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________________ ५.२६ : अनेकान्त [आषाढ, वीर निर्वाण सं.२.१५ अनुसार बनस्पति मादि एकेन्द्रिय जीवोंके घात- कर सकता हूँ, तो भी इतना तो मुझे करना ही की बुट्टी देकर सजीवोंके घातको ही मनाही की चाहिये कि जो कुछ भी करूँ अपने लिये ही करूँ, गई है । अपने भावोंकी उमति करता हुआ मनुज्य दूसरोंकोतो उनके सांसारिक मामलों में किसी प्रकार जिस जिस दर्जेमें पहुँचता जाता है उस ही दर्जेके की सलाह वा सहायता न दूं। ऐसा विचार कर भावोंके अनुसार प्राचार्य उसको त्यागकी शिक्षा वह अनर्थ दंड त्याग नामका सातवाँ व्रत भी धारण देते गये हैं, यह ही जैनधर्मकी बड़ी भारी खूबी है। करता है, जिससे दूसरे लोग भी उसको उसके __ किसी काममें सलाह और सहायता देना बन्द कर (३) भोगोपभोगपरिमाण प्रत देते हैं और वह दुनियाके लोगोंसे कुछ अलग व्रतप्रतिमाधारी गृहस्थ हिंसा, झूठ, चोरी थलग सा ही रह जाता है--संसारसे विरक्तसा ही और कामभोगका एकदेश त्यागी होकर गृहत्याग- बन जाता है । इसके बाद ही वह भोगोपभोगपरिका अभ्यास करने के वास्ते गृहस्थमें काम आनेवाली माण व्रत धारण करनेके योग्य होता है। सर्वप्रकारकी वस्तुओंका भी परिमाण करने लगता जो वस्तु एक वार भोगनेमें आवे वह भोग; है-उनकी भी हदबन्दी करना शुरू कर देता है। जैसे खाना, पीना और जो बार बार भोगने में इतनी ही वस्तुओंसे अपनी गृहस्थी चलाऊँगा, आवे वह उपभोग; जैसे वस्त्र, मकान, सवारी, इससे अधिक न रखूगा, इस प्रकारका संतोष करके आदि । इन सबका परिमाण करके अपनी इन्द्रियोंके बहुत ही सादा जीवन बिताने लगता है, तब उसके विषयोंको घटाना इस ब्रतका असली उद्देश्य परिग्रहपरिमाण व्रत होकर पांचों अणुव्रत पूरे है, जिसका विधान शालोंमें इस प्रकार किया होजाते हैं। फिर वह और भी अधिक त्यागी होने- है:-- के वास्ते सब तरफ़की दिशाओंका परिमाण करना (१) रत्नकरंडश्रावकाचार में लिखा है कि 'त्रप है कि उनके अन्दर जितना भी क्षेत्र आवे उस ही के जीवोंकी हिंसाके खयालसे मांस और मधका, अन्दर अपना सम्बन्ध करूँगा। उससे बाहर कुछ प्रमादके खयालसे मद्यका त्याग कर देना चाहिये; भी वास्ता न रखूगा, इस प्रकारका नियम करता और फल थोड़ा तथा हिंसा अधिक होने के खयालसे है, तब उसके दिग्बत नामका अठा व्रत होता है, मूली और गीला अदरक आदि अनन्तकाय सायाजिससे उसके संसारका कारोबार और भी कम हो रण बनस्पतिको और नौनी घी और नीम तथा जाता है, संतोष और वैराग्य बढ़ जाता है। केतकीके फूल आदि को भी त्यागना चाहिये, जो इसके बाद वह सोचता है कि जो कुछ भी हानिकारक हो उनको भी छोड़े और जो भले थोड़ा-बहुत गृहस्थका कार्य मैं करता हूँ उसमें भी पुरुषों के सेवन योग्य न हों अर्थात् निंदनीक हों कुछ न कुछ हिंसा तो ज़रूर होती है, परन्तु मेरे उनको भी छोड़े । साथ ही भोजन, सवारी, बिस्तर, मोहकर्मका ऐसा प्रबल उदय है कि इन धंधोंको स्नान, सुगंध, ताम्बूल, वस्त्र, अलंकार, काम, भोग, भी छोड़ पूर्ण त्यागी हो मुनि बननेका साहस नहीं संगीत आदिको समयकी मर्यादा करके त्यागता
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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