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________________ ४६६ अनेकान्त [असाढ़,वीर-निर्वाण सं०२४६५ दिवाकरको राजसभाओं में भी वाद विवाद के लिये- न्याय, सांख्य, वैशेषिक, बौद्ध, आजीवक और वेदान्त जैनधर्मको श्रेष्ठ सिद्ध करनेके लिये-जाना पड़ा होगा। दर्शनों से प्रत्येक दर्शन पर एक एक स्वतंत्र बतीसी इस विषयसे सम्बन्ध रखनेवाली इनकी कृतियोंको देखने लिखी गई है। मीमांसक-दर्शन-संबंधी कोई बतीसी उपसे पता चलता है कि ये वाद-विवाद-कलामें कुशल और लब्ध नहीं है, इससे अनुमान किया जा सकता है कि कुशाग्र बुद्धिशील होंगे । इनकी वर्णनशैली यह प्रमाणित नष्ट शेष बतीसियोंमेंसे मीमांसक-बतीसी भी एक होगी। करती है कि मानों ये अनुभूत बातोंका ही वर्णन कर छः बतीसियोंमें विशुद्ध रूपसे जैन दर्शनका वर्णन किया रहे हों। गया है। यों तो सभी बतीसियोंमें मिलाकर लगमग १७ इनके सम्यक्त्व-श्रद्धा-के दृष्टिकोणसे यह कहा प्रकारके छंदोका उपयोग किया गया है; किन्तु अधिकांश जा सकता है कि ये पूरी तरहसे जैनधर्मके रंगमें रंग श्लोकोंकी रचना 'अनुष्टुप् छन्दमें ही की गई है। इनकी गये थे । वैदिक मान्यताओंको जैनधर्मकी अपेक्षा हीन ये कृतियाँ बतलाती है कि षट् दर्शनों पर इनका अगाध कोटिकी समझने लगे थे । इसका प्रमाण यह है कि अधिकार था। इन कृतियोंसे जैन-साहित्यकी रचना स्वपक्ष और परपक्षकी विवेचना करते समय परपक्षकी पर अभूतपूर्व प्रभाव पड़ा है । प्रायःसंपूर्ण जैनसंप्रदायमें किसी किसी प्रबल तर्क संगत बातको भी निर्बल तोंके षट्-दर्शनोंका पठन-पाठन और इन दर्शनोंकी न्यायप्राधारसे खंडन करते चले जाते हैं; जब कि स्वपक्षकी शैलीसे खंडन-प्रणाली इन कृतियोंको देखकर ही प्रारंभ किसी तर्क-असंगत यातको भी श्रद्धाके आधार पर सिद्ध हुई जान पड़ती है। चूंकि सिद्धसेन दिवाकरसे पूर्व करनेका प्रयास करते हैं। रचित श्वे. जैन साहित्यमें पट-दर्शनोंके संबंधमें नहीं प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर द्वारा रचित एवं उप- कुछके बराबर ही विवेचना पाई जाती है, अतः यह लब्ध २२ बतीसियोंमें से ७ तो स्तुति-श्रात्मक हैं, दो निस्संकोच रूपसे कहा जा सकता है कि श्वे. जैन समीक्षात्मक और शेष १३ दार्शनिक एवं वस्तु-चर्चा- समाजमें घट-दर्शनोंके पठन-पाठनकी प्रणाली और त्मक है। इन संबंधी विवेचना करनेका श्रेय प्राचार्य सिद्धसेन ___ बतीसियोंकी भाषा, भाव, छंद, अलंकार, रीति दिवाकरको ही प्राप्त है । इस दृष्टिसे जैनसमाज पर इन और रसकी दृष्टिसे विचार करनेपर ज्ञात होता है कि प्राचार्यका कितना मारी उपकार है-इसकी पाठक प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकरकी प्रतिभा और शक्ति मौलिक स्वयं कल्पना कर सकते हैं। तथा अनन्य विद्वता-सूचक थी। स्तुत्यात्मक बतीसियोंमें अन्य प्राचार्योकी श्रद्धांजलियाँ से ६ तो भगवान महावीर स्वामी संबंधी हैं और एक पीछेके सभी श्राचार्योंने सिद्धसेन दिवाकरको अपने किसी राजा संबंधी। समीक्षात्मकमें जल्प श्रादि वाद- अपने ग्रन्थों में अत्यन्त आदर पूर्वक स्मरण किया है । कथाकी मीमांसा की गई है । दार्शनिक बतीसियोंमें इनके पद्योंको अपने मन्तव्यकी पुष्टि के लिये अनेक • अच्छा होता यदि इस विषयका एक-आध बड़े बड़े समर्थ प्राचार्यों तकने अपने ग्रंथोंमें प्रमाणउदाहरण भी साथमें उपस्थित कर दिया जाता। स्वरूप उद्धृत किया है । इनके प्रति श्रादर बुद्धि के -सम्पादक थोडेसे उदाहरण निम्न प्रकारसे है:
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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