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________________ ४५८ अनेकान्त [प्राषाढ़, बोर- निर्वाणसं०२४६५ उक्त अवतरणके बाद ही, उसी पत्र पर, इस ग्रंथ जाति कल्वकरणे मणोरहा बेहसवोव ४२ प्रतिके लिखे जानेका संवतादि दिया है, जो इस प्रकार धम्मत्थकाममोक्खं जन्हा मजुषाण रोमारोग्गा (ग)। तम्हा तस्स उवाचं साहितं निसामेहि ॥ ५॥ . "संवत् १९८२ वर्षे शाके १४४७ प्रवर्त (4) हारीव-गग्ग-सूसथ-विजयसत्थे प्रयाणमाणो र माने दक्षिणायन (मान) गते श्रीसूर्ये भावहमासकृष्ण- पोबा तहवि माला भमि जपसुंदरी नाम " परे तृतीयायो तियौ गो x x शातीय पं० नलासुत इसमें जगत्सुन्दरीयोगमालाके रचनेकी प्रतिज्ञा श्रीकम लिखितं" करते हुए और उसके रचनेका यह उद्देश्य बतलाते हुए इससे यह ग्रंथप्रति प्रायः ४१४ वर्षकी पुरानी कि धर्म-अर्थ-काम-मोक्षकी सिद्धि चूंकि श्रारोग्यसे होती लिखी हुई है और उसे नलासुत श्रीकम या 'टीकम' है इसलिये उसका उपाय साध्य है और उसे इस ग्रंथ नामके किसी पंडितने लिखा है। परसे जानना चाहिये, ग्रंथकारने अपनी कुछ लघुता इसमें २०३ पत्र पर एक जगह यह वाक्य पाया प्रकट की है और यह सूचित किया है कि वह हारीत, जाता है-“योनिप्रामृते बालानां चिकित्सा समाता" गर्ग और सुश्रुतके वैद्यक. ग्रन्थोंसे अनभिज्ञ है फिर भी जिससे मालम होता है कि वहाँ पर योनिप्राभृत्में बालकों योगाधार पर इस ग्रंथकी रचना करता है । साथ ही,एक की चिकित्सा समाप्त हुई है। बात और भी प्रकट की है और वह यह कि 'उसे पाहुड. ___ अब 'जगत्सुन्दरी-योगमाला' को लीजिये। यह ग्रंथ ग्रंथ (योनिप्राभत ) उपलब्ध नहीं है, जिसका उल्लेख पं० हरिषेणका बनाया हुआ है, जैसा कि एक अङ्करहित “योनिमामतालाभे" पदके द्वारा पूर्वोल्लेखित वाक्यमें भी पत्र पर दिये हुए उसके निम्न वाक्यसे प्रकट हैं- किया है । इस योनिप्राभृत ग्रंथको 'महिमाणेण विरइयं' . “इति पंडित श्री हरिषेणेन मया योनिप्राभृतालाभे पदके द्वारा वह संभवतः उस 'अभिमानमेरु' कविका स्वसमयपरसमयवैद्यकशासारं गृहीत्वा जगत्सुन्दरी बनाया हुआ सूचित करता है जिसे हेमचन्द्राचार्यने योगमालाधिकारः विरचितः।" 'अभिमानचिह्न' के नामसे उल्लेखित किया है और जो · यह ग्रन्थ २०वें पत्रसे प्रारम्भ होता है, जिसकी अपभ्रंश भाषाके त्रिषष्ठिलक्षण मह. पुराणका कर्ता पहली तरफका बिल्कुल अन्तिम भाग और दूसरी तरफ 'खण्ड' उपनामसे मा अंकित 'पुष्पदन्त' नामका महाकवि का कुछ भाग इस प्रकार है हुआ है। इससे दो बातें पाई जाती हैं--या तो अभि"कुवियगुरुपायमूले न हु लद्धं अम्हि पाहुडं गंथं। मानमेरु (पुष्पदन्त) का भी बनाया हुआ कोई योनिअहिमाणेण विरहयं इय अहियारं सुस...."ऊ प्राभूत ग्रंथ होना चाहिये, जिसका प० हरिषेणको पता णमिण पुन्वविज्जं जाण पसाएण भाउविजं तु। . था परन्तु वह उन्हें उपलब्ध नहीं हो सका था और या पतं अणुक्रमेण संपह अम्हारिसा जाव ॥४०॥ उनका यह लिखना ग़लत है, और किसी ग़लत सूचना सुललियपवयण सालंकारं सलक्खणं सरसं। पर अवलम्बित है । अस्तु । हवह भुवणस्मिसारं कस्सेव पुरणे(णे)हि कलियस्स ॥४१॥ अब इन ग्रन्थोंके कुछ साङ्क पत्रोंपरसे उन पत्रोंमें अम्हण पुणो परिमियव (म) यणसहस्पछदरहियाणं । वर्णित विषयकी जो सूची संकलित की गई है उसे पत्राङ्क
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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