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________________ अनेकान्त मार्गशिर वीर-निर्वाण सं० २४६५ किया, जिससे जरत्कुमार हुश्रा । जरत्कुमारने मुनि विद्युद्वेगोपि गौरीणां विद्यानां स्तंभमाश्रितः। दीक्षा ग्रहणकी थी। (११) महाराजा श्रेणिक कृतपूजास्थितः श्रीमान्स्वनिकायपरिष्कृतः ।। पहले बौद्ध थे तब शिकार खेलते थे और घोर । पृष्टया वसुदेवेन तनो मदनवेगया । हिंसा करते थे, मगर जैन हुए. तब शिकार आदि व्यसन त्याग कर जैन-धर्मके प्रतिष्ठित अनुयायी विद्याधरनिकायास्ते यथास्वमिति कीर्तिताः॥ कहलाये । (१२) विद्युतचोर चोरोंका सरदार होने पर भी जम्बू स्वामीके साथ मुनि होगया और तप करके सर्वार्थसिद्धि गया। वैश्यागामी चारुदत्त भी अमी विद्याधरा धार्याः समासेन समीरितः । मुनि होकर सर्वार्थसिद्धि गये। (१३) यमपाल मातंगानामपि स्वामिनिकायान् श्रृणु वच्मिते॥ चाण्डाल जैन-धर्मकी शरणमें आनेसे देवों द्वारा नीलांबुदचयश्यामा नीलांबरवरस्रजः । पूज्यनीय हुआ।" (पृ० ११ और ४३) अमी मातंगनामानो मातंगस्तंभसंगताः ।। उक्त उद्धरणोंसे स्पष्ट होजाता है कि जैन-धर्मका श्मशानास्थिकृत्तोत्तंसा भस्मरेणुविधूसराः । क्षेत्र कितना व्यापक और महान है । उसमें कीटपतंग,जीव-जन्तु, पशु और मनुष्य सभीके उत्थानकी श्मशाननिलयास्त्वेते श्माशानस्तंभमाश्रिताः।। महान शक्ति है । सभीको उसकी कल्पतरु शाखाके नीलवैडूर्यवर्णानि धारयंत्यंबराणि ये । नीचे बैठ कर सुख-शान्ति प्राप्त करनेका अधिकार पाण्डुरस्तंभमेत्यामी स्थिताः पाण्डुकखेचराः ।। है । जैन-धर्म किसी वर्ग विशेष या जाति विशेष कृष्णाजिनधरास्त्वेते कृष्णचर्माम्बरस्रजः। की मीरास नहीं है। जैन-धर्मके मन्दिर में सभी कानीलस्तंभमध्येत्य स्थिताः कालश्वपाकिनः॥ समान रूपसे दर्शन और पूजनार्थ जाते थे। इस सम्बन्धका उल्लेख श्रीजिनसेनाचार्य के हरिवंश पिंगलमूर्ध्वर्युक्तास्तप्तकांचनभूषणाः । पुराणमें पाया जाता है जो कि श्रद्धेय पं० जुगल- श्वपाकीनां च विद्यानां श्रितास्तंभ श्वपाकिनः ।। किशोरजी कृत विवाह-क्षेत्र प्रकाश नामकी पुस्तक- पत्रपर्णाशकच्छच-विचित्रमुकुटसजः । से उद्धृत करके पाठकोंके अवलोकनार्थ यहाँ दिया पार्वतेया इति ख्याता पार्वतस्तंभमाश्रिताः॥ जाता है : वंशीपत्रकृतोत्तंसाः सर्वर्तुकुसुमस्रजः । सस्त्रीकाः खेचरा याताः सिद्धकूटजिनालयम्। वंशस्तंभाश्रिताश्चैते खेटा वंशालया मताः॥ एकदा वंदितु सोपि शौरिर्मदनवेगया ॥ महाभुजगशोमांकसंदृष्टवरभूषणाः । कृत्वा जिनमहं खेटाः प्रवन्ध प्रतिमागृहम्। वृक्षमूलमहास्तममाश्रिता वार्यमूलकाः ।। तस्थुःस्तंभानुपाश्रित्य बहुवेषा यथायथम् ॥ स्ववेषकृतसंचाराः स्वचिहकतभूषणाः ।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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