SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 396
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त [चैत्र, वीर-निर्वाण सं० २४६५ रहा है। किन्तु इस प्रकार कर्मोके महाजालमें फँसा निगोदिया जीवों तकको भी कुछ न कुछ शान जरूर रहकर भी जीवका निज स्वभाव सर्वथा नष्ट नहीं हो होता है यह दोनों शान ज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशम गया है और न सर्वथा नष्ट हो ही सकता है । से ही होते हैं । जीवके स्वभावको बिल्कुल नाश कर इस कारण कर्मोंके जाल में पूरी तरह फँसे हुये भी जीव- देने वाले कर्मके बड़े हिस्सेका बिना फल दिये नाश हो की शानादि शक्तियाँ कुछ न कुछ बाकी जरूर रहती हैं, जाना, हल्का असर करने वाले हिस्सेका फल देना और जिनके कारण ही वह अजीव पदार्थोंसे अलग पहचाना बाकी हिस्सेका श्रागेसे फल देने के वास्ते सत्तामें रहना जाता है और जीव कहलाता है। इन ही बची हुई क्षयोपशम कहलाता है । शक्तियों के द्वारा पुरुषार्थ करके वह कर्मों के बन्धनोंको यह ऐसा ही है जैसा कि शरीरमें कोई दुखदाई कम और कमजोर कर सकता है और होते होते सब ही मवाद इकट्ठा हो जाने पर या कोई नुक्सान करनेवाली बन्धनोंको तोड़कर सदाके लिये अपना असली ज्ञानानन्द वस्तु खा लेने पर उसको के या दस्तके द्वारा निकाल स्वरूप प्राप्त कर सकता है। अपने इस असली स्वभाव- डालना, या किसी दवा के द्वारा उसका असर रोक देना को प्राप्त कर लेने के बाद फिर कभी कोई कर्म उसके या कुछ निकाल देना और कुछ असर होते रहना। पास तक भी नहीं फटकने पाता है और न कभी उसका जिस तरह किसी दवाईके ऊपर दूसरी दवाई खानेसे पहली किसी प्रकार का बिगाड़ ही कर सकता है। खाई हुई दवाई जल्द ही अपना असर शुरू कर देती कर्मफल देकर नित्य ही झड़ते रहते हैं और नये २ है उस ही तरह एक कर्म जो बहुत देरमें फल देने वाला बंधते रहते हैं परन्तु तपके द्वारा कर्म बिना फल दिये हो, किसी कारणसे तुरन्त ही फल देने लग जाता है, भी नाश हो जाते हैं । साधारण गृहस्थी भी दर्शन जिसको कर्मकी उदीरणा कहते हैं । कर्मका अपने समय मोहनीयकी तीन और चारित्र मोहनीयकी चार कर्म पर फल देना उदय कहलाता है और समयसे पहले फल प्रकृतियोंका क्षय, उपशम वा क्षयोपशम करके ही देना उदीरणा है। सम्यकभद्धानी होता है। किसी कर्मका बिल्कुल ही कोंका पैदा होना और बँधना भी रुक सकता है। नाश कर देना ही क्षय है, फल देनेसे रोक देना उपशम जिसको सँवर कहते हैं । मूलकर्म श्राट हैं और उनके है और कुछ क्षय, कुछ उपशम तथा कुछ उदयका भेद अर्थात् उत्तर प्रकृति १४८ हैं । इनमेंसे ४१ प्रकनाम क्षयोपशम है । संसारी जीव कोई भी ऐसा नहीं है तियोंका बँधना तो सम्यक् श्रद्धान होते ही रुक जाता है जिसको कुछ न कुछ मतिज्ञान और श्रुतज्ञान न हो। अणुव्रती श्रावक होने पर और भी १० प्रकृतियाँ बँधनेसे रुक जाती हैं, इस ही तरह आगे श्रागे बढ़ने देखो गोमट्टसार गाथा २६ की संस्कृत टीका और पं. टोडरमलजीका हिंदी अनुवाद । पर और प्रकृतियोंका भी बँधना रुकता जाता है। किसी देखो भगवती श्राराधनासार गाथा १८५. की समयके भले बुरे परिणामोंके कारण पहली बँधी हुई कर्म संस्कृत टीका अपराजितसूरि कुन तथा लब्धिसारकी प्रकृतियाँ एक उत्तर प्रकृतिसे दूसरी उत्तर प्रकृतिमें बदल टीका टोडरमलजी कृतमें गाथा ३९२ के नीचेका प्रश्नो- देखो गोमट्टसार जीवकांड गाथा १३ की संस्कृत टीका और पं० टोडरमलजी कृत हिन्दी अनुवाद ।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy