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वर्ष २, किरण ]
सिद्धसेन दिवाकर
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विवेचना की गई है। दूसरे कांड में दर्शन और शान पर ही उस समयकी विद्वत्ताका प्रदर्शन था। ऊहापोह किया गया है। इसमें आगमोक्त क्रमवाद, चंकि सिद्धसेन दिवाकर जातिसे. ब्राह्मण थे अतः सहवाद, और अभेदवादकी गंभीर एवं युक्तियुक्त मीमांसा उपनिषदों और वैदिक दर्शन ग्रंथोंका इन्हें मौलिक और है । अन्तमें प्रबल प्रमाणोंके आधारसे 'केबलशान और गंभीर ज्ञान था;जैसाकि इनके द्वारा रचित प्रत्येक दर्शनकेवल दर्शन एक ही उपयोगरूप है' इस अभेदवादको की बतीसीसे पता चलता है । बौद्ध और जैन-साहित्यही तर्कसंगत और प्रामाणिक सिद्ध किया है। तीसरे का भी इन्होंने तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया था और कांड में सामान्य, विशेष, द्रव्य, गुण, एक ही वस्तुमें प्राकृत भाषापर भी इनका पूर्ण अधिकार था, ऐसा अस्तित्व आदिकी सिद्धि, अनेकांतकी व्यापकता, उत्पत्ति- मालूम होता है। नाश स्थिति-चर्चा, आत्माके विषयमें नास्तित्व प्रादि सिद्धसेन दिवाकर जैनसमाजमें "स्तुतिकार" के ६ नयोंका मिथ्यात्व और अस्तित्व आदि ६ पक्षोंका रूपसे विख्यात हैं। इसका कारण यही है कि इनकी सम्यक्व, प्रमेयमें अनेकान्त दृष्टि आदि आदि गढदार्श- उपलब्ध बतीसियोंमें से ७ बतीसियाँ स्तुति-श्रात्मक हैं । निक बातों पर अच्छा स्वतंत्र और प्रशस्त विवेचन इन स्तुति-स्वरूप बतीसियोंमें वे भगवान् महावीर स्वामीकिया गया है।
के भक्तिवर्णनके बहाने उनके तत्वज्ञानकी और चरित्रकी .
गंभीर तथा उच्चकोटिकी मीमांसा करते हुए देखे जाते अन्य ग्रंथ
हैं। मालूम होता है कि भगवान् महावीर स्वामीके कहा जाता है कि इन्होंने ३२ द्वात्रिंशिकानोंकी तत्त्वज्ञानका हृदयग्राही अध्ययन ही इन्हें वैदिक दर्शनसे भी रचना की थी। किन्तु वर्तमानमें केवल २२ द्वात्रिंशि- जैन-दर्शनमें खींच लाया है । भगवान् महावीर स्वामीके काएँ (बतीसियाँ ) ही पाई जाती हैं। जिनकी पद्य- तत्त्वज्ञान पर थे इतने मुग्ध और संतुष्ट हुए, कि इनके संख्या ७०४ के स्थान पर ६६५ ही हैं। इन बतीसियों मुखसे अपने आप ही चमत्कारपूर्ण अगाध श्रद्धामय और पर दृष्टि-पात करनेसे पता चलता है कि सिद्धसेनयुग भक्ति-रसभरी बतीसियाँ बनती चली गई । रचयिताके एक वादविवादमय संघर्षयुग था। प्रत्येक संप्रदायके प्रौढ़ पांडित्य के कारण उनमें भगवान महावीर स्वामीके विद्वान् अपने अपने मतकी पुष्टि के लिये न्याय-शैलीका उत्कृष्ट तत्त्वज्ञानका सुन्दर समावेश और स्तुत्य संकलन ही अनुकरण किया करते थे । सिद्धसेन-युग तक हो गया है। भारतीय सभी दर्शनोंके न्यायग्रन्थोंका निर्माण हो चुका प्राप्त बतीसियोंमें कहीं कहीं पर हास्य रसका पुट भी था । बौद्ध-न्याय-साहित्य और वैदिक न्यायमाहिल्य काफी पाया जाता है, इससे पता चलता है कि सिद्धसेन विकासको प्राप्त हो चुका था।
दिवाकर प्रकृतिसे प्रफुल्ल और हास्यप्रिय होंगे। इनकी तत्कालीन परिस्थिति बतलाती है कि उस समयमें बतीसियोंमें से दो यतीमियाँ (वादोपनिषद् द्वात्रिंशिका न्याय-प्रमाण चर्चा और मुख्यतः परार्थानुमान चर्चा और वादद्वात्रिंशिका) वाद-विवाद-संबंधी हैं । एक पर विशेष वाद विवाद होता था। संस्कृत-भाषामें, गद्य बतीसी किसी राजाके विषय में भी बनाई हुई देखी जाती तथा पद्यमें स्वपक्षमंडन और परपक्षखंडनको रचनाएँ है, जिससे अनुमान किया जासकता है कि सिद्धसेन