, अधर्मियों, पापियों और धर्मके नामपर हिंसा गति भी उनके अपने ही किये कोंके अनुसार होती है- करनेवाले धर्मद्रोहियों आदि सबही स्त्री पुरुषोंको धर्मका दूसरोंके किये कर्मों के अनुसार नहीं । मैं खाऊँगा तो मेरा सच्चा स्वरूप बताकर श्रात्मकल्याणके मार्गपर लगाया, पेट भरेगा और तुम खाश्रोगे तो तुम्हारा। अतः ब्राह्मणोंको पाप करना छुड़ाकर धर्मात्मा बनाया । केवल मनुष्यों के खिलानेसे मरे हुए. पितरोंका पेट नहीं भर मकता है और ही नहीं, किन्तु वीरप्रभुने तो पशु पक्षियों तकको भी न किसीके पुत्रके द्वारा ही उसकी गति हो सकती है। अपने धर्म-उपदेशमें स्थान देकर धर्मका स्वरूप समयह सब मुफ्तखोरे लोगोंने बेसिर पैरकी अप्राकृतिक बातें झाया-शेर, भेड़िया, कुत्ता, बिल्ली, सूअर, गिद्ध और घड़कर भोले लोगोको अपने जाल में फंसा रखा है,जिस- चील कौव्वा श्रादि महा हिंसक जीव भी उनकी मभामें से स्त्रियोंको भी अपने पतिम पुत्र न होसकने पर देवर आये और धर्मोपदेश सुनकर कृतार्थ हुए। . श्रादि पर पुरुष के साथ कुशील सेवन करके पुत्र उत्पन्न 'औषधि बीमारोंके वास्ते ही की जाती है, भोजन करना पड़ता है, बेचारियोंको ज़बरदस्ती ही इस उलटे भूग्वके वास्ते ही बनाया जाता है, मार्गसे भटके हुोंको सिद्धांतके कारण कुशील में फँसना पड़ता है, इससे ही रास्ता बताया जाता है; इस ही प्रकार धर्मका उपदेश अधिक घोर अंधकार और क्या हो सकता है ? स्त्रियोंसे भी उस ही को सुनाया जाता है, जो धर्मका स्वरूप नहीं पुरुष उत्पन्न होते हैं, उनको इतना नीचे गिराना कि जानता है, धर्मभ्रष्टको ही धर्म मार्ग पर लगानेकी ज़रूरत उनका कोई संस्कार भी मंत्रों द्वारा नहीं हो सकता, वे है, ऐसा कल्याणकारी वीरप्रभुका श्रादेश था । उन्होंने मंत्रीका उच्चारण वा जाप श्रादि वा अन्य धार्मिक अनु- स्वयं जगह जगह घूम फिरकर महा पापियों, धर्मभ्रष्टों, धान भी नहीं कर सकती,कितना बड़ा जुल्म और पुरुषों- महाहिंसकों, मांस-श्राहारियों, दुराचारियों, पतितो, कलंकी बुद्धि का अंधकार है।'
कियों शूद्रों और चांडालोंको पापसे हटाकर धर्ममें लगाया इस प्रकार पुरुषोंकी बुद्धि को ठिकाने लाकर वीर और उन्हें जैनी बनाकर धर्मका मार्ग चलाया। प्रभुन श्रावक, श्राविका और मुनि, आर्यिका नामके संघ मिथ्यात्वीसे ही जीव सम्यक्ती बनता है और पतित पनाकर स्त्रियोंको श्रावकका गृहस्थधर्म और त्यागियोंका को ही ऊपर उठाया जाता है, इस बातको समझाने के त्यागधर्म साधन करनेकी भी इजाज़त दी, इजाज़त ही वास्ते वीरप्रभुने अपना भी दृष्टान्त कह सुनाया कि एक नहीं दी किन्तु पुरुषोंसे भी अधिक गिनतीमें उनको बार में मिहकी पर्यायमें था, जब कि पशुओंको मारना धर्म साधनमें लगाया और उनके ऊपरसे पुरुषोंके भाग और मांस खाना ही एकमात्र मेरा कार्य था, उसही पर्याजुल्मको हटाया।
यमें एक समय किसी पशुको मारकर उसका मांस स्वा .. 'जो धर्म किसी जीवको धर्मक स्वरूपको जानने रहा था कि एक मुनि महाराजने मुझको सम्बोधा, धर्म
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वर्ष
... ....... .. बीरप्रभुके.पर्समें अवि भेदको स्थान नहीं है
का तथा स्वरूप समझाया और पापसे हटाकर धर्ममें भला मानता रहा तबतक वह महापापी और पतित रहा, लगाया; तब ही से उन्नति करते करते मैंने अब यह महा फिर जब मुनिमहाराज के उपदेशसे उसको होश भागया उत्कृष्ट तीर्थकर पद पाया है। इस ही प्रकार अन्य भी और हिंसा करनेको महापाप समझने लग गया तब ही सब ही पापियों को पापसे हटाकर धर्ममें लगाना धर्मात्मा- से वह उस महानिंदनीय पर्याय में ही पुण्यवान् धर्मात्मा ओंका मुख्य कर्तव्य है । धर्मके सच्चे श्रद्धानीकी यही तो बन गया। एक पहचान है कि वह पतितोंको उभारे, गिरे हुओंको इस हो कारण श्रीसमन्तभद्रस्वामीने जाति-भेदकी ऊपर उठावे, भले भटकोंको रास्ता बतावे और पापियों- निस्सारताको दिखाते हुए रत्नकरंड भावकाचार श्लोक को पापसे हटाकर धर्मात्मा बनावे ।
में बताया है कि चांडाल और चांडालनीके रजवीर्य ___ धर्म, अधर्म, पाप और पुण्य ये सब अात्माके ही से पैदा हुआ मनुष्य भी यदि सम्यक् दर्शन ग्रहण करले भाव होते हैं । हाड मांसकी बनी देहमें धर्म नहीं रहता तो वह भी देवोंके तुल्य माने जाने योग्य हो जाता है। है। देह तो माता पिताके रज वीर्यसे बनी हुई महा इस ही प्रकार अनेक जैनग्रन्थों में यह भी बताया है कि अपवित्र निर्जीव वस्तुत्रोंका पिंड है। इस कारण अमुक ऊँचीसे ऊँची जाति और कुलका मनुष्य भी यदि वह माता पिताके रजवीर्यसे बनी देह पवित्र और अमुकके मिथ्यात्वी है और पाप कर्म करता है तो नरकगति ही रजवीर्यसे बनी देह अपवित्र, यह भेद तो किसी प्रकार पाता है तब धर्मको जाति और कुलसे क्या वास्ता ? भी नहीं हो सकता है, रजवीर्य तो सब ही का अपवित्र है जो धर्म करेगा वह धर्मात्मा होजायगा और जो अधर्म और उसकी बनी देह भी सबकी हाड मांसकी ही होती करेगा वह पापी बन जायगा । श्रीवीरप्रभुके समयमें है, और हाड मांस सब ही का अपवित्र होता है-किसी बहुत करके ऐसे ही मनुष्य तो थे जो पशु पक्षियोंको का भी हाड मांस पवित्र नहीं होसकता है- तब अमुक मारकर होम करना वा देवी देवतात्रों पर चढ़ाना ही माता पिताके रजवीर्यसे जो देह बनी है यह तो पवित्र धर्म समझते थे। जब महीने महीने पितरोंका श्राद
और अमुक माता पिताके रज बीयंस पनी देह अपवित्र कर ब्राह्मणांको माम खिलाना ही बहुत जरूरी सम्मा है यह बात किसी प्रकार भी नहीं बन सकती है। हाँ ! जाता था, तब उनसे अधिक पतित और कौन होसकता देहके अन्दर जो जीवात्मा है वह न तो किसी माता था? यदि माता पिताके रज वीर्यसे ही धर्म ग्रहण करनेपिताके रज वीर्यसे ही बनती है और न हाड मामकी की योग्यता प्राम होती है, तब तो यह महा अधर्म उनकी बनी हुई देहसे ही उत्पन्न होती है, वह तो स्वतन्त्र रूपसे नसनममें सैकड़ों पीदीसे ही प्रवेश करता चला प्रारहा अपने ही कर्मों द्वारा देह में श्राती है और अपने अपने था! और इसलिये वे जैनधर्म ग्रहण करने के योग्य किसी ही भले बुरे कर्मोको अपने साथ लाती है, अपने ही शुभ प्रकार भी नही होसकने थे । परन्तु वीरप्रभुके मत अशुभ भावों और परिणामांसे ऊँच नीच कहलाती है। यह बात नहीं थी। उनका जैनधर्म तो किसी जाति जैसे जैसे भाव इस जीवात्माके होते रहते है वैसी ही विशेषके वास्ते नहीं है। जब चांडाल तक भी इसको भली या बुरी वह बनती रहती है; जैसा कि वीरप्रभुका ग्रहण करनेसे देवताके समान सम्मानके योग्य होजाता जीव महाहिमा सिंहकी पर्याय में जबतक हिमा करनेको है तब पशु पक्षियों को मारकर होम करनेवाले और बाद
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.४६८
अनेकान्त
[ज्येष्ट, वीर-निर्वाण सं०२४६५
में नित्य ही मांस खानेवाले क्योंकर इस पवित्र जैनधर्मको वणिजोऽर्थार्जना म्याग्यात् यना न्यग्वत्तिसंश्रयात् ॥४६॥ धारण करनेके अयोग्य होसकते है ? अतः वीरप्रभुने फिर ३६वें पर्वमें सब ही जातिके लोगोंको जैनी इन सब ही हिंसकों और मांसाहारियोंको बेखटके जैन बनाने की दीक्षान्चय क्रिया बताकर, उनके जैनी बनजाने बनाया हनहीं से जो गृहस्थी रहकर ही धर्म पाल सके के बाद श्लोक १०७में उनको इस प्रकार समझाया है वे श्रावक और श्राविका बने और जो गृह त्यागकर कि-'सत्य, शौच, क्षमा, दम आदि उत्तम आचरणोंसकल संयमादि धारण करसके वे मुनि और आर्यिका को धारण करनेवाले सद्गृहस्थोंको चाहिये कि वे अपने हुए. यहांतक कि उन्हींमेंसे आत्म-शुद्धि कर अनेक को देव, ब्राह्मण मानें ।' और श्लोक १०८ से ११२ तक उस ही भवसे मोक्षधाम पधारे।
यह बताया है कि-'अगर कोई अपनेको झूठमूठ द्विज वीर भगवान के बाद श्री जैन प्राचार्योने भी जाति माननेवाला अपनी जातिके घमएडमें प्राकर उससे भेदका खंडन कर मनुष्य मात्र की एक जाति बताते ऐतराज़ करने लगे कि क्या तू आज ही देव बन गया हुए सब ही को जैनधर्म ग्रहण कर श्रात्म-कल्याण करने- है ? क्या तू अमुकका बेटा नहीं है ? क्या तेरी माँ का अधिकारी ठहराया है । अब मैं इसी विषय के कुछ अमुककी बेटी नहीं है ? तब फिर तू श्राज़ किस कारण नमूने पेश करता हूं, जिनके पढ़नेसे जैनधर्मका सच्चा से ऊँची नाक फरके मेरे जैसे द्विजोंका श्रादर सत्कार स्वरूप प्रगट होकर मिथ्या अंधकार दूर होगा, जातिभेद किये बिना ही जारहा है ? तेरी जाति वही है, जो पहले का झूठा भूत सिरसे उतर कर सम्यक् श्रद्धानमें दृढ़ता थी-तेरा कुल वही है जो पहले था और तू भी वही है, श्राएगी और मनुष्यमात्रको जैनधर्म ग्रहण करानेका जो पहले था । तो भी तू अपनेको देवता समान मानता उल्लास पैदा होकर सच्चा धर्म-भाव जागृत हो सकेगाः- है। देवता, अतिथि, पितृ और अग्नि सम्बन्धी कार्यों में
(१) भगवजिनसेनाचार्यकृत श्रादि पुराण पर्व ३८ अप्राकृतिक होने पर भी तू गुरू, द्विज, देवोंको प्रणाम् में मनुष्यों के जाति भेदकी बाबत लिखा है-'मनुष्य- नहीं करता है। जिनेन्द्रदेवकी दीक्षा धारण करने से जातिनाम कर्मके उदयसे ही सब मनुष्य, मनुष्य-पर्याय- अर्थात् जैनी बननेसे तुझको ऐसा कौनसा अतिशय प्राप्त को पाते हैं, इस कारण सब मनुष्योंकी, एक ही मनुष्य होगया है, ? तू तो अब भी मनुष्य ही है और धरतीको जाति है । अलग-अलग प्रकारका रोज़गार-धंधा करने- पैरोंसे छूकर ही चलता है।' से ही उनके ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, ये चार इस प्रकार क्रोध करता हुआ कोई द्विज उलाहना भेद होजाते हैं । तती होनेसे ब्राह्मण कहलाता है, शस्त्र दे तो,उसको किस प्रकार युक्तिसहित उत्तर देना चाहिये धारण करने से क्षत्रिय, न्यायसे धन कमाने वाला वैश्य उसका सारांश श्लोक. ११४, १५, ११६, १३०,१३१,
और घटिया कामांसे श्राजीविका करनेवाला शूद्र ।' १३२, १४०, १४१, १४२ के अनुसार इस प्रकार हैयथा
_ 'जिन्होंने दिव्यमूर्ति जिनेन्द्रदेव के निर्मल शनरूपी "मनुष्यजातिरेकैच नातिनामोदयोदभवा ।
गर्भसे जन्म लिया है, वे ही द्विज है। व्रत, मंत्र श्रादि वृत्तिभेदा हि सदभेदाचातुर्विध्यमिहारनुते ॥४॥ संस्कारोंसे जिन्होंने गौरव प्राप्त कर लिया है,वे ही उत्तम ग्राहाणा व्रतसंरकारात् त्रियाः शवधारणात् । द्विज हैं। वे किसी प्रकार भी जाति व वर्णसे गिरे हुए
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वर्ष , किरण ८]
वीर प्रभुके धर्ममें जाति भेदको स्थान नहीं है
नहीं माने जा सकते हैं । जो क्षमा, शौच आदि गुणोंके तबाहेती विधा मियां शक्ति गुरुषसंमिता। धारी हैं, सन्तोषी हैं, उत्तम और निर्दोष श्राचरणोंसे स्वसारकृत्य समुद्भूता वयं संस्कारजन्मना ॥१॥ भूषित हैं, वे ही सब वर्षों में श्रेष्ठ हैं । जो अत्यन्त विशुद्ध अयोनिसंभववास्तेनदेवा एव न मानुगः । वृत्तिको धारण करते हैं, उनको शुक्ल वर्गी अर्थात् महा वयं वयमिवान्येऽपि संति चेदा हि तद्विधान् ॥११॥ पवित्र उज्वल वर्णवाले मानना चाहिये और बानीको विश्यमूर्तेजिनेन्द्रस्य शामगादनावितात् । शुद्धतासे बाहर समझना चाहिये ।
समासादितनम्मानो द्विजन्मानस्ततो मताः ॥१३॥ __ मनुष्योंकी शुद्धि-अशुद्धि, उनके न्याय-अन्याय रूप पांतःपातिनो नैते मंतम्या हिजसत्तमाः। पाचरणसे ही जाननी चाहिये । दयासे कोमल परिणामों- व्रतमंत्रादिसंस्कारसमारोपितगौरवाः ॥१३॥ का होना न्याय है और जीवोंका घात करना अन्याय है। वर्णोत्तमानिमान् विभः शांतिशौचपरापणान् । विशुद्ध आचरण होने के कारण जैनी ही उत्तम वर्ण के हैं संतुष्टान् प्राप्तवैशिष्टयानलिस्टाचारभूषणान् ॥१३२॥
और द्विज हैं। वे किसी प्रकार भी वर्ण में घटिया नहीं ये विशुद्धतरो वृत्ति तस्कृतां समुपाश्रिताः । माने जा सकते हैं।'
ते शुक्लवर्गे मोडम्याः शेषाःसर्वे:बहिःकृताः ॥१४॥ श्रादिपुराण पर्व ३६ के उक्त श्लोक क्रमशः इस तच्छुयशुद्धी बोडण्ये न्यायान्यायप्रवृत्तितः। प्रकार हैं :
न्यायो दयाईवृत्तित्वमन्यायः प्राणिमारणं ॥१४॥ धम्यराचरितैः सत्यशौचक्षतिदमादिभिः ।
विशुद्ध वृत्तयस्तस्माजना वर्णोत्तमा द्विजाः। देवब्राह्मणतां श्लाघ्यो स्वस्मिन्संभावयत्यसौ ॥१०॥ वांतःपातिनो नेते जगन्मान्या इति स्थितं ॥१४२ अथ जातिमदावेशाकश्चिदेनं द्विजत्रुवः ।
(२) इस ही जाति भेदका खंडन श्रीगुणभद्राचार्य यादेवं किमयैव देवभूयंगतो भवान् ॥१०॥ कृत उत्तरपुराण पर्व ७४ में इस प्रकार किया है:स्वमामुष्यायणःकिन कि तेज्वाऽमुष्यपुत्रिका। 'मनुष्य के शरीर में ब्राह्मणादि वर्गों की पहचानकायेनेघमुझसोभूत्वा यास्यसस्कृत्य मद्विधान् ॥१०॥ शकल सूरत श्रादिका-कोई किसी प्रकारका भी भेद जातिः सैव कुलं तच सोऽसि योसि प्रगेतनः। नहीं दीखता है और शूद्र आदिकके द्वारा ब्राह्मणी श्रादि तथापि देवतास्मानमात्मानं मन्यते भवान् ॥११०॥ को भी गर्भ रह जाना। संभव होनेसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, देवताऽतिथिपित्रग्निकार्येप्वप्राकृतो भवान् । वैश्य और शूद्रमें ऐसा कोई जाति भेद नहीं है जैमा कि गुरुद्विजातिदेवानां प्रणामात्र पराङ्मुखः ॥१॥ गाय और घोड़े आदि में पाया जाता है अर्थात् ब्राह्मण, दीक्षां जैनी प्रपत्रस्य आतः कोऽतिशयस्तव । क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में प्राकृतिक कोई भेद नहीं है, यतोऽयापि मनुष्यस्त्वं पादचारी महीं स्पृशन् ॥११२ किन्तु पृथक पृथक् आजीविका करने के कारण ही उनमें इत्युपास्वसंरंभमुपाखब्धः स केनचित् । भेद मान लिया जाता है । यास्तवमें तो इन सबकी एक वदात्युत्तरमित्यस्मै वचोमियुक्तिपेशः ॥११॥ ही मनुष्य जाति है।' यथाभूयतां भो दिवमन्य त्वयात्मदिव्यसंभवः । वर्णाकृत्यादिभेदानां देहेऽस्मिन्न च दर्शनात् । जिनो जनयिताऽस्माकं ज्ञानं गर्भोऽतिनिर्मखः 11 वाहण्याविषयहाचैर्गर्भाधानप्रवर्तनात् ॥११॥
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७.
अनेकान्त
[म्येष्ट, वीर-निर्वाण स०२४१५
नास्ति मातिकतोभेदो मनुष्याणां गवारववत् ,
इस आशयके मूल श्लोक क्रमशः इस प्रकार हैंजातिवात्तस्मादन्यथा परिकल्पते ॥ १२ ॥ "कल्पिताश्च त्रयो वर्णाः क्रियाभेदविधानतः ।
(३) रविषेणाचार्य कृत, 'पद्मपुराणमें जाति भेदका शस्थानां च समुत्पत्तिर्जायते कल्पतो यतः ॥१६॥ जो खण्डन किया है वह इस प्रकार है
सारणं यस्य यल्लोके स तेन परिकीर्त्यते। . क्रियाके भेदसे ही तीन वर्षों की स्थापना की गई सेवकः सेवया युक्तः कर्षक: कर्षणात्तथा ॥२०॥ है। 'जाहिरमें जो पहिचान, जिसकी दिखाई देती है, धानुको धनुषो योगाद्यार्मिको धर्मसेवनात् । वह उस ही नामसे पुकारा जाता है-सेवा करनेवाला सत्रियः सततखाणाबाह्मणो ब्रह्मचर्यतः ॥१०॥ सेवक, खेत जोतनेवाला किसान धनुष रखनेवाला
-पर्व ५वाँ तीरन्दाज, धर्मसेवन करनेवाला धर्मात्मा, रक्षा करने- चातुर्विध्यं च यजात्या तत्र युक्तमहेतुकं । वाला क्षत्रिय और ब्रह्मचर्य धारण करनेवाला ब्राह्मण शानं देहविशेषस्य न च श्लोकाग्निसंभवात् ॥१६॥ कहलाता है। जातिकी अपेक्षा अर्थात् जन्मसे चार एश्यते जातिभेवस्तु पत्र तत्रास्य संभवः । भेद मानना ठीक नहीं हैं। लोकपाठ और अग्नि-संस्कार- मनुष्यहस्तिवालेपगोवाजिप्रभृतौ यथा ॥१६॥ से भी देह विशेषका बोध नहीं होता है। जहाँ जाति मच जात्यंतरस्थेन पुरुषेण सियां कचित् । भेदकी सम्भावना है, वहां वह दिखाई देता ही है, जैसे क्रियते गर्भसंभूतिर्विप्रादीनां तु जायते ॥१६॥ कि:-मनुष्य, गाय, हाथी, घोड़ा आदिमें । गैर जाति प्रश्वायां रासभेनास्ति संभवोऽस्येति चेनसः । वाले नरसे किसी भी स्त्री जातिमें गर्भधारण नहीं कराया नितांतमन्यजातिस्थशकादितनुसाम्पतः ॥१६॥ जासकता । लेकिन, ब्राह्मण आदि जातियों में आपसमें यदि वा तद्वदेव स्पा द्वयोर्विसशःसुतः । ऐसा होजाता है। कोई कहै कि गधेसे घोड़ीमें गर्भ रह मात्र टं तथा तस्माद्गुणैर्वर्णव्यवस्थितिः ॥१६॥ सकता है, यह ऐतराज ठीक नहीं है, उनके शरीरकी ऋषिभंगादिकानां मानवानां प्रकीर्यते। . समानता होने के कारण वे बिल्कुल दूसरी जातिके नहीं बाह्मण्यं गुणयोगेन न तुत योनिसंभवात् ॥२०॥ है। अगर उन दोनोंसे भिन्न प्रकारकी औलाद पैदा नजातिर्गहिता काचिद्गुणाः कल्याणकारणं ।
हो तो ऐसा मनुष्यों में होता नहीं है । इस कारण वर्ण- व्रतस्थमपि चांडालं तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥२०३॥ • व्यवस्था गुणोंसे ही माननी चाहिये-जन्मसे नहीं। ऋषि चातुर्वण्यं यथान्यच चांडालादिविशेषणं । अंगादिका ब्राह्मणपन, उनके गुणके कारण ही माना ___ सर्वमाचारभेदेन प्रसिद्धिं भुवने गतं ॥२०॥ गया है, ब्राह्मण योनिमें जन्म लेने के कारण नहीं । कोई
-पर्व ११वाँ जाति नित्य नहीं है,गुण ही कल्याणकारी हैं। व्रतधारण (४) श्री अमितगति प्राचार्यने भी धर्मपरीक्षाके करनेवाले चाण्डालको भी प्राचार्योंने देव ब्राह्मण १७वें परिछेदमें जातिभेदका खंडन इस प्रकार किया कहा है। चार वर्ण और चाण्डालादि विशेषण जो है-'प्राचार मात्रके मेदसे ही जाति भेद किया जाता मनुष्यों के होते हैं, वे सब प्राचार भेदके कारण ही माने है। ब्राह्मण आदिकी जाति जन्मसे मानना ठीक नहीं जाते हैं।
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वर्ष.२, किरण]
वीरप्रभुके धर्म में जाति भेदको स्थान नहीं है
वास्तवमें मनुष्य मात्रकी एक ही जाति है, ब्राह्मण, समान है, फिर चार भेद कैसे हो सकते हैं ? क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, ये चार भेद अाचारमात्रसे ही क्रिया विशेषसे, व्यवहार मात्रसे अथवा दया, रक्षा, होते हैं ?
कृषि और शिल्पके भेदसे ही उक्त चार वर्ण क्रमशः 'नीच जाति वाले भी शील-धारण करनेसे स्वर्ग कहे गये हैं । इसके विपरीत चार वर्णीका कोई जुदा गये ! शील संयमका नाश करनेसे ऊँचे कुल वाले भी अस्तित्व नहीं हैं। नरक गये।'
__इस कथनके प्रतिपादक मूलवाक्य निम्न प्रकार हैं__'गुणोंसे ही जाती बनती हैं और गुणोंका नाश 'न ग्रामणामन्द्रमरीचि राधा न पत्रिपाःशिक पुप्पगोराः होजाने से ही नाश होजाती है । इस कारण बुद्धिमानीको नचेहरया हरिताज तुल्याःशुदा न चाकारसमानवाःn गुणोंका ही श्रादर करना चाहिये।'
पादप्रचारैस्तनुवर्णकेशैः सुखेन दुःखेन च शोणितेन ।
स्वम्मासमेदोऽस्थिरसैःसमानाचतुःप्रभेदारक भवन्ति। जातिका गर्व कभी नहीं करना चाहिय; क्योंकि वह ।
क्रियाविशेषाम्यवहारमात्राायाभिरक्षाकृषिशिल्पभेदात् ।.. नीचताको पैदा करने वाला है। मत्परुपोंको नो उच्चता शिष्टाश्चवर्णाश्चतुरोवदन्ति नान्यथा वर्णचतुष्टयं स्यात्।। का देनेवाला शील संयम ही धारण करना चाहिये ।'
-पगं २५यों इस सब कथनके मूल श्लोक इस प्रकार हैं
(६) श्री प्रभाचन्द्राचार्यने अपने प्रमय कमल प्राचारमात्रभेदेन जातीनां भेदकल्पनं ।।
मार्तण्ड में जाति भेदका बहुत विस्तारमें ग्वाइन किया न जातिाह्मणायास्ति नियता कापि तात्विकी ॥२४॥ है, जिमका कुछ मारांश इस प्रकार हैबाह्मणक्षत्रियादीनां चतुर्णामपि तस्वतः।
__'जैमा किसी व्यक्ति को देखने मे 'यह मनुष्य है'. एकैव मानपी जातिराचारेण विभज्यते ॥ २५ ॥
ऐमा जान लिया जाता है, वैसे 'यद ब्राभण है' एमा शीलवन्तो गताः स्वर्ग नीचजातिभवा अपि । कुलीना नरकं प्राप्ताः शीलसंयमनाशिनः ॥३१॥ नहीं जाना जाता।' गुणैः सम्पद्यते जातिगुणध्वंसविपद्यते ।
___'अनादिकालम मातृकुन और पितृकुल शुद्र है, यतस्ततोबुधैः कार्यों गुणेष्वेवादरः परः ॥३२॥ इमका पता लगाना हमारी-यापकी शक्ति के बाहर है। जातिमात्रमदः कार्यों न नीचत्वप्रवेशकः ।
प्रायः स्त्रियाँ कामातुर होकर व्यभिचार के चक्र में पद उच्चत्वदायकः सद्भिः कार्यः शीलसमादरः ॥३३॥
जाती हैं। तब जन्ममे जातिका निश्चय ही सकता (५) जटामिहनन्दी प्राचार्य ने 'वरांगचरितमें जानि- है ? व्यभिचारी माता पिताकी मन्नान श्री. निटांप भेदका जो, खंडन किया है। वह इस प्रकार है
माता पिताकी मन्नान में कुछ भी अन्तर दिमाई नहीं वाद्य लोग चन्द्रमाकी किरण के समान शुभ्र देता । जिस प्रकार घोडे श्रीर गधे के सम्बन्धन पदा नहीं हैं, क्षत्रिय किंशुक फल के समान गोर नहीं है, होनेवाली गधीकी मन्नान भिन्न भिन्न नरहकी होती वैष्य हरताल के समान पीतया वाले नहीं हैं और न है, उस प्रकार वादागग और शुद्र के सम्बन्धमे पैदा होने शद्र अंगारके समान रंगवाले हैं।'
वाली वावगीकी सन्नानग अन्तर नहीं होता है। _ 'चलनेके बैंगसे, शरीरके वर्णमे पं.शॉस, मुग्वस, 'जैसे नाना प्रकारकी गायोंमें एक प्रकारकी ममानना दुखसे, रुधिरसे, लचा-मांमभेद हड्डी और रमॉम मब होने, गाय जातिका प्रत्यक्ष वेध होता है, उस प्रकार
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४७२
अनेकान्त
[ज्येष्ट, वीर-निर्वाण सं०२४६५
देवदत्त आदि मनुष्यों में ब्राह्मण जातिका प्रत्यक्ष बोध नहीं होता अगर जातिका प्रत्यक्षबोध होसकता तो यह ब्राह्मण है या वैश्य, इस प्रकारका सन्देह ही क्यों होता और सन्दे- मिटा जो नाम तो दौलतकी जुस्तजू क्या है ? हको दूर करने के लिये गोत्र श्रादिके कहने की जरूरत ही निसार हो न वतन पर तो आबरू क्या है ? क्या होती ? परन्तु गाय और मनुष्य के जानने के लिये तो लगादे आग न दिलमें तो आरज़ क्या है ? गोत्र श्रादिके कहने की कोई भी ज़रूरत नहीं होती है।' न जोश खाए जो गैरतसे वो लहू क्या है ?
'कर्मसे ही ब्राह्मणादि व्यवहार मानना चाहिये ।' मर्द कौमों को सबक य ही सिखा देते हैं।
'प्राचरगा यादिकी समानतासे ही ब्राह्मण, क्षत्रिय दिलमें जो ठानते हैं करके दिखा देते हैं । आदिको व्यवस्था है।"
जिन्दगी यू तो फ़क़त बाजिये तिफलाना है । अधिक जानने के लिये प्रमेयकमलमार्तण्डको ही मर्द वो है, जो किसी रंगमें दीवाना है। देखना चाहिये । यहाँ विस्तार भयसे उसके मूल वाक्योको छोड़ा जाता है।
हम ऐसी कुल किताबें काबिले जप्ती समझते हैं । अन्तमें पाठकोंसे मेरी यही प्रार्थना है कि यदि वे कि जिनको पढ़के लड़के बापको खप्ती समझते हैं । मचा धर्म ग्रहण कर श्रात्म-कल्याण करना चाहते हैं, आज जो कुममें मसरूफ़ है सरगोशीमें । मिथ्यात्वको छोड़ सम्यक् श्रद्धानी बननेकी अभिलाया होश आएगा उन्हें मौतकी बेहोशीमें ॥ रखते हैं तो वे श्रीश्राचार्योंके वाक्यों, उनकी दलीलों वाअसर कुब्बत अमल की सौ में हो या दसमें हो।
और युक्तियों पर ध्यान देकर सचाईको ग्रहण करें, स- सबसे पहली शर्त ये है इत्तफ़ाक़ आपसमें हो ॥ चाईके मुकाबिलेमें प्रचलित रूढ़ियोंको छोड़नेमें ज़रा भी हंसकं दुनियाँमें मरा कोई, कोई रोके मरा । हिचकिचाहट न करें । दुनिया चाहे जो मानती हो, तुम जिन्दगी पाई मगर उसने जो कुछ हो के मरा ।। इसकी कुछ भी परवाह मत करो, किन्तु इस ही बातकी अगर चाहो निकालो ऐब तुम अच्छेसे अच्छे में । तलाश करो कि कल्याणका रास्ता बताने वाले श्रीश्रा- जो टू डोगे तो 'अकबर में भी पाओगे हुनर कोई ॥ चार्य महाराज क्या कहते हैं-श्रीवीर प्रभुके बताये हुए. धर्मका असली स्वरूप वे क्या प्रतिपादन करते हैं बस बुरा दुश्मनके कहनेसे, बुरा में किस तरह मान । जब तुमको यह मालूम हो जाय तो निर्भय होकर उस ही मुझे अच्छा कहे सारा ज़माना हो नहीं सकता। को स्वीकार करो। दुनिया भले ही तुम्हें तुम्हारी सचाई कितने मुफ़लिस होगये कितने तवंगर होगये । पर बुरा भला कहती हो और दुख देती हो तो भी तुम खाकमें जब मिलगये दोनों बराबर होगये । मत घबरानो हिम्मत बाँधकर सचाईका ही गीत गाश्रो,
-अज्ञात उस ही का डंका बजाश्री, वीरप्रभु के सच्चे वीरअनुयायी बशरने खाक पाया लाल पाया या गुहर पाया।
बनकर दिखाओ और इस तरह अपनी आत्माका सञ्ची मिज़ाज अच्छा अगर पाया तो सब कुछ उसने भर पाया , उत्कर्ष सिद्ध करो।
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श्रावण कृष्ण प्रतिपदाकी स्मरणीय तिथि
वीर-शासन-जयन्ती
और
[०५० परमानन्दजी जैन शाबी]] श्रावण कृष्णा प्रतिपदा भारतवर्षकी एक अति इतना ही नहीं, युगका प्रारम्भ और सुषम सुषमादि
'प्राचीन ऐतिहासिक तिथि है । इसी तिथिसे के विभागरूप कालचक्रका अथवा उत्सर्पिणी अवसर्पिदशी भारतवर्ष में बहुत पहले नववर्षका प्रारम्भ हुआ करता कालोका प्रारम्भ भी इसी तिथिसे हुआ करता है, ऐसा था, नये वर्ष की खुशियाँ मनाई जाती थीं और वर्षभरके पुरातन शास्त्रोंमें उल्लेख है। साथ ही यह भी उल्लेख है लिये शुभ काम नाएँ की जाती थी । तिलोयपएणती कि युगकी समाप्ति श्रापाढकी पौर्णमासीको होती है, (त्रिलोकप्रशप्ति ) और धवल जैसे प्राचीन ग्रन्थोंमें पौर्णमासीकी रात्रिके अनन्तर ही प्रातः भावण कृष्णा“वामस्स पढममासे सावणणामम्मि बहुलपडिवाए" प्रतिपदाको अभिजित नक्षत्र, बालवकरण और रुद्र मुह. नथा “वासस्स पढममासे पढमे पक्खम्मि सावणे में युगका प्रारम्भ हुश्रा करता है । ये नक्षत्र, करण बहुले, पांडिवद पुन्वदिवस" जैसे वाक्योंके द्वारा इस और मुहूर्त ही नक्षत्री, करगों तथा मुहूर्तोंके प्रथम स्थातिथिको वर्ष के प्रथम मास और प्रथम पक्षका पहला नीय होते हैं-अर्थात् इन्हींसे नक्षत्रादिकोंकी गणना दिन मूचित किया है । देशमें सावनी-अाषाढीके विभा- प्रारम्भ होती हैं । इन सबके द्योतक शास्त्रोंके कुछ प्रमाण गरूप जो फ़सली साल प्रचलित है वह भी उसी प्राचीन नीचे उद्धृत किये जाते हैं:प्रथाका सूचक जान पड़ता है, जिसकी संख्या अाजकल सावणबहुले पाडिव रुद्द मुहत्ते सुहोदये रविणो । ग़लत प्रचलित हो रही है ।
अभिजिस्स पढमजोए जुगस्स भादी इमस्स मुढं कहीं कहीं विक्रम संवत्का प्रारम्भ भी श्रावण
-तिलोषपरणी, १,७० कृष्ण से माना जाता है; जैसा कि विश्वेश्वरनाथ
सावणबहुलपडिवदे रुद्दमुहत्तं सुहोदए रविणो । रेउके 'राजा भोज' नामक इतिहास ग्रन्थके निम्न प्रव- अभिजिस्स पढमजोए तत्थ जुगादी मुरोयन्यो । तरणसे प्रकट है
-धवलसिद्धान्त, प्रथमखस्ट "राजपूतानेके उदयपुर राज्यमें विक्रम संवत्का और मारवादमें पहलेसे वर्षका भारम्भ श्रावण कृया प्रारम्भ श्रावण कृप्य । से माना जाता है। इसी प्रकार प्रतिपदासे ही होता था । विक्रम संवतको अपनाते हुए मारवारके सेठ-साहूकार भी इसका प्रारम्म उसी दिनसे वहाँके निवासियोंने अपनी बारम्मकी तिथिको नहीं मानते हैं।" (पृ०१७)
घोगा और उसके अनुरूप विक्रम संवत्को परिवर्तित इससे ऐसा पतित होता है कि उदयपुर राज्य कर दिया।
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४७४
अनेकान्त
[ज्येष्ठ वीर निर्वाण सं०२०६५
भाषाढपौर्णिमास्या तु युगनिष्पत्तिश्च श्रावणे । जाता है, जब यह मालूम होता है कि इसी श्रावणप्रारम्पः प्रतिमञ्चन्द्रयोगाभिजिदि कृष्णके ॥ कृष्णा प्रतिपदाको प्रातःकाल सूर्योदयके समय अभि
-लोकविभाग, ७, ३६ जित नवत्रमें ही श्रीवीर भगवान के शासनतीर्थकी त्रासाढपुराणामीए जुगणिप्पत्ती दु सावणे किरहे। उत्पत्ति हुई है, उनकी दिव्य वाणी सर्व प्रथम खिरी है अभिजिम्ह चंदजोगे पारिवदिवसम्हि पारंभो॥ और उसके द्वारा उनका धर्मचक्र प्रवर्तित हुश्रा है
-त्रिलोकसार, ४११ जिसका साक्षात् सम्बन्ध सब जीवोंके कल्याणके साथ सावणबहुलपडिवए बालवकरणे अभीइनक्खत्त । है। मुख्तार श्री जुगलकिशोरजीके शब्दोंमें-"कृतज्ञता सव्वत्थ पढमसमये जुगस्स आइं वियाणाहि ॥ और उपकार-स्मरण आदि की दृष्टिसे यदि देखा
-ज्योतिषकरण्डक, ५५ जाय तो यह तीर्थ प्रवर्तन-तिथि दूसरी जन्मादिएए उ सुसमसुसमादयो अद्धा विसेसा जुगादिणा तिथियोंसे कितने ही अंशोंमें अधिक महत्व रखती सह पवत्तंति जुगंतेल सह समप्पंति ।"
है क्योंकि दूसरी पंचकल्याणक-तिथियाँ जब व्यक्ति -पादलिप्ताचार्य, ज्यो०कर०टी० विशेषके निजी उत्कर्षादिसे सम्बन्ध रखती हैं तब भरतैरावते महाविदेहेषु च श्रावणमासे कृष्णपक्ष यह तिथि पीड़ित, पतित और मार्गच्युत जनताके बालवकरणेऽभिजित्नक्षत्रे प्रथमसमये युगस्यादि उत्थान एवं कल्याणके साथ सीधा सम्बन्ध रखती विजानीहि ।
है, और इसलिये अपने हितमें मावधान कृतज्ञ -मलयगिरि, ज्यो० करण्डक टीका जनताके द्वारा खास तौरसे स्मरण रखने तथा सर्वेषामपि सुषमसुषमादिरूपाणां कालविशेषा- महत्व दिये जानेके योग्य है।" धवलसिद्धान्त और सामादि युग, युगस्य चादिः प्रवर्तते श्रावणमासि तिलोयपण्णत्तीमें, भ० महावीर के धर्मतीर्थकी उत्पत्तिका बहुलपक्ष प्रतिपदि तिथी बालवकरणे अभिजिनक्षत्र उल्लेख करते हुए, जो वाक्य दिये हैं वे इस प्रकार हैंचन्द्रेण सह योगमुपागच्छति ।
वासस्स पढममासे पढमे पक्खम्मि सावणे बहुले । __ -मलयगिरि, सूर्यप्रशप्ति टीका, ६४ पाडिवद पुष्वदिवसे तित्थुप्यत्ती दु अभिजम्हि ॥ यदाषाढपौर्णमासीरजन्याः समनन्तरं ।
-धवल, प्रथमखण्ड प्रवर्तते युगस्यादि भरतैरावताख्ययोः॥ वासस्स पढममासे सावणणामम्मि बहुलपडिवाए ।
-लोकप्रकाश, ६३, १० ३८६ अभि जीराक्खत्तम्मि य उपपत्ती धम्मतित्थरस ॥ सावणाइया मासा, बहुलाइया पक्खा...रुदाइया
-तिलोयपएणत्ती, १.६९ मुहुत्ता, बचाइया करणा, अभियाइया नक्खत्ता। इनमें बतलाया है कि श्रावण कृष्णा प्रतिपदाको,
-जम्बूदीवपएणत्ती जो कि वर्षका पहला महीना, पहला पक्ष, और प्रथम इन सब अवतरणांसे उक्त तिथिका ऐतिहासिक तथा दिन था, प्रातःकाल अभिजित नक्षत्र में श्री वीरप्रभुके प्राकृतिक महत्व स्पष्ट है और वह महत्त्व और भी बढ़ धर्मतीर्थकी उत्पत्ति हुई है-अर्थात् यह उनके शासन. नाता है अथवा यो कहिये कि असाधारण कोटिमें पहुँच की जन्मतिथि है।
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वर्ष २, किरण ८].
प्रवृत्ति-पथ
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ऐसी महत्वपूर्ण एवं मांगलिक तिथिको, खेद है बीर-शासनका प्रसार होकर लोकमें सुख-शान्तिकि हम असेंसे भूले हुए थे ! सर्वप्रथम मुख्तार सा० ने मूलक कल्याणकी अभिवृद्धि होवे।" धवल ग्रन्थपरसे वीर-शासनकी इस जन्मतिथिका पता इसके बाद ही, २६ अमेल सन् १९३६ को उद्चलाया और उनके दिल में यह उत्कट भावना उत्पन्न घाटित होने वाले अपने 'वीरसेवामन्दिरमें उन्होंने ५ जुहई कि इस दिन हमें अपने महोपकारी वीरप्रभ और लाई सन् १९३६ को वीरशासन-जयन्तीके उत्सवका उनके शासनके प्रति अपने कर्तव्यका कुछ पालन ज़रूर प्रायोजन किया और उस वक्तसे यह उत्मब बराबर करना चाहिये । तदनुसार उन्होंने १५ मार्च सन् १९३६ हरसाल मनाया जा रहा है। बड़ी प्रसन्नताकी बात है को 'महावीरकी तीर्थ प्रवर्तन-तिथि' नामसे एक लेख कि जनताने इसे अपनाया है, दि. जैनसंघ अम्पालाने लिखा और उसे तत्कालीन 'वीर' के विशेषाङ्क में प्रका. भी इसके अनुकूल अावाज उठाई है और पिछले दो शित कराया, जिसके द्वारा जनताको इस पावन तिथिका वर्षों में यह शासन-जयन्ती बहुतसे स्थानों पर बड़े उत्साहपरिचय देते हुए और इसकी महत्ता बतलाते हुए. इसकी के साथ मनाई गई है-गतवर्ष वीरसेवामन्दिरमें इस स्मतिमें उस दिन शुभ कृत्य करने तथा उत्सवादिके शासन जयन्तीके मनानेमें जो उत्साह व्यक्त किया गया. रूपमें यह पुण्यदिवस मनानेकी प्रेरणा की गई थी, और उसके फलस्वरूप ही 'अनेकान्त' का पुनः प्रकाशन अन्तमं लिखा था-"इस दिन महावीर शामनके पाठकों के सामने है। प्रेमियोंका खास तौर पर उक्त शासनकी महत्ताका इस वर्ष यह चिरस्मरगीय तिथि ता. २ जुलाई सन विचार कर उसके अनुसार अपने आचार-विचार १६३६ रविवार के दिन अवतरित हुई है । अतः सर्व को स्थिर करना चाहिये और लोकमें महावीर- साधारणसे निवेदन है कि वे इस पानेवाली पुण्यतिथि शासनके प्रचारका-महावीर मन्देशको फैलाने का भीसे ध्यान रखें और उस दिन पूर्णनिष्ठा एवं का-भरसक उद्योग करना चाहिये अथवा जो उत्साह के साथ वीरशासन-जयन्ती मनानका प्रायोजन लोग शासन-प्रचारके कार्यमें लगे हो उन्हें सषा करें और उसे हर तरहसे सफल बनानेकी पूर्ण चेष्टा महयोग एवं साहाय्य प्रदान करना चाहिये,जिममं करना अपना कर्तव्य मम ।
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प्रवृत्ति-पथ तुम्हारी नगरी जल रही है, तुम खड़े देख रहे हो। वृष्टिकी आशा कर हो, वह मंघ नहीं है, यह तुम्हारी किस अाशामें खड़े हो?
जलती नगरीसे उठता हुश्रा काला धुना है। उसमें वर्ण वर्षा इस श्रागको नहीं बुझा सकती। बिजलीकी चमक नहीं, बल्कि दीनोंकी अाह प्रदीम हो और वर्षा है भी कहाँ ? इन उपलन्त तापके श्रागे मेघ रही है, शीतल जलकण नहीं, बल्कि उत्तम प्रकरणाकहाँ टिक सकेंगे? क्षण भर ही में वे वाण्य होकर उड़ का प्रवाह थमा हश्रा है। जाएँगे, श्राग उभी प्रकार धधकती ही रह जायगी ! इम व्यर्थ आशाको छोड़ो, उठो, प्रवृत्तिपथ पर
वह ? वह दुःस्वप्न है, दुराशा है ! जिसे तुम कृष्ण श्रायो! वर्ण मेव समझ कर प्रसन्न हो रहे हो, जिससे तुम घोर
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वीर-शासन-जयन्ती
अर्थात् श्रावण कृष्ण-प्रतिपदाकी पुण्य-तिथि यह तिथि-इतिहासमें अपना स्वास महत्व तथा 'धवल'आदि सिद्धान्त प्रथोंपरसे-चला है। रखती है और एक ऐसे 'सर्वोदय' तीर्थकी जन्म- सावनी आषाढ़ीके विभागरूप फसली साल भी तिथि है, जिसका लक्ष्य 'सर्वप्राणिहित' है। उसी प्राचीन प्रथाका सूचक जान पड़ती है, जिस
इस दिन-श्री सन्मति-वद्धमान-महावीर आदि की संख्या आज-कल ग़लत प्रचलित होरही है। नामोंसे नामाङ्कित वीर भगवानका तीर्थ प्रवर्तित इस तरह यह तिथि-जिस दिन वीर-शासनकी हुआ, उनका शासन शुरू हुआ, उनकी दिव्यध्वनि जयन्ती (ध्वजा) लोकशिखर पर फहराई, संसारवाणी पहले-पहल खिरी, जिसके द्वारा सब जीवों के हित तथा उत्थानके साथ अपना सीधा एवं को उनके हितका सन्देश सुनाया गया। खास सम्बन्ध रखती है और इसलिये सभीके
इसी दिन-पीड़ित, पतित और मार्गच्युत द्वारा उत्सवके साथ मनाये जानेके योग्य है । जनताको यह आश्वासन मिला कि उसका उद्धार इसीलिये इसकी यादगारमें कई वर्षसे वीर-सेवाहो सकता है।
मंदिरमें 'वीरशासनजयन्ती' के मनानेका आयोयह पुण्य-दिवस-उन क्रूर बलिदानोंके साति- जन किया जाता है। शय रोकका दिवस है, जिनके द्वारा जीवित प्राणी इस वर्ष-यह पावन तिथि ता०२ जुलाई सन निर्दयतापूर्वक कुरीके घाट उतारे जाते थे अथवा १९३९ रविवारके दिन अवतरित हुई है। इस दिन होमके बहाने जलती हुई श्रागमें फेंक दिये जाते थे। पिछले वर्षोंसे भी अधिक उत्साहके साथ वीर
इसी दिन-लोगोंको उनके अत्याचारोंकी सेवा-मन्दिरमें वीरशासन-जयन्ती मनाई जायगी, यथार्थ परिभाषा समझाई गई और हिंसा-अहिंसा जिसमें “वीरशासन" पर विद्वानोंके प्रभावशाली तथा धर्म-अधर्मका तत्व पूर्णरूपसे बतलाया गया। व्याख्यान होंगे और आये हुए महत्वके लेख पढ़े
इसी दिनसे-स्त्री-जाति तथा शूद्रोंपर होने जायेंगे अबकी बार भी उत्सव दो दिनका-२-३ बाले तत्कालीन अत्याचारोंमें भारी रुकावट पैदा जुलाईका-रहेगा। हुई और वे सभी जन यथेष्ट रूपसे विद्या पढ़ने अतः-सर्व साधारणसे निवेदन है कि वे इस तथा धर्म-साधन करने आदिके अधिकारी ठहराये शुभ अवसर पर वीर-सेवा-मन्दिरमें पधार कर गये।
अपने उस महान उपकारीके उपकार-स्मरण एवं इसी तिथिसे-भारतवर्ष में पहले वर्षका प्रारम्भ शासन-विवेचनमें भाग लेते हुए वह दिन सफल हुआ करता था, जिसका पता हालमें उपलब्ध हुए करें और वीरप्रभुकी शिक्षा तथा सन्देशको कुछ अति प्राचीन ग्रन्थ-लेखोंसे-'तिलोयपएणत्ति जीवन में उतारनेका दृढ़ संकल्प करें। जो भाई
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वष २,कण
वीर-शासन जयन्ती
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किसी कारणवश वीर-सेवा-मंदिरमें न मासकें उन्हें मिलकर अपने स्थानोंपर उक्त शासन-जयन्ती. के मनानेका पूर्ण आयोजन करना चाहिये ।। ___साथ ही, विद्वानोंसे अनुरोध है कि वे इस शुभ अवसर पर वीरशासन-सम्बन्धी अपने अध्ययन और मननके फलस्वरूप वीरशासन पर कुछ ठोस एवं महत्वके विचार प्रकट करनेकी कृपा करें, जिनसे सर्व साधारणको वीरशासनके समझने में श्रासानी होवे और सहदय मानव उसके महत्व एवं उपयोगिताका अनुभव करते हुए स्वयं उस पर चलें तथा दूसरोंको चलनेमें प्रवृत्त कर लोकमें सुख-शान्तिकी सृष्टि और अभिवृद्धि करनेमें समथ होसकें । मैं चाहता हूँ निम्नलिखित शीर्षकों तथा इनसे मिलते जुलते दूसरे उपयोगी शीर्षकों पर ऐसे महत्वपूर्ण लेख लिखे जावें जो यथाशक्य संक्षिप्त होते हुए विषयको खूब स्पर्श करने वाले होवें और वे वीर-शासनजयन्तीसे पहले ही चीरसेवामंदिरको नीचे लिखे पते पर भेज दिये जावें । बीर-सेवामंदिर शासन-जयन्तीके दिन उनका उपयोग करनेके अतिरिक्त उन्हें पुस्तकादिके रूपमें शीघ्र प्रकाशित और प्रचारित करनेका प्रयत्न करेगा। मेरा विचार वीरशासनाकनामसे अनेकान्तका एक विशेषाङ्क भी निकालनेका हो रहा है, उसमें उनका अच्छा उपयोग हो सकेगा। ऐसे विशेषाहोंकी सफलता विद्वानोंके सहयोग पर ही अवलम्बित है । आशा है मेरे इस निवेदन पर अवश्य ही ध्यान दिया जावेगा । सूचनार्थ लेखोंके कुछ शीर्षक निम्न प्रकार हैं
१-वीर-शासनकी विशेषता २-वीर-शासनका महत्व
३-वीर-शासनके नापार-स्तम्भ ४-वीर-शासनकी वर्तमान उपयोगिता और श्राव.
श्यकता ५-वीर-शासनकी रूप-रेखा ६-वीर-शासनकी तुलना अथवा वीर-शासनका
तुलनात्मक अध्ययन ७-वीर-शासनकी खबियाँ ८-वीर-शासनका प्रभाव ह-वीर-शासन के उपासक १०--समन्तभद्रोदित वीर शासन ११-वीर-शासनको जन्म देने वाली परिस्थिति १२-वीर-समयकी माँग १३-वीर-तपश्चरणका फल १४-चीरका तीर्थप्रवर्तन १५-वीरशासनकी बातें, जैसे--
(क) अहिंसा और दया (ख) अनेकान्त और स्याद्वाद (ग) कर्म सिद्धान्त (५) स्वावलम्बन और स्वतंत्रता (ङ) आत्मा और परमात्मा (च) मुक्ति और उमका उपाय (छ) सपना और विकाश १६-वीरकी लोकसंवा ५७-वीरका संवामय जीवन ५८-धीरका तत्वज्ञान १६-चीरका विकामवाद २०-चीरफा साम्यवाद २१-वीरका अहिमाबाद २२-बीरका अनेकान्तवाद २३-बीरशासनकी उदारता २४-बीरका वीरत्व २५-धीरका मन्देश सरमाथा
निवेदकजिला सहारनपुर : जुगलकिशोर मुख्तार २२-५-१९३९ ) अधिष्ठाता-'वीर-सेवा-मंदिर'
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जीवन के अनुभव
सदाचारी पशुओंके उदाहरण ...
ले०--अयोध्याप्रसाद गोयलीय (३) * पतिव्रता चिड़िया–१२ मार्च १९३९ घूमने लगा । उसके भाग्यसे चिड़ियाके दो छोटेकी प्रातःकालका सुहावना समय था, हम सब छोटे पर वहाँ गिर पड़े थे, अन्तमें लाचार होकर सी. क्लासके राजनैतिक कैदी मौण्टगुमरी जेलमें स्मृतिस्वरूप उन परोंको ही उठाकर वह उस बैठे हुए पान बट रहे थे। अनुमानतः ८ बजे होंगे घोंसलेमें लेगया जहाँ कभी वे प्रेमसे दाम्पत्य जीवन कि एक चिड़ियासे एक चिड़ा अकस्मात् लड़ता व्यतीत करते थे। जिस तरह वह चिड़ा तडपता हुआ देखा गया । चिड़ा उससे बलात्कार करना हुआ हमारे पाँवोंमें घूम रहा था, ठीक इसके विप. चाहता था किन्तु चिड़िया जानपर खेलकर अपने रीत दूसरा कामातुर घातक चिड़ा दीवार पर बैठा को बचा रही थी। सफल मनोरथ न होनेके हा भयभीत हासा हमारी ओर देख रहा था । कारण क्रोधावेषमें चिड़ाने चिड़ियाकी गर्दन मँझोर मरी हुई चिडियाके पास आनेकी उसकी हिम्मत डाली, जिससे उसके प्राणपखेरू उड़ गये ! मरने नहीं होती थी। बात है भी ठीक, एक प्रेमी, जिसपर चिड़िया ऊँची दीवारसे जमीन पर आ पड़ी। का हृदय प्रेमसे तर बतर है, अपने शत्रुओंके पास हम सब कौतूहलवश अपना काम छोड़कर उसके भी निःशंक चला जाता है और जिसके हृदयमें चारों ओर खड़े हो गये। एक-दो मिनिटमें ही एक पाप है वह सब जगह भयभीत रहता है। पातिव्रत,
और चिड़ा वहाँ आया और हमारे पाँवोंमें पड़ी ब्रह्मचर्य और प्रेमका यह आदर्श आज ९ वर्ष बाद हुई चिड़ियाको बड़ी आतुरता और वेकरारीके भी बाइस्कोपके समान नेत्रोंके आगे घूम रहा है। साथ सुंघने लगा। वह हटाएसे भी नहीं हटता था।
(४) ब्रह्मचारणी गाय-हम लोग उक्त घटनासे उसकी वह तड़प कठोर हृदयोंको भी तड़पा देने काफी प्रभावित हुए।रात्रिको सब कार्योंसे निश्चिन्त वाली थी। मालूम होता था कि यह चिड़ा ही उस होकर बैठे तो यही चर्चा चल निकली । बातोंके चिड़ियाका वास्तविक पति था । वह इतना शोकापुल था कि उसे हमारा तनिक भी भय नहीं था । निवासीने-जो कि दफा १३१ में ३ वर्षकी सजा
- सिल्सिलेमें पं०रामस्वरूपजी राजपुरा (जीन्द स्टेट) हम इस कौतूहल या आदर्श प्रेमको देख ही रहे थे ।
| लेकर आए थे-अपने आँखों देखे प्रत्यक्ष अनुकि जेलसुपरिण्टेण्डेण्ट और जेलर साहब भी
मा भव सुनाए, जो कि मैंने कौतूहलवश उसी समय वहां तशरीफ ले आए, उन्होंने सुना तो उनके नेत्र नोट कर लिये थे। उन्होंने बतलाया कि हमारे भी सजल हो आए । मरी हुई चिड़ियाकी देखदेख गाँवसे १२ कोस दूरी पर गुराना गाँव है । वहाँ कर चिडा कहीं दम न दे बैठे, इस खयालसे चि. एक मनष्यकी गायने एक साथ दो बछड़े प्रसव डियाको उठाकर उसकी नजरोंसे ओझल कर दिया किये । उसके बाद वह गर्भवती नहीं हुई । उसे गया। तब वह चिड़ा और भी बेचैनीसे इधर-उधर कामोन्मत करनेके लिये कितनी ही दवाइयाँ खिलाई
• मेरे लिखे हुए जीवनके दो अनुभव अनेकान्तकी गई किन्तु उसे कामेच्छा नहीं हुई । जब उसे जरूचतुर्थ किरणमें प्रकाशित हो चुके हैं । -लेखक रतसे क्यादे तंग किया गया तो, वह अपने मालिक
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वर्ष २, किरण
जीवन के अनुभव
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की कारी लड़कीको स्वाजमें दिखाई दी और उससे कर मोड़ लोग उस युवकको जीन्द स्टेट के शफा कहा कि मुझे कामोत्ादक चीजें न खिलाएँ और खाने में ले गये । तब डाक्टरने बतलाया कि यदि न विजारके पास लेजाएँ, मैं अब ब्रह्मचारिणी ही उस जहरीले गोश्तको कुत्ता न बकोटता तो इलाज रहना चाहती हैं। और यदि मझेभव अधिक तंग होना नामुमकिन था, यहां भाते माते गीदडका किया गया तो मैं कुरमें गिर कर प्राण दे दूंगी। शहर पूरा काम कर गया होता । उधर वह कुत्ता लड़कीने स्वप्नका जिक्र किया तो सब हमने लगे अचेत पड़ हुमा था कि मेरा बड़ा भाई शंकरदत्त और अपना प्रयत्न चालू रक्खा । अन्तमें गायने उधरसे जा रहा था उसने कुत्ते के वृतात सुने कुएमें गिर कर प्राण छोड दिए । तब लोगोंने तो उसे गाड़ीमें रख कर अपने यहाँ ले पाया गायके ब्रह्मचर्यव्रतको समझा।
और दवादारू करके उसे अच्छा कर लिया। उन्हीं (५) भ्रातृ-प्रेम-इसी गायके दो जुगलिया दिनों हमारे गाँव राजपुरामें एक भैसा मरखना बछड़े जो अभी तक जीवित हैं। एक हजार रुपयेमें हो गया था, वह चाहे जिस खेतमें घस जाता भी उसके मालिकने नहीं बेचे । उन दोनों बैलोंमें और खेतका नाश कर देता। यदि उसे कोई ललअटूट प्रेम है। एक साथ खाते,पीते, उठते, बैठते हैं : कारता तो आवाज की सीधमें जा कर पहले बलऔर आश्चय तो यह है कि गोबर और पेशा भी कारने वालेको मारता रि खेतमें जाकर चरता। एक साथ करते हैं। यदि दोनोंको अलग अलग उसके इस उपद्रवसे गॉवभरमें आतंकमा छा कर दिया जाए तो न खाना ही खाएंगे और न किसी गया । धार्मिक रूढ़ियोंके कारण गाँव वाले उसे अाय बैलके साथ गाड़ी या हलमें चलेंगे। यदि बन्दूक वगैरहसे जानसे मारना चाहते नहीं थे एकके नीचे जमीन गीली है तो सुखी जमीन वाला और लाठियोंकी मारसे वह बसमें नहीं पाता बैल भी खड़ा ही रहेगा । यदि अलग अलग पानी था। बड़ी परेशानीमें गांव वाले पड़े हुए थे । एक या खाना दिया जाए तो वह सूफेंगे भी नहीं। एक रोज वह हमारे खेतमें घुसा तो भाई साहबने ही वर्तनमें होगा तो दोनो साथ मिल कर खाए जवानीके जोशमें उसे ललकारा तो वह लाल लाल पीएँगे। इन बैलोंका भ्रातृ-प्रेम देख कर लोग आँखें किए हुए सीधा उनकी भोर दौड़ा। सौभाहैरान होते हैं।
ग्यसे वह कुत्ता भी वहीं पर था। कुत्तने मैंसेको ... (६) कृतज्ञता-हमारे गाव राजपुरासे एक इतने वेगसे आक्रमण करते देख उसकी पीठ पर कोसके फासले पर रोड़ (खानाबदोश) ठहरे छलांग मारी । और अपने तेज दाँतसे उसकी हुए थे। उस गिरोहमें एक यु.कके पास कुत्ता था। गईनके गोश्तको निकालने लगा। कुत्ते के इस युवक सो रहा था कि अचानक बावले गीदड़ने दावके आगे भैंसा आक्रमण करना तो भल गया आकर उसे काट लिया। कुत्ते ने देखा तो यक- उल्टा उसे जानके लाले पर गये । इस नागहानी की काटी हुई जगहसे वह थोड़ा सा मांस काटकर बलासे पिण्ड कुहानकी गरजसे वह इधर उधर ले गया ताकि पागलपनका असर युवकके रक्तमें भागने लगा और अन्समें लाचार हो कर यह न दौड़ जाए । कुत्तेकी इस दूरदर्शिताको वह पानीके तालाबमें कूद पड़ा। तब कहीं चेने मूर्ख युवक न समझा । उसने सोचा गीदड़से उसे छोड़ा । इस घटनाके बाद वह मैंसा इतना बचाना तो दूर, उलटा मेरे ही गोश्तको काटकर सीधा हो गया कि बकचोंसे भी कुछ न कहता था। ले गया। ऐसे कृतेको मार देना ही अच्छा है । यह खेद है मेरा भाई, बदकता कुत्ता और मैसा अब सोचते हुए क्रोधावेशसे कुत्ते के इतने जोरसे लाठी इस संसार में नहीं हैं। मारी कि वह अचेत हो कर गिर पड़ा। कुत्तेको छोड़
क्रमशः
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मेरे जैन-धर्म-प्रेमकी कथा
[.-श्री. पी. एस. सराफ बी० ए०, एलएल.बी., मंत्री सी० पी० हिन्दी-साहित्य सम्मेलन]
से स्वर्गीय श्री नन्हूरामजी कण्डयाके श्राभारसे अव- कारण, जो कि मेरे सरल हृदय पिताजीकी और उनकी
नत हूँ क्योंकि मुझमें जैनधर्मके प्रति श्रद्धा पैदा थी, पिताजीके अधिक्षेप और आक्रोशमें वह तेजी नहीं करनेवाले वे ही प्रथम व्यक्ति थे। मेरे पूज्यपिताजी परम थी। मैं बराबर कभी कमी जाता रहा और कभी कभी वैष्णव थे और अबसे २५-३० वर्ष पूर्वका संसार जैनमित्र तथा जैन-हितैषी मी पढ़ता रहा। इतनी विशाल-हृदयतासे प्राप्लावित नहीं था। उस यह प्रवृत्ति धीमी धीमी बढ़ती गई । कभी-कभी समय धर्म एक ऐसे हीरकी गांठ था जिसे सबके सामने पज्यपाद पं. गणेशप्रसादजी वर्णी तथा वर्णीजीकी खोलने या अन्य व्यापारियोंके यहाँ जाकर वहाँ उसे पोषक माता श्रीमती चिरोंजा बाईके पवित्र चरित्र खोलकर उसकी भाभा देखने-दिखानेमें उसके छिन तथा त्यागकी कथा भी सुनने में आजाती थी, उनको जानेका मय था। मेरे पिताजी भी इसी धारणाके कायल देखने तथा उनसे बातें सुनने या करनेका कौतूहल 4। मैं कभी कभी सिंघई जीके बड़े मंदिर में माई नन्ह- भी मुझे हो पाता था । धीरे धीरे यहाँकी लालजीके साथ स्वभाव-सारन्यसे ही चला जाया करता शिक्षा समाप्त कर मैं कालेजमें पहुँच गया । कुछ था, कोई कारण विशेष नहीं था-सिर्फ एक मोह तथा समयके उपरान्त वहाँ भी श्रद्धय विद्वान् मित्र हीरालात सुविधा थी, क्योंकि नन्हलालजीके यहाँ भी मेरी जैसी जैन, हाल प्रोफेसर अमरावती कालेजसे मैत्री हुई, सर्राफोकी दुकान थी और वह मेरी दुकानसे लगी हुई एक दो और भी जैन भाई थे जिनके नामका स्मरण
नहीं होता । मुझे घरसे ही दिवा-भोजन (अन्थऊ) की एक बार जब पिताजीको शात हुआ कि मैं जैन- आदत होगई थी; लॉ कालेजमें मेरे कारण जैन भाइयोंमन्दिरमें नन्हलालजीके साथ जाता हूँ तो वे बड़े नाराज़ को भी दिवा-भोजनं अच्छी तरह प्राप्त हो जाता था । हुए और कहने लगे कि 'जैनियोंके मन्दिरमें कौन जाता हीरालालजीके साहचर्यसे जबलपुर कालेजमें जैनधर्म की पदे तो नास्तिक होते हैं। इसके बादमें उन्होंने नन्ह- ओर परीक्षानुभति तथा प्रेम बढ़ा, किन्तु इसके बाद लालजीससी एक दो बार यही कह दिया और साथमें जब मैं अलाहाबाद लॉ और एम. ए. कक्षामें प्रविष्ट यह भी कह दिया कि 'मेरे लड़केका धर्म बदलनाहै हुश्रा तब भाई हीरालालजी जैनबोर्डिङ्गमें रहते थे और क्या है तो वे कमाने लगे-'नहीं ककाजी, ये तो लड़के दूसरे भाई जमनाप्रसादजी जैन (अब वैरिस्टर तथा हैं इनके मन्दिरमें जानेसे क्या हानि १ धर्मस्थान जैसा सबजज) भी वही रहते थे । जैनबोर्डिजके वातावरणमें
आपका वैसा हमारा, इनपर कोई खराब असर नहीं हो- विशेष शान्ति, मोहकता तथा सारस्य बक्षित होता सकता। फिर भी मुके वे लेजाया करते और पिताजी था। वहाँ मैं अक्सर रहता था और उस अहिंसा तथा भी कमी कभी फिर वही बात मुझसे दुहरा दिया करते स्यावादी विचारधाराके बीच प्रायः करके अपनेको भी .; पर नन्हूलालके प्राग्रह तथा सम्मान्य भावनाके वैसा ही उदार विचारी पाता था।
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वर्ष २, किरण ८]
मेरे जैन-धर्म-प्रेमकी कथा
हर
उठाया
यहाँके व्याख्यानोंका लाभ मैं : या करता बादको सागरमें वकालत भी शुरू करदी। जबलपुरके था । ब्रह्मचारी शीतलप्रशादजीके दर्शनका पुण्य लाम 'परवार बन्धु' ने और खासकर भाई जमनाप्रसादजी भी मुझे यहीं हुअा था। यहाँके दुर्बल शरीर किन्तु बैरिस्टरने बाध्य किया जिससे कुछ उस पत्र में भी लिया. अपार शक्ति तथा कार्यशीलताके श्रागार भा० लक्ष्मी- देता था। परवार बन्धु प्राता रहता था । जैनधर्मका चन्दजी जैन प्रोफेसर (अब डा० आदि ) से भी परि- पढ़ना स्वाभाविक-सा होता जाता था और उसे पढ़ने में चय हुआ | श्रापकी कार्यशीलतासे मैं सदा प्रभावित कभी धर्माधता जागृत नहीं होती थी। कुछ जैनधर्मले. हुश्रा करता था। जमनाप्रसादजीकी हँसमुख खटपट- पढ़नेकी और भी अधिक रुचि होने लगी। प्रियतासे भी बहुत अलग न रह पाता था और प्रो० इस ही दानमें, न मालम कैसे यहाँकी भवात हीरालालजीकी अध्ययनशीलता तथा विचार गांभीर्यसे जैनसमाजने स्वमाम अन्य पूज्य पंडित दरबारीलाल भी जैसे तैसे लाभ उठा ही लिया करता था | श्राप से मेरा साहिस्विक संबन्ध जोड़ दिया। उस समय दरवहाँ रिसर्च-स्कॉलर भी रहे हैं। मेरी तबियत खराब बारीलालजीनामसे सत्यसमाजी नहीं थे, उनके पत्रों होनेसे मुझे एक वर्ष पहले ही लॉ पास कर विश्राम एकजीव स्कृति, विचारोंमें एक अजीब नवीन लेना पड़ा, एम० ए० को तिलांजलि देनी पड़ी। जब प्रौदता तथा प्रवाह था, पत्र अनायास ही माना गुरु डाक्टरोंने फिर राय दी तब फाईनलके लिये. फिर हुचा और अब तक पाता है। आपके विचारोंने मुके. उसी वातावरणमें गया और पास करके फिर उस रम्य बहुत प्रभाषित किया । जब जब दरबारीलालजीला वातावरणके श्रास्वादनके लिये तथा वकालत शुरू सागर आगमन हुना, तब तब उन्होंने मुझे अवश्य करा करनेके पूर्व कुछ अनुभवकी अनुभूति प्राप्त करनेके पात्र बनाया और जैनधर्मके विराट सिद्धान्तोंके अवगत लिये अलाहाबाद पहुँच गया । उपर्युक्त महानुभावोंके हनका मूर्तिमान अवसर दिया-यद्यपि कंझटोंसे
और वैरिस्टर चम्पतरायजीके दर्शन मुझे पहले ५०-६. संस्थानों के विवर्नसे निकलकर मैं बहुत अधिक पहल यहाँ ही हुए । एकबार वहाँ कुछ जैनधर्म पढ़कर लाभ आपकी प्रतिमासे न ले सका पर मौका हाथ वैरिस्टर चम्पतरायजीको एक चिडीमें न जाने जैनदर्शन- जाने भी न देता था। मुझ जैसे जैनधर्मके A.B.C. के सम्बन्धमें कौन कौनसे प्रश्न जो जटिलसे मालूम हुए के विद्यार्थीको पचासों बार समाप्रधानकी जिम्मेवारी लिख दिये, जिनके साथमें विद्यार्थी जीवनकी कुछ प्राग्रह तथा प्रेमके खिचावके द्वारा थमादी गई।बई अल्हडता भी शामिल थी। वैरिस्टर सा० प्रसन्न हुए बार तो दो घंटे या एक घंटेके वारंट के बाद ही मुके
और उन्होंने कुछ जैनधर्म-सम्बन्धी पुस्तकोंका गहा समामें उपस्थित होकर कुछ कहनेको बाध्य होना था भेज दिया, उन्हें पढ़ना प्रारम्भ कर देना पड़ा और अब या समा संचालन ही करना पड़ा। तककी जैनधर्मके सम्बन्धकी भ्रामक तथा अधरी भाव- यहाँ उत्साही बालचन्दजी कोचल, बीरेन्द्रकुमार नाोंने कुछ रूप लेना शुरू करदिया इसके बाद जहाँ जी. गंगाधरप्रसादजी खजात्री, मैयालालजी सिलीवाले जैसा अवसर मिलता और पुस्तकें प्राप्त हो जाती पद और मेरे विद्यार्थी जीवनके मित्र शिवप्रशादजी भलेका, लेता और शान पिपासु बना रहता । स्याबाद के सिद्धान्त- मथुराप्रसादजी समैया प्रादिके शन्द अनुशासनरूप से ने मेरा अध्ययन पहिलेसे ही सार्वभौम-सा बना दिया था अपनी प्रयोज्यताकी अनुममि पर सिर हिलाते बिलाके और मैं थोडी थोडी हर धर्ममें अपनी टाँग प्रदाने लगा भी. शिरोधार्य करने ही पड़ते थे। स्थानीय सतहमा था। जैन होस्टल मेगज़ीनमें भी कभी कुछ लिख दिया तरंगिणी जैन पाठशालाके मन्त्री श्री पूर्णचन्द्रजीय. करता था, पता नहीं क्या क्या वहाँसे निकला। बाहरसे आई पुस्तकें भी कमी कमी प्राप्त हो जाती थी।
कुछ अनुभव अलाहाबाद तथा नागपुरमें प्राप्त कर इसी सरासे धीरे धीरे यह प्रवृत्ति बढ़ती थी। सही
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[ज्येष्ट, वीर-निर्वाण सं.२०६५
बीच श्री अजितप्रसादजी जैनकी कृपा हुई और उन्होंने पं० नाथूरामजी, बम्बईकी शान्त तथा अमृतवर्षिणी मी अपना अंग्रेजी जैन गज़ट भेजा,जिसे पढ़ना मैं कभी मूक सेवाके मूर्तिमान दर्शन करनेका भी २-४ बार भलता नहीं । इसका कलेवर छोटा होते हुए भी बहुत अवसर मिला। उन तथा उपादेय सामग्रीसे पूर्ण रहा करता है।
जैनधर्मके महान सिद्धान्तोंको प्रत्यक्ष तथा परोक्ष ब्रह्मचारीजीका एकबारका चातुर्मास यहीं हुआ था। दोनों विधियोंसे अनुभूत कराया जा सकता है,पर लगनवे यहाँके प्रतिष्ठित कांग्रेसी भाई मथराप्रसादजी समैयाके की आवश्यकता है। मैने अनुभव किया है कि सहयोग, यहाँ ठहरे थे। कुछ व्याख्यानों में मैं सभापतित्व कर ही सामाजिक आदान प्रदान तथा साहित्यकी साहजिक चुका था । एक दिन ब्रह्मचारीजीकी श्राशा हुई कि मैं उपलब्धि बहुत हद तक इस धर्म परिचयकी अड़चनको ही फिर उस बैटकका सभापति होऊँ । दूसरे या तीसरे दूर कर देते हैं । साहित्य यदि प्राप्त कराया जावे दिनसे एक कल्लका मुकदमा शुरू होनेवाला था । मैं तो मुझे तो विश्वास है कि उसका उपयोग होना संकटमें पड़ा । संदेश-वाहकसे मैंने कहलवा दिया कि नितान्त आवश्यक सा ही होजाता है। हाँ, पात्रको पहिमेरा एक कलवाला मुकदमा शुरू होने वाला है, उसमें चाननेकी आवश्यकता है तथा पात्रता प्राप्त करानेके पैरवी करनेको थोड़ी तय्यारी बाकी रहगई है, इसलिये साधन जटानेको भी आवश्यता है और वे सहजमें उस दिन के लिये क्षमा करें । ब्रह्मचारीजीकी पुनः प्राशा ही जटते रहते हैं, रोज के जीवन में मिलने रहते हैंश्राई कि नहीं अाज तो श्राना ही पड़ेगा, वरना ब्रह्मचारी उनका उपयोग करके पात्रता प्राप्त कराई जा सकती है। जी खुद अपना दंड कमंडल लेकर आते हैं और यहींसे मुझे विविध धर्मों के अध्ययन में स्याद्वाद तथा उस धर्मके मुझे लेते हुए सभाभवन जावेंगे । मैं घबराया और शीघ्र विचारकोंके साहचर्य तथा साहित्यिक कृपासे बहुत ही साइकिलसे खबर भेजदी कि मैं स्वतः पाता हूँ मदद मिली है। किन्तु मुझे जल्दी ही छोड़दें । मैं बढ़ा और कार्य करना यदि प्रारंभिक धार्मिक विचारोंकी दुरूहताको जैनही पड़ा । ब्रहांचारीजी जब सागरमें होनेवाली परवार समाज अपरिमित सत्माहित्य द्वारा साध सके तो आगे ममामें पधारे थे तब मैंने भी उन्हें तँग किया था और का मार्ग तो स्वतः बन जाता है। और जब महान् मेरे इस आग्रह पर कि जैनधर्म मानवसमाजका हित सिद्धान्तोंके नीचे बैठ, एक बार कोई व्यक्ति अभिषिक्त सम्पादन करनेवाले कई अच्छे सिद्धानोंका जन्म-हेतु है। होजाता है तो वह स्वतः उनका एक जीवित प्रचार बन इसलिये उसके संबन्धमं श्राम व्याख्यान द्वारा जानकारी जाता है। कराई जावे, उन्होंने दयापूर्वक एक आम सभा कर जैनधर्मकी ओर मेरी प्रेम-प्रवृत्ति का यह बहुत ही सागरकी जनताको जैन सिद्धान्त समझाये थे । मुके संक्षिप्त तथा थोड़े कालका इतिहास है। बादके कालका मी 'कुछ टुट्टा फटा उस अवसर पर-कहना पड़ा था। कुछ समय पीछे फिर कभी लिखंगा। मैं समझता हूँ ब्रह्मचारीजी की कर्मठता उनका अथक प्रयास, कार्य धार्मिक संस्थान तथा धर्मके प्रचार-प्रेमियोको इस धीमी करने के लिये अनवरत शक्तिका संचार एक चमत्कृत किन्तु शाश्वत फलदायी प्रणालीकी अनुमतिमं हतोत्साह करनेवाली वस्तु हे । वैरिस्टर सा. चम्पतरायजीकी होनेका अवसर न रहेगा और बड़े बड़े गहन सिद्धान्तोंको विचारशैली तथा गहन विषयोंकी प्रतिपादन-सरलता वे कुछ समयमें ही जहाँ तहाँ बैठे हुए अनायास प्रात भी मेरे ऊपर अमर किये बगैर न रही। बीचमें प्रेमीजी कर सकेंगे।
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रायचन्द्रजनशास्त्रमालाका महत्त्वपूर्ण नया प्रकाशन
श्रीमद् राजचन्द्र गुजरातके सुप्रसिद्ध तत्त्वज्ञानी शतावधानी कवि गयचन्दजीके
गुजराती ग्रन्थका हिन्दी अनुवाद अनुवादकर्ता-पं. जगदीशचन्द्र शास्त्री एम० ए० प्रस्तावना और मम्मरण लेखक-विश्ववन्ध महात्मा गाँधी एक हज़ार पृष्ठों के बंई माइज़ के बढ़िया जिल्द बँधे हुए ग्रन्थकर्ताके पाँच चित्रों महित ग्रन्थका मूल्य मिर्फ ६ ) जो कि लागतमात्र है । डाकखर्च १।-)
महात्माजीन अपनी आत्मकथा में लिया है
" मेरे जीवनपर मुख्यतासे कवि रायचन्द्रभाईकी छाप पड़ी है। टालस्टाय और रस्किनकी अपे भी रायचन्द्रभाईने मुझपर गहरा प्रभाव डाला है।
इम ग्रन्थमं उनके मोनमाला, भावनाबोध, आत्ममिद्धि आदि छोटे मोटे ग्रन्थाका मंग्रह तो है ही, सब से महत्वकी चीज़ है उनके ८७४ पत्र, जो उन्होंने ममय ममयपर अपने परिचित मुमत्त जनाको लिग्वे थे और उनकी डायरी, जी व नियमित रूपम लिग्वा करते थे और महात्मा गान्धी नीका अाफ्रिकास किया हुआ) पत्रव्यवहार भी इममें । जिनागम में जो अात्मज्ञानकी पगकाष्ठा है उमका सुन्दर विवचन इममें है। अध्यात्मक विषयका नी यह ग्ब ज़ाना ही है। उनकी कविताये भी अथाहत दी है। मतलब यह कि राय. चन्द्रजीस मंबंध रखनेवाली कोई भी चीज़ छुटी नहीं है।
गजरानी में इम ग्रन्थ के अबतक मान एडीशन हो चुके हैं। हिन्दी में यह पहली बार ही महात्मागांधीजीके अाग्रह प्रकाशित हो रहा है। ग्रन्थारंभमें विस्तृत विषय-सूची श्रीर श्रीमदगजचन्द्रकी जीवनी है। ग्रन्थान्तमें ग्रन्थार्गत विषयांको स्पष्ट करनेवाले छह महत्त्वपूर्ण मौलिक परिशिष्ट हैं । जो मूल ग्रन्थमें नहीं है।
प्रत्येक विचारशील और तन्वप्रेमीको इम ग्रन्थका स्वाध्याय करना चाहिये ।
व्यवस्थापकश्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल (श्री रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला)
खारा कुत्रा जौहरी बाज़ार, बम्बई नं० २
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Regd. No. 1. 4328: वीर सेवामन्दिरको सहायता र साल में पीर सेवा मन्दिर सरसावाको उसके कन्या विद्यालयको सहायतार्थ, निम्न सज्जनोंकी ओर से ७४), की सहायता पास गई है । जिसके लिये दातार महाशय धन्यवादाक पात्र हैं:10 श्रीमती प्रसन्नीदनी धम्पन्नी यो संगतस्यजी जैन जा इन्द्रसेनजी जैन पानीपत मापन ला स्वसदन हरडस मुलतानपुर निः सहारनपुर कलाविद्यालय जैन गाडगीय (पुत्री के विवाह संस्कारको सीमी को देख कर उसकी सहायता) |
म
ला याचन्द्र सुपुत्र लामिहनलाल जी जैन नामा । सलताना कि सहारनपरकी एक भई विजन महिला जिला समानावित्री किरणमाला के विवाहक
जिन्नान अमना नाम देना नहीं पातर कन्या राशीम कन्या विद्यालयको । विद्यालय लिय)
मुमिनवर्तदास जैन मैनेजर जैन हाईस्कल पानात । अली मुसंडीलाल शिवचन्दनी जैन, आफमालयद अपने पुत्र चिरंजीय देवकुमारके विवादको ।
बिजनौर मंत्र विवाह का प्रयास किया जाममा करूपचन्दजी जैन सांगीय पानीपत संविधानमा
नायला नुसढीलान शिखरचन्द जोन उक्त सहायता के अतिरिक्त वीरसेना मन्दिरको लायनरी के लिये
लोके लायक २०, मूत्यकी अच्छी तुमकी लकड़ी भेजने का वायदा किया है, जिसके लिये वे और AL
अधिष्ठाता वीरसेवामन्दिर सरल जन-प्रथमाली जबलपुर द्वारा प्रकाशित सरळ-जन बम पर
लोकमत कामतापसावणी गुना उनकी भाषा सुबोध और मनोरंजक इन बालकोंको जैन धर्मको शिक्षा । बितेक लिपिक अहिलीयातिल होगी । लेखकका परिश्रम प्रसासनीय हैजयावादावार्थ वा कुन्दनलालस्यायनी मनसंस्थानाम इस प्रकार के आलोपयोगी साहित्यकी भारी कमी भी इनके पठनसे मेरी
भारणा है कि बात का धार्मिक संस्कार स्थायी व श्रद्धा वलर होगी। वाणीभूषण २० तुलसी रामजी काव्यातीयवारी भागों के पाटोका संकलन बड़ा ही हृदयमाही हुया है। न्यायाचार्य का माणिकचन्दजी वाचा भाग जना सिमाके लिये प्रचपत्रोत है। जैन पाठशालाग्राम इसको पठन पाठन अवश्य होना । पाहिये । शास्तिकता और जैन धमकि संस्कार हनों कुछ करकर भारत में है। मध्य में पाठपयोगी चित्रा को देकर जाने सर्व में सुगन्धिका विमान कर दिया है। सतर्क युगतरषिणी जैनपाटयाला के प्रथा यासक व साहित्याध्यापक श्रीमान १० दयावखजी न्यायत्तीयं च १५ प्रमालालजी साहित्याचार्य नारी । गोको रखना अच्छी है । सरलताका कारण त्यांना रखा गया है। प्राशा है। इनसे अजेन जाधीको नाइयां दूर होगी और इस मोर उनकी अभिवच बढ़ेगी। लिहान में नन्दलालजी गायी
ने बालकोको जैन धर्मावला सरलता से ज्ञान कराने के लिये जो अपर्व आयोजन किया है वह अत्युपयोग है । यदि तमाम विद्यालय, स्कन कीर यादवाला माम, उक्त पुस्तक काल में इसकी माने तो जैन भनेतर पालकोका बड़ा काम हो । माल पाठप पुस्तकों की अपेक्षा उक्त पुस्तक बाल को के लिये बहु उपयोगी है।
अपनी अपनी सम्मति मैजिये ।
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* विषय सूची ®
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१. समन्तभद्र-भारती . २. योनिप्रामृत और जगत्सुन्दरी-योगमाला [सम्पादकीय ३ कथा कहानी [अयोध्याप्रसाद गोयलीय ४. मिद्धसेन दिवाकर [श्री पं० रतनलाल मंधवी ५. स्वतन्त्रता देवीका सन्देश [ नीति विज्ञानसे ६ श्रुतज्ञानका आधार[श्री पं० इन्द्रचन्द्र शास्त्री ७. ब्रह्मचर्य [श्री. महात्मा गान्धी ८ अहिंसाकी समझ [श्री. किशोरीलालजी मशरूवाला ९. जयवीर ( कविता )- [श्री. 'भगवत्' जैन १०. जैन दृष्टिसे प्राचीन सिन्ध [ मुनिश्री विश्वाविजयजी ११. अहिंसा परमोधर्मः ( कहानी )-[श्री "भगवत" जैन १२. जीवनके अनुभव [अयोध्याप्रसाद गोयलीय १३. हरी-साग-सब्जीका त्याग [ श्री. बाबू सूरजभानुजी वकील १४. महात्मा गान्धीके २७ प्रश्नोंका समाधान[श्रीमद् रायचन्द १५. जीवन ज्योतिकी लहर, पशुबलि विरोध बिल, मन्दिर प्रवेश बिल,
वीर-शासन-जयन्ती [सम्पादकीय १६. तरुण-गीत (कविता) [ श्री कुमरेश
५११ ५१८ ५२० ५२९
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— नीति-विरोध-ध्वंसी लोक-व्यवहार-वत्तकः सम्यक् ।
परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥ सम्पादन-स्थान-वीर-सेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम) सरसावा, जिसहारनपुर
प्रकाशन-स्थान-कनॉट सर्कस, पो० ब० नं०४८, न्य देहली अाषाढ़ शुक्ल, वीरनिर्वाण सं० २४६५, विक्रम सं० १९६६
बर्ष २
किरण ६
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(कवि-नागराज-विरचित स्वतंत्र स्तोत्र) सास्मरीमि तोष्टवीमि ननमीमि भारती, तंतनीमि पापठीमि बंभणीमि तेमिताम् ।
देवराज-नागराज-मर्त्यराजपूजिता, श्रीसमन्तभद्रवादभासुरात्मगोचराम् ॥१॥ श्रीसमन्तभद्र के वादसे-कथनोपकथनसे-जिसका आत्मविषय देदीप्यमान है और जो देवेन्द्र, नागेन्द्र तथा नरेन्द्रसे पजित है, उस सरसा भारतीका-समन्तभद्रस्वामीफी सरस्वतीका-मैं बड़े आदर के साथ बार बार स्मरण करता हूँ, स्तवन करता हूँ, वन्दन करता हूँ, विस्तार करता हूँ, पाठ करता हूँ और व्याख्यान करता हूँ।
मातृ-मान-मेय-सिद्धि-वस्तुगोचरां स्तवे, सप्तभंग-सप्तनीति-गम्यतत्त्वगोचराम् ।
मोक्षमार्ग-तद्विपक्ष-भूरिधर्मगोचरामोप्ततत्त्वगोचरा समन्तभद्रभारतीम् ॥२॥ __प्रमाता (ज्ञाता)की सिद्धि,प्रमाण (सम्यग्ज्ञान) की सिद्धि और प्रमेय (ज्ञेय) की मिद्धि ये वस्तुएँ हैं विषय जिसकी जो सप्तभंग और सप्तनयसे जानने योग्य तत्त्वोंको अपना विषय किये हुए है-जिसमें सप्तभंगों तथा सप्तनयोंके द्वारा जीवादि तत्त्वोंका परिशान कराया गया है-जो मोक्षमार्ग और उसके विपरीत संसारमार्ग-सम्बंधी प्रचुर धर्मोके विवेचनको लिये हुए है और प्राप्ततत्त्वविवेचन-प्राप्त मीमां-भी जिसका विषय है, उस समन्तभद्रभारतीका मैं स्तोत्र करता हूँ।
सूरिसूक्तिवन्दिता मुपे यतत्त्वभाषिणी, चारुकीर्तिभासुरामुपायतत्त्वसाधर्नाम् ।।
पूर्वपक्षखण्डनप्रचण्डवाग्विलासिनी, संस्तुवे जगद्धिता समन्तभद्रभारतीम् ॥ ३॥ जो प्राचार्योकी सूक्तियोंढारा वन्दित है-बड़े बड़े प्राचार्योंने अपनी प्रभावशालिनी वचनावली-द्वारा जिसकी
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अनेकान्त
[आपाद, वीर-निर्वाण सं०२४६५
पूजा-वन्दना की है-,जो उपेय तत्त्वको बतलाने वाली है, उपायतत्त्वकी साधनस्वरूपा है, पूर्व पक्षका खण्डन करने के लिये प्रचण्ड वाग्विलासको लिये हए हैलीलामात्रमें प्रवादियोंके असत्पक्षका खण्डन कर देने में प्रवीण है-और जगतके लिये हितरूप है, उस समन्तभद्र भारतीका मैं स्तवन करता हूँ।
पात्रकेसरि-प्रभावसिद्धि -कारिणी स्तुवे, भाष्यकारपोषितामलंकृतां मुनीश्वरैः।
गुनपिच्छभाषितप्रकृष्टमंगलार्थिका, सिद्धिसौख्यसाधनी समन्तभद्रभारतीम् ॥४॥ पात्रकेसरी पर प्रभावकी सिद्धिमें जो कारणीभूत हुई--जिसके प्रभावसे पात्रकेसरी-जैसे महान् विद्वान जैनधर्ममें परिणत होकर बड़े प्रभावशाली प्राचार्य बने-, जो भाष्यकार-अकलंकदेव--द्वारा पुष्ट हुई, अनेक मुनीश्वरों-विद्यानन्दादि-द्वारा अलंकृत की गई, गुद्ध पिच्छाचार्य (उमास्वाति) के कहे हुए उत्कृष्ट मंगलके अर्थको लिये हुए है-उसके गम्भीर प्राशयका प्रतिपादन करने वाली है-और सिद्धिके-स्वात्मोपलब्धिकेसौख्यको सिद्ध करने वाली है, उस समन्तभद्रभारतीको-समन्तभद्रकी प्राप्तमीमांसादिरूप कृतिको-मैं अपनी स्तुतिका विषय बनाता हूँ-उसकी भूरि भूरि प्रशंसा करता हूँ।
इन्द्रभतिभाषितप्रमेयजालगोचरी, वर्द्धमानदेवबोधबुद्धचिद्विलासिनीम् ।
योग-सौगतादि-गर्वपर्वताशनि स्तुवे, क्षीरवाधिसनिभा समन्तभद्रभारतीम् ॥ ५ ॥ इन्द्रभूति (गौतम गणधर) का कहा हुश्रा प्रमेय समूह जिसका विषय है,जो श्रीवर्धमानदेवके बोधसे प्रयुद्ध हुए चैतन्यके विलासको लिये हुए है,योग तथा यौद्धादि मतावलम्बियोंके गर्वरूपी पर्वतके लिये वज्रके समान है और क्षीरसागरके समान उज्ज्वल तथा पवित्र है, उस समन्तभद्रभारतीका मैं कीर्तन करता हूँ उसकी प्रशंसामें खुला गान करता हूँ।
मान-नीति-वाक्यसिद्ध-वस्तुधर्मगोचर, मानितप्रभावसिद्धसिद्धिसिद्धसाधनीम् ।
घोरभूरिदुःखवार्षितारणक्षमामिमा, चारुचेतसा स्तुवे समन्तभद्रभारतीम् ॥६॥ प्रमाण, नय तथा प्रागमके द्वारा सिद्ध हुए वस्तु धर्म है विषय जिसके-जिसमें प्रमाण, नय तथा प्रागमके द्वारा वस्तुधर्मोको सिद्ध किया गया है-,मानित है प्रभाव जिसका ऐसी जो प्रसिद्ध सिद्धि-स्वात्मोपलब्धिउसके लिये जो सिद्धसाधनी है-अमोघ उपायस्वरूपा है-और घोर तथा प्रचुर दुःखोंके समुद्रसे पार तारने के लिये समर्थ है, उस समन्तभद्रभारती की मैं प्रेमपूर्ण हृदयसे प्रशंसा करता हूँ।
सान्तसाधनाद्यनन्तमध्ययक्त मध्यमा.शन्यभाव-सर्ववेदितत्त्वसिद्धिसाधनीम ।
हेत्वहेतुवादसिद्ध वाक्यजालभासुरी, मोक्षसिद्धये स्तुवे समन्तभद्रभारतीम् ॥७॥ सादि-सान्त, अनादि-सान्त, सादि-अनन्त, और अनादि-अनन्त रूपसे द्रव्यपर्यायोंका कथन करनेमें जो मध्यस्था है-इनका सर्वथा एकान्त स्वीकार नहीं करती-, शून्य (अभाव) तत्त्व, भावतत्त्व और सर्वशतत्त्वकी सिद्धिमें साधनीमत है और हेतुवाद तथा अहेतुवाद (भागम) से सिद्ध हुए वाक्यसमूहसे प्रकाशमान है-अर्थात् जिसके देदीप्यमान वाक्योंका विषय युक्ति और भागमसे सिद्ध है, उस समन्तभद्रभारतीकी मैं मोक्षकी सिद्धि के लिये स्तुति करता हूँ।
"व्यापकद्वयाप्तमार्गतत्त्वयुग्मगोचरा, पापहारि-वाग्विलासि भूषणांशुको स्तुवे ।
श्रीकरी च धीकरी च सर्वसौख्यदायिनी, नागराजपूजितां समन्तभद्रभारतीम् ॥८॥ .. व्यापक-व्याप्यका गुण-गुणीका-ठीक प्रतिपादन करनेवाले प्राप्तमार्गके दो तत्त्व-इयतत्त्व, उपादेयतत्त्व अथबा उपयतत्त्व और उदायतत्त्व-जिसके विषय है, जो पापहरणरूप आभूषण और वाग्विलासरूप वस्त्रको भारण करनेवाली है। साथ ही भी-साधिका, बुद्धि-वर्षिका और सर्वमुख-दायिका है, उस नागराज-पूजित समन्तभद्रभारतीकी मैं स्तुति करता हूँ।
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'योनिप्रामृत'और 'जगत्सुन्दरी-योगमाला
[सम्पादकीय 'जोणीपाहुड' अथवा 'योनिप्राभृत' का नाम बहुत १३० की कल्पना की गई जान पड़ती है-प्रमाणमें
- असेंसे सुना जाता है । परन्तु यह ग्रन्थ किस उक्त वाक्य फुटनोटमें उद्धृत भी किया गया है। परन्तु विषयका है, किसका बनाया हुश्रा है, कबका बना हुआ श्लोकसंख्याकी कल्पना कहाँसे की गई, यह कुछ है, कितने श्लोकपरिमाण है, कहाँ के भण्डारमें मौजूद है मालूम नहीं होता! 'ग्रन्थावली' में इस अंथ पर जो
और पूरा उपलब्ध होता है या कि नहीं, इत्यादि बातोंसे फुटनोट दिया है उसके द्वारा यह स्पष्ट सूचना की गई है जनता प्रायः अनभिज्ञ है । वि० संवत् १९६५ में प्रका- कि-'यह ग्रन्थ पूनाके दकनकालिजके सिवाय और शित 'जैनग्रन्थावली' में पृ० ६६.६७ पर इस ग्रन्थका कहीं भी उपलब्ध नहीं होता, जेसलमेर में होनेका उल्लेख है और उसमें इसे 'धरसेनाचार्य'की कृति लिखा उल्लेख ज़रूर मिलता है परन्तु अब यह वहाँ नहीं है है; साथ ही इसकी श्लोक संख्या ८०० दी है और इसके (त्रुटक है )। अतः दक्कनकालेजमें यह ग्रन्थ पूर्ण है रचे जानेका संवत् १३० बतलाया है । परन्तु यह सब या कि नहीं इस बातकी खोज करके इसकी लोकसंख्या मूल ग्रन्थको देखकर लिखा गया मालूम नहीं होता । वगैरहका निर्णय करना चाहिये।' बृहटिप्पणिका'नामकी एक संस्कृत सूची किसी आचार्य- इस सूचना परसे इस विषयमें कोई सन्देह नहीं द्वारा सं० १५५६ में लिखी गई थी, उसमें इस ग्रन्थका रहता कि उक्त श्लोक-संख्यादि-विषयक उल्लेख मूलमन्थउल्लेख निम्न प्रकारसे पाया जाता है-
को देखकर नहीं किया मया है-यो ही वृहटिप्पणिका “योनिमाभृतं वीरात् ६०० धारसेन"
तथा दूसरी किसी सूची परसे उसकी कल्पना की गई है। इस परसे ही ग्रन्थके कर्तृत्व विषयमें 'धरसेनाचार्य' वृहटिप्पणिकाका उक्त उल्लेख यदि मूलप्रथको देख की और ग्रन्थके रचे जानेके काल-सम्बन्धमें वि० संवत् कर ही किया गया है तो कहना होगा कि उल्लेखित
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४८६
अनेकान्त
[भाषाद, वोर-निर्वाणसं०२४६५
'योनिप्राभूत' दिगम्बर ग्रंथ है। क्योंकि धरसेनाचार्य उक्त नम्बर पर ग्रन्थका नाम यद्यपि 'योनिप्रामृत' दिगम्बर हुए है और उनका समय भी उक्त समय ही दिया है परन्तु यह अकेला योनिप्रामृत ही नहीं है 'वीयत् ६००' के साथ मिलता-जुलता है । परन्तु जहाँ बल्कि इसके साथ 'जयसुन्दरीयोगमाला-जगत्सुन्दरीतक दिगम्बर शास्त्रभंडारों और उनकी सूचियोंको योगमाला नामका ग्रन्थ भी जुड़ा हुआ है। इन दोनों देखनेका अवसर प्राप्त हुआ है मुझे अभी तक कहीं भी ग्रंथोंको सहज ही में पृथक् नहीं किया जा सकता; क्योंकि इस ग्रन्थका नाम उपलब्ध नहीं हुभा । हाँ, धवल ग्रन्थ- इस ग्रंथप्रतिके बहुतसे पत्रों परके अंक उड़ गये हैंके निम्न उल्लेख परसे इतना जरूर मालूम होता है कि फटकर नष्ट होगये हैं । मात्र सोलह पत्रों पर अंक 'योनिप्राभूत' (जोणीपाहुड) नामका कोई दिगम्बर ग्रंथ अवशिष्ट हैं और वे पत्रांक इस प्रकार हैं-६, १०, ११, जारूर है और उसमें मंत्र-तंत्रोंकी शक्तियोंका भी वर्णन १२, १३, १४, १५, १६, १७, १६, २०, २१, है, जिन्हें 'पुद्गलानुभाग' रूपसे जाननेकी प्रेरणा की २२, २३, २४, २५ । जिन पत्रोंपर बहनहीं रहे उनमेंसे गई है, और इससे अंथके विषय पर भी कितना ही बहुतोंकी बाबत यह मालूम नहीं होता कि वे कौनसे प्रकाश पड़ता है
ग्रंथके पत्र हैं । कोई अच्छा श्रेष्ट वैद्यक-पंडित हो तो वह
___ अर्थानुसन्धानके द्वारा इन दोनों ग्रन्थोंको पृथक् कर ... "जोणीपाहुरे भणिदमंततंतसत्तीमो पोग्गलाणु
सकता है-यह बतला सकता है कि अंकरहित कौनसा भागो तिघेत्तम्बा।" -आरा प्रति पत्र नं०८६१
पत्र कौनसे ग्रंथसे सम्बन्ध रखता है और प्रत्येक ग्रंथका - अब देखना यह है कि पूनाके दक्कन-कालिजकी कितना कितना विषय इस प्रतिमें उपलब्ध है। दोनों प्रति परसे इस विषयमें क्या कुछ सूचना मिलती है। ग्रंथ प्राकृत भाषामें गाथाबद्ध हैं और दोनोंमें वैद्यक, दकनकालिजका हस्तलिखित शास्त्रभण्डार अर्सा हुआ धातुवाद,ज्योतिष,मंत्रवाद तथा यंत्रवादका विषय भी है। भाण्डारकर ओरियंटल रिसर्च इन्स्टिट्यूट (भायडारकर- धातुवाद और यंत्रवादका कथन करते हुए उनके जो प्राध्य-विद्या-संशोधन-मन्दिर) के सुपुर्द हो चुका है,और प्रतिशावाक्य अंकरहित पत्र पर दिये हुए हैं वे इस इससे यह ग्रंथ अब उक्त इन्स्टिट्यूटमें ही पाया जाता है। प्रकार हैंवहाँ यह A १८८२-८३ सन्में संग्रहीत हुए ग्रंथोंकी मिसालेोजय पाउन्यायं पवक्खामि ।" लिस्ट में 'योनिप्राभृत' नामसे नं० २६६ a पर दर्ज है।
"धम्मविलासनिमित्तं जंताहिवारं पवक्खामि ।" कुछ वर्ष हुए प्रसिद्ध श्वेताम्बर विद्वान् पं० बेचरदासजीने इस ग्रन्थप्रतिका वहाँ पर अवलोकन किया था और इस ग्रंथप्रतिका 'योनिप्रामृत' ग्रन्थ धरसेनाचार्यउस परसे परिचयके कुछ नोट्स गुजरातीमें लिये थे। का बनाया हुआ नहीं है, बल्कि 'प्रश्नश्रवण' नामके दिगम्बर ग्रंथ होनेके कारण उन्होंने बादको वे नोट्स मुनिका रचा हुआ है और वह भूतबलि तथा पुष्पदन्त सदुपयोगके लिये सुहृदर पं० नाथूरामजी प्रेमी बम्बईको नामके शिष्योंके लिये लिखा गया है; जैसा कि योनिदे दिये थे। उन परसे इस ग्रन्थप्रतिका जो परिचय प्राभृतके १६वें पत्रके पहली और दूसरी तरफ्रके निम्न मिलता है वह इस प्रकार है
वाक्योंसे प्रकट है
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वर्ष २, किरणं ६]
'योनिप्राभृत' और 'जमत्सुन्दरी-योगमाला'
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पहली तरफ- ........ .. धरसेन प्राचार्य न होकर 'प्रश्नभवण' नामके कोई मुनि "इस पयासक्यसप भूषवलीपुष्फवंतत्राविहिए। .. हैं, पुष्पदन्त तथा भूतबलि उनके शिष्य है और यह कुसुमंडी उबहढे विजापविणम्मि पक्पिारे" . . ग्रंथ उन शिष्योंको शानानन्दका दायक है-फलितार्थ दूसरी तरफ़-
... रूपमें उनके लिये रचा गया है इतना मालूम होनेके "सिरिपण्हसवणमुणिया संखेने पवाखतंतंग।"६१६ साथ साथ इस ग्रंथके कुछ दूसरे विशेषणोंका भी पता ___ इससे भी अधिक स्पष्ट हकीकत योनिप्राभृतिके चलता है, जिनमें यह सूचित किया गया है कि यह अन्तिम बिना अङ्कके कोर-कोरे पत्र पर दी हुई है, और अंथ कूष्माडिणी महादेवीके द्वाग प्रश्नभवश मुनिको वह इस प्रकार है
उपदिष्ट (ज्ञात) हुअाहे, ज्वर-भूत-शाकिनीके लिये मार्तण्ड "ज्वरभूतशाकिनीमार्तवलं,
है, समस्त निमित्तशास्त्रोंकी उत्पत्ति के लिये योनिभूत है, समस्वनिमित्तशात्रोत्पत्तियोनि, विजनचित्त- विद्वजनोंके चित्तके लिये चमत्काररूप है, समस्त विद्याः चमत्कारं, पंचमकालसर्वज्ञ, सर्वविद्या-धातुवादादि- श्री तथा धातुवादादिके विधानको. लिये हुए है, जनविधानं, जमन्यवहारचन्द्रचन्द्रिकाचकोरम्, भायुर्वेद- व्यवहाररूपी चन्द्रमाकी चाँदनीके लिये चकोरके समान रक्षितसमस्तपत्वं, परमश्रवणमहामुनि-माल्डिनीमहा- है, आयुर्वेदका पूरा सार है और पंचमकालके लिये देव्या उपविष्टं (त्यं), पुष्फवंतादि भूतबलिशि (सि)व्य- सर्वज्ञतुल्य है।' इस पिछली यातको पुष्ट करनेके लिये हृष्टिदायकं इत्थं (थं) भूतं योनिप्राभूतथं ॥ पुनः यहाँ तक लिखा है कि 'जो कोई योनिप्राभतको
कलिकाले सव्वणू जो जाणड जोखिपाहुरं गंथं। जानता है वह 'कलिकालसर्वश' और 'चतुर्वर्गका जत्थ गमो तत्थ गमो चढवामहिहिमो दोह अधिष्ठाता' होता है।' साथही, यह भी सूचित किया है
कि मंत्र-यंत्रादिकोंमें मिथ्यादृष्टियोंका तेज उसी वक्त तक
कायम है जब तक कि लोग इस प्रथको नहीं सुनते - तावद् मिथ्यार (द) शां तेजो मन्त्रमन्त्रादिषु x x इससे परिचित नहीं होते हैं।' Xशृण्वन्ति (शृणंति) धीमतः इति श्रीमहाग्रंथ योनिप्रामृतं श्रीपबहसवबमुनि
ये भूतबलि और पुष्पदन्त नामके शिष्य कौन
हैं ? इनका कोई विशेष परिचय मालूम नहीं है। विरचितं समासं" इस अवतरणपरसे प्रकृत योनिप्राभृतिके रचयिता
पं० बेचरदासजीने इनके साथ 'लघु' विशेषण लगाया
है, जो उन भूतबलि-पुष्पदन्तसे इनकी जुदायगीका ( ) इस कोष्ठकके भीतरका पाठ मूल प्रतिका सूचक है जो धरसेनाचार्यके शिष्य थे,परन्तु मूल परसे पाठ है, जो कि अशुद्ध है।
ऐसा कुछ उपलब्ध नहीं होता । यदि ये धरसेनाचार्य___ x इस चिन्ह वाले स्थानका पाठ उपलब्ध नहीं के ही शिष्य हों तो 'प्रश्नश्रवण' मुनिको धरसेनका -छूट गया अथवा पत्रके फट जाने-घिस जाने नामान्तर कहना होगा; परन्तु यह बात ग्रंथ प्रकृति आदिके कारण नष्ट हुआ जान पड़ता है। . परसे कुछ जीको लगती सी मालूम नहीं होती।
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४५८
अनेकान्त
[प्राषाढ़, बोर-
निर्वाणसं०२४६५
उक्त अवतरणके बाद ही, उसी पत्र पर, इस ग्रंथ जाति कल्वकरणे मणोरहा बेहसवोव ४२ प्रतिके लिखे जानेका संवतादि दिया है, जो इस प्रकार धम्मत्थकाममोक्खं जन्हा मजुषाण रोमारोग्गा (ग)।
तम्हा तस्स उवाचं साहितं निसामेहि ॥ ५॥ . "संवत् १९८२ वर्षे शाके १४४७ प्रवर्त (4) हारीव-गग्ग-सूसथ-विजयसत्थे प्रयाणमाणो र माने दक्षिणायन (मान) गते श्रीसूर्ये भावहमासकृष्ण- पोबा तहवि माला भमि जपसुंदरी नाम " परे तृतीयायो तियौ गो x x शातीय पं० नलासुत इसमें जगत्सुन्दरीयोगमालाके रचनेकी प्रतिज्ञा श्रीकम लिखितं"
करते हुए और उसके रचनेका यह उद्देश्य बतलाते हुए इससे यह ग्रंथप्रति प्रायः ४१४ वर्षकी पुरानी कि धर्म-अर्थ-काम-मोक्षकी सिद्धि चूंकि श्रारोग्यसे होती लिखी हुई है और उसे नलासुत श्रीकम या 'टीकम' है इसलिये उसका उपाय साध्य है और उसे इस ग्रंथ नामके किसी पंडितने लिखा है।
परसे जानना चाहिये, ग्रंथकारने अपनी कुछ लघुता इसमें २०३ पत्र पर एक जगह यह वाक्य पाया प्रकट की है और यह सूचित किया है कि वह हारीत, जाता है-“योनिप्रामृते बालानां चिकित्सा समाता" गर्ग और सुश्रुतके वैद्यक. ग्रन्थोंसे अनभिज्ञ है फिर भी जिससे मालम होता है कि वहाँ पर योनिप्राभृत्में बालकों योगाधार पर इस ग्रंथकी रचना करता है । साथ ही,एक की चिकित्सा समाप्त हुई है।
बात और भी प्रकट की है और वह यह कि 'उसे पाहुड. ___ अब 'जगत्सुन्दरी-योगमाला' को लीजिये। यह ग्रंथ ग्रंथ (योनिप्राभत ) उपलब्ध नहीं है, जिसका उल्लेख पं० हरिषेणका बनाया हुआ है, जैसा कि एक अङ्करहित “योनिमामतालाभे" पदके द्वारा पूर्वोल्लेखित वाक्यमें भी पत्र पर दिये हुए उसके निम्न वाक्यसे प्रकट हैं- किया है । इस योनिप्राभृत ग्रंथको 'महिमाणेण विरइयं' . “इति पंडित श्री हरिषेणेन मया योनिप्राभृतालाभे पदके द्वारा वह संभवतः उस 'अभिमानमेरु' कविका स्वसमयपरसमयवैद्यकशासारं गृहीत्वा जगत्सुन्दरी बनाया हुआ सूचित करता है जिसे हेमचन्द्राचार्यने योगमालाधिकारः विरचितः।"
'अभिमानचिह्न' के नामसे उल्लेखित किया है और जो · यह ग्रन्थ २०वें पत्रसे प्रारम्भ होता है, जिसकी अपभ्रंश भाषाके त्रिषष्ठिलक्षण मह. पुराणका कर्ता पहली तरफका बिल्कुल अन्तिम भाग और दूसरी तरफ 'खण्ड' उपनामसे मा अंकित 'पुष्पदन्त' नामका महाकवि का कुछ भाग इस प्रकार है
हुआ है। इससे दो बातें पाई जाती हैं--या तो अभि"कुवियगुरुपायमूले न हु लद्धं अम्हि पाहुडं गंथं। मानमेरु (पुष्पदन्त) का भी बनाया हुआ कोई योनिअहिमाणेण विरहयं इय अहियारं सुस...."ऊ प्राभूत ग्रंथ होना चाहिये, जिसका प० हरिषेणको पता णमिण पुन्वविज्जं जाण पसाएण भाउविजं तु। . था परन्तु वह उन्हें उपलब्ध नहीं हो सका था और या पतं अणुक्रमेण संपह अम्हारिसा जाव ॥४०॥ उनका यह लिखना ग़लत है, और किसी ग़लत सूचना सुललियपवयण सालंकारं सलक्खणं सरसं। पर अवलम्बित है । अस्तु । हवह भुवणस्मिसारं कस्सेव पुरणे(णे)हि कलियस्स ॥४१॥ अब इन ग्रन्थोंके कुछ साङ्क पत्रोंपरसे उन पत्रोंमें अम्हण पुणो परिमियव (म) यणसहस्पछदरहियाणं । वर्णित विषयकी जो सूची संकलित की गई है उसे पत्राङ्क
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वर्ष २, किरण.]
'योनिप्राभृत' और 'जगत्सुन्दरी-योगमाला'
तथा गाथा नम्बरके साथ, प्राकृतमें न देकर, हिन्दीमें नीचे दिया जाता हैपत्रा विषय
गाथा १६ हर्षचिकित्सा
३६६-३७१ विचर्विका चिकित्सा
३८६ धर्मप्रयोग अमृतगुटिका
५१५ शिवगुटिका
५१५ १७ विषहरण
५३१ नीचेके विषय जगत्सुन्दरी योगमालाके हैं२१ प्रमेहाधिकार
६४ मूत्रचिकित्सा संततमतिसार
११३ पाण्डुरोगाधिकार
११७ श्रामरोगाधिकार शूलाधिकार
१२५ विसूचिकाधिकार पवनरोगाधिकार
१३७ छर्दिअधिकार
१४१ २३ तृष्णाधिकार
१४६ अरुच्याधिकार
१५१ हर्षाधिकार
१५५ हिकाधिकार
१५६ कासाधिकार
१६७ कुष्ठाधिकार शिरोरोगाधिकार
१६९ भवणाधिकार श्वासरोगाधिकार
२१४ वरुण(प्रण?)अधिकार
२१८ २५ भगंदराधिकार
२२५
नयनरोगाधिकार घ्राणरोगाधिकार मुखरोगाधिकार दन्तरोगाधिकार .. २४४ गलरोगाधिकार
२५० स्वरभेदाधिकार
२५२ भूताधिकार
२५४ इनके अतिरिक्त सुभिक्ष, दुर्भिक्ष, सस्ता, महंग और मानसशान वगैरहके भी अधिकार है। धातुवाद और यंत्रवाद-विषयक अधिकारोंकी सूचना इससे पहले की जा चुकी है, जिसमें धातुवादको 'कविकायचोजावर' -कलिकालमें विस्मयकारक लिखा है, और यंत्रवादको 'धम्मविवासनिमित्त'-धर्मकी दीप्ति-प्रभावनाका कारण बतलाया है । नीचे लिखे यंत्रोंका वर्णन प्रायः जगसुन्दरी-योगमालामें पाया जाता है--
१ विद्याधरवापि जंत्र २ विद्याधरीयंत्र ३ वायुयंत्र ४गंगायंत्र ५ ऐरावण यंत्र ६ भेरुण्ड यंत्र ७ राजाम्युदय यंत्र ८ गतप्रत्यागत यंत्र ६ बाणगंगायंत्र १० जलदुर्गभयानक यंत्र ११ उरयागासे पक्खि भ० महायंत्र १२ इंसभवा यंत्र १३ विद्याधरीनृत्य यंत्र १४ मेघनादभ्रमावर्त यंत्र १५ पांडवामली यंत्र
१२६
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१७५
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४६
. अनेकान्त
[आषाद, वीर-निर्वाण सं०२४६५
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इन ग्रंथों में जो मंत्रवाद है उसके एक मंत्रका २०३ पत्र पर संख्याङ्क २० पड़ा हुआ है और १९ पत्र नमूना इस प्रकार है
पर जिस 'बालतंत्र' के कथनका उल्लेख है उसकी समाप्ति __मों नमो भगवते पारवडाप चंद्रहासेन खनेन २०वें पत्र पर “योनिप्राभृते बालानां चिकित्सा समाता" गर्दभस्य सिरं विषय विदय बुटवणं हन हन लूतां हन वाक्यके द्वारा सूचित की गई है तथा २०वें पत्रसे ही हन जानामर्दभं हन हन गंडमाला हन हन विधि हन दूसरे ग्रंथ 'जगत्सुन्दरीयोगमाला' का प्रारम्भ हुआ है, हन विष्फोटकसान हन हन फट् स्वाहा।"
तब योनिप्राभृतकी समाप्तिका सूचक वह हकीकत___ ग्रंथप्रतिके कुल कितने पत्रे हैं और उनकी लम्बाई- वाला अन्तिम पत्र बिना संख्याङ्कके कैसे है, यह बात चौड़ाई क्या है, यह उक्त नोटों परसे मालूम नहीं हो कुछ समझमें नहीं आती ! हो सकता है कि उसे अंकसका, और न यही मालूम हो सका है कि 'योनिप्राभृत' रहित नोट करने में कुछ गलती हुई हो और उसका वह ग्रंथकी गाथासंख्या क्या है । हाँ, ऊपर १६वें पत्रका अवतरण २०वें पत्रकी पूर्व पीठका ही भाग हो। परन्तु जो अंश उद्धृत किया है उसकी अन्तिम पंक्ति के सामने उस हालतमें यह प्रश्न पैदा होता है कि जब उत्तर पीठ ६१६ का अंक दिया है, उससे ऐसा ध्वनित होता है कि परसे जर्गत्सुन्दरी योगमालाकी कुछ गाथाएँ उद्धृत की सायद यहीं इस ग्रन्थकी गाथा संख्या हो। परन्तु अभी गई हैं और उनपर गाथाअोंके ४० आदि नम्बर पड़े निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता।
थाओंके लिये उस पत्र पर और __इस प्रकार यह दोनों ग्रंथोंका संक्षिप्त परिचय है। कौनसा स्थान अवशिष्ट होगा । मूल ग्रन्थप्रतिको विशेष-परिचयके लिये पूरी ग्रंथप्रतिको खूप छान बीनके देखे बिना इन सब बातों का ठीक समाधान नहीं हो साथ देखने की ज़रूरत है-उसी परसे यह मालूम हो सकता । श्राशा है प्रो० ए० एन० उपाध्याय जी किसी सकेगा कि कौन ग्रंथ पूरा है और कौन अधरा । यह समय उक्त प्रतिको देखकर उस पर विशेष प्रकाश डालने ग्रन्थप्रति बहुत जीर्ण-शीर्ण है अतः इसकी अच्छे की कृपा करेंगे, और यदि हो सके तो ग्रंथप्रतिको मेरे सावधान लेखकसे शीघ्र ही कापी कराई जानी चाहिये, पास भिजवाकर मुझे अनुगृहीत करेंगे। उस समय मैं जिससे जो कुछ भी अवशिष्ट है उसकी रक्षा हो सके। इसकी रही-सही बातों पर पूरा प्रकाश डालनेका यस्न मेरी रायमें सबसे अच्छा तरीका फोटो लेलेने का है, करूँगा । खेद है कि हमारी असावधानी और अनोखी इससे जाँचनेवालोंके लिये लिपि श्रादिकी सब स्थिति श्रुतभक्तिके प्रतापसे हमारे ग्रंथोंकी ऐसी दुर्दशा हो रही एक साथ सामने श्राजाती है।
है ! और किसीको भी उनके उद्धारकी चिन्ता नहीं है !! ___ हाँ, एक बात यहाँ और भी प्रकट कर देने की है,
वीर-सेवा-मन्दिर, सरसावा, और वह यह कि जब १६वें पत्र पर संख्याङ्क १६ तथा
ता० १४-६-१९३६
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avasasesasastestaaslesaleHESEBESIDERMINATANAMATEMENasasassica
[ले०-अयोध्याप्रसाद गोयलीय] SEORARARINNARINNARRARB
ANANCP
(२२)
____ "फिर इसका कोई उपाय ?" महात्मा ईसा बैठे हुए दीन-दुखी और पतित "केवल अपने पिताका परिचय कराने पर प्राणियोंके उत्थानका उपाय सोच रहे थे कि उनके दीक्षित हो सकोगे।" कुछ अनुयायी एक स्त्रीको पकड़े हुए लाए और “दीक्षित हो सकूँगा ! किन्तु पिताका परिचय बोले-"प्रभु ! इसने व्यभिचार जैसा निंद्य कर्म कराने पर !! ओह !!! मैंने तो उन्हें आजतक नहीं किया है। इसलिये इसके पत्थर मार मार कर देखा भगवान् ! दीनबन्धु ! क्या पितृ-हीनको प्राण लेने चाहियें।" महात्मा ईसाने अपने अनुया- धर्म रत होनेका अधिकार नहीं है ? सुना है धर्मइयोंका यह निर्णय सुना तो उनका दयालु हृदय भर का द्वार तो सभी शरणागत प्राणियोंके लिये खुला आया, वे रुंधे हुए कंठ से बोले-"आपमेंसे जिस हुआ है।" ने यह निंद्य कर्म न किया हो, वही इसके पत्थर "वत्स! तुम्हारा कथन सत्य है । किन्तु तुम मारे " महात्मा ईसाका आदेश सुना तो मानो अभी सुकुमार हो, इसलिये तुम्हें दीक्षित करनेसे शरीरको लकवा मार गया। नेत्र जमीनमें गड़ेके पूर्व उनकी सम्मतिकी आवश्यकता है। गड़े रह गये । उनमें एक भी ऐसा नहीं था, जिसके १५ वर्षका बालक निरुत्तर हो गया। उसके पर-स्त्रीके प्रति कुविचार स्वप्नमें भी उत्पन्न न फूलसे गुलाबी कपोल मुझी जैसे गये। सरल हुए हो । सारे अनुयायी उस स्त्रीको पकड़े हुए मुँह नेत्रोंके नीचे निराशाकी एक रेखा-सी खिंच गई लटकाये खड़े रहे । तब महात्मा ईसाने करुणा भरे और स्वच्छ उन्नत ललाट पर पसीनेकी बून्द स्वरमें कहा-"मुमुक्षुओ! पतितों, दुराचारियों झलक आई । उसका उत्साह भंग हो गया।
और कुमार्गरतोंको प्रेमपूर्वक उनकी भूल सुझाओ घर लौट कर वह अपराधीकी तरह दर्वाजेसे वे तुम्हारी दयाके पात्र हैं । औरोंके दोष देखनेसे लग कर खड़ा हो गया। उसकी स्नेहमयी मां पुत्र पूर्व अपनी तरफ भी देख लेना चाहिये ।" का मुर्माया हुआ चेहरा देख सिर पर प्यारसे (२३)
हाथ फेरते हुए बोली-"क्यों मुन्ने क्या दीक्षित "प्रभू क्या मुझे दीक्षित नहीं किया जायगा" नहीं हुए ?" "नहीं।"
"नहीं" "इसका कारण ?"
"क्यों?" “यही कि तुम अज्ञात पुत्र हो।
"वे कहते हैं पिताकी अनुमति दिलाओ।"
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अनेकान्त
वीर-निर्वाण सं०२४६५
मा ने सुना तो कलेजा थाम कर रह गई। कहलाता है, तब एक धेश्याका भी उसके सेवन उसका पापमय जीवन बाइस्कोपकी तरह नेत्रोंके करनेसे कल्याण क्यों नहीं हो सकता ? फिर सामने आगया । वह नहीं चाहती थी कि इस यह तो वेश्या-पुत्र है, इसने तो कोई पाप किया सरल हृदय बालकको पापका नाम भी मालूम भी नहीं। पाप यदि किया भी है तो इसकी माताने होने पाए । इसलिये उसके होश सम्हालनेसे पूर्वही किया है। उसका दण्ड इसे क्यों ?" वह अपना सुधार कर चुकी थी। उसे अपने पुत्र- आचार्यकी वाणीमें जादू था, सबने प्रेम विका भविष्य उज्ज्वल करना था। अतः वह बोली- 'भोर होकर अज्ञात-पुत्रको गलेसे लगा लिया। "जाओ बेटा ! कहना जिस समय मैं उत्पन्न
(२४) हुआ था मेरे अनेक पिता थे, उन सबकी अनु- किसी पुस्तकमें पढ़ा था कि, अमुक देशकी मति प्राप्त करना असम्भव है।"
जेलमें एक कैदी जेलरके प्रति विद्रोहकी भावना बालक सब कुछ समझ गया। किन्तु उसे रखने लगा । वह जेलरकी नाक-कान काटनेकी अपने लक्षका ध्यान था । दौड़ा हुआ आचार्यके तजवीज़ सोच रहा था कि जेलरने उसे बुलाया पास गया और एक सांसमें माँका सन्देश कह और कमरा बन्द करके उससे अपनी हजामत सुनाया।
बनवानी शुरू करदी। हजामत बनवा चकने पर .. आचार्य गद्गद् कंठसे बोले-"वत्स ! जेलरने कहा-"कमरा बन्द है ऐसे मौके पर परीक्षा हो चुकी । तू सत्यवादी है इसलिये आ, तू तुम मेरी नाक कान काटने वाली अभिलाषा भी धर्ममें दीक्षित होनेका अवश्य अधिकारी है। पूरी करलो, मैं कसम खाता हूँ कि यह बात मैं .. कुछ कुल जाति-गर्वोन्मत्त भक्त आचार्यके किसीसे न कहूँगा ।" जेलर और भी कुछ शायद इस कार्यकी आलोचना करने लगे। भला एक कहता मगर उसकी गर्दन पर टप टप गिरने वेश्या-पुत्र और वह धर्म में दीक्षित किया जाए। वाले आँसुओंने उसे चौंका दिया। वह कैदीका असम्भव है, ऐसा कभी न हो सकेगा। हाथ अपने हाथों में लेकर अत्यन्त स्नेहभरे स्वरमें ___ क्षमाशील प्रभु उनके मनोभाव ताड़ गये।बोले- बोला- "क्यों भाई ! क्या मेरी बातसे तुम्हारे "विचारशील सज्जनों ! पापीसे घृणा न करके कोमल हृदयको आघात पहुँचा ! मुझे माफ करो उसके पापसे घृणा करनी चाहिये । मानव जीवनमें मैंने गलतीसे तुम्हें तकलीफ पहुँचाई"। अभागा भूल हो जाना सम्भव है । पापी मनुष्यका प्राय- कैदी सुबक सुबक कर जेलरके पावोंमें पड़ा रो श्चित द्वारा उद्धार हो सकता है। किन्तु जो जान रहा था, जेलरके प्रेम, विश्वास और क्षमा भावके बूझ कर पाप कर्ममें लिप्त हैं, अपना मायावी रूप आगे उसकी विद्रोहाग्नि बुझ चुकी थी । वह पाकर लोगोंको धोका देते हैं, एक पापको आँखोंकी राह अपने हृदयकी मनोवेदना व्यक्त कुपानेके लिये जो अनेक पाप करते हैं; उनका कर रहा था। उद्धार होना कठिन है । जब धर्म पतित-पावन
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TIOFILE
ADMAMIDESH
सिद्धसेन दिवाकर
[ले०-५० रतनलाल संघवी, न्यायतीर्थ-विशारद ] प्राकथन
संप्रदायमें ही हुए हैं; किन्तु अधिकांश विद्वान् इनके
संप्रदायाचा प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर और स्वामी समंतभद्र, साहित्यके गंभीर विश्लेषण के श्राधारसे इसी निष्कर्ष
ये दोनों ही जैनधर्म और जैन-साहित्यके महान् पर पहुँचे हैं कि ये श्वेताम्बरीय प्राचार्य ही हैं। लेकिन प्रभावक महात्मा और उच्च कोटिके गंभीर विद्वान् यह सत्य है कि सिद्ध सेन दिवाकर दोनों ही संप्रदायोंमें श्राचार्य हो गये हैं। इनके साहित्यका और रचना-शैली. अत्यन्त पूज्य दृष्टिसे देखे जाते हैं। हरिवंशपुराणके का जैन-साहित्य पर एवं पश्चात्वर्ती साहित्यकार श्राचायाँ कर्ता श्री जिनसेन और श्रादिपुराण के रचयिता प्राचार्य पर महान् और अमिट प्रभाव पड़ा है । वैदिक साहित्यमें जिनसेन एवं पद्मप्रभ, शिवकोटि और कल्याणकीर्ति कुमारिलभट्ट, शंकराचार्य और उदयनाचार्य एवं वाच- श्रादि दिगम्बर श्राचार्य इन्हें गौरवपूर्ण रीतिसे स्मरण स्पति मिश्रका जो स्थान है प्रायः वही स्थान और वैसा करते हैं । भट्ट अकलंकदेव तो इनके वचनोंको अपने ही सम्मान इन दोनों प्राचार्योका जैनसाहित्यकी दृषिसे श्रमर ग्रंथों में प्रमाण रूपसे उद्धृत करते हुए दिखाई समझना चाहिये । जैनन्याय-साहित्यके दोनों ही श्रादि देते हैं। स्रोत हैं। इनके प्रादुर्भावके पूर्वका जैनन्यायका एक दोनों ही श्राचार्योंके जीवन, साहित्य और कार्यभी ग्रंथ उपलब्ध नहीं होता है। इसलिये भगवान् महा- शैलीमें अद्भुन समानता प्रतीत होती है । दोनों ही स्तुतिचीरस्वामीके सूक्ष्म और गहन सिद्धान्तोंके ये प्रचारक, कार और श्राद्य न्यायाचार्य माने जाते हैं । इस लेखका प्रतिष्ठापक और संरक्षक माने जाते हैं तथा कहे जाते हैं। विषय 'सिद्धसेन दिवाकर' है, अतः पाठकोंसे स्वामी
स्वामी समन्तभद्र दिगम्बर सप्रदायमें हुए हैं और समन्तभद्रके विषयमें श्रद्धय पण्डित जुगलकिशोरजी सिद्धसेन दिवाकर श्वेताम्बर संप्रदायमें । यद्यपि कुछ मुख्तार सम्पादक 'अनेकान्त' द्वारा लिखित 'स्वामी विद्वानोंकी धारणा है कि सिद्धसेन दिवाकर भी दिगम्बर समन्तभद्र' नामक पुस्तकको अथवा माणिकचन्द्र ग्रन्थ
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VEX
अनेकान्त
[आषाद,धोर-निर्वाण सं०२४६५
मालामें प्रकाशित रत्नकरण्डभावकाचारकी प्रस्तावनाके की । न्यायावतारमें केवल ३२ श्लोक हैं, जो कि 'अनुसमन्तभद्र-विषयक अंशको देखनेका अनुरोधकर मूल टुप् छन्दमें संगुंफित हैं। यही श्वेताम्बर जैनन्यायका विषय पर आता हूँ। ............... . आदि ग्रन्थ माना जाता है। इसमें प्रमाण, प्रमेय,
. .. प्रमाता, प्रमिति, प्रत्यक्ष, परोक्ष, अनुमान, शब्द, पक्ष, साहित्य-सेवा
हेतु, दृष्टान्त, दूषण आदि एवं इन सम्बन्धी तदाभास सिद्धसेन नामके अनेक प्राचार्य जैनसमाज में हो तथा नय और स्याद्वादका संबध आदि विषयों पर गये हैं; किन्तु यहाँ पर वृद्धवादी प्राचार्यके शिष्य और जैनमतानुकूल पद्धतिसे, दार्शनिक संघर्षका ध्यान रखते श्वेताम्बरीय जैनन्यायके आदि-प्रतिष्ठापक, महाकवि, हुए, जो विवेचना की गई है, और जैन न्यायरूप गंभीर अजेयवादी, गंभीर वाम्मी और दिवाकर पदवीसे विभ- समुद्रकी जो मर्यादा और परिधि स्थापित की गई है, षित “सिद्धसेन" से ही तात्पर्य है । ये अपने समयके उसको उल्लंघन करनेका अाज दिन तक कोई भी जैन 'युगप्रधान-युग निर्माता' आचार्य थे। इनके समय नैयायिक साहस नहीं कर सका है। यद्यपि पीछेके सम्बन्धमें विद्वानोंमें मतभेद है; किन्तु माना यह जाता विद्वान जैन नैयायिकोंने अपने अमर ग्रंथों में इतरहै कि ये विक्रमकी तीसरी-चौथी-पाँचवीं शताब्दिके बीच दर्शनोंके सिद्धान्तोंका न्याय-शैलीसे विश्लेषण करते हुए में हुए होंगे। साहित्य-क्षेत्रमें ये सचमुच ही प्रकाश- बड़ा ही सुन्दर और स्तुत्य यौद्धिक-व्यायामका प्रदर्शन स्तम्भ (Light-House )के समान ही हैं । किया है । किन्तु यह सब प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकरके ___ जैन-न्यायके स्वरूपकी जो मर्यादा इन्होंने स्थापित द्वारा बताये हुए मार्गका अवलम्बन करके ही किया की और जो न्याय-पारिभाषिक शब्दोंकी परिभाषा गया है। स्थिर की उसीके आधार परसे-उसी शैलीका अनु- 'सन्मति तर्क' इनकी प्राकृत-कृति है। यह भी पद्य करण करते हुए पश्चात्-वर्ती सभी श्वेताम्बर आचार्यों ग्रंथ है । इसका प्रत्येक छंद (उर्फ गाथा) आर्या है ने अर्थात् हरिभद्रसूरि, मल्लवादी, सिंह क्षमाश्रमण, तर्क- और यह तीन कांडोंमें विभाजित है । प्राचीन कालसे पंचानन अभयदेवसूरि, वादी देवसूरि, प्राचार्य हेमचन्द्र लगाकर अठारहवीं शताब्दि तक के उपलब्ध सभी पद्य
और उपाध्याय यशोविजय आदि प्रौढ़ एवं वाग्मी-जैन मय प्राकृत ग्रन्थ प्रायः इसी "आर्या' छंदमें रचे हुए नैयायिकोंने उच्चकोटिके जैन-न्याय-ग्रंथोंका निर्माण करके देखे जाते हैं । यद्यपि कुछ ग्रन्थ अनुष्टुप् और उपजाति जैनदर्शनरूप दुर्गको ऐसा अजेय बना दिया कि छंदोंमें भी पाये जाते हैं किन्तु प्राकृत-पद्य-साहित्यका जिससे अन्य दार्शनिकोरूप प्रबल आक्रांताओं द्वारा अधिकांश भाग 'आर्या' में ही उपलब्ध है। भीषण आक्रमण और प्रचंड प्रहार करने पर भी इस सन्मति-तर्कके तीनों कांडोंमें क्रमशः ५४, ४३, जैनदर्शनरूपी दुर्गको ज़रा भी हानि नहीं पहुंच सकी। और ६६ के हिसाबसे कुल १६६ गाथाएँ हैं। प्रथम ___ आचार्य सिद्धसेन दिवाकरने प्रमाणवादके प्रस्फुटन कांडमें नय, व्यंजनपर्याय, अर्थपर्याय, नयका सम्यक्त्व के लिये 'न्यायावतार' की और अनेकान्तवाद एवं और मिथ्यात्व, जीव और पुद्गल का कथंचित् भेदाभेद, नयवाद के विशदीकरण के लिये 'सम्मति तर्क' की रचना नयभेदोंकी भिन्नता और अभिन्नता आदि विषयों पर
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वर्ष २, किरण ]
सिद्धसेन दिवाकर
४६५
विवेचना की गई है। दूसरे कांड में दर्शन और शान पर ही उस समयकी विद्वत्ताका प्रदर्शन था। ऊहापोह किया गया है। इसमें आगमोक्त क्रमवाद, चंकि सिद्धसेन दिवाकर जातिसे. ब्राह्मण थे अतः सहवाद, और अभेदवादकी गंभीर एवं युक्तियुक्त मीमांसा उपनिषदों और वैदिक दर्शन ग्रंथोंका इन्हें मौलिक और है । अन्तमें प्रबल प्रमाणोंके आधारसे 'केबलशान और गंभीर ज्ञान था;जैसाकि इनके द्वारा रचित प्रत्येक दर्शनकेवल दर्शन एक ही उपयोगरूप है' इस अभेदवादको की बतीसीसे पता चलता है । बौद्ध और जैन-साहित्यही तर्कसंगत और प्रामाणिक सिद्ध किया है। तीसरे का भी इन्होंने तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया था और कांड में सामान्य, विशेष, द्रव्य, गुण, एक ही वस्तुमें प्राकृत भाषापर भी इनका पूर्ण अधिकार था, ऐसा अस्तित्व आदिकी सिद्धि, अनेकांतकी व्यापकता, उत्पत्ति- मालूम होता है। नाश स्थिति-चर्चा, आत्माके विषयमें नास्तित्व प्रादि सिद्धसेन दिवाकर जैनसमाजमें "स्तुतिकार" के ६ नयोंका मिथ्यात्व और अस्तित्व आदि ६ पक्षोंका रूपसे विख्यात हैं। इसका कारण यही है कि इनकी सम्यक्व, प्रमेयमें अनेकान्त दृष्टि आदि आदि गढदार्श- उपलब्ध बतीसियोंमें से ७ बतीसियाँ स्तुति-श्रात्मक हैं । निक बातों पर अच्छा स्वतंत्र और प्रशस्त विवेचन इन स्तुति-स्वरूप बतीसियोंमें वे भगवान् महावीर स्वामीकिया गया है।
के भक्तिवर्णनके बहाने उनके तत्वज्ञानकी और चरित्रकी .
गंभीर तथा उच्चकोटिकी मीमांसा करते हुए देखे जाते अन्य ग्रंथ
हैं। मालूम होता है कि भगवान् महावीर स्वामीके कहा जाता है कि इन्होंने ३२ द्वात्रिंशिकानोंकी तत्त्वज्ञानका हृदयग्राही अध्ययन ही इन्हें वैदिक दर्शनसे भी रचना की थी। किन्तु वर्तमानमें केवल २२ द्वात्रिंशि- जैन-दर्शनमें खींच लाया है । भगवान् महावीर स्वामीके काएँ (बतीसियाँ ) ही पाई जाती हैं। जिनकी पद्य- तत्त्वज्ञान पर थे इतने मुग्ध और संतुष्ट हुए, कि इनके संख्या ७०४ के स्थान पर ६६५ ही हैं। इन बतीसियों मुखसे अपने आप ही चमत्कारपूर्ण अगाध श्रद्धामय और पर दृष्टि-पात करनेसे पता चलता है कि सिद्धसेनयुग भक्ति-रसभरी बतीसियाँ बनती चली गई । रचयिताके एक वादविवादमय संघर्षयुग था। प्रत्येक संप्रदायके प्रौढ़ पांडित्य के कारण उनमें भगवान महावीर स्वामीके विद्वान् अपने अपने मतकी पुष्टि के लिये न्याय-शैलीका उत्कृष्ट तत्त्वज्ञानका सुन्दर समावेश और स्तुत्य संकलन ही अनुकरण किया करते थे । सिद्धसेन-युग तक हो गया है। भारतीय सभी दर्शनोंके न्यायग्रन्थोंका निर्माण हो चुका प्राप्त बतीसियोंमें कहीं कहीं पर हास्य रसका पुट भी था । बौद्ध-न्याय-साहित्य और वैदिक न्यायमाहिल्य काफी पाया जाता है, इससे पता चलता है कि सिद्धसेन विकासको प्राप्त हो चुका था।
दिवाकर प्रकृतिसे प्रफुल्ल और हास्यप्रिय होंगे। इनकी तत्कालीन परिस्थिति बतलाती है कि उस समयमें बतीसियोंमें से दो यतीमियाँ (वादोपनिषद् द्वात्रिंशिका न्याय-प्रमाण चर्चा और मुख्यतः परार्थानुमान चर्चा और वादद्वात्रिंशिका) वाद-विवाद-संबंधी हैं । एक पर विशेष वाद विवाद होता था। संस्कृत-भाषामें, गद्य बतीसी किसी राजाके विषय में भी बनाई हुई देखी जाती तथा पद्यमें स्वपक्षमंडन और परपक्षखंडनको रचनाएँ है, जिससे अनुमान किया जासकता है कि सिद्धसेन
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४६६
अनेकान्त
[असाढ़,वीर-निर्वाण सं०२४६५
दिवाकरको राजसभाओं में भी वाद विवाद के लिये- न्याय, सांख्य, वैशेषिक, बौद्ध, आजीवक और वेदान्त जैनधर्मको श्रेष्ठ सिद्ध करनेके लिये-जाना पड़ा होगा। दर्शनों से प्रत्येक दर्शन पर एक एक स्वतंत्र बतीसी इस विषयसे सम्बन्ध रखनेवाली इनकी कृतियोंको देखने लिखी गई है। मीमांसक-दर्शन-संबंधी कोई बतीसी उपसे पता चलता है कि ये वाद-विवाद-कलामें कुशल और लब्ध नहीं है, इससे अनुमान किया जा सकता है कि कुशाग्र बुद्धिशील होंगे । इनकी वर्णनशैली यह प्रमाणित नष्ट शेष बतीसियोंमेंसे मीमांसक-बतीसी भी एक होगी। करती है कि मानों ये अनुभूत बातोंका ही वर्णन कर छः बतीसियोंमें विशुद्ध रूपसे जैन दर्शनका वर्णन किया रहे हों।
गया है। यों तो सभी बतीसियोंमें मिलाकर लगमग १७ इनके सम्यक्त्व-श्रद्धा-के दृष्टिकोणसे यह कहा प्रकारके छंदोका उपयोग किया गया है; किन्तु अधिकांश जा सकता है कि ये पूरी तरहसे जैनधर्मके रंगमें रंग श्लोकोंकी रचना 'अनुष्टुप् छन्दमें ही की गई है। इनकी गये थे । वैदिक मान्यताओंको जैनधर्मकी अपेक्षा हीन ये कृतियाँ बतलाती है कि षट् दर्शनों पर इनका अगाध कोटिकी समझने लगे थे । इसका प्रमाण यह है कि अधिकार था। इन कृतियोंसे जैन-साहित्यकी रचना स्वपक्ष और परपक्षकी विवेचना करते समय परपक्षकी पर अभूतपूर्व प्रभाव पड़ा है । प्रायःसंपूर्ण जैनसंप्रदायमें किसी किसी प्रबल तर्क संगत बातको भी निर्बल तोंके षट्-दर्शनोंका पठन-पाठन और इन दर्शनोंकी न्यायप्राधारसे खंडन करते चले जाते हैं; जब कि स्वपक्षकी शैलीसे खंडन-प्रणाली इन कृतियोंको देखकर ही प्रारंभ किसी तर्क-असंगत यातको भी श्रद्धाके आधार पर सिद्ध हुई जान पड़ती है। चूंकि सिद्धसेन दिवाकरसे पूर्व करनेका प्रयास करते हैं।
रचित श्वे. जैन साहित्यमें पट-दर्शनोंके संबंधमें नहीं प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर द्वारा रचित एवं उप- कुछके बराबर ही विवेचना पाई जाती है, अतः यह लब्ध २२ बतीसियोंमें से ७ तो स्तुति-श्रात्मक हैं, दो निस्संकोच रूपसे कहा जा सकता है कि श्वे. जैन समीक्षात्मक और शेष १३ दार्शनिक एवं वस्तु-चर्चा- समाजमें घट-दर्शनोंके पठन-पाठनकी प्रणाली और त्मक है।
इन संबंधी विवेचना करनेका श्रेय प्राचार्य सिद्धसेन ___ बतीसियोंकी भाषा, भाव, छंद, अलंकार, रीति दिवाकरको ही प्राप्त है । इस दृष्टिसे जैनसमाज पर इन
और रसकी दृष्टिसे विचार करनेपर ज्ञात होता है कि प्राचार्यका कितना मारी उपकार है-इसकी पाठक प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकरकी प्रतिभा और शक्ति मौलिक स्वयं कल्पना कर सकते हैं। तथा अनन्य विद्वता-सूचक थी। स्तुत्यात्मक बतीसियोंमें अन्य प्राचार्योकी श्रद्धांजलियाँ से ६ तो भगवान महावीर स्वामी संबंधी हैं और एक पीछेके सभी श्राचार्योंने सिद्धसेन दिवाकरको अपने किसी राजा संबंधी। समीक्षात्मकमें जल्प श्रादि वाद- अपने ग्रन्थों में अत्यन्त आदर पूर्वक स्मरण किया है । कथाकी मीमांसा की गई है । दार्शनिक बतीसियोंमें इनके पद्योंको अपने मन्तव्यकी पुष्टि के लिये अनेक
• अच्छा होता यदि इस विषयका एक-आध बड़े बड़े समर्थ प्राचार्यों तकने अपने ग्रंथोंमें प्रमाणउदाहरण भी साथमें उपस्थित कर दिया जाता। स्वरूप उद्धृत किया है । इनके प्रति श्रादर बुद्धि के
-सम्पादक थोडेसे उदाहरण निम्न प्रकारसे है:
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वर्ष २, किरण ६]
सिखसेन दिवाकर
४७
श्राठवीं शताब्दिके महान् मेधावी,मौलिक साहित्य- उदितोन्मतम्योम्नि सिखसेनदिवाकरः। कार और विशेष साहित्यिक युगके निर्माता प्राचार्य चित्रं गोभिःचिती आहे कविराजमप्रभा । हरिभद्रसूरि "पंच वस्तुक" प्रथमें लिखते हैं- _ अर्थात्-सिद्धसेनरूपी दिवाकर ( सूर्य ) के "सुमकेवलिण जमो भणि
अर्हन्मत (जैनधर्म) रूपी भाकाशमें उदय होने पर उन भापरियसिद्धसेणेण सम्मईए पहडिमजसेणं ।, की गो (किरण और वाणी दोनों अर्थ ) से पृथ्वी पर दूसम-णिसा-दिवागर कप्पत्तणो तदक्खेणं ॥" कविराज ( शेष कवि और बृहस्पति-दोनों अर्थ)
-पंचवस्तुक, गाथा १०४८ की और बुध (बुद्धिमान और बुध ग्रह-दोनों अर्थ) अर्थात्-दुःषम काल नामक पंचम श्रारा रूपी की कांति लज्जित हो गई। रात्रि के लिये सूर्य समान, प्रतिष्ठित यशवाले, श्रुतकेवली यहाँ पर "दिवाकर, किरण, बृहस्पति और बुध" समान प्राचार्य सिद्धसेनदिवाकरने 'सम्मति-तर्क' में के साथ तुलना करके उनकी अगाध विद्वत्ताके प्रति कहा है।
भावपूर्ण श्रद्धांजलि व्यक्त की गई है। हरिभद्र रचित इस गाथामें 'सूर्य' और 'श्रुतकेवली' प्रभाचन्द्रसूरि अपने प्रभावक चरित्रमें लिखते हैं विशेषण बतला रहे हैं कि १४४४ ग्रंथोंके रचयिता कि:श्राचार्य हरिभद्र सूरि सिद्धसेन दिवाकरको किस दृष्टि से स्फुरन्ति वादिखद्योताः साम्प्रतं दक्षिणा पथे। . देखते थे।
नूनमस्तंगतः वादी सिद्धसेनो दिवाकरः ॥ बारहवीं शताब्दिके प्रौढ़ जैन न्यायाचार्य वादिदेव- भाव यह है कि जिस प्रकार सूर्यके अस्त हो जाने सूरे अपने समुद्र समान विशाल और गंभीर ग्रंथराज पर खद्योत अर्थात् जुगनु बहुत चमका करते हैं । उसी 'स्याद्वाद-रत्नाफर' में इस प्रकार श्रद्धांजलि समर्पण तरहसे यहाँ पर भी रूपक-अलंकारमें कल्पनाकी गई है करते हैं:
कि 'दक्षिण पथमें अाजकल वादीरूपी खद्योत बहुत श्रीसिद्धसेन-हरिभद्रमुखाः प्रसिद्धाः। चमकने लगे हैं। इससे मालूम होता है कि सिद्धसेन ते सूरयो मयि भवन्तु कृतप्रसादाः ॥
रूपी सूर्य अस्त हो गया है।' यहाँ पर भी सिद्धसेन येषां विमृश्य सततं विविधान् निबंधान् । प्राचार्यको सूर्यकी उपमा दी गई है। शाकं चिकीर्षति तनु प्रतिमोऽपि माइक् ॥ विक्रमको चौदहवीं शताब्दिके प्रथम चरणमें होने
अर्थात्-श्री सिद्धसेन और हरिभद्र जैसे प्रमुख वाले मुनि श्री प्रद्युम्नसूरि 'संक्षेपसमरादित्य' में लिखने प्राचार्य मुझ पर प्रसन्न हों, जिनके विविध ग्रंथोंका सतत है किमनन करके मेरे जैसा अल्प बुद्धि भी शास्त्र रचनेकी तमः स्तोमं सहन्तु श्रीसिद्धसेनदिवाकरः। ...... इच्छा करता है।
___ यस्योदये स्थितं मूलखकैरिव वादिभिः ॥ श्लेष और रूपक-अलंकारके साथ मुनि रत्नसूरि अर्थात्-श्रीसिद्धसेनदिवाकर अज्ञानरूपी अंधकार अपने बारह हज़ार श्लोक प्रमाण महान् काव्य 'अमम- के समूहको नष्ट करें। जिन सूर्य ममान सिद्धसेनके उदय चरित्र में लिखते हैं:
होने पर प्रकाशमें नहीं रहने वाले वादी रूपी उल्ल
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अनेकान्त
[श्राषाढ़, वीर-
निर्वाण सं०२४६५
चुपचाप बैठ गये।
महान् दिग्गज हाथियोंके मार्गका अनुकरण करनेवाला साढ़े तीन करोड़ श्लोक प्रमाण साहित्यके रचयिता हाथीका बच्चा यदि स्खलित गति हो जाय तो भी शोचसाहित्यके प्रत्येक अंगकी पुष्टि करने वाले, कलिकाल नीय नहीं होता है; उसी प्रकार यदि मैं मी सिद्धसेन सर्वज्ञकी उपाधि वाले आचार्य हेमचन्द्र अपनी प्रयोग जैसे महान् श्राचार्योंका अनुकरण करता हुआ स्खलित व्यवछेदिका नामक बतीसीके तीसरे श्लोकमें लिखते हैं:- हो जाऊँतो शोचनीय नहीं हैं।
क सिद्धसेनस्तुतयो महाः , ___ पाठकगण इन अवतरणोंसे अनुमान कर सकते हैं अशिक्षितालापकला क चैषा।
कि जैनसाहित्यमें प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकरका क्या तथापि यूथाधिपतेः पथस्थः,
स्थान है ? इस प्रकार यह निर्विवाद सिद्ध है कि स्खलद्गतिस्तस्य शिशुनं शोच्यः॥ सिद्धसेनदिवाकरकी कृतियोंका जैनसाहित्य पर महान् अर्थात्--कहाँ तो गंभीर अर्थ वाली श्राचार्य प्रभाव है। सिद्धसेन दिवाकरकी स्तुतियाँ और कहाँ अशिक्षित
(अगली किरणमें समाप्त) श्रालाप वाली मेरी यह रचना फिर भी जिस प्रकार
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स्वतंत्रता देवीका सन्देश हममेंसे जो कोई सुनना चाहे वह सुन सकता है कि स्वतंत्रताकी देवी पुकार पुकार कर स्पष्ट र शब्दोंमें कह रही है कि- "मेरे उपासको ! मेरी प्रिय सन्तानो ! तुमने अभी तक मेरी पूजाकी विधि र नहीं जानी । तुमने अभी तक मुझे प्रसन्न करनेका ढुंग नहीं सीखा । मैं स्वतंत्रता या आज़ादीसे भरे ।
हुए हृदयमें ही बास कर सकती हूँ-संकीर्णता, असहिष्णुता, हिंसकतासे भरे हुए हृदयमें नहीं । ऐ मेरी सन्तानो ! जब तुम दूसरोंको परतंत्र बनाना चाहते हो, दूसरोंके विचारों, भावों और आदर्शों से ८ घृणा करते हो, केवल खुद ही सुखसे दिन काटना चाहते हो और दूसरोंको इस शस्य श्यामल, धन-र रत्न-आनन्द-शोभा-सौन्दर्य-संकुल पृथ्वी पर ही नरककी चाशनी चखाना चाहते हो, तब मुझे क्योंकर
पा सकते हो ? क्या तुम नहीं जानते कि मैं घृणा, असहिष्णुता और संकीर्णताकी दुर्गन्धमें क्षणभर १ भी नहीं टिक सकती ? इस विराट् विश्व, अनन्त, प्रकृतिमें सभीकी आवश्यकता है-सभीके रहनेके 5
लिये स्थान है । सभीके निर्वाहके लिये सामग्री है । फिर व्यर्थके झगड़ोंसे क्या लाभ ? दूसरोंको । इपरतंत्र रखकर तुम कदापि स्वतंत्र नहीं रह सकते ।तुम्हारी निजकी स्वतंत्रताके लिये सबकी स्वतनता-८ की आवश्यकता है । मेरे उपदेशको स्मरण रक्खो, तभी तुम मुझे प्राप्त कर सकोगे, अन्यथा नहीं।"
-'नीति-विज्ञान Lamm-m-me-x--Nound-IN-men-IN-INLI
LALIWAN
LFLAIN
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तत्वचची
श्रुतज़ानका आधार
[ले०-५० इन्द्रचन्द्रजी जैन शानी ] "मानेकान्त" के दूसरी वर्षकी सातवीं किरणमें मैंने स्वभाव और विभावकी है। यदि ज्ञानके स्वभाव और
श्रुतज्ञान के विषयमें कुछ प्रकाश डाला है, उसमें विभावपर ठीक विचार किया जावे तो यह समस्या इस बातको सिद्ध करनेका प्रयत्न किया गया है कि हल हो सकती है। भावमन सभी संसारी प्राणियोंके होता है। इसीभावमन
आत्मामें ज्ञानवरणीय श्रादि पाठ कर्मों मेंसे विभाके आधारसे श्रुतज्ञान भी सभी संसारी प्राणियोंके संभव वता लानेवाला या विकार पैदा करनेवाला सिर्फ़ मोहहो सकता है । भावमनको जैनाचार्योंने ज्ञानात्मक नीय कर्म ही है । शेष सात कर्म अपने अपने प्रतिपक्षी स्वीकार किया है, तथा जीवकी ऐसी कोई भी अवस्था गुणोंको प्रगट नहीं होने देते। वे गुण जितने अंशमें नहीं है जब वह बिलकुल ज्ञानशून्य हो जाय । इस लेखमें प्रगट होते हैं उतने अंशमें वे कर्म उन गुणोंको विभाग इसी भावमनके ऊपर कुछ और विचार किया जायगा, रूप करनेमें कारण नहीं होते । यदि उन गुणोंमें विकार जिससे आगे श्रतज्ञान पर विचार करने में अवश्य श्राता है तो वह सिर्फ़ मोहनीयके कारण-स्वतः उनमें सहायता मिलेगी।
विकार नहीं होता। भावमनको ज्ञानस्वरूप स्वीकार करते हुए भी कुछ शानावरणीय कर्मके उदयसे विकृत या विभाव रूप विद्वान पौद्गलिक सिद्ध करनेका प्रयत्न करते हैं । इसमें ज्ञान नहीं होता, किन्तु, शानका अभाव ही होता है। मुख्य हेतु यही दिया जाता है कि, भावमन ज्ञानकी औदयिकभावोंमें जहाँ अज्ञान बताया है वहाँ अशानका विमाव परिणति स्वरूप है । अतः कर्मोंके संसर्ग होनेके अर्थ ज्ञानका अभाव ही है, मिथ्याशान नहीं । यथा-- कारण इसे कथंचित् पौद्गलिक स्वीकार किया जावे। “शानावरणकर्मण उदयात् भवति तवज्ञानमौदपिकम्" इस भावमनकी चर्चा में मुख्य विचारणीय समस्या
-सर्वार्थसिदि
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५००
अनेकान्त
[आषाढ़, वीर-निर्वाण सं०२४६५
अर्थात्-शानावरण कर्मके उदयसे पदार्थोंका शान टीका-पत्र हि ज्ञानोपयोगोपि स्वभावविभावनहीं होना 'अजान' नामका श्रौदयिक माव है। भेदात् द्विविधो भवति । इह हि स्वभावज्ञानं अमूर्तम्,
पदार्थोके विपरीत श्रद्धान करानेमें दर्शन मोहनीय भन्यावाधम्, भतीन्द्रियम्, भविनश्वरम्, तबकार्यकारण का उदय कारण पड़ता है-शानावरण कर्मका उदय स्पेण विविधं भवति । कार्य सावत् सकलविमलकेवलनहीं। ज्ञानावरणका उदय तो ज्ञानके अभावमें ही ज्ञानम् । तस्य कारणं परमपारिणामिकभावस्थितत्रिकारण पड़ता है, जैसा कि पंचाध्यायीके निम्न वाक्यसे कालनिरुपाधिरूपं सहजज्ञानं स्यात् । केवलं विभावप्रकट है--
स्पाणि ज्ञानानि त्रीणि कुमति कुश्रुत-विभंगीजि हेतुः शुद्धात्मनो ज्ञाने शमो मिथ्यात्वकर्मणः। भवन्ति ॥ प्रत्यनीकस्तु तत्रोच्चैरशमस्तत्र व्यत्ययात् ॥ २-६७ अर्थात्--जीव उपयोगमयी है । उपयोगज्ञान दर्शन । अर्थात्--शुद्ध अात्माके शानमें कारण मिथ्यात्व के भेदसे दो प्रकारका है। यह ज्ञानोपयोग स्वभावकी कर्मका उपशम है । इसका उल्टा मिथ्यात्व कर्म उदय अपेक्षासे भी दो प्रकारका है। एक कार्य स्वभावज्ञान, है । मिथ्यात्व कर्मके उदयसे शुद्धात्माका अनुभव नहीं दूसरा कारण स्वभावज्ञान । समस्त प्रकारसे निर्मल हो सकता । आगे इसे और भी स्पष्ट किया है- केवलज्ञान कार्य स्वभाव ज्ञान है। इसीके बलज्ञानका
मोहेऽस्तंगते पुंसः शुद्धस्यानुभवो भवेत् । कारणरूप परम परिणामिक भावमें स्थित विभाव रहित न भवेद्विग्नकरः कश्चिच्चारित्रावरणोदयः ॥ आत्माका सहज ज्ञान कारण स्वभाव ज्ञान है। कारण .
-पंचाध्यायी, ६८८ । स्वभावज्ञानके द्वारा ही कार्यस्वभावज्ञान प्राप्त होता है । अर्थात्-दर्शन मोहनीय कर्मका अनुदय होने पर विभावज्ञान सिर्फ तीन ही है-कुमति, कुश्रुत, और श्रात्माका शुद्ध अनुभव होता है। उसमें चारित्र मोह- विभंगावधि । नीयका उदय भी विघ्न नहीं कर सकता।
इसी भावको नियमसारमें इस प्रकार स्पष्ट किया शुद्ध श्रात्माके अनुभवकी सम्यग्दर्शनके साथ हैव्याप्ति है । सम्यग्दर्शनके होने में दर्शन मोहनीयका अनु- सरणाणं चदुभेयं मदिसुदमोही तहेव मणपज । दय ही मूल कारण है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि अण्णाणं तिवियप्पं मदियाई भेददो चेव ॥
आत्माको मलिन करनेमें मोहनीय कर्म प्रधान-कारण अर्थात्-संज्ञानके चार भेद हैं-मति, श्रुत, अवधि है । शानावरण कर्मके उदयसे ज्ञानगुणमें विकार नहीं और मनःपर्यय ज्ञान । विभावज्ञान अर्थात् अज्ञानके तीन भाता; किन्तु ज्ञानका अभाव हो जाता है । जहाँ ज्ञान भेद हैं कुमति, कुश्रुत, कुअवधि । गुणमें विकार आता है, वहाँ मिथ्यात्वके संसर्गसे ही आचार्य कुंदकुंदके इस कथनसे स्पष्ट हो जाता है, पाता है। प्राचार्य कुन्दकुन्दने भी इसी भावको नियम- किशानको विभावरूप सिर्फ मोहनीयके कारण कहा सारमें इस प्रकार प्रगट किया है-- - . गया है । यद्यपि शान पर मोहनीयका कोई खास असर "जीवो उवमो गमभो उवमोगो णाणदसणो होई । नहीं होता है, फिर भी मिथ्यात्वके उदयसे ही मतिश्रुत, गाणुवमोगो दुविहो सहावणाणं विहावणाणत्ति" अवधि विभाव रूप कहलाने लगते हैं और इसीसे कुमति,
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वर्ष २, किरण []
सिद्धसेन दिवाकर
कुश्रुत, कुअवधि संशाएँ कही गई हैं । ज्ञान-सामान्यकी बिना फल दिये ही निर्जरा होनेपर, और आगामी निषेकों दृष्टि से दोनों ही समान हैं । मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय का सदवस्थारूप उपशम होनेपर (उदीरणाकी अपेक्षा) ज्ञानको विभावरूप कहनेका अर्थ इतना ही है, कि ये तथा देशघाति स्पर्धोका उदय होनेपर क्षयोपशम होता ज्ञान पूर्णशान नहीं हैं, ये सब आँशिकज्ञान हैं । आँशिक है। यहाँ देशघाति स्पर्धकोंका उदय उस ज्ञान के व्यापारतथा अपरिपूर्ण होनेके कारण इनको विभावरूप कहा में कोई व्यापार नहीं करता । वह तो अप्रकटित शानके है । तथा पूर्णज्ञानको स्वाभाविक कहा है । यहाँ विभाव रोकनेमें ही कारण है । प्रगटित ज्ञान पर किसी तरहका शब्दका यह अर्थ नहीं किया जा सकता कि इनके हस्तक्षेप नहीं करता। इससे सिद्ध होता है कि शान प्रगटित अंशको शानावरणीय कर्म घात रहा है और जितने अंशमें प्रकट है, उतने अंशमें वह स्वाभाविक उसके कारण इसमें विभावता श्रारही है । हाँ ! जहाँ है विकृत या वैभाविक नहीं है। पंचाध्यायीकारने इसी पर मिथ्यात्वका उदय रहता है, वहाँ शानको विभाव अभिप्रायसे मतिश्रुत ज्ञानको प्रत्यक्ष के समान बताया कहा जा सकता है । ज्ञान स्वतः वैभाविक नहीं है। है । यथा--
ज्ञानावरणीय कर्मसे श्रावृतशानको किसी अपेक्षासे दूरस्थानानिह समक्षमिव वेत्ति हेलया यस्मात् । विभावरूप कह सकते हैं। क्योंकि.उसके ढके हुए ज्ञानपर केवलमेव मनः सादवधिमनःपर्ययद्वयं ज्ञानम् ॥ ज्ञानावरणीव कर्मका असर है । जितने अंश पर ज्ञाना
अपि किंवाभिनिवोधिकयोधद्वैतं तदादिमं यावत् । वरणका असर नहीं है, उतने अंशमें ज्ञान प्रगट होता है।
स्वास्मानुभूतिसमये प्रत्यक्षं तत्सममिव नान्यत् ॥ तथा जितने अंश पर ज्ञानावरणका असर होता है उतने
-७०५७०६ अंशमें ज्ञान प्रगट नहीं हो सकता। ज्ञानकी प्रकटता और अप्रकटता क्षयोपशमके द्वारा होती है। क्षयोपशमका अर्थात्--अवधि और मनपर्ययज्ञान केवल मनकी लक्षण निम्न प्रकार है--
__ सहायतासे दूरवर्ती पदार्थोंको लीलामात्र प्रत्यक्ष जान देशतः सर्वतोघातिस्पर्धकानामिहोदयात् । लेते हैं; और तो क्या, मति ज्ञान और श्रुतज्ञान भी स्वाबायोपशमिकावस्था न घेज्ज्ञानं न खब्धिमत् ॥ त्मानुभूति के समय प्रत्यक्षज्ञानके समान प्रत्यक्ष हो जाते
-पंचाध्यायी, २-३०२ है, अन्य-समयमें नहीं । केवल स्वात्मानुभव के समय जो अर्थात्-देशघातिस्पर्धकोंका उदय होनेपर तथा ज्ञान होता है, वह यद्यपि मतिज्ञान है, तो भी वह वैसा सर्वघाति स्पर्धकोंका उदयक्षय होनेपर क्षयोपशम होता ही प्रत्यक्ष है, जैसा कि अात्म मात्र-सापेक्षज्ञान प्रत्यक्ष है। ऐसी क्षयोपशम अवस्था यदि न हो तो वह लब्धिरूप होता है। ज्ञान भी नहीं हो सकता।
इन प्रमाणों से यही ज्ञात होता है कि बायोपशमिक . "सर्वघातिस्पर्धकानामुदयच्यात् तेषामेव सदुपशमात् ज्ञान स्वतः विकृत नहीं होते, न कर्मोपाधि सहित होते हैं, देशघातिस्पर्धकानामुदये शायोपशमिको भावः ॥" जिससे वे वैभाविक कहे जा सकें । श्राचार्योंने जहाँ भी
-राजवार्तिक, २-५ क्षायोपशमिक ज्ञानको वैभाविक-कहा है, वहाँ उन्होंने अर्थात्--सर्वघातिस्पर्धकोंके वर्तमान निषेकोंका अपरिपूर्णता अथवा इन्द्रियादिककी सहायता लेने के
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५०२
अनेकान्त
[असाढ़, वीर-निर्वाण सं०२४६ ॥
कारण ही वैभाविक कहा है। यह कहीं भी नहीं कहा भयमोंभावमनोशाक विशिष्ट स्वयं हि सवमूर्तम् । कि शानावरण कर्मके उदयसे इनमें विकार पाया है। तेवात्मदर्शनमिह प्रत्यामतीन्द्रिक न स्यात् ॥ - भावमनको सभी प्राचार्योंने ज्ञान विशेष स्वीकार
-पंचाध्यायी, ७१८ किया है। यथा--
अर्थात्-भावमन ज्ञान विशिष्ट जब होता है, तब __ "वीर्वान्तरायनोइग्निपावरबायोपशमापेच्या भा- वह स्वयं अमूर्त स्वरूप हो जाता है। उस अमूर्त मन स्मनो विशुदि वमनः॥" -सर्वार्थसिद्धि । रूपशान द्वारा प्रात्माका प्रत्यक्ष होता है। इसलिये वह
अर्थात्-वीर्यान्तराय और जो इन्द्रियावरण कर्मके प्रत्यक्ष अतीन्द्रिय क्यों न हो ? अर्थात् केवल स्वात्माको क्षयोपशमसे अात्मामें जो विशुद्धि होती है, उसे भावमन जाननेवाला मानसिकज्ञान है, वह अवश्य अतीन्द्रिय कहते हैं।
प्रत्यक्ष है। भावमनः परिणामो भवति तदात्मोपयोगमात्रं वा। इन प्रमाणों द्वारा यह सिद्ध हो जाता है कि भावलाभ्युपयोगविशिष्टं स्वावरणस्य चयाकमाव स्यात् ॥ मन ज्ञानस्वरूप प्रात्मपरिणति है । इसमें ज्ञानावरण
-पंचाध्यायी, ७१४ कर्मकृत विभावता नहीं आसकती, इसलिये इसे किसी अर्थात्--भावमन श्रात्माका ज्ञानात्मक परिणाम भी तरह पौद्गलिक नहीं कहा जा सकता । विशेष है। वह अपने प्रतिपक्षी आवरण कर्मके क्षय होने- आक्षेप १-भावमन जीवकी अशुद्ध अवस्थामें से लब्धि और उपयोग सहित क्रमसे होता है। उत्पन्न हुई कर्म-निमित्तक परिणति है । अतएव यह
कोंके क्षयोपशमसे आत्माकी विशद्धिको लन्धि जीवकी नहीं कही जासकती। यदि जीवकी कहना भी कहते हैं । तथा पदार्थोकी ओर उन्मुख होने को उपयोग हो तो विभावरूपसे ही उसे जीवकी कह सकते हैं, कहते हैं। बिना लब्धिरूपज्ञानके उपयोगरूप ज्ञान नहीं स्वभावरूपसे नहीं । वह तो परके निमित्त उत्पन्न हुआ हो सकता; परन्तु लब्धिके होने पर उपयोगात्मक ज्ञान हो विकारीभाव है। या न हो, कोई नियम नहीं है । मनसे जो बोध होता है, समाधान-यह बताया जा चुका है कि ज्ञान, वह युगपत् नहीं किन्तु क्रमसे होता है मन मूर्त और ज्ञानावरणीय कर्मके उदयसे नहीं होता, किन्तु क्षयोपशमअमूर्त दोनों पदार्थोंको जानता हैजानता है
से होता है। इसमें ज्ञानावरणीय कर्मका उदय कारण तस्माविमनवचं स्वात्मग्रहणे किलोपयोगि मनः। नहीं, किन्तु अनुदय ही कारण है। उसी प्रकार भावमन कि विशिवशायां भवतीह मनः स्वयं ज्ञानम् ॥ भी ज्ञान विशेष है जो अपने प्रतिपक्षी कर्मके अनुदयसे
-पंचाध्यायी, ७१६ होताहै । इसलिये इसे परके निमित्तसे उत्पन्न हुआ अर्थात्-इसलिये यह बात निर्दोष रीतिसे सिद्ध विकारी भाव कहना योग्य नहीं है। हो चुकी कि स्वात्माके ग्रहणमें नियमसे मन उपयोगी आक्षेप २-संसारी आत्माको जब कथंचित् मूर्तिक है। किन्तु यह मन विशेष अवस्थामें (अमूर्त पदार्थ स्वीकार किया गया है तो भावमनको ज्ञानस्वरूप मानते ग्रहण करते समय ) स्वयं भी अमूर्तज्ञान रूप हो जाता हुए भी कथंचित् पौद्गलिक मान लेनेमें कोई आपत्ति है इसी विषयको फिर और भी स्पष्ट किया है-- नहीं होना चाहिये।
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वर्ष २, किरण
ब्रह्मचर्य
५०३
समाधान-संसारी आत्मा कर्मसे श्रावृत रहता है, शममें जिन पदार्थोंका शान रहता है, वह ज्ञान क्षामिक इसलिये उसे मूर्तिक स्वीकार किया गया है। जब आत्मा अवस्थामें भी रहताहै । सानका प्रभाव नहीं होता, यह कर्मसे श्रावृत नहीं रहता, उस समय उसे अमूर्तिक ही क्षायिक रूपमें बदल जाता है, उसी प्रकार शुख अवस्थाकहा जाता है । भावमन (ज्ञानविशेष) पर उसके प्रति- में यद्यपि भावमन संज्ञा नहीं रहती फिर भी उस शानका पक्षी कर्मका आवरण नहीं है, किन्तु अपने प्रतिपक्षी अभाव नहीं होता इसलिये शुद्ध अवस्थामें भी भावमन कर्मका अनुदय ही है । अतः भावमनको पौद्गलिक नहीं उपलब्ध होना चाहिये यह प्रश्न ही नहीं उठता । अतः माना जासकता।
. भावमनको पौद्गलिक मानना ठीक नहीं है । इस विषयप्राक्षेप ३-यदि भावमन सर्वथा जीवको मान को यहाँ अधिक विवादमें न डालते हुए इतना कहना लिया जावे तो श्रात्माकी शुद्ध अवस्थामें भी वह उप- ही पर्याप्त होगा कि भावमनको सभी विद्वान् ज्ञानात्मक लब्ध होना चाहिये।
स्वीकार करते हैं । तथा संसारमें ऐसा कोई भी प्राणी समाधान-भावमन ज्ञानस्वरूप है । यह नोइन्द्रिया- नहीं जो कभी भी शानशून्य अवस्थामें रहता हो । सूक्ष्म वरण कर्मके क्षयोपशमसे होता है, इसलिये इसकी भाव- निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीवके भी उत्पन्न होने के प्रथम मन संज्ञा है । शुद्ध अवस्थामें ज्ञान क्षायिक होता है, समयमें स्पर्शन-इन्द्रिय जन्य मतिशानपूर्वक लब्ध्यक्षरइसलिये भावमन संज्ञा नहीं होती । ज्ञानसामान्यकी रूप श्रुतज्ञान होता है । अर्थात् इतना क्षयोपशम सभी दृष्टिसे दोनों समान हैं। क्षायोपशमिक अवस्था में जो संसारी प्राणियोंके होता है, इस क्षयोपशमका कभी ज्ञान होता है,वही ज्ञान क्षायिक अवस्थामें भी होता है। विनाश नहीं होता। इस प्रकार इन प्रमाणोंके द्वारा अन्तर केवल पूर्णता और अपूर्णताका होता है। जिन यह सिद्ध होजाता है कि भावमन सभी संसारी प्राणियोंपदार्थोको हम मति-श्रुतशान के द्वारा अांशिक जानते हैं, के होता है। तथा भावमन भी श्रुतज्ञानका आधार केवली उन पदार्थों को सिर्फ श्रात्माके द्वारा पूर्ण रूपसे माना जाता है। जानते हैं। वह अांशिकशान भी उसी पूर्णशानमें अतः जैनाचार्योंने सभी संसारी प्राणियोंके मति सम्मिलित ही है उसकी सत्ता नष्ट नहीं होती । क्षयोप- और श्रुतज्ञान माने हैं, इसमें विरोध नहीं पाता ।
ब्रह्मचर्य "संयमी और स्वच्छन्दके तथा भोगी और त्यागीके जीवन में भेद अवश्य होना चाहिये । साम्य तो सिर्फ उ.पर ही ऊपर रहता है। भेद स्पष्ट रूपसे दिखाई देना चाहिये। आँखसे दोनों काम लेते हैं। परन्तु ब्रह्मचारी देव-दर्शन करता हैं, भोगी नाटक सिनेमामें लीन रहता है । कानका उपयोग दोनों करते हैं, परन्तु एक ईश्वर-भजन सुनता है और दूसरा विलासमय गीतोंको सुनने में
आनन्द मनाता है । जागरण दोनों करते हैं, परन्तु एक तो जागत अवस्थामें अपने हृदय-मन्दिरमें विराजित रामकी आराधना करता है, दूसरा नाच रंगकी धुनमें सोनेकी याद भल जाता है । भोजन दोनों करते हैं, परन्तु एक शरीर को तीर्थ-क्षेत्रकी रक्षा-मात्रके लिये कोठे में अन्न डाल लेता है और दूसरा स्वादके लिये देह में अनेक चोजोंको भर कर उसे दुर्गन्धित बनाता है।" -महात्मा गांधी
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अहिंसाकी समझ मन शेण
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(ले०-श्री किशोरखामजी मरास्वाना] क बार मेरे एक मित्र अपनी पत्नी और S लड़कोंके साथ नदी पर गये थे । साथमें मैं । और दूसरे भी मित्र थे । मुझे और मित्र-पत्नीको नहाना नहीं था, इसलिये हम किनारे पर बैठकर देखते रहे । दूसरे भी दो-चार देखने वाले थे ।
और सब नदीमें उतरे । मित्रके लड़कोंमेंसे एक तैरना नहीं जानता था, और उस दिन कुछ | सीखनेकी वह कोशिश करता था । लड़का १६१७ वर्षका था. और मेरे मित्र उसे ध्यान देकर सबक़ दे रहे थे । अगर कुछ गहरे पानीमें ले जाते थे, तो ठीक सम्हाल लेते थे। दूसरे सब गहरे तैरनेवालोंके मजे पर लगा था, तब माताका ध्यान पानी में जाकर नदीमें तैरनेका मजा लूट रहे थे। इस लड़केकी हलचल पर ही जमा हुआ था।
थोडी देर तक लड़केको अभ्यास कराके मेरे दूसरे देखने वालों और इस देवीमें क्या भेद मित्र भी उसे कम पानीमें छोड़कर दूसरोंके साथ था? क्यों उसका ध्यान इस लड़केके नीरस प्रयत्नों होलिये । लड़का अकेला अपने आप थोड़ा थोड़ा पर ही एकाग्र था ? दूसरोंकी तरह वह क्यों दूरके तैरनेकी कोशिस कर रहा था । घाटपरके देखने तैरनेवालोंकी हिम्मतको नहीं देखती थी? वालोंका ध्यान नदीमें मजा करने वालोंकी ओर अगर कोई देवी इसे पढ़ेगी तो वह कहेगी, यह लगा हुआ था । लेकिन, इसमें दो आँखोंका क्या सवाल है ? यह तो विल्कुल स्वाभाविक है ! अपवाद था। ये दो आँखें तो उस लड़के पर ही उसकी जगह हम और हमारा लड़का वहाँ होता, तो लगी हुई थीं। 'देखो' वहाँ पानी ज्यादा है', वहाँ हमारी दशा भी वैसी ही होती हम तो समझती ही जरा सम्हलो', 'अरें' इस बाज़ आजाओ ना !- नहीं कि इसमें सवाल उठाने योग्य कौनसी चीज है ? 'कैसा बैवकूफ है ! कहा कि उस बाजू नहीं जाना लेकिन, सवाल तो यों उठता है कि तब सब चाहिये, फिर भी उसी बाजू चला जाता है !- देखनेवालोंकी मनोदशा वैसी क्यों नहीं थी ?इस तरहकी सूचनाओंकी धारा माताजीके मुखसे जवाब यह है कि दूसरे देखने वाले सिर्फ आँखोंसे निकला करती थी। लड़का कुछ घबराता नहीं था। देखते थे, हृदयसे-और माताके हृदयसे नहीं उसे यह ग़रूर भी था कि अब तो मैं जवान हूँ, देखते थे । इसलिये अांखोंको जो मजेदार बच्चा नहीं हूँ, मैं अपने आपको अच्छी तरह मालूम होता था, उस ओर उनका मन भी खिंचा सम्हाल सकता हूँ , और माता फिजूल ही चिंता जाता था । माताकी दशा अलग थी। उसकी करती है और टोका करती है। लेकिन, माता अांखें स्वतंत्र नहीं थीं । वे उसके हृदयसे बँधी लड़केकी नजरसे थोड़े ही देखती थी ? उसका हुई थी और वह हृदय इस समय अपने नौसिखुए पति वहाँ तेरता था। बड़ा लड़का भी तैरता था,वे लड़के पर प्रेमसे चिपका हुआ था। मध्य-प्रवाहमें थे। वास्तवमें यदि कुछ जोखिम था अगर पाठक माता और दूसरे दर्शकोंके तो उन्हें था। पर, वह जानती थी कि वे दोनों हृदयके इस भेदको समझ सकें, तो वे अहिंसाको तैरनेमें कुशल हैं, यह लड़का नहीं है । वह समझ सकेंगे। सब प्राणियोंकी ओर उस हृदयसे सोलह सालका भले ही हुआ हो, उसकी दृष्टिमें देखना, जिस हृदयसे वह माता अपने लड़केकी इस पानीमें वह साल भरका बच्चा मालूम होता ओर देखती थी, इसीम अहिसाकी समझ है। था । इसलिये जब दूसरे देखने वालोंका ध्यान उन
(हिन्दुस्तान गान्धी अङ्क १९३८)
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जय वीर
[खेखक भी 'भगवत्' जैन]
(१)
'त्राहि-त्राहि'-ध्वनि विश्व-मण्डलमें व्यापक थी- नभ कांपता था दीन-हीनोंकी पुकारोंसे ! छलियोंका माया-जाल सत्यताके रूपमें थाव्यग्र सदाचार था घृणित कुविचारोंसे !! क्षीण हो रही थी आत्म-शक्ति क्षण-प्रति-क्षणपाशविकताके तीक्ष्ण घातक-प्रहारोंसे ! दुखी था, विकल था, विवश था अतीव यों किवंचित था प्राणी जन्म-सिद्ध अधिकारोंसे !!
राक्षसी-प्रवृतीने हृदयको बनाया बज्रलूटा बुद्धि-बल सारा अन्धानुकरणने ! नर-मेघ-यज्ञमें भी 'दुख'का न भान हुभास्वर्ग-सुख बतलाया लालसा-किरणने !! प्रेम-प्रतिभाकी रम्य, नेत्र-प्रिये वाटिकाएँकरडालीं उजड़ कठोर-आक्रमणने ! 'वीरता' को मोल लिया 'भीरुता' की दृढ़तानेमानवीयताको लिया निंद्य-आचरणने !!
हँसता-सा 'पाप' पूज्य-आसन विराजता थाभरता था-पुण्य-पड़ा-पड़ा सिसकारियाँ ! धर्म-सी पवित्रता 'अधर्म' से कलंकितथीमौज मार रही थीं कुरूप-बदकारियाँ !! नारकीयता थी द्रुत-गतिसे पनप रहीसूखी-सी पड़ी थीं भव्यतर दया-क्यारियाँ ! पशु-बल रहता अट्टहासमें निमग्न, परचलती थीं नित्य दीन-गलों पै कटारियाँ !!
अत्याचार अनाचार दुराचार नाचते थेविश्वकी महानताके ऊपर प्रहार था ! दुखसे दुखित आर्तनाद उठते थे नित्य'पाप' का असह्य धरणी पै एक भार था !! क्षीण थीं शुभ आशाएँ प्रसस्त था पतन-मार्गमृत 'प्रात्म-तोष' था सजीव 'हाहाकार' था ! ऐसे ही समयके कठोर बज्र-प्रांगणमेंहुआ—दयामय-प्रभु वीर-अवतार था !!
हिंसाकी लपट होम-कुण्डमें धधकती थीग्राहक बना था एक दूसरेकी जानका! धर्मकी 'दुहाई' में 'नृशंसता' विराजती थीघोटा जा रहा था गला 'आत्म-अभिमान' का !! ज्वाला जलतीमें मूक-पशु होम देते जो किपाते वह निर्दयी थे पद पुण्यवान का! सत्यको प्रकट करना भी था दुरूह कार्यदीख पड़ता था दृश्य विश्व-अवसानका !!
पतझड़ हुआ अन्त भागया बसन्त मानोंसूखी-सरिताओंमें सलिल लहराया हो । मृत्यु-सी 'अरुचि में 'सुरुचि-पूर्ण जीवन होयाकि 'रुग्णता' में 'स्वस्थ-जीवन' समाया हो !! मिला हो दरिद्रको कुवेरका समग्र-धनयाकि भक्त पूजकने पूज्य-पद पाया हो । दानवी निराशा-सी निशाके श्याम-अंचलमेंआशाका दिवाकर प्रभात बन पाया हो ।।
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५०६
अनेकान्त
[असाद, वीर-निर्वाण सं०२४६५
उषाने सजाया थाल रवि हुआ लाल-लालमुँह खुल गए हर्ष प्रेरित सुमनके । गाने लगे गीत व्योम-गामी मद मत्त हुएजान कर चिन्ह मानों प्रभु-भागमनके !! ताल देने लगे 'पत्र' हर्षसे विभोर हुएसाथी बनगए शक्तिशाली समीरणके ! सुखद समय बना शान्तिसे प्रपर्ण तबजन्म ले रहे थे जब भूषण-भुवनके !! .
(१०) विश्वकी विभूति वीर-अभुने अहिंसा-मंत्रफंक कर थाम लिया विश्व हल-चलसे !! जागरूक बनके ज़मानेको जगाया औरजगको बचाया कष्टकारी पाप-मलसे !! मानवीयता का बतला दिया रहस्य सारादिये सद्-उपदेश प्रेमसे, कुशलसे ! काम-क्रोध-मोहसे अजीत बन गए जबजीत लिया सारा ही जहान आत्म-बलसे !!
नर्क-धाममें भी कुछ देरको विषाद मिटानर-लोक, सुर-लोक फिर क्या कथनमें ? मंगल-प्रभातके प्रमोदमें निमग्न थी किअनुभव होने लगी शल्य एक मनमें !!दीखे जब एक-साथ सूर्य दो बसुन्धराकोपड़ गई तभी वह भारी उलझनमें! । त्रिसलाके अंकमें प्रकाश-पुञ्ज सूरज हैयाकि सूर्य-विम्ब दिश प्राचीके गगनमें ?
(६) दोनों हैं प्रकाश-युञ्ज दोनों हैं परोपकारीदोनों भरते हैं रस प्राणोंमें उमंगका ! दोनोंका है ध्येय एक साधन भी एक ही हैदोनोंका प्रचार-कार्य एक ही प्रसंगका !! अन्तर है इतना कि एक तो निरन्तर' हैएक, एक-दिन ही में होता तीन ढंग का ! एक हरता है सिर्फ अन्धकार बाहरकाएक हर देता है अंधेरा-अन्तरंग का!!
अत्याचारियोंके अत्याचार सब धूल हुएहिंसा दुराचारिणीकी संघ-शक्ति विघटी ! चन्द्रिका-सी शांन्ति जागरित हुई जगतीमें-- हाहाकार-ज्वाला भीरुताके साथ सिमटी !! हर्षसे विभोर उठा--'पुण्य' लिये पौरुषको-- 'पाप'की समस्त-शक्ति देखते उसे हटी ! एक नव जीवन-सा विश्वमें दिखाने लगाजैसे ही दयाकी नव्य, भव्य-क्रान्ति प्रकटी !!
(१२) फैल उठी विश्वमें भ्रातृत्व प्रखर-ज्योतिपात्र बन गया 'द्रोह' लोक-उपहासका ! जीवनका ध्येय, ज्ञान-तत्वका पढ़ाया पाठउपदेश दिया कर्मवीरोंको प्रयासका !!
आत्मकी समानताका लोकोत्तर-ज्ञान द्वारा-- मार्ग बतलाया पूर्ण आत्मके विकाशका ! कहना यथेष्ट यही, सत्यवीर-शासन' ने-- पृष्ठ ही पलट दिया विश्व इतिहास का !!
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जैन-दृष्टिसे प्राचीन सिन्ध
[ लेखक-मुनि श्री विद्याविजयजी ] जैनधर्मके प्रचारका मुख्य आधार जैनसाधुओंके और गढ्डा रोडसे लगभग ७०-८० मील दूर,
ऊपर निर्भर है । सदा पैदल भ्रमण करना, गौडी मंदिर नामका एक गाँव है । इस समय वहाँ सब तरहकी सवारीसे मुक्त रहना, सांसारिक सिर्फ भीलोंकी ही बस्ती है। शिखरबन्द गोडीजीप्रलोभनोंसे दूर रहना, रूखा सूखा जो कुछ का मंदिर है । मूर्ति आदि कुछ नहीं है। मंदिर मिला उससे संतष्ट रहना. स्त्रियोंके संसर्गसे जीर्ण शीर्ण हो गया है। सरकारने उसकी मरम्मत अलग रहना, इत्यादि अनेक तरहके कड़े नियम कराई है। आजसे बीस वर्ष पहले नगर ठट्टाके होने पर भी, प्राचीन समयसे लेकर आज तक असिस्टेण्ट इन्जीनीयर श्रीयुत फतेहचंदजी बी इदजैनसाधुओंने विकटसे विकट और भंयकरसे नाणी वहाँ जाकर खुद देख आए थे। और सरभंयकर अटवियाँ. पर्वत. नदी, नाले और रेगि- कारी हुक्मसे उसमें क्या ठीक-ठाक करना जरूरी स्तानोंका उल्लंघन कर दूर दूरके देशों तक बिहार है, उसका इस्टीमेट तैयार कर आये थे। मंदिरके किया है और करते हैं । सिन्ध देशमें भी किसी पास एक भूमि-गृह है । उसमें उतरनेकी उन्होंने समय जैनधर्मकी पताका पूर्ण जोशमें फहरा रही कोशिसकी थी, लेकिन भीलोंके भय दिखलानेसे थी। संसार वन्ध जैनाचार्योंसे यह भूमि पावन वे रुक गए । गोडीजीके मंदिरके कोट आदिके बनती थी। सिन्ध देशमें किसी समय ५०० जैन पत्थर उमरकोटमें एक सरकारी बंगलेके वरण्डे मंदिर थे, ऐसा भी उल्लेख मिलता है । मुसलमानों आदिमें लगाये गये हैं। के राजत्व कालमें भी इस देशमें जैन साधुओंने सत्तरहवीं शताब्दिके बने हुए एक स्तवनमें सूश्राकर राजाओं पर अपने चारित्रकी छाप डाली रतसे एक संघ निकलनेका वर्णन है। संघ अहमदाथी। जैनधर्मके पालने वाले श्रीमन्तोंने जैनधर्मकी बाद, आबू, संखेश्वर, और राधनपुर होकर सोई, प्रभावनाके अनेक कार्य किये थे, ऐसा जैन- जो कि सिन्धमें प्रवेश करनेके लिये गुजरातके इतिहाससे साबित होता है।
नाके पर है-वहाँसे रण उत्तर कर सिन्धमें जा शायद ही किसीको मालूम होगा कि आज रहा था। लेकिन वहाँसे आगे बढना दुष्कर गोडी पार्श्वनाथके नामसे जो प्रसिद्धि हो रही है, मालूम होने से वहीं ठहर कर उसने गोडीजीकी उस गोडीजीका मुख्य स्थान सिन्धमें ही था, भावपूर्वक स्तुति की । गोडीजी महाराजने संघको और है। नगरपारकरसे लगभग ५० मील दूर दर्शन दिया । संघ बड़ा प्रसन्न हुआ । चार दिन
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५०८
अनेकान्त
[आषाद, वीर-निर्वाण सं०२४६५
तक वहाँ स्थिरता करके-उत्सव करके पीलुडीके जैनाचार्योंकी लिखी हुई प्राचीन पट्टावलियों माडके नीचे गोडीजीके पगले स्थापन करके, संघ और प्रशस्तियों में ऐसे सैंकड़ों प्रमाण मिलते हैं कि वापिस राधनपुर लौट आया।
जिनसे जैनाचार्योंके सिन्धमें विचरनेके उल्लेख ___ इस स्तवनकी हस्तलिखित प्रति शान्तमूर्ति पाये जाते हैं। प्राचीनसे प्राचीन प्रमाण वि. सं. मुनिश्री जयचन्दविजयजी महाराजके पास है। पूर्व प्रायः ४०० के समयका है। जिस समय रत्न___ इसके अलावा प्राचीन तीर्थ मालाओंसे भी प्रभसूरिके पट्टधर यक्षदेवसूरि सिन्धमें आये थे गोडीजीका मुख्यस्थान सिन्ध होना मालूम और सिन्धमें आते हुए उनको भयंकर कष्टोंका पड़ता है। आज तो गोडी पार्श्वनाथकी मूर्ति प्रायः मुकाबला करना पड़ा था। इस यक्षदेव सूरिके कई मंदिरों में देखनेमें आती है।
उपदेशसे कक्क नामके एक राजपुत्रने जैनमंदिर आजका उमरकोट एक वक्त सिन्धमें जैनोंका निर्माण किये थे और बादको दीक्षा भी ली थी। मुख्य स्थान था। आज भी वहाँ एक मंदिर और ककरिके समयमें मरुकोटके किलोंकी जैनोंके करीब पन्द्रह घर मौजूद हैं।
खुदाई करते हुए नेमिनाथ भगवानकी मूर्ति मीरपुर खासके नजदीक 'काहु जो डेरो' का निकली थी । उस वक्त मरुकोटका मांडलिक राजा स्थान कुछ वर्षों पहले खोदनेमें आया था, उसमेंसे काकू था । उसने श्रावकोंको बुलाकर मूर्ति दे दी बहुत प्राचीन मूर्तियाँ निकली हैं । उनमें कुछ जैन थी। श्रावकोंने एक सुन्दर मंदिर बनवाया और मूर्तियाँ होनेकी भी बात सुनी है।
ककसूरिके हाथसे उसकी प्रतिष्ठा करवाई। __मारवाड़की हुकूमतमें गिना जाने वाला विक्रम राजाके गद्दी पर आनेके पहलेकी एक जुना बाडमेर और नया बाडमेर ये भी एक समय बात इस प्रकार हैजैनधर्मकी जाहोजलालीवाले स्थान थे; ऐसा मालवेकी राजधानी उज्जयनीका राजा गर्दवहाँके मंदिर और प्राचीन शिलालेख प्रत्यक्ष भिल्ल महाअत्याचारी था। जैन साध्वी सरस्वतीको दिखला रहे हैं।
अपने महलमें उठा ले गया । जैन-संघने गर्दभिल्लको __ इसके अलावा दूसरे ऐसे अनेक स्थान हैं कि बहुत समझाया. लेकिन वह नहीं माना। उस वक्तके जहाँसे जैनधर्मके प्राचीन अवशेष मिलते हैं। . महान् आचार्य कालकाचार्यने भी बहुत कोशिश
जिस देशमें जैनधर्मके प्राचीन स्थान मिलते की, लेकिन वह गर्दभिल्ल न समझा । आखिरमें हों, जिस देशमें मंदिर और मूर्तियोंके प्राचीन कालकाचार्यने प्रतिज्ञा की कि-'राजन् ? गहीसे अवशेष दृष्टिगोचर होते हों, उस देशमें किसी उखेड़ न डालूँ, तो जैनसाधु नहीं ।' त्यागीसमय जैनसाधुओंका बिहार बड़े परिमाणमें हुआ जैनाचार्य प्रजाके पितृतुल्य गिने जानेवाले राजाका हो यह स्वाभाविक है। और जहाँ जहाँ जैनसाधु यह अत्याचार सहन नहीं कर सके । राजाकी विचरे हों, वहाँ वहाँ कुछ न कुछ धार्मिक पाशविकतामें प्रजाकी बहन-बेटियोंकी पवित्रता प्रवृत्तियाँ हुई हों, यह भी निःसंदेह है। कलङ्कित होती देखकर कालकाचार्यका खून उबल
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वर्ष २, किरण ]
जैन-दृष्टिसे प्राचीन सिन्ध
५०६
माया ।लाचार उज्जयनी छोड़ते हैं, और भनेक जसा नामके एक दानी भावकने बड़ा उत्सव किया परिषहोंको सहते हुए सिन्धमें आते हैं । सिन्धु था। यहाँके श्रावकोंने एक मंदिर बनवाया और नदीको पारकर वे'साखी' राजाभोंसे मिलते हैं। ये उपाध्यायजीने उसकी प्रतिष्ठा की। 'साखी' वे कहे जाते हैं. जो 'सिथिन' के नामसे वि० सं० १२२ में इस महकोटमें जिन-पति प्रसिद्ध हैं। सिकन्दरके बाद सिथिन' लोगोंने सूरिने तीन आदमियोंको दीक्षा दी थी। 'विज्ञप्ति सिन्ध जीता था । कालकाचार्य भिम-भिन्न स्थानोंमें त्रिवेणी' में मरूकोटको 'महातीर्थ' के नामसे संबोकुल ९६ 'साखी' राजाओंसे मिलते हैं, और उनको धित किया है। मालवा तथा दूसरे प्रान्त दिलानेकी शर्त पर वि० सं० १२८० में जिनचन्द्रसूरिने उपनगरसौराष्ट्र में होकर मालवेमें ले जाते हैं। गर्दभिल्लके में कुछ स्त्री-पुरुषोंको दीक्षा दी थी। साथ युद्ध होता है। गर्दभिल्लको गहीसे उतार दिया वि० सं० १२८२ में प्राचार्य सिद्धसूरिने उपजाता है। और उन 'शक' राजाओंको मालवा और नगरमें शाह लाधाके बनवाये हुए मंदिरकी प्रतिष्ठा दूसरे दूसरे प्रान्त कालकाचार्य बाँट देते हैं। और की थी। उस समय वहाँ ७०० घर जैनोंके थे। स्वयं तो साधुके साधु ही रहते हैं।
वि० सं० . १२९३ में प्राचार्य कमसूरिका इस तरह कालकाचार्यका सिन्ध देशमें आना चतुर्मास मरुकोट (मारोट ) में हुआ था। 'चोरयह पुरानी घटना है और जैनइतिहासमें एक डिया' गोत्रके शाह काना और मानाने सात लाखमनोखी वस्तु गिनी जाती है।
का द्रव्य व्यय करके 'सिद्धाचलजी' का संघ वि० सं०६८४ में प्राचार्य देवगुप्तसूरिने सिन्ध निकाला था। प्रान्तके राव गोसलको उपदेश देकर जैन बनाया वि० सं०१३०९ में सेठ विमल चन्द्रने जिनेश्वरथा। इसकी परंपरा विक्रमकी चौदहवीं शताब्दि सूरिके पास नगरकोटमें प्रतिष्ठा करवाई थी। तक सिन्धमें थी। आस्त्रिर उसकी पेढीमें 'लणा- वि० सं०१३१७में प्राचार्य देवगुप्तसूरि सिन्धमें शाह' नामका गृहस्थ हुआ. जो मारवाड़में चला आये और रेणुकोटमें चतुर्मास किया। ३०० घर गया और उसका कुल 'लुणावत' के नामसे प्रसिद्ध नये जैनोंके बनाये और महावीरस्वामीके मंदिरकी
प्रतिष्ठा की। वि०सं० ११३०के आसपास महकोटमें जो कि वि० सं० १३४५ में प्राचार्य सिद्धिसूरिके प्रा. अभी'मरोट' के नामसे प्रसिद्ध है, जिनवमसूरिने ज्ञाकारी जयकलश उपाध्यायने सिन्धमें बिहार करके एक मंदिरकी प्रतिष्ठा की थी, और उपदेशमालाकी बहुतसे शुभ कार्य कराये थे। एक गाथा पर ६ महीने तक व्याख्यान दिया था। वि० सं० १३७४में देवराजपुरमें राजेन्द्र चन्द्राइस शताब्दीमें जिनभद्र उपाध्यायके शिष्य-वाचक चार्यका 'आचार्यपद' और बहुतोंकी दीक्षा हुई थी। पद्मप्रभ भी त्रिपुरादेवीकी आराधना करनेके वि० सं० १३८४में जिनकुशलसूरिने क्यासपुरमें लिये सिन्धमें पाये थे। वे डंभरेलपुरमें गये थे। और रेणुका कोटमें प्रतिष्ठा की थी।
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अनेकान्त
[आषाढ़, वीर-निर्वाण सं०२४६५
तक वहाँ स्थिरता करके उत्सव करके पीलुडीके जैनाचार्योंकी लिखी हुई प्राचीन पट्टावलियों झाडके नीचे गोडीजीके पगले स्थापन करके, संघ और प्रशस्तियोंमें ऐसे सैंकड़ों प्रमाण मिलते हैं कि वापिस राधनपुर लौट आया।
जिनसे जैनाचार्योंके सिन्धमें विचरनेके उल्लेख इस स्तवनकी हस्तलिखित प्रति शान्तमूर्ति पाये जाते हैं। प्राचीनसे प्राचीन प्रमाण वि. सं. मुनिश्री जयचन्दविजयजी महाराजके पास है। पूर्व प्रायः ४०० के समयका है। जिस समय रत्न
इसके अलावा प्राचीन तीर्थ मालाओंसे भी प्रभसूरिके पट्टधर यक्षदेवसूरि सिन्धमें आये थे गोडीजीका मुख्यस्थान सिन्ध होना मालूम और सिन्धमें आते हुए उनको भयंकर कष्टोंका पड़ता है। आज तो गोडी पार्श्वनाथकी मूर्ति प्रायः मुकाबला करना पड़ा था। इस यक्षदेव सूरिके कई मंदिरोंमें देखनेमें आती है।।
उपदेशसे कक्क नामके एक राजपुत्रने जैनमंदिर आजका उमरकोट एक वक्त सिन्धमें जैनोंका निर्माण किये थे और बादको दीक्षा भी ली थी। मुख्य स्थान था। आज भी वहाँ एक मंदिर और कक्कसूरिके समयमें मरुकोटके किलोंकी जैनोंके करीब पन्द्रह घर मौजूद हैं।
खुदाई करते हुए नेमिनाथ भगवानकी मूर्ति मीरपुर खासके नजदीक 'काहु जो डेरो' का निकली थी। उस वक्त मरुकोटका मांडलिक राजा स्थान कुछ वर्षों पहले खोदनेमें आया था, उसमेंसे काकू था। उसने श्रावकोंको बुलाकर मूर्ति दे दी बहुत प्राचीन मूर्तियाँ निकली हैं। उनमें कुछ जैन थी। श्रावकोंने एक सुन्दर मंदिर बनवाया और मूर्तियाँ होनेकी भी बात सुनी है।
ककसूरिके हाथसे उसकी प्रतिष्ठा करवाई। मारवाड़की हुकूमतमें गिना जाने वाला विक्रम राजाके गद्दी पर आनेके पहलेकी एक जूना बाडमेर और नया बाडमेर ये भी एक समय बात इस प्रकार हैजैनधर्मकी जाहोजलालीवाले स्थान थे; ऐसा मालवेकी राजधानी उज्जयनीका राजा गर्दवहाँके मंदिर और प्राचीन शिलालेख प्रत्यक्ष भिल्ल महाअत्याचारी था। जैन साध्वी सरस्वतीको दिखला रहे हैं।
अपने महलमें उठा ले गया। जैन-संघने गर्दभिक्षको इसके अलावा दूसरे ऐसे अनेक स्थान हैं कि बहुत समझाया, लेकिन वह नहीं माना। उस वक्तके जहाँसे जैनधर्मके प्राचीन अवशेष मिलते हैं। . महान् आचार्य कालकाचार्यन भी बहुत कोशिश
जिस देशमें जैनधर्मके प्राचीन स्थान मिलते की, लेकिन वह गर्दभिल्ल न समझा । आखिरमें हों, जिस देशमें मंदिर और मूर्तियों के प्राचीन कालकाचार्यने प्रतिज्ञा की कि-'राजन् ? गद्दीसे अवशेष दृष्टिगोचर होते हों, उस देशमें किसी उखेड़ न डालूँ, तो जैनसाधु नहीं ।' त्यागीसमय जैनसाधुओंका बिहार बड़े परिमाणमें हुआ जैनाचार्य प्रजाके पितृतुल्य गिने जानेवाले राजाका हो यह स्वाभाविक है। और जहाँ जहाँ जैनसाध यह अत्याचार सहन नहीं कर सके । राजाकी विचरे हों, वहाँ वहाँ कुछ न कुछ धार्मिक पाशविकतामें प्रजाकी बहन-बेटियोंकी पवित्रता प्रवृत्तियां हुई हों, यह भी निःसंदेह है। कलङ्कित होती देखकर कालकाचार्यका खून उबल
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वर्ष २, किरण ]
जैन-दृष्टिसे प्राचीन सिन्ध
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माया ।वे लाचार उज्जयनी छोड़ते हैं, और अनेक जसा नामके एक दानी भावकने बड़ा उत्सव किया परिषहोंको सहते हुए सिन्धमें आते हैं । सिन्धु था। यहाँके श्रावकोंने एक मंदिर बनवाया और नदीको पारकर वे'साखी' राजाभोंसे मिलते हैं। ये उपाध्यायजीने उसकी प्रतिष्ठा की। 'साखी' वे कहे जाते हैं. जो 'सिथियन' के नामसे वि० सं० १२२ में इस महकोटमें जिन-पति प्रसिद्ध हैं। सिकन्दरके बाद 'सिथिअन' लोगोंने सूरिने तीन आदमियोंको दीक्षा दी थी। 'विज्ञप्ति सिन्ध जीता था। कालकाचार्य भिन्न-भिन्न स्थानोंमें त्रिवेणी' में मरूकोटको 'महातीर्थ' के नामसे संबोकुल ९६ 'साखी' राजामोंसे मिलते हैं, और उनको धित किया है। मालवा तथा दूसरे प्रान्त दिलानेकी शर्त पर वि० सं० १२८० में जिनचन्द्रसूरिने उपनगरसौराष्ट्र में होकर मालवेमें ले जाते हैं। गर्दभिल्लके में कुछ स्त्री-पुरुषोंको दीक्षा दी थी। साथ युद्ध होता है। गर्दभिलको गहीसे उतार दिया वि० सं० १२८२ में प्राचार्य सिद्धसूरिने उपजाता है । और उन 'शक' राजाओंको मालवा और नगरमें शाह लाधाके बनवाये 'हुए मंदिर की प्रतिष्ठा दूसरे दूसरे प्रान्त कालकाचार्य बाँट देते हैं। और की थी। उस समय वहाँ ७०० घर जैनोंके थे । स्वयं तो साधुके साधु ही रहते हैं।
वि० सं० . १२९३ में प्राचार्य ककसूरिका ___इस तरह कालकाचार्यका सिन्ध देशमें आना चतुर्मास मरुकोट (मारोट ) में हुआ था। 'चोरयह पुरानी घटना है और जैनइतिहासमें एक डिया' गोत्रके शाह काना और मानाने सात लाखमनोखी वस्तु गिनी जाती है।
का द्रव्य व्यय करके 'सिद्धाचलजी' का संघ वि० सं०६८४ में आचार्य देवगुप्तसूरिने सिन्ध निकाला था। प्रान्तके राव गोसलको उपदेश देकर जैन बनाया वि० सं०१३०९ में सेठ विमल चन्द्रने जिनेश्वरथा। इसकी परंपरा विक्रमकी चौदहवीं शताब्दि सूरिके पास नगरकोटमें प्रतिष्ठा करवाई थी। तक सिन्धमें थी। आखिर उसकी पेढीमें 'लणा- वि० सं०१३१७में प्राचार्य देवगुप्तसूरि सिन्धमें शाह' नामका गृहस्थ हुआ. जो मारवाड़में चला आये और रेणुकोटमें चतुर्मास किया। ३०० घर गया और उसका कुल 'लुणावत' के नामसे प्रसिद्ध नये जैनोंके बनाये और महावीरस्वामीके मंदिरकी हुआ।
प्रतिष्ठा की। वि०सं० ११३०के आसपास मरुकोटमें जो कि वि० सं० १३४५ में प्राचार्य सिद्धिसूरिके श्राअभी मरोट' के नामसे प्रसिद्ध है, जिनवल्लभसूरिने झाकारी जयकलश उपाध्यायने सिन्धमें बिहार करके एक मंदिरकी प्रतिष्ठा की थी, और उपदेशमालाकी बहुतसे शुभ कार्य कराये थे। एक गाथा पर ६ महीने तक व्याख्यान दिया था। वि० सं० १३७४में देवराजपुरमें राजेन्द्र चन्द्राइस शताब्दीमें जिनभद्र उपाध्यायके शिष्य-वाचक चार्यका 'प्राचार्यपद' और बहुतोंकी दीक्षा हुई थी। पद्मप्रभ भी त्रिपुरादेवीकी आराधना करनेके वि० सं० १३८४में जिनकुशलसूरिने क्यासपुरमें लिये सिन्धमें आये थे । वे डंभरेलपुरमें गये थे। और रेणुका कोटमें प्रतिष्ठा की थी।
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अनेकान्त
[आषाद, वीर-निर्वाण सं० २४६५
वि० सं० १३८९ में जिनकुशलसूरि सिन्धके थे । मंदिर बहुत थे। जैनधर्मकी प्रभावनाके अनेक देराउल नगरमें स्वर्गवासी हुए थे। और उनके कार्य होते थे । दीक्षाएँ और प्रतिष्ठाएँ होती थीं। शिष्य जिनमाणक्यसूरि गुरुकी समाधिके दर्शन ऊपरके संवतोंसे हम देख चुके हैं कि वि. सं. करने गये थे । वहाँसे जेसलमेर जाते हुए पानीके पूर्व ४०० से विक्रमकी सतरहवीं शताब्दि तक अभावसे वे स्वर्गवासी हुए थे।
तक तो जैनसाधुओंका विहार और जैन-घटनाएँ . वि०सं०१४६० में भुवनरत्नाचार्यने द्रोहदट्टामें बराबर सिन्धमें होती रही हैं। चौमासा किया।
इसी प्रकार सतरहवीं शताब्दिके बाद भी वि० सं० १४८३ में जयसागर उपाध्यायने साधु सिन्धमें विचरे हों, इस सम्बन्धमें जब तक मम्मर वाहन में चौमासा किया था। कुछ प्रमाण न मिलें तब तक हम यह मान सकते __ वि. सं. १५८३ में फरीदपुरसे नगरकोटकी हैं कि अखिरके लगभग ३०० वर्षोंसे साधुओंका यात्रा करनेके लिये एक संघ निकला था। भ्रमण सिन्धमें बन्द रहा होना चाहिये। . _ वि.सं.१४८३में जयसागर उपाध्याय माबारख- एक स्पष्टीकरण करना आवश्यक है। उपयुक्त पुरमें आयेथे । उस वक्त यहाँ श्रावकोंके १०० घर थे। जिन-जिन गाँवोंमें जैनसाधुओंके आनेका और
वि.सं.१४८४ में जयसागर उपाध्यायने मलीक- जैन घटनाओंके घटनेका उल्लेख किया गया है वे माहनपुर में चौमासा किया था।
सभी गाँव अभी सिन्धमें हैं, ऐसा नहीं है। उनमें, वि. सं. १४८४ में जयसागर उपाध्यायने से बहुतसे गाँवोंका तो अभी पता भी नहीं है । कांगड़ामें आदिनाथ भगवान्की यात्रा की थी। कुछ गाँव भावलपुर स्टेटमें है, कुछ पंजाबमें है
सोलहवीं शताब्दिमें जिनचन्द्र-सूरिके शिष्य कुछ राजपूतानेमें है, और कुछ तो ठेठ सरहदके जिनसमुद्रसूरिने सिन्धमें 'पश्चनदकी' साधना ऊपर हैं । ऐसा होनेका एक ही कारण है और वह की थी।
यह, कि सिन्धकी हद अभी जितनी मानने में __वि. सं. १६५२ में जिनचन्द्रसूरि पंचनदको आती है उतनी पहले नहीं थी । पंजाब, अफगामाध करके देराउल नगर गये थे। जहाँ जिन- निस्तान, वायव्य सरहद, बलचिस्तान, भावलपर, कुशलसूरिके पगलेके दर्शन किये थे।
राजपूताना, और जेसलमेर, इनका बड़ा भाग __वि. सं १६६७ में समय सुन्दरसूरिजीने उच्च- सिन्धके ही अन्तर्गत था, और इसीलिये उन सब नगरमें 'श्रावक-श्राराधना' नामके प्रन्थको रचना गाँवोंका समावेश सिन्धमें किया है। की थी
इन सब बातोंको देखते हुए यह कहना सरा___ इसके अतिरिक्त मुलतान, खोजावाहन, परशु- सर ग़लत मालूम होता है कि ढाई हजार वर्षमें रोड कोट, तरपाटक, मलीक वाहनपुर गोपाचल- कोई जैनसाधु सिन्धमें नहीं आये हैं । बेशक पुर कोटीमग्राम, हाजीखा-डेरा, इस्माइल-खाँ डेरा, नैऋनकोट, जो कि अभीका हैद्राबाद है वहाँ था । मेहरानगर, खारबारा, दुनियापुर, सकीनगर, नया- एक समयका दस-बीस मच्छीमारोंका छोटासा नगर, नवरंगखान, लोदीपुर आदि अनेक ऐसे गाँव घडबोबंदर जो कि वर्तमानमें कराचीके नामसे गांव हैं, जहाँ अनेक जैन घटनाओंके होनेके मशहूर है, वहाँ किसीके आनेका प्रमाण नहीं उल्लेख, पट्टावलियों और दूसरे ग्रन्थोंमें उपलब्ध मिलता है। बाकी सतरहवीं शताब्दि तक सिन्ध होगे हैं।
जैनसाधुओंके बिहारसे पुनीत था । यह बात इस परसे यह स्पष्ट मालूम होता है कि किसी निश्चित है । समय सिन्ध में बहुत बड़ी तादादमें साधु विचरते
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अहिंसा परमोधर्मः
श्री. भगवत् जैन
y umrumum
*MEMIZMrumrum जब नारकीयता नष्ट हो जाती है, मनोचन जागरित हो, वीरत्वकी वांछनीय-सत्क्रान्तिका सन्देश : एं सुनानेके लिए अग्रसर हो जाता है, अनुदारता अवसान गृहण कर लेती है और भ्रातृत्व समग्र , संसारमें व्यापक रूपसे फैल जाता है,तभी मानवीय-कोमलता पुकार उठती है-'अहिंसा परमोधर्मः !'' NL-IN-IN-IN-IN-WL-ININ-INLaws []
पहिलेकी जीर्ण-तर इमारतकी तरा-सएहर बनपतिद्वन्दी 'महाबल' को पराजितकर महाराज-सुधर्म गया ! स्वयं महाराज भी इस माकस्मिक घटनासे
अपनी राजधानी-पंचाल देशान्तर्गन वरशक्ती- प्रभावित हुए बगैर न रह सके ! थोदा खीझे भी, नगरी-को लौटे । जैसे ही दुर्ग-द्वारमें प्रवेश करने लगे, मल्लाये भी ! पर यह सोच-बात किसीके हाथकी कि अचानक वह विशाल दुर्ग-द्वार ढह पड़ा ! महाराज नहीं, ग़रीब कारीगरोंको दोषी ठहरामा अन्याय है!' भीतर न जा सके ! लौट भाए ! प्राकारके बाहर ही ...चुप हो रहे ! शिबिर खड़े किए गए। उस दिन वहीं विश्राम निश्चित माशा हुई–'चतुर-से-चतुर शिल्पकारों द्वारा ठहरा।
आमूलदुर्ग-द्वार बनवाया जाए. मोटे मोटे पत्थर, बोहेकी दूसरे दिन फिर नगर-प्रवेशके लिए महाराजकी सलाखें और क्रीमती-मसालोंसे, या जिस प्रकार सम्भव सवारी चली । दुर्ग-द्वारकी आज आवश्यक-मरम्मत हो हो उसकी दृढ़तापर-मज़बूतीपर-ध्यान रखा चुकी थी ! स्वप्न में भी कोई यह सम्भावना नहीं कर जाए !'... सकता या,कि भाज भी कोई घटना घट सकेगी ! मृतक माशा. · पालनमें क्या देर !-पूर्ण-सतर्कताके प्राय जीर्णताके भीतर संजीवनी-नवीनता स्थान पा संरक्षकत्वमें कार्य प्रारम्भ हुमा और थोदेही समयमें, चुकी थी इसलिये!
अगणित-श्रमिकोंके भविश्राम-परिश्रमने, उसे बना कर लेकिन तब लोगोंके भाश्चर्यका ठिकाना न रहा, तैय्यार करदिया ! ऐसा-जिसकी मजबूती पर विश्वास जब उन्होंने प्रत्यक्ष देखा कि जैसे ही महाराज दुर्ग-द्वारके किया जा सके, जिसकी भव्यता पर पुष्टि चुम्बककी समीप पहुंचे कि वह एक दम टूट पड़ा ! एक-पण तरह-अमिन बन सके ! पहिले जिसके मजबूत होनेकी चर्चा थी, वही सदियों तीसरी बार स-दल-बल महाराज अपने निवास
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अनेकान्त
[आषाढ़,वोर-निर्वाण सं०२४६
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स्थानके लिए पजे ! पिछली दोनों घटनाएँ भान प्रधान सचिवका नाम था-'अपदेव !' यह थे स्वप्न-अस्तित्वसे अधिक महत्त्वशालिनी न थीं ! वह इस 'चार्वाक मत' के अनुयायी (वाममार्गी) ! या गों लिए कि माज वैसी ममंगल-कल्पना करना जहाँ नैतिक कहिये महाराजके पालित-धर्मसे ठीक उबटे ! १६ की कायरता थी, वहाँ इस-सुन-नवीनताके प्रति भवि- तरह, एकका मुंर इधर तो दूसरेका उधर ! महाराजकी श्वसनीय भावना भी !
अटूट श्रद्धा-भक्ति जैन-धर्मके लिए थी तो मंत्री महोदयउपाकी सुनहरी-किरणोंसे मुक्ति होनेवाले कोकनद- की चाक-मतके लिए !"निभी चली जाने की वजह की भॉति महाराजका मुख माज प्रफुल्लित है ! उनके थी-महाराजकी पशस्विनी न्याय-प्रियता ! वह प्राप्तहृदयमें एक विचित्र-प्रकारको मानन्द-मन्दाकिनी अधिकारों का दुरुपयोग करनेके परमें मथे ! नहीं हिलोरें ले रही है ! स्वदेश-प्रेम, स्वपरिवार-मिलन, और किसीको धर्म-परिवर्तन करने के लिए मजबूर करना प्रिय-भावास सभी हदयमें एक सुखद-भान्दोलन मचा उनकी मादत थी ! उनके शासनकी विशेषता साम्परहे हैं ! प्रति-पण वृद्धिंगत होने वाली उत्सुकता- दायिकता न होकर, न्याप थी ! वह एक धर्मात्मा, प्रजा माकर्षण-है उसकी सहकारी !
पर पुत्र-सी ममता रखनेवाले, म्याषी शासक थे ! पर.....१
___ उनकी राज्य-सीमाके बच्चे-बच्चे तकके हृदयमें यह कैसी दुर्घटना ? –कैसा इन्द्र-जाल ? ... उनके प्रति प्रेम था, श्रद्धा थी, और था-विश्वास ! भाश्चर्य-जनक!
माज की तरह राज-मोह, मसहयोग, सत्याग्रह और नजदीक ही था कि महाराज की सवारी दुर्ग-द्वारमें दमन, दुर्नीति काममें खानेकी तब किसीको जरूरत प्रवेश करती, कि उसी समय यह ध्रुव, विशाल, वज्र- ही महसूस न होती थी ! सुख-चैनके थे वे दिन ! तुल्य प्रवेश-मार्ग धराशायी हो जाता है ! धूल के गुब्बारे हाँ, तो मंत्रीजीकी भज्ञा राजा साहिबकी धार्मिउड़ते हैं, मोटे-मोटे पत्थर-पतझड़ की तरह जमीन कताओंका क्या शान? उनका उत्तर अपने निजी रष्टिपर भा रहते हैं, मार्ग अविरुद्ध हो जाता है ! महाराज- कोण द्वारा ही तो हो सकता था, वही हुमा !"यह को लौटना पड़ता है ! लौटते हैं-उदास-चित्त, विस्मय, राजनैतिक-समस्या न थी जो मंत्रीजीके परामर्श द्वारा विज्ञासा और विविधि-प्रान्तियोंका बोझ लेकर ! शीघ्र निर्णय पा जाती!
अहिंसा-धर्मकी मान्यतापर पूर्ण विश्वास रखने महाराज ! यह एक बाधा है-देवी-वाघा ! पापवाले, साधु-प्रकृति महाराज सुधर्म शिविरमें भाकर को उचित है कि इसका निराकरण करें। नहीं, यह माकस्मिक घटनामों द्वारा सृजित वस्तु-स्थिति पर अधिक भी अनिष्ट करदे तो भारचर्य की बात नहीं !' विचार करते हैं !...
'फिर उपाय..?" 'भापकी रायमें इन देवी-घटनाओंका क्या प्रयो- उपाय यह है कि आप एक पुरुषकी माहुति देकर जन हो सकता है? और अब, ऐसी विपरीत परिस्थिति- देवीको प्रसन्न करें ! बिना ऐसा किए मेरा अनुमान है में मुझे क्या करना चाहिए ?'-महाराजके दुखित कि संकट दूर न हो सकेगा ! दुर्ग-द्वारका, भापके चित्तसे निकला!
प्रवेश करनेकी चेष्टा करते ही, रह पहना देवीकी साता
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वर्ष २, किरण ६]
अहिंसा परमोधर्मः
को साफ प्रगट करता है।'
अन्याय है, और है उसकी पाल्माका हनन !' बिकनीरवता!
'उचित है! परन्तु शासन-व्यवस्थाको सुख रखने के जो बात सुननी पदी, वह महारानकी कल्पनासे लिए, आपका नगर प्रवेश अनिवार्य है। और यह तभी बाहरकी बात थी ! एक धका-सा लगा, उनकी मान- हो सकता है जब एक मानवीय-रकपारा द्वारा वीयताको ! अरुचिकर-पदार्थकी तरह बात गलेसे देवीको प्रसन्न किया जाए!' नीचे उतर गई ! और फिर भीतर पहुंचकर उसने जो 'मोक् ! मैं नहीं चाहता-सचिव ! ऐसे राज्य को ! ज्वाला दहकाई उससे मुखाकृतिको-महाराज प्रकृति- जिसके लिए मुझे निरपराध, प्रजाके एक पुनके रक्तसे रूप न रख सके ! अधरोंकी भारतमा भाँखोंकी भोर हाथ रँगने पडें !"नगर-प्रवेशको मैं अनिवार्य नहीं बढ़ चली ! मोठों पर थिरकने वाली मुस्कराहट, प्रकम्पन मानता ! मैं जहाँ रहूंगा-वहीं मेरा राज्य ! दुर्ग-द्वार, रूप दिखलाने लगी और हृदयकी स्पन्द गति करने लगी नगर, सब-कुछ प्रजाके लिए है-प्रजाकी चीज़ है वह प्रलयान्त-समीरसे स्पर्द्धा !
चाहे उसे बनाये-बिगारे ! मेरा कोई सम्बन्ध नहीं ! कितना कडू मा-बूंट था- वह ! पी तो गए महा- मेरा राज्य बगैर हत्याके महान् पापको खाँधे हुए यहाँ राज उसे । लेकिन वह पचा नहीं ! बोले- रहकर भी चल सकता है ! __ 'क्या कहा ? मैं हत्या करूँ--एक मनुष्यको धर्मकी जयदेवने देखा-महाराज अपने निश्चय पर अटल दुहाई देकर अपने हागों, मार डालू-रल करूँ उसे? है तो चुप हो रहे ! क्या यह संकल्पी-पाप नहीं ? मानवीयता को ठुकराकर था भी यही उचित ! नारकीयता को गले लगाऊँ ?..'नहीं, यह मुझसे न हो सकेगा, पाप-पूर्ण उपाय करनेसे निरुपाय बैठ रहना, मैं समझता हूँ कहीं अच्छा है...!'
दूसरे दिन की बात है-- ____ हो सकता है किन्हीं अंशोंमें यह भी ठीक !'- नगरके सभी समृद्धिशाली, प्रतिष्ठित व्यक्ति महावाक्-पटु जयदेवने मुँहपर थोड़ी हँसी लाते हुए राजनै- राजसे मिलने पाए ! यह थे जनताके प्रतिनिधि-- तिक-गंभीरता मागे रखी--'लेकिन मेरा ख़याल है कि पंच-गण ! जिनके हाथमें होती है सामानिक-शक्तियोंराज-काजमें इतनी धार्मिक-सतर्कता नहीं बरती जा- की बागडोर । सकती ! सब-कुछ करना पड़ता है-इसमें छल-प्रपन्च कहने लगे--'महाराज ! विना भापके नगर सूना भी, हत्याएँ भी. नर-संहार भी! इसलिए कि राजाका है ! जीव-हीन शरीरकी भाँति उसमें न उखास शेष है जीवन सार्वजनिक जीवन होता है ! और धार्मिक- न चैतन्यता ! भापको चरण-रज-द्वारा शीघ्र नगरको नियंत्रण होता है-व्यक्तिगत !'
सौभाग्यवान् बनाना चाहिए ! बौर ऐसा हुए हमें 'मगर वह राजा होकर व्यक्तित्व को खो तो नहीं सन्तोष नहीं !' बैठता ?.."स्व-पर-लाभकारी उचित मांग भी वहन महाराजके सामने पह प्रजाकी पुकार थी ! पा सके। यह कैसा बन्धन ? यह तो उसके प्रति जिसकी अवहेलना भाज तक उन्होंने नहीं की! यह
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. अनेकान्त
[अाषाढ़, वीर-निर्वाण सं० २४६५
सोचने लगे-'अब ?-एक ओर प्रजाका भाग्रह है, अपनी ग़रीब-प्रजाकी अभिलाषाको वियोगाग्नि द्वारा दूसरी भोर घोर-पाप ! और निर्णय है मेरे अधीन- न दहकाइए--महाराज !' जिसे चाहूँ अपनाऊँ ! कठिन समस्या है ! 'भाग्रह' की महाराज मौन! रखाके लिए मुझे पाप करना होता है ! पुत्र-सी प्रजाके फिर धीरेसे बोले--'तो' एक बेगुनाहका खून बहाना पड़ता है ! नारकीय-कर्म- इस 'तो?' ने प्रतिनिधियोंका बढ़ाया साहस ! को-मनुज्यताके सन्मुख- तरजीह देनी होती है ! वह बोले--'प्रजाकी पुकार पर ध्यान देना आप जैसे और उधर-एक महान पापसे पारमाको बचाया जाता न्यायाधीशोंका ही काम है ! महाराज, भाप जिसे पाप है ! वीरत्वकी महानताको अक्षुण्ण रखा जाता है ! कह रहे हैं, हम उसे प्रजाकी भलाई समझ रहे हैं ! अनधिकार चेष्टा, राक्षसी-वृत्तिसे मुंह मोड़कर मानवी- इतना ही फ़र्क है। अतः प्रजा-हितके लिए उस यता और स्व-धर्मका सन्मान किया जाता है।' 'उपाय'की सारी ज़िम्मेदारी हमारे ऊपर! आप निश्चिन्त
-और आखिर महाराजका धर्म-पूर्ण, न्यायी-हृदय रहें हम सब-व्यवस्था कर लेंगे। आपसे कोई वास्ता 'निश्चय' पर रद रहता है !
नहीं ! 'मेरा नगर-प्रवेश एक ऐसी समस्यामें उलझा हुआ महाराजने उदास-चित्त हो कहा--- कि उसे मैं समर्थ होते भी नहीं सुलझा सकता!'- 'लेकिन....."पाप"....!' । महाराजने संक्षेपमें कहा ।
अविलम्ब-उत्तर मिला-'वह भी हमारे सिर! वे लोग तो चाहते ही थे कि महाराज कुछ अपने पुण्यके मालिक आप और पापके हम ! बस...! मुँहसे कहें तो अवसर मिले । बोले
___ महाराज चुप ! कैसी विडम्बना है ? फिर बोले'हम लोग उस 'समस्या' से अविदित हो सो 'तुम जो समझो करो ! मुझसे कोई सरोकार नहीं !' बात नहीं ! हमें उसका पूरा ज्ञान है । और सब सोचनेके बाद--जिस नतीजे पर पहुंचे हैं वह यही है कि आपको वह उपाय करना ही चाहिये ?...'
लोभको प्रोत्साहन देनेके लिये एक तरकीब निकाली ___ 'करना ही चाहिए ?--मुझे एक निरपराधके विक- गई ! जीवन जो मोल लेना था-पशु-पक्षियोंका नहीं, सित-जीवनका अन्त ! उसके गर्म-रक्तसे दुर्ग-द्वारको मनुष्यका ! उसी मनुष्यका जो ज्ञान रखते हुए भी दूसरे सुद्ध ? और अपने कल्याण-कारी-धर्मका ध्वंस ? नहीं, प्राणोंको ले लेनेमें अनधिकार चेष्टा नहीं समझता ! मैं ऐसा नहीं कर सकता !: 'कोई भी प्रास्म-सुखा- जो अपने ही सुखको सुख समझनेका भादी होता भिलाषी हिंसा जैसे जघन्य-पाप को नहीं कर सकता!... है!... मेरा राज्य रहे या जाए, मुझे इसकी चिन्ता नहीं!...'- बनाई गई एक स्वर्णकी मनुष्याकार मूर्ति ! फिर किया ____ लेकिन इसकी चिन्ता हमें है ! हम अपने प्यारे, गया उसका शृंगार, जवाहरातके क्रीमती अलंकारोंसे ! प्रजा-प्रिय, न्यायवान शासककी छायाको अपने ऊपरसे कैसी मनोमुग्धता थी उसमें ! कि देखते ही हृदय नहीं उठने दे सकते ! इसीलिए प्रार्थना है-'भाप उसे पास रखने के लिए लालायित हो उठता ! कलाकार
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वर्ष २, किरण ६]
अहिंसा परमोधर्मः
की प्रशंसनीय-कलाका प्रदर्शन था । और थी समृद्धि- पर भरोसा कर, कार्य अपने हायमें लिया वह धोखा शालियोंकी उदारताका परिचय!
दिये जा रही है।' एक भव्य-रथमें उसे स्थित किया गया ! और रथ रथके लिए अभी थोड़ा क्षेत्र और शेष था ! वह चला नगर परिक्रमाके लिए! सभी प्रतिष्टित-जन साथ आगे बढ़ा-अपनी प्रारम्भिक गतिके अनुसार! थे!
___ सामने थे, नारकीय-जीवन बितानेवाले निर्धनोंके आगे आगे घोषणा होतीजाती--सरस और उतंग- मोहल्ले ! दरिद्र नेत्रोंके लिए धन-राशि देखना तक स्वरमें !-'इस मूर्तिको लेकर जो अपना जीवन देना दुरीह ! 'सब, एकटक रथकी ओर देखने लगे। अपूर्व चाहे वह सामने आए !'...
अवसर था उनके लिये ! घोषणा सुनी! मन तो खल___कुछ मूर्तिको देखते, प्रसन्न होते और बस ! कुछ चाया भव्यमूर्ति के लिए, लेकिन जीवन-माना कि प्रमोदी-जिनपर लक्ष्मीकी कृपा थी-मूर्तिको खरी- नारकीय था, भार-रूप था-देना उन्हें भी न रुचा! दनेके लिए व्यग्र हो उठते ! लेकिन जैसे ही उसके मूल्य पता नहीं, उस कष्ट-पूर्ण घड़ियोंसे उन्हें क्यों मोह था, पर ध्यान जाता, दृष्टिको सीमित कर, दसरी योर क्यों ममत्व था? मुखातिब होते ! और रथ आगे बढ़ता !...
-और दिन छिपने लगा, रथ आगे बढ़ने लगा! कौन ख़रीदता इनना मॅहगा सौदा ? विपुल-धन-राशि और जीवन !!!
उसी नरक-कुण्ड में एक कोना उसका भी था! नाम हाँ, जीवन ! वही, जिसके लिए घणितसे पणित था-वरदत्त शर्मा! जिन्दगी-भर परेशानियों और प्रभाकर्म, सहर्ष कर लिए जाते हैं ! अच्छे-अच्छे सभ्य जिसके वोंसे लड़ने वाला वह एक गृहस्थ था ! जैसी कि विषमता लिए धूर्ती-लम्पटोंकी सिजदा-बन्दना-करते नहीं
प्रायः दृष्टिगत होती रहती है कि समृद्धिशाली प्रयत्नशर्माते ! जो संसारकी सबसे बड़ी-क्रीमती-वस्तु पूर्वक भी पिता नहीं बन पाते और जिनके पास प्रभातहै ! वही जीवन था उसका-मूल्य !
भोजनके बाद, सान्ध्य-भोजनकी सामग्री भी शेष नहीं, नगरके प्रायः सभी पथ, रथके पहियोंसे अङ्कित हो
न
वह
वह व्यक्ति रहते हैं समय-अ-समय कीड़े-मकोड़ोंकी चके ! शाम होने पाई. किन्तु सौदा न पटा ! किसीके तरह उत्पन्न होनेवाले बच्चोंसे परेशान !" पास एकसे अधिक-ममत्व हीन-जीवन था ही नहीं तो ग़रीब बरदत्तके एक नहीं, दो नहीं—पूरे सात जो देता ! जो था, वह उसे इस विपुलधन राशिसे भी
सर पुत्र थे ! छोटे पुत्रका नाम था-इन्द्रदत्त!
पुत्र अधिक मूल्यवान जैचा ! जैसे 'जीवन' ख़रीदनेके लिए
जैसे ही रथ उसके घरके पाससे निकला और इतना द्रव्य कुछ है ही नहीं!...
सूचनासे वह परिज्ञानित हुआ कि भागा घरको ! अधिकारी-व्यक्तियोंकी 'पाशा' जैसे दिनके साथ
स्त्री भी ललचाई-नज़रोंसे रथको देख कर भभी साथ ही अस्त होने लगी ! दिवाकरकी तरह मुख- ही दर्वाज़ेसे हटी थी ! कि सामने उसके पति ! मण्डल होगये निस्तेज! हृदय में एक पीडा-सी उत्पीडन बोली- 'क्यों ।' देने लगी।–'अब क्या करना चाहिए, जिस शक्ति सुना नहीं देखा नहीं ?--किमान हमारे लिए
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अनेकान्त
[आषाढ़,वोर-
निर्वाण सं०२४६५
कितना अच्छा अवसर है ! अगर हम इन्द्रदत्तको बदले जैसे उसका मुंह माशा-निराशाका निवास भवन बना में देकर इतनी विभूति पा सकें तो क्या-से-क्या हो दिया गया हो! सकते हैं क्यों ? हैन यही...?
_ 'मैं अपने इस पुत्रको देकर यह अपरमित-धनबी ने देखा-- भविष्यकी मधुर, सुखद-कल्पना राशि देना चाहता हूँ ! '-अ-मादर्श पिता-मुखने उसके सामने नाच रही है-कितना जुभावक कि जहरीले- शब्द उगले लेकिन उधर ब्रियमाण-हदयोंने उसके मातृत्वकी ममता भी बे-होश, संज्ञा-हीन हो रही उसे संजीवनीकी भाँति ग्रहण कर हर्ष मनाया ! है ! उसने मंत्र-मुग्धकी तरह कहा- 'हाँ!'
"मौर..? - शर्माजीका मार्ग जैसे प्रशस्त हुमा--अब उनकी और दूसरी ही मिनट रथमें-उस निर्जीव, किन्तु भावनामों को दौड़ने के लिए कानी गंजाइश थी ! बहुमूल्य मूर्तिके स्थान पर बैठा था- सश्रृंगार वनाबोले, सुशीके बोझसे दबे हुए--स्वरमें !-
भूषण पहिने--इन्द्रदत्त ! ___ 'कितना धन है--वह ! कुछ ठीक है ? जीवन रथ चला !-- दुर्ग द्वारकी भोर ! सबके मुख पर एक दूसरे प्रकारका हो जायेगा, दिन चैनसे कटेंगे! प्रसन्नता थी ! जैसे उलझी हुई गंभीर समस्याका हल,
और पुत्रकी क्या है ?-अगर हम-तुम सही-सलामत उन्हें विजयके रूपमें मिल गया हो, या मिली हो रहे तो-हर साल प्रसूति ! हर वर्ष बच्चे !!...' उद्देश्यको भाशातीत-सफलता !
दोनों खुश ! अतीव प्रसा!
इन्द्रदत्तने सुनी- बातें ! तो सोचने लगा, दुर्ग-द्वारके समीप ! - छोटा-सा बच्चा, दार्शिनिककी तरह ! - 'वाहरे- अपार जन-समूह ! विचित्र कौतु-हल और गंर्भर.. लोभ ! आश्चर्य उपस्थित कर दिया तूने ! कैसी निनाद !... और था-- एक निरपराध-बेकुसूर-- विडम्बना है ?-- कैसी महत्ता है संसारकी ?... पिता ब्यक्तिकी बलिका पूर्ण आयोजन ! पुत्रको बेचता है, मौतके हाथ, धनके लिए ! म बन्न सभी उपस्थित थे !- प्रोहित, पण्डे, पुजारी, मातृत्व भी कुछ नहीं ठहरता । जो कुछ है--. स्वार्थ ! इन्द्रदत्त और उसके माता-पिता ! तथा समस्त नागरिक केवल स्वार्थ !!'
पंच! महाराज भी विराजे हुए थे--एक मोर ! नित्या"वरदत्त भावाज़ देता है, मुक्त-कण्ठसे- स्थ- पेक्षा कुछ अधिक-गंभीर ! या कहें उदास ! उनकी इच्छा संचालकोंको रथ रुकता है ! खौट कर भाता है विरुख एक सुवासित, विकसोन्मुख-फूलको मसला जा उसके दवाजे पर ! उसे समझता है वह गौरव, दुर्लभ- रहा था, यह था उनकी उदासीका सबब ! महोभाग्य ! इतनी विभूति, इतने माननीय-प्रतिष्ठित- नियमानुसार काम चल रहे थे ! कि अचानक पुरुष उसके द्वार पर खड़े हैं, क्या इसे कम सौभाग्य महारानकी एष्टि जापनी इन्द्रदत्त पर !-- बात समझ-- वह ?--- और समझे भी तो क्यों ? यह हँस रहा था ! जबकि सभी अधिकारीजन उसके मुँहकी भोर देख क्यों...?--मत्यु गोद फैलाये प्रतिपख बढ़ती चली रहे है--विदेखें क्या भाती है--माशा या निराशा- भारही है ! इतना समीप भा चुकी है कि एक कदम
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वर्ष २, किरण ]
अहिंसा परमोधर्मः
रखा नहीं कि इन्द्रदत्तका अस्तित्व-स्वप्न ! फिर हँसने- 'महाराज दम-साधे सुनने लगे ! बाखककी बातों में का कारण ?."ऐसा साहसिक, धैर्यवान बालक !'- बहुत-कुछ तथ्य उन्हें दिखखाई देने लगा!-- महाराजके हृदय पर एक छाप-सी लगी ! बैठे न रह 'पुत्रके सबसे पहिले संरक्षक होते हैं, उसके मांसके ! उठे ! बालकके समीप जा पहुँचे बोले:--'बच्चे! बाप ! फिर नागरिक-पंच ! इसके बाद-संरकत्वका क्यों हँसता है ? क्या तुझे मृत्युका डर नहीं ?' भार होता है--राजाके उपर !' __ 'डर ? महाराज ! दूर रहता है तभी तक उसका 'ठीक कहते हो बेटे !'--महाराजकी माँखें गीली डर लगता है ! जैसे-जैसे पास आता है डर भागता हो भाई !
बालक कहता गया--जब माँ-बापने धनलोभसे 'तो तुझे अब कोई दुख नहीं ?'
मुझे मरने के लिए बेच दिया ! उत्तर-दायित्वको ठुकरा 'दुख...'–बालक थोदा हँसा, फिर बोजा- दिया स्वाभाविक प्रेमको नृशंसता-पूर्वक काट गला! 'प्रजापति ! दुख जब सीमा उलंघ जाता है, तब दुखी. तब ?--तब सहारा लिया जा सकता था-पंचोंका ! मनुष्य उसे 'दुख' न कहकर उसका नाम 'सन्तोष' रख लेकिन मैंने देखा--पंचलोग स्वयं खरीदार है, वही मेरी देता है !'
असामयिक मृत्यु के दलाल है ! तो मैं चुप, उनके साथ महाराजका दयाई-हृदय मन-ही-मन रो उठता है चला पाया ! ख़याल किया-बस, अन्तिम-अवलम्ब-- 'यह कुसुम, मुरझानेके लिए पैदा हुआ है ?'- भारिखरी-भाशा--राजाका न्याय है,जो वह करे यह ठीक' ____ बच्चे...!'-महाराजने वात्सल्यमयी स्वरमें कहा 'सच कह रहे हो--बालक ! यही सोच सकते थे
-'क्या तू नहीं जानता कि यह समय हँसनेका नहीं, तुम !'-महाराजकी भाँखोंसे दो-द माँसू दुलक पड़े! रोनेका है?'
हृदयमें बालकके लिए श्रद्धा-सीउमद पदी ! 'जानता कृपा-निधान! लेकिन अब मेरे रोने बालकने हृदयोदगारोंका क्रम-भंग न होने दिया! और हँसनेमें कोई विशेषता नहीं...'-बालकने सरलता शायद सभी साफ-साफ कह देना उसने प्रण बमाखिया से उत्तर दिया।
होमपना-- ____ 'फिर भी रोया तो जाता ही है ऐसे समयमें किन्तु यहाँ भाकर देखने में माया, कि सारे यंत्रोंपाषाण-हृदय भी बौर रोये नहीं रह पाता ! फिर तू का संचालन महाराजकी प्रेरक-पुद्धिके द्वारा ही हो रहा -एक कोमल-बालक ही तो है!'
है! वह अपने दुर्ग द्वारको स्थिर देखनेकी मालपा'अवश्य ! लेकिन रोना भी तभी भाता है, जब तृसिके लिए--एक प्रजा पुत्रकी माहुति देने पर तुले कोई हमदर्द दीखता है ! कहीं सहानुभूति दिखलाई बैठे है !' देती है! अब मैं रोऊँ तो-क्यों? मेरी मर्याद-मेरी महाराज सब रह गए! उनका गंभीर स्वाभिमान पुकार-मेरी पीडाका सुननेवाला ही कौन है, जिसे तिलमिला उठा ! चेष्टा करने पर भी एक-शब्द उनके सुनाने के लिए रोया जाय ? जो मेरे रोने पर द्रवित हो! मुँहसे न निकला ! भूमि पर लगी हुई भालें, सावनमेरी रक्षाकी चेष्टा करे ....'
की बदली बन गई !
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अनेकान्त
[अाषाढ़, वीर निर्वाण सं०२४६५
... कुछ देर यही दशा रही ! इसके बाद द स्वरमें करूँगा ! अगर इस प्रकारकी जघन्य हत्यासे मुझे बोले-'छोड़ दो, बच्चेके प्राण ! बन्द करो यह हिंसा- स्वर्ग-राज्य भी मिले तो वह मुझे पसन्द नहीं !' का आयोजन !... ..
.."उसी समय आकाशसे देव-वाणी होती है. कर्मचारियों के हाथ ज्योंके त्यों रह गए ! रुक गया धन्य ! 'धन्य !!' । मंत्रोचारणका प्रवाह ! और सब देखने लगे चकित-दृष्टिसे महाराजके तेजस्वी-मुख-मण्डलकी ओर !
दूसरे प्रभातवह कहने लगे-'अब मुझे न दुर्ग द्वारसे मतलब नगरमें आनन्द मनाए जा रहे थे ! महाराज निर्विघ्न है, न नगरमें जानेसे ! मैं प्राकारके बाहर-बनमें ही अपने सिंहासन पर आ बिराजे ! न दुर्ग-द्वार गिरा, न सकुटुम्ब, मय लश्करके रहकर नये नगरकी स्थापना अन्य कोई दुर्घटना हुई ! सब हृदयोंमें एक ही भावना कर, शासन व्यवस्थाका संचालन करूँगा ! निरपराध थी, सब जुबानों पर एक ही चर्चा थी "अहिंसाकी प्रजा-पुत्रके रक्तसे अपनी क्षत्रिय-तलवारको कलंकित न अजेयशक्ति या उसकी दृढ़ता का महत्व !!!
जीवनके अनुभव
सदाचारी पशुओंके उदाहरण
ले--अयोध्याप्रसाद गोयलीयं (७) साँपका अलौकिक कार्य-सदाचारी पशु- ऊँटीको चराने जंगल लेंगया तो उनमेंसे एक ऊँट श्रोंके सिल्सिलेमें सरदार बेलासिंह "केहर" ऐडीटर मुझे मार डालने के लिये मेरी ओर लपका। मैं जान "कृपाण बहादुर" अमृतसरने-जो कि १३१ दफामें बचानेकी ग़रज़से भाग निकला । ऊँट भी मेरा १ वर्ष के लिये मोण्टगुमरीजेल में आए थे-बतलाया पीछा कर रहा था। मैं उसकी निगाहसे ओझल होनेके कि हमारे गाँव बिछोह (ज़ि अमृतसर) में एक बिलोची लिए एक झाड़ियोंके झुण्ड में घुसा तो वहाँ छुपे हुए बुड्ढा टेटर गाँव (ज़ि० लाहौर) का आकर रहने लगा कुएमें गिर पड़ा। उस कुएमें पानी नाम मात्रको था । था । उसका पाँव कटा हुआ था । मैंने कौतूहल वश मुझे झाड़ीमें घुसते हुए ऊँटने देख लिया था, अतः वह टाँग कटनेका कारण पूछा तो उसने बतलाया कि "हम भी वहीं चक्कर काटने लगा। कुए में पड़ने पर बमुश्किल ऊँटोंका व्यापार करते थे । हस्बदस्तूर एक रोज़ मैं मेरे होश-हवास ठीक हो पाये थे कि मुझे वहाँ दो
* ऊँट बड़ा कीनावर (बैर भावको हृदयमें बनाये रखनेवाला) होता है । मालिक या चरवाहेकी डाट-डपट किसी वक्त अगर इसे अपमान-जनक मालम होती है, तो उस वक्त चुपचाप सहन कर लेता है। मगर भूलता नहीं और अवसरकी तलाशमें रहता है। मौका मिलते ही अपमान-कारकको मारकर अपने अपमान या बैरका बदला लेलेता है।
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वर्ष २, किरण ]
हरी साग-सब्जीका त्याग
५१६
भयानक साँप दिखाई दिये । मारे घबराहटके मेरी पिग्धी घे भी मैंने इन्हीं उदाहरणोंके साथ नोट कर लिए थे । बन्ध गई। उनमें से छोटे साँपने बाहर निकलकर उस उनमेंसे कुछ इस प्रकार हैं- ... ... ... ... ऊँट को काट खाया । जिससे वह ऊँट धड़ामसे जमीन (८) सहृदयता-"कप्तान स्टेन्सवरीने अमेरिकापर गिर पड़ा । और बड़ा साँप बाहर निकलकर अपने की एक खारी झील में एक बहुत बुर और अन्य फणको काडीकी एक मजबूत टहनीमें लपेट छके हवासिल (पक्षिविशेष ) को देखा था, जिसे उसके हिस्सेको मेरे सर पर हिलाने लगा । पहले तो मैं घबड़ाया साथी भोजन कराया करते थे और इस कारण वह खूब
आखिर उसका मतलब समझकर मैं उसकी पूँछ पकड़ हृष्ट पुष्ट था । मि० ग्लिथने देखा था कि कुछ कब्वे कर बाहर निकल आया। बाहर आकर मैंने ऊँटको अपने दो तीन अन्धे साथियोंको भोजन कराते थे। मरे हुए देखा तो गुस्से में उसके एक लात मारी । वह कप्तान स्टैन्सवरीने लिखा है कि एक तेज़ करनेकी ऊँट साँपके जहरसे इतना गल गया था कि मेरे लात धारामें एक हवासिल के बच्चे के बहजाने पर आधे दर्जन मारते ही पाँवका थोड़ा हिस्सा ऊँटके गोश्तमें घुस गया हवासिलोंने उसे बाहर निकालनेका प्रयत्न किया । मैंने शीघ्रतासे पाँव निकाल लिया, किन्तु जहर बराबर डारविनने स्वयं एक ऐसे कुत्तेको देखा था जो एक पाँवमें चढ़ रहा था । मेरे भाईने पाँवकी यह हालत टोकरीमें पड़ी हुई बीमार बिल्लीके समीप जाकर उसके मुँह देखी तो दरान्तीसे मेरी टाँग काट डाली ताकि जहर को दो एकबार चाटे बिना कभी आता जाता न था।" आगे न बढ़ सके । तभीसे मैं एक पाँवसे लँगड़ा हूँ।" (६) आज्ञापालन-“पशुओंमें बड़ोका आदर
उक्त चार पाँच उदाहरणों में कितना अंश सत्य- करने और नेताकी श्राज्ञामें चलनेकी प्रवृत्ति भी पाई असत्यहै, मैं नहीं कह सकता । पहला उदाहरण मैंने जाती है । अबीसिनियाके बयून (बन्दरविशेष ) जब प्रत्यक्ष देखा और बाकी सुने है। इन्हें पाठक सत्य ही किसी बाग़को लुटना चाहते हैं तो चुपचाप अपने नेतामानें ऐसा मोह मेरे अन्दर नहीं है । उन्हीं दिनों के पीछे चलते हैं । और यदि कोई बुद्धिहीन नौजवान बा० गोवद्धनदास एम.ए. कृत और हिन्दीग्रन्थरत्नाकर बन्दर असावधानताके कारण जरा भी शोरोगुल करता कार्यालय बम्बई द्वारा प्रकाशित “नीति-विज्ञान" है, तो उसे बूढ़े बन्दर तमाचा लगाकर ठीक कर देते हैं। पुस्तक भी पढ़नेमें आई । उसमें अनेक वैज्ञानिकों द्वारा और इस तरह उसे चप रहने तथा आशा पालनकी अनुभव किए हुए पशुअोंके उदाहरण दिए गए हैं। शिक्षा देते हैं।" .
सुभाषित बड़े भाग मानुष तनु पावा । सुर दुर्लभ सद ग्रंथहि गावा। साधन धाम मोच्छ कर द्वारा । पाइ न जेहिं परलोक संवारा ॥ एहि तन कर फल विषय न भाई । स्वर्गउ स्वल्प अन्त दुखदाई । नर तन पाइ विषय मन देहीं । पलटि सुधा ते सठ विष लेहीं॥ 1 ताहि कबहुँ भल कहइ कि कोइ । गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई । में आकर चार लच्छ चौरासी। जोनि भ्रमत यह जिव अविनासी ॥
-तुलसी
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हरी साग-सब्ज़ीका त्याग
[ले० -बाबू सूरजभानुजी वकील]
मजकल जैनियोंमें हरी साग-सब्जीके त्यागका दयाधर्म तथा अहिंसावादको एक प्रकारका बचोंका
का बेहद रिवाज हो रहा है,प्रायः सब ही जैनी तमाशा ही समझने लगते हैं। चाहे वे जैनधर्म के स्वरूपको जानते हों वा न इसके सिवाय, जब वे देखते हैं कि जो लोग जानते हों, सम्यक्त्वी हों वा मिथ्यात्वी, किसी न चलते फिरते बड़े बड़े जीवों पर भी कुछ दया नहीं किसी साग-सब्जीके त्यागी जरूर होते हैं । विशेष करते, किसी कुत्ता-बिल्लीके घरमें घस जाने पर ऐसा कर अष्टमी और चतुर्दशीको तो सभी प्रकारकी लट्ठ मारते हैं कि हड्डी-पसली तक टूट जाय, बेटी हरी बनस्पतिके त्यागका बड़ा माहात्म्य समझा पैदा होने पर उसका मरना मनाते हैं, धनके जाता है। बहुत ही कम जैनी ऐसे निकलेंगे जो इन लालचमें किसी बूढ़े खूसटसे ब्याह कर उसका पर्व तिथियों में हरी साग-सब्जी खाते हों । हाँ, सर्वनाश कर देते हैं, किसी जवान स्त्रीका पति मर अपनी जिह्वा इन्द्रियकी तृप्ति के लिये ये लोग इन जाने पर उसके धनहीन होनेपर भी उसके रहनेका साग-सब्जियोंको सुखाकर रख लेते हैं और बेखटके मकान वा जेवर और घरका सामान तक बिकवा खाते हैं। सुखानेके वास्ते जब यह लोग ढेरों साग- कर उससे उपके मरे हुए पतिका नुत्ता कराते हैं और सब्जियोंको काट काट कर धूपमें डालते हैं और बड़ी खुशीके साथ खाते हैं, नाबालिग भाई भतीजेइसका कारण पूछने पर जब इनके अन्यमती की जायदाद हड़प करनेकी फिकरमें रहते हैं, घरकी पड़ौसियोंको यह जवाब मिलता है कि जीवदया विधवाओंको बेहद सताते हैं, अनेक रीतिसे लोगों पालनेके अर्थ ही इनको सुखाया जा रहा है, पर जुल्म सितम करते रहते हैं, ठगी, दगाबागी, जिससे इन साग-सब्जियोंके बनस्पतिकाय जीव मर झठ, फरेब,मंकारी, जालसाजी, कम तोलना, माल जाएँ और यह साग-सब्जियाँ निर्जीव होकर खानेके मारना,लेकर मुकर जाना,कर्ज लेकर उसको वापिस योग्य हो जाएँ, तो जैनधर्मकी इस अनोखी दयाको देनेके लिये खुल्लम खुल्ला सैकड़ों चालें चलना,और और जीव रक्षाकी अनोखी विधिको सुनकर वे भी अनेक तरहसे दुनियाँको सताना और अपना अन्यमती लोग भौंचकेसे रह जाते हैं और जैनियोंके मतलब निकालना जिनका नित्यका काम हो रहा
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वर्ष २, किरण.
हरी साग-सब्जीका त्याग
है, वे भी माग-सब्जीका त्याग करके ऐसे जीवों होकर उसकी प्रभावना स्थिर हो सके। . पर दया करनेका दावा करते हैं जो स्थावर हैं, खाने पीनेकी बस्तुचोंके त्यागका वर्णन अथात जो बिल्कुल भी हिलते-चलते नहीं हैं, जैनशास्त्रोंमें (१) अनती श्रावकके कथनमें, (२) जिससे उनमें जीवके होनेका निश्चय भी शास्त्रके अहिंसा अणुव्रतके कथनमें, (३) भोगोपभोगपरि कथनसे ही किया जा सकता है, आँखोंसे देखनेसे माणवतके कथनमें और (४) सचित्तत्यागनामकी नहीं; तो वे अन्यमती लोग जैनियोंके इस अद्भुत पाँची प्रतिमाके कथनमें मिलता है । हम भी इन दयाधर्मको देखकर इसकी खिल्ली (मजाक) ही चारों ही कथनोंको पृथक् पृथक् रूपसे खोजते हैं, उड़ाते हैं।
जिससे यह विषय विल्कुल ही स्पष्ट हो जाय । इसके अलावा आजकल मनुष्यकी नन्दुरुस्ती- यहाँ यह बात जान लेनी जरूरी है कि जैनशाखोंमें के वास्ते साग-सब्जीका खाना बहुत ही जरूरी श्रावकके दो दर्जे कायम किये गये हैं, एक तो चौथा समझा जाने लगा है। फल खानेका रिवाज भी गुणस्थानी भविरतसम्यग्दृष्टि और दूसरा पंचम दिन दिन बढ़ता ही जाता है, तब हमारे बहुतसे गुणस्थानी भणुबती श्रावक । दूसरी तरह पर सब जैनी भाई भी अपने परिणाम इतने ऊँचे चढ़े न ही श्रावकोंके ग्यारह दर्जे व ग्यारह प्रतिमाएँ देख जिससे साग-सब्जीके त्यागके भाव उनमें ठहराकर चौथे गुणस्थानी अविरत सम्यग्दृष्टिकी पैदा हो जाते हों, एक मात्र रूढिके बस दूमरोंकी तो सबसे पहली एक दर्शन प्रतिमा ही कायमकी देखा-देखी ही साग-सब्जीके त्यागको अपनी गई है और दूसरी प्रतिमासे ग्यारहवीं तक दस
और अपने बाल-बच्चोंकी तन्दुरुस्तीके विरुद्ध दर्जे पंचमगुणस्थानी अणुव्रती श्रावकके ठहराये बिल्कुल ही व्यर्थका ढकोसला समझ, ऐसे त्यागसे हैं। नफरत करने लग गये हैं, और संदेह करने लग गये हैं कि क्यों जैनधर्म में हमारे जैसे साधा
(१) अविरत सम्यग्दृष्टि रण गृहस्थियोंके वास्ते भी साग-सब्जीका त्याग (१) विक्रमकी पहली शताब्दिके महामान्य जरूरी बताया है। ऐसे ऐसे विचारोंसे ही जैन- प्राचार्य श्रीकुन्दकुन्द स्वामी चरित्रपाहुड'में लिखते धर्म पर उनकी श्रद्धा ढीली होती जाती है, और हैं कि श्रद्धानका शुद्ध होना ही सम्यक्त्वाचरण यह वस्तुस्वभाव पर स्थित तथा समीचीन तत्त्वों- नामका पहला चारित्र है, और संयम ग्रहण करना की प्ररुपणा करने वाला जैनधर्म भी एक प्रकारका दूसरा संयमाचरण चारित्र है, अर्थात् सम्यक्त्वीके रूढ़ि-बाद ही प्रतीत होने लगा है । इन सब ही श्रद्धानका शुद्ध होना ही उसका चारित्र है, यह बातोंके कारण साग सब्जीके त्यागके वास्तविक श्रावकका पहला दर्जा है, जिसके वास्ते किसी भी स्वरूपको जैनशाखोंके कथनानुसार साफ साफ त्यागकी जरूरत नहीं है फिर जब वह संयम खोल देना बहुत ही जरूरी है, जिससे सब भ्रम प्रहण करता है तब उसका दूसरा दर्जा होता है, दूर हो जाय और जैनधर्मकी तात्विकता सिद्ध जो संयमाचरण चारित्र कहलाता है । यथा
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५२२
अनेकान्त
[अाषाढ़, वीर-निर्वाण सं०२४६५
जिणणादिडिसुदं पढमं सम्माचरचारित। स्थावर किसी भी प्रकारके जीवोंकी हिंसाका विदिवं संबमचरणं जिगणावसदेसिपंतर
त्यागी है, एक मात्र जिनेंद्रके वचनोंका श्रद्धानी (२) विक्रमकी दूसरी शतालिदो महान् है वह अविरत सम्यग्दृष्टि है । यथाआचार्य स्वामी समन्तभद्र रलकरंड श्रावकाचारके यो इन्दियेसु विरवो जो जीवे यावरे तसे वापि । निम्न श्लोकमें पहली प्रतिमाधारीकी बाबत लिखते हो साहदि जिणुतं सम्माइही भविरदो सो ॥२६॥ हैं कि 'जो सम्यग्दर्शनसे शुद्ध हो, संसार, शरीर- (५) प्राचीन प्राचार्य स्वामी कार्तिकेय अपने भोगसे उदासीन हो, पंचपरमेष्टीके चरण ही जिस- अनुप्रेक्षा प्रन्थमें लिखते हैं कि 'बहुत स जीवोंसे को शरण हों, तत्वार्थरूप मार्गका ग्रहण करनेवाला सम्मिलित मद्य मांस आदि निन्द्य द्रव्योंको जो हो, वह दार्शनिक श्रावक है -
नियम रूपसे नहीं सेवन करता है वह दार्शनिक सम्पग्दर्शनशुद्धः संसारशरीरभोगनिर्विरणः। श्रावक है।' यथा-- पंचगुरुचरणशरणो दर्शनिकस्तत्वपथगृह्यः ॥१३७॥ बहुतससमरिणनं मज मंसादिणिदिदं दव्वं । (३) दूसरी शताब्दिके महान् श्राचार्य श्रीउमा- जो णय सेवदि णियमा सो सणसावनो होदि ॥३२८॥ स्वातिने भी 'तत्वार्थसूत्र' में अविरतसम्यग्दृष्टि- (६) विक्रमकी दशवीं शताब्दिके आचार्य श्री के वास्ते किसी प्रकारके त्यागका विधान नहीं अमृतचन्द्रने 'पुरुषार्थ सिद्धयुपाय' में श्रावककी किया है। किन्तु शंका कांक्षा विचिकित्सा ११ प्रतिमाका अलग अलग वर्णन न करते हुए अन्यमति प्रशंसा और अन्यमति-संस्तव ये उसके समुच्चयरूपसे ही लिखा है कि 'जो हिंसाको पांच प्रतीचार जरूर वर्णन किये हैं। इस छोड़ना चाहता है उसको प्रथम ही शराब, मांस, ही तरह पूज्यपाद स्वामीने सर्वार्थसिद्धि नामकी शहद, और पाँच उदम्बर फल त्यागने चाहिये। उसकी टीकामें, श्री अकलंकस्वामीने राजवार्तिक शहद, शराब, नौनी घी और मांस यह चारों ही नामके भाष्य और श्रीविद्यानन्द स्वामीने श्लोक- महाविकृतियाँ हैं-- अधिक विकारोंको धारण वार्तिक नामकी बृहत् टीकामें भी इन अतीचारोंके किये होते हैं, बतियोंको इन्हें न खाना चाहिये, सिवाय सम्यग्दृष्टिके वास्ते अन्य किसी त्यागका इनमें उस ही रंगके जीव होते हैं । ऊमर, कठूमर ये वर्णन नहीं किया है । तस्वार्थसूत्रका वह मूल दो उदम्बर और पिलखन, बड़ तथा पीपलके फल वाक्य इस प्रकार है
ये त्रस जीवोंकी खान हैं, इनके खानेसे त्रस जीवोंशंकाकांचा विचिकित्साम्पष्टिप्रसंसासंस्तवाः समय- की हिंसा होतीहै यदि यह फल सूखकर अथवाकाल महरतीचाए: ७-१३
पाकर त्रस जीवोंसे रहित भी होजावें तो भी उनके (४) गोम्मटसार-जीव काँडमें भी अविरतसम्य- खानेसे रागादिरूप हिंसा होती है। शराब, मांस, ग्दृष्टिके वास्ते किसी त्यागका विधान नहीं किया है। शहद और पाँच उदम्बर फल ये सब अनिष्ट और बल्कि खले शब्दोंमें यह बताया है कि 'जो न तो दुस्तर ऐसे महा पापके स्थान हैं, इनको त्याग इन्द्रयों के ही विषयोंका त्यागी है और न त्रस वा कर ही बुद्धिमान जिनधर्म ग्रहण करनेके योग्य
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वर्ष २, किरण ]
हरी साग-सब्जीका त्याग
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होता है। यथा
लगे थे-अर्थात जब कि भट्टारकयुग जारी हो मचं मांसं चौवं पञ्चोदुम्बरफलानि चलेन । गया था-जब सैद्धान्तिक चक्रवर्तीकी पदवी हिंसाम्पुपरतिकामैर्मोसन्यानि प्रथममेव ॥१॥ धारण करने वाले वसुनन्दी अपने भावकाचारमें मधु मचं नवनीतं पिशितं च महाविकृतपस्ताः । लिखते हैं कि 'जो कोई शुख सम्यग्दृष्टि पाँच सन. बलम्पन्ते न प्रतिना तपूर्णाजन्तवरतत्र ७१॥ म्बर फल और सात व्यसनोंका त्याग करता है योनिरुदम्बरयुग्मं प्लसम्यग्रोधपिप्पलफलानि । वह दार्शनिक भावक है। गूलर, बड़, पीपल,
सजीवानां तस्मात्तेचा तनावे हिंसा ॥७२॥ . पिलखन और पाकर फल, अचार और फूल, यानि तु पुनर्भवेयुः कालोच्छित्रसाणि शुष्कानि । इनमें निरंतर त्रस जीवोंकी उत्पत्ति होती है, यह भजतस्तान्यपि हिंसा विशिरागादिरूपा स्यात् ॥७३॥ त्यागने योग्य हैं । जमा, शराब, मांस, वेश्या, अष्टावनिष्टदुस्तरदुरितायतनान्यमूनि परिवर्व। शिकार, चोरी और परस्त्री ये सात म्यसन जिनधर्मदेशनाया भवन्ति पात्राणि शुदधियः ॥७॥ दुर्गतिमें ले जाने वाले हैं
(७) ग्यारहवीं शताब्दिके आचार्य श्री अंमित- पंचुंवरसहियाई सत्त वि विसणाईजो विवजेइ । गति अपने श्रावकाचारके अध्याय ५३में लिखते हैं सम्मत्तविसुरमई सोसणसावनो भविभो ॥७॥ . कि 'मद्य,मांस,मधु,रात्रि भोजन और पाँच उदम्बर उंबरवरपीपखपिवपायरसंधाणतरूपसूबाई। ... फल, इनका त्याग व्रतधारण करनेकी इच्छा करने णिचं तससंसिद्धाइं साई परिवलियम्बाई ॥५.. वाला करता है, मन-वचन-कायसे त्याग करनेसे जूचं मज मांसं वेस्सा पारबि-चोर परवार। . . व्रतकी वृद्धि होती है। नौनीधीमें अनेक प्रकारके दुमाइगमणस्सेदाणि हेठभूवाणि पावाणि ॥२६॥ जीवोंका घात होता है, जो उसको खाता है उसके इस प्रकार पुराने शास्त्रोंको बहुत कुछ हूंढ़ने लेशमात्र भी संयम नहीं हो सकता, धर्मपरायण पर भी पहली प्रतिमाधारी श्रावकके वास्ते कहीं होना तो फिर बनही कैसे सकता है ? सज्जन पुरुष किसी शास्त्र में भी एकेन्द्रिय स्थावरकाय हरी मरण पर्यतके लिये मद्य, मांस, मधु और नौनीधी सब्जीके त्यागका विधान नहीं मिलता है। पुराने का मन वचन कायसे त्याग करते हैं।' यथा.- . समयके महान् आचार्योने तो पहली प्रतिमाके लिये मद्यमांसमधुरात्रिभोजनं वीरवृक्षफलवर्ननं विधा। एकमात्र सम्यक्त्वकी शुद्धिको ही जरूरी बताया है, कुर्वते प्रतजिया सुधास्तत्र पुष्यति निषेविते मतम् ॥ इस ही कारण उनके लिये कोई किसी प्रकारका भी चित्रजीवगणसूदनास्पदं विलोक्य नवनीतमयते। त्याग नहीं लिखा है। परन्तु पीछेके प्राचार्याने तेषु संघमनवोऽपि न विद्यते धर्मसाधनपरायणतः ॥३४ मांस, शराब, शहद, और पांच उदम्बर फलका वैजिनेन्द्रबचनानुसारियो पोस्वम्मवनपातमीरवः । त्याग भी त्रसहिंसाकी दृष्टिसे. उनके वास्ते जली तैरचतुष्पमिदं विनिवितं जीवितावधि विमुच्यते विधा॥३. ठहरा दिया है। फिर और भी कुछ समय बीतने
(८) विक्रमकी बारहवीं शताब्दीमें, जबकि वन- पर प्रसहिंसासे बचनेके लिये नौनी पी और धारी भी दिगम्बर मुनि और भाचार्य माने जाने. फूलोंका त्याग भी जारी हो गया है । अन्तमें
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५२४
अनेकान्त
[प्राषाढ़, वोर-निर्वास्सं० २६६५
=
=
भट्टारकी जमानेमें अचार (संधाना) और सप्त उनके परिणाम तो साग-सब्जीके त्यागके योग्य व्यसनोंका त्याग भी इस पहली प्रतिमाके लिये हो ही नहीं सकते हैं । उनको तो सबसे पहले यह जरूरी ठहरा दिया गया है । आगे चलकर ही जरूरत है कि वे जैनधर्मके सातों तत्वोंके
आशाधरजी जैसे पंडितोंने तो अपनी लेखनी द्वारा स्वरूपको समझ, मिथ्यात्त्रको त्याग, सम्यग्दर्शन पहली प्रतिमाधारी अविरत सम्यग्दृष्टिको त्याग ग्रहणकर सच्चे श्राक्क बनें फिर अपने परिणामांम नियमोंमें ऐसा जकड़ा है कि जिससे घबराकर उन्नति करते हुए दया भावको दृढ़ करते हुए जैनी लोग अब तो पहली प्रतिमाका नाम शाबोंकी आज्ञानुसार त्याग करते हुए आगे आगे सुनकर काँपने लग जाते हैं और कह उठते हैं कि बढ़ने और आत्मकल्याण करनेकी कोशिश करें; अजी सम्यग्दर्शनका घर तो बहुत दूर है, वह जैनधर्मके स्वरूपको समझने और अपने श्रद्धान: आजकल किससे ग्रहण किया जा सकता है, और को ठीक करनेसे पहले ही जैनशास्त्रोंके बताये हुए कौन प्रतिमाधारी बन सकता है ?
सिलसिलेके विरुद्ध चलकर और वृथा ढौंग बना __ इतना होनेपर भी स्थावरकाय एकेन्द्रिय वनः कर जैनधर्मको बदनाम न करें। रूढ़ियोंके गुलाम स्पति अर्थात् सागसब्जीके त्यागका विधान पहली बन धर्मको बदनाम करनेसे तो वे पापका ही प्रतिमाधारी श्रावकके वास्ते किसी भी शास्त्र में नहीं बंध करते हैं और अपना संसार बिगाड़ते हैं। किया गया है । इस कारण यह बात तो बिल्कुल ही स्पष्ट है कि पहली प्रतिमाधारी दार्शनिक श्रावक वा
(२) अहिंसाणुव्रत दूसरे शब्दोंमें चौथे गुणस्थानवर्ती अविरत सम्य- दूसरी प्रतिमाधारीके पाँच अणुव्रतोंमें ग्दृष्टिके वास्ते किसी भी शास्त्रमें वनस्पतिकायिक अहिंसाणुव्रतका कथन जैनशास्त्रोंमें इस प्रकार एकेन्द्रिय जीवोंकी हिंसासे बचनेके वास्ते साग- किया हैसब्जीके त्यागका विधान नहीं है। कारण यह कि (१) चारित्रपाहुड़में अहिंसाणुव्रतीके लिये इस प्रतिमावालेके परिणाम ऐसे नहीं होते हैं जो सिर्फ इतना ही बतलाया है कि वह मोटे रूपसे वह एकेन्द्रिय जीवोंकी हिंसासे बच सके। पहली सजीवोंके घातका त्याग करे । यथाप्रतिमावाला तो क्या, इससे भी ऊपर चढकर थले तसकायवहे थले मोसे प्रदत्यने य । जब वह अहिंसा अणुबतका धारी होता है, परिहारो परमहिला परिम्गहारंभपरिमाणं ॥२४॥ .. तब भी उसके परिणाम यहीं तक दयारूप होते हैं (२) रखकरंड श्रावकाचारमें मन वचन काय कि वह चलते फिरते त्रस जीवोंकी संकल्पी हिंसासे तथा कृत-कारितबनुमोदनासे त्रसजीवोंकी संकल्पी बच सके-एकेन्द्रिय स्थावर जीवोंकी हिंसासे नहीं, हिंसाके त्यागेको अहिंसाणुव्रत बताया है और जैसाकि आगे दिखाया जावेगा । तब जो लोग फिर मद्य मांस-मधुके त्यागसहित पाँच अणुव्रतोंपहली प्रतिमाधारी सम्यक्त्री भी नहीं हैं, यहाँ तक को व्रती श्रावकके पाठ मूल गुण वर्णन किया है। कि.जो सम्यक्त्वी होनेसे साफ इकार करते हैं, यथा--
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वर्ष २, किरण t]
हरी साग-सब्जीका त्याग
५२५
संकल्पास्कृतकारितमननायोगत्रयस्थचरसत्वान् । धर्ममहिसारूपं संभगवन्तोऽपि चे परित्यतुम् । न हिनस्ति पत्तदाहुः स्थूलवाद्विरमणं निपुणाः॥५३॥ स्थावरहिंसामसहाबसहिंसा तेऽपि मुन्न . मयमांसमधुत्यागैः सहाणुनतपकम् ।
स्तोकेन्द्रियपाताद् गृहिण सम्पवयोग्यविषयावाम् । ' अष्टौ मूलगुणान्याहुगृहिणां श्रमणोक्षमाः ॥६६॥ शेषस्थावरमारण विरमणमपि भवति करणीयम् ॥ ७॥
(३) तत्वार्थसूत्र अध्याय ७ सूत्र ३० की (६) अमितगति श्रावकाचार अध्याय ६ में टीका करते हुए, सर्वार्थसिद्धिमें भी त्रसजीयोंके लिखा है कि 'बस और स्थावर दो प्रकारके जीवों घातके त्यागको ही अहिंसाणुव्रत बताया है.-- मेंसे त्रस जीवोंकी रक्षा करना अहिंसाणुत्रत त्रसप्राणिम्पपरोपाणाशिवृत्तः अगारीत्याचमणुव्रतम् । है । जो स्थावरकी हिंसा करता है और त्रसकी
राजवार्तिकमें भी द्वीन्द्रियादि त्रस जीवोंके रक्षा करता है, जिसके परिणाम शुद्ध हैं और घातके त्यागको ही अहिंसाअणुव्रत लिखा है- . जिसने इन्द्रियोंके विषयोंको नहीं त्यागा है वह
दीन्द्रियादीनां जंगमानां प्राणिनां व्यपरोपणात् संयमासंयमी है (श्रावक)। घरका काम करता हुआ त्रिधा निवृत्तः भगारीत्यायमणुवतम् ।
गृहस्थ मंदकषायी होता हुआ भी प्रारम्भी हिंसाको श्लोकवार्तिकमें भी दो इन्द्रिय आदिके घातका नहीं त्याग सकता है।' यथात्याग अहिंसाणुव्रत बताया है--
द्वेधा जीवा जैनैर्मताबसस्थावरादिभेदेन । स हि द्वीन्द्रियादि व्यपरोपणे निवृत्तः ।
तत्र सरक्षायां तदुच्यतेऽणुवतं प्रथमम् ॥४॥ (४) स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षाकी निम्न गाथामें स्थावरघाती जीवनससंरची विशुद्धपरिणामः । भी मन, वचन, काय और कृत,कारित,अनुमोदना- योऽक्षविषयानिवृत्तः स संयतासंयतो शेयः ॥५॥ से त्रस जीवोंकी हिंसा न करना अहिंसा अणुव्रत गृहवाससेवनरतो मंदकषायप्रवर्तितारम्भः । कहा है यथा--
भारम्भजां स हिंसां शक्तोति न रक्षितुं नियतम् ॥७॥ तसघादं जो ण करदि मणवयकाएहिं व कारयदि। (७) वसुनन्दी श्रावचाकारमें लिखा है कि 'त्रस कुब्वंतं पि ण इच्छदि पढमवयं जायदे तस्स ॥३३२॥ की हिंसा नहीं करना और एकेन्द्रियकी भी बिना
(५)पुरुषाथसिद्धयु पायमें लिखा है कि अहिंसा- प्रयोजन हिंसा नहीं करना अहिंसाणुव्रत हैरूप धर्मको सुनकर भी जो स्थावर जीवोंकी हिंसा जेतसकाया जीवा पुष्वुदिडा य हिंसयम्वा ते । को नहीं छोड़ सकता है वह त्रसको हिंसाका तो एइंदिया विणिकारणेण पडमं वयं थूलं ॥२०॥ अवश्य त्याग करे, विषयोंको न्यायपूर्वक सेवन इस प्रकार अहिंसाणुव्रतके कथनमें भी कहीं करनेवाले गृहस्थोंको थोड़ेसे एकेन्द्रिय जीवोंका एकेन्द्रिय स्थावरकाय साग-सब्जीके त्यागका जो घात करना पड़ता है, उनके सिवायअन्य विधान नहीं किया गया है-अर्थात् अणुव्रत धारण एकेन्द्रिय जीवोंके घात करनेसे तो बचें,अर्थात् बिना करनेवालोंके वास्ते भी आचार्योने साग-सब्जीके जरूरतके व्यर्थ एकेन्द्रिय जीवोंका भी घात न करें।' त्यागको उनके परिणामोंके योग्य नहीं समझा है। यथा
इस ही कारण उनको तो खुले शब्दोंमें जरूरत के
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५.२६
:
अनेकान्त
[आषाढ, वीर निर्वाण सं.२.१५
अनुसार बनस्पति मादि एकेन्द्रिय जीवोंके घात- कर सकता हूँ, तो भी इतना तो मुझे करना ही की बुट्टी देकर सजीवोंके घातको ही मनाही की चाहिये कि जो कुछ भी करूँ अपने लिये ही करूँ, गई है । अपने भावोंकी उमति करता हुआ मनुज्य दूसरोंकोतो उनके सांसारिक मामलों में किसी प्रकार जिस जिस दर्जेमें पहुँचता जाता है उस ही दर्जेके की सलाह वा सहायता न दूं। ऐसा विचार कर भावोंके अनुसार प्राचार्य उसको त्यागकी शिक्षा वह अनर्थ दंड त्याग नामका सातवाँ व्रत भी धारण देते गये हैं, यह ही जैनधर्मकी बड़ी भारी खूबी है। करता है, जिससे दूसरे लोग भी उसको उसके
__ किसी काममें सलाह और सहायता देना बन्द कर (३) भोगोपभोगपरिमाण प्रत देते हैं और वह दुनियाके लोगोंसे कुछ अलग व्रतप्रतिमाधारी गृहस्थ हिंसा, झूठ, चोरी थलग सा ही रह जाता है--संसारसे विरक्तसा ही और कामभोगका एकदेश त्यागी होकर गृहत्याग- बन जाता है । इसके बाद ही वह भोगोपभोगपरिका अभ्यास करने के वास्ते गृहस्थमें काम आनेवाली माण व्रत धारण करनेके योग्य होता है। सर्वप्रकारकी वस्तुओंका भी परिमाण करने लगता जो वस्तु एक वार भोगनेमें आवे वह भोग; है-उनकी भी हदबन्दी करना शुरू कर देता है। जैसे खाना, पीना और जो बार बार भोगने में इतनी ही वस्तुओंसे अपनी गृहस्थी चलाऊँगा, आवे वह उपभोग; जैसे वस्त्र, मकान, सवारी, इससे अधिक न रखूगा, इस प्रकारका संतोष करके आदि । इन सबका परिमाण करके अपनी इन्द्रियोंके बहुत ही सादा जीवन बिताने लगता है, तब उसके विषयोंको घटाना इस ब्रतका असली उद्देश्य परिग्रहपरिमाण व्रत होकर पांचों अणुव्रत पूरे है, जिसका विधान शालोंमें इस प्रकार किया होजाते हैं। फिर वह और भी अधिक त्यागी होने- है:-- के वास्ते सब तरफ़की दिशाओंका परिमाण करना (१) रत्नकरंडश्रावकाचार में लिखा है कि 'त्रप है कि उनके अन्दर जितना भी क्षेत्र आवे उस ही के जीवोंकी हिंसाके खयालसे मांस और मधका, अन्दर अपना सम्बन्ध करूँगा। उससे बाहर कुछ प्रमादके खयालसे मद्यका त्याग कर देना चाहिये; भी वास्ता न रखूगा, इस प्रकारका नियम करता और फल थोड़ा तथा हिंसा अधिक होने के खयालसे है, तब उसके दिग्बत नामका अठा व्रत होता है, मूली और गीला अदरक आदि अनन्तकाय सायाजिससे उसके संसारका कारोबार और भी कम हो रण बनस्पतिको और नौनी घी और नीम तथा जाता है, संतोष और वैराग्य बढ़ जाता है। केतकीके फूल आदि को भी त्यागना चाहिये, जो
इसके बाद वह सोचता है कि जो कुछ भी हानिकारक हो उनको भी छोड़े और जो भले थोड़ा-बहुत गृहस्थका कार्य मैं करता हूँ उसमें भी पुरुषों के सेवन योग्य न हों अर्थात् निंदनीक हों कुछ न कुछ हिंसा तो ज़रूर होती है, परन्तु मेरे उनको भी छोड़े । साथ ही भोजन, सवारी, बिस्तर, मोहकर्मका ऐसा प्रबल उदय है कि इन धंधोंको स्नान, सुगंध, ताम्बूल, वस्त्र, अलंकार, काम, भोग, भी छोड़ पूर्ण त्यागी हो मुनि बननेका साहस नहीं संगीत आदिको समयकी मर्यादा करके त्यागता
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वर्ष २, किरण]
हरी साग-सब्जीका त्याग
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रहै। यथा--
एक बार भोगनेमें भावे यह उपभोग है, जैसे खाना असहतिपरिहरणार्य नौ पिशितं प्रमावपरिहतये। पीना सुगन्ध और मालादिक; और जो बार बार मयं च वर्जनीयं जिनपरणी शरणामपापात अल्पफसवहविधाताम्मूखकमाद्रादि शुजवेरादि।
भोगनेमें आवे वह परिभोग है, जैसे धोती चादर नवनीततिम्बकुसुमं कैसकमित्येवमयहम् ॥
भूषण बिस्तर श्रासन मकान गाड़ी सवारी आदि; पदनिष्टं तद्वतयेचमानुपसेव्यमेदापि जयात्। ।
इन दोनोंका परिमाण करना । यथाअभिसन्धिता विरतिविषयायोग्यावतं भवति ॥६॥ - उपेत्वात्मसात्कृत्व भुज्यते अनुभूयत इत्युपभोगः । भोजनबाहन शयनस्नानपवित्रागरागकुसुमेषु । अरामपालगन्धमाल्वादिः । सानुका परित्यज्य पुनरपि ताम्बूलवसनभूषसमन्मथसंगीतगीतेषु ॥२७॥ भुज्यते इति परिभोग इसुनते । भाचादवमावरबाप्रचदिवा रजनी वा पोमासस्तथरवनंवा।
खंकारशयनासनगृहपानवाहनादिः उपभोगब परिभोगमा इति कानपरिच्छित्या प्रत्याख्यानं भवेनियमः॥ उपभोगपरिभोगी उपभोगपरिभोगयोः परिमाणं उप
(२) सर्वार्थसिद्धि में वर्णन है कि खाना, पीना, भोगपरिभोगपरिमाणं । सुगन्ध, फूलमाला आदि उपभोग हैं। वस्त्र, धोती, (४) श्लोकवार्तिकमें बतलाया है कि 'भोगोपचादर, भूषण, सेज, बैठक, मकान, गाड़ी आदि भोग पाँच प्रकारका है-१ सघात २ प्रमाद ३ परिभोग हैं, इन दोनोंका परिमाण करना भोगोप- बहुबध, ४ अनिष्ट, ५ अनुपसेव्य । इनमेंसे मधु भोगपरिमाण त है। सघातसे बचनेवालेको और मांस त्रस घातसे पैदा होते हैं, उनसे सदाके मधु, मांस, मदिराका सदाके लिये त्याग करना लिये विरक्त रहना विशुद्धिका कारण है। शराबसे चाहिये, केवड़ा, अर्जुनके फूल और अदरक, मूली प्रमाद होता है, उसका भी त्याग ज़रूरी है। प्रमाद
आदि जो अनन्तकाय हैं वे भी त्यागने योग्य हैं। से सब ही व्रतोंका विलोप होता है। केतकी, अर्जुन रथ, गाड़ी, सवारी, भूषण, भादिमें इतना जरूरी है आदिके फूलोंकी माला जन्तुसहित होती है, अब
और इतना गैर जरूरी ऐसा ठहराकर गैर जरूरी- रक, मूली और गीली हल्दी भादि अनन्तकाय और का त्याग करना, कालके नियमसे अर्थात् कालकी नीमके फूल आदि उपदंशक, जिनपर छोटे छोटे मर्यादा करके अथवा जन्म भरके वास्ते, जैसी भुनगे आकर बैठ जाते हैं, इनसे बहुबध होता है, शक्ति हो।' इस वर्णनके मूल वाक्य इस प्रकार है- इस वास्ते इनसे भी सदा विरक्त रहना विशुद्धिका
“उपमोगोशनमानगन्धमाल्यादिः परिमोगमाचा- कारण हैं। गाड़ी, सवारी मादि जो जिसके लिये वनप्रावरणबारायनासनगृहपानवाहनादिर तयोः परि- गैर जरूरी हों उनका भी त्याग उमर भरके लिये माणमुपभोगपरिभोगपरिमाणम् । मधु मांसं मना सवा कर देना चाहिये । छपे हुए वन मादि अनुपसेव्य परिहर्तव्यं सघातानिवृत्तचेतसा केवलपर्युगपुष्पादीनि ।
है, असभ्व ही उनको काममें लाते हैं, वे प्रिय मालूम शुजवेरमूलकादीनि बहुजन्तुबोनिस्थानान्यवन्त काययपदेशाहाणि परिहर्तव्यानि बहुपाताल्पासात्वात् । पान- हातामा उनको सदाक लिय त्यागना चाहय । पकाबाहनामरवाविष्वेतावदेवेमतोमदनिष्टमित्पनिहाधिव- "भोगपरिभोगसंषानं पंचविषं ब्रसबावामारतनं कर्तव्यं काबनियमेन पावजी वा पाकि मानिशानुपसेन्यविषयमेदार ! नत्र म मांस
(३) तत्वार्थराजवार्तिकमें भी लिखा है कि 'जो पातवं तदिवं सर्वदा विरम विद्यदिवं, मचं प्रसाद
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अनेकान्त
ड, वीर-निर्वाण सं०२४६५
-
निमित्तं तद्विषयं च विरम संविधेयमन्यथा यदुपसेवन- मर्यादासे त्याग करेकृतः प्रमादात्सकसवतविजोपप्रसंगः । केतक्यर्जुन भोगोपभोगमूला विरताविरतस्य मान्यतो हिंसा । पुष्पादिमाल्यं जन्तुप्रायं शंगवेरमूलका हरिद्वानिम्ब अधिगम्य वस्तुतवं स्वशक्तिमपि तावपि स्याज्यो॥१६॥ कुसुमादिकमुपदंशकमनन्तकायव्यपदेशं च बहुवधं तद्वि- एकमपि प्रजिघांसु निहन्त्वनन्ताम्यतस्ततोऽवश्यम् । षयं विरमणं नित्यं श्रेयः, श्रावकत्वविशुद्धिहेतुत्वात् । करणीयमशेषाणां परिहरणमनन्तकायानाम् ॥१६२॥ यानवाहनादि ययस्यानिटं तद्विषयं परिभोगविरमयं नवनीतं च स्याज्यं योनिस्थानं प्रभूतजीवानाम् । यावजीवं विधेयं । चित्रवनायनुपसेव्यमसत्याशिष्टसेव्य- यद्वापि पिरशुद्धौ विरुद्धमभिधीयते किंचित् ॥१६३॥ त्वात्, तदिष्टमपि परित्याज्यं शश्वदेव । ततोऽन्यत्र यथा- (७) अमितगति-श्रावकाचारका विधान है कि शक्ति विभवानुरूपं नियतदेशकालतया भोक्तव्यम् ।" 'अपनी शक्तिके अनुसार भोगोपभोगकी मर्याद
(५) स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षामें लिखा है कि करना भोगोपभोगपरिमाण नामका शिक्षाबत है, जो अपनी सम्पत्तिके अनसार भोजन, ताम्बल, ताम्बूल, गंध, लेपन, स्नान, भोजन, भोग हैं, अलंवस्त्र आदिकका परिमाण करता है उसके भोगोप
. कार, खी, शय्या आसन, वस्त्र, वाहन आदि
उपभोग हैंभोगपरिमाणवत है, जो अपने पासकी वस्तुको भोगोपभोगसंख्या विधीयते येन शक्तितो भक्त्या । त्यागता है उसकी सुरेन्द्र भी प्रशंसा करते हैं, जो भोगोपभोगसंख्या शिक्षावतमुच्यते तस्य ॥१२॥ मनके लड़के तौर ही छोड़ता है उसका फल अल्प तांबूलगंधओपनमन्जनभोजनपुरोगमो भोगः । होता है। यथा
उपभोगो भूषास्त्रीशयनासनक्सवाहनायः ॥१३॥
(क) वसुनन्दि श्रावकाचारमें लिखा है कि जाणित्ता सम्पत्ती भोयणतंबोलवत्थमाईणं ।
शरीरका लेप, ताम्बूल, सुगंध और पुष्पादिका जं परिमाणं कीरदि मोउवभोयं वयं तस्स ॥३०॥ जो परिहरेह संतं तस्स वर्ष थुम्वदे सुरिन्देहि। परिमाण करना भोगविरति पहला शिक्षाबत है, जो मालइव भक्खदि तस्स वयं अप्पसिहवरं ॥३५॥ शक्तिके अनुसार स्त्री, वस्त्र, आभरण आदिका
(६) 'पुरुषार्थसिद्धय पाय' में निम्न वाक्यों परिमाण करना उपभोगविरति नामका दूसरा द्वारा यह प्रतिपादन कियाहै कि देशवतीको भोगो- शिक्षाबत है। पभोगसे ही हिंसा होती है, इस कारण वस्तु
जं परिमाणं कीरइ मंडणतंबोलगंधपुप्फाणं । तं भोपविरह भणियं परमं सिक्खवायं सुत्ते ॥२१६॥
। स्वभावको जानकर अपनी शक्तिके अनुसार इनका
सगसत्तीए महिलावत्याहरथा ण जंतु परिमाणं ।। भी त्याग करना चाहिये । अनन्त कायमें एकके तं परिभोपशिबुत्ती विदिवं सिक्खावयं जाये ॥१७॥ मारनेसे अनंत जीवोंका घात होता है, इस कारण . इस प्रकार इस भोगोपभोगपरिमाण व्रतमें सब ही अनन्तकाय त्यागने योग्य हैं। नोनी घी इन्द्रियोंके विषयोंको कम करनेके वास्ते वस्त्र अलंबहुत जीवोंकी खान है वह भी त्यागना चाहिये, कारादिअनेक वस्तुओंके त्यागके साथ अमन्तकाय अन्य भी जो आहारकी शुद्धि में विरुद्ध हैं वे भी साधारण बनस्पति अर्थात् कंदमूलके खानेके त्यागत्यागने चाहिये, बुद्धिमानोंको अपनी शक्तिके अनु- का भी विधान किया गया है, परन्तु प्रत्येक वनसार विरुद्ध भोग भी त्यागने चाहिये, जिनका स्पति.अर्थात् जिस वनस्पतिमें एक ही जीव होता है सदाके लिये त्याग न हो सके उनका रात दिनकी उसके त्यागका नहीं। (अगली किरणमें समाप्त
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महात्मा गान्धीके २७ प्रश्नोंका श्रीमद् रायचन्दजी द्वारा समाधान
महात्मा गान्धी जब ( सन् १८६३ ईस्वी) दक्षिण अफ्रीकामें थे तब कुछ क्रिश्चियन सज्जनोंने । ईसाईमतमें दीक्षित हो जानेके लिये उन पर डोरे डालने शुरू किये । फलस्वरूप महात्माजीका चित्त । डाँवाडोल होगया और अपने धर्मके प्रति अनेक शंकाएँ उत्पन्न होगई। अतः उन्होंने अपनी वे शंकाएँ श्रीमद् रायचन्दजीको लिख भेजीं; क्योंकि रायचन्दजीकी विद्वत्ता और धर्म-निष्ठाके प्रति उनके । हृदयमें पहले ही प्रादरके भाव थे। रायचन्दजी द्वारा शंकाओंका समाधान होने पर महात्माजी। दूसरे धर्ममें जानेसे बचे,अपने धर्म पर श्रद्धा बढ़ी और उन्हें आत्मिक शान्ति प्राप्त हुई। रायचन्दजीके सद्प्रयत्नसे वह हिन्दुधर्ममें स्थिर रह सके और उन्हें बहुतसी बातें प्राप्त हुई, इसीलिये । महात्माजीने लिखा है कि “ मेरे जीवन पर मुख्यतासे रायचन्दजीकी छाप पड़ी है"। प्रश्नोत्तरका वह अंश पाठकोंके अवलोकनार्थ "श्रीमद्रायचन्द ग्रन्थ" से यहाँ दिया जा रहा है।
-सम्पादक
-
१. प्रश्न:-आत्मा क्या है ? क्या वह कुछ भी संयोगसे उत्पन्न हो सकती हो, ऐसा मालूम नहीं करती है ? और उसे कर्म दुख देता है या नहीं ? होता । क्योंकि जड़के चाहे कितने भी संयोग क्यों उत्तरः- (१) जैसे
न करो तो भी उससे घट पट आदि जड़
चेतनकी उत्पत्ति नहीं वस्तुयें हैं, उसी तरह
हो सकती । जो धर्म आत्मा ज्ञानस्वरूप वस्तु
जिस पदार्थ में नहीं है। घट पट आदि
होता, उस प्रकारके अनित्य हैं-त्रिकालमें
बहुतसे पदार्थोके इकडे. एक ही स्वरूपसे स्थि
करनेसे भी उस रता पूर्वक रह सकने
जो धर्म नहीं है, वह वाले नहीं हैं । आत्मा
धर्म उत्पन्न नहीं हो एक स्वरूपसे त्रिकालमें
सकता, ऐसा सबको स्थिर रह सकने वाली
अनुभव हो सकता नित्य पदार्थ है । जिस
महात्मा गांधी
है । जो घट पट पदार्थकी उत्पत्ति किसी भी संयोगसे न हो मादि पदार्थ हैं, उनमें ज्ञानस्वरूप खिनमा नहीं सकती हो वह पदार्थ नित्य होता है। पात्मा किसी माता । उस प्रकारके पदार्योका यदि परिणामांतर
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५३०
अनेकान्त
[भाषाद, वीर-निर्वाण सं० २४६५
पूर्वक संयोग किया हो अथवा संयोग हुआ हो, तो में समाधान हो सकना संभव है। क्योंकि इस भी वह उसी तरह की जाति का होता है, अर्थात् सम्बन्धमें अनेक प्रश्न उठ सकते हैं जिनके फिर वह जड़स्वरूप ही होता है, ज्ञानस्वरूप नहीं होता। फिरसे समाधान होनेसे, विचार करनेसे समातो फिर उस तरहके पदार्थके संयोग होने पर धान होगा।
आत्मा अथवां जिसे ज्ञानी पुरुष मुख्य 'शानस्वरूप (२) ज्ञान दशामें-अपने स्वरूपमें यथार्थ लक्षणयुक्त' कहते हैं, उस प्रकारके (घट पट आदि, बोधसे उत्पन्न हुई दशामें-वह आत्मा निज भावपृथ्वी, जल, वायु, आकाश, पदार्थसे किसी तरह का अर्थात् ज्ञान, दर्शन (यथास्थित निश्चय ) और उत्पन्न हो सकने योग्य नहीं। 'ज्ञानस्वरूपत्व' यह सहज-समाधि परिणामका कर्ता है; अज्ञान दशामें आत्माका मुख्य लक्षण है, और जड़का मुख्य- क्रोध, मान, माया, लोभ इत्यादि प्रकृतियोंका लक्षण 'उसके अभावरूप' है । उन दोनोंका कर्ता है और उस भावके फलका भोक्ता होनेसे अनादि सहज स्वभाव है । ये, तथा इसी तरहके प्रसंगवश घट पट आदि पदार्थोंका निमित्तरूपसे दूसरे हजारों प्रमाण अात्माको 'नित्य' प्रतिपादन कर्ता है । अर्थात घट पट आदि पदार्थोंका मूल कर सकते हैं। तथा उसका विशेष विचार करने द्रव्योंका वह कर्ता नहीं, परन्तु उसे किसी आकापर नित्यरूपसे सहजस्वरूप आत्मा अनुभवमें भी रमें लानेरूप क्रियाका ही कर्ता है। यह जो पीछे आती है । इस कारण सुख-दुख आदि भोगने वाले, . दशा कही है, जैनदर्शन उसे 'कर्म' कहता है, वेदाउससे निवृत होनेवाले, विचार करनेवाले प्रेरणा न्त दर्शन उसे 'भ्रांति' कहता है, और दूसरे दर्शन करनेवाले इत्यादि भाव जिसकी विद्यमानतासे भी इसीसे मिलते जुलते इसी प्रकारके शब्द कहते अनुभवमें आते हैं, ऐसी वह आत्मा मुख्य चेतन हैं। वास्तविक विचार करनेसे आत्मा घट पट (ज्ञान) लक्षणसे युक्त है। और उस भावसे आदिका तथा क्रोध आदिका कर्त्ता नहीं हो सकती, (स्थितिसे) वह सब कालमें रह सकनेवाली वह केवल निजस्वरूप ज्ञान-परिणामका ही कर्ता 'नित्यपदार्थ' है। ऐसा मानने में कोई भी दोष है-ऐसा स्पष्ट समझमें आता है। अथवा बाधा. मालूम नहीं होती, बल्कि इससे सत्य (३) अज्ञानभावसे किए हुए कर्म प्रारंभकालसे के स्वीकार करने रूप गुणकी ही प्राप्ति होती है। बीजरूप होकर समयका योग पाकर फलरूप वृक्षके
. यह प्रश्न तथा तुम्हारे दूसरे बहुतसे प्रश्न इस परिणामसे परिणमते हैं; अर्थात् उन कर्मोको तरहके हैं कि जिनमें विशेष लिखने, कहने और आत्माको भोगना पड़ता है। जैसे अग्निके स्पर्शसे समझानेकी आवश्यकता है। उन प्रश्नोंका उस उष्णताका सम्बन्ध होता है और वह उसका प्रकारसे उत्तर लिखा जाना हालमें कठिन होनेसे स्वाभाविक वेदनारूप परिणाम होता है, वैसे ही प्रथम तुम्हें षदर्शनसमुख्य ग्रन्थ भेजा था, जिसके प्रात्माको क्रोध आदि भावके कर्त्तापनेसे जन्म, बाँचने और विचार करनेसे तुम्हें किसी भी अंशमें जरा, मरण आदि वेदनारूप परिणाम होता है। समाधान हो; और इस पत्रसे भी कुछ विशेष अंश इस बातका तुम विशेषरूपसे विचार करना और
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वर्ष २, किरण ६]
महात्मा गान्धीके २७ प्रश्नोंका श्रीमद् रायचन्दजी द्वारा समाधान
उस संबन्ध में यदि कोई प्रश्न हो तो लिखना। संतोष रखने जैसा होता है। तथा जगत्का नाम क्योंकि इस बातको समझकर उससे निवृत होने- ईश्वर रखकर संतोष रख लेने की अपेक्षा जगतको रूप कार्य करनेपर जीवको मोक्ष दशा प्राप्त होती है। जगत कहना ही विशेष योग्य है । कदाचित
२ प्रश्नः-श्वर क्या है ? वह जगत्का परमाणु, आकाश पारिको नित्य मानें और ईश्वरकता है, क्या यह सच है ?
को कर्म मादिके फल देनेवाला मानें, तो भी वह उत्तरः-(१) हम तुम कर्म बंधनमें फँसे बात सिद्ध होती हुई नहीं मालुम होती। इस रहने वाले जीव हैं। उस जीवन
वाले जीव है। उस जीवका सहज स्वरूप विषय पर षदर्शन समुच्चयमें श्रेष्ठ प्रमाण दिये है। अर्थात् कर्म रहितपना-मात्र एक आत्म स्वरूप- ३. प्रश्न:-मोक्ष क्या है ? जो स्वरूप है, वही ईश्वरपना है । जिसमें ज्ञान उत्तरः-जिस क्रोध आदि प्रज्ञानभावमें देह
आदि ऐश्वर्य हैं वह ईश्वर कहे जाने योग्य है और आदिमें मात्माको प्रतिबंध है,उससे सर्वथा निवृत्ति वह ईश्वरपना आत्माका सहज स्वरूप है । जो होना-मुक्ति होना-उसे ज्ञानियोंने मोक्ष-पद कहा स्वरूप कर्मके कारण मालूम नहीं होता, परन्तु उस है। उसका थोडासा विचार करनेसे वह प्रमाणभूत कारणको अन्य स्वरूप जानकर जब आत्माकी मालूम होता है। ओर दृष्टि होती है, तभी अनुकर्मसे सर्वज्ञता आदि ४. प्रश्न:-मोक्ष मिलेगा या नहीं क्या यह ऐश्वर्य उसी प्रात्मामें मालम होता है। और इससे इसी देहमें निश्चितरूपसे जाना जा सकता है ? विशेष ऐश्वर्ययुक्त कोई पदार्थकोई भी पदार्थ- उत्तरः-जैसे यदि एक रस्सीके बहुतसे बंधनोंदेखने पर भी अनुभव में नहीं आ सकता । इस से हाथ बांध दिया गया हो, और उनमेंसे क्रमकारण ईश्वर आत्माका दूसरा पर्यायवाची नाम है; क्रमसे ज्यों ज्यों बंधन खुलते जाते हैं त्यो त्यों उस इससे विशेष सत्तायुक्त कोई पदार्थ ईश्वर नहीं है बंधनकी निवृत्तिका अनुभव होता है, और वह इस प्रकार निश्चयसे मेरा अभिप्राय है। रस्सी बलहीन हो कर स्वतन्त्रभावको प्राप्त होती
(२) वह जगतका की नहीं; अर्थात् है, ऐसा मालूम होता है-अनुभवमें आता है; उसी परमाणु आकाश आदि पदार्थ नित्य ही होने संभव तरह आत्माको अज्ञानभावके अनेक परिणामरूप हैं; वे किसी भी वस्तुमेंसे बनने संभव नहीं। बन्धनका समागम लगा हुआ है, वह बन्धन कदाचित् ऐसा माने कि वे ईश्वरमेंसे बने हैं तो ज्यों-ज्यों छूटता जाता है, त्यों-त्यों मोक्षका अनुभव यह बात भी योग्य मालूम नहीं होती, क्योंकि यदि होता है । और जब उसकी अत्यन्त अल्पता हो ईश्वरको चेतन मानें तो फिर उससे परमाणु जाती है तब सहज ही प्रात्मामें निजभाव प्रकाशित आकाश बगैरह कैसे उत्पन्न हो सकते हैं ? क्योंकि होकर अज्ञानभावरूप बंधनसे छट सकनेका अबचेतनसे जड़की उत्पत्ति कभी संभव ही नहीं होती सर आता है, इस प्रकार स्पष्ट अनुभव होता है। यदि ईश्वरको जड़ माना जाय तो वह सहजही तथा सम्पूर्ण आत्माभाव समस्त अज्ञान आदि अनैश्वर्यवान ठहरता है । तथा उससे जीवरूप भावसे निवृत्त होकर इसी देहमें रहने पर भी चेतन पदार्थकी उत्पत्ति भी नहीं हो सकती यदि आत्माको प्रगट होता है, और सर्व सम्बन्धसे ईश्वरको जड़ और चेतन उभयरूप मानें तो फिर केवल अपनी भिन्नता ही अनुभवमें आती है, जगत् भी जड़ चेतन उभयरूप होना चाहिये। फिर अर्थात् मोक्ष-पद इस देहमें भी अनुभवमें आने तो यह उसका ही दूसरा नाम ईश्वर रखकर योग्य है। (अगली किरण में समाप्त)
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PHHUHERI MillRATE"/
१ जीवन-ज्योतिकी लहर
ज्योतिकी लहरने विशाल उग्ररूप धारण कर लिया है
और अब वे सब-कुछ न्योछावर करके विजय प्राप्त हैद्राबाद आर्य सत्याग्रह के जो समाचार आए दिन करनेके लिये उतारू हो गये हैं। यहाँ तक कि एक
पत्रोंमें देखनेको मिलते हैं उनसे मालूम होता है ग़रीब भाई भी कुछ न देसकनेके कारण यह प्रतिज्ञा कि हमारे आर्यसमाजी भाइयोंमें खुब जीवन है। जरासी करता है कि मैं महीने में चार दिन भोजन नहीं करूँगा ठेस अथवा थोड़ेसे घर्षणको पाकर उनकी जीवन ज्योति और उससे जो बचत होगी उसे उस वक्त तक बराबर जगमगा उठीहै और उसकी अप्रतिहत लहर सारे भारत- सत्याग्रहकी मददमें देता रहूँगा जब तक कि उसे में व्याप्त हो गई है ! ग़रीबसे ग़रीब तथा अमीरसे सफलताकी प्राप्ति नहीं होगी । अपने आर्य भाइयोंके अमीर भाईके हृदयमें सत्याग्रहको सफल बनानेकी इस उत्साह, साहस, वीरत्व और बलिदानको देखकर उमंग है, हर कोई तन-मन धनसे सहायता पहुँचा रहा छाती गर्वसे फल उठती है और उनकी इस जीवनहै, जत्थे पर जत्थे जारहे हैं और जरूरतसे अधिक माई ज्योतिकी प्रशंसा किये बिना नहीं रहा जाता। कुछ सत्याग्रह के लिये तय्यार होगये हैं--यहाँ तक कि प्रधान समय पहले सिक्ख भाइयोंने जो श्रादर्श उपस्थित किया संचालक समितिको ऐसे आर्डर तक निकालने पड़ रहे था उसीकी प्रतिध्वनि आज आर्य भाई कर रहे हैं, यह है कि इतनेसे अधिक भाई एक साथ सत्याग्रहके लिये कुछ कम प्रसन्नताका विषय नहीं है । निःसन्देह दोनों रवाना न होवें और न सत्याग्रहियोंकी स्पेशल ट्रेनें ही ही समाजे देशके लिये गौरव रूप है। आर्यभाइयोंके छोड़ी जावें, थोड़े-थोड़े भाइयोंके जत्थे क्रमशः रवाना साथ, इस युद्धमें, मेरी हार्दिक सहानुभूति है और यह होने चाहिये। यह सब देखकर हैद्राबादकी निज़ाम निरन्तर भावना है कि उनकी न्यायोचित माँगें शीघ्र सरकार भी हैरान व परेशान है, उसकी सब जेलें सत्या- स्वीकार की जाएँ और उन्हें सत्याग्रहमें पूर्ण सफलता ग्रहियोंसे भर गई है--जिनके पर्याप्त भोजनके लिये प्राप्ति होवे । उनका यह त्याग और बलिदान खाली भी उसके पास प्रबन्ध नहीं है और इसलिये वह अपनी नहीं जा सकता । सत्याग्रहके संचालकोंको बराबर सब सुध बुध भुलाकर, सभ्यता-शिष्टताको भी बालाएताक अहिंसा पर दृढ़ रहना चाहिये, किसी भी प्रकारकी रखकर श्रमानुषिक कृत्यों तक पर उतर पडी है, जो कि उत्तेजनाके वश उससे विचलित नहीं होना चाहिये, वह उसकी नैतिक हारके स्पष्ट चिन्ह है। परन्तु इस दमनसे उन्हें अवश्य ही विजय दिलाकर छोड़ेगी। आर्य भाइयोंका उत्साह और भी अधिक बढ़ गया है, निःसन्देह वह दिन धन्य होगा जिस दिन जैनसमाजउनका स्वाभिमान उत्तेजित हो उठा है--उनकी जीवन में भी ऐसी जीवन-ज्योतिका उदय होगा और वह त्याग
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वर्ष २, किरण
सम्पादकीय
तथा बलिदानके पुनीत मार्गको अपनाता हा लोकसेवा पुलिसकी मार्फत उस बलिविधानको रुकवा सकता है। के लिये अग्रसर बनेगा।
प्रार्डरके बाद जो कोई शख्स वह बलिविधान करेगा या
बलिके लिये पशु पेश करेगा अथवा कोई ट्रस्टी उस २ पशुबलि-विरोध बिल
मन्दिरादिमें पशुबलिकी इजाजत देगा, जहाँके लिये हिन्दुमन्दिरोंमें तथा दूसरे उपासना स्थानों पर उसकी निषेधाज्ञा जारी हो चुकी है, उसको ५००) २० अन्ध श्रद्धावश धर्मके नामपर अथवा देवी-देवताओंको तक जुर्माना या एक साल तककी कैदकी सज़ा दी प्रसन्न करने के लिये जो निर्दयता पूर्वक पशु-पक्षियोंका जायगी अथवा दोनों ही प्रकारके दण्ड दिए जाएंगे। बलिदान किया जाता है, जिसके कितने ही बीभत्स और यदि उक्त दोनों सूचनाओं मेंसे किसी भी अवसर दृश्योंका परिचय पाठक अनेकान्तके नववर्षाङ्कमें दिये पर वोटरोंका बहुमत उस बलिविरोधके अनुकूल न होकर हुए चित्रों आदि परसे प्राप्त कर चुके हैं और जो हिन्दू विरुद्ध होगा तो फिर उस विषयमें एक साल तक कोई समाजके लिये कलंकरूप उसके नैतिक पतनका द्योतक कार्यवाही नहीं कीजायगी--एक सालके बाद वह विषय जङ्गली रिवाज हैं, उसको रोकने के लिये मिस्टर के. बी. फिर द्रस्टियोंके सामने उपस्थित किया जा सकता है। जिनराज हेगडे एम० एल० ए० ने एक बिल असेम्बली इस तरह इस काननके द्वारा उस मन्दिरादिके (धारासभा) में पेश किया है। यह बिल बड़ा अच्छा इलाकेके बहुमतको मान दिया जायगा और कोई भी है और बड़े अच्छे ढंगसे प्रस्तुत किया गया है। मैं कार्यवाही न्यायकी दृष्टि में अनुचित अथवा जबरन नहीं इसका हृदयसे अभिनन्दन करता हूँ।
समझी जायगी। इस काननके पास होनेपर निःसन्देह
समझी जायगी। इस काननके इस बिलके अनुसार कोई भी हिन्दू, जो ऐसे किसी देशको बहुत लाभ होगा--पशुओंके इस निरर्थक विनाशबलिदानको रकवाना चाहे, अपने इलाकेके कमसे कम से देशकी जो आर्थिक हानि होती है वह दूर होगी इतना ५० हिन्दू वोटरोंके हस्ताक्षर कराकर एक प्रार्थनापत्र ही नहीं, बल्कि हिन्दू-जातिका इस घोर पाप तथा उस मंदिरादिके दृष्टियों (मैनेजर आदि) को दे सकता नैतिक पतनसे उद्धार होगा। और उसके माथे पर जो है। जहाँ कि बलिदान होनेवाला हो। ऐसा प्रार्थनापत्र भारी कलंकका टीका लगा हुआ है वह दूर होकर उसका मिलने पर ट्रस्टीजन उसकी सूचना इलाके के सब हिन्दू मुख उज्वल होगा । साथ ही बिना कुसूर सताये जाने चोटरोंको देंगे और उनकी सम्मति मँगाएगे। वोटरोंका वाले पशुओंकी बाहोंसे जो क्षति देश तथा समाजको बहुमत यदि बलि-विरोधके अनुकूल हुश्रा तो फिर ट्रस्टी- पहुंच रही है वह रुकेगी और उसके स्थानपर रक्षाप्राप्त जन एक नोटिस निकालेंगे और उसके द्वारा यह घोषणा मूक पशुओंके शुभाशीर्वादसे भारतकी समृद्धिमें श्राशाकरेंगे कि हम उस बलिविधानके विरुद्ध अपनी श्राचा तीत वृद्धि होगी। अतः सब किसीको मानवताके नाते जारी करना चाहते हैं, जिन्हें हमपर आपत्ति होवे अपना इस बिलका समर्थन कर अपने कर्तव्यका पालन करना उज्र एक महीने के अन्दर पेश करें। यदि नियत समयके चाहिये और बेचारे निरपराध मूक पशुओंको अभयदान भीतर कमसे कम ५० हिन्दू वोटरोंकी आपत्ति प्राप्त होगी देकर उनका शुभाशीर्वाद लेना चाहिये। तो उसकी सूचना पूर्ववत् सब वोटरोंको की जायगी और उस बलिदानको रोकने नरोकनेके विषयमें उनकी
३ मन्दिर प्रवेश बिल सम्मति माँगी जायगी। यदि कोई आपत्ति नहीं की मध्य प्रान्तकी धारा सभामें एक बिल पेश हश्रा है, जायगी अथवा आपत्ति होनेपर बहुमत बलिविधानको जिसके अनुसार हरिजन लोग हिन्दू मन्दिरोंमें दर्शन रोकनेके अनुकूल होगा तो ट्रस्टीजन नियमानुसार उस पूजनके लिये प्रवेश कर सकेंगे । 'हिन्दू' शब्दमें जैनोंका बलिविधानको रोकने के लिये एक आर्डर जारी कर भी समावेश किया जानेके कारण जैनमंदिरमें भी देंगे। ऐसे आर्डरके जारी होनेपर कोई भी शख्म हरिजनोंका प्रवेश हो सकेगा । इस अनर्थ से चिन्तित
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५३४
अनेकान्त
[भाषाद, बीर-निर्वास सं० २४६५
होकर सिवनीके पं. सुमेरचन्द जी जैनदिवाकर जैन प्रवेशसे नष्ट नहीं हुई तो इन हरिजनोंके प्रवेशसे कैसे समाजको उक बिलका विरोध करने के लिये, और यदि नष्ट हो सकती है, जिन्हें मन्दिरकी पवित्रताको सुरक्षित गवर्नमेण्ट उसे पास करना ही चाहे तो जैनियोंको रखते हुए पवित्रवेषमें ही कानन द्वारा मन्दिर प्रवेशउससे पथक कर देनेका अनुरोध करनेके लिये प्रेरणा की इजाजत दी मानेको है?माशा है दिवाकरजी कर रहे हैं। इस विषय में 'जैनसमाज ध्यान दें' नामका आगमके. उन वाक्योंको पते सहित प्रकट करेंगे जिनकी आपका लेख, जो १५ जून सन् १६३६ के 'जैन सन्देश' श्राप दुहाई दे रहे हैं। उनके सामने आने पर इस में प्रकाशित हुआ है, इस समय मेरे सामने है। इस विषयमें विशेष विचार उपस्थित किया जायगा। लेखमें जैनममाजको विरोधकी प्ररेणा करते हुए आगम
४ वीर-शासनजयन्ती की दुहाई दीगई है। लिखा है- . .
गत किरणमें वीरशासन-जयन्तीकी सूचना दी गई "अस्पश्य लोगोंके धर्मसाधन के लिये मानस्तम्भ-दर्शन- थी और जिसके सम्बंधमें जनता तथा विद्वानोंसे अपने का श्रागममें विधान है, मन्दिरके भीतर प्रवेश करनेका कर्तव्य पालनका अनुरोध किया गया था, वह प्रथम अपने यहाँ प्रतिषध ह । अतएव एसा बिल अगर श्रावण कृष्ण प्रतिपदाकी मांगलिक तिथि (ता०२ जुलाई) काननका रूप हमारे प्रमादसे धारण कर लेगा, तो उससे अब बहत ही निकट आगई है-किरणके पहँचनेसे धार्मिक जीवनकी पवित्रताको बहुत क्षति पहुंचेगी।" एक दो दिन बाद ही वह पाठकोंके सामने उपस्थित हो
मालम नहीं कौनसे आगमका उक्त विधान है! जायगी. श्रतः कृतज्ञ जनताको उत्सवके रूपमें उसका और कौनसे पागम ग्रन्थमें अस्पृश्य वर्गको मन्दिरके उचित स्वागत करना चाहिये । करीब १०० विद्वानों भीतर प्रवेशका निषेध किया गया है! जिनेन्द्रभगवान्- तथा दसरे प्रतिष्ठित पुरुषोंको बीर-सेवामंदिरसे अलग के साक्षात् मंदिर (समवसरण) में तो पशु-पक्षी तक विज्ञप्तियाँ तथा पत्र भिजवाये गये हैं और उनसे वीरभी जाते हैं। फिर किसी वर्गके मनुष्योंके लिये उसका सेवा मंदिरमें पधारने, वीरशासनजयन्ती मनाने और प्रवेश द्वार-बन्द हो यह बात सिद्धान्तकी दृष्टिसे कुछ वीरशासन पर लेख लिखकर भेजनेकी विशेष प्रेरणा भी समझमें नहीं आती! श्रीजिनसेनाचार्य प्रणीत हरिवंश- की गई है। फल स्वरूप कड विद्वानोंकेश्राने प्रादिकी पुराण में सिद्धकूट जिनालयका जो वर्णन दिया है और स्वीकृतिके पत्र श्राने लगे हैं और लेख भी श्राने प्रारंभ उसमें मन्दिरके भीतर चाण्डाल जातिके विद्याधरोंको
होगये हैं । आशा है इस वर्षका यह उत्सव गतवर्षसे भी जिस रूपमें बैठा हुआ चित्रित किया है, और उनके
अधिक उत्साह और समारोहके साथ जगह जगह मनाया द्वारा जिन-पूजाका जैसा-कुछ उल्लेख किया है * उस
जायगा और इसके निमित्त वीर-शासन सम्बन्धी बहुतसा परसे तो कोई भी समझदार व्यक्ति यह नहीं कह सकता।
ठोस साहित्य तय्यार हो जायगा । जहाँ जहाँ यह उत्सव कि मंदिर-प्रवेश बिल-द्वारा अधिकार प्राप्त , आजकलके
मनाया जाय वहाँके भाइयोंसे निवेदन है कि वे उसकी हरिजनोंसे मन्दिरोंकी पवित्रता नष्ट हो जायगी अथवा
सूचना वीरसेवा-मंदिरको भी भेजनेकी कृपा करें। और धार्मिक जीवनकी पवित्रताको क्षति पहुंचेगी। वह जिन विदनोंने इस किरग्मक पहुँचने तक भी अपना लेख जब चमड़ेके वस्त्र धारण किये हुए और हड़ियोंके
परा न किया हो वे उसे शीघ्र पूरा करके उक्त तिथिके भाभषण पहने हुए चाण्डालोंके सिद्धकूट जिनालयमें
बाद भी भेज सकते हैं, जिससे वीरशासन सम्बन्धी ® देखो, २६ सर्गके श्लोक ०२ से २४ लेखोंके साथमें उसे उचित स्थान दिया जा सके।
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तरुण-गीत
तरुण ! आज अपने जीवन में, जीवनका वह राग सुनादे !
सुप्त-शक्तिके कण कणमें उठ ! एक प्रज्वलित आग जगादे !! धधक क्रान्तिकी ज्वाला जाए महाप्रलयका करके स्वागत ! जिससे तन्द्राका घर्षण हो, जागे यह चेतनता अवनत !! प्राण विवशताके बन्धनका खण्ड खण्ड करदे वह उद्गम ! अंग अंगकी दृढ़ता तेरी निर्मापित करदे नवजीवन !!
स्वयं, सत्य-शिव-सुन्दर-सा हो, जग जनमें अनुराग जगादे !
तरुण ! आज अपने जीवन में जीवनका वह राग सुनादे !! तेरा विजयनाद सुन काँपे भधर सागर-नभ-तारक-दल ! रवि मण्डल भू-मण्डल काँपे, काँपे सुरगण-युत प्राखण्डल !! नव परिवर्तनका पुनीत यह गूंज उठे सब ओर घोर रव ! तेरी तनिक हुँकार श्रवण कर काँपे यह ब्रह्माण्ड चराचर !!
त अपनी ध्वनिसे मृतकोंके भी मृत-से-मृत प्राण जगादे !
तरुण ! आज अपने जीवन में जीवनका वह राग सुनादे !! तेरी अविचल गतिका यह क्रम पद-मदित करदे पामरता ! जड़ताकी कड़ियाँ कट जाएँ, पाजाए यह ध्येय अमरता !! हृद्तलकी तड़फनमें नूतन जागृत हो वह विकट महानल ! जिसमें भस्मसात् होजाए अत्याचार पाप कायर दल !!
तेरा खोलित रक्त विश्व कण कणसे अशुभ विराग भगादे !
तरुण ! आज अपने जीवन में जीवनका वह राग सुनाद !! अपने सुखको होम निरन्तर, त भपर समता विखरादे ! जिसमें लय अभिमान अधम हो, ऐसी शुचि ममता बरसादे !! सत्य-प्रेमकी आभासे हो अन्तर्धान पापकी छाया । रूढ़ि, मोह, अज्ञान, पुरातन भ्रम, सब हों सुपनेकी माया !!
त प्रबुद्ध हो, सावधान हो, स्वयं जाग कर जगत जगादे !
तरुण आज अपने जीवन में जीवनका वह राग सुनादे !! [श्री राजेन्द्रकुमार जैन कुमरेश] -.........
सुधार लेवें-पृ० १०५ पर मुद्रित 'जयवीर' कविताके दूसरे बन्दकी ७वीं पंक्तिमें 'पर' की जगह 'पर, स्मों और वें छन्दकी रवीं पंक्ति में 'शुभ माशाएँ प्रशस्त' की जगह 'शुभाशाएँ प्रशस्त' बनाया जाये।
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Regd. No. L. 4328
क्या आपने सुना ?
बम्बई और इलाहाबाद सुन्दर, स्वच्छ, मनमोहक और शुद्ध हिन्दी-अंग्रेज़ीकी छपाईका
समुचित प्रबन्ध वीर प्रेस आफ इण्डिया,
न्यू देहलीमें
किया गया है। ग्राहककी रुचि और समयकी पाबन्दीका ख्याल रखना
हमारी विशेषता है । बाप भारतके किमी भी कोनेमें बैठे हों, आपको छपाईका कार्य आपकं आदेश और रुचिकं अनुमार होगा
आपको इस तरहकी सहलियत होगी मानों आपका निजी प्रेम है।
परामर्ष कीजियः-- बालकृष्ण एम.ए.
मैनेजिंग डायरेक्टर
Vs Jav
(PA
दो बार प्रेस का इण्डिया लिमिटेड
___ कनाट सर्कस. न्यू देहली।
नेमचन्द जैन ऑडीटरके प्रबन्भमे 'वीर प्रेस ऑफ इण्डिया' कनॉट मकम न्य देहली में छपा।
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वर्ष किरण १८
प्रथम श्रावण वीर निःसं.२४६५ ५ अगस्त १९३५
वार्षिक मूल्य २॥)
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सम्यक्त* एकांत.
भार
भावलोक
नोक जावय भावलोकजीव मोक्षय
.
.
विद्या मिथ्याला
आत्मा
परमात्मा
पोग
सामान्य
Oct
विशेष
स्वतत्त्व
पातच
सारव्य
AUTHEdit
..
पाप
बारद
गुणो
H
अशुभ
तत्त्व
कि
122
पीय
मामासक WERS
SH
सख कोकम,
सनय
क
पार्थ
पुर
मा
साध्य साई
सत्य
5. Lakti
चार्वाक
अनेक
एक
पताण
नित्या
सम्पादक
जुगलकिशार मुख्तार अधिष्ठाता वीर-संवामन्दिर मरमावा (महारनपुर)
मंचालक.....
तनमुखगय जैन कनॉट मरकम पा. व नं. ४८ न्यू देहली
मद्रक आर प्रकाशक--अयाध्याप्रमाद गोयलीय।
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HERE
BHAGRAT
बम्बई और इलाहाबाद सन्दर, स्वच्छ, मनमोहक और शुद्ध हिन्दी-अग्रेजीकी छपाईका
हा समवित पकन्या वीर प्रेस आफ इण्डिया,
न्यू देहलाम
को रुचि और समयकी पाबन्दीका ख्याल रखना
हमारी विशेषता है । मा भारतके किसी भी कोने में बैठे हो. आपकी छपाईका कार्य प्रापके आदेश और रुचिके अनुसार होगा आपको इस तरहको सालियत होगी मानों आपका निजी प्रेम है।
परामर्ष कीजिये। बालकृष्ण एम एक
मैनेजिंग डायरेक्टर र हो मोह देस जाय इण्डिया लिमिटेड
कनाट सर्कस, न्यू देहली।
क
सकस व्य देहली से
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दे
म्पादन
जुगलकिशोर मुख्तार वीर सेवामन्दिर सरसावा (सहारनपुर)
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वीर-सेवामंदिरको सहायता हाल में वीरसेवा-मंदिर सरसावाको उसके कन्या विद्यालयकी सहायतार्थ, निम्न सजनोंकी भोरसे ३५) १०की सहायता प्राप्त हुई है, जिसके लिये दातार महाशय धन्यवारके पात्र हैं:१०) श्रीमती राजकलीदेवी धर्मपत्नी बाबू पदमप्रसादजी १०) जा० जम्बूप्रसादजी जैन रईस मानता जि.
जैन रिटायर्ड प्रोवरसियर नकुड़ जि० सहारपुर, सहारनपुर (चिरंजीव पुत्र महेन्द्रकुमारके विवाहकी मार्फत श्रीमती बनीदेवीजी।।
खुशीमें) १) ला० केवलराम उग्रसैन जैन सेरे, जगाधरी जि० ) ला० उल्फा जैन सोनीपत और पं० मुनिसुपत____ अम्बाला ( पुत्र विवाहकी खुशीमें)
दास जैन पानीपत (चि० पुत्र पदमकुमार और १) ला० शिखरचन्दजी जैन; किरतपुर जि. बिजनौर . कौशल्यादेवीके विवाहकी खुशीमें ) मार्फत पं०
(चि० पुत्र महेन्द्रकुमारकी विवाहकी खुशीमें ) रूपचन्दजी जैन गार्गीय पानीपत
में अधिष्ठाता वीर-सेवा-मंदिर
सरसावा जि. सहारनपुर
JLAMALPURAL LAALIMPLro-FIN
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__ चित्र और ब्लाक रंगीन, हाफटौन अथवा लाइन चित्र
FLMFALLLLLN
ब्लाक बनवाने के लिये
निम्न पता नोट कर लीजिये आपके आदेशका पालन ठीक समय पर किया जाएगा। मैनेजर-दी ब्लाक सर्विस कम्पनी
कन्दलाकशान स्ट्रीट, फतहपुरी देहली।
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A. IT
नीति-विरोध-ध्वंसी लोक-व्यवहार-वर्तकः सम्यक्
परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥ सम्पादन-स्थान-वीर-सेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम) सरसावा, जि.सहारनपुर
प्रकाशन-स्थान-कनॉट सर्कस, पो० ब० नं. ४८, न्यू देहली प्रथम श्रावण शुक्ल, धीरनिर्वाण सं० २४६५, विक्रम सं० १९६६
वर्ष २
समन्तभद्र-शासन लक्ष्मीभृत्परमं निरुक्तिनिरतं निर्वाणसौख्यप्रदं कुज्ञानातपवारणाय विघृतं छत्रं यथा भासुरम् । सज्जानैनययुक्तिमौक्तिकफलैः संशोभमानं परं बन्दं तबतकालदोषममलं सामन्तभद्रं मतम् ।।
-देवागमवृत्ती, बसुनन्दिसैद्धान्तिका श्रीसमन्तभद्रके उस निर्दोष मतकी-शामनकी-मैं बन्दना करता हूँ-उसे श्रद्धा-गुणातापूर्वक प्रणामाञ्जलि अर्पण करवाहूँ-जो श्रीसम्पन्न है, उत्कृष्ट है, निरुक्ति-परायण है-व्युत्पत्तिविहीन सब्दोंके प्रयोगसे प्रायः रहित है-, मिथ्याज्ञानरूपी पातापको मिटानेके लिये विधिपूर्वक धारण किये हुए देदीप्यमान छत्रके समान है, सम्यग्ज्ञानों सुनयों तथा सुयुक्तियों रूपी मुक्ताफलोंसे परम सुशोभित है, निर्वाण-सौख्यका प्रदाता है और जिसने कालदोषको ही नष्ट करदिया था-अर्थात् स्वामी समन्तभद्र मुनिकं प्रभावशाली शासनकाल में यह मालूम नहीं होता था कि भाजकल कलिकाल बीत रहा है।
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मुक्ति और उसका उपाय
[.-बाबा भागीरथजी जैन पी]
सक्ति जोवकी उस पर्यायविशेषका नाम है जि- पराधीनतामें कहीं भी सुख नहीं है। स्वाधीनता ही उसके बाद फिर कोई संसार-पर्याय नहीं होती। सच्ची सुख-अवस्था है और वह यथार्थमें मुक्तिमुक्तिपर्याय सादि-अनन्तपर्याय है । इस पर्यायमें स्वरूप ही है । संसारमें अन्य जितनी भी अवस्थाएँ सूक्ष्म स्थूल शरीरसे तथा प्रष्ट कर्ममलसे रहित हैं वे सब पराश्रित एवं दुःखरूप हैं । अतः मुक्तिकी हुआ आत्मा अनन्तहान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख प्राप्तिका उपाय करना सज्जनोंका परम कर्तव्य है। तथा अनन्तवीर्यरूप स्व-स्वभावमें स्थिर रहता है। उस मुक्तिका उपाय परम निग्रंथोंने संक्षेपमें सम्यग्दउसकी विभाव-परिणति सदाके लिये मिट जाती है। र्शन,सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र बतलाया है। स्ववह अपने स्वरूपमें लीन हुआ लोकके अप्रभागमें द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूपसे आत्माकी विनिश्चितिकोतिम्ता है और संसारकी जितनी अवस्थाएँ हैं उन यथार्थ श्रद्धाको–'सम्यग्दर्शन' उसके यथार्थबोधको सयको जानता-देखता है; परन्तु किसी भी अवस्था- 'सम्यग्ज्ञान' और आत्मास्वरूपमें स्थिरताकोरूप परिणत नहीं होता और न उनमें राग-द्वेष ही उससे विचलित न होने अर्थात् विभाव परिणतिकरता है। जीवकी इस अवस्थाको ही परम निरं रूप न परिणमनेको 'सम्यकचारित्र' कहते हैं। इन जन सिद्धपर्याय कहते हैं । इस पर्यायको प्राप्त करने रूप प्रात्माकी परिणति होनेसे किसी भी प्रकारका की शक्ति प्रत्येक संसारी प्रात्मामें होती है। परन्तु बन्धन नहीं होता है। जैसा श्रीअमृतचन्द्राचार्य के उसकी व्यक्ति योग्य कारण-कलापके मिलने पर निम्न वाक्यसे प्रकट है:भव्यात्माओंको ही हो सकती है।
दर्शनमात्मविनिबितिरात्मपरिज्ञानमिष्यते गोषः। __ मुक्तिको प्रायःसभी दूसरे दर्शन भी मानते हैं। स्थितिरात्मनि चारित्रं कुत पतेभ्यो भवति बन्धः । परन्तु मुक्तिके स्वरूप और उसकी प्राप्ति के उपाय
पुरुषार्थसिद्धयुपाय, २१६ कथनमें वे सब परस्पर विसंवाद करते है और पारमार्थिक दृष्टिसे यही मोक्षका उपाय है। यथार्थ निर्णय नहीं कर पाते । यथार्य निर्णय वीर. व्यवहार मोक्षमार्ग इसी निश्चय मोक्षमार्गका भगवान के शासनमें ही पाया जाता है । वस्तुतः साधक है। जो व्यवहार निश्चयका साधक नहीं, मुक्तिकी इच्छा सब ही प्राणियोंके होती है-बन्धन वह सम्यक व्यवहार न होकर मिथ्या व्यवहार है तथा परतंत्रता किसीको भी इष्ट नहीं है क्योंकि और त्याज्य है।
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स्वामी पात्रकेसरी और विद्यानन्द
परिशिष्ट
[सम्पादकीय] मानेकान्तके प्रथम वर्षकी द्वितीय किरणमें १६ दिस- किया गया था उनमें एक प्रमाण 'सम्बक्त्वप्रकाश
-म्बर सन् १९२६ को मैंने 'स्वामी पात्रकेसरी और ग्रंथका भी निम्न प्रकार था:विद्यानन्द' नामका एक लेख लिखा था, जिसमें पात्र- "सम्यक्त्वप्रकाश नामक ग्रंथमें एक जगह लिखा केसरी और विद्यानन्दकी एकता-विषयक उस भ्रमको है किदूर करनेका प्रयत्न किया गया था जो विद्वानोंमें उस तथा शोकवार्तिके विद्यामन्तिमपरनामपानसारसमय फैला हुआ था और उसके द्वारा यह स्पष्ट किया स्वामिना यदुक्तं सब खिल्पते-'तवानदान सम्बगया था कि स्वामी पात्रकेसरी और विद्यानन्द दो भिन्न मार्शनं । न तु सम्बग्दर्शनरामनिर्वचनसामनादेव सश्राचार्य हुए हैं-दोनोंका व्यक्तित्व भिन्न है, ग्रंथसमूह म्यग्दर्शनस्वरूपनिर्णयावशेषतविप्रतिपत्तिनिवृत्तः सिरभिन्न है और समय भी भिन्न है। पात्रकेसरी विक्रमकी त्वात्तवर्षे तापवचनं न युक्तिमदेवेति विदारका ७वीं शताब्दीके विद्वान् प्राचार्य अकलंकदेवसे भी पहले तामपाकरोति ।' हुए है-अकलंकके ग्रंथोंमें उनके बास्यादिका उल्लेख इसमें लोक बार्तिकके कर्ता विद्यानन्दिको ही पात्रहै-और उनके तथा विद्यानन्दके मध्यमें कई शतान्दियों- केसरी बतलाया है।" का अन्तर है । हर्षका विषय है कि मेरा वह लेख विद्वा. यह प्रमाण सबसे पहले गक्टर के० बी० पाठकने नोको पसन्द आया और उस वक्तसे बराबर विद्वानोंका अपने ‘भर्तृहरि और कुमारिल' नामके उस लेखमें उपउक्त भ्रम दूर होता चला जा रहा है। अनेक विद्वान स्थित किया था जो सन् १८९१ में रायल एशियाटिक मेरे उस लेखको प्रमाणमें पेश करते हुए भी देखे जाते सोसाइटी बम्बई ब्रांच के जर्नल (J.B.B. R. A. S.
for I892 PP. 222,223) में प्रकाशित हुआ मेरे उस लेख में दोनोंकी एकता-विषयक जिन पाँच था। इसके साथमें दो प्रमाण और भी उपस्थित किये प्रमाणोंकी जाँच की गई थी और जिन्हें निःसार व्यक्त गये थे-एक आदिपुराणकी टिप्पणीवाला और
....... 'दूसरा शानसूर्योदय नाटकमें 'शती' नामक बीहाबमें प्रकाशित 'न्यायकुमुदचन्द्र की प्रस्तावना- पात्रसे पुरुषके प्रति कहलाये हुए वाम्यवाला, में पं० लाशचन्द्रजी शाली भी बिखते है-"इस जो मेरे उक्त लेखमें क्रमश; नं. २, ४ पर दर्ज है।
बतफामीको दूर करने के लिये, भनेकान्त वर्ष पृट ग. शतीश्चन्द्र विद्याभूषणने, अपनी हसिक्न १. पर मुद्रित स्वामी पात्रकेसरी और विवानन्द' लाजिककी हिस्सरीमें, के. बी. पाठकके दूसरे दो सीक निवन्ध देखना चाहिये।"
प्रमाणोंकी अवगणना करते हुए और उन कोई
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अनेकान्त
[प्रथम श्रावण,वीर निर्वाण सं० २४६५
महत्व न देते हुए, सम्यक्त्यप्रकाशवाले प्रमाणको ही ग्रंथप्रतिको देखने और परीक्षा करनेसे मुके पाठक जीक उक्त लेखके हवालेसे अपनाया था और मालूम हो गया कि इस ग्रंथके सम्बन्धमें जो अनुमान उसीके श्राधारपर, बिना किमी विशेष ऊहापोहके, पात्र किया गया था वह बिल्कुल ठीक है-यह ग्रंथ अनुमानकेसरी और विद्यानन्दको एक व्यक्ति प्रतिपादित किया से भी कहीं अधिक अाधुनिक है और ज़रा भी प्रमाण था । और इसलिये ब्रह्मनेमिदत्तके कथाकोश तथा पेश किय जाने के योग्य नहीं है । इसी बातको स्पष्ट हुमंचावाले शिलालेखके शेष दो प्रमाणीको, पाठक करने के लिये आज मैं इस ग्रंथको परीक्षा तथा परिचयको महाशयक न समझकर तात्या नेमिनाथ पांगलके अपने पाठकोंके सामने रखता हूँ। समझने चाहिये, जिन्हें पं. नाथरामजी प्रेमीने अपने
सम्यक्त्वप्रकाश-परीक्षा स्याद्वादविद्यापति विद्यानन्दि' नाम के उस लेख में अप- यह ग्रंथ एक छोटासा संग्रह ग्रंथ है, जिसकी पत्रनाया था.जिसकी मैंने अपने लेखमें बालोचना की संख्या ३७ है-३७चे पत्रका कुछ पहला पृष्ठ तथा थी। अस्तु ।
दूसरा पृष्ठ परा खाली है, और जो प्रायः प्रत्येक पृष्ठ पर - उक्त लेख लिखते समय मेरे सामने 'सम्यक्त्वप्रकाश: ६ पंक्तियाँ तथा प्रत्येक पंक्तिमें ४५ के करीब अक्षरोंको ग्रन्थ नहीं था-प्रयत्न करने पर भी मैं उसे उस समयः लिये हुए है । ग्रंथ पर लेखक अथवा संग्रहकारका कोई तक प्रास नहीं कर सका था और इसलिये दसरे सब नाम नहीं है और न लिखने का कोई सन्-संवतादिक ही प्रमाणोंकी आलोचना करके उन्हें निःसार प्रतिपादन दिया है । परन्तु ग्रंथ प्रायः उसीका लिखा हुआ अथवा करनेके बाद मैंने सम्यक्त्वप्रकाशक "श्लोकवानिके लिखाया हुआ जान पड़ता है जिसने संग्रह किया है विद्यानन्दिपरनामपानकेसरिस्वामिना यदुक्तं तब और ६०-७० वर्षसे अधिक समय पहलका लिखा हुआ खिल्बते" इस प्रस्तावना-वाक्यकी कथनशैली परसे मालूम नहीं होता । लायब्रेरीके चिट पर Conmes इतना ही अनुमान किया था कि वह ग्रन्थ बहुत कुछ fron Surat शब्दोंके द्वारा सूरतसे आया हुश्रा श्राधुनिक जान पडता है, और दूसरे स्पष्ट प्रमाणोंकी लिखा है और इसने दक्कनकालिज-लायब्रेरीके सन् रोशनीमें यह स्थिर किया था कि उसके लेखकको दोनों १८७५-७६ के संग्रहमें स्थान पाया है। श्राचार्यों की एकताके प्रतिपादन करनेमें ज़रूर भ्रम इसमें मंगलाचरणादि-विषयक पद्योंके बाद तत्त्वार्थहुअा है अथवा वह उसके समझनेकी किमी ग़लतीका श्रद्धानं सम्यग्दर्शनमितिसूत्रं ॥शा" ऐसा लिख कर इस परिणाम है। कुछ असे बाद मित्रवर प्रोफेसर ए. एन. सूत्रकी व्याख्यादिके रूप में सम्यग्दर्शन के विषय पर क्रमशः उपाध्याय जी कोल्हापुरके सत्प्रयत्नसे 'सम्यक्त्वप्रकाश' सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक, दर्शनपाहुड, वह न० ७७७ की पूनावाली मूल प्रति ही मुझे देखनेके सूत्रपाहुड, चारित्रपाहुड, भावपाहुड, मोक्षपाहुड, पंचा. लिये मिल गई जिसका पाठक महाशयने अपने उस स्तिकाय,समयसार और बृहत् श्रादिपुराणके कुछ वाक्योंसन् १८६२ वाले लेखमें उल्लेख किया था। इसके लिये का संग्रह किया गया है। वार्तिकोंको उनके भाष्यसहित, मैं उपाध्याय जीका खास तौरसे आभारी हूँ और वे दर्शनपाहुडकी संपूर्ण ३५ माथाओंको (जिनमें मंगलाविशेष धन्यवादके पात्र हैं।
चरणकी गाथा भी शामिल है. !).उनकी छाया सहित,
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वर्ष २, किरण १०]
स्वामी पात्रकेसरी और विद्याभन्द
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शेष पाहुडोंकी कुछ कुछ गाथाओंको छायासहित, पंचा- काट रक्खा है परन्तु 'युग्मम्' को नहीं काटा है ! 'युग्मम्' स्तिकाय और समयसारकी कतिपय गाथाओंको छाया पदका प्रयोग पहले ही व्यर्थ-सा था,तीसरे श्लोकके निकल तथा अमृचन्द्राचार्यकी टीकासहित उद्धृत किया गया जानेपर वह और भी व्यर्थ होगया है। क्योंकि प्रथम दो है । इन ग्रंथ-वाक्योंको उद्धृत करते हुए जो प्रस्तावना- श्लोकोंके साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं बैठता, वे दोनों वाक्य दिये गये हैं और उद्धरणके अनन्तर जो समाप्ति- अपने अपने विषय में स्वतंत्र है-दोनों मिलकर एक सूचक वाक्य दिये हैं उन्हें तथा मंगलाचरणादिके ३-४ वास्य नहीं बनाते-इसलिये 'युग्मम्' का यहाँ न काटा पद्योंको छोड़कर इस ग्रन्थमें ग्रंथकारका अपना और कुछ जाना चिन्तनीय है ! हो सकता है ग्रंथकारको किसी तरह भी नहीं है।
पर तीसरा स्लोक अशुद्ध जान पड़ा हो, जो वास्तवमें ग्रन्थकारकी इस निजी जी और उसके उद्धृत अशुद्ध है भी, स्योंकि उसके तीसरे चरणमें ८ की करनेके ढंग श्रादिको देखनेसे साफ मालम होता है जगह ६ अक्षर हैं और पाँचवाँ अक्षर लघु न होकर कि वह एक बहुत थोड़ीसी सममबमका. साधारण गुरु पड़ा है जो छंदकी दृष्टिसे ठीक नहीं; और इसलिये श्रादमी था, संस्कृतादिका उसे यथेष्ट बोध नहीं था और उसने इसे निकाल दिया हो और 'युग्मम्' पदका निकान ग्रंथ-रचनाकी कोई ठीक कला ही वह जानता था। लना वह भूल गया हो ! यह भी संभव है कि एक ही तब नहीं मालूम किस प्रकारकी वासना अथवा प्रेरणासे आशयके कई प्रतिशावाक्य होजानेके कारण | उसे इस प्रेरित होकर वह इस ग्रंथके लिखनेमें प्रवृत्त हुआ है !! श्लोकका रखना उचित न ऊँचा हो, वह इसके स्थानपर अस्तु; पाठकोंको इस विषयका स्पष्ट अनुभव करानेके कोई दसरा ही श्लोक रखना चाहता हो और इसीसे उसने लिये ग्रंथकारकी इस निजी पूँजी आदिका कुछ दिग्दर्शन 'युग्मम्' तथा चौथे श्लोकके अंक '४' को कायम रक्खा कराया जाता है:
हो; परन्तु बादको किसी परिस्थितिके फेरमें पड़कर वह (१) ग्रन्थका मंगलाचरण तथा प्रतिज्ञावाक्योंको उस श्लोकको बना न सका हो!। परन्तु कुछ भी हो, लिये हुए प्रारंभिक अंश इस प्रकार है
ग्रन्थकी इस स्थितिपरसे इतनी सूचना जरूर मिलती है "ॐनमासिदेव अथ सम्यक्त्वप्रकाश बिल्यते ॥ कि यह ग्रन्थप्रति स्वयं ग्रंथकारकी लिखी हुई अथवा प्रबन्ध परमं देवं परमानंदविधाय।
लिखाई हुई है। सम्यक्त्वनपणं वच्चे पूर्वाचार्यकृतं शुभम् ॥१॥ 'अथ सम्यक्त्वप्रकाश खिल्पते' इस वाक्यमें 'सम्यमोपमार्गे जिनरुक्तं प्रथमं दर्शनं हितं ।
क्त्वप्रकाश' शब्द विभक्तिसे शून्य प्रयुक्त हुआ है जो तहिना सर्वधर्मषु चरितं निष्फलं भवेत् ॥२॥ एक मोटी व्याकरण-सम्बन्धी अशुद्धि है। कहा जातस्मादर्शनपर्य जयननसंधुतं ।
सकता है कि यह कापी किसी दूसरेने लिखी होगी और सम्बक्त्यप्रकाशकं प्रंवं करोम हितकारकम् ॥३॥ पुग्मम् ॥ वही सम्यक्त्वप्रकाशके आगे विसर्ग(:)लगाना भूल गया तस्वार्थाधिगमे सूत्रे पूर्व दर्शनार्थ।।
प्रविज्ञा-वाक्य इस प्रकारमोपमागें समुष्टि वदहं चात्र बिल्पते ॥en"
सम्पपलबार बये, २ सम्यक्त्वप्रकाशकं प्रय, नं.३ के लोक को अंक तक काली स्याहीसे रोमियतदापात्र विल्यते।
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२४०
अनेकान्त
[प्रथम श्रावण, वीर-निर्वास सं० २४६५
होगा । परन्तु जब आगे रचनासम्बन्धी अनेक मोटी-मोटी सहित ® उद्धृत करते हुए, २९वी गाथाके स्थान पर अशुद्धियोको देखा जाता है तब यह कहनेका साहस उसकी छाया और छायाके स्थान पर गाथा उद्धृत नहीं होता । उदाहरणके लिये चौथे श्लोकमें प्रयुक्त हुए की गई है ! और पाँचवीं गाथाकी छायाके अनन्तर "तदहं चात्र जिल्यते" वाक्यको ही लीजिये, जो ग्रंथ- "अस्मिन् द्वौ खं शब्दं तयारुते अव्ययं वाक्याकारकी अच्छी खासी अज्ञताका द्योतक है और इस संकारार्थे वर्तते" यह किसी टोकाका अंश भी यों ही बातको स्पष्ट बतला रहा है कि उसका संस्कृत व्याकरण- उद्धत कर दिया गया है। जबकि दूसरी गाथाकि सम्बन्धी ज्ञान कितना तुच्छ था। इस वाक्यका अर्थ साथ उनकी टीकाका कोई अंश नहीं है । मोक्षपाहुडकी होता है “वह (दर्शनलक्षण) मैं यहाँ लिखा जाता है," ४ गाथाओंको छायासहित उद्धृत करनेके बाद "इति जबकि होना चाहिये था यह कि 'दर्शनलक्षण मेरे द्वारा मोक्षपाहुडे" लिखकर मोक्षपाहुडके कथनको समाप्त यहाँ लिखा जाता है' अथवा 'मैं उसे यहाँ लिखता हूँ।' किया गया है । इसके बाद ग्रंथकारको फिर कुछ खयाल
और इसलिये यह वाक्य प्रयोग बेहूदा जान पड़ता है। आया और उसने 'तथा' शब्द लिखकर ६ गाथाएँ इसमें 'वदह' की जगह 'तम्मया' होना चाहिये था- और भी छायासहित उपत की हैं और उनके अनन्तर 'अहं' के साथ लिख्यते'का प्रयोग नहीं बनता, 'लिखामि' इति मोषपाहुर' यह समाप्तिसूचक वाक्य पुनः दिया का प्रयोग बन सकता है। जान पड़ता है ग्रंथकार है। इससे ग्रन्थकारके उद्धृत करनेके ढंग और उसकी 'जिल्प' और 'लिखामि' के भेद को भी, ठीक नहीं असावधानीका कितना ही पता चलता है। समझता था।
(३) अब उद्धृत करने में उसकी अर्थशान-सम्बन्धी (२) इसीप्रकारकी अज्ञता और बेहूदगी उसके योग्यता और समझने के भी कुछ नमूने लीजियेनिम्न प्रस्तावनावास्यसे मी पाई जाती है, जो 'तत्वार्थ- (क) श्लोकवार्तिकमें द्वितीय सूत्रके प्रथम दो श्रद्धानं सम्यग्दर्शन' सूत्र पर श्लोकवार्तिकके २१ वार्तिकों वार्तिकोंका जो भाष्य दिया है उसका एक अंश इस को भाष्यसहित उद्धृत करनेके बाद "इति लोकवार्तिके प्रकार है:॥३॥" लिखकर अगले कथनकी सूचनारूपसे दिया "न अनेकार्थत्वादातूनां शेः श्रद्धानार्थत्वगतः । गया है:
कथमनेकस्मिायें संभवत्पपि भवानार्थस्यैव गतिरितिवेत, ___"अब परमाहुरमध्ये वर्शनपाहुरे कुंवछंदस्वामिना प्रकरणविशेषात् । मोपकारणत्वं हि प्रकृतं तत्वाबदासम्बकत्वरूपं प्रतिपादयति ॥"
नस्य युज्यते नालोचनादेरावरस्य।" .. इसमें तृतीयान्त 'स्वामिना' पदके साथ 'प्रतिपा- ग्रन्थकारने, उक्त वार्तिकोंके भाष्यको उद्धृत करते .वपति' का प्रयोग नहीं बनता-वह व्याकरणकी दृष्टि से हुए, इस अंशको निम्न प्रकारसे उद्धृत किया है, जो महाअशुद्ध है-उसका प्रयोग प्रथमान्त 'स्वामी' पदके अर्थक सम्बन्धादिकी दृष्टिसे बड़ा ही बेढंगा जान पड़ता साथ होना चाहिये था।
यहाँ पर इतना और भी जान लेना चाहियेाषा प्रापः श्रुतसागरकी कापासे मिलती-जुलती दर्शनपाहुडकी पूरी ३६ गाथाओंको छाया- है-कहीं-कहीं साधारणसा भेद है।
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वर्ष २,
किरण १०]
स्वामी पात्रकेसरी और विद्यानन्द
"मानेकार्थत्वादावून मुत्पद्यते बालोचनादेरथ तरस्य ।"
सकता है कि जिस ग्रंथप्रतिपरसे उद्धरण कार्य किया गया हो उसमें लेखककी असावधानीसे यह अंश इसी अशुद्ध रूपमें लिखा हो; परन्तु फिर भी इससे इतना तो स्पष्ट है कि संग्रहकार में इतनी भी योग्यता नहीं थी कि वह ऐसे वाक्य अधूरेपन और बेढंगेपनको समझ सके । होती तो वह उक्त वाक्यको इस रूपमें कदापि उद्धृत न करता ।
नं० १५४ से १७० तक पाई जाती हैं। १६८ और १६६ नम्बरवाली गाथाएँ वास्तवमें पंचास्तिकायके 'नवपदार्थाधिकार' की गाथाएँ हैं और उसमें नम्बर १०६, १०७ पर दर्ज हैं। उन्हें 'मोक्षमार्गप्रपंचसूचिका चूलिका' अधिकारकी बतलाना सरासर ग़लती है । परन्तु इन ग़लतियों तथा नासमकियोंको छोड़िये और इन दोनों गाथाओं की टीकापर ध्यान दीजिये । १६६ ( १०७ ) नम्बरवाली 'सम्म सहयं ० ' गाथा टीकामें तो "सुगमं” लिख दिया है; जबकि अमृतचन्द्राचार्यने उसकी बड़ी (ख) श्रीजिनसेन प्रणीत श्रादिपुराणके हवें पर्व- अच्छी टीका दे रक्खी है और उसे 'सुगम' पदके योग्य का एक श्लोक इस प्रकार हैशमादर्शनमोहस्य सम्यक्त्वादानमादितः । जन्तोरनादिमिथ्यात्वकलंककलिलात्मनः ॥११७॥
पो भदानार्थमानस्य
इसमें अनादि मिथ्यादृष्टिजीवके प्रथम सम्यक्त्वका ग्रहण दर्शनमोहके उपशमसे बतलाया है । 'सम्यक्त्वप्रकाश' में इस श्लोकको श्रादिपुराणके दूसरे श्लोकोंके साथ उद्धृत करते हुए, इसके "शमाद्दर्शनमोहस्य" चरणके स्थानपर 'सम्यक्दर्शनमोहस्य' पाठ दिया है, जिससे उक्त श्लोक बेढंगा तथा वे मानीसा होगया है और इस बातको सुचित करता है कि संग्रहकार उसके इस बेढंगेपन तथा बेमानीपनको ठीक समझ नहीं सका है।
(ग) ग्रंथ में " इति मोक्षपाहुडे ॥" के बाद "अथ पंचास्तिकायनामग्रम्ये कुन्दकुन्दाचार्यः (?) मोक्षमार्गप्रपंचसूचिका चूलिका वर्णिता सा लिख्यते ।" इस प्रस्तावना - वाक्य के साथ पंचास्तिकायकी १६ गाथाएँ संस्कृतच्छाया तथा टीकासहित उद्धृत की हैं और उनपर गाथा नम्बर १६२ से १७८ तक डाले हैं, जब कि वे १८८० तक होने चाहिये थे । १७१ और १७२ नम्बर दोबार ग़लतीसे पड़ गये हैं अथवा जिस ग्रंथप्ररस नकल की गई है उसमें ऐसे ही ग़लत नम्बर पड़े होंगे और संग्रहकार ऐसी मोटी ग़लती को भी 'नक्कल राचेअकल' की लोकोक्तिके अनुसार महसूस नहीं करसका ! श्रस्तु इन गाथाओं में से १६८, १६६ नम्बरकी दो गा थानोंको छोड़कर शेष गाथाएँ वे ही हैं जो बम्बई रायचन्द जैनशास्त्रमालामें दो संस्कृत टीकाओं और एक हिन्दी टीका साथ प्रकाशित 'पंचास्तिकाय' में क्रमशः
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नहीं समझा है । और १६८ (१०६) नम्बरवाली गाथाकी जो टीका दी है वह गाथासहित इस प्रकार हैसम्मतं गायजुवं । चारितं रागदोसपरिहीयं । मोक्सस्स हवदि मग्गो भव्वाणं तदीयं ॥
टीका- "पूर्वमुद्दिष्टं तत्स्वपरप्रत्ययपर्यायाश्रितं मित्रसाध्यसाधनभावं व्यवहारनयमाश्रित्य प्ररुपितम् । न चैतद्विप्रतिषिद्ध निश्चयम्यवहारयोः साध्यसाधनभावस्वात् सुवर्ण- सुवर्णपाषाणवत् । अतएवोभवनयायत्ता पारमेश्वरी तीर्थप्रवर्तनेति ॥”
यह टीका उक्त गाथाकी टीका नहीं है और न हो सकती है, इसे थोड़ी भी समझबूझ तथा संस्कृतका शान रखनेवाला व्यक्ति समझ सकता है। तब ये महत्व की
सम्बद्ध पंक्तियाँ यहाँ कहाँसे श्रार्ड १ इस रहस्यको जाननेके लिये पाठक जरूर उत्सुक होंगे । अतः उसे नीचे प्रकट किया जाता है-
श्री अमृतचन्द्राचार्यने 'चरियं चरदि सगं सो०' इस गाथा नं ० १५६ की टीकाके अनन्तर अगली गाथाकी प्रस्तावना को स्पष्ट करने के लिये "बसु" शब्दसे प्रारम्भ करके उक्त टीकांकित सब पंक्तियाँ दी है, तदनन्तर “निश्चयमोचमार्गसाधनभावेन पूर्वोद्दिष्टम्यवहारमोचमार्गोऽयम्" इस प्रस्तावनाबाक्यके साथ अगली गाथा
+ देखो, बम्बईकी वि०संवत् १३७२ की छपी हुई उक्त प्रति, पृष्ठ १६८, १६६
+ बम्बई की पूर्वोल्लेखित प्रतिमें प्रथम चरणका रूपं "सम्मत्तखाबर्त्त" दिया है और संस्कृत टीकाएँ भी उसीके अनुरूप पाई जाती हैं।
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५४२
अनेकान्त
[प्रथम श्रावणा,वीर-निर्वाण सं०२४६५
नं० १६० दी है, और इसतरह उक्त पंक्तियों के द्वारा जो २२८, २२६ (२२६, २२७) दोनी गाथाओंकी थी! पूर्वोद्दिष्ट-पूर्ववर्ती नवपदार्थाधिकारमें 'सम्मत्त श्रादि दो साथमें "त्यक्तं येन फलं-" नामका एक कलशपद्य भी दे गाथाओं के द्वारा कहे हुए-व्यवहार मोक्षमार्गकी पर्याय दिया है और दसरे "सम्यगष्टय एक-" नामके कलशदृष्टिको स्पष्ट करते हुए उसे सर्वथा निषिद्ध नहीं ठहराया पद्यको दूसरी गाथा नं. २२६ (२२७) की टीकारूपमें है। बल्कि निश्चय-व्यवहारनयमें साध्य-साधन भावको रख दिया है!! इस विडम्बनासे ग्रन्थकारकी महामूर्खता व्यक्त करते हुएदोनों नयोंके प्राश्रित पारमेश्वरी तीर्थ- पाई जाती है, और इस कहने में जरा भी संकोच नहीं प्रवर्तनाका होना स्थिर किया है। इससे उक्त पंक्तियाँ होता कि वह कोई पागल-सा सनकी मनुष्य था, उसे दूसरी माथाके साथ सम्बन्ध रखती हैं और वहीं पर सु- अपने घर की कुछ भी समझ-बुझ नहीं थी और न इस संगत है। सम्यक्त्वप्रकाशके विधाताने “यत्त' शब्दको बातका ही पता था कि ग्रन्थरचना किसे कहते हैं। तो उक्त गाथा १५६ (१६७) की टीकाके अन्तमें रहने इस तरह सम्यक्त्वप्रकाश ग्रंथ एक बहुत ही अाधुदिया है, जो उक्त पंक्तियोंके बिना वहाँ लँडरासा जान निक तथा अप्रामाणिक ग्रंथ है। उसमें पात्रकेसरी तथा पड़ता है ! और उन पंक्तियोंको यों ही बीचमें घुसेड़ी विद्यानन्दको जो एक व्यक्ति प्रकट किया गया है वह यों हुई अपनी उक्त गाथा नं. १६८ (१०६) की टीकाके ही सुना-सुनाया अथवा किसी दन्तकथा के आधार पर रूपमें धर दिया है !! ऐसा करते हुए उसे यह समझ ही अवलम्बित है। और इसलिये उसे रंचमात्र भी कोई नहीं पड़ा कि इसमें आए हए "पर्वमूहिट" पदोंका महत्व नहीं दिया जासकता और न किसी प्रमाणमें पेश सम्बन्ध. पहलेके.कौनसे कथनके साथ लगाया जायगा!! ही किया जासकता है। खेद है कि डाक्टर के० बी० और न यह ही जान पड़ा कि इन पंक्तियोंका इस गाथा- पाठकने बिना जाँच-पड़तालके ही ऐसे आधुनिक, अप्राकी टीका तथा विषयके साथ क्या वास्ता है !!! माणिक तथा नगण्य ग्रंथको प्रमाणमें पेश करके लोकमें
इस तरह यह स्पष्ट है कि ग्रन्थकारको उद्धृत करने- भारी भ्रमका सर्जन किया है !! यह उनकी उस भारी श्रकी भी कोई अच्छी तमीज नहीं थी और वह विषयको सावधानीका ज्वलन्त दृष्टान्त है, जो उनके पदको शोभा ठीक नहीं समझता था।
नहीं देती । वास्तवमें पाठकमहाशयके जिस एक भ्रमने (१) पंचास्तिकायकी उक्त गाथाओं आदिको बहत्तसे भ्रमोंको जन्म दिया-बहुतोंको, मलके चक्कर में उद्धृत करनेके बाद “इति पंचास्तिकायेषु" (!) यह डाला, जो उनकी अनेक मुलोंका आधार-स्तम्भ है और . समाप्तिसूचक वाक्य देकर ग्रन्थमें “अथ समयसारे पदुक्तं जिसने उनके अकलंकादि-विषयक दूसरे भी कितने ही तक्विल्पते" इस प्रस्तावना अथवा प्रतिज्ञा-वाक्यके निर्णयोंको सदोष बनाया है वह उनका स्वामी पात्रकेसरी साथ समयसारकी ११ गाथाएँ नं. २२८ से २३८ तक, और विद्यानन्दको, बिना किमी गहरे अनुसन्धानके, एक संस्कृतचाया और अमृतचन्द्राचार्यकी श्रात्मख्याति मान लेना है। टीकाके साथ, उद्धृत की गई है। ये गाथाएँ वे ही हैं. मुझे यह देखकर दुःख होता है कि श्राज डाक्टर जो रायचन्द्रजैन ग्रन्थमालामें प्रकाशित समयसारमें साहब इस संसारमें मौजद नहीं है। यदि होते तो वे ज़रूर क्रमशः नं० २२६ से २३६ तक पाई जाती हैं। श्रात्म- अपने भ्रमका संशोधन कर डालते और अपने निर्णयको ख्यातिमें २२४से २२७ तक चार गाथाओंकी टीका एक बदल देते । मैंने अपने पर्वलेखकी कापी उनके पास साथ दी है और उसके बाद कलशरूपसे दो पद्य दिये भिजवादी थी। संभवतः वह उन्हें उनकी अस्वस्थावस्थाहै। सम्यक्त्वप्रकाशके लेखकने इनमेंसे प्रथम दो गाथा- में मिली थी और इसीसे उन्हें उस पर अपने विचार श्रोको तो. उद्धृत ही नहीं किया । दूसरी दो गाथाओंको प्रकट करनेका अवसर नहीं मिल सका था। अलग अलग उद्धृत किया है, और . ऐसा करते हुए वीरसेवामन्दिर, सरसावा, . गाथा नं.२२८ (२२६) के नीचे वह सब टीका दे दी हैं
ता० १७-७-१६३६
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दिगम्बर-श्वेताम्बर-मान्यता भेद
०ि
-श्री भगरचन्दली नाहटा]
नसमाजमें साधारण एवं नगण्य मत भेदोंके वितंडावाद खड़ा कर देते हैं। इन सब बातोंका मैं स्वयं "कारण कई सम्प्रदायोंका जन्म हुआ, और वे बहुत भुक्त-भोगी हूँ। मैं जब कलकत्तेमें रहता या जाता हूँ तो सी बातोंमें मत-ऐक्य होने पर भी अपनेको एक दूसरेका मेरा साहित्यिक कार्योंके वश अन्वेषण प्रादिके लिये विरोधी मानने लगे । इसी कारण हमारा संगठन तथा असर दिगम्बर-मंदिरोंमें जाना हो जाता है । तो कई संघबल दिनोंदिन छिन्न भिन्न होकर समाज क्रमशः भाई शंकाशील होकर कितनीही व्यर्थकी बातें पूछ बैठते अवनति-पथमें अग्रसर हो गया।
हैं श्राप कौन हैं क्यों आये हैं ? अजी आप तो __अब ज़माना बदला है, संकुचित मनोवृत्ति वालोंकी जैनाभास है, आपकी हमारी तो मान्यतामें बहुत अंतर
आँखें खुली हैं। फिर भी कई व्यक्ति उसी प्राचीनवृत्तिका है! इत्यादि । इसी प्रकार एक बार मैं नागौरके पोपण एवं प्रचार कर रहे हैं, लोगोंके सामने क्षुद्र क्षुद्र दिगम्बर मंदिरोंमें दर्शनार्थ मया तो एक भाईने श्वे. बातोंको 'तिलका ताड़' बनाकर जनताको उकसा रहे हैं। साभरण मूर्ति के प्रसंग श्रादिको उठाकर बड़ा वादअतः उन भेदोका भ्रम जनताके दिलसे दूर हो जाय विवाद खड़ा कर दिया, और मुझे उद्देश्य कर यह प्रयत्न करना परमावश्यक है।
श्वे. समाजकी शास्त्रीय मान्यता पर व्यर्थका दोषारोपण श्वेऔर दि० समाज भी इन मत भेदोंके भूतका करना प्रारंभ कर दिया । ये बातें उदाहरण स्वरूप शिकार है । एक दूसरेके मन्दिरमें जाने व शास्त्र पढ़नेसे अपने अनुभवकी मैंने कह डाली हैं। हमें एक दूसरेसे मिथ्यात्व लग जानेकी संभावना कर रहे हैं । एक मिलने पर तो जैनत्वके नाते वात्सल्य प्रेम करना दूसरेके मंदिरमें वीतरागदेवकी मूर्तिको देख शान्ति चाहिये, शास्त्रीय विचारोंका विनिमय कर ज्ञानवृद्धि पाना तो दूर रहा उलटा देष भभक उठता है । पवित्र करनी चाहिये उसके बदले एक दूसरेसे एक दूसरेका.मानों तीर्थ स्थानोंके झगड़ोंमें लाखों रुपयोंका अपव्यय एवं कोई वास्ता ही नहीं, मान्यताओंमें आकाश पातालका पक्षपातका निरापोषण एवं आपसी मनोमालिन्यकी अंतर है ऐसा उद्भासित होने लगता है। कहाँ तक कहूँ अभिवृद्धि होरही है।
हम एक दूसरेसे मिलनेके बदले दूरातिदूर हो रहे हैं। एकके मंदिरमें अन्यके जाने मात्रसे कई शंकाएँ अब हमें विचारना यह है कि हमारेमें ऐसे कौन उठने लगती है, जानेवालेको अपनी अभ्यसित कौनसे मतभेद हैं जिनके कारण हमारी यह परिस्थिति संकुचितवृत्तिके कारण भक्ति उदय नहीं होती। कोई और यह दशा हो रही है। वास्तबमें वे भेद कहाँ तक कोई माई तो एक दूसरे पर आक्षेप तक कर बैठते हैं- ठीक है ? और किन भावनाओं विचारधारामोंसे हम पूजा-पद्धति आदि सामान्य भेदोंको आगे कर व्यर्थका उनका समाधान कर एक सूत्रमें फैध सकते है।
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अनेकान्त
[प्रथम श्रावण, वीर-निर्वाण सं०२४६५
साधारणतया दिगम्बर-श्वेताम्बर भेद ८४ कहे जाते . ७ तीर्थकरोंके सहोदर भाइयोका होना हैं । इन ८४ भेदोंकी सृष्टि-प्रसिद्धि दि० पं० हेमराजजी ८ स्त्री-मुक्ति कृत चौरासी बोल एवं श्वे यशोविजयजी रचित 'दिक्पट ६ शूद्र मुक्ति चौरासी बोल' नामक ग्रन्थों के प्राधारसे हुई प्रतीत होती १० वस्त्र-सहित पुरुष-मुक्ति है। पर वर्तमानमें ये दोनों ग्रन्थ मेरे सन्मुख न होनेसे ११ गृहस्थ वेषमें मुक्ति उपापोह नहीं किया जासकता । दि० श्वे. भेदोंकी १२ साभरण एवं कछोटे वाली प्रतिमापूजन उस्कृष्ट संख्या ७१६ होनेका भी उल्लेख मैंने कहीं देखा १३ मुनियोंके १४ उपकरण है, पर वे कौन कौनसे हैं ? उनकी सूची देखने में नहीं १४ मल्लिनाथ तीर्थंकरका स्त्री लिंग आई।
१५ पात्रमें मुनि श्राहार बीकानेरके शान-भंडारों एवं हमारे संग्रहमें भी १६ एकादश अंगोंकी विद्यमानता दि० श्वे० भेदोंकी कई सूचियाँ मेरे अवलोकनमें प्राई १७ द्रौपदी के पाँच पति हैं। उनमें एक दो प्रतियोंमें तो भेदोंकी संख्या ८४ लिखी १८ वसुदेवके ७२ हजार स्त्री है,पर अन्य प्रतियों में कई बातें अधिक भी लिखी गई हैं। १६ भरतचक्रवर्तीको अारिसाभवनमें केवलज्ञान अतः उन सबके आधारसे जितने भेदोका विवरण प्रत २० भरत चक्रीके सुन्दरी स्त्री होता है इनकी सूची नीचे दीजाती है
२१ सुलसाके ३२ पुत्रोंका एक साथ जन्म इन भेदोंको मैंने तीन भागोंमें विभक्त कर दिया है २२ ऋषभदेवकी विवाहिता सुमंगलाके ६६ पुत्र-जन्म (१) जिन बातोंको श्वेताम्बर मानते हैं, दिगम्बर २३ भगवानकी १७ प्रकारी या अंग अग्र, भावपजा . नहीं मानते; (२) जिन्हें दिगम्बर मानते हैं; श्वेताम्बर २४ समुद्रविजयकी माद्री बहिन दमघोषकी स्त्री थी नहीं मानते , (३) वस्तु दोनों मानते हैं पर उनके २५ प्रभु मुनिसुव्रतने अश्वको प्रतिबोध दिया प्रकासेंकी संख्यामें एक दूसरेकी मान्यतामें तारतम्य या २६ अकर्म भूमिके युगलिक हरि-हरिणीसे हरिवंश चला भेद है।
२७ संघादिके लिये मुनि युद्ध भी करे (१) वे बातें जिनको श्वेताम्बर मानते हैं
२८ मल्लिनाथजीका नीलवर्ण
२६ भगवान्की दादको देव-इन्द्र स्वर्ग लेजाकर पूजे पर दिगम्बर नहीं मानते:
३० देव मनुष्य-स्त्रीसे संभोग कर सके १ केवलीका कवलाहार
३१ उपवासमें औषध अफीमादिका ले सकना २ केवसीका निहार
३२ बासी पक्वान भोजन (जल रहित पक्वान बासी नहीं) ३ केवखीको उपसर्ग अशुभ वेदनीय कर्मोदय ३३ शूद्र-कुम्हार आदिके घरसे मुनि श्राहार ले सके .४ भोग भूमियोंका निहार
३४ चमड़ेकी पखालका जल पी सकना ५ त्रिपाधिशलाका पुरुषोंका निहार
३५ महावीरका गोपहार ६ ऋषभदेवका सुमंगलासे विवाह
३६ महावीरकी प्रथम देशना निष्फल
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वर्ष २, किरण १.]
दिगम्बर-श्वेताम्बर-मान्यता भेद
५१
होना
३७ महावीरस्वामीको तेजोलेश्याका उपसर्ग, ६१ चक्रवर्तीका ६४ हज़ार रूप धारण कर सब पस्नियों.. ३८ महावीरके जन्माभिषेकमें मेरु-कम्पन
__ से संभोग ३६ महावीर स्वामीका गर्भ में अभिग्रह करना ६२ गंगादेवीसे भरत चक्रवर्तीका संभोग..... .. ४० महावीर-वंदनार्थ चंद्र-सूर्यका मूल विमानसे आगमन ६३ यादव मांसभक्षी भी पे ४१ महावीर विवाह, कन्या जन्म, जामाता जमालि ६४ उत्कृष्ट १७० तीर्थकर एक समय होते हैं .. ४२ महावीर-समयमें चमरेन्द्रका उत्पात
६५ बाहुबलिको ब्राझी सुन्दरीके वचन श्रवणकर कैवल्य ४३ २५।। आर्य देश ४४ महावीरका विद्यालय महोत्सव
६६ नाभि-मरुदेवी युगलिक थे। ४५ महावीरको छींक आना
(२) वे बातें जिन्हें दि० मानते हैं श्वे. ४६ ऋषभदेवका युगलिक रूपसे जन्म
नहीं मानते४७ साधुकी आहारादि विधिमें भिन्नता
६७ चौबीस काम पदवी ४८ आदीश्वरका ४ गुष्टि लोच.
६८ युगलिक एवं केवलियोंके शरीरका मृत्यु अनन्तर ४६ तीर्थकरके स्कंध पर देवदुष्य वस्त्र
करादिके समान उड़ जाना बिखर जाना ५० स्नात्र महोत्सवके लिये इन्द्रका रूप धारण करना
६६ विभाग नं.१ की बातोंका विपरीत रूप; जैसे दि. ५१ तीर्थंकरोंका संवत्सरीदान
नम्नावस्थाके बिना मोक्ष न हो, स्त्रीको मोक्ष व ५२ मरूदेवीका हाथी पर चढ़े हुए मोक्ष जाना .
पंच महाव्रत न हो इत्यादि । एवं न०(१) विभाग ५३ कपिल केवलीका चोरके प्रतिबोधनार्थ नाटक करना
योग्य और भी उनके साधारण भेद लिखे मिलते हैं ५४ लब्धि संपन्न मुनि एवं विद्याधर, मानुषोत्तर पर्वतके
जिनका समावेश ऊपरकी बातों में ही होजाता है। आगे भी जावें।
अतः व्यर्थकी पृष्ठ एवं नम्बर संख्या बढ़ाना ५५ ऋषभदेवादि १०८ जीव एक समयमें मोक्ष गये ।
उचित नहीं समझकर उन्हें छोड़ दिया गया है। ५६ साधु अनेक घरोंसे मिक्षा ग्रहण करें। ५७ ऋषभदेवजीका बाल्यावस्थासे दीक्षा तक कल्प
(३) वस्तुकी मान्यतामें तारतम्य भेदवृक्षोंके फलोंका आहार
बस्तु . श्वेताम्मरमान्यता विगम्बर मान्यता ५८ बाहुबलि-देहमान ५०० धनुष्य
७. स्वर्ग संख्या १२ १६. ५६ त्रिपृष्ट वासुदेव बहिन की कुक्षिसे उत्पन्न हुए ... ७१ इन्द्र संख्या ६४ १०. ६० भावकोंके व्रतोंमें ६ षंडी आगार .. . ७२चक्रवर्तीकी स्त्री
..
. संख्या ६४ हज़ार. १६ हजार पडमचरिब' के तृतीय पकी पी गावाके......... निम्न अपमें पंच मुहि खोंचरना लिसा -
दिगम्बर सिंहनन्दी भाचार्यने, रामसिन "सिखाई गधार या पंचमुहि बो। स्वर्ग:वा दी है, इससे दिगम्बर-सम्मान ,
" -सम्पादक संख्याका सर्वका एकान्त नहीं है। सम्पादक
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५४६
अनेकान्त
[प्रथम श्रावण, वीरनिर्वाण सं०२४६
c.L
७५ स्वर्गलोक
स्वेद, खेद, प्रतर संख्या ६२
चिन्ता, विषाद ७४ अन्तर दीपसंख्या ५६ .
८२ तीर्थकरोंकी वाणी मुखसे निकले
मस्तकसे । ७५ तीर्थकर माताके
८३ दश आश्चर्य कृष्ण अमर भिन्न ही
कंका गमनादि ७६ नेमिनाथ-दीक्षान्तर
८४ तीर्थंकरोंके भव-जन्म स्थानादि तारतम्य ___ कैवल्योत्पत्ति ५४ दिन बाद ५६ दिन बाद इसीप्रकार उदयतिथि, देव देहमान, इंद्राणी संख्या ७७ जन्माभिषेक समय .
आदि कई बातोंमें और भी तारतम्य है। ___ इन्द्रके श्राने का पालक विमान ऐरावत हाथी इस सूचीको पढ़कर पाठक स्वयं समझ सकेंगे कि षाहन
भेद कितनी साधारण कोटिके हैं। ऐसे नगण्य भेद दि० ७८ प्रलय-प्रमाण छहखंड प्रलय आर्यखंड प्रलय श्वे० में ही क्यों, एक ही सम्प्रदायके विभिन्न ग्रन्थों में भी ७६ मुनिके पारने एकसे अधिक बार एक ही बार असंख्य पाये जाते हैं । कथानुयोगके जितने भी ग्रंथ श्रादिके अवसर भी भोजन
देख लीजिये किसीमें कुछ तो किसीमें कुछ इस प्रकार पर भोजन लेना ले सके
अनेक असमान बातें मिलेंगी। कथा साहित्यकी बात ८० कालद्रव्य स्वतंत्र द्रव्य नहीं। स्वतंत्र द्रव्य है जाने दीजिये, श्वेताम्बर आगम ग्रंथों एवं प्रकरणोंमें ८१ अठारह दोष दानादि अन्तराय५, तुधा, तृषा, अनेक विसंवाद पाये जाते हैं, जिनके संग्रहरूप कविवर
हास्य, रति, अरति, जरा, रोग, समयसुंदरजीके 'विसंवादशतक' श्रादि मौलिक ग्रंथ भी भय,जुगुप्सा,शोक, जन्म, मरण, उपलब्ध है। जब एक ही संप्रदायमें अनेक विचार भेद काम, मिथ्यात्व, भय, मद, राग, विद्यमान हैं तो भिन्न सम्प्रदायोंमें होना तो बहुत कुछ अशान,निद्रा,अ- द्वेष,मोह, अरति, स्वाभाविक तथा अनिवार्य है । अतएव ऐसे नगण्य विरति,राग, द्वेष निद्रा, विस्मय, भेदोंके पीछे व्यर्थकी मारामारी कर विरोध बढ़ाना कहाँ
....... तक संगत एवं शोभाप्रद हो सकता है ? पाठक स्वयं दिगम्बराचार्य विनसेनने, भाविपुराणके ३७३ विचार करें। वर्षम, 'भवेयुरन्तर दीपाः षटपंचारावामा मिता' वाक्य- श्वेताम्बरीय 'लोकप्रकाश' ग्रन्थमें १८ दोषोंका के द्वारा अन्तर द्वीपोंकी संख्या ५६ दी है, इससे इस एक दूसरा प्रकार भी दिया है, जिसमें दानादि पांच संख्याका भी सर्वया एकान्त नहीं है। -सम्पादक अन्तराप, जुगुप्सा, मिथ्यात्व, अविरति द्वेष नामके
श्वेताम्बर 'भगवती' सूत्र मादि भागमों में काल दोष नहीं, इनके स्थान पर हिंसा, भलीक, चोरी, क्रोध, को स्वतन्त्र मन्म भी माना है, ऐसा पं० सुखजाननी मान, माषा, बोम, मद, मत्सर वोष दिये और कामके अपने चौथे कर्म ग्रन्थके परिसिटमें, पृ १०पर सूचित लिये क्रीडा, तथा रागके लिये प्रेम माब्दों का प्रयोग
-सम्पादक किया है। सम्पादक
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वर्ष २, किरण १.]
दिगम्बर-श्वेताम्बर-मान्यता-भेद
५४७
थोड़ी देरके लिये यदि सामान भी लिया जाय कि विधिको साधारण असमानताको अलग रखकर हमें ऐसे मेद बहुत है, फिर भी मेरी नम्र विनति यह है कि हमें अपने निर्मल विवेक वारा आपसी तुला विरोध तथा साब साथ यह भी वो देखना चाहिये कि हममें विचारों- संकुचित मनोको विसर्जन कर जैनत्वक प्रयटरनेमें मान्यताओंकी एकता कितनी है? यदि सहशता-एकता अभिमभावसे अनवरत प्रयत्न करना चाहिये। अधिक है तो फिर उससे लाभ क्यों न उठाया जाय ? विरोधाग्निकी ज्याला दि० श्वे. में परस्पर ही इससे रागद्वेषका उपशम होगा, आत्माकी निर्मलता सीमित नहीं, बल्कि दिगम्बर-दिगम्बरोंमें और श्वेताम्बरोंबढ़ेगी, जो कि सारे कर्त्तव्योंका-क्रिया कांडोंका चरम- श्वेताम्बरों में भी साधारण मत भेदोके कारण वह प्रज्वलक्ष्य है। श्राशा है हमारा समाज शांत हृदयसे इसपर लित है। श्वेताम्बर-दिगम्बर सामयिकपत्रों में कई पत्रों. विचार कर, जिस हद तक हम मिलजलकर रह सकते का तो एकमात्र विषय ही यह विरोध बन रहा । हैं मान सकते हैं यहाँ तक अवश्य ही संगठित होकर कालमके कालम एक दूसरेके विरोधी लेखोंसे भरे रहते सद्भाव पूर्वक कार्य करनेका पूरा प्रयत्न करेगा। हैं, ऐसे विरोधवर्धक व्यक्तियों तथा पत्रोंसे समाजका
अब रहा हमारी एकताका दृष्टिकोण | मैं जहाँ तक स्या भला होनेको है ? जानता हूँ कथा एवं विधि विधानके भेदोंकी हम जैनी अनेकान्ती हैं, अनेकान्तके बलपर विभिन्न अलग कर दिया जाय तो तात्विकभेद २-४ ही नज़र दृष्टिकोणोंका समन्वय कर हम विरोधको पचा सकते..,यह भाएँगे । यथाः-स्त्रीमुक्ति, शद्रमुक्ति, दिगम्बरत्व विवेक हम भलसे गये हैं । वर्त्तनमें अहिंसा और विचारों
इनमें झगड़नेकी कोई बात नहीं है क्योंकि में स्याद्वाद, ये दो भगवान महावीरके प्रधान सिद्धान्त इस पंचम काल में भरत क्षेत्रसे मुक्ति जाना तो श्वेताम्बर है; पर हम लोग इन दोनोंसे ही बहुत दूर है! कीड़ेछऔर दिमम्बर दोनों ही सम्प्रदाय नहीं मानते। अतः मकौड़े आदि सूक्ष्म जीवों पर दया करना जानते हैं पर वर्तमान समाजके लिये तो ये विषय केवल चर्चास्पद गरीय भाइयों तथा दस्सों आदिको गले लगाना नहीं • ही हैं । दिगम्बरत्वके सम्बन्धमें भी तत्वकी बात तो यह जानते ? उनपर अत्याचार करते व उनके अधिकारोंको है कि दिगम्बरत्व बाह्य वेष है अतः इसके ध्येयको ही छीनते हमें दया नहीं पाती! श्रापसी फटका बोलस्थान देना या लक्ष्य में रखना चाहिये । वास्तवमें इसका बाला है। अहिंसाके उपासक शान्तिनिधि एवं विश्वसाध्य निर्ममत्व भाव है, जो कि उमय सम्प्रदायोंके लिये प्रेमी होने चाहिये, पर हमारी पत्तेमान अवस्था इसके उपास्य है । जो ध्येयको सन्मुख रखते हुए व्यवहार सर्वथा विपरीत है। इसी प्रकार अनेकान्त अथवा स्याद्मार्गका अनुसरण करते हैं, उनके लिये चाहे दिगम्बरत्व वादका जीवन में कोई प्रभाव प्रतीत नहीं होता. वह तो उसके अधिक सन्निकट हो पर एकान्त बाह्य वेषको ही केवल ग्रन्थोंका ही विषय रह गया है। अतः इसकी उच्च एवं महत्वका स्थान नहीं मिल सकता केवलिमुक्ति जीवन में पुनः प्रतिष्ठा करनेकी श्रावश्यकता है। श्रादि बातें तो हमारे साधना मार्ग में कोई मूल्यवान हमारा दि० श्वे. दोनों समाजोंसे विशेष अनुरोध मतमेद या बाधा उपस्थित नहीं करती। केवली कवला- है कि वे अपने प्रापसी मनोमालिन्यको धो बहार हार करें या न करें हमें इसमें कोई लाभ या नुकसान तीर्थों के झगड़ोंको मिय डालें और जैनत्वके सच्चे उपासक नहीं हो सकता । इसी प्रकार अन्य मतभेदोंकी कट्टरता- बनकर संसारके सामने अपना अद्भुत एवं अनुपम का परिहार भी विशाल अनेकान्त-दृष्टिसे सहज होसकता अादर्श रखें । है। वास्तवमें हमारा लक्ष्य एवं पथ एक ही है । गति
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नुसन्धान
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सिद्धप्रामृत
[ले-श्री पं० हीरालाल जैन शास्त्री ] लगभग १० वर्ष पूर्षकी बात है कि ब्यावरमें रा० बार उल्लेख किया गया है और कहीं कहीं तो
बसेठ चम्पालालजी रामस्वरूपजीकी नशियां प्राचार्य परम्पराभेदको दिखाते हुए भी आदर्शपाठ के शास्त्रभंडारको सँभालते समय किसी गुट के में सिद्धप्रामृतका ही स्वीकार किया गया-सा प्रतीत कुन्द-कुन्दाचार्य-कृत ८४ पाहुड रचे जानेका उल्लेख होता है । यद्यपि कहीं भी स्पष्ट रूपसे उसे दिगम्बर मिला था और साथ ही उसमें लगभग ४३-४४ ग्रन्थ बतानेवाला कोई उल्लेख नहीं है फिर भी पाहुडों के नाम भी देखनेको मिले थे, जिनमेंसे एक २-१ स्थल ऐसे अवश्य हैं जिनसे यह प्रतीत होता नाम 'सिद्धपाहुड' भी था । बादको मूलाराधनानी है कि शायद वह दिगम्बर प्रन्थ हो, और पाश्चर्य छानवीनके समय भी इस नामपर दृष्टि तो गई, पर नहीं कि कुन्दकुन्दके अन्य पाहुडोंके समान यह कार्यव्यासंगसे उधर कोई विशेष ध्यान न देसका। सिद्धपाहुड भी उन्हींकी दिव्य लेखनीसे प्रसूत हुआ पर हाल ही में अनेकान्तकी किरण में पं०परमानन्द हो; पर अभी ये सब बातें अन्धकारमें हैं। शास्त्रीके 'अपराजितसूरि और विजयोदया' शीर्षक नन्दीके सूत्र नं० १६-२० की वृत्तिको प्रारम्भ लेखकी अन्तिम पंक्तियोंसे 'सिद्धपाहुड' की स्मृति करते हुए टीकाकार मलयगिरि लिखते हैं कितापी हो आई और इस विषयका जो कुछ नया "इहानन्तरसिदाः सत्त्वरूपवान्यामायक्षेत्र अनुसंधान मुझे मिला है उसे पाठकोंके परिज्ञानार्थ स्पर्शनकालान्तरमावाल्पबहुत्वरूपैरसमिरनुयोगहारैः परयहाँ देता हूँ।
म्परसिद्धाः सत्पात्मवान्यप्रमाणस्पर्शनाकाबाश्वेताम्बरागमोंमें नन्दीसूत्रको एक विशेष स्थान स्तरमावाल्पबहुत्वसविकल्पैनवमिरनुयोगद्दारैः पत्राप्राप्त है। उसकी मलयगिरीया वृत्तिमें सिद्धोंका विशु पापणसु हारेषु 'सिमामृते' चिन्तिताः ततस्तदस्वरूप वर्णन करते समय सिमाभूतका अनेकों सुसारेण पपमपि विनयजमानुग्रहार्य शतरिक्तवाम।"
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वर्ष २, किरण ३]
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सिद्ध प्रामृत
KYE
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...अर्थात्-मनन्तरसिद्ध और परम्परासिद्धोंका तदेवमिहसचिों प्रपत्रमावे साप चिन्तितः, उक्त अनुयोग द्वारों द्वारा साविस्तृत वर्णन सिद्धप्रा- शेषेषुहारेषु सिबमाभूतटीकातो मापनी तुबंधभूतमें किया गया है, सो उसीके अनुसार हम भी गौरवमयाम्योच्यते।' शिष्यजनोंके अनुप्रहार्थ लेशमात्रसे यहाँ पर विचार साथ ही, उल्लेखोंसे यह भी ज्ञात होता है कि करते।
मूलाराधनाकी प्राकृत टीकाके समान सिपाहुनइसके बाद उन्होंने 'तदुक्तं सिबमाभूतटीकापों, की भी प्राकृत टीका रही है। जैसेउक्तं - सिबमाभूतटीकापी, तथा चोक्तं सिद्धप्रामृत- 'बीसा एगपरे विजये। 'सेसेसुपरपसु पस लिम्टीकायां, सिखमाभृतसूत्रेऽप्युक्तम् , उक्तं च सिमामृते, ति, दोनु वि उस्सपिवीभोसपिबीच हरकतो' । तथा चोक सिद्धमाभृते, पतः सिद्धप्राभृतटीकावामेवोक्तं, 'जबममाए पतारि समया।' इत्यादि। शेषेषु हारेषु सिखमाभूतडीकातो मावलीया'.. इत्यादि मतभेदवाले उल्लेखोंकी वानगी देखिएअनेक रूपसे सिद्धप्राभृतका उल्लेख किया है। और
'सम्प्रत्यल्पावं सिदभूतमेपोते- 'उक्त अन्तमें उन्होंने अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हुए रसिद मामते-सेसाब गईल सदसर्ग' 'भगवालार्यलिखा है कि
स्थामः उमरेखमाह-
इ त्रविभागेनारमा सिद्धमाभूतसूत्रं तवृत्ति चोपजीव्य मनपगिरिः। सिबमाभूततीकातो लिखित ।' . . सिखस्वरूपमेतविरवोचविष्यविहितः । . एक-दो उल्लेख कुछ महत्वपूर्ण मतभेदोको
अर्थात्-मुझ मलयगिरिने यह सिद्धोंकास्वरूप लिए हुए मी देखने को मिल रहे हैं पर उन्हें यहाँसिडमामृतसूत्र और उसकी वृत्तिका आश्रय लेकर पर जानबूझकर छोड़ रहा है क्योंकि वे उल्लेख शिष्योंकी बुद्धिके हितार्थ कहा है।
स्वयं एक स्वतन्त्र लेखके विषय है, जिन पर पुनः ___ उक्त अवतरणों से कुछ एक उल्लेख ऐसे हैं कभी लिखेंगा। जिनसे मूलपन्थ,उसकी टीका और उसके माम्ना- श्वेताम्बरीय विद्वानों को इस विषय में प्रकाश विभाग पर भी प्रकाश पड़ता है। उदाहरणार्थ- डालना आवश्यक है कि क्या उनके भंडारों में
'सिद्धपाहुड' गाथानोंमें रचा गया है । जैसे 'सिद्धप्रामृत' नामक कोई शास्त्री ? यदि हाँ, तो सिद्धप्रामृतसूत्रेऽप्युक्तम्
वह किसका बनाया है टीकाकार कौन है? 'उत्सप्पिणीयोसप्पिबीततत्यपसमासुमसर्व । कितने प्रमाणवाला है भादि । अमिधानराजेन्द्र . पंचमिपाए बीसं इस दस सेसेम । कोषमें भी एक टिप्पणी इस नामपर लिखी मिलती • 'सला र अभंगा एस एस होइ परी ' है-. .. .. 'परिमाण प्रचंता कायोज्याई अवलो तेति। "सिदमाहुर-सिमात तुलनामा ..
इत्यादि । राधिकारमविपाक गये। सिद्धपाहुडकी टीका प्रतीव विस्तृत रही है ऐसा पर इससे मूलका, टीकाकार मादिविषयमें भी कितने ही इलाग्य से प्रतीत होता है, जैसे- कुछ प्रतीत नहीं होता है। हाँ, एक बात भवस्य
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अनेकान्त
[प्रथम श्रावण, वीर-निर्वाणसं०२४६५
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नबीन शात होती है कि नन्झसूत्रके सिवाय अन्य। "बीसुतरसयगणबाबामसिपाहु सम्म प्रमोकिसी प्रन्थमें इसका कोई सल्लेख उपलब्ध श्वे. णियपुम्वणिस्स।" । आगम-साहित्यमें नहीं है। क्योंकि कोषक्रमके इस टीकाका मूल परिमाण ८१५ श्लोक-जितना अनुसार उक्त व्याख्याके अन्तमें केवल 'न' लिखा और सूत्रसहित कुल परिणाम ९५० श्लोक-जितना हुआ है, जोकि केवल 'नन्दीसूत्र' का ही बोधक है। दिया है। टीकाकारने, टीकाके निम्न अन्तिम
भाशा है इस विषय पर हमारे समर्थ अधि- वाक्यमें, अपना कोई नाम न देते हुए इतना ही कारी ऐतिहासिक विद्वान विशेष प्रकाश डालेंगे सूचित किया है कि 'मेरा यह प्रयास केवल मूलऔर शास्त्रभंडारोंके मालिक अपने अपने भंडारोंमें गाथाओंके संयोजनार्थ है, स्पष्ट अर्थ तो चिरन्तन छानबीन करनेकी कोशिश करेंगे,जिससे यह प्रन्थ- टीकाकारोंके द्वारा कहा गया है'-... .. रत्न प्रकाशमें आसके।
"गाथासंयोजनार्थोऽयं प्रयासः केवलोमम । . . . सम्पादकीय नोट
अर्थस्तूतः स्फुटो शेष टीकाकृमिरिचरन्तनैः॥" .. नन्दिसूत्रकी उक्त टीकामें जिस 'सिद्धप्रामृत' ही
. इस सिद्धप्राभृतका प्रारम्भ निम्न गाथाओंसे
होता हैका जललेख है वह चिरन्तनाचार्य-विरचित-टीकासे
" तिहुयणपणए तिहुपणगुणाहिए तिहुयणाइसपणाणे। भिन्न उस दूसरी टीकाके साथ भावनगरकी आत्मा.. उसमादिवीरचरिमे तमरपरहिए पणमिऊणं ॥ १॥ नन्द-प्रन्थमालामें (सन् १९२१में ) मुद्रित होचुका सुणिडणभागमणिहसे सुजिउणपरमत्यसुत्तगंथधरे । है जिसका हवाला मलयगिरिसूरि अपनी टीकामें चोइसपुम्बिगमाई कमेण सम्वे पणविकणं ॥२॥ देरहे हैं। मुद्रित प्रतिपरसे मूलप्रन्थकार तथा टीका- विक्षविल्तीहि पहिं महर्हि चाणुमोगदारेडिं। कारका कोई नाम उपलब्ध नहीं होता । अन्ध- रवेलाइमग्गणासु प सिद्धार्ण परिणया भेया ॥३॥ सम्पादक मुनि-श्रीचतुरविजयजीने अपनी प्रस्ता- जहाँ तक मैंने इस प्रन्थपर सरसरी नजर बनामें ग्रहांतक सूचित किया है कि मूलप्रन्थकार डाली है, मुझे यह ग्रंथ अपने वर्तमान रूपमें तथा इस उपलब्ध टीकाके कर्ताका नाम कहींसे भी कुन्दकुन्दचार्य कृत मालूम नहीं होता। अपराजित उपलब्ध नहीं होता है। साथ ही, यह भी सूचित सूरिने जिस 'सिद्धप्रामृत' का उल्लेख किया है वह किया है कि इस टीकाकी एक प्रति संवत् ११३८ इसी सिद्धप्रामृतका उल्लेख है ऐसा उनके उल्लेखपर वैशाखशुवि१४ गुरुवारकी ताडपत्र पर लिखी हुई से स्पष्ट बोध नहीं होता । हो सकता है कि वह पावरतानाके सेठ मानन्दजी कल्याणजीके शान- कुन्दकुन्दके किसी जुदे सिमामृतसे ही सम्बन्ध मंडारमें मौजूद है, इससे यह टीका अर्वाचीन रखता हो अथवा यह वर्तमान सिद्धप्रामृत कुंएनहीं है। मूलपत्यकी गाथा संख्या १२० है जैसाकि कुन्दकुन्दके सिद्धप्रामृतका ही कुछ घटा-बढ़ाकर अन्तिमगाथा और निम्न वाक्यसे प्रकट है.... किया गया विकृत रूप हो। कुछ भी हो इस विषय
पीचरसपमेगं गापाल पुष्पवित्वं । की विशेष खोज होनी चाहिये। - नित्यारेण महत्वं मुपाणसारेषा पेपर " ..
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महात्मा गान्धीके २७ प्रश्नोंका श्रीमद् रायचन्दजी द्वारा समाधान
[नवी किरण से भागे
५. प्रश्न:-ऐसा पढ़नेमें आया है कि मनुष्य आदिमें जन्म लेता है, परन्तु वह सर्वथा पृथ्वीप देह छोड़ने के बाद कर्मके अनुसार जानवरोंमें जन्म अथवा पत्थर रूप नहीं हो जाता; जानवर होते लेता है; वह पत्थर और वृक्ष भी हो सकता है, क्या समय सर्वथा जानवर भी नहीं हो जाता । जो देह यह ठीक है?
है वह जीवका वेषधारी पना है, स्वरूपपना नहीं। उत्तरः-देह छोड़नेके बाद उपार्जित कर्मके ६-७ प्रश्नोत्तरः-इसमें बटे प्रश्नका भी समाअनुसारही जीवकी गति होती है, इससे वह तिर्यच धान मा गया है। ..... (जानवर ) भी होता है और पृथ्वीकाय अर्थात इसमें सातवें प्रश्नका भी समाधान भागया पृथ्वीरूप शरीर भी धारण करता है और बाकीकी है, कि केवल पत्थर अथवा पृथ्वी किसी कर्मका दूसरी चार इन्द्रियोंके बिना भी जीवको कर्मके कर्ता नहीं है। उनमें पाकर उत्पन्न हुमा जीव ही भोगनेका प्रसंग आता है, परन्तु वह मर्वथा पत्थर कर्मका, कर्ता है, और वह भी दूध और पानीकी अथवा पृथ्वी ही हो जाता है, यह बात नहीं है। तरह है। जैसे दूध और पानीका मंयोग होने पर वह पत्थररूप काया धारण करता है और उसमें भी दूध दुध है और पानी पानी ही है, उमो नरह भी अव्यक्त भावसे जीव, जीवरूपसे ही रहता है। एकेन्द्रिय श्रादि कर्मबन्धसे जीवका पत्थरपनावहाँ दूसरी चार इन्द्रियोंका अव्यक्त (अप्रगट)पना जड़पना-मालूम होता है,तो.भी बह जीव अंतरमें होनेसे वह पृथ्वीकायरूप जीव कहे जाने योग्य है । तो जीवरूप ही है, और वहाँ भी वह माहार भय क्रम क्रमसे हो उस कर्मको भोग कर जीव निवृत्त आदि मंशापूर्वक ही रहता है, जो अठयक्त जैमी होता है। उस समय केवल पत्थरका दल परमाणु है। . . रूपसे रहता है, परन्तु उसमें जीवका सम्बन्ध चला . प्रश्न:-आर्य-धर्म क्या है ? क्या माकी आता है, इसलिये उसे आहार आदि संज्ञा नहीं उत्पति वेदसे ही हुई है ? होती। अर्थात् जीव सर्वथा जड़-पत्थर-हो उत्तरः-(१) आर्यधर्मकी व्याख्या करते हुम. जाता है, यह बात नहीं है । कर्मकी विषमतासे चार सबके सब अपने पक्षको ही आर्यधर्म कहना चाहते इन्द्रियोंका भव्यक समागम होकर केवल एक स्प- हैं। जैन जैनधर्मको, बौद्ध बौद्धधर्मको, बेदान्वी र्शन इन्द्रिय रूपसे जीनको जिस कर्मसे देहका वेदान्त धर्मको पार्यधर्म को, यह साधारण पात समागम होता है,उस कर्मके भोगते हुए वह पृथिवी है। फिर भी ज्ञानी पुरुष तो जिममे अात्माको निज
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अनेकान्त
[प्रथम श्रावण, वीर-निर्वाण सं० २४६४
स्वरूप की प्राप्ति हो, ऐसा जो आर्य (उत्तम) माये अर्थ है ?
..... है उसे ही आर्यधर्म कहते हैं, और ऐसा ही योग्य उत्तरः-(१) वेदों की उत्पत्ति बहुत समय है। ...... ............... पहिले हुई है। ..
(२) सबकी उत्पत्ति वेदमेंसे होना सम्भव (२) पुस्तक रूपसे कोई भी शास्त्र अनादि नहीं; नहीं हो सकता । वेदमें जितना ज्ञान कहा गया है और उसमें कहे हुए अर्थके अनुसार तो सभी शास्त्र उससे हजारगुना श्राशययुक्तज्ञान श्रीतीर्थकर आदि अनादि हैं। क्योंकि उस उस प्रकारका अभिप्राय , महात्माभोंने कहा है, ऐसा मेरे अनुभवमें आता भिन्न भिन्न जीव भिन्न भिन्न रूपसे कहते आये हैं, है; और इससे मैं ऐसा मानता हूँ कि अल्प वस्तुमें- और ऐसा ही होना सम्भव है । क्रोध आदिभाव भी से सम्पूर्ण वस्तु उत्पन्न नहीं हो सकती । इस कारण अनादि हैं। हिंसा आदि धर्म भी अनादि हैं और वेदमेंसे सबकी उत्पत्ति मानना योग्य नहीं है। हाँ, अहिंसा आदि धर्म भी अनादि हैं। केवल जीववैष्णव आदि सम्प्रदायोंकी उत्पत्ति उसके श्राश्रय- को हितकारी किया है, इतना विचार करना ही से माननेमें कोई बाधा नहीं है । जैन-बौद्धके कार्यकारी है। अनादि तो दोनों हैं, फिर कभी अन्तिम महावीरादि महात्माओंके पूर्व वेद विद्यमान् किसीका कम मात्रामें बल होता है और कभी थे, ऐसा मालूम होता है । तथा वेद बहुत प्राचीन .किसीका विशेष मात्रामें बल होता। प्रन्थ हैं, ऐसा भी मालूम होता है। परन्तु जो कुछ १०. प्रश्नः-गीता किसने बनाई है ? वह प्राचीन हो, वह सम्पूर्ण हो अथका सत्य हो, ऐसा ईश्वरकृततो नहीं है ? यदि ईश्वर कृत हो तो उसनहीं कहा जा सकता; तथा जो पीछेसे उत्पन्न हो, का कोई प्रमाण है ? वह सब सम्पूर्ण और असत्य हो, ऐसा भी नहीं उत्तरः-ऊपर कहे हुए उत्तरोंसे इसका बहुत कहा जासकता । बाकी तो वेदके समान अभिप्राय कुछ समाधान हो सकता है। अर्थात् 'ईश्वर' का
और जैनके समान अभिप्राय अनादिसे चला श्रा- अर्थ ज्ञानी ( सम्पूर्ण ज्ञानी ) करनेसे तो वह ईश्वरहा है। सर्वभाव अनादि ही हैं, मात्र उनका रूपमा रकृत हो सकती है। परन्तु नित्य, निष्क्रिय आकाश न्तर हो जाता है, सर्वथा उत्पत्ति अथवा सर्वया की तरह ईश्वरके व्यापक स्वीकार करने पर उस. नाश नहीं होता। वेद, जैन, और सबके अभिप्राय प्रकार की पुस्तक प्रादिकी उत्पत्ति होना संभव अनादि हैं ऐसा माननेमें कोई बाधा नहीं है, फिर नहीं। क्योंकि वह तो साधारण कार्य है, जिसका उसमें किस बातका विवाद हो सकता है ? फिर कर्तृत्व प्रारंभपूर्वक ही होता है-अनादि नहीं भी इनमें विशेष बलवान सत्य अभिप्राय किसका होता। मानना योग्य है, इसका हम तुम सबको विचार गीता वेद व्यासजीकी रची हुई पुस्तक मानी करना चाहिए।
जाती है, और महात्मा श्रीकृष्णने अर्जुनको उस ६. प्रश्न:-वेद किसने बनाये ? क्या वे अ- प्रकारका बोध किया था, इसलिये मुख्यरूपसे भीनादि हैं ? यदि र अनादि हों तो अनादिका क्या कुष्ण ही उसके कर्ता कहे जाते हैं, यह बात संभव
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वर्ष२, किरण १०]
महात्मा गान्धीके २७ प्रश्नोंका श्रीमद् रायचन्दजी द्वारा समाधान
है। ग्रन्थ श्रेष्ठ है । उस तरहका आशय अनादि विचार प्रगट करेंगे ? कालसे चला आ रहा है, परन्तु वे ही श्लोक अना- उत्तरः-निस्तीधर्मके विषयमें साधारण ही दिसे चले आते हों, यह संभव नहीं है; तथा जानता हूँ । भरतखंडके महात्माोंने जिस तरहके निष्क्रिय ईश्वरसे उसकी उत्पत्ति होना भी संभव धर्मकी शोध की है-विचार किया है, उसतरहके नहीं । वह क्रिया किसी सकिय अर्थात् देहधारीसे धर्मका किसी दूसरे देशके द्वारा विचार नहीं किया ही होने योग्य है, इसलिये जो सम्पूर्ण ज्ञानी है गया, यह तो थोड़ेसे अभ्याससे ही समझमें भावह ईश्वर है, और उसके द्वारा उपदेश किये हुए सकता है। उसमें (ख्रिस्तीधर्ममें ) जीवकी सदा शाख ईश्वरीय शास्त्र हैं, यह मानने में कोई बाधा परवशता कही गई है, और वह दशा मोक्षमें भी नहीं है।
इसी तरहकी मानी गई है जिसमें जीवके अनादि ११. प्रश्नः-पशु आदिके यज्ञ करनेसे थोड़ा- स्वरूपका तथा योग्य विवेचन नहीं है, जिसमें कमसा भी पुण्य होता है, क्या यह सच है। बंधकी व्यवस्था और उसकी निवृत्ति भी जैसी ___ उत्तरः-पशुके वधसे, होमसे अथवा उसे थो- चाहिए वैसी नहीं कही, उस धर्मका मेरे अभिप्रायडासा भी दुःख देनेसे पाप ही होता है तो फिर उसे के अनुसार सर्वोत्तम धर्म होना संभव नहीं है। यज्ञमें करो अथवा चाहे तो ईश्वरके धाममें बैठकर ख्रिस्ती धर्ममें जैसा मैंने ऊपर कहा, उस प्रकार जैसा करो परन्तु यज्ञमें जो दान आदि क्रियाएँ होती चाहिए वैसा समाधान देखने में नहीं पाता । इस हैं, वे कुछ पुण्यकी कारणभूत हैं। फिर भी हिंसा वाक्यको मैंने मतभेदके वश होकर नहीं लिया। मिश्रित होनेसे उनका भी अनुमोदन करना योग्य अधिक पूछने योग्य मालूम हो तो पूछना-सव नहीं है।
विशेष समाधान हो सकेगा। १२. प्रश्न:-जिस धर्मको श्राप उत्तम कहते १४. प्रश्न: के लोग ऐसा कहते हैं कि बाइबल हो, क्या उसका कोई प्रमाण दिया जा सकता है? ईश्वर-प्रेरित है । ईसा ईश्वरका अवतार है-बह
उत्तरः-प्रमाण तो कोई दिया न जाय, और उसका पुत्र है और था। इस प्रकार प्रमाणके बिना ही यदि उसकी उत्तमता- उत्तरः-यह बात वो श्रद्धासे ही मान्य हो का प्रतिपादन किया जाय तो फिर तो अर्थ-अनर्थ, सकती है, परन्तु यह प्रमाणसे सिद्ध नहीं होती। जो धर्म-अधर्म सभी को उत्तम ही कहा जाना चाहिए। बात गीत और वेदके ईश्वर-कर्तृत्वके विषय में परन्तुप्रमाण ते हो उत्तम-मनुत्तमकी पहिचान होती लिखी है, वही बात बाइबलके संबंधमें भी समझना है। जो धर्म संसारके क्षय करनेमें सबसे उत्तम हो चाहिये । जो जन्म मरणसे मुक्त हो, वह ईश्वर
और निजस्वभावमें स्थित करानेमें बलवान हो, अवतार ले, यह संभव नहीं है। क्योंकि राग-द्वेष वही धर्म उत्तम और वही धर्म बलवान है। आदि परिणाम ही जन्मके हेतु हैं। ये जिसके नहीं
१३. प्रश्न: क्या भाप खिस्तीधर्मके विषयमें हैं, ऐसा ईश्वर अवतार धारण करे, यह बात कुछ जानते हैं ? यदि जानते हैं तो क्या आप अपने विचारनेसे यथार्थ नहीं मालूम होती । 'वह ईश्वर
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अनेकान्त
[प्रथम श्रावण, वीर-निर्वाण सं० २४६५
का पुत्र है और था' इस बातको भी यदि किमी उसी कायामें दाखिल किया हो तो यह होना संभव रूपकके तौर पर विचार करें तो ही यह कदाचिन नहीं है, और यदि ऐमा हो तो फिर कर्म आदिकी ठीक बैठ सकती है, नहीं तो यह प्रत्यक्ष प्रमाणसे व्यवस्था भी निष्फल ही हो जाय । बाकी योग बाधित है । मुक्त ईश्वरके पुत्र हो, यह किस तरह आदिकी मिद्धिसे बहुतसे चमत्कार उत्पन्न माना जा सकता है? और यदि मानें भी तो उसकी होते हैं; और उम प्रकारके बहुतसे चमत्कार उत्पत्ति किस प्रकार स्वीकार कर सकते हैं ? यदि ईमाको हुए हों मो यह मर्वथा मिथ्या है, अथवा दोनोंको अनादि मानें तो उनका पिता पुत्र संबंध असंभव है, ऐमा नहीं कह सकते । उस तरहकी किस तरह ठीक बैठ सकता है ? इत्यादि बाने सिद्धियाँ आत्माके ऐश्वर्य के सामने अल्प हैंविचारणीय हैं । जिनके विचार करनेसे मुझे ऐमा श्रात्माके ऐश्वर्यका महत्व इससे अनन्त गुना है । लगता है कि वह बात यथायोग्य नहीं मालूम हो इस विषयमें ममागम होने पर पूंछना योग्य है। मकती।
१७. प्रश्न:- आगे चलकर कौनसा जन्म - १५. प्रश्न:-पुराने करारमें जो भविष्य कहा होगा, क्या इस बातकी इस भवमें खबर पड़ गया है, क्या वह मब ईमाके विषयमें ठीक ठीक मकती है ? अथवा पूर्वमें कौनमा जन्म था इमकी उतरा है ?
कुछ खबर प - उत्तर:-यदि ऐसा हो तो भी उससे उनदोनों उत्तरः-हाँ, यह हो सकता है। जिसे निर्मल शारोंके विषयमें विचार करना योग्य है । तथा इम ज्ञान होगया हो उसे वैसा होना संभव है । जैसे प्रकारका भविष्य भी ईसाको ईश्वरावतार कहनेमें बादल।इत्यादिके चित्रोंके ऊपरसे बरसातका अनुमान प्रबल प्रमाण नहीं है, क्योंकि ज्योतिष आदिसे भी होता है, वैसे ही इस जीवकी इस भवकी चेष्टाके महात्माकी उत्पत्ति जानी जा सकती है। अथवा ऊपरसे उमके पूर्व कारण कैसे होने चाहिएँ, यह भी भने ही किसी ज्ञानसे वह बात कही हो, परन्तु वह समझमें आ सकता है-चाहे थोड़े ही अंशोसे भविष्य वेत्ता सम्पूर्ण मोक्ष-मार्गका जानने वाला था समझ पाये । इसी तरह वह चेष्टा भविष्यमें यह बात जब तक ठीक ठीक प्रमाणभृत न हो, तब किम परिमाणको प्राप्त करेगी, यह भी उसके तक वह भविष्य वगैरह केवल एक श्रद्धा ग्राह्य प्रमाण स्वरूपके ऊपरसे जाना जामकता है, और उसके ही हैं, और वह दूसरे प्रमाणोंसे बाधिन न हो, यह विशेष विचार करने पर भविष्यमें किम भवका बुद्धिमें नहीं पा सकता।
होना संभव है, तथा पूर्वमें कौनसा भव था, यह . १६. प्रश्न:-म प्रश्नमें 'ईमामसीह के चम. भी अच्छी तरह विचारमें आ सकता है ।। कारके विषयमें लिखा है।
१८. प्रश्नः-दूसरे भवकी खबर किसे पड़ उत्तर:-जो जीव कायामेंसे सर्वथा निकलकर सकती है ? चला गया है, उसी जीवको यदि उसी कायामें उत्तर:-इस प्रश्नका उत्तर ऊपर प्राचुका है। दाखिल किया गया हो अथवा यदि दूसरे जीवको ?.. जिन मोक्ष प्राप्त पुरुषोंके नामका पाप
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उल्लेख करते हो, बहामिसबाधारसे करते हो? . उत्तरासगीको साधा मोह होगा।
उत्तरसानको बदि मुझे खास तौर पर अथवा इस दुनियाकाबाट नासदीयो जाये, लक्ष के पूछते हो तो उसके उत्पादों यह कहा. ऐसा होना मुझे प्रमाणभूत, नहीं माना होगा। जासकता है कि जिसकी संसार दशा अत्यन्त परि- इसी तरह के प्रवाहमें इसकी स्थिति पाती है। कोई क्षीण होगई है, उसके वचन इस प्राणरके संभव हैं भाव रूपांतरित होकर सीण शेजाता है, तो कोई उसकी चेष्टा का प्रचारकी संभव है। इत्यादि मंशसे वर्धमान होता है; वह एक क्षेत्रमें बढ़ता तो भी अपनी भात्मा जो अनुभव हुमा हो, उसके दूसरे क्षेत्रमें घट जाता है, इत्यादि सपने इस सृष्टि
आधारसे उन्हें मोक्ष हुमा कहा जासकता है। प्रायः की स्थिति है । इसके ऊपरखे और बाद ही यह करके वह यथार्थ ही होता है। ऐसा मानने में जो विचारमें सवारनेके पश्चात् ऐसा कहना संभव है प्रमाण हैं वे भी शाब मादिसे जाने जा सकते हैं। कि यह वृष्टि सर्वथा नाश हो जाब, अपना इसकी ।
२०. प्रश्न:-बुखदेवने भी मोक्ष नहीं पाई, यह प्रलय हो जाय, यह होना संभ मही। मुष्टिका आप किस आधारसे कहते हो? . अर्थ एक इसी पृथ्वीसे मही.समनाना साहिए। __उत्तर:-उनके शास-सिद्धान्तोंके प्राधारसे । २२. प्रश्न:-इस अनीतिमेंसे सुनीति अभूत जिस वरहसे उनके शास सिद्धान्त हैं, यदि उसी होगी, क्या यह ठीक है? तरह उनका अभिप्राय हो तो वह अभिप्राय पूर्वापर उत्तर-इस प्रश्नका उत्तर सुनकर जो जीव. विरुख भी दिखाई देता है, और यह सम्पूर्ण ज्ञान- अनीतिकी इच्छा करता है, उसके लिये इस तर का लक्षण नहीं है।
को उपयोगी होने देना योग्य नहीं । नीति-नीति, • जहाँ सम्पूर्ण सान नहीं होता वहाँ सम्पूर्ण सर्व भाव अनादि हैं। फिर भी हम सुबनीति राग द्वेषका नाश होना सम्भव नहीं। जहाँ वैसा का त्याग करके यदि नीतिको स्वीकार करें, तो इसे हो वहाँ संसारका होना ही संभव है । इसलिए स्वीकार किया जा सकता है, और बहानामा , उन्हें सम्पूर्ण मोष मिली हो, ऐसा नहीं कहा जा कर्तव्य है । और सब जीनोंकी सहा वीति सकता। और उनके कहे हुए शाखोंमें चो.अभिप्राय , दूर करके नीतिका स्थापन किसा काय, महान है उसको कार का दूसरा ही अभिप्राय नहीं कहा जा सकता कमोकिएकाले असा प्रकार . था, उसे दूसरे प्रकारले सुम्हें और हमें जानना, की विधतिक हो सकना संभव नहीं। कठिन पड़ता है और फिर भी यदि कहें कि बुद्ध २३. अनाया दुनियाकी प्रलय होती है... देवका अभिप्राय कुछ दूसरा हवा तो जो कारण उत्तर:- प्रबका अर्थ यदि सर्वथा नास होना:: पूर्वक कहनेसपा प्रमाणभूवन समा जाय, पर किया जाय तो यह बात ठीक नहीं। क्योंकि महार्य, बात नहीं है। .. ... . का साया नारा हो जाना संभव ही नहीं है। महिः ।
.२१. प्रल मिकी मन्तिम मिति स्वा प्रखबामर्ष सब पदाचा रवर पानि लीत . होगी ?. . . . . . . . . . . ... . होका दिया जान तो किसी अभिप्रायले त्या बारा ।
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अनेकान्त
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स्वीकृत हो सकती है, परन्तु मुझे यह संभव नहीं आत्म-शान न हो यह कोई नियम नहीं है। लगतीं। क्योंकि सब पदार्थ सब जीव इस प्रकार २५. प्रश्न:--कृष्णवतार और रामावतारका समपरिणामको किस तरह प्राप्त कर सकते हैं, " होना क्या यह सची बात है ? यदि हो तो वे कौन जिसमें इस प्रकारका संयोग बने ? और यदि थे ? ये साक्षात् ईश्वर थे या उसके अंश थे? क्या उम प्रकार के परिणामका प्रसंग आये भी तो फिर उन्हें माननेसे मोक्ष मिलती है ? .. विषमता नहीं हो सकती।
उत्तरः-(१) ये दोनों महाल्मा पुरुष थे, यह यदि अव्यक्त रूपसे जीवमें विषमता और तो मुझे भी निश्चय है। आत्मा होनेसे वे ईश्वर व्यक्त रूपसे समताके होनेको प्रलय स्वीकार करें थे। यदि उनके सर्व आवर्ण दूर हो गये हों तो तो भी देह आदि सम्बन्धके बिना विषमता किस उन्हें सर्वथा मोक्ष माननेमें विवाद नहीं । कोई
आधारमं रह सकती है ? यदि देह आदिका जीव ईश्वरका अंश है, ऐसा मुझे नहीं मालूम सम्बन्ध मानें तो सबको एकेन्द्रियपना माननेका होता। क्योंकि इसके विरोधी हजारों प्रमाण प्रमंग आये और वैसा माननेसे तो बिना कारण देखने में आते हैं। तथा जीवको ईश्वरका अंश ही दूसरी गतियोंका निषेध मानना चाहिये- माननेसे बंध मोक्ष सब व्यर्थ ही हो जाएँगे। अर्थात ऊँची गतिके जीवको यदि उस प्रकारके क्योंकि वह स्वयं तो कोई कर्ता-हर्ता सिद्ध हो परिणामका प्रसंग दूर होने आया हो तो उसके नहीं सकता ? इत्यादि विरोध आनेसे किसी जीवप्राप्त होनेका प्रसंग उपस्थित हो, इत्यादि बहुतसे को ईश्वरके अंशरूपसे स्वीकार करनेकी भी मेरी विचार उठते हैं। अतएव सर्व जीवोंकी अपेक्षा बुद्धि नहीं होती। तो फिर श्रीकृष्ण अथवा राम प्रलय होना संभव नहीं है।
जैसे महात्माओंके साथ तो उस संबंधके माननेकी २४. प्रश्न:-अनपढ़को भक्ति करनेसे मोक्ष बुद्धि कैसे हो सकती है ? वे दोनों अव्यक्त ईश्वर मिलती है, क्या यह सच है ?
थे, ऐसा मानने में बाधा नहीं है । फिर भी उन्हें उत्तरः-भक्ति झानका हेतु है । शान मोक्षका मंपूर्ण ऐश्वर्य प्रगट हुआ था या नहीं, यह बात हेतु है। जिसे अक्षरूझान न हो यदि उसे अनपढ़ विचार करने योग्य है। कहा हो तो उसे भक्ति प्राप्त होना असंभव है, (२) 'क्या उन्हें माननेसे मोक्ष मिलती है। इस यह कोई बात नहीं है। प्रत्येक जीव शान-स्वभावसे प्रश्नका उत्तर सहज है। जीवके सब राग, द्वेष युक्त है। भक्तिके बलसे ज्ञान निर्मल होता है। और अज्ञानका अभाव होना अर्थात् उनसे छूट मम्पूर्ण-ज्ञानकी आवृति हुए बिना सर्वथा मोक्ष हो जानेका नाम ही मोक्ष है । वह जिसके उपदेशसे जाय, ऐसा मुझे मालूम नहीं होता; और जहाँ हो सके, उसे मानकर और उसका परमार्थ स्वरूप मम्पूर्ण ज्ञान है वहाँ सर्व भापा-ज्ञान समा जाता विचार कर अपनी आत्मामें भी उसी तरहकी निष्ठा है, यह कहनेकी भी आवश्यकता नहीं । भाषा- रखकर उसी महात्माकी मात्माके भाकारसे (स्वज्ञान मोक्षका हेतु है ? तथा वह जिसे न हो उसे रूपसे) प्रतिष्ठान हो, तभी मोक्ष होनी संभव है।
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वर्ष २, किरण १०]
सुभाषित
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बानी दूसरी उपासना सर्वथा मोक्षका हेतु नहीं है- अनित्य है, तो हि इस प्रसारभूत देहकी .. वह उसके साधनका ही हेतु होती है । वह भी रवाके लिये, जिसको उसमें प्रीति है, ऐसे निश्चयसे हो ही, ऐसा नहीं कहा जा सकता। सर्पको मारना तुम्हें कैसे योग्य हो सकता ___२६. प्रश्न:-ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर कौन है ? जिसे प्रात्म-हित की. चाहना है, "उले. तो थे?
फिर अपनी देहको छोड़ देना ही योग्य है। __उत्तरः-मृष्टिके हेतु रूप तीनों गुणों को मान- कदाचित यदि किसी को प्रात्म-हितकी इच्छा कर उनके आश्रयसे उनका यह रूप बताया हो, तो न हो तो उसे क्या करना चाहिये ? तो इसका यह बात टीक बैठ सकती है, तथा उस प्रकार के उत्तर यही दिया जा सकता है कि उसे नरक मानिदमरे कारणांसे उन ब्रह्मा आदिका स्वरूप समझमें में परिभ्रमण करना चाहिये अर्थात सर्पको मार प्राता है। परन्तु पुराणों में जिस प्रकारसे उनका देना चाहिये । परन्तु ऐसा उपदेश हम कैसे कर स्वरूप कहा है, वह स्वरूप उसी प्रकारसे है, ऐसा सकते हैं? यदि अनार्य-वृत्ति हो तो उसे मारनेका माननेमें मेरा विशेष झुकाव नहीं है । क्योंकि उनमें उपदेश किया जाय, परन्तु वह तो हमें और तुम्हें बहुतसे रूपफ उपदेशके लिये कहे हो, ऐसा भी स्वप्न में भी न हो, यही इच्छा करना योग्य है। मालूम होता है। फिर भी उसमें उनका उपदेशके, अबसंक्षेपमें इन उत्तरीको लिखकर पत्र समाप्त । रूपमें लाभ लेना, और ब्रह्मा आदिके स्वरूपका करता हूँ। षट्दर्शन समुषयके सममानेका विरोष सिद्धांत करने की जंजालमें न पड़ना, यही मुझे प्रयत्न करना। मेरे इन प्रश्नोत्तरोंके लिखनेके सं.. ठीक लगता है।
कोचसे तुम्हें इनका समझना विशेष प्राकुलताजनक २७. प्रश्न:-यदि मुझे मर्प काटने आये तो हो, ऐसा यदि जरा भी मालूम हो, तो भी विशेषता उस समय मुझे उसे काटने देना चाहिये या उसे से विचार करना, और यदि कुछ भी पत्रद्वारा पंचने मार डालना चाहिये ? यहाँ ऐसा मान लेते हैं कि योग्य मालम दे तो यदि पूछोगे सो प्रायः करके . उसे किसी दूसरी तरह हटानेकी मुझमें शक्तिः उसका उत्तर लिगा। विशेष समागम होने पर नहीं है?
समाधान होना अधिक योग्य लगता है। ..... ___उत्तर:-सर्पको तुम्हें काटने देना चाहिये, लिखित प्रात्मस्वरूपमें नित्य निष्ठाके हेतुभूत यह काम बतानेके पहले तो कुछ सोचना पड़ता विचारकी चिंता में रहनेवाले रायचन्नका प्रणाम । है, फिर भी यदि तुमने यह जान लिया हो कि देह .:. --
सुभाषित 'अग्नि उसीको जलाती है जो उसके पास जाता है मगर क्रोधाग्नि सारं कुटुम्बको जला डालनी है।' 'शरीरकी स्वच्छताका सम्बन्ध तो जलसे है, मगर मनकी पवित्रता सत्यभाषणसे ही मिट होती है।''
'दुनियाँ जिसे बुरा कहती है अगर तुम उममे बचे हुए होमो फिर न तु जटा रवाने की ज़रूटनन मिर मुंडाने की।
-तिकबाबर
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कहानी
भाईका प्रेम लावू नरेन्द्रप्रसाद जैन बी.ए.
मनमें प्रेम की एक अजीब चीज़ है। कभी वह मेम भाश्म है तुम मेंदी इस अभिवापाको दुम्मानोगे नहीं।"
से उतार कर देता है वहीसे बड़ी कुर्वानी करने और उन्होंने माँ कर ली थी। इस शब्दोंने ही : पर, भले के लिये । उसके बारे में वह पागल बन विनोदको अपना कर्तव्य मुका दिया था। मासे उनके जाता है-दीवाना हो जाता है। कभी बह मेम उसे जीवनका देस्य केवल विषाको मुखी करना था। जार:जार खाता है, अपने कुटुम्बके प्राणियों की दुर्दशा, शादी के पैगाम पाते, पर वे दुका देते । प्रेमकी सरितापर जोर कमी बदम उस ऊँची अवस्थाको पहुँच का दो भागों में मैट गाना उनके लिये सब था। उन्हें जाता है या महम्बकका एक दरिया, उसके दिल में हर था कि कहीं कोई गुखची भाकर उनकी भागमचोंकी बहता और सास . गत उसमें समा जाता है। खताचोंको तहस नहस न कर ले । मित्रों ने प्रोफेसर विनोदक मेम दूसरे प्रकारका था । उनकी भी समकाग, सैंकडोंने विश्वास विनावा; परन्तु वे राजी महुपकी एक निझा थी, लेकिन बहुत.कोटी, केवल न हुए। ....
.. .. अपने कोरे भाई दिखा सकही सीमित । उनको जलत . . ॐ . . ... भी.मी कि उसका संस्बर अफ और बड़े । वे उसे जी- माता पिताकी गोदसे बिछुदा हुमा यह दिनेश भी जानो प्यार करते थे। अपना सारा भादाम, सारा सुख , उनको भूल चुका था। एक सप्पसा जगता और स्वप्न उस पर सीकर निमारक थे। मौनोंको समन भी धीरे धीरे मिशीन सेवा जावा यासकियाँ तापी विदिशाका मन किसी प्रकार मैटा नहो। लेहा ला विनोबा प्रेमके प्रवाह सागरने । बाउको. कमी गाहा जाये तो सबा गणको उसीकी पारखताती कितनी महुम्पत करता था, इसका समयानुमान नहीं । रहती। इसका मी एकदा कारभार अनमें - जब वे कालिजसे भाते तो कितने उहाससे वह अपनी सामान्य पूजते रहते थे जो कि बनके पिताने नहीं कहीं बाहें फैला रेता, उसे अपने हमसे
रुदन बा, कितनी बदी भाकल थी। उन्होंने कहा वेदी महासाते, जोहोरो न हावाहो पा-"बेटा विनोद ! मैं मर रहा हूँ पर मरना नहीं गया, पुन समझाते, पर उसे तसही न मिलती । एक चाहता, दिन और देखना चाहता था अपनी इस बार विधाको पुनार भागपा, दिनेश पर तो मानों दुलपारीको लाते हुए । देखना, मेरे उस को विपत्तिका पहारी दूर पहा हो, मानों उसी शुलीका रेसचे सारे बासरे पर, को मारमा परमा सूज गया हो । उसले बाबा विधानाबाबा, हूँ। उसे सुनकर मेरी मात्माको शांति मिलेगी। सब नौमोंने समझावा, पर बहन मानावे डसे
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वर्ष २, किरण १०] ...
भाईका प्रेम
विनोद पास साये। सपने कहा-"म साना मीठी होती, मैग्या पाहवरा बीजियेगा! ........... खानो, तुम्हारे भैव्या जल्द ही अच्छे हो जाएंगे, फिक विनोदने गंभीर होनहा-दिनेश स्यानोगे न करो।" दिनेशमे कहा-“डाक्टर साहब पहिले मेरे भाभीको लाकर, सम्भव है उसके मानेपर सुने सुखम भैग्याको अच्छे होने की दवा देदीजिये तब मैं खाना मिले । खाऊँगा।" और न जाने कितने आँसू बहाये । इन दिनेशने सोचते हुए कहा-प्रचा! भाप मेरे शब्दों में पता नहीं कितनी बड़ी विनती थी। इनसे सुखके लिये भाभीको नहीं खाते, मैं जानता हूँ, पर मैं विनोदको कितनी राहत मिली, कितना मानन्द मिला, बताता हूँ अब मेरा सुख इसी कि मी घरमें वही जानें।
यह एक बड़ी समस्या थी। सिनेमाकी बातोंने भाभी कैसी वस्तु होती है, अभी तक दिनेशको विनोदको उखमनमें गल दिया था । सदोंने वीण यह पता न था । सब उसे समझाते कि भैव्यासे कहो रखदी और सोचने लगे। दिनेशने मौका पापा और कि ब्याह कराखें । सब का पूर्ण विश्वास था कि यदि उन्हें गुदगुदा दिया । विनोद खिल खिलायरस पड़े। दिनेश ज़ोर दे तो विनोद अवश्य शादी करा लेंगे क्यों- दिनेशने कहा--भैल्या पापा कीजिये भाप मेरे कि उसकी बातको टालना उनकी शक्ति के बाहर था। लिये माभीको जरूर खाएंगे। कीजिये बादा! . उसका छोटासा दिल पूछता-"क्या भाभी भी भैय्या दिनेशकी बातों में कुछ ऐसा असर था कि विनोद. की तरह मुझे प्यार करेंगी, अपने पास बुलाएंगी, जब को उसका कहना मानना पड़ा। मैं मागंगा मुझे पैसा देगी।" सब उसे हाँ में जवाब
*.. . देते और वह निश्चय कर लेता किया जस जल विनोदका विवाह हुमा । विममा पाई। दिनेखने भैय्यासे कहेगा।
भाभीका पाँचव पामते हुए कहा-पों मामी सा एक दिन विनोद बैठे वीणा बजा रहे थे, पीछेसे तुम भी मुझे मैयाकी तरह प्यार करोगी। बहुत दिनोंसे दिनेश पाया और उसने बाल मुंद खीं!
मैं तुम्हारी राह देख रहा था।" बिमखाने कुछ बचाव विनोदने पछा-क्यों दिनेश तुमको मेरा नाना नदिया, दिनेश विषको चोटसी बगी। मामीको प्रका लगता - .::
मौनताका कारण यह समझ म सा! उसने सोचा दिनेशने कहा-बहुत अच्छा-भैय्या! . सापद मामीशमा रही है। कोई बात नहीं दिनों'विनीदने पछा-तुम मेरी तरफ ध्यागसे क्या देख में भाप मोबने बगेगी। पर बात यह थी। रहे हो?
दिनेश-"यही" .. . वैसे तो बिमाको प्रतिबदी समुह तथा ?" विनोद-"वही किया?" .... मृदुमानी थी, पर वह स्वयं न समझ पाती किर
दिनेसने मुसकराते रहा-वही किपदि भाभी दिनेशसे क्यों चिलीसी रहती। वो उसकी होती तो कितना मजा माता, उनकी भाषा कितनी उसके सवालका प्रेमपूर्वक बनाव नहीं दिया? सोती
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अनेकान्त
[प्रथम श्रावण, वीर-निर्वाण सं०२४६५
इस मातृ पितृ विहीन बालकने भाखिर उसका क्या एक दिन दिनेशको स्कूलसे मानेमें देर हो गई। बिगाड़ा है ? वह कारण समझनेको बहुत कोशिश विममा जल उठी, उसने बड़े तीखे स्वरमें कहा-"अब करती पर समझ न पाती ? ज्योंही दिनेश उसके सामने तक तुम यहाँ रहगये थे, तुम्हें खज्जा नहीं भाती भावारा धाता, विमला अपना मुँह फेर लेती ! दिनेशके वह लड़कोंके साथ खेलनेमें।" विनेश चुप था, वह देरीका सारे स्वान, जो वह देखा करता था, नष्ट होते चले कारण न बता सका। ये शब्द उसके दिल में वापसे जा रहे थे । वह सोचता-उसने तो कभी ऐसा कोई लगे थे, एक असा टीस पैदा हो गई थी। वह सीधा काम नहीं किया जिससे भामोको नाराज होनेका मौका अपने कमरे में गया और किवार बन्द कर लेट गया। मिले, फिर वह मुझसे इतनी विरक्त क्यों रहती है ? शाम हो गई, दिनेश न निकला तो विमलाने नौकरको क्या भाभी भैय्याका मुझपर इतना प्रेम देखकर जलती भेजा, नौकरने छुना तो देखा हाथ जल रहा था, उसने हैं ? उसका छोटासा मम पछता-क्या भाभी भी मुझे फौरन विनोदसे कहा। विनोद आये, दिनेशकी दशा भैय्याकी तरह प्रेम नहीं कर सकती ? पर उसे कोई देखी तो हृदय पर धका-सा लगा ! फौरन डाक्टरको जवाब न मिलता!
बुलवाया। डाक्टरने कहा “टाईफायड है" और भावदिनेशको पहलेवाली वह चपलता वह बुद्धि मिट श्यक बात समझाकर चला गया । विनोद दिनेशके चुकी थी। मुख पर सदा उदासीबाई रहती। स्कूलके सिर पर बर्फ़की पट्टी रखने लगे। सारी रात उन्होंने अध्यापक, सब बदके उसकी दशा पर भारचर्य करते बैठे बैठे काट दी। थे। उस फल की सारी साखी, सारी ताज़गी बाचुकी भोर हो रहा था, दिनेश की दशा में कोई तन्दोली थी। उसकी सारी पंखुडियाँ झड़ चुकी थीं । जिस फूल न थी, वह बेसुध पड़ा था। विनोदने विमलाकी भोर पर कमी सदा वसन्तकी बहार छाई रहती थी, अब देखा, उनके दिखमें एक हलचल मची थी। उन्होंने पतकाकी बेदर्दी दिखाई देती थी। विनोद भी यह सब कहा-"विमला मानती हो, दिनेशको यदि कुछ हो देख रहे थे । रस कूलका ना होना बह देखते थे, गया तो इसका पाप किसकी गर्दन पर होगा, तुम्हारी
और अपनी भूतपर सिर धुनते थे। उन्होंने विमलाको गर्दन पर, तुम्हें कभी शांति मिलेगी। मैं तुम्हें बाबा बईपार समझाना पर असर नहुषा,उने ऐसा लगता था दिनेसकी शुशीके बिचे, पर मैंने गलती की, मैं नहीं मानों पिताजीकी मात्मा उ भिकार रही है। जानता था कि इसका पन्त यह होगा । बानते हुए भी सोरोसे जाग पते और देखते उनका फूल उदा ना मैंने यह सब होने दिवा, पिताजीकी प्रास्मा मुझे सदा रहा है, वह दिनेशको अपने सीनेसे चिपटा बेते और पिरती रहेगी, मैं ही दोगी है, मेरे पापा फसा वही बाबदाते-"मेरे दिनेश । मेरे फूल ! मुके बोदकर तू होना चाहिये था!" विमखाका व कांप उम, उसकी हो जाता है, या तू भी उसी बोको बागेवाला बालों में बांस बलक पाये, मसको पता ना कि ?" उनकीबो पर सब पर पुका.मा, अज्ञात बात यहाँ तक बागी, बदि यह सम्भव हो सकता माशंका-सी सदाउराती।... तोह सन्धिकारने के लिये मारी। विकासव
दावा-माँ! मैं तुम्हारे पास पाता हूँ, मैं जाता है।
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वर्ष २, किरण १०]
सुभाषित
५६१
विनोद रो रहे थे, मातृत्व जो अब तक सोचा पत्रा बा, विमलाके हत्यमें जाग उठा । उसने रोते हुए कहा"मेरे खाल ! सान!" और पागलकी तरह उसे अपने कलेजेसेकस लिया जैसे उसे अपने हृदय में कैद कर लेगी. जाने न देगी। दिनेशने भाँखें खोबी, कहा--तुम मेरी माँ हो! तुम पागई!
विमला-मेरे दिनेश ! मेरे बच्चे ! मैं सेरी माँ है, मैं पागई।
दिनेश बदबहाया-मेरी बनी माँ ! तुम भागई।
माँ बेटे दोनों मिल गये थे। दिनेशको अब दबाकी जमरत न थी, जिस वस्तुकी उसे वर्षोंसे चाह थी, भब मिल चुकी थी। विनोदकी माँसोंसे अब भी पासू झर रहे थे, पर वे भानन्दके भाँसू थे।
फिरसे बिनोदकी महुम्वतकी दुनिया बस गई। कुछ समयके लिये वे मजग हो गये थे, पर फिर एक लहर भाई, जिसने उन्हें मिला दिया।
नि--
[श्री भगवन्' जैग] दौर्बल्य निशा अब दूर हटो,
जागा है मनमें पल-विहान । होने अब लगा दृष्टिगत है,
जगमग-भविष्यका भासमान ।। री! उठ प्रतापकी अमर-भान,
भरदे प्राणोंमें विमल-ज्योतिझक सके नहीं मस्तक कदापि,
मैं भूल न जाऊँ स्वाभिमान ।।
भाओ, निशंक होकर खेलो,
अभिमन्यु-धीरके रण-कौराल ! बतला मैं स. विश्व-भरको,
किसको कहते हैं पौरुष-बल ? है मातृभूमि पर भात्म-त्याग-,
कर देना कितना सुलभ-कठिन ? यह शुभादर्श, जो हो न सके,
दुनियाँकी आँखोंसे भोझल ॥
विमला वीणा बजा रही थी। दिनेशने कहा"भाभी तुम्हारी भावाङ्गपड़ी कोमल है, मैंने तो भैय्यासे पहले ही कहा था कि भाभीकी बाबी बदी सुरीली होगी।" उन बातोंको पार करके विनोद तो ईस पड़े, और विमलाने दिनेशको चूम लिया।
सुभाषित
घुल मिल जामो तुम प्राणों में,
ऐ, धर्म-राजके अटल सत्य! कर म सफल नर-कायाको,
पालन कर आवश्यक सुकृत्य ।। विश्वोपकारमें लगे हृदय,
हो लघुताका मनसे विनारास्थापित जो हो सके भन्य, . निष्कपट प्रेमका आधिपत्य !!
'बहुदिही हैबो इन्धियों पर-गवर भर. कसे रोकती है उन्हें पुराईसे दूर रखती है और नेवीकी मोर प्रेरित करती है।'
· पहिंसा सब धर्मों में हिंसाके पीछे हर सराव पाप लगा रहता है। -तिल्यवानुगर
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दिव्यध्वनि
[लेखक-बाबू नानकचन्दजी जैन एडवोकेट]
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[बाबू नानकचन्दजी जैन एवोकेट रोहतक एक अच्छे विचारशील विद्वान् है। भापका बहुतसा समय जैनग्रन्थों के अध्ययन और मननमें म्यतीत होता है। जब कमी मापसे मिलना होता है तो भाप अनेक सूक्ष्म सूचम तर्क किया करते हैं, जिनसे मापकी विचारशीलताका ख़ासा पता चल जाता है। पाप चुपचाप काम करने वालोंमेंसे हैं और बड़ी ही सजन प्रकृतिके प्रेमी जीव हैं। परन्तु माप खेल लिखने में सदा ही संकोच किया करते हैं। हाल में बीर-शासमजयन्ती-उत्सव मेरे निमंत्रणको पाकर मापने जो पत्र भेजा है उसमें वीरकी दिव्यध्वनि पर अपने कुछ विचार प्रकट किये हैं, यह बड़ी खुशीकी बात है,और इसके लिये मैं भापका भाभारी हूँ। भापका उक्त पत्र शासन-जयन्तीके जक्सेमें पढ़ा गया । उसमें दिव्यम्वनि-विषयक जो विचार है वे पाठकोंके जानने योग्य हैं। अतः उन्हें ज्योंका स्यों नीचे प्रकट किया जाता है। भाशा है विद्वजन उनपर विचारकर विशेष प्रकाश बनेकी कृपा करेंगे।
--सम्पादक
झे अत्यन्त खेद है कि मैं सावन बदि १ के और जिस निमित्त कारणसे इसका विस्तारहोजाता
पवित्र दिन आपकी सेवामें हाजिर होकर और है वही ज्ञानके पैदा करनेका कारण कहा जा सकता मापके उत्साहमें शरीक होकर पुण्यका लाभ न कर है। जिसतरहसे अक्षरी वाणी ज्ञान पैदा करने में सकूँगा ! इसमें कोई शुबाह नहीं है कि यह दिन कारण है उसी तरह निरक्षरी वाणी भी ज्ञान पैदा निहायत मुबारिक है और हमेशा याद रखनेके करनेका कारण है। दो इन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय लायक । इस दिन वीरकी दिव्यध्वनिका अवतरण पर्यन्त सभी जीव वाणी बोलते हैं, और सिवाय हुमा, जिस पर सारे जैनशासनका आधार है। इन्सानके सबकी वाणी निरक्षरी ही होती है और कारा कि इस ध्वनिको गूंज भव भी बाकी होती! इस ही वाणीसे उनमें ज्ञान पैदा होता रहता है। खैर , जो कुछ है उसको ही स्मरण रखना हमारा इन्सानको भी जबतक बोलना नहीं सिखाया जाता
है उसकी वाणी निरक्षरीहीरहती है। इससे जाहिर दिव्यध्वनिके बारेमें मालिक प्रशस्खासकी है कि ज्ञान प्राप्तिका कारण सिर्फ अक्षरी वाणी ही मुस्तलिफ धारणाएँ हैं। बाजका ऐतकाद है कि नहीं है, बल्कि निरक्षरी वाणीसे भी ज्ञान पैदा हो दिव्यध्वनि निरक्षरी न होकर अक्षरी ही होती सकता है। . . . . . . .:: थी। उनका कहना है कि निरक्षरी वाणीसे मानका अगर दिव्यध्वनि भी अक्षरी वाणी होती तो पैदा होना नामुमकिन है । मगर यह राय दुरुस्त सब इन्सानों और जानवरों को एक ही बढ़ एकही मालूम नहीं होती। शान तो भात्माका गुण है, वाणीसे शानकी प्राप्ति नामुमकिन हो जातीनिहरी
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वर्ष २, किरण १.]
दिव्यम्वनि
वाणीसे झान उसी वक्त पैदा हो सकता है जब कि और जर्मनी जाननेवाले भादमी मौजूद और उसको सीखा जावे। बगैर सीखनेके कोई भी लेक्चरार साहेब अंग्रेजी पपानमें अपना लेक्चर अक्षरी वाणी ज्ञान पैदा करनेकी ताकत नहीं रखती दे रहे हों तो हरएक भादमी उसको अपनी अपनी है। इसलिये भी दिव्यध्वनिका निरक्षरी ही होना मादरी जबानमें साथ साथ तर्जुमा करता रहता है सिद्ध होता है।
और तर्जुमा करके ग्रहण करता है। इस ही किये इसके इलावा अगर यह मान लिया जावे कि निरक्षरी वाणीको हरएक इन्सान सुनकर अपनी निरक्षरी वाणीसे भी ज्ञान पैदा हो सकता है तो जबानमें तर्जुमा कर लेता है और इस तरह पर हमारा दूसरा सवाल भी हल हो जाता है कि किस बिला किसी दिसतके निरक्षरी वाणी कानमें जानेके तरह पर हरएक जीव दिव्यध्वनिको सुनकर अर्थ- बाद भक्षरी वाणीमें तब्दील (परिणत ) यानी ज्ञान अपनी अपनी भाषामें ग्रहण कर लेता है। तर्जुमा करली जाती है और धारण की जाती है। क्योंकि यह देखा जाता है कि इन्सानकी मादरी यह वाणी ऐसी हस्ती (व्यक्ति विशेष ) से पैदा जबान (मातृभाषा ) ऐसी होती है कि वह हमेशा होती है जिसने तमाम भाषाओंको त्याग दिया होता उसके सोचने और अर्थज्ञानको धारण करनेका है। चूंकि उनको शानको पूर्णता प्राप्त होती है और जरिया होती है। मसलन् जिन लोगोंकी मादरी पूर्णज्ञान शब्द तथा भाषासे प्रतीत होता है, इसजबान हिन्दी होती है तो वे चाहे किसी जबानमें लिये भी दिव्यध्वनि निरक्षरी ही हो सकती है। उपदेशको सुनें और चाहे जिस जबानमें किताबको अक्षरोंके द्वारा पूर्णशान नहीं पैदा हो सकता है। पढ़े मगर वे हमेशा उसके अर्थको अपनी मादरी सारा द्रव्यश्रुतमान भी पूर्णमान इसीलिये नहीं है। जबानमें ही ग्रहण करते हैं। हिन्दी बोलनेवाला आजका दिन इस पूर्णकानको प्रकाश करनेअगर संस्कृत पढ़ता है या सुनता है तो हमेशा वाली निरक्षरी वाणीके स्मरणका दिन है । जिनको पढ़ने और सुननेके साथ साथ उसका तर्जुमा पूर्णज्ञानकी प्राप्तिकी अभिलाषा है उनके लिये यह (अनुवाद) करके हिन्दीमें उसके मजमून पर विचार दिन प्रति पवित्र है। इस रोज के इस पापीका करता है । नवकार मन्त्र हमने लाखों पार पढ़ा खयाल करके सुखसागरमें मग्न हो सकते हैं। मैं होगा मगर प्राकृतका उचारणमात्र कोई शान पैदा भापको मुपारिकबाद देता हूँ कि मापने एक ऐसा नहीं करता जब तक उसका तर्जुमा न किया जावे। मौका पैदा किया कि मनुष्य इस दिनको याद करके इस मसले पर गौर करनेसे जाहिर होगा कि अगर अपना कल्याण कर सकते हैं। किसी जल्सेमें हिंदी, बंगाली, मराठी, फ्रांसीसी
सुमाषित 'शान्तिपूर्वक कुलमान करना और जीवहिंसा न करना; बस इन्होंमें तपस्याका समस्त सार है।'
-विलाल
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Panoramicharsional
| सामाजिक . प्रगति
जैनसमाज किधरको ?
बामाईक्वाखजी जैन बी.ए.(मॉनस) बी.टी
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PORANA
दिशासूचक यंत्र (कम्पास) है तो छोटी-सी उसकी दशा एक ऐसे जहाज जैसी है जो चला तो
वस्तु, पर है बड़े कामकी। बड़े-बड़े जहाज था ठीक मार्ग पर--निश्चित ध्येय लेकर, पर अब कुशलसे कुशल कप्तानके होते हुए भी अपना मार्ग मार्ग भूला हुआ उद्देश्य भृष्ट हो गया है । उसके बिना कम्पासके तय नहीं कर सकते । कम्पासके तीनों सम्प्रदाय अपनेको एक जहाजके सवार नहीं, बिना एक कप्तान यह भी नहीं जान सकता कि बल्कि तीन भिन्न भिन्न जहाजोंके सवार समझते उसका जहाज किस तरफ जारहा है।
हैं। उसके नेताओंको अपना मार्ग मालम नहीं, राष्ट्र तथा समाज भी जहाजके समान हैं। और उद्देश्य मालूम नहीं और उनमेंसे अधिक आपसमें उनके नेताओंको भी यह जाननेकी जरूरत रहती तू-तू मैं-मैं करके झगड़ना ही अपना काम समझते है कि वे किधर जारहे हैं और क्या वे ठीक मार्ग हैं। जैनसमाजके साधारण-जन तो अपनी तीन पर हैं।
लोकसे मथरा न्यारी बसाए हुए हैं। वे अपने ___ जैनसमाज किधर जारहा है, क्या यह प्रश्न काम-धन्धे, पेट-पालन और रुपया-पैसा कमानेमें जैनसमाजके सामने कभी विशेष रूपसे गहरे इतने व्यस्त हैं कि उनको इस बातका ज़रा भी विचारके वास्ते पाया है ? क्या जैनसमाजरूपी फिकर नहीं कि समाजमें क्या होरहा है, देशमें क्या जहाजके नाविक नेताओं या जैमसमामके सदस्यों होरहा है, और उनके सामने खाई है या कुआ ! ने कुछ भी समय यह सोचनेमें लगाया है कि वे उनकी आँखोंके सामने पास-पड़ोस में हजारों भाई किधर जारहे हैं ? उनका उद्देश्य क्या है और अब सामाजिक तथा आर्थिक कठिनाईयोंके पहाड़ोंसे वे उससे कितनी दूर हैं ! यह प्रश्न जैनसमाजके टकराकर चकनाचूर होरहे हैं, उन पर मारें पड़ किसी एक दल या सम्प्रदायसे ही सम्बन्ध नहीं रही हैं तथा उनका तिरस्कार होरहा है और फिर रखता, बल्कि ऐसा प्रश्न है जिसपर समाजके हर- भी उनको जरा चिंता नहीं, वे टससे मस नहीं एकादमी-सी और पुरुष-को विचार करना होते । कहते हैं कि जब कबूतर पर मापत्ति आती चाहिए और जिसके ठीक हल पर ही समाजका है तब वह अपनी आँखें बन्द कर लेता है और कल्याण निर्भर है।
समझता है कि उसकी मुसीबत टल गई। मगर जैनसमाज किधर जारहा है ?--इस प्रश्नका एक ही समय बाद वह अपने आपको विपत्तिके उत्तर जब मैं सोचता हूँ तब मुझे बहुत दुःख होता चुंगल में फंसा हुमा सर्वनाशके मुखमें पाता है। है। जैनसमाजकी दशा अत्यन्त शोचनीय है। ठीक यही हालत जैनसमाजकी है। मेरे एक गहरे
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वर्ष २, किरण ३]
जैनसमाज किधरको?
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मित्र जैनसमाजकी पतित अवस्थासे दुखी होकर उड़ाने और नामवरी कमानेवाले संस्था-संचालक कहा करते थे कि जैनियों पर किसी कविका यह जगह-जगह पर नज़र आने लगे हैं और उनके कहना ठीक लागू होता है:-
कारण समाज पर अथके खर्चका बोझ बढ़ता जाकिस किसका फ़िक कीजिए किस किसको रोइये, रहा है तथा अच्छी संस्थाएँ रूपयोंके भभावमें पाराम बड़ी चीज़ है मुंह ढकके सोइये। अर्थसंकटमें पड़ी हुई हैं। समाजकी भावाज और
किन्तु मुँह ढककर सोनेसे समाजका संकट शक्ति इतनी दुर्बल है कि माज उसका न समाजमें टलता हो, उसकी कठिनाइयाँ कम होती हों तो वह महत्व है और न समाजसे बाहर । समाजकी मार्ग ग्रहण करनेमें कोई हानि नहीं है। पर ऐसा समस्याएँ और जनताके सामान हितके प्रश्न भाज नहीं है।
वहीं हैं जहां बीस वर्ष पहिले थे । साहित्यिक क्षेत्र__ जैनसमाजमें नेता ही नेता हैं । अनुयायी या में कोई विशेष प्रगति नहीं है। कितने प्रन्य अभी सिपाही कोई नहीं है । संस्थाएँ छोटी हो या बड़ी तक शाल भण्डारोंमें पड़े हुए धप और हषाके प्रायः सभी अखिल भारतवर्षीय नामधारी हैं, पर बिना बेपर्वाहीके कारण दीमकोंका भोजन बन उनका संचालन कैसा रही है, यह कोई नहीं सो रहे हैं इसकी तरफ किसीका ध्यान ही नहीं है। चता । सभापतियों और महामंत्रियों तथा अधि- संस्कृत और प्राकृत भाषाके ग्रंथ हिन्दी अनुवादके छाताओंकी भरमार है, पर काम करनेवाला कोई बिना केवल चन्द विद्वानोंके अध्ययन और मन्दिरों नहीं । पत्र पढ़ने वाले इने गिने, पर पत्रोंकी भर की अल्मारियोंकी शोभाकी वस्तु बने हुए हैं ! मार ! शक्तियोंका अपव्यय होरहा है ! दान करने- गर्ज एक बात हो तो लिखी जाय। में तो जैनसमाज अपना उदाहरण नहीं रखता,पर इसके इलावा एक प्रश्न यह भी है कि भाज उस दानका बड़ा भाग प्रचारकोंकी तनख्वाह वे आदर्श कहाँ हैं जिनका प्रचार हमारे पूज्य तीर्थतथा सफर खर्चमें जाता है और जो कुछ बाकी करों तथा भाचार्योने किया था । भनेकान्तवाद, रुपया संस्थामें पहुँचता है वह संस्था प्रबन्धमें साम्यवाद, अहिंसा, लोकहित, भात्महित, स्थावखचे होजाता है, समाजको उसका क्या बदला लम्बन, मैत्री भाव, विश्वप्रेम, गुरुटमका प्रभाव ( Return ) मिलता है यह सोचना दातारोंका और मनुष्य जातिकी एकता भादि ऐसे प्रादर्श है काम नहीं ! वे दान दे चुके, पुण्य प्राप्त कर चुके, जिनका हमारे विद्वान शाखसभाओं तथा वीरजयंती उसकी देखभाल करना उनका काम नहीं ! वे यह उत्सवों में बड़े गर्व के साथ अलाप करते हैं। भाज कहकर संतुष्ट होजाते हैं कि दानके लेनेवाले भव नभादशोंके प्रचारकी कितनी जरूरत है, यह उस रुपयेका सदुपयोग या दुरुपयोग करके अच्छे भी हम सब जानते हैं। परन्तु जब उनको हम स्वयं कोका बन्धन बाँधे,या बुरे कर्माका इसे वे जानें। अपने घरों में, समाजमें, संस्थानोंमें, उपयोगमें नहीं दातारोंके इस अनियंत्रित दानका एक बुरा फल लाते, तब किस तरह उनकी उपयोगिताका मायक्ष यह होरहा है कि सहजमें चन्दा इकट्ठा करके मौज दूसरोंको किया जा सकता है ? भाज समझदार
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अनेकान्त
[प्रथम श्रावण, वीर-निर्वाण सं०२४६५
भादमियोंके सामने उनका मूल्य हाथीके दिखानेके उनके लिए तरसती है, पर उन तक उन आदर्शोको दाँतोंसे अधिक नहीं है । एक दिन हम वीरजयंती- पहुँचानेका जबानी, साहित्यिक या स्वयं उन पर उत्सबके अवसर पर रेडियोसे वीर-उपदेशका ब्राड चलकर उदाहरण रूपसे कभी कोई समुचित एवं कास्ट सुन रहे थे । जैनधर्मका अत्यन्त उज्वल तथा संतोषजनक प्रयत्न नहीं किया गया। उदार रूप जनताके सामने पेश किया जा रहा था, अतः अब आवश्यकता इस बातकी है कि वह बात तो सब ठीक थी; किन्तु जब यह ख्याल समाज अपने ध्येयको समझ, उस पर चलनेके लिए प्राया कि ब्राडकास्ट करने वाले महानुभाव कितने संगठन करे, अपने सच्चे नेता चुने, उनके पीछे चले बड़े स्थितिपालक, प्रतिगामी और संकुचित विचार और तन-मन-धनसे अपने आदर्श तथा उद्देश्यको वाले हैं, तब वहाँ बैठे हुए मित्रोंको इस विडम्बना प्राप्त करनेका प्रयत्न करे। साथ ही, समय समय. पर हँसी आगई। समस्त भारतमें रेडियो सुनने पर इस बातकी जांच पड़ताल भी करता रहे कि अब वाले भजैन विद्वान् उस समय क्या सोच रहे वह किधर जा रहा है। ऐसी सावधानी और सतहोंगे, यह जैनसमाजको और खास कर ब्राडकास्ट कता रखने पर ही वह अपने ध्येय तथा आदर्शको कराने वालोंको जरा सोचना चाहिए। प्राप्त कर सकेगा और अपने साथ साथ दूसरोंका
सच बात तो यह है कि आज जनताको उन भी कल्याण कर सकेगा। भादर्शोंकी अत्यन्त अधिक आवश्यकता है, वह
उस तरफ़ सौख्यका आकर्षण, इस भोर निराशाका दुलार ! इन दो कठोर-सत्योंमें है, निर्वाचित एक प्रवेश-द्वार !! हँसले, रोले इच्छानुसार, क्षणभंगुर है सारा विधान-- अस्थिर-जीवनको बतलाने, साँसें आती हैं बार-बार !! यदि भित्र-भिन हो जाएँ रंग, तो इन्द्र-धनुष्यका क्या महत्व ? नयनाभिराम है 'मिलन' अतः, है प्राप्त विश्वसे कीर्ति स्वत्व !! बस,इसी'मिलन' को कहते हैं, हम-तुम वह सब मिल 'विश्वलोक'क्षणभरका है यह दर्शनीय, पाते यथार्थमें यही तत्व !! जो भाष प्रेमका भाजन है, देता है कल वह कटु-विषाद ! है पर्ण-शत्रुता जिसे प्राप्त, भाता बह रह-रह हमें याद !! यह दुस-सुल की परिभाषाएँ, इनमें ध्रुवता कितनी विभक्त ? पस, स्वानुमतिके बल पर है-अस्तित्व, कह रहा नीतिवाद !!
• भगवर वेग
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सहासकामासा
सिद्धसेन दिवाकर
[do-4. रतनाव संपी, बापती-विवार] [भवी खिसे भागे
तात्पर्य यह था कि यदि प्रतिवादी पराजयके भवसे
प्राकारामें चला जाय तो इस निसरनीके बलसे उसे रिसेन दिवाकर जातिसे ब्रामण थे और इसलिये पका और यदि जलमें चला जाय तो इस जालकी
ये पहले वैदिक विद्वान् थे । कहा जाता है कि सहायतासे अपने वश में करलें । इसी प्रकार एक हाथमें ये विक्रम राजाके पुरोहित मंत्रीदेवर्षिके पुत्र थे। विद्वानों- कुदाली और दूसरे हाथमें पास रखते थे। जिसका यह का अनुमान है कि इनके जीवनका अधिकांश भाग मतलब था कि यदि प्रतिवादी पातालमें भी बैठ जाय तो उज्जैन (मालबा) और चित्तौड़ (मेवाड़) के प्रासपास कुदालीके सहारे उसे खोद निकाल । और परिहार ही व्यतीत हुआ है।
जाय तो हमें यह पास देकर अर्थात् दया-पात्र बना गॅस्टर सतीशचन्द्र विद्याभूषणका अनुमान है कि कर बोर हूँ । इस प्रकार इनके पांडित्य-प्रदर्शनकी यह विक्रम राजाकी सभामें जो 'नवरत्न' विद्वान् थे उनमें दंतकथा सुनी जाती है। इसमें भले ही अतिशयोकि हो, 'चपणक' नाम वाले सिद्धसेन दिवाकर ही प्रतीत होते हैं किन्तु इतना तो अवश्य सत्य कहा जा सकता है कि यह अनुमान अभी खोजका विषय है, अतः का नहीं इनोंने वाद-विवादमें बहुत भाग लिया होगा, प्रतिसकते है कि यह कहाँ तक सत्य है।
वादियोंका गर्व खर्च किया होगा और अपनी अगाध सिद्धसेन दिवाकरके सम्बन्धमें यह लोक-प्रवाद विचाका गौरवमय प्रभाव अमिट रूपसे स्थापित किया चला जाता है कि हमें अपने पांडित्यका बड़ा भारी होगा। अमिमान था। ये पेट पर पही बाप कर चलते थे, कहा जाता है कि यह अपनी अहंकारमय बाम्मिता जिसका प्राशय यह था कि कहीं विद्याके. भारसे पेट के कारण तत्कालीन प्रसिद्ध जैनाचार्य भीवृद्धवादीरिफट नहीं जाय । एक कन्धे पर लंबी निरनी (सोपान- गाय वादविवाद में पयक्ति हो गये, और सदगुजर पंकिका) और दूसरे कन्धे पर जान रखते थे; जिसका दलालही नदीकालीकार कर उनके शिणन गये।
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न
(प्रथम भोवण, बौर-निर्माण सं०२०१५
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एक दूसरी किंवदन्ती इनके जीवनमें यह भी सुंनी राजा नमस्कारके लिये बार बार अाग्रह करने लगा जाती है कि कि इनके काल में संस्कृत-भाषामें ग्रंथ: इस पर सिद्धसेन दिवाकर संस्कृत भाषामें तत्काल छंदरचना करना ही विद्वत्ताका चिह समझा जाने लगा था रचना करते हुए ( श्लोक बनाते हुए ) भगवान्
और प्राकृतके ग्रंथ एवं प्राक्त भाषामें नवीन ग्रंथोंकी पार्श्वनाथकी स्तुति करमे लगे । यही स्तुति आगे रचना करना केवल बालकोंके लिये, मूखों के लिये और चलकर "कल्याणमंदिर" के नामसे प्रसिद्ध हुईभोली भाली जनताके लिये ही उपयोगी है, ऐसा समझा ऐसी अनेक व्यक्तियोंकी कल्पना है। कहा जाता है कि जाने लगा था; इसलिये इन्होंने संघके सामने यह ११ वें श्लोककी रचना करते ही मूर्तिमेंसे धनी उठने प्रस्ताव रखा कि यदि आपकी श्राज्ञा हो तो महत्वपूर्ण लगा और तत्काल मूर्ति दो भागोंमें विभाजित हो गई जैन-साहित्यका संस्कृत भाषामें परिवर्तन कर दूं । इस तथा उसमें से पार्श्वनाथकी मूर्ति निकल आई । राजा प्रकारके विचार सुनते ही श्रीसंघ एक दम चौंक उठा। आश्चर्यान्वित हो उठा और जैन धर्मानुरागी बन इन विचारों में उसे जैनधर्मके हासकी गंध आने लगी गया । बारह वर्ष समाप्त होने पर ये पुनः श्रादर
और भगवान महावीर स्वामीके प्रति और उनके सिद्धा- पूर्वक बड़े समारोहके साथ संघमें सम्मिलित किये गये। न्तोंके प्रति विद्रोहकी भावना प्रतीत होने लगी। श्रीसंघ यह उपयुक्त बात दन्तकथा ही है या ऐतिहासिक सिद्धसेन दिवाकरको “मिच्छामि दुक" कहने के लिये घटना है,इससम्बन्धमें कोई निश्चित निर्णय देना कठिन
और प्रायश्चित लेने के लिये जोर देने लगा । सिद्धसेन है; क्योंकि इसके निर्णायक कोई ऐतिहासिक प्रमाण उपदिवाकरको प्राचार्यश्रीने संघकी सम्मति अनुसार बारह लब्ध नहीं हैं। यह घटना प्रभावकचरित श्रादि ग्रंथों में पाई वर्ष तक संघसे अलग रहनेका दण्डरूप आदेश दिया; जाती है, जो कि संग्रह और काध्यग्रंथ है,न कि ऐतिहाजिसको उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया।
सिक ग्रंथ । किन्तु फिर भी यह निष्कर्ष अवश्य निकाला इस घटनासे पता चलता है कि जैनजनतामें जा सकता है कि आगमिक मतानुयायियोंने इनके तर्कप्राकृत भाषाके प्रति कितनी भादर बुद्धि और ममस्व प्रधान विचारों का विरोध किया होगा तथा यह मतभेद भाव था। आज भी जैनजनताका संस्कृत भाषाकी संभव है कि कलहका रूप धारण कर गया होगा, जिससे अपेक्षा प्राकृत-भाषा (अर्धमागधी ) के प्रति अधिक संभव है कि इन्हें अन्य प्रांतोंमें विहार कर देना पड़ा ममत्वभाव और पज्य दृष्टिं हैं। ' ' होगा। और फिर कुछ काल पश्चात् संभव है कि उन ' कहा जाता है कि सिद्धसेन दिवाकर वहाँसे विहार विरोधियों को इनकी आवश्यकता प्रतीत हुई हो और करके उज्जैनी पाये और इस नगरीके राजाके समीप वे पुनः आदरपूर्वक इन्हें अपने प्रांतमें लाये हों। रहने लगे । राजा शैव था । एक दिन शैव मंदिर में राजा-'- यह तो निश्चित है कि ये सर्वथा अंध विश्वासी के साथ ये भी गये, इन्होंने मूर्तिको प्रणाम नहीं किया, नहीं थे। भागमोक्त बातोको तर्ककी कसोटी पर कसकर राजा इस पर असंतुष्ट हुश्रा और बोला कि आप परखते थे और कोई बात विरोधी प्रतीत होनेपर तर्क-बलनमस्कार क्यों नहीं करते हैं ? दिवाकरजीने उत्तर दिया से उसका समन्वय करते थे। और यह पहले लिखा जा कि यह मूर्ति मेरा नमस्कार सहन करनेमें असमर्थ है। चुका है कि सम्मति सके मन प्रकरणामें हनोंने केवल
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वर्ष २, किरण १० ]....
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सिद्धसेन दिवाकर
ज्ञान-केवल दर्शन को एक ही उपयोग माना है; जबकि . अर्थात्-पुरातनोंने यदि विषम भी-युक्तिविरुद्ध बागममें दोनों उपयोगोंको ‘क्रमभावी' माना है। इस भी कथन किया हो तो भी उसकी प्रशंसा ही की जाती सम्बन्धमें इन्होंने तर्कके बलपर कर्म-सिद्धान्तके आधारसे है और यदि प्राजके (वर्तमानकालके मेरे जैसे द्वारा) क्रमभावी और सहभावी पक्षका युक्तिपूर्वक खंडन करके मनुष्यके द्वारा कही जानेवाली युक्तियुक्त सत्य बात भी दोनोंको एक ही सिद्ध कर दिया है।
नहीं पढीजाती है तो यह एक प्रकारका स्मृतिमोह अर्थात्
मिथ्यास्त्र वा रूदि-प्रियता ही है। कुछ उक्तियाँ
परेच बातत्व किनाच पुक्तिमत्, सिद्धसेन दिवाकरके स्वभावसिद्ध तेजस्विताके परि- पुरातनाना किन दोपद्वचः । चायक, प्राकृतिक प्रतिभाके सूचक, निर्भयता तथा तर्क- किमेव जाल्मः कृत इत्युपेपितु. संगत सिद्धान्तोंके प्रति उनकी दृढ़ताके द्योतक कुछेक प्रपशनापास्य बनस्य सेस्पति ॥ श्लोक निम्न प्रकारसे हैं । इन श्लोकोंसे मेरे उस अनुमान अर्थात्-'पुरातनोंका कहा हुआ तो दोषयुक्त है की भी सिद्धि होती है, जो कि मैंने इनके संघनिष्कासन और कलके उत्पन्न हुोका कथन युक्ति संगत है' ऐसा और विरोधके संबन्धमें ऊपर अंकित किया है:- कहना मूर्खतापूर्ण है। इन (सिद्धसेन आदि ) की तो जनोऽयमन्यस्यमृतः पुरातनः,
उपेक्षा ही करनी चाहिये । इस प्रकार उपेक्षा करनेवाले पुरातनैरेव समो भविष्यति।
रूढ़ि-प्रिय मनुष्यों के प्रति सिद्धसेन दिवाकर लोककी पुरातनेषु इति प्रमवस्थितेषु,
चतुर्थ पंक्ति में कहते है कि इस उपेवासे तो हम मनुष्य+ पुरातनोवानि अपरीच्य रोचयेत् ॥ (सिद्धसेन ) के विचारोंका ही प्रचार होगा।'
अर्थात्-पुरातन पुरातन क्या पुकारा करते हो? इन श्लोकोंमे यह साधार अनुमान किया जा सकता यह मनुष्य (सिद्धसेन दिवाकर) भी मृत्यु के पश्चात् कुछ है कि सिद्धसेन दिवाकरका ईर्षावश, प्रतिस्पर्धावश और समयान्तरमें पुरातन हो जायगा । तब फिर अन्य पुरा- रूढ़ि-प्रियताके वश अवश्य ही निन्दात्मक विरोध, तथा तनोंके समान ही इसकी मी (सिद्धसेन दिवाकरकी भी) तिरस्कार किया गया होगा । अतः यह संभावना तथ्यगणना होने लगेगी। इस प्रकार इस अनिश्चित् पुरा. मय हो सकती है कि इन तिरस्कार और विरोधका तनताके कारण कौन ऐसा होगा, जो कि बिना परीक्षा सामजस्य उपर्युक्त दंतकथाके रूपमें परिणत कर लिया किये ही केवल प्राचीनताके नामपर ही किसी भी सिद्धान्त. गया होगा जो कुछ भी हो, किन्तु इन सबका मारांश को सत्य स्वीकार कर लेगा ! अर्थात् कोई भी समझदार यही निकाला जा सकता है कि प्राचार्य सिद्धसेन दिवाआदमी ऐसा करनेको तैयार नहीं होगा।
कर सुधारक, समयश दूरदशी, तप्रधानी, जैनधर्मके बदेव चित्रित विमखिलं,
प्रभावक और निनःशासनके सरे और बुद्धिमान संरक्षक पुरातने पामिति प्रायते । विविरिवाज्य मनुवागाति,
'संरक्षक' के पहले 'बुद्धिमान्' शब्द इसलिये लगाना परते स्मृतिमाह एस.
पड़ा है कि उस समयका अधिकांश साधुवर्ग और
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अनेकान्त
[प्रथम भावब, वीर-निर्वाणसं०२४६५
श्रावकवर्ग केवल 'मूल-सूत्त-पाठ' करने में ही और टीकामय कृतियोंमेंसे एक तो सम्मति तर्क है और शिष्योंका परिवार बढ़ाने में ही (चाहे वह मूर्खही क्यों न दूसरी न्यायावतार । इनके अतिरिक्त उपलब्ध बतीसियोंहों) जैन धर्मकी रक्षा कार्यकी समाप्ति समझ बैठा था। मेंसे किसी पर भी व्याख्या, टीका या भाष्य तो दूर रहा किन्हीं किन्हींकी ऐसी धारणा भी थी कि केवल रुदि- किन्तु 'शब्दार्थमात्रप्रकाशिका' जैसी भी कोई टीका नहीं अनुसार “सिद्धान्तज्ञ" बन जाना ही जिन-शासनकी पाई जाती है। इसका कारण कुछ समझमें नहीं आता रक्षा करना है।
है। इनकी टीका रहित बतीसियाँ निश्चय ही महान् कोई कोई तो यही समझते थे कि अनेक प्रकारका गंभीर अर्यवाली और अत्यन्त उपादेय तत्वोंसे मरी हुई बाडम्बर दिखलाना ही जिन-शासनकी रक्षा करना है। है। इनकी भाषा भी कुछ क्लिष्ट और दुरूह अर्थ इसप्रकारकी सम्पूर्ण मिथ्या मान्यताओंके प्रति वाली है। इनकी इस प्रकारकी भाषाको देखते हुए सिद्धसेन दिवाकरने विद्रोहका कपडा उठाया था और इनका काल चौथी और पाँचवीं शताब्दिका ही ठहरता गौरवपूर्ण विजय प्राप्त की थी।
दिवाकरजीने लिखा है कि जो कोई (जैन साधु) संस्कृत साहित्यमें ज्यों ज्यों शताब्दियाँ व्यतीत बिना ममनके ही अनेक ग्रन्थोंका अध्ययन करके अपने होती गई हैं; त्यो त्यो भाषाकी दुरूहता और लम्बे लम्बे
आपको बहु-श्रुति मान लेते हैं, अथवा जो कोई अनेक समास युक्त वाक्य रचनाकी वृद्धि होती गई है । शिष्योंके होने परही एवं जन साधारण-द्वारा तारीफ उदाहरण के लिये क्रमसे रामायण, महाभारत, भासके किये जाने पर ही अपने आपको "जिन-शासन-संरक्षक" नाटक, कालीदासकी रचनाएँ, भवभूतिके नाटक, बाण मान लेते हैं निश्चय ही वे उल्टे मार्ग पर हैं। वे शास्त्र में की कादम्बरी, भारवी, माघ और हर्षके वाक्योंसे मेरे स्थिर बुद्धिशाली न होकर उल्टे सिद्धान्त द्रोही हैं। उपर्युक्त मन्यव्यकी पूरी तरहसे पुष्टि होती है। ऊपरके
इस दृष्टि से "बुद्धिमान्" शब्द वहाँ पर सार्थक है। उदाहरण कालक्रमसे लिखे गये हैं और प्रत्येकमें उत्तरोऔर इस बातका द्योतक है कि पुराण पंथियोंका महान् त्तर भाषाकी क्लिष्टता और अर्थकी दुरूहताका विकास विरोध होने पर भी प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर अपने होता चला गया है । इसी प्रकार जैनसाहित्यमें मी विचारों के प्रति दृढ़ रहे और स्थायीरूपसे जिनशासन- उमास्वातिकी भाषा और सिद्धसेन दिवाकरकी भाषासे रक्षा, साहित्य-निर्माण, एवं दीर्घ तपस्वी भगवान् तुलना करने पर भली प्रकारसे ज्ञात हो सकता है कि महावीर स्वामीके सिद्धान्तोका प्रकाशन और प्रभावना- दोनोंकी भाषामें काफी अन्तर है । उमास्वातिका काल का कार्य अन्त तक करते रहे।
लगभग प्रथम शताब्दि निश्चित हो चुका है। अतः टीकादि ग्रंथ और अन्य मीमांसा
भाषाके आधारसे यह अनुमान किया जाता है कि
सिद्धसेन दिवाकरका काल तीसरी और पांचवीं शतान्दिसिद्धसेन दिवाकर द्वारा रचित कृतियों से केवल के मध्यका होगा। दो पर ही टीका व्याख्या आदि पाई जाती हैं और भाषाकी क्लिष्टता और दुरूहताके विकासमें माषाअन्य किसी भी कृति पर नहीं, यह आश्चर्यकी बात है। विकासकी स्वाभाविकताके अतिरिक्त अन्य कारणों में से
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वर्ष २, किरण १.]
सिद्धसेन दिवाकर
एक कारण यह भी होता है कि जो जितनी ही अधिक भी उल्लेख पाया जाता है और यह उल्लेख भी "पाहिक्लिष्ट, परिमार्जित, और अधिकसे अधिक अर्थ प्पणिका" नामकी प्राचीन जैन प्रथ सूचीमें 'सम्मतिगांभीर्यमय भाषा लिखता है, वह उतना ही अधिक चिरल्यानका" मात्र ही पाया जाता है। अतः इस विद्वान समझा जाने लगता है। संस्कृत भाषाके क्रमिक सम्बन्धमें कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। विकासके अध्ययनसे पता चलता है कि दूसरी शतान्दिसे न्यायावतार पर दो वृत्तियाँ पाई जाती है। एक तो ही संस्कृत-भाषाके विकासमें उपर्युक्त सिद्धान्त कार्य प्रसाधारण प्रतिभा संपन्न प्राचार्य हरिभद्रसूरिकी है। करने लग गया था । और यही कारण है कि संस्कृत- ये 'याकिनी महत्तरासूनु' के नामसे प्रसिद्ध है। इनका भाषाकी जटिलता दिन प्रति दिन बढ़ती ही चली गई। काल प्रसिद्ध पुरातत्त्वश मुनिराज जिनविजयजीने ७५७
सूक्ष्म-दृष्टिसे विचार किया जाय तो कालीदासकी से ८२७ विक्रम तकका निर्णीत किया है, जो कि भाषामें और सिद्धसेन दिवाकरकी भाषामें कुछ कुछ सर्वमान्य हो चुका है। कहा जाता है कि इन्होंने १४ साम्यतासी प्रतीत होगी; अतः इनका काल तीसरीसे ग्रंथोंकी रचना की थी। यह वृत्ति २०७३ श्लोक प्रमाण पाँचवींके मध्यका ही प्रतीत होता है।
कही जाती है। इसकी हस्तलिखित दो प्रतियाँ उपलब्ध सम्मतितर्क पर सबसे बड़ी टीका प्रद्युम्नसरिके हैं जो कि पार्श्वनाथ भंडार पाटण और लोदी पोशालके शिष्य अभयदेवसूरिकी पाई जाती है। इनका काल उपाभय भंडार पाटणमें सुरक्षित है; ऐसा श्वेताम्बर काँ दशवीं शताब्दिका उत्तरार्ध और ग्यारहवींका पूर्वार्ध केस द्वारा प्रकाशित “जैन-ग्रंथावली"से शात हुआ है। माना जाता है । ये 'न्यायवनसिंह' और 'तर्क पंचानन' न्यायावतार पर दूसरी वृत्तिका उल्लेख 'वृहहिप्पणि की उपाधिसे विख्यात थे। यह टीका पचीस हजार का' नामक प्राचीन जैन ग्रंथसूचिमें पाया जाता है। श्लोक प्रमाण कही जाती है। यह टीका ग्रंथ गुजरात यह कितने श्लोक संख्या प्रमाण थी. इसका कोई उल्लेख विद्यापीठ अहमदाबादसे प्रकाशित हो चुका है। इसका नहीं है। इसके रचयिताका नाम 'सिद्ध व्याख्यानिक' संपादन आदरणीय पं० सुखलालजी और पं०वेचरदास- लिखा हुआ है। 'जैन-ग्रंथावलि' के संग्रहकारका अनु. जीने घोर परिश्रम उठाकर किया है।
मान है कि ये सिद्धब्याख्यानिक मुनिराज सिवार्षिही 'सम्मति तर्क' पर दूसरी वृत्ति प्राचार्य मल्लवादी- जिन्होंने कि "उपमितिभवप्रपंच" जैसा अद्वितीय रूपक की कही जाती है, जिसकी श्लोक संख्या ७०० प्रमाण हिप्पविकाका पहगोवसम्मति विवरण थी; ऐसा उल्लेख बहटिप्पणिका नाम प्राचीन जैनग्रंथ
नामकी उस दिगम्बर टीकासे सम्बन्ध रखता मा बाम
पड़ता है,बिसे प्राचार्य 'सन्मति'ने बिना और सूचिमें पाया जाता है। वर्तमानमें यह वृत्ति अलभ्य
जिसका पता पारनाथचरित' में दिए बादिराजहै। प्राचार्य मल्लवादीने यह वृत्ति लिखी थी, इसका सूरिक निम्नवायसे भी पताउल्लेख महान् प्रभावक श्राचार्य हरिभद्रसूरिने अपने नमा मम्मतपेतस्मैमवामिपातिनाम् । 'अनेकान्त जयपताका' में और उपाध्याय यशोविजय
सम्मातेर्विवृतयेन सुबधाम प्रवेशिनी ॥२॥
पंडितबी सुनवाब और चरदासजीने भी सन्मजीने अपनी 'श्रष्ठ-सहस्रीटीका' में भी किया है। सम्मति
तितकी प्रस्तावनासबासको स्वीकार किया। तर्क पर इन दो टीकात्रोंके अतिरिक एक तीसरी वृत्तिका
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-अनेकान्त
[प्रथम श्रावण, वीर-निर्वाण सं०२४६५
अन्य लिखा है। और उपदेशमाला पर सुन्दर टीका इतिहास' और 'भारतीय राजनैतिक इतिहास' आदि लिखी है। बारहवीं शताब्दिमें होने वाले, रत्नाकरावता- अनेक प्रकारके इतिहासोंकी सामग्री भरी पड़ी है। रिका नामक न्यायशास्त्रकी कादम्बरी रूप ग्रंथके लेखक इस अपेक्षासे अनेक भारतीय और पाश्चात्य विद्वान् रत्नप्रभसूरिने सिद्धर्षिके लिये 'व्याख्यात-चड़ामणि' का जैन-साहित्यको बहुत ही श्रादरकी दृष्टिसे देखने लगे विशेषण लगाया है। यह वृति अलभ्य है। सिद्धषिका है और पढ़ने लगे हैं। फिर भी सत्यकेतु विद्यालंकारके काल विक्रम ६६२ माना जाता है।
शब्दों में यह कहा जा सकता है कि 'ऐतिहासिक विद्वानों न्यायावतार पर देवभद्र मलधारि-कृत एक टिप्पण ने जैन-दर्शन और जैन-साहित्य के प्रति उसके अनुरूप भी पाया जाता है । यह ६५३ श्लोक प्रमाण कहा न तो आदर ही प्रदर्शित किया है और न उसके ग्रंथोंका जाता है और सुना जाता है कि पाटणके भंडारोंमें गंभीर अध्ययन और मनन ही। इसमें जैनसमाजका भी है । देवभद्र मलधारीकी तेरहवीं शताब्दि कही जाती कुछ कम दोष नहीं है। उसने अपने साहित्यका न तो है। इन्होंने अपने गुरु श्री चन्द्रसूरि कृत 'लघुसंग्रहणी' विपुल मात्रामें प्रकाशन ही किया है और न प्रचार ही। पर भी टीका लिखी है।
यही समाजकी सबसे बड़ी त्रुटि है। क्या जैनसमाज सिद्धसन दिवाकरकी ऊपर लिखित कृतियोंके इस अमूल्य साहित्यको प्रकाशित करनेकी और इसकी अतिरिक्त और भी कृतियाँ थीं या नहीं; इस सम्बन्धमें रक्षा करनेकी ओर ध्यान देगा? और कुछ नहीं कहा जा सकता है; क्योंकि इन द्वारा किंवदन्तीमें यह उल्लेख आया है कि 'कल्याणरचित अन्य कृतियोंका और कहीं पर भी कोई उल्लेख मंदिर' स्तोत्र सिद्धसेन दिवाकरकी ही कृति है । यह नहीं पाया जाता है। यदि लिखी भी होंगी तो भी या तो कथन"प्रभावक चरित्र"नामक ग्रंथमें पाया जाता है। नष्ट हो गई होगी या किन्हीं अज्ञात् स्थानों में नष्टप्राय कल्याणमंदिरके अंतिम श्लोकमें काके रूप में अवस्था में पड़ी होंगी।
"कुमुद्रचन्द्र" नाम देखा जाता है। प्रभाविकचरित्रमें जैन-साहित्यकी विपुलताका यदि हिसाब लगाया यह देखा जाता है कि इनके गुरु वृद्धवादि श्रादि सूरिने जाय तो यह कहा जा सकता है कि इसकी विस्तृतता इन्हें दीक्षा देते समय इनका नाम "कुमुद्रचन्द्र" रक्खा अरबों और खरबों श्लोक प्रमाण जितनी थी। आज भी था। यह बात कहाँ तक सत्य है ? और इसी प्रकार करोड़ों श्लोक प्रमाण जितना साहित्य तो उपलब्ध है। 'कल्याण मंदिर' स्तोत्र इनकी कृति है या नहीं, यह भी यदि मेरा अनुमान सत्य तो आज भी दिगम्बर और एक विचारणीय प्रश्न है। श्वेताम्बर ग्रंथों की संख्या-मूल, टीका, टिप्पणी,भाष्य, अन्तमें सारांश यही है कि श्वे जैनन्यायके आदि
और व्याख्या आदि सभी प्रकारके ग्रंथोंकी संख्या- प्राचार्य महाकवि और महावादि सिद्धसेन दिवाकर मिलाकर कमसे कम बीस हजार अवश्य होगी। इनमेंसे जैनधर्म और जैन-साहित्यके प्रतिष्ठापक, श्रेष्ठ संरक्षक, संभवतः अधिकसे अधिक दो हजार ग्रंथ छपकर प्रकाशित दूरदर्शी प्रभावक, और प्रतिभा सम्पन्न समर्थ प्राचार्य थे। होगये होंगे । शेष अप्रकाशित अवस्थामें ही मरणासन्न 'प्राचार्य सिद्धसेन और उनकी कृतियाँ इस है। जैन-समाजका यह सर्व प्रथम कर्तव्य है कि वह शीर्षकके रूपमें प्राचार्य महोदयकी खोजपर्ण जीवनी, मूर्ति, मन्दिर, तीर्थयात्रा, और गजरथ आदिमें खर्च सम्मतितर्क न्यायावतार और अन्य उपलब्ध द्वात्रिंकम करके इस ज्ञानराशिरूप साहित्यकी रक्षाकी मोर शिकायोंके मूल पाठ उनके विस्तुत हिन्दी भाष्य सहित ध्यान दे।
वर्तमान पद्धतिसे सम्पादन करके यदि एकत्र प्रकाशित ___ जैन-साहित्यमें 'भाषामोंका इतिहास', 'लिपिका किये जाएँ तो बीसवीं शताब्दीके जैनसाहित्यमें एक इतिहास', 'भारतीय साहित्यका इतिहास' 'भारतीय गौरवपर्ण ग्रंथ तैयार हो सकता । तथास्त। दार्शनिक और धार्मिक इतिहास' 'भारतीय संस्कृतिका
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ANAN NAMAN NN SEMUAN
DiressansatasanasleaseDED कथा कहानी ले०-अयोध्याप्रसाद गोयत्रीय
Marissa NIPASARNASTE
रहित) मनोरों के पास शेर और हिरव करियां हृदयकी स्वच्छता-स्ताइ "जोक" उर्दू के एक मरते है, उनके तबाचे प्रेमसे चाटते हैं मगर शिकारीको बहुत प्रसिद्ध कवि हुए है। मुाबराके चन्तिम कुपे हुए देखकर भी भाग जाते है पा मुकारिनेको बादशाह बहादुरशाह जफर" कविता-गुरु थे । भान तैयार हो जाते है । गाय कसाईके हाथ बेचे जाने पर भी भारतवर्षमें हजारों उर्दू के प्रसिद्ध कवि उनके शिष्य सकराती है, मगर किसी यमदिखके पुराने पर और प्रशिष्य है। उर्दू शायरीमें महाकवि "जी" महसान भरी नजरोंसे देखती है । इन्सानका मेरा अपमा नाम अमर कर गये है। पाप मुसलमान थे। मानिन्न पाइने (पर्पण) है। उसमें बरे खोरेका एक बार अपने शागिर्दोके साथ बैठे हुए पाप पात- भक्स (प्रतिबिम्ब ) हर वक्त मनकता रहता है।" चीत कर रहे थे कि उनके सिर पर विदिषा बार बार भाकर बैठने लगी। मापने तंग भाकर सीमें फर्मावा- होनहार विरवानके होत पीकने पात-भारत "नादानोंने मेरी पगडीको घोसवा समझ बिमा "। का प्रथम ऐतिहासिक सम्राट चन्द्रगुप्त-जिसने पूना उस्तादकी इस बातसे सब सिखालिसाकरस पदे। वहीं नियोंकी पराधीनतासे भारतको मुक्त किया था। जिसके एक नागीना (मेत्रहीन) शिष्य भी बैठा हुवा था । उसे बल-पराक्रमका बोहा सारे संसारने माना और जिसके जब हँसोका कारण माबूम हुमा तो बोला-"उस्ताप ! शासन-प्रवासीकी कीर्ति भाव भी गूंज रही-आयहमारे सर पर तो चिदिया एक बार भी भाकर नहीं बैभवमें उत्पन होकर एक अत्यन्त साधारण स्थिदिमें बैठी" । शागिर्दकी बात सुनते ही महाकवि "शौक" उत्पन हुमा या । गाँवकी गाएँ चरामा और मोखमा बोले- क्या ये बानती नहीं हैं कि काजी, बामा यही उसका दैनिक कार्य था। किन्तु वरपनमें ही, म्सके पड़कर चट सावन देगा"। उत्तापकी बात सुनी तो शुभ बास प्रकल होने थम गये थे। वह मेजनेमें स्वयं हँसीका फबान एट पदा। बाबीमा शामिदं भी ऊपता राजा बनता,किसीको मंत्री किसीको कोतवाल किसीको हुमा हंस दिया । शाशिदोंने मर्ज किया- "उस्ताने चोर और ममाता । चोरोंको दर और सदाचारियोंको
या सूर पाया है। मेराक विसे दिवको राहत इनाब देगा। नरामी उसकी पाहापाखनमें होबाबत होती है। अपने दोस्त-दुरमनकी पहचान बालकों को भी माती तो वह अधिकार पूर्ण शब्दों में माता-"पा मी शेती । साँप के कहने पर भी अपने साथ. रामा चन्द्रगुसकी मात्रा है, इसका पालन होना ही सेवा राता है, मगर प्रवास इन्सारको प्रयसी मूव चाहिये । राजा पा पाग-बिरवास, ऐसा और पर भी काट खाता है। बागोरसपसे पात्र ( रागो महत्वाकांस देखकर मि-वेपमें चावल बना विकिमत
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अनेकान्त
[प्रथम श्रावण, वीर-निर्वाण सं०२४६५
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सके।"
हुमा । उसने कौतुक्या पावक पन्द्रगुप्लके पास जाकर
(२८) हा-"राजन् ! हमें भी दाल दीजिये।" ईर्खाका परिणाम-पो परिडत दरिया प्राप्त
पालक पन्नास चावल्यकी बातसे न मिलका न करनेकी नीयतसे एक सेटके यहां पहुंचे। विद्वान् समझशर्माबा-उसने राबानोंकी ही तरह भादेश दिषा- पर सेठ साहबने उनकी सकी भाव-भगवकी। उनमेंसे "सामने जो गाएँ चर रही है, उनमें जो भी हमे पसन्द एक पविडत जव स्नान वगैरहके लिए गए तो सेठजी हो बेवासकता है।"
दूसरे परिडतसे बोले-"महाराज ! ये आपके साथी तो चाणक्य मुस्कराकर बोला-"महाराजाधिराज! महान् विद्वान् मालूम होते हैं। परिस्तजीमें इतनी पह गाएँ तो गाँव पाखोंकी है, वे मुझे क्यों बेजाने उदारता कहाँ जो दूसरेकी प्रशंसा सुनो । मुँर विगाद
कर बोले-"विहान् तो इसके पदोसमें भी नहीं रहते चन्द्रगुप्तने जरा भृकुटी चढ़ाकर कहा-"भोये यह तो निरा बैत है।" सेठजी चुप हो गये । अब उक्त विप्र ! क्या नहीं जानते "पीर भोन्या बसुन्धरा।" परिखत संख्या वगैरहमें बैठे तो पहले परिखतबीसे बोले किसकी मजाल है जो मेरे पादेशकी अवहेलना कर “महाराज भापके साथी तो प्रकारण विद्वान् नवर
माए।" इयानु परिस्त अपने हतपकी गन्दगीको बालक चन्मगुसका यह संकल्प सही निकला और परवेरते हुए बोले-"मनी, विद्वान् हान् कुक नहीं, पर अपनी पुवावस्थामें ही साधन-हीन होते हुए भी कोरा गया है।" समुष सम्राट बन बैठा।
मोजमके समय एक्के मागे पास और दूसरेके सामने मुस रखवा दिया गपा, पंडितोंने देखा तो भाग बबूला
होगए। बोले-सेठबी ! हमारा पर अपमान, इतनी लार्ड विलिंगटन-बास्तबमें बचपनी संस्कार बड़ी ता!" सेडबी हाथ जोपर गोवे-महाराज ! भविष्यमै माम्प-निर्माता होते है। रोनहार बाबकोंकी भाप ही बोगोंने तो एक दूसरेको गया और वा बतभामा उनके रदय होनेके पूर्व ही सूर्व-रेखाचोंके समान बापामतः गये और खाके योग्य पराकमैने सामने खने बगती है। इसी अवस्थामें से हुए - सदी । बाप ही पतबाइये इसमें मेरा प्यार है। सी सीमें किए गये संकल्प-बड़े होनेपर कार्यरूपमें हो चाप दोनोंको ही विद्वान समझता था, पर परिचित कर दिलाते है। एक बार पाक पिलिंगठनसे पाकिपात को मापने स्वपही वववादी।" सेठजीकी किसीने पवा किया यहमपीस क्या कहती रोष पासे परिडत बाजित हुए और परवाते हुए मगमें विजिगरने उत्तर दिया कि सोकसेनदी खडकब बने सगे-"पालवी बोपने साथीको बहाना एस विगिटन पुरवी वीबाई मॉक टन (पदी नही रेल समता, बस मी नहीं पाता ,
भतीज, ब, ख और पटनका बार बनेगा प्रविता पास करने से अपने सादियोंकी विलिंगान) पाविधिगडमी पर भविनावी प्रविटावा नसाना बत्तासांनु पाविर सब मिली।
मनॉकी हमारी सीटी गति होती है।"
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हरी साग-सब्जीका त्याग
(०-पाद सूरबमाबुजी पीस]
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[पनी रिपका शेष] म नमा निया की जासकती है; जैसे सुखानेसे, मागपर पकानेसे,
___ गरम करनेसे, खटाई वा नमक लगानेसे और चाकू माणुव्रती श्रावक अपने विषय कषायोंको कम कुरी भादि किसी यंत्रके द्वारा छिन्नभिन्न करने
करता हुआ, वैराग्यको बढ़ाता हुमा भौर से । यथासंसार मोहको घटाता हुमा, पहली, दूसरी, तीसरी सुचपत विवरणोति मिस्तिपदव्यं । और चौथी प्रतिमानों में उत्तीर्ण होकर जब पांचवी तेवर विश्वंतं स पासुचे भविषं ॥ प्रतिमामें प्रवेश करता है तो उस समय उसकी यदि पाँची प्रतिमावाला बनस्पतिको अपने मात्मा इतनी उन्नति कर जाती है कि वह साग- हायसे निर्जीव अर्थात् प्रासुक कर सकता है तो सब्जीके खानेका त्याग करदे । त्रसजीवकी हिंसाका उसको सुखाकर ही रखनेकी क्या जरूरत है। तब त्याग तो उसने दूसरी प्रतिमा धारण करते ही तो वह पाकूसे काटकर भी प्रामुक कर खा सकता अहिंसाणुव्रतमें कर दियाथा,परन्तु स्थावर जीवोंकी है, खटाई या नमक लगा लगाकर भी खा सकता हिंसाका त्याग बिल्कुल भी नहीं किया था, फिर है, गरम करके भी खा सकता है और पकाकर भी भोगोपभोग परिणामव्रतके ग्रहण करनेपर कन्दमूल खा सकता है। फिर एक पांचवी प्रतिमावाला ही मादि अनन्तकाय साधारण बनस्पतिके भक्षणका क्या सब ही इन रीतियोंमेंसे किसी न किसी रीतिके भी त्याग करदिया था, प्रत्येक बनस्पतिका नहीं द्वारा सब प्रकारके फल और साग सब्जीको किया था। अब इस पांचवी प्रतिमामें वह प्रत्येक निर्जीव वा प्रासुक करके खाते हैं, तब तो मानो बनस्पतिके भक्षणका भी त्याग कर देता है। यह सबही पांचवी प्रतिमाघारीसचित त्यागी है! परन्त त्याग उसका एकमात्र जीवहिंसासे बचनेके वास्ते ऐसा होता तो क्यों तो भोगोपभोग परिमाणवतमें ही होता है. इस कारण वह किसी बनस्पतिको काट अनन्तकाय जीवोंकी हिंसासे बचनेके वास्ते कंदकर सुखानेके द्वारा निर्जीव या प्रासुक भी नहीं मूबके मरणका त्याग कराया जाता और क्यों वह करता है ऐसा करने में तो वह साक्षात ही हिंसक पांची प्रतिमा कायम कर सब ही प्रकारकी सागहोता है।
। सम्बीके त्यागका विधान किया जावा ? इससे स्पष्ट बनस्पति अनेक प्रकारसे निर्जीव वा मासुक सिद्ध है कि न तो भोगोपभोग परिमाणवत माला
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अनेकान्त
[प्रथम श्रावण, वीर-निर्वाण सं०२४६५
कंदमूलको किसी रीतिसे निर्जीव करके खा सकता नहीं करसकता है और न करा सकता है। हाँ, उसहै और न पांचवीं प्रतिमावाला किसी भी प्रकारकी के लिये नहीं किन्तु अन्य किसी कारणसे प्रासुक बनस्पतिको नर्जीव करके खा सकता है । वह न हुई जो वनस्पति उनको मिल जायगी उसको जरूर अपने खानेके वास्ते ही निर्जीव कर सकता है और खासकता है। सचित्त त्यागी आवकके विषयमें न किसी दूसरेके खानेके वास्ते ही, उसे तो हिंसासे रत्नकरंड श्रावकाचारमें लिखा हैबचना है तब वह स्वयं हिंसा कैसे कर सकता है ? मूलफलशाकशाखाकरीर कन्दप्रसून बीनानि । हाँ, यदि किसी दूसरेने खास उसके वास्ते नहीं नामानियोऽसिसोऽयं सचित्त विरतो दयामूर्ति ॥४१ किन्तु अन्य किसी कारणसे किसी बनस्पतिको अर्थात्-जो कच्चे मूल, फल, शाक, शाखी, ऊपर लिखी हुई किसी भी विधीसे निर्जीव करके करीर, कन्द, फूल और बीज नहीं खाता है वह अचित कर रखा है तो उस अचित की हुई बनस्पति- दयाकी मूर्ति सचित्त त्यागी है। को यह त्यागीभीखासकताहै,क्योंकि उसके निर्जीव इसमें दयाकी मूर्ति शब्द खास ध्यान देने योग्य करनेमें इसका कुछ भी वास्ता नहीं पाया है। इस हैं-क्या स्वयं अपने हाथसे बनस्पतिको काटकाटकारण यह उसके निर्जीव करनेका दोषी नहीं हो कर, सुखाकर निर्जीव करनेवाला दयाकी मूर्ति होसकता है। दृष्टान्तरूपमें गृहस्थ अपनी गाड़ी व खेती सकता है ? हरगिज नहीं, कदापि नहीं। श्रादिके लिये बैल रखता है; परन्तु बधिया बैल ही
अष्टमी चतुर्दशीका पर्व उसके कामका होसकता है, सांड किसी प्रकार भी उसके काम नहीं पासकता है, तो भी सद्गृहस्थी अब रही अष्टमी और चतुर्दशी इन दो पोंकी श्रावक इतना निर्दयी नहीं होसकता है कि स्वयं बात, दूसरी प्रतिमाधारी अणुव्रती श्रावक पाँचों किसी बैलको बधिया करै वा बधिया करावै । हाँ, अणुव्रत धारण करनेके बाद इन ब्रतोंको बढ़ाने के बधिया करा कराया बैल जब बिकने आता है तो वास्ते दिग्वत, अनर्थ दंड त्यागवत और भोगोपवह जरूर खरीद लेता है। यह ही बात साग सब्जी भोग परिमाणवत नामके तीन गुणव्रत धारण करता के वास्ते भी लागू होती है । भोगोपभोग परिमाण है, इसके बाद वह मुनि-धर्मका अभ्यास करनेके प्रती भावक जिसको कन्दमूल आदि अतन्तकाय वास्ते सामायिक, देशावकाशिक प्रोषधोपवास और वनस्पतिके भक्षणका त्याग होता है, वह भी किसी अतिथिसंविभाग नामके चार शिक्षाबत ग्रहण कन्दमूलको किसी भी प्रकारसे निर्जीव नहीं कर करके, महिनेमें चार दिन ऐसे निकाल लेता है सकता है और न करा सकता है, हाँ, सूखी हुई जिनमें वह संसारके सब ही कार्योंसे विरक्त होकर सुंठ, हलदी भादिको भी प्रासुक किया हुमा कंद- और सब ही प्रकारका प्रारम्भ छोड़कर यहां तक मूल बाजार में बिकता हुभा मिलता है उसको जरूर कि खाना, पीना, नहाना, धोना आदि भी त्यागकर खरीद कर खा सकता है, इस दो प्रकार पांचवीं एकमात्र धर्म सेवनमें ही लगा रहै। ये चार दिन प्रविमाधारी भाषक भी किसी बनस्पतिको निर्जीव प्रत्येक पक्षकी अष्टमी चतुर्दशीके रूपमें नियत कीर
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वर्ष २, किरण १.]
हरी साग-सब्जीका त्याग
दिये गये हैं। इस प्रकार ये पर्व तो मुनिके समान मुनि और भाचार्य माने जाने लगे हैं तबसे बिल्कुल धर्ममें ही लगे रहनेके वास्ते हैं न कि हरी स्थियोंमें भी भावों और परिणामोंकी शुद्धिके स्थान साग सब्जीका खाना छोड़ दयाधर्मका स्वागत पर धर्मके नामपर लोक दिखावा और स्वांग करनेके वास्ते । ये पर्व तो उस ही के वास्ते हैं जो तमाशा ही होने लगगया है । इस ही से जैनधर्मकी पहले सम्यग्दर्शन ग्रहणकर पांचों अणुव्रत ग्रहण अप्रभावना होकर इसकी अवनति शुरू होगई। करले और फिर उन अणुव्रतोंको बढ़ानेके वास्ते नतीजा जिसका यह हुमा कि जहां हिन्दुस्तानमें तीनों गुणत्रत ग्रहणकरले और उसके बाद सामयिक पहले की करोड़ जैनी वहाँ भव केवल दस
और देशावकाशिक नामके दो शिक्षाप्रत भी प्रहण ग्यारह लाख ही जैनी रह गये हैं-उनके भी तीन करले, अर्थात् कुछ कुछ अभ्यास मुनिधर्मका भी टुकड़े जिनमेंसे प्रायः ४ लाख दिगम्बर ४ लाल करने लगे; तब ही वह इन पर्वो में प्रोषधोपवास मूर्ति पूजक श्वेताम्बर और ३ लाख स्थानकवासी करके पर्वके ये दिन मुनिके समानधर्म-ध्यानमें ही समझ लीजिये। इस प्रकार हिन्दुस्तानकी ३५ करोड़ बिता सकता है । यह सब साधन करनेसे पहले ही आबादीमें मुट्ठीभर जैनी बाकी रह गये हैं, वह भी अर्थात् सम्यग्दर्शन-प्रहण करनेसे पहले ही जो नामके ही जैनी हैं, और बहुत तो ऐसे ही हैं जो लोग इन पर्वो में हरी सब्जीका त्याग कर धर्मात्मा- जैनधर्मसे बिल्कुल बनजान होकर अपनी धर्म
ओंमें अपना नाम लिखाना चाहते हैं वे तो एक कियापोंसे जैनधर्मको लजाते ही हैं।। मात्र जैनधर्मका मखौल ही कराते हैं। __सबसे बड़ा अफसोस तो इस बातका है कि उपसंहार
पंडितों, उपदेशकों, शासकी गहीपर बैठकर पीर सारांश इस सारे शास्त्रीय कथनका यह निक भगवानकी वाणी सुनानेवालों, स्यागियों, ब्रह्मचालता है कि श्री कुन्दकुन्द और श्रीसमन्तभद्र जैसे रियों, ऐखकों, कुलकों और मुनियों प्राचार्यों मेंसे पृवाचार्योंकी तो कोशिश यही रही है कि पहले किसीको भी इस बातका फिकर नहीं है कि धमका सब ही लोगोंको धर्मका सचा स्वरूप समझाकर सवा स्वरूप बताकर सबसे पहले लोगोंको सपा और चिरकालका जमा हुआ मिथ्यात्व छुड़ाकर सम्यक्ती बनाया जाये । सम्भव है वे खुद भी सबै सम्यक्ती बनाया जाये, इसके बाद ही फिर आहिस्ता सम्यती न हो,इस ही से इस तरफ कोशिश करनेका आहिस्ता उनको सम्यक् चारित्र पर लगाया जावे, उनको उत्साह न पैदा होता हो । कुछ भी हो, अब जैसे जैसे उनके भाव ऊपर बढ़ते जावें वसा वैसा तो एकमात्र यही देखनेमें पाता है कि मंदिरजीमें त्याग उनसे कराया जावे, जिससे सो मार्ग पर जब कोई शास्त्र समाप्त होता है वा कोई त्यागी चलकर वे अपना कल्याण कर सकें और मोक्षका किसीके घर भोजन करने जाता है वा कोई सीपरम सुख पासकें। परन्तु जबसे धर्ममें शिथिला- पुरुष किसी भी त्यागीके दर्शनोंको उनके पास चार फैला है, जबसे ठाठ बाटसे रहनेवाले, नालकी जाते हैं तो ये लोग कुछ नहीं देखते कि वह पालकीमें चलनेवाले वसधारी मट्टारक भी महा- जैनधर्मके स्वरूपको कुछ जानता भी है या नहीं,
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अनेकान्त
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धर्मका कुछ श्रद्धान भी उसको है वा नहीं, उसके आवें और न किसीकी जबरदस्तीको मान; किन्तु भाष क्या हैं परिणाम क्या हैं-चारित्र उसका एकमात्र वही मार्ग अंगीकार करें जो हमारे कैसा है, पाप पुण्यसे कुछ डरता भी है या नहीं, पूज्य महान् प्राचार्य शास्त्रों में लिख गये हैं। उसके दया-धर्मका खयाल भी उसको कुछ है या नहीं, विरुद्ध घड़े हुए तथा प्रचार में लाये हुए प्राणहीन इन सब बातोंका कुछ भी खयाल न करके, वे तो पाखंडी तथा ढौंगी विचारोंको कदाचित् भी एकदम उसको पिलच जाते हैं और कुछ न कुछ अंगीकार न करें। साग सब्जीका त्याग कराकर ही उसको छोड़ते हैं। इस मौके पर शायद हमारे किसी भाईके वह बेचारा बहुत कुछ सटपटाता है और हाथ यह शंका उत्पन्न हो कि अगर कोई बेसिलसिले भी जोड़कर कहना है कि मुझसे यह त्याग नहीं हो- साग सब्जीका त्याग करने लगे अर्थात् जो कोई सकता है। परन्तु वहाँ इन बातोंको कौन सुनता है, पहली प्रतिमाधारी सम्यक्ती भी नहीं है, यहाँ तक कि वहाँ तो इस ही बातमें अपनी भारी कारगुजारी महानिर्दयी पापी और हिंसक है, फिर भी वह सारी
और जीत समझी जाती है जो उस अचनाक पंजेमें सब्जियोंका त्याग कर सचित्तत्यागी हो जावे तो फंसे हुएसे कुछ न कुछ त्याग कराकर ही छोड़ा इस अटकल पच्चू त्यागसे उसको कुछ पुन्य नहीं जावे।
होगा तो पाप भी तो नही होगा; तब इतना भारी यह त्याग क्या है मानों जैनधर्मकी चपरास वावैला उठानेकी क्या जरूरत? इसका जवाब यह है उसके गलेमें डाल देना है, जिससे वह अलग कि मुनिकी क्रियाओंमें नग्न रहना ही एक बहुत ही पहचाना जावे कि यह जैनी है परन्तु इस झूठी जरूरी क्रिया और भारी परिषह सहन करना है। चपरासके गलेमें डालते वक्त वह यह नहीं सोचते तब यदि कोई जैनी, जिसने श्रावककी पहली हैं कि जिस प्रकार कोई मनुष्य झूठा सरकारी प्रतिमा भी धारण न की हो,न मिथ्यात्वको ही छोड़ा चपरास डालकर लोगोंको ठगने लगे तो वह हो, न त्रसथावरकी हिंसाको तथा झूठ चोरी, कुशील पकड़ा जाने पर सजा पाता है उसही प्रकार धर्मकी को ही त्यागा हो और न परिग्रहको ही कम किया झूठी चपरास धारण करने वाला भी धर्मको हो। मुनिके समान नग्न रहकर जैनधर्मके एक बदनाम करता हुमा खोटे ही कर्म बांधता है और बड़े भारी अंगके पालन करनेका दावा करने लगे, अपने इस महापापके कारण कुगतिमें ही जाता है। तो ऐसा करनेसे क्या वह जैनधर्नका मखौल नहीं ____ इस कारण जरूरत इस बातकी है कि सबसे उड़ाएगा और पापका भागी नहीं बनेगा; ऐसे पहले धर्मका सबा स्वरूप बताकर मनुष्योंको ही सिलसिले साग सब्जीके त्यागके कारण सम्यक्ती बनाया जावे, फिर शास्त्रोंमें वर्णन किये जैनधर्मका जो मखोल अन्यमतियों में हो रहा है गये सिलसिलेके मुताबिक ही आहिस्ता आहिस्ता उससे क्या यह लोग पापके भागी नहीं हो रहे हैं। त्यागपर लगाकर उन्हें ऊँचे चढ़ाया जावे, जिससे कमसेकम जैनधर्मकी अप्रभावना तो जरूर ही हो उनका भी कल्याण हो और धर्मकी भी प्रभावना रही है। भतः शास्त्र विरुद्ध त्यागकी प्रथाको हटानेहो । मालम नहीं हमारे पंडित, उपदेशक और के लिये शोर मचाना निहायत जरूरी है। जिनको त्यागी मेरी इस बात पर ध्यान देंगे या नहीं, वे धर्मकी रक्षा करनी है, उनको तो इस आन्दोलनमें बड़े भादमी है, उनकी पूजा है और प्रतिष्ठा है इस शामिल होना ही चाहिये और जिनको धर्मसे प्रेम कारण सभव है कि वे मुझ जैसे तुच्छ भावमीकी नहीं है, उनकी पलासे चाहे जो होता रहे-धर्म बात पर ध्यान न दें। अतः अपने भोले भाईयोंये रे या तिरे उन्हें कुल मतलब नहीं है, हमारा भी निवेदन है कि न तो किसीके बहकायेमें भी उनसे जब मनुरोध नहीं हो सकता ।
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महारानी शान्तला [खक-०० भुजवली साची, विजाभूषण
सान्तलादेवी महाराज विष्णुवर्द्धनकी पट्टमहिषी बाहरी मिचिपर स्थापित पाषाणगत सम् ११३३ के एक पायीं । महामण्डलेश्वर, समधिगतपञ्चमहाशब्द, लेखमें अंकित है कि, बोपदेवके द्वारा अपनी राजधानी त्रिभुवनमाल, द्वारावतीपुरवराधीश्वर, यादव कुलाम्बर- द्वारसमुद्र में प्रतिष्ठित पार्श्वनाथकी प्रतिष्ठाके पीछे पुगारी घुमणि, सम्यक्त्व-बड़ामणि आदि अनेक उपाधियोंसे लोग शेषाहत लेकर महाराज विष्णुवनके पास दरबारअलंकृत होयसल वंशके प्रतापी शासक सुविख्यात में बंकापुर गये । उसी समय महाराजने मसन नामक विष्णुवर्धन ही इन शान्तलादेवीके भय पति है। शत्रुको पराजित कर उसके देशपर अधिकार करलिया महाराज विष्णुवर्धन जन्मसे तो जैनी ही थे; पीछे रामा- था तथा रानी लक्ष्मी महादेवीको पुत्र-रत्नकी प्राति हुई नुजाचार्य के षड्यन्त्रसे वैष्णव बन गये थे। फिर भी जैन- थी। उन्होंने उन पुजारियोंकी बन्दना की और गन्धोदक धर्मसे उनका प्रेम लुप्त नहीं हुआ था। इसके लिये अनेक तथा शेपाक्षतको शिरोधार्य किया। महारामने कहा कि सुदृढ प्रमाण मौजद है। इस सम्बन्धमें मैं एक स्वतन्त्र "इस भगवान्की प्रतिष्ठाके पुण्यसे मैंने विजय पाई और लेख ही लिखनेवाला हूँ । वास्तवमें विष्णुवनको जैन- मुझे पुत्ररत्न प्रासिका सौभाग्य प्राप्त हुना, इसलिये मैं धर्मसे सची सहानुभति न होती तो क्या उनकी पह-महिषी इस भगवान्को 'विजयपार' नामसे पुकाऊँगा तथा में महारानी शान्तला जैनधर्मकी एक कट्टर अनुयायिनी हो अपने नवजात पुत्रका नाम भी 'विजयनरसिंहदेव' ही सकती थी १ । हो, विष्णुवर्द्धनकी उपयुल्लिखित रमलगा।" साथ ही, इस मन्दिरके जीर्णोशारादिके उपाधियों से “सम्यक्त्वचड़ामणि" नामकी उपाधि हमें लिये महाराज विष्णुबनने जावुगल्लु' प्राम भेंट किया। स्या सूचित करती है ? वह भी सोचना चाहिये। क्या इन बातोसे विष्णुपनका जैनधर्मसे प्रेम व्यक
अनेक शिलालेख यह भी प्रमाणित करते है कि नहीं होता है !हाँ, यवमतकी दीवाके प्रारम्भमें इनसे महामण्डलेश्वर विष्णुवईनके गंग, मरियपण-जैसे जैनधर्मको काफी धका अवश्य पहुंचा था । अस्तु । सेनापति, भरत-जैसे दानायक, पोयसल एवं विष्णुवर' को प्रतापी थे। इसीलिये शिलालेख नेमिसेहि-जैसे राज-व्यापारी जैनधर्मकै एकान्त भक में एक स्थान पर इनके सम्बन्धमें यहाँ तक लिखा गया थे। महाराज विष्णुवनने स्वयं का जैनमन्दिरीको हैकि इन्होंने इतने दुर्जय दुर्ग जीते, इतने नरयाको दान दिया है। बस्तिहलिमें पार्श्वनाथ मन्दिरकी पराजित किया और इतने पाभितोको उस पल्ट
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अनेकान्त
[प्रथम श्रावण, वीर-निर्वाण सं० २४६५
बनाया कि जिससे ब्रह्मा भी चकित होजाता है।' लेखों- गमपारंगता, द्वितीयलक्ष्मी, अभिनवरुक्मिणी, पतिहितमें इनकी विजयोका प्रचुर वर्णन उपलब्ध होता है। सत्यभामा, विवेकै कबृहस्पति, प्रत्युत्पन्नवाचस्पति, व्रतयह जितने प्रतापी थे उतने ही धार्मिक एवं कलाप्रिय गुराशीलचारित्रान्तःकरणी, मुनिजनविनेयजनविनीत, भी थे। इसके लिये इनके द्वारा निर्मापित हलेबीडु एवं पतिव्रताप्रमावप्रसिद्धसीता, सकलवन्दिजनचिन्तामणि, बेलरके विष्णमन्दिर ही ज्वलन्त शान्त हैं। कला- .सम्यक्त्वचुडामणि, पुण्योपार्जनकरणकारण, उदुसशास्त्रियोंकी दृष्टि से ये दोनों मन्दिर भारतीय प्राचीन सवतिगन्धवारण, चतुस्समयसमुद्धरण, मनोजराजविजयकलाका जीता-जागता उदाहरण हैं। भारतीय शिल्प- पताका, जिनधर्मकथाकथनप्रमोद, जैनधर्म-निर्मला, कलाके विशेषज्ञ फर्गुसन-जैसे पाचात्य विद्वानने भी मुक्त निजकुलाम्युदयदीपिका, 'गीत-वाम-मृत्वसूत्रधार, जिनकण्ठसे इन मन्दिरोंकी प्रशंसा की है। अब मैं पाठकोंका समयसमुदितप्राकार, लोककविख्याता, भव्य ननवत्सला, ध्यान प्रस्तुत विषय पर आकृष्ट करता हूँ। जिनगन्धोदकपवित्रीकृतोत्तमाङ्ग तथा आहाराभयभैष
शान्तलादेवीने शक सं० १०४५ सन् ११२३ में ज्यशास्त्रदानविनोद आदि विशेषणों एवं विरुदावलियोंभवणबेल्गोलमें 'सवतिगन्धवारण बम्ति' नामक एक द्वारा सादर अंकित की गई है । इन विशेषणों तथा विशाल जिनमन्दिर बनवाया है। इसमें लगे हुए शिला- विरुदावलियोंसे देवी शान्तलाकी महत्ता और व्यक्तित्वका लेखमें मेषचन्द्र के शिष्य प्रमाचन्द्रकी स्तुति, होयसल पता आसानीसे लगजाता है। . वंशकी उत्पत्ति और विष्णुवईन तककी वंशावली, शान्तला अन्यान्य कलाओंके साथ साथ गीत, विष्णुवर्धनकी उपाधियाँ एवं शान्तलादेवीकी प्रशंसा वाद्य एवं नृत्यमें भी पूर्ण पण्डिता थीं। इससे पता लगता तथा उनके वंशका परिचय पाया जाता है । शान्त- है कि उस जमानेमें साधारण स्त्रियोंकी बात तो दूर रही लादेवीकी उपाधियोंमें 'उबृत्तसवतिगन्धवारण' अर्थात् बड़ी-बड़ी पट्ट-महिपियाँ तक संगीतको सादर अपनाती थीं 'उच्छृखल सौतोंके लिये गन्धहस्ती' यह उपाधि भी और समाज भी उन्हें सम्मानकी दृष्टि से देखता था ! सम्मिलित है। शान्तलादेवीकी इसी उपाधि परसे बस्ति साथ ही, उनकी 'उदृत्तसवतिगन्धवारण' इस उपाधिसे अर्थात् मन्दिरका भी उक्त नाम पड़ गया है। इस सिद्ध होता है कि यह सभी रानियों पर पूर्ण प्राधिपत्य मन्दिरकी लम्बाई-चौड़ाई ६६४ ३५ फुट है। इसमें जमाये हुए थीं। पाँच फुटकी शान्तिनाथ स्वामीकी मूर्ति विराजमान है। श्रवणबेल्गोलके लेख नं० ६२ (१३१) में भी इस दोनों ओर दो चमरवाहक खड़े हैं । मुलनासिमें (१) यक्ष- शान्तलादेवी-निर्मापित मन्दिरका उझेख है। उक लेख यक्षी, किम्पुरुष और महामानसिकी मूर्तियाँ हैं । गर्भगृह- गन्धवारणवस्तिमें इनके बारा स्थापित शान्तिनाथजीकी. के ऊपर एक अच्छी गुम्बज बनी हुई है। देवी शान्तला- मूर्तिके पाद-पीठ पर यो अंकित है- . .: के शीलसौन्दर्यादि गुणोंकी उल्लिखित लेखमें भूरि-भूरि "प्रभाचन्द्रमुनीन्द्रस्य पदपंवाक्ट्पदा । प्रशंसा की गई है। यह दान-चिन्तामणि, सकलकला- सान्तमा शान्तिनेन्द्रप्रतिविम्बमकारवत् ।
- उत्तौ बगुवं व्यस्तरखता सहिम युगे ०. ०११ (३२) -- कायि योनितम्बमल घसेतिमात्रामम् ।
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वर्ष २, किरण १०
महारानी शान्तला
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दोषानेव गुशी-बोषि सुभगे सौभाग्यभाग्यं तव भवणवेल्गोलके शिलालेख न०५६ (१४३) में इनकी व्यक्तं शान्तखदेवि! बमवनौ शक्नोतिकोवा कवि बड़ी प्रशंसा की गई। महारानी शान्तलाके मामा रावते राज-सिंहीव पावें विधमहीभृतः। एवं उनके पुत्र बलदेव भी पके जैनधर्मावलम्बी थे। विस्माता शाम्तखाल्यासा बिनागारमकारपत् ॥" बलदेवने मोरिंगेरेमें जब समाधिमरण किया था तो उनकी
महारानीका जीवन जैन-धर्ममय रहा, इसमें कुछ माता और भगिनीने उनके स्मारक रूपमें एक पत्याला भी सन्देह नहीं । एक ज़माना ऐसा था कि बड़े-बड़े राजे- (वाचनालय ) स्थापित किया और सिंगिमय्यके समामहागजे एवं रानी महारानी सभी जैनधर्म के पृष्ठ-पोषक थे। धिमरण पर उनकी भार्या और भावजने शिलालेख श्रवणबेलगोलके लेख नं० ५३ (१४३ ) से प्रमाणित लिखवाया । लिखनेका मवलम यह है कि इन शान्तलाहोता है कि शान्तलाका स्वर्गवास 'शिवगंग' में हुभा देवीके नहर (मातरह) बाले जैनधर्मके एकान्तभक्त थे। था । शिवगंग बेंगलूरसे लगभग ३० मील दूरी पर शान्तलादेवीने हासनसे पूर्व ७ मील दूरी पर अब.. शवोंका एक प्रसिद्ध तीर्थस्थान है।
स्थित वर्तमान 'ग्राम'नामक गाँवो यताकर शान्तिनामअब एक शंका उठ सकती है कि जिनभक्ता शा- उसका नाम रखा था। मालूम होता है कि इन्हें अपने न्तला अपने परमपुनीत श्रवणबेल्गोलको बोड़कर शरीर- नामपर बड़ा प्रेम था । यही कारण है कि इस गाँवका त्यागके लिये शैवोंके इस तीर्थस्थानमें कैसे पहुँच गई? ही नाम नहीं, अपने द्वारा अवशोल्मोलमें निर्मापित बहुत कुछ संभव है कि वह अस्वस्थ रही हो, जलवायु- उक्त विशाल एवं सुन्दर मन्दिरमें भी स्वनामानुकूल परिवर्तन के लिये वहाँ गई हो और वहीं दुर्भाग्यवश शान्तिनाथ भगवान् की प्रतिमा विराजमान की थी। उनका शरीर-पात होगया हो । क्योंकि यह स्थान समुद्र- ग्राममें अाज जो एक विशाल तथा मनोश शिषमन्दिर पृथ्से ४५६६ फीट उन्नत एक श्रारोग्य-प्रद पहाड़ी जगह मौजूद है संभव है कि वह पहले जिन मन्दिर रहा हो। है। अन्यथा, शान्तला भी अपनी श्रद्धय माताकी तरह सुनने में आता है कि पूर्व में यहाँ र जैनियोंकी पर्याप्त पवित्र तीर्थस्थान श्रवणवेल्गोलमें ही जाकर समाधि- संख्या थी। पर १९२० में जब मैं यहाँपर गया था तब मरण-पूर्वक अपना देह त्याग करतीं । शान्तलाके पिता सिर्फ एक ही जैनीका घर था । वह भी अब है कि नहीं मारसिंगय्य शैव थे । अतः संभव है कि उन्होंने शिवगं- पता नहीं है। गको ही शान्तलाके स्वास्थ्य सुधारका स्थान चुन लिया महारानी शान्तलाके श्रद्धयगुरु श्री प्रभाचन्द्र सिहो । जो कुछ हो, पिता शैव होने पर भी पूज्य माता दान्तदेव एवं प्रगुरु श्री मेधणन्द्र विद्यदेव उम समयके माचिकच्चे कहर जैनी थी । बल्कि गुणवती पुत्री सुविख्यात प्राचार्योमम थे। इनका उल्लेख दक्षिणके स्वर्गवाससे उनके दिल पर गहरी चोट पहुँची, जिससे वे कई शिलालेखम पाया जाता है। यही महारानी शाआमरण मुक्त नहोसकी। इन्होंने अन्तसमयमें श्रवण- न्तलादेवीका मंक्षिप्त परिचय है। इन पर काफी प्रकाश बेल्गोलमें जाकर एकमासके अनशनव्रतके पक्षात् श्री. डालने की मदिच्छा होते हुए भी मामग्रीके प्रभावसे प्रभाचन्द्र, बद्धमान एवं रविचन्द्र इन प्रसिद्ध प्राचार्यो- इस समय इस निरूपाय संवरण करना पड़ा। की देख-रेखमें सन्यास-विषिसे देहत्याग किया था ।
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वीर-शासनका महत्व
[ले०-कुमारी विद्यादेवी जैन 'प्रभाकर' ऑनर्स]
वीर प्रभुका शासन विशाल है। माधुनिक समयमें तोड़कर एक संसारी भारमा शुद्ध परम निरंजन, प्रवि
- इसकी मावश्यकता अधिकाधिक प्रतीत माशी,प्रजर,अमर, निकल सिद्ध परमात्मा बन जाता होती जारही है। पान संसारमें प्रशान्तिका साम्राज्य है। सिद्धालयमें परमात्मा परमात्मामें कोई भेद नहीं चहुँोर चारहा है । एक व्यक्ति दूसरे व्यक्तिको हरूप है। इस अपेक्षासे वीरका जैनधर्म ही प्राणी प्राणीमें करना चाहता है । एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्रको नष्ट भ्रष्ट कर भेदभाव मिटानेवाला और सची समानता स्थापित अपने दासत्व में रखना चाहता है। यह सब स्वार्थान्धता करने वाला है। भाज संसार शाँति, स्वतन्त्रता तथा विषय-जम्पटता तथा कषाय-प्रबनताका ही फल है। समानताके लिये तड़प रहा है । इन तीनोंकी प्राप्तिके वीरशासन विषय-कवायकी बम्पटताको दुख:का कारण लिये जैनधर्मका मरिसावाद कर्मवाद, और साम्यवाद बताता है, अहिंसामय जीवनको सुखी बनाता है। एक प्रमोष उपाय है । वीरशासनका अनेकान्तवाद वीर भगवानका उपदेश है—प्राणी मात्रके प्राणोंको एवं स्याद्वाद जन-समुदायके पारस्परिक कलह और ईर्षाअपने जैसा जानो, स्वयं भानन्दमय जीवन बिताओ, को मिटाकर सबको एकताके सूत्रमें बाँधनेवाला है। दूसरोंको आनन्दपूर्वक रहने दो, पापोंसे भयभीत रहो, वीर-शासनके इन मौलिक सिद्धान्तोंका प्रचार व्यसनोंका परित्याग करो, विवेकसे काम तो और करनेके लिए योग्य व्यक्तियों तथा उचित साधनोंकी अपनी आत्माके स्वरूप को जानों, समको, श्रद्धाम मावश्यकता है। वीर भगवानके अनुयायियोंका कर्तव्य करो तथा उसके निज स्वभावमें रमण करो । वीर- है कि बीर-संदेशको प्राणी मात्रतक पहुँचाएँ और प्रत्येक शासन सरल है, चाहे बूढ़ा पालो चाहे जवाम, बी प्राणीको उसके अनुसार नैमधर्म पालनेका अवसर देखें। धारण करो चाहे पुरुष धनाज्य और रंग ऊँच तथा जिनधर्म संसारके दुखसे प्राणियोंको निकालकर उत्तम नीच सब ही अपने अपने पद और पोग्यताके अनुसार श्रेष्ठ सुखमें धरनेवाला है। यह धर्म मामाकी निजी वीरशासनके अनुयायी होकर अपने मात्माका कल्याण विभूति है-इस पर किसी खास समाज या जाति कर सकते हैं। वीर-शासम स्वतन्त्रताका पाठ पढ़ाने विशेषका मौस्सी हक नहीं है। मम सहित संशी पशुवालो है । वीरशासनका सेवक स्वयं पूज्य तथा सेन्य पक्षी, मनुष्य, देव नारकी भादि सभी जीव इसको बन जाता है।
प्रहबरके अपना कल्याणकर सकते हैं। परमपूज्य निश्चयनयसे प्रत्येक मारमा परमात्मस्वरूप है। श्रीमद् देवाधिदेव भगवान् महावीर अपने एक पूर्व भवमें अनादिकालसे खगेकर्म बन्धनोंको निज पुरुषार्थ द्वारा स्वयं सिंह थे, सद्गुके उपदेशका निमित्त मिलने पर
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वर्ष २, किरण १०]
वीर-शासनका महत्व
सिंहकी पर्याय उन्होंने मतोंको पाला और उसके धर्मका उत्कृष्ट रूपसे पालन कर सकता है- इतनी
आत्मशुद्धता प्राप्त कर सकता है कि अन्तमें अन्तर बाह्य समस्त परिग्रहका त्याग कर केवल ज्ञानको प्राप्त कर लेवे।
फलस्वरूप स्वर्गमें जाकर देव हुए।
यमपाल चांडालने मात्र एक देश अहिंसांवत पालन करनेसे देवों द्वारा आदर-सत्कार पाया ।
नीच बीच मनुष्यके उत्थान में सहायक होना ही areeroeा महत्व है। यह पतितोद्धारक है, जगत् हितकारी है और साक्षात् कल्याणरूप है । इस ही कारण यह धर्म समस्त प्राथियोंके लिये हिनरूप होनेसे "सर्वेभ्यो हितः सार्व" इस सावें, विशेषणसे विशिष्ट 'सार्वधर्म' कहलाता है और इसीसे स्वामी समन्तभङ्गने इमे 'सर्वोदय तीर्थ' जिया है संसारी प्राणियोंको चाहिए कि वे वीरशासनकी छत्र-छायाके नीचे आएँ, ग्रहस्थधर्मका यथार्थ रीतिसे पालन करते हुए अपने जन्मको सफल करें और परंपरा स्वाधीन मुक्ति पदको
।
प्रान करें ।
मीर भगवानका उपासक एक सच्चा जैन गृहस्थ न्याय पूर्वक धनोपार्जन करता है, मृदुभाषी होता है, सम्पचादि से संपन्न होता है, धर्म-अर्थ-काम इन तीनों पुरुषार्थीका एक दूसरेका विरोध न करते हुए समीचीन रौतिसे साधन करता है, योग्य स्थानमें रहता है, समाधान होता है, योग्य आहार-विहार करता है। विद्वान् जितेन्द्रिय परोपकारी, दयावान तथा पाप भयभीत होता है और सत्संगति उसको प्रिय होती है। इस तरह एक सद्द्महस्य महस्थ में रहते हुए भी अपने
తగి
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इस प्रकार वीर भगवान्का जिनधर्म कठिन नहीं है। जो धर्मके मर्मज्ञ हैं वे धर्मका पालन करके अपना कल्याण करते ही हैं । धर्म-पालनमें खेद नहीं, श नहीं अपमान नहीं, भय नहीं, विचार नहीं, काह नहीं और शोक नहीं दीरका धर्म समस्त विसंवादों तथा ।
झगड़ोंसे रहित है । वस्तुतः इसके पालन करनेमें कोई परिश्रम नहीं है। यह धर्म अत्यन्त सुगम है, समस्त शेख रहित स्वाधीन चात्माका ही तो सत्यपरिमन है। इसका फल समस्त संसार परिभ्रमणसे छूटकर अनंत दर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्त सुख और और अनन्त वीर्य मय सिद्ध अवस्था अर्थात् परमात्मपदकी प्राप्ति है और परमात्मपकी प्राप्ति ही आमो अनिकी चरम सीमा है ।
1
* इन लेखकी लेखिका बा० उसमेन मी जैन एम० एएलएल० बी० रोहनककी सुपुत्री है और एक अच्छी होनहार लेखिका जान पड़ती है। आपका यह लेख वीरमेवामन्दिरमै वीरशामन जयन्ती उत्सव पर पढ़ा गया है।
-सम्पादक
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ফ্লাক্সান্ধিজ্বিলহ্মীল্ডিীরাঙ্ক্ষীৱী
प्राधारभूमि
[do-५० परमानंदजी जैन शाखी ] पताम्बर जैनसमाजके प्रन्थकारोंमें आचार्य तक मुझे मालूम है जैन समाजमें न्यायशास्त्रको
देवसूरि अपने समयके अच्छे विद्वान् गद्य सूत्रोंमें गॅथने वाला यह पहला ही प्रन्थ है । माने जाते हैं। धर्म,न्याय और साहित्यादि-विषयों- आकारमें छोटा होते हुए भी यह गंभीर सूत्रकृति में आपकी अच्छी गति थी। वादकलामें भी आप आपकी विशाल प्रतिभा और विद्वत्ताकी परिनिपुण थे, इसी कारण आपको वादिदेवसूरिके चायक है। प्राचार्य प्रभाचन्द्रने इस पर 'प्रमेयकनामसे पुकारा जाता है। आपका अस्तित्व समय मलमार्तण्ड' नामकी एक विशाल टीका लिखी है विक्रमकी १२ वीं शताब्दीका उत्तरार्ध सुनिश्चित है। जो बहुत ही गंभीर रहस्यको लिये हुए है और __ वादिदेवसूरिकी इस समय दो रचनाएँ उनकी सर्वतोमुखी प्रतिभाका द्योतन करती है।। उपलब्ध हैं-एक प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार इस परीक्षामुख' के साथ जब प्रमाणनयतऔर दूसरी स्याद्वादरत्नाकर । 'स्याद्वादरत्नाकर' वालोकालंकार'का मिलान किया गया तो मालम प्रथम ग्रंथकी ही टीका है। ये दोनों ग्रंथ मुद्रित हुआ कि यह ग्रन्थ उक्त परीक्षामुख' को सामने हो चुके हैं। इनमेंसे प्रथम ग्रंथ प्रमाणनयतत्त्वा- रखकर ही लिखा गया है और इसमें उसका बहुत लोकालंकारकी मुख्य आधारभूमिका-विचार ही कुछ अनुसरण किया गया है। सूत्रोंके कुछ शब्दोंमेरे इस लेखका विषय है। जिस समय मैंने इस को ज्योंका त्यों उठाकर रक्खा गया है, कुछको आगेग्रंथको देखा तो मुझे प्राचार्य माणिक्यनन्दीके पीछे किया गया है, कुछके पर्याय शब्दोंको अपना'परीक्षामुख' ग्रंथका स्मरण हो पाया। कर भिन्नताका प्रदर्शन किया गया है और कुछ
आचार्य माणिक्यनन्दी दिगम्बर जैनसमाज- शब्दोंके स्पष्टार्थ अथवा भावार्थको सूत्रमें स्थान में एक सम्माननीय विद्वान होगये हैं । आपका दिया गया है । साथ ही, कहीं कहीं पर कुछ विशेसमय विक्रमकी प्रायः आठवीं शताब्दि है । षता भी की गई है। दोनों ग्रंथों में सबसे बड़े भेदकी आपने अकलंक आदि प्राचार्योंके ग्रन्थोंका दोहन बात यह है कि प्राचार्य माणिक्यनन्दीने अपने करके जो नवनीतामृत निकाला है वही आपके सूत्र ग्रंथको केवल न्यायाशास्त्रकी दृष्टिसे ही संकपरीक्षामुख ग्रन्थमें भरा हुआ है। 'प्रमेयरत्नमाला' लित किया है और इसलिये उसमें आगमिक टीकाके कर्ता आचार्य अनन्तवीर्यने ठीक ही कहा है परम्परासे सम्बन्ध रखनेवाले अवग्रह, ईहा, कि-'आपने अकलंकदेवके वचन-समुद्रका मंथन अवाय, और धारणा तथा नयादिके स्वरूपका करके यह न्यायविद्याऽमन निकाला है । जहाँ समावेश नहीं किया है। प्रत्यत इसके, वादिदेवसूरि
अकलंकवचोम्बोधेरुदभ्रे येन धीमता। ने अपने प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकारमें न्यायधि न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनंदिने । और आगमिक परम्परासे सम्बन्ध रखनेवाले
-प्रमेयरत्नमालायां, अनन्तवीर्यः। प्रायः सभी विषयोंका संग्रह किया है। इसमें ८
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वर्ष २, किरण १०]
प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकारकी प्राधारभूमि
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परिच्छेद या अधिकार दिये हैं जबकि परीक्षामुख' लोकालंकारमें कहीं भी उपलब्ध नहीं होती। में छह ही अध्याय हैं । उनमें से दो अधिकारोंका इसमें अधिकांश सूत्रोंको व्यर्थही अथवा भनाषनामकरण तो वही है जो 'परीक्षामुख, के शुरूके श्यकरूपसे लम्बा किया गया है और सूत्रोंके दो अध्यायोंका है । तीसरे अधिकारमें परोक्ष- लाघव पर यथेष्ट दृष्टि नहीं रक्खी गई है । फिर प्रमाणके स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान भी न्यायशास्त्रके जिज्ञासुभोंके लिये यह पन्ध कुछ इन चार भेदोंका ही वर्णन किया है । चौथे कम उपयोगी नहींहै। विषयाधिस्य मादिके कारण अधिकारमें परोक्षप्रमाणके पांचवें भेद यह अपनी कुछ अलग विशेषता भी रखता है । 'भागम' के स्वरूपका वर्णन दिया है। जब कि अब में परीक्षामुख और प्रमाणनयतत्वा'परीक्षामुख' में परोक्षाप्रमाणके उक्त पांचों भेदों- लोकालंकारके कुछ थोड़ेसे ऐसे सूत्रोंका दिग्दर्शन का तीसरे अध्यायमें ही वर्णन किया है । पांचवें करा देना भी उचित समझता हूँ जिनसे पाठकों अधिकारका नामकरण और विषय वही है जो पर तुलना-विषयक उक्त कथन और भी स्पष्ट हो परीक्षामुखके चतुर्थ अध्यायका है। छठे अधिकार- जाय और उन्हें इस बातका भी पता चल जाय में परीक्षामुखके ५ वें और छठे अभ्यायके विषयको किवादिदेवसूरिकी प्रस्तुत रचना प्रायः परीक्षामिलाकर रक्खा गया है। शेष दो अधिकार और मुखके आधार पर उसीसे प्रेरणा पाकर खड़ी दिये हैं जिनमें क्रमसे नय, नयाभास और वादका की गई है। इससे परीक्षामुखके सूत्रों में किये गये वर्णन किया है। इनका विषय परीक्षामुखमें नहीं परिवर्तनोंका भी कुछ मामास मिल सकेगा और है; परन्तु वह अकलंकादिके प्रन्थोंसे लिया गया पाठक यह भी जान सकेंगे कि एक प्राचार्यकी जान पड़ता है, जिसका एक उदाहरण इस प्रकार कृतिको दूसरे प्राचार्य किस तरह अपनाकर
सफलता प्राप्त कर सकते थे । वह दिग्दर्शन इस गुणप्रधानमावेन धर्मचोरेकर्मिति।
प्रकार है:विवश नैगमो..................... ॥६ ॥ "स्वापूर्वार्थव्यवसापात्मकं ज्ञानं प्रमा।" - -सधीपस्त्रये, प्रकलंक:
-परीक्षामुख, १,१ धर्मयोधर्मियोधर्म-धार्मिजोरच प्रधानोपसर्जनभावेन "सापरण्यवसायि ज्ञान प्रमाणं।" यद्विवपणं सलामो नैगमः।
-प्रमाणनयतत्वा०, १,२ -प्रमाणनवतत्वा०,७-० __ "हिताहितप्रातिपरिहारसमर्थ हि प्रमाणं ततो उक्त दोनों ग्रन्थोंको तुलनात्मक अध्ययन करने
ज्ञानमेव तत्" और निष्पक्ष दृष्टि से विचार करनेपर यह बात
-परीक्षामुख, १,२ स्पष्ट समझमें भाजाती है कि जो सरसता, "अभिमतानमिमतवस्तुत्वीकारतिरस्कारचमं हि गम्भीरता और न्यायसूत्रोंकी संक्षिप्त कथन-शैली प्रमागमतोशानमेवेदम् ।" परीक्षामुखमें पाई जाती है वह न प्रमाणयतत्त्वा
-प्रमाणनयतस्वा०, १,३
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२८६ .
अनेकान्त
[प्रथम श्रावण, वीर-निर्वाण सं० २४६५
: "तविश्वयात्मकं समारोपविरुद्धत्वादनुमानवत् ।" "साध्य व्यासं साधनं यत्र प्रदर्श्यते सोऽन्वयष्टान्तः।" -परीज्ञामुख, १,३
-परीक्षामुख, ३,४३ "तव्यवसायस्वभावं समारोपपरिपन्थित्वात् "यत्र साधनधर्मसत्तायांमवश्यं साध्यधर्मसत्ता प्रमाणत्वादा।"
प्रकाश्यते स साधर्म्यष्टान्तः।" -प्रमाणनयतत्त्वा०, १,६
-प्रमाणनय०, ३, ४२ "स्वोन्मुखतया प्रतिभासनं स्वस्य व्यवसायः । अर्थ
"साध्याभावे साधनाभावो यन्त्रकथ्यते स व्यतिरेकस्येव सम्मुखवचा । घटमहमारममा वेधि।"
दृष्टान्तः ।" . -परीक्षामुख, १,६-७-८
-परीक्षामुख,३,४४ "स्वस्य व्यवसायः स्वाभिमुल्येन प्रकाशनं बायस्येव
यत्र तु सान्याभावे साधनस्यावश्यमभावः प्रदतदभिमुख्येन करिकलभकमहमारमना जानामीति ।" यते स वैधर्म्यष्टान्तः ।" -प्रमाणनयतत्त्वा०.१,१६
-प्रमाणनयतत्त्वा०, ३, ४४ "तद्वेधा । प्रत्यक्षेतरभेदात् ।"
- "अविरूद्धोपलब्धिविधौ षोडा ब्याप्यकार्यकारण - -परीक्षामुख, २,१२ पूर्वोत्तरसहचरभेदात् ।" "तद्धिभेदं प्रत्यक्षं च परो च।"
-परीक्षामुख, ३, ५४ -प्रमाणनयतत्वा०,२,
तबाऽविरूदोपलब्धिर्विधिसिद्धी षोढा । साध्येना"विशदं प्रत्यक्षम् । प्रतीत्यन्तराम्यवधानेन विशेष
विल्वानां व्याप्यकार्यकारणपर्वचरोसरचरसहचराणामुपबत्तपा वा प्रतिभासनं वैशयम्।"
लब्धिरिति।". -परीक्षामुख,२,३-४
-प्रमाणनयतत्त्वा०, ३, ६४-६५, , "स्पट प्रत्यक्षं । अनुमानाचाधिक्येन विशेषप्रका
"प्राप्तवचनादिनिवन्धनमर्थज्ञानमागमः।" शनं स्पष्टत्वम् ।" -प्रमाणनयतत्त्वा०, २, २-३
-परीक्षामुख, ४, १ "सामग्रीविशेषविरजेषिताखिलावरणमतीन्द्रिय
___माप्तवचनादाविर्भूतमर्यसंवेदनमागमः।" मशंपतो मुल्यं ।"..
-प्रमाणनयतत्त्वा०,४,१ -परीक्षामुख, २, ११ “शंकिनवृतिस्तु नास्ति सर्वशो वक्तस्वात् ।" । "सकलं तु सामग्रीविशेषतः समुद्भूतसमस्तावरण
.. -परीक्षामुख,६, ३३ भवापे निखिलद्रव्यपर्यावसाचात्कारिस्वरूपं केवलज्ञानम्', "संदिग्धविपक्षवृत्तिको यथा विवादापनः पुरुषः
-प्रमाणनयतत्त्वा०, २,२४ सर्वज्ञो न भवति ।" "परोपमितरत् । प्रत्पलादिनिमित्तं स्मृतिप्रत्यभि
-प्रमाणनयतत्वा०, ६, ५७ शामतर्वानुमानागमभेदं । संस्कारोदबोधनिबन्धना ये कुछ थोड़ेसे नमूने हैं । लेखवृद्धिके भयसे तदित्याकारा स्मतिः।"
अधिक सूत्रोंको नहीं दिया जा रहा है। अधिक
जाननेके लिये पाठकोंको दोनों पंथोंको सामने "अस्पडं परो स्मरणप्रत्पमिज्ञानतकांनुमानागम- रखकर पढ़ना होगा। भेदतस्तत्पन्कार तत्र संस्कारप्रबोधसंभूतमनुभूतार्थवि तक्लिाकार संवेदनं स्मरणम् ।"
बीरसेवामंदिर, सरसावा, -प्रमाणनयतत्वा०,३,१
ता०१५-६-१९३९
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वीरसेवामन्दिर, उसका काम और भविष्य
[ले-बा० माईदयाल जैन बी० ए० (ऑनर्स) बी०टी०]
अण्डारकर इन्स्टीट्यूट ( !Bhandurkar Ins. भव न करे तो माश्चर्यकी कोई बात नहीं है । इस
titute) पूनाका नाम शास्त्रसंग्रह, साहित्यिक- लापर्वाही और उपेक्षाभावके कारण जैन समाजने खोज, पुरात्व-सम्बन्धी अनुमंधानके लिए आज अपनी जो हानि की है उसकी क्षतिपूर्ति होना तो भारतवर्ष में ही नहीं, किन्तु सारे संसारमें विख्यात कठिन है ही, पर साथ ही उसने अपने लिए ज्ञानहै। यह संस्था संस्कृत साहित्य तथा भारतीय इति- के स्रोतोंको जो बन्द करलिया और अपनी महाहासके लिए कितना काम कर रही है, इसका अन्दा- शास्त्र-सम्पत्तिको अपनी गलतीसे नष्ट होने दिया ज़ा इस बातसे लगाया जासकता है कि आज वहाँ वह बड़ी ही चिन्ताका विषय है। देवगुरु-शास्त्रकी पचामों उच्चकोटिके विद्वान अनुसंधान-कार्यमें पूजाके संस्कृत-हिन्दी पाठ प्रतिदिन करना एक बात लगे हुए हैं, वहाँस निकलनेवाली ग्रन्थ-मालाएँ है, और उनका समा सम्मान करना उनके सिद्धा. प्रमाण मानी जाती हैं, और किसी भी विद्वानको न्तोंका प्रचार करना और उनपर चलना दुसरी जब भारतीय विद्याओंके बारेमें कुछ गहरी खोज बात है। करनकी आवश्यकता पड़ती है, तब उसे भण्डारकर इतनी उपेक्षाके होते हुए भी कुछ सजनोंके प्रइन्स्टीट्यूट पनाकी शरण लेनी पड़ती है। जैन- यत्नसे आराका जैनसिद्धान्त-भवन, बम्बईका श्रीसमाजके विद्वानोंको भी प्राचीन जैन ग्रन्थोंके वास्ते ऐलक पन्नालाल सरस्वती-भवन, सरसावेका वीरयदि वहाँ जाना आना पड़े तो इसमें कोई आश्चर्य सेवामन्दिर और पाटनका नवोदघाटित ज्ञानमन्दिर की बात नहीं है।
जैनसमाजमें कायम हो सके हैं। इनकी तुलना यह संस्था १७ जलाई सन १९१७ ईस्वीको भण्डारकर इन्स्टीट्यटसे करना तो दीपकका सर रामकृष्ण भण्डारकरकी ८० वीं वर्षगांठके सूर्यसे मुकाबला करना है; परन्तु ये संस्थाएँ ऐसी अवमर पर भण्डारकर महोदय के उच्च काय और जरूर है, जिनका समुचित संचालन मंरक्षण संव. ध्ययको जारी रखने के लिए बम्बई तथा दक्षिणकं र्द्धन, और यथेष्ट आर्थिक महयोगसे बड़ा रूप बन विद्वानों और दातारोंने स्थापित की थी और मकना है। इमका उद्घाटन बम्बई-गवर्नर लार्ड वेलिंगटनने भण्डारकर इन्स्टीट्यटका नाम तथा उल्लेख किया था। यह संस्था अपने महान आदशोंके जैन-ममाजकं मामने एक आदर्श रखने के उद्देश्यसे अनुसार अबतक बराबर काम कर रही है। किया गया है।
* जैन-समाजमें अनुसंधानादि विषयक ऐसे वीरमवामन्दिर', सरमावा, अपने ढंगकी उपयोगी कामोंकी तरफ़ कुछ भी रुचि नहीं है। निराली संस्था है। इसकी स्थापना जैन-समाजके लक्ष्मी और सरस्वतीका विख्यात वैर जैन-समाजमें सुप्रसिद्ध विद्वान पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारने मोटे रूपसे हर स्थान पर दिखाई देता है । फिर अभी चार पाँच वर्ष हुए की है । यह संस्था उनके धन-प्रेमी अशिक्षित जैन-समाज विद्या तथा अन- महान त्याग, मितव्ययतापर्ण गाढी कमाडे, माहित्य‘धानके केन्द्रोंकी आवश्यकता या महत्वको अन- प्रेम और आदर्श-प्रभावना-भावका फल है, और
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अनेकान्त
[प्रथम श्रावण, वीरनिर्वाण सं० २४६५
इस संस्थाकी चप्पा-चप्पा जमीन और एक एक सुदृढ है । इसलिए यह आवश्यक है कि वीरसेवाईट इन महान आदर्शोंकी विद्युतधाराएँ प्रवाहित मन्दिर सरसावेका काम सुचारू रूपसे भविष्यमें करती हैं । अपने तन-मन-धन तथा सर्वस्वको मु- चलता रहे तथा उसके संस्थापकका उद्देश्य पूरा ख्तारजीने इस मंस्थाकी स्थापना तथा संचालनमें होकर जैनसमाजकी सेवा होती रहे । मुख्तार लगा दिया है। जैन समाज पर उनका यह कितना साहबके मित्रों तथा वीरसेवामन्दिरके हितचिंतक बड़ा ऋण तथा उपकार है इमको आज भले ही का कुछ लक्ष्य इधर है, यही संतोषकी बात है । कोई न समझ सके, पर भविष्यके इतिहासकार एक समाजके विद्वानोंका कर्तव्य है कि वे इस संस्थामें म्वरस इसकी प्रशंसा किये बिना न रहेंगे। इससे स्वयं दिलचस्पी ले, समाजको इसका महत्व तथा अधिक यहाँ और कुछ लिखना अनुचित समझा उपयोग समझावें और इसकी हर प्रकारसे सहायता जामकता है।
कराएँ। वीरसेवामन्दिर सरमावामें इस समय ग्रन्थ- सहायताके रूप निम्न लिखित हो सकते हैं:मंग्रह, ग्रंथ-सम्पादन, अनेकान्त (पत्र) सम्पादन, (१) प्राचीन तथा नवीन ग्रन्थ भेंट करना। ग्रन्थ-प्रकाशन, कन्या-विद्यालय-संचालन और (२) ऐतिहासिक तथा साहित्यिक पत्र भेंट अनुसंधान तथा ग्रन्थनिर्माणादिका काम हो रहा करना। है । दो-चार विद्वान जो वहाँ काम कर रहे हैं, (३) पुगतत्व सम्बन्धी सरकारी रिपोर्ट दान परोक्ष रूपमे उनकी इन कामों में ट्रेनिंग भी होरही करना । है । कन्या पाठशाला तथा औषधालयके काम स्था- (४) ग्रंथोंको रखने के लिए अल्मारियां और नीय उपयोगके हैं। परन्तु बाकी के मब काम समत यदि होसके तो महत्वपूर्ण प्राचीन ग्रन्थोंके लिए जैन-समाजके उपयोग के लिए है, और इसप्रकार वाटरप्रफ तथा फायरप्रफ अल्मारियाँ देना। वीरसेवामन्दिर तमाम जैनसमाजकी सेवा कर रहा (५) अनेकान्तके ग्राहक बनाना तथा उसमें है। यदि यह कहा जाय कि रूपान्तरसे वीरसेवामन्दिर भारतवर्षकी सेवा कर रहा है तो कोई (६) सेवामन्दिरमें दस-बीस विद्वानोंके रहनेअतिशयोक्ति न होगी।
की व्यवस्था करना। ऊपर लिखे सब काम ठोस हैं। उनसे जैन (७) विद्वानों के रहने आदिके लिये कुछ कार्टर्स साहित्यकी रक्षा होगी, जैनसिद्धान्तोंका प्रकाशन ( मकान ) बनवा देना। होगा और जैनइतिहासके निर्माणमें सहायता (८) अपनी सेवाएँ तथा समय देना। मिलेगी, साथ ही जैनधर्म, जैनसाहित्य तथा जैन (९) खर्चके लिए अच्छी आर्थिक सहायता इतिहासके विपयमें जो भ्रम फैले हुए हैं वे दूर प्रदान करना और कराना। होंगे और इनका सञ्चा स्वरूप जनता तथा विद्वानों- (१०) कन्या विद्यालयके लिये सुयोग्य अध्या. के सामने आएगा । यह काम कुछ कम महत्वका पकाओं तथा संरक्षिकाओंका ऐसा सम नहीं है।
करना जिससे बाहरकी कन्याएँ भी भर्ती होकर ___ कामको देखते हुए संस्थाका भविष्य उज्ज्वल यथेष्ट विद्या लाभ कर सकें। होना ही चाहिए । परन्तु जैनसमाजमें प्रायः आशा है जैनसमाज इस ओर ध्यान देगा अच्छीसे अच्छी संस्थाके बारेमें भी यह नहीं कहा और इस प्रकारकी संस्थाओंकी आवश्यकता तथा जासकता कि वह सुरक्षित है और उसकी नींव उपयोगिताको समझकर उनको जरूर अपनाएगा।
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म ARE
M074
HETAU
AN
वीरशासन-जयन्ती और उसके उत्मव स्वरूप कई महत्व के लेख प्राप्त हुए हैं । प्राप्त लेग्यों में से
कुछ नो वीर शायना के लिये रिजर्व रकावे गये है रशासन जयन्तीका आन्दोलन इस वर्ष पिछले और कल हम अङ्क में प्रकाशित होरहे हैं । जिन विद्वानों
वर्ष भी अधिक रहा। कितने ही पत्र सम्पा- ने अभी तक भी अपने लेख परेकरके भेजनेकी कृपा नहीं नकांने उपमें अच्छा भाग लिया-उसकी विज्ञप्तिको को, उनसे निवेदन है कि वे शीघ्र ही पग करके भंजद अपने पत्रों में स्थान ही नहीं दिया बल्कि अपने अग्र जिपसे वीरशासनाब में उन्हें योग्य स्थान दिया जासके। लेग्वादिकों द्वारा वीरशासन दिवसकी महत्ता और उसको उत्पादि-सहिन मनाने की अावश्यकता पर
२ अनेकान्तका विशेपाङ्क जोर दिया तथा अपने अपने पाठकोंको यह प्रेरणा की वीरशासना' के माममं अनेकान्तका विशेषा कि वे श्रावण कृष्ण प्रतिपदाकी उस पुण्य तिथिके निकालनेका जो विचार चल रहा था वह द हो गया दिन वीरशासन के महत्व और उसके उपकारका विचार है। यह मचित्र अंक अच्छा दलदार होगा और पिछले कर उसके प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करें, उसे अपने विशेष. से भी बड़ा होगा। इसमें अच्छे अच्छे विद्वानों. जीवन में उतारे और भाषणों तथा तद्धिपयक साहित्य के महत्वपूर्ण लेख हेंगे और उनके द्वारा कितनी ही के प्रचार-द्वारा उसका संदेश सर्व साधारण जनता तक महत्वकी ऐसी बातें पाठकोंके सामने पाएंगी, जिनका पहँ वाकर उसे उसके हितमें सावधान करें। फलतः उन्हें अभी तक प्रायः कोई पता नहीं था। सबसे बड़ी बहतसे स्थानों पर जम्पे किए गये, प्रभात फरियां की विशेषता यह होगी कि इस अंकये धवलादि श्रनार गई, जलूस निकाले गये, झंडे फहराये गये सभा की चय' को मूल सूत्रादि महिन निकालना प्रारम्भ किया गई और वीरशासनपर अच्छे अच्छे भापण कराये गये, जायगा और इस अंकमें उसके कमसे कम आठ पंज जिनकी रिपोर्ट भारही है और पत्रों में भी प्रकाशित जरूर रहेंगे । साथ ही, मामयीके मंकलनरूप पतिहोरही हैं। उन सबको यहाँ नोट करना अशक्य है। हामिक जैनकोश का भी निकालना प्रारम्भ किया वीरसेवामंदिरमें भी दो दिन स्वब प्रानन्द रहा- जायगा और उसका भी स्पंज कामें प्रायः एक फार्म जिसकी रिपोर्ट दूसरे पत्रों में निकल चुकी है। जिन जुदा रहेगा। इस कोश में महावार भगवान के समयमै सज्जनोंने किसी भी तरह इस शुभ कार्य में भाग नथा लेकर प्रायः अब तकके उन सभी दि. जैन मुनियों वीरसेवामंदिरमें आने आदिका कष्ट उठाया है, उन प्राचार्यों, भट्टारकों, संघों, गणों, विद्वानों, ग्रन्थकारों, सबका मैं हृदयसे आभारी हूँ।
राजामों, मंत्रियों और दूसरे खास खाय जिनशासनइस वर्ष वीरसेवामंदिर में वीरशासन पर विद्वानोंके सेवियोंका उनकी कृतियों सहित संक्षेपमें वह परिचय सेख मॅगानेका खास प्रयत्न किया गया है जिसके फल- रहेगा जो अनेक ग्रंथों, ग्रंथ प्रशस्नियों, शिलालेखों
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अनेकान्त
[प्रथम श्रावण,वीर-निर्वाण सं०२४६५
और ताम्रपत्रादिकमें बिखरा हुमा पड़ा है। इससे जल्दी ही प्रारंभ होनेवाला है; क्योंकि छपने में भी काफी भारतीय ऐतिहासिक क्षेत्रमें कितना ही नया प्रकाश समय लगेगा? अतः जिन विद्वानोंने अभी तक भी पड़ेगा। और फिर एक व्यवस्थित जैन इतिहास सहज लेख न लिखे हों उनसे सानुरोध निवेदन है कि वे अब ही में तय्यार होसकेगा। इसके सिवाय, जो 'जैन- इस अंकके लिये अपने लेख शीघ्र ही लिखकर भेजनेलक्षणावली' वीरसेवामन्दिरमें दो ढाई वर्षसे तय्यार की कृपा करें, और इस तरह इस शासनसेवाके कार्यमें हो रही है उसका एक नमूना भी सर्वसाधारणके परिचय मेरा हाथ बटाकर मुझे अधिकाधिक सेवाके लिये प्रोत्सातथा विद्वानोंके परा पर्शके लिये साथमें देनेका विचार हित करें। लेख जहाँ तक भी हो सकें एक महीनेके है, जो प्रायः एक फार्मका होगा।
भीतर पाजाने चाहियें। जिससे उन्हें योग्य स्थान दिया इस तरह यह अंक बहुत ही उपयोगी तथा महत्व जासके । की सामग्रीसे सुसज्जित होगा। इस अंकका छपना
वीर-सेवा-मंदिरके प्रति मेरी श्रद्धाञ्जलि
इस महान् मंदिरके दर्शनोंकी मेरी अभिलाषा कई वर्षसे है । देखना है कि भाग्य और पुरुषार्थ दोनोंका जोर कब ठीक बैठता है और दर्शन, सेवाका सौभाग्य मुझे किस शुभ संवत्में प्राप्त होता है।
सेवामंदिर सेवकोंका तीर्थस्थान है, आश्रय है, उपाश्रय है, आश्रम है, उसका द्वार सच्चे सेवकोंके लिये रातदिन चौबीसों घण्टे खुला है; और वहाँ हज़ारों लाखों सेवकोंके लिये शान्तिस्थान, ण्यक्षेत्र धर्मक्षेत्र है। __ यह पवित्र स्थान उन वीर-सेवकों के लिये है जो वीर-भक्त और स्वयं वीर हों-रुढ़ि-भक्त उदरपोषक, धनसेवक-गृहपालकोंको वहाँ जाकर आराम न मिलेगा। शुरूमें यदि वहाँके वातावरणसे वे प्रभावित हो गए तो फिर निरन्तर ही खुख-शान्तिका दौर दौरा है ।
यह सेवकोंका मन्दिर है । सेवकोंको सेवकोंके दर्शन होते हैं । दर्शनके प्रतापसे अपनी सेवा करने वाला स्वार्थसेवी स्वयंसेवक उन्नतिपथपर आरूढ हो, परसेवक और जनसेवक बन जाता है..-आप तिरता है और औरोंको तारता है।
यहाँ बुड्ढे शिशु पंचाणुव्रतसाधनकी वर्णमाला, कषाय-शमनकी वाराखड़ी पढ़ते पढ़ते यथाख्यात चारित्रके पदकी प्राप्ति के उद्देश्यसे आते हैं। जिसको पाना हो, कमर कसके आवे; रास्ता हल्का करनेको गीत गाता चले--
"गुण-ग्रहणका भाव रहे नित, दृष्टिनदोषों पर जावे" अजिताश्रम, लखनऊ
अजितप्रसाद हाल भुवाली शैल, ता०२८-६-३६
(एडवोकेट)
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® विषय सूची 8
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१. ममन्तभद-शामन २. मुक्ति और उमका उपाय [ले. यावा भागीरथजी वर्णी ... ३. स्वामी पात्रमरी और विद्यानन्द [ मम्पादकीय ५. दिगम्बर-श्वेताम्बर-मान्यनाभंद [ले. श्री. अगरचन्द नाहटा ... ५. मिद्धप्रामृत [श्री पं० होरालालजी शास्त्री ६ महात्मागान्धीके २७ प्रश्नांका श्रीमद् गयचन्दजी द्वाग ममाधान ७. मुभाषिन [श्री तिरुवल्लवर ८. भाईका प्रेम (कहानी)-[श्री नरेन्द्रप्रमाद बी० ॥ ९. मुभाषिन [श्री. निम्बल्लवर १०. अन्तनि ( कविता )- श्री "भगवन" जैन ११. दिव्यावनि [श्री नानकचन्द एडवोकेट १२. मुभाषित | श्री. निमवल्लवर १३. जैनममाज किधरको[बा माईदयाल बी. एक ५५. नीनिवाद ( कविता )-[ श्री. "भगवत" जैन १५. मिद्धमन दिवाकर | पं० रत्नलाल मंघवी १६. कथा कहानी [अयोध्याप्रमाद गोयलीय १७. हरी माग-मन्जीका त्याग [बाल मृगजभानु वकील १८. महारानी शान्तला | पं० के भुजबली शास्त्री १६. वीरशामनका महत्व कुमारी विद्यादेवी २०. प्रमाणनयतत्वालंकार की आधार भूमि [ पं० परमानन्द शास्त्री २१. वीरमवा-मन्दिर,उमका काम और भविष्य [ बा- माइदयाल बी.ए. २२. वोर शामन-जयन्ती और उसके उत्सव, अनेकान्तका विशेषाङ्क[सम्पादकीय .... २३. वीरमेवामन्दिरकं प्रति मेरी श्रद्धांजलि [ बा. अजितप्रमाद एडवोकेट
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वीरसेवामन्दिर-परीक्षाफल
बीरमेवामन्दिरके न्याविधालयकी चार पात्राएं इस वर्ष अम्बाला सर्किलसे पंजाबकी 'हिन्दीरत्न' परीक्षामें बैठी थी । प्रसनताकी बात है कि चारों ही मच्छनम्बरोंमे पास हो गई हैं। इसी तरह परिषद्-परीक्षा बोर्डकी परीक्षामें बाकियों बैठी थी, सभी उत्तीर्ख हो गई हैं।
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क्या आपने सना ?
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बम्बई और इलाहाबाद
जैसी - सुन्दर, स्वच्छ, मनमोहक और शुद्ध हिन्दी-अंग्रेज़ीकी छपाईका
समुचित प्रबन्ध वीर प्रेस आफ इण्डिया,
न्यू देहलीमें
किया गया है। पाहकको रुचि और समयकी पाबन्दीका ख्याल रखना
.... हमारी विशेषता है ।। आप भारतके किसी भी कोने में बैठे हों, आपकी छपाईका कार्य आपके आदेश और रुचिके अनुसार होगा. Near आपको इस तरहकी सहूलियत होगी मानों आपका निजी प्रेस है।
+ परामर्ष कीजियेःHo बालकृष्णा एम. ए."
.: मैनेजिग डायरेक्टर - | জ্বী স্বীহ জন্ম, ক্ষুদ্ধ বিহা ভিৰ্ম্মিই ধু
- कनाट सर्कस, न्यू देहली।
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। नेमचन्द जैन श्रीडीटर के प्रबन्धसे 'वीर प्रेस चॉफ इण्डिया' कलाँद सर्कस म्यू वेहलीमें छपा
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५ वर्ष २, किरण ११
भाद्रपद वीर नि० सं० २४६५ - सितम्बर १९३९,
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JAMERAPARIWANATARPRADEEPTERE • सम्पादक
संचालक- जुगलकिशोर मुख्तार । तनसुखराय जैन अधिष्ठाता वीर-सेवामन्दिर सरसावा (सहारनपुर)। कनॉट सर्कस पो० ब० २०४८ न्य
मुद्रक और प्रकाशक-अयोध्याप्रसाद गोयलीय ।
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* विषय-सूची *
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१. समन्नभद्र-माहात्म्य २. जैन और बौद्धधर्म एक नहीं [ श्री जगदीशचन्द्र जैन एम. ए. ... .... ३. गनिहामिक अध्ययन [ बाब माईदयाल जैन बी. ए. बी. टी. ४. मनुष्यम, उनना नीचता क्यों [पं वंशीधरजी व्याकरणाचाय ... जगत्मन्दरी-प्रयोगमाला सम्पादकीय नोट महिन। पंदीपचन्द्र पांड्या जैन ६. स्त्री-शिक्षा पद्धनि [ श्री. भवानीदन शर्मा 'प्रशान्न' ७. श्री बी. एल. मग गडवोकेटकी श्रद्धाञ्जलि ८. वीर भगवानका वैज्ञानिक धर्म [ बाल मृरजभान वकील ५. मैं तो बिक चका ( कहानी )--- [ श्रीमती जयवन्तीदवी जैन १०. तृष्णाकी विचित्रता [ श्रीमद गजचन्द्र ११. युगान्तर हमाग लक्ष्य (कविना) [ 'श्री भगवन जैन
वीर-सेवा-मन्दिरको सहायता हालमें वीरसेवामन्दिर मग्मावाको निम्न मजनोंकी औरस -) की महायता प्राप्त हुई है, जिसके लिय दातार महाशय धन्यवाद के पात्र हैं:
४) श्रीमती जयवन्तीदेवी धर्मपत्नी ला• कैलाशचन्दजी जन गईम वड़िया जि. अम्बाला। ना-) ला० नानकचन्द त्रिलोकचन्दजी जैन मग्मावा (पुत्रीक विवाहको ग्यशीमें ) ४) पं० हीगलालजी जैन न्यायतीर्थ, अध्यापक हीगलाल जैन हाईस्कृल, पहाड़ी धीरज, दहली ।
(आपने १६ दिन नक वीरसवामन्दिर में ठहर कर लाभ लिया )
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१०/-)
( भादो माममें सव माजनांकी इम मंस्थाका ध्यान रखना चाहिये ।
___ अधिष्ठाता वीर-संवा-मन्दिर
__ मरमावा जि.) महारनपुर
प्रकाशकीय१ अगस्तम निरन्तर प्रवास में रहने के कारण ‘अनेकान्त' का वा किरणकी दंग्यमान नहीं रख सका है और १२वी किरणको भी देखभाल नहीं कर सकंगा । कृपाल पाटकोंक समक्ष इस लाचार्गके लिए क्षमा प्रार्थी हू।
विनीत-अ. प्र. गोयलीय
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HIYA
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नीति विरोध-ध्वंसी लोक-व्यवहार वत्तकः सम्यक् ।
परमागमस्य बीजं भुवनेकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥ सम्पादन-स्थान-वीर-सेवामन्दिर (ममन्तभद्राश्रम) सरसावा, जि०महारनपुर
प्रकाशन-स्थान-कनॉट मर्कम, पो० ब० नं० ४८, न्यू देहली भाद्रपद कृष्णा, वीरनिर्वाण सं० २४६५, विक्रम सं० १६६
वर्ष २
--किरण
-
वन्धो भस्मक-भस्मसात्कृतिपटुः पद्मावतीदेवतादत्तोदात्तपद स्वमंत्रवचन-व्याहूत-चन्द्रप्रभः । आचार्यस्स समन्तभद्रगणभृयेनेह काले कली जैनं वर्त्म समन्तभद्रमभवद्भद्रं समन्तान्मुहुः ॥
-प्रवणबेलगोल शिलेख १५ (६७) मुनिसंघके नायक वे प्राचार्य समन्तभद्रवन्दना किये जानेके योग्य हैं जो अपनी 'भम्मक' व्याधिको भस्मीभूत करने में बड़ी यक्तिके साथ निर्मूल करनेमें-प्रवीण हुए हैं, पनावनी नामकी दिव्यशक्तिके प्रभावसे जिन्हें उच्चपदकी प्राप्ति हुई थी. जिन्होंने अपने मंत्ररूप वचनबलस-योगमामध्यसे-बिम्बरूपमें चन्द्रप्रभ भगवानको बुला लिया था-अर्थात् चन्द्रप्रभ-बिम्बका पाकर्षण किया था और जिनके द्वारा मर्वहितकारी जैनमार्ग ( स्याहादमार्ग) इस कलिकालमें पुन: सब पोरसे भद्ररूप हुआ है उसका प्रभाव सर्वत्र व्याप्त होनेसे वह सबका हित करनेवाला और प्रेमपात्र बना है।
+ श्रीमूलसंघ व्योम्नेन्दुर्भारते भावितीर्थहन् । देखें समन्तभद्राख्यो मुनि यात्पदर्दिकः ॥
-विकान्तकौरवे, इस्तिमाः यह पचकवि भव्यपाके जिनेन्द्रकल्पाबाबद' में भी प्रायः ज्योंका वों पाया जाता। इसमें चौबा परव'बीबालासपदर्दिकः' दिया है।
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अनेकान्त
[भाद्रपद, वीर-निर्वाण सं०२४६५
श्रीमूलसंघरूपी आकाशमें जो चन्द्रमाके समान हुए हैं, भारतदेशमें आगेको तीर्थकर होनेवाले हैं और जिन्हें 'चारण' ऋद्धिकी प्राप्ति थी-तपके प्रभावसे आकाशमें चलनेकी ऐसी शक्ति उपलब्ध हो गई थी जिसके कारण वे, दूसरे जीवोंको बाधा न पहुंचाते हुए, शीघ्रताके साथ सैंकड़ों कोस चले जाते थे वे 'समन्तभद्र' नामके मुनि जयवन्त हों-उनका प्रभाव हमारे हृदय पर अंकित हो।
कुवादिनः स्वकान्तानां निकटे परुषोक्तयः। समन्तभद्र-यत्यने पाहि पाहीति सूक्तयः॥
-अनंकारचिन्तामणौ, अजितसेनाचार्यः (समन्तभद्र-कालमें ) प्रायः कुवादीजन अपनी स्त्रियोंके सामने तो कठोरभाषण किया करते थेउन्हें अपनी गर्वोक्तियां अथवा बहादुरीके गीत सुनाते थे-परन्तु जब समन्तभद्र यतिके सामने आते थे तो मधुरभाषी बन जाते थे और उन्हें 'पाहि पाहि'-रक्षा करो रक्षा करो, अथवा आप ही हमारे रक्षक है-ऐसे सुन्दर मृदुवचन ही कहते बनता था—यह सब स्वामी समन्तभद्र के असाधारण व्यक्तित्वका प्रभाव था।
श्रीमत्समन्तभद्राख्ये महावादिनि चागते । कुवादिनोऽलिखन्ममिमंगुष्ठैरानतामनाः॥
-अकारचिन्तामसी, अनितसेनः जब महावादी समन्तभद्र (सभास्थान आदिमें) आते थे तो कुवादिजन वीचा मुख करके अंगठोंसे पृथ्वी कुरेदने लगते थे अर्थात् उन लोगों पर-प्रतिवादियों पर-समन्तभद्रका इतना प्रभाव पड़ता था कि वे उन्हें देखते ही विषण्ण-वदन हो जाते और किंकर्तव्यविमूढ़ बन जाते थे।
* भवटुतटमटति झटिति स्फुटपटुवाचाटधूर्जटेजिंहा।। वादिनि समन्तभद्रे स्थितवति का कथाऽन्येषाम् ॥
__-अलंकारचिन्तामणी, विक्रान्तकौरवे च वादी समन्तभद्रकी उपस्थितिमें, चतुराईके साथ स्पष्ट शीघ्र और बहुत बोलनेवाले धूर्जटिकीतमामक महाप्रतिवादी विद्वानकी-जिहा ही जब शीघ्र अपने बिलमें घुस जाती है-उसे कुछ बोल नहीं भाता-तो फिर दूसरे विद्वानोंकी तो कथा ही क्या है ? उनका अस्तित्व तो समन्तभद्र के सामने कुछ भीम
यह पच शकसंवत् १०१० में उत्कीर्ण हुए अवयवेल्गोजके सिखानेख मं०१४ (६७) में भी थोडेसे परिवर्तनके साथ पाया जाता है। वहाँ 'धूर्जटेर्जिह्वा के स्थान पर 'धूर्जटेरपि जिह्वा' और 'सति का कथाऽन्येषा' की जगह 'तव सदसि भूप कास्थाऽन्येषा' पाठ दिया है, और इसे समन्तमबके बादारंभ-समारंभसमयकी उक्तियों में शामिल किया है। पथके उस रूपमें धर्जटिके निहत्तर होने पर अथवा धबंटिकी गहतर पराजयका उझेख करके राजासे पूछा गया है कि पूर्जटि जैसे विद्वान्की ऐसी हालत होनेपर अब भापकी समाके दूसरे विद्वानोंकी क्या मास्था है? क्या उनमेंसे कोई वादकरनेकी हिम्मत रखता है?
ETIT यामपनहा रखता।
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अनसन्धान
जैन और बौद्धधर्म एक नहीं
[ले.-श्री. जगदीशचन्द्र जैन एम.ए., प्रोफेसर लवा कालेज, बम्बई ]
जान दिनोंमे कुछ मित्रोंकी इच्छा थी कि ब्रह्मचारी त्वमें और शाश्वत मोक्षकी प्रामि में बौद्ध और जैनागम में
मीतलप्रमाद जीने "जैन-चौद्ध तत्वज्ञान" नामकी विरोध नहीं है" । हम यहाँ पाठकोंको यह बताना पुस्तकमे जो जैन और बौद्धधर्म के ऐक्यके विषय में चाहते है कि उक्त विचार अध्यंत भ्रामक है। जैनधर्मको अपने नवे विचार प्रकट किये हैं, उनपर मैं कुछ लिग्वं । उत्कृष्ट और प्राचीन सिद्ध करने के लिये इस तरह के उन. पुस्तकको प्रकाशित हुए बहुतमा ममय निकल विचागेको जनतामें पलाना. यह जैन और बौद्ध दोनों ही गया। किंतु लिखने की इच्छा होते हुए भी कार्य भागमे धर्मों के प्रति श्रन्याय करना है । ब्रह्मचारी नी "बौद्ध मैं इस ओर कुछ भी न कर मका । अभी कुछ दिन हाए प्रथोंके इंग्रेजी उल्थ पढ़कर" तथा "मीलोन के कुछ घौद्ध मुझे बम्बई युनिवर्सिटी के एक एफ. ए. के विद्यार्थीको माधुनोंके साथ वार्तालाप करने" मात्र ही उन निर्णय पाली पढ़ानेका अवमर प्राम हुा । मेरी इच्छा मिग्मं पर पहुंच गये हैं। मनमुच ब्रह्मचारीनी अपने उक्त जागृत होउठी, और अब श्रीमान पंडित जुग-बकिशोर जी- क्रान्तिकारक (?) विचागेम अकलक श्रादि जैन के पत्रमे तो मैं अपने लोभको मवरण हीन कर मका। विद्वानोंकी भी अवहेलना कर गये हैं। नीचे की बातों
ब्रह्मचारी सीतलप्रमाद जो और उक्त पुस्तक पर स्पर होगा कि ब्रह्मचारीजीके निष्कर्ष कितने निर्मुल हैं। सम्मतिदाता बाब अजितप्रसाद जी वकीलका कथन है कि सबमे प्रथम बात तो यह है कि जैन परम्पराम "बौद्धमतके सिद्धांत जैन मिद्धांतम बहुत मिल रहे हैं"। इतने विहान हुए, पर किमीने कहीं भी जैन और बौद्ध "जैन व बौद्ध में कुछ भी अन्तर नहीं है। चाहे बौद्धधर्म धर्मकी आत्मा और निर्वाण-मंबंधी मान्यताप्रोकी प्राचीन कहें या जैनधर्म कहें एक ही बान है" । इन ममानताका उल्लेख नहीं किया । शायद ब्रहाचागतीको महानुभावोंका कथन है कि "जीव तत्त्व के ध्रुवरूप अस्ति- ही सबसे पहले यह अनोखी मूम सूझी ६ । इतना ही
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अनेकान्त
[भाद्रपद, वीर-निर्वाण सं०२४६५
नहीं, जैन विद्वानोंने बौद्धोंके प्राचार, उनकी प्रात्मा ही है । बुद्ध के 'सर्व दुःखं, सर्व क्षणिक, सर्व अनात्म'
और निर्वाण-संबंधी मान्यताओंका घोर विरोध किया है। सिद्धांतोंकी भित्ति अनात्मवादके ही ऊपर स्थित है । अकलंकदेवने रानवार्तिक आदिमें रूप, वेदना, संज्ञा, बुद्धके अष्टांग मार्गमें भी आत्माका कहीं नाम नहीं संस्कार और विज्ञान इन पंचस्कंधोंके निरोधसे अभावरूप आता । वहाँ केवल यही बताया गया है कि मनुष्यको जो बौद्धोंने मोक्ष माना है, उसका निरसन किया है, सम्यक् आचार-विचारसे ही रहना चाहिये । इतना ही और आगे चलकर द्वादशांगरूप प्रतीत्यसमुत्पाद (पडिच्च- नहीं, बल्कि बुद्धने स्पष्ट कहा है कि मैं निल आत्माका समुप्पाद) का निराकरण किया है । अब जरा ब्रह्मचारी उपदेश नहीं करता, क्योंकि इससे मनुष्यको आत्मा ही जीके शब्दों पर ध्यान दीजिये
सर्वप्रिय हो जाती है और उससे मनुष्य उत्तरोत्तर __ "संसारमें खेल खिलाने वाले रूप, संज्ञा, वेदना, अहंकारका पोषण कर दुःखकी अभिवृद्धि करता है । मंस्कार व विज्ञान जन्म नष्ट हो जाते है, तब जो कुछ इसलिये मनुष्यको श्रात्माके झमेलेमें न पड़ना चाहिये शेष रहता है, वही शुद्ध प्रात्मा है । शुद्ध प्रात्माके इसी बातको तत्त्वसंग्रह-पंजिकाकारने कितनी सुन्दरतास संबंधमें जो जो विशेपण जैन शास्त्रों में है. वे सब बौद्धोंके अभिव्यक्त किया है:निर्वाणके स्वरूपसे मिल जाते हैं । निर्वाण कहो या साहंकारे मनसि न शमं याति जन्मप्रबंधो। शुद्ध श्रात्मा कहो एक ही बात है। दो शब्द है,वस्तु दो नाहंकारश्चलति हृदयादात्मष्टौ च सत्यां । नहीं है"।
अन्यः शास्ता जगति भवतो नास्ति नैरास्यवादी॥ एक ओर अकलंकदेव बौद्धोंके अभावरूप मोक्षका नान्यस्तस्मादुपशमविधेस्त्वन्मतादस्ति मार्गः॥ रखंडन करते हैं दूसरी ओर ब्रह्मचारीजी उसे जैनधर्म- यही कारण है कि बुद्ध ने श्रात्मा आदिको 'अव्याद्वारा प्रतिपादित बताकर उसकी पुष्टि करते हैं। कत' (न कहने योग्य) कहकर उसकी श्रोरसे उदासीनता ___ ब्रह्मचारीजीने अपनी उक्त पुस्तकमें जैन और बताई है । बौद्ध पुस्तकोंके अनेक उद्धरण देकर जैन और बौद्धोंकी यहां बौद्धोंका आत्माके विषयमें क्या सिद्धांत है,
आत्म-संबंधी मान्यताको एक बताने का निष्फल प्रयत्न इसपर कुछ संक्षेपमें कहना अनुचित न होगा । बौद्धोंका किया है । किंतु हम यह बता देना चाहते हैं कि दोनों कथन है कि रूप, वेदना, विज्ञान संज्ञा और संस्कार धर्मोकी श्रात्माकी मान्यता में श्राकाश पातालका अंतर इन पंचस्कंधोंको छोड़कर श्रात्मा कोई पृथक् वस्तु नहीं है। यदि महावीर श्रात्मवादी हैं-उनका मिद्धांत श्रात्मा- है। इस विषयपर 'मिलिन्दपण्ह' में जो राजा मिलिन्द की ही भित्तिपर खड़ा है तो बुद्ध अनात्मवादी है और उनका और नागसेनका संवाद आता है, उसका अनुवाद नीचे सिद्धांत अनात्मवादके बिना ज़रा भी नहीं टिक सकता। दिया जाता है:महावीरने सर्व प्रथम श्रात्याके ऊपर जोर दिया है और "मिलिन्द-भन्ते, आपका क्या नाम है ? बताया है कि श्रात्मशुद्धि के बिना जीवका कल्याण होना नागसेन महाराज, नागसेन । परन्तु यह व्यवहार असंभव है ,और वस्तुतः इसीलिये जैनधर्ममें सात तत्त्वों- मात्र है, कारण कि पुद्गल ( अात्मा ) की उपलब्धि का प्रतिपादन किया है । तथा बौद्धधर्ममें इसके विपरीत नहीं होती।
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वर्ष २, किरण ११]
जैन और बौद्धधर्म एक नहीं
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मिलिन्द-यदि आत्मा कोई वस्तु नहीं है, तो प्राप- कर रथ कोई स्वतंत्र पदार्थ नहीं। को कौन पिंडपात (भिक्षा) देता है, कौन उस भिदाका नागसेन-जिस प्रकार पहिये, धुरे, मादिके अति भक्षण करता है, कौन शीलकी रक्षा करता है, और कौन रिक्त रथका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है, उसी तरह रूप, भावनाओंका चिन्तवन करनेवाला है ! तथा फिर तो वेदना, विज्ञान, संशा और संस्कार इन पांच स्कंधोंको अच्छ, बुरे कर्मों का कोई कर्ता और भोका भी न मा- छोड़कर नागसेन कोई अलग वस्तु नहीं है।" नना चाहिये। आदि।
_ 'विमुदिभग्ग' में भी निम्न श्लोकद्वारा उक्त भाव नागसेन–मैं यह नहीं कहता।
ही व्यक्त किया गया है:मिलिन्द-स्या रूप, वेदना, संशा, संस्कार और दुल्लमेव हिम कोचिएक्खितो। विज्ञान मिलकर नागसेन बने है!
कारको नविरिषा विज्जति । नागसेन नहीं।
अस्थि नियुक्तिम मिनुत्तो पुमा । मिलिन्द-क्या पांच स्कंधोंके अतिरिक्त कोई नाग- मम्गमाथि गमको नबिज्जति । सेन है ?
क्या कोई जैनधर्मका अभ्यासी उक्त मान्यताको नागसेन नहीं।
जैनधर्मकी मान्यता सिद्ध करनेका दावा कर सकता है! मिलिन्द तो फिर सामने दिखाई देने वाले नाग- यदि कोई कहे कि उक्त मान्यता बदकी मान्यता नहीं; सेन क्या है?
बुद्धने तो आत्माको 'अव्याकत' कहा है, या उसके नागसेन–महागज, आप यहाँ रथसे आये हैं, या विषयमें तृष्णी भाव रखा है तो हमके उत्तरमें हम कहंग पैदल चलकर ?
कि फिर भी बुद्धकी मान्यताको हम जन मान्यता कभी मिलिन्द-रथसे !
नहीं कह सकते। महावीरने श्रात्माकी कभी उपेक्षा नागसेन-आप यहाँ रथसे आये हैं तो मैं पछता नहीं की। बल्कि उन्होंने तो केकी चोटसे घोषणा की हूं कि रथ किसे कहते हैं ! क्या पहियाँको रथ कहते हैं ! कि “जे एगं बाबा से सम्बं जाणा" अर्थात् जो एक क्या धुरको रथ कहते हैं ? क्या रथमें लगे हुए इण्डोंको (आत्मा) को जानता है, वह सब कुछ जानता है, जो रथ कहते हैं ?
इस एक तत्वको नहीं जानता वह कुछ भी नहीं जानता । (मिलिन्दने इनका उत्तर नकारमें दिया) जिसतरह जैनशास्त्रों में 'अणु-गुरु-देह प्रमाण' आदि लक्ष
नागसेन तो क्या पहिये, धुरे, इण्डे आदिके गोंके साथ प्रात्माका विशद और विस्तृत वर्णन देग्यने में अलावा रथ अलग वस्तु है !
श्राता है क्या उस तरहका वर्णन ब्रह्मचारी जीने किसी (मिलिन्दने फिर नकार कहा)
बौद्ध ग्रन्थ देखा है ? यदि नहीं, तो उनका दोनों धर्मोनागसेन तो फिर जिस रथसे श्राप आये वह को एक बताना श्रात्मवंचन है, धर्म-व्यामोह है, विड. स्या है?
बना है और साथ ही जैन श्राचार्योकी अवमानना है । मिलिन्द-पहिये, धुरे, डण्डे श्रादि सबको मिला- जैन और बौद्ध धर्म में दूमरी बड़ी मारी विषमता कर व्यवहारसे रथ कहा जाता है। पहिये आदिको छोड़ यह है कि बौद्ध धर्ममें मांसभक्षणका प्रतिपादन ।
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अनेकान्त
[माद्रपद, वीर-निर्वाण सं०२४६५
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जबकि जैन ग्रंथोंमें कहीं इस बातका नाम-निशान भी आगे चलकर 'लंकावतार' सूत्रसे ढेरके ढेर मांस-निषेधनहीं। यह होसकता है कि बुद्धने अमुक प्राणियोंके मांस- के उद्धरण पेश किये हैं। किन्तु शायद उन्हें यह ज्ञान भक्षण करने की आज्ञा न दी हो, जैसे यहूदी आदि धर्मों- नहीं कि लंकावतार सूत्र महायान बौद्ध सम्प्रदायका ग्रंथ में भी पाया जाता है, पर मांसाहारका उन्होंने सर्वथा है, और वह संस्कृतमें है; जबकि बुद्धके मूल उपदेश निषेध नहीं किया । मज्झिमनिकायके जीवकसुत्तमें पालीमें हैं और 'मज्झिमनिकाय' पाली-त्रिपिटकका अंश जीवकने बुद्धसे प्रश्न किया है कि भगवन् ! लोग कहते है। बौद्धधर्मके उक्त आचार-विचारकीजैनधर्मके प्राचारहैं कि बुद्ध उद्दिष्ट भोजन स्वीकार करते हैं वे उद्दिष्ट से तुलना करना, यह लोगोंकी आँखोंमें धूल झोंकना मांसका श्राहार लेते हैं, क्या ऐसा कहने वाले मनुष्य है। वस्तुतः बात तो यह है कि बुद्ध अपने धर्मको सार्व
आपकी और आपके धर्मकी निन्दा नहीं करते, अवहेलना भौमधर्म बनाना चाहते थे, और इसलिये वे मांसनिषेध नहीं करते ? इसके उत्तरमें बुद्ध कहते हैं
की कड़ी शर्त उसमें नहीं लगाना चाहते थे। परन्तु "न मे ते कुत्तवादिनो अम्भाचिक्खंति च पन मं ते महावीर इसके सख्त विरोधी थे। असाता अभूतेन । तीहि खो अहं जीवक ठाने हि मंसं ब्रह्मचारी जीने एक और नई खोज की है। उनका अपरिभोगं ति वदामिः-दिलु, सुतं, परिसंकितं । कथन है कि "बुद्धने महावीरकी नग्न मुनिचर्याको कठिन इमेहि खो अहं जीवक तीहि ठानेहिमंसं अपरिभोगं ति समझा, इसलिये उन्होंने वस्त्रसहित साधुचर्याकी प्रवृत्ति वदामि । तीहि खो महं जीवक ठाने हि मंसं चलाई; तथा मध्यममार्ग जो श्रावकों व ब्रह्मचारी श्रावको परिमोगं ति वदामिः-अदिलं, असुवं, अपरिसंकितं । का है, उसका प्रचार गौतम बुद्धने किया-मिति एक इमेहि खो भहं जीवक तीहि ठानेहि मंसं परिभोगं ति रक्वा ।" ब्रह्मचारीजीकी स्पष्ट मान्यता है कि जैनधर्म
और बौद्धधर्मके सिद्धांतोंमें कोई अंतर नहीं-अंतर सिर्फ अर्थात् यह कहने वाले मनुष्य असत्यवादी नहीं, इतना ही है कि महावीरने नग्न-चर्याका उपदेश दिया, वेधर्मकी अवहेलना करने वाले नहीं हैं; क्योंकि मैने तीन जब कि बुद्ध ने सवस्त्र-चर्याका । यदि ऐसी ही बात है तो प्रकारके मांसको भक्ष्य कहा है-जो देखा न हो (अदिव) फिर बौद्धधर्म और श्वेताम्बर जैनधर्ममें तो थोड़ा भी सुना न हो ( असुत ), और जिसमें शंका न हो (अपरि- अन्तर न होना चाहिये। किन्तु शायद ब्रह्मचारीजीको संकित)।
मालम नहीं कि जितनी कड़ी समालोचना बौद्धधर्मकी बड़ा आश्चर्य है कि बुद्धका माँस-संबंधी उक्त स्पष्ट दिगम्बर शास्त्रों में मिलती है, उतनी ही श्वेताम्बर ग्रंथों में पचन होनेपर भी ब्रह्मचारी जी उक्त वचनके विषयमें भी है । महावीरकी स्तुति करते हुए. अयोगव्यवच्छेद शंका करते हुए लिखते हैं “यह वचन कहाँ तक ठीक द्वात्रिंशिकामें हेमचन्द्रप्राचार्यने बुद्धकी दयालुताका उपहै, यह विचारने योग्य है ।" भले ही उक्त कथन ब्रह्म- हास करते हुए उनपर कटाक्ष किया है। वह श्लोक चारीजीके विचारमें न बैठता हो, पर कथन तो अत्यंत निम्न रूपसे है:स्पष्ट है । पर ब्रह्मचारीजी तो किसी भी तरह जैन और जगत्यनुभ्यामवलेन शश्वत् कृतार्थयत्सु प्रसभंभवत्सु । बौद्धधर्मको एक सिद्ध करनेकी धुनमें है । ब्रह्मचारीजीने किमाभितोऽन्यैःशरणं त्वदन्यः स्वमासदानेन वृथाकृपालुः।।
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वर्ष २, किरण ११]
जैन और बौरधर्म एक नहीं
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अर्थात्-अपने उपकार-द्वारा जगतको सदा कृतार्थ दीर्घतपम्वीने उत्तर दिया, तीन-कायदण्ड, बचोदण्ड करनेवाले ऐसे आपको छोड़कर अन्यवादियोंने अपने और मनोदण्ड । बुद्धने पूछा इन तीनोंमें किसको महाभांसका दान करके व्यर्थ ही कृपालु कहे जानेवाले की सावद्यरूप कहा है ? दीर्घतपस्वीने कहा कायदण्डको । क्यों शरण ली, यह समझमें नहीं पाता । ( यह कटाक्ष बादमें दीर्घतपस्वीने बुद्धसे प्रश्न किया, आपने कितने बुद्धके ऊपर है)।
दण्डोंका विधान किया है ? बुद्ध ने कहा, कायकम्म, ___ इतना ही नहीं, बुद्ध और महावीर के समयमें भी वचीकम्म और मनोकम्म; तथा इनमें मनोकम्मको मैं जैन और बौद्धों में कितना अन्तर था. कितना वैमनस्य महासावद्यरूप कहता हूँ। इसके पश्चात् दीर्घतपस्थी था, यह बात पाली ग्रन्थोंसे स्पष्ट हो जाती है। यदि महावीरके पास आये। महावीरने दीर्घतपस्वीका साधदोनों धर्मों में केवल वस्त्र रखने और न रखनेके ही ऊपर याद किया, और जिनशासनकी प्रभावना करने के लिये वाद-विवाद था, तो बुद्ध महावीर के अन्य सिद्धांतोंका उसकी प्रशंसा की। उस समय वहाँ गृहपति उपालि भी कभी विरोध न करते; उन्हें केवल महावीर की कठिन बैठे थे । उपालिने महावीरसे कहा कि आप मुझे बद्धके चर्याका ही विरोध करना चाहिये था, अन्य बातोंका पास जाने की अनुमति दें, मैं उनसे इस विषय में विवाद नहीं। 'मज्झिमनिकाय' के 'अभयराजकुमार' नामक करूँगा; तथा जैसे कोई बलवान पुरुष भेडके पचेको सुत्तमें कथन है कि एकबार निगएठ नाटपुत्त (महावीर) उठाकर घुमा देता है, फिरा देता है, उसी तरह मैं भी ने अपने शिष्य अभयकुमारको बुद्ध के साथ वाद-विवाद बुद्धको दिलादूंगा, उनको परास्त कर दूंगा । इस पर करनेको भेना। अभयकुमारने बुद्धसे प्रश्न किया कि दीर्घतपस्वीने महावीरसे कहा कि, भगवन् ! बुद्ध मा क्या श्राप दूसरोंको अप्रिय लगनेवाली वाणी बोलते हैं ! यावी है, वे अपने मायाजालम अन्य तीथिकोको अपना बुद्धने विस्तृत व्याख्या करते हुए उत्तर दिया कि अनुयायी बना लेते हैं,अतः आप उपालिको वहाँ जानेबुद्ध 'भूत, तच्छ (तथ्य) और अत्यसहित' वचनोंका की अनुमति न दें । परन्तु दीर्घतपस्वीके कथनका कोई प्रयोग करते हैं, वे वचन चाहे प्रिय हो वा अप्रिय । प्रभाव नहीं हुआ, और उपालि बुद्धसे शास्त्रार्थ करने बुद्ध के उत्तरसे संतुष्ट हो अभयकुमारने कहा 'मनस्तुं चल दिये । उपालि बुद्धसे प्रश्नोत्तर करते हैं, और बुद्धनिगला' (अनश्यन् निर्ग्रन्थाः ) अर्थात् निग्रंथ नष्ट के अनुयायी हो जाते है । अब उन्होंने अपने द्वारपालसे हो गये।
कह दिया कि आजसे निग्रंथ और निग्रंथिगियोंके लिये महावीर और उनके अनुयायियोंका चित्रण बौद्धोंके मेरा द्वार बन्द है, और अब यह द्वार मैंने बौद्ध भिक्षु पाली ग्रंथोंमें किम तरह किया गया है, यह बतानेके और भिक्षुणियोंके लिये खोल दिया है (मजतम्गे सम्म लिये हम मज्झिमनिकायके उपालिमुत्त का सारांश नीचे दोबारिक,मावरामि द्वारं निगराठानं, निगराठीमं; प्रमा देते हैं
वटं द्वारं भगवतो मिक्खून मिक्नुणीनं, उपासकाना, एकबार दीर्घतपस्वी निग्रंथ बुद्ध के पास मये । बुद्धने पासिकानं)। इतना ही नहीं, उपालिने द्वारपालसे प्रश्न किया, निग्रंथ ज्ञातपुत्र ( महावीर ) ने पाप कर्मों कहदिया कि यदि कोई निग्रंथ साधु आये तो उसे अन्दर को रोकनेके लिये कितने दण्डोंका विधान किया है। पाने के लिये रोकना, और कहना कि उपालि माजसे
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अनेकान्त
[भाद्रपद, वीर-निर्वाण सं०२४६५.
बुद्धका अनुयायी होगया है । तथा यदि वह साधु भिक्षा बातोंमें नहीं । वह साम्य दूसरी हो बातोंमें है । अात्मा मांगे तो कहना कि यहीं ठहरो, तुम्हें यही आहार मि. और निर्वाण-संबंधी बातोंमें तो विषमता ही है । लेगा। महावीरने यह सब सुना और वे स्वयं एक दिन उदाहरण के लिये कर्मसिद्धांत जैन और बौद्धका मिलता उपालिके घर आये । द्वारपालने उन्हें रोक दिया । द्वार- जुलता है । दोनों महापुरुष गुणकर्मसे ही मनुष्यको पालने अन्दर जाकर कहा कि निगंठ नातपुत्त अपने छोटा बड़ा मानते थे । दोनों ही महात्माओंने सर्व साधाशिष्योंको लेकर आये हैं, आपसे मिलना चाहते हैं। रण भाषामें अपना उपदेश दिया था। दोनों अहिंसाके उपालिने उन्हें श्राने दिया । परन्तु उपालिने श्रासन पर ऊपर भार देते थे और पशु-वधका घोर विरोध करते थे। बैठे बैठे महावीरको कहा 'श्रासन विद्यमान है, चाहें तो दोनों ब्रह्मणोंके वेदको न मानते थे । दोनोंका धर्म बैठिये ।' दोनोंमें प्रश्नोत्तर हुआ और उपालिने बुद्ध- निवृत्तिप्रधान था। दोनों श्रमण-संस्कृतिके अंग होनेसे शासनको ही उत्कृष्ट बताया ।
एक दुसरेके बहुत पाम थे । किन्तु दोनोंका सिद्धांत एक इस प्रकार के पाली साहित्यके उल्लेखोंको पढ़कर न था। महावीर श्रात्मवादी थे, बुद्ध अनात्मवादी, अत्यंत स्पष्ट है कि बुद्ध और महावीरका सिद्धांत एक न महावीर कर्मोका क्षय होनेसे अनंत चतुष्टयरूप मोक्ष था, तथा उन दोनों में केवल चयोका ही अंतर न था। मानते थे, बद्ध शून्यरूप-अभावरूप | महावीरका शासन
रात्रिभोजन-त्याग श्रादि दो-चार बातोका साम्य तप-प्रधान था, बुद्ध का ज्ञानप्रधान । देखलेने मात्रसे ही हम जैन और बौद्ध धर्मको एक नहीं हमारी समझमें बिना सोचे समझे ऐसे साहित्यका कह सकते । ऐसे तो महाभारत श्रादिमें भी 'वस्त्रपूतं सर्जन करना, साहित्यकी हत्या करना है । और जलं पिबेत्' आदि उल्लेख मिलते हैं। उपनिषद्-साहित्य एक श्राश्चर्य और है कि ऐसा साहित्य जैन समाज में तो शन और तपके अनुष्ठानोंसे भरा पड़ा है । शतपय स्वप भी बहुत जल्दी जाता है । अभी तक किसी ब्राह्मण श्रादि ब्राह्मण ग्रंथोंमें जगह जगह वर्षाऋतुमें महानुभावने उक्त पुस्तकके विरोधमें कुछ लिखा एक जगह रहना, आहार कम करना आदि साधुचर्याका हो, यह सुननेमें नहीं आया । अभी सुना है कि विस्तारसे वर्णन है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि ब्रह्मचारीजाने जैनधर्म और अरिस्टोटल (अरस्तु ) के यह सब जैनधर्म हैं । हम इतना ही कह सकते हैं कि विषयमें कुछ लिखा है, और शायद अरिस्टोटलको यह सब श्रमण-संस्कृतिके चिह्न हैं । पर श्रमण-संस्कृतिमें भी जैन बनानेका प्रयत्न किया गया है । आशा है जैनके साथ साथ बौद्ध, आजीविक आदि संप्रदाय भी इस लेखके पढ़नेसे पाठकोंमें जैनधर्म और बौद्धधर्मके गर्मित होते है।
तुलनात्मक अभ्यास करनेकी कुछ अभिरुचि जागत जैनधर्म और बौद्धधर्ममें साम्य अवश्य है, पर उक्त होगी।
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ऐतिहासिक अध्ययन
[ -बाबू माईलपाम बी.ए. (पानर्स.) बी. टी.] किसी देशकी राज्यप्रणाली,गमाओं, युद्धों तथा फिर राष्ट्र तथा समाजके संचालक नेता सोच
"सन्धियोंके विवरणको ही इतिहास ममझना, विचारकर सुधार या उन्नतिका ठीक मार्ग बता सइतिहासका बहुत ही सीमित तथा मंकुचित अर्थ कते हैं और मनुष्यजातिका कल्याण कर सकते हैं । लेना है और अपने लिये ज्ञानके साधनोंको कम ऐतिहासिक अध्ययन जितना आवश्यक है, करना है। जनता-मम्बंधी हरएक पान्दोलनका उतना ही कठिन है। यह काम साधारण जनता ज़िकर भी इतिहाममें होना चाहिये । धार्मिक या मामूली शिक्षितोंका नहीं है । अवकाश-हीन सामाजिक, श्रौद्यौगिक, साहित्यिक परिवर्तनोंका तथा बहुधंधी विद्वान भी यह काम नहीं कर सकते। भी इतिहासमें समावेश होता है। इसके अतिरिक्त यह काम विशेषज्ञों, ऐतहासिकों और अन्वेषकों खोज करने पर भिन्न भिन्न पद्धतियों, विद्याओं, ( Research Scholars) का है। यह काम ममय, विज्ञानों, कलाओं तथा रीति-रिवाओंके भी इनि- संलग्नता, धैव, निश्चलता, सामग्रीसंग्रह तथा हाम लिखे जाते हैं, और उनके अध्ययनसे यह Reference Books चाहता है। चूंकि यह काम बात साफ तौरसे समझमें आजाती है कि वे किन राष्ट्र तथा समाजके वास्ते अन्य बड़े कामकि ममान किन अवस्थाओंमें से गुजरे हैं, उनका किस प्रकार आवश्यक और उपयोगी है, इसलिए ऐतिहासिक विकास हुआ है और किन किन कारणों या अध्ययनको प्रोत्साहन देना, उसके लिए साधन परिस्थितियोंकी वजहसे उनमें परिवर्तन, उन्नति या जुटाना तथा ऐसा काम करनेवालोंके लिए सुभीते अवनति हुई है । इस प्रकारके मध्ययनसे प्राचीन पैदा करना समाजका परम कर्तव्य है। कालका ठीक शान होजाता है। वर्तमानकी शिक्षितों तथा साधारण जनता को भी अपने कठिनाइयोंको दूर करनेका मार्ग और भविष्यकं नित्यक स्वाध्याय या पठन-पाठनमें ऐतिहासिक लिये सुमार्ग मिल जाता है।
अध्ययनकी तरफ लक्ष्य रखना चाहिए और इस इसी प्रकारके अध्ययनको ऐतिहासिक अध्ययन ___ तरफ अपनी रुचि तथा उत्सुकता बढ़ानी चाहिए। कहा जाता है। स्थितिपालकता, परम्परावाद और किसी विषयका अध्ययन करते समय इस प्रकारके मढ़िवादका बड़ा कारण इतिहासका ज्ञान न होना प्रश्न करने चाहिएं:-यह बात इस रूपमें कब
और यह भ्रमपर्ण विचार है कि जो कुछ ज्ञान, हुई ? ऐसा रूप क्यों हुआ? इससे पहिले क्या विज्ञान, कला, पद्धति, रीति-रिवाज आज जारी हैं रूप था? उस परिवर्तनका प्रभाव अच्छा हुमा वे अनादिकालस बिना परिवतनके ज्यूक त्यं चले या बरा? वह परिवर्तन कितने क्षेत्रमा होमका ?
आते हैं और उनमें परिवर्तन करना दुःमाहस है। वर्तमान रूप ठीक है या उसमें किसी परिवर्तनकी इससे बड़ी किसी अहितकर भूलका शिकार होना आवश्यकता है ? उसमें क्या परिवर्तन किया जाय मनुन्यजातिके वास्ते कठिन है । इससे हम अपनी तथा कैसे किया जाय ? क्या वह परिवर्तन जनता ही हानि कर रहे हैं। इस हानिको रोकने क्या प्रासानीस प्रहण करेगी या कुछ समयके बाद? भ्रमको दूर करनेका एकमात्र साधन एतिहासिक मादि। अध्ययन ही है।
ऐतिहासिक अध्ययनके समान ही उपयोगी ऐतिहासिक अध्ययनसे ही भिन्न-भिन्न परि. तुलनात्मक अध्ययन ( Comparative study ) स्थितियां, उनके प्रभाव, परिवर्तनोंका रूप तथा और विश्लेषणात्मक अध्ययन ( Analyticial उनके हानि-लाभ आदि समझमें आसकते हैं और study ) है।
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जान तत्वचची
मनुष्योंमें उच्चता-नीचता क्यों ?
[ले० पं० वंशीधरजी व्याकरणाचार्य]
weeper Beton गोत्रका उच्च अथवा नीचरूपसे व्यवहार नारकी, आलोचनात्मक पद्धतिसे किये गये समाधानरूप
- तिर्यच, मनुष्य और देव इन सभीमें यथा- कथनको अपनी ओरमे हिन्दी अर्थ करते हुए ज्योंका योग्य बतलाया है। साथ ही सिद्धान्त ग्रंथोंमें यह त्यों उद्धृत किया है । यद्यपि उस समय जिन लो. भी स्पष्ट किया है कि नारकी और तिर्यच नीच गोंके मनमें यह शंका थी कि “उच्चगोत्रका व्यवहार गोत्री ही होते हैं, देव उच्च गोत्री ही होते हैं और या व्यापार कहां होना चाहिये" संभव है उनकी मनुष्य उच्च तथा नीच दोनों गोत्र वाले यथा इस शंकाका समाधान धवल ग्रंथके उस वर्णनसे योग्य हुमा करते हैं।
हो गया होगा, परन्तु मुख्तार साहबकी मान्यताके __ गोत्रकी उच्चता क्या और नीचता क्या ? अनुसार यह निश्चित है कि धवलग्रंथके समाधानायही आज विवादका विषय बना हुआ है। आज त्मक वाक्यकी विशद व्याख्या हुए बिना आजका ही नहीं, अतीतमें भी हमारे पूर्वजोंके सामने यह विवाद समाप्त नहीं हो सकता है। समस्या खड़ी हुई थी और उस समयके विद्वानोंने उच्चता और नीचताके विषयमें जो विवाद है इसके हल करनेका प्रयत्न भी किया था; जैसा कि उसका मूल कारण यह है कि सिद्धान्त ग्रंथों में श्रीयुत बाबू जुगलकिशोरजी मुख्तारके 'अनेकान्त' यद्यपि मनुष्यों के दोनों गोत्रोंका व्यापार बतलाया की गत दूसरी किरणमें प्रकाशित "उच्च गोत्रका है परंतु कौन मनुष्यको उच्च गोत्री और कौन व्यवहार कहाँ ?" शीर्षक लेखसे ध्वनित होता है। मनुष्यको नीच गोत्री माना जाय तथा ऐसा क्यों
श्रीयुत मुख्तार साल्ने इस लेखमें धवलपथके माना जाय ? इसका स्पष्ट विवेचन देखने में नहीं उच्चगोत्र कर्मके विषयमें उठाई गयी आपत्ति और पाना है । यद्यपि जिस मनुष्यके उच्च गोत्र कर्मका
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वर्ष २, किरण ११]
मनुष्यों में उच्चता-नीचता स्यो !
उदय हो उसे उच्चगोत्री और जिसके नीचगोत्र यदि ये मभी देव उबगोत्री माने जामकते हैं तो कर्मका उदय हो उसे नीचगोत्री समझना चाहिये मभी मनुष्योंको भी मनुष्यजातिकी समानताके परंतु उच्च तथा नीच गोत्र कर्मका उदय हमारी कारण उप या नीच दोनोंमें से एक गोत्र वाला बुद्धिके बाहिरकी वस्तु होनेके कारण इस मानना चाहिये। मालूम पड़ता है भीयुत बाबू विवाद के अन्त करनेका कारण नहीं हो सकता है। सुरजभानुजी वकीलनं इसी बिना पर भनेकान्तकी यदि नारकी, तिर्यंच और देवोंकी तरह सभी गत पहिली किरणमें मनुष्यगतिमें उबगोत्रके मनुष्योंको उच्च या नीच किसी एक गोत्रवाला अनुकूल कुछ विशेषतायें बतला कर सभी मनुष्यों माना जाता तो संभव था कि उच्चता और को उबगोत्री सिद्ध करनेकी कोशिश की है, और नीचताके इस विवादमें कोई नहीं पड़ता; कारण इसके लिये उन्होंने कर्मकाण्ड, जयधवला, और कि ऐसी हालतमें उच्चता और नीचताके व्यवहार- लब्धिमारके प्रमाणोंका मंग्रह भी किया है। में क्रमसे उच्चगोत्र और नीचगोत्र कर्मके उदयको मनप्यगतिको विशेषताओंके विषयमें उन्होंने कारण मान कर सभी लोगोंको आत्मसंतोप हो लिखा है कि-"मनुष्यपर्याय सर्वपर्यायोंमें उत्तम मकता था। लेकिन जब सभी मनुष्य जातिकी दृष्टि- मानी गयी है यहाँ तक कि वह देवोंसे भी ऊँची है में समान नजर आरहे हैं तो युक्ति तथा अनुभव- तब ही तो उपजातिके देव भी इम मनुष्यपर्यायको गम्य प्रमाण मिले बिना बद्धिमान व्यक्तिके हृदयमें पाने के लिये लालायित रहते हैं, मनुष्यपर्यायकी "क्यों तो एक मनुष्य उच गोत्री है और क्यों प्रशंसा सभी शाम्रोंने मुक्तकंठसे गायी है ।" इन दसरा मनुष्य नीचगोत्री है ? नथा किमको हम विशेषताओं के आधार पर श्रीयुत वकील सा० सभी नीचगोत्री कहें और और किमको उच्च गोत्री कहें ? मनुष्योंको उच्च गोत्री सिद्ध करना चाहते हैं। परंतु इस प्रकार प्रश्न उठना स्वाभाविक बान है और जिस प्रकार कायली घोड़ोंकी प्रसिद्धि होनेपर भी यह ठीक भी है। कारण कि मानों नरकोंक नारकी काबुलके सभी घोड़े प्रसिद्धि पानेके लायक नहीं परस्परमें कुछ न कुछ उपता-नीचताका भंद लियं होते उसी प्रकार मनुष्यगतिकी इन विशेपताओंके हुए होने पर भी यदि नारक जातिकी अपेक्षा मभी आधार पर सभी मनुष्योंको उचगोत्री नहीं नीचगोत्री माने जा सकते हैं, तिर्यचोंमें भी एक माना जा सकता है। शास्त्रों में जो मनुष्यपर्यायकी न्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय तक और प्रत्येककी सभी प्रशंसा गीत गाये गये हैं और देव भी जो जातियों में परस्पर कुछ न कुछ नीच-ऊँचका भेद मनप्य पर्यायको पानेके लिये लालायित रहते हैं प्रतीत होते हुए भी यदि ये सभी तिर्यच तिर्यग् वह इसलिये कि एक मनुष्यपर्याय ही ऐसी है जातिकी अपेक्षा नीच माने जा सकते हैं और देवों जहाँसे जीव सीधा मुक्त हो सकता है, लेकिन में भी भवनवासी व्यन्तर-ज्योतिष्क वैमानिकोंमें इसका यह अर्थ तो कदापि नहीं, कि जो मनुष्य तथा प्रत्येकके अन्तर्भेदोंमें परस्पर नीच-ऊँचका पर्याय पा लेता है वह मुक्त हो ही जाता है । इमी भेद रहते हुए भी देवजातिकी समानताकै कारण मनुष्यपर्यायसे जीव सप्तम नरक और यहां तक
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अनेकान्त
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कि निगोदराशिमें भी पहुंच सकता है । शास्त्रोंमें वहाँ उच्च गोत्रका व्यवहार होना चाहिये और जो ऐसी मनुष्यपर्यायकी प्रशंसा नहीं की गई है कि गति अशुभ हो वहाँ नीच गोत्रका व्यवहार होना जिसको पाकर जीव दुर्गतिक कारणोंका संचय करे, चाहिये । चूंकि नरक गति और तिर्यग्गति अशुभ या ऐसी मनुष्यपर्यायको पानेके लिये देव लाला- हैं इसलिये इनमें नीच गोत्रका और देव गति शुभ यित नहीं रहते होंगे कि जिसको पाकर वे अनन्त है इसलिये इसमें उच्च गोत्रका व्यवहार जिस संसारके कारणोंका संचय करें । मनु यगतिके प्रकार शास्त्रसम्मत है उसी प्रकार मनुष्यगतिमें साथ सत्समागम, शारीरिक स्वास्थ्य, श्रात्म- भी शुभ होनेके कारण उच्च गोत्रका व्यवहार कल्याण-भावना और धार्मिक प्रेम व उसका ज्ञान मानना ही ठीक है।" । अवश्य होना चाहिये, तभी मनुष्यपर्यायकी प्रशंसा कर्मकांडकी गाथा नं० १८ का कथन सामान्य व शोभा हो सकती है। इसलिये सभी मनुष्योंको कथन है तथा इस कथनसे ग्रंथकारका क्या आशय उच्चगोत्री सिद्ध करनेके लिये मनुष्यगतिको है ? यह बात “शामपुष्वं तु" पाठसे स्पष्ट जानी ये वकील सा० द्वारा दिखलाई गयी विशेषतायें जा सकती है। यदि इस गाथाका जो आशय असमर्थ हैं। आगे सभी मनुष्योंको उच्च गोत्री वकील साने लिया है वही ग्रंथकारका होता तो सिद्ध करने में जो कर्मकांड, जयधवला और वे ही ग्रन्थकार स्वयं आगे चलकर गाथा नं. लब्धिसारके प्रमाण दिये हैं वे कितने सबल हैं इस २९८ में मनुष्यगतिमें उदययोग्य १८२ प्रकृतियोंमें पर भी विचार कर लेना आवश्यक है- नीच गोत्रको शामिल नहीं करते। थोड़ी देरके
सबसे पहिले उन्होंने कर्म कांडकी गाथा नं० लिये वकील सा० की रायके मुताबिक मनुष्यगतिमें १८ का प्रमाण उपस्थित किया है, वह इस प्रकार उदययोग्य १०२ प्रकृतियोंमें नीचगोत्रका समावेश है-"भवमस्सिय णीचुवं इदि गोदं" (णामपुग्वं तु) सम्मूर्छन और अन्तर्वीपज मनुष्योंकी अपेक्षा मान
वकील सा० ने उद्धृत किये हुए अंशका यह लिया जाय, फिर भी इससे इतना तो निश्चित अर्थ किया है कि उच्च-नीच गोत्रका व्यवहार भव है कि ग्रन्थकार वकील सा. की रायके अनुसार अर्थात् नरकादि पर्यायोंके आश्रित है। इससे वे सम्मूर्छन और अन्तर्वीपज मनुष्योंको मनुष्य यह तात्पर्य निकालते हैं कि “जो गति शुभ हो कोटिसे बाहिर फेंकनेको तैयार नहीं हैं, और ऐसी
कोष्टक वाला भाग इसी गाथाके भागेका भाग है हालतमें गाथा नं० १८ में ग्रंथकारकी रायको वकील जिसको वकील सा० ने अपने उद्धरणमें घोर दिया है। सा० अपनी रायके मुताबिक़ नहीं बना सकते हैं।
और इसको मिला देने पर पूरा भर्थ इस प्रकार हो ग्रंथकारने गाथा नं० १८ में जो भव' शब्दका जाता है--नीच और उप व्यवहार भव अर्थात् नरकादि प्रयोग किया है वह नीचगोत्र और उच्चगोत्रके क्षेत्र. गतियोंके भाभित है तथा गतियां नाम कर्मके भेदों में विभाग व क्षेत्रके निर्णयके लिये नहीं किया है शामिल हैं इसलिये नामकर्मके बाद गोत्रकर्मक पाठ बल्कि कर्मों के पाठक्रममें गोत्रकर्मका पाठ नामकर्मके बतलाया गया है।
बाद क्यों किया है ? इस शंकाका समाधान करनेके
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वर्ष २, किरण ११]
मनुष्योंमें उच्चता-नीचता स्यों!
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लिये किया है। इसलिये ग्रंथकारका गाथा नं०१८के प्योंके साथ भार्यखएडमें बसनेवाले पर्याप्तक मनुउस अंशसे इतना ही तात्पर्य है कि "नामकर्मकी प्योंके भी नीचगोत्रकर्मका उदय मानते हैं, इसलिये प्रकृति (?) चारों गतियोंके उदयमें ही उप-नीच कर्मकांडकी गाथा नं०२९८ का पाशय वकील सा० गोत्रका व्यवहार होता है इसलिये गोत्रकर्मका पाठ के आशयको पुष्ट करनेमें असमर्थ हो जाता है। नामकर्म के बादमें किया गया है ।" इसके द्वारा दूसरा कोई प्रमाण सामने है नहीं, इसलिये वकील नीचगोत्र व उच्चगोत्रके क्षेत्र-विभाग व स्थानका सा० की यह मान्यत । कि-"मनुष्यगतिमें नीचनिर्णय किसी भी हालतमें नहीं हो सकता है। गोत्रकर्मका उदय सम्मूर्छन और अन्तर्वीपज ___ अब वकील सा० की यह बात और रह जाती मनुष्यों ( जिनको कि उन्होंने अपना मत पुष्ट करने है कि-"मनष्यगतिमें नीचगोत्र कर्मका उदय के लिये मनुष्यकोटिसे बाहिर फेंक दिया है ) की सम्मूर्छन और अन्तर्वीपज मनुष्योंकी अपेक्षासे अपेक्षासे है" खटाईमें पड़ जाती है और इसके बतलाया है।" सो यह बात भी प्रमाणित नहीं हो साथ माथ यह सिद्धान्त भी गायब हो जाता है कि सकती है। क्योंकि फर्मकांडकी गाथा नं.२९८ में सभी मनुष्य उचगोत्री हैं। मनुष्यको उदययोग्य १०२ प्रकृतियोंमें नीच गोत्र- श्रीयुत मुख्तार मा० शीतलप्रमादजीके लेग्य कर्मका समावेश ग्रन्थकारने सम्मुर्छन और अन्त- पर टिप्पणी करते हुए अनेकान्तकी गत चौथी
पज मनुष्यकी अपेक्षासे नहीं किया है। यदि ऐसा किरणमें लिग्खते हैं-"मनुष्यों में पांचवें गुणस्थान मान लिया जायगा तो कर्मकांड गाथा नं. ३०० से तक नीचगोत्रका उदय हो सकता है. यह ( कर्म: इसका विरोध होगा । गाथा नं. ३०० में जो भूमिमें बसने वाले मनुष्योंको नीचगोत्री मिड मनुष्यगतिके पञ्चमगुणस्थानकी उदयव्यच्छिन्न करने के लिये) एक अच्छा प्रमाण जरूर है; परन्तु प्रकृतियों को गिनाया है उसमें नीचगोत्रकम भी उसका कुछ महत्व तबही स्थापित होमकना है जब शामिल है, जिससे यह तात्पर्य निकलता है कि पहिले यह सिद्ध कर दिया जावे कि 'कर्मभमिज ग्रंथकारके मतसे मनप्यगतिमें नीचगोत्रकर्मका मनुष्योंको छोड़कर शेप मब मनप्यों मे किसी भी उदय पञ्चमगुणस्थान तक रहता है। पञ्चमगण- मनुष्यमें किसी समय पाँचवाँ गुणस्थान नहीं बन स्थान कर्मभमिके आर्यखंडमें विद्यमान पर्याप्रक सकता है।" मनुष्यके आठ वर्षको अवस्थाके बाद ही हो सकता यह तो निश्चित ही है कि भोगभूमिकं मनप्योहै *। इससे यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है के पञ्चम गुणस्थान नहीं होना । माथ ही, भोगकि कर्मकांडकार सम्मूर्छन और अन्तर्दीपज मन- भूमिया मनुष्य उपगोत्री ही होते हैं इसलिये वह
___ यहां उपयोगी भी नहीं । पाँच म्लेच्छ खंडोंमें भी * इस बातका स्पष्ट विधान करनेवाला कोई जयधवलाके आधार पर यह सिद्ध होता है कि भागम-वाक्य भी यदि यहाँ प्रमाण रूपमें देदिया जाता उनमें धर्म-कर्मकी प्रवृत्तिका प्रभाव है इसलिये वहाँ तो अच्छा होता।
-सम्पादक पर भी पंचमगुरणस्थान किसी भी मनुष्यके नहीं
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अनेकान्त
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हो सकता है। लेकिन थोड़ी देरके लिये यदि उनके और ३२९t के अर्थ पर ध्यान देने की जरूरत है। भी पाँचवाँ गुणस्थान मान लिया जाय तो भी इन दो गाथाओंमें सम्यक्त्वमार्गणाकी अपेक्षासे वकील सा० के मतानुसार तो वे उच्चगोत्री ही हैं कर्मप्रकृतियोंके उदयका निरूपण किया गया है, इसलिये उनके भी पांचवां गुणस्थान मान लेनेपर उसमें क्षायिक सम्यग्दृष्टिके पञ्चमगुणस्थानकी कर्मउनका प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता है। सम्मू- प्रकृतियोंकी उदयव्यच्छित्तिका निर्णय करते हुए
र्छन मनुष्योंके तो शायद वकील सा० भी पञ्च- लिखा है कि क्षायिक सम्यग्दृष्टि देशसंयत मनुष्य गुणस्थान स्वीकार नहीं करेंगे, इसलिये केवल ही हो सकता है तिर्यश्च नहीं, इसलिये पश्चमगुणअन्तर्वीपज मनुष्य ही ऐसे रह जाते हैं जिनके वि- स्थानमें व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियोंमेंसे तिर्यगाय, पछमें नीचगोत्री होनेके कारण वकील सा० की उद्योत और तिर्यगति की उदयव्युच्छित्ति क्षायिकपक्रमगुणस्थानकी संभावना सार्थक हो सकती है, सम्यग्दर्शनकी अपेक्षा चौथे गुणस्थानमें ही होजाती । और मेरा जहाँ तक स्नयाल है इन्हीं अन्तीपजों- है, बाकी पञ्चमगुणस्थानमें व्युच्छिन्न होनेवाली
की अपेक्षासे ही मुख्तार सा० पञ्चमगुणस्थानमें सभी प्रकृतियोंकी उदय व्युच्छित्ति क्षायिक सम्यनीचगोत्रके उदयकी सार्थकता सिद्ध करना चाहते म्हष्टि मनुष्यके भी पांचवें गुणस्थानमेंही बतलायी है हैं; परन्तु उनको मालूम होना चाहिये कि म्लेछ- उन प्रकृतियोंमें नीच गोत्र भी शामिल है,इससे यह
की तरह उन अन्तर्वीपजोंमें भी धर्म-कर्म की निष्कर्ष निकलता है कि क्षायिक सम्यग्दृष्टि पश्चमत्ति का अभाव है । । इसलिये यह बात निश्चित गुणस्थानवी मनुष्य भी नीचगोत्रवाला हो
कि पञ्चमगुणस्थानवर्ती नीच गोत्रवाले जो सकता है । क्षायिक सम्यग्दृष्टि नीचगोत्रवाला मनुष्य कर्मकाण्डमें बतलाये गये हैं वे आर्यखंडमें मनुष्य आर्यखंडमें रहनेवाला ही हो सकता है। बसनेवाले मनुष्य ही हो सकते हैं, दूसरे नहीं। दूसरा नहीं है। इसका कारण यह है कि दर्शनइसके विषयमें दूसरा प्रबल प्रमाण इस प्रकार .
कर्मकांड की वे दोनों गाथायें इस प्रकार हैंभम्बिदरुवसमवेदगखाइये सगुणोषमुवसमे खयिये ।
यह सम्ममुवसमे पुण शादिनियाण य हारदुगं ॥३२८ कर्मकांडमें क्षायिक सम्यग्दृष्टि पञ्चमगुण
खाइयसम्मो देसो गर एव जदो तर्हि ण तिरियाऊ ॥
उजोवं तिरियगदी नेसि प्रयदहिवोच्छेदो ॥३२॥ स्थानवी मनुष्यके भी नीचगोत्र कर्मका उदय
जब दर्शनमोहनीयकर्मकी चपणाका निष्ठापक बतलाया है, इसके लिये कर्मकाण्ड गाथा नं०३२८ "निढवगो होदि सम्वत्व" इस वाक्यके अनुसार सर्वत्र
हो सकता है तब मन्तद्वीपज मनुष्योंमें भी उसका निजो मन्तीपज कर्मभूमिसमप्रणिधि-कर्मभूमि- पंध नहीं किया जा सकता, और इसलिये "सायिकगोंके समान, मायु, उत्सेध तथा वृत्तिको लिये हुए हैं- सम्पष्टि नीचगोत्रवाला मनुष्य भार्यखण्डमें रहनेवाला उनमें भी च्या धर्मकर्मकी प्रवृत्तिका सर्वथा अभाव है? ही हो सकता है दूसरा नहीं," इस नियमके समर्थनमें यदि ऐसा है तो उसका कोई स्पष्ट भागम-प्रमाण यहाँ कोई भागम-वाक्य यहाँ उद्धृत किया जाता तो अच्छा दिया जाना चाहिये था। -सम्पादक रहता।
--सम्पादक
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मनुष्योंमें उन्चता नीचता क्यों ?
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मोहनीयके क्षपणका प्रारम्भ कर्मभूमिजो मनुष्य रंगा तो देवायुका ही करेगा दूसरी का नहीं, इससे ही करता है वह भी तीर्थकर व केवली श्रुतकेवली स्पष्ट है कि नीचगोत्र वाला देशसंयत जो मनुष्य के पादमूलमें ही। नीचगोत्रवाले मनुष्यके लिये जिस भवमें दर्शनमोहनीयका रुपण करके क्षायिक प्रतिबन्ध न होनेके कारण नीचगोत्रवाला कर्म- सम्यग्दृष्टि बनता है उस भवमें तो वह कर्मभूमिज भूमिज मनुष्य भी तीर्थकर आदिके पादमूलमें ही होगा, अब यदि वह मरण करेगा तो उपगोत्र जाकर दर्शनमोहनीयका क्षपण कर सकता है। वाले वैमानिक देवोंमें ही पैदा होगा, वहाँसे पथ क्षपण करने पर जब वह क्षायिक सम्यग्दृष्टि बन करनेपर वह नीचगोत्री मनुष्योंमें पैदा न होकर जाता है तब यदि वह नारकायु, तियेगाथु या मनुः -सम्यग्दर्शनगुदा नारकतिपनपुसंकत्रीत्वानि । प्यायुका बन्ध पहिले कर चुका हो तो वह देश
दुकुलविकृताल्पाघुरिदता र प्रति नाय संयम या सकलसंयम नहीं ग्रहण कर सकता है। प्रतिकाः ॥३॥ इसलिए उसकी तो यहाँ चर्चा ही नहीं, एक देवा- इसमें दुल शब्द ज्यान देने योग्य है। दुष्कुलका यका बन्ध करनेवाला ही देशसंयम या सकल- अर्थ नीचगोत्र-विशि कुन ही हो सकता है। पर क्यान संयम धारण कर सकता है। जिसने भायुबन्ध भायुका बन्ध नहीं करनेवाले सम्पतिको समय के नहीं किया है वह भी यद्यपि देशसंयम धारण कर किया गया है। सकता है परन्तु वह बादमें देवायुका ही बन्ध करता ख-दंसबमोहे खबिदे सिग्मदि ऐक्लेव तादिवतुस्विभवे । है अन्यका नहीं अथवा नीचगोत्री देशसंयत मनु- यादिकवि हरियमवं पविणस्सदि सेससम्मं ॥ प्य भी दर्शनमोहका क्षपण करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि
-पक गाथा, जीवकांर १.२३॥ बन सकता है, लेकिन वह भी यदि आयुर्बन्ध क- अर्थ-चायिक सम्पग्दर्शनको धारण करनेवासा कोई कि-मनुष्यःकर्मभूमिज एवं दर्शनमोहलपणप्रारम्भकोभवति जीव तो उसी भवमें मुक्त हो जाता है कोई तीसरे भवन
और कोई चौथे भवमें निषमसे मुक्त हो जाता है। --सर्वार्थसिदि, पृ०१०।
इसका पाश्य यह है कि तभवमोचगामी वो बसी ख-दसणमोहरक्खवणापहवगो कम्मभूमिजो मोसो। भवमें मुक्त हो जाता है, यदि सम्यक्त्व-प्राप्तिके पहिये तित्थयरपादमूले केवलिसुदकेवलीमूले ॥
नरका या देवायुका बन्ध किया हो तो अथवा मन्य -सर्वार्थसिद्धिटिप्पणी पृ. २६
पत्व प्राप्त करने के बाद देवायुका बन्ध करने पर तीसरे ग-दसणमोहक्खवणापहवगो कम्मभूमिजादो हु। भवमें मुक्त हो जाता है और सम्यक्त्व प्रासिके पहिले मणुसो केवखिमूले णिहवगो होदि सम्वत्थ ॥ यदि मनुष्य या तिरंगायुका पन्ध किया हो तो मोगभूमि
-गो जीवकांड ६४. में जाकर वहाँसे उपकुली देव होकर फिर चयन रबचित्तारि विखेसाइंभाउगबंधेशोह सम्मत्तं । कुखी मनुष्य होकर मोर चला जाता है,देशसंपत राषिक अणुवदमहत्वदाई व बहा देवाडगं मोतु ॥ सम्पटि तो उसी भवमें पा नियमसे देव होकर नहाँसे
-गो० कर्मकांड, ३१४ उबकुखी मनुष्य होकर मुक्त हो जाता है।
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अनेकान्त
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उचगोत्री कर्मभूमिज मनुष्योंमें ही पैदा होगा; इस पर उद्धृत किया जाता हैप्रकार यह निश्चित हो जाता है कि पंचमगुणस्थान- “कम्मभूमियस्स पडिवजमाणस्स जहएणयं संजम में जो मनुष्योंके नीचगोत्रकर्मका उदय बतलाया हाणमणंतगुणं । (चू० सू० ) पुग्विल्लादो असंखे. है वह कर्मभूमिज मनुष्योंकी अपेक्षासे ही बत- (य) लोग मेत्तघटाणाणि उवरि गंतूणेदस्स समुलाया है *, जिससे वकील सा० का मनुष्यगतिमें पत्तीए। को अकम्मूभूमिमीणाम ? भरहैरावयविदेहेसु नीचगोत्र कर्मका उदय सम्मूर्छन और अन्तर्वीपज विणीतसरिणवमम्झिमखंड मोतूण सेसपंचखंडविणि. मनुष्योंमें मानकर सभी मनुष्योंको उच्चगोत्री सिद्ध वासी मणुभो एत्थ "अकम्मभूतिओ" ति विवक्खियो । करनेका प्रयास बिल्कुल व्यर्थ हो जाता है। तेसु धम्मकम्मपवुत्तीए असंभवेण तन्मावोवखेवत्तीदो ।
आगे वकील सा० ने जयधवला और लब्धि- जइ एवं कुदो तस्थ संजमगहणसंभवो सि णासंकिणिज । सारके आधार पर यह सिद्ध करनेकी कोशिश की दिसाविजयदृचक्कवट्टिखंधावारेण सह मज्झिमखंडहै कि सभी मनुष्य उचगोत्री हैं। वकील सा० ने मागयाणं मिलेच्छरायाणं तत्य चावहिमादिहिं सह जादजयधवलाका उद्धरण दिया है उसके पहिलेका कुछ वेवाहियसंवन्धाणं संजमपरिवत्तीए विरोहाभावादो ।
आवश्यक भाग मुख्तार सा० ने अनेकान्तकी गत महवा तत्तत्कन्यकानां चक्रवादिपरिणीतानां गर्भेषत्पना तीसरी किरणमें श्री पं० कैलाशचन्दजी शास्त्रीके मातृपक्षापेक्षया स्वयमकर्मभूमिजा इतीह विवक्षिताः। तत लेख पर टिप्पणी करते हुए दिया है, वह सब यहाँ न किचद्विप्रतिषिदम् । तथाजातीयकानां वीलाहवे ____* दर्शनमोहकी पपणाका प्रारम्भ करनेवाला मनु- प्रतिषेधाभावाविति ।" प्य मरकर जब 'निढवगो होदि सम्वत्थ' के सिद्धान्ता- इस प्रकरणमें अकमभूमिज मनुष्यके भी नुसार सर्वत्र उत्पन होकर मिष्ठापक हो सकता है, तब संयमस्थान बतलाये हैं इससे यहाँ पर शंका उठाई वह कर्मभूमिसमप्रणिधि नामके अन्तदीपजों में भी है कि अकर्मभूमिज मनुष्य कौन है ? इसका उत्तर उत्पन हो सकता है और वहाँ उस सपणाका निष्ठापक देते हुए आगे जो लिखा गया है उसका अर्थ इम होकर सायिक सम्यनष्टि बन सकता है तब उसके पंच- प्रकार है-“भरत, ऐरावत और विदेह क्षेत्रों में मगुणस्थानवी हो सकनेमें कौन बाधक है, उसे मी विनीत नामक मध्यम (आर्य) खंडको छोड़कर शेष यहाँ स्पष्ट करदिया जाता तो अच्छा होता; तभी इस पांचमें रहने वाला मनुष्य यहाँ पर अकर्मभूमिज निष्कर्षका कि "पंचमगुणस्थानमें जो मनुष्यों के नीचगोत्र इष्ट है अर्थात् यहाँपर उल्लिखित पाँच खंडों में रहने कर्मका उदय बतलाया है वह कर्मभूमिज मनण्योंकी वाले मनुष्य ही अकर्म भूमिज माने गये हैं, कारण प्रपेशासे ही बतलाया है" ठीक मूल्य भांका जासकता
कि इन पांच खंडोंमें धर्मकर्मकी प्रवृति न हो था; क्योंकि गोम्मटसारकी उस गाथा नं. १०. में सकनेसे अकर्मभूमिपना संभव है। 'मणुससामरणे' पद पड़ा हुभा है, जो मनुष्यसामान्य- ___ यदि ऐसा है अर्थात् इन पाँच खंडोंमें धर्मका वाचक है--किसी वर्गविशेषके मनुष्योंका नहीं। कर्मकी प्रकृति नहीं बन सकती है तो फिर इनमें
संयममहणकी संभावना ही कैसे हो सकती है?
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वर्ष २, किरण ११]
मनुष्यों में उच्चता-नीचता क्यो !
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यह शंका ठीक नहीं है, कारण कि दिशाओंको यक्ति संगत है।" जीतने वाले चक्रवर्तीकी सेनाके साथ मध्यम (प्राय) - अब हमें विचारना यह है कि वकील सा० ने खंड में आये हुए और जिनका चक्रवर्ती श्रादिके
जयधवला और लब्धिसार के आधार पर जो तात्पर्य
निकाला है वह कहाँ तक ठीक है?साथ विवाहादि संबन्ध स्थापित हो चुका है ऐसे ।
इम शंका-समाधानसे इतना तो निश्चित है कि म्लेच्छ गजाओं के संयम ग्रहण करनेमें (भागमसे) जयधवलाके रचनाकालमें लोगोंकी यह धारणा विरोध नहीं है।
अवश्य थी कि मलेच्छखंडके अधिवासियों में मंयमअथवा उन म्लेच्छ राजाांकी जिन कन्याओं धारण करनेकी पात्रता नहीं है। यही कारण है कि
ग्रन्थकारने स्वयं शंका उठाकर उमके समाधान का विवाह चक्रवर्ती श्रादिसे हो चुका है उनके गर्भ
करनेका प्रयत्न किया है। और जब पहिला समाधान में उत्पन्न हुए ( व्यक्ति ) स्वयं ( कर्मभूमिज होते हुए उनको मंतीपकारक नहीं हुआ सब उन्होंने निःशंक भी ) मातृपक्ष की अपेक्षा इस प्रकरणमें अकर्म- शब्दों में मरा समाधान उपस्थित किया है ।"तथाभमिज मान लिये गये हैं, इसलिये कोई विवादकी जातीयकानां दीक्षान्वे प्रतिषेधाभावात्" -अर्थान वान नहीं रह जाती है, क्योंकि ऐसी कन्यासि चक्रवर्ती आदि के द्वारा विवाही गई म्लेच्छकन्याओं
के गर्भ में उत्पन्न मनप्योंकी संयमग्रहणपात्रतामें उत्पन्न हुए व्यक्तियोंकी संयमग्रहण-पात्रनामें प्रतिषेध
प्रतिषेध (गेक) श्रागम प्रन्थों में नहीं है, हम इंतु अथात राक ( श्रागमम ) नहा है। इपास मिलना परक वाक्यसे उन्होंने दमरे ममाधानमें निःशंकपना जुलना नब्धि मारका कथन है इसलिये वह यहाँ पर व मनोप प्रकट किया है । उद्धृत नहीं किया जाता है।
+ यहाँ पर 'अथवा' शब्द ही पहिले समाधानक इन दोनों उद्धरणीसे वकील माने यह आशय विषयमें ग्रन्थकारके असंतोषको जाहिर करता है क्योंकि
'अथवा' शन समाधानके प्रकारान्नरको मूचित करता लिया है कि "जा संयमग्रहणकी पात्रता उचगोत्री
है समुचयको नहीं, जिससे पहिले समाधान अन्धकारमनष्यक ही मानी गयी है तो चक्रवर्ती के माथ की भरुचि स्पष्ट मालूम पड़ती है। श्राये हुए म्लन्छ राजाओं के अागमप्रमाणसे जब वीरसेनाचार्यको वह समाधान स्वयं ही संयमग्रहणकी संभावना होने के कारण उच्चगोत्र संतोपकारक मालूम नहीं होना था तब उसे देनेकी कर्मका उदय मानना पड़ेगा और जब ये म्लेच्छ जलत क्या थी और उनके लिये क्या मजबूरी थी ?
-सम्पादक राजा लोग उच्च गोत्र वाले माने जा सकते हैं तो
श्री पं० साशचंद्रजी शास्त्रीने "तथा जातीय इन्हींके समान म्लेच्छ खंडोंमें रहने वाले मभी कानां दीक्षाहत्वे प्रतिपेधाभावान" इस हेनुपरक मनुष्योंको उच्चगोत्री माननेसे कोन इंकार कर वाक्यका दोनों समाधान-वाक्योंके साथ समन्वय कर सकता है । इस प्रकार जब म्लेच्छ खंडोंके अधि- राजा है; परन्तु वाक्यरचना व उसकी उपयोगिता
.. अनुपयोगिताको देखते हुए यह ठीक नहीं मालूम पड़ता वासी म्लेच्छ तक उच्चगोत्री सिद्ध हो जाते हैं तो फिर
है। "ततो न किञ्चिद्विप्रतिपिद्धम्" इस वाक्यार्थपाखंडके अधिवासी किसी भी मनष्यको नौच मनसतपरक वाक्यसे होता है और गोत्री कहनेका कोई साहस नहीं कर सकता है- "ततो न किचिद्विप्रतिषिद्धम" यह वाक्य दूसरे ऐसी हालतमें सभी मनष्योंको उचगोत्री मानना ही समाधान वापसे ही संबद्ध है-यह बात स्पष्ट हो।
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अनेकान्त
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पहिले समाधानके विषय में ग्रंथकार सिर्फ इतना संयम ग्रहण करनेके अधिकारी हैं। दूसरी बात यह ही प्रकट करते हैं कि "जिन म्लेच्छराजाओंके चक्र भी है कि यदि म्लेच्छखण्डके अधिवासियोंमें वर्ती आदिके साथ वैवाहिकादि संबन्ध स्थापित हो संयमग्रहणपात्रता स्वभावसे विद्यमान रहती है चुके हैं उनके संयम ग्रहण करनेमें आगमका विरोध तो पहले तो ग्रन्थकारको पहिले समाधानमें अपनी नहीं है।" इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि अरुचि जाहिर नहीं करनी थी । दूसरे, ऐसी ग्रन्थकार यही समझते थे कि आगम ऐसे लोगोंके हालतमें म्लेच्छखंडोंमें धर्म-कर्मकी प्रवृत्तिका असंसंयमधारण करनेका विरोधी तो नहीं है परन्तु भवपना कैसे बन सकता है बल्कि वहाँ तो हमेशा संयम धारण तभी हो सकता है जब कि संयम- ही धर्म-कर्मकी प्रवृत्ति रहना चाहिये; कारण कि ग्रहण-पात्रता व्यक्तिमें मौजूद हो, म्लेच्छ खंडके वहाँ पर हमेशा चतुर्थकाल ही वर्तता रहता है । अधिवासियों में संयमग्रहणपात्रता स्वभावसे नहीं और ऐसा मान लेने पर जयधवला व लब्धिसाररहती है बल्कि आर्यखंडमें आजाने पर आर्योंकी का यह शंका-समाधान निरर्थक ही प्रतीत होने तरह ही बाह्य प्रवृत्ति होजानेके बाद उनमें वह लगता है । इसलिये जयधवला व लब्धिसारके इन (संयमग्रहणपात्रता) आ सकती है लेकिन यह उद्धरणोंसे यही तात्पर्य निकलता है कि म्लेच्छनियम नहीं कि इस तरहसे उनमें संयमग्रहण पात्रता खण्डके अधिवासियों में स्वाभाविक रूपसे संयम
आ ही जायगी।" इसीलिये 'अथवा' शब्दका प्रयोग ग्रहण-पात्रता नहीं रहती है, लेकिन आर्यखण्डमें करके प्रन्थकारने पहिले समाधानमें अरुचि जाहिर आजाने पर आर्योके साथ विवाहादि संबन्ध, की और दूसरे समाधानकी ओर उन्हें जाना सत्समागम, सदाचार आदिके द्वारा प्राप्त जरूर की पड़ा है तथा उस (दूसरे) समाधानकी पुष्टि जा सकती है। यह संयमग्रहण-पात्रता ( जैसा कि में उन्होंने स्पष्ट जाहिर कर दिया है कि चक्रवर्ती वकील सा० ने स्वीकार किया है ) उच्चगोत्र कर्मके
आदिके द्वारा विवाही गयी म्लेच्छ कन्याओंके गर्भ उदयको छोड़कर कुछ भी नहीं है, जिसका कि में उत्पन्न हुए मनुष्योंकी संयमग्रहणपात्रतामें तो अनुमान सत्ति , सभ्यव्यवहार आदिसे किया
आगम भी रोक नहीं लगाता है ® वे तो निश्चित ही जा सकता है । इसलिये जयधवला व लब्धिसारके दूसरी बात यह है कि इस वाक्यका दोनों समाधान- इस कथनसे गोत्रकर्म-परिवर्तनका ही अकाट्य वाक्योंके साथ समन्वय करनेसे प्रकारान्तर-सूचक 'अथवा' समर्थन होता है। शब्दका कोई महत्व नहीं रह जाता है, यह भी ध्यान यह भी एक खास बात है कि यदि वकील सा० देने योग्य है।
पागम तो पहले प्रकारका भी विरोधी नहीं है, अरुचि जाहिर नहीं की, यह बात 'गोत्रकर्म पर यह बात लेखक द्वारा उपर प्रकट की जा चुकी है तब इस शास्त्रीजीका उत्तर लेख' नामक मेरे उस लेखके पढ़नेसे कथनमें, क्या विशेषता हुई, जिसके लिये 'बागम भी स्पष्ट समझमें भा सकती है जो अनेकान्तकी श्वी किरण मादिशब्दोंका प्रयोग किया गया है? -सम्पादक में प्रकाशित हुमा है।
-सम्पादक
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वर्ष २, किरण ११]
मनुष्यों में उन्नता-नीचता क्यो!
के मतानुमारही जयधवला व लब्धिसारका तात्पर्य शूद्रों की कल्पना करनी पड़ी है। कुछ भी हो परन्तु लिया जायगा, तो वह कर्मकाण्डके विरुद्ध जायगा; इतना तो मानना ही चाहिये कि आर्यखएरके कारण कि कर्मकाण्डमें क्षायिक सम्यग्दृष्टि देश. अधिवासी जो मनुष्य नीच गोत्री हैं वे शूद्र हैं संयत मनुष्य तकको नीच गोत्री बतलाया है,जो कि और वे ही कर्मकाण्डके अनुसार पञ्चम गुणस्थानकर्मभूमिया मनुष्य ही हो सकता है । इस प्रकार वर्ती क्षायिक सम्यग्दृष्टि तक हो सकते हैं । इस जब कर्मकाण्ड मनुष्योंको उचगोत्री और नीचगोत्री विषयमें धवलसिद्धान्त भी कुछ प्रकाश गलता दोनों गोत्र वाला स्पष्ट बतलाता है तो ऐसी हालत हैमें वकील सा० का जयधवला और लब्धिसारके धवलसिद्धान्तमें गोत्रकर्मका निर्णय करते हुए उद्धरणोंका उससे विपरीत अर्थात "सभी मनष्य एक जगह लिखा है कि-"उज्वैर्गोत्रस्य कण्यापारः" उच्चगोत्री हैं" आशय निकालना बिल्कुल अयक्त है अर्थात उच्चगोत्र कर्मका व्यापार कहाँ होता है ? प्रत्युत इसके, जयधवलाकार व लब्धिसारके कर्ता- इम शंकाका समाधान करनेके पहिले बहुतसे के मतसे जब यह बात निश्चित है कि 'म्लेच्छखंड- पूर्वपक्षीय समाधान व उनके खण्डन के सिलसिले में के अधिवासियोंमें संयमग्रहणपात्रता न होने पर लिखा है- "मेषवाकुकुखायुत्पत्तौ ( उच्चैर्गोत्रस्य भी वह आर्यखण्डमें आ जाने के बाद सत्समागम म्यापारः) काल्पनिकाना तेपी परमार्थतोऽसवान, वितआदिसे प्राप्त की जा सकती है तो इसका सीधा बामण-साधुष्वपि उम्पेगोत्रस्योदयदर्शनाच"। सादा अर्थ यही होता है कि उनके गोत्र-परिवर्तन अर्थ- “यदि कहा जाय कि इक्ष्वाकु कुल आदि होजाता है और ऐमा मानना गोम्मट्रसार सिद्धान्त क्षत्रिय कुलाम उत्पन्न होने में उच्चगोत्र कर्मका ग्रन्थके साथ एक वाक्यताके लिये आवश्यक भी है। व्यापार है अर्थात "उचगोत्र कर्मके उदयसे जीव यह गोत्र-परिवर्तन करणानयोग, द्रव्यानयोग, इक्ष्वाकुकुल आदि क्षत्रिय कुलों में उत्पन्न होता है" चरणानुयोग और प्रथमानयोगस विरुद्ध नहीं- ऐसा मान लिया जाय तो ऐमा मानना ठीक नहीं यह बात हम अगले लेखद्वारा बतलावेंगे। है क्योंकि एक तो ये इक्ष्वाकु आदि क्षत्रिय कुल
आर्यखण्डके विनिवामी मनुष्यों में भी कोई वास्तविक नहीं है, दुसरं वैश्य, ब्राह्मण और माधुउच्चगोत्री और कोई नीचगोत्री हश्रा करते हैं और अमि भी उदगोत्र कमका उदय देखा जाता है जो नीचगोत्री हुआ करते हैं वे ही शूद्र कहलाने अर्थान आगममें इनको भी उच्चगोत्री बतलाया लायक होते हैं, इसका अर्थ आज समयमें यह गया है" नहीं लेना चाहिये कि जो शूद्र हैं वे नीच गोत्री हैं, इन सभी बातोंके ऊपर यथाशक्ति और यथाकारण कि भाजके समयमें बहतमी उच्च जातियों- संभव अगले लेख-द्वारा प्रकाश डाला जायगा। का भी शूद्रोंके अन्दर समावेश कर दिया गया है। विवाग्रम्पका यह उद्धरण मुस्तार मा.. और जहाँ तक हमारा खयाल जाता है शायद यही “ऊँचगोत्रका म्यवहार कहाँ ?" शीर्षक भनेकान्तकी वजह है कि जैनविद्वानोंको सन शुद्र और असन गत दूसरी किरणमें प्रकाशित लेख पर लेनिया गया है।
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अनेकान्त
[भाद्रपद, वीर-निर्वाण सं० २०६५
इसमें उच्चगोत्रकर्मके उल्लिखित लक्षणको १-साधु शब्द यहाँ पर स्पष्ट लिखा हुआ है। असंभवित और श्रव्याप्त बतलाया गया है, अव्याप्त २-क्रमिक लेखमें ब्राह्मणके बाद शूद्रका उल्लेख इस लिये बतलाया गया है कि वह लक्षण उच्च ठीक नहीं जान पड़ता, यदि ग्रन्थकारको शूद्र शब्द गोत्रवाले वैश्य ब्राह्मण और साधुओंमें नहीं प्रवृत्त अभीष्ट होता, तो वे 'शूद-विद्माह्मणेषु' या 'ब्राह्मण होता है । क्योंकि वैश्य और ब्राह्मणोंके कुल क्षत्रिय विशूद्रेषु' ऐसा उल्लेख करते। कुलोंसे भिन्न हैं तथा साधका कोई कुल ही नहीं ३-व्याकरणकी दृष्टि से भी 'विद् ब्राह्मण शूदेषु' होता है, उसके साधु होनेके पहिलेके कुलकी यह पाठ उचित नहीं जान पड़ता है। अपेक्षा भी नष्ट हो जाती है, यही कारण है कि ४-कर्मभूमिज मनुष्योंमें साधु भी शामिल हैं कुलोंकी वास्तविक सत्ता धवलके कर्त्ताने नहीं तथा वे उच्च गोत्री है इसलिये उनका संग्रह करने स्वीकार की है।
__ के लिये 'साधु' शब्दका पाठ आवश्यक है । यद्यपि धवल ग्रन्थके इम उद्धरणसे यह साफ तौर यह कहा जासकता है कि "यहां पर कर्मभूमिज पर मालम पड़ता है कि ग्रंथकार कर्मभूमिज मनुष्य मनुष्योंका ही ग्रहण है" इसमें क्या प्रमाण हैं ? में वैश्य, क्षत्रिय, ब्राह्म ग और साधुओंमें ही उच्च इसके उत्तरमें यह कहा जासकता है कि हतु परकगोत्र स्वीकार करते हैं, शूद्रोंमें नहीं । इससे यह वाक्यमें ग्रंथकारने उच्चगोत्री देव और भोगतात्पर्य निकालना कठिन नहीं है कि "नीच गोत्री भूमिज मनुष्योंका संग्रह नहीं किया है। कर्मभूमिज मनुष्य शूद्रोंकी श्रेणीमें पहुँचते हैं।" इस प्रकार यह बात बिल्कुल स्पष्ट है कि
यद्यपि मुख्तार सा० ने 'साधु' शब्दके स्थान सम्मूछन और अन्तर्वीपज मनुष्योंकी तरह पांच पर 'शूद्र' शब्द रखनेका प्रयत्न किया है परन्तु वहाँ म्लेच्छखंडोंमें रहने वाले म्लेच्छ और कोई कोई पर शूद्र शब्द कई दृष्टियोंसे संगत नहीं होता है। कर्मभूमिज मनुष्य भी नीच गोत्री होते हैं इसलिये वे दृष्टियां ये हैं
बाबू सूरजभानुजी वकीलका यह सिद्धान्त कि
. 'सभी मनुष्य उच्चगोत्री हैं-' आगमप्रमाणसे प्रकरणवश यहां पर यह भी उल्झेख कर देना। उचित है कि मुख्तार सा. "मार्यप्रत्ययाभिधान बाधित होनेके कारण मान्यताकी कोटिसे बाहिर व्यवहार निबन्धनानां पुरुषाणां संतानः उच्चैर्गोंत्रिम्" है । लेख लंबा हो जानेके सबबसे यहीं पर समाप्त इसके अर्थमें स्पष्टता नहीं ला सके हैं । इसका स्पष्ट किया जाता है । गोत्र क्या ? उसकी उच्चता-नीचता अर्थ यह है कि-'आर्य' इस प्रकारके ज्ञान और 'पाय'
क्या ? तथा उसका व्यवहार किस ढंगसे करना इस प्रकारके शब्द प्रयोगमें कारणभूत पुरुषोंकी संतान
उचित है ? आदि बातों पर आगेके लेख द्वारा उमगोत्र है। इसका विशद विवेचन भी भागेके लेखमें किया जायगा।
प्रकाश डाला जायगा । इति शम्
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जगत्सुंदरी-प्रयोगमाला
लेखक-दीपञ्च पांच्या जैन, नदी]
मानेकान्त वर्ष २के ६ अंकमें 'योनिप्राभूत और जग- वजहसे प्रतिमें बहुत अशुद्धियाँ होगई है ।। खैर, जैसी
- त्सुन्दरी-योगमाला'-शीर्षक एक लेख प्रकाशित कुछ प्रतिलिपि है उसीके आधार पर यह लेख तैयार हुआ है। उसमें, पं० बेचरदासजीके गुजराती नोटोंके किया गया है, और इसीमें सन्तोष है।
आधार पर, उक्त दोनों ग्रन्थोंके संबंध, संपादक महो- कर्तृत्व-विषयक उल्लेख दयने परिचयात्मक विचार प्रकट किये हैं । उक्त लेखसे
इस ग्रंथके कर्ता जसकित्ति-यशःकीर्ति मुनि है. प्रभावित होकर "जगत्सुन्दरी-प्रयोगमाला" की स्थानीय जिसके स्पष्ट उल्लेख प्रतिमें इस प्रकार है
का बहिरंग और अंतरग अध्ययन करनक पश्चात् जस-इत्ति-णाममुणिणा भणियं णाऊण कजिसवंच। मैं इस लेखद्वारा अपने विचार अनेकान्तके पाठकोंके वाहि गहिउ विहु भम्वो जा मिच्छत्ते स मंगिला ॥ मामने रखता हूँ।
-प्रारंभिक परिभाषा-प्रकरण, गाथा १३ जगत्सुन्दरी प्रयोगमालाका साधारण परिचय गिरहेम्वा जसहती महि वलए जेण मणुवेण । यह एक वैद्यक ग्रंथ है । इसकी रचना प्रायः
-श्रादिभाग, गाथा २७ प्राकृतभाषामें है । कहीं कहीं बीच बीच में संस्कृतगद्यमें इस जगमुंदरी-पभोगमालाए मुणि जमकित्तिविराए......
और मंत्रभागमें कहीं कहीं तत्कालीन हिन्दी कथ्य णाम....."अहियारो समत्तो । भाषा भी है । इसके अधिकारोंकी संख्या ४३ है।
-प्रत्येक अधिकारको अन्तिम मंधि
जस-इलि -सरिस धवलोस उ भमय-धारा-अवेशपरिसंत स्थानयप्रतिमें ५७ पृष्ठ हैं और हर एक पृष्ठमें २७ चितिय-मिना भइ पासणं भव मिरच-स्व ॥ गाथा, इस तरह इस प्रतिमें करीब १५०० गाथाएँ हैं ।
-शाकिन्यधिकार, गाथा ३६ स्थानीय प्रति अधरी है-कौत हलाधिकार तक ही है।
ग्रंथकारका समय यह अधिकार भी अपूर्ण है । शाकिनी विद्याधिकारका यशःकानि मुनि कब और कहाँ हए, इन्होंने किन भी १पृष्ठ उडा हुअा-गायब है । इस ग्रन्थकी एक शुद्ध किन ग्रन्थोंकी रचना की और इनके मम-ममायिक प्रति जौहरी अमरसिंह जी नसीराबाद वालोंके पास है ।
प्रो. ए.एन. उपाध्यायकी प्रतिमें इस गाथाका आजसे ७-८ वर्ष पूर्व उस प्रतिको पं० मिलापचन्द जी
दूसरा चरण "शुभमयधरो जवेगवरिमंति" ऐसा दिया
म कटारथा केकड़ी लाये और प्रतिलिपि कराई । प्रतिलिपि- है। और उत्तरार्ध ''की जगह 'दु' तथा 'मिछुम्बकी कारके हस्तलिखित ग्रन्थोंके पढ़नेमें अनभ्यस्त होनेकी जगह 'मिन्चव' पाठ पाया जाता है।
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अनेकान्त
[माद्रपद, वीर-निर्वाण सं०२४६५
विद्वान्-शिष्यादि कौन कौन थे इस विषयमें साधनाभाव इस ग्रंथके अधिकारोंकी गाथाएँ तथा स्थानीय प्रतिके प्रशस्ति-विकल होनेके कारण हम निश्चयपूर्वक कुछ भी नहीं लिख सकते । केवल
प्रारंभिक परिभाषादि प्रकरणकी गाथाएँ ५४, अनेकान्तमें प्रकाशित दक्कनकालिज पनाकी प्रतिके लिपि- १ ज्वराधिकारकी ४७, २ प्रमेहकी ६, ३ मूत्रकृच्छकी संवत्के आधार पर इतना कह सकते है कि ये १५८२ १२, ४ अतिसारकी २१, ५ ग्रहणीकी ५, ६* पाण्डुकी विक्रमसे पहले हुए हैं। यशःकीर्ति नामवाले जैनमुनि ७, ७ रक्तपित्तको १०,८शोषकी ११, ६ श्रामवातकी ६, कई होगये हैं
१० शूलकी ५, ११ विशूचिकाकी १०, १२ गुल्मकी १-प्रबोधसार ग्रंथके कर्ता ।
१८, १३ प्रदरकी १४, १४ छर्दि की ६, १५ तृष्णाकी २-जगत्सुन्दरीके कर्ता, इनके गुरुका नाम धणेसर, २१, १६ हर्षकी १५, १७ हिक्काकी ७, १८ कासकी १७,
सं० १५८२ वि० पर्व, पर कितने पर्व यह अज्ञात है। १६ कुष्ठकी ४७, २० शिरोरोगकी २४, २१ कर्णरोगकी ३–सुनपत नगरके पट्टस्थ-१५७५ वि० में होनेवाले १७, २२ श्वासकी ७, २३ व्रणकी= ३३, २४ भगंदरकी
गुणभद्र भ०के दादागुरु । ये माथुर संघके पुष्कर ६, २५ नेत्ररोगको ३६, २६ नासारोगकी ६, मुखरोगकी गणमें हुए हैं, समय १४७५-१५०० विक्रमाब्दके ६, २८ दंत रोगकी १३, २६ कंठरोगकी १०, ३० स्वर लगभग ।
भेदकी ८, ३१ शाकिनी-भूतविद्याकी २६०, ३२ बाल४-मूलसंघीय पद्मनंदि भ० के प्रशिष्य सकलकीर्ति के रोगी स्वमत ७२, रावणकृतकुमारतंत्रके अनुसार ७७,
शिष्य और पांडवपुराणदिके कर्ता शुभचन्द्र के गुरु ३३ पलित हरणकी अनुमान ३००,३४ वमनकी १०, समय . १५७५से पूर्व
३५ कौतूहलाधिकार अपूर्ण उपलब्ध प्रमाण २४०, ५-६ माघनंदि तथा गोपनंदिके शिष्य; इनका वर्णन शेष अनुपलब्ध ८ अधिकारों के नामकी गाथाएँ इस
"जैन शिलालेखमंग्रह" के ५५ वें लेख में है। प्रकार हैं७-विश्वभूषणके शिष्य, जो माथुर संघके नंदीतटगण ... के हैं; समय १६८३ विक्रमके लगभग ।
३ चंद्रप्रभु चरित्रके कर्ता । ( ये तीन ग्रन्थ जयपुर
पाटोदीके मंदिरमें है) ४ रनकीर्तिके दीचित शिष्य यशःकीर्ति नामके और भी कई मुनि हुए होंगे, हमें
और गुणचन्द्र के गुरु । नेमिचन्द्र के पट्टशिष्य । उनके विषय में हाल जात नहीं है।
६ हेमचन्द्र के प्रपद्य और पभनन्दिके पट्टशिष्य तथा क्षेम+ इनका नाम 'पार्श्वभवांतर' नामक प्राकृत
कीर्तिके गुरु (लाटीसंहिता प्र०)। . गणितसार संग्रहकी
कातिक गुरु (लाटासाहता प्र०) ग कायमें नसकित्तिके बजाय जयकीति है।
एक प्रति वि०सं०१८२३ में अपने हाथसे लिखने वाले। इनके अतिरिक्त 'यशःकीर्ति' नामके जिन और
-संपादक विद्वानोंका परिचय अथवा उल्लेख मेरे रजिष्टर (ऐति
* इसमें राजवंध सयका भी वर्णन है। हासिक खाताबही)में दर्ज स प्रकार है
१ गुणकीर्तिके शिष्य और पांडवपुराण तथा हरि- 1 इसमें भ्रम व अग्निवर्धनका भी वर्णन है। वंशपुराण प्रा. के कर्ता । ललितकीर्तिके शिष्य और = इसमें नाडी प्रण गंडमालाका भी वर्णन है। धर्मशर्माभ्युदयकी 'संदेहस्वान्तदीपिका' टीकाके कर्ता। इस अधिकारके भन्तमें संधि नहीं है।
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वर्ष २, किरण ११]
जगत्सुंदरी-प्रयोगमाला
बाबा-गाह गा, बत्तीसा सत्ततीस बोदना समिळण दुजवेता परतंति ()मण तात्ये रा(प)ईखवा हियागे सायम्यो बहतीसोच ॥२॥ जे सुन्दरे विकल्वे गुणा विदोसविषा ति ॥ क्सितत्तस्सहिषारो उहतासीलो मुणी िपणतो। दोसेहि तेहि गहिये हिवाम (1) सेसगुपचीप महत्वा कामतवाहियारो चालीसो एकताल तियविग्यो ।२६। जापंति सेक्ष णमिमो शबाब परमाए भत्तीए ॥on बादास गंधजुत्ती तेहान सरोवई उ उपएसो।
इन सात गाथानों के बाद "समिळवावविज्" ३६ जाला-गर्दभ (क्षुद्ररोग), ३७ लता (क्षुद्र विष), श्रादि वे ५ गाथाएँ है जो अनेकान्त पृ. ४ की ३८ राईण्हय ( ? ), ३६ विषतत्व (तंत्र), ४० कामतस्व "विषगुरुपायमूळे" नामकी गाथाके बाद प्रकाशित हुई (तंत्र), ४१ तियविज (स्त्रीवैध ?), ४२ गंधयुक्ति ?, हैं। उनका इस प्रति परसे इस प्रकार पाठभेद * पाया ४३ सरोवई (स्वरोत्पत्ति ?)
जाता है-गाथा ८-पुद्यविज्जे (ज), प्राउविजतम्रो इस तरह इसग्रंथमें पूरे ४३ अधिकार है । अनुप- (विजं तु ), गाथा ६-सुललियपयबंध ( पवयण) लन्ध ८ अधिकार पनाकी प्रतिमें अवश्य होंगे; ऐसी भुवणम्मि कव्वं ( सारं ); गाथा १०-अम्हाण पुणो संभावना है।
परिमियमईण (अम्हण पुणो परिमियमयण ), विद्धि ग्रंथका प्रारंभिक भाग
मणसेरण ( वेहसवणेण); गाथा ११-काममूलं (मोक्वं) 1 मपणकरिणो विदिल्यं संजमणहरेहि जेण कुंभवडं गाथा १२-हारीयचरय (गग्ग) सुस्सुवविजयमत्ये तं भुवणे सुमइंदं । यमहजए पसरिषपभावम् ॥१॥ अयाणमाणो वि(उ)। जोगेहि तवयमाला (जोगा तहवि) तरणमह जोहणाई भसरीरो,कोहमोहमयहीणो मणामि जगमुन्दरीणाम बीको परमम्मि पए निरंजयो को वि परमप्या ॥२॥ इन १२ गाथाओं से प्रादि की ४ गाथाओंमें क्रमसे तएणमहसुपाएवि(वी) जीए(जाय)पसाराव सवलसत्यावं मुमतींद्र अथवा सुमृगेंद्र (मुमइंद) को सिद्ध और भुत गच्छति मत्ति पारं बुद्धिविहीणा विडोयम्मि ॥३॥ देवीको तथा अपने गुरु धनेश्वरको प्रणाम किया है, सुवचा मग्मि (ज्म) बमोजस्स (जाब) पसाराव गाथा५-६-७में सज्जन-दुर्जनको नमस्कार किया है और एत्य संपत्तं
१२वीं गाथामें अपनी लघुता प्रकट करते हुए ग्रंथकारने गमिळय तस्स चलखे भावेश धनेसरगुरुस्स am
जगस्मुन्दरीयोगस्तवकमाला कहनकी प्रतिज्ञा की है। गमिण परममत्तीए सज विमनसुन्दरसहावे
चिकित्साके एक अधिकारका नमूना जे विम्गुबे विकम्बे इवित्ति (1) दोसा र अति ॥ सामणिरामो बाळ गहमीदोसंबए बोए । •अनेकान्तमें किसी किसी अधिकारका नाम राखत
- सकं बसपरिमाणं वा अणुवासणं होई ॥१॥
माहवा बहु विरुवाई मलसंघ परइ पुण धम्मस्म । पप गया। को पाठ मराब है।
मा गंपिय भाषा महब सिही अंधखो दोह॥२॥ प्रो. ए. एक उपायावतीकी प्रतिमें 'भक्के मजा-अमोष-वि महोसह दारिमं जबा सहय। समुइंद' पाठ है। इसीतरह और भी अन साधारण एकम्मि कमो बाबुमो पीचो गहबीए (५) बासेह ॥ पाउमेद है।
* कोलो पाठ अनेकान्तक है।
राम
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अनेकान्त
[भाद्रपद, वीर-निर्वाण सं० २४६५
%3D
णापर-पच्चा तह वारिमंच मगहाए संवृत्तं । जगसुन्दरीके 'उक्तंच' आदि आधारभूत उल्लेख मागुत्तरेख पीयं पक्षासणं गहंवि-रोपस्स nem
-"विस-वेषण-रत्तक्खय-भय-वाही-संकिलेसेहिं । जब-(ब) विद्य-मज्वं कवित्व सुरहास्वापरा-सहि उसासा-शारा जिरोहणं (दो) विज्जदे माळ।" रस-भरे पीयं खासइ गहणी स पइसारे ॥५॥
-परिभाषाप्रकरण, गाथा ३० इस जगसुन्दरीपयोगमाखाए मुणिजसवित्तिविरइए गह- २--"यदुक्तं--भोजनीय माहिषदधि, ग्रहणी-विकारे वीपसमणो णाम पंचमो-हिवारो सम्मत्तो।
भक्तं मुग्दरसंच । अपर-वटिकायां रोगिणं बहुभिर्वस्त्रैः इस अधिकारमें आदि की दो गाथाओं-द्वारा रोगका प्रच्छाया (दयेत् ), यावत्प्रस्वेदं निर्गच्छति "गात्रे निदान अवस्थाभेद और उपचारका कथन किया है और तदुत्यच्छायत्ततः (१) नो चंद (चेत्) भद्रकं भवति अन्त की ३ गाथाओंमें ग्रहणीनाशक तीन प्रयोग दिये तु (त्रि) दोषवटिका-" है, वे इस प्रकारहै -
-पलितहरणाधिकारे, पत्र ४३ __ योग १-चित्रक, अजमोद, बेलगिरी, सोंठ, अना- ३-"वीशलेनोक्तं पारद मासा १ ताम्र प (पा) रदाने, जव (या इन्द्रजव) (सबसम भाग) इनका एकत्र ज्यां मण्डूकपर्णीरसेन अतिकैका दिनमेकपर्यन्तं, ततः खलुश्र ( काढ़ा !) पीनेसे संग्रहणी नास होती है। केशराजरसेन, (ततः) तित्तिरंडारसेन, ततो मुद्ग-प्रमाण
योग २-सोठ १ भा० हरड २ भा०, अनारदाना वटिका कार्या ज्वरे सनिपातादौ पूर्वोपचारेण सप्ताहमेकं ३ भा० पीपल ४ भाग-सबको चूर्ण करके सेवन करने पिवेत् । चक्षुः शूल विस्फोटक कृतानि वर्जयित्वा सर्वन्यासे संग्रहणी शांत होती है।
धीनुपशामयति।" ___ योग ३-जामुनकी, श्रामकी, और बेलकी मजा
-पलितहरणधिकार, पत्र ४५ (गिरी या गदा), कैथ (कवीठ), देवदारू, सौंठ, सम- ४--"सिंह-प्रसेणमवदी सिंहो जांबवतो हतः। भाग चूरण करके चांवलके मांडसे पीनेसे अतिसार सुकुमार-कुमारो दी तब द्वेष समंतक, । ७५-७८१ इति (दस्त) और संग्रहणी नाश होती है ।
मह पणमिळण सिरसा मुणिसुम्वय-तित्यणाह-पय-जुमलं प्रोफेसर ए० एन० उपाध्यायकी प्रतिमें इस बोच्छामि बाजतंतं रावण रइयं समासेण ॥॥" अधिकारकी गाथाएँ ६ दी हैं। यहाँ स्थी गाथाका
-बालरोगधिकारका मध्य भाग जो उत्तरा दिया है वह उसमें रवीं गाथाका उत्तरार्ध है
५-"एवंभूततत्तयर संखितं भासियं मए एत्य और यहाँ जो गाथा श्वें नं. पर दी है वह उसमें छठी वित्थरदो जायन्यो सुग्गीवमए अहव जामिणी हि पण७३ गाथा है। यी गाथाका उत्तरार्ध और चींका पूर्वार्ध महसय अच्छरियाभो महम्म-महरयण-पाहुवरामो क्रमशः उसमें निम्न प्रकार दिये हैं--
सुहमणयहदभंगिय विसुद्धभूपत्थसत्याभो ॥७॥ बडागुडेण वडया विजइ गहणीविणासेह। मुणिजणणमंसियाभो कहि पि गाउण विंदु-सय-भायं हिंगुसोपवलं सुंठी पचा तह विडंगचण्णसंजतं । वोच्छामि किंपि पयको निणवयनमहा समुहामो ॥७॥ इन गाथानों के पाठमें और भी कुछ साधारण-सा ....
-शाकिन्यधिकारमें, ज्वालामालिनी-स्तोत्रके बाद भेद।
यह माथा गोम्मट-कर्मकांडकी।
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वर्ष २, किरण ११]
जगत्सुंदरी-प्रयोगमाला
तत्कालीन कथ्यभाषाका नमूना नमो पावरुद्राय" मंत्रकी संभावना होनी चाहिये । कुछ "सुल घाटी काठे मंत्र-(शाकिन्यधिकारे) शब्दपरिवर्ततनके साथ यही मंत्र मतिसागरसूरिके
कुकासु बाढहि उरामे देव कउ सुजा हासु खाडतु “विद्यानुशासन" में पाया जाता है। (सूर्यहास खग) कुकास वाढइ हाक उ कुरहाडा लोहा ५--३८वें और ४३वे अधिकारों के नाम समझमें राणउ श्रारणु वम्मी राणी काठवत्तिम साण कीधिणि जे नहीं आये। हो सकता है, अनुपलब्ध अधिकारों में गेउरिहि मंत, ते रुप्पिणिहि तोडउ सुलके मोडलं सूलु मुभिक्ष; दुर्भिक्ष, मानसज्ञानादि, व विद्याधरवापीयंत्रादि, घाटीके मोड उं घाटीतोड उं काठेके मोड उं कांठे सूलघाटी। धातुवाद और मंत्रवादका उल्लेख हो। "मंत्रवाद" नामसे कांठे मंत्र-"उड मुड स्फुट स्वाहा ।" इसके श्रागे मंत्रविषयक महान् ग्रंथ होना भी चाहिये, इसका उल्लेख कक्ख-विलाई (कांख की गांठ-काखोलाई) का मंत्र है। रामसेनके 'तत्वानुशासन' और 'विद्यानुशामन' में भी जगत्सुन्दरीके विशेष विवरण और विशेषताएँ पाया जाता है, या ये वर्णन 'जोणीहुई' के होंगे।
१-"पलितहरण" नामक ३ ३वें अधिकारमें कई ६---'ज्वालामालिनीस्तोत्र' का ग्रंथका अंगत्व । रसायन (कीमिया) के प्रयोग हैं, और उममें 'हस्ति- --+ रावणकृत 'कमारतंत्र' के अनुसार वर्णन पदक, विडालपदक, तोला, मासा, रत्ती, ये मापवाची और मुग्रीवमत व ज्वालिनीमतका उल्लेख आदि ।
शब्द आये हैं । उन प्रयोगोंको प्रायः सरस संस्कृत गद्यम वियगरु' गाथा पर विचार लिखा है और 'हिंडिका' (हांडी) जैसे कथ्यशब्द काम में कुवियगुरु पायमूले गहु बदं भनि पाहुरं गंथं । लाये गये हैं।
महिमाणेण विरहयं इस अहिवारं सुस......... । २-"कौतूहलाधिकार" नामक ३५वे अधिकारका प्रथम तो यह गाथा त्रुटिन है, और 'गणमिऊग्ण आयुर्वेद के साथ कोई खास मंबंध नहीं है। फिर भी इम पुब्वविजे' गाथाके पर्व तो हम गाथाकी स्थिति ही अधिकारमें कई चमत्कारी वर्णन है पर उनमें मधुमाम मंदिग्ध है । शायद यह अशुद्ध भी हो और खून आदिका खुले तौर पर विधान है। हो सकता है कि 'अहिमाणेण' की जगह 'अहियाणेगा' पाट हो, तब ये मैनत्वकी दृष्टि से नहीं-पदार्थ-शक्ति विज्ञान (माइम) 'कुविय' पदका क्या अर्थ है ? 'कुविय' के अर्थ कोपमें की दृष्टिसे कुछ महत्व रखते हों । ऐमी रचना विरक्तमाधु- कुपिन और कुप्य हैं । 'कोऽपिच' या 'किमपिच' अर्थ की न होकर भट्टारक मुनियों की हो मकती है। इनके हो जावे तो किसी नरह यह अर्थ हो सकता है कि गुरुजमानेमें मंत्र-तंत्र-चमत्कारसे अधिक प्रभाव होता था। पादमूल में (अणेग अहिया कुविय ) इसमें अधिक
३-उपलब्ध महाधिकारोंके श्रादिमें मंगलाचरण कोई पाहु ग्रंथ हमने नहीं पाया । (इय) इस प्रकार पाया जाता है, छोटे अधिकारों में नहीं । भिन्न-भिन्न मंग
यह अधिकार रचा गया है। फिर भी अम्हि' पद और
त्रुटितपद क्या है ? यदि निर्दिष्ट अर्थ टीक हो तो 'जोणिलमें भिन्न-भिन्न तीर्थकरको नमस्कार किया है।
पादुढ' की यही अंतिमसमामि मूचक गाथा होनी Y-इसका ३६वा जालागढह अधिकार नहीं है। चाहिये । खोज की काफी ज़रूरत है। उस अधिकारमें अनेकान्त पृ० ४८८ पर मुद्रित “ओं यह मारतंत्र विद्यानुशासनमें पाया है और
- इस मंत्रमें दशरा-मशरा जैसी मारियां होंगी। वंकटेश्वर प्रेस बंबईसे मुक्ति हो चुका है।
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६१६
अनेकान्त
[भाद्रपद, वीर-निर्वाण सं० २४६५
भनेकान्तके लेखांश पर विचार हो सकता है । 'अहिमाणेण विरइयं' और 'पग्रहसवण"जोणिपाहुड" की गाथा-संख्या ६१६ ही है या मुणिणा विरहर' ये दोनों पद परस्पर विरुद्ध है। यह कम ज्यादा, इसके कर्ता धरसेन हैं या परहसवण, यह बात खास ध्यान देने योग्य है । फिलहाल जोणिपाहुडके एक प्रश्न है ? गुजराती नोटोंके आधारसे सिद्ध होता है कर्ता परहसवण ही है ऐसा ठीक है। कि 'पएहसवण'मुनिने भूतबलि-पुष्पदंतके लिए कूिष्मांडी जोणिपाहुडका अपर-ग्रंथकतत्व देवीसे उपदिष्ट जोणिपाहुडको लिखा । परहसवणका इतने विवेचन के बाद भी हम कुछ निर्णय नहीं देअर्थ 'प्रश्नश्रवण' के बजाय 'प्रशाश्रमण' • हो तो अच्छा सकते; फिर भी जोणिपाहुड़को धरसेन-रचित ही मानें है । तब सहज ही में यह जाना जा सकता है कि या तब कहना होगा कि जगत्सुन्दरी कर्ताके गुरुके “धणेतो धरसेनका नामान्तर परहसवण हो या धरसेन और म
सर" ये नामाक्षर ही तो कहीं प्रत्यंतर (दुसरी प्रति) में
नमानानक ना। परहसवण दो अलग अलग आचार्य हो । और उनमेंसे उलट पुलट होकर "धरसेन" नहीं बन गये हैं। जैसे भूतबलि पुष्पदंतके सिद्धांतगुरु धरसेन और मंत्रादिके जोणिपाहुडके कर्ता 'धरसेन' समझे गये वैसे ही प्रत्यंतर गुरु पएहसवण हो। प्रबल प्रमाण के बिना बृहट्टिपणिका- में जगल्टरी मा गलतीये
में जगत्सुंदरीके कर्ता ग़लतीसे 'हरिषेण' समझ गये हों। का "जोणिपाहुडं वीरात् ६०० धारसेनं" उल्लेख भी जोणिपाहुड और जगत्सुन्दरी दोनों प्राकृतप्रधान जैनग़लत कैसे कहा जासकता है, गलत हो भी सकता है वैद्यक ग्रंथ होने के कारण "पना-प्रति" जैसी ही दोनों पर जोणिपाहुडके प्राचीन होनेपर ही “धवल" में उसके ग्रंथोंकी संयुक्त अन्य प्रति लिखी गई हो और लेखकोंकी मामोल्लेख किये जानेकी संगति ठीक बैठ सकती है,
। नासमझीसे कुछका कुछ समझा गया हो। अन्वया नहीं।
इतना सब कुछ लिखने के बाद भी योनिपाहुडके पनावाली प्रतिमें "कुवियगुरु" गाथाकी स्थिति विषयमें तबतक मैं अपना निश्चित मत नहीं दे सकता बहुत कुछ गडबडीमें हैं, यह स्वयं संपादक महोदयने जब तक कि उसका अध्ययन न कर सकें। अपने लेखके अंतभागमें स्वीकार किया है । तब उसमें इसतरह जगत्सुन्दरीका कर्ता यशःकीर्ति है-हरिके "अहिमाणेण" पद परसे और बेचरदासजी लिखित पेण नहीं; तब इस प्राकृतग्रंथकी "इति पंडित श्री हरि'लघु' विशेषण परसे, गाथाके भूतबलि पदको छोड़कर घेणेन" श्रादि संस्कृत संधि और उसमें योनिप्रामृतके पुष्पदंत कवि ही की क्लिष्टकल्पना करना कहाँ तक संगत मलामवाली बात भी ग़लत और निःस्सार ही है, कूष्मांडीदेवी नेमिनाथकी शासनदेवी है। इंद्र
म. जोकि ग्रंथकी आदि की १२ गाथाओंसे और कर्तृत्वनन्दीके अतावतारके अनुसार भूतबलि पुष्पदंतने विद्याकी भूतबनिके साथी पुष्पदन्तकी वहाँ कोई किट साधना भी की थी। हो सकता है कि कुष्मांगदेवी ही कल्पना नहीं की गई है, बल्कि अमिमानमेन नामसे उनके सामने उपस्थित हुई हो।
भी भक्ति एक दूसरे ही पुष्पदन्त फक्किी कल्पना की यह माम 'प्राशभमण' भी हो सकता है। गई है, जिनका बनाया हुमा अपभ्रंश भाषाका महायह गावांश भूषवलिपुमुवंताविहिए' इस प्रकार है। पुराव है।
-सम्पादक
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वर्ष २, किरण ११]
जगत्सुन्दरी-प्रयोगमाला
विषयकउल्लेखसे स्पष्ट है। हाँ, यशःकीर्ति (कर्ता ) ने साथ साथ अधूरी भी है। इसमें प्रथके ४३ अधिकारों से शाकिन्यधिकारकी उद्धृत ७६वीं और ७३वीं गाथाओंमें श्रादिके सिर्फ ३२ अधिकार तो प्रायः पर्ण है और ३३ 'भइरयसपाहुर' और 'सुग्रीवमत' व 'ज्वालिनीमत का अधिकारकी ७६।। गाथाएँ देनेके बाद एकदम ग्रन्थकी उल्लेख अवश्य किया है ज्वालिनीमत" मंत्रवादके कापी बन्द कर दी गई है और ऐसा करनेका कोई लिए प्रसिद्ध भी है।
कारण भी नहीं दिया और न ग्रंथकी समाप्ति को ही जैनों की लापरवाहीसे जिनवाणके अङ्ग छिन्नभिन्न वहाँ सूचित किया है। केकडीकी प्रति लेखकके कथना. होते जा रहे है। इस बातकी कुछ झलक पाठकोंको नुसार नसीराबाद के जौहरी अमरसिंहजीकी प्रति परसे इस लेख द्वारा मालूम होगी। जैनी लोग जिनवाणीके उतरवाई गई है, जो अनभ्यस्त लेखक-दारा उतरवाई प्रति अपना समुचित कर्तव्य पालन करेंगे इसी भावनासे जाने के कारण अशुद्ध हो गई है । साथ ही यह भी यह लेख प्रस्तुत किया गया है।
अधुरी है । उसमें उपाध्याय जीकी प्रतिसे ३३३ प्रधि
कारकी शेष गाथाएँ (२२४ के करीब), ३४वाँ अधिकार सम्पादकीय नोट
परा और ३५वें अधिकारकी २४० गाथाएं अधिक है। अनेकान्तकी गत हवी किरणमें प्रकाशित 'योनि- शेष ३५वे अधिकारकी श्रवशिष्ट गाथाएँ और ३६ से प्राभूत और जगत्सुंदरी-योगमाला' नामक मेरे लेखको ४३ तकके ८ अधिकार पर उममें भी नहीं है । इस तरह पढ़कर सबसे पहले प्रोफेसर ए. एन. उपाध्यायने 'जग- चार पाँच स्थानोंकी जिन प्रतियोंका पता चला है व मुंदरीयोगमाला' की अपनी प्रति मेरे पाम रजिष्टरीस सब अधरी हैं, और इमलिये इस बातकी खास जरूरत भेजनेकी कृपा की, जिसके लिये वे धन्यवाद के पात्र हैं। है कि इम ग्रंथकी पूर्ण प्रति शी तलाश की जाय, माथ ही, यह सूचित करते हुए कि वे अर्मा हुश्रा स्वयं जिमसे ग्रंथके कर्तादि विषय पर पग प्रकाश पड़ सके । इस ग्रंथ पर लेख लिखनेका विचारकर रहे थे परन्तु उन्हें आशा है जहाँ के महारोम इम ग्रन्थकी पर्ण प्रति होगी अब तक योग्य अवसर नहीं मिल सका, मुझे ही लेग्न वहाँ के परोपकारी तथा ग्रन्थोद्धार-प्रिय भाई उससे शीघ्र लिखनेकी प्रेरका की। ग्रन्थावलोकनके पश्चात मैं लेग्व ही मुझे सूचित करने की कृपा करेंगे। लिखना ही चाहता था कि कछ दिन बाद पं0 दीपचंद जी ग्रंथकी प्रतियोम ग्रंथका नाम जगन्मुंदरी-योगमाला पांड्याका यह लेख था गया। इसमें ग्रंथका कितना ही और प्रयोगमाला दोनों ही रूपमं पाया जाता है, इसी परिचय देखकर मुझे प्रमन्नता हुई; और इमलिये मैंने से लेग्वक के 'जगत्मदर्गप्रयोगमाला' शीर्षक तथा नामअभी इम लेखको दे देना ही उचित समझा है। को भी कायम रक्खा गया है। प्राकृनमें जगमुंदरी श्रीर
उपाध्याय जीकी प्रति फलटण के मिस्टर वीरचन्द जयमुंदरी भी लिखा है । मंधियाँ कहीं ना ग्रन्थकर्ताक कोदरजीकी प्रतिकी ज्योकी त्यो नकल है-उममें मूल- नामोल्लेव पर्वक विस्तारके माथ दी हैं और कहीं बिना प्रतिसे मुकाबलेके सिवा सुधारादिका कोई कार्य नहीं नाम के मंक्षेपमें ही, और उनका क्रम उपाध्यायनी तथा किया गया है.--और कोदरजीकी प्रति जयपुरकी किमी केकड़ीकी प्रतियां म एक-जमा नहीं पाया जाना । उदा. प्रति परसे उतरवाई गई थी। यह प्रति अशुद्ध होनेके हरख के लिये केकड़ीकी प्रतिम 'ग्रहणीप्रशमन' नाम के
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अनेकान्त
[भाद्रपद, वीर-निर्वाण सं०२४६५
पाँचवें अधिकार के अन्तमें जो सन्धि दी है, और जिसे केकडीकी प्रतियोंमें उपलब्ध है उसमें "मुणिनसइत्तिचिकित्सा अधिकारके नमूनेमें ऊपर ( लेखमें ) उद्धृत विरहए" इस पदके द्वारा जो कि ग्रंथकी बाज़ बाज़ किया गया है वह उपाध्यायजीकी प्रतिमें निम्न प्रकारसे संधियों में पाया जाता है,ग्रंथके कर्ता 'यशःकीर्ति' नामक पाई जाती है
__ मुनि मालूम होते हैं । इसीसे उपाध्याय जीने अपनी प्रतिमें "प्रामेणाइम गहणिरोयाहियारो सम्मत्तो" इस योगमालाको “जसइत्ति-विरचिता" लिखा है और
इससे मालम होता है कि संधियों में ग्रन्थकर्ताके लेखक महाशयने भी इसी बातका प्रतिपादन किया है। नामका उल्लेख करना-न करना अधिकतर लेखकोंकी परन्तु ये यशःकीर्ति मुनि कौन हैं, इस बातका अभी इच्छा पर निर्भर रहा है।
किसीको कुछ भी ठीक पता नहीं है । हाँ, एक बात यहाँ सबसे बड़ी बात जो इस ग्रंथके विषयमें विचारणीय प्रकट कर देनेकी है और वह यह कि संधियोंको है वह ग्रंथकर्ताकी है । पनाकी प्रतिसे तो यह मालम छोड़कर जिन मूल ४ गाथाश्रोंमें 'जसकित्ति' नामका होता था कि इस ग्रंथके कर्ता पं० हरिषेण हैं, जिसके प्रयोग आया है उनमेंसे तीन गाथाएँ तो वे ही हैं जिनलिये उनका निम्न वाक्य बहुत स्पष्ट है, जो उक्त प्रतिमें का पाठ लेखकने 'कर्तृत्वविषयक उल्लेख' शीर्षकके एक अंक रहित पत्र पर अंकित है--
नीचे उद्धृत किया है-- अर्थात् प्रारम्भकी १३वीं, "इति पंडितश्रीहरिषेणेन मया योनिप्राभूतालाभे २७वीं और शाकिन्याधिकारकी ३६वीं गाथा, शेप चौथी स्वसमयपरसमयवैद्यकशास्त्रसारं गृहीत्वा जगत्सुंदरीयोग- गाथा बालतंत्राधिकारकी अन्तिम ७७वीं गाथा है और मालाधिकारःविरचितः।"
वह इस प्रकार है-- यह वाक्य उपाध्याय जीकी प्रतिमें नहीं है और इय बालतत्तममलं जं हु सुहयं रावणाइभणियं । न लेखक जीने केकडीकी प्रतिमें ही इसका होना सूचित संखित्तं तं मुणिउं जसइत्तिमुणीसरे एस्थ ॥ किया है। संभव है कि यह ग्रंथके उस भागमें है इनमेंसे २७वीं गाथामें तो "गिरहेन्वा जसइत्ती जो उक्त दोनों प्रतियोंमें नहीं हैं। उसे देखकर और महिवलए जेण मणुवेण" इस वाक्यके द्वारा इतना ही यदि यह वाक्य हो तो उसकी स्थितिको वहाँ ठीक बतलाया है कि जिस मनुष्य के द्वारा भूमंडलपर यशकीर्ति मालम करके ही कुछ कहा जा सकता है। इसके लिन ग्रहण किये जाने के योग्य है--अर्थात् जो मनुष्य उसे ग्रंथकी पर्ण प्रतिका उपलब्ध होना बहत ज़रूरी है। प्राप्त करना चाहता है, और ३६वी गाथामें “जसइत्तिउपाध्याय जीने लिखा है कि वे सितम्बर मासकी छुट्टियों में सरिसधवलो" पदके द्वारा 'यशःकीर्तिके समान धवलपना जायेंगे और उस समय अपनी प्रतिकी सहायता उज्ज्वल' इतना ही प्रकट किया गया है। इन दोनों पूना प्रतिको ठीक स्थितिको मालूम करके जानने योग्र गाथाओंसे यह कुछ भी मालभ नहीं होता कि यह ग्रंथ श्रावश्यक बातोंको स्पष्ट करनेका यत्न करेंगे । ये दोनः यशःकीर्ति नामके किसी मुनिका बनाया हुआ है। अब बातें होजाने पर प्रकृत विषयका विशेष निर्णय रही दूसरी दो गाथाएँ, इनमेंसे एकमें 'याउण' पद और सकेगा । अस्तु ।
दूसरीमें 'मुणिर्ड' पद पड़ा हुश्रा है और दोनों एक ही इस समय संशका जो भाग उपाध्यायजी तथा अर्थ 'ज्ञात्वा'--"जानकरके' केवाचक है। पहली गाथा
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जगत्सुंदरी-प्रयोगमाला
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(नं. १३) में "जसइतिवाममुखिया मशिवं बाऊस" चुका है। संभव है इन्होंने अपने इस ग्रन्थको यश:इस वाक्यके द्वारा यह प्रकट किया है कि 'यशःकीर्ति कीर्ति के नामांकित किया हो और बादको संधियोम नामके मुनिने जो कुछ कहा है उसे जानकरके,' और 'जसकितिगामंकिए' के स्थान पर 'बसवित्तिविराए' दमरी ७७वीं गाथामें बतलाया है कि 'रावणादिकके बनगया हो। कुछ भी हो, जबतक विशेष खोज न हो कहे हुए निर्मल बालतंत्रको यशःकीर्ति मुनीश्वरसे जान- तबतक इस ग्रंथको उक्त जसकित्ति मुनिके शिष्य हरिपेण करके इस ग्रंथमें सं.क्षतरूपसे दिया गया है। इन दोनों का मानने में मुझे तो अभी कोई विशेष आपत्ति मालम गाथाश्रोंसे भी यह ग्रंथ यशःकीर्तिका बनाया हुश्रा नहीं होती। इससे पना-प्रतिके उक्त उल्लेखकी संगति भी मालम नहीं होता, बल्कि यह स्पष्ट जाना जाता है कि ग्रंथ ठीक बैठ जाती है, जो बहुत ही स्पष्ट शन्दोंमें अपने यशःकीर्तिके कथनानुसार तथा उनसे मालूमात करके उल्लेखको लिये हुए है। लिखा गया है, और इस तरह यह ग्रन्थ यशःकीर्तिमुनिके अब एक बात और रह जाती है, और वह है ग्रंथकी किमी शिष्यद्वारा रचा हुश्रा होना चाहिये-स्वयं यशः ४थी गाथामें 'धनेसर' (धनेश्वर ) गुरुका उल्लेख, कीर्ति के द्वारा रचा हश्रा नहीं। और इमलिये ग्रंथकी कुछ ये धनेश्वरगुरु कौन हैं इनका कुछ पता मालम नहीं मंधियों में,जिनका ग्रंथकी सब प्रतियों में एक प्राईर भी नहीं होता । संभव है ये ग्रन्थकारके कोई विद्याग रहे हो है, 'मुणिजसइति विरहए' पद सन्देहसे खाली नहीं है। अथवा इनकी किसी विशेषकृतिस उपकृत होकर ही _ 'यशःकीर्ति' नाम के जितने मुनियोका अभी तक ग्रन्थकार इन्हें अपना गुरु मानने लगा हो, और इसलिये पता चला है उनमेंसे गोपनन्दीके शिष्य तो ये यशःकीर्ति परम्परा गुरुकी कोटिमें श्राने हो; परन्तु दिगम्बरों में धने मालम नहीं होते; क्योंकि उनकी जिस विशेषताका श्वर सूरिका कोई स्पष्ट उल्लेख मरे देखने में नहीं पाया । श्रवणबेलगोल के ५५वें शिलालेखमें उल्लेख है उसके साथ हाँ, धनेश्वर यदि 'धनपालका पर्याय नाम हो तो 'धन इनका कुछ सम्बन्ध मालम नहीं होता। बाकीके जितने पाल'नामके एक प्रसिद्ध कवि भाव पदनकथा' के रच'यशःकीर्ति' हैं वे सब विक्रमकी १५वीं शताब्दी और यिता जरूर हुए हैं, जिनका समय बीवीं शताब्दि उसके बाद हुए हैं। जो यशःकीर्ति मुनि गुणकीर्ति अनुमान किया जाता है । परन्तु वताम्बम 'धनेश्वर' भट्टारक के शिष्य हुए हैं उनका समय १५वीं शताब्दीका नामके कई विद्वान श्राचार्य होगये हैं। एक धनेश्वरउत्तरार्ध और १६वीं शताब्दीका पूर्वार्ध है। उन्होंने सूरिने वि०) मंवत् १०६५ में 'मुग्मुंदरी कथा' प्राकृतम सं० १५०० में हरिवंशपुराणको पूरा किया है। ये रची है, मग्ने सार्धशतक ( सूक्ष्मार्थ-विचारमार ) पर काष्ठासंघी, माथुरान्वयी पुष्करगण के प्रसिद्ध श्राचार्योमें मं० ११७ में टीका लिम्बी है । मालम नहीं इनमेंस हुए हैं, गोपाचलकी गद्दीके भट्टारक थे और इन्होंने कोई चंक तथा मंत्रतंत्रादि-शाकि जानकार भी थ अनेक ग्रन्योंकी रचना की है। रहध कविने, अपने या कि नीं। श्रस्तु; ग्रंथकार के द्वारा उल्लिखिन धन सन्मतिचरित्रमें, इनकी बड़ी प्रशंसा की है और इन्हींकी श्वर गुरुकीन थे, इसको भी ग्वान होनी चाहिये। विशेष प्रेरणा तथा प्रसादसे सन्मतिचरित्र श्रादि ग्रन्थोंका यह ग्रंथ मुख्यतः प्राकृत भाषाम है, परन्तु कहीनिर्माण किया है। साथ ही, इनके शिष्योंमें हरिपेगा कहीं श्रीभ्रशभापा तथा संस्कृत भाषाका भी प्रयोग नामके शिष्यका भी उल्लेख किया है। यथा-- किया गया है। मंभव है संस्कन के कुछ प्रयोग प्रचालन मुणिजसकिसिंह सिस्सगुबायह, खेमचन्द-हरिसेणु तवायह। वैद्यक ग्रंथसि हो उठाकर रवावे गये हों। जाँचन की प्राचार्य नहीं जो इन यशःकीर्तिके शिष्य हरिषेणने
निसान ज़रूरत है, और यह भी मालम करने की ज़रूरत है ही यह 'जगत्सुंदरीयोगमाला' नामका ग्रंथ योनिप्राभुत्त
कि इस ग्रंथको रचते समय ग्रंथकारके मामने दुसरा
कीनमा साहित्य उपस्थित था। के अलाभमें रचा हो और इन्हींका वह संस्कृत उल्लेख
-मम्पादक हो जो पना-प्रतिके आधार पर ऊपर उद्धृत किया जा- वेलो, 'जैन ग्रन्थावती' पृ. २६२ 116
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नारो समुत्थान -
स्त्री-शिक्षा-पद्धति
[ले०-भवानीदत्त शर्मा 'प्रशान्त']
पति ने स्त्रियों व पुरुषोंको भिन्न भिन्न मनो- के लिये क्लर्क पैदा करे अथवा ग्रेजुएट निकाले
वत्तियों का बनाया है। इसलिये उनके उत्तर' और इस प्रकार ब्रिटिश साम्राज्यका विस्तार करें। दायित्व भी भिन्न भिन्न होने चाहिये । 'रुपोंकी फल इसका आखिर यह हुआ कि बेकार अपेक्षा त्रियों में लज्जा, शान्ति, दया आ.द गुण (श्रावारा) पुरुषोंके विषय में तो अखबारोंमें खबरें विशेष रूपसे होते हैं, इसीसे पूर्वाचार्योंने भोजन बरावर छपा ही करती थीं और अब भी छपती हैं। तथा भरण पोषण-सम्बंधी गृहकार्य स्त्रियोंको सौंपा पर अब इसने यहाँ तक उन्नतिकी है कि समाचारऔर वे गृहदेवियोंके नामसे पकारी जाने लगीं। पत्रोंमें "पाँचसौ आवारा व बेरोजगार लड़कियाँ"
घर-गृहस्थीका कार्य त्रियाँ और बाकी बाहर "एक हज़ारसे भी अधिक गुम लड़कियाँ' इत्यादि के कार्योंको पुरुपवर्ग करने लगा। इस तरह लोगों नामोंके शीर्षक भी आने लगे हैं । गुम होनेका भी का जीवन सुख-शान्तिपूर्वक बीतने लगा । पर प्रायः कारण यही होता है कि पढ़कर लड़कियां समय बदला। पाश्चात्य शिक्षाका प्रचार 'ढा । नौकरीकी तलाशमें दर निकल जाती हैं और सभी लोग उसीकं रंगमें रंगे जाने लगे। सियों व नौकरी न मिलने पर वे गुम हो जाती हैं। दिनोंकन्याओंको भी वही शिक्षा दी जाने लगी। नकी दिन यह संख्या बढ़ती जा रही है। शिक्षा-पद्धतिमें किसी भी तरह का अन्तर नहीं किसी भी देश व जातिकी उन्नति उसकी रक्खा गया। इस शिक्षा-पद्धतिका ध्येय सिर्फ शिक्षापद्धति पर निर्भर है । यदि किसी देशकी इतना ही रहा कि वह ब्रिटिश गवर्नमेण्ट-सर्विस शिक्षापद्धति ठीक है और शिक्षामें शिल्पकलाको
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वर्ष २, किरण ११]
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स्त्री-शिक्षा-पद्धति
उचित स्थान दिया गया है तथा नियों व पुरुषों है। की शिक्षापद्धतिको भिन्न रक्खा गया है तो वह जापानकी लड़कियां हमेशा शान्त व प्रसन्न देश जरूर उन्नत होगा और वहाँका एक भी रहती हैं। विषय-वासना उन्हें नहीं सताती । मनुष्य बेरोजगार व आवारा नहीं होगा। शोक और क्रोध मादिके अवसरों पर वे सदा
जापान देश जो आजकल 'पूर्वी ब्रिटेन' धैर्यसे काम लेती हैं। यही कारण है कि जापानकी कहलाता है उसके शिक्षा-शास्त्रियोंने इस विषयमें स्त्रियाँ संसारमें सुशीलताके लिये प्रसिद्ध होरही हैं। बड़ी दूरदृष्टितासे काम लिया है। उन्होंने उपयुक्त वहाँके छोटे बच्चे बड़े बचोंका भापर करते बातोंको भली-भाँति समझा और उनसे ठीक हैं। कन्याके बड़ी होने पर उससे घरका काम-काज फायदा उठाया । सबके लिये एक ही शिक्षापद्धति करवाया जाता है । नौकरोंक होते हुए भी मफाई न रखकर, स्त्रीशिक्षा-पद्धतिको उन्होंने बिल्कुल ही और भोजन बनानेका कार्य लड़कियां व नियां ही भिन्न रक्खा है।
किया करती हैं। सीने-पिरोन और कपडे धोने में __ वहाँ कन्याओंको गृहकार्यों. सरल-शिल्प और भी जापानकी लड़कियां अति निपुण होती हैं । ललितकलाओंमें दक्ष किया जाता है। विद्यालयोंकी धोबीस वे शायद ही कभी कपड़े धलवाती हों। शिक्षाके अतिरिक्त माताएँ घर पर भी अनेक प्रकार जापानकी शिक्षा-पद्धतिने जापानकी बियोंको की सन् शिक्षाएँ देती हैं । बचपनमें ही माताएँ पत्नी, जननी और देश-सेविका आदिके सच्चे कन्याओंको बड़ोंका आदर करनेका उपदेश करती अर्थोंमें परिणत कर दिया है । देवीकी उपमा धारण हैं। इसीसे जापानका पारिवारिक जीवन अधिक करनेवाली नारियोंको देवीम्वरूप ही बना दिया सुखमय होता है । चंचलता दबाने और धैर्य धारण है। शिक्षाप्रधान देश होने और शिक्षाका समुचित करनेकी उन्हें शिक्षा दी जाती है । माता ममय प्रबन्ध होनेके कारण वहाँके लोग सब शिक्षित हैं ममय पर उनकी परीक्षा भी लेनी है और देग्यती और मब म्री-पुरुषों का यह ध्येय होगया है कि हम है कि जो शिक्षा कन्याओंको दी जा रही है वह राष्ट्र के अवयव हैं, हमारा जन्म देश-मयाकं लिय कार्यमें परिणत भी हो रही है या कि नहीं । इमसे हुआ है और इमी कार्यको करने करते हमारी मृत्य कन्याएँ शीघ्र ही ये गुण मीख जाती हैं। बहुतमी होगी। कन्याओंको तो ये सब गुण मिखानेकी आवश्य- अतः खियांकी शिक्षा प्रायः पुरुषमि भिन्न होनी कना भी नहीं होती, जब कि उनकी माना म्वयं चाहिये और उसके लिये हमें बहुन करके जापानका उनके लिये आदर्श होती है । वे स्वयं ही इन गुणों अनुकरण करना चाहिये । को मातासे ग्रहण कर लेती हैं । मेहमानवाजी 'वीरसेवामन्दिर' मरमावा । (अतिथिसत्कार ) के लिये तो जापान प्रसिद्ध ही १-८-३६ ई.
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श्री बी० एल० सराफ एडवोकेटकी श्रद्धाञ्जलि
[वीरवासन-जयंतीके अवसर पर मेरे निमंत्रणको पाकर श्री बी० एल० जी सराफ एडवोकेट सागर (मंत्री मध्यप्रान्तीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन)ने वीरशासनादिके सम्बन्धमें जो अपना श्रद्धाञ्जलिमय पत्र भेजा है वह अनेकान्तके पाठकोंके जानने के लिये नीचे प्रकट किया जाता है। इससे पाठकोंको मालूम होगा कि हमारे सहृदय मजैन बन्धु भी भाजकल वीरशासनके प्रचारकी कितनी अधिक मावश्यकता महसूस कर रहे हैं और इससे जैनियोंकी कितनी अधिक ज़िम्मेदारी उसे शीघ्र ही अधिकाधिकरूपसे प्रचारमें खानेकी हो जाती है । आशा है जैन समाजके नेताभोंका ध्यान इस मोर जायगा और वे शीघ्र ही वीरशासनके सर्वत्र प्रचारके लिये उसके साहित्यमादिको विश्वव्यापी बनानेकी कोई ठोस योजना तय्यार करके उसे कार्य में परिणत करना अपना पहला कर्तव्य समझेगे । वर्तमानमें वीरशासनके प्रचारकी जितनी अधिक आवश्यकता है उतनी ही उसके लिये समयकी अनुकूलता भी है। क्षेत्र बहुत कुछ तय्यार है, अतः जैनियोंको संकोच तथा अनुदार भाव को छोड़कर भागे भाना चाहिये और अपने कर्तव्यको शीघ्र पूरा करके श्रेयका भागी बनना चाहिये । वह पत्र इस प्रकार है
सम्पादक] पूज्य मुख्तारजी,
आपका निमन्त्रण प्राप्त हुआ, आपके सौजन्यके लिये मेरा हृदय श्राभारावनत है ।
जो अमृतवर्षण भगवान महावीरने वीरशासन जयन्तीके दिन शुरू किया था वह आजके हथि यारबन्द रक्तपिपासु युगमें और भी अधिक आवश्यक हो गया है। अहिंसा तथा अनेकान्तके सिद्धान्त द्वारा जिस विश्वशान्ति तथा विचार-समन्वयका सन्देश भगवान महावीरने भेजा, वह विश्वशान्ति तथा ( विचारोंका ) पारस्परिक आदान-प्रदान आज भी हर विचारवान हृदयकी लिप्सा है। तोपोंकी गडगडाहटसे, पारस्परिक अविश्वाससे, अत्यन्त शंकित जीवनयापनस, सोतेमें एकदम चौंककर उठा
वाले प्रशान्त जीवनसे, विश्वास तथा अबाध पारस्परिक शान्तिके साम्राज्यमें लेजानेके लिये वीरशासनकी बहुत आवश्यकता है।
कर्मके पूर्व विचारका आगमन नैसर्गिक है। विचार धाराको शक्तिमती बनाना किन्तु पहले ज्ञानबाहिनी बनानाभी बहत आवश्यक है। विश्वपिपास है, तथा मृषा होनेके बाद रणक्षेत्र में भी अवतीर्ण हो सकता है, विश्व बाधाओंसे सफलता पूर्वक संतरित होनेके लिये । किन्तु वह ऐसे निसर्ग-सारल्यजनित विश्वासविधिद्वारा प्रेरित हो कि उसको सीधा जीवनमें उतारा जासके।
भगवानके ज्ञानके विश्वविस्तारके लिये और कौन अच्छी तिथि चुनी जा सकती है ? सरसावा नेकी मेरी इच्छा है। इस बार बहुतसी बाधाएँ थीं; देखें कब सौभाग्य प्राप्त होता है। आश्रमके वातावरणमें पूर्व ऋषियोंकी ज्ञानोद्रेकी सरलता देखना हर एकको सौभाग्यकी वस्तु होगी । वह एक स्थान होगा जहासे हम भगवान महावीरके सिद्धान्तोंका सरलतासे पानकर अपनेको पवित्र बना सकेंगे और विश्वको वही संदेश सुनानेको सशक्त बना सकेंगे।
मुझे विश्वास है कि आपका शुभप्रयास आशातीत साफल्य प्राप्त करेगा। अडचनोंके कारण व्यन रहनेसे कुछ ज्ञानयोगी श्रद्धाञ्जलि अर्पित न कर सका । कुछ समय बाद प्रयत्न करूंगा । फिलहालके लिये परिस्थिति देखते हुए क्षमा-प्रार्थी हूँ।
विनयावनत बी. एल. सराफ़
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वीर भगवानका वैज्ञानिक धर्म
[लेखक-बा• सूरजभानु वकील]]
सारीजीव सब ही महादुख उठाते और धक्के खाते है उसहीके पीछे दौडने फिरने लगता है, कोई जिस
हुए ही ज्यों त्यों अपना जीवन व्यतीत करते हैं, प्रकारका भी अनुपान, क्रिया कलाप वा विधिविधान अपनी अभिलाषाओं और जरूरतों को पूरा करनेके बताता है, उसहीके करनेको वा तम्पार हो जाता है, वास्ते सबही प्रकारका कष्ट उठाने और जी तोर कोशिश सब ही प्रकारका नाच नाचनेको मुस्तैद रहता है और करने पर भी जब उनकी पूर्ति नहीं होती है तो लाचार भक्ति व उत्साहके साथ खूब दिख बगाकर नाचता है,वि. होकर ऐसी अदृष्टशक्तियों की तलाशमें भटकते फिरने शेषकर ऐसे कार्य करना तो वह बिना सोचे समझे और लगते हैं जो किसी रीतिसे उनसे प्रसन्न होकर या दीन बिना किसी हील हुजतके माँख मींचकर ही अंगीकार हीन समझ, दयाकर, उनकी ज़रूरतोंको पूरा कर उनके कर लेता है जिसमें कष्ट तो उठाना पड़े बहुत ही थोड़ा कष्टों को हल्का करदें। मनुष्य जीवनकी इस ही बेकली, और उससे सिद्धि होनेकी पाशा दिखाई जाती है। बेचैनी और सहीजानेवाली तड़फने तरह तरहके शक्ति बडे-बड़े महान कार्योंकी जैसा कि गंगाजी में एकबार शाली देवी देवताओं और संसारभरका नियन्त्रण करने गोता लगानेसे, जन्म जन्मान्तरके पापोंका दूर हो जाना, वाले एक ईश्वरकी कल्पना कराकर, उनकी भक्ति स्तुति इत्यादि। पूजा बंदना भादि करने और बलि देने, भेंट चढ़ाने मनुष्योंकी इनही तरह तरहकी मुसीबतों, मापत्तियों भादिके द्वारा उनको खुश करके अपना कारज सिद्ध भाशाओं, अभिलाषाओं और भटकायोंकी पतिके वास्ते करानेके अनेक विधि विधानोंकी उत्पत्ति करादी है। एकपे एक नई और भामान नरकीय निकलाती रहनेमे, इसके इलावा जिस प्रकार दूबता हुआ मनुष्य तिनके नये नये धर्मों और अनुष्ठानों की उत्पत्ति होती रहती है का भी सहारा गनीमत समझने लगता है, निराशाकी और भूने भटके मनुष्य मृगतृष्णाकी नरा चमकनी रेतभंवरमें चक्कर काटता हुआ मनुष्य भी विचारहीन होकर को पानी समझ, उसकी तलाशमें दौड़ते फिरने लगते अंधाधुंध सहारे इंदता फिरने लगता है, जैसा कि सीता है और बराबर भटकते फिरते रहेंगे, जबतक कि वे जीके खोये जानेपर रामचन्द्रजी वृक्षों खतामोंसे उसका विचारसे काम नहीं लेंगे और वस्तु स्वभावकी खोजकर पता पूंछते फिरने लग गये थे। जिसका हाथी खोया उसहीके अनुसार सम्भव प्रसंभव और सच झूठकी जाता है वह घरके हांडी वर्तनोंमें हाथ सन डालकर तमीज़ नहीं करेंगे। सबसे भारी मुरिकता इस विषय में इंडने लग जाता है । इस कहावतके अनुसार मनुष्य भी यह है कि महा मुसीबतों में फंसे हुए. तथा अपनी महान् अपनी असम मुसीबतों को दूर करने और महाप्रबल इच्छामों और अभिलाषाभोंकी पूनिके लिये, भटकने अभिलाषामों और तृष्णाओं को पूरा करने के वास्ते फिरनेवाले मनुष्यों को ऐसे ऐसे भासान उपायोंसे उनके अंधा होकर जो भी कोई किसी प्रकारका सहारा बताता द्वारा किसी प्रकारको कार्यसिदिन होनेपर भी, अश्रदा
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अनेकान्त
[ भाद्रपद, वीर-निर्वाण सं० २४६५
नहीं होती है । जिनमें करना तो पड़े नाममात्रको बहुत है कि प्रजाके प्रबन्धके लिये उसके क्या क्या नियम हैं, थोड़ा ही और उससे भाशा होती हो बेहद फल-प्राप्ति- जिनके विरुद्ध चलनेसे वह दंड देना है और अनुकूल की। जिस प्रकार लाटरीका एक रुपयेका टिकिट लेनेसे प्रवर्तनसे सहायता करता है अर्थात् किन कार्योको वह पचास हजार व इससे भी ज्यादा मिलनेकी आशा बंध ईश्वर पाप बताकर न करनेकी भाशा देता है और किन जाती है। और अपने और अन्य अनेकोंको कुछ न कार्योंको पुण्य बताकर उनके करने के लिये उकपाता है। मिलने पर भी निराश न होकर फिर भी बार बार इस ही के साथ राजाके रूपके अनुकूल ही परमेश्वरकी टिकिट खरीदते रहनेकी टेव बनी रहती है, इसही प्रकार कल्पना करनेसे और परमेश्वरके अधिकार राजाके अधि किसी धार्मिक अनुष्ठानके करने पर भी उसके द्वारा कारोंसे कम व सीमित और नियमबद्ध स्थापित करने में अपना और अन्य अनेकोंका कार्य सिद्ध न होता देख- परमेश्वरके ऐश्वर्यमें कमी होजानेके भयसे उनको ईश्वरकर भी प्रश्रद्धा नहीं होती है किन्तु फिर भी बार बार की सर्वशक्तिमानता दिखानेके वास्ते यह भी खोल देना उस अनुष्ठानको करनेकी इच्छा बनी रहती है । लाटरीमें पड़ता है कि जिस प्रकार राजाको यह अधिकार होता जिस प्रकार लाखों मनुष्यों में किसी एकको धन मिलनेसे है कि वह चाहे जिस अपराधीको छोड़ दे, छोड़ना ही सब ही को यह आशा हो जाती है कि सम्भव है अब- नहीं किन्तु अपनी मौजमें उसको चाहे जो बख्श दे, की बार हमको ही लाख रुपयोंकी थैली मिलजावे, इसही प्रकार दीनदयाल परमेश्वरको भी यह अधिकार इसही प्रकार धर्म अनुष्ठानोंमें भी लाखोंमें किसी एकका है कि वह चाहे जिस अपराधीको क्षमा करदे और चाहे कारज सिद्ध होता देखकर चाहे वह किसी भी कारणसे जिसको जो चाहे देदे । उसकी शक्ति अपरम्पार है, हुनः हो, उस अनुष्ठानसे श्रद्धा नहीं हटती है किन्तु वह किसी नियमका बंधवा वा किसी बंधनमें बंधा जुएके खेलकी नरह आज़मानको ही जी चाहता रहता हुआ नहीं है, वह चाहे जो करता है और चाहे जो है। जिस प्रकार लाटरीका बहुत सस्तापन अर्थात् एक खेल खेलता है, इसही कारण कुछ पता नहीं चलता है रुपयेके बदले लाख रुपया मिलनेकी आशा असफल कि वह कब क्या करता है और क्या करने वाला है। होनेपर भी बारबार लाटरी डालनेको उकसाती है, इसही कारण लोग उन नियमों पर जो लोगोंके सदाइसही प्रकार इन धार्मिक अनुष्ठानोंका सुगम और चारके वास्ते ईश्वरके बनाये हुये बताए जाते हैं कुछ सस्तापन भी असफलतासे निराश नहीं होने देता है भी ध्यान न देकर बहुत करके उसकी बड़ाई गाकर किन्तु फिर भी वैसा करते रहनेके लिये ही उभारता है। नमस्कार और वन्दना करके तथा जिस प्रकार भेट देनेसे
जिस प्रकार राजा अपने राज्यका प्रबन्धकर्ता होनेसे राजा लोग खुश होजाते हैं या हाकिम लोग डाली लेकर राज्यके प्रबन्धके लिये नियम बनाकर नियमविरुद्ध काम कर देते हैं, इसही प्रकार ईश्वर को भी भेट चलनेवालोंको अपराधी ठहराकर सज़ा देता है चढ़ाकर और बलि देकर खुश करनेकी ही कोशिशमें और नियम पर चलनेवालोंकी सहायता करता है, लगे रहते हैं । "मेरे भवगुण अब न चितारो स्वामी मुझे इसही प्रकार संसारभरका प्रबन्ध करनेवाले एक ईश्वर- अपना जानकर तारों" इसही प्रकारकी रट लगाये रखते की कल्पना करनेवालोंको भी यह ज़रूर बताना पड़ता हैं, इसही में अपना कल्याण समझते हैं और इस ही
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वर्ष २, किरण ११]
वीर भगवान् का वैज्ञानिक धर्म
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भक्ति स्तुति वा पूजा उपासनासे ईश्वरको खुश करके करते हुए और दुनियाभरको तहस नहस करते हुए भी अपने सांसारिक कार्य सिद्ध करानेकी प्रार्थना करते जब थोड़ी-सी खुशामद और भेंट भेंटावनसे मालिक रहते हैं । हमारा चालचलन कैसा है, हम नित्य राजी हो जाता है तब कौन मूर्ख है जो सदाचारी बननेकैसे कैसे भयंकर अपराध करते हैं, उसके नियमोंको की घोर मुसीबतमें फँसे । यह ही कारण है कि दुनियातोड़ते हैं, उसकी प्रजाको सताते हैं और बेखटके जुल्म से पाप दूर नहीं होता है और सुख शान्तिका राज्यकरते हैं, इसकी कुछ भी परवाह न करके जहाँ कुछ स्थापित नहीं हो सकता है, जब तक कि इस खुशामददुःख हुमा व आपत्ति पाई या कोई इच्छा पूरी करानी खोरी और पूजा वन्दनासे मालिकके राजी होनेका बि. चाही तब तुरन्त ही उसकी बड़ाई गाने लग जाते हैं श्वास लोगोंके हृदयमें जमा हुआ है। और रो कर गिदगिड़ाकर दीन हीन बनकर अपने दुःखों पशु पक्षियोंको मारकर ईश्वरके नाम पर होम कर को दूर करने तथा अभिलाषाओंके पूरा करानेकी प्रार्थना देना ही महान धर्म है, ऐसा करनेसे सबही पाप क्षय करने लग जाते हैं और उम्मीद करने लगते हैं कि इस हो जाते हैं और सब ही मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं। प्रकार की हमारी पूजा-वन्दना और प्रार्थनासे वह ज़रूर क्यों ? क्यों क्या ईश्वरकी यही प्राज्ञा है, उसको हमारे कार्य सिद्ध करदेगा व महान से महान अपराधों प्रसन्न करनेका यही सबसे बड़ा उपाय है. यज्ञमें होम पर कुछ भी ध्यान न देगा।
करनेके वास्तेही तो परमेश्वरने पशु पक्षी पैदा किये हैं। पापीसे पापियोंके भी भारीसे भारी कार्यसिद्ध हो- परन्तु आजकल तो कहीं भी होम नहीं होता है और जाने और भयानकसे भयानक आपत्तियोंके दूर होजानेके यदि हिदुस्तानमें कहीं होता भी हो तो हिन्दुस्तानसे इस सहज उपायका विश्वास ही लोगोंके हृदयसे अप बाहर तो किसी भी देशमें न अब होता है न पहले राधोंका भय दूर कर सदाचारी बनने की ज़रूरत को ही कभी होता था, तब वहाँ क्यों पशु-पक्षी उत्पन्न होते ख्यालमें नहीं आने देता है । जब खुशामद करने, पैरोंमें हैं ? जवाब- एक छोटेसे राजाके भी कामों में जब प्रजाको शिर देकर गिड़गिड़ाने और मान बड़ाईके लिये फूल पत्र कुछ पछने-टोकनेका अधिकार नहीं होता है तब सर्वभेंट चढ़ानेसे ही परमेश्वर महापापियोंका भी सहायक शक्तिमान परमेश्वर के कामों में दरवन्च देने और पूछ ताछ हो जाता है, उनके सभी अपराध मुश्राफ कर सबही करनेका क्या किसी को अधिकार होसकता है ? फिर संकटोंके दूर करनेको तय्यार हो जाता है; तब पाप करने उसके भेदोंको कोई समझ भी तो नहीं सकता है, तब से क्यों डरें और क्यों सदाचारी बननेकी झंझटमें पढ़ें। फिजूल मग़ज़ मारनेसे क्या फायदा । जो उसका हुक्म सदाचारी बनना कोई प्रासान काम होता तब तो खैर है उस पर आँख मीचकर चलते रहो, इसहीमें तुम्हारा वह भी कर लेते परन्तु वह तो लोहेके चने चबाने और कल्याण है नहीं तो क्या मालूम कितने काल तक नरतलवारकी धार पर नाचनेसे भी ज्यादा कठिन है, कठिन कोंमें पड़े-पड़े सड़ना पड़े और कैसे महान् दुःख भोगने ही नहीं असंभवके तुल्य है, इस कारण कौन ऐसी पदें। . मुसीबतमें पड़े । सब कुछ पाप करते हुए भी सब प्रकार- ईसाइयोंका इससे भी बिल्कुल ही विलक्षण कहना के गुलछरें व मौज उड़ाते हुए भी बेधड़क खून खराबा है कि कोई भी आदमी पापोंसे नहीं बच सकता है और
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अनेकान्त
[माद्रपद, वीर-निर्वाण सं०२४६५
न अपना कल्याण ही कर सकता है इस कारण ईश्वरने करेगा? यह उसकी मर्जी; जब वह सारे संसारका ईसा नामका अपना इकलौता बेटा संसारके कल्गणके राजा है तो चाहे जो करे, इसमें किसीकी क्या मजाल वास्ते भेजा है; जो उसकी शरणमें पाजायगा अर्थात् जो कुछ एतराज़ कर सके। जो कोई उसको कल्याणकर्ता मानेगा, ईश्वर उसके सब हिन्दू अपने ईश्वरकी बढ़ाई इस प्रकार करते हैं कि पाप धमाकर उसको स्वर्गम भेज देगा और जो उसकी लंकाके राजा रावणको दंड देनेके वास्ते ही ईश्वरको शरणमें नहीं आयेगा उसको सदाके लिये नर्कमें सड़ना रामके रूपमें मनुष्यजन्म धारण करना पड़ा है। बारह पड़ेगा । प्रश्न-ईश्वरका इकलौता बेटा कैसे हो सकता वर्ष बनोवास भुगता, रावणके हाथसे सीताका हरण है ? उत्तर-ईश्वरने स्वयं एक कुंवारी कन्याके गर्भ कराया, जिससे उसके साथ लड़नेका बहाना पैदा हो रखकर उसको पैदा किया है। इस कारण वह ईश्वरका जाय; फिर चढ़ाई कर ऐसी घमासान लदाईकी, जिससे बेटा है और चूंकि दूसरा कोई इस प्रकार पैदा नहीं लाखों मनुष्योंका संहार हुआ; आखिर रावणको मारकिया गया है, इस वास्ते वह ही ईश्वरका एक इकलौता कर अपना कार्य सिद्ध किया। प्रश्न-सर्वशक्तिमान बेटा है। प्रश्न-वह तो सुनते हैं राज्य-द्वारा अपराधी परमेश्वरको एक श्रादमीके मारनेके वास्ते इतना प्रपंच
या नाकर शलीपर चढ़ाकर मारा गया है, यदि क्यों रचना पड़ा ? उत्तर-राज्य कार्योंके रहस्यको राजा वह ईश्वरका खास बेटा था और जगतके कल्याणके ही जानते हैं; तब वह तो इतने बड़े राज्यका मालिक वास्ते ही अद्भुतरीतिसे पैदा किया गया था तो ईश्वरने है जिसकी कल्पना भी नहीं हो सकती इस कारण उसको शूजी देकर क्यों मारने दिया ? उत्तर-उसके उसके रहस्यको कौन समझ सकता है । इस ही प्रकार शूली चढ़कर मरनेसे ही तो उसके माननेवाले सब परमेश्वरने कंसको मारनेके वास्ते कृष्णके रूपमें जन्म लोगोंको उनके अपराधोंका कोई दण्ड नहीं देगा, लिया; कंसने उसके पैदा होते ही उसके मारनेका सबहीको सदाके लिये स्वर्गमें पहुँचा देगा। प्रश्न- प्रबन्ध किया; उससे बचानेके वास्ते वह गुप्त रीतिसे जिसने अपराध नहीं किया उसके दंड भुगत लेनेसे वृन्दावन पहुँचाया गया; एक ग्वालाके यहाँ गुप्त रीतिसे अपराधीका अपराध कैसे दूर होसकता है और फिर ऐसे उसकी पालना हुई, जहाँ ग्वालोंकी कन्याओं और लोगोंका भी जो उसके शूली दिये जाने अर्थात् दंड त्रियोंको अपने उपर मोडित कर उनके साथ तरह तरह भगतने के बाद भी हजारों लाखों वर्ष तक पैदा होते की किलोले करता रहा । यह ही उसकी किलोलें सुनारहेंगे और अपराध करते रहेंगे, यह तो साक्षात् ही सुनाकर, गा बनाकर, नाटकके रूपमें दिखा दिखाकर, लोगोंको पापोंके करनेकी खुली छुट्टी देना है ? उत्तर- उसकी महान भक्ति की जाती है, उसकी लीला अपरये ईश्वरीय राज्यके गुप्त रहस्य हैं जिनमें तर्क वितर्क म्पार है; मनुष्यकी बुद्धि उसके समझनेमें बेकार है; वह करनेका किसीको क्या अधिकार हो सकता है। चाहे जो करे; यह ही उसकी असीम शक्तिका प्रमाण है।
मुसलमान भी इस ही प्रकार यह कहते हैं कि धर्ममें बुद्धिका कुछ काम नहीं जब यह बात निश्चय मुहम्मद साहब जिसकी सिफारिश करदेंगे ईश्वर उसके रूपसे मानी जाती हो तब धर्मके नाम पर चाहे जैसे अपराध मा करके उसको स्वर्गमें भेजदेगा, क्यों ऐसा सिद्धान्तोंका प्रचार हो जाना तो अनिवार्य ही है। इस
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ही कारण जब ब्राह्मणोंका प्राबल्य हुआ तो उन्होंने उसके बाप दादा चाहे एक अक्षर भी न जानते हों, अपनेको ईश्वरका एजेन्ट ठहराकर अपनेको पुजवाना धर्मके स्वरूपसे बिल्कुल ही अनजान हो; यहाँ तक कि शुरू कर दिया; ईश्वरकी भेट पूजा आदि सब ब्राह्मणोंके संकल्प छुड़ाना भी न पाता हो, बिल्कुल ही मूर्ख गंवार द्वारा ही हो सकती है; ईश्वर ही को नहीं किन्तु सब ही हो, खेती, मजदूरी, मादिसे अपना पेट भरते चले मारहे देवी देवताओंकी भेंट पूजा ब्राह्मणों की भेंट पूजाके द्वारा हों परन्तु जाति उनको ब्राह्मण नामसे प्रसिद्ध चली ही की जा सकती है। यह ही नहीं किन्तु भरे हुए पाती हो, तो वे भी ईश्वर और देवी देवताओं के पके पितरोंकी गति भी ब्राह्मणोंको खिलावे और रुपया पैसा एजेन्ट और ईश्वरके समान पूज्य हैं। इसके विरुद्ध शूद्र माल असबाब देनेसे ही हो सकती है; खाना, पीना, जातिमें जन्म लेनेवालों और स्त्रियोंको धर्म साधनका खाट, खटोली, शय्या, वस्त्र, दूध पीनेको गौ, सवारीको कोई भी अधिकार नहीं है, सियोंके लिये तो अपने घोड़ा आदि जो भी ब्राह्मणको दिया जायगा वह सब पतिके मरनेपर उसके साथ जल भरना ही धर्म है, इस पितरोंको पहुँच जायगा; जो नहीं दिया जायगा उस ही ही में उनका कल्याण है। के लिये पितरोंको भटकते रहना पड़ेगा । परन्तु जो धर्मके नामपर इस प्रकारकी अंधाधुंदी चलती देखखाना ब्राह्मणोंको खिलाया जाता है उससे तो ब्राह्मणों कर कुछ मनचलोंने सोचा कि यद्यपि सदाचारकी धर्ममें का पेट भरता है और जो माल असबाब और गाय कोई अधिक पूछ नहीं है, मुख्य धर्म तो भेट पूजा और घोड़ा दिया जाता है वह भी सब ब्राह्मणोंके ही पास ब्राह्मण कुल में जन्म लेना ही है तो भी धर्मके कयनमें रहता है; वे ही उसको भोगते है तब उसका पितरोंको सदाचारका नाम ज़रूर आजाता है, जिससे कभी कभी पहुँचना कैसे माना जासकता हैं ? उत्तर-जब धर्मकी कुछ टोक पूछ भी होने लग जाती है, इस कारण इसकी बातोंमें बुद्धिका प्रवेश ही नहीं हो सकता है तब बुद्धि सदाचारकी जद ही मेट देनी चाहिये, जिससे कोई लड़ाना मूर्खता नहीं तो और क्या है । कल्याणके खटका ही बाकी न रहे, बुद्धिको तो धर्ममें दखल है ही इच्छुकों को तो अपनी स्त्री तक भी ब्राह्मणको दानमें दे नहीं, तब जो कुछ भी धर्मके नामपर कहा जायगा वह देनी चाहिये, चुनांचे बड़े बड़े राजाओं तक ने अपनी ही स्वीकार हो जायगा; ऐसा विचारकर उन्होंने मास रानियां ब्राह्मणोंको दान देकर ईश्वरकी प्रसन्नता प्राप्त मदिरा और मैथुन यह तीन तत्व धर्मके कायम किये । की है। ब्राह्मणोंको तो दंड देनेका भी राजाको अधि- अर्थात् मांस खाओ, शराब पौत्रो और स्त्री भोग करते कार नहीं है, क्योंकि वे राजासे ऊँचे हैं । जब ब्राह्मणका रहो, यह ही धर्म है, इसके सिवाय और कोई धर्म ही इतना ऊँचा दर्जा है, वे परमपिता परमेश्वर और सबही नहीं है । धर्मकी बातमें बुद्धि लड़ानेकी तो मनाही थी देवी देवताओंके एजेन्ट हैं तब उनके गुण क्या हैं और ही, इस कारण यह धर्म भी लोगोंको मान्य हुआ और उनकी पहचान क्या है ? उत्तर-उनमें किसी भी प्रकार खूब जोरसे चला । कहते हैं कि गुप्त रूपसे अब भी यह के गुण देखनेकी जरूरत नहीं है, धर्मकी नींव जाति पर धर्म प्रचलित है और अनेक देवी देवताओं की प्रसन्नता है, गुणपर नहीं है। इस कारण जिसने ब्राह्मण कहलाने व अनेक मन्त्रों तन्त्रों की सिद्धि इम ही धर्मके द्वारा वाले कुल में जन्म लिया है वह ही ब्राह्मण है, वह और होती है और बराबर की जा रही है।
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अनेकान्त
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धर्ममें अक्लको दखल न देनेके सिद्धान्तने कैसे अनेक धर्मावलम्बी एक ही क्षेत्रमें रहते हैं, इस कारण कैसे धर्म चलाये हैं, कैसा घोर अंधकार फैला है, धर्मके एक दूसरे को अपने अपने ईश्वरके राज्यका द्रोही समझ, नामपर ही दुराचार और पापका केपा भारी डंका नित्य ही आपसमें लड़ते रहते हैं; एक दूसरेके धर्म बनाया है, इसका कुछ दृष्टान्तरूप दिग्दर्शन तो कराया साधनको राजविद्रोह मान एक दूसरेको धर्म साधन जा चुका है। अब पाठक कुछ और भी ध्यान देकर भी नहीं करने देते हैं, जिससे हरवक्त ही लड़ाई झगड़ा सुनलें कि धर्मके विषय में बुद्धिका दखल न होनेकी और कितना फिसाद खड़ा रहता है। गाँव गाँव गली वजहसे सहज ही में यह जो अनेक धर्म पैदा होगये हैं गली और मुहल्ले मुहल्ले आपसमें ऐसा झगड़ा रहनेसे
और पैदा होते रहते हैं, वे सब देशी राज्योंकी तरहसे सबही कामोंमें धक्का पहुँचता है और सुख शान्तिका ही ईश्वरका राज्य कायम करते हैं। फर्क सिर्फ इतना तो ढूंढ़ने पर भी कहीं पता नहीं मिलता है। धर्मों के है कि राजाओंका राज तो एक एक ही देशमें होता है कारण मनुष्य समाजकी ऐसी भयानक दशा हो जानेसे
और ईश्वरका राज्यसंसार भरमें कायम किया जाता है, शान्तिप्रिय अनेक विचारवान पुरुषोंको तो लाचार राजा लोग जिस प्रकार अपने अपने राज्यको जगदेव- होकर धर्मका नाम ही दुनियांसे उठा देना उचित प्रतीत व्यापी करनेके वास्ते आपसमें लड़ते हैं, मनुष्य संहार होने लगा है, जिसके लिये उन्होंने आवाज़ भी उठानी होता है और खूनकी नदियाँ बहती हैं । इस ही प्रकार शुरू करदी है । यद्यपि यह आवाज़ अभी तक बहुत ही एक ही संसारमें अनेक धर्म और उनके अलग अलग धीमी है परन्तु यदि इस प्रशान्तिका कुछ माकूल प्रबंध ईश्वर कायम होजानेसे, इन सब धर्मानुयाइयोंमें अपने न हुआ तो आहिस्ता आहिस्ता इसको उग्ररूप धारण अपने ईश्वरका जगतव्यापी अटल राज्यका यम करनेके करना पड़ेगा और धर्मका नामोनिशान हो दुनियाँसे वास्ते खूब ही घमसान युद्ध होता रहता है। छोटे छोटे उठ जायगा । राजाओंकी लड़ाई में तो खूनकी नदियाँ ही बहती हैं, यद्यपि उसका सहज इलाज यह है कि धर्मोका परन्तु यह धर्म युद्ध तो अनेक धर्मोके द्वारा स्थापित नामोनिशान मिटादेनेके स्थानमें धर्ममें बुद्धि और किये संसारभरके महान राजाधिराज जगत पिता अनेक विचार युक्ति और दलीलको तो कोई दखल हो नहीं है, परमेश्वरोंके बीचमें होता है, हरएक धर्मवालोंका यह इस जहरीले सिद्धान्तको ही उठा दिया जावेऔर हरएक दावा होता है कि हमारा ही परमेश्वर सारे जगतका को इस बातपर मजबूर किया जावे कि अपने अपने मालिक है, उस ही का बनाया हुआ कानून अर्थात् ईश्वरके राज्यको अर्थात् अपने अपने धर्मको शारीरिक धर्मके नियम योग्य हैं, अन्य धर्मवाले जो ईश्वर स्थापित बलसे प्रचार करनेके स्थानमें, शान्तिके साथ युक्ति और करते हैं और जो धर्मके नियम बनाते हैं, वह साक्षात प्रमाण से ही सिद्ध करनेकी कोशिश करें। इस रीतिसे विद्रोह है, गहारी है और राज्य विप्लव है, इस ही जिसका धर्म प्रकाव्य होगा, वस्तु स्वभावके अनुकूल कारण सब ही धर्मवाले आपसमें लड़ते हैं, खून खराबा होगा, वह ही धर्म बिना खून खराबीके फूले फलेगा। करते हैं और नरसंहार करके खूनके समुद्र भरते हैं। और अन्य सब पानीके बुलबुलेकी तरह आपसे आप देशी राज्य तो अलग २ क्षेत्रों में रहते हैं परन्तु यहाँ तो ही समान हो जायेंगे । परन्तु यह बात तो तब ही चल
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सकती थी जब कि यह सब धर्म या इनमेंमे कोई भी रीतिसे असलियतकी खोज की जावे । यह ठीक है कि धर्म वस्तु स्वभावकी नींव पर उठाया गया होता, वह वैज्ञानिक खोजके द्वारा जो सिद्धान्त स्थापित होता है सब धर्म तो आँख मीचकर इस ही हौसले पर बने हैं उसमें भी शुरू शुरूमें मतभेद ज़रूर होता है, परन्तु उस कि धर्ममें हेतुप्रमाण वा तर्क-वितर्कको कुछ दखल ही मतभेदके कारण भापसमें लड़ाई हर्गिज़ नहीं होती है। नहीं है, तब यह लोग इस नेक सलाहको कैसे मान लड़ाई तो सब ही होती है जब किसी ईश्वर वा देवी सकते हैं और कैसे शारीरिक बलके द्वारा लड़ने मरने देवताका राज्य स्थापित करना होता है। पश्चिमीदेशोंमें को बन्द कर सकते हैं । वे तो जिस प्रकार देशी राजे पदार्थ विद्याकी खोज सैंकड़ों वर्षोंसे वैज्ञानिक रीतिसे अपना राज्य विस्तार करनेके वास्ते ज़बर्दस्ती दूसरे होती चली ना रही है, उस हीके फलस्वरूप ऐसे ऐसे राजाओंसे लड़ते हैं; इस ही प्रकार अपनं ईश्वरके राज्य प्राविकार होते चले जा रहे हैं जिनको सुनकर अच्छों विस्तारके वास्ते बराबर लड़ते रहेंगे, जब तक कि वस्तु अच्छोंको चकित होना पड़ता है,इनमें भी प्रत्येक नवीन स्वभावकी नींवपर स्थित कोई ऐसा धर्म नहीं बताया खोजमें शुरू शुरूमें बहुत मतभेद होता रहा है; परन्तु जायगा, जो डंकेकी चोट यह कहनेको नग्यार हो कि लड़ाई कभी नहीं हुई है। कारण यह है कि कोई माने हेतु और प्रमाणके द्वारा परीक्षा की कसोटी पर कसे या न माने और कोई कितना ही विरोध करे, इसमें बिना तो कोई भी धर्मकी बात मानने योग्य नहीं हो- नवीन बात खोज निकालने वालेका या उसकी बात सकती है। धर्म वह ही है जो वैज्ञानिक है अर्थात एक- मानने वालोंका क्या बिगड़ता है, उसे या उसकी नई मात्र वस्तुस्वभावपर ही स्थित है, वह ही वास्तविक खोजको माननेवालोंको कोई किसीका राज्य व हुकूमत धर्म है, वह ही कल्याणकारी और श्रात्मीक धर्म है। तो कायम करनी ही नहीं होती है, जिसके कारण उनधर्म किसीका राज्य नहीं है जिसके वास्ते लड़ने की ज़रूरत की नई खोजको मानने वाले राजद्रोही समझे जावें हो, किन्तु प्रारमाका निज-स्वभाव है। जिस विधि वि और उनसे लड़ाई करके जबर्दस्ती अपनी बात मनवानी धानसे प्रारमा शुद्ध होती हो और सुख शान्ति पाती हो पड़े। इस ही प्रकार वैज्ञानिक रीतिपे खोज होनमें भी बह ही विधि विधान ग्रहण करने के योग्य है । जो ग्रहण मतभेद होनेसे लड़ाई ठानने की कोई जरूरत नहीं पड़ती करेगा वह अपना कल्याण करलेगा, जो नहीं ग्रहण है। कोई माने या न माने इसमें किसी वस्तु स्वभावको करेगा वह स्वयं अपना ही नुकसान करेगा, इसमें लड़ने बताने वालेका क्या बिगाड़ तब वह क्यों लड़ाई मोल
और खून खराबा करनेकी तो कोई बात ही नहीं है। ले और माथा फुटग्वल कर, लड़ाई तो किसीका राज्य, ___ वास्तवमें धर्मोकी लड़ाई तब ही तक है, जब तक हुकूमत या मिलकियत कायम करनेमें ही होती है जहाँ कि धर्मोके द्वारा कल्पित किये गये अपने२ ईश्वरका राज्य वा हुकमत वा मिलकियत कायम करनेका भदंगा राज्य जगत भरमें स्थापित करने की इच्छा लोगोंके दिलों नहीं वहाँ झगड़ा टंटा भी कुछ नहीं। में कायम है। ईश्वरके राज्यका कल्पितभूत सिरसे उतर यह सब बातें जान और पहचानकर वीर प्रभुने जाय, तो सब ही लड़ाई शान्त हो जाय । और यह तब जीवमात्रकी सुख शान्ति और कल्याणके लिये वस्तु ही हो सकता है जबकि वस्तु स्वभावके द्वारा वैज्ञानिक स्वभावको समझाया और प्रत्येक बातको वह लौकिक
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अनेकान्त
हो या आध्यात्मिक, वैज्ञानिक रीतिसे जांच पड़तालकर वस्तु स्वभावके अनुसार ही माननेका उपदेश दिया, बिना परीक्षा किये आँख मीचकर ही किसी बातके मान लेने को तो आँखें होते हुए भी स्वयं अंधा होकर गढ़में गिरना और बेमौत मरना बताया। वीर प्रभुने समझाया कि चाहे जिस चीजको जाँचकर देखो संसारकी कोई भी वस्तु नाश नहीं होती है और न नवीन पैदा ही होती है । अवस्था ज़रूर बदलती रहती है, इस ही से नवीन वस्तुकी उत्पति और वस्तुओंोंकी नास्ति, प्रभाव दिखाई देता है। जिस प्रकार सोनेका कड़ा लगाकर हार बनानेसे, कड़ेका नाश और हारकी उत्पत्ति होगई है परन्तु सोनेका न नाश हुआ है न उत्पत्ति, वह ज्योंका त्यों मौजूद है, केवल अवस्थाकी तबदीली ज़रूर होगई है। इसी प्रकार लकड़ी के जलजाने पर, लकड़ीके कण कोयला, राख, धुत्रां आदि रूपमें बदल जाते हैं, नाश तो एक कणका भी नहीं होता है और न नवीन पैदा ही होता है। ऐसा ही चाहे जिस वस्तुको जांच कर देखा जाय, सबका यही हाल है । जिससे स्पष्ट सिद्ध है कि यह सारा संसार सदासे है और सदा तक रहेगा; इसमें कुछ भी कमीबेशी नहीं होती है और न हो सकती है; अवस्था ज़रूर बदलती रहती है, उस ही से नवीनता नज़र श्राती है । ईश्वरके माननेवालों की भी कमसे कम ईश्वरको तो श्रनादि अनन्त जरूर ही मानना पड़ता है, जिसको किसीने नहीं बनाया है और न कोई उसका नाश ही कर सकता है, इस प्रकार ईश्वरको या संसारको किसी न किसी को तो अनादि मानना ही पड़ता है, जो कभी न बना हो और न कोई उसका बनाने वाला ही हो, इन दोनोंमें ईश्वर तो कहीं दिखाई नहीं देता है उसकी तो मनघड़ंत कल्पना करनी पड़ती है और संसार साक्षात विद्यमान
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है, जिसकी किसी भी वस्तुका कभी नाश नहीं होता है, और न नवीन ही पैदा होती है, जिसका अनादिसे अवस्था बदलते रहना ही सिद्ध होता है, तब मनघड़ंत कल्पित ईश्वरको न मानकर संसारको ही अनादि मानना सत्य प्रतीत होता है ।
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अवस्था बदलने की भी वैज्ञानिक रीतिसे जाँच करनेपर संसारमें दो प्रकारकी वस्तुयें मिलती हैं; एक जीव - जिसमें ज्ञानशक्ति है; और दूसरी अजीव - जो ज्ञानशून्य है । जीव कभी श्रजीव नहीं हो सकता और जीव कभी जीव नहीं हो सकता, यह बात अच्छी तरह जांच करनेसे साफ सिद्ध हो जाती है; जिससे यह ही मानना सत्यता है कि जीव और जीव यह दो प्रकारके पृथक् पृथक् पदार्थ ही सदासे हैं और सदातक रहेंगे। जीव अनेक हैं और सब जुदे जुड़े यह सब जीव सदासे हैं और सदातक रहेंगे ? अवस्था इनकी भी बदलती रहती है परन्तु जीवोंका नाश कभी नहीं होता है । अजीव पदार्थोंमें से ईंट पत्थर हवा पानी आदि जो अनेक रूप नज़र आते हैं और पुद्गल कहलाते हैं, वे सब भी अनेक अवस्था रूप अलट पलट होते रहते हैं। कभी ईंट, पत्थर, मिट्टी, लकड़ी लोहा, चाँदी आदि ठोस रूपमें, कभी तेल पानी व दूध, घी आदि बहनेवाली शक्ल में, कभी हवा, गैस आदि आकाश में उड़ती फिरनेवाली हालत में, और कभी जलती हुई यागके रूपमें, एक ही वस्तु इन सब ही हालतों में अदलती बदलती रहती है, यह बात अनेक वस्तुओं पर जरासा भी ध्यान देनेसे स्पष्ट मालूम हो जाती है ।
इसके अलावा यह पुद्गल पदार्थ अन्य भी अनेक प्रकारका रूप पलटते हैं; एक ही खेतमें आम, इमली, अमरूद, अनार, अंगूर, नारंगी आदि अनेक प्रकारके बीजोंके द्वारा एक ही प्रकारकी मिट्टी पानी और हवाका
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आहार लेकर ग्राम अमरूद मादि तरह-तरहके वृक्ष पैदा स्वभावके ही अनुसार होता है, और वस्तुका यह स्वभाव हो जाते हैं। अर्थात् तरह तरहके बीजोंके निमित्तसे एक घटना है, वस्तु अनादि है इस कारण उसका स्वभाव भी ही प्रकारकी मिट्टी पानी प्राम अमरूद भादि नामकी अनादि है। किसीके माधीन नहीं है कि जो जिस समय तरह तरहकी पर्यायोंमें पलट जाती हैं, जिनका रंग रूप जिस रूप चाहे वैसा ही स्वभाव किसी वस्तुका करदे । स्वाद, स्वभाव, पत्ते फूल फल आदि सब ही एक दूसरे- इस ही निश्चयके कारण तो संसारके सब ही मनुष्य से जुदे होते हैं । कोई घास है, कोई बेल है, कोई पौदा और पशु पक्षी संसारकी वस्तुओंका स्वभाव पहचानकर है, कोई तृण है, कोई वृक्ष है; और इनमें भी फिर इतने और उस स्वभावको अटल जानकर उनको वर्तते हैं। भेद जिनकी गिनती नहीं हो सकती है। इस ही घास, यदि ऐसा न होता तो संसारका कोई भी व्यवहार न फूस, और फल, फूलको बकरी खाती है तो बकरीकी चल सकता, अर्थात् संसार ही न चल सकता, यह सारा क्रिस्मका शरीर और आँख नाक कान प्रादि बनेंगे; संसार तो वस्तुओंके अटल स्वभावपर ही एक दूसरेका घोड़ा खावेगा तोघोड़ेकी क्रिस्मके, और बैल खावेगा निमित्तपाकर आपसे भाप चल रहा है, योल्पके वैज्ञा तो बैलकी क्रिस्मके, अर्थात् एक ही प्रकारका घास फूस निक भी यह जो कुछ तरह तरहके महा आश्चर्यजनक तरह तरहके पशुभोंके पेटका निमित्त पाकर, उनके द्वारा आविष्कार कर रहे हैं, वह सब वस्तुओंके स्वभाव और पचकर तरह तरहके शरीर रूप बन जावेगा; तरह तरहके उनके अटल नियमोंके खोज निकालनेका ही तो फल पशुओंकी पर्याय धारण करलेगा, फिर एक ही मिट्टी है, वे रेडियो जैसी सैकड़ों आश्चर्यजनक वस्तुयें बनाते पानीसे बने हुए तरह तरहके वृक्षों बेलों और हैं और हम देख-देखकर आश्चर्य करते हैं। हममें और पौदोंके फूल पत्ते और अनाज जो मनुष्य खाता है उनमें इनने बड़े भारी अन्तर होनेका कारण एकमात्र उससे मनुष्यका शरीर बनजाता है अर्थात् यह ही सब यह ही है कि वे तो वस्तु स्वभावको अनादि निधन और वस्तुयें मनुष्यकी पर्याय धारण कर लेती हैं।
घटल मानकर उसके जानने और समझनेकी कोशिश यह कैसा भारी परिवर्तन है जो दूसरी दुसरी व करते हैं और वस्तुके अनन्त स्वभावोंमसे किसी एक स्तोंका निमित्त पाकर प्रापसे श्राप संसारमें होता स्वभावको जानलेनेपर उससे उसहीके अनुसार काम लेने. रहता है । इसपर अच्छी तरह गौर करनेसे यह भी लग जाते हैं और हम वस्तुओंके स्वभावको अटल न मालूम हो जाता है कि यह परिवर्तन ऐसा अटकलपच्च् मान उनको किसी ईश्वर या देवी देवता नामकी किसी नहीं है जो कभी कुछ हो जाय और कभी कुछ; किन्तु अदृष्ट शक्तिको इच्छाके अनुसार ही काम करती हुई सदा नियमबद्ध ही होता है। भामके बीजसे सदा समझ, उस अदृष्ट शक्तिके भेदको अगम्य समझ मूर्ख श्रामका वृक्ष ही उगता है और नीमके बीजसे सदा यने बैठे रहना ही बेहतर समझते हैं । और जब वैज्ञा नीमका ही, यह कभी नहीं हो सकता कि प्रामके बीज निक कोई अद्भुत वस्तु बनाकर दिखाते हैं तो हम उनके से नीमका और नीमके बीजसे प्रामका वृक्ष पैदा हो. इस कामको देखकर चकाचौंध होकर भौचकेसे रहजाय, यह अटल नियम सब ही वस्तुमों में मिलता है, जाते हैं और इसको भी ईश्वरकी एक लीला मानकर जिससे साफ सिद्ध होता है कि यह सब उल्ट फेर वस्तु उसकी बड़ाई गाने लग जाते हैं।
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अनेकान्त
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ज्यों ज्यों वस्तुभोंके इन अटल स्वभावों, उनके प्रत्येक कारणका कार्य, कारणोंका स्वयमेव मिलना, अटल नियमों, तरह तरहके निमित्तांके मिलनेसे उनके स्वयं भी मिलना और दूर हटना, अजीवका जीवपर नियमबद्ध परिवर्तन करने, पर्याय पलटने और इन सब असर, जीवका अजीवपर प्रभाव, जीवका जीवके साथ
के अपने स्वभावानुसार एक ही संसारमें काम उपकार और अपकार यह सब वास्तविक विज्ञान बड़ी करते रहने के कारण आपसे श्राप ही एक दूसरेके निमित्त ही सुलभ रीतिसे बताया है। अंतमें जीवको अपने सब बनते रहनेकी खोजकी जाती है,त्यों त्यों यह ही निश्चय विकार दूरकर अपना सचिदानन्द स्वरूप प्राप्त करनेका होता चला जाता है कि यह सारा संसार वस्तु स्वभाव मार्ग सिखाया है जो जैन ग्रन्थोंसे भली भाँति जाना के अटल नियमपर ही चलता रहा है और इसही पर जासकता है। यहाँ इस लेखमें उसका कुछ थोडासा चलता रहेग । सबही वैज्ञानिक इस विषयमें एक मत दिग्दर्शन करादेना ज़रूरी मालूम होता है। हैं और ज्यों-ज्यों अधिक अधिक खोज करते हैं त्यों-त्यों उनको इसका और भी दृढ़ निश्चय होता चला जाता
संसारीजीवोंकी प्रत्येक क्रिया रागद्वेष और मोहके है और वस्तु स्वभावकी ज़्यादा ज़्यादा खोज करनेका कारण ही होती है, मान, माया, लोभ क्रोध आदिक चाव अधिक बढ़ता जाता है। अफसोस है कि योरुपके
अनेक तरंगे उठती हैं, किसी वस्तुसे सुख और किसीसे इन वैज्ञानिकोंको अभीतक जीवके स्वभावकी खोजकर ।
दुःख प्रतीत होता है, रति अरति शोक भय ग्लानि काम अध्यात्म ज्ञानकी प्राप्तिका शौक नहीं हुश्रा है, अभीतक भोगकी मस्ती पैदा होती है, इन ही सब कषायों के उनका उलझाव अजीव पदार्थकी ही खोजमें लगा हुआ
कारण मन वचन कायको क्रिया होती है। जैसी जैसी है और इसमें उन्होंने असीम सिद्धी भी प्राप्त करली है। कषाय उत्पन्न होती है फिर वैसी वैसी ही कषाय करनेके इस ही तरह अध्यात्मज्ञानकी बाबत भी जो कोई मन
संस्कार प्रात्मामें पड़ते रहते हैं, इस प्रकारके संस्कार लगावेगा तो इसमें भी उसको वह ही अटल स्वभाव,
पड़नेको भावबन्धन कहते हैं। कुम्हार दंडेसे चाकको अटल नियम, निमित्त कारणों के मिलनेसे नियमरूप घुमाता है, फिर घुमाना बंद करदेनेपर भी चाक आपसे परिवर्तन, अनेक पर्यायों में अलटन पलटन आदि सभी आप ही घूमता रहता है, उसमें भी कुम्हारके घुमानेसे बातें मिलेंगी । विशेष इतना कि जीवों में ज्ञान है. राग- घुमाने का संस्कार पड़जाता है, इस ही कारण कुम्हारके द्वेष है, मोह है और सुख दुःखका अनुभव है. ज्ञान द्वारा घुमाना बन्द करदेनेपर भी उस चाकको आपसे भी उनका बहुत ही भेद हो रहा है और एक दसरेकी आप घूमना पड़ता है । इस ही को भादत पड़ना कहते अपेक्षा किसी में बहुत कम और किसी में बहुत ज्यादा
हैं । नशेकी आदत बहुत जल्द पड़ती है और वह छटनी नज़र भारहा है, ज्ञानको यह मंदता, कम व बढ़तीपना,
भारी हो जाती है। बहुतसी बातोंकी भारत देरमें रागद्वेष और मोह अनेक प्रकारकी इच्छा और भड़क
पड़ती है, लेकिन पड़ती है जरूर । जिनको मिरच खाने दुःख और सुखका अनुभव, यह सब उसके अजीव
की पादत होजाती है वे आँखों में दर्द होनेपर भी मिरच पदार्थके साथ सम्बन्ध होने के कारण उनमें विकार पा- खात ह, दुःख उठात है, सिर पीटते हैं और चिल्लात है, जानेसे ही हो रहा है। अजीव पदार्थके साथ उसका
लेकिन मिर्च खाना नहीं छोड़ सकते हैं। जैसी जैसी यह सम्बन्ध और उसका यह विकार सर्वथा दूर होकर
क्रिया जीव करता है, जैसे जैसे भाव मनमें लाता है, उसको अपना असली स्वरूप भी प्राप्त हो सकता है,
जैसे जैसे वचन बोलता है वैसी ही वैसी आदत इसको जो सदाके लिये रहता है।
होजाती है, फिर फिर वैसा ही करनेका संस्कार उसमें
पड़ जाता है, उसी प्रकारके बंधन में यह बंध जाता है। वीर भगवान्ने यह सब मामला वैज्ञानिक रूपसे बोका स्यों समझाया है, जीवकी प्रत्येक दशाका कारण,
(शेष भागामी अंकमें)
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मैं तो बिक चुका !
[लेखिका-श्रीमती जयवन्तीदेवी, उपसंपादिका 'जैनमहिलादर्श']
राखदेव एक साधारण स्थितिके मनुष्य थे। डाक्टरने नब्ज देखी. माता बोली-कहिये !
इनके खुशालचन्द्र नामक एक पुत्र तथा सरला डाक्टर माहब क्या हालत है ? अच्छा भी हो नामकी एक कन्या थी। इन्होंने बाल्यकालसं ही जायगा ? इतना कहकर वह फूट फूटकर रोने लगी। अपनी सन्तानको उच्च शिक्षा दी थी । जो कुछ मोहनने उनको धैर्य बंधाया और आप उसकी द्रव्य कमाते थे. वही पुत्र व पुत्रीकी शिक्षामें लगा सेवा सुश्रुषा करने में जुट गया। देते थे।
सुग्वदेवने पत्नीसे कहा-घरका तमाम रुपया जब लड़का बी० ए० में उत्तीर्ण होगया. तो खत्म होचुका है, मुझे अब क्या करना चाहिये ? सुखदेव नित्य नानाप्रकारकी कल्पनाएँ किया करते पत्नीने कहा-करोगे क्या, खुशालसे बढ़कर इम थे। विचारते थे कि 'अब हमारे शुभ दिन आगए, संमारमें और क्या प्यारा है ! लो, ये कड़े और खुशालका काम लग जायगा, मैं भी अनाथालय जंजीर बेच दो, इलाजमें कमी न हो। भगवान कर और विद्यालयोंकी सहायता करूँगा' इत्यादि कल्पना यह अच्छा होजाय । मेरा तो यही धन है, यही करते थे और प्रसन्न होते थे; लेकिन दैवको उनका मर्वम्व है । जेवर भी बंचकर इलाजमें लगा दियाः प्रसन्न होना सहन न हो सका।
परन्तु खुशालचन्द्र को कुछ भी फायदा नहीं हुआ। __ होनहार बलवती होती है। भाग्यन पलटा आस्त्रिरकार, एक दिन प्रातःकाल सबके देखतेखाया, खशालचन्द्रको निमोनिया होगया । बड देखते खशालचन्द्र के प्राण पखेरू उड़गये। तमाम बड़े डाक्टर बुलाये, वैद्योंका इलाज करायाः परन्तु घरमें कोलाहल मच गया । सुखदेव और उनकी बीमारी दिन प्रतिदिन बढ़ने लगी।
पत्नीका विलाप सुनकर सब लोग दुग्वी हो रहे थे, बेचारे सुखदेव और उनकी पत्नी दुःखसागरमें मदय मंघोंमे भी इस ममय उनका विलाप सुनकर गोते लगाने लगे। पुत्रकी ऐसी अवस्था देखकर न रहा गया-वे भी गरजकर रो पड़े । दोनों अविरल-अश्रुधारासे अपना मुँह धो रहे थे। मुखदेवकी ममम्त आशाओंपर पानी फिर इसी समय किसीने दर्वाजा खटखटाया। सुखदेव गया, जीवन मर्वम्व लुट गया, जन्मभरकी कमाई ने उठकर द्वार खोला, देखा कि खुशालचन्द्रका मिट्टीमें मिलगई । लाश पड़ी हुई थी कि इतनेमें ही मित्र मोहन एक सुयोग्य डाक्टरको लेकर आया पोस्टमैनने लिफाफा लाकर दिया, देखा तो खशाहै । उनको देखकर सुखदेवको कुछ धैर्य हुआ। लचन्द्रकी चारसौ रुपयेकी नौकरीका हुक्म था।
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अनेकान्त
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उसे देखकर सारी जनता हाहाकार करने लगी। देखने आवेंगे तो कितनी मिलाई करोगे ? लड़कापर बन क्या सकता था, बेचारे सन्तोष करके लड़का तो देख ही रहा हूँ। बैठ रहे। ___ पुत्र वियोगसे सुखदेव बीमारसे रहने लगे। विलासपुरमें ला० प्यारेलाल एक धनाढ्य पत्नी सोचती थी कि होनहार जो थी सो मनुष्य हैं । इनके चार पुत्र हैं। प्यारेलालने इन तो हो चुकी । घरमें लड़की कुँआरी है। इसके चारों पुत्रोंके पढ़ाने-लिखानेमें कुछ कमी नहीं फेरे तो फेरने ही हैं। ऐसा हो कि इसको अपने रक्खी । साथ ही, वे उनको नम्र, सुशील तथा हाथों पराये घरकी करदें। यह चिन्ता उसको हर- धर्मात्मा बनाने में भी दत्तचित्त रहे । आज ज्येष्ट दम सताने लगी।
पुत्र विशालचन्द्रकी बी० ए० में फर्स्ट डिविजनसे __होते होते जब कुछ दिन बीत गये, तो सुखदेव- पास होनेकी खबर मिली है । सारा घर गीत-वासे उनकी पत्नीने कहा-"जो दुःख भाग्यमें बदा दित्रकी ध्वनिसे ध्वनित होरहा है ! कहीं मित्रोंको था सो तो हो चुका, अब लड़की सयानी हो गई प्रतिभोज कराया जारहा है, कहीं नृत्य होरहे हैं। है, इसके लिये कहीं घर-वर ढूँढना चाहिये । छुट्टीके दिन समाप्त होते ही प्यारेलाल विशा किया क्या जाय, काम तो सभी होंगे। नहीं है तो लचन्द्रको इंजीनियरिंगमें दाखिल कर जब वापिस एक खुशाल ही नहीं है।
घर आए तब भोजन श्रादिमे निमटकर दम्पति मुखदेव-क्या करूँ, इन मुमीबतोंकी मुझे इस प्रकार वार्तालाप करने लगेखबर नहीं थी, मैं तो सोचता था कि खशालकी पत्नी-कहिये, विशाल दाखिलेमें आगया है. नौकरी होनेवाली है, किमी योग्य लड़कीसे इसका या नहीं ? विवाह करके घरको स्वर्ग बनाऊँगा । सरलाका प्यारेलाल-हाँ, आगया है । लाओ मिठाई व्याह भी ठाठ बाटसे करूँगा; मगर मुझ अभागे- खिलाओ । अब क्या कसर है, कालेजसे निकलते की बांछा क्यों पूरी होती ? जो कुछ रुपया था ही ढाईसौसे लेकर पन्द्रहसौ तककी तनख्वाह पहले पढ़ाई में लगादिया, फिर जो कुछ बचा, मिलेगी। इलाजमें खत्म कर दिया
पत्नी-ईश्वरकी दयासे वह सफलता प्राप्त आजकल जिधर देखो पैसे की पृछ है। लड़की करे। हमारी तो यही भावना है। २० सालका चाहे सुंदर हो या बदसूरत, विदुषी हो या मूर्ख होगया । अवतक तो उसने परिश्रम ही परिश्रम हो; मगर जिसने अधिक रुपया देदिया उसकी किया है; आराम कुछ देखा ही नहीं। अबतो उसके सगाई लेली। किससे कहूँ, क्या करूँ ? भाग्यमें सिरपर मौर बंधा देखनेकी मेरी प्रबल उत्कण्ठा लेना बदा नहीं था, वरना जैसा दान दहेज आता होरही है । घरमें अकेली ही रहती हूँ। कोई बच्चा वैसा देकर छुट्टी पाता । जहाँ कहीं जाता हूँ, पहला तक पास नहीं है । बहू आजाय तो घरमें चाँदना सवाल यह है कि सगाईमें कितना दोगे? लड़की नज़र आवे । आप तो रिश्तेके लिये हाँ करते ही
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वर्ष २, किरण ११]
मैं तो बिक चुका!
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नहीं, अब तो सब पढ़ाई खतम हो चुकी, सिर्फ देनेके लिये तय्यार हूं। यह साल बाकी है सो अब तो शादी करके मेरी प्यारे०-भाईसाहब ! लड़की देखकर रिश्ता मनोकामना पूरी करो।
लेंगे। यह तो आप जानते ही हैं कि मिलाईमें २१ ___ प्यारेलाल-अच्छा अब तुम्हारा ही कहना अठमाशीके दिये बिना इज्जत नहीं है। दो हजार करूँगा लेकिन बहका अभी चावलग रहा है, जब रुपये सगाईमें और दो हजार शादीमें भी देना बाजायगी तब रात-दिन लड़ाई रहा करेगी। कहो, होगा। लड़ोगी तो नहीं ?
आगन्तुक यह सुनकर दंग रह गया और यह ___ पत्नी- आप तो वही मसल करते हैं कि कहकर कि अच्छा, "मैं आपको घर जाकर पत्र “घरमें सून न कपास जुलाहेसे ठेगमठेगा" बहू तो लिखूगा" चल पड़ा । यह आगन्तुक वही मोहन भाई नहीं, लड़ाईकी बात शुरू करदी।
था जो खुशालचन्द्र का मित्र था । सुखदेवने ही ये बातें हो ही रहीं थीं कि बाहरसे नौकर आया मोहनको लड़कीके रिश्ते के लिये भेजा था। कि आपको एक बाबू बुलाते हैं। प्यारेलाल उठकर मोहनने सुखदेवसे आकर सब हाल कह गए।
सुनाया । सुनकर सुखदेव सोच विचारमें पड़ गये। आगन्तुक-जयजिनेन्द्र देवकी।
ऐसा लड़का मुझे कहीं न मिलेगा। वे पत्नीसे कहने प्यारेलाल-जयजिनेन्द्र देवकी साहिब ! लगे-इतना रुपया कहाँसे लाऊँ,क्या करूँ ? गहना कहिये, कुशल क्षेम है? आपका निवास स्थान कहाँ भी कोई नहीं है जिसे बंच दू । हाँ, यह रहनेका है ? ( कुर्सीकी ओर संकेत करते हुए) यहाँ मकान है, इसस चाहे जो करलो। बिराजिय।
पत्नी-सोचनेसे क्या होता है ? इम रिश्तेको आगन्तुक बैठ गया । तदनन्तर प्यारेलालने जान दीजिये, कहीं और देख ले, आखिर इतना कहा-भोजन तय्यार है, आप स्नानादिसं निर्वत्त रुपया कहाँस आवेगा। होजायें।
सुखदेव-मैं तो किसी अच्छे लड़केसे ही आगन्तुक-मैं तो खाना खाचुका हूँ । यह रिश्ता करूँगा । यदि तुम्हारी समझमें आवेतो यह आपकी मेहरबानी है। मैं ने सुना था कि आपका मकान बंचदें और कुछ रुपया रुक्का लिखकर लेलें। लड़का शादी करने योग्य है सी में अपनी बहनका शादी करने के बाद हम दोनों कहीं नौकरी करके रिश्ता उनके साथ करना चाहता हूँ। लड़की सुन्दर कजं उतार देंगे । तुमको मिलाईका काम अच्छा तथा गृहकार्यमें दक्ष है।
आता ही है, तुम मिलाई करना, मैं नौकरी कर प्यारेलाल-अजी भाई साहब ! लड़कीकं लूंगा। सिलाईस हमारा गुजारा होता रहेगा और विषयमें आपने कहा सो तो ठीक है; लेकिन देन नौकरीसे कर्ज अदा होता रहेगा। लेनकी बात भी बतलाइये।
पत्नी-जैसी आपकी इच्छा हो, मैं उसीमें आगन्तुक-जो कुछ आप कहंगे मैं यथाशक्ति सहमत हूँ । निःसन्देह लड़की अच्छे घर चली
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बायगी। बाकी हमें करना ही क्या है। कि मैं एक कंगालके घर फकीरोंकी तरह विवाह
_ इस प्रकार सुखदेवने यह निश्चय कर लिया करूँ । विशालचन्द्र यह सुनकर चुप हो रहे। कि मैं अब रिश्ता वहीं करूँगा उन्होंने मोहनको बुलाया । मोहनने पूछा-कहिये, आपकी क्या अाज विशालचन्द्रकी शादीका दिन है । सारा सलाह रही।
शहर बाजेकी ध्वनिसे गूंज रहा था । कहीं गाने - सुखदेव-बस भाई मोहन ! मैंने निश्चय कर वालोंकी मंडली थी तो कहीं उपदेशकों की भीड़ लिया है कि प्यारेलालके यहाँ ही रिश्ता करूंगा। थी। मोहन-आखिर आप इतना रुपया कहाँसे लाएँ. प्यारेलाल वेश्या अथवा अश्लील नाटक नहीं
लेगये थे बल्कि बाहरसे बड़े बड़े विद्वान पण्डित ___ मुखदेव-बेटा ! यह मकान बेचदूगा और बुलवाए जिन्होंने प्रभावशाली भाषण दिये; कुछ रुपया कर्ज लेलूंगा । फिर शादीके बाद नौकरी जिससे बहुतसे मनुष्योंने सिगरेट पीना, तमाख्नु करके अदा कर दूंगा।
खाना छोड़ा तथा वसन्ततिलकाके मोहमें पड़कर __ मोहनने अटल निश्चय देखकर हाँ में हाँ चारुदत्तकी क्या दशा हुई इसका नाटक दिखाया मिलाई और सगाईकी रस्म करदी।
गया जिससे वेश्यासे घृणा उत्पन्न हुई। * *
सखदेवने भी बरातियोंकी खातिरमें कोई कमी मोहनने अपने एक मित्र द्वारा विशालचन्द्रको न रक्खी । आखिर; विदाका दिन आया, पलंग यह ज्ञात करा दिया था कि तुम्हारे श्वसुरकी ऐसी पर लड़का बैठाया गया। जब सब कार्य हो चुका स्थिति है और किस प्रकार शादीमें रुपया लगाएँगे। तो वरसे कहा कि उठो; लेकिन न तो वे उठे ही
विशालचन्द्र यह मालूम करके अत्यन्त दुखित और न कुछ उत्तर ही दिया । विशाल चन्द्रक न हुए। उन्होंने पितासे प्रार्थना पूर्वक कहा-पिताजी उठने पर लोगोंने समझा कि कुछ और लेना लाला सुखदेवकी आर्थिक स्थिति बहुत स्वराब है। चाहते होंगे। यह सोचकर कहने लगे कि जो कुछ उन्होंने अपना मकान बेचकर तथा कर्ज लेकर चाहिये कहें, वही हाज़िर है। परन्तु उन्होंने इसपर विवाहमें देना निश्चित किया है । कृपा कर आप भी कुछ उत्तर नहीं दिया। उनसे इतना रुपया न लीजिये। मेरे और तीन भाई जब प्यारेलालको यह मालूम हुआ कि लड़का हैं, उनके विवाहमें जो चाहें लेलें । बेचारे बीमारसे उठना नहीं तो वे स्वयं वहाँ गए और कहारहते हैं, उम्र भर नौकरी करेंगे तब कहीं कर्ज़ बेटा ! चलो समय हो गया है फिर रात हो जायगी। उतरेगा।
तब विशालचन्द्र बोले-पिताजी ! मैं अब कैसे पिताने कहा-तुम यह क्या कहते हो, अगर जासकता हूँ मैं तो पाँच हजारमें बिक चुका हूँ। उनके पास रुपया नहीं था तो कहीं गरीबके घर आप अपनी पुत्रवधू को ले जाइये, मैं तो अब रिश्ता करना उचित था । यह मेरी शानके बाहर है जैसा ये (सुखदेवकी ओर संकेत करके ) कहेंगे
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वर्ष २, किरण ११]
तृष्णाकी विचित्रता
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वमाही करूँगा; क्योंकि अब मैं इनका हो चुका हूँ। सुखदेवको खुशीका पारावार न रहा, मानो उनका __पुत्रका ऐसा उत्तर सुनकर प्यारेलाल काठमारे पुत्र ही फिरसे दामादके रूप में आया हो। से हो गये । मनही मन बहुत क्रोधित हुए, लेकिन दम्पति वहीं पर सुखसे रहने लगे । विशालकर क्या सकते थे । लज्जत होकर सब कुछ वहीं चन्द्रकी पांचसोकी नौकरी लगी। एक सालमें ही छोड़ अपने घर गये।
उन्होंने सुखदेवका सब ऋण चुका दिया । सब लोग उनके रुपये लेने पर हँसी उड़ाने आज दिन सुखदेवको घरमें स्वर्गीय सुखोका लगे। कोई कुछ कहता था कोई कुछ । इधर अनुभव हो रहा है।
तृष्णाकी विचित्रता
( एक गरीबकी बढ़ती हुई तृष्णा ) जिम समय दीनताई थी उस ममय ज़मीदारी पाने की इच्छा हुई, नर जमीदारी मिली तो सेठाई पानेकी इच्छा हुई, जब मेठाई प्राप्त होगई तो मंत्री होनेकी इच्छा हुई, जब मत्री हुश्रा तो राजा बननेकी इच्छा हुई जब राज्य मिला, तो देव बननेकी इच्छा हुई, जब देव हुआ तो महादेव होनेकी इच्छा हुई । अहो रायचन्द्र ! वह यदि महादेवभी हो जाय तो भी तृष्णा तो बढ़ती ही जाती है, मरती नहीं, ऐगा मानों ।। १ ॥ ___मुँहपर झुर्रियां पड़ गई, गाल पिचक गये, काली केशकी पट्टियाँ सफ़ेद पड़ गई; सूंधने, सुनने और देग्वनकी शक्तियाँ जाती रहीं, और दाँतांकी पंक्तियाँ खिर गई अथवा घिस गई, कमर टेढ़ी होगई, हाड़ मांस सूख गये, शरीरका रंग उड़ गया, उठने बैठने की शक्ति जाती रही, और चलने में हाथमे लकड़ी लेनी पड़गई। श्ररे ! रायचन्द्र इस तरह युवावस्थासे हाथ धो बैठे, परन्तु फिर भी मनसे यह रॉड ममता नहीं मरी॥२॥
करोड़ों कर्जका सिरपर डंका बज रहा है, शरीर सूखकर रोगस ऊँध गया है, राजा भी पीड़ा देने के लिये मौका तक रहा है और पेट भी पूरी तरहसे नहीं भरा जाता । उमपर माता पिता और स्त्री अनेक प्रकारकी उपाधि मचा रहे हैं, दुःखदायी पुत्र और पुत्र खाऊँ खाऊँ कर रहे हैं । रायचन्द्र ! तो भी यह जीव उधेड़बुन किया ही करता है और इससे तृष्णाको छोड़कर जंजाल नहीं छोड़ी जाती ॥ ३ ॥
नाड़ी क्षीण पड़गई, अवाचककी तरह पड़रहा, और जीवन दीपक निस्तेज पड़ गया । एक भाईने इसे अन्तिम अवस्थामें पड़ा देखकर यह कहा कि अब इस बिचारेकी मिट्टी ठंडी होजाय तो ठीक है । इतनेपर उस बुढ़ेने खीजकर हाथको हिलाकर इशारेसे कहा, कि हे मूर्ख ! चुप रह, तेरी चतुराई पर आग लगे। अरे रायचन्द्र ! देखो देखो, यह प्राशाका पाश कैसा है ! मरते मरते भी बुढ़ेकी ममता नहीं मरी ॥४॥
-श्रीमद् राजचन्द्र
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युगान्तर
हमारा लक्ष्य पीड़ा-कसक, मधुर बन जाए,
स्वागतार्थ होंगे हम उद्यत समोद, यदिबाँछनीयता युत क्रन्दन !
पावन प्रयाण-मध्य विघ्न-दल आवेंगे ! मृत्युनगरलके वक्षस्थलपर,
धर्म देश जाति-हित प्राणोंका न होगा लोभथिरक उठे मेरा जीवन ! .
आएगा समय निकलंकता दिखावेंगे !! बाधाएँ, अभिलाषाओं-सी,
भीरुताके भावोंका न होगा हममें निवासकोमल, मोहक बन जाएँ।
'धर्म-ध्वज' लेके जब कदम बढ़ावेंगे ! कष्टोंकी नृशंसतामें हम,
दूर हट जायेगा विरोध-अन्धकार सबस-क्रिय नव-जीवन पाएँ।
सत्य-रश्मियोंकी जब ज्योति चमकावेंगे !! दुःखमें हो अनुभूति सौख्यकी,
पशुताकी श्रृंखलामें जकड़ा हुआ है मन, सुखमें रहे न दुर्लभता।
उसे मानवीयताका मंत्र बतलावेंगे ! पशुतामें भी सुलभ-साध्य हो,
जिनकी स-क्रिय प्रतिभाएँ हैं कुमार्ग पर, निश्छल, शिशु-सी मानवता ।
उन्हें सुविशाल-धर्म पथ दिखलावेंगे !! बन्धन ?--बन्धन रहे नहीं वह,
मूर्खतासे पूर्ण, हठवादमें पड़े हैं जो किबन जाए गतिकी मर्याद।
प्रेम-नीर सिचनसे सरल बनावेंगे ! उस विकासकीसीमा तक,
करेंगे विकास सत्य-धर्मका प्रभावनीय, है जहाँ विसर्जित आशावाद ।
ध्वान्त ध्वंस कर आत्म ज्योति चमकावेंगे !! [श्री भगवत्' जैन]
सम्पादकजी बीमार बड़े दुःख और खेदके साथ प्रकट किया जाता कि वे कुछ लेखोंका सम्पादन कर चुके थे। पिछले कि सम्पादक पं. जुगलकिशोरजी मुख्तार ११ बाब सूरजभानजी आदिके लेखोंका वे सम्पदन अगस्तसे बीमार पड़े हैं। उन्हें जोरका बुखार नहीं कर सके । आशा नहीं है कि वे जल्दी ही आया । स्थानीय वैद्य-हकीमका इलाज कराया गया। कोई लेख लिख सके, और १२वी किरणके समस्त
और फिर सहारनपुरसे डाक्टर भी बनाया गया, लेखांका सम्पादन कर सकें । ऐसी हालतमें मुख्तार जिनका इलाज अभीतक जारी है। जुलाब दिया सा० के मित्रों, प्रेमियों और उनकी कृतियोंसे अनुगया और इन्जंक्शन भी किया गया। इस सब राग रखनेवालोंका जहाँ यह कर्तव्य है कि वे इस उपचारसे बुखार तो निकल गया, कुछ हरारत अव- संकटके अवसर पर उनके शीघ्र निरोग होनेकी शिष्ट है । लेकिन कमजोरी बहुत ज्यादा होगई है। उत्कट भावना भाएँ, वहाँ विद्वानोंका और सुलेखऊठा-बैठा नहीं जाता, उठते-खड़े होते चक्कर आते कोंका भी खास कर्तव्य है कि वे अपने उत्तम लेखाहैं और रातको नींद नहीं आती, अन्न वन्द है, से 'अनेकान्त' पत्रकी सहायता करें, जिससे १२वीं थोड़ासा दूध तथा अँगूर-अनारका रस लिया जाता किरण और 'विशेषांक' की चिन्ता मिटे । आशा है है, वह भी ठीक पचता नहीं, व भोजनमें रुचि भी · विद्वान लोग मेरे इस निवेदनको जरूर स्वीकार नहीं है। इससे बड़ी परेशानी हो रही है, और करेंगे। इसी वजहसे 'अनेकान्त' में वे अबकी बार अपना
निवेदककोई लेख नहीं दे सके हैं। इतना ही ग़नीमत है
परमानन्द जैन
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'वीरसेवामन्दिर-लायब्रेरी को सहायता हालमें श्री मुनि जिनविजयजी मंचालक मिघी-न ग्रन्थमाला बम्बईन ग्रन्थमालाक अब तक प्रकाशित हुए 10) मृल्यक कुल प्रन्थ, श्री पं० नाथगमजी प्रेमी. मालिक हिन्दीग्रन्थरत्नकार कार्यालय बम्बईने -५) मृल्यक ६ हिन्दी ग्रन्थ भार प्रोफेसर हीगलालजी जैन एम. ए. अमरावतीन कारचा मोरीजक ८।।) मूल्यक दो ग्रन्थ मुझे भंट कर के वीरमेयामन्दिर लायब्ररीकी जो महायता की है उसके लिये ये सब मजन बहुतही धन्यवाद के पात्र हैं और मैं उनकी इम कृपाका बहुतही आभारी हूँ।
आशा है दमर मजन भी इन मजनोंका अनकरण करक वारसवामन्दिर लायनेगको मत्र प्रकारस पुष्ट वनानम अपना महयोग प्रदान करेंगे । इस समय लायबेगका केशव वर्गीकी संस्कृत टीका
और पं० टोडरमलजीकी भापाटीका महिन मुदिन गोमटमारक दोनों ग्वण्डोंकी और भापाटीका महिन प्रकाशित गजबार्तिकाक मब ग्वग डोंकी तथा भापाटीकामहिन मुदिन लब्धिमार-क्षपणासरी वाम जरूरत है । जो महानुभाव भादोंक पवित्र दिनों में इन ग्रन्थोंका या इनमें से किमा भी ग्रन्थको संस्थाको प्रदान करनेकी कृपा करंग, उनका मैं बहुन आभारी हूंगा।
--अधिष्ठाता 'वीमिंयामन्दिर'
चित्र और ब्लाक रंगीन. हाफटीन अथवा लाइन चित्र
या ब्लाक बनवाने के लिये
निम्न पता नोट कर लीजिये आपकं प्रादेशका पालन ठीक समय पर किया जाएगा।
मैनेजर-दी ब्लाक सर्विस कम्पनी
कन्दनाकशान ट्रीट, फतहपुर्ग-दहनी ।
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INAROKAR
SEASES
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93GRESSES
Satya
Regd. No... - वीरसेवामन्दिर ग्रन्थमाला - यह अन्थमाला किसी निजी लाभ अथवा व्यापारिक दृष्टि से नहीं निकाली जा रही है । इसका ध्येय और उद्देश्य उन महत्वके उपयोगी प्रन्थोंको अच्छे ढंगसे प्रकाशमें लाना है जिनका निर्माण तथा सम्पादन वीरसेवामन्दिरमें या उसकी मार्फत बहु परिश्रमके साथ हो रहा है और होने वाला है। लोकहितमें सहायक अच्छे गौरव-पूर्ण ठोस साहित्यको प्रचार देना और महत्वके लुप्तप्राय जैनसाहित्यका ल उद्धार करना इस ग्रन्थमालाका पहला कर्तव्य है, और इसलिये इसमें संस्कृत-प्राकृत-हिन्दीके मूल तथा 0 * भाषाटीकादि सहित सभी प्रकारके ग्रन्थ प्रकाशित हो सकेंगे।
- ग्रन्थोंका मूल्य जहाँतक भी हो सकेगा कम रखनेका प्रयत्न किया जावेगा और उसका अधिकतर आधार परोपकारी सज्जनोंकी सहायता पर ही निर्भर होगा। जो सज्जन जिस ग्रन्थके लिये कुछ सहा- यता प्रदान करेंगे उनकै शुभ नाम उस ग्रन्थमें धन्यवाद सहित प्रकाशित किये जायेंगे । जो महानुभाव
५२०) रु० या इससे अधिककी एक मुश्त सहायता देंगे उनके शुभ नाम प्रत्येक ग्रन्थमें-ग्रन्थमालाके ) र स्थायी सहायकोंकी सूची में बराबर प्रकट होते रहेंगे और उन्हें ग्रंथमालाका प्रत्येक ग्रन्थ बिना मूल्य,
भेंट किया जायगा । और जो उदार महानुभाव पाँच हजार या इससे अधिककी सहायता प्रदान करेंगी वे इस ग्रंथमाला तथा वीरसेवामन्दिरके 'संरक्षक' समझे जावेंगे, उन्हें प्रत्येक ग्रन्थकी १० कापियाँ बिना मूल्य भेंट की जायेंगी और उनका चित्र प्रत्येक ग्रंथके साथमें रहेगा।
मन्थमालाका प्रथम ग्रंथ 'समाधितन्त्र' संस्कृत और हिन्दी टोकासहित छपकर तय्यार हो चुका है। उसकी अधिकांश कापियाँ अनेकान्तके उन ग्राहकोंको भेंट की जायेंगी जो अगले सालका मूल्य, जो कि और अधिक पृष्ठ संख्या बढ़ाए जानेके कारण ३) रु० होगा, उपहारी पोष्टेज।) सहित मनीआर्डर आदिसे पेशगी भेज देवेंगे।
इस ग्रंथमालामें प्रकाशित होने वाले कुछ ग्रंथोंके नामादिक इस प्रकार हैं:EBAR. जैन लक्षणावली-प्रायः २०० दिगम्बर और २०० श्वेताम्बर ग्रंथों परसे संग्रहीत पदार्थों के PE लक्षण स्वरूपादिका अभूतपूर्व और महान संग्रह । यह ग्रंथ बड़े साइज़के कई खण्डोंमें प्रकाशित होगा।
२. पुरातन जैनवाक्य सूची-प्राकृत और संस्कृत के भेदसे दो विभागोंमें।
३. धवलादि श्रृंतपरिचय (मूल सूत्रादि-सहित)-इसमें श्रीधवल और जयधवल ग्रंथका विस्तृत का परिचय रहेगा और यह भी कई खण्डोंमें प्रकाशित होगा।
१४. समीचीन धर्मशास्त्र-हिन्दी भाष्य-सहित।
५. मृत्यु-विज्ञान-मृत्युको पहिलेसे मालूम कर लेनेके उपायोंको बतलाने वाला प्राकृत भाषाका प्राचीन अलभ्य ग्रंथ (नई हिन्दी टीका सहित)
६. आय-ज्ञानतिलक यह प्रश्नशास्त्र और निमित्तशास्त्रका पुराना प्राकृत भाषाका ग्रंथ है और संस्कृत तथा नई हिन्दी टीकाके साथ प्रकट होगा।
७. ऐतिहासिक जैन व्यक्तिकोश-इसमें भ० महावीरके समयसे लेकर प्रायः अब तक के उन सभी तिहासिक व्यक्तियों -मुनियों, प्राचार्यो, भट्टारकों, विद्वानों, राजाओं, मंत्रियों और दूसरे जिनशासन है
आदिका वह परिचय संक्षेपमें रहेगा जो अनेक ग्रंथों, प्रशस्तियों, शिलालेखों और ताम्रपत्रादिमें 3 आ पड़ा है। यह भी कई खण्डों में प्रकाशित होगा।
सरसावा जि० सहारनपुर १
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अधिष्ठाता वीरसेवामन्दिर)
नेमचन्द जैन ऑडीटरके प्रबन्धसे बीर प्रेस गॉफ इपिया कमांड सर्कसम्म वैली में कपा
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PORDSHARE
वार्षिक मूल्य २)
माश्विन र वर्ष २, किरण १२ । - वीर नि० सं०.२४६५
क्टूबर १९३ Mo'mino
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सम्पादक
49
संचालक जुगलकिशोर मुख्तार
तनसुखराय जैन
सहारनपुर) अधिष्ठाता वीर-सेवामन्दिर सर
, कनॉट सर्कस पो० ब० नं०४८ न्य देहली
कनाट सकस पा० ब०नं०४८न्य NADANALL
और प्रकाशक-अयोध्याप्रसाद गोयलीय
MARA
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CHANDNAGARIENDS
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विषय-सूची
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C
-३ समन्तभद्र-जयघोष, समन्तभद्र-विनिवेदन, समन्तभद्र-हृदिस्थापन ४ वीरभगवानका वैज्ञानिक धर्म--[ बा. सूरजभान वकील ५ भ० महावीरका जीवनचरित्र - श्री ज्योतिप्रसाद जैन 'दास' ६ यह सितमगर कब-[ श्रीकुमारी पुष्पलता ७ सुभाषित-[तिरुवल्लुवर
६५४, ६६५ ८ मन्दिरोंके उद्देश्यकी हानि--[पं० कमलकुमार जैन शास्त्री ६ वे पाये (कविता)-[पं० रत्नचन्द जैन १० अतीतके पृष्टोंसे ---[ 'भगवन्' जैन ५१ योनिप्राभूत और प्रयोगमाला-[पं. नाथूराम प्रेमी १२ कथा कहानी- [बा० माईदयाल बी. ए., बी. टी.
६६६ १६ मनप्योंमें उच्चता नीचता क्यों ?- [पं. बंशीधर व्याकरणाचार्य १४ गोवलक्षणोंकी सदोषता-[पं० ताराचन्द जैन दर्शनशास्त्री
६८० १५ जात्सुन्दरी-प्रयोगमाला की पूर्णता -[सम्पादकीय
६८९ १६ श्री. बाबू छोटे लालजी जैन रईस कलकत्ताके विशुद्ध हृदयोद्गार और ५००) रु० की रहस्यपूर्ण भेट टा०३
urur War
वीरसेवामन्दिरको सहायता
हाल में वीरसेवामन्दिर सरसावाको निम्न सज्जनांकी ग्रोरस २८) म० की महायता प्राप्त हुई है, जिसके लिये दातार महाशय धन्यवादके पात्र हैं :
२५) बाबू लालचन्द जी जैन, एडवोकेट, रोहतक । २) बाब रोशनलाल जैन, हेड क्लर्क रेल्वे फीरोज़पुर । १) बाबू देसराज जी जैन अबोहर (पंजाब)
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ॐ अहम्
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India नीति-विरोध-ध्वंसी लोक-व्यवहार-वर्त्तकः सम्यक् ।
परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥ : सम्पादन-स्थान-वीर-सेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम) सरसावा, जि. सहारनपुर । वर्ष २ प्रकाशन-स्थान-कनॉट सर्कस, पो० ब० न० ४८, न्यू देहली
किरगा १२ ___ अाश्विन, वीरनिर्वाण सं० २४६५, विक्रम सं० १९६६
समन्तभद्र-जयघोष सरस्वती-स्वैर-विहारभूमयः समन्तभद्रप्रमुखा मुनीश्वराः । जयन्ति वाग्वज्र-निपात-पाटित-प्रतीपराद्धान्त-महीध्रकोटयः ।।
-गधचिन्तामणी, वादीसिंहाचार्यः वे प्रधान मुनीश्वर स्वामी समन्तभद्र जयवन्त हैं-सदा ही जयशील हैं, अपने पाठकों तथा अनुचिन्तकोंके अन्तःकरण पर अपना सिक्का जमानेवाले हैं-,जो सरस्वतीकी स्वच्छन्दविहारभूमि थे-जिनके हृदयमन्दिरमें सरस्वतीदेवी बिना किसी रोक-टोककं पूरी आजादीके साथ विचारती थी,
और इसलिये जो असाधारण विद्याके धनी थे और उनमें कवित्व-वाग्मित्वादि शक्तियाँ उच्चकोटि के विकासको प्राप्त हुई थीं और जिनके वचनरूपी वनके निपातसे प्रतिपक्षी सिद्धान्तरूपी पर्वतोंकी चोटियाँ खण्ड खण्ड होगई थीं-अर्थात समन्तभद्रके आगे बड़े बड़े प्रतिपक्षी सिद्धान्तोंका प्रायः कुछ भी गौरव नहीं रहा था और न उनके प्रतिपादक प्रतिवादी जन ऊँचा मुँह करके ही सामने खड़े होसकते थे।
समन्तभद्र-विनिवेदन समन्तभद्रादिमहाकवीश्वराः कुवादिविद्याजयलब्धकीर्तयः। सुतर्कशास्त्रामृतसारसागरा मयि प्रसीदन्तु कवित्वकाक्षिणि ॥
-वरांगचरित्रे, श्रीवर्द्धमानसूरिः
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अनेकान्त
[अाश्विन, वीर निर्वाण सं०२४६५
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जो समीचीन-तर्कशास्त्ररूपी अमृतके सार सागर थे और कुवादियों (प्रतिवादियों) की विद्यापर जयलाभ करके यशस्वी हुए थे वे महाकवीश्वर-उत्तमोत्तम नूतन सन्द की रचना करनेवाले स्वामी समन्तभद्र मुझ कविता-काँक्षी पर प्रसन्न होवें-अर्थात् उनकी विद्या मेरे अन्तःकरणमें स्फरायमान होकर मुझे सफल-मनोरथ करे, यह मेरा एक विशेष निवेदन है।।
श्रीमत्समन्तभद्रादिकविकुंजरसंचयम् । मुनिवन्धं जनानन्दं नमामि वचनश्रियै ।
अलंकारचिन्तामणी, अजितसेनाचार्य: मुनियोंके द्वारा वन्दनीय और जगतजनोंको आनन्दित करनेवाले कविश्रेष्ठ श्रीसमन्तभद्र श्राचार्यको मैं अपनी 'वचनश्री'के लिये-वचनोंकी शोभा बढ़ाने अथवा. उनमें शक्ति उत्पन्न करनेके लियेनमस्कार करता हूँ-स्वामी समन्तभद्रका यह वन्दन-आराधन मुझे समर्थ लेखक बनानेमें समर्थ होवे।
श्रीमत्समन्तभद्राधाः काव्यमाणिक्यरोहणाः। सन्तु नः संततोत्कृष्टाः सूक्तिरत्नोत्करप्रदाः ॥
-यशोधरचरिते, वादिराजसूरिः जो काव्यों-नूतन सन्दर्मों-रूपी माणिक्यों (रत्नों ) की उत्पत्तिके स्थान हैं वे अति उत्कृष्ट श्री समन्तभद्र स्वामी हमें सूक्तिरूपी रत्नसमूहोंको प्रदान करनेवाले होवें-अर्थात् स्वामी समन्तभद्रके आराधन और उनकी भारतीके भले प्रकार अध्ययन और मननके प्रसादसे हम अच्छी अच्छी सुन्दर अँची-तुली रचनाएँ करने में समर्थ होवें।
समन्तभद्र-हदिस्थापन स्वामी समन्तभद्रोमेऽहनिशं मानसेऽनघः। तिष्ठताजिनराजोद्यच्छासनाम्बुधिचन्द्रमाः॥
-रत्नमालायां, शिवकोव्याचार्यः वे निष्कलंक स्वामी समन्तभद्र मेरे हृदयमें रात-दिन तिष्ठो जो जिनराजके-भगवान महावीरके-ऊँचे उठते हुए शासन-समुद्रको बढ़ाने के लिये चन्द्रमा हैं-अर्थात जिनके उदयका निमित्त पाकर वीर भगवानका तीर्थ-समुद्र खूब वृद्धिको प्राप्त हुआ है और उसका प्रभाव सर्वत्र फैला है।
बेलूर तालुकेके शिलालेख २०१७ (E.C., V.) में भी, जो रामानुजाचार्य मन्दिरके अहातेके अन्दर सौग्यनायकी मंदिरकी छतके एक पत्थरपर उत्कीर्ण है और जिसमें उसके उत्कीर्ण होनेका समय शक सं० १०१६ दिया है, ऐसा उल्लेख पाया जाता है कि इतकेवलियों तथा और भी कुछ भाचार्योंके बाद समन्तभद्रस्वामी श्रीवर्द्धमान महावीरस्वामीके तीर्थकी-जैन मार्गको-महस्रगुणी वृद्धि करते हुए उदयको प्राप्त हुए हैं।
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वीर भगवान्का वैज्ञानिक धर्म
[ लेखक-बा० सूरजभानु वकील ]
(गतांक से आगे) अपनी प्रकृतिके अनुकूल वा प्रतिकून जैसी भी खूराक दाता की कल्पना किये हुए हैं वे पाप करनेसे बचने के हम खाते हैं वैसा ही उसका अच्छा बुरा असर हमको स्थानमें बहुत करके उस फल दाताकी भेंट पूजामें ही भुगतना पड़ता है, किसी वस्तुके खानेसे प्रसन्नता होती लगे रहते हैं; इस ही कारण पापोंके दूर करनेके लिये है किसीसे दुख, किसीसे तन्दुरुस्ती और किसीसे बीमारी, अनेकानेक धर्मोकी उत्पत्ति होने पर भी पापोंकी कमी यहाँ तक कि ज़हर खानेसे मृत्यु तक हो जाय और नहीं होती है, किन्तु नवीन नवीन विधि विधानों के अनुकूल औषधि सेवन करनेसे भारीसे भारी रोग दूर हो द्वारा भेंट पूजा और स्तुति वन्दनाकी वृद्धि जल होजाती जाय । खानेकी इन वस्तुओंका असर आपसे भाप उन है। परन्तु वैज्ञानिक रीतिसे वस्तु स्वभावकी खोज करने वस्तुओं के स्वभावके कारण ही होता है । खाने वालेकी पर जब यह असली बात मालूम हो जाती है कि प्रत्येक शारीरिक प्रकृतिके साथ उन वस्तुओंके स्वभावका क्रियाका फल प्रापसे भापही निकलता रहता है, कोई सम्बन्ध होकर भला बुरा जो भी फल प्राप्त होता है फलदासा नहीं है जिसकी खुशामद की जावे तो अपनी वह आपसे आप ही होजाता है; इस फल प्राप्तिके लिये क्रियायों को शुभ म्यवस्थित करने, अपनी नियतोंको किसी दूसरी शक्तिकी ज़रूरत नहीं होती है। अगर हम दुरुस्त रखने और परिणामोंकी संभाल रखनेके सिवाय
अपने कल्याणका और कोई रास्ता ही नहीं सूझता है, थकान होकर शरीर शिथिल होजाता है, बहुतही ज़्यादा यह दूसरी बात है कि हम अपनी कवायवश अर्थात् मेहनत की जाती है तो बुखार तक होजाता है । यह सब अपनी बिगड़ी हुई पादतके कारण अच्छी तरह समझते हमारी उस अनुचित मेहनतके फल स्वरूप प्रापसे आप बूझते हुए अपने कल्याणके रास्ते पर न चलें। मिरच खाने ही हो जाता है। इस ही प्रकार प्रत्येक समय जैसे हमारे की आदत वाला जिस प्रकार भाग्यों में दर्द होने पर भी भाव होते रहते हैं, जैसी हमारी नीयत होती है, जिस मिर्च खाता है, इस ही प्रकार विषय कषायोंकी प्रबलता प्रकार कषाय वाभड़क उठती है, उसका भी बंधन हमारे होनेके कारण विषय कपायोंको अत्यन्त हानिकर जानते ऊपर प्रापसे धापही होता रहता है और वह हमको हुए भी उनको नछोर सकें, परन्तु उनके हृदय में यह भुगतना पड़ता है। हमको हमारे कर्मोका फल देनेवाला ख्याल कभी न उठ सकेगा कि स्तुति वन्दना और भेंट कोई दूसरा ही है ऐसी कल्पना कर लेने पर तो हमको पूजासे अपने पापोंको पमा करा लेंगे। इस कारण पाप स्वार्थवश यह ख़याल पाना भी अनिवार्य हो जाता है करते भी उनको यह भय ज़रूर बना रहेगा कि इसका कि खुशामदसे, स्तुति-वन्दना करने से, दीन-हीन खोटा फल अवश्य भोगना पड़ेगा; इसलिये हर वक बनकर गिड़गिड़ाने और भेट चढ़ानेसे, अपने अपराध पापसे बचनेकी ही फिकर रहेगी और पापका फल समा करा लेंगे। इस ही कारण जो लोग कोई कर्मफल भोगनेके इस मटन निश्चयके कारण वे पापोंको जल्दी
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अनेकान्त
[अाश्विन, वीर-निर्वाण सं०२४६५
ही छोड़ भी सकेंगे; बेफ्रिक होकर नहीं बैठे रहेंगे। नरकमें और कभी स्वर्गमें, कभी किसी अवस्थामें और __ वैज्ञानिक रीतिसे खोज करने पर अर्थात् वस्तु कभी किसीमें; इन सबका मूलकारण रागद्वेष व मान स्वभाव की जांच करने पर यह पता चलता है कि बिना माया आदि कषायें ही होती हैं, तीब्र वा मंद, हल्की वा दुसरे पदार्थके मेलके वस्तुमें कोई विगाद नहीं आसकता भारी, बुरी वा भली जैसी कषाय होती है, वैसा ही है, ऐसा ही श्री वीर भगवान्ने समझाया है और खोल- कर्मबन्ध होता है, और वैसा ही उसका फल मिलता कर बताया है कि जीवात्मामें भी जो बिगाड़ पाता है है। इस कारण जैन धर्मका तो एकमात्र मूलमंत्र कषायों वह अजीवके मेलसे ही आता है; जिस प्रकार नेवघड़ी- को जीतना और अपने परिणामोंकी संभाल रखना ही की डिबियाके अन्दर जो हवा होती है, उसमें धूलके जो है। इसके सिवाय जैनधर्म तो और किसी भी प्राडम्बरोंबहुत ही बारीक कण होते हैं वे घड़ीके पुजों में लगी में फसने की सलाह नहीं देता है, जो कुछ भी उपाय हुई चिकनाईके कारण उन पुर्जीसे चिपट जाते हैं और बताता है वह सब परिणामोंकी दुरुस्तीके वास्ते ही घड़ीकी चालको बिगाड़ देते हैं, इस ही प्रकार जब यह सझाता है। उन तर्कीबोंका भी कोई अटल नियम नहीं संसारी जीव राग द्वेष आदिके द्वारा मनवचनकायकी बनाता है, किन्तु जिस विधिसे अपने भावों और परिकोई क्रिया करता है तो इस क्रिया के साथ शरीर यामों की संभाल और दुरुस्ती हो सके ही वैसा करनेका अन्दर की जीवात्मा भी हिलती है और उसके हिलनेसे उपदेश देता है। जिन धर्मोंने ईश्वरका राज्य स्थापित उसके भासपासके महा सक्ष्म परमाणु जो उस जीवात्मा किया है. उन्होंने राजाज्ञाके समान अपने अपने अलग में घुल मिल सकते हों उसमें घुलमिल जाते हैं। जिससे अलग ऐसे विधि विधान भी बांध दिये हैं जिनके अनुरागद्वेष आदिके कारण जो संस्कार जीवात्मामें पैदा सार करने से ही ईश्वर राजी होता है । मुसलमान जिस हुभा है अर्थात् जो भावबन्ध हुश्रा है उसका वह बन्ध प्रकार खड़े होकर झुककर बैठकर और माथा टेक कर इन अजीव परमाणुओंके मिलनेसे पक्का हो जाता है। नमाज़ पढ़ते हैं और अपने ईश्वरको राजी करते हैं उस भावार्थ,-घडीके पुर्जीकी तरह उसमें भी मैल लगकर प्रकार वन्दना करनेसे हिन्दुओंका ईश्वर राजी नहीं हो उसकी चालमें बिगाड़ आजाता है, बार बार रागद्वेष मकता है। और जिस प्रकार हिन्दु बन्दना करते हैं उस पैदा होनेका कारण बंध जाता है, इस ही को द्रव्यबंध विधिसे मुसलमानोंका ईश्वर प्रसन्न नहीं होता है; इस अर्थात दूसरे पदार्थोंके मिलनेका बंध कहते हैं। ही कारण सब ही धर्मवाले एक दूसरे की विधिको घृणा
इस प्रकार रागद्वेषरूप भाव होनेसे भावबंध और की दृष्टिसे देखते हैं और द्वेष करते हैं । परन्तु वीर भगभावबन्धके होनेसे द्रव्यबंध, और फिर इस नव्यबंधके वान्ने तो कोई ईश्वरीयराज्य कायम नहीं किया है, फलस्वरूप रागद्वेषका पैदा होना अर्थात भावबंधका किन्तु वस्तु स्वभाव और जीवात्माके बिगड़ने संभलनेके होना, इस प्रकार एक चक्करसा चलता रहता है, इस ही कारणोंको वैज्ञानिक रीतिसे वर्णन कर जिस विधिसे से संसरण अर्थात् संसार परिभ्रमण होता रहता है। भी होसके उसकी संभाल रखनेका ही उपदेश दिया है, कभी किसी पर्यायमें और कभी किसीमें, अर्थात् कभी इस ही कारण न कोई खास विधी विधान बांधा है, कीड़ा मकोदा, कभी हाथी घोड़ा, कभी मनुष्य, कभी और न बंध ही सकता है; यह सब प्रत्येक जीवकी अब.
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वर्ष २, किरण १२]
वीर भगवान्का वैज्ञानिक धर्म
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स्था और योग्यता पर ही चोद दिया है।
अपने वा दूसरोंमें पापके भदकानेसे, शुभ भावों जिस प्रकार जो गुराक हम खाते हैं उससे ही वशाम्त परिणामोंकी निन्दा करने, त्यागी-पतियोंको खून मांस और खाल मादि सब ही पदार्थ और माँस महा मूर्ख भोंद और नामर्द कहने, काय भावसे नाक मादि सब ही अवयव बनते हैं, इस ही प्रकार व्रत धारण वा कोई धर्म क्रिया करनेसे पाप उत्पन रागद्वेष वा कषायके पैदा होनेसे भी जो कर्मबन्ध होता करनेवाले कर्मका संस्कार पड़ता है। हँसी मनौल है उमसे अनेकानेक परिणाम निकलते हैं। उसके फल- करनेकी पादत रखना धर्मास्मानों की और धार्मिक स्वरूप प्रागेकी तरह तरह की कपाय भी उत्पन्न होती कार्योंकी हंसी उड़ाना, दीन हीनको देखकर हँसना, है, ज्ञानमें भी मंदता भाती है, प्रसन्नचित्त वा क्लेषित मखौल करना, फवतियाँ सुनाना, फिजूल बकवाद करते रहनेका स्वभाव पड़ना, सुखी दुःखी रहना, पर्याय रहना, इससे इस ही प्रकारका संस्कार पड़ता है। खेल बदलना, उच्च पर्याय प्राप्त करना वा नीच आदि अनेक तमाशों और दिल बहलावेमें ही लगे रहनेसे ऐसे ही अवस्थायें होती हैं। इन सब भवस्थानोंको वीरभगवान्- संस्कार पड़जाते हैं। दूसरोंमें प्यार मुहम्बतको तुदवाकर ने पाठ प्रकार के मूल भेदों में बाँटकर कोंके पाठ भेद वैमनस्य पैदा कराने, पापका स्वभाव रखने भादिसे बताये हैं और जिस प्रकार चतुर वैद्य यह बता देता है भरति कर्म बंधता है । हृदयमें शोक उपजाना, शोक कि अमुक वस्तुके खाने से शरीरका अमुक पदार्थ अधिक युक्त रहना, बात बातमें रंज करना, दूसरोंको रंजमें पैदा होगा वा अमुक पदार्थ में अधिक बिगाड़ या संभाल देखकर खुश होना, इससे शोक कर्मका बंध होता है। होगी और अमुक अंकोंको अधिक पुष्टि वा अधिक पति ग्लानि करनेसे ग्लानि करनेका स्वभाव पड़ता है। बात पहुँचेगी, इस ही प्रकार वीर भगवान ने भी वैज्ञानिक बातमें भयभीत रहने, दूसरोंको भय उपजानेसे भय रीतिसे मोटरूप दिग्दर्शनके तौर पर यह बताया है कि करने के संस्कार पड़ते हैं। बहुत राग करने, मावाचार किस प्रकारके परिणामोंसे किस कर्मकी अधिक उत्पत्ति करने नहाने धोने और शृंगारका अधिक शौक होने वा वृद्धि होती है । जिसपे अपने परिणामोंकी संभालमें तथा दूसरों के दोष निकालनेसे लियों जैसा स्वभाव बहुत कुछ मदद मिलती है । दृष्टान्त जीवात्माके स्वरूप बनता है । पोदा क्रोध वस्तुभोंमें थोड़ी चि नहाने-धोने की जांच पड़ताल न कर बाप दादा से चलते आये हुये और भंगार मादिका अधिक शौकन होने, कामधर्मश्रद्धानको ही महामोहके कारण भाँख मीचकर वासना बहुत कम रखनेसे पुरुषों जैसा स्वभाव पड़ता श्रद्धान करलेना, उसके विरुव कुछ भी सुनने को तैयार है। काम भोग और व्यभिचारकी अधिकतासे हीजदेपन न होना, उल्टा बदनेको तय्यार हो जाना, किसीको का स्वभाव पड़ता है। हीजडेमें काम अमिबापा बेहद अपना श्रद्धान अपना धर्म प्रकट न करने देना, पक्षपात- होती है। से उसमें दोष लगाना, झठी बदनामी करना तथा दुःख शोक रंज फिक्र करना, रोना-पीटना-चिल्लाना, अपने पक्ष के झूठे सिद्धान्तोंकी भी प्रशंसा करना भादि दूसरोंको भी रंज क्रिक और शोकमें सबना भादिसे झूठे पमपातसे मिथ्या श्रद्धान करानेवाले मिथ्यात्व कर्म- दुखी स्वभाव रहनेका संस्कार पड़ता है। सब ही जीवों का बंध होता है। अधिक काय परिणाम रखनेसे, पर दया भाव रखना, नीच-उंच धर्मी अधर्मी, सारे खोटे,
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अनेकान्त
[अाश्विन, वीर-निर्वाण सं०२४६५
दुष्ट और सजन, सब ही का भला चाहना, दुखियोंका पानेका कर्म बंधता है। मन वचन कायकी सरलता, दुख दूर करना, दान देना, गृहस्थी धर्मात्माओं और उत्तम परिणाम रहने, सबकी भलाई चाहनेसे, नेकीका त्यागी महात्मानों की जरूरतोंको पूरा करना, जीवहिंसा- व्यवहार रखनेसे अच्छी पर्याय पाने व अच्छी गनिमें से बचना,इन्द्रियों पर काबू रखना, विषयोंके वशमें जानेका बंध होता है। दूसरों की निन्दा और अपनी न होना, सबकी भलाईका ही ध्यान रखना, लोभका प्रशंसा करना, दूसरोंके अच्छे गुण विपाना और बुरे कम होना, दूसरों की सेवा करने ना दूसरोंके काम जाहिर करना, अपने बुरे गुणोंको विपाना और अच्छे मानेका भाव रम्बना, इससे सुखी रहनेका संस्कार पड़ता प्रगट करना, अपनी जाति और कुल मादिका घमंड है। किसी ज्ञानी की प्रशंसा सुनकर दुष्टभाव पैदा करना, करना, दूसरोंका तिरस्कार होता देख प्रसस होना, अपने ज्ञानको विपाना, दूसरोंको न बताना, दूसरोंकी दूसरोंका तिरस्कार करना, अपनी झूठी बड़ाई करना, ज्ञान प्राप्तिमें विघ्न डालना, ज्ञानके प्रचारमें रोक पैदा दूसरोंकी झूठी बुराई करना इससे नीच और निन्दित करना, किसी सच्चे ज्ञानकी बुराई करना, उसको ग़लत भव पानेका कर्म बंधता है। अपनी निन्दा और पराई ठहराना, इससे ज्ञानमें मंदता पानेका कर्म बंधता है। प्रशंसा करने, अभिमान छोड़ अपनी लघता प्रकट करने, सांसारिक कामों में बहुन ज़्यादा लगे रहनेसे, सांसारिक अपनी जाति कुल आदिका घमंड नहीं करने, अपने बस्तुभोंसे अधिक मोह रखने, हरवक्त संसारके ही सोच अच्छे अच्छे गुणोंकी भी प्रशंसा नहीं करनेसे, विनयवान फ्रिक में डूबे रहनेमे, अति दुःश्वदायी नरकमें रहनेका रहने, उदंडता नहीं करनेसे, ईर्ष्या नहीं करने, किसी बंध होता है। मायाचारसे तिर्यच आयका बंध होता की हँसी नहीं उड़ानेसे और तिरस्कार नहीं करनेसे है। थोड़ा प्रारंभ करने, सांसारिक वस्तुओंसे श्रोदा सन्मानयोग्य ऊँचा भव पानेका कर्म बंधता है। मोह रखने, घमंड न करने से, भन्न परिणामी होने, इस प्रकार वीर भगवान्ने स्पष्ट रीतिसे यह समसरल सीधा व्यवहार, मंद कषाय, और कोमल स्वभावके झाया है कि जीवोंके भले बुरे भावों और परिणामों के होनेसे मनुष्य पर्याय पाने योग्य कर्म बंधता है। हिमा अनुसार ही वस्तु स्वभावके मुवाधिक वैज्ञानिक रीनिसे झठ चोरी कामभोग और संसारकी वस्तुभोंका ममन्य ही भले बुरे कर्म बंधते रहते हैं और वस्तु स्वभावके इन पांच पापोंके पूर्ण रूप का मर्यादा रूप त्यागसे देव अनुसार प्रापसे पाप ही उनका फल भी मिलता रहता पर्याव पानेका बंध होता है। मनमें कुछ, बचनमें कुछ है। वीर भगवान्के इस महान उपदेशके कारण ही
और क्रियामें कुछ, इस प्रकारको कुटिलता, दूसरोंकी जगतमें यह प्रसिदि हो रही है कि फल नियतका ही झूठी बुराई करने, चंचल चित्त रहनेसे, माप तोलके मिलता है, बारा क्रियाका नहीं; जैसी बीयत होगी झूठे मौजार रखने, कम देने और ज्यादा लेने, खरी अर्थात् जैसे अंतरंग भाव होंगे वैसे ही फखकी प्राप्ति चोज़में खोटी मिलाकर देने, झूठी गवाही देने, दूसरोंकी होगी; वास क्रिया चाहे जैसी भी हो उससे कुछ न निन्दा अपनी प्रशंसा करने, दूसरोंका मखौल उड़ाने, होगा। तीवक्रोध, तीवमान, तीवलोम, बहुत मापाचार, पापकी देश देशके अलग अलग रीति रिवाज होते हैं। भाजीविका भादिसे खोटी गति में जाने और खोटी पर्याय बोल्प बहुत ठंडा मुल्क है। यहाँ बेहद बरक पदवी है,
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वर्ष २, किरण १२]
वीर भगवानका वैज्ञानिक धर्म
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इस कारण यहाँके खोग धरती पर बैठकर कोई काम परन्तु वीर भगवान्का धर्म तो किसी राज्यशासनके नहीं कर सकते हैं । जुहार बदई भी खड़े होकर मेज़ पर निवम न होकर एकमात्र वस्तु स्वभाव पर ही निर्भर है, ही अपना सब काम करते हैं । इस ही कारण खाना भी जो सदाके लिये घटा है और हेतु प्रमाणकी कसौटी वहां जूते और भारी कपड़े पहने हुवे मेज़ पर ही खाया पर कसकर विज्ञानके द्वारा जिनकी सदा परीपाकी जाता है। हिन्दुस्तान बहुत गरम मुल्क है, यहां सब जासकती है। जो सांसारिक म्यवहारों और सामाजिक काम जूते उतारकर और धोती भादि बहुत हल्के कपड़े बंधनों पर निर्भर है। किन्तु एकमात्र जीवके परिणामों पहनकर धरती पर बैठकर ही किया जाता है, रोटी भी पर ही जिसकी नीव स्थित है। इस कारण वीतरागको इस ही कारण जूते उतार, धोती भादि हल्के कपड़े यह भी साफ २ बता देना पड़ा कि जैनी ऐसे सब ही पहन, धरती पर बैठकर ही खाया जाता है। इस ही बौकिक व्यवहारों और विधि विधानोंको अपना सकते प्रकार मरने जीने,ब्याह शादो पापसमें रोटी बेटी व्यव हैं, चाहे जैसे रीति रिवाजों पर चल सकते हैं जिनसे हार, मनुष्यों की जातियोंकी तक्रसीम, उनके अलग२ जीवात्माके स्वरूपके सच्चे श्रद्धानमें और हिंसा मठ काम, अलग २ अधिकार, सांसारिक व्यवहारके नियम, चोरी, कुशीन और परिग्रहरूप पाँच पापोंके त्यागमें देश देश और जाति २ के अलग २ ही होते हैं और फरक न पाता हो, अर्थात् जिन लौकिक व्यवहारोंसे परिस्थितिके अनुसार, राज परिवर्तन वा अन्य भनेक सम्यक्त और प्रतोंमें दूषण नहीं भाता है, वे चाहे जिस कारणोंसे, बदलते भी रहा करते हैं, पाम २ को प्रत्येक देशके, चाहे जिस जाति वा समाजके हों, उनपर चाहे समाजके नियम भी जुदे ही होते हैं और जरूरतके जिमतरह चला जावे, उससे धर्म में कोई बाधा नहीं अनसार समाजके द्वारा बदलते भी रहा करते हैं। पाती है। इन लौकिक व्यवहारों के अनुक्खन चलनेसे कभी दो समाजोंमें मित्रता होती है, और कभी बैर, देश, जाति, समाज वा कुल भाविका अपराधी भने ही इसहीसे उनके पापसके व्यवहार भी बदल जाते हैं। होता हो, परन्तु धर्मका अपराधी किसी तरह भी नहीं जो समाज बैरी समझी गई उसके हाथका पानी पीना होता है । धर्मका अपराधी वह तो बेशक हो जायगा तो क्या उससे बात करना तक पाप समझा जाता है। जो इन बौकिक ज्यवहारोंको धर्मके नियम मानकर यह ही व्यवहारिक नियम बहुत दिनों तक चालू रहनेसे अपने श्रद्धानको भ्रष्ट करेगा, जैन शासका यह वाक्य धर्मका स्वरूप धारण करके ईश्वरीय नियम बन जाते हैं खास तौरपर ध्यान देने योग्य है:और पोथी पत्रों में भी दर्ज हो जाते हैं।
सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः । ईश्वरके राज्यमें वस्तुस्वभाव और प्रारम यदि पर यत्र सम्यक्त्वहानिर्न यत्र न व्रतदूषणम् ।। तो अधिक ध्यान होता ही नहीं है, जो कुछ होता है किसी किसी धर्ममें भाज का जाति भेव और वह ईश्वरके कोपसे बचनेका ही होता है । इसही कारण उसके कारण किसी किसी जातिमे घृणा करने, उनको लोग इन व्यवहारिक नियमोंको ही ईश्वरीय नियम धर्मसे वंचित रखने और किसी किसी जाति वालेको मान, इनके न पालनेको ईश्वरके कोपका कारण और जन्मसे ही ऊँचा समझ उसका पूजन किसी जाती वाले पाखने को उसकी प्रसन्नताके हेतु समझने लग जाते हैं। देहायका पानी नहीं पीने, किसी जाति बाजेके हाथकी
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अनेकान्त
[श्राश्विन, वीर-निर्वाण सं० २४६५
रोटी नहीं खाने, किसी जाति वालेसे बेटी म्यवहार नहीं है कि वीरमगवानके धर्ममें जातिभेदको कोई भी स्थान करने, स्नान करने, बदन साफ रखने, कपड़े निकालकर नहीं है, जैसा कि आदिपुराण, उत्तरपुराण, पद्मपुराण, चौमें बैठकर रोटी खाने, चौकेके अन्य भी अनेक बाबा धर्म परीक्षा, वारांगचरित्र और प्रमेय कमलमार्तण्डके नियमों के पालनेको ही महाधर्म समझते हैं, जो इन कथनोंको दिखाकर और उनके श्लोक पेश करके अनेकान्त नियमोंको पालन करता है वह ही धर्मात्मा और जो किरण ८ वर्ष २ में सिद्ध किया गया है। इस ही प्रकार किचित्मात्र भी नियम भंग करता है वह ही धर्मी पापी रखकरण्डश्रावकाचार, चारित्रपाहुइ स्वामिकार्तिकेयानु
और पतित समझा जाता है। नेकी, बदी, नेकचलनी, प्रेक्षाके श्लोक देकर अनेकान्त वर्ष २ किरण ५ में यह बदचलनी पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया जाता है; यहाँ सिद्ध किया है कि जातिभेद सम्यक्त्वका घातक है। इस तक कि कोई चाहे कितना ही दुराचारी हो परन्तु जाति ही प्रकार अनेकान्त वर्ष २ किरण ३ में रत्नकरण्ड भेद और चौकेके यह सब नियम पालता हो तो वह श्रावकाचार, सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक धर्मसे पतित नहीं है, और जो पूरा सदाचारी है परन्तु जैसे महान ग्रंथोंके द्वारा यह दिखाया है कि जैन धर्मको इन नियमोंको भंग करता है तो वह अधर्मी और पापी शारीरिक शुद्धि अशुद्धिसे कुछ मतलब नहीं है, यहाँ है। ब्राह्मणोंकी अनेक जातियोंमें मांस खाना उचित तक कि उपवास जैसी धर्मक्रियामें स्नान करना मना है, उनके चौकमें मांस पकते हुये भी दसरी जातिका बताया है, स्नान करनेको भोगोपभोग परिमाण व्रतमे कोई आदमी जिसके हाथका वह पानी पीते हों परन्तु भी एक प्रकारका भोग बताकर त्याग करनेका उपदेश रोटी न खाते हों, यदि उनके चौकेकी धरती भी देगा किया है, पद्मनंदिपंचविंशतिकामें तो स्नानको साक्षात् नो उनका चौका भष्ट हो जायगा। परन्तु मांस पकनेसे ही महाम् हिंसा सिद्ध किया है। जैन शाखोंमें तो भ्रष्ट नहीं होगा, इसही प्रकार हिन्दुस्तानकी हजारों अन्तरात्मा की शुद्धिको ही वास्तविक शुद्धि बताया है, जातियोंके इस चूल्हे चौकेके विषय में अलग २ नियम हैं दशलक्षण धर्ममें शौच भी एक धर्म है। जिसका अर्थ
और फिर देश-देशके नियम भी एक दूसरेसे नहीं मिलते लोभ न करना ही किया है। सुख प्राप्त करानेवाला हैं, तो भी प्रत्येक जाति और प्रत्येक देश अपने लिये सातावेदनीय जो कर्म है उसकी उत्पत्तिका कारण दयाअपने ही नियमोंको ईश्वरीय नियम मानते हैं और शौच और शांति आदि बताया है, यहाँ भी शौचका उन ही के पालनको धर्म और भंग करनेको अधर्म अर्थ लोभका न होना ही कहा है; इत्यादिक सर्वत्र जानते हैं।
मनकी शुद्धिको ही धर्म ठहराया है। पाठकोंसे निवेदन वीर भगवान्का धर्म बिल्कुल ही इसके प्रतिकल है. है कि वे जैन धर्मका वास्तविक स्वरूप जाननेके लिये वह इन सब ही लौकिक नियमों, विधि विधानों, रू- इन सब ही लेखोंको जरूर पढ़ें, फिर उनको जो सत्य दियों और रीति रिवाजोंको लौकिक मानका सखसे मालूम पड़े उसको ग्रहण करें और झूठ को त्यागें। नौकिक जीवन व्यतीत करनेके वास्ते पालनेको मना अन्तमें पाठकोंसे प्रेरणा की जाती है कि वीरनहीं करता है। किन्तु इनको धार्मिक नियम मानकर प्रभके वस्तुस्वभावी वैज्ञानिकधर्म और अन्य मतियोंकी इनके पालनसे धर्मपालन होना और न पालनेसे अधर्म ईश्वरीय राज्यमाशा वा रूदि धर्मकी तुलना अच्छी और पाप हो जामा माननेको महा मिथ्यात्व और धर्म- तरहसे करके सत्य स्वाभाविक धर्मको अंगीकार करें का रूप बिगाड कर उसे विकृत करदेना ही बताता है और अन्य मतियोंके संगति और प्राबल्यसे जो कुछ जिमका फल पापके सिवाय और कुछ भी नहीं हो सकता अंश उनके धर्मका हमारेमें भागया हो और वस्तु स्वहै। वीरभगवान्के बताये धर्मका स्वरूप श्री प्राचार्योंके भावी धर्मसे मेल न खाता हो उसके त्यागने में जरा भी प्रन्थोंसे ही मालूम हो सकता है। उन्होंने अपने ग्रंथों में हिचकिचाहट न करें। भनेक जोरदार युक्तियों और प्रमाणोंसे यह सिद्ध किया
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भगवान् महावीरका जीवन चरित्र
[लेखक-ज्योतिप्रसाद जैन 'दास']
तो वर्ष हुए मेरे एक अजैन मित्रने मुझसे भगवान् जीवनचरित्र महाराज श्री चौथमलजी द्वारा लिखित था
'महावीरका कोई अच्छासा जीवन चरित्र पढ़नेको भी, परन्तु इस जीवन चरित्रको इन महाशयको मैने नहीं माँगा, परन्तु बहुत दुःखके साथ मैंने यही कहकर टाल दिया। इसका कारण और भगवान महावीरके इस दिया कि 'अच्छा भाई ! बताऊँगा।' यह मेरे मित्र एक श्रादर्श जीवन चरित्रकी समालोचना लिखना ही मेरे अार्यसमाजी हैं और जैनधर्मसे पहिले उन्हें बड़ी चिढ़ इस लेखका विषय है। थी। मेरी अक्सर उनसे धर्मचर्चा हुआ करती थी। दो अब तक भगवान् महावीरके और भी कई जीवनचार जैन धर्म संबन्धी पुस्तकें मैंने उनको दी। एक बार चरित्र मैंने पढ़े हैं, परन्तु जीवनचरित्र संबन्धी मसालेका आगरा राजामण्डीके जैनमन्दिरमें भी मैं इनको लेगया। सर्वथा अभाव देखा। श्री चौथमलजी महाराज-द्वारा मन्दिरके ढंगको देखकर ये महाशय दंग रह गये। लिखित इस मोटी पुस्तकको देखकर मुझे भगवानके प्रतिमानोंके सामने हाथ जोड़कर मुझसे कहने लगे"इस जीवनचरित्र-सम्बन्धी बातें जाननेकी इससे बड़ी प्राशा मनोज्ञताके देखनेकी तो मुझे श्राशा न थी. किसी भी हुई और मैंने बड़ी उत्कण्ठासे पढ़ना शुरू किया । परन्तु मन्दिरमें ऐसी सफ़ाई और शान्ति नहीं देखी।" दूसरे मुझको उसे पढ़कर बड़ी निराशा हुई। दिन प्रातःकाल इन महाशयको मैं लोहामण्डीके जैन महाराजजीके लिखे इस जीवन चरित्रकी समालोस्थानकमें लेगया, जहाँ उस समय एक वृद्ध आर्यिका चना लिखनेसे पहिले मैं श्रापकी भावना और आपके अपने मधुर कण्टसे विद्वत्तापूर्ण व्याख्यान दे रही थी। उद्योग पर बधाई देता हूँ। श्रापने इस काम पर हाथ मैंने कहा कि यह अापकी पार्यसमाजकी तरह के हमारे डाला जिसके बिना सारा जैनधर्म-साहित्य नीरस बना जैनसमाजका मन्दिर है, जहाँ मूर्तिपूजाका निषेध है हुअा है । मेरा तो विश्वास है कि इसी कमीके ही कारण
और जहाँ साधु और साध्वी समय समय पर पधार कर आज जैनधर्मका प्रचार नहीं हो सका है, इसी कमीके धर्म उपदेश इसी प्रकार दिया करते हैं। इन महाशयने कारण जैनधर्मको समझने और समझाने में बड़ी बड़ी उत्तर दिया कि 'संसारके सारे धर्म सम्प्रदायोंको पालो- भूलें हुई हैं। सो ऐसे श्रावश्यक और कठिन कार्य में चनात्मक दृष्टि से देखकर एक सभ्य और निष्पक्ष मनुष्य को उद्योग करनेवालेको बार बार बधाई है । पाठक महोदय ! अापके धर्म और आपकी धर्म-सम्प्रदायोंको उच्च कोटिका मेरे विचारको महागजके प्रति किमी देशके कारण ककहना पड़ेगा।" इन सब बातोंसे उन महाशयको जैन- टाक्ष न समझे । महाराजजी मेरे गुरू हैं, मेरे हृदयमें धर्म पर बड़ी श्रद्धा होगई थी। भगवान महावीरके जीवन उनका श्रादर है । परन्तु इतना अवश्य कहूँगा कि यह चरित्र पढ़नेकी उत्कण्ठा उनकी स्वाभाविक थी । मेरे जीवन चरित्र लिखते समय महागजजीने विचारपूर्वक पास भगवान् महावीरका एक काफी बड़ा और नामी कार्य नहीं किया, धर्मप्रभावनाके आवेशमें उसे लिखा
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अनेकान्त
[अाश्विन, वीर-निर्वाण सं०२१५
है। जीवनचरित्र कलाके विश विद्वान पाठक मेरे इस बिना उसके इस चर्चा में आनन्द नहीं पा सकता । कई नम्र निवेदन पर कृपया ध्यान दें। -
सौ पन्ने आपने भगवानके पूर्व जन्मोंपर लिखे हैं। इससे किसी महापुरुषके जीवनचरित्रका जो गहरा प्रभाव महाराजका एक यही उद्देश्य समझमें आता है कि होता है वह उसके उपदेशका नहीं होता। कारण यह किस प्रकार भगवान्की आत्मा अनेक योनियोंमें भ्रमण है कि 'उपदेश' आचरणकी अंतिम सीढ़ी पर पहुँचकर करती हुई वीर्थकर कर्मको बांधकर अवतरी। बिना इस उस महापुरुषकी आवाज़ होती है, जिसके शन्द अटपटे, उद्देश्यको विचारमें लाये हुए कई सौ पन्नोंका पूर्वजन्मों भाव गंभीर और ध्वनिमें एक विलक्षण गाम्भीर्य्य होता पर लिखना बेकार दीखता है। परन्तु इस वर्णनमें यह है, जो सर्वसाधारणकी समझके परे की बात होती है। बात कहीं भी नहीं झलकती। उस ऊँचाई पर पहुँचना सर्वसाधारणको असम्भव जान भगवान् महावीरने ३१ वर्षकी आयु तक गार्हस्थ्यपड़ता है। परन्तु जीवनचरित्रमें यह बात नहीं होती, जीवन व्यतीत किया । श्वेताम्बर सम्प्रदायके अनुसार उसमें वह महापुरुष सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ता दीखता है, भगवानने विवाह भी किया । उनके सन्तान भी थी। उसकी भल, उसका साहस, उसके जीवनका सारा जीवनचरित्रमें रागात्मिकता लाने के लिये नायकके साथ उतार चढ़ाव दृष्टिगोचर होता है, जिसमें पाठक अपना नायिकाका संयोग और वियोग सोने में सुहागा है। उसके समात्मिक सम्बन्ध अनुभव करता है। उस महापुरुषके अतिरिक्त भगवान महावीरके जीवन में एक और बड़ी जीवनके प्रत्येक उत्थानको देखता हुश्रा पाठक उसे विशेषता रही है, जिसकी कमीके कारण मनोविज्ञानी अंतिम छोर तक देख लेता है। फिर उस महापुरुषको दार्शनिक विद्वानोंने भगवान् बुद्धपर भी लाञ्छन लगाया उस ऊँचाई पर देखकर पाठकके मुंहसे निकलती है है। वह विशेषता भगवान्का दिनके समयमें अपनी स्त्री, "वाह वाह वाह ।" जीवनचरित्रको पढ़कर ही सर्वसाधा- भाई बन्धु श्रादिकी रजामन्दीसे सारी प्रजाके सामने रणको एक महापुरुषके उपदेश और उसकी लीलाओंमें दीक्षा लेना है, जबकि भगववान् बुद्ध रात्रिके समय स्वाभाविकता झलकती है, तभी महापुरुषकी ऊँचाईका सोते हुए परिवारजनोंको छोड़कर भाग निकले थे । इतने कुछ अन्दाज़ा लग पाता है। उसी समय उस महापुरुष रागात्मिक मसालेके साथ कैसा रूखा जीवनचरित्र लिखा का उपदेश अक्षर २ समझमें श्राता है।
गया है। एक भी मार्मिक स्थल कुत्रा नहीं गया। ___महाराजजीने लगभग ७०० पन्नोंमें यह जीवन- तुलसीदासने रामचरित्र मानस लिखा है । रामजी उपदेश चरित्र लिखा है। शुरूमें काफी बड़ी भूमिका दी है। देते कहीं भी नहीं दीख पड़ते । परन्तु सारे उपनिषदोंके इसमें जैनधर्मके अनुसार कालचक्रपर अच्छा प्रकाश उपदेशके निचोड़से गोस्वामीने एक ऐसे आदर्श मानवडाला है। परन्तु कुछ अनावश्यक भाग हटाकर उसके चरित्रका चित्र खींचा है जिसकी सुंदरता पर सारा संसार स्थानपर आवागमन और कर्मबन्धनके सिद्धान्तों पर मुग्ध है। प्रत्येक मार्मिक स्थलपर गोस्वामीजीने अपनी थोड़ासा प्रकाश डालना और आवश्यक था; क्योंकि भावुकताका परिचय दिया, जिसके कारण प्राज रामइसके बाद महाराजने भगवान्के अनेक पूर्वजन्मोंकी चरित्र-मानस अमर होगया, रामजीका जीवन एक चर्चा की। आवागमनके सिद्धान्तको न माननेवालोको मर्यादा-पुरुषोत्तमका जीवन बन गया।
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२, किरण १२]
भगवान् महावीर का जीवन चरित्र
__ महापुरुषकी प्रत्येक लीलामें असाधारणता होती है। बारका फिल्म कौनसी कम्पनीने दिखाया था, जो उसने भगवान् महावीरका विवाह, उनकादाम्पत्य प्रेम, उनका करुण-रसका सर्वोत्तम खंड लिख गला ? यह सब राज्य और परिवार-त्याग और १२ वर्ष उपसर्ग सहन तुलसीदासकी एक सिद्धान्तके आधार पर उपज थी । और अखण्ड तप, भगवान् रामके स्वयंवर, वनगमन यह एक सत्य गर्मित कल्पना है। यही जीवनचरित्र-कला और १४ वर्षों तक कष्टसहनसे कौन कम मार्मिक कहा है, जिसका भगवान् महावीरके प्रत्येक जीवनचरित्रमें जा सकता है। परन्तु इस महावीर-जीवनचरित्र में कहां मैंने प्रभाव पाया है। वरना भगवान् महावीरके जीवनहै वह मार्मिकता, हृदयको उमड़ानेवाले वे दृश्य कहाँ ? चरित्रमें शास्त्रसे जरा तिरछे और सिद्धान्तकी और मुँह यदि कहा जाय कि महावीर स्वामीके जीवनचरित्रके करके खड़े होकर देखनेसे भगवान् महावीरकी जीवनलिये शास्त्रोंमें इससे अधिक वर्णन ही कहाँ तो लीलामें भरत-मिलाप जैसे एक नहीं अनेक करुणा इसका मैं उत्तर यह देता हूँ कि शास्त्रों में इसके लिये और वीर-रससे लबालब दृश्य दीख सकते हैं । किसी आवश्यकतासे अधिक मसाला है। कमी केवल लेखक- जीवन चरित्रको सफल बनाने के लिये शास्त्रीय आधारके के हृदयकी भावुकता और स्वतंत्र विचारकी है। तुलसी- साथ २ 'जीवनचरित्र-कला' को भी साथ साथ लेकर दास, बालमीकिके रामचरित्रसे, जो उन्हींके समयका चलना होगा, वरना वह न तो शास्त्र ही होगा और न लिखा माना जाता है, सैंकड़ों जगह लीक काटकर जीवनी ही। चले हैं, तो क्या इससे तुलसीके मानसमें बहा लग- लगभग २५-३० पत्रोंमें मुख्यजीवन-लीला समाप्त गया ? उल्टा चार चाँद लग गये । वाल्मीकीका लिखा कर महाराजजी उनके तत्त्वज्ञानपर आ विराजे है, जिसने 'मानस' रामजीके समयका ही लिखा माना जाता है, लगभग पुस्तकके तिहाई भागको घेरा है। सच तो यह इसलिये वह अधिक प्रमाणित भी कहा जा सकता है; है कि पर्वजन्म-चर्चा और तत्त्वज्ञान ही इस जीवनचरित्र लेकिन उसे तुलसीके मानसके मुकाबलेमें कोई दो कौड़ी में सब कुछ है । मैं पूछता हूँ कि तत्वशानसे तो सारा को भी नहीं पछता-तुलसीका मानस सर्वत्र पजता है। जैनधर्म-अागम साहित्य भरा पड़ा है, जीवनचरित्र लिखइसका कारण लेखककी भावुकता और जीवनचरित्र कर आवश्यकतातो इस बातकी थी कि आचरणकी जिस कला के साथ नायकके जीवनकी कुछ मुख्य घटनाका सभ्यताको असम्भव कहा जाता है उसको इस जीवन मेल है । तुलसीको कब और किस दैवी शक्तिने वनगमन सांचे में दालकर दिखाते कि 'यों है इस सभ्यवामें स्वासमयके राम- कौशल्या, राम सीता, राम लक्षमण और भाविकता और इस प्रकार है इस धर्ममें सत्यता। तभी राम-निषाद व लंकाके रावण-सीता संवाद सुनाये थे, यह जीवनचरित्र कहा जा सकता था। जिस धर्म फिलाफिर भी उस भावुक और कलाविश लेखककी लेखनीसे स्फीको पढ़कर संसारके बड़े बड़े फिलास्फर चकित होनिकाल अक्षर २ सत्य और प्रमाणित माना जाता है। गये । संसार प्रसिद्ध जर्मनीके बड़े धुरन्धर विद्वान जिस भगवान् महावीर भी तो नावसे दरिया पार उतरे थे प्रवर्तकके तत्त्वशानको "संसारमें जहां और धोके परन्तु कहाँ है वह भावुकता, हृदयको पिघलानेवाला वह सत्वज्ञानकी खोन समान होती है वहाँसे जैनधर्मके दृश्य कहाँ तुलसीको पंचवटीवाला भरत-मिलापके दर- तत्त्वज्ञाकी खोज शुरू होती है" ऐसा कहते हैं उस तत्त्व
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अनेकान्त
[अाश्विन, वीर-निर्वाण सं०२४६५
ज्ञानके प्रवर्तक महाप्रभु भगवान महावीरका कैसा साधा- कि इस अनुवादको किसी योग्य मनुष्य-द्वारा संशोधित रण जीवनचरित्र लिखा गया है।
कराकर छपाया जावे। जल्दबाजी करके परिश्रम और ___ अब मैं इसके अंग्रेजी अनुवाद पर भी कुछ शब्द धर्मकी व्यर्थ और लोग-हँसाई न कराई जावे । मैं सलिखनेकी महाराजजीसे श्राज्ञा चाहता हूँ। पिछले वर्ष माजसे इस बातकी अपील करता हूँ कि भगवान् महादेहली महाराजजीका दर्शन लाभ हुआ । श्रापके शिष्य वीरका जीवनचरित्र पहिले हिन्दी भाषामें ही लिखनेके महाराज गणीजीने मुझे बताया कि 'इस जीवनचरित्रका लिये किसी बड़ी-सी संस्थाके साथ एक अलग विभाग अंग्रेजी अनुवाद भी कराया जा रहा है ।' मै इस शुभ खोलें, जिसमें कुछ योग्य मनुष्य चर्चा और खोज द्वारा भावनापर महाराजजीको बार बार बधाई देता हैं। भगवानके जीवन-समाचार प्राप्त करनेका प्रयत्न करें और लेकिन फिर भी महाराजकी इस शुभ भावनाको सादर कोई धुरंधर भावककलाविज्ञ विद्वान उसको लिखे। इसके हृदयमें स्थान देते हुए महाराजकी कार्यप्रणाली पर फिर बाद दूसरी भाषाओंमें अनुवादकी ओर बढ़ा जावे। तीखी आलोचना लिखता हूँ। महाराजजीने मुझे टाइप अन्तमें मैं यह विश्वास दिलाता हूँ कि मैंने किसी किये हुए कई सौ पन्ने दिखाये । उस पन्द्रह बीस-मिनटके द्वेषवश यह श्रालोचना नहीं लिखी । श्रद्धाके साथ इस समयमें उन पन्नोंको जहाँ तहाँसे पढ़कर मैं इसी निर्णय जीवनचरित्रको पढ़कर हृदयमें जो भाव स्वाभाविक ही पर पहुँचा कि यह अंग्रेज़ीका जीवनचरित्र हिन्दीवाले आये थे उन्हींको लिखा है। संभव है लेख लिखनेका का कोरा शब्द अनुवाद हो रहा है । इसपर कुछ समय अभ्यास न होने व भाषाज्ञानकी कमीके कारण में इस तक मैंने महागजजीसे चर्चा भी की। मैंने कहा कि अालोचनामें महाराज जीके प्रति अपनी श्रद्धासे विचलित 'महाराज ! अँग्रेजीमें लिखनेका उद्देश्यतो विदेशियों हुअा दीखता हूँ, परन्तु वास्तवमें ऐसा नहीं है। मेरी
और मुख्यतया अँग्रेज़ोंके ही लिये हो सकता है, इसलिये महाराजजीके प्रति श्रद्धा है, आपके व्याख्यानों पर मैं अंग्रेजी जीवन-कला-शैली अँग्रेज़ मनोवति और अँग्रेज़ों- मुग्ध हूँ । मेरा यह सब लिखनेका अभिप्राय केवल के ईसाई धर्मके विश्वासके विपरीत जहाँ सिद्धान्तकी इतना है कि मेरे मतानुसार महाराजजीने जैनधर्म-साहित्य टक्कर होती हो वह विशेष टोका टिप्पणीके साथ यह में एक बड़ी भारी कमीको अनुभव करके, उसको पा जीवनचरित्र लिखाना चाहिये वरना इस कोरे अनवादसे करने के लिये भक्ति और धर्म प्रभावके श्रावेशमें, जीवनलोगहँसाई और उपकारके बदले अपकार होगा। महा. चरित्र कलापर ध्यान न देते हुए, और संकुचित विचाराजसे कुछ देर उसपर चर्चा करनेके बाद मैं तो इस रोके दायरेमें रहकर इस जीवनचरित्रको लिखा है और निर्णय पर पहुँचा था कि महाराजजीको उस अनुवादसे अनुवाद आदि कार्य करा रहे हैं, जिसके कारण न बहुत बड़े उपकारकी गलत आशा है। इस हिन्दीकी इस हिन्दी जीवनचरित्रमें महाराजजीकी श्राशा फली है जीवनीका मेरी बुद्धिके अनुसार केवल छाया अनुवाद और न आगे ही ऐसी संभावना है। बस यह मेरे इस होने की आवश्यकता थी और वह भी एक अंग्रेज़ी भाषा लेखका निचोड़ है । यदि इस लेख में कोई भी ऐसा शब्द के धुरन्धर पंडित, अाचरणकी सभ्यताके प्रेमी और हो जिसका अर्थ कटाक्ष रूप भी हो तो मैं उदार पाठकोंसे महावीर भक्त-द्वारा । यह अनुवाद सम्भव है अभी छप- निवेदन करता हूँ कि वह ऐसा अर्थ कभी न लगावें । कर तैयार न हुआ हो। मैं समाजके विद्वानोंसे यह क्योंकि ऐसी मेरी भावना नहीं है। अन्तमें मैं महाराजजी निवेदन करता हूँ और महाराज जीसे प्रार्थना करता हूँ को वंदना करता हुआ इस लेखको समाप्त करता हूँ।
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नारासमन्थान
RDC
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यह सितमगर कब [ले०-श्री कुमारी पुष्पलता]
यह लेख पर्दा-प्रथाके विरोध बड़ा ही मार्मिक है और पुरुष वर्ग तथा स्त्रीवर्ग दोनोंहीके लिये खब गंभीरताके साथ ध्यान देनेके योग्य है। इसे 'मोसवाल' पत्र में देते हुए उसके विद्वान् सम्पादकने । जो नोट दिया है वह इस प्रकार है___ "इस लेखमें विदुषी महिलाने बड़ी चुलबुल और प्राघात करने वाली भाषामें हमारी पर्दा प्रथाके दो चार चित्र खींचे हैं, जिनकी भीषणता और दानवी लीलासे कोई भी पाठक दो मिनटके लिये हतबद्धि-सा हो उठेगा। पर्दाकी उत्पत्ति,उद्देश्य, लाभ, हानि आदि पर आज तक न मालम कितने लेख लिखे गये हैं पर इस प्रकार भीतरी प्राघात करने वाले चलचित्र बहुत कम देखने में पाते हैं। यद्यपि लेखिका कहीं पर भी उपदेशकके तौर पर पाठकोंसे यह-वह करनेका मादेश नहीं देती है, वह तो सिर्फ इनकी जिन्दा मगर । घिनौनी तस्वीरोंको खींच चुप हो जाती हैं; पर पाठकों और यवकोंसे प्रार्थना है कि जितना जल्दी इस प्रथा का अन्त किया। जाय उतना ही अच्छा होगा।" .. -सम्पादक]
माके देशमें नैतिकताका अर्थ बहुत ही तो चुपचाप उस जहरके प्यालेको हृदयमें उँडेल लें
संकुचित दायरेमें लिया जाता है"-यू. वह देश किस स्त्री-गौरवकी महिमा गानेका फतवा रूपकी एक महिलाने भारतीय स्त्रियोंकी सभामें दे सकता है ? उस देशकी स्त्रियोंसे सीता और बोलते हुए एक बार कहा था। "जिस देशकी स्त्रियाँ दमयन्तीके आदोंकी क्या प्राशा की जा सकती गुण्डों और बदमाशोंकी फब्तियोंका घुट चुपचाप है ? जिसे संसारकी विकट परिस्थितियों और पीलें, अपने आस-पास उन्हें कामी भौरों-सी भीड़ उलझनोंको देखनेका मौका नहीं मिला, जिसने जमाकर बैठने दें, यदि कोई हाथा पाई कर भी ले युद्धके भीषण दृश्योंका नजारा नहीं देखा, जिसे
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अनेकान्त
[ श्राश्विन, वीर-निर्वाण सं०२४६५
मातृत्वके उच्च प्रादोंकी शिक्षा व्यवहतरूपमें नमूना है ? पर्देकी कसमें जिन्दा दफनाई जाने पर पानेका नसीब नहीं मिला, जिसे पर्देके भीतर ही भी आह ऊह न करना ही क्या स्त्रीके गुणोंकी सारा संसार मनोनीत करना पड़ा वह स्त्री क्या चरम सीमा हो गई ? । तो झंझटों और कष्टोंका सामना कर सकेगी और हमारे सामने दोस्त्रियोंका उदाहरण है-पाठक क्या अपने पुत्रोंको युद्धमें भेजनेका गर्व हासिल देखें और फिर निर्णय करें कि नैतिकतामें कौन कर सकेगी? उसकी नैतिकताकी कच्ची दिवार तो- आगे बढ़ी-चढ़ी है । एक स्त्री खुले मुँह चारों ओर डनेका प्रयत्न कौन व्यक्ति करनेमें अपनेको असमर्थ निश्चिन्त हो स्वेच्छापूर्वक आ जा सकती है। उसे पायगा ? वह किस बूतेके बल पर अपने सतीत्वकी न तो इधर-उधर घूमने में डर है और न अपनेमें रक्षा अकबरकी छाती पर चढ़ कर खून भरी कटार अविश्वास । वह निधड़क हो सैकड़ों गुण्डोंके से लेनकी हिम्मत कर सकेगी? यह थोथा विचार बीच होकर गुजर जाती है-किसीकी मजाल है कि हम पर्देकं भीतर रहकर सतीत्व और नैतिकता कि उसके स्त्रीत्वके आगे चूं चपड़ कर सके ! की रक्षा कर रही हैं कितना बेहूदा और हास्यास्पद दूसरी ओर एक और स्त्री है जो सफेद कबके है ! इस कथन पर किस महिलाको, जिसने स्वतंत्र कारण दूषित हवासे निर्बल और पस्त हिम्मत वायुमें पलकर जीवनकी स्फूर्ति पायी है, खुले मुंह बनादी गई है। चारों ओर वह घूम फिर भी नहीं रहकर संसारकी भीपण वृत्तियोंका संग्राम देखा सकती, लज्जा और शर्मके मारे वह अपना सर तो है, हँसी न आयेगी?'
पहले ही से छिपा बैठी थी कि गुण्डों का एक समूह ___एक लम्बे अर्से पहले कहे गये ये उद्गार आज उधर आ निकला-दिलके सभी उबार उसने भी हमारे समाजके विचारवान स्त्री और पुरुषके अश्लीलसे अश्लील भाषामें निकाल डाले पर इन दिमाग़ पर जोरसं कील ठोक सकते हैं उन्हें बातोंको सुनकर न तो वह लाजवन्ती पृथ्वीमें अपनी संकुचित नैतिकताकी मर्यादाका भान करा घुसी और न पहाड़से गिरी ! पत्थरकी मूर्ति-सो सकते हैं। मैं सोचती हूँ, हमारे समाजके अधि- वहीं की वहीं बैठी रही । अब यहीं इस उदाहरणकांश व्यक्ति हमारे महिला-समाजकी नैतिकताके को पेश करनेके बाद मैं अपने समाजके पुरुष और लिये और किसी देशकी स्त्रियोंकी नैतिकतासे स्त्री वर्गसे पछती हूँ कि यहाँ पर कौन स्त्री नैतिक तुलना करने पर गर्व करेंगे और कई अंशोंमें उनका दृष्टिसे बढ़ी-चढ़ी है ? पर्दमें मुख छिपाए दुष्टोंकी गर्व करना ठीक भी है पर मैं यह जानना चाहती ग़ज़लें चुपचाप सुननेवाली या निधड़क सिंहनी-सी हूँ कि कामी और बेहूदापतिकी अनुचित मांगोंका इधर-उधर घूमनेवाली-जिसकी आँखोंके तेजके चुपचाप पालन करते रहना ही क्या स्त्री समाजकी सामने कामी कुत्ते ठहर ही नहीं सकते, देखना नैतिकताकी अंतिम सीढ़ी है ? एक गायके माफिक और बोलना तो दूर रहा ? दिन और रात लांछनों और फब्तियोंके कड़वे इस उदाहरणमें यदि आप पर्देवालीकी नैतिक घूटोंको पीते रहना ही क्या पतिभक्तिका सच्चा शक्तिको गई गुजरी समझते हैं तो मैं यह विश्वास
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वर्ष २, किरण १२]
यह सितमगर कब
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दिलाती हूँ कि ऐसा कोई भी उदाहरण हमारे सा- पति हमारे लिये ही कसाई बन कत्र खोदनेका प्रमने नहीं जहां हम पर्देवालीकी नैतिकताकी दाद दे या नहीं करते ? सकें ! फिर किस उसूलके भरोसे हम पर्दा प्रथाको हम यह जानती हैं कि वर्तमानका युवक वर्ग पकड़े रहें?
इस बेहूदा रूढ़ीकी हानियोंको महसूस करने लगा __पुरुष पाठक इस बातको शायद नहीं जानते हैं है पर उसमें इतना पुरुषार्थ अवशेष ही नहीं रहा कि इस कबमें जीवित दफनाई जानेके कारण है कि वह दो कदम आगे बढ़ इस बीमारीसे हमारा आज मातृजातिमें प्राणदायिनी शक्तिका नाम शेष उद्धार करे । इस खूखार व्याधिके मुखमें फँसी हुई ही नहीं बचा है । हमारे जीवनकी विकसित होती देखकर उसकी आत्म तिलमिला रही है, हदय में हुई शक्तियां इस कबमें हमेशाके लिये असमयमें आवेगों और जोशका तूफान आ रहा है, दिमारामें दफ़नादी गई। आज हम पर्देकी इस चहारदिवारी विचारों और तकोंका बवण्डर मचा है पर अभी के अन्दर बन्द होकर एक कैदीकी अवस्थासे किसी उसमें इतना आत्म-विश्वास पैदा नहीं हुआ कि भी प्रकार अच्छी नहीं हैं। हमें न संसारकी वि- वह इस जालिम दुश्मनके स्त्रिलाफ जेहाद खड़ाकर चित्र लीलाओंकी जानकारी है और न भविष्यकी दे। उसकी नैतिकतामें वह फफकारती ज्वाला नहीं कल्पनाएँ करनेका मौका । यदि सच कहा जाय तो जो पल मारते ही उसकी झूठी मर्यादाओंको जलाकहना होगा कि आज हम मानव शरीर धारण कर खाक करदे। कर भी पशुओंस किमी भी दृष्टिसे श्रेष्ठ नहीं हैं। पर यहाँ मैं यह बात स्पष्ट कह देना चाहती हूँ ___जब शास्त्रों और धर्मग्रंथों में यह लिखा पाती कि ये मर्यादाएँ बिल्कुल बिना सर पैरकी हैं । वर्षों हूँ कि स्त्री पतिके कार्यों में भाग ले, उसे अपनी पहले किन्हीं खास उद्देश्योंको पाने के लिये यह गुत्थियोंको सुलझानेमें सहयोग दे तब यह बिल्कुल प्रथा चल पड़ी थी किन्तु आज न तो वे उद्देश्य ही ही नहीं समझमें आता कि वह कबके भीतर रहकर हमारे दृष्टिपथमें रहे हैं और न वह परिस्थिति । जीवनके कौनसे पहलुओंसे जानकारी रख सकती मगर जिस प्रकार प्राणशक्ति निकल जानेपर माहै। वर्तमानकी क्या आर्थिक और क्या राजनीतिक, नवका विकृत अस्थिपञ्जर रह जाता है वैसे ही क्या सामाजिक और क्या धार्मिक सभी गत्थियां यह पर्दा स्त्रियोंके लिये कब्र बन रहा है। इस पर्देका हमारे ज्ञानके लिये एवरेस्ट के समान अलंध्य हैं परिणाम आज-कल तो यही हो रहा है कि हमारी तब उन्हें सुलझाने में सहयोग देनेका मवाल तो माताएँ और बहनें अपने स्वामियोंके साथ खेलनेलाखों कोस दूर रहा। हम नहीं समझ पातीं इस पढ़नेवाले सभ्य पुरुषोंको देख नहीं पाती, उनकी चहारदिवारीके भीतर बन्द कर हमारे प्राणाधार उच्च विचारधाराका लाभ नहीं उठा पातीं पर ये ही पति हमारी निर्बलता और बीमारियोंको बढ़ाकर 'असूर्य पश्याएं' कहारों और नौकरोंके गन्दे और कौनसा फायदा उठाते हैं ? इस प्रकार हमें सदाके काले कलूटे अंगोंको खुली आँखों देखती हैं, उनकी लिये व्याधियोंका घर बनाकर क्या हमारे प्रिय नीच प्रवृतियोंकी क्रीड़ा पर कभी कभी मनोविनोद
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[आश्विन, वीर-निर्वाण सं०२४६५
भी किया करती हैं ! इससे बढ़कर हमारी मर्या- नैतिकताका ढोंग यदा-कदा करनेका मौका उन्हें दाओंका दिवालियापन किस प्रकार निकाला जा- हमारा पर्दा दे दिया करता है ? क्या इसी नैतिक सकता है ? जो सभ्य हैं, शिक्षित हैं और उन्नत चरित्रका गर्व उन्हें आजतक हैं ? बलिहारी है इन विचारोंके हैं उनसे तो पर्दा, उनसे असहयोग; पर मर्दोकी बुद्धि की ! इस विषयमें इतना लिखना जिन्हें न कपड़े पहनने की तमीज है, न उचित भी उनके भुखपर कीचड़ फेंकनेका इल्जाम लगाने बातें करनेका शऊर, उनसे हँसी दिल्लगी! थू थू ! वाला सिद्ध होगा ! पर उफ़ यह सितमगर कब ! क्या कत्रमें जीवित गाड़कर इसी उद्देश्यको पानेकी
'पोसवालसे अभिलाषा हमारे पुरुषवर्गकी थी ? क्या इसी
सुभाषित 'धर्मसे बढ़कर दूसरी और कोई नेकी नहीं, और उसे भुला देनेसे बढ़ कर दूसरी कोई बुराई भी नहीं है। 'संसार भरके धर्मग्रन्थ सत्यवक्ता महात्माओंको महिमाकी घोषणा करते हैं।'
'अपना मन पवित्र रक्खो, धर्मका समस्त सार बस एक इसी उपदेशमें समाया हुआ है। बाकी और सब बातें कुछ नहीं, केवल शब्दाडम्बर मात्र हैं।'
'धन-वैभव और इन्द्रिय सुखके तूफानी समुद्रको वही पार कर सकते हैं कि जो उस धर्म-सिन्धु मुनीश्वर के चरणोंमें लीन रहते हैं।'
'केवल धर्म जनित सुख ही वास्तविक सुख है । बाकी सब तो पीडा और लज्जा मात्र हैं।' 'भलाई बुराई तो सभी को पाती है, मगर एक न्यायानिष्ट दिल बुद्धिमानोंके गर्वकी चीज़ है।' 'पालस्यमें दरिद्रताका वास है, मगर जो आलस्य नहीं करता, उसके परिश्रममें कमला बसती है।'
'बड़प्पन हमेशाही दूसरों की कमजोरियों पर पर्दा डालना चाहती है; मगर भोछापन दूसरोंकी ऐवजीइके सिवा और कुछ करनाही नहीं जानता।'
'लायक लोगों के प्राचरणकी सुन्दरताही उनकी वास्तविक सुन्दरना है; शारीरिक सुन्दरता उनकी सुन्दरतामें किसी तरहकी अभिवृद्धि नहीं करती है।'
'खाकसारी-नम्रता बलवानोंकी शक्ति है और वह दुश्मनोंके मुकाबले में लायक लोगोंके लिये कवचका काम भी देती है।'
-तिरुवल्लुवर
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मन्दिरोंके उद्देश्यकी हानि
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[ले०-५० कमलकुमार जैन शास्त्री 'कुमुद' ]
मूहिक रूपमें उच्च जीवन बनानेके हेतु, राष्ट्रके स्वभावसे ही प्रयत्नशील-प्रगतिशील और सुखोंकी कामना
महान् आत्माओं और सत्पुरुषोंकी स्मृतिमें जो करनेवाला है इसलिए वह सुखोंके दायरेको बढ़ाने में स्थान निश्चित किये जाते हैं उनको देवस्थान, देवालय, निरन्तर तत्पर रहना है । इस प्रकार वह उन्नति करता देवल अथवा देवमन्दिर कहते हैं । उनका जीवन पवित्र हुअा वैयक्तिकसे कौटुम्बिक, कौटुम्बिक्से सामाजिक और
और लोकोपकारी होनेके कारण ही उन स्थानोंको सामाजिकसे “वसुधैवकुटुम्बकम्" के सार्वजनिक सिद्धा पवित्र माना जाता है। ये स्थान राष्ट्रके श्रादर्श स्थान न्तका माननेवाला बनता तथा अपने समान प्राणीहैं-वे किसी जाति विशेषकी बपौती सम्पत्ति नहीं हो मात्रके कल्याणकी कामना करने लगताहै। सकते । हरएक इन्सान उनसे लाभ उठानेका पूरा पूरा इन्हीं स्वाभाविक गुणोंसे प्रेरित होकर ही मनुष्यने अधिकारी है।
सामाजिक और राष्ट्रीय जीवनकी उन्नतिके लिए एक मनुष्य सामाजिक प्राणी है, इसलिये वह अकेला सामान्य स्थानकी रचना की औरवहाँ जाति तथा राष्टके नहीं रह सकता । उसका यह स्वभाव है कि समाजमें महान पुरुषोंकी प्रतिमाएं स्थापित की, ताकि लोग वहाँ रहे और निरन्तर सामाजिक संगठन तथा उमतिकी एकत्र होवे और मापसमें मिल-जुलकर अपने श्रादर्शको चर्चा करे। इन्हीं स्वाभाविक गुणोंसे प्रेरित होकर वह ऊँचा बनावें व परस्परमें मिलकर उन्नति करें। ऐसे चाहता है कि उसके वैयक्तिक और कौटुम्बिक जीवनका स्थान “देवमन्दिर" कहलाते हैं और उनके निर्माणमें दायरा बढ़कर सामाजिक होवे, सामाजिक दायरेमें लोकसंग्रह तथा सामाजिक उत्थानका भारी तत्व संनि
आकर वह उससे भी तृप्त नहीं होता और अपनी श- हित है । उदार जैनधर्मने राष्ट्र के अंगरूप प्रत्येक मनुष्यक्तियोंका विकास करता हुआ राष्ट्रीय तथा विश्वजीवन- को राष्ट्रकी सम्पत्ति माना और उसके धार्मिक तथा के दायरेमें मानेका प्रयत्न करता है। चूंकि प्रारमा सामानिक अधिकारों की रक्षा करते हुए को प्रायः सब
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समान अधिकार दिया। वीर-सम्तान जब तक इस भूल गई-वह अपने उमतिके मार्गको भयके भूतोंसे सिद्धान्तको इसके असली स्वरूपमें मानती रही तब तक भरा हुआ देखने लगी है। यह भय और भी बढ़ जाता उसने दुःखों और संकटोंका अनुभव तक न किया वरन् है जब स्वार्थीजन उन मिथ्या भयके भूतोंका विराटचक्रवर्ति राज्य तकका भी सुख भोगती रही। स्वरूप लोगोंको बतलाते हैं, इससे वे वहीं ठिठककर
माज दिन देव और उनके स्थान ऐसे व्यक्तियोंके शन्यवत् हो जाते हैं। हाथोंमें पड़े हैं जो स्वयं उन लोकोपकारी महान् श्रा- जाति सामूहिक रूपमें उन्नति करे और उतिके स्माभोंके जीवनचरित्र तकको पूर्ण रूपसे नहीं जानते, उच्च शिखरपर आरूढ होवे, इसके लिए जातिके कर्णविद्याध्ययन तथा विद्याभ्यास करना कराना भी जिन्हें धार अनेकों प्रकारकी कठिनाइयों और संकटोंको सहते नहीं रुचता, और जो अपनी अज्ञानता तथा मूर्खताको हुए सतत परिश्रम कर रहे हैं, उनका बलिदान पर चतुराईसे छिपा रखनेके लिए रूढ़िवादको ही धर्मवादकी बलिदान हो रहा है; परन्तु हमारे धर्माधिकारी पंचछाप लगा रहे हैं, जनसाधारणमें इस बातकी जड़ जमा पटेल टससे मस होना नहीं चाहते और धर्मकी दुहाई रहे हैं कि जो कुछ उल्टा-सीधा हमारे बाप-दादे करते देकर आगे आनेवालोंको पीछे घसीटते हुए उन्हें 'सुधा
आये हैं उसको छोड़कर धर्म-कर्म कोई चीज़ नहीं है। रक बाबू' का फतवा दे देते हैं । जातिको एकताके सूत्र वेष भूषा तथा तिलक छापकी पूजा करनेसे ही मोतका में संगठित करने में जो मूल्य सच्चे सुधारक दे रहे हैं द्वार खल जावेगा। इनके मतमें भावना और श्रद्वान उसकी वे कुछ भी चिन्ता नहीं करते । नहीं मालूम उन्हें ही प्रधान धर्म हैं, परन्तु वे यह नहीं समझते कि किसी कब सुबुद्धिकी प्राप्ति होगी। वस्तुके असली स्वरूपको जाने बिना शुद्ध भावना और इन पंच-पटेलोंकी कृपासे जैन समाजमें अछूत और सच्चा एवं रद श्रद्धान कैपे हो सकता है !
दलित (दस्सा विनैकावार ) कहलाए जानेवाले हमारे जातिको रसातलमें पहुंचानेवाली ऐसी ही बातोंने ही जैनी भाई, जो जिनेन्द्रदेवका नाम लेते, अपनेको उत्तम पाचरण, उपमादर्श और सद्भावनामोंको पदद- भगवान् महावीरकी सन्तान मानते, उनके आदेशों पर लित कर दिया, मन्दिरोंको उनके प्रादर्शसे गिरा दिया, चलते और उनकी भक्तिसे मुक्ति मानते हैं, वे जिनेन्द्रका अकर्मण्यता, भालस्य, ब्राह्मण भोजन, मामूली दान- दर्शन तथा पूजा-प्रहाल करने देवालयों में नहीं ना सकते तीर्थ-व्रत प्रादिसे ही मुक्तिका प्राप्त होना बतला दिया और सिद्धान्त शास्त्रोंका स्वाध्याय भी नहीं कर सकते ! और धार्मिक ग्रन्थों का स्वाध्याय-मनन अनुशीलन तथा पंच पटेलों और उनके धार्मिक-सामाजिक अधिकारकी योग-समाधि, संयम और सामायिक जैसे भावश्यक इस मिथ्या और नाजायज़ सत्ताने दो लाखसे उपर कर्मोंको अनावश्यक ठहरा दिया ! नतीजा यह हुआ कि महावीरके सच्चे भक्तोंको उनके जन्म सिद्ध अधिकारोंसे समाजमें मूर्खताका साम्राज्य बढ़ गया, जाति स्वाभि- वंचित कर रखा है !! जरा हम ही विचारकर देखें क्या मान तथा स्वावलम्बनसे शून्य होकर अपनी शक्तियोंको यह घृणित सत्ता जैन-जातिके लिए घातक नहीं है। विकास करनेमें साहस हीन तथा निरूसाही हो गई भगवान् महावीर पतित पावन है, उनकी कथा सुनने और मस्तिष्क तथा विवेकसे काम लेना बिल्कुल ही और उनका दर्शन करनेसे महापातकी भी पवित्र हो
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जाता है; फिर उनका दर्शन-पूजा करनेसे पतित कहे नहीं है। इसके विपरीत पह मानना कि अमुक अंग अपजानेवाले जैनी क्यों रोके जाते हैं ? पतित तो वे हैं वित्र और नीच है राष्ट्र-धर्म-जाति और देशके प्रति भयंजो भगवान महावीर के भक्तोंसे घृणा करते हैं, उनको कर पाप है। जिस किसीमें धार्मिकता, जातीयता और वीर-प्रभुके पास जानेसे रोकते हैं और इस तरह मन्दि- राष्ट्रीयता नहीं वह मनुष्यरूपमें पशु समान है और इस रोंके उद्देश्यको ही हानि पहुंचाते हैं।
पवित्र भारत वसुन्धरा पर भार रूप है। __यह विश्वास और धारणा कि मैं पवित्र हूँ और यह मान्यता कि देवालयोंमें स्थित जिनेन्द्र देवकी वह अपवित्र है तथा उसके (दस्सादिके ) प्रवेशसे मंदिर मूर्तियाँ किसी व्यक्ति अथवा समुदाय-विशेषकी सम्पत्ति अपवित्र हो जावेंगे और मूर्तियोंकी अतिशयता गायब हैं निरी मिथ्या और निराधार है और मन्दिरोंके उद्देश्यहो जायगी ऐसा घृणित पाप है जो जैन जातिको रसा- को भारी हानि पहुँचानेवाली है। तलमें पहुँचाये बिना न रहेगा । जैन जातिका ही क्यों, दूसरों के स्वाभाविक धर्माधिकारको हड़पना निःसवरन समूचे राष्ट्रका कोई भी अंग अपवित्र अथवा नीच न्देह महा नीचता है-घोर पाप है।
वे आये [ले०-६० रतनचन्द जैन रतन' ] हिंसाकी ज्वालामें जीवन-धार लिये वे पाये ।
शरत् चंद्रिका-सा शीतल संसार लिये वे प्राय । ग्रीषमका था अंत आदि था वर्षा ऋतुका सुंदर। मंत्र अहिंसा गौरवमय दुनियाने सीखा जिनसे । सुरभित सा समीर करता था मुदित राजसीमंदिर॥ परहित निज बलिदान करें कैसे यह सीखा जिनसे॥ उषाका शुभनव-प्रभात जग-प्यार लिये वे आये। सुप्त हृदयमें जो जागृतिका बिगुल फूंकने भाये । हिंसाकी घालामें जीवनधार लिये वे आये ॥ हिंसाकी ज्वालामें जीवन-धार लिये वे आये ।। धन्य तुम्हारा अंचल त्रिशला जीवन ज्योति जगाता। ऋणी आज संसार अहो! जिनकी पावन कृतियोंका। वीर श्रेष्ठ उन महावीरसे यह संसार सुहाता ॥ नत-मस्तक होगया विश्वके सभी तीर्थ पतियोंका ॥ उमड़ पड़ा श्रानन्द वीर वाणी जब हम सुन पाये। जगके लिये जन्म हीसे उपकार लये आये । हिंसाकी ज्वालामें जीवन धार लिये वे आये ॥ हिंसाकी ज्वालामें जीवन धार लिये आये ।।
वे सन्मति श्रीवीर आज फिर सुधाधार वर्षादें । वरसादें आनन्द मही पर अत्याचार बहादें ॥ पराधीन जगमें स्वतंत्रता सार लिये वे आये । हिंसाकी ज्वालामें जीवनधार लिये वे पाये ॥
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अतीतके पृष्ठोंसे । जिलक- “मावर" जैन]
। [लेखक-"भगवत्" जैन]
[ एक ]
_ 'संसार ?-संसारकी बात कोई सिद्धान्त 'सेरा हृदय नहीं कहता कि तुम्हारी बातको ठुक- नहीं ! वह त्याज्य-बातोंको भी 'अच्छा' कह देता
"राऊँ—प्राणेश्वरी ! लेकिन मुश्किल तो यह है ! मेरा विश्वास है-वैवाहिक-जीवनका ध्येय है कि.........!
वासना तृप्ति नहीं, सन्तानोत्पत्ति है ! और सन्ता'क्या ?
नोत्पत्तिके लिए, एक पत्नीके सिवा दूसरी शादी 'तुम्ही एक बार सोचो-क्या तुम्हारा यह हठ, करना भी कोई क्षम्य अपराध नहीं ! जो अपराध यह प्रेरणा उचित है ? मुझसेकहीं अधिक तुम इस नहीं, वह अत्याचार नहीं हो सकता !' । पर विचार कर सकती हो, इसलिए कि तुम्हारी 'लेकिन मैं सोचता हूँ......!' अस्वाभाविक-प्रेरणाका सम्बन्ध तुम्हींसे अधिक 'तुम्हारा सोचना है वह मेरा प्रेम है, उपाय रहता है, वह तुम्हारी ही चीज़ है !'
नहीं, जीवनकी पूर्णता नहीं !' । 'ठीक कह रहे हो-नाथ ! मगर अपने ध्येय- 'किन्तु मुझे अपने जीवनमें प्रभाव भी तो से विमुख होकर स्वार्थ-साधनको ही सब-कुछ नहीं दीखता, जिसे पूर्णताका रूप देनेके लिए समझ बैठना भी तो नहीं बनता ! मेरी टिका सचेष्ट बनें ! प्रिये ! विवश न करो ! मैंने वैवाअभिशाप आपके लिए हो, यह मेरे लिए कितनी हिक-जीवनकी बांछनीय-पूर्णता तुममें पाली है। अवांछनीय बात है ! बस, वहीं मेरा कर्तव्य बन सन्तानके अभावकी स्मृतितक मेरे हृदयमें नहीं ! जाता है अपने प्राप्त अधिकारकी आहुति देकर और इसके बाद भी, मेरी धारणा है-कि. दाम्पभालपर लगे हुए कलंकको मिटाना, उजड़े-कानन त्तिक-जीवन प्राकृतिक-प्रेमका ही उपनाम है ! वही में बसन्तका आह्वान करना!'
प्राकृतिकता जिसको भग्न नहीं किया जा सकता ! __ 'मगर तब ! जब मैं उस अभिशापकी विभी- विकृति करना ही उसका विनाश कहलाता है !' षिकासे भीरु बनकर उसके प्रतिकारके लिए अव- एक छोटा-सा उदासी मिश्रित मौन !... लम्ब खोजने लगू !: "जरा गंभीरतासे विचारो- राजगृहीके धन-कुबेर सेठ ऋषभदास पत्नीके क्या इस प्रेरणाका क्रियात्मकरूप तुम्हारे प्रति उदास-मुस्तकी ओर देखकर मर्माहत हुए बगैर न मेरा अत्याचार न होगा ?-संसार क्या कहेगा- रह सके ! मन, वेदना सी महसूस करने लगा ! उसे?
विकट-परिस्थिति सामने थी, सोचने लगे-'क्या
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करना चाहिए ?'-कि.........
सुहावना नव-जात शिशु पूर्णताका सन्देश सुनादो गोल-गोल आँसू !
येगा ! तभी..........! पारक्त कपोल !!
विह्वला-सी जिनदत्ता उन्मीलित नेत्रोंसे देखती अधरोंका अस्वाभाविक स्पन्दन !!! हुई, क्षण-भरके लिए रुकी ! फिर--
पूंजीपतिका हृदय नवनीत बनने लगा ! तभी मेरी त्रुटि मुझे भूल सकेगी, तभी खोजने लगे रुधनकी गहराईमें स्वकर्तव्यकी रूप- मेरा कलंक मुझे धुला-सा प्रतीत होगा ! और तभी रेखा ! उनके विचार बाँध टी नदीकी भाँति मेरा बंध्यत्व पराजित हो सकेगा ! इसके लिए मैं निखरे जा रहे थे ! तभी
अधिकार ही नहीं, नारीत्व तककी आहुति देनेके 'मेरी एक छोटी-सी 'मांग' भी स्वीकृति नहीं लिए प्रस्तुत हूँ !'--जिनदत्ता -पतिव्रता, धर्माचापाती, इससे अधिक और दुर्भाग्य क्या होगा- रिणी, विदुषी जिनदत्ता--ने अपनी आन्तरिकतामेरा ?'-जिनदत्ताके सुन्दराकार मुखके द्वारा को समक्ष रखा ! हृदयस्थ-पीड़ा बोली!
.."किन्तु प्रिये ! ऐसा पाणिग्रहण, पाणिग्रहण _ 'सुन्दरी ! मैं यदि तुम्हारी प्रेरणा-रक्षाके लिए नहीं, बन्धन है ! जिसमें एक निर्मुक्त भोली बालिका द्वितीय विवाह कर भी लूं तो क्या तुम सोचती हो, का जीवन, अनमेल साथीके विकसित-जीवनके यह मेरा स्तुत्य-कृत्य होगा ? कदापि नहीं ! वह साथ निर्दयता-पूर्वक बाँध दिया जाता है ! इसका तुम्हारी गहरी-भूल होगी ! जो हमारे-तुम्हारे दोनों परिणाम---विषाक्त परिणाम--भविष्यके गहनके लिए घातक सिद्ध होगी, विष सिद्ध होगी। पटलोंमें छिपा रहनेपर भी, मुझे वर्तमानकी तरह किसीका सत्वापहरण कर, किसीकी रस भरी दिखाई दे रहा है ! मैं चाहता हूँ.. तुम अपनी दुनियाँको उजाड़कर, कोई सुखकी नींद सो सके प्रेरणाको वापिस लेलो, मुझे भाग्य-निर्णय पर यह रौर मुमकिन है !...'-ऋषभदासकी दृढ़ताने छोड़ दो!' बोलते-बोलते गंभीर रूप धारण कर लिया ! लेकिन क्षणिक स्तब्धता !!! जिनदत्ताके हृदयपर उसका कुछ प्रभाव न हुआ, 'जीवन-मूल ! इतने निष्ठुर न बनो ! न ठुका आखिर था न स्त्री हठ ?
रात्रो मेरी प्रेम-प्रेरणाको ! मैं तुमसे भिक्षा माँगती वह बोली--'किसकी दुनियाँमें प्रलय हूँ-प्यारे ! कहो.''कहो, बस, कहदो-'हाँ!' मचती है--इससे ? किसका अधिकार अपहरण -और तभी ऋषभदासके असमंजसमें पड़े होता है ? मैंने सोच लिया--'किसीका भी नहीं!' हुए हृदयसे निकलती है, प्रेमसे ओत-प्रोत, गंभीर अगर होता भी है तो सिर्फ मेरा ! जिसकी मुझे किन्तु मीठी'परवाह' नही ! इसके बाद--इस उजड़े नन्दनकाननमें बसन्तकी सुरभि महकेगी, तमसान्वितसदनमें प्राशाका दीपक प्रज्वलित होगा! चांद-सा
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[ दो]
कनकश्रीके अधिकारकी वस्तु बन जायगा, इसमें नवागता दुल्हनका नाम था-कनकश्री! जैसी सन्देह नहीं !' । ही कनकश्रीने गृह-प्रवेश किया कि जिनदत्ताको इसके बाद-बुढ़ियाकी स्वीकारता और विवाऐसा लगा, जैसे सफल मनोरथ पा लिया हो! होत्सव दोनों एक-साथही लोगोंके सामने आए ! लेकिन कनकश्रीने समझा उसे शूल ! स्वाभाविक ..बहिन ! आजसे इस घरको अपनाही 'घर' ही था--साथीकी तलाश दुखके लिए होती है, समझो ! तुम्हारे पति बड़े सरल स्वभावके हैं, मौसुखके लिए नहीं ! फिर स्त्री-हृदयकी ईर्षा, क्या जीले भी खूब हैं-वह! मेरी आन्तरिक अभिलाषा पूछना उसका ? अवश्य ही, एक दूसरीका गाढ़ है-तुम दोनों प्रसन्न रह कर अनेकों वर्ष जियो ! परिचय न था !
तुम्हारी भरी-गोद देख सकू, मैं इन आखोंसे ! कनकश्रीकी माँ--'बन्धश्री'--राजगृहकी ही -जिनदत्ताने स-प्रेम कनकश्रीसे कहा ! लेकिन निवासिनी थी ! परिवार भरमें दो ही प्राणी थे-- वह रही चुप, आभार प्रदर्शक एक-शब्द भी उसके माँ-बेटी ! जिनदत्ताने रखा अपने पतिके लिए मुँह से न निकला ! किन्तु जिनदत्ताने इसे महसूस कनकश्रीका प्रस्ताव' ! बुढ़ियाको जैसे मुंह-माँगी तक न किया, अगर कुछ समझा भी तो निरामुराद मिली ! तृषातुरके पास जलाशय आया ! भोलापन ! ऐसा सुयोग भला वह चूक सकती थी ? उमका फिर कहने लगी वह–'और मेरा, तुम्हारे पति दुनियावी तर्जुबा-साँसारिक अनभव---काकी पु- से, तुम्हारे घरसे प्रायः सम्बन्ध विच्छेद ! सुबह राना था ? उसने सोचा-'लड़कीका पर-गह जाना और शाम केवल भोजन-निवृत्तिके लिये आया निश्चित ही है ! और अभी, निःप्रयत्न ही उसे करूँगी ! बाकी समय 'देवालय' में प्रभु-पद शरण समृद्धशाली 'वर' मिल रहा है ! पुत्री सुखी रहेगी, में-बिताऊँगी !' यही चाहिए भी ! थोड़ी उम्र जरा अधिक है, पर मौन ! इससे क्या ? घरमें स्नुराक भी तो है ?--ग़रीबोंके इस बार जिनदत्ताने कनकश्रीके मुखकी ओर नौजवान भी बरौर स्खुराकके बूढ़े दिखाई देते हैं ! कुछ खोजनेकी दृष्टि से देखा । पर मुग्ध-हृदय फिर रह जाती है पहली पत्नीकी बात ! सो वह भोली भी भ्रम रहित न हो सका, उसने समझी-नारीस्वयं ही कह रही है ! फिर शंकाके लिए स्थान सुलभ ब्रीड़ा! नहीं ! इसके बाद भी है तो वह पुरुष-हृदय ही न ? जो सर्वदा नवीनताकी खोजमें ही विवेक हीन दिन-पर-दिन निकलते चले गए ! बहुत-दिन बना रहना जानता है, जो सौन्दर्य शिखापर शलभ बाद एक दिन !की भाति प्राण चढ़ाने तकमें पीछे रहना' नहीं बन्धुश्रीने प्रवेश किया । कनकश्रीने जैसे ही जानता ! अवश्य ही, पूर्व पत्नीको कनकश्रीके 'माँ'को आती देखा, तो स्वागतार्थ उठ खड़ी हुई ! लिए जगह खाली कर देनी होगी ! प्रेम केवल स-सन्मान उच्चासन पर बैठाया !... बुढ़ियाने
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वैभवकी गोदमें जो अपनी पुत्रीको देखा, तो पुल- -और रोने लगी, कनकधी जार-जार ! कित हो उठी ! देखने लगी-अचंभित-नज़रोंसे बुढिया अवाक् ! इधर-उधर! आजसे कुछ दिन पूर्व जैसा समुज्ज्वल- सन्दिग्ध !! भविष्य उसके चित्त पर रेखांकित हुआ था, ठीक रहस्यसे अविदित !!! वही वर्तमान बना हुआ उसके सामने था .... बोली ममतामयी स्वरमें-क्यों रोती हो, उसके रुचिर अनुमानकी सार्थकता !
मेरी बेटी ? क्या हुआ है तुम्हारे साथ ? कहो न ? __ जैसे वह स्वर्ग में है, प्रतिमासित होने लगा- अपनी माँसे छिपाओगी?–न, ऐसा न करो, उसे ! और वास्तविकता भी यही थी ! कनकभी मेरा मन दुख पायेगा- मैं शोक में डूबने लगूंगी पूर्ण सुखी थी ! उसके पास पतिका प्रेम था, वैभव और ........... !' था, और थे सुखके सभी आवश्यकीय-साधन ! कनकधी के आँसू थमे ! मुख पर कुछ शान्ति जिनदत्ताने उसके लिये भरसक प्रयत्न किए कि आई, वैसी ही, जैसी तुफानके बाद रत्नाकरमें ! वह प्रसन्न रहे, यही सब थे उसके सुख-साधन ! कहने लगी वह
.."दोनों बैठी ! माँकी मुखाकृतिमें थी 'उनका' प्रेम 'उसी से है ! मुझे तो फटी आँखों सन्तोष-रेखा ! और पत्रीकी में अमर उदासी ! देखना तक उन्हें पसन्द नहीं ! रात-दिन इस घर बातें होने लगी ! 'कुछ देर धन महत्ताकी; इसके की नीरवतासे जूझना मेरा काम है ! एकान्त... पश्चात-जैसीकि बातें होनेका प्रायः सिस्टम होता दिन-रात एकान्त ! "माँ ! एक स्त्री के होते हुए है-सुख-दुख विषयक !
फर मुझे और सोंपते वक्त मेरे सुख दुखकी बात ___'बेटी ! और जो है वह तो ठीक ! परत भी तोसोच लेती-कुछ ! सुखी तो है न ?'-बुढ़ियाने साधारणतः प्रश्न बुढ़िया संज्ञा-हीन-सी हो रही थी . उसकी किया।
चैतन्यता उसके साथ विश्वासघात किये जा रही __'सुखी .. ? नरकमें ढकेल कर मेरे सुखकी बात थी ! वह चुप ही रही! पछती हो-- मां-बातको साधकर मार्मिक-ढंग कनकश्री ने अपना क्रम भंग न होने दियासे कनकश्रीने उत्तर दिया।
'मैं नहीं समझ पाती कि तुमने क्या सोचा, क्या काले भुजंग पर जैसे बढ़ियाका पैर पड़ गया विचारा? स्त्री के लिये इससे अधिक और दुखकी हो, हिमालयकी चोटीसे गिर पड़ी हो;या हुआ हो बात क्या होती है ? 'प्रेमके दो खण्ड नहीं होतेआकस्मिक बनाघात ! वह घबड़ाकर बोली- माँ ! फिर उसका नाम 'प्रेम' न होकर 'दम्भ' हो क्यों...???
जाता है ! 'रहने दो माँ इस 'क्यों' को ! मुझे वेदना वह रुकी ! बुढ़ियाको अवसर मिला, उसके करती है यह 'क्यों' सहानुभूति नहीं ! मेरे भाग्यमें मुख पर रौद्रता, पैशाचिकता नाच रही थी,क्रोधसे जो है, भोग लूँगी ! अब चर्चासे क्या लाभ ?'... काँपते ओठोंसे निकला-हूँ ! यहाँ तक ? मैं
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नहीं जानती थी !.....
सहसा, एक-दिन कपालिकने स्वयंही सोचासन्नाटा!
वद्धा मेरा पोषण कर रही है, पोषण करने वाली बुढिया फिर आपही बड़ बड़ाने लगी-पागल होती है-मां ! शायद मांको कोई कष्ट हो, है, निरा पागल ! नवयौवनाको छोड़ कर उस...!' पूछ लेना मेरा कर्तव्य है !'
कनकश्रीके मुँह पर भी एक मधुर-मुस्कान ! दूसरे दिन उसने पूछा ! बुढ़ियाकी समस्या 'बेटी ! चिन्ता न कर तू ! मैं तेरे उस 'कांटे' हल होगई ! रुआंसी-सूरत बनाकर बोली- 'बेटा! को समूल नष्ट करके रहूँगी ! जब न रहेगी वह, मेरा कष्ट क्या पूछते हो तुम ? जिसके मारे न रात तब तेरे आगे ही सिर झुकाना पड़ेगा उसे !'- चैन न दिन !' बुढ़ियाके मानसिक पीड़ासे व्याकुल हृदयने 'ऐसी क्या वेदना है मां ?'–कापालिकने सान्त्वनात्मक शब्दोंमें भीष्म-प्रतिज्ञा की ! पूछा ! बुढ़ियाने समझाया-'तेरी बहन कनकश्री
का पाणिग्रहण जिनके साथ हुआ है,उनके एक स्त्री [तीन ]
और है जिनदत्ता ! वह मूढ़ उसीसे रत है ! बेचारी 'माँ भिक्षा!'
कनकश्रीका जीवन भार होरहा है, कष्ट में बीत रहे 'ठहरो, अभी लाती हूँ?
हैं उसके दिन ! इसी दुखके मारे मैं मरी जारही -और बन्धुश्री ने उस दानवाकार मलिन- हूँ...'-बुढ़ियाकी अांखें छलछला आई। ष, कपालिक-जोगीको हाँडी भर दी ! वह चला 'उपाय इसका ?' गया-हाथके त्रिशूलको अस्वाभाविक ढंगसे 'उपाय बड़ा कठिन है-बेटा ? तुमसे न हो हिलाता हुआ !
___ सकेगा!' इसके बाद-दूसरे दिन आया, तीसरे दिन क्यों ? कहो तो ?'-कापालिककी ताकतकी आया; फिर वह रोजका क्रम बन गया ! वह उपेच्छाकी गई हो जैसे ! तिलमिलाकर उसने आकर दर्वाजे पर आवाज देता ! आवाजके साथ पूछा ! बुढिया उठती और उसकी हांडी भर देती, वह अगर तुम कर सको तो?-यह . उपाय है चला जाता अपनी मस्तानी-चालसे, स्वछन्द ! 'बेटा ! कि जिनदत्ताको जानसे मार दो'__ भिक्षा-दानके धरातलमें पुन्यकी लालसा नहीं बुढ़ियाने इच्छा प्रकट की ! थी ! बुढ़िया को लेना था उस अघौरी-कपालिकसे कापालिकने एक पैशाचिक अट्टहास किया ! कार्य ! वह भी साधारण नहीं, भयंकर, खतरनाक बढ़िया मौन ! वह बोलाडेन्जरस् !!!
'यह मेरे लिए क्या बड़ी बात है मां ?-दूसरे पर कहनेकी रूप-रेखाही नहीं बनती थी ! क्या की जान लेना तो मेरा खेल है ! अवश्य ही बहिनकहे ?-कैसे कहे ? हिम्मत आ आकर लौट कनकधीका दुख दूर करूँगा ! तुम निश्चिन्त रहो! जाती!...
अगर ऐसा न कर सकूँ तो जीवित अग्नि-प्रवेश
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करलूँ !, कापालिकके विद्या-अहंकारने व्यक्त -कापालिकने साग्रह प्रार्थना की ! किया !
माधककी अनुरोध रक्षाका भार लेकर बैताली बुढ़िया खुशीके मारे बोल भी न सकी ! फिर चली,-निरपराधकी हत्याके लिए.... !
फिर वही बात, वही प्रसंग ! जिनदत्ताके श्मशानमें !
पातीव्रत-धर्म और प्रभु-भक्तिकी प्रखरताके मन्मुख चतुर्दशीकी काली डरावनी रात ! नर-मुड ! देवीकी सारी शक्ति निर्जीव होगई ! उमने हाथ अस्थि-खण्ड !! और धधकती हुई चिताएँ !!! उठाये, न उठे ! कदम बढ़ाना चाहा, वह भी नहीं! घृणित-भस्म, पल-भक्षी-पशु, और विकट मन्नाटा! लौट आई आखिर हार कर !... इसके बाद भी, मध्य-रात्रि !!!
कापालिककी व्यग्रता उधर फिर बढ़ी, फिर कापालिक आसन मार कर बैठ गया, देवीकी उमने देवीका आह्वान किया ! वह आई, इस अाराधनामें निर्भय और प्रसन्न-मुख ! जैमी कि बार उसके साथ क्रोध था, झंझलाहट थी; और उसे आशा थी, आराधना विफल न हुई, बैताली माधककी मूर्खताके प्रति अरुचि ! आई !"कुछ ही देर बाद !
'क्या कहता है-बोल ?'–बैतालीने झल्लाकर ___ कापालिकने सिर झुकाकर अभिवादन किया। तीग्वे-स्वरमें कहा ! फिर बोला-'मा ! ऋषभदासकी प्रथम पत्नी- कापालिककी मानों घिगी बंध गई. होश जिनदत्ता--का प्राणान्त करदो, यही चाहता हूँ !' हवास गुम ! घबड़ाकर बोला___ वह चली गई ! अपने साधककी इच्छा तृप्तिके दोनोंमें जो दुष्ट हो, उसे मार दोहेतु जिनदत्ताके बधके लिए!
मा!' जिनदत्ता थी बे खबर, इन मब प्रपंचोंमे ! देवी चली-कनकश्रीके शयनागारकी तरफ ! उमे पता तक नहीं किस प्रकार बैताली उमके क्रोधमे विक्षब्ध ! और दूसरे ही क्षण कनकश्रीके बध के लिए आई, और उसके धर्म-प्रभावमे बगैर रक्तमे रञ्जित खड़ग लिए बाहर निकली ! प्राणान्त किए ही लौट गई !...
उधर ! कापालिकको इमबार अधिक प्रतीक्षा उधर ! कापालिकने पुनःदेवीकी आराधना की! न करनी पड़ो ! उमने बैतालीको शीघ्र ही वापम वह आई ! बोली
लौटते देखा ! 'क्या चाहता है ?
__ 'देख !'-रक्त-विन्दुओंको तीक्ष्ण खड़गसे 'जिनदत्ताका बध!'–कापालिकने उत्तर दिया! पोंछते हुए बैनालीने कहा-'मारदी गई !'
नहीं होगा मुझसे ! उसका धर्म-तेज टिकने ही नहीं देता मुझे ! वह धर्मकी देवी है, छोड़दे इठा
- [चार] ग्रह !'-बैतालीने परिस्थितिको स्पष्ट किया ! 'सच...?'
'मा ! जैसे भी हो इसे तो करो ही!'' 'विश्वास करो-मा ! मैं सचही कह रहा हूँ
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अनेकान्त
[श्राश्विन, वीर-निर्वाण स०२४६५
खत्म हो चुकी वह !' कापालिकने दृढ़ता पूर्वक कैसा वीभत्स-दृश्य था-- प्रकट किया !
कल्पनासी कोमल-शैय्या पर कनकश्रीका खण्ड 'बेटा...?'
खण्ड हुआ शरीर ! रक्तसे ओत-प्रोत वस!... 'मा!'
बुढ़ियाका हृदय फटने लगा। क्षणभर पहिले'तुम कितने अच्छे हो, मैं तुम्हारी प्रशंसा नहीं कर को 'खुशी' अब 'रंज' बन गई थी ! उसके भावों पा रही!' x x x की विषमताका अन्दाजा लगा सकना और भी
कठिन था-अब! बुढियाके हर्षोन्मत्त-मनकी दशाका चित्रण करना दूसरेके लिए बोये हुए कांटे अपने ही पैरोंमें दुरुह था ! वह अपने पापेको भूली जा रही थी! चुभे ! नारायण पर चलाये जानेवाले चक्रने अपना नरक-कीटको जैसे स्वर्गमें स्थान दे दिया गया हो, ही सर्वनाश किया। स-शरीर!
बन्धुश्रीके उतंग-रोदनसे भवन प्रकम्पित हो __ प्रभातकी प्रतीक्षामें-उत्कटप्रतीक्षामें-एक- गया । राज-कर्मचारियोंने दरयाफ्त किया ! तो... एक पल बिताना शुरू किया-बुढ़िया ! सोचने बुढ़ियाकी बूढ़ी दुष्टताने जहर उगलालगी-'चलो, काँटा दूर हुआ कनकश्री सुखी 'ऋषभदास और जिनदत्ताने मेरी प्यारी पुत्रीरहेगी-अब !'
को मार डाला, हत्या कर डाली उसकी !' काश ! इन्हीं शब्दोंकी कोई उसे यथार्थता -और वह थे दोनों इस समय देवालयमें, बतलाता ! कनकश्री सुखी रहेगी ? हाँ, सुखी ईश्वराराधनामें तत्पर ! दुर्घटनासे अविदित ! रहेगी ! जहाँ भी रहेगी, इस घातक-ईर्षा-आगसे अलग !...
हत्याका अभियोग ! वह भी साधारण नागआखिर नियतिके बन्धनने प्रभातको ला रिकके यहां नहीं, एक धन कुबेरके विलास गृहमें ! ढकेला ! जैसे ही उषाकी सौन्दर्य-लालिमाने पृथ्वी महाराजने आज्ञा दीको क्रीड़ा-क्षेत्र बनाया, बन्धुश्री अपनी पुत्रीको 'जिनदत्ता और ऋषभदासको दर्बारमें हाजिर सुख-सन्देश और अपनी प्रतिज्ञा-पूर्तिकी बात किया जाए।' सुनाने चल पड़ी!
आज्ञा-पालनके लिए अबिलम्ब सैनिक-दल __शयनागारके दर्वाजेतक बुढ़ियाके हृदयमें हर्ष, चला !:देवालयकी ओर ! मुख पर प्रसन्नता और बाणीमें उमंग भरी हुई लेकिन ?थी ! लेकिन जैसे ही चौखटके भीतर कदम रखा आश्चर्य !!! कि सब अन्तर्ध्यान !
एक भी बलवान-सैनिक देवालयकी सीढ़ी तक ____ 'यह क्या हुघा रे ?-वेतहाशा चिल्ला कर पर पैर न रख सका ! सब, ज्योंके त्यों कीलित ।... रोने लगी!
देव-माया !!!
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वर्ष २, किरण १२]
अतीतके पृष्ठोंसे
पुण्यात्मा जिनदत्ताके धर्म-प्रेमका प्रभाव ! अपने धर्म-प्रभावसे साफ बच गई ! जो दुष्टा थी !
* * मारी गई वह !' । दोनोंने सुना ! कनकश्रीकी असामयिक मृत्यु- यह-नगर-देवताकी प्रेरणाका फल था । सत्यता का सम्बाद ! कुछ आश्चर्य, कुछ शोक ! और सिर छिपी न रह सकी। ....."महाराजने सुना तो पश्चापर महान संकटके घनघोर बादल !
तापसे झुलसने लगे, 'ऐसी पवित्रात्माओं पर यह 'कहा था न ? इस प्रकारके विवाह सम्बन्धका कलंक ? जो देव पूज्य हैं !' परिणाम शुभ नहीं होता!' -ऋषभदामने कहा! बन्धुश्री पर महाराजको कोपाग्नि धधक
'ठीक है-नाथ !'-जिनदत्ताने दबी जुबानसे उठी ! दिया गम उसे घोर-दण्ड !उत्तर दिया !
'गधे पर चढ़ाकर देश-निर्वासन !' 'अब जो हो अपना भाग्य !'
जनताने देखा-ऋषभदास और जिनदत्ता कापालिक चिल्लाता नगर परिक्रम कर रहा पर पुष्प वर्षा हो रही है ! और आकाश हो रहा था-'कनकश्री को मैंने मारा है, जिनदत्ता और है धन्य धन्य शब्दोंसे व्याप्त ! ऋषभदास निर्दोष हैं ! बन्धुश्रीने मुझे जिनदत्ताको अचित्य धर्म शक्ति !!! मरवा देनेके लिए कहा था, लेकिन जिनदत्ता
सुभाषित 'सन्त लोगोंका धर्म है अहिंसा; मगर योग्य पुरुषोंका धर्म इस बातमें है कि वे दूसरोंकी निन्दा करनेसे परहेज करें।'
'खुश इख्लाक़ी मेहरबानी और नेक तरबियत इन दो सिफ्तोंके मजमुएसे पैदा होती है।'
'समृद्ध अवस्था में तो नम्रता और विनयकी विस्फूर्ति करो; लेकिन हीन स्थितिके समय मानमर्यादाका पूरा स्खयाल रक्खो।'
'प्रतिष्ठित कुलमें उत्पन्न हुए मनुष्यके दोष पर चन्द्रमाके कलङ्ककी तरह विशेषरूपसे सबकी नजर पड़ती है।
'रास्तबाजी और हयादारी स्वभावतः उन्हीं लोगोंमें होती है, जो अच्छे कुलमें जन्म लेते हैं।' 'सदाचार, सत्य प्रियता और सलज्जता इन तीन चीजोंसे कुलीनपुरुष कभी पदस्खलित नहीं होते।'
'योग्य पुरुषोंकी मित्रता दिव्य प्रन्थोंके स्वाध्यायके समान है। जितनी ही उनके साथ तुम्हारी घनिष्ठता होती जायगी उतनीही अधिक खूबियाँ तुम्हें उनके अन्दर दिखाई पड़ने लगेंगी।'
-तिरुवल्लुवर
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योनिप्राभृत और प्रयोगमाला
[ लेखक - श्री पं० नाथूरामजी प्रेमी, बम्बई ]
+£C+103++
' नेकान्त' के श्राषाढ़ के
कमें उक्त शीर्षकका
जो लेख प्रकाशित हुआ है उसीके सम्बन्ध में कुछ निवेदन करने के लिए ये पंक्तियाँ लिख रहा हूँ ।
मेरी समझ में 'वृहट्टपणिका' नामकी सूची में जो विक्रम संवत् १५५६ में तैयार की गई थी जिस 'योनिप्राभृत' का उल्लेख है वह उस समय जरूर मौजूद रहा होगा । वह सूची एक श्वेताम्बर विद्वान्ने प्रत्येक ग्रन्थ देखकर तैयार की थी और अभी तक वह बहुत ही प्रमाणिक समझी जाती है । उसमें जो योनिप्राभूतको घरसेनाचार्य कृत बतलाया है और उसकी लोकसंख्या ८०० लिखी है, सो इन दोनों बातों में सन्देह करनेका कोई कारण नहीं मालूम होता । हाँ, उसमें जो इस ग्रंथके निर्मित होने का समय वीर निः संवत् ६०० दिया है, वह घरमेन कब हुए — इस विषय में जो परम्परा चलो श्रा रही थी उसीके अनुसार लिख दिया गया होगा । उसके बिल्कुल ठीक होनेकी तो एक ग्रंथ-सूचीकर्त्तासे आशा भी नहीं की जा सकती । श्रुतावतार के कर्त्ता-इन्द्रनन्दि तकने जब यह लिखा है कि गुणधर और धरसेनकी पूर्वपरम्परा और पश्चात्परम्परा हम लोगोंको मालूम नहीं है तब एक श्वेताम्बर विद्वान् उनके समयको ठीक ठीक कैसे लिग्य सकेगा ?
धवल ग्रंथ में जिस 'जोणी पाहुड' का उल्लेख किया गया है. हमारी समझमें वही घरसेनकृत योनिप्राभृत होगा जिसकी प्रति बृट्टिप्पणकार के सामने थी । श्र + गुणधर-धरसेनान्वगुर्योः पूर्वापरक्रमोऽस्माभिः ।
न ज्ञायते तदन्वय - कथकागममुनिजनाभावात् ॥
रहा पूने भांडारकर रिसर्च इन्स्टिट्यूटका योनिप्राभूत, सो उसके विषय में निश्चयपूर्वक तो कुछ भी नहीं कहा जा सकता परन्तु संभवतः वह पंडित हरिषेणका ही बनाया हुआ होगा ।
पं० बेचरदासजीने और उन्हींका अनुगमन करके पं० जुगलकिशोरजीने जो यह अनुमान किया है कि योनिप्राभृत संभवतः श्रभिमानमेरु ( महाकवि पुष्पदन्त ) का भी बनाया हुआ हो सो मुझे ठीक नहीं मालूम होता । क्योंकि एक तो 'अहिमाणेण विरइयं' ( अभिमानेन विरचितं ) पद में केवल 'अभिमान' शब्द श्राया है और पुष्पदन्तका उपनाम 'अभिमान' नहीं किन्तु 'श्रभिमानमेरु' है और दूसरे उक्त पद जिस गाथाका है उस का अर्थ समझने में ही भूल हो गई है । कुवियगुरुपाय मूले न हु लन्द्वं अम्हि पाहुडं गंथं । हिमाणेण विरइयं इय अहियारं सुसश्रो ॥
इस गाथाका सीधा और सरल अर्थ यह होता है कि कुपित या क्रोधित गुरु चरणोंके समीप जब मुझे ( पं० हरिषेणको ) प्राभृत ग्रंथ नहीं मिला तब मैंने अभिमानसे इस अधिकारकी रचना की ।
यही बात उनके निम्नलिखित वाक्यसे भी ध्वनित होती है-
इति परिहतहरिषेण मया योनिप्राभृताला भे स्वसमयपरसमयवैद्यकशास्त्रसारं गृहीत्वा जगरसुन्दरीयोगमालाधिकारः विरचितः ।
अर्थात् (गुरुके पाससे) योनिप्राभृतके न मिलने पर मैंने -- पं० हरिषेणने -- जैन जैन वैद्यक शास्त्रोंका
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वर्ष २, किरण १२]
योनिप्राभृत और प्रयोगमाला
सार लेकर यह योगमालाधिकार रचा।
समझते हैं, यह इस बातसे भी जान पड़ता है कि २०३ यह बिल्कुल स्वाभाविक है कि किसी कारणसे ना- पत्रके दूसरे पृष्ठ पर 'भणेमि जयसुंदरी नाम' के प्रतिज्ञाराज़ होकर गुरुदेवने प्राभृत ग्रंथ नहीं दिया हो और तब वाक्यके बाद ही कुछ भागे चलकर लिखा है योनिप्राभृते रूठकर अभिमानी हरिषेणने इसकी रचना कर डाली हो। बालानां चिकित्सा समाप्ता।' यह मैं पं.बेचरदासजीके
पंडित बेचरदासजीके बाद मैंने भी योनिप्राभृत लिये हुए नोटोंके प्राधार पर ही लिख रहा हूँ। संभव ग्रन्थकी प्रति बहुत करके सन् १९२२ में पूने जाकर है, नोटोंमें पत्रसंख्या लिखते हुए कुछ भूल हो गई हो। देखीथी और उसके कुछ नोट्स लेकर एक 'ग्रंथ-परिचय' योनिप्राभृतके एक बिना अंकके पत्रकी नकल उसी लेख लिखने का विचार किया था। पं० बेचरदासजीके समयकी की हुई मेरी नोटबकमें भी सुरक्षित है। उसे मैं वे नोट्स भी इसी लिए मँगा लिये थे जिनके श्राधारसे यहाँ ज्योंकी त्यों दिये देता हूँ-- . अनेकान्तका उक्त लेख लिखा गया है।
_ "सं । सौंपधि रिबिसंयुक्तं ॥ ? यद्यपि इस बातको लगभग १७ वर्ष हो चुके हैं, तारकोसं मानमहोदधिः परशिकारवरसाकरी फिर भी योनिप्राभृतकी उक्त प्रतिकी लिपि और श्राकार- यंत्रमातृका विश्वकर्मा "रिवं भम्बजनोपकारकं मिथ्याप्रकारका जहाँ तक मुझे स्मरण है वह एक ही लेखककी एटिनिरसनपटीवसं करपंचेता कस्तूरिकानेपानं लिखी हुई एक ही पुस्तक मालूम होती थी। दो जुदा- घनानिलराजमंदमसकसकेतु "सागरोमिवरवामकं । जुदा ग्रंथों के पत्र एकत्र हो गये हों ऐसा नहीं जान पड़ता ज्वर-भूत शाकिनी ध्वान्त मार्तवं समस्तशालोत्पत्ति था । प्रतिकी हालत इतनी शोचनीय थी कि उसमें हाथ योनि विद्वजनचित्तचमत्कारं पंचमकामासर्वशं सर्वलगाते हुए डर लगता था कि कहींसे कोई अंश झड़ विद्याधातुवादनिधानं जनम्यवहारचंदचंद्रिकाकोर न जाय । बहुत पुरानी होनेसे ही प्रति जीर्ण हो गई हो मायुर्वेदरपितसमस्तसत्त्वं प्रश्नश्रवणमहामुनिमासो बात नहीं है । ऐसा मालूम होता है कि कभी किसी- उिनीमहादेम्या उपदिष्टं पुष्पवंताविभूतविसिष्य की असावधानीसे वह भीग गई है और फिर उसी हालत दृष्टिदायकं इत्थंभूतं योनिमाभृत ग्रंथं ॥६॥ में पड़ी रहनेसे गल गई है । मेरा खयाल है कि या तो कलिकाले सम्बण्डू जो जाणइ जोशिपाहु गंध । यह सम्पूर्ण ग्रंथ पं० हरिषेणका ही सम्पादित किया जच्छ गमो तच्छ गमो पटवां महच्छि"।" हुआ है और 'जगत्सुन्दरी प्रयोगमाला' उसीका एक सुरवसनपसंसं सुवरणसहियं च रोखुहर" । भाग है, जिसे उन्होंने अनेक वैद्यक ग्रन्थोंके आधारसे मन्वउवयार “माच्छी कोसं पाहुर ॥२ लिखा है और या योनिप्राभृतका कुछ अंश उन्हें मिला दरविरसियम्म माइविष सियाम्बहुवाई। हो और उसके बाद गुरुकी अप्रसन्नतासे शेष अंश न नाति जस्सडवरे का उवमा पुंडरीकस्स ॥१ मिला हो और तब उन्होंने अभिमानवश उसे स्वयं पूरा हो उहामवियंभं तमं मिवंतासि मुरक्षियकोला । कर डाला हो।
विभकायम्मि करिणो नरबेमह "रिया ॥४ अपने जगत्सुन्दरी योगाधिकारको वे भी शायद
............"बहीएका उखमा । योनिप्राभूतमे जुदा नहीं मानते हैं-उभीका एक अंश महमपमाशगवनेसन सीमी व मादेव
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अनेकान्त
[अाश्विन, वीर निर्वाण सं०२४६५
हीणसत्तम्मि मह मे महि खीए सबक...... महामुनि-कुष्मांडिनमहादेव्या उपदिष्टं' और 'पुष्पदन्ता.........."कुपिजह प्रयावदोसम्मि भत्ता दिभूतबलिशिष्यदृष्टिदायक' ये विशेषण स्वयं प्रश्नएकच पयच्छं अवहे जो मुनह इक महियारं ।। श्रवण मुनिके दिये हुए तो नहीं हो सकते । सो गहबरिदि......... सम्व पहिवारी . - इसके सिवाय शुरूके १७ पृष्ठोंमेंसे जो हर्षचिकित्सा, काल"मना मनीहन नृणामहम्मते स्यादति- विचर्चिका चिकित्मा, धर्मप्रयोग, अमृतगुटिका, शिव यथेषः प्रियधर्मकः पृथुषशाः श्रीपूज्यपादो गुरुः । । गुटिका, विषररण आदि विषय हैं और जिन्हें योनिप्रा................"म प्रोद्भुतचिंतामणि
भृतके अंश माना है, वे जगसुन्दरी योगमाला के प्रमेहायोनिप्राभृतसंज्ञांसममसं देवासुराभ्यर्चितं ॥ ८ धिकार, मूत्रचिकित्सा आदि विषयोंसे कुछ अनोखे नहीं सावम्मिथ्यादा तेजो मंत्र
हैं, दोनों ही ऐसे हैं जो हारीत, गर्ग,सुश्रुत श्रादि ग्रंथों में................."न खंति धीमतः ॥ से संग्रह किये जा सकते हैं । तब अधिक संभव यही है
इति श्रीमहाग्रंथयोनिप्राभृतं श्रीपश्रवणमुनि- कि सम्पूर्ण ग्रन्थ हरिषेणका ही सम्पादित किया हुआ विरचितं समासं छ॥
होगा। संवत् ११८२ वर्षे शाके १४४७ प्रवर्तमाने दकि- 'प्रश्नश्रवण' यह नाम भी कुछ अद्भुत है । इस सानगते श्रीसूर्ये श्रावणमासकृष्णपणे तृतीयायां तरहका कोई नाम अभी तक देखनेमे नहीं पाया । तिथौ गो"शातीय पं०नला....."लिखितं । छ । शुभम् प्राकृतमें सब जगह 'पणह-समणमुणि' लिखा है, यहाँ भवतु ।"
... तक कि 'इति महाग्रंथं योनिप्राभृतं श्रीपरहसवणमुनि __पंडित बेचरदास जीके नोटोको अपेक्षा इसमें कुछ विरचितं समाप्तं' इस संस्कृत पुष्पिकामें भी पहसवण अधिक है, यद्यपि ग्रंथके महात्म्यके अतिरिक्त विशेष ही लिखा है जो पबहसमण है और जिसका संस्कृतरूप उल्लेखनीय कुछ नहीं मालम होता और बीच बीचके प्रज्ञाश्रमण होता है। प्रज्ञाश्रमणत्व एक ऋद्धि है जिसके अक्षर गल जानेसे ठीक ठीक अर्थ भी नहीं लगाया धारण करनेवाले मुनि प्रज्ञाश्रमण कहलाते थे । 'तिलोयजा सकता है।
पएणति' की गाथा नं०७०में लिखा है___ इस अंशके लिए पंडितजीके नोटोंमें लिखा हुआ परहसमोसु चरिमो वइरजसो बाम.....। है कि 'योनिप्राभूतनुं छेल्लु अने अंक बिनानुं एक कोर अर्थात् प्रज्ञाश्रमणोंमें अन्तिम मुनि वज्रयश हुए । कोळं पार्नु' अर्थात् योनिप्राभृतका अन्तिम और बिना उनके बाद कोई प्रशाश्रमण ऋद्धिका धारी नहीं हुआ। अंकका एक तरफ कोरा पत्र । इस पत्र में ग्रन्थकी समाप्ति अत्यन्त सूक्ष्म अर्थको सन्देहरहित निरूपण करनेवाली
और ग्रंथ लिखे जानेका समय दिया है और इसके आगे. जो शक्ति है उसे प्रशाशक्ति कहते हैं। क पत्र बिल्कुल कोरा है। मेरी समझमें सम्पर्ण ग्रन्थका इससे तो ऐसा मालूम होता है कि प्रज्ञाश्रमण नाम यही अन्तिम पृष्ठ होना चाहिए ।
नहीं किन्तु किसी मुनिका विशेषण है। उक्त पत्रमें जो विशेषण दिये गये हैं वे भी अनेकान्तके पृ० ४८७ की टिप्पणीमें इस बात पर श्रीहरिषेणके लिखे हुए ही जान पड़ते हैं । 'प्रश्नश्रवण शंका की है कि पं० बेचरदास जीने भूतबलि पुष्पदन्तको
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वर्ष २, किरण १२]
कथा कहानी
जो 'लघु' विशेषण दिया है वह मूलमें नहीं है। परन्तु हमारा अनुमान है कि पं० हरिषेण किसी भट्टारकपडित जीने यह विशेषण अपनी तरफसे नहीं दिया है, के शिष्य हैं और बहुत पुराने नहीं हैं। अपने गुरुसे बल्कि उनके नोटोंमें मूलग्रन्थकी नीचे लिखी हुई पंक्ति रूटकर उन्होंने यह ग्रन्थ बनाया है। दी हुई है, जिसे शायद पं० जुगलकिशोरजी उक्त नोटों. यह एक और आश्चर्यजनक बात है कि हरिषेण कृत की कापी करते समय छोड़ गये हैं । पत्र १९की दूसरी जगत्सुन्दरी योगमालाके ही समान इसी नामका एक तरफ़ 'सिरिपरहसमणमुनिना संखेवेणंच बालसंतं । और ग्रंथ मुनिजसइत्ति ( यशःकर्ति ) कृत भी है और ६१६' के बाद ही यह पंक्ति दी हुई है
उसकी भी एक अधरी प्रति ( ३५ से ७३ अध्याय तक) .. "भव्व उबयारहेड भशिवं बहुपुण्फयंतस्य" और भाण्डारकर श्रोरियण्टल इन्स्टिट्यूट (नं० १२४२ प्रॉफ इस पंक्तिपर नं० ११ दिया हुआ है । अर्थात् बालतंत्र मन् १८८६-६२) में है। योनिप्राभूतकी प्रति देखने अधिकारके समाप्त होनेके बाद जो दूसरा अधिकार समय मैंने उसे भी देखा था और कुछ नोट ले लिये शुरू हुश्रा है उसकी यह ग्यारहवीं गाथा है और शायद थे । हरिषेणकी योगमालापर विचार करते समय अधिकार समाप्तिकी गाथा है।
उसको भी अोमल नहीं किया जा सकता। यह 'लघु' विशेषण भी बड़ा विलक्षण है। पं० अभी अभी पता लगा कि वह ग्रन्थ ( ३५ से ४३ हरिषेणको यह मालम था कि भतबलि-पुष्पदन्त धरसेना- अध्याय तक) छप गया है और श्राज में उसकी एक चार्य के शिष्य थे, तब प्रश्नश्रवण (?) के शिष्य भी प्रति लेकर अनेकान्त-सम्पादक के पास भेज रहा हूँ। भतबलि पुष्पदन्त कैसे हो सकेंगे, शायद इसी असमंज- पाठकोंको शीघ्र ही उनके द्वारा उक्त ग्रंथका परिचय समें पड़कर उन्होंने यह 'लघु' विशेषण देकर अपना मिलेगा, ऐमी श्राशा करनी चाहिए । समाधान कर लिया होगा।
बम्बई,रक्षाबन्धन २६-८-३६ WAWANIA N ama barabara haNGAN DAN DISSEN
ले०–बाबू माईदयाल जैन बी.ए., बी.टी.
ER REACARRIERITAITRIERIEPIECERTRAINRITERATOREARRIERTAITREAM FRI
पूछा और कहा कि क्या तुम इसलिए रो रही हो कि १ रोनेका कारण
तुम्हारा पति और दो लड़के युद्ध में मारे गये हैं। उस ११०१ ईस्वी में रूस और जापानमें घोर युद्ध बिदा विधवाने जवाब दिया, "नहीं, मैं इसलिए नहीं रो रही हुना था। एक दिन एक जापानी विधवा अपने घरमें कि मेरा पति और दो पुत्र बदाई में मारे गये। मैं तो बैठी थी । उसका पति तथा दो जवान लड़के युबमें इसलिए रो रही हूँ किपब मेरे पास और कोई पुत्र काम पाचुके थे। वह कुछ रो रही थी और बड़ी उदास नहीं है जिसे मैं देशके लिए बदनेको भेजदूं।" थी। पदोसमेंसे किसीने पाकर उसके रोनेका कारण
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अनेकान्त
[आश्विन, वीर-निर्वाण स०२४६५
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२ देशके लिए ..
यह हुकम दिया गया था कि वे एक रूसी नियोके दरस्सी सेनाको धोका देने के लिए जापानी समुद्री बाजेको वास्दसे उड़ावें। लगभग सभी जापानी सेनाके कमान्डरने यह सोचा कि एक जापानी जहाज़
सिपाही यह प्रयत्न करते हुए गोलियोंसे उड़ा दिए गये । स्सी सेनाकी प्रांखों के सामने समुद्र में डुबाया जाय,
केवल चन्द सिपाही बाकी बच्चे और उस दरवाजे तक जिससे वे जहाजक रख जानेपर मागे बदमावें। कमान्डर पहुँच सके। उनके पास बारूदके प्रतीते थे, जिन्हें ने अपनी फ्रॉनके नाम गुप्त अपील निकाली कि जो किवादोंसे चिपकाकर उदाना था । उन सिपाहियोंने सिपाहीएक जान जोखमके कामके वास्ते अपने भापको
प्रलीतोंको किवादों पर रखकर अपनी छातियोंसे उन्हें पेश करना चाहते हों वे शीघ्र अपनी स्वीकृतिका पत्र
दबाया और भाग लगादी। एक जोरका धमाका हुआ कौजी कातरमें भेजवें । कमान्डरके माश्चर्यकी कोई
और दरवाजा तथा के सिपाही साफ उड़ गये। उनके सीमा न रही जब उसने अगले दि
इस बलिदान और पास्मत्यागके कारण अन्य जापानी स्वीकृतिपत्र कातरमें देखे। हरएक सिपाहीने अपने
सिपाही किले में दाखिल हुए और विजय प्राप्त की। पत्रमें यह प्रार्थना की थी कि उस विकट कामके लिए उसे जरूर चुना जाय । कमान्डरके लिए चुनाव करना
४ यह न कहना कि जापान में....
स्व. महर्षि शिवव्रतलाल एक बार जापानमें रेल कठिन होगया । अगले दिन उसने फिर लिखा कि उन्हीं सिपाहियोंको चना जायगा जो अपनी अर्जियाँ अपने
द्वारा सफर कर रहे थे। पाप मांस नहीं खाते थे।
यात्रामें निरामिष भोजन मिलना कठिन हो गया। एक खूनसे लिखकर भेजेंगे । अबकी बार जापानी सिपाहि
स्टेशन पर महर्षि खानेकी तलाश में चितित-से बैठे थे। योंके खूनसे लिखे पहिलेसे भी अधिक स्वीकृति-पत्र वातरमें पाए । कमान्डर भाश्चर्य और ख़ुशीसे कुर्सीसे
इतने में एक जापानी नवयुवक उनके सामने पाया और उड़ना पड़ा और कहने लगा "कोई कारण नज़र नहीं
उनकी चिंताका कारण पूछा । शिवव्रतलालजीने समका . माता कि इस पुरमें जापानकी हार हो। हमारी
कि यह कोई दुकानदार लड़का है और उससे अपना विजय निश्चित है।" कमान्डरने अपनी स्कीमके अनु
समस्त हाल कहकर निरामिष भोजन खानेको कहा। सार एक पुराने जहाज़में कुछ सिपाहियोंको बिठाकर
बोदी ही देरमें वह युवक काफी खाना लेकर उनके सारूसी क्रौजोंके सामने जहाजको समुद्र में डुबवा दिया।
मने भागया । खाना ले चुकने के बाद शिवमतलालजीने
उससे खानेके दाम पूछे । उस जापानी नवयुवकने बड़ो रूसी धोके में पागए और जापानकी विजय होगई।
विनयसे प्रार्थना करते हुए कहा-"इस सानेकी कीमत
कह नहीं है। जब भाप भारतवर्ष बौटें उस समय ३ देशभक्त वीर सिपाही
छपाकर पहन कहना कि जापान में मुझे खाना मिलने रूस-जापान-युद्ध में कुछ जापानी सिपाहियोंको में कट "...
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तत्वचची
मनुष्यों में उच्चता-नीचता क्यों ?
(२) लेखक-पं० वंशीधरजी व्याकरणाचार्य]
पहले लेख में हमने यह बतलानेका प्रयत्न किया है वैश्य, क्षत्रिय, ब्राह्मण और साधु उच्चगोत्री 11 परन्तु
"कि मनुष्योंमें जो उच्चता-नीचताका भेद है वह जबतक उच्चगोत्र और नीन गोत्रका व्यावहारिक परिशान अागम विरुद्ध नहीं है । कर्मकांड, लब्धिसार और जय- न हो जावे तब तक क्यों तो सम्मुर्छनादि मनुष्य नीचधवलाके जिन प्रमाणोंके बल पर श्रीमान् बाब सूरज- गोत्री हैं और क्यों भोगभमिज श्रादि मनुष्य उच्चगोत्री भानुजी वकील मनुष्योंको वे.वल उच्चगोत्री सिद्ध करना हैं ? इस प्रश्नका समाधान कठिन ही नहीं असंभव-सा चाहते हैं उन्हीं प्रमाणोंके आधार पर मनुष्य उच्च और जान पड़ता है, और सबसे अधिक जटिल समस्या तो नीच दोनों गोत्रवाले सिद्ध होते हैं। लेकिन यह बात आर्यखंड में बमनेवाले मनुष्योंकी है जिनमें मनुष्य जातिअवश्य है कि मूलप्रश्न अभी भी जैसाका तैसा जटिल की अपेक्षा समानता + होनेपर भी किसीको नीच और बना हुश्रा है अर्थात् शास्त्रीय प्रमाणोंके आधार पर किसीको उच्च बतलाया जाता है, इसलिये इन बातोंका मनुष्योंमें उच्च और नीच दोनों गोत्रोंका उदय सिद्ध हो निर्णय करनेके लिये गोत्रकर्म, उसका कार्य (व्यावहाजाने पर भी उच्चता और नीचताका स्पष्ट परिज्ञान हुए रिकरूप) उसमें उच्चता नीचताका भेद श्रादि और भी बिना यह कैसे जाना जा सकता है कि अमुक मनुष्य प्रासंगिक एवं आवश्यक बातों पर विचार किया जाता उच्चगोत्री है और अमुक नीच गोत्री? ___ यद्यपि पहले लेखमें शास्त्रीय प्रमाणोंके आधार पर विद्याधर श्रेणियों में बसनेवाले मनुष्यों में मार्चहमने यह भी बतलानेका प्रयत्न किया है कि सम्मूर्छन, खंडके समान अपने अपने पाचरणके अनुसार ही गोत्र अन्तर्वीपज व म्लेच्छखंडोंमें रहनेवाले सभी मनुष्य का व्यवहार समझना चाहिये। नीचगोत्री हैं, आर्यखंडमें रहनेवाले शूद्र व म्लेच्छ भी मनुष्यजातिरेकैव जातिकमोदवोद्भवा । वृत्तिनीचगोत्री हैं तथा भोगभूमिज व आर्यखंडमें रहनेवाले भेदा हि त देवाचातुर्विध्यमिहारनुते ॥ (मादिपुराण)
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गोत्रकर्म और उसका कार्य गोत्रकर्मका कार्य बतलाया है और जिस कुल में जीव पैदा विद्वानोंका आज जो गोत्रकर्मके विषयमें विवाद है होता है उस कुलको इस कार्यमें गोत्रकर्मका सहायक वह उसके अस्तित्वका विवाद नहीं है, इसका कारण निमित्त बतलाया गया है । इसी सहायक निमित्तताकी यही मालूम पड़ता है कि यदि सर्वज्ञ-कथित होनेसे वजहसे ही "अन्नं वै प्राणाः" की तरह कारणमें कार्यज्ञानावरणादि कर्मोंका अस्तित्व स्वीकार किया जा सकता का उपचार करके राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक, सर्वार्थहै तो सर्वज्ञ-कथित होनसे गोत्रकर्मके अस्तित्वमें भी
अर्थ-जो जीव जिस कुलमें पैदा होता है उस विवाद उठानेकी गुंजाइश नहीं है । धवल * सिद्धान्तमें
कुल में होनेवाले लौकिक आचरण (वृत्ति) के अनुसार गोत्रकर्मके अस्तित्वको स्वीकार करनेमें यही बात प्रमाण
वह जिस प्रकारके लौकिक आचरण (वृत्ति) को रूपसे उपस्थित की गई है, जिसका समर्थन श्रीयुत
अपनाता है वह गोत्रकर्मका कार्य है। मुख्तार सा. ने "उच्चगोत्रका व्यवहार कहाँ ?' शीर्षक
इसमें जीवके आचरणविशेष अर्थात् लौकिक लेखमें किया है।
आचरण ( वृत्ति) को गोत्रकर्मका कार्य और कुलगत जीवके साथ संबन्ध होनेसे कार्मण वर्गणाकी जो
आचरणको उसका सहायक निमित स्पष्ट रूपसे बतपर्यायविशेषरूप परिणति में होती है उसीका नाम कर्म
लाया है। इसी प्राशयको निम्न गाथांश भी प्रगट करते है । गोत्रकर्म इसी कर्मका एक भेद है और इसका कार्य जीवकी श्राचरण विशेषरूप प्रवृत्ति कराना है-तात्पर्य "भवमस्सिय णीचुच्चं" (कर्म• गा० १८) यह कि कार्माण वर्गणारूप पुद्गलस्कंध आगममें प्रति- "उच्चस्सरचं देणीचं णीचस्स होदिणोकम्मं (गा०४) पादित विशेष निमित्तोंकी महकारितासे जीवके साथ
इन दोनों गाथांशोंमें वर्णित नीच आचरण और संबन्ध करके गोत्रकर्मरूप परिणत हो जाते हैं और गोत्र
उच्च पाचरण क्रमसे नीचगोत्रकर्म और उच्चगोत्रकर्मके कर्मरूप परिणत हुए वे ही पुद्गलस्कन्ध बाह्य निमित्तों- कार्य हैं तथा नीचगोत्रकर्म और उच्चगोत्रकर्म गोत्रकर्मकी अनुकूलतापूर्वक जीवकी आचरणविशेषरूप प्रवृत्ति के ही भेद हैं इसलिये इनका भी यही प्राशय निकलता कराने लगते हैं । कर्मकांडामें जीवकी इस प्रवृत्तिको ही है कि जीक्का भाचरणविशेष ही गोत्रकर्मका कार्य है
और नरकादि कुल ब उन कुलोंमें पैदा हुमा जीवका *" न (गोत्रकर्माभावः), जिनवचनस्यासत्यत्वविरोधात्"
शरीर इसमें सहायक निमित्त हैं। (मुख्तार सा० के "उच्चगोत्रका व्यवहार कहाँ ?" इस टिप्पणी व मूल लेखमें जो 'कुल' शब्द आया शीर्षक लेखसे उद्धृत)
है उससे नोकर्मवर्गणाके भेदरूप कुलोंको नहीं ग्रहण कार्माणवर्गणामें जीवके लिये फल देने रूप करना चाहिये किन्तु सामान्यतया नरक, तियंच, शक्तियोंका पैदा होजाना कार्माणवर्गणाकी पर्याय वि. मनुष्य, देव इन चारों गतियोंको व विशेषतया इन शेषरूप परिणति' कहलाती है।
गतियों में जीवके माचरणमें निमित्तभूत यथासंभव जो + "संताणकमेणागयजीवायरणस्स गोदमिविसरणा" जातियाँ कायम हैं उनको 'कुल' शब्दसे ग्रहण करना (कर्म• गा०१३)
चाहिये। यह पागे स्पष्ट किया जायगा।
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वर्ष २, किरण १२]
मनुष्योंमें उच्चता-नीचता क्यों ?
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सिद्धि व धवलसिद्धान्तमें नरकगति, तिर्यग्गति, मनुष्य
गोत्रकर्मके भेद गति और देवगति व इनके अवान्तर भेदरूप कुलोंमें
शास्त्रोंमें गोत्रकर्मके दो भेद बतलाये हैं-उच्चगोत्रप्राप्त साधनों के अनुसार जीवकी आचरणविशेषरूप कर्म और नीचगोत्रकर्म । उच्चगोत्रकर्मके उदयसे जीव प्रवृत्ति ही मानी गयी है।
उच्चवृत्तिको अपनाता है और नीचगोत्रकर्मके उदयसे जीवके इस आचरणविशेषका मतलब उसके लौ- जीव नीच वतिको धारण करता है। इसलिये लोककिक श्राचरण अर्थात् वृत्तिसे है। तात्पर्य यह है कि
व्यवहार में जिस जीवकी उच्चवत्ति हो उसे उपचगांत्री संमारी जीव नरकादि गतियों (कुलों) में जीवन से अर्थात् उसके उच्च गोत्रकर्मका उदय और लोकव्यवहारमें ताल्लुक रखनेवाले खाने पीने, रहन-सहन यादि श्राव- जिस जीवको नीचत्ति हो उसे नीचगोत्री अर्थात् उसके प्रयक व्यवहारों में जो लोकमान्य या लोकनिंद्यरूप प्रवृत्ति नीचगौत्रकर्मका उदय समझना चाहिये। करता है व उनकी पर्तिके लिये यथा संभव जो लोक
- यहाँ पर वृत्तिकी उच्चताका अर्थ धार्मिकता और मान्य या लोकनिंद्यसाधनोंको अपनाता है यह मब जीव- नीचताका अर्थ अधार्मिकता नहीं है अर्थात् जीवकी का लौकिक याचरण कहलाता है। यह लौकिक या
उच्चगोत्रकर्म के उदयसे धर्मानुकुलवृत्ति और नीचगोत्रचरण ही लोकव्यवहार में 'वृत्ति' शब्दसे कहा जाता है
और यही गोत्रकर्मका कार्य है । इसीको गोत्रकर्मका "उच्च णीचं चरणं उच्चं णीचं हवे गोदं।" व्यावहारिक रूप कह सकते हैं, कारण कि इसके द्वारा (कर्म० गाथा० १३) ही जीवके उच्चगोत्री व नीनगोत्री होनेका निर्णय जीवका उचगोत्रकर्मके उदयसे उस पाचरण और होता है।
नीचगोत्र कर्मके उदयसे नीच आचरण होता है, इस
प्रकार उरचगोत्रकर्म और नीचगोत्रकर्मके भेदसे गोत्र. जीवनका अर्थ है जीवका शरीरसे संयोग । यह कर्म दो प्रकार है। संयोग जबतक कायम रहता है तब तक उसको खाने- यद्यपि “यस्योदयालोक्पूजितेषु कुलेषु जन्म तदु. पीने रहन सहन श्रादि लौकिक पाचरणोंको करना चैर्गोयम्, गर्हितेषु यत्कृतं तबीचैर्गोत्रम्" राजवातिकके पड़ता है व यथासंभव उनके निमित्तोंको भी जुटानेका इस उल्लेखमें तथा “दीवायोग्यसाध्वाचाराणा, साध्याप्रयत्न जीव करता है, यह सब जीवके गोत्रकर्मके उदयसे चारैः कृतसंबन्धानां, आर्यप्रत्यमाभिधानव्यवहारनिहोता है।
बन्धनानां पुरुषाणां संतानः उच्चैर्गोत्रम्, तत्रोत्पत्तिहेतु* गोम्मटसार- कर्मकाण्डकी गाथा नं० १३ में कमप्युच्चैर्गोत्रम् । ......."तद्विपरीतं नीचेर्गोत्रम् ।" प्रयुक्त हुए 'श्राचरण' और 'चरम' शब्दोंकी इस प्रकार धवलसिद्धान्तके इस उल्लेखमें भी उच्चकुल्ल व नीचकुलकी पत्तिरूप ब्याख्या क्या किसी सिद्धान्त ग्रन्थके मा- में जीवकी उत्पति होना मात्र कमसे उपचगोत्रकर्म और धार पर की गई है अथवा अपनी ओरसे ही. कल्पित नीचगोत्रकर्मका कार्य बतलाया है। परन्तु यह कथन की गई है ? इसका स्पष्टीकरण होना चाहिये। कारणमें कार्यका उपचार मानकर किया गया है। यह
-सम्पादक हम पहिले कह चुके हैं ।
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कर्मके उदयसे अधर्मानुकूलवृत्ति होती है ऐसा नहीं है, दृष्टि पंचमगुणस्थानवर्ती मनुष्य धार्मिक होता हुआ भी किन्तु जिस वृत्तिके कारण जीव लोकव्यवहारमें उच्च लोकनिंद्य (नीच) वृत्तिके कारण नीचगोत्री माना समझा जाय उस वृत्तिको उच्चवृत्ति और जिस वृत्तिके जाता है। लोकव्यवहारमें भी-जैसा कि आगे स्पष्ट कारण जीव लोकव्यवहारमें नीच समझा जाय उस किया जायगा-पशु अपनी अधम वृत्तिके कारण वृत्तिको नीचवृत्ति समझना चाहिये *।
नीचगोत्री व मनुष्योंमें शूद्र व म्लेच्छ भी अपनी अधम तात्पर्य यह है कि धार्मिकताका अर्थ हिंसादि पंच (नीच) वृत्तिके कारण नीचगोत्री तथा वैश्य, क्षत्रिय, पापोंसे निर्वृत्ति और अधार्मिकताका अर्थ हिंसादि पंच ब्राह्मण और साधु अपनी अपनी यथायोग्य उच्चवृत्तिके पापोंमें प्रवृत्ति होता है, जिसका भाव यह है कि धार्मि- कारण उच्चगोत्री समझे जाते हैं । कतासे प्राणियोंका जीवन उन्नत एवं श्रादर्श बनता है यदि कहा जाय कि पाश्चात्य देशोंमें तो हिन्दुस्तानऔर अधार्मिकतासे उनका जीवन पतित हो जाता है। की तरह उच्च और नीच सभी तरहकी वृत्तिवाले मनुष्य अब यदि धर्मानुकुलवृत्तिको उच्चवृत्ति और अधर्मानुकुल होनेपर भी वर्णव्यवस्थाका अभाव होनेसे उच्चता-नीचतावत्तिको नीचवृत्ति मानकर धार्मिक और अधार्मिक वृत्ति- जो लोग ब्राह्मण त्रिय-वैश्य-कुल्लोंमें जन्म में क्रमसे उच्चगोत्रकर्म और नीचगोत्र कर्मको कारण लेकर अपने योग्य उच्चवृत्ति धारण नहीं करते हैं-नीच माना जायगा तो प्रत्येक उच्चगोत्रीका जीवन उन्नत एवं
वृत्तिको अपनाते हैं, अपने पदपे बहुत ही हल्के टहल श्रादर्श तथा प्रत्येक नीचगोत्रीका जीवन पतित (पाप
___ चाकरी तथा भीख मांगने तकके काम करते हैं अथवा मय ) ही मानना पड़ेगा; परन्तु ऐसा मानना आगम
कन्या-विक्रय-जैसे अधम कृत्यों को करते-कराते हैं और प्रमाण व लोकव्यवहारके विरुद्ध है । कारण कि
उनके द्वारा अपना लौकिक स्वार्थ सिद्ध करने तथा पेट आगमग्रंथोंसे सिद्ध है कि एक अभव्य मिथ्यादृष्टि जीव
पालनेके लिये सुकुमार कन्याओंको बढ़े बाबाओंके साथ अधार्मिक होता हुआ भी लोकमान्य (उच्च) वृत्तिके
विवाहकर उनका जीवन नष्ट करते हैं, वे लोकव्यवहारमें कारण उच्चगोत्री माना जाता है व एक क्षायिक सम्प
__ तो अपने उक्त कुलोंमें जन्म लेनेके कारण उच्चगोत्री छ यदि लौकिकजनोंकी समझके उपर ही वृत्तिकी समझे जाते हैं, तब ऐसे लोगोंके विषयमें गोत्रकर्मकी उचता और नीचता निर्भर है तो किसी वृत्तिके संबन्धमें क्या व्यवस्था रहेगी ? क्या लौकिक समझके अनुसार लौकिकलनोंकी समझ विभिन्न होनेके कारण वह वत्ति उन्हें उच्चगोत्री ही मानना चाहिये अथवा वत्तिके अनुऊँच या नीच न रहेगी । यदि उच्च माननेवालोंकी अपेक्षा रूप नीचगोत्री ? लौकिक समझके अनुसार उचगोत्री उसे नीच और नीच माननेवालोंकी अपेक्षा नीच कहा माननेमें वृत्तिके इस सब कथन अथवा गोत्रकर्मके साथ जायगा और तदनुरूप ही गोत्रकर्मके उदयकी व्यवस्था- उसके सम्बन्धनिर्देशका कोई महत्व नहीं रहेगा । और की जायगी तो गोत्रकर्मके उच्च-नीच भेदकी कोई वास्त- वृत्तिके अनुरूप नीचगोत्र माननेमें उस लोकसमझ विकता न रहेगी-जिसे नीचगोत्री कहा जायगा उसे अथवा लोकमान्यताका कोई गौरव नहीं रहता जिसे ही उचगोत्री भी कहना होगा।
इस लेखमें बहुत कुछ महत्व दिया गया है। --सम्पादक
-सम्पादक
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वर्ष २, किरण १२]
मनुष्योंमें उच्चता नीचता क्यों ?
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का भेद नहीं पाया जाता है, लेकिन ऐसी बात नहीं है। संस्कृति इतनी व्यापक और प्रभावशाली है कि उसका कारण कि यद्यपि पाश्चात्य देशोंमें वैदिक व जैनधर्म- प्रभाव हिन्दुस्तानके ऊपर भी पड़ रहा है, इसलिये जैमी वर्णव्यवस्थाका अभाव है फिर भी वत्तिके माधार माजके समयमें उनको 'म्नेछ' मानना निरी मूर्खता पर उनमें भी ऐसी वर्णव्यवस्थाकी कल्पना की जा- ही कही जायगी। और फिर ये पाश्चात्य देश भी तो भकती है । अथवा वर्णव्यवस्थाका अभाव होने पर भी आर्यखंड में ही शामिल हैं, इसलिये वहाँ के बाशिंदा उनमें वृत्तिकी लोकमान्यता और निंद्यताके भेदसे उच्चता लोग जन्मसे तो म्लेच्छ माने नहीं जा सकते हैं कर्मसे और नीचताका कोई प्रतिषे धनहीं कर सकता है। म्लेच्छ अवश्य कहे जा सकते हैं। लेकिन जिस समय उनमें भी भंगीकी वृत्तिको नीचवृत्ति ही समझा जाता है इनकी वृत्ति अर्थात् लौकिक आचरण क्रूरता लिये हुए व पादरी आदि की वृत्तिको उच्चवृत्ति समझा जाता है, था उस समय इनको म्लेच्छ कहा जाता था परन्तु श्राज इमसे यह बात निश्चित है कि पाश्चात्य देशोंमें वृत्तिभेद तो वे किसी न किमी धर्मको भी मानते हैं, ब्राह्मण, के कारण उच्चत्ता-नीचताका भेद तो है परन्तु यह बात क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जैमी वृत्तिको भी धारण किये दूसरी है कि इनमें उच्च समझे जानेवाले लोग भंगी हए हैं । ऐसी हालतमें उन सभीको 'म्लेच्छ' नहीं माना जैसी अधम वृत्ति करनेवाले मनुष्योको मनुष्यताके नाते जा सकता है। वे भी हिन्दुस्तान-जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, मनुष्योचित व्यवहारोंसे वंचित नहीं रखते हैं। यह वैश्य और शद्रवृत्ति वाले व उच्च-नीचगोत्रवाले माने हिन्दुस्तान के वैदिकधर्म व जैनधर्मकी ही विचित्रता है जा मकते हैं। कि जिनके अनुयायी अपनेको उच्च समझते हुए कुल- इम कथनमे यह तात्पर्य निकलता है कि धर्म और मदसे मत्त होकर अधमवृत्तिवाले लोगोंको पशुश्रोंसे भी अधर्मका ताल्लुक क्रममे श्रात्मोन्नति और प्रात्म-पतनसे गया बीता समझते हैं और मनुष्योचित व्यवहारोंकी तो है, लेकिन वृत्तिका ताल्लुक शरीर और आत्माके संयोगबात ही क्या ? पशु-जैसा भी व्यवहार उनके साथ नहीं म्प जीवन के श्रावश्यक व्यवहारोसे है। यही करण है करना चाहते हैं !!
कि प्राणियोंके जीवन में जो धार्मिकता पाती है उमका यदि कहा जाय कि उल्लिखित उच्च और नीच वृत्ति कारण श्रात्मपुरुषार्थ-मागृति बतलाया है। यह आत्मपाश्चात्य देशोंके मनुष्यों में पायी जानेपर भी उच्चवृत्ति- पुरुषार्थ-जागृति अपने बाधक कोंके अभावसे होती है, वाले लोगांका नीचवृत्तिवाले लोगोंके माथ समानताका इमलिये श्रात्मपुरुषार्थ-जागृतिका वास्तविक कारणा व्यवहार होनेसे ही तो वे 'म्लेच्छ' माने गये हैं। परन्तु उमके बाधक कर्मका अभाव ही माना जा सकता है, ऐसा कहना ठीक नहीं है, कारण कि जिस गये बीते उच्चगोत्रकर्मका उदय नहीं । यद्यपि प्रात्मपुरुषार्थ जागृति ज़मानेमें इन देशोंमें धर्म-कर्म-प्रवृत्तिका अभाव था, में उच्चगोत्रको भी कारण मान लिया गया है परन्तु यह हिन्दुस्तान अपनी लौकिक सभ्यता और संस्कृतिमें बढ़ा- कारणता शरीरमें मोक्षकारणता माननेके समान है। चढ़ा था और ये देश सभ्यता और संस्कृतिमें बिल्कुल फिर भी ऐसी कारणता तो किसी हद तक या किसी रूपगिरे हुए थे उस जमाने में इन लोगोंको भले ही 'म्लेच्छ' में नीचगोत्रमें भी पायी जाती है। क्योंकि नीचगोत्री मानना उचित हो, परन्तु आज तो उनकी सभ्यता और जीव भी तो कमसे कम देशवती श्रावक हो सकता
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दायिक सम्यग्दृष्टि भी होसकता है । अथवा किमी रूपमें यहाँ पर यह भी ध्यान रखना चाहिये कि जिस उच्चगोत्रकर्म भी धार्मिकताका कारण नहीं हो सकता है, जीवकी वृत्तिरूप बाह्य प्रवृत्ति लोकव्यवहारमें दीनता कारणकि अभव्यमिथ्यादृष्टि तकके उच्चगोत्रकर्मका उदय अथवा करतापूर्ण समझी जाती हो, भले ही उससे उस निषिद्ध नहीं है । इमसे स्पष्ट है कि वृत्तिकी उच्चता और जीवकी अंतरंगमें घृणा ही क्यों न हो, तो भी वह जीव नीचतासे धार्मिकता और अधार्मिकताका कोई नियमित नीचगोत्री ही माना जायगा । इतना अवश्य है कि यदि संबन्ध नहीं है * । लोकव्यवहारमें उच्च मानी जाने किमी जीवको अपनी दीनतापर्ण व क्रूरतापूर्ण ऐसी वाली वृत्तिको धारण करनेवाला भी अधार्मिक हो सकता वृत्तिमे घृणा है तो उस जीवके उच्चगोत्रकर्मका बन्ध है और लोकव्यवहार में नीच मानी जानेवाली वृत्तिको हो सकता है और यदि वह अपनी इस वृत्तिमें ही मस्त धारण करनेवाला यथायोग्य धार्मिक (पंचपापरहित ) है तो उसके नीचगोत्रकर्मका ही बन्ध होगा । इमीप्रकार हो सकता है, इसलिये धार्मिकता और अधार्मिकताका जिस जीवकी वृत्तिरूप बाह्यप्रवृत्ति लोकव्यवहार में स्वाभिविचार किये बिना ही जो वृत्ति लोकमान्य (उत्तम) मानपर्ण समझी जाती हो उसे ही उच्चगोत्री माना जाहो रसका कारण उच्चगोकर्मका उदय है, और यही यगा लेकिन यदि ऐमा जीव अपनेको ऊँच और दूसरोंको कारण है कि उमका धारक जीव हिंसादि पंच पापोंको उनकी नीचवृत्तिके कारण नीच समझकर उनसे घृणा करता हुश्रा भी उच्चगोत्री समझा जाता है, तथा जो करता है तो उसके उच्चगोत्री होनेपर भी नीचगोत्रकर्मका वृत्ति लोकव्यवहारमें अधम समझी जाती हो उमका का- बन्ध होगा; तात्पर्य यह है कि अन्तरंग परिणतिकी रण नीचगोत्रकर्मका उदय है और यही कारगा है कि अपेक्षारहित जब तक जीवकी बाह्यवत्ति उच्च अथवा उसका धारक जीव हिंसादि पापोंको नहीं करता हश्रा भी नीच रूपमें कायम रहती है तबतक वह जीत्र उमी रूपनीचगोत्री माना जाता है।
वृत्ति शायद ही कोई हो जिसे लोकके सभी मन्न्य ऊँच लोकव्यवहार में स्वाभिमानपूर्ण वृत्तिको उत्तम (उच्च)
अथवा सभी मनुष्य नीच मानते हों। कुछ मनुष्योंका माना गया है और दीनता अथवा क्रूरतापूर्ण वृत्तिको किसी वत्तिको ऊँच मानना और कुछका नीच मान अधम (नीच) माना गया है,इमलिये जिस जीवकी वृत्ति लेना इस बातके लिये कोई नियामक नहीं हो सकता स्वाभिमानपर्ण होती है वह जीव उच्चगोत्री माना जाता कि वह वत्ति उंच है या नीच; तर मान्यताकी ऐसी है और जिस जीवकी वृत्ति दीनता अथवा क्रूरतापूर्ण विचित्रताके आधार पर किसीको उच्चगोत्री और किसी होती है वह जीव नीचगोत्री माना जाता है ।
को नीचगोबी प्रतिपादित करना संगत प्रतीत नहीं * पदि ऐसा कोई नियत सम्बन्ध नहीं है तो फिर होता, और न सिद्धान्त गन्योंसे ही ऐसा कुछ मालम एक नीचगोत्री छठे गुणस्थानवर्ती मुनि क्यों नहीं हो. होता है कि नीच-उंच गोत्रका उदय किसी की मान्यता सकता । उसके उस धार्मिक अनुष्ठानमें नीचगोत्रका पर भवनम्बित है। यदि ऐसा हो तो गोत्रकर्म की बड़ी ही उदय बाधक क्यों है? --सम्पादक मिट्टी खराब हो जायगी-उसे भिन्न भित्र मान्यताके
कहाँ माना जाता है ? लोकमें सर्वत्र या किसी अनुसार एक ही बातमें ऊँच और नीच दोनों बनना वर्गविशेष अथवा सम्प्रदाय विशेषके मनुष्योंमें ऐसी पड़ेगा! -
-सम्पादक
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वर्ष २, किरण १२
मनुष्योंमें उच्चता-नीचता क्यों ?
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में उच्च अथवा नीचगोत्री ही माना जायगा।
अधिवेशनों में भंगीका भी काम करनेवाले स्वयंसेवकोंको, ____ कर्मकांडमें पठित 'श्राचार' शब्दका तिरूप लौ- कर्त्तव्य-पालनकी वजहसे प्रतिदिन अपने बचोंका मैला किक श्राचार अर्थ करनेका यह श्राशय है कि जब कोई साफ़ करनेवाली माताको, दूसरोंको अच्छा ( निरोग) जीव सिर्फ अपनी आजीविका के अर्थात् जीवन संबन्धी करनेकी भावनासे बड़ी निर्दयतापूर्वक चीरा-फाड़ीका श्रावश्यकताओंकी पूर्ति के लिये ही दीनतापूर्ण अथवा काम करनेवाले डाक्टरको, ज्ञानवृद्धि के लिये भक्तिपूर्वक करतापर्ण कार्य करता है तभी वह जीव नीचगोत्री माना गुरुकी सेवा करनेवाले शिष्यको तथा अममर्थ और जायगा । यही कारण है कि सेवाभाव या कर्तव्यपालन अमहाय लोगांकी सहायता प्रादिके लिये भीख तक श्रादिकी वज़हमे यदि कोई जीव इस प्रकारके कार्य- मांगनेवाले बड़े बड़े विद्वानों और श्रीमानको लोकव्यव. करता भी है तो भी वह जीव लोकव्यवहारमें नीचगोत्री हारमं न केवल नीच नहीं माना जाता है बल्कि ऐसे नहीं माना जाता है। जैसे भंगी अथवा भिग्यारी मिर्फ़ लोग लोकव्यवहारमें श्रादरकी दृष्टिसे ही देखे जाते हैं; अपना पेट भरने के लिये ही दीनतापूर्ण लोकनिंद्य कार्य क्योंकि इनके हृदयमें इन कार्योको करते समय सेवाभाव करता है तथा ठगी अथवा डाकेज़नी करनेवाले लोग व कर्तव्यपालनकी भावना जाग्रत रहती है । इतना मिर्फ अपना पेट भरने के लिये ही बड़ी निर्दयता और अवश्य है कि यदि इन कार्यों को करने में कोई अनुचित करताके साथ दूसरे प्राणियोंको ठगना श्रादि कार्य किया स्वार्थभावना प्रेरकनिमित्त बन जाती है तो इनको उम करते हैं, इमलिये ये तो नीचगोत्री ही माने जाते हैं । ममय नियममे नीनगोत्रकर्मका बन्ध होगा। पल भवाभावसे याज कल कांग्रेम आदि मंस्थाओंके इसी प्रकार वैदिक धर्मग्रन्याम प्रतिपादित अश्वमेध,
माने जाते हैं या लेम्बकजीके मतानमार माने जाने नरमेध श्रादि पज़ यद्यपि कर कर्म कहे जा सकते हैं चाहिय ? एक बात यहाँपर खास तौरसे स्पष्ट होने की परन्तु इनके पीछे धर्मका मंबन्ध जुड़ा हुश्रा है, इमलिये है और वह यह कि व्यापारमें जो ठगी करते हैं वे ठग इनको करनेवाला ब्राह्मण दुसरे धर्मानुयायियोंकी दृष्टिम हैं याकि नहीं? ग्रीर एक राजा नसरेके राज्यको अपने पापी तो कहा जा सकता है परन्तु इनका ताल्लक सिर्फ राज्य में और इसरोंकी सम्पत्तिको अपनी सम्पत्ति मि उसकी आजीविकास न होने के कारण लोकव्यवहारमें लाने के लिये जो दूसरे राजापर चढ़ाई करता है और वह नीनगोत्री नहीं माना जाता है । और तो क्या उसके राज्यको तथा वहाँकी प्रजाकी बहुतसी सम्पत्तिको शत्रुता के लिहाजसे बदला लेनेकी भावनामे प्रेरित होकर बीनकर हडप कर जाता है वह डाकेज़न अथवा संगठित
दुमरे प्राणियोंको जानसे मार देनेवाला व्यक्ति भी लोक
इमर स्कैत हैया कि नहीं ? यदि ऐसा है तो वैसे ठग ग्या
में अधार्मिकती माना जाता है परन्तु इस तरहसे उसको
कोई नीचगोत्री नहीं मानता है क्योंकि यह कार्य उमने पारियों (वैश्यों) और राजाभोंको भी नीचगोत्री कहना
अपनी श्राजीविका के लिये नहीं किया है। इसी तरहका होगा-भले ही वे भरत जैसे चक्रवर्ती राजा ही क्यों
श्राशय उच्चगोत्रके विषय में भी लेना चाहिये । जैसे भंगी महो। परन्तु उन्हें नीचगोत्री नहीं माना जाता है,
अपने पेशेको करते हुए समय पड़नेपर मरनेकी संभावना सब नीच ऊँचगोत्रकी मान्यता का नियम क्या रहा?
-सम्पादक
होनेपर भी यदि भीख माँगनेको तैयार न हो, व भिखारी
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अपने पेशेको करते हुए समय पड़ने पर मरने की संभावना होने पर भी भंगीका काम करनेके लिये तैयार न हो तो भी ये दोनों नीचगोत्री ही माने जाते हैं उच्चगोत्री नहीं, इतना अवश्य है कि उस समय मानसिक परिगति स्वाभिमानपूर्ण होने की वजहसे इनके उच्चगोत्रकर्म का ही बन्ध होगा ।
किस गुणस्थानमें कौनसे गोत्रकर्मका उदय रहता है ?
ऊपरके कथनसे यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि जीवकी दीनता और क्रूरतापूर्णवृत्ति नीचगोत्रकर्मके उदयसे होती है और स्वाभिमानपूर्ण वृति उच्चगोत्रकर्मके उदयसे होती है, इसलिये जिस गुणस्थान में जो वृत्ति पायी जाती हो उस गुणस्थान में उसी गोत्रकर्मका उदय समझना चाहिये ।
आश्विन, वीर - निर्वाण सं० २४६५
जीवनकी साधारण महत्ता है, यही कारण है कि ऐसे लोकोत्तर जीवनवाले जीवोंके उच्चगोत्रकर्मका ही उदय माना गया है । लोकोत्तर जीवन सातवें गुणस्थान से प्रारंभ होता है और तेरहवें गुणस्थानवर्ती जीव पूर्ण लोकोत्तर - जीवनवाले हो जाते हैं। इस प्रकार सातवें गुणस्थानसे चौदहवें गुणस्थान तकके जीवोंके उच्चगोत्रकर्मका ही उदय बतलाया गया है ÷ ।
छडे गुणस्थानवर्ती जीवोंका जीवन यद्यपि लौकिक जीवन है, इसलिये उनमें लौकिक जीवन संबन्धी यथायोग्य व्यवहार पाये जाते हैं परन्तु उनका जीवन इतना सार्वजनिक होजाता है कि बिना स्वाभिमान पूर्ण वृत्तिके वे जीव उस गुणस्थानमें स्थित ही नहीं रह सकते हैं। तात्पर्य यह है कि छागुणस्थानवर्ती जीव (मनुष्य) माधु कहलाता है, वह हम जैसे गृहस्थ मनुष्योंके लिये श्रादर्श होता है; क्योंकि लौकिक जीवनकी उन्नतिकी पराकाष्ठा इसके हुश्रा करती है, इसलिये इसके (साधुके) जीवन में दीनता व क्रूरतापूर्णवृत्ति संभवित नहीं है, यहां तक कि जो वृत्तिस्वाभिमान पूर्ण होते हुए भी आरम्भ पूर्ण होती है उस वृत्तिसे भी वह परे रहता है । वह पूर्णसंगमी और सभी जीवोंमें पूर्ण दयावान अपने जीवन
मुक्त जीव शरीर के संयोगरूप जीवनसे रहित हैं, इसलिये किसी भी प्रकारकी वृत्ति उनके नहीं है और यही कारण है कि वृत्तिका कारणभूत गोत्रकर्मका संबन्ध भी मुक्त जीवोंके नहीं माना गया है । यद्यपि समस्त संसारी जीवोंके गोत्रकर्मका उदय बतलाया गया है। परन्तु जिन जीवोंका लौकिक जीवनसे संबन्ध छूट जाता है अर्थात् लोकोत्तर जीवन बन जाता है उनके शरीरका संयोगरूप जीवनका सद्भाव रहते हुए भी लौकिक जीवन के सभी व्यवहार ही नष्ट हो जाते हैं । यह उनके
*यदि नीचगोत्री ही माने जाते हैं "तो जिस जीवकी वृत्ति स्वाभिमानपूर्ण होती है वह जीव उपगोत्री माना जाता है" इस लेखकजीके वाक्यके साथ उसका विरोध भाता है ।
सम्पादक
+ परन्तु यह नियम कौनसे आगम ग्रन्थमें दिया है ऐसा कहीं भी स्पष्ट करके नहीं बतलाया गया, जिसके बतलानेकी ज़रूरत थी । -सम्पादक
- जब लेखकजीने खाने-पीने आदि सम्बन्धी लौकिक प्राचरणरूप वृत्तिको ही गोत्रकर्मका कार्य बतलाया है और लिखा है कि "इस ( वृत्ति) के द्वारा ही जीवके उच्चगोत्री व नीचगोत्री होनेका निर्णय होता है" और वह वृत्ति जीवनके सभी व्यवहार नष्ट होजानेके कारण इन गुणस्थानोंमें है नहीं, तब इन गुणस्थानों में उपगोत्रका उदय बतलाना कैसे संगत हो सकता है ? इससे पूर्व कथमके साथ विरोध जाता है, एक नियम नहीं रहता और इच्छानुकूल कुछ खींचातानी जैसी बात जान पड़ती है।
--सम्पादक
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वर्ष २, किरण १२]
मनुष्योंमें उच्चता-नीचता क्यों ?
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को बना लेता है, इसीलिये बड़ी भक्तिके साथ दूसरे पाये हैं-किसाधुका जीवन सार्वजनिक जीवन बन जाता मनुष्य अपना अहोभाग्य समझकर उसकी जीवन-संबन्धी है और नीचवृत्ति वाला मनुष्य अपने पर्वजीवन में नीच संभवित अावश्यकताओंकी पूर्ति किया करते हैं, उसका वृत्ति के कारण सर्व साधारण लोगोंकी निगाहमें गिरा कर्तव्य केवल यह है कि वह अपने जीवनसंबन्धी हुश्रा रहता है, इसलिये उसके जीवनका सर्वसाधारणके संभवित श्रावश्यकताओंका दूसरे मनुष्योको ज्ञान लिये श्रादर्श बन जाना कुछ कठिन-सा मालूम पड़ता है करानेके लिये मूक प्रयत्न करता है । यह प्रयत्न ही उस- और जीवनकी श्रादर्शताके अभावमें उसके प्रति सर्वके (साधुके ) जीवन-संबन्धी आवश्यकताअोंकी पूर्तिमें साधारणकी ऐमी भक्ति पैदा होना कठिन है, जिसके निमित्त होनेके कारण 'वृत्ति' शब्दसे कहा गया है। आधार पर वह अपनी शास्त्रसंमत स्वाभिमानपूर्ण माधुकी यह वृत्ति आगममें प्रतिपादित चर्याविधानके वृत्ति कायम रख सके, इसीलिये चरणानुयोग नीचवृत्ति
अनुसार बहुत ही स्वाभिमानपूर्ण हुआ करती है, वालोको साधुदीक्षाका निषेध करता है; लेकिन, जैसा यही कारण है कि साधुको (छ। गुणस्थानवी जीवको) कि श्रागे बतलाया जायगा। नीचवृत्ति वाले मनुष्य भी उच्चगोत्री बतलाया गया है। बाकी पहले गुणस्थानसे वृत्ति बदल कर गोत्र परिवर्तन करके अपने गाईस्थ्य लेकर पंचम गुणस्थान तकके जीवोंकी वृत्ति जीवनमें ही सर्वसाधारण लोगोंकी निगाहमें यदि उस ऊपर कहे अनसार उच्च और नीच दोनों प्रकारकी समझे जाने लगते है तो ऐसे मनुष्योंके लिये चरणानुहो सकती है इसलिये वे दोनों गोत्र वाले बतलाये गये योग भी दीक्षाका निषेध नहीं करता है, इसलिये चरहैं । इसका मतलब यह है कि एक नीच वृत्ति वाला गानुयोगका करणानुयोगके साथ कोई विरोध भी नहीं मनुष्य भी हिंसादि पंच पापोंका एक देश त्याग करके रहता; क्योंकि एक नीचगोत्री मनुष्यको अपने पंचम गुणस्थान तक पहुँच सकता है। श्रागे वह क्यों वर्तमान भवमें साधु बननेका हक करणानुयोगकी तरह नहीं बढ़ सकता इसका कारण यह है कि छहागुणस्थान चरणानुयोग भी देता है। तात्पर्य यह है कि जब साधवर्ती जीवकी अनिवार्य परिस्थिति इस प्रकारकी हो का जीवन लौकिक जीवन है और वह सर्वसाधारण के जाया करती है कि वहाँ पर नीच वृत्तिकी संभावना ही लिये प्रादर्शरूप है तो लोकव्यवहारमें उसकी प्रतिष्ठा नहीं रहती है । तालर्य यह है कि कोई नीच वृत्ति वाला कायम रहना ही चाहिये, इमलिये साधुत्व जिस तरहसे मनुष्य यदि साधु होगा तो उसकी वह नीच वृत्ति अपने लोकमें प्रतिष्ठित रह सकता है उस तरहकी व्यवस्था पाप छूट जायगी, यह करणानुयोगकी पद्धति है। चरणानुयोगको निगाहमें रखकर द्रव्य, क्षेत्र, काल और चरणानुयोगकी पद्धतिमें इससे कुछ विशेषता है, वह भावके अनुसार चरणानुयोग प्रतिपादित करता है। बतलाताहै कि एक नीच वृत्ति वाला मनुष्य अपने इतना अवश्य है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके वर्तमान भवमें साधु नहीं बन सकता है, वह अधिकसे अनुसार चरणानुयोगकी व्यवस्था बदलती रहती है और अधिक पुरुषार्थ करेगा तो देशव्रती श्रावक ही बन करणानुयोगकी व्यवस्था सदा एकरूप ही रहा करती सकेगा। इसका कारण यह है-जैसाकि हम पहिले बतला है।
(शेष अगली किरणमें) wered Before
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गोत्रलक्षणोंकी सदोषता
[ले.-५० ताराचन्द जैन, दर्शनशासी ]
neperly Before नैनसिद्धान्तमें अन्य कर्मोकी तरह गोत्र-कर्म पर और गमन करते हुए मनुष्य, घोड़ा, हाथी, बन्दर "भी विचार किया गया है; परन्तु गोत्र-सम्बन्धी आदिको भी उस समय 'गाय' कहना अनुचित न जो कथन सिद्धान्तग्रंथों में पाया जाता है वह इतना समझा जाना चाहिये। परन्तु बात इससे उलटी ही न्यून-थोड़ा है कि उससे गोत्र कर्मकी उलझन सुलझ है अर्थात बैठी, खड़ी वा लेटी किसी भी अवस्थामें नहीं पाती और न गोत्र-कर्मका जिज्ञासु उस परसे विद्यमान गायको हम 'गो' रूढि शब्द द्वारा गलकिसी ठीक नतीजे पर ही पहुँच पाता है । ग्रंथोंमें कंबल-मींग और पूंछ वाले पशुविशेष (गाय ) का गोत्रके जितने लक्षण देखनेमें आते हैं वे या तो ही ग्रहण-बोध करेंगे। और 'गो' शब्दकी व्युत्पत्ति लक्षणात्मक ही नहीं हैं और यदि उनको लक्षणारक से कहे गये अर्थपर ध्यान नहीं देंगे। यदि व्युत्पत्ति मान भी लिया जावे तो वे मदोष, अपूर्ण और से कहे गये अर्थके अनुसार चलेंगे तो प्रायः प्रत्येक असंगत ही ऊंचते हैं। उन लक्षणोंसे 'गोत्र-कर्म शब्दार्थमें दोप पाये जावेंगे और किमी अर्थका क्या है?'इम प्रश्नका उत्तर नहीं के बराबर मिलता शब्दके द्वाग संकेत करना असंभव हो जावेगा । है और गोत्र-विषय जैसाका तैमा ही अम्पष्ट और इसलिये किमी शन्दकी व्यत्पत्तिको उम शब्द द्वारा विवादका विषय बना रहता है।
कहे जाने वाले पदार्थका लक्षण नहीं माना जा - आचार्य पूज्यपाद स्वामी गोत्र-विषय पर प्रकाश सकता। डालते हुए लिखते हैं-'उच्चैनींचैश्च गयते शब्धत वास्तव में वस्तुका लक्षण ऐसा होना चाहिये इति वा गोत्रम्' (मर्वार्थः ८-) अर्थान-जिमसे जो उस वस्तुको दृमरे समस्त पदार्थोस भिन्न-जुदा जीव ऊँच-नीच कहा या ममझा जावे उसे गोत्र बतला मके । जिम लक्षणमें उक्त खूबी नहीं पायी कहते हैं। यदि उक्त वाक्य पर गौर किया जाय तो जाती वह लक्षण लक्षणकोटिमे बहिष्कृत ममझा यह वाक्य व्याकरण-शास्त्रानुसार गोत्रशब्दकी जाता है और जो लक्षण लक्ष्य पदार्थ-जिस व्युत्पत्तिमात्र है, गोत्रका लक्षण नहीं । शब्द-व्य. पदार्थका लक्षण किया जाता है में पूरी तरह त्पत्तिसे उस शब्दद्वारा कहा गया अर्थ नियम नहीं पाया जाता, अर्थात् लक्ष्यके एक देशमें रहता वैसा ही हो, ऐसा सिद्धान्त नहीं है। जैसे- 'गच्छ. है वह भी सदोष कहलाता है। ऐसे लक्षणको तीति गौः' अर्थात् जो गमन कर रही हो उसे गौ 'अव्याप्त लक्षण' कहा जाता है। न्यायशास्त्र में या गाय कहते हैं। इस व्युत्पत्तिके अनुसार बैठी, लक्षणके तीन दोष-अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और खड़ी वा लेटी हुई गाय को 'गो' न कहना चाहिये, असंभव बतलाये गये हैं । जिन लक्षणोंमें उक्त
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वर्ष २, किरण १२]
दोषत्रयका सर्वथा अभाव पाया जाता है, वे लक्षण ही समीचीन और कार्यसाधक होते हैं । गोत्रके जितने लक्षण उपलब्ध होते हैं वे सभी सदोष हैं। उनमें अव्याप्ति दोष अनिवार्यरूपसे पाया जाता है। आचार्य पूज्यपादने, गोत्रकर्मके उच्च-नीच भेदोंका 'उल्लेख करते हुए, उनका स्वरूप निम्न प्रकार दिया है—
गोत्र लक्षणांकी सदोषता
यस्योदयाल्लोकपजितेषु कुलेषु जन्म तदुच्चैर्गोत्रम्, यदुदयाद्गहितेषु कुलेषु जन्म तन्नीचैगोंत्रम् । - सर्वार्थ० अ० ८ से १२ अर्थात्-जिसके उदयसे लोक सन्मान्य कुलमें जन्म हो उसे 'गोत्र' और जिसके उदयमं निन्दित कुल में जन्म होता है उसे 'नीचगोत्र' कहते हैं ।
श्रीअकलंकदेव उक्त लक्षणोंको अपनाते हुए इन्हें अपनी वृत्तिमें और भी खुलासा तौर पर व्यक्त करते हैं। यथा
लोकपतिंषु कुलेषु प्रथितमाहात्म्येषु इक्ष्वाकुयदुरुजातिप्रभृतिषु जन्म यस्योदयाद्भवति तदुच्चैगों त्रमवसंयम् । गर्हितंषु दरिद्राप्रतिज्ञातदुःखाकुलेषु यत्कृतं प्राणिनां जन्म तन्नीचैर्गोत्रमवसेयम् ।'
- तत्वा ० राज०, ०८ सू०१२
अर्थात - जिस कर्मके उदयसे जिनका महत्व - बड़प्पन – संसारमं प्रसिद्ध हो चुका है ऐसे लोक पूजित इक्ष्वाकु, यदु, कुरु आदि कुलांमें जन्म हो उसे 'उच्च गोत्र' कहते हैं और जिस कर्मके उदयसे जीव निन्दित, दरिद्र निर्धन, और दुखी कुलोंमें जन्म पावें उसे 'नीचगोत्र' समझना चाहिये ।
ऊंच-नीच - गोत्रके इन लक्षणोंपर विचार करनेमालूम होता है कि ये लक्षण केवल श्रार्यखंडों
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के मनुष्योंमें ही घटित हो सकते हैं। भार्यखंडके मनुष्योंके भी इन गोत्र-कर्मोंका उदय सार्वकालिक - हमेशा के लिये नहीं माना जा सकता, केवल कर्मभूमिके समय ही यदुवंशादिकी उत्पत्ति-कल्पना मानी गई है। भोगभूमिज मानवोंमें परस्पर उबनीचका भेद बिलकुल नहीं पाया जाता, सभी मनुष्य एक समान व्यवहारवाले होते हैं। इसलिये उन्हें उच्चता नीचताकी खाई नहीं बनाना पड़ती जब भरत - ऐरावत क्षेत्रों में कर्मभूमिका प्रादुर्भाव होता है तभी इन कुरु, सोम, निन्दित आदि कुलों को जन्म दिया जाता है। इस अवसर्पिर्णी कालचक्रमें पहले पहल कुल-जातिकी सृष्टि भगवान ऋषभदेवने ही की थी। उससे पहले कुलादिका सद्भाव नहीं था । लक्षणोंमें बतलाया गया है कि अमुक गोत्र कर्मके उदयमे अमुक कुल में जन्म पाना ही उसका वह लक्षण है अर्थात गोत्र-कर्मका कार्य केवल इतना ही है कि वह जीवको ऊँच नीच माने जाने वाले कुलोंमें जन्म देवें । जन्मग्रहण करनेके बाद जीवके किम गोत्रका उदय माना जाय इसका लक्षणोंमें कोई जिक्र नहीं किया गया । यदि इन लक्षणोंका यह अभिमत है कि जीवका जिम कुल में जन्म होता है जन्म पानेके बाद भी उसका वही गोत्र रहता है जो उम कुलमें जन्म देनेमें हेतु रहा हो तो इसका मतलब यह हुआ कि जीवन भर - जब तक उस शरीर से सम्बन्ध रहेगा जो जीवने उस भवमें प्राप्त किया है तब तक ऊँच या नीच गोत्रका ही उदय रहेगा । जन्म पानेके बाद भले ही जीव उम कुलके अनुकूल आचरणव्यवहार— न करे, उस प्रतिकूल आचरणसे उस गोत्रका कोई बिगाड़ नहीं होता । परन्तु यह बात
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अनेकान्त
[आश्विन, वीर-निर्वाण सं०२४६५
सिद्धान्तसे विरुद्ध पड़ती है, सिद्धान्तप्रन्थोंमें गोत्र- र्गोत्रम् । न चात्र पूर्वोक्तदोषाः संभवन्ति विरोधात् । का संक्रमण-ऊँचसे नीच और नीचसे ऊँच गोत्र तद्विपरीतं नीचैर्गोत्रम् ।" बदलना-माना गया है ।।
अर्थात्-उन पुरुषोंकी सन्तान उचगोत्र होती __ आचार्य वीरसेन धवला टीकामें उच्चगोत्रके है जो दीक्षायोग्य साधु-आचारसे सहित हों, जिनने व्यवहारके विषयमें अनेक शंकाएँ उठाते हुए उसकी साधु-आचारवालोंके साथ सम्बन्ध किया हो, असंभवता बतलाते हैं। यथा-"ततो निष्फल- और जो आर्य होने के कारणों-व्यवहारोंसे सहित • मुच्चैर्गोत्रं, तत एव न तस्य कर्मत्वमपि तदभावेन नी- हो । तथा ऐसे पुरुषोंकी सन्तान होनेमें जो कर्महेतु
चैर्गोत्रमपि द्वयोरन्योन्याविनाभावित्वात्। ततो गोत्र- होता है उसे भी उच्चगोत्र कहते हैं। इस उच्चगोत्रकर्माभावः” अर्थात-जब राजा, महाव्रती आदि के लक्षणमें पूर्वपक्षमें लिखे गये समस्त दोषोंका अजीवोंमें उच्च-गोत्रका व्यवहार ठीक नहीं बनता, भाव है क्योंकि उक्त लक्षण और दोषोंमें विरोध है तब उचगोत्र निष्फल जान पड़ता है; इसलिये अर्थात् लक्षण बिलकुल ही निर्दोष है। उपगोत्रसे उचगोत्रका कर्मपना भी बनता नहीं। उच्चगोत्रके विपरीत नीचगोत्र है-जो लोग उक्त पुरुषोंकी अभावसे नीचगोत्रका भी अभाव हो जाता है; सन्तान नहीं हैं और उनसे भिन्न आचार-व्यवहार क्योंकि दोनोंमें अविनाभाव सम्बन्ध है-एकके वालोंकी सन्तान हैं वे सब नीच-गोत्र कहलाते हैं, अभावमें दूसरेका भी अभाव नियमसे होता है। ऐसे लोगोंकी सन्तानकी उत्पत्तिमें जो कर्म कारण
और जब उच-नीच-गोत्रका अभाव है, तब उन होता है उसे भी नीचगोत्र कहते हैं। दोनोंसे भिन्न कोई अन्य गोत्रकर्म ठहरता नहीं, यद्यपि श्री वीरसेनाचार्य अपने लक्षणको निइसलिये उसका भी अभाव सिद्ध होता है। इस र्दोष बतलाते हैं, परन्तु उक्त लक्षण दोषोंसे खाली पूर्व पक्षके बाद गोत्रकर्मको निष्फलता हटाने और नहीं हैं। देवोंका उपपाद-जन्म माना गया है, इसउसका अस्तित्व सिद्ध करनेके लिये उक्त आ. लिये वे किसी साधु-आचारवाले आदि मनुष्योंकी चार्य उच्च-नीच-गोत्रका लक्षण निम्न प्रकार लिखते सन्तान नहीं माने जा सकते, फिर उन्हें उच्चगोत्री
क्यों माना गया ? नारकियोंको भी औपपादिक “दीक्षायोग्यसाध्वाचाराणां साध्वाचारैः कृतस- जन्मवाला माना गया है, अतः उन्हें भी किन्हीं म्बन्धानामार्यप्रत्ययाभिधानव्यवहार-निबन्धनानां पू. असाधु-व्यवहारवाले आदि मनुष्योंकी सन्तति नहीं रुषाणो सन्तान उच्चैर्गोत्रम्, तत्रोत्पत्तिहेतकमप्यच्चै- कहा जा सकता, फिर उन्हें नीचगोत्री क्यों कहा
...... गया ? पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चोंको छोड़ शेष सभी एकेहै देखो, गोम्मटसार-कर्मकाण्ड गाथा ४४१। न्द्रिय,द्वीन्द्रिय,त्रीन्द्रिय औरचतुरिन्द्रिय तिर्यञ्चोंकी
इस अवतरब और अगले अवतरणके लिये देखो भी सन्तति नहीं चलती,वेसम्मूर्छन जन्मवाले माने 'भनेकान्त' वर्ष २ की किरण २ का उँचगोत्रका न्य- जाते हैं और पंचेन्द्रिय तिर्यश्च भी किन्हीं हीनाचारी बहार कहाँ।' शीर्षक सम्पादकीय लेख । पुरुषोंकी सन्तान नहीं होते, फिर उन्हें क्यों नीच
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गोत्रलक्षणों की सदोषता
२, किरण १२]
गोत्री माना गया ? इसी तरह सम्मूर्च्छन मनुष्यों में भी सन्तानाभाव पाया जाता है, फिर उन्हें भी क्यों नीचगोत्री माना गया ? भोगभूमिज जीवोंमें भी उक्त प्रकारकी व्यवस्था नहीं पायी जाती । इस लिये उक्त उच्च-नीच गोत्र-लक्षणोंको किसी भी तरह दोषरहित नहीं कहा जा सकता । ये लक्षण श्र व्याप्ति दोष से दूषित हैं; क्योंकि अपने लक्ष्यके एक देशमें ही पाये जाते हैं ।
प्यादश्रो' शब्द पड़ा है वह लक्षणकी निर्दोषता में प्रबल बाधक हैं, क्योंकि इससे यही ध्वनित होता है कि गोत्रका मात्र इतना ही कार्य है कि वह जीवको ऊँच-नीच कुल में पैदा कराने में सहायक हो । जन्म-प्रहरणके बाद गोत्रकी क्या व्यवस्था हो, इसका कुछ पता नहीं। इस तरह यह लक्षण भी निर्दोष नहीं कहा जा सकता ।
श्रीनेमिचन्द्राचार्यने जिस गोत्र-लक्षणको जन्म
धवला टीकाकारने गोत्रकर्म ( गोत्रसामान्य ) दिया है वह अपने ही ढंगका है। यथाका लक्षण निम्न प्रकार दिया है
उच्चनीचकुलेसु उप्पादश्रो पोग्गलक्खंधो मिच्छतादिपञ्चएहि जीवसंबंधो गोदमिदि उच्चदे ।'
'संतारणकमेणागयजीवायरणस्स गोदमिदि सराणा ।' अर्थात् सन्तानक्रम से - कुलपरिपाटी से - चले आये जीवके आचरण की 'गोत्र' संज्ञा हैसन्तान परंपरा के आचरणका नाम 'गोत्र' है ।
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अर्थात् - मिथ्यात्वादि कारणके द्वारा जीवके साथ सम्बन्धको प्राप्त हुए ऊँच-नीच कुल में उत्पन्न करानेवाले पुगद्लस्कंधको 'गोत्र' कहते हैं ।
यद्यपि यह लक्षण गोत्रकर्मके अन्य लक्षणोंसे बहुत कुछ संगत और गोत्रकर्मकी स्थिति कायम करने में बहुत कुछ सहायक मालूम होता है, तो भी इस लक्षणके 'कुलेसु' 'उप्पादत्रो' ये शब्द सदेह में डाल देते हैं; क्योंकि यदि 'कुल' शब्दका अर्थ यहाँ पर पितृ- कुल माना जायगा तो ऊपर लिखे समस्त दोष लक्षणको कमजोर बना देंगे और गोत्रकर्मी व्यवस्था न बन सकेगी। हाँ, यदि 'कुल' शब्दका अर्थ सजातीय- जीवसमूह - भिप्रेत हो तो गोत्रव्यवस्था बन सकती हैं; परन्तु यह क्लिष्ट कल्पना है, जो शायद लक्षणकारको स्वयं अभीष्ट न रही हो । दूसरे, इस लक्षणमें जो 'उ
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* गोत्रलक्षणकी ये पंक्तियाँ पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारकी नोटबुकले ली गई हैं और वे 'जीवद्वाय' की प्रथम चूलिका की हैं।
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यहाँ पर जीवाचरणको गोत्र बतलाया है। जैन ग्रंथों में गोत्रकर्मको पौद्गलिक स्कंध माना गया है; परन्तु आचरण या जीवाचरण को कहीं पर भी वैसा पौद्गलिकस्कंध नहीं लिखा । आचरणका अर्थ है अनुष्ठान, चालचलन, प्रवृत्ति आदि । इसलिये 'जीवायरण'का अर्थ हुआ जीवका चाल-चलन आदि । जब जीवका आचरण वह पौद्गलिक स्कन्ध नहीं जो मिध्यात्वादि कारणोंके द्वारा जीवके साथ सम्बन्धको प्राप्त होता है तब उसे 'गोत्रकर्म' - जो कि वैसा पौद्गलिक स्कन्ध होता है— कैसे माना जाय? हां, जीवके आचरणको गोत्रकर्मका कार्य माना जा सकता है; परन्तु उसको गोत्रकर्म मानना सिद्धान्तानुकूल जँचता नहीं । अन्य कर्मोंकी तरह गोत्रकर्मका सम्बन्ध या उदय चारों गतियों के जीवोंमें बतलाया गया है । संसारमें ऐसा कोई जीव नहीं है जिसके गोत्रका उदय न हो। इसलिये गोत्रका ऐसा व्यापक लक्षण होना चाहिये जो जीवमात्रके साथ
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अनेकान्त
[आश्विन, वीर-निर्वाण सं० २४६५
उसका सम्बन्ध घोषित करे। गोम्मटसार-कर्मका- आचरण छोड़कर जैसा कि आजकल अक्सर एडके उक्त गोत्र-लक्षण पर दृष्टि डालनेसे इच्छित देखा जाता है-भविष्यमें भिन्न ही प्रकारके अर्थकी सिद्धि नहीं होती, उल्टा यह मुश्किलसे आचरणको अपना लिया हो तो उस जीवके कुछ मनुष्यों तक ही सीमित सिद्ध होता है; क्योंकि उस सन्तानक्रमके गोत्रका उदय नहीं माना संसारमें ऐसे अनंतानंत जीव हैं जिनकी सन्तान जासकता; क्योंकि उसने उस सन्तानक्रमके आचक़तई नहीं चलती, इसका मैं पूर्व ही धवलाके उच्च रणका परित्याग कर दिया है । तथा वर्तमान पाचनीच-गोत्रके लक्षणोंके जिक्रमें उल्लेख कर आया रणके अनुसार उस जीवके उस गोत्रका उदय भी हूँ। इसलिये देव, नारकी, सम्मूर्छन-मनुष्य और नहीं माना जा सकता; क्योंकि वह आचरण उसका विकलत्रयमें सन्तानक्रमका अभाव होनेसे उनमें सन्तानक्रमका आचरण नहीं । इसीलिये कुलउक्त प्रकारके गोत्रका प्रभाव मानना ही पड़ेगा। परिपाटीके आचरणके अभावमें जीवके किसी भी यदि 'जीवायरण' का अर्थ यहां पर जीवकी जी- गोत्रका उदय न माना-जाना चाहिये और ऊँच वा विका साधन या पेशा अपेक्षित हो तो वह केवल नीच भी नहीं समझना चाहिये । यदि उँच-नीच कर्मभूमिज मनुष्यों में ही मिल सकेगा। अवशिष्ट समझा भी जावे तो उस गोत्रोदयकी वजहसे नहीं; देव, नारकी, तिर्यच और भोगभूमिज जीवोंके तो किन्तु किसी अन्य कर्मोदय या किसी और ही असि, मषि, कृषि प्रादि कोई भी पेशा नहीं होता; वजहसे उसे वैसा मानना युक्ति संगत होगा। इसलिये उनमें वैसे आचरणका अभाव होनेसे गोत्र- ऊपरके इस सब विवेचन परसे, मैं समझता व्यवस्था भी नहीं बनती। इसी तरह 'आचरण' हूँ, पाठक महानुभाव यह सहज ही में समझ का अर्थ धर्मपाल न, व्रतादिधारण आदि मानने सकेंगे कि गोत्रलक्षणोंमें ऐसा कोई लक्षण नहीं पर भी अनेक दूषण पाते हैं, जिनका यहा लेख दीखता जो निर्दोष कहा जासके । प्रायः प्रत्येक बढ़जानेके भयसे उल्लेख नहीं किया जाता। लक्षण अव्याप्ति दोषसे दूषित है। अंतमें विचार__ जीवका जैसे आचरणवाले कुलमें जन्म हुआ शील विद्वानोंसे मेरा सानरोध निवेदन है कि वे यदि भविष्यमें उसका उसी सन्तान-परिपाटीके उक्त विषयके निर्णयकी ओर सविशेष रूपसे ध्यान मुताबिक ही आचरण रहा तब तो उसे उस गोत्रका देनेकी कृपा करें और यदि हो सके तो इस बातको कहा जावेगा अर्थात् अमुक सन्तान-परंपराके स्पष्ट करनेका जरूर कष्ट उठाएँ कि मान्य ग्रन्थोंमें आचरणके कारण उसे उस गोत्रका उदय रहेगा। ये सदोष लक्षण किस दृष्टिको लेकर लिखे गये हैं। और यदि उस जीवने अपनी कुल-परिपाटीका वीर-सेवा-मन्दिर, सरसावा, ता०१६-९-३६
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जगत्सुन्दरी-प्रयोगमालाकी पूर्णता
[सम्पादकीय] चानेकान्तकी गत 11वीं किरण में प्रकाशित 'जगत्सु. भी मालूम हुमा कि ग्रंथ महामशुख, बेडंगा और
नन्दरी-प्रयोगमाला' नामक लेखपर मैंने जो सम्पा सम्पादनकलासे विहीन छपा है। मालूम होता है कि दकीय नोट दिया था, उसमें यह प्रकट किया गया था उसकी प्रेसकापी किसी भी प्राकृत जानने वालेके द्वारा कि जगरसुन्दरी-प्रयोगमालाकी जितनी भी प्रतियोंका संशोधित और संपादित नहीं कराई गई और न मूल अबतक पता चला है वे सब अधूरी हैं और पूर्णप्रतिकी प्रति परसे कापी करने वाला पुरानी ग्रंथ-लिपिको ठीक तनाशके लिए प्रेरणा की गई थी। उक्त लेखके छप- पढ़ना ही जानता था । परन्तु खैर, इस अन्य प्रति परसे जाने के बाद मेरे पास बम्बईसे एक सूचोपत्र पाया, इतना तो जरूर मालूम होजाता है कि जगत्सुन्दरीजिससे मालूम हुमा कि 'जगत्सुन्दरी उपयोगमाजा' प्रयोगमाला ग्रंथ अधूरा नहीं रहा बल्कि पूरा रचा गया नामका कोई ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है। यह देखते ही है। उसके शुरूके ३४ अधिकार के कदी नया नसीराबाद मुझे ख़याल हो पाया कि हो-न-हो यह जगरसुन्दरी की प्रतियोंमें सुरचित हैं और शेष पाठ अधिकार प्रयोगमाला नामका हो ग्रंथ होगा, और इसलिये मैंने मुद्रित हो चुके हैं। इस तरह ग्रंथकी पूर्णता हो जाती उसको मँगानेका विचार स्थिर किया; इधर एक दो दिन है. और यह प्रसन्नताकी बात है। अवश्यही किसी बाद ही प्रोफेसर ए.एन. उपाध्यायजीका पत्र कोल्हा- भंडारमें ग्रन्थकी प्राचीन पर्ण प्रति भी होगी, जिसे खोज पुरसे प्राप्त हुमा, जिसमें उन्होंने उसी सूचीपत्रके हवाले से कर इन अशुद्ध प्रतियोंके पाठोंको शुख कर लेनेकी उक्त ग्रन्थका उल्लेख करके उसे मंगाकर देखनेकी प्रेरणा जरूरत है। की। अतः मैंने सुहृदर पं. नाथुरामजी प्रेमीको बम्बई उक्त मुद्रित प्रतिमें ग्रन्थकारकी प्रशस्ति भी बगी लिख दिया कि वे उक्त यन्यकी एक प्रति शीघ्र खरीदकर हुई है, जिससे यह स्पष्ट मालम होजाता है कि यह भेज देखें । तदनुसार उन्होंने ग्रन्थको प्रति मेरे पास ग्रंथ यशाकीर्ति मुनिका ही बनाया हुचा है और इसभेजदी।
जिये जिन दो गाथाभोंके पाठको लेकर यह कल्पना कीअन्य पाते ही मैं उसी दिन रोगशय्यापर पड़े हुए गए
. गई थी कि यह ग्रन्थ पशःकीर्ति मुनिका बनाया हुधा
न हो कर उनके किसी शिष्यका बनाया हुआ है वह ही उस पर आदिसे अन्त तक सरसरी नज़र डाल गया। देखनेसे मालम हुमा कि यह १३५ पटोंका पम्राकार ठीक नहीं रही। इस अम्बके यश कीर्तिकृत होनेकी हालत ग्रन्थ जगत्सुन्दरी-प्रयोगमालाका ही एक अंश है, और गाथाओं के क्रमाक साधारण सूचना-वाक्यों, वह है उसका ३५ वें 'कौतूहल' अधिकारसे लेकर ४३२ गद्यभाग तथा संधियों पर भी क्रमशः डाले गये हैं 'स्वरोदय' अथवा 'स्वरोपदेश' नामक अधिकार तकका और बहुधा समासयुक्त पदोंको अलग अलग और अन्तिम भाग-प्रकाशकने भी यह प्रकट किया है कि हमें समासविहीन पदोंको मिलाकर छापा गया है. इस ग्रन्थका इतना ही भाग उपलब्ध हुमा है, पूरा ग्रन्थ तरह कितना ही गोलमाल अथवा बेढंगापन पाया जिस किसीके पास हो वे हमें सूचित करें। साथ ही,यह जाता है।
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अनेकान्त
| अाश्विन, वीर-निर्वाण सं०२४६५
में कालतंत्राधिकारको अन्तिम गाथाका "जसइत्ति- रामकीर्तिनामके एक दिगम्बर मुनि, जो जयकीर्ति मुगिसरे एत्थ"पाठ प्रशुद्ध जान पड़ता है वह जसइत्ति- मुनिके शिष्य हुए हैं, विक्रम संवत १२०७ में मौजूद थे। मणीसरेोत्थ होना चाहिये और तब उस गाथाका इस संवत्में उन्होंने एक प्रशस्ति लिखी है जो चालुक्ययह अर्थ हो सकेगा कि 'रावणदिकथित 'बालतंत्र'को राजा कुमारपालके 'चित्तौड़गढ़-शिलालेख' के नामसे जानकर यश-कीर्ति मुनिने उसे इस ग्रन्थमें संदिप्तरूपसे नामाक्ति है और एपिप्रेफ्रिया इंडिकाकी दूसरी जिल्द दिया है। और प्रारम्भिक १३वी गाथामें पड़े हुए (E. I. Vol II.) में प्रकाशित हुई है; जैसा कि उक्त 'रणाऊ' (ज्ञात्वा) पदका सम्बन्ध 'कलिसरुवं पद शिलालेखकी निन्न २८वीं पंक्तिसे प्रकट हैके साथ लगा लिया जायगा, और तब उस गाथाका "श्रीज [य] कीर्तिशिष्येण दिगंव (ब) रगणशिना । यह अर्थ हो जायगा कि 'कलिकालके स्वरूपको जानकर प्रशस्तिरीहशी चक्रे........ श्री रामकीर्तिना॥ यशःकीर्ति मुनिने यह ग्रन्थ कहा है, जिससे ग्याधि
संवत् १२०७ सूत्रधा...... प्रसित भन्यजीव मिथ्यात्वमें न पड़ें।'
यदि ये रामकीर्ति ही यशःकीर्ति मुनिके दादागुरु थे तो . ये यशःकीर्तिमुनि विमलकीर्तिके शिष्य और
कहना होगा कि जगत्सुन्दरी-प्रयोगमालाके कर्ता यश:रामकीर्तिके प्रशिष्य थे, और वे बागदसंघमें हुए हैं; जैसा
कीर्तिमुनि विक्रमकी १३ वीं शताब्दीके उत्तरार्द्ध में कि ग्रंथकी निम्न गाथाभोंसे प्रकट है:
होगये हैं और तब यह समझना चाहिये कि इस ग्रंथ आसि पुरा विच्छिएणे वायडसंघे ससंकासो (भो)। को बने हुए आज ७०० वर्षके करीब हो चुके हैं। मुणिरामइत्तिधीरो गिरिवणाईसुबगंभीरो ॥१८॥ इस ग्रंथमें कितनी ही विचित्र बातोंका उल्लेख है संजातउ(?)तस्स सीसोविबुहोसिरिविमलइतिविक्खाश्र और बहुतसी बातें प्रकट करने तथा जाननेके योम्य हैं, विमलपरतिखडिया धवलिया धरणीयगयणाययले॥
जिन पर फिर किसी अवकाशके समय पर प्रकाश डाला
जा सकेगा। ३८वें अधिकारका नाम जो पं० दीपचंदजी तप्पायपो भिमगो सीसो संसारगमणभयभीओ।
पांड्याको स्पष्ट नहीं हुमा था वह इस ग्रंथपरसे 'प्रकीर्णउप्पएणो पयसहिओ हिय-पिय-मिय-महुरभासिल्लो।।२० काधिकार, जान पड़ता है। मंतागमाहिदत्थो चरियपुराणसत्थपरियारो।
हाँ, एक बात और भी प्रकट करने की है और दिययंचंदिदुरउ (?) वयविहिकुसलो जियाणंगो॥२१ वह यह है कि इस ग्रंथके अन्तिम भागमें भी
"कवियगुरुयायमले" नामकी गाथा नहीं है और न गयणुवसुद्धहियो अहिवणमेहुनपीणियजमोहो।।
पं० हरिषेणके नामोल्लेख वाला और उसके कर्तृत्वको पंचाणुव्वसुक्कसंगो मयमत्तकरिव्वमत्तगई ॥ २२॥ सूचित करने वाला वह गद्य-वाक्य ही है, और इससे
(इसके बाद दो पथ संस्कृतके हैं जो असम्बद्ध और ऐसा मालूम होता है कि पूनाका 'जगत्सुन्दरीप्रपिस जान पड़ते हैं)
योगमाला' अधिकार और यश कीर्तिका यह समूचा ग्रंथ मललित्तुंगवि विमलो णिज्जियभयमई विभवभीओ। दोनों एक दूसरेसे भिन्न हैं । विशेषनिर्णय पूनाकी प्रतिगणगच्छविसग्गंथो गिम्महियमउविदयसहिो ॥२५ के साथ इस प्रतिका मिलान करनेसे ही हो सकता है।
माशा है कोई विद्वान् महानुभाव इसके लिए जरूर जसइत्तिणामपयडो पयपयरुहजुअलपडियभन्वयणो ।
प्रयन करेंगे। सत्थमिणंजणदुलहं तेण हहिय (?)तमुद्धरियं ।। २६ वीरसेवामन्दिर, सरसावा सा० २०-६-३६
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बीमारी और आभार
प्रथम वर्ष ४) ० मूल्यमें टाइटिल महित
७२० पृष्ठ दिए गए थे, इस द्वितीय वर्ष में २।।) क० मैं ११ अगस्तसे बीमार पड़गया था। बीमारी..
में ही टाइटिल सहित ७३८ पष्ठ दिए गए हैं। फिर के अधिक बढ़नेपर पं० परमानन्दजी शास्त्रीने
भी स्थानाभावके कारण कितने ही उपयोगी लेख उसकी सूचना गत किरणमे अनेकान्तके पाठकोंको
प्रकाशित नहीं किए जा सके। अतः कुछ हितैषी दी थी। सूचनाको पाकर जिन सजनोंने मेरे दु.,
। बन्धुओंके आग्रहसे २॥) रु. के स्थान में अनेकान्तखमें अपनी हमदर्दी और महानभूति प्रकट की है ।
९ का वार्षिक मूल्य इम तृतीय वर्षसे ३) रु० किया और मेरे शीघ्र नीरोग होनेके लिये शुभकामनाए जा रहा है और पष्ठ संख्या ७३८ से बढ़ाकर ८५० तथा भावनाएँ की है उन सबका मैं हृदयसे बहुत देनेकी अभिलाषा है। यद्यपि यद्धके कारण काराज्ञ ही आभारी हैं। मेरा संकट यद्यपि टलगया जान
वगैरह की तेजीने अन्य पत्र संचालकोंको मूल्य पड़ता है, परन्तु कमजोरी अभी बहुत ज्यादा है
बढ़ाने और पृष्ठ घटानेके लिए विवशकर दिया है। और इमका तथा बीमारीक इतना लम्बा खिंचने
पर, अनेकान्त में यह परिवर्तन नहीं किया जा रहा का एक कारण यह भी है कि मुझे रोगशय्यापर है पड़े पड़े भी अनेकान्तका सम्पादनादि विषयक आठ आना मूल्य बढ़ा देने पर १०० पट्र कितना कार्य करना पड़ा है-सम्पादन कायेमें अधिक और चार प्राना पोष्टेजके यानी ३१) रु. किसीका भी सहयोग प्राप्त होनेके कारण मैं उसकी मनिबार्डरमे भेज देने पर दो उपहारी ग्रंथ तथा चिन्तासे सर्वथा मुक्त नहीं रह सका हूँ। आशा है ८० पृष्ट अनेकान्तकं मिलेंगे। आशा है कृपाल श्री वीरप्रभु और भगवान समन्तभद्रके पुण्य-स्मरणां ग्राहकांको यह योजना पसन्द आएगी। और वह
और पाठकोंकी शुभ भावनाओंके बलपर यह शीघ्र ही मनिश्राडरसे ३१) रु० भेजकर अनेकान्तकं कमजोरी भी शीघ्र दूर हो जायगी और मैं कुछ ग्राहक होते हुए उपहार भी प्राप्त करेंगे। दिन बाद ही अपना कार्य पर्ववत् करनेमें ममथ
-विनीत हो सकूँगा।
व्ववस्थापक जुगलकिशोर मुख्तार
'अनेकान्त' का उपहार
__ 'अनेकान्त'के उपहारमें दो ग्रन्थोंकी तजवीज अगले वर्षकी सूचना की गई है और वे दोनों ही तय्यार हैं--एक कृपालु लेखकों, कवियों, ग्राहकों, पाठकों और ममाधितंत्र मटीक, दृमरा जैनममाज दर्पण । अन्य हितैषी बन्धनोंकी असीम अनुकम्पाके बल- पहला ग्रन्थ श्रीपूज्यपाद आचार्यकृत मूल मंस्कृत पर अनेकातन्का यह द्वितीय वर्ष समाप्त हो रहा है. पयों, प्रभाचन्द्राचार्यकृत मंस्कृतटीका नया अपनी सामर्थ्यके अनुसार अनेकान्तको यथायोग्य पं० परमानन्द शास्त्रीकृत हिन्दी टीका और बनानेका प्रयत्न किया गया है। इसकी सेवामें जो मुनार श्री जगलकिशोरजीकी महत्वपर्ण प्रस्तावना भी समय और पैसा लगता है उसे हम अपने के साथ वीर-सेवा-मन्दिर ग्रन्थमालासं प्रकट हुआ जीवनका अमूलय और सदुपयोगी भाग समझते है-मम्पादन भी इमका मुख्तार माहिबने ही
किया है। यह ग्रन्थ बड़े आकारके १४० पृष्टमें __ यद्यपि अनेकान्तको बहुत कुछ उन्नत बनाने में - उत्तम कागज पर छपा है । दूमरा ग्रन्थ २०४३० हमारी सभी प्रकारकी शक्तियाँ सीमित और तुच्छ साइजके १६ पेजी आकारमें छपा है, जिसकी पृष्ट : हैं फिर भी हमारी भावना यही है कि अनेकान्त संख्या १४४ है । इस ग्रंथमें १०८ विषयों पर अनेक का व्यापक प्रचार हो, 'अनेकान्त' जिनेन्द्रभगवान- विद्वानोंकी अच्छी अच्छी कविताओंका संग्रह है का घर घरमें सन्देश-वाहक हो ।
और इसका सम्पादन पं० कमलकुमारजी जैन
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शास्त्रीने किया है । दूसरे ग्रंथकी सिर्फ ५२० प्रतियाँ सहित निकालना प्रारम्भ किया जायगा और इस ही उपहारके लिये श्रीमान सेठ नागालालजी जैन अंकमें उसके कमसे कम आठ पेज जरूर रहेंगे। छाबड़ा, बम्बई बाजार खण्डबाकी भोरसे भेंट माथ ही, सामग्रीके संकलन 'एतिहासिक जैनकोश' म्वरूप प्राप्त हुई हैं, इसलिये जिन ५०० ग्राहकोंका का भी निकल ना प्रारम्भ किया जायगा और उसके अगले वर्षका मूल्य सबसे पहले प्राप्त होगा उन्हें ही भी ८ पेजके रूपमें प्रायः एक फार्म जुदा रहेगा। इस वे भेटमें दी जायेंगी और समाधितंत्र ग्रंथ उन सब कोशमें महावीरभगवानकेसमयसे लेकर प्रायः अब ग्राहकोंको दिया जायगा जिनका मूल्य विशेषात तकके उन सभी दि० जैन मुनियों आचार्यों, भट्टानिकलनेसे पहले मनिबार्डर आदिसे वसूल हो रकों, संघों, गणों, विद्वानों, ग्रंथकारों, राजाओं, जायगा अथवा विषाकी बी. पी. द्वारा प्राप्त हो मंत्रियों और दूसरे खास खास जिनशासन सेवियोंजायगा। अतः ग्राहकोंको, जहाँ तक भी हो सके, का उनकी कृतियों महित संक्षेपमें वह परिचय अगले वर्षका मूल्य मनिारसे भेजनेकी शीघ्रता रहेगा जो अनेक ग्रंथों, ग्रन्थ प्रशस्तियों, शिलालेखों करनी चाहिये।
और ताम्रपत्रादिकमें बिखरा हा पड़ा है। इससे जिन ग्राहकोंका मूल्य विशेषाङ्क निकलनेसे पहले भारतीय ऐतिहासिक क्षेत्रमें कितना ही नया प्रकाश प्राप्त नहीं होगा, उन्हें विशेषाङ्क श)की वी० पी. पड़ेगा । और फिर एक व्यवस्थित जैन इतिहास से भेजा जायगा, जिसमें तीन रुपया मूल्यके अति- सहज ही में तय्यार होसकेगा। इसके सिवाय, जो रिक्त ।) उपहारी पोष्ठेज खर्च और 2) वी.पी. खर्च 'जैनलक्षणावली' बीरसेवामन्दिरमें दो ढाई वर्षसे . का शामिल होगा।
तय्यार हो रही है उसका एक नमूना भी सर्वसाजो सज्जन किसी कारणवश अगले वर्ष ग्राहक धारणके परिचय सभा विद्धानोंके परामर्श लिय न रहना चाहें वे कृपया १५वीं किरणके पहुँचने पर
- साथमें देनेका विचार है, जो प्रायः एक फार्मका
, उसमें निम्न पतेपर सूचित करदेवें, जिससे अने
होगा। कान्त-कार्यालयको बी० पी० करके व्यर्थका नुकसान
जिन ग्राहकोंका मूल्य पेशगी वसूल हो जायगा न उठाना पड़े। कोई सूचना न देनेवाले सज्जन ।
उन्हें यह अंक प्रकाशित होते ही शीघ्र समय पर अगले वर्षके लिये ग्राहक समझे जायेंगे और उन्हें मिल जायगा, शेषको वी० पी० से भेजा जायगा। विशेषाङ्कवी० पी० से भेजा जायगा।
चूंकि डाकखाना बहुतसे वी० पी० पैकट एक साथ
नहीं लेता ई-थोड़े थोड़े करके कितने ही दिनों में व्यवस्थापक 'अनेकान्त' लेता है इसलिये जिन ग्राहकोंका मूल्य पेशगी कनॉट बोक्स नं०
नहीं पायेगा उन्हें विशेषाकृके बहुत कुछ देरसे 'अनेकान्त' का विशेषाङ्क
मिलनेकी संभावना है। साथ ही, वी० पी० के
खर्चका तीन आना चार्ज भी और बढ़ जायगा। 'अनेकान्त' की अगली किरण अर्थात् तृतीय इमलिये यह मुनासिब मालूम होता है कि ग्राहकवर्षका प्रथम भाबीर शासनाई नामका विशे- जन आगामी वर्षके लिये निश्चित मूल्य ३) रु० षाकहोगा । पृष्ठ संख्या भी इसकी पिछले विशेषाङ्क उपहारी पोष्टेज।) सहित शीघ्र मनिआर्डर आदि से अधिक १५० पेजके करीब होगी। इसमें अच्छे- द्वारा नीचे लिखे पतेपर भेज देखें। ३१) आते ही अच्छे विद्वानों के महत्वपूर्ण लेख रहेंगे और उनके उन्हें उपहारकी पुस्तकें भेजदी जायेंगी। जो सजन द्वारा कितनी ही महत्वकी ऐसी बातें पाठकोंके उपहार न लेना चाहें वे ३) ही भेज सकते हैं। सामने पाएँगी, जिनका उन्हें अभी तक प्रायः कोई पता नहीं था। सबसे बड़ी विशेषता यह होगी कि
• व्यवस्थापक 'अनेकान्त' । इस अंकसे धवलावि 'भुतपरिचय' को मूल सूत्रादि कनॉट सर्कस, पो० बोक्स नं०४८, न्यू देहल ।
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