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________________ ३२० अनेकान्त [फाल्गुन, वीर-निर्वाण ०२४६५ कर्ता प्राचार्य कुन्दकुन्द नहीं है और न इसकी रचना कुछ पाठभेद या परिवर्तनादिके साथ संग्रह पाया जाता एक ग्रन्थके रूपमें हुई है। किन्तु यह भिन्न भिन्न १२ है उसका परिचय नीचे दिया जाता है । ऊपरकी सब प्रकरणोंका एक संग्रह ग्रंथ है, जिनमेंसे एकका दूसरे परिस्थिति और नीचे दिये हुए परिचय परसे विद्वान् प्रकरणके साथ कोई घनिष्ट सम्बन्ध मालूम नहीं होता- पाठकोंको यह भले प्रकार मालूम हो सकेगा कि मूलाचार अर्थात् एक प्रकरणके कथनका सिलसिला दूसरके साथ कोई स्वतन्त्र ग्रंथ न होकर एक संग्रह ग्रंथ है। इसी ठीक नहीं बैठता । ग्रन्थके शुरूमें ग्रंथके नामादिको लिये विज्ञापनाके लिए इस लेखका सारा प्रयत्न है:हुए कोई प्रतिज्ञा-वाक्य भी नहीं और न ग्रन्थके प्रकरणों इस ग्रंथके 'पर्याप्ति'नामक अन्तिम अधिकारमें गतिअथवा अधिकारोंका ही कोई निर्देश है-प्रत्येक प्रकरण आगतिका कुछ वर्णन 'सारसमय' नामक ग्रंथसे लेकर अपने अपने मंगलाचरण तथा कथनकी प्रतिज्ञाको लिये रक्खा गया है; जैसा कि उसकी गाथा नं. ११८४ के हुए है । इससे यह ग्रन्थ जुदे जुदे बारह प्रकरणोंका निम्न पूर्वार्धसे प्रकट हैएक संग्रह ग्रंथ जान पड़ता है । १२वाँ 'पर्याप्ति' नामका “एवं तु सारसमए भरिणदा दु गदीगदी मए किंचि ।" अधिकार तो श्राचारशास्त्रके साथ कोई खास सम्बन्ध इस गाथाकी व्याख्या करते हुए श्रीवसुनन्दी भी नहीं रखता, और इस लिये वह इन प्रकरणोंकी श्राचार्यने लिखा हैनिर्माण-विभिन्नता और संग्रहत्वको और भी अधिकताके "एवं तु अनेन प्रकारेण 'सारसमये' व्याख्यामाथ सूचित करता है । परन्तु यह नहीं कहा जा सकता प्रज्ञप्त्या सिद्धान्ते तस्माद्वा भणिते गत्यागती गतिश्च कि इन सब प्रकरणोंका निर्माण किमी एक विद्वान्के भणिता आगतिश्च भणिता मया किंचित् स्तोकरूपेण। द्वारा हुश्रा है । हाँ, इतना हो सकता है कि किसी एक सारसमयादुद्धृत्य गत्यागतिस्वरूपं स्तोकं मया विद्वान के द्वारा इनका संग्रह तथा इनमें संशोधन-परि- प्रतिपादितमित्यर्थः।" वर्धनादि होकर 'मलाचार' नाम दिया गया हो । कुछ इसी संस्कृत टीकाका अाश्रय लेकर भ.पा-टीकाकार भी हो. ग्रंथ में प्रायः प्राचीन श्राचार्यों के वाक्योंका ही पं० जयचन्दनीने भी लिखा है कि-"इस प्रकार व्याख्या मंकलन किया गया है और वह संकलन शिवार्य विरचित प्राप्ति नामके सिद्धान्त ग्रंथ मेंसे लेकर मैंने कुछ गति'भगवती श्राराधना' के बादका जान पड़ता है; क्योंकि प्रागतिका स्वरूप कहा ।" समय की सबसे अधिक गाथाग्रीको मूलाचारमें अप. प्राचार्य वसुनन्दीने 'सारसमय'का अर्थ जो व्याख्यानाया गया है। प्रजति नामका सिद्धान्त ग्रंथ किया है वह किस श्राधार __ श्रीकुन्दकुन्दाचार्य के ग्रंथोंसे जिन गाथानों तथा पर किया है, यह कुछ मालूम नहीं होता । मूल ग्रंथके माधा-याक्योंका इस ग्रंथम संग्रह किया गया है उसका उस उल्लेख परसे तो ग्रंथका नाम 'सारगमय' ही जान कुछ दिग्दर्शन, मैं अपने पिछले लेखमें-क्या कुन्दकुन्द पड़ता है, जो कोई प्राचीन ग्रंथ होना चाहिये । ही मूलाचारके कर्ता हैं !' इम शीर्षक के नीचे-करा श्वेताम्बर समाज में 'भगवती सूत्र' को व्याख्याप्रज्ञप्ति नका ई । कुन्दकुन्द के ग्रंथोंसे भिन्न जिन दूसरे ग्रंथों नामका पाँचवां अंग माना जाता है । उसका अवलोकन अथवा दूसरे प्राचार्य वाक्योंका इसमें ज्योंका त्यों तथा करनेसे मालूम हुआ कि उसमें संक्षिप्तरूपसे गति आगतिका
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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