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________________ भाग्य और पुरुषार्थ [तकदीर और तदबीर] [ले० श्री० बाबू सूरजभानुजी वकील] भाग्य, दैव, किस्मत वा तकदीर क्या है और रास्ता बताता रहे और अन्धा चलता रहे तो दोनों ही पुरुषार्थ, उद्यम, तदबीर वा कोशिश क्या बनसे बाहर हो जावेंगे । इसी प्रकार भाग्य और पुरुषार्थ है ? भाग्यसे ही सब कुछ होता है वा जीवकी अपनी दोनों ही के सहारे संसारी जीवोंके कार्योंकी सिद्धि होती कोशिश भी कुछ काम कर सकती है ? और श्रगर दोनों है किसी एकसे नहीं। ही शक्तियोंके मेलसे कार्य होता है तो इनमें कौन भाग्य और पुरुषार्थ क्या है, इसको भी विद्यानन्द बलवान् है और कौन निर्बल ? भाग्यकी शक्ति कितनी है स्यामीने श्रष्टसहस्रीम (श्लोक नं०८८ की टीकामें) इस और पुरुषार्थकी कितनी ? भाग्यका काम क्या है और प्रकार स्पष्ट किया है-"पहले बांधे हुए कर्मों ही का पुरुषार्थका क्या ? इन सब बातोंको जानना मनुष्यके नाम देव (भाग्य या किस्मत) है, जिसको योग्यता भी लिये बहुत ही ज़रूरी है । अतः इस लेख में हन ही सब कहते हैं, और वर्तमानमें जीव जो तदबीर, कोशिश या बातोंको स्पष्ट करनेकी कोशिश की जायगी। चेष्टा करता है वह पुरुषार्थ है।" (भावार्थ जो पुरुषार्थ ___ एकमात्र भाग्यसे ही वा एकमात्र पुरुषार्थसे ही किया जा चुका है और जिसका फल जीव भोग रहा है कार्यकी सिद्धि माननेको दूषित ठहराते हुए श्रीनेमिचन्द्रा- वा भोगेगा वह तो भाग्य कहलाता है और जो पुरुषार्थ चार्य गोम्मटमार कर्मकांड गाथा ८६४ में लिखते हैं कि, अब किया जा रहा है वह पुरुषार्थ कहलाता है । वास्तव यथार्थ ज्ञानी भाग्य और पुरुषार्थ दोनों ही के संयोगसे में दोनों ही पुरुषार्थ है-एक पहला पुरुषार्थ है और कार्यकी सिद्धि मानते हैं, एक पहियेस जिस प्रकार दूसरा हालका पुरुषार्थ । गाड़ी नहीं चल सकती, उसी प्रकार भाग्य वा पुरुषार्थमें जीवका असली स्वरूप सर्वदर्शी, सर्वश, मर्यसे किसी एकसे ही कार्यकी सिद्धि नहीं हो सकती। शक्तिमान्, और परमानन्द है, परतन्त्रता इन्द्रियोंकी अथवा बनमें आग लग जानेपर जैसे अंधा पुरुष दौड़ने श्राधीनता, राग, देष, मोह-श्रादि उसका असली भागनेकी शक्ति रखता हुश्रा भी बनसे बाहर नहीं हो स्वभाव नहीं है । परन्तु अनादि कालसे यह जीव कर्मोसकेगा वैसे ही एक लंगड़ा पुरुष देखनेकी शक्ति रखता के बन्धनमें पड़ा हुश्रा, अपनी शनादि शक्तियोंको बहुत हुआ भी बाहर नहीं निकल सकेगा । हाँ, अगर अन्धा कुछ खोकर, राग, द्वेष और मोहके जालमें फंसा हुआ, लंगड़ेको अपनी पीठ पर या कंधे पर चढ़ा ले, लंगड़ा शरीर रूपी कैदखाने में बन्द पड़ा तरह तरके दुख मोग
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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