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________________ वर्ष २, किरणं ६] 'योनिप्राभृत' और 'जमत्सुन्दरी-योगमाला' - पहली तरफ- ........ .. धरसेन प्राचार्य न होकर 'प्रश्नभवण' नामके कोई मुनि "इस पयासक्यसप भूषवलीपुष्फवंतत्राविहिए। .. हैं, पुष्पदन्त तथा भूतबलि उनके शिष्य है और यह कुसुमंडी उबहढे विजापविणम्मि पक्पिारे" . . ग्रंथ उन शिष्योंको शानानन्दका दायक है-फलितार्थ दूसरी तरफ़- ... रूपमें उनके लिये रचा गया है इतना मालूम होनेके "सिरिपण्हसवणमुणिया संखेने पवाखतंतंग।"६१६ साथ साथ इस ग्रंथके कुछ दूसरे विशेषणोंका भी पता ___ इससे भी अधिक स्पष्ट हकीकत योनिप्राभृतिके चलता है, जिनमें यह सूचित किया गया है कि यह अन्तिम बिना अङ्कके कोर-कोरे पत्र पर दी हुई है, और अंथ कूष्माडिणी महादेवीके द्वाग प्रश्नभवश मुनिको वह इस प्रकार है उपदिष्ट (ज्ञात) हुअाहे, ज्वर-भूत-शाकिनीके लिये मार्तण्ड "ज्वरभूतशाकिनीमार्तवलं, है, समस्त निमित्तशास्त्रोंकी उत्पत्ति के लिये योनिभूत है, समस्वनिमित्तशात्रोत्पत्तियोनि, विजनचित्त- विद्वजनोंके चित्तके लिये चमत्काररूप है, समस्त विद्याः चमत्कारं, पंचमकालसर्वज्ञ, सर्वविद्या-धातुवादादि- श्री तथा धातुवादादिके विधानको. लिये हुए है, जनविधानं, जमन्यवहारचन्द्रचन्द्रिकाचकोरम्, भायुर्वेद- व्यवहाररूपी चन्द्रमाकी चाँदनीके लिये चकोरके समान रक्षितसमस्तपत्वं, परमश्रवणमहामुनि-माल्डिनीमहा- है, आयुर्वेदका पूरा सार है और पंचमकालके लिये देव्या उपविष्टं (त्यं), पुष्फवंतादि भूतबलिशि (सि)व्य- सर्वज्ञतुल्य है।' इस पिछली यातको पुष्ट करनेके लिये हृष्टिदायकं इत्थं (थं) भूतं योनिप्राभूतथं ॥ पुनः यहाँ तक लिखा है कि 'जो कोई योनिप्राभतको कलिकाले सव्वणू जो जाणड जोखिपाहुरं गंथं। जानता है वह 'कलिकालसर्वश' और 'चतुर्वर्गका जत्थ गमो तत्थ गमो चढवामहिहिमो दोह अधिष्ठाता' होता है।' साथही, यह भी सूचित किया है कि मंत्र-यंत्रादिकोंमें मिथ्यादृष्टियोंका तेज उसी वक्त तक कायम है जब तक कि लोग इस प्रथको नहीं सुनते - तावद् मिथ्यार (द) शां तेजो मन्त्रमन्त्रादिषु x x इससे परिचित नहीं होते हैं।' Xशृण्वन्ति (शृणंति) धीमतः इति श्रीमहाग्रंथ योनिप्रामृतं श्रीपबहसवबमुनि ये भूतबलि और पुष्पदन्त नामके शिष्य कौन हैं ? इनका कोई विशेष परिचय मालूम नहीं है। विरचितं समासं" इस अवतरणपरसे प्रकृत योनिप्राभृतिके रचयिता पं० बेचरदासजीने इनके साथ 'लघु' विशेषण लगाया है, जो उन भूतबलि-पुष्पदन्तसे इनकी जुदायगीका ( ) इस कोष्ठकके भीतरका पाठ मूल प्रतिका सूचक है जो धरसेनाचार्यके शिष्य थे,परन्तु मूल परसे पाठ है, जो कि अशुद्ध है। ऐसा कुछ उपलब्ध नहीं होता । यदि ये धरसेनाचार्य___ x इस चिन्ह वाले स्थानका पाठ उपलब्ध नहीं के ही शिष्य हों तो 'प्रश्नश्रवण' मुनिको धरसेनका -छूट गया अथवा पत्रके फट जाने-घिस जाने नामान्तर कहना होगा; परन्तु यह बात ग्रंथ प्रकृति आदिके कारण नष्ट हुआ जान पड़ता है। . परसे कुछ जीको लगती सी मालूम नहीं होती।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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