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अनेकान्त
[वर्ष २, किरण १
जीवन मानन्दसे व्यतीत करनेके लिए --अपने ऊँचा उठाकर, गले, लगावें और उन्हें दुग्दुराते स्वार्थसाधनक हेतु-तुम इन निर्बलांकी-अनाथों रहने तथा उनसे घृणा करनेके कारण, समाजके की अवहेलना क्यों कर रही हो ? बाली, बहिन, माथे जो कलङ्कका टीका लग गया है, उसे सदाके उत्तर दी । इन बेचारे दीनोंकी सहायता न करके, लिए धा डालें। तुम अपनं एक अलग ही मार्ग पर जा रही हो। क्या यह स्वार्थपरता नहीं है ?
हिमालयमं लौटकर, देवेन्द्रकुमार और सरला सरलाका हृदय हिल उठा । नत्रांग अश्र छल- देवी दोनों सेवा-क्षेत्र में अवतीर्ण हो गये हैं । त्राहि छला आय। हाथ जोड़कर, उसने भाईके सम्मुख त्राहि करते हुए, प्राणियोंने अब शरण पाई। घटने टेक दिये। बोली-भैया, सचमुच ही मैं दुःखो जनों का जिम प्रकारकी सेवाकी आवश्यक्ता अत्यन्त म्वार्थी और पामर हूँ। मुझे सुमार्ग होती है, वह देवेन्द्र और मरलाके द्वारा तुरन्तकी दिखाओ।
जानी है। श्रानाथ बान कोक लिए, भोजन-वस्त्र देवेन्द्र कुमार भी अपने अश्रु-प्रवाहको न रोक तथा शिक्षा-दीक्षाका सुप्रबन्ध किया जाना है। सके। देर तक दोनों एक दूसरेके मुग्व की और छुआ-छूनका भून मदा के लिए, देशमं निकाल देखकर, रुदन करते रहे ! कैमा हृदय-द्रावक दृश्य बाहर कर दिया गया है। अब कोई अछून नहीं था ! शान्त होने पर देवेन्द्रवे मग्लाका हाथ पकड़ है। जो पहिले अछूत कहे जाते थे वे अब हरिजन कर उठाया और कहा, बहिन, मैं तुम्हें मुगार्ग क्या के नाम पुकार जाने हैं। अब उन्हें मवमाधारण दिखा सकता हूँ ? मैं भी मबके जैमा क्षुद्र और कुओं पर जल भग्नकी कोई रोक-टोक नहीं है। तुच्छ हूँ। तब चली, हम दोनों ही मिलकर, जगन मन्दिगंगं जाकर प्रसन्नताम देव-दर्शन करते हैं। के हितके लिए कुछ कर। हम लोगों के लिए मब अब वे बड़ी सफाईसे रहते हैं। मभा-सुमायटी कार्योंमें उत्तम एक संवा-मार्ग है । आश्री, उसी पर तथा प्रीनि-भोजाम मब लोगोंक माथ मम्मिलित दृढ़ रहकर. दीन-दुखियोंकी विपत्तिमें हाथ बटावें। होते हैं । विद्या पढ़ते हैं। ईति-भीति कोमों दूर अपने ही करोड़ों अछूत कहे जाने वाले भाइयोंको भाग गई । सर्वत्र सुराज हो गया।
अधिकार निरीह पक्षीको मारकर घातक.ने उसे नीचे गिरा दिया, दयालु-हृदय महात्मा बुद्धने दौड़कर उसे उठाया और वे अपने कामल हाथ उसके शरीर पर फेरने लगे । घातकने कहा, "तुमने मेरा शिकार क्यों ले लिया" ? बुद्धने कहा - "भाई, तुमे वनके एक निरीह पक्षीको बाण मारकर गिगनेका अधिकार है तो, क्या मुझे उसे उठाकर पुचकारनेका भी अधिकार नहीं है" १ (कल्याण)