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________________ वर्ष २ किरण ४ हमारे पराक्रमी पूर्वज वीरसेनाचार्य २३७ प्रभाव और अस्तित्व है. वह सब प्रायः उन्हीं कर्म-वीर सीतामरमें जब भट्टारकका चुनाव होता है तब इस वंश के साहसका परिणाम है। जहां जहां उन्होंने अपने वालेकी सम्मति मुख्य समझी जाती है। इसकी सन्तान चरण-कमल रक्खे, वहांका प्रत्येक अणु हमारे लिए अभी तक तायनूर में वास करती है *। ऐसेही महान् पूज्यनीय बन गया है। मालूम है यह कौन थे? यह पुरुषोंकी अमर सेवाओं द्वारा जैन-धर्मकी जड़ें इतनी श्रीवीरसेनाचार्य थे। आजभी कहीं बीरसेनाचार्य हो; गहरी जमी हुई हैं कि हमारे उखाड़े नहीं उखड़तीं। तो फिर घर-घर में वही जिनमन्त्रोच्चारण होने लगे। वर्ना हमने जैनधर्मको मिटाने का प्रयत्नही कौनसा बाकी और जैनी बारह लाख न रहकर करोड़ोंकी संख्यामें छोड़ा है। ऐसीही महान् आत्माओंके बल पर पहुँच जाय। जैन-धर्म पुकार-पुकारकर कह रहा है :-- __ इन्हीं प्रातःस्मरणीय श्रीवीर सेनाचार्यका समाधि- नक्शे बातिल मैं नहीं जिसको मिटाये पारमा । भरण वेलूर में हुआ । जैनधर्म के प्रसार में इनकी सहा- मैं नहीं मिटनेका जबतक है बिनाये आरमां ॥ यता देने वाला जिंजीप्रदेशका गगप्पा श्रोडइयर नाम -.."यक" का एक ग्रहस्थ था। इसने जैनधर्मकी प्रभावना और * इस लेख में उल्लम्बित बातें कल्पित अथवा प्रसार में जो सहायता दी, उसके फलस्वरूप आजभी जब पौगणिक नही .किन्तु सब सत्य और विश्वस्त हैं तथा विरादरी में दावत होती है तब सबसे पहले इसी के वंश मदास मैसर के स्मारकाम बिग्री हई पड़ी है । उन्हीं पर वालको पान दिया जाता है, तथा टिंडीवनम् तालुकाके से यह निबन्ध संकलित किया गया है। -लेम्वक प्रतीत हति इन सूखे-हाड़ोंक भीतर भरी धधकती-ज्याला ! जिसे शान्त करने समर्थ है नहीं असित घनमाला !! इस भग्नावशेष की रजमें समुत्थान की प्राशा-- रखती है अस्तित्व, किन्तु हे नहीं देखने वाला !! माना, अाज हुए हैं कायर त्याग पूर्वजों की कृति ! स्वर्ग-प्रतीत, कला-कौशल, बल, हुआ मभी कुछ विस्मृति !! पर फिर भी-.--अवशिष्ट भाग में भी----इन्छिन-जीवन है... वह क्या?--- यही कि मनमें खेले नित अतीत की स्मृति !! पतन-मार्गसे विमुख, सुपथ में अग्रणीयता देकर ! मानवीयताके सुपात्र में अमर अमिय-रमको भर !! कर सकती नूतन-उमंगमय ज्योति-राशि आलोकित.... भूल न जाएँ यदि हम अपने पूर्व गुणी-जनका स्वर !! वह थे, हां ! सन्तान उन्हींकी हमभी आज कहाते ! पर कितना चरणानुसरणकर कीर्ति-राशि अपनाते !! 'कुछभी नहीं !' इसी उत्तर में केन्द्रित सारी चेष्टा---- काश ! यादभी रख सकते तो इतना नहीं लजाते !! भगवत्स्व रूप जैन 'भगवत्'
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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