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________________ वर्ष २, किरण t] हरी साग-सब्जीका त्याग ५२५ संकल्पास्कृतकारितमननायोगत्रयस्थचरसत्वान् । धर्ममहिसारूपं संभगवन्तोऽपि चे परित्यतुम् । न हिनस्ति पत्तदाहुः स्थूलवाद्विरमणं निपुणाः॥५३॥ स्थावरहिंसामसहाबसहिंसा तेऽपि मुन्न . मयमांसमधुत्यागैः सहाणुनतपकम् । स्तोकेन्द्रियपाताद् गृहिण सम्पवयोग्यविषयावाम् । ' अष्टौ मूलगुणान्याहुगृहिणां श्रमणोक्षमाः ॥६६॥ शेषस्थावरमारण विरमणमपि भवति करणीयम् ॥ ७॥ (३) तत्वार्थसूत्र अध्याय ७ सूत्र ३० की (६) अमितगति श्रावकाचार अध्याय ६ में टीका करते हुए, सर्वार्थसिद्धिमें भी त्रसजीयोंके लिखा है कि 'बस और स्थावर दो प्रकारके जीवों घातके त्यागको ही अहिंसाणुव्रत बताया है.-- मेंसे त्रस जीवोंकी रक्षा करना अहिंसाणुत्रत त्रसप्राणिम्पपरोपाणाशिवृत्तः अगारीत्याचमणुव्रतम् । है । जो स्थावरकी हिंसा करता है और त्रसकी राजवार्तिकमें भी द्वीन्द्रियादि त्रस जीवोंके रक्षा करता है, जिसके परिणाम शुद्ध हैं और घातके त्यागको ही अहिंसाअणुव्रत लिखा है- . जिसने इन्द्रियोंके विषयोंको नहीं त्यागा है वह दीन्द्रियादीनां जंगमानां प्राणिनां व्यपरोपणात् संयमासंयमी है (श्रावक)। घरका काम करता हुआ त्रिधा निवृत्तः भगारीत्यायमणुवतम् । गृहस्थ मंदकषायी होता हुआ भी प्रारम्भी हिंसाको श्लोकवार्तिकमें भी दो इन्द्रिय आदिके घातका नहीं त्याग सकता है।' यथात्याग अहिंसाणुव्रत बताया है-- द्वेधा जीवा जैनैर्मताबसस्थावरादिभेदेन । स हि द्वीन्द्रियादि व्यपरोपणे निवृत्तः । तत्र सरक्षायां तदुच्यतेऽणुवतं प्रथमम् ॥४॥ (४) स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षाकी निम्न गाथामें स्थावरघाती जीवनससंरची विशुद्धपरिणामः । भी मन, वचन, काय और कृत,कारित,अनुमोदना- योऽक्षविषयानिवृत्तः स संयतासंयतो शेयः ॥५॥ से त्रस जीवोंकी हिंसा न करना अहिंसा अणुव्रत गृहवाससेवनरतो मंदकषायप्रवर्तितारम्भः । कहा है यथा-- भारम्भजां स हिंसां शक्तोति न रक्षितुं नियतम् ॥७॥ तसघादं जो ण करदि मणवयकाएहिं व कारयदि। (७) वसुनन्दी श्रावचाकारमें लिखा है कि 'त्रस कुब्वंतं पि ण इच्छदि पढमवयं जायदे तस्स ॥३३२॥ की हिंसा नहीं करना और एकेन्द्रियकी भी बिना (५)पुरुषाथसिद्धयु पायमें लिखा है कि अहिंसा- प्रयोजन हिंसा नहीं करना अहिंसाणुव्रत हैरूप धर्मको सुनकर भी जो स्थावर जीवोंकी हिंसा जेतसकाया जीवा पुष्वुदिडा य हिंसयम्वा ते । को नहीं छोड़ सकता है वह त्रसको हिंसाका तो एइंदिया विणिकारणेण पडमं वयं थूलं ॥२०॥ अवश्य त्याग करे, विषयोंको न्यायपूर्वक सेवन इस प्रकार अहिंसाणुव्रतके कथनमें भी कहीं करनेवाले गृहस्थोंको थोड़ेसे एकेन्द्रिय जीवोंका एकेन्द्रिय स्थावरकाय साग-सब्जीके त्यागका जो घात करना पड़ता है, उनके सिवायअन्य विधान नहीं किया गया है-अर्थात् अणुव्रत धारण एकेन्द्रिय जीवोंके घात करनेसे तो बचें,अर्थात् बिना करनेवालोंके वास्ते भी आचार्योने साग-सब्जीके जरूरतके व्यर्थ एकेन्द्रिय जीवोंका भी घात न करें।' त्यागको उनके परिणामोंके योग्य नहीं समझा है। यथा इस ही कारण उनको तो खुले शब्दोंमें जरूरत के
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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