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अनेकान्त:
[फाल्गुन, वीर-निर्वाण सं०२४६५
२. १२६, १२८,१२६, १३०, १३१, ३०५, ३०६, १७०३, ३२५, ३३०, ३५२, ३७०, ३७१, ३८४, ३६४, ३६५, १७१२, १७१३, १७१५, १६७०, ७७०, २८६, ८०, ३६७, ३६६,६१८, ६७०, नं० की गाथाएँ भी भगवती ७०, १०४,५६२।
अाराधनामें क्रमशः ६८२, ४१०, ११६६, ११६७, भगवती श्राराधनाकी कितनीही गाथाएँ ऐसी भी हैं ११६६, १२०४, २१५, ११६, ११७, १२७, ११८४, जो थोड़ेसे पाठभेद अथवा कुछ शब्द परिवर्तनके साथ १७०२, १७०४, १७११, ५६१, १०७ नंबरों पर छोटे मूलाचारमें उठाकर रक्खी गई जान पड़ती हैं। उनमेंसे मोटे परिवर्तनोंके साथ पाई जाती हैं। नमूनेके तौर पर तीन गाथाएँ नीचे दी जाती हैं:
इस सब तुलना और ग्रंथके प्रकरणों अथवा अधिआचेलकुदसियसेज्जाहररायपिंडकिरियम्मे । कारोंकी उक्त स्थिति परसे मुझे तो यही मालूम होता है जेट्ठपडिकमणे वि य मासं पज्जोसवणकप्पो ॥ कि मूलाचार एक संग्रह ग्रंथ है और उसका यह संग्रहत्व
-भग० प्रा० ४२१ अथवा संकलन अधिक प्राचीन नहीं है। क्योंकि टीकाअचेलकुदेसियसेज्जाहररायपिण्डकिरियम्मं । कार बसुनन्दीसे पूर्वके प्राचीन साहित्यमें उसका कोई बदजेट्टपडिकमणे मासे पज्जोसवणकप्पो॥ उल्लेख अभी तक देखने तथा सुनने में नहीं आया ।
-मूला०६०६ हो सकता है कि वसुनन्दीसे कुछ समय पहलेके वट्टकेर एयग्गेण मणं रुभिजण धम्मं चउब्विहं झादि। नामक किसी अप्रसिद्ध मुनि या श्राचार्यने ग्रंथके प्रकआणापाय विवागं विचयं संठाणविचयं च ॥ रणोंकी अलग अलग रचना की हो और उनके यकायक
-भग० प्रा०, १७०८ देहावसानके कारण वे प्रकरण प्रकाशमें न श्रासके होंएग्गेण मणं रंभिऊण धम्मं चउन्विहं झाहि। कुछ अर्से तक यों ही पड़े रहे हों । बादको वसुनन्दी प्राणापायविवायं विचओ संठाणविचयं च ॥ प्राचार्य ने उनका पता पाकर उन्हें एकत्र संकलित करके
-मूला०, ३६८ 'मूलाचार' नाम दे दिया हो और अपनी टीका लिखकर अह तिरियउड्ढलोए विचणादि सपज्जए ससंठाणे। उनका प्रचार किया हो । कुछ भी हो, इस विषयमें एत्थे य अणुगदाओ अणुपेहाश्रो वि विचणादि । विशेष अनुसंधानकी ज़रूरत है । विद्वानोंको इसकी
-भग० श्रा०, १७१४ असलियत खोज निकालने और ग्रंथकार तथा ग्रंथके उड्ढमह तिरियलोए विचणादि सपज्जए ससंठाणे। रचना-समय पर यथेष्ट प्रकाश डालनेके लिये पूरा प्रयत्न एत्थेव अणुगदाभो भणुपेक्खाओ य विचणादि॥ करना चाहिये । इसके लिये मेरा विद्वानोंसे सानुरोध
--मूला०, ४०२ निवेदन है । इसी प्रकार मूलाचारकी ११८, १६०, ३१६, ३१८, वीरसेवामन्दिर, सरसावा, ता०८-१-१हरे