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________________ ' वर्ष २ किरण ५ मूलाचार संग्रह ग्रंथ है • कुछ वर्णन ज़रूर है; परन्तु वह मूलाचारके वर्णनसे भिन्न इस परसे यह अनुमान होता है कि या तो प्राचार्य जान पड़ता है । हो सकता है कि व्याख्याप्रज्ञप्ति नामका अमृतचन्द्र के सामने मूलाचारका उक्त प्रकरण था और कोई दूसरा ही ग्रंथ दिगम्बर सम्प्रदायमें उस समय मौजूद या उक्त प्रकरणा के रचयिताके सामने तत्त्वार्थसार मौजूद हो और उस परसे उक्त कथनको ज्यों का त्यों देखकर था-एकने दुतरेकी कृतिको अपने ग्रंथमें अनुवादित हो 'सारसमय' का दूसरा नाम व्याख्याप्रज्ञप्ति लिख दिया किया है । संभव है 'सारसमय' का अभिप्राय तत्वार्थमारहो अथवा सारसमयका दूसरा नाम ही व्याख्याप्रज्ञप्ति हो । से ही हो, और यह भी संभव है कि 'सारसमय' नामका कुछ भी हो, मूल ग्रंथके देवं बिना निश्चितरूपसे कुछ कोई दूसरा ही प्राचीन ग्रंथ हो और उसी परसे दोनों ग्रंथभी नहीं कहा जा सकता । ऐसे ग्रंथकी तलाश होनी कारांने उसे अपने अपने ग्रंथमें अपनाया हो। ये सब चाहिये। बातें विद्वानांके लिये विचार किये जाने के योग्य हैं। यहां पर मैं इतना और भी प्रकट कर देना चाहता मूलाचार के पटावश्यक अधिकार में, छहों श्रावहूँ कि मूलाचारका उक्त गति श्रागति-विषयक कथन श्यकोंकी नियुक्तियोंका वर्णन है । श्वेताम्बर सम्प्रदायम अमृतचन्द्र श्राचार्य के 'तत्त्वार्थसार' में अर्थतः ज्योंका कुछ ग्रन्थों पर जो नियुक्तियाँ पाई जाती है वे यद्यपि त्यों पाया जाता है, सिर्फ मूलाचारकी ११६२ और भद्रबाहु स्वामीकी बनाई हुई कही जाती हैं और प्राचीन ११८४ नं ० की दो गाथाओंका कथन नहीं मिलता, जो भी जान पड़ती हैं परन्तु उनका संकलन श्वेताम्बराचार्य प्रतिज्ञा-वाक्य और उपसंहारकी सूचक हैं और संग्रहकर्ता- देवर्द्धिगणिके समय में हुअा है, जो वीर निर्वाण संवत् के द्वारा स्वयं रची गई जान पड़ती हैं । तुलनाके लिये, ६८० (वि० सं० ५१०) कहा जाता है । इन नियुक्तिनमूनेके तौर पर, मूलाचारकी दो गाथाएँ तत्त्वार्थसारके ग्रंथों में श्रावश्यक नियुक्ति नामका भी ग्रन्थ है । इमको पद्यों सहित नीचे उद्धृत की जाती हैं देखने और मूनाचार के साथ तुलना करने पर मालम तिएहं खल कायाणं तहेव विगलिदियाण सव्वेसि । हुया कि कितनी को गाथाएँ जो श्रावश्यक नियुक्ति में अविरुद्धं संकमणं माणुसतिरिएसु भवेसु ॥ मिलती है व मूलाचारके उक्त अधिकारमें भी ज्यांकी –मूलाचार, ११६४ त्यों अथवा कुछ पाटभेद या थोड़से शब्द-परिवर्तन के त्रयाणां खलु कायाना विकलात्मनामसंजिनाम् । साथ पाई जाती है । नमूने के तौर पर मूलाचार श्रीर मानवानां तिरश्चां वाऽविरुद्धं संक्रमो मिथः ॥ श्रावश्यक-नियुनिकी ऐमी कुछ गाथाएँ. इस प्रकार ' -तत्त्वार्थसार, २-१५४ सव्वे वि तेउकाया सन्चे तह वाउकाइया जीवा । रागद्दीसकसाये इंदियाणि य पंच य । ण लहंति माणुसत्तं णियमा दु अणंतरभवेहि ॥ परीसह उबसग्गे पासयंतो गमोऽरिहा ॥ -मूलाचार, ११६५ -मूला०, ५०४ सर्वेपि तैजसा जीवाः सर्वे चानिलकायिकाः । रागद्दीसकसाए इंदिप्राणि अपंच वि। मनुजेषु न जायन्ते ध्रुवं जन्मन्यन्तरे । परीसह उवसांग नासयंतो नमोऽरिहा ॥ -तत्त्वार्थसार, २-१५७ -श्राव०नि०,६१८
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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