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________________ ५२४ अनेकान्त [प्राषाढ़, वोर-निर्वास्सं० २६६५ = = भट्टारकी जमानेमें अचार (संधाना) और सप्त उनके परिणाम तो साग-सब्जीके त्यागके योग्य व्यसनोंका त्याग भी इस पहली प्रतिमाके लिये हो ही नहीं सकते हैं । उनको तो सबसे पहले यह जरूरी ठहरा दिया गया है । आगे चलकर ही जरूरत है कि वे जैनधर्मके सातों तत्वोंके आशाधरजी जैसे पंडितोंने तो अपनी लेखनी द्वारा स्वरूपको समझ, मिथ्यात्त्रको त्याग, सम्यग्दर्शन पहली प्रतिमाधारी अविरत सम्यग्दृष्टिको त्याग ग्रहणकर सच्चे श्राक्क बनें फिर अपने परिणामांम नियमोंमें ऐसा जकड़ा है कि जिससे घबराकर उन्नति करते हुए दया भावको दृढ़ करते हुए जैनी लोग अब तो पहली प्रतिमाका नाम शाबोंकी आज्ञानुसार त्याग करते हुए आगे आगे सुनकर काँपने लग जाते हैं और कह उठते हैं कि बढ़ने और आत्मकल्याण करनेकी कोशिश करें; अजी सम्यग्दर्शनका घर तो बहुत दूर है, वह जैनधर्मके स्वरूपको समझने और अपने श्रद्धान: आजकल किससे ग्रहण किया जा सकता है, और को ठीक करनेसे पहले ही जैनशास्त्रोंके बताये हुए कौन प्रतिमाधारी बन सकता है ? सिलसिलेके विरुद्ध चलकर और वृथा ढौंग बना __ इतना होनेपर भी स्थावरकाय एकेन्द्रिय वनः कर जैनधर्मको बदनाम न करें। रूढ़ियोंके गुलाम स्पति अर्थात् सागसब्जीके त्यागका विधान पहली बन धर्मको बदनाम करनेसे तो वे पापका ही प्रतिमाधारी श्रावकके वास्ते किसी भी शास्त्र में नहीं बंध करते हैं और अपना संसार बिगाड़ते हैं। किया गया है । इस कारण यह बात तो बिल्कुल ही स्पष्ट है कि पहली प्रतिमाधारी दार्शनिक श्रावक वा (२) अहिंसाणुव्रत दूसरे शब्दोंमें चौथे गुणस्थानवर्ती अविरत सम्य- दूसरी प्रतिमाधारीके पाँच अणुव्रतोंमें ग्दृष्टिके वास्ते किसी भी शास्त्रमें वनस्पतिकायिक अहिंसाणुव्रतका कथन जैनशास्त्रोंमें इस प्रकार एकेन्द्रिय जीवोंकी हिंसासे बचनेके वास्ते साग- किया हैसब्जीके त्यागका विधान नहीं है। कारण यह कि (१) चारित्रपाहुड़में अहिंसाणुव्रतीके लिये इस प्रतिमावालेके परिणाम ऐसे नहीं होते हैं जो सिर्फ इतना ही बतलाया है कि वह मोटे रूपसे वह एकेन्द्रिय जीवोंकी हिंसासे बच सके। पहली सजीवोंके घातका त्याग करे । यथाप्रतिमावाला तो क्या, इससे भी ऊपर चढकर थले तसकायवहे थले मोसे प्रदत्यने य । जब वह अहिंसा अणुबतका धारी होता है, परिहारो परमहिला परिम्गहारंभपरिमाणं ॥२४॥ .. तब भी उसके परिणाम यहीं तक दयारूप होते हैं (२) रखकरंड श्रावकाचारमें मन वचन काय कि वह चलते फिरते त्रस जीवोंकी संकल्पी हिंसासे तथा कृत-कारितबनुमोदनासे त्रसजीवोंकी संकल्पी बच सके-एकेन्द्रिय स्थावर जीवोंकी हिंसासे नहीं, हिंसाके त्यागेको अहिंसाणुव्रत बताया है और जैसाकि आगे दिखाया जावेगा । तब जो लोग फिर मद्य मांस-मधुके त्यागसहित पाँच अणुव्रतोंपहली प्रतिमाधारी सम्यक्त्री भी नहीं हैं, यहाँ तक को व्रती श्रावकके पाठ मूल गुण वर्णन किया है। कि.जो सम्यक्त्वी होनेसे साफ इकार करते हैं, यथा--
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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