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________________ वर्ष २, किरण दक्षिणके तीर्थक्षेत्र २१५ समकितधारी जिनने नमइ,अवरघरमस्य मननविरमहर३ स्वामी है ( भट्टारक) और उनके पुस्तक भंडारका तेहवे कुले उत्तमभाचार, रात्रिभोजननो परिहार। पूजन करते हैं। उन्होंने संघ निकाला, प्रतिष्ठा की, नित्यई पूजामहोच्छव करइ,मोतीचोकजिनभागलिभरइ२४ प्रासाद ( मन्दिर ) बनवाये और पाल्हाद पूर्वक पंचामृत अभिषेक धणी, नयणे दीठी तेम्हि भणी। बहुतसे तीर्थों की यात्रा की है। कर्नाटक, कोकण, गुरुसाइमी पुस्तकभंडार,तेहनी पूजा करि उदार ॥२५ गुजरात, पूर्व, मालवा और मेवाड़से उनका बड़ा संघप्रतिष्ठा ने प्रासाद, बहुतीरथ ते करि बाहाद। भारी व्यापार चलता है । जिनशासनको शोभा करनाटककुंकणगुजराति, पूरब मालव ने मेवात ॥२६ देनेवाले सदावर्त, पूजा, जप, तप, क्रिया, महोत्सव द्रव्यतणा मोय व्यापार, सदावर्त पूजा विवहार। आदि उनके द्वारा होते हैं। संवत् १७०७ में उन्होंने तपजपक्रियामहोच्छवघणा,करिजिनसासनसोहामणा२७ गढ़ गिरनारकी यात्रा करके नेमि भगवानकी पूजा संवत सातसतरि सही, गढ़ गिरनारी जात्रा करी। की, सोनेकी मुहरोंसे संघ-वात्सल्य किया और लाख एक तिहां धनवावरी, नेमिनाथनी पूजा करी ॥२८ एक लाख रुपया खर्च करके धनका 'लाहा' लिया । हेममुद्रासंघवच्छलकीओ,लाच्छितणोलाहोतिहाँ लीओ प्रपात्रों (प्याऊ) पर शीतकालमें दूध, गर्मियोंमें परविं पाई सीप्रालि दूध, ईषुरस उंनालि सुद्ध ॥२६॥ गन्नेका रस और इलायची वासित जल पन्थियोंअलाफूलि वास्यां नीर, पंथीजननि पाई धीर । को पिलाया और पात्रोंको भक्तिपूर्वक पंचामृतपंचामृत पकवाने भरी, पोषि पात्रज भगति करी ॥३० पक्वान्न खिलाया। 'भोज संघवी' के पुत्र 'अर्जुन भोजसंघवीसुत सोहामणा, दाता विनयी ज्ञानी घणा संघवी' और 'शीतल संघवी' भी बड़े दाता,विनयी, अर्जुनसंघवीपदारथ(?)नाभ,शीतलसंघवीकरिशुभकाम३१ ज्ञानी और शुभ काम करनेवाले हैं। इसका सारांश यह है कि-'कारंजामें बड़े बड़े इसके आगे मुतागिरिके विषयमें लिखा है कि धनी लोग रहते हैं और प्रकाशमान जैन मन्दिर वह शत्रुजयके तुल्य है और वहाँ चौबीस हैं,जिनमें दिगम्बरदेव विराजमान हैं। वहाँ गच्छ- तीर्थकरोंके ऊँचे ऊंचे प्रासाद हैं-- नायक (भट्टारक) दिगम्बर हैं जो छत्र, सुखासन हवि मगतागिरि जात्रा कहुं,शेत्रुजतोलि ते पण लहुँ। (पालकी) और चॅवर धारण करते हैं। शुद्ध धर्मी ते उपरि प्रासाद उतंग, जिन चौबीसतणा अतिचंग ॥ श्रावक हैं, जिनके यहाँ अगणित धन है । बघेरवाल इसके आगे सिंधपेडि, पातूर, गोसावुदगिरि, वंशके शृंगार रूप भोज-संघवी (सिंघई) बड़े ही कल्याण, और विधर शहरका उल्लेख मात्र किया उदार और सम्यक्त्वधारी हैं। वे जिन भगवान् । र है, सिर्फ पातूरमें चन्द्रप्रभ और शान्तिनाथ जिनके को ही नमस्कार करते हैं। उनके कुलका आचार उत्तम है। रात्रिभोजनका त्याग है। नित्य ही पूजा महोत्सव करते रहते हैं, भगवान्के आगे इस 'स्वामी' शब्दका व्यवहार कारंजाके भट्टारकोंमोती-चौक पूरते हैं और पंचामृतसे अभिषेक के नामोंके साथ अब तक होता रहा है; जैसे वीरसेन करते हैं। यह मैने आँखों देखकर कहा है। गुरु- स्वामी ।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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