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महारानी शान्तला [खक-०० भुजवली साची, विजाभूषण
सान्तलादेवी महाराज विष्णुवर्द्धनकी पट्टमहिषी बाहरी मिचिपर स्थापित पाषाणगत सम् ११३३ के एक पायीं । महामण्डलेश्वर, समधिगतपञ्चमहाशब्द, लेखमें अंकित है कि, बोपदेवके द्वारा अपनी राजधानी त्रिभुवनमाल, द्वारावतीपुरवराधीश्वर, यादव कुलाम्बर- द्वारसमुद्र में प्रतिष्ठित पार्श्वनाथकी प्रतिष्ठाके पीछे पुगारी घुमणि, सम्यक्त्व-बड़ामणि आदि अनेक उपाधियोंसे लोग शेषाहत लेकर महाराज विष्णुवनके पास दरबारअलंकृत होयसल वंशके प्रतापी शासक सुविख्यात में बंकापुर गये । उसी समय महाराजने मसन नामक विष्णुवर्धन ही इन शान्तलादेवीके भय पति है। शत्रुको पराजित कर उसके देशपर अधिकार करलिया महाराज विष्णुवर्धन जन्मसे तो जैनी ही थे; पीछे रामा- था तथा रानी लक्ष्मी महादेवीको पुत्र-रत्नकी प्राति हुई नुजाचार्य के षड्यन्त्रसे वैष्णव बन गये थे। फिर भी जैन- थी। उन्होंने उन पुजारियोंकी बन्दना की और गन्धोदक धर्मसे उनका प्रेम लुप्त नहीं हुआ था। इसके लिये अनेक तथा शेपाक्षतको शिरोधार्य किया। महारामने कहा कि सुदृढ प्रमाण मौजद है। इस सम्बन्धमें मैं एक स्वतन्त्र "इस भगवान्की प्रतिष्ठाके पुण्यसे मैंने विजय पाई और लेख ही लिखनेवाला हूँ । वास्तवमें विष्णुवनको जैन- मुझे पुत्ररत्न प्रासिका सौभाग्य प्राप्त हुना, इसलिये मैं धर्मसे सची सहानुभति न होती तो क्या उनकी पह-महिषी इस भगवान्को 'विजयपार' नामसे पुकाऊँगा तथा में महारानी शान्तला जैनधर्मकी एक कट्टर अनुयायिनी हो अपने नवजात पुत्रका नाम भी 'विजयनरसिंहदेव' ही सकती थी १ । हो, विष्णुवर्द्धनकी उपयुल्लिखित रमलगा।" साथ ही, इस मन्दिरके जीर्णोशारादिके उपाधियों से “सम्यक्त्वचड़ामणि" नामकी उपाधि हमें लिये महाराज विष्णुबनने जावुगल्लु' प्राम भेंट किया। स्या सूचित करती है ? वह भी सोचना चाहिये। क्या इन बातोसे विष्णुपनका जैनधर्मसे प्रेम व्यक
अनेक शिलालेख यह भी प्रमाणित करते है कि नहीं होता है !हाँ, यवमतकी दीवाके प्रारम्भमें इनसे महामण्डलेश्वर विष्णुवईनके गंग, मरियपण-जैसे जैनधर्मको काफी धका अवश्य पहुंचा था । अस्तु । सेनापति, भरत-जैसे दानायक, पोयसल एवं विष्णुवर' को प्रतापी थे। इसीलिये शिलालेख नेमिसेहि-जैसे राज-व्यापारी जैनधर्मकै एकान्त भक में एक स्थान पर इनके सम्बन्धमें यहाँ तक लिखा गया थे। महाराज विष्णुवनने स्वयं का जैनमन्दिरीको हैकि इन्होंने इतने दुर्जय दुर्ग जीते, इतने नरयाको दान दिया है। बस्तिहलिमें पार्श्वनाथ मन्दिरकी पराजित किया और इतने पाभितोको उस पल्ट