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________________ IMInterprintinumauni HNIRHaneBIPANDauBURLAHIRAIMARose नारीसमुत्थान A MITH 3-. .. सेवा-धर्म | लेखक-श्री डा० भैयालाल जैन, पी-एच० डी०, साहित्यरत्न ] था, वह उसे बलपूर्वक घसीटे लिए जाता था। मरला-पनिहीना, गृह-हीना, श्राश्रयहीना अपने भविष्य जीवन की सुखमयी कल्पना करनी सरला-संसारके कड़वे अनुभवोसे घबराकर, हुई, सरला आगे बढ़ती ही जा रही थी। एक उमगं मारका लश भी न देखकर, श्राज हिमालय चट्टानसे दूसरी चट्टान पर होती हुई, एक झाड़ीस की किमी निर्जन कंदाम, अपने जीवन के शेष निकलकर, दूमरीमें उलझनी हुई, वह जैसे-तैसे दिन बिताने की इच्छासं निकल पड़ी है। उसका एक सुरम्य स्थल पर पहुंच गई। अहा ! कैसा मन एकबारगी ही विरक्त होगया है। क्या यह मनोरम स्थान है ! कैमी पवित्र भूमि है ! प्रकृति संसार रहने के याग्य है ? क्या यहां की विकार- की कैमी अनुपम शोभा है ! संमारके ईर्षा-द्वेष युक्त दूषित वायु सांस लेने के उपयुक्त है ? यहाँका की लपटें, वहाँका अन्याय और पापाचार क्या दुर्गन्धमय घृणित जीवन क्या कोई जीवन है ? यहाँ प्रवेश कर सकता है ? कदापि नहीं। बस, इसमें कौनसी सार्थकता है ? छल, प्रपंच, धोका, यही स्थान मेरे अनुकूल है। बम्यवृक्षोंके मधुर स्वार्थ ; ऐसी सृष्टिकी रचना करकं, हे परमात्मा ! फलोंका स्वास्थ्यकर भोजन, सुविस्तृत झीलका तू कौनसी अक्षय कीर्ति कमाना चाहता है ? क्या निर्मल जल, सुकोमल तृणाच्छादित भूमि पर इसमें भी कुछ रहस्य है ? शयन, नम्र प्रकृतिके पशु-पक्षियों का संग, इससे सरला चली । सुकुमार शरीर भागे नहीं अधिक मुझे और क्या चाहिए ? जीवनकी समस्त जाना चाहता था; पर उसमें जो बलिष्ट मास्मा मावश्यक वस्तुएँ यहाँ उपलब्ध हैं। सरलाने मन
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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