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कार्तिक, वीर निवाण सं० २४६५]
सेवा-धर्म
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ही-मन ईश्वरको नमन किया । हे परमात्मन ! तूने उतरकर आई हुई जैसे कोई देव-कन्या हो । बहिन अपनी सृष्टिमें सब कुछ सिरजा है। मनुष्यकी सरला, तुम मुझे इम क्षण साक्षात देवी ही जान रुचिका ही दोष है। थोड़ा कष्ट सहन करनेस जब पड़ती हो । देवी, तुम्हारे तेजस्वी रूपका संमारके कि वह सुरक्षित और स्वर्गीय आनन्ददायक महल प्राणियों पर कितना गहरा और स्थायी प्रभाव पड़ में पहुँच सकता है, तब वह अन्धा बनकर खाईमें सकता है ? क्यों गिर पड़ता है ?
सरलाने मुस्कराते हुए कहा-और क्या
मोचते हो, भैया ? अचानक सग्ला चौंकी । मनके विचार मनही देवेन्द्र-और सोच रहा हूँ कि यदि तुम घर में लीन हो गये। जहाँ की नहाँ रुककर खड़ी हो लौट चलो तो कैसा अच्छा हो ! गई। घूमकर देखा। विस्मय बढ़ा। आगन्तुक सरलाने एकाएक गम्भीरभाव धारण करलिया। ज्यों-ज्यों पास आता गया, त्या त्या सरलाके नंत्र फिर उम ऊँचे टीले पर घूमकर चारों और
आश्चर्यसे अधिकाधिक विस्फरित होते गये। अगुली के संकेत दिखाया और बोली, कहाँ लोट पहिचान लेने पर, वह माहसा चिल्ला उठी--- भैया ! चलने को कहते हो, भैया ? दग्वने ही संमार में
विस्मय प्रानन्दम परिणत हागया। दुन गति क्या हो रहा है ? एक दुसरेको ग्वाय जाता है। में सरला झपटी । हाँपना हुई जाकर, भाईके कोई अपनको अपना नहीं समझता। स्वार्थान्ध कन्धेका महारा लेकर खड़ी होगई । दानांक मन- होकर लोग कैसे कैसे पापपूर्ण प्राचार कर रहे मार हर्षसे नृत्य करने लगे. मुग्व कमल खिल गये। है? स्वगक द्वार तक आकर फिर नरक-कण्डकी ___ मन्द-मन्द मुसकरानी हुई मरला बोली- ओर लौट चलूँ भैया ? क्या यह बुद्धिमानीका भैया !
काम होगा? देवन्द्र कुमारने विस्मिन दृष्टिम देखा । क्या यह दवेन्द्रकुमार श्रीजम्वी वाणी में बोले-बहिन, वही दुखिया मग्ला है ? कैमा अद्भुत प्राकस्मिक क्षमा करना, स्वार्थान्ध कौन है, उसे तुमने ठीकसे परिवतन है ? मुग्व पर की चिरस्थायी शांक-छाया नहीं पहिचाना। जो इन दीन-टुग्वियों को तुम विलीन होगई है। उसके स्थान पर विमल कान्ति, दिग्या रही हो, वे घार, अज्ञानान्धकारमें पड़े हुए अपूर्व शोभा और मृतिमान नेज विराज रहा है। हैं। अपने-पराय, भले-बुरे और म्वार्थ-परमार्थका कृशांग कैसे पुष्ट दीग्बने हैं!
ज्ञान उन्हें नहीं है। वे जो कुछ करने है, ममझसरला सुमधुर हास्यक माथ बाली-भैया ! बूझकर नहीं करते। उनकी बुद्धि लोप हो गई है। किन विचारोंमें तन्मय हो रहे हो?
माया-माहम फंसे हुए हैं। पर बहिन ! तुमता वैमी देवेन्द्र-मैं सोच रहा हूँ कि इस समय तुम्हाग नहीं हो । फिर उन आपत्तिमम्न दुग्घियोंकी अकेला रूप अचानक कैसा निखर गया है ! स्वर्ग में छोड़कर, किनारा क्यों काट रही हो ? अपना