SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 278
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्ष २, किरण ४ ] न कि मूल गोम्मटसारका । परन्तु उसके उल्लेख द्वारा और सर्व संसारी जीवोंके १९७|| लाख कोटि कुलोंका उल्लेख करके ब्रह्मचारीजी विवादस्थ विषय के सम्बंध में क्या विशेष नतीजा निकालना चाहते हैं वह उनके लेख परसे कुछ भी स्पष्ट नहीं होता ! आप लिखते हैं---" १९७ ।। लाखकोडकुल सर्व संसारी जीवोंके होते हैं। गोत्रकर्म के भी उतने ही भेद होते हैं" । यद्यपि सिद्धान्तग्रंथों में गोत्र कर्मकी दो ही प्रकृतिया बतलाई है—– एक ऊंच गोत्र, दूसरी नीचगोत्र; पटाखण्डागम में भूतल आचार्यने “एवदियाओ पयडीओ" वाक्यके द्वारा यह नियमित किया है कि गोत्रकर्मकी ये ही दो प्रक्रितियां हैं; फिर भी ब्रह्मचारीजीकी इस संख्याका अभिप्राय यदि ऊंच नीच गोत्रोंकी तरतमताकी दृष्टि से हो और उसके अनुसार यह मान भी लिया जाय कि गोत्रकर्मके भी कुलों जितने भेद हैं तब भी वे सब भेद ऊँच नीच के मूल भेदों से बाहर तो नहीं हो सकते ऊँचगोत्रकी तरतमताके जितने भेद हो सकेंगे वे सब ॐ च गोत्रके भेद और नीच गोत्रकी तरतमा के जितने भेद हो सकेंगे व सब नीच गोत्र के होंगे । ऐसी हालत में जीवोंके जिस वर्ग उच्चगोत्रका उदय होगा वहां उच्चगांत्रकी तरतमता को लिये हुए कुल होंगे और जिस वर्ग में नीचगांत्रका उदय होगा उसमें नीचगांत्रकी तरतमता को लिए हुए कुल होंगे | उदाहरण के लिये देवांक २६ लाख नारकियों के २५ लाख कोटि कुल हैं और देवोंमें उच्चगोत्र तथा नारकियों में नीचगोत्रका उदय बतलाया गया है, इससे देवोंके वे सब कुल उच्चगोत्रकी और नारकियोंके नीच गोत्रकी तरतमताको लिये हुए हैं। इसी तरह मनुष्योंके १२ लाख कुलकोटि भी अपने वर्गीकरण के अनुसार ऊँच अथवा नीचगांत्र की तरतमताको लिये हुए है । अर्थात् भोग भूमिया मनुष्यों के कुल जिस प्रकार उच्च गोत्रकर्म-सम्बन्धी विचार २६१ गोत्रकी तरतमताको लिये हुए हैं उसीप्रकार कर्मभूमिज मनुष्यों के कुल भी उच्चगोत्रकी तरतमता को लिये हुए हो सकते हैं । उच्चगोत्रकी इस तरतमताका अभिप्राय यदि ऊँच-नीच गोत्र किया जायगा तो फिर देवों तथा भोग भूमिया मनुष्यों में भी ऊँच-नीच दोनों गोत्री का उदय मानना पड़ेगा। साथ ही, नीचगोत्र संबन्धी तरमतता की भी वही स्थिति होने से नारकियोंके ऊँचनीच दोनों ही गोत्रोंका उदय कहना पड़ेगा । और यह सब कथन जैन सिद्धान्त के विरुद्ध जायगा । अतः ब्रह्मचारीजीके उक्त उल्लेखों परसे कोई भी अनुकूल नतीजा निकलता हुआ मालूम नहीं होता, और इसलिये वे निरर्थक जान पड़ते हैं । (८) ब्रह्मचारी जी लिखते हैं -- " जैसा बीज होता है वैसा असर उस वीर्य से उत्पन्न शरीर में व जीव में बना रहता है ।" साथही यहभी लिखते हैं कि “खानदानी बीज का असर जीव में बना रहना गोत्र कर्मका कारण हूँ ।" इन दोनों वाक्योंको पढ़कर बड़ाही कौतूहल होता है और इनकी निःसारताको व्यक्त करने के लिये बहुत कुछ लिखने की इच्छा भी होती है, पर उसके लिये यथेष्ट अवसर और अवकाश न देखकर यहां इतना ही लिख देना चाहता हूँ कि यदि 'जैसा बीज होता है उसका वैसा असर जीव में बना रहता है' ऐसा ब्रह्मचारीजी मानते हैं तो फिर उन्होंने उच्चगोत्री भोगभूमियामां की कतिपय सन्तानों के लिये कर्मभूमिका प्रारम्भ होने पर नीचगोत्री होने का विधान कैसे कर दिया ? उनके बीज में जो ऊँच गोत्रका असर था वह तो तब बना नहीं रहा !! इसी तरह जब वे भाचरणके अनुसार गोत्रका बदल जाना मानते हैं और जिसकी चर्चा ऊपर नं० ६ में की गई है, तब उस परिवर्तन के पूर्व बीजमं जिस गोत्रका जो 'असर था वह परिवर्तन हो जाने पर कहां
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy