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________________ वर्ष २, किरण ४] गोत्रकर्म-सम्बन्धी विचार २५९ गोत्रका उदय किसी मनुष्यमें है, सर्व मनुष्योंमें नहीं' पांचवें गुणस्थान तक नीच गोत्रका उदय हो सकता वह एक प्रकारसे व्यर्थ जान पड़ता है। क्योंकि बाबू है' वह एक अच्छा प्रमाण ज़रूर है; परन्तु उसका कुछ सूरजभानजीने सब मनुष्यों अथवा मनुष्यमात्रको उच्च- महत्व तब ही स्थापित हो सकता है जब पहले यह सिद्ध गोत्री नहीं बतलाया । पं० टोडरमलजीका "किसी कर दिया जावे कि 'कर्मभूमिज मनुष्योंको छोड़कर मनुष्य" शब्दोंका प्रयोग भी मनुष्यों के किसी वर्गका शेष सब मनुष्यों से किसी भी मनुष्यमें किसी सूचक जान पड़ता है और वह उस वक्त तक 'कर्मभूमिज' समय पांचवां गुणस्थान नहीं बन सकता मनुष्योंके लिये व्यवहृत समझा जा सकता है जब तक है।' बिना ऐसा सिद्ध किये उक्त सामा य कथनसे प्रकृत कि उसके विरुद्ध कोई स्पष्ट उल्लेख न दिखलाया विषयमें कोई बाधा नहीं आती। जाय । बाबूजीने अन्तरद्वीपजोंको नीचगोत्री बतलाकर (४) कर्मकाण्ड-गाथा नं. ३०२, ३०३ के एक वर्गके मनुष्योंको नीचगोत्रके उदयके लिये छोड़ आधार पर भोगभूमिया मनुष्योंके, ७८ प्रकृतियोंके उदय रक्खा है--मन्मूर्च्छन मनुष्य भी नीचगोत्री ही हो सकते का उल्लेख करके, जो उच्चगोत्र का ही उदय होना प्रतिहैं-ऐसी हालतमें कर्मभूमिज मनुष्योंको उच्चगोत्री पादित किया गया है वह निरर्थक जान पड़ता है; बतलाना उक्त टीका वाक्योंसे बाधित नहीं ठहरता, और क्योंकि बाबू सूरजभानजीने अपने लेखमें उन्हें उच्चइसलिये बिना किसी विशेष स्पष्टीकरण के उनका दिया गोत्री स्वीकार ही किया है, सिद्धको साधना व्यर्थ है। जाना व्यर्थ जान पड़ता है। हां, इस उल्लेख परसे ब्रहाचारीजीका मनुष्योंमें उदय यमि योग्य १०२ प्रकृतिवाला उल्लेख और भी निःसार हो उदय योग्य १०२ प्रकृतियोंका कोई उल्लेख नहीं है, जाता है और यह स्पष्टरूपमे समझमें आने लगता है बद उल्लेख गाथा नं० २९८ में ज़रूर है और उसमें कि मनुष्य जातिकं सब वर्गोमें उदययोग्य प्रकृतियाँ जिन प्रकृतियोंका उल्लेख है उनमें नीच गोत्र भी शामिल की संख्या १०२ नहीं है । और इस लिये गाथा नं. हैं: परन्तु वहां यह नहीं बतलाया कि ये १०२ प्रकृतियां २९८ का कथन मनुष्य-सामान्यको लक्ष्य करके ही कर्मभूमिज मनुष्यों में ही उदययोग्य हैं । सामान्यरूपसे किया गया है। मनुष्यजातिक लिये उदय-योग्य कर्मप्रकृतियोंका (५) "वास्तवमं मनुष्योंके दोनों गोत्रोंका उदय उल्लेख किया है और साफ तौर पर 'ओघ' शब्दका है," ब्रह्मचारीजीके इस वाक्यमें प्रयुक्त हुए, 'मनुष्यों प्रयोग किया है, जो सामान्यका वाचक है । इसमे नीच पदका अर्थ यदि ‘मनुष्यमात्र' का है, तब तो उनका गोत्रके उदयका निर्देश अन्तरद्वीपजों और सन्मूर्छन यह कथन अपने उस पूर्व कथनके विरुद्ध पड़ता है मनुष्योंके लिये हो सकता है। बिना स्पष्टीकरणके मात्र जिसमें वे भोगभूमियोंके सिर्फ उच्चगोत्रका ही उदय इस समच्चय-कथनसे कोई नतीजा बाबू सूरजभानजीके बतलाते हैं। और यदि उसका अभिप्राय किसी वर्गलेखके विरुद्ध नहीं निकाला जासकता। विशेषके मनुष्योस है तो जब तक उसका सूचक कोई (३) उक्त ग्रन्थकी गाथा नं० ३०० के आधार विशेषण साथमें न हो तबतक यह नहीं समझा जा पर जो यह प्रतिपादन किया गया है कि मनुष्य में सकता कि इस वाक्यक द्वारा बा. सूरजभानजी के
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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