SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 277
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६० अनेकान्त [ माघ, वीर - निर्वाण सं० २४६५ कथनका कोई विरोध होता है। तब यह वाक्य निरर्थक- कर्मकी ऊँच-नीचता नहीं मानते, किन्तु लौकिक जैसा ही रह जाता है। कर्माश्रित ऊंच-नीचता का विधान करते हैं और उसी के आधार पर गोत्रकर्मके उदय अस्त का नृत्य होना बतलाते हैं ? यदि ऐसा है तब तो यह आपका एक निजी सिद्धान्त ही ठहरेगा, और इस सिद्धान्त के अनुसार एक जन्म में सैंकड़ों ही नहीं किन्तु हज़ारों बार गोत्रका परिवर्तन हो जाया करेगा; क्योंकि आम तौर पर मन-वचन-कायके कर्मद्वारा क्षण क्षण में (बहुत कुछ शीघ्र ) मनुष्यपरिणति पलटती रहती है- प्रायः शुभसे अशुभ और अशुभसे शुभरूप होती रहती है । ऐसी हालत में गोत्रकर्म एक खिलवाड़ हो जायगा और उसका कुछ भी सैद्धान्तिक मूल्य नहीं रहेगा | साथ ही, विद्यानन्द स्वामीने आर्योंके उच्चगोत्रका जो उदय बतलाया है वह बात भी नहीं बन सकेगी । अतः ब्रह्मचारीजीको पूर्ण विवेचनात्मक दृष्टिसे अपने कथनका स्पष्टीकरण करना चाहिये । योंही चलती अथवा जो मन आई बात कह देने से कोई नतीजा नहीं । (७) गोम्मटसार--जीव काण्डकी गाथा नं० ११३ में संस्कृतका वैसा कोई वाक्य नहीं है, और न उसका कोई आशय ही संनिविष्ट है, जिसे उक्त गाथा "कहती है" इन शब्दों के साथ उद्धृत किया गया है और फिर जिसका भावार्थ दिया गया है ! उक्त गाथाकी संस्कृत छाया इस प्रकार है. कारण ( ६ ) एकही "वंश में आचरण के गोत्रका उदय बदल जाता है," इसके समर्थन में कोई प्रमाण नहीं दिया गया, और न इसी गतको किसी प्रमाणसे स्पष्ट किया गया है कि उच्चगोत्री भोगभूमियों की संतान कर्मभूमिका प्रारम्भ होते ही कैसे ऊँच-नीच गोत्र में बँट जाती हैं ? भोगभूमि के समय जिनके पूर्व पुरुषों- माता-पितादिमें उच्चगोत्रका उदय था उनके किसी लोकनिंद्य कामके करने मात्र से एकदम नीच गोत्रका उदय कैसे होगया ? क्या गांत्रकर्मके उदय और अस्तका आधार लोककी वह अनिश्चित् मान्यता है, जो सदा एकरूपमें नहीं रहा करती ? युक्ति और आगमसे इन सब बातोंका स्पष्टीकरण हुए बिना ब्रह्मचारीजी के उक्त कथनका कुछ भी मूल्य नहीं आँका जा सकता वह उनकी निजी कल्पना ही समझी जायगी। प्रत्युत इसके, उनका यह कथन श्री पूज्यपाद, अकलंकदेव और विद्यानन्द - जैसे आचार्योंके विरुद्ध पड़ता है; क्योंकि इन आचार्य ने अपने ग्रन्थों में - क्रमशः सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक में 'उच्चगोत्र उसे बतलाया हैं, जिसके उदयसे लोकपूजित कुलांम जन्म होता हैं और नीचगांत्र उसे, जिसके उदयसं गर्हित कुलों में जन्म होता है ।' यह किसी भी ग्रन्थम नहीं बतलाया कि लोकपूजित कुलमं जन्म लेकर भी कोई हीनाचरणमात्र से नीचगोत्री होजाता है अथवा उसका जन्म ही बदल जाता है। और न यही लिखा है कि एक ही जन्म में आचरण के बदल जानेसे गोत्रकर्मका उदय बदल जाता है। क्या ब्रह्मचारीजी जन्म को लेकर अथवा गोम्मटसार के "भवमस्सिय णीचुच्च" वाक्य के अनुसार भवको आश्रित करके गोत्र द्वाविंशतिः सप्त त्रीणि च सप्त च कुल कोटिशतसहस्त्राणि । या पृथिव्युदकाग्निवायुarfarai परिसंख्या || हां, एक टीका में वह ज़रूर पाया जाता है, जब कि दूसरी टीकामें उसका अभाव है । और इसलिये उसे एक टीकाकारका अभिमत कहना चाहिये,
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy