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________________ ५७८ अनेकान्त [प्रथम श्रावण, वीर-निर्वाणसं०२४६५ धर्मका कुछ श्रद्धान भी उसको है वा नहीं, उसके आवें और न किसीकी जबरदस्तीको मान; किन्तु भाष क्या हैं परिणाम क्या हैं-चारित्र उसका एकमात्र वही मार्ग अंगीकार करें जो हमारे कैसा है, पाप पुण्यसे कुछ डरता भी है या नहीं, पूज्य महान् प्राचार्य शास्त्रों में लिख गये हैं। उसके दया-धर्मका खयाल भी उसको कुछ है या नहीं, विरुद्ध घड़े हुए तथा प्रचार में लाये हुए प्राणहीन इन सब बातोंका कुछ भी खयाल न करके, वे तो पाखंडी तथा ढौंगी विचारोंको कदाचित् भी एकदम उसको पिलच जाते हैं और कुछ न कुछ अंगीकार न करें। साग सब्जीका त्याग कराकर ही उसको छोड़ते हैं। इस मौके पर शायद हमारे किसी भाईके वह बेचारा बहुत कुछ सटपटाता है और हाथ यह शंका उत्पन्न हो कि अगर कोई बेसिलसिले भी जोड़कर कहना है कि मुझसे यह त्याग नहीं हो- साग सब्जीका त्याग करने लगे अर्थात् जो कोई सकता है। परन्तु वहाँ इन बातोंको कौन सुनता है, पहली प्रतिमाधारी सम्यक्ती भी नहीं है, यहाँ तक कि वहाँ तो इस ही बातमें अपनी भारी कारगुजारी महानिर्दयी पापी और हिंसक है, फिर भी वह सारी और जीत समझी जाती है जो उस अचनाक पंजेमें सब्जियोंका त्याग कर सचित्तत्यागी हो जावे तो फंसे हुएसे कुछ न कुछ त्याग कराकर ही छोड़ा इस अटकल पच्चू त्यागसे उसको कुछ पुन्य नहीं जावे। होगा तो पाप भी तो नही होगा; तब इतना भारी यह त्याग क्या है मानों जैनधर्मकी चपरास वावैला उठानेकी क्या जरूरत? इसका जवाब यह है उसके गलेमें डाल देना है, जिससे वह अलग कि मुनिकी क्रियाओंमें नग्न रहना ही एक बहुत ही पहचाना जावे कि यह जैनी है परन्तु इस झूठी जरूरी क्रिया और भारी परिषह सहन करना है। चपरासके गलेमें डालते वक्त वह यह नहीं सोचते तब यदि कोई जैनी, जिसने श्रावककी पहली हैं कि जिस प्रकार कोई मनुष्य झूठा सरकारी प्रतिमा भी धारण न की हो,न मिथ्यात्वको ही छोड़ा चपरास डालकर लोगोंको ठगने लगे तो वह हो, न त्रसथावरकी हिंसाको तथा झूठ चोरी, कुशील पकड़ा जाने पर सजा पाता है उसही प्रकार धर्मकी को ही त्यागा हो और न परिग्रहको ही कम किया झूठी चपरास धारण करने वाला भी धर्मको हो। मुनिके समान नग्न रहकर जैनधर्मके एक बदनाम करता हुमा खोटे ही कर्म बांधता है और बड़े भारी अंगके पालन करनेका दावा करने लगे, अपने इस महापापके कारण कुगतिमें ही जाता है। तो ऐसा करनेसे क्या वह जैनधर्नका मखौल नहीं ____ इस कारण जरूरत इस बातकी है कि सबसे उड़ाएगा और पापका भागी नहीं बनेगा; ऐसे पहले धर्मका सबा स्वरूप बताकर मनुष्योंको ही सिलसिले साग सब्जीके त्यागके कारण सम्यक्ती बनाया जावे, फिर शास्त्रोंमें वर्णन किये जैनधर्मका जो मखोल अन्यमतियों में हो रहा है गये सिलसिलेके मुताबिक ही आहिस्ता आहिस्ता उससे क्या यह लोग पापके भागी नहीं हो रहे हैं। त्यागपर लगाकर उन्हें ऊँचे चढ़ाया जावे, जिससे कमसेकम जैनधर्मकी अप्रभावना तो जरूर ही हो उनका भी कल्याण हो और धर्मकी भी प्रभावना रही है। भतः शास्त्र विरुद्ध त्यागकी प्रथाको हटानेहो । मालम नहीं हमारे पंडित, उपदेशक और के लिये शोर मचाना निहायत जरूरी है। जिनको त्यागी मेरी इस बात पर ध्यान देंगे या नहीं, वे धर्मकी रक्षा करनी है, उनको तो इस आन्दोलनमें बड़े भादमी है, उनकी पूजा है और प्रतिष्ठा है इस शामिल होना ही चाहिये और जिनको धर्मसे प्रेम कारण सभव है कि वे मुझ जैसे तुच्छ भावमीकी नहीं है, उनकी पलासे चाहे जो होता रहे-धर्म बात पर ध्यान न दें। अतः अपने भोले भाईयोंये रे या तिरे उन्हें कुल मतलब नहीं है, हमारा भी निवेदन है कि न तो किसीके बहकायेमें भी उनसे जब मनुरोध नहीं हो सकता ।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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