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________________ २३६ अनेकान्त [माघ, वीर-निर्वाण सं० २४६५ पहुँची, किन्तु वहां स्वागत करनेवाला कोई न था। सिंहके गोली खाने पर जो स्थिति होती है, वही विवाह की चहल-पहल तो दरकिनार, वहां किसी मनुष्य उक्त ग्रहस्थ महाशयकी हुई । वे चुटीले सांप की तरह का शब्द तक भी सुनाई न देता था। घबड़ाकर मकान क्रोधित हो उठे ! 'बचजानेसे तो मरजाना कहीं श्रेष्ठ का द्वार खोलकर जो देखा गया तो, वहां एक कुतिया था, क्या हम छद्मवेपी बने इसी तरह धर्मका अपबैठी हुई मिली, जिसके गले में बन्धे हुए काग़ज़ पर मान सहते हुए जीते रहेंगे- इन्हीं विचारों में निमग्न लिखा था “राजन ! आपसे विवाह करनेको कोई जैन- होकर मारे मारे फिरने लगे, वापिस घर न गये और बाला प्रस्तुत नहीं हुई, अतः हम क्षमा चाहते हैं । श्राप श्रवणबेलगोला में जाकर जिन-दीक्षा ग्रहण करके मुनि इस कुतियासे विवाह कर लीजिये और जैनकन्या की होगये । उन्होंने खूब अध्ययन कर के जैनधर्म का पर्याप्त आशा छोड़ दीजिये । सिंहनी कभी शृगालको वरण ज्ञान प्राप्त किया । और फिर सारे दक्षिणमें जीवनकरते हुए नहीं सुनी होगी।" ज्योति जगा दी । सौ जैन रोज़ाना बनाकर आहार वाक्य क्या थे ? ज़हर में बुझे हुए तीर थे । आदेश ग्रहण करने की प्रतिज्ञा की । यह आज कल के साधुओं हा राज्यभर के जैनियोंको नष्ट कर दिया जाय । जो जैसी अटपटी और जनसंघ को छिन्न-भिन्न करने जैनधर्म परित्याग करें उन्हें छोड़कर बाकी सब पर लोक वाली प्रतिज्ञा नहीं थी । यह जान पर खेल जाने वाली भेज दिये जाएँ । राज्याज्ञा थी, फौरन तामील की गई। प्रतिज्ञा थी। मगर जो इरादे के मज़बूत और बातके जो जैनत्वको खाकर जीना नहीं चाहते थे, वे हँसते हुए धनी होते हैं, व मृत्युसे भी भिड़ जाते हैं । और सफमिट गये । कुछ बाह्य में जैनधर्म का परिधान फेंककर छद्म- लता उनके पांव चूमा करती है । अतः निर्भय होकर वेषी बन गये। और कुछ सचमच जैनधर्म छोड़ बैठे ! उन्होंने धीमे पर चोट जमाई और वे गाली, पत्थर, जैनधर्म के बाह्य आचार-जिन दर्शन, रात्रि भोजन- भयङ्कर यंत्रणाश्री तथा मान-अपमान की पर्वाह न कर त्याग और छना हुआ जलपान--सब राज्य द्वारा अपराध के कार्य-क्षेत्र में उतर पड़े। हार्थीकी तरह झूमते हुए घोषित कर दिये गये। अपराधीको मृत्यु-दण्ड देना जिधर भी निकल जाते थे, मृतको में जीवन डाल देते निश्चत् किया गया । परिणाम इसका यह हुआ कि थे। उनके सत्प्रयत्नसे बिखरीहुई शक्ति पुनःसञ्चित हुई। धीरे-धीरे जनता जैनधर्म को भलने लगी और अन्य धर्म जो जैन छद्मवेशी बने हुए थे वे प्रत्यक्ष रूप में के आश्रय में जाने लगी। वीर-प्रभुके झण्डे के नीचे सङ्गठित हए और जो जैन इन्हीं दिनों दुर्भाग्यसे क्यों, सौभाग्यसे कहिये, नहीं रहे थे, वे पुनः जैनधर्म में दीक्षित किए गये। एक ग्रहस्थ महाशय टिण्डीवनमके निकट बेलूर में साथ ही बहुतसे अजेन जो जैनधर्मको अनादरकी एक वापी के किनारे छुपे हुए जल छानकर पीरहे थे। राजा दृष्टिसे देखते थे, जैनधर्म में आस्था रखने लगे, और के सिपाहियोंने उन्हें देखा और जैनी समझकर बन्दी जैनी बननमें अपना सोभाग्य समझने लगे । जिस कर लिया। पुत्र होने की खुशी में गजाने उस समय दक्षिण प्रान्तमें जैन-धर्म लुप्तप्राय हो चुका था । उसी प्राण-दण्ड न देकर भविष्य में ऐसा न करनेकी केवल दक्षिण में फिर से घर-घर में णमोकार मन्त्रकी ध्वनि चेतावनी देकर ही उन्हें छोड़ दिया। गजने लगी। आजभी दक्षिण प्रान्तमें जो जैनधर्मका
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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