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________________ वर्ष २, किरण ६] दक्षिणके तीर्थक्षेत्र पूर्वके तीर्थोकी यात्रा उन्होंने वि० सं० १७११- अप्याणं च किलबइ हिडजइ तेल पुहवीए ॥ १२ में, दक्षिणकी १७३१-३२ में, पश्चिमकी १७४६ अर्थात्-विविध प्रकारके चरित देखना में और उत्तरकी शायद १७४८ में की थी। 'शायद' चाहिए, दुर्जनों और सज्जनोंकी विशेषता जाननी इसलिए कि पुस्तकके पद्य-भागमें संवत् नहीं दिया चाहिए और आत्माको भी पहिचानना चाहिए। है, परन्तु अन्तकी पुष्पिकामें लिखा है--"संवत् इसके लिए पृथ्वी-भ्रमण आवश्यक है। १७४८ वरषे मागसरमासे शुकलपक्षे त्रयोदशी इस पुस्तकमें जो कुछ लिखा है लेखकने स्वयं तिथौ सोमवासरे लिखितम् १" पैदल यात्रा करके लिखा है और सब कुछ देखकर स्व० श्रीधर्मविजयसूरिने वि० सं० १९७८ में लिखा है, फिर भी बहुत-सी बातें सुनी-सुनाई भी 'प्राचीन तीर्थमाला संग्रह' नामका एक संग्रह प्रका- लिखी हैं, जैसा कि उन्होंने कहा हैशित कियाथा । उसमें भिन्न-भिन्नयात्रियोंकी लिखी जगमा तीरथ सुंदरू, ज्योतिवंत झमाल । हुई छोटी-बड़ी पञ्चीस तीर्थमालायें हैं । शीलविजय- पभणीस दीठो सभिल्या, सुणता अमी रसाल ॥२॥ जीकी तीर्थमाला भी उसीमें संग्रहीत है। अथवा-- ___यों तो यह समस्त पुस्तक ही बड़े महत्वकी दष्यिण दिसिवी बोली कथा, है, परन्तु हम इसकी दक्षिण-यात्राके अंशका ही निसुणी दीठी जेमियथा ।।१०८।। विवरण पाठकोंके सामने उपस्थित करेंगे । क्योंकि अपनी दक्षिण-यात्राका प्रारम्भ वे नर्मदा नदीयह अंश ही दिगम्बर सम्प्रदायके पाठकोंके लिए के परले पारसे करते हैं और वहींसे दक्षिण देशमें अधिक उपयोगी होगा। अबसे लगभग ढाईसौ प्रवेश करते हैं। वर्ष पहलेके दक्षिणके तीथों और दूसरे धर्मस्थानोंके नदी निर्बदा पेलि पार, आज्या दयिणदेसमझारि । सम्बन्धमें इससे बहुत-सी बातें मालूम होंगी। मानधाता तीरथतिहाँ सुण्य, शिवधर्मी ते मानि पणुं । ___ स्वयं श्वेताम्बर होने पर भी लेखकने दक्षिणके मान्धाताके विषयमें इतना ही कहकर कि इसे समस्त दिगम्बर-सम्प्रदायके तीर्थोंका श्रद्धा-भक्ति शिवधर्मी बहुत मानते हैं वे आगे खंडवा जाकर पर्वक वर्णन किया है और उनकी वन्दना की है। खानदेशके बरहानपुरका वर्णन करने लगते हैं। पृथ्वी-भ्रमणकी उपयोगिता दिखलाने के लिए यहाँ यह नोट करने लायक बात है कि मान्धाताउन्होंने एक गाथा उद्धृत की है-- का उल्लेख करके भी लेखक 'सिद्धवरकूट' का दिसह विविहचरियं जाणिज्जेइ दुजणसज्जनविससा। कोई जिक्र नहीं करते हैं और इसका कारण यही यह लेखककी लिखी या लिग्याई हुई पहली ही जान पड़ता है कि उस समय तक वहाँ सिद्धवरप्रति मालम होती है और उक्त प्रति ही प्रकाशनके समय कूट नहीं माना जाता था। सम्पादकके सामने अादर्श प्रति थी। सिद्धवरकट' तीर्थकी स्थापना पर 'हमारे तीर्थxश्रीयशोविजय-जैनग्रंथमाला. भावनगर-द्वारा प्रकाशित क्षेत्र' नामक लेखमें विचार किया गया है, जो जैनसिहामूल्य २) न्तभास्करकी हालकी किरणमें प्रकाशित हुआ है।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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