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अनेकान्त
आतिशय्य युक्त वर्णन था । कुछ चिट्टियां शिष्यों द्वारा उनके गुरु भट्टारको नामकी भी थी, जिनको भाषा कुछ संस्कृत और कुछ देशी थी। मैंने चाहा कि उन. काराज-पत्रों को अच्छी तरह देखकर कुछ नोट्स लेलू, परन्तु भट्टारकजीने दूसरे समयके लिए टाल दिया और फिर मैं कुछ न कर सका ।
इसके बाद मैंने सन् १९१६ में मुनि श्रीजिनविजयजी द्वारा सम्पादित 'विज्ञप्ति त्रिवेणी' देखी, जो एक जैन साधु-द्वारा अपने गुरु के नाम लिखी हुई एक बहुत विस्तृत कवित्वपूर्ण संस्कृत चिट्ठी थी, जिससे उस समयकी (वि० सं० १४८४ की ) अनेक धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक बातों पर प्रकाश पड़ता है । उस समय जैन साधु जब किसी स्थानमें चातुर्मास करते थे तब अपने श्राचार्य या गुरुको खूब विस्तृत पत्र लिखकर भेजते थे और वह 'विज्ञप्ति' कहलाती थी ।
विज्ञप्ति त्रिवेणीको और भट्टारकजीके बस्तेकी उक्त चिट्ठियोंको देखकर मुझे विश्वास-सा हो गया है कि इस तरह की अनेक चिट्टियाँ हमारे मंडारोंमें – विशेष करके वहाँ, जहाँ भट्टारकोंकी गड़ियां रही हैं- पड़ी होंगी और प्रयत्न करनेसे वे संग्रह की जासकती हैं। उनसे मध्यकालीन इतिहासपर बहुत कुछ प्रकाश पड़ सकता है ।
स्वर्गीय 'गुरुजी' पं० पन्नालालजी वाकलीवालने आरासे पं० जयचन्दजी, दीवान अमरचन्दजी और कविवर बृन्दावनजीकी जो चिट्ठियाँ प्राप्त की थीं वे प्रकाशित हो चुकी हैं ।। सभी
श्री आत्मानन्द- जैनसभा, भावनगर द्वारा प्रकाशित । देखो, जैनग्रन्थरत्नाकर -कार्यालय बम्बई द्वारा प्रका थित 'वृन्दाबन-बिलास' ।
[ चैत्र, वीर निर्वाण सं० २४६५
जानते हैं कि वे कितने महत्व की हैं।
हमारा अनुमान है कि अधिकांश तीर्थक्षेत्रोंके सम्बन्ध में भी हमारे मंडारों और निजी अथवा घरू काग्रज पत्रोंमें बहुत-सी सामग्री मिल सकती है। उस समय लोग बड़ी बड़ी लम्बी तीर्थ-यात्रायें करते थे और चार चार छह छह महीनों में घर लौटते थे। उनके साथ विद्वान् और त्यागी - व्रती भी रहते थे । उनमें से कोई-कोई अपनी यात्राओं का विवरण भी लिखते होंगे। प्राचीन गुटकों और पोथियोंमें ऐसे कुछ विवरण मिले भी हैं। श्वेताम्बर - सम्प्रदाय के सुरक्षित और सुव्यवस्थित पुस्तक भंडारोंसे जब ऐसे अनेक यात्रा-वर्णन उपलब्ध हुए हैं, तब दिगम्बर भंडारोंमें भी इनके मिलने की काफी संभावना है ।
इस लेखमें मैं ऐसे ही एक यात्रा वर्णनका परिचय देना चाहता हूँ। मैंने और प्रो-हीरालालजीने 'हमारे तीर्थक्षेत्र' नामक अपने विस्तृत लेखमें एक दो जगह 'तीर्थमाला' से कुछ प्रमाण दिये हैं । उसके कर्ता श्रीशीलविजयजी श्वेताम्बर संप्रदाय के तपागच्छीय संवेगी साधु थे और उनके गुरुका नाम पं० शिवविजयजी था । उन्होंने पश्चिम-पूर्व-दक्षिण और उत्तर चारों दिशाओंके तीर्थोंकी पैदल यात्रा की थी और जो कुछ उन्होंने देखा-सुना था उसे अपनी गुजराती भाषामें पद्यबद्ध लिखलिया था । इसके पहले भागमें ८५, दूसरेमें ५५, तीसरेमें १७३ और चौथेमें ५५ पद्य हैं। प्रत्येक भागके प्रारम्भमें मंगलाचरणके रूपमें दो दो तीन तीन दोहे और अन्तमें चार चार लाइनों का एक एक 'कलस' है । शेष सब चौपइयाँ हैं ।
* देखो जैनसिद्धान्तभास्कर किरण ४ वर्ष पूर्वे की।