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________________ वर्ष २, किरण] हरी साग-सब्जीका त्याग ५२७ रहै। यथा-- एक बार भोगनेमें भावे यह उपभोग है, जैसे खाना असहतिपरिहरणार्य नौ पिशितं प्रमावपरिहतये। पीना सुगन्ध और मालादिक; और जो बार बार मयं च वर्जनीयं जिनपरणी शरणामपापात अल्पफसवहविधाताम्मूखकमाद्रादि शुजवेरादि। भोगनेमें आवे वह परिभोग है, जैसे धोती चादर नवनीततिम्बकुसुमं कैसकमित्येवमयहम् ॥ भूषण बिस्तर श्रासन मकान गाड़ी सवारी आदि; पदनिष्टं तद्वतयेचमानुपसेव्यमेदापि जयात्। । इन दोनोंका परिमाण करना । यथाअभिसन्धिता विरतिविषयायोग्यावतं भवति ॥६॥ - उपेत्वात्मसात्कृत्व भुज्यते अनुभूयत इत्युपभोगः । भोजनबाहन शयनस्नानपवित्रागरागकुसुमेषु । अरामपालगन्धमाल्वादिः । सानुका परित्यज्य पुनरपि ताम्बूलवसनभूषसमन्मथसंगीतगीतेषु ॥२७॥ भुज्यते इति परिभोग इसुनते । भाचादवमावरबाप्रचदिवा रजनी वा पोमासस्तथरवनंवा। खंकारशयनासनगृहपानवाहनादिः उपभोगब परिभोगमा इति कानपरिच्छित्या प्रत्याख्यानं भवेनियमः॥ उपभोगपरिभोगी उपभोगपरिभोगयोः परिमाणं उप (२) सर्वार्थसिद्धि में वर्णन है कि खाना, पीना, भोगपरिभोगपरिमाणं । सुगन्ध, फूलमाला आदि उपभोग हैं। वस्त्र, धोती, (४) श्लोकवार्तिकमें बतलाया है कि 'भोगोपचादर, भूषण, सेज, बैठक, मकान, गाड़ी आदि भोग पाँच प्रकारका है-१ सघात २ प्रमाद ३ परिभोग हैं, इन दोनोंका परिमाण करना भोगोप- बहुबध, ४ अनिष्ट, ५ अनुपसेव्य । इनमेंसे मधु भोगपरिमाण त है। सघातसे बचनेवालेको और मांस त्रस घातसे पैदा होते हैं, उनसे सदाके मधु, मांस, मदिराका सदाके लिये त्याग करना लिये विरक्त रहना विशुद्धिका कारण है। शराबसे चाहिये, केवड़ा, अर्जुनके फूल और अदरक, मूली प्रमाद होता है, उसका भी त्याग ज़रूरी है। प्रमाद आदि जो अनन्तकाय हैं वे भी त्यागने योग्य हैं। से सब ही व्रतोंका विलोप होता है। केतकी, अर्जुन रथ, गाड़ी, सवारी, भूषण, भादिमें इतना जरूरी है आदिके फूलोंकी माला जन्तुसहित होती है, अब और इतना गैर जरूरी ऐसा ठहराकर गैर जरूरी- रक, मूली और गीली हल्दी भादि अनन्तकाय और का त्याग करना, कालके नियमसे अर्थात् कालकी नीमके फूल आदि उपदंशक, जिनपर छोटे छोटे मर्यादा करके अथवा जन्म भरके वास्ते, जैसी भुनगे आकर बैठ जाते हैं, इनसे बहुबध होता है, शक्ति हो।' इस वर्णनके मूल वाक्य इस प्रकार है- इस वास्ते इनसे भी सदा विरक्त रहना विशुद्धिका “उपमोगोशनमानगन्धमाल्यादिः परिमोगमाचा- कारण हैं। गाड़ी, सवारी मादि जो जिसके लिये वनप्रावरणबारायनासनगृहपानवाहनादिर तयोः परि- गैर जरूरी हों उनका भी त्याग उमर भरके लिये माणमुपभोगपरिभोगपरिमाणम् । मधु मांसं मना सवा कर देना चाहिये । छपे हुए वन मादि अनुपसेव्य परिहर्तव्यं सघातानिवृत्तचेतसा केवलपर्युगपुष्पादीनि । है, असभ्व ही उनको काममें लाते हैं, वे प्रिय मालूम शुजवेरमूलकादीनि बहुजन्तुबोनिस्थानान्यवन्त काययपदेशाहाणि परिहर्तव्यानि बहुपाताल्पासात्वात् । पान- हातामा उनको सदाक लिय त्यागना चाहय । पकाबाहनामरवाविष्वेतावदेवेमतोमदनिष्टमित्पनिहाधिव- "भोगपरिभोगसंषानं पंचविषं ब्रसबावामारतनं कर्तव्यं काबनियमेन पावजी वा पाकि मानिशानुपसेन्यविषयमेदार ! नत्र म मांस (३) तत्वार्थराजवार्तिकमें भी लिखा है कि 'जो पातवं तदिवं सर्वदा विरम विद्यदिवं, मचं प्रसाद
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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