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गाथा
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हमारे पराक्रमी पूर्वज
वीरसेनाचार्य
[ ले.- अयोध्याप्रसाद गोयलीय ] सन् १४७८ ईस्वीकी बात है, जब जैनों पर भी का मूल है। ऐसे ही कुछ विचारोंके चक्कर में पड़कर
बौद्धोंकी तरह काफ़ी सितम ढाये गये थे। जैन जन अपनी राज्य सत्ता लुटा बैटे थे, प्राचीन कोल्हुओंमें पेलकर, तेल के गरम कढ़ानों में प्रोटा गौरव ग्वा बेटे थे, फिर भी वंशज तो नर-केसरियों के कर, जीवित जलाकर और दीवारोंमें चुन कर उन्हें थे । वनका सिंह अपनी जवानी, तेज और शौर्य खो देने म्वगंधाम (2) पहुँचाया गया था ! जो किसी प्रकार बच पर भी मूंछ का बाल क्या उखाड़ने देगा ? वह दलदल रहे, वे जैसे तैसे जीवन व्यतीत कर रहे थे। में फंसे हाथी के समान तो अपमान सहन कर नहीं सकेगा ?
उन्हीं दिनों दक्षिण-अर्काट ज़िलेके जिंजी प्रदेश भलेही जैन अपना पूर्व वैभव तथा बल विक्रम सब गँवा बैठे का वेंकटामयेदृई राजा था। इसका जन्म कवरई नाम थे, परन्तु जैनधर्मद्वपी नीच कुलोत्पन्न राजाको कन्या की नीच जाति में हुआ था। उच्च कुलोत्पन्न कन्या- देदें, यह कैसे हो सकता था ? यह उम कन्या और वरण करके उच्चवंशी बननेकी लालमाने उसे वहशी कन्याके पिताका ही नहीं, वरन ममचे जैनसंघके अप बना दिया था । उसने जैनियोंको बुलाकर अपनी मान और उसकी प्रान-मानका प्रश्न था । यह अभिलापा अभिलाषा प्रकट की, कि वे अपने समाजकी किसी प्रकट करने का साहस ही राजाको कैसे हुआ ? यही सुन्दरी कन्यासे उसका विवाह करदें !
क्या कम अपमान है । इस धृष्टताका तो उत्तर देनाही राजाके मुखसे उक्त प्रस्तावका सुनना था, कि चाहिये, पर विचित्र ढंग से, यही सोचकर जैनियोंने जैनी वज्रहते से रह गये ! यह माना कि 'संसार असार कन्या विवाह देनेकी स्वीकृति देदी । है, जीवन क्षणभंगुर है, राज्य वैभव नश्वर एवं पाप नियत समय और नियत स्थान पर राजा की बारात