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________________ ५६४ अनेकान्त [भाद्रपद, वीर-निर्वाण सं०२४६५ नहीं, जैन विद्वानोंने बौद्धोंके प्राचार, उनकी प्रात्मा ही है । बुद्ध के 'सर्व दुःखं, सर्व क्षणिक, सर्व अनात्म' और निर्वाण-संबंधी मान्यताओंका घोर विरोध किया है। सिद्धांतोंकी भित्ति अनात्मवादके ही ऊपर स्थित है । अकलंकदेवने रानवार्तिक आदिमें रूप, वेदना, संज्ञा, बुद्धके अष्टांग मार्गमें भी आत्माका कहीं नाम नहीं संस्कार और विज्ञान इन पंचस्कंधोंके निरोधसे अभावरूप आता । वहाँ केवल यही बताया गया है कि मनुष्यको जो बौद्धोंने मोक्ष माना है, उसका निरसन किया है, सम्यक् आचार-विचारसे ही रहना चाहिये । इतना ही और आगे चलकर द्वादशांगरूप प्रतीत्यसमुत्पाद (पडिच्च- नहीं, बल्कि बुद्धने स्पष्ट कहा है कि मैं निल आत्माका समुप्पाद) का निराकरण किया है । अब जरा ब्रह्मचारी उपदेश नहीं करता, क्योंकि इससे मनुष्यको आत्मा ही जीके शब्दों पर ध्यान दीजिये सर्वप्रिय हो जाती है और उससे मनुष्य उत्तरोत्तर __ "संसारमें खेल खिलाने वाले रूप, संज्ञा, वेदना, अहंकारका पोषण कर दुःखकी अभिवृद्धि करता है । मंस्कार व विज्ञान जन्म नष्ट हो जाते है, तब जो कुछ इसलिये मनुष्यको श्रात्माके झमेलेमें न पड़ना चाहिये शेष रहता है, वही शुद्ध प्रात्मा है । शुद्ध प्रात्माके इसी बातको तत्त्वसंग्रह-पंजिकाकारने कितनी सुन्दरतास संबंधमें जो जो विशेपण जैन शास्त्रों में है. वे सब बौद्धोंके अभिव्यक्त किया है:निर्वाणके स्वरूपसे मिल जाते हैं । निर्वाण कहो या साहंकारे मनसि न शमं याति जन्मप्रबंधो। शुद्ध श्रात्मा कहो एक ही बात है। दो शब्द है,वस्तु दो नाहंकारश्चलति हृदयादात्मष्टौ च सत्यां । नहीं है"। अन्यः शास्ता जगति भवतो नास्ति नैरास्यवादी॥ एक ओर अकलंकदेव बौद्धोंके अभावरूप मोक्षका नान्यस्तस्मादुपशमविधेस्त्वन्मतादस्ति मार्गः॥ रखंडन करते हैं दूसरी ओर ब्रह्मचारीजी उसे जैनधर्म- यही कारण है कि बुद्ध ने श्रात्मा आदिको 'अव्याद्वारा प्रतिपादित बताकर उसकी पुष्टि करते हैं। कत' (न कहने योग्य) कहकर उसकी श्रोरसे उदासीनता ___ ब्रह्मचारीजीने अपनी उक्त पुस्तकमें जैन और बताई है । बौद्ध पुस्तकोंके अनेक उद्धरण देकर जैन और बौद्धोंकी यहां बौद्धोंका आत्माके विषयमें क्या सिद्धांत है, आत्म-संबंधी मान्यताको एक बताने का निष्फल प्रयत्न इसपर कुछ संक्षेपमें कहना अनुचित न होगा । बौद्धोंका किया है । किंतु हम यह बता देना चाहते हैं कि दोनों कथन है कि रूप, वेदना, विज्ञान संज्ञा और संस्कार धर्मोकी श्रात्माकी मान्यता में श्राकाश पातालका अंतर इन पंचस्कंधोंको छोड़कर श्रात्मा कोई पृथक् वस्तु नहीं है। यदि महावीर श्रात्मवादी हैं-उनका मिद्धांत श्रात्मा- है। इस विषयपर 'मिलिन्दपण्ह' में जो राजा मिलिन्द की ही भित्तिपर खड़ा है तो बुद्ध अनात्मवादी है और उनका और नागसेनका संवाद आता है, उसका अनुवाद नीचे सिद्धांत अनात्मवादके बिना ज़रा भी नहीं टिक सकता। दिया जाता है:महावीरने सर्व प्रथम श्रात्याके ऊपर जोर दिया है और "मिलिन्द-भन्ते, आपका क्या नाम है ? बताया है कि श्रात्मशुद्धि के बिना जीवका कल्याण होना नागसेन महाराज, नागसेन । परन्तु यह व्यवहार असंभव है ,और वस्तुतः इसीलिये जैनधर्ममें सात तत्त्वों- मात्र है, कारण कि पुद्गल ( अात्मा ) की उपलब्धि का प्रतिपादन किया है । तथा बौद्धधर्ममें इसके विपरीत नहीं होती।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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