SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 584
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५२८ अनेकान्त ड, वीर-निर्वाण सं०२४६५ - निमित्तं तद्विषयं च विरम संविधेयमन्यथा यदुपसेवन- मर्यादासे त्याग करेकृतः प्रमादात्सकसवतविजोपप्रसंगः । केतक्यर्जुन भोगोपभोगमूला विरताविरतस्य मान्यतो हिंसा । पुष्पादिमाल्यं जन्तुप्रायं शंगवेरमूलका हरिद्वानिम्ब अधिगम्य वस्तुतवं स्वशक्तिमपि तावपि स्याज्यो॥१६॥ कुसुमादिकमुपदंशकमनन्तकायव्यपदेशं च बहुवधं तद्वि- एकमपि प्रजिघांसु निहन्त्वनन्ताम्यतस्ततोऽवश्यम् । षयं विरमणं नित्यं श्रेयः, श्रावकत्वविशुद्धिहेतुत्वात् । करणीयमशेषाणां परिहरणमनन्तकायानाम् ॥१६२॥ यानवाहनादि ययस्यानिटं तद्विषयं परिभोगविरमयं नवनीतं च स्याज्यं योनिस्थानं प्रभूतजीवानाम् । यावजीवं विधेयं । चित्रवनायनुपसेव्यमसत्याशिष्टसेव्य- यद्वापि पिरशुद्धौ विरुद्धमभिधीयते किंचित् ॥१६३॥ त्वात्, तदिष्टमपि परित्याज्यं शश्वदेव । ततोऽन्यत्र यथा- (७) अमितगति-श्रावकाचारका विधान है कि शक्ति विभवानुरूपं नियतदेशकालतया भोक्तव्यम् ।" 'अपनी शक्तिके अनुसार भोगोपभोगकी मर्याद (५) स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षामें लिखा है कि करना भोगोपभोगपरिमाण नामका शिक्षाबत है, जो अपनी सम्पत्तिके अनसार भोजन, ताम्बल, ताम्बूल, गंध, लेपन, स्नान, भोजन, भोग हैं, अलंवस्त्र आदिकका परिमाण करता है उसके भोगोप . कार, खी, शय्या आसन, वस्त्र, वाहन आदि उपभोग हैंभोगपरिमाणवत है, जो अपने पासकी वस्तुको भोगोपभोगसंख्या विधीयते येन शक्तितो भक्त्या । त्यागता है उसकी सुरेन्द्र भी प्रशंसा करते हैं, जो भोगोपभोगसंख्या शिक्षावतमुच्यते तस्य ॥१२॥ मनके लड़के तौर ही छोड़ता है उसका फल अल्प तांबूलगंधओपनमन्जनभोजनपुरोगमो भोगः । होता है। यथा उपभोगो भूषास्त्रीशयनासनक्सवाहनायः ॥१३॥ (क) वसुनन्दि श्रावकाचारमें लिखा है कि जाणित्ता सम्पत्ती भोयणतंबोलवत्थमाईणं । शरीरका लेप, ताम्बूल, सुगंध और पुष्पादिका जं परिमाणं कीरदि मोउवभोयं वयं तस्स ॥३०॥ जो परिहरेह संतं तस्स वर्ष थुम्वदे सुरिन्देहि। परिमाण करना भोगविरति पहला शिक्षाबत है, जो मालइव भक्खदि तस्स वयं अप्पसिहवरं ॥३५॥ शक्तिके अनुसार स्त्री, वस्त्र, आभरण आदिका (६) 'पुरुषार्थसिद्धय पाय' में निम्न वाक्यों परिमाण करना उपभोगविरति नामका दूसरा द्वारा यह प्रतिपादन कियाहै कि देशवतीको भोगो- शिक्षाबत है। पभोगसे ही हिंसा होती है, इस कारण वस्तु जं परिमाणं कीरइ मंडणतंबोलगंधपुप्फाणं । तं भोपविरह भणियं परमं सिक्खवायं सुत्ते ॥२१६॥ । स्वभावको जानकर अपनी शक्तिके अनुसार इनका सगसत्तीए महिलावत्याहरथा ण जंतु परिमाणं ।। भी त्याग करना चाहिये । अनन्त कायमें एकके तं परिभोपशिबुत्ती विदिवं सिक्खावयं जाये ॥१७॥ मारनेसे अनंत जीवोंका घात होता है, इस कारण . इस प्रकार इस भोगोपभोगपरिमाण व्रतमें सब ही अनन्तकाय त्यागने योग्य हैं। नोनी घी इन्द्रियोंके विषयोंको कम करनेके वास्ते वस्त्र अलंबहुत जीवोंकी खान है वह भी त्यागना चाहिये, कारादिअनेक वस्तुओंके त्यागके साथ अमन्तकाय अन्य भी जो आहारकी शुद्धि में विरुद्ध हैं वे भी साधारण बनस्पति अर्थात् कंदमूलके खानेके त्यागत्यागने चाहिये, बुद्धिमानोंको अपनी शक्तिके अनु- का भी विधान किया गया है, परन्तु प्रत्येक वनसार विरुद्ध भोग भी त्यागने चाहिये, जिनका स्पति.अर्थात् जिस वनस्पतिमें एक ही जीव होता है सदाके लिये त्याग न हो सके उनका रात दिनकी उसके त्यागका नहीं। (अगली किरणमें समाप्त
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy