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________________ अनेकान्त [चैत्र, वीर-निर्वाण सं०२४६५ बुरहानपुरमें चिन्तामणि पार्श्वनाथ, महावीर, वनविहारको निकला और मन्दिर भूल गया। शान्तिनाथ, नेमिनाथ, सुपार्श्वनाथके मन्दिर हैं तब उसने बालू और गोबरकी एक प्रतिमा बनाई और बड़े-बड़े पुण्यात्मा महाजन बसते हैं। उनमें और नमोकार मन्त्र पढ़कर उसकी प्रतिष्ठा करके एक ओसवालवंशके भूषण 'छीतू जगजीवन'नामके आनन्दसे पूजा की । वह प्रतिमा यद्यपि वन-सदृश मंघवी (संघपति) हैं, जिनकी गृहिणीका नाम होगई परन्तु कहीं पीछे कोई इसका अविनय न 'जीवादे' है । उन्होंने माणिक्यस्वामी, अन्तरीक्ष, करे, इसलिए उसने उसे एक जलकूपमें विराजमान आबू, गोडी (पार्श्वनाथ ) और शत्रुजय की यात्रा कर दिया और वह अपने नगरको चला आया। की है। प्रतिष्ठायें की हैं। वे संघके भक्त और इसके बाद उस कुए के जलसे जब 'एलगराय' सुपात्रदानी हैं। दूसरे धनी पोरबाड़ वंशके सारंग- का रोग दूर होगया, तब अन्तरीक्ष प्रभु प्रकट धर' संघवी हैं, जिन्होंने संवत् १७३२ में बड़ी भारी हुए और उनकी महिमा बढ़ने लगी। पहले तो यह ऋद्धिके साथ चैत्यबन्दना और मालवा, मेवाड़, प्रतिमा इतनी अधर थी कि उसके नीचेसे एक आबू, गुजरात तथा विमलाचल (शत्रुजय ?) सवार निकल जाता था, परन्तु अब केवल एक की यात्रा करके अपनी लक्ष्मी को सफल किया है। धागा ही निकल सकता है ! तीसरे दिगम्बर-धर्मके अनुयायी 'जैसल जगजीवन- इसके आगे लूणारा गाँव और एलजपुरी दास' नामके बड़े भारी धनी हैं, जिनकी शुभमति अर्थात् एलिचपुरका उल्लेखमात्र करके कारंजा है और जो प्रतिदिन जिन पूजा करते हैं। उनकी नगरका बहुत विस्तृत वर्णन किया है, जो यहाँ तरफसे सदाबत जारी है, जिसमें आठ रुपया रोज सबका सब उद्धृत कर दिया जाता हैखर्च किया जाता है। एलजपुरकारंजानयर, धनवंतलोक वसि तिहां सभर । __ इसके आगे मलकापुर है, वहाँके शान्तिनाथ जिनमन्दिर ज्योती जागता,देव दिगंबरकरि राजता ॥२१ भगवान को प्रणाम करता हूँ। वहाँसे देवलघाट तिहां गच्छनायक दीगंबरा, छत्र सुखासन चामरधरा । चढ़कर बरारमें प्रवेश किया जाता है। देवलगाँवमें श्रावक ते सुद्धधरमीवसिई,बहुधनअगणित तेहनि अछ। नेमीश्वर भगवानको प्रणाम किया। इसके आगे बघेरवालवंश सिणगार, नामि संघवी भोज उदार । समुद्र तक सर्वत्र दिगम्बर ही बसते हैं- जिसे राजा 'एल' कहा जाता है शायद वही हवि संघलि दीगंबर वसि,समुद्रसुधीते घणं उल्हसि।।१३ यह 'एलगराय' है। आकोलाके गेजेटियरमें लिखा है फिर 'अन्तरीक्ष पार्श्वनाथ' का वर्णन करते हैं- कि एल राजाको कोढ़ हो गया था, जो एक सरोवरमें शिरपुरनयर अंतरीकपास,अभीझरो वासिभासुविलास। नहानेसे अच्छा होगया । उस सरोवरमें ही अन्तरीक्षकी आगे इस तीर्थक विषयमें एक दन्तकथा लिखी प्रतिमा थी और उसीके प्रभावसे ऐसा हुआ था। है कि रावण का भगिनीपति खरदूषण राजा बिना लोणार बुलडाना जिलेमें मेहकरके दक्षिणमें पूजा किये भोजन नहीं करता था। एक बार वह १२ मील पर है। बरारमें यह गाँव सबसे प्राचीन है। बासिभ सिरपुरसे १० मील दूर है। इसका पुराना नाम विरजक्षेत्र है।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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