________________
वर्ष २, किरण ६]
भाग्य और पुरुषार्थ
३६१
जाती है-जैसे कि सुख देने वाली साता और दुख करते हैं, यह बात सब ही सांसारिक कार्योंमें स्पष्ट दिखाई देने वाली असाता ये वेदनीय कर्मकी दो उत्तर प्रकृतियाँ देती है। मनुष्य अपने पुरुषार्थ से खेती करके तयसातासे असाता और असातासे साता हो सकती है, तरहके अनाज, तरह-तरहकी भाजी और तरह-तराके अर्थात् किसी समय के भले बुरे कर्मोंकी ताकतसे पहला फल पैदा करता है; एक वृक्षकी दूसरे वृक्षके साथ बँधा हुआ पुण्य कर्म बदल कर पाप रूप हो सकता है कलम लगाकर उनके फलोको अधिक स्वादिष्ट और और पाप बदल कर पुण्य हो सकता है।
रसभरे बनाता है। अनाजको पीस-पोकर और भागसे ___ यह बात ऐसी ही है जैसे कि दूध पीनेके बाद कोई पकाकर सत्तर प्रकारके सुस्वाद भोजन बनाता है। मिहीसे तेज़ खटाई खाले, जिससे वह दूध भी फटकर दुखदाई इंटें बनाकर, फिर उनको भागमें पकाकर भाकायले हो जाय, या पेटमें दर्द कर देने वाली कोई वस्तु खाकर बातें करनेवाले बड़े-बड़े ऊंचे महल चिनता है। हजारों फिर कोई ऐसी पाचक औषधि खा लेना जिससे पहली प्रकारके सुन्दर-सुन्दर वस्त्र बनाता है, लकड़ी, लोहा, खाई हुई वस्तु तुरन्त पचकर सुखदाई हो जाय । इस तांबा, पीतल, सोना, चाँदी अदि ढूंढ कर उनसे अनेक ही प्रकार कर्मोंके फल देनेकी शक्ति भी बदल कर हल्की चमत्कारी वस्तुएँ पड़ लेता है; काग़ज़ बनाकर पुस्तके भारी हो सकती है और कर्मोके कायम रहनेका समय लिखता है और चिठियाँ भेजता है; तार, रेल, मोटर, भी घट बढ़ सकता है। इस सब अलटन-पलटनको ऍजिन, जहाज, घड़ी, घंटा, फोन, सिनेमा श्रादिक अनेक संक्रमण कहते हैं ।
प्रकारकी अद्भुत कलें बनाता है और नित्य नयेसे नई ____ साराँश इस सारे कथनका यह है कि कर्म कोई बनाता जाता है; यह सब उसके पुरुषार्थकी ही महिना ऐसी अटल और बलवान शक्ति नहीं है जो टाली टल है। पशु इस प्रकारका कोई भी पुरुषार्थ नहीं करते हैं, ही न सके । उसको सबही जीव अपने पुरुषार्थसे सदा इस ही कारण उनको यह सब वस्तुएँ, प्राप्त नहीं होती है, हो तोड़ते मरोड़ते रहते हैं।
उनका भाग्य वा कर्म उनको ऐसी कोई वस्तु बनाकर तीव्र कषाय करनेसे पाप बँध होता है और मन्द नहीं देता है, घास-फूस जीव-जन्तु आदि जो भी वस्त कषायसे पुण्य, जो लोग कर्मोंके उदयसे भड़कने वाली स्वयं पैदा हुई मिलती है उस ही पर गुजारा करना पड़ता कषायको भड़कने नहीं देते । कर्मोको अपना असर नहीं है, बरसातका सारा पानी, जेठ असादकी सारी धूप, करने देते । अपने परिणामोंकी पूरी पूरी सम्हाल रखते शीत समयका सारा पाला अपने नंगे शरीर पर ही है, वे पुण्य बन्ध करते हैं और जो कुछ भी सावधानी झेलना पड़ता है, और भी अन्य अनेक प्रकारके असा नहीं रखते, भड़काने वाले कर्मोका उदय होने से परि- दुःख पुरुषार्थहीन होनेके कारण सहने पड़ते हैं! णामोंको चाहे जैसा भड़कने देते हैं वे पाप बंध करते इसके उत्तर में शायद हमारे कुछ भाई यह काने है, और दुख उठाते हैं।
लगें कि मनुष्योंको उनके कर्मोंने ही तो ऐसा शान और पुरुषार्थहीनके प्रायः सब ही कार्य नष्ट भ्रष्ट होते हैं ऐसा पुरुषार्थ करनेका बल दिया है जिससे वे ऐसी और पुरुषार्थ करनेवालेके प्रायः सब कार्य सिद्ध हुआ ऐमी अद्भुत वस्तुएँ बना लेते हैं, पशुओंको उनके कोने
• देखो गोमट्टसार कर्मकांड गाथा ४३८, ४३६। ऐसा ज्ञान और पुरुषार्थ नहीं दिया है, इस कारण