SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 548
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ VEX अनेकान्त [आषाद,धोर-निर्वाण सं०२४६५ मालामें प्रकाशित रत्नकरण्डभावकाचारकी प्रस्तावनाके की । न्यायावतारमें केवल ३२ श्लोक हैं, जो कि 'अनुसमन्तभद्र-विषयक अंशको देखनेका अनुरोधकर मूल टुप् छन्दमें संगुंफित हैं। यही श्वेताम्बर जैनन्यायका विषय पर आता हूँ। ............... . आदि ग्रन्थ माना जाता है। इसमें प्रमाण, प्रमेय, . .. प्रमाता, प्रमिति, प्रत्यक्ष, परोक्ष, अनुमान, शब्द, पक्ष, साहित्य-सेवा हेतु, दृष्टान्त, दूषण आदि एवं इन सम्बन्धी तदाभास सिद्धसेन नामके अनेक प्राचार्य जैनसमाज में हो तथा नय और स्याद्वादका संबध आदि विषयों पर गये हैं; किन्तु यहाँ पर वृद्धवादी प्राचार्यके शिष्य और जैनमतानुकूल पद्धतिसे, दार्शनिक संघर्षका ध्यान रखते श्वेताम्बरीय जैनन्यायके आदि-प्रतिष्ठापक, महाकवि, हुए, जो विवेचना की गई है, और जैन न्यायरूप गंभीर अजेयवादी, गंभीर वाम्मी और दिवाकर पदवीसे विभ- समुद्रकी जो मर्यादा और परिधि स्थापित की गई है, षित “सिद्धसेन" से ही तात्पर्य है । ये अपने समयके उसको उल्लंघन करनेका अाज दिन तक कोई भी जैन 'युगप्रधान-युग निर्माता' आचार्य थे। इनके समय नैयायिक साहस नहीं कर सका है। यद्यपि पीछेके सम्बन्धमें विद्वानोंमें मतभेद है; किन्तु माना यह जाता विद्वान जैन नैयायिकोंने अपने अमर ग्रंथों में इतरहै कि ये विक्रमकी तीसरी-चौथी-पाँचवीं शताब्दिके बीच दर्शनोंके सिद्धान्तोंका न्याय-शैलीसे विश्लेषण करते हुए में हुए होंगे। साहित्य-क्षेत्रमें ये सचमुच ही प्रकाश- बड़ा ही सुन्दर और स्तुत्य यौद्धिक-व्यायामका प्रदर्शन स्तम्भ (Light-House )के समान ही हैं । किया है । किन्तु यह सब प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकरके ___ जैन-न्यायके स्वरूपकी जो मर्यादा इन्होंने स्थापित द्वारा बताये हुए मार्गका अवलम्बन करके ही किया की और जो न्याय-पारिभाषिक शब्दोंकी परिभाषा गया है। स्थिर की उसीके आधार परसे-उसी शैलीका अनु- 'सन्मति तर्क' इनकी प्राकृत-कृति है। यह भी पद्य करण करते हुए पश्चात्-वर्ती सभी श्वेताम्बर आचार्यों ग्रंथ है । इसका प्रत्येक छंद (उर्फ गाथा) आर्या है ने अर्थात् हरिभद्रसूरि, मल्लवादी, सिंह क्षमाश्रमण, तर्क- और यह तीन कांडोंमें विभाजित है । प्राचीन कालसे पंचानन अभयदेवसूरि, वादी देवसूरि, प्राचार्य हेमचन्द्र लगाकर अठारहवीं शताब्दि तक के उपलब्ध सभी पद्य और उपाध्याय यशोविजय आदि प्रौढ़ एवं वाग्मी-जैन मय प्राकृत ग्रन्थ प्रायः इसी "आर्या' छंदमें रचे हुए नैयायिकोंने उच्चकोटिके जैन-न्याय-ग्रंथोंका निर्माण करके देखे जाते हैं । यद्यपि कुछ ग्रन्थ अनुष्टुप् और उपजाति जैनदर्शनरूप दुर्गको ऐसा अजेय बना दिया कि छंदोंमें भी पाये जाते हैं किन्तु प्राकृत-पद्य-साहित्यका जिससे अन्य दार्शनिकोरूप प्रबल आक्रांताओं द्वारा अधिकांश भाग 'आर्या' में ही उपलब्ध है। भीषण आक्रमण और प्रचंड प्रहार करने पर भी इस सन्मति-तर्कके तीनों कांडोंमें क्रमशः ५४, ४३, जैनदर्शनरूपी दुर्गको ज़रा भी हानि नहीं पहुंच सकी। और ६६ के हिसाबसे कुल १६६ गाथाएँ हैं। प्रथम ___ आचार्य सिद्धसेन दिवाकरने प्रमाणवादके प्रस्फुटन कांडमें नय, व्यंजनपर्याय, अर्थपर्याय, नयका सम्यक्त्व के लिये 'न्यायावतार' की और अनेकान्तवाद एवं और मिथ्यात्व, जीव और पुद्गल का कथंचित् भेदाभेद, नयवाद के विशदीकरण के लिये 'सम्मति तर्क' की रचना नयभेदोंकी भिन्नता और अभिन्नता आदि विषयों पर
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy